अपने ही “मासूम” की बलि….

अगर आज ऐसा होता है तो इसका मतलब यह है कि आज भी हम सैकड़ो साल पीछे की जिंदगी जी रहे हैं. जहां अपने अंधविश्वास में आकर बलि चढ़ा दी जाती थी, अपने बच्चों को या किसी मासूम को. बलि चढ़ाना तो अंधविश्वास की पराकाष्ठा ही है.

छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले में शख्स ने अपने चार वर्षीय बेटे की बेरहमी से गला रेंतकर हत्या कर दी. घटना की वजह अंधविश्वास बताया गया है. शख्स की मानसिक स्थिति कुछ दिनों से ठीक नहीं थी. एक रात उसने परिवारजनों से कहा – “सुनो सुनो! मै किसी की बलि दे दूंगा.”

उसकी बात पर किसी ने तवज्जो नहीं दिया लगा कि यह मानसिक सन्निपात में कुछ का कुछ बोल रहा है.
एक रात उसने चाकू से एक मुर्गे को काटा फिर अपने मासूम बेटे का गला काट दिया. यह उद्वेलित करने वाला मामला शंकरगढ़ थानाक्षेत्र का है. हमारे संवाददाता को पुलिस ने बताया -शंकरगढ़ थानाक्षेत्र अंतर्गत ग्राम महुआडीह निवासी कमलेश नगेशिया (26 वर्ष) दो दिनों से पागलों की तरह हरकत कर रहा था. उसने परिवारजनों के बीच कहा – उसके कानों में अजीब सी आवाज सुनाई दे रही है, उसे किसी की बलि चढ़ाने के लिए कोई बोल रहा है.

एक दिन वह कमलेश चाकू लेकर घूम रहा था एवं उसने परिवारजनों से कहा कि आज वह किसी की बलि लेगा. उसकी मानसिक स्थिति को देखते हुए परिवारजनों ने उसे नजरअंदाज कर दिया था . मगर रात को खाना खाने के बाद कमलेश नगेशिया की पत्नी अपने दोनों बच्चों को लेकर कमरे में सोने चली गई. कमलेश के भाईयों के परिवार बगल के घर में रहते हैं, वे भी रात को सोने चले गए.

देर रात कमलेश ने घर के आंगन में एक मुर्गे का गला काट दिया. फिर कमरे में जाकर वह अपने बड़े बेटे अविनाश (4) को उठाकर आंगन में ले आया. उसने बेरहमी से अपने बेटे अविनाश का चाकू से गला काट दिया. अविनाश की मौके पर ही मौत हो गई. सुबह करीब चार बजे जब कमलेश की पत्नी की नींद खुली तो अविनाश बगल में नहीं मिला. उसने कमलेश से बेटे अविनाश के बारे में पूछा तो उसने पत्नी को बताया कि उसने अविनाश की बलि चढ़ा दी है.

घटना की जानकारी मिलने पर घर में कोहराम मच गया. सूचना पर शंकरगढ़ थाना प्रभारी जितेंद्र सोनी के नेतृत्व में पुलिस टीम मौके पर पहुंची. पुलिस ने आरोपी को हिरासत में ले लिया . बच्चे के शव को पंचनामा पश्चात् पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया . थाना प्रभारी जितेंद्र सोनी ने बताया – परिजनों से पूछताछ कर उनका बयान दर्ज किया गया है. आरोपी दो दिनों से ही अजीब हरकत कर रहा था. पहले वह ठीक था. एक शाम परिवारजनों के सामने उसने किसी की बलि चढ़ाने की बात कही थी, लेकिन परिवारजनों ने उसे गंभीरता से नहीं लिया. मामले में पुलिस ने धारा 302, 201 का अपराध दर्ज किया है. मामले की जांच की जा रही है.

इस घटनाक्रम में परिजनों ने समझदारी से काम लिया होता और इसकी शिकायत पहले ही पुलिस में की होती या फिर उस व्यक्ति को मानसिक चिकित्सालय भेज दिया गया होता तो मासूम बच्चे की जिंदगी बच सकती थी. मासूम की बाली के इस मामले में सबसे अधिक दोषी मां का वह चेहरा भी है जो दोनों बच्चों को लेकर कमरे में सो रही होती है और पति एक बच्चे को उठाकर ले जाता है.

एक पुलिस अधिकारी के मुताबिक गांव देहात में इस तरह की घटनाएं घटित हो जाती है, इसका दोषी जहां परिवार होता है वही आसपास के रहवासी भी दोषी हैं मगर पुलिस सिर्फ एक हत्यारे पर कार्रवाई करके मामले को बंद कर देती है.

कुल मिलाकर के ऐसे घटनाक्रम सिर्फ एक खबर के रूप में समाज के सामने आते है और फिर समाज सुधारक भूल जाते है कुल मिला करके आगे पाठ पीछे सपाट की स्थिति .यह एक बड़ी ही सोचनीय स्थिति है. इस दिशा में अब सरकार के पीछे-पीछे दौड़ने या यह सोचने से की सरकार कुछ करेगी यह अपेक्षा छोड़ कर हमें स्वयं आगे आना होगा ताकि फिर आगे कोई ऐसी घटना घटित ना हो.

अनसोशल बनाता सोशल मीडिया

दुनिया की आबादी 8.02 अरब के पार हो चुकी है. इन में से 5.3 अरब इंटरनैट यूजर्स हैं. सोशल मीडिया यूजर्स की संख्या सब से ज्यादा चीन में है. लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2024 में भारत में 1 अरब स्मार्टफोन यूजर्स होंगे. पूरी दुनिया में सोशल मीडिया पर सब से ज्यादा समय इंडिया वाले बिताते हैं. अपनी भूख, प्यास, नींद और रिश्तों को दरकिनार कर भारतीय लोग इस बाबत अमेरिका और चीन को पीछे छोड़ चुके हैं.

दुनिया में इंडियंस के सब से ज्यादा सोशल मीडिया अकाउंट्स

रिसर्च फर्म ‘रेडसियर’ के मुताबिक, इंडियन यूजर्स हर दिन कम से कम 7.3 घंटे अपने स्मार्टफोन पर बिताते हैं. इन में से अधिकतर टाइम वे सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जबकि अमेरिकन यूजर्स का औसतन स्क्रीन टाइम 7.1 घंटे है और चीनी यूजर्स 5.3 घंटे सोशल मीडिया पर बिताते हैं. अमेरिका और ब्रिटेन में एक इंसान के औसतन 7 सोशल मीडिया अकाउंट हैं, जबकि एक भारतीय कम से कम 11 सोशल मीडिया अकाउंट्स पर मौजूद है.

रिसर्च जर्नल पबमेड के मुताबिक, करीब 70 फीसदी लोग बिस्तर पर सोने जाने के बाद भी मोबाइल पर नजरें गड़ाए रहते हैं और सोशल मीडिया पर व्यस्त रहते हैं.

एक स्टडी के अनुसार, एक अमेरिकन व्यक्ति औसतन हर साढ़े 6 मिनट पर अपना फोन चैक करता है और पूरे दिन में तकरीबन डेढ़ 150 बार. वहीं भारतीय दिन में 4.9 घंटे यानी तकरीबन 5 घंटे अपने फोन पर बिताते हैं. यानी, महीने के डेढ़ सौ घंटे और साल के 1,800 घंटे.

जर्नल पबमेड की रिपोर्ट के मुताबिक, सोशल मीडिया पर ज्यादा ऐक्टिव रहने वाले लोगों में नींद की कमी रहती है और जिस का असर उन के मैंटल हैल्थ पर पड़ता है. व्यक्ति में डिप्रैशन और भूलने की बीमारी देखी जा सकती है. साइबर बुलिंग, अफवाहें, नैगेटिव कमैंट्स और गंदी गालियां यूजर्स को डिप्रैशन में ला देती हैं. एक सर्वे के मुताबिक, करीब 60 फीसदी यूजर्स औनलाइन एब्यूज के शिकार होते हैं.

मोबाइल के चलते बिगड़ रहे हैं रिश्ते

साइकैट्रिस्ट डा. राजीव मेहता का कहना है कि सोशल साइट्स पर बिजी रहने वाले लोगों की सामाजिक जिंदगी खत्म सी होने लगती है. आप घर वालों और दोस्तों से बात नहीं करते. आपसी रिश्ते खराब होने लगते हैं. इमोशनल जुड़ाव नहीं रहता. रिश्तों में शेयरिंग, केयरिंग नहीं रहती. व्यक्ति का दायरा सीमित हो जाता है और मन में कुंठाएं घर कर जाती हैं. यहां तक कि नए कपल भी सोशल साइट्स पर इतने खोए रहते हैं कि उन की पर्सनल लाइफ डिस्टर्ब हो जाती है जो एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर की वजह बनती है.

साहिल और प्रियंका की शादी अभी पिछले साल ही हुई थी. दोनों की अरेंज मैरिज थी.  साहिल को सोशल मीडिया की जबरदस्त लत थी. औफिस से आ कर भी वह सोशल मीडिया पर एक्टिव रहता, जिस से प्रियंका को बहुत चिढ़ होती. उस का कहना था कि पूरे दिन वह घर पर अकेली होती है. कोई बात करने वाला भी नहीं होता उस के साथ. तो कम से कम रात में तो वह उसे थोड़ा समय दे. लेकिन पत्नी की बात अनसुनी कर वह मोबाइल पर रील देखदेख कर हंसता रहता. उस के कानों में अपनी पत्नी की बात घुसती ही नहीं थी.

एक दिन गुस्से में प्रियंका ने भी कह दिया कि जब मोबाइल से इतना ही प्यार है तो उस से शादी क्यों की? उस पर साहिल ने भी कह दिया, ‘हां है, तो क्या कर लोगी?’ और इसी बात पर दोनों में ?ागड़े शुरू हो गए. आज प्रियंका अपने मायके में है और उन के बीच तलाक का मामला चल रहा है.

बात पार्टनर से न कर के, लोग फोन पर नजरें टिकाए होते हैं. पार्टनर कुछ बोल रहा है लेकिन आप फोन पर गेम खेलने और रील देखने में व्यस्त हैं. सामने बैठे व्यक्ति से कोई कनैक्शन नहीं और मीलों दूर बैठे किसी इंसान से फोन पर चैंटिंग चल रही है.

डा. रौबर्ट्स लिखते हैं कि उन की स्टडी में शामिल 92 फीसदी लोगों ने कहा कि पार्टनर की हर वक्त मोबाइल फोन चैक करने की आदत उन के रिश्तों को खराब कर रही है. स्टडी में शामिल लगभग सभी लोगों ने कहा कि पार्टनर का फोन हर वक्त उन के हाथों में ही होता है.

रिसर्चगेट की एक और स्टडी कहती है कि मोबाइल फोन एडिक्शन के कारण कपल के बीच तनाव और दूरियां पैदा हो रही हैं. इस स्टडी में शामिल 70 फीसदी लोगों का कहना था कि मोबाइल फोन के कारण वे अपने पार्टनर से साथ पूरी तरह से कनैक्ट नहीं कर पाते क्योंकि वह 100 फीसदी कभी मौजूद ही नहीं होता.

सिर्फ बड़े ही नहीं, बल्कि हम युवा भी सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहते हैं जिस का असर हमारे रिश्ते पर तो पड़ता ही है, हमारे मैंटल हैल्थ पर भी यह बुरा असर डालता है.

मेरी एक दोस्त की 19 साल की बहन यामिनी का सपना डाक्टर बनने का था. उस के पेरैंट्स ने उस का एडमिशन एक अच्छे मैडिकल कालेज में करवाया भी. मगर उस का मन अब पढ़ाई में बिलकुल नहीं लगता. वह देररात तक मोबाइल पर लगी रहती है. अपनी फोटो क्लिक कर सोशल मीडिया पर अपलोड करती है. जब उस के पेरैंट्स उस से कुछ कहते हैं या सम?ाते हैं तो वह उन से बहस पर उतारू हो जाती है और ?ागड़ने लगती है. अपनी किताबें उठा कर फेंकने लगती है कि उसे कोई डाक्टर नहीं बनना. नहीं चाहिए उसे कुछ.

कई बार उस ने खुद को भी नुकसान पहुंचाने की कोशिश की है जिस के कारण उस के पेरैंट्स डरेडरे रहते हैं. मोबाइल पर ज्यादा ऐक्टिव रहने के कारण वह चिड़चिड़ी हो गई है. उस का बिहेवियर खराब हो गया है. वह घर में किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती.

जब हमें अपेक्षा के अनुरूप अपने पोस्ट किए फोटो पर लाइक्स और कमैंट्स नहीं मिलते हैं तब हम अवसाद में चले जाते हैं. पढ़ाई में अरुचि होने लगती है. हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. सोशल मीडिया पर ऐप्स के जरिए अपनी तसवीरें फिल्टर कर लोग यह बताने की कोशिश करते हैं कि वे अपनी जिंदगी में बहुत खुशहाल हैं. लेकिन जब उन के उसी फोटो पर लाइक्स और कमैंट्स नहीं आते तो वे तनाव और जलन के शिकार हो कर मैंटल हैल्थ खो बैठते हैं.

साइकैट्रिस्ट का कहना है कि फिल्टर्स फन के लिए तो ठीक है लेकिन जब इन का इस्तेमाल ?ाठे दिखावे के लिए होने लगे तो यह समस्या की वजह बन जाता है. फोटो, वीडियो और पोस्ट पर आने वाले कमैंट्स, लाइक्स और शेयर यूजर के लिए रिवार्ड पौइंट्स की तरह काम करते हैं. इस से लोगों को अजीब सी खुशी मिलती है जिस से ब्रेन का रिवार्ड सैंटर एक्टिवेट हो जाता है और यही कारण है कि यूजर सोशल साइट्स पर ज्यादा समय बिताते हैं. उन्हें लगता है कि उन की पोस्ट लोगों को पसंद आएगी और खूब वायरल होगी. लेकिन जब ऐसा नहीं होता तब वे तनाव और डिप्रैशन के शिकार होने लगते हैं.

देररात तक जागने से पैदा हो रही है समस्या

विशेषज्ञों का कहना है कि मस्तिष्क में रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम होता है जिस में कई तरह के न्यूरोट्रांसमीटर निकलते हैं जो सरकाडियम रिद्म को संतुलित करते हैं. देररात तक जागने से ये असुंलित हो जाते हैं जो हमारी दिनचर्या को प्रभावित करते हैं.

स्टैनफोर्ड मैडिकल स्कूल के न्यूरोसाइंस डिपार्टमैंट की एक रिसर्च के मुताबिक, मोबाइल फोन हमारे मस्तिष्क के डोपामाइन सैंटर्स को एक्टिव करता है. यही कारण है कि हम कोई जरूरी काम न होने पर भी हर थोड़ी देर में अपना फोन उठा लेते हैं. अगर फोन पास न हो तो हमें घबराहट और बेचैनी होने लगती है.

नशे की तरह सोशल मीडिया

सोशल मीडिया की लत लोगों के सिर चढ़ कर बोल रही है. एक फोन हाथ में न हो तो हम बेचैन हो उठते हैं. सोशल मीडिया हमारे जीवन में ज्यादा ही दखल देने लगा है. आज लोग वर्चुअल दुनिया में इतने ज्यादा खो गए हैं कि अपनों से और दुनियादारी से दूर हो गए हैं, लेकिन बता दें कि वक्त पड़ने पर यह वर्चुअल दुनिया आप का साथ नहीं देने वाली.

सोशल मीडिया एक नशे की तरह बन गया है जिस के बिना लोगों का दिन शुरू नहीं होता. लेकिन यह शौक स्वास्थ्य के लिए खतरा बनता जा रहा है जो न केवल लोगों के शारीरिक, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचा रहा है. रिसर्च के अनुसार, वीडियो गेम खेलने के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले हैडफोन, ईयरबड और म्यूजिक वैन्यू का प्रभाव कानों में पड़ता है जो लोगों की सुनने की क्षमता को कम कर रहा है.

सोशल मीडिया का नैगेटिव असर इतना खतरनाक हो जाता है कि लोग जान देने के बारे में सोचने लगते हैं. सोशल मीडिया के सुसाइड कनैक्शन पर जब जर्नल औफ यूथ एंड एडोलसैंस ने रिसर्च की तो डरावने वाले फैक्ट सामने आए. इस में पता चला कि सोशल मीडिया पर कोई जितना ज्यादा वक्त बिताता है, उस के खुद को नुकसान पहुंचाने का खतरा उतना ही बढ़ जाता है.

सोशल मीडिया के दुष्परिणाम

-इस की लत से छुटकारा मिलना मुश्किल होता है.

-इस से उदासी बढ़ती है और सेहत इग्नोर होती है.

-खुद में हीनभावना पैदा होती है.

-लोगों की हैल्थ पर बुरा असर पड़ता है.

-रिश्तों में दूरियां पैदा होती हैं.

यूनिवर्सिटी औफ पेन्सिलवेनिया की एक स्टडी के मुताबिक, लोग अपना अकेलापन दूर करने के लिए सोशल मीडिया की तरफ भागते हैं. लेकिन वे जितना ज्यादा वक्त सोशल मीडिया पर बिताते हैं, उन का अकेलापन उतना ही बढ़ता जाता है. स्टडी में यह भी पाया गया कि जैसे ही लोग सोशल मीडिया यूज करना कम कर देते हैं, उन का अकेलापन कम होने लगता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ ) के एक हालिया अध्ययन में सामने आया है कि लंबे समय तक तेज शोर में रहने से सुनने की क्षमता इस कदर प्रभावित हो रही है कि उस से उबरने की संभावना भी घट रही है. इस के साथ ही, इन वीडियो गेमर्स में टिनिटस की समस्या भी देखी गई है. टिनिटस से पीडि़तों को अकसर कान में रहरह कर घंटी, सीटी और सनसनाहट जैसी आवाजें सुनाई पड़ती हैं.

ब्रिटिश मैडिकल जर्नल (बीएमजे) पब्लिक हैल्थ में प्रकाशित रिसर्च के मुताबिक, सोशल मीडिया और वीडियो गेमर्स अकसर कई घंटों तक तेज आवाज में मोबाइल देखते हैं. इस से ध्वनि का स्तर कानों के लिए निर्धारित सुरक्षित सीमा के करीब या उस से अधिक होता है.

शोधकर्ताओं ने उत्तर अमेरिका, यूरोप, दक्षिणपूर्व एशिया, आस्ट्रेलिया और एशिया के 9 देशों में 53,833 लोगों पर किए गए

14 अध्ययनों की समीक्षा की है. रिसर्च में पाया गया कि मोबाइल में ध्वनि का औसत स्तर 43.2 डेसिबल (डीबी) से 80-89 डीबी के बीच था. गेमिंग की अवधि घटा कर जोखिम कम किया जा सकता है.

शोध के मुताबिक, दुनियाभर में वीडियो गेम्स आज खाली समय को भरने का बेहद लोकप्रिय साधन बन गए हैं. कहना गलत न होगा कि तकनीकी का इस्तेमाल आज पढ़ाई के लिए कम और मनोरंजन के लिए ज्यादा होने लगा है. एक अनुमान के अनुसार, 2022 के दौरान दुनियाभर में इन गेमर्स का आंकड़ा 300 करोड़ से ज्यादा था.

वयस्क के लिए कितनी ध्वनि सीमा निर्धारित

रिपोर्ट के मुताबिक, सप्ताह में किसी वयस्क को 86 डेसिबल (डीबी ) शोर में केवल 10 घंटे, 90 डेसिबल में 4 घंटे, 92 डेसिबल में ढाई घंटे, 95 डेसिबल में एक घंटा और 98 डेसिबल में 38 मिनट से ज्यादा नहीं रहना चाहिए. यदि वे इस से ज्यादा समय इस शोर में रहते हैं तो उन के सुनने की क्षमता प्रभावित होने की ज्यादा आशंका है.

युवा ज्यादा खेलते हैं वीडियो गेम

तीन अलगअलग अध्ययनों में देखा गया है कि लड़कियों की तुलना में लड़के ज्यादा वीडियो गेम खेलते हैं. एक अध्ययन में सामने आया है कि अमेरिका में एक करोड़ से ज्यादा लोग वीडियो या कंप्यूटर गेम खेलते समय तेज या बहुत तेज शोर के संपर्क में आ सकते हैं.

स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं, 60 वर्ष से अधिक उम्र के लगभग 30 फीसदी लोगों में सुनने की क्षमता कम होने लगती है. हालांकि, जिस प्रकार से कम उम्र के लोगों में भी इस का जोखिम देखा जा रहा है वह काफी चिंताजनक है.

कोरोनाकाल में जब लोग एकदूसरे से दूर थे, अकेले थे, तब यही एक फोन ही सहारा था मन बहलाने के लिए और एकदूसरे को आपस में जोड़े रखने के लिए. बच्चे भी औनलाइन पढ़ाई करते थे, आज भी करते हैं. लेकिन अब लोग सोशल मीडिया में आकंठ तक डूब चुके हैं.

कहते हैं, सुविधाएं अपने साथ समस्याएं भी ले कर आती हैं. आज मोबाइल और इंटरनैट की वजह से इंसान की जिंदगी आसान तो हुई है लेकिन दूसरी तरफ बड़ी समस्याएं भी पैदा हुई हैं. कुछ समस्याएं आर्थिक नुकसान पहुंचा रही हैं तो कई जानलेवा बन रही हैं. इंटरनैट के बढ़ते प्रसार के साथ साइबर क्राइम में तेजी से इजाफा हुआ है. इस की चपेट में पुरुष महिला, बच्चे, युवा सब हैं. भारत समेत समूचे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में डिजिटलाइजेशन जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसी तेजी से साइबर अपराध बढ़ने की भी आशंका है.

दूर बैठे अपराधी अलगअलग तरकीबों के जरिए लोगों को लूट रहे हैं. कई बार धोखे से तो कई बार सीनाजोरी करते हुए ब्लैकमेल कर के. सैक्सटोर्शन भी उन में से एक है. इस की वजह से बहुत लोगों ने अपनी जान दे दी.

पिछले दोतीन वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो अकेले मुंबई में सैक्सटोर्शन के केस में तेजी से उछाल आया है. साल 2021 में सैक्सटोर्शन के 54 केस दर्ज हुए थे, जिन में से 24 ऐसे थे जिन में पीडि़त से 10 लाख से ज्यादा पैसे वसूले गए थे. साल 2022 में सैक्सटोर्शन के कुल 77 केस दर्ज हुए थे. इन 77 मामलों में से 22 में पीडि़तों से आरोपियों ने 10 लाख से ज्यादा पैसे वसूले थे. 71 वर्षीय मुंबई के एक व्यापारी से सैक्सटोर्शन रैकेट चलाने वालों ने 51 लाख रुपए वसूले थे. इस तरह गैंग के लोग सोशल मीडिया के जरिए लोगों को टारगेट कर के अपना शिकार बनाते हैं.

पिछले सालभर में गुजरात में सैक्सटोर्शन के मामलों में शिकायतों की संख्या एक साल में ही 85 फीसदी तक देखी गई. देश के दूसरे हिस्सों में भी सैक्सटोर्शन के मामले आते रहे हैं.

कैसे फंसते हैं लोग

सैक्सटोर्शन रैकेट चलाने वाले गैंग में कई लोग एकसाथ मिल कर काम करते हैं. इन में महिलाएं और लड़कियां भी होती हैं. ये लोग सोशल मीडिया के जरिए अपना शिकार खोजते हैं. जो लोग हाईप्रोफाइल दिखते हैं, उन को गैंग की लड़कियां फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजती हैं.

इस के बाद धीरेधीरे वे उन से संपर्क बढ़ाती हैं. उस के बाद मोबाइल नंबर ले कर उन से बात करने लगती हैं. मौका देख कर व्हाट्सऐप कौल के जरिए अश्लील बातचीत भी करती हैं. इस तरह से सामने वाला

उस के जाल में फंस जाता है. दुख की बात तो यह है कि बच्चे और युवा भी इस

गंदे खेल का शिकार बन रहे हैं. इसलिए पेरैंट्स को चाहिए कि वे बच्चों को गाइड करें और खुद के स्क्रीन टाइम को भी नियंत्रित करें.

सैक्सटोर्शन 2 शब्दों से मिल कर बना है. ‘सैक्स’ और ‘एक्सटोर्शन’. यह एक साइबर क्राइम है, जिस का शिकार कोई भी बन सकता है. साइबर क्राइम से बचने के लिए सब से पहला मंत्र यही है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल कम से कम किया जाए और इसे इस्तेमाल करते समय सावधानी बरती जाए क्योंकि ‘सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी.’

सोशल मीडिया से कैसे बनाएं दूरी

डा. मैक्सवेल लिखते हैं कि इस लत को छोड़ना सिगरेट, शराब छोड़ने जितना चुनौतीपूर्ण काम है. इस से छुटकारा पाने के लिए सब से पहले जरूरी है लत से नजात पाने का इरादा और यह इरादा तब तक नहीं हो सकता जब तक हमें यह न सम?ा आ जाए कि यह लत भले ही हमारा थोड़ा मनोरंजन करती है पर लौंग टर्म में यह हमारी हैल्थ और रिलेशन, दोनों के लिए खतरनाक साबित हो सकती है.

एक्सपर्ट का कहना है कि सोशल मीडिया के बुरे असर से बचने के लिए सब से पहले अपनी प्राथमिकताएं तय करना जरूरी है. अकेलापन और डिप्रैशन से बचना है तो सोशल मीडिया का इस्तेमाल कम से कम करना होगा.

रोज 30 मिनट से कम इन ऐप्स को यूज करने से फोमो के साथ ही दूसरे बुरे असर से भी बच सकते हैं. गिल्फर्ड जर्नल की रिपोर्ट भी यही बताती है कि सोशल मीडिया से दूरी बना कर उदासी, डिप्रैशन और अकेलेपन से नजात पाई जा सकती है.

सोशल मीडिया पर एंटी ट्रांसजैंडर कंटैंट से मचा बवाल, किस की जिम्मेदारी

मीडिया में एलजीबीटीक्यू कम्युनिटी के राइट्स की वकालत करने वाली ग्रुप ‘ग्लाड’ ने अपनी रिपोर्ट में फेसबुक, इंस्टाग्राम और थ्रेड्स सहित मेटा के टौप सोशल प्लेटफौर्मों पर एंटी ट्रांसकंटैंट के बारे में बताया. यह रिपोर्ट जून 2023 से ले कर मार्च 2024 के बीच की है.

रिपोर्ट में बताया गया कि इन प्लेटफौर्म्स पर ट्रांस विरोधी चीजें डाली जाती हैं और मेटा पौलिसी के बावजूद प्लेटफौर्म इस पर कोई कार्यवाही नहीं करता. इस में एंटी ट्रांस स्लर, प्रोपगंडा, डीह्यूउमनाइजिंग स्टीरियोटाइप, लेबलिंग ट्रांस, सेक्सुअल प्रीडेटर्स जैसा कंटैंट देखने को मिला है. विज्ञापन वाली सरकार गूगल और मेटा में सोशल मीडिया विज्ञापनों में बढ़ोतरी देखी गई है.

गूगल विज्ञापन पारदर्शिता केंद्र के आंकड़ों के अनुसार, 1 जनवरी, 2024 से 19 मार्च, 2024 के बीच पौलिटिकल विज्ञापनों पर कुल 101.28 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. जिस में से अकेले भाजपा ने सोशल मीडिया कैम्पेन के लिए 31 करोड़ रुपए खर्च किए हैं. इस के अलावा मेटा एड लाइब्रेरी के अनुसार भाजपा ने पिछले 90 दिनों में 1198 ऐड के लिए 7 करोड़ के लगभग पैसा खर्च किए हैं. कोचिंग का धंधा जेईई की तैयारी के लिए फेमस कोचिंग इंस्टिट्यूट फिटजी अपने विज्ञापन के चलते विवाद में घिर गया है.

यह विवाद सोशल मीडिया पर खूब गरमाया है. दरअसल फिटजी ने एक विज्ञापन बनाया जिस में उस ने एक स्टूडैंट को पौइंट करते दिखाया कि अगर वह फिटजी से ही अपनी पढ़ाई जारी रखती बजाय किसी और इंस्टिट्यूट जाने के तो ज्यादा स्कोर करती. इस विज्ञापन के बाद सोशल मीडिया ने फिटजी को आड़े हाथों ले लिया. एलन मस्क पर मुकदमा सोशल मीडिया प्लेटफौर्म एक्स, जो पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था, के पूर्व सीईओ पराग अग्रवाल और एक्स के कई एक्स औफिशियल्स ने एलन मस्क के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया है.

मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसा दावा किया गया है कि यह मुकदमा नौकरी से निकाले जाने के बाद हर्जाने के तौर पर दिए जाने वाले वेतन को ले कर है. पराग अग्रवाल के अलावा एलन मस्क के खिलाफ मुकदमा करने वाले 4 टौप एक्स औफिशियल भी हैं. मुकदमा लगभग 12.8 करोड़ के भुगतान को ले कर है. इन्फ्लुएंसर्स की रेज बैटिंग हाल के वर्षों में, इंटरनैट वर्ल्ड से ‘रेज बैटिंग’ शब्द ज्यादा सुनाई देने लगा है. सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के लिए यह जल्दी फेमस होने का मीडियम बन गया है. रेज बैटिंग तब होती है जब कोई सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स जानबू?ा कर यूजर्स का ध्यान पाने के लिए ऐसे पोस्ट डालता है जिस से उसे नैगेटिव रैस्पौंस मिलें. यह काम इन्फ्लुएंसर्स खूब करते हैं वे क्रिंज वीडियो बनाते हैं.

यह टिकटौक, इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे प्लेटफौर्म्स में देखा जा रहा है. सोशल मीडिया लती टीनएजर्स 26 सितंबर से 23 अक्तूबर, 2023 तक किए गए प्यू रिसर्च के सर्वे के अनुसार लगभग तीनचौथाई टीनएजर्स तब ज्यादा खुश रहते हैं जब वे अपने फोन के बिना रहते हैं. इस दौरान वे खुद को शांत और खुश महसूस करते हैं. रिसर्च में यह भी पता चला है कि टीनएजर्स यह जानते हुए भी कि वे अपनी स्क्रीन टाइम के साथ कोम्प्रोमाइज करने को तैयार नहीं है.

मंहगी होती ‘लोकतंत्र’ की राह

चुनावी खर्च जिस तरह बेलगाम होते जा रहे हैं उस पर यह एक टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है –
” बेहतर होगा की चुनाव आयोग इन मामलों की स्वयं जांच करे. पता लगाए कि अवैध बरामदगी के पीछे कौन-सा प्रत्याशी या दल है और फिर उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई हो.इस तरह की सख्ती के बिना चुनावों में धनबल का दखल नहीं रूकेगा.

यह सही है कि चुनाव में धनबल का प्रयोग रोकने के लिए चुनाव आयोग की सतर्कता बढ़ी है, लेकिन यह सिर्फ धर-पकड़ तक सीमित है.ऐसे मामलों में सजा की दर बहुत कम है, क्योंकि चुनाव के बाद स्थानीय प्रशासन और पुलिस मामले को गंभीरता से नहीं लेते। अक्सर असली सरगना छुट भैय्यों को फंसा कर बच जाते हैं.

-बृजेश माथुर
सोशल मीडिया पर दरअसल , लोकतंत्र महा कुंभ कहलाने वाला लोकसभा चुनाव में आज जिस तरह चुनाव में करोड़ों रुपए प्रत्येक लोकसभा संसदीय क्षेत्र में खर्च हो रहे हैं उससे साफ हो जाता है कि आम आदमी या कोई सामान्य योग्य व्यक्ति संसद में पहुंचने के लिए सात जन्म लेगा तो भी नहीं पहुंच पाएगा.
लोकसभा चुनाव 2024 में माना जा रहा है कि खर्च के मामले में पिछले सारे रेकार्ड ध्वस्त हो जाएंगे और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाने वाले भारत राष्ट्र में चुनाव खर्च अपनी पर पराकाष्ठा में होंगे अर्थात भारत दुनिया की सबसे खर्चीली चुनावी व्यवस्था होगी.

चुनाव पर गंभीरता से नजर रखने वाले जानकारों के अनुसार इस बार लोकसभा चुनाव 2024 में अनुमानित खर्च के 1.35 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है.अगर बात की जाए लोकसभा चुनाव 2019 में खर्च की तो 60,000 करोड़ रुपये से दोगुने से भी अधिक है.

दरअसल, चुनाव को विहंगम दृष्टि से देखा जाए तो राजनीतिक दलों और संगठनों, उम्मीदवारों, सरकार और निर्वाचन आयोग सहित चुनावों से संबंधित प्रत्यक्ष या परोक्ष सभी खर्च शामिल हैं. चुनाव संबंधी खर्चों पर बीते चार दशक से नजर रख रहे गैर-लाभकारी संगठन के अध्यक्ष एन भास्कर राव के दावे के अनुसार लोकसभा चुनाव में अनुमानित खर्च के 1.35 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की उम्मीद है. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता की अत्यंत कमी का खुलासा हुआ है.चुनावी बांड के खुलासे से साफ हो गया है कि पार्टियों के पास खुलकर खर्च करने के लिए धन है. राजनीतिक दलों ने उस धन को खर्च करने के रास्ते तैयार कर लिए है.

जैसा कि हम जानते हैं देश में काले धन की बात की जाती है, भ्रष्टाचार की बात की जाती है. यह सब कुछ चुनाव के दरमियान देखा जा सकता है और चौक चौराहे पर इस पर चर्चा होने लगी है कि आखिर प्रमुख राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशी करोड़ों रुपए जो खर्च कर रहे हैं वह आता कहां से है मगर इस दिशा में न तो सरकार ध्यान दे रही है और न ही चुनाव आयोग या फिर उच्चतम न्यायालय या सरकार की कोई जांच एजेंसी.

जहां तक बात है भारतीय जनता पार्टी की इस चुनाव में सत्ता प्राप्त करने के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी वह सब कुछ कर रही है जो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. इसका आज की तारीख में आकलन नहीं लगाया जा सकता. हो सकता है आने वाले समय में इसका खुलासा हो पाए की भाजपा ने लोकसभा 2024 में कितना खर्च किया. माना जा रहा है चुनाव प्रचार में हो रहे खर्च के मामले में यह पार्टी देश के विपक्षी पार्टियों को बहुत पीछे छोड़ देगी.

एनजीओ के माध्यम से इस पर निगाह रखने वाले संगठन के पदाधिकारी के मुताबिक, उन्होंने प्रारंभिक व्यय अनुमान को 1.2 लाख करोड़ रुपए से संशोधित कर 1.35 लाख करोड़ रुपए कर दिया, जिसमें चुनावी बांड के खुलासे के बाद के आंकड़े और सभी चुनाव-संबंधित खचों का – हिसाब शामिल है. ‘एक अन्य संगठन ने हाल में भारत में राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता की अत्यंत कमी की ओर इशारा किया था. उन्होंने दावा किया – 2004-05 से 2022-23 तक, देश के छह प्रमुख राजनीतिक दलों को कुल 19,083 करोड़ रुपए का लगभग 60 फीसद योगदान अज्ञात स्रोतों से मिला, जिसमें चुनावी बाण्ड से प्राप्त धन भी शामिल था.

एक अन्य महत्वपूर्ण संगठन ने- ‘चुनाव पूर्व गतिविधियां पार्टियों और उम्मीदवारों के प्रचार खर्च
का अभिन्न अंग हैं, जिनमें राजनीतिक रैलियां, परिवहन, कार्यकर्ताओं की नियुक्ति और यहां तक कि नेताओं की विवादास्पद खरीद-फरोख्त भी शामिल है.’ उन्होंने कहा – चुनावों के प्रबंधन के लिए निर्वाचन आयोग का बजट कुल व्यय अनुमान का 10-15 फीसद होने की उम्मीद है.

इसी तरह विदेश में बैठे एक चुनाव पर निगाह रखने वाले सम्मानित संगठन के अनुसार-” भारत में 96.6 करोड़ मतदाताओं के साथ प्रति मतदाता खर्च लगभग 1,400 रुपए होने का अनुमान है. उसने कहा कि यह खर्च 2020 के अमेरिकी चुनाव के खर्च से ज्यादा है, जो 14.4 अरब डालर या लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपए था. एक विज्ञापन एजंसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमित वाधवा के मुताबिक -लोकसभा 2024 के इस चुनाव में डिजिटल प्रचार बहुत बहुत ज्यादा हो रहा है. उन्होंने कहा – राजनीतिक दल कारपोरेट ब्रांड की तरह काम कर रहे हैं और पेशेवर एजेंसियों की सेवाएं ले रहे हैं.”

इस तरह लोकसभा चुनाव जो आज हमारे देश में लड़ा जा रहा है उसमें राजनीतिक पार्टियों सत्ता प्राप्त करने के लिए सीमा से अधिक खर्च कर रही हैं यह सभी मान रहे हैं ऐसे में अगर हम नैतिकता की बात करें तो जब कोई पार्टी या प्रत्याशी करोड़ों रुपए खर्च करके चुनाव जीतते है तो स्पष्ट है कि वह आम जनता के लिए उत्तरदाई नहीं हो सकते जिन लोगों ने उन्हें रुपए पैसे की मदद की है या गलत तरीकों से रुपया कमाया गया है तो फिर चुने हुए प्रतिनिधि निश्चित रूप से अपने आकाओं के लिए काम करेंगे या फिर अपना स्वास्थ्य साधन करेंगे.

फूटती जवानी के डर और खुदकुशी की कसमसाहट

इसे जागरूकता की कमी कहें या फिर अनपढ़ता, लड़के हों या लड़कियां एक उम्र आने पर उन के शरीर में कुछ बदलाव होते हैं और अगर ऐसे समय में समझदारी और सब्र का परिचय नहीं दिया जाए, तो जिंदगी में कुछ अनहोनी भी हो सकती है. ऐसे ही एक वाकिए में एक लड़की जब अपनी माहवारी के दर्द को सहन नहीं कर पाई और न ही अपनी मां को कुछ बता पाई, तो उस ने खुदकुशी का रास्ता चुन कर लिया.

यह घटना बताती है कि जवानी के आगाज का समय कितना ध्यान बरतने वाला होता है. ऐसे समय में कोई भी नौजवान भटक सकता है और मौत को गले लगा सकता है या फिर कोई ऐसी अनहोनी भी कर सकता है, जिस का खमियाजा उसे जिंदगीभर भुगतना पड़ सकता है. सब से बड़ी बात यह है कि उस के बाद परिवार वाले अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाएंगे.

आज हम इस रिपोर्ट में ऐसे ही कुछ मामलों के साथ आप को और समाज को अलर्ट मोड पर लाने की कोशिश कर रहे हैं. एक बानगी :

-14 साल की उम्र आतेआते जब सुधीर की मूंछ निकलने लगी, तो वह चिंतित हो गया. उसे यह अच्छा नहीं लग रहा था कि उस के चेहरे पर ठीक नाक के नीचे मूंछ उगे और वह परेशान हो गया.

-12 साल की उम्र में जब सोनाली को पहली दफा माहवारी हुई, तो वह घबरा गई. वह बड़ी परेशान हो रही थी. ऐसे में एक सहेली ने जब उसे इस के बारे में अच्छी तरह से बताया, तो उस के ही बाद वह सामान्य हो पाई.

-राजेश की जिंदगी में जैसे ही जवानी ने दस्तक दी, तो उसे ऐसेवैसे सपने आने लगे. वह सोच में पड़ गया कि यह क्या हो रहा है. बाद में एक वीडियो देख कर उसे सबकुछ समझ में आता चला गया.

दरअसल, जिंदगी का यही सच है और सभी के साथ ऐसा समय या पल आते ही हैं. ऐसे में अगर कोई सब्र और समझदारी से काम न ले, तो वह मुसीबत में भी पड़ सकता है. लिहाजा, ऐसे समय में आप को कतई शर्म नहीं करनी चाहिए और घबराना नहीं चाहिए, बल्कि इस दिशा में जागरूक होने की कोशिश करनी चाहिए.

आज सोशल मीडिया का जमाना है. आप दुनिया की हर एक बात को समझ सकते हैं और अपनी जिंदगी को सुंदर और सुखद बना सकते हैं. बस, आप को कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए, जो आप को नुकसान पहुंचा सकता हो.

डरी हुई लड़की की कहानी

दरअसल, मुंबई से एक दिल दहला देने वाला मामला सामने आया है. मुंबई के मालवणी इलाके में रहने वाली 14 साल की लड़की रजनी (बदला हुआ नाम) ने अपनी पहली माहवारी के दौरान दर्दनाक अनुभव के बाद कथिततौर पर खुदकुशी कर ली थी. जब तक परिवार वालों ने यह देखा और समझा, तब तक बड़ी देर हो चुकी थी. उस की लाश घर में लटकी हुई मिली थी.

यह हैरानपरेशान करने वाला मामला मलाड (पश्चिम) के मालवणी इलाके में हुआ था, जहां रहने वाली 14 साल की एक लड़की रजनी की लाश रात में अपने घर के अंदर लोहे के एक एंगल से लटकी हुई पाई गई थी.

पुलिस के मुताबिक, वह नाबालिग लड़की अपने परिवार के साथ गावदेवी मंदिर के पास लक्ष्मी चाल में रहती थी. कथिततौर पर वह किशोरी माहवारी के बारे में गलत जानकारी होने के चलते तनाव में रहती थी. ऐसा लगता है कि उसे सही समय पर सटीक जानकारी नहीं मिल पाई होगी, तभी तो माना जा रहा है कि उस ने यह कठोर कदम उठा लिया होगा.

पुलिस के मुताबिक, देर शाम में जब घर में कोई नहीं था, तो उस लड़की ने खुदकुशी कर ली. जब परिवार वालों और पड़ोसियों को इस कांड के बारे में पता चला, तो वे उसे कांदिवली के सरकारी अस्पताल में ले गए, जहां डाक्टरों ने लड़की को मरा हुआ बता दिया.

मामले की जांच कर रहे एक पुलिस अफसर ने कहा, “शुरुआती पूछताछ के दौरान लड़की के रिश्तेदारों ने बताया कि लड़की को हाल ही में पहली बार माहवारी आने के बाद दर्दनाक अनुभव हुआ था. इसे ले कर वह काफी परेशान थी और मानसिक तनाव में थी, इसलिए हो सकता है कि उस ने इस वजह से अपनी जान दे दी हो.”

कुलमिला कह सकते हैं कि अगर उस लड़की को सही समय पर सही सलाह मिल जाती, तो पक्का है कि वह खुदकुशी करने जैसा कड़ा कदम कभी नहीं उठाती. मांबाप को भी चाहिए कि ऐसे समय में वे बच्चों को सही सलाह दें या फिर उन्हें किसी माहिर डाक्टर के पास ले जाएं.

करोड़ों की सैलरी के सपने

यह आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस की वजह से है या कंपनियों के मुनाफों की लिमिट के आने या सब से बड़ी बात, दुनियाभर में अमीरों व गरीबों के बीच बढ़ती खाई बढ़ने पर शोर की वजह से, इस साल भारत में स्टार्टअप्स करोड़ प्लस नौकरियां देने में हिचकिचाने लगे हैं. पहले हर साल 100-200 युवाओं को कैंपस रिक्रूटमैंट में ही बहुत मोटी सैलरी दे दी जाती थी और यही मेधावी युवा आगे चल कर एमएनसी कंपनियों के सीईओ बन जाते थे.

अब कंपनियों के मोटे मुनाफे कम होने लगे हैं. जो स्टार्टअप चमचमा रहे थे, अब अपने ही बो  झ से चरमरा रहे हैं. हर कोई वैल्यूएशन बढ़ाचढ़ा कर, बेच कर कुछ सौ करोड़ रुपए जेब में डाल कर चलने की फिराक में है और इस दौरान भारी नुकसान को कम करने के लिए तेजी से छंटनी की जा रही है. स्टार्टअप ही नहीं, इन्फोसिस जैसी कंपनियों को भी अपनी एंपलौई स्ट्रैंग्थ कम करनी पड़ रही है.

यह कोई बड़े राज की बात नहीं है कि ऐसा क्यों हो रहा है. असल में पिछले 5-7 सालों में स्टार्टअप्स ने जो हल्ला मचा कर जीवन को सुगम बनाने के ऐप्स बनाए थे और छोटछोटे धंधों को टैक्नोलौजी के सहारे एक छत के नीचे लाने की कोशिश की थी, उस के साइड इफैक्ट्स दिखने लगे हैं.

लोग अब सिर्फ कंप्यूटर से बात करने के लिए कतराने की सोच पर पहुंच रहे हैं. एक के बाद दूसरा बटन दबाते रहिए. यह जेल की तरह लगने लगा था जिस में कंप्यूटर- चाहे मोबाइल हो, लैपटौप हो या डैस्कटौप, एक जेल सा बन गया था जिस में दुनिया से कट कर रहना पड़ रहा था. आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस इस रूखेपन को कम कर रहा है और ग्राहक की आवाज की टोन को पहचान कर उसी लहजे में जटिल समस्याओं को सुल  झाने के प्रोग्राम बनाए जा रहे हैं ताकि ग्राहक बिदकें न. पर यह न भूलें कि असल जिंदगी तो ब्रिक, मोर्टार और हाड़मांस से चलती है. ऐप ने दफ्तरों से भिड़ने के कंपल्शन को कम किया है लेकिन इस के बदले उस ने ह्यूमन टच छीन लिया है.

एआई की आवाज कितनी ही मधुर क्यों न हो, कितनी ही ह्यूमन लगे, पता चल ही जाता है कि यह मशीनी है. ऐसे में ग्राहक उचट जाता है कि वह अपनी खास समस्या को हल करने के लिए कहे या न कहे.

जो मोटी सैलरीज मिल रही थीं वे उन स्टार्टअप्स से मिल रही थीं जो सिर्फ हवाहवाई बातें करने में आगे आ रहे थे. ब्रिक और मोर्टार सेवाएं तो आदमियों की सहायता से ही मिल रही थीं. उबर और ओला चलाने वाले तो ड्राइवर ही हैं जो कंप्यूटर एलगोरिदम की तोड़ निकालने में लगे थे या जिन की कमर कंप्यूटर एलगोरिदम तोड़ रहा था.

आज छोटा सा स्टार्टअप भी अरबों की वैल्यूएशन का काम कर रहा था इसलिए कि वह ह्यूमन एफर्ट को किसी बेचारे से छीन रहा था. अमेजन, फ्लिपकार्ट, स्विगी, बिग बास्केट ने लाखों छोटे व्यापार बंद करा दिए और अपने कंप्यूटर कंट्रोल्ड वर्कर्स को लूट कर ग्राहकों को सेवाएं देनी शुरू कीं. अब ग्राहक उकताने लगे हैं. दुनियाभर में कंजम्पशन बढ़ने लगा मगर उत्पादन नहीं. अमीरों के सुख की चीजें भरभर कर बनने लगीं क्योंकि स्टार्टअप चलाने वाले उस कैटेगरी में आते हैं जो ऊपरी एक फीसदी हैं. वे आम आदमी की तकलीफें नहीं सम  झते- जो यूक्रेन में लड़ रहा है, सऊदी डैजर्ट में पसीना बहा कर शहर बसा रहा है, घरों तक पानी, बिजली, सीवर पहुंचा रहा है, पक्के मकान बना रहा है. कोई स्टार्टअप या कंस्ट्रक्शन कंपनी बिना ह्यूमन टच के ये सब नहीं कर सकती, न शायद कभी कर पाएगी. कंप्यूटर स्लेव कभी नहीं बनेगा, यह एहसास होने लगा है और शायद स्टार्टअप और टैक्नो इंडस्ट्रीज अब ठंडी पड़ने लगी हैं.

करोड़ों की सैलरी के सपने टूट रहे हैं. उत्तर प्रदेश में 6,000 कौंस्टेबलों की भरती के लिए 50,00,000 उम्मीदवारों का जमा हो जाना साबित करता है कि सैलरी लैवल तो अब भी 20-30 हजार रुपए ही है, वह भी सरकारी नौकरी में, और उसी के लिए मारामारी हो रही है. पेपर लीक भी एक धंधा बना हुआ है, सरकारें परेशान हैं. कुछ को करोड़ों के पैकेज बेरोजगारों के मुंह से निवाले छीन कर दिए जा रहे थे पर अब इन में कुछ कमी होने लगी है.

गुणों को पहचानें, पर्सनैलिटी निखारें

अपनी पर्सनैलिटी पर भरोसा करें. अपने रंगरूप, कद, पढ़ाई, बैकग्राउंड को भूल कर हमेशा यह सोचिए कि आप में कुछ ऐसे गुण हैं जो आप की लाइफ को लिवएबल, हैप्पी, प्रौसपरस बना सकते हैं. अपनी कमियों को छिपाइए नहीं पर उन से घबरा कर कछुए की तरह खोल में न छिपिए. हर युवा कुछ गुण रखता है. हरेक में कुछ करने की, कुछ बनने की तमन्ना होती है. सोशल नौर्म्स कुछ ऐसे हैं जो कुछ यंग को एहसास दिलाते हैं कि उन की कोई कीमत नहीं है. इस गलतफहमी को खुद दूर करें. आप को लूटने वाले इस गलतफहमी का सहारा ले कर ही जेब पर डाका डालते हैं. वे सपने दिखाते हैं, ठोस प्लान या प्रोग्राम नहीं बनाते.

यह सोच कर चलें कि रास्ते पर पड़े पत्थरों को लांघ कर या रास्ता बना कर चलना संभव है. हम में से हरेक ऐसा करता है. हम पानी के गड्ढों से भरी सड़क पर सूखी जगह देख कर चलते हैं पर बाढ़ आ जाने के बाद जूते, पैर या पैंट के गीली हो जाने के बावजूद रास्ता पार करना नहीं छोड़ते क्योंकि इस पानी के दूसरी तरफ कोई है जो बचा कर रखेगा, कुछ राहत मिलेगी, कुछ सुकून मिलेगा.

पढ़ाई हो, हौबी हो, खेल का मैदान हो, रंगमंच हो, पहले ही न घबराइए. उतरिए तो सही. हो सकता है सोने का अंडा हाथ लग जाए, वरना अनुभव तो मिलेगा ही न, जो आगे काम आएगा. लेकिन इस के लिए भीड़ की मानसिकता का शिकार न बनें.

शातिर, बेईमान लोग भीड़ का इस्तेमाल करते हैं. कमजोरों को बहकाने के लिए जब इतने सारे लोग एक तरफ जा रहे हैं तो कुछ अच्छा होगा वहां, इस को जम कर भुनाया जाता है. आप ने जो भी सीखा, जो भी जाना, उस का इस्तेमाल कर के अपना फैसला लें कि आप भीड़ का हिस्सा बन कर अपनी सफलता की चाबी भीड़ के सब से आगे वाले के हाथ में देना चाहते हैं या अपने हाथ में रखना चाहते हैं.

हर व्यक्ति सफल हो सकता है. आप कितने सफल हो सकते हैं, इस का आकलन पहले न करें. पहले तो यही उम्मीद करें कि हर सपना, प्लान सक्सैसफुल ही कंप्लीट होगा. उस पर आप के ऐक्टिव होने की देर है बस, हाथ में कुछ लगेगा ही, कम या ज्यादा. हां, इस के लिए तैयारी करनी पड़ती है. नदी पार करने के लिए नाव बनानी पड़ती है. जब दूसरे पार कर सकते हैं तो आप भी बच सकते हैं, दूसरों से बेहतर भी हो सकते हैं.

तैयारी करने में जरूरी है कि अपने सपनों पर फोकस करें. उन को साकार करने के तरीके ढूंढ़ें. लोगों से पूछें पर फैसला हमेशा अपनी जानकारी के सहारे लें. आप के पास जानकारी जुटाने के हजारों तरीके हैं. आज इंटरनैट तो है ही, साथ ही, विस्तृत जानकारी वाली किताबों की दुकानें व लाब्रेरियां भी हैं. इंटरनैट तो आप को हताश भी कर सकता है पर किताबें, आमतौर पर एक नए निर्माण का मैसेज देती हैं. आगे चलिए तो सही, कुछ मिलेगा. हर वक्त बैठे रह कर मोबाइल से खेलना आप का ऐम (लक्ष्य) न हो, यह खयाल रखें. बल्कि, एक तमन्ना हो कुछ करने की और उसे पूरा करें.

छप्परफाड़ कमाई करने वाली सीए रचना रानाडे

सीए रचना रानाडे ने कभी नहीं सोचा था कि वे फाइनैंस जगत में इतनी फेमस हो  जाएंगी. फाइनैंस सीखने  वाली नई पीढ़ी इन दिनों  रचना से हो कर ही  गुजर रही है. 26 जून, 1986 को पुणे, महाराष्ट्र, भारत में जन्म लेने वाली 37 साल की रचना रानाडे आज फाइनैंस इंफ्लुएंसर की दुनिया में जानामाना नाम हैं. यूट्यूब क्रिएटर के तौर पर शेयर बाजार, वित्त, व्यवसाय और मार्केटिंग पर शिक्षा देने वाली रचना को फाइनैंस मैनेजमैंट में इंट्रैस्ट रखने वाले अच्छे से जानते हैं और उन्हें फौलो भी करते हैं. रचना रानाडे चार्टर्ड अकाउंटैंट हैं जो अपने दर्शकों के लिए मुश्किल समझे जाने वाली फाइनैंशियल लिट्रैसी को आसान बनाती हैं. उन्होंने अपने पहले अटेम्पट में सीए का एग्जाम पास किया और टीचिंग को अपना कैरियर बनाया.

उस के बाद रचना ने पुणे में लाइव बैच में 10,000 से अधिक और औनलाइन 100,000 से अधिक छात्रों को पढ़ाया और  फेमस हुईं.  यूट्यूब से कमाई 2019 में उन्होंने अपना यूट्यूब चैनल ‘सीए रचना फड़के रानाडे’ के नाम से लौंच किया और स्टौक मार्केट टौपिक्स पर ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने 3 साल से भी कम समय में अपने यूट्यूब चैनल पर 4.78 मिलियन यानी 47 लाख से अधिक सब्सक्राइबर्स हासिल कर लिए हैं. वहीं इंस्टाग्राम पर उन के 11 लाख से अधिक फौलोअर्स हैं. वे अपनी वीडियोज में मराठी, हिंदी और इंग्लिश भाषा का इस्तेमाल करती हैं.

उन की पौपुलैरिटी देशविदेश में फैली हुई है. उन्होंने दुबई में एक बिलियन शिखर सम्मेलन और अबूधाबी व मस्कट में आईसीएआई सहित प्रतिष्ठित कार्यक्रमों में भी शिरकत की और अपनी बात रखी. उन के पाठ्यक्रम स्टौक मार्केट बेसिक्स, मनी मैनेजमैंट, फंडामैंटल एंड टैक्निकल एनालिसिस और फ्यूचर्स एंड औप्शंस के लगभग सारे कोर्सों को कवर करते हैं.

35 साल की रानाडे का कहना है, ‘‘सीए के स्टूडैंट्स को 10 साल तक पढ़ाने के बाद मैं कुछ नया करना चाहती थी. फिर मु  झे स्टौक मार्केट का खयाल आया, जो मेरा दूसरा प्यार है.’’ इसी सोच के साथ उन्होंने यूट्यूब पर वीडियो डालना शुरू किया, जिस से वे आज लाखों रुपए कमा रही हैं. पिछले साल उन्होंने पेडअप मैंबरशिप के विकल्प की भी शुरुआत की है.

उन का माध्यम मुख्य रूप से इंग्लिश है लेकिन बीचबीच में वे हिंदी और मराठी का भी इस्तेमाल करती हैं और खूब पैसा कमा रही हैं. भरोसा अपने रिस्क पर मध्यवर्गीय परिवार से आने वाली रानाडे ने कभी नहीं सोचा था कि पढ़ाने का उन का पेशा एक दिन उन्हें बुलंदी पर पहुंचा देगा. यूट्यूब यूजर के स्टैटिस्टिक्स और एनालिटिक्स पर नजर रखने वाले सोशल ब्लैंड के मुताबिक, रानाडे की सालाना कमाई पिछले साल 3.3 करोड़ रुपए थी.

यूट्यूब के सीईओ सुसान वोजसिकी ने 26 जनवरी को अपने ब्लौग में लिखा था, ‘‘भारतीय क्रिएटर रचना रानाडे अपने चैनल का इस्तेमाल लोगों की वित्तीय साक्षरता में मदद के लिए करती हैं. उन्होंने पिछले साल मैंबरशिप की शुरुआत की. यूट्यूब उन की कमाई का मुख्य स्रोत बन गया है. वे 1,00,000 डौलर से ज्यादा कमा रही हैं.’’ रानाडे ने ‘बेसिक्स औफ स्टौक मार्केट’ पर अपना वीडियो यूट्यूब पर 2019 में अपलोड किया था. यह वीडियो वायरल हो गया जिसे अब तक 27 मिलियन व्यूज मिल चुके हैं.

इस लैक्चर में 3 वीडियोज हैं जो स्टौक मार्केट में इंट्रेस्ट रखने वालों के लिए बनाई गई हैं. रचना इन में बहुत ही सिंपल तरीके से स्टौक मार्केट के बेसिक्स समझाती हैं जो काफी इंट्रैसटिंग लगते हैं.  फाइनैंस लिटरैसी की वकालत हालांकि रचना सेबी (एसईबीआई) रजिस्टर फाइनैंस इन्फ्लुएंसर नहीं हैं, फिर भी उन के फौलोअर्स की संख्या बताती है कि आम लोगों द्वारा उन पर कितना विश्वास किया जा रहा है. उन के कोर्सेज के पैकेज 3 हजार से ले कर 50 हजार रुपए तक में उन की वैबसाइट पर मौजूद हैं.

प्रांजल कामरा के बाद फाइनैंस एक्सपर्ट के तौर पर रचना को ही फौलो किया जाता है. ‘अर्न 1 करोड़ इन 1 ईयर’, ‘हाउ टू पिक स्टौक इन 1 मिनट’ और ‘हाऊ टू प्लान योर ड्रीम हाउस’ जैसे वीडियोज लोगों को अट्रैक्ट करने के लिए काफी हैं. आप को जान कर हैरानी होगी कि रचना एक पेशेवर गायिका भी हैं और उन के पास संगीत विशारद की डिग्री भी है, जो संगीत में स्नातक की डिग्री के बराबर है. उन्होंने अपने

यूट्यूब चैनल पर कई सिंगिंग कवर भी अपलोड किए हैं. रचना महिलाओं की फाइनैंस लिट्रैसी के बारे में भी बात करती हैं. एक रैपिड फायर इंटरव्यू में वे एक सवाल, ‘एक आदत जो महिलाओं के पैसे बचा सकती हैं और उन्हें अमीर बना सकती हैं?’ के जवाब में कहती हैं. ‘‘कुछ भी खरीदने से पहले अपनेआप से पूछें कि क्या आप को इस की जरूरत है.’ वे आगे कहती हैं, ‘आप को उस प्रोडक्ट की कीमत और उस के इस्तेमाल के बारे में सोचना चाहिए. मान लीजिए, आप कोई हैडफोन खरीदती हैं महंगा सा और उस का इस्तेमाल दिन में 2 बार ही करती हैं तो वह आप के लिए फुजूलखर्ची है.’

रचना ट्रेडिंग के तरीके बताती हैं और इन्वैस्टमैंट के भी. किसी भी और फाइनैंस इंफ्लुएंसर की तरह लोग इन्हें भी फौलो करते हैं. अकसर आंख बंद कर के और बिना कुछ सीखेसम  झे लोग इन की सलाह पर अपना हार्ड अर्न पैसा लगा देते हैं और लालच के चलते उसे गंवा भी बैठते हैं, सो, सावधान रहने की भी जरूरत है.

 

तीन फूट का दूल्हा और ……!

सचमुच यह दुनिया अजब गजब है, अनेक देश हैं, अनेक अनेक लोग हैं, कुछ लंबे हैं तो कुछ नाटे और कुछ बौने . आइए आपको आज ले चलते हैं विजय मरावी के पास जो कद काठी से बौना ही रह गया . होश संभाला सोचा नत्थू दादा की तरह फिल्मों में काम करेगा और नाम कमाएगा.

नत्थू दादा छत्तीसगढ़ के थे और हिंदी की खोटे सिक्के सहित कई फिल्मों में उन्होंने अभिनय करके नाम और पैसा कमाया . विजय विवाह योग्य हुआ तो सोच रहा था कि मेरा विवाह क्या कभी होगा. आखिर एक दिन उसका विवाह हो ही गया.

छत्तीसगढ़ के औद्योगिक तीर्थ कहे जाने वाले कोरबा नगर में विगत दिनों 32 परिवारों का सामूहिक विवाह का आयोजन किया गया. यह अब चर्चा का विषय बन गया है. क्योंकि इस सामूहिक विवाह में इस विवाह में 3 फीट के दूल्हे ने ढाई फीट की दुल्हन से शादी रचाई है.

हमारे संवाददाता के अनुसार दोनों एक-दूसरे से पहले ही से परिचित थे. महत्वपूर्ण तथ्य है कि आदिवासी आंचल छत्तीसगढ़ के जनजातीय समुदाय को बिलांग करने वाले विजय मरावी जिला कोरबा के पाली विकासखण्ड के दर्राभाठा ग्राम के निवासी हैं और टेलरिंग का व्यवसाय करते हैं.

उनके कद काठी के संदर्भ में जब हमने डॉक्टर जी आर पंजवानी से बातचीत की दोनों ने बताया विजय मरावी जैसे लोग जैसे लोग बहुत कम होते हैं इसलिए आकर्षण का विषय बन जाते हैं दरअसल ऐसे लोग का शारीरिक विकास कई कारणों से नही हो पाता और ऊंचाई 3 फीट से ज्यादा बढ़ नहीं पाती हैं.

यह कोई अनुवांशिक बीमारी नहीं मानी जाती है. महत्वपूर्ण तथ्य है कि विजय के लिए कुछ उनके ही कद काठी के जीवनसाथी की तलाश परिवार के लोग कर रहे थे. यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा था. संयोग से नजदीकी गांव में रहने वाली दुर्गा विजय के आदिवासी समुदाय से ही थी और उसकी ऊंचाई भी ढाई फीट से ज्यादा नहीं थी.

मजे की बात यह है कि सोशल मीडिया से दोनों जुड़े और बातचीत शुरू हुई. फिर दोनों की मुलाकात आमने-सामने हुई, और विवाह की बातचीत परिजनों ने की और रिश्ता पक्का हो गया. आखिरकार 2 मार्च 2024 नमः सामूहिक विवाह के आयोजन की जानकारी मिलने पर दोनों परिणय सूत्र में बंध गए.

पाठकों को बताते चलें कि दुर्गा मरावी ने हायर सेकेंडरी तक की पढ़ाई की है, जबकि उसके पति की शिक्षा हाई स्कूल की है. दोनों ने कहा कि वह आगे शिक्षा प्राप्त करने में रुचि रखते है. दुर्गा मरावी के मुताबिक विजय से सोशल मीडिया फेसबुक से पहली दोस्ती हुई और जो धीरे-धीरे प्यार में बदल गई. अंततः दोनों ने परिवार जनों की सहमति से शादी करने की सोची.

शीतल देवी : बिना हाथों की तीरंदाज

एशियाई पैरा गेम्स 2023 में एक ऐसा इतिहास रच गया, जिस की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. एक तो दिव्यांगता उस के बाद ऐसा हौसला और जज्बा कि आप शीतल देवी की पीठ थपथपा दें, वाहवाह कर उठें.

शीतल देवी दोनों हाथों से खेल नहीं सकती हैं, मगर जब वे अपने पैरों और मुंह का हुनर दिखाती हैं, तो लोग हैरान हो जाते हैं. दरअसल, इस प्रतिभा का उदय पहली दफा किश्तवाड़ में भारतीय सेना की एक प्रतियोगिता में हुआ था.

गोल्ड मैडल जीतने वाली शीतल देवी ने सचमुच एक ऐसा इतिहास रच दिया है, जो अब सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा. 16 साल की शीतल देवी ने चीन के हांगझाऊ में हुए एशियाई पैरा खेलों में 2 गोल्ड समेत 3 मैडल जीत कर इतिहास रच दिया. वे एक ही संस्करण में 2 गोल्ड मैडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला भी हैं.

शीतल देवी के पिता एक किसान हैं और मां सामान्य गृहिणी, जो घर में भेड़बकरियों की देखभाल करती हैं. एक साधारण परिवार की इस बेटी का जीवन जन्म से ही संघर्षपूर्ण रहा है.

शीतल देवी के जन्म से ही दोनों हाथ नहीं थे. वे ‘फोकोमेलिया’ नामक  बीमारी से पीडि़त हैं. इस बीमारी में अंग पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं. पर अहम बात यह है कि बाजू न होना शीतल देवी के लिए दिव्यांगता का अभिशाप बन नहीं सका. वे बिना दोनों बाजू के सिर्फ छाती के सहारे दांतों और पैरों से तीरंदाजी का अभ्यास करती थीं.

ट्रेनिंग के शुरुआती दिनों में शीतल देवी धनुष तक को नहीं खींच पाती थीं, मगर कोच ने ऐसा धनुष तैयार कराया, ताकि वे पैर से आसानी से धनुष उठा सकें और कंधे से तीर चलाने लगें.

महज 16 साल की उम्र में शीतल देवी ने अपने नाम कई उपलब्धियां दर्ज की हैं. ट्रेनिंग के 6 महीने बाद शीतल देवी ने वह कर दिखाया, जिस का इंतजार सब को था. उन्होंने हरियाणा के सोनीपत में पैरा ओपन नैशनल्स में सिल्वर मैडल हासिल किया.

यही नहीं, साल 2023 की शुरुआत में उन्होंने चैक गणराज्य के पिलसेन में वर्ल्ड कप तीरंदाजी चैंपियन में भी सिल्वर मैडल जीता. वे फाइनल में तुर्की की ओजनूर क्योर से हार गई थीं, लेकिन वर्ल्ड चैंपियनशिप में मैडल जीतने वाली बिना हाथों वाली पहली महिला तीरंदाज बन गई थीं.

एशियाई पैरा गेम्स में शीतल देवी ने 2 गोल्ड और एक सिल्वर मैडल हासिल किया. उन के शानदार प्रदर्शन को देख कर उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने उन्हें अपनी कंपनी की कोई भी मनचाही कार लेने की पेशकश की.

शीतल देवी के लिए एक पोस्ट साझा करते हुए आनंद महिंद्रा ने लिखा, ‘मैं अपने जीवन की छोटीमोटी समस्याओं पर शिकायत नहीं करूंगा. शीतल, आप सभी के लिए एक शिक्षक हैं. कृपया हमारी रेंज में से कोई भी कार अपने लिए चुनें और हम इसे आप की सुविधा के अनुसार कस्टमाइज कर आप को तोहफे में देंगे.’

कुलमिला कर शीतल देवी की कहानी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं लगती है. जो शीतल देवी धनुष नहीं उठा पाती थीं, उन्होंने दाएं पैर से धनुष उठाने का अभ्यास किया और 2 साल की कड़ी मेहनत की बदौलत जीत का परचम लहरा दिया.

साल 2021 में 14 साल की उम्र में बतौर तीरंदाज कैरियर की शुरुआत करने वाली शीतल देवी ने पहली बार किश्तवाड़ में भारतीय सेना की एक युवा प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था. ट्रेनिंग के दौरान उन के लिए एक खास तरह का धनुष तैयार कराया गया, ताकि वे पैर से आसानी से धनुष उठा सकें और कंधे से तीर को खींच सकें.

शीतल देवी के कोच अभिलाषा चौधरी और कुलदीप वेदवान हैं. महज 2 साल की होतेहोते 16 साल की उम्र में शीतल देवी ने अपने नाम कई उपलब्धियां दर्ज की हैं. ट्रेनिंग के 6 महीने बाद उन्होंने वह कर दिखाया, जिस का इंतजार सब को था.

इस से पहले उन्होंने सोनीपत में पैरा ओपन नैशनल्स में सिल्वर मैडल हासिल कर के दिखा दिया था कि वे देश के लिए आगे इतिहास रचने वाली हैं और एक रोल मौडल बनने वाली हैं.

लगातार बढ़ता कुत्तों का खौफ

देशभर में कुत्तों का खौफ बढ़ रहा है. भोपाल शहर में 16 जनवरी, 2024 को 1-2 नहीं, बल्कि 45 लोगों को कुत्तों ने काट लिया था. इस के हफ्तेभर पहले ही कारोबारी इलाके एमपी नगर में महज डेढ़ घंटे में 21 लोगों को कुत्तों ने काटा था. छिटपुट घटनाओं की तो गिनती ही नहीं.

लेकिन दहशत उस वक्त भी फैली थी, जब अयोध्या इलाके में रहने वाले एक मजदूर परिवार के 7 महीने के मासूम बच्चे को कुत्तों के झुंड ने घसीट कर काटकाट कर मार डाला था. उस बच्चे का एक हाथ ही कुत्तों ने बुरी तरह से चबा डाला था.

देश के हर छोटेबड़े शहर की तरह भोपाल भी कुत्तों से अटा पड़ा है. कुत्तों की सही तादाद का आंकड़ा नगरनिगम के पास भी नहीं है, लेकिन पालतू कुत्तों की संख्या केवल 500 है. इतने ही लोगों ने अपने पालतू कुत्तों का रजिस्ट्रेशन कराया है, वरना तो पालतू कुत्तों की तादाद 10,000 से भी ज्यादा है.

लेकिन नई समस्या पालतू या आवारा कुत्तों की तादाद से ज्यादा उन का खौफ है, जिस का किसी के पास कोई हल या इलाज नहीं दिख रहा है.

इलाज तो कुत्तों के काटे का भी सभी को नहीं मिल पाता, क्योंकि ऐसे बढ़ते मामलों के मद्देनजर अस्पतालों में एंटी रेबीज इंजैक्शनों का टोटा पड़ने लगा है.

10 जनवरी, 2024 को कुत्ते के काटने के बाद जब 45 लोग एकएक कर जयप्रकाश अस्पताल पहुंचे थे, तब कुछ को ही ये इंजैक्शन मिल पाए थे.

वैसे तो कुत्तों का खौफ पूरे देश और दुनियाभर में है, लेकिन भोपाल के हादसों ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा है सिवा सरकार और नगरनिगम के, जिन का कहना यह है कि जब वे कुत्तों पर कोई कार्यवाही करते हैं, तो ?ाट से कुत्ता प्रेमी आड़े आ जाते हैं.

14 जनवरी, 2024 को जब नगरनिगम की टीम आवारा कुत्तों को पकड़ने पिपलानी इलाके में पहुंची, तो एक कुत्ता प्रेमी लड़की उस टीम से भिड़ गई. नगरनिगम ने उस लड़की के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी.

यह जान कर हैरानी होती है कि भोपाल में नगरनिगम अमला अब तक तकरीबन 7 कुत्ता प्रेमियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा चुका है.

क्या करें इन कुत्तों का

जाहिर है कि कुत्ता प्रेमियों का विरोध ‘कुत्ता पकड़ो मुहिम’ में बाधा बनता है. कई एनजीओ तो बाकायदा कुत्ता प्रेम से फलफूल रहे हैं. इन की रोजीरोटी ही कुत्ता प्रेम है. इन लोगों को उन मासूमों की मौत से कोई लेनादेना नहीं, जिन्हें कुत्तों ने बेरहमी से काटकाट कर और घसीटघसीट कर मार डाला.

आवारा और पालतू कुत्तों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, तो इस की बड़ी वजह कुत्तों की नसबंदी न हो पाना भी है जो आसान काम नहीं, लेकिन इस बाबत तो स्थानीय निगमों को जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी कि वे ढिलाई बरतते हैं और हरकत में तभी आते हैं, जब हादसे बढ़ने लगते हैं.

लाख टके का सवाल जो मुंहबाए खड़ा है वह यह है कि इन कुत्तों का क्या किया जाए? इन्हें मारो तो दुनियाभर के लोगों की हमदर्दी और कानून आड़े आ जाते हैं और न मारो तो बेकुसूर लोग परेशान होते हैं. कई मासूमों की मौत ने तो इस चिंता को और बढ़ा दिया है. जहां नजर डालें, चारों तरफ कुत्ते ही कुत्ते दिखते हैं.

धर्म भी कम जिम्मेदार नहीं

कुत्तों के हिंसक होने की कोई एक वजह नहीं होती. भोपाल के हादसों के बीच कुछ ज्ञानियों ने मौसम को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की, लेकिन यह दलील लोगों के गले नहीं उतरी.

असल में लोगों की धार्मिक मान्यताएं भी इस की जिम्मेदार हैं, जो यह कहती हैं कि कुत्तों को शनिवार के दिन खाना खिलाने से जातक पर शनि और राहू का प्रकोप नहीं होता. भोपाल में जगहजगह ऐसे सीन देखने को मिल जाते हैं, जिन में राहूशनि पीडि़त लोग कुत्तों का भंडारा कर रहे होते हैं.

भोपाल के ही शिवाजी नगर इलाके में हर शनिवार की शाम एक बड़ी कार रुकती है, तो कुत्ते जीभ लपलपाते उस की तरफ लपक पड़ते हैं.

इस गाड़ी से 2 सभ्य सज्जन उतरते हैं और कुत्तों को बिसकुट, रोटी, ब्रैड वगैरह खिलाते हैं और इतने प्यार से खिलाते हैं कि पलभर को आप यह भूल जाएंगे कि इन कुत्तों की वजह से औसतन 5 लोग रोज अस्पतालों के चक्कर काटते हैं और हैरानपरेशान होते हैं.

कहना तो यह बेहतर होगा कि इन धर्मभीरुओं की वजह से लोग तकलीफ उठाते हैं और पैसा भी बरबाद करने को मजबूर होते हैं.

कुत्तों के इस सामूहिक और सार्वजनिक भोज के नजारे में दिलचस्प बात यह भी है कि इस वक्त कुत्ते बिलकुल इनसानों की तरह अपनी बारी के आने का इंतजार इतनी शांति और अनुशासन से करते हैं कि लगता नहीं कि ये वही कुत्ते हैं, जो बड़ी चालाकी से घात लगा कर राह चलते लोगों की पिंडली अपने दांतों में दबा लेते हैं या फिर ग्रुप बना कर ‘भोंभों’ करते हुए राहगीरों और गाडि़यों पर ?ापट्टा मारते हैं.

नेताओं के प्रिय कुत्ते

इस में शक नहीं है कि गाय के साथसाथ कुत्ता पुराने जमाने से ही आदमी का साथी और पालतू रहा है. महाभारत काल में तो कुत्ता पांडवों के साथ स्वर्ग तक गया था.

हुआ यों था कि धर्मराज के खिताब से नवाजे गए युधिष्ठिर के लिए जब स्वर्ग का दरवाजा खुला, तो वे अड़ गए कि जाऊंगा तो कुत्ता ले कर ही, वरना नहीं जाऊंगा.

बात बिगड़ने लगी, तो उपन्यासकार वेद व्यास ने सुखांत के लिए यह बताते हुए सस्पैंस खत्म किया कि उस कुत्ते के वेश में यमराज ही थे, जो युधिष्ठिर का इम्तिहान ले रहे थे.

यानी, पौराणिक काल से ही कुत्ता आम के साथसाथ खास लोगों और शासकों का प्रिय रहा है. मौजूदा दौर में कई नेताओं का कुत्ता प्रेम अकसर खबर बनता है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का प्रिय कुत्ता कालू तो इंटरनैट सैलिब्रिटी कहलाता है. यह लैब्राडोर नस्ल का कुत्ता गोरखपुर में उन के मठ में रहता है और पनीर खाने का शौकीन है.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी कुत्तों के शौकीन हैं. उन के नए कुत्ते का नाम ‘नूरी’ है, जो उन्होंने अपनी मां सोनिया गांधी को कर्नाटक चुनाव के दौरान तोहफे में दिया था. इस कुत्ते की नस्ल जैक रसेल टैरियर है.

यहां बताना प्रासंगिक है कि इस कुत्ते (शायद कुतिया) का नाम ‘नूरी’ रखने पर एआईएमआईएम के एक नेता मोहम्मद फरहान ने इसे उन लाखों मुसलिम लड़कियों की बेइज्जती बताया था, जिन का नाम नूरी है.

भोपाल के हादसों के बाद साध्वी उमा भारती ने भी कुत्ता प्रेमियों को लताड़ लगाई थी. कुत्तों के खौफ से बचने के लिए उन्होंने कुत्तों के लिए अलग से अभयारण्य बनाए जाने की बात कही थी. मुमकिन है, अब गौशालाओं की तर्ज पर कुत्ताशालाएं खुलने की मांग उठने लगे.

लेकिन हल यह है

देशभर में कुत्तों के काटने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, साल 2023 में 27 लाख,

50 हजार लोगों को कुत्तों ने काटा था. यह एक चिंताजनक आंकड़ा है, क्योंकि इन में से 20,000 लोग रेबीज से मरे. ऐसे में कोई वजह नहीं कि कुत्तों से हमदर्दी रखी जाए, लेकिन उन्हें मार देना भी हल नहीं.

बेहतर तो यह होगा कि लोग कुत्ते पालना बंद करें, इन्हें खाना देना बंद करें, अपने धार्मिक अंधविश्वास छोड़ें. इन सब से समस्या खत्म भले न हो, लेकिन कम तो जरूर होगी.

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