गोल्डन वुमन: फैशन मौडल कैसे बनी दुल्हन

दिल्ली के होटल ताज के बाहर काले रंग की एक चमचमाती कार आ कर रुकती है. लेटैस्ट मौडल की इस कार का दरवाजा खुलता है और उस में से हाई हील्स और स्टाइलिश पार्टीवियर ड्रैस में साधना बाहर निकलती है. उस के बालों में गोल्डन कलरिंग की हुई है. डायमंड जड़े सुनहरे पर्स और गौगल्स को संभालती साधना होटल के अंदर प्रवेश करती है.

रिसैप्शन एरिया में ही उस की सहेली निभा उस का इंतजार कर रही थी. साधना को गौर से देखते हुए उस ने कहा,”हाय साधना, न्यू हेयरस्टाइल. नाइस यार… तेरी तो ड्रैस भी नायाब है.”

“अरे निभा, तुझे याद नहीं पिछली दफा जब पार्टी के बाद मैं तन्वी के साथ बाजार गई थी, वहीं यह ड्रैस मुझे पसंद आ गई थी. जानती है इस के किनारों पर गोल्ड का काम है. इस ड्रैस के फ्रंट पर भी सीक्वैंस, स्टोंस, बीड्स और गोल्ड का काम किया हुआ है.”

“गौर्जियस यार. वैसे भी यू आर अ गोल्डन वूमन. गोल्ड बहुत पसंद हैं न तुझे. तेरी ज्यादातर ड्रैस में गोल्ड का काम जरूर होता है. वैसे कितने की है यह ड्रैस ?”

“ज्यादा की नहीं है यार. बस यही कोई ₹1 लाख की है. बट आई मस्ट से, इट्स वैरी कंफरटेबल. फील ही नहीं हो रहा कि कुछ पहना भी है,” कह कर साधना हंस पड़ी, फिर निभा की तरफ देखती हुई बोली,” वैसे तुम्हारी ड्रैस भी बहुत प्रिटी है यार.”इसी तरह बातें करतीं एकदूसरे का हाथ थामे दोनों आगे बढ़ गईं.

साधना अपनी 20-25 क्लोज फ्रैंड्स के साथ शाम तक शानदार पार्टी का मजा लेती रही. पार्टी साधना की तरफ से ही थी. दरअसल, साधना ने अपने बेटे अभिनव की 10वीं में बेहतरीन प्रदर्शन की खुशी में अपनी सहेलियों को दावत दी थी. दावत भी ऐसीवैसी नहीं थी. इस दावत में सर्व किए गए 1-1 प्लेट की कीमत हजारों रूपए थी.

सलाहकारों और सहयोगियों का हुजूम हमेशा उस के साथ चलता था. इधर कुछ दिनों से सुधाकर कुछ परेशान रहने लगा था. साधना समझती थी कि इस की वजह कारोबार में आ रही समस्याएं होंगी. सुधाकर कभी भी साधना से अपनी बिजनैस संबंधित समस्याएं शेयर नहीं करता था और साधना कभी उस के काम में कोई दखल देती भी नहीं थी.

साधना ने सुधाकर से लव मैरिज की थी. दरअसल, साधना एक मौडल थी और राजस्थानी परिवार से जुड़ी थी. वहीँ सुधाकर भी मूल रूप से राजस्थानी ही था. दोनों के ही परिवार वाले अब दिल्ली में बसे हुए थे. साधना का फैशन सैंस और स्टाइलिश लुक सुधाकर के मन में समा गया था.

एक फैशन शो ईवेंट के दौरान उस ने साधना से अपने दिल की बात पूरे राजस्थानी अंदाज में कही और वहीं दोनों ने एकदूसरे को जीवनसाथी के रूप में चुन लिया.

वैसे सुधाकर के घर वालों ने साधना को सहजता से स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे एक मौडल को बहू बनाने के पक्ष में नहीं थे. मगर जब उन्होंने करीब से उस के मृदुल स्वभाव और परिपक्व सोच को परखा तो तुरंत तैयार हो गए.

दोनों अपनी गृहस्थी में बहुत खुश थे. साधना के 2 बच्चे थे. पहला बेटा अभिनव था जो 10वीं पास कर चुका था जबकि बेटी अभी छोटी थी.

साधना अपने पैशन को जिंदा रखना चाहती थी मगर शादी के बाद अपनी जिम्मेदारियां देखते हुए उस ने फैशन मौडल के बजाय फैशन इंफ्लुऐंसर और फैशन मोटीवेटर के रूप में घर से ही काम करना शुरू किया था.

पार्टी खत्म कर साधना ने अपनी सभी सहेलियों से विदा ली और अपने शानदार बंगले में कदम रखा तो यह देख कर दंग रह गई की ड्राइंगरूम में बहुत से लोग मौजूद हैं. पति सामने मुंह लटकाए एक अपराधी की तरह खड़े हैं. घर के सभी नौकरचाकर भी एक कोने में दुबके हुए हुए हैं.

घबराते हुए साधना अंदर दाखिल हुई और पति के पास जाती हुई बोली,”क्या हुआ सुधाकर और ये लोग कौन हैं? ”

सुधाकर टूट गया और साधना के कंधे पर सिर रख कर रोता हुआ बोला,”सब खत्म हो गया साधना. हम कंगाल हो गए. ये बैंक वाले हैं और अपनी लोन की रकम उगाहने के लिए आए हैं. ये हमारे मकान और गाड़ियों पर कब्जा लेने के लिए खड़े हैं.”

साधना सन्न रह गई मगर पति को दिलासा देती हुई बोली,”परेशान मत हो सुधाकर, सब ठीक हो जाएगा.”

“मैं भी अब तक यही तो सोचता रहा कि सब ठीक हो जाएगा. एक के बाद एक बिजनैस डूबते रहे मगर मैं लोन लेले कर नए सपने बुनता रहा. तुम्हें भी कभी एहसास नहीं होने दिया कि आजकल हमारी कंपनियां नफा देने के बजाय नुकसान दे रही हैं. मेरे बैंक लोन इतने ज्यादा बढ़ गए हैं कि अब मैं सब कुछ गंवा देने की हालत में पहुंच गया हूं. बस मुझे एक साइन करना है और फिर यह बंगलागाड़ी, यह शानोशौकत सबकुछ खत्म हो जाएगा.”

“तो क्या हुआ सुधाकर, अब हम एक सामान्य जीवन जी लेंगे. सालों शानोशौकत का अनुभव किया है तो कुछ समय साधारण जीवन का भी अनुभव होना चाहिए न और कौन जाने तुम बहुत जल्द ही सब कुछ वापस खड़ा कर लोगे. मुझे पूरा विश्वास है तुम पर. कर दो साइन सुधाकर ज्यादा मत सोचो.”

मनमसोस कर सुधाकर ने सबकुछ बैंक वालों को सौंप दिया और इस तरह एक झटके में अरबपति दंपत्ति का परिवार साधारण मध्यवर्गीय परिवार में तबदील हो गया. सुधाकर और साधना ने तो फिर भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया मगर असल मुसीबत बच्चों की थी जिन्होंने बचपन से एक लग्जीरियस लाइफ जी थी और अब अचानक आए इस बदलाव से वे हतप्रभ थे.

बेटी पायल तो इस छोटे से नए घर में आ कर फफकफफक कर रो पड़ी थी. बेटा अभिनव भी समान्य नहीं रह पाया. वह अपने दोस्तों से कतराने लगा क्योंकि वे लोग उस से हजारों सवाल करने लगे थे. साधना खुद भी अंदर से बहुत परेशान थी मगर उसे पति और बच्चों को इस सदमे से उबारना था. साधना ने पहले अपने मन को समझाया और फिर शांत मन से बच्चों को समझाने में जुट गई.

बेटी को अपने पास बैठा कर साधना ने पूछा,”आप क्यों रो रहे हो?”

“मम्मा हम गरीब हो गए. अब हमें बहुत कठिन दिन गुजारने होंगे न. हम अपने मन का कुछ नहीं कर पाएंगे…”

“ऐसा क्यों कह रही हो मेरी बच्ची? अमीरीगरीबी तो जिंदगी में लगी ही रहती है. यह जिंदगी का एक हिस्सा है, एक फेज की तरह है बिलकुल वैसे ही जैसे रोज सुबह होती है, शाम होती है फिर रात हो जाती है. अगला दिन आता है और फिर से सुबह हो जाती है. यह सब तो चलता रहता है. अब देखो न, कभी ठंड, कभी गरमी और कभी बारिश. मौसम बदलते रहते हैं न. जानते हो गरमी के बाद बारिश न आए तो फसलें सूख जाएंगी और हमें खाने की चीजें नहीं मिलेंगी. इसी तरह जिंदगी भी रंग बदलती है.”

“पर मम्मा, यह फेज अच्छा नहीं है न?”

“किस ने कहा बेटे? हर फेज अच्छा होता है. हमें कुछ सिखा कर जाता है. कोशिश करो तो जिंदगी के इस फेज से बहुत कुछ सीख सकते हो.”

“देखो बेटे, जीवन में कठिनाइयां आती हैं तभी इंसान उस से लड़ना सीखता है, मजबूत बनता है. जो लोग हमेशा अमीरी में जीते हैं उन के अंदर कठिन परिस्थितियों से निबटने की ताकत नहीं आ पाती. अमीर बच्चों को सब कुछ आसानी से मिल जाता है. इसलिए उन के अंदर प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं आती. मगर साधारण लोग सबकुछ अपनी मेहनत के बल पर हासिल करते हैं. इसी में असली खुशी है.”

पायल मां को देखती रही. वह कोशिश कर रही थी कि मां के तर्कों को मान ले मगर बच्ची के मन अंदर कुछ टूट गया था. अभिनव भी काफी गुमसुम रहने लगा था.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. बच्चे अभी भी इस नई जिंदगी में सामान्य नहीं थे.

एक दिन बेटा जब स्कूल से वापस लौटा तो साधना हैरान रह गई. उस के कपड़े कई जगह से फटे हुए थे. बाल बिखरे थे और कई जगह चोट भी लगी थी. उस के साथ आए लड़के ने बताया कि स्कूल में दूसरे लड़कों से मारपीट की वजह से यह हालत हुई है. उस लड़के के जाने के बाद साधना ने जल्दीजल्दी पहले तो बेटे को नहलाया और फिर उस की मरहमपट्टी की. सिर पर ठंडे पानी की फुहारें पड़ीं तो अभिनव थोड़ा सामान्य हुआ.

अब बेटे को पास बैठा कर और उस की आंखों में देखते हुए साधना ने पूछा,”यह सब क्या है अवि? अपने दोस्तों से लड़ने की वजह क्या थी? ऐसा क्या हो गया जो तुम ने मारपीट की?”

अभिनव अचानक रोता हुआ उस की गोद में सिर रख कर लेट गया और बोला,”मां, स्कूल का एक लड़का पापा को कंगाल और दिवालिया कह रहा था. उस ने मुझे कंगला का बेटा कहा. इसी बात पर मुझे गुस्सा आ गया. मैं सह नहीं सका और उस पर टूट पड़ा.”

“बेटे, ऐसा क्या गलत कह दिया था उस ने? और यदि गलत कहा भी तो तुम्हें क्या फर्क पड़ता है जबकि बात ही गलत है? देखो बेटा, तुम्हारे पापा दिवालिया हुए थे. उन की संपत्ति जब्त कर ली गई थी. इस की खबर न्यूज चैनल और अखबारों में भी आई थी. ऐसे में संभव है कि उस लड़के के घर में भी इस बात पर चर्चा हुई होगी. वह लड़का किसी बात पर तुम से नाराज होगा इसलिए उस ने तुम्हें उकसाने के लिए इस बात को गलत तरीके से कहा और तुम सचमुच भड़क उठे.

 

“पर मौम, वह सब के सामने ऐसी बातें कर रहा था तो मैं भला क्या करता? चुपचाप आगे बढ़ जाता?”

“या तो चुपचाप आगे बढ़ जाते या फिर मुसकरा कर कहते कि डोंट वरी हम फिर से पहले जैसे बन जाएंगे,” साधना ने समझाया.

सुन कर अभिनव को हंसी आ गई. वह मां के हाथ चूमता हुआ बोला,”मौम यू आर ग्रेट. कहां से लाते हो आप इतना पैशेंस?”

साधना ने हंस कर कहा,” यह पैशेंस अब तुम्हें भी अपने अंदर पैदा करना है बेटे. तभी तुम जिंदगी की हर जंग जीत सकोगे.”

“ओके मौम मैं ऐसा कर के दिखाऊंगा.”

बेटे का माथा प्यार से सहलाते हुए साधना एक खुशनुमा भविष्य की उम्मीद में खो गई.

2-3 साल इसी तरह बीत गए. साधना अपने बच्चों को कम में जीने का प्रशिक्षण देती रहती. जब बेटा दोस्तों को पार्टी देने की बात कर रूपए मांगता तो वह अपने दोस्तों को घर पर बुला लेने की बात करती और अपने हाथों का बना खाना खिलाती. जब वह जिम जौइन करने की बात करता तो साधना उसे घर पर ही योगा और व्यायाम कर के फिट रहने के उपाय समझाती. उसे बेवजह के स्कूल टूअर या फंक्शन में शामिल होने के बजाय उस समय का उपयोग पढ़ाई करने और भविष्य संवारने में लगाने को कहती. वह अपनी बिटिया को भी पैसे बरबाद करने के बजाय बचत करने के तरीके समझाती.

उस दिन साधना की बेटी पायल का बर्थडे था. साधना के कहने पर पायल इस बार अपनी बर्थडे पार्टी साधारण तरीके से मनाने की बात तो मान गई मगर एक खूबसूरत नई ड्रैस के लिए अड़ गई. साधना ने उस का मन रखने के लिए ड्रैस खरीद दी. 3-4 दिन बाद ही पायल फिर से एक नई ड्रैस के लिए मिन्नतें करने लगी.

“मगर क्यों? अभी तो लाई थी मैं नई ड्रैस,” साधना ने पूछा तो वह बोली,”मम्मा, मेरी बैस्ट फ्रैंड का बर्थडे है. उस के बर्थडे पर मैं अपनी बर्थडे वाली ड्रैस रिपीट कैसे करूं? इस के अलावा कोई नई ड्रैस है भी नहीं मेरे पास.”

“ओके बेटा. परेशान न हो. आप शाम को स्कूल से आओगे तब तक आप की नई ड्रैस आ चुकी होगी.”

“थैंक यू मम्मा,” कह कर पायल हंसतीमुसकराती चली गई.

पायल के जाने के बाद साधना सोचने लगी कि बेटी के लिए एक नई पार्टीवियर ड्रैस का इंतजाम कैसे किया जाए. तभी उस के दिमाग में एक आईडिया आया. उस ने बेटी की एक पुरानी ड्रैस निकाली और उस पर अपने फैशन डिजाइनर दिमाग का इस्तेमाल करते हुए सितारे, स्टोंस, बीड्स और नेट आदि का काम कर और स्टाइलिश कटिंग दे कर उस ड्रैस को एक खूबसूरत पार्टीवियर ड्रैस बना दिया. शाम को जब पायल लौटी और मम्मी के हाथों में प्यारी सी ड्रैस देखी तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

रात में जब साधना ने सुधाकर को सारी बात बताई तो साधना का हाथ पकड़ कर वह बोला,”मैं हमेशा कहता था न यू आर अ गोल्डन वूमन. आज तुम ने यह साबित कर दिया. तुम्हारे गोल्डन कलर्ड हेयर, गोल्डन ड्रैस, गोल्डन ऐक्सेसरीज ही तुम्हें गोल्डन नहीं बनाते बल्कि तुम्हारा दिल भी गोल्डन है. सच सोने का दिल रखती हो तुम. मेरी जिंदगी में इतनी तकलीफें आईं मगर तुम ने अपनी समझदारी और धैर्य से न केवल मुझे हिम्मत दी बल्कि बच्चों को भी हर हाल में खुश हो कर जीना सिखा दिया. थैंक्स साधना.”

साधना ने मुसकराते हुए कहा,”मैं तुम्हारी जीवनसाथी हूं. सुख हो या दुख हो, सम्पन्नता हो या परेशानी, मुझे तुम्हारे साथ हौसला बन कर चलना है. मैं न खुद टूटूंगी और न तुम्हें टूटने दूंगी.”

सुधाकर के चेहरे पर मुसकान और आंखों में प्यार झलक उठा था.

Holi 2024: बीमा दावे का सनसनीखेज राज

‘‘सर, मेरे पति 11 लाख रुपए ले कर कार से संतनगर की ओर जा रहे थे. कोई बदमाश उन के पीछे लगा था. मेरे मोबाइल फोन पर उन्होंने मैसेज भेजा था,’’ सरला ने इंस्पैक्टर को अपने मोबाइल फोन पर आए मैसेज को दिखाया.

‘‘हां, मेरे पास भी उन्होंने फोन किया था. हमारे लोग उस लोकेशन की ओर गए हैं. आप घर जाइए. हम कोशिश करेंगे कि वे जल्द से जल्द महफूज घर पहुंच जाएं,’’ इंस्पैक्टर रवि ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है,’’ सरला ने कहा और वापस चली गई.

इंस्पैक्टर रवि को सरला का बरताव कुछ अजीब सा लगा. वह कई सालों से पुलिस की नौकरी में है और अब तक उस ने जोकुछ भी देखा था, उस के मुताबिक सरला का बरताव अजीब लगा.

उधर थोड़ी देर बाद पता चला कि कैलाश को उस की कार समेत गुंडों ने जला दिया है और उस के रुपए छीन कर ले गए हैं. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता चला है कि कैलाश की मौत जलने और दम घुटने से हुई थी. उस की पत्नी सरला ने उस का दाह संस्कार कर दिया.

इस के बाद सरला का कई बार पुलिस स्टेशन में एफआईआर की कौपी लेने के लिए आना हुआ. इंस्पैक्टर रवि को न जाने क्यों उस की हरकतों से शक होता था.

पुलिस इंस्पैक्टर ने सरला के मोबाइल फोन से होने वाली काल डिटेल को देखा, तो पहले तो कुछ भी शक जैसा नहीं दिखा, पर एक हफ्ते के बाद कैलाश से उस की बात होने की तसदीक हुई. मतलब साफ था कि कैलाश मरा नहीं था. तो फिर कार में किस की लाश थी?

मोबाइल फोन की लोकेशन से पता चल गया कि कैलाश रायपुर में रह रहा था. तुरंत छत्तीसगढ़ पुलिस से बात की गई और कैलाश को धर दबोचा गया.

जब कैलाश से पूछताछ की गई, तो जो बात सामने आई, वह इस तरह थी :

कैलाश ने कार की डिक्की में रखा पैट्रोल का डब्बा निकाल कर डिक्की बंद की और कार पर पैट्रोल उड़ेल दिया, फिर माचिस से उस में आग लगा दी. थोड़ी देर तक वह देखता रहा कि कार ठीक से जल रही है या नहीं.

अंदर एक लाश भी पड़ी थी, जो उस ने एक अस्पताल के मुलाजिम से मिलीभगत कर खरीदी थी. जब उसे भरोसा हो गया कि कार ने ठीक से आग पकड़ ली है, तो वह वहां से धीरे से निकल गया.

इस के बाद कैलाश ने सब से पहले अपनी पत्नी सरला को फोन लगाया, ‘‘सब प्लान के मुताबिक हो गया है. तुम लाश की शिनाख्त कर लेना. कुछ दिनों तक सभी फोन स्विच औफ रखूंगा.’’

‘ठीक है, अब ज्यादा बातें मत करो. पुलिस काल डिटेल्स निकालेगी, तो फंस जाएंगे हम.’

‘‘नहीं फंसेंगे. हम जिन नंबरों से बातें कर रहे हैं, वे जाली पहचान और फोटो से लिए गए सिमकार्ड हैं. मैं भी इस सिमकार्ड को नष्ट कर दूंगा और तुम भी नष्ट कर देना.’’

कैलाश ने मोबाइल से सिमकार्ड निकाल कर उसे तोड़ डाला और वहीं फेंक दिया. फिर अपने मोबाइल फोन से उस ने पुलिस को फोन लगाया, ‘‘हैलो, मैं कैलाश बोल रहा हूं. मेरे पीछे कुछ गुंडे लगे हैं. वे मेरे 11 लाख रुपए छीनने के चक्कर में हैं.

‘‘प्लीज, मुझे बचा लीजिए. अभी मैं अक्षरधाम मंदिर से संतनगर की ओर जा रहा हूं…’’ इस से पहले कि पुलिस कुछ और पूछती, उस ने मोबाइल फोन कट कर दिया.

कैलाश हिसार में एक फैक्टरी का मालिक था और इधर कुछ दिनों से कारोबार ठीक नहीं चल रहा था. कुछ कर्ज भी उस के ऊपर हो गया था.  कोविड-19 के चलते उस की माली हालत और भी खराब हो गई थी. लेनदार अपना कर्ज वापस मांग रहे थे, पर वह कर्ज चुका पाने की हालत में नहीं था.

जब कारोबार अच्छा चल रहा था, तब कैलाश ने 2 करोड़ रुपए का बीमा लिया था. वह चाहता था कि आगे चल कर किसी वजह से उस की मौत हो जाती है, तो उस के परिवार को कम से कम पैसे की तंगी न हो.

जब कारोबार में नुकसान होने लगा, तो कैलाश को बीमा का प्रीमियम जमा करना भी मुश्किल होने लगा, क्योंकि 2 करोड़ रुपए का प्रीमियम काफी ज्यादा था.

कैलाश दिनरात यही सोचता कि क्या उपाय करे, जिस से वह अपने कारोबार को संभाल सके, पर मानो वह दलदल में फंस गया था. जब कारोबार संभलने का कोई आसार नहीं बचा, तो उस के मन में किसी भी तरह बीमा की रकम पाने की लालसा जगी.

कैलाश हमेशा यही सोचता कि किस तरह बीमा की रकम पाई जा सकती है. उस के मन में यह विचार भी आता कि वह खुदकुशी कर ले, ताकि कम से कम परिवार वालों की माली हालत ठीक हो जाए.

पर उसे शक था कि खुदकुशी के मामले में परिवार वालों को बीमा की रकम मिलेगी या नहीं. यह बात वह किसी से पूछ भी सकता था, पर इस से उस की नीयत पर शक होने का डर था. फिर जिंदगी का मोह भी वह छोड़ नहीं पा रहा था.

आखिरकार कैलाश ने एक योजना तैयार की. उस योजना के मुताबिक उस के बदले कोई और मरेगा और घर वालों को बीमा की रकम मिल जाएगी. वह चुपके से कहीं दूर निकल जाएगा और जब मामला शांत हो जाएगा, तो वह अपने परिवार वालों को भी अपने साथ ले जाएगा.

इस योजना के मुताबिक उस ने एक अस्पताल मुलाजिम से मिल कर कोरोना वायरस के संक्रमण से मरे एक आदमी की लाश ले ली थी. कैलाश ने उस लाश को अपनी कार में रख लिया और शहर से दूर एक बस्ती में कार खड़ी कर दी. फिर उस ने अपने परिवार वालों और पुलिस को फोन कर के बताया कि वह 11 लाख रुपए ले कर कार से कहीं जा रहा है और बदमाश उस का पीछा कर रहे हैं.

पुलिस कैलाश की बताई जगह पर जब तक पहुंची, तब तक कार पूरी तरह जल चुकी थी. कार में एक लाश भी थी, जिसे परिवार वालों ने कैलाश होने की पुष्टि की.

दरअसल, कैलाश ने यह योजना बहुत सोचसमझ कर बनाई थी और परिवार वालों को वह पूरी योजना पहले ही समझा चुका था. पहचान के लिए उस ने अपने हाथ में पहने कड़े को लाश के हाथ में पहना दिया था.

इस के बाद कैलाश रेलवे स्टेशन पहुंचा और रायपुर जाने वाली ट्रेन में सवार हो गया. उस के पास 3 मोबाइल फोन थे और उस ने तीनों को स्विच औफ कर रखा था.

रायपुर पहुंच कर वह एक किराए के कमरे में रहने लगा. उधर उस की पत्नी सरला ने उस का दाह संस्कार करवा दिया, ताकि किसी को कोई शक न हो.

पर जांच करने वाले पुलिस इंस्पैक्टर रवि को उस की हरकतों से शक हो गया था. पति की मौत के बाद पत्नी की जो मानसिक हालत होनी चाहिए, वह उस के बरताव से नहीं दिख रही थी. वह दुखी होने का नाटक तो कर रही थी, पर वह अच्छी कलाकार साबित नहीं हो सकी. साथ ही, वह बीमा की रकम पाने के लिए काफी उतावली भी दिख रही थी. इस तरह कैलाश की योजना नाकाम हो गई.

Holi 2024: प्यार तूने क्या किया

अनिरुद्ध आज फिर से दफ्तर 25 मिनट पहले पहुंच गया था. जब से उस के दफ्तर में नेहल आई है, उसे ऐसा लगता है कि सबकुछ रूमानी हो गया है. नेहल की झील सी आंखें, प्यारभरी मुसकान उसे सबकुछ बेहद पसंद था.

आज नेहल हरे कुरते के साथ पीला दुपट्टा पहन कर आई थी और साथ में था लाल रंग का प्लाजो… जैसे औफिस का माहौल सुरमई हो गया हो. अनिरुद्ध बहुत दिनों से नेहल के करीब जाने की कोशिश कर रहा था, पर उस की हिम्मत नहीं हो पा रही थी.

नेहल का बेबाक अंदाज अनिरुद्ध को उस के करीब जाने से रोकता था, पर आज वह खुद को रोक नहीं पाया और उस ने नेहल को बोल ही दिया, ‘‘नेहल, आप आज एकदम सुरमई शाम के जैसी लग रही हो…’’

नेहल खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘थैंक यू.’’

धीरेधीरे नेहल के ग्रुप में अनिरुद्ध भी शामिल हो गया था. अनिरुद्ध की आंखों की भाषा नेहल खूब समझती थी, पर अनिरुद्ध का जरूरत से ज्यादा पतला होना नेहल को खलता था.

अनिरुद्ध ने एक दिन बातों ही बातों में नेहल से पूछ लिया, ‘‘नेहल, तुम्हारा कोई बौयफ्रैंड है क्या?’’

नेहल ने कहा, ‘‘नहीं, फिलहाल तो नहीं है, क्योंकि मेरा बौयफ्रैंड माचोमैन होना चाहिए, सिक्स पैक एब्स के साथ… अगर कोई लड़का मुझे देखने की भी जुर्रत करे, तो वह उस की हड्डीपसली एक कर दे…’’

नेहल की बात सुन कर अनिरुद्ध का चेहरा उतर गया था. घर आ कर भी उस के दिमाग में नेहल की बात घूमती रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे नेहल के काबिल बने.

तभी अनिरुद्ध को अपने एक करीबी दोस्त मोंटी की याद आई. वह जिम जाने का शौकीन था.

अनिरुद्ध ने मोंटी को फोन कर के अपनी समस्या बताई, तो मोंटी बोला, ‘अरे भाई, तू मेरे पास आ जा. 2 महीने में ही नेहल तेरी बांहों में होगी.’

अनिरुद्ध फोन रखते ही मोंटी के पास पहुंच गया. वह जल्द से जल्द बौडी बनाना चाहता था.

अब अनिरुद्ध सीधे दफ्तर से जिम ही जाता था. वहां पर मोंटी के कहने पर उस ने अपना खुद का पर्सनल ट्रेनर भी रख लिया था. पर्सनल ट्रेनर ने अनिरुद्ध का एक पूरा डाइट प्लान बना कर दिया था. डाइट प्लान में शामिल खाना अनिरुद्ध की जेब पर काफी महंगा पड़ रहा था, पर वह अपने दिल के हाथों मजबूर था.

एक महीना होने को आया था, पर अनिरुद्ध को अपनी बौडी में कोई खास बदलाव नजर नहीं आ रहा था. जब भी वह अपने पर्सनल ट्रेनर से यह बात कहता, तो उस का यही जवाब होता था, ‘‘अरे सर, थोड़ा समय लगता है बौडी बनाने में, लेकिन देख लेना सर, आप को कुछ ही महीनों में बदलाव नजर आने लगेगा.’’

अनिरुद्ध रातदिन बौडी बनाने के बारे में ही बात करता था. नेहल अनिरुद्ध की बात सुन कर मुसकरा देती और बोलती, ‘‘चलो देखते हैं अनिरुद्ध, तुम्हारी बौडी बन पाती है या नहीं?’’

अभी अनिरुद्ध यह सब कर ही रहा था कि उस की जिंदगी में सक्षम नाम का तूफान आ गया था. सक्षम उन की कंपनी में एकाउंट्स डिपार्टमैंट में नयानया आया था. उस का 6 फुट का कद और गठीला बदन हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींच रहा था.

नेहल एक दिन अपनी सैलरी के किसी इशू को ले कर एकाउंट्स डिपार्टमैंट में गई थी और सक्षम का नंबर ले कर लौटी थी. अब सक्षम भी नेहल के ग्रुप का हिस्सा था. अनिरुद्ध को सक्षम का ग्रुप में शामिल होना नागवार लगता था, पर वह कुछ बोल नहीं पाता था.

अब अनिरुद्ध के सिर पर बौडी बनाने का जुनून सवार हो गया था. एक दिन अनिरुद्ध के पापा ने उसे समझाना भी चाहा था, ‘‘बेटा, अपनी सेहत का ध्यान रखना बहुत अच्छी बात है, पर यह पागलपन ठीक नहीं है.’’

अनिरुद्ध बोला, ‘‘पापा, मुझे इस पतलेपन से छुटकारा चाहिए. मैं नेहल के काबिल बनना चाहता हूं.’’

पापा थोड़ा सोचते हुए बोले, ‘‘बेटा, जिस रिश्ते की बुनियाद ऐसी खोखली  बातों पर टिकी हो, वैसा रिश्ता न ही बने तो अच्छा है.’’

अनिरुद्ध गुस्से में बोला, ‘‘आप नहीं समझोगे पापा. आप को तो खुश होना चाहिए कि आप का बेटा अपनी सेहत के प्रति जागरूक है.’’

पापा बोले, ‘‘हां, पर अगर इस से मन का चैन छिनता है, तो यह घाटे का सौदा है.’’

अनिरुद्ध बिना कुछ जवाब दिए तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया.

अनिरुद्ध के जुनून को देखते हुए उस के पर्सनल ट्रेनर ने अनिरुद्ध के डाइट प्लान में कुछ अलग तरह की खाने की चीजें शामिल कर दी थीं. कोई पाउडर भी था. पर अब अनिरुद्ध की बौडी में बदलाव आना शुरू हो गया था.

न जाने उस पाउडर में क्या था कि अनिरुद्ध को मनचाहा नतीजा मिल रहा था. आजकल वह बेहद खुश रहता था. पर बौडी बनाने और नेहल के चक्कर में बिना अपने ट्रेनर की सलाह लिए अनिरुद्ध ने उस पाउडर की खुराक दोगुनी कर दी थी. अब नेहल ही नहीं दफ्तर की हर लड़की का हीरो था अनिरुद्ध.

अनिरुद्ध ने नेहल से डेट के लिए पूछा और नेहल ने फौरन हां कर दी थी. अनिरुद्ध बेहद खुश था, क्योंकि आखिर उस की मेहनत रंग लाई और उस के प्यार की जीत हुई थी. अब अनिरुद्ध के दिन सोना और रात चांदी हो गई थी.

14 फरवरी हर प्रेमी जोड़े के लिए खास दिन होता है. अनिरुद्ध ने नेहल से पूछा, ‘‘नेहल, कल क्या मेरे साथ बाहर चलोगी?’’

नेहल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, इतना शरमा क्यों रहे हो, जरूर चलेंगे और यह तो वैसे भी हमारा पहला वैलेंटाइन डे है.’’

अनिरुद्ध ने शहर के बाहर एक रिसोर्ट में बुकिंग करा ली थी. वह नेहल को जी भर कर प्यार करना चाहता था.

नेहल और अनिरुद्ध ने पहले लंच किया और फिर दोनों रूम में चले गए. अनिरुद्ध नेहल के करीब आ कर उसे चूमने लगा और नेहल भी बिना किसी विरोध के समर्पण कर रही थी.

15 मिनट बीत गए थे, पर अनिरुद्ध उस से आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था. नेहल कुछ देर तक तो कोशिश करती रही और फिर चिढ़ते हुए बोली, ‘‘यार, जब कुछ कर ही नहीं सकते हो, तो फिर इतना टाइम क्यों खराब किया?’’

फिर नेहल मुसकराते हुए बोली, ‘‘जिम में बौडी बन सकती है, पर वह नहीं.’’

अनिरुद्ध शर्म से पानीपानी हो रहा था. उसे तो ऐसी समस्या नहीं थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह क्यों उस के साथ हो रहा था. क्या उस के अंदर कोई कमी आ गई है?

अनिरुद्ध को लग रहा था कि बौडी बनाने में उस ने जो पाउडर की दोगुनी खुराक कर ली थी, क्या यह उसी का नतीजा है?

अनिरुद्ध नेहल को सब बताना चाहता था, पर जिस प्यार के लिए अनिरुद्ध ने इतना कुछ किया, वही प्यार बिना एक पल रुके पतली गली से निकल गया.

अनिरुद्ध सिर पकड़ कर बैठ गया था. बाहर रिसोर्ट में गाना चल रहा था, ‘प्यार तू ने क्या किया…’

Holi 2024: कबाड़- कैसी थी विजय की सोच

इस बार दीवाली पर जब घर का सारा सामान धूप लगा कर समेटा तब विजय के होंठों पर एक फीकी सी हंसी चली आई थी. मैं जानती हूं कि वह क्यों मुसकरा रहे हैं.

‘‘तो इस बार दीवाली पर भाई के घर जाओगी? वहां जा कर कितने दिन रहोगी? तुम जानती हो न कि तुम्हारी सूरत देखे बिना मेरी सांस नहीं चलती. जल्दी वापस आना.’’

बस स्टैंड तक छोड़ने आए विजय बारबार मेरे बैग को तोलते हुए बोले, ‘‘कितने कपड़े ले कर जा रही हो? भारी है तुम्हारा बैग. क्या ज्यादा दिन रहने वाली हो?’’

चुप हूं मैं. चुप ही तो हूं मैं, न जाने कब से. अच्छा समय बीता भाई के पास मगर जो नया सा लगा वह था मेरी भतीजी का व्यवहार.

डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुकी मिनी के पास नया सामान रखने को जगह ही न थी सो उस ने बचपन का संजोया अपनी जान से भी प्यारा सामान यों खुद से अलग कर दिया मानो वास्तव में उसे संभाल कर रखे रखना कोई मूर्खता हो. खिलौने महरी को उस के बच्चों के लिए थमा दिए थे.

और भी विचित्र तब लगा जब मिनी ने अपने ही प्रिय सामान का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया था.

‘‘देखो न बूआ, याद है यह बार्बी डौल, इस के लिए कितना झगड़ा किया था मैं ने भैया से. और यह लकड़ी के खिलौने, यह डब्बा देखो तो…’’

सामने सारा सामान बिखरा पड़ा था.

‘‘बच्चे थे तो कितने बुद्धू थे न हम. जराजरा सी बात पर रोते थे. यह बचकाना सामान हटा दिया. देखो, अब पूरी अलमारी खाली हो गई है…सच्ची, कितनी पागल थी न मैं जो इस कबाड़ से ही जगह भर रखी थी.’’

अच्छा नहीं लगा था मुझे उस का यह व्यवहार. आखिर हमारे जीवन में संवेदना भी तो कोई स्थान रखती है. जो कभी प्यारा था वह सदा प्यारा ही तो रहता है न, चाहे बचपन हो या जवानी. फिर जवानी में बचपन की सारी धरोहर कचरा कह कर कूड़े के डब्बे में फेंकना क्या क्रूरता नहीं है?

‘‘पुरानी चीजें जाएंगी नहीं तो नई चीजों को स्थान कैसे मिलेगा, जया. यह संसार भी तो इसी नियम पर चल रहा है न. यह तो प्रकृति का नियम है. जरा सोचो हमारे पुरखे अगर आज भी जिंदा होते तो क्या होता. कैसी हालत होती उन की?’’

‘‘कैसी निर्दयता भरी बात करते हैं विजय, अपने मांबाप के विषय में ऐसा कहते आप को शरम नहीं आती…’’

‘‘मेरी मां को कैंसर था. दिनरात पीड़ा से तड़पती थीं. मैं बेटा हूं फिर भी अपनी मां की मृत्यु चाहता था क्योंकि उन के लिए मौत वरदान थी. मुझे अपनी मां से प्यार था पर उन की मौत चाही थी मैं ने. जया, न ही जीवन सदा वरदान की श्रेणी में आता है और न ही मौत सदा श्राप होती है.’’

विजय की बातें मेरे गले में फांस जैसी ही अटक गई थीं.

‘‘जया, जीवन टिक कर रहने का नाम नहीं है. जीवन तो पलपल बदलता है, जो आज है वह कल नहीं भी हो सकता है और जीवन हम सब के चाहने से कभी मुड़ता भी नहीं. यह तो हम ही हैं जिन्हें खुद को जीवन की गति के अनुरूप ढालना पड़ता है.’’

मैं उठ कर अपनी क्लास लेने चली गई थी. जीवन का फलसफा सभी की नजर में एक कहां होता है जो मेरा और विजय का भी एक हो जाता.

एक बार विजय ने मेरे जमा किए पीतल के फूलदान, किताबों के ट्रंक, टेपरिकार्डर को कबाड़ कहा था. माना कि आज अगर पति और बेटे इस संसार में नहीं हैं तो उन का सामान क्या सामान नहीं रहा?

‘‘जब इनसान ही नहीं रहा तब उस के सामान को सहेजा क्यों जाए. जो चले गए वे आने वाले तो नहीं, तुम तो दिवंगत नहीं हो न.’’

कैसी कड़वी होती हैं न विजय की बातें, कभी भी कुछ भी कह देते हैं. मैं मानती हूं कि इतनी कड़वी बात सिर्फ वही कर सकता है जिस का मन ज्यादा साफ हो और जो खुद भी उसी हालात से गुजर चुका हो.

मैं उस दुविधा से उबर नहीं पा रही हूं जिस में मेरा खोया परिवार मुझे अकेला छोड़ कर चला गया है. अपने किसी प्रिय की मौत से क्या कोई उबर सकता है?

‘‘क्यों नहीं उबर सकता? क्या मैं उबर कर बाहर नहीं आया तुम्हारे सामने. मेरे पिता तब चले गए थे जब मैं कालिज में पढ़ता था. मां का हाल तुम ने देख ही लिया. पत्नी को मैं ही रास नहीं आया… कोई जीतेजी छोड़ गया और कोई मर कर. तो क्या करूं मैं? मर तो नहीं सकता न. क्योंकि जितनी सांसें मुझे प्रकृति ने दी हैं कम से कम उन पर तो मेरा हक है न. कभी आओ मेरे घर, देखो तो, क्या मेरा घर भी तुम्हारे घर जैसा चिडि़याघर या अजायबघर है जिस में ज्ंिदा लोगों का सामान कम और मरे लोगों का सामान ज्यादा है…’’

विजय की कड़वी बातें ही बहुत थीं मेरी संवेदना को झकझोरने के लिए, उस पर मिनी का व्यवहार भी बहुतकुछ हिलाडुला गया था मेरे अंतर में.

‘‘देखो न बूआ, अलमारी खोलो तो कितना अच्छा लग रहा है. लगता है सांस आ रही है. कैसा बचकाना सामान था न, जिसे इतने साल सहेज कर रखा…’’ मिनी चहकी.

जवानी आतेआते मिनी में नई चेतना, नई सोच चली आई थी जिस ने उस के प्रिय सामान को बचकाने की श्रेणी में ला खड़ा किया था. पता नहीं क्यों यह सब भी विजय के साथ बांट लिया मैं ने. जानती हूं वह मेरा उपहास ही उड़ाएंगे, ऐसा भी कह दिया तो सहसा आंखें भर आईं विजय की.

‘‘मैं इतना भी कू्रर नहीं हूं, जया. पगली, मैं भी तो उसी हालात का मारा हूं जिन की मारी तुम हो. आज 5 साल हो गए दोनों को गए… जया, वे दोनों सदा तुम्हारी यादों में हैं, तुम्हारे मन में हैं… उन्हें इतना तो सस्ता न बनाओ कि उन्हें उन के सामान में ही खोजती रहो. जो मन की गहराई में छिपा है, सुरक्षित है, वह कचरे में क्योंकर होगा…’’ मेरे सिर पर हाथ रखा विजय ने, ‘‘तुम्हारी शादी तुम्हारे पति के साथ हुई थी, इस सामान के साथ तो नहीं. लोग तो ज्ंिदा जीवनसाथी तक बदल लेते हैं, मेरी पत्नी तो मुझ ज्ंिदा को छोड़ गई और तुम यह बेजान सामान भी नहीं बदल सकतीं.’’

सहसा लगा कि विजय की बातों में कुछ गहराई है. उसी पल निश्चय किया, शायद शुरुआत हो पाए.

लौटते ही दूसरे दिन पूरे घर का मुआयना किया. पीतल का कितना ही सामान था जिस का उपयोग मुमकिन न था. उसे एकत्र कर एक बोरी में डाल दिया. महरी को कबाड़ी की दुकान पर भेजा, थोड़ी ही देर में कबाड़ी वाले की गाड़ी आ गई.

शाम को महरी पुराने कपड़ों से बरतन बदलने वाली को पकड़ लाई. मैं ने कभी कपड़ा दे कर बरतन नहीं लिए थे. अच्छा नहीं लगता मुझे.

‘‘बीबीजी, इन की भी तो रोजीरोटी है न. इस में बुरा क्या है जो आप को भी चार बरतन मिल जाएं.’’

‘‘मैं अकेली जान क्या करूंगी बरतन ले कर?’’

‘‘मेरी बेटी की शादी है, मुझे दे देना. इसी तरह साहब का आशीर्वाद मुझे भी मिल जाएगा. कपड़ों का सही उपयोग हो जाएगा न बीबीजी.’’

गरदन हिला दी मैं ने.

2 ही दिन में मेरा घर खाली हो गया. ढेर सारे नए बरतन मेज पर सज गए, जिन्हें महरी ने दुआएं देते हुए उठा लिया.

‘‘बच्ची की गृहस्थी के पूरे बरतन निकल आए साहब के कपड़ों से. बरसों इस्तेमाल करेगी और आप को दुआएं देगी, बीबीजी.’’

पुरानी पीतल और किताबें बेच कर कुछ हजार रुपए हाथ में आ गए.

कालिज आतेजाते अकसर कालीन की दुकान पर बिछे व टंगे सुंदर कालीन नजर आ जाते थे. बहुत इच्छा होती थी कि मेरे घर में भी कालीन हो. पति की भी बहुत इच्छा थी, जब वह जिंदा थे.

शाम होतेहोते मेरे 2 कमरों के घर में नरम कालीन बिछ गए. पूरा घर खुलाखुला, स्वच्छ हो कर नयानया लगने लगा. अलमारी खोलती तो वह भी खुलीखुली लगती. रसोई में जाती तो वहां भी सांस न घुटती.

‘‘जया, क्या बात है 2 दिन से कालिज नहीं आई?’’ सहसा चौंका दिया विजय ने.

मैं घर की सफाई में व्यस्त थी. कालिज से छुट्टी जो ले ली थी.

‘‘अरे वाह, इतना सुंदर हो गया तुम्हारा घर. वह सारा कबाड़ कहां गया? क्या सब निकाल दिया?’’

विजय झट से पूरा घर देख भी आए. भीग उठी थीं विजय की आंखें. कितनी ही देर मेरा चेहरा निहारते रहे फिर मेरे सिर पर हाथ रखा और बोले, ‘‘उम्मीद मरने लगी थी मेरी. लगता था ज्यादा दिन जी नहीं पाओगी इस कबाड़ में. लेकिन अब लगता है अवसाद की काई साफ हो जाएगी. तुम भी मेरी तरह जी लोगी.’’

पहली बार लगा, विजय भी संवेदनशील हैं. उन का दिल भी नरम है. कुछ सोच कर कहने लगे, ‘‘मैं भी तुम जैसा ही था, जया. मां की दर्दनाक मौत का नजारा आंखों से हटता ही नहीं था. जरा सोचो, जिस मां ने मुझे जीवन दिया उसे एक आसान मौत दे पाना भी मेरे हाथ में नहीं था. क्या करता मैं? पत्नी भी ज्यादा दिन साथ नहीं रही. मैं जानता हूं कि इन परिस्थितियों में जीवन ठहर सा जाता है. फिर भी सब भूल कर आगे देखना ही जीवन है.’’

विजय की आंखें झिलमिलाने लगी थीं. मेरे सिर पर अभी भी उन का हाथ था. हाथ उठा कर मैं ने विजय का हाथ पकड़ लिया. हजार अवसर आए थे जब विजय ने सहारा दिया था. सौसौ बार बहलाना भी चाहा था.

यह पहला अवसर था जब वह खुद मेरे सामने कमजोर पड़े थे. सस्नेह थाम लिया मैं ने विजय का हाथ.

‘‘मेरे पति की बड़ी इच्छा थी कि नरम कालीन हों घर में. बस, कभी मौका ही नहीं मिला था…कभी मौका मिला भी तो इतने रुपए नहीं थे हाथ में. बेकार पड़े सामान को निकाला तो उन की इच्छा पूरी हो गई. मैं ने कुछ गलत तो नहीं किया न?’’

जरा सी आत्मग्लानि सिर उठाने लगी तो फिर से उबार लिया विजय ने, यह कह कर कि नहीं तो, जया, सुंदर कालीन में भी तो तुम अपने पति की ही इच्छा देख रही हो  न. सच तो यह है कि जो जीवन की ओर मोड़ पाए वह भला गलत कैसे हो सकता है.

रोतेरोते मुसकराना कैसा लगता है. मैं अकसर रोतीरोती मुसकरा देती हूं तो विजय हाथ हिला दिया करते हैं.

‘‘इस तरह तो तुम जाने वालों को दुख दे रही हो. उन का रास्ता आसान बनाओ, पीछे को मत खींचो उन्हें. जो चले गए उन्हें जाने दो, पगली. खुश रहना सीखो. इस से उन्हें भी खुशी होगी. वह भी तुम्हें खुश ही देखना चाहते हैं न.’’

सहसा हाथ बढ़ा कर विजय ने पास खींच लिया और कहने लगे, ‘‘जीवन के अंतिम छोर तक तुम ने अपने पति का साथ दिया है. तुम किसी के साथ विश्वासघात नहीं कर रही. न अपने पति के साथ, न बेटे के साथ और न ही मेरे साथ. हम सब साथसाथ रह सकते हैं, जया.’’

विजय के हाथों को पिछले 3 साल से हटाने का प्रयास कर रही हूं मैं. विजय ने सदा मेरी इच्छा का सम्मान किया है.

लेकिन इस पल मैं ने जरा सा भी प्रयास नहीं किया. विजय स्तब्ध रह गए. उन की भावनाओं का सम्मान कर मैं पति का अपमान नहीं कर रही. धीरेधीरे विश्वास होने लगा मुझे. अविश्वास आंखों में लिए विजय ने मेरा चेहरा सामने किया. हैरान तो होना ही था उन्हें.

न जाने क्याक्या था जिस के नीचे दबी पड़ी थी मैं. कुछ यादों का बोझ, कुछ अपराधबोध का बोझ और कुछ अनिश्चय का बोझ. पता नहीं कल क्या हो.

शब्दों की आवश्यकता तो कभी नहीं रही मेरे और विजय के बीच. सदा मेरा चेहरा देख कर ही वह सब भांपते रहे हैं. भीगी आंखों में सब था. सम्मान सहित आजीवन साथ निभाने का आश्वासन. मुसकरा पड़े विजय. झुक कर मेरे माथे पर एक प्रगाढ़ चुंबन जड़ दिया. खुश थे विजय. मैं कबाड़ से बाहर जो चली आई थी.

Holi 2024: होली के रंगों को साफ करने के लिए अपनाएं ये टिप्स

होली पर्व का नाम सुनते ही मन रंगरंगीली उमंगों से भर उठता है. होली रंगों का त्योहार है. इसे एकदूसरे पर गुलाल लगा कर मनाया जाता है परंतु आजकल गुलाल के साथसाथ लोग रंगों का भी प्रयोग करते हैं. अकसर घरों में एकदूसरे को रंग लगाते समय या रंग से बचने के प्रयास में रंग यहांवहां गिर जाता है. प्राकृतिक रंगों के दागधब्बे जहां आसानी से निकल जाते हैं, वहीं आजकल बाजार में उपलब्ध रासायनिक रंगों के दागधब्बों को साफ करना बड़ी चुनौती होती है.

यहां प्रस्तुत हैं, कुछ ऐसे उपाय जिन से घर की दीवारों, फर्श आदि पर लगे रंगों के दागधब्बों को आसानी से साफ किया जा सकता है :

दीवारें

– ध्यान रखें कि केवल उन्हीं दीवारों को साफ किया जा सकता है जिन पर वाशेबल डिस्टैंपर किया गया हो.

औयल बाउंड डिस्टैंपर वाली दीवारों की सफाई खुद करने का प्रयास न करें.

– वाशेबल पेंट की दीवारों को साफ करने के लिए पानी और साबुन का घोल बना कर गीले कपड़े और स्पंज से साफ करें.

– ब्रैंडेड पेंट को दीवारों से कैसे साफ किया जाए, इस की जानकारी कंपनी की वैबसाइट पर दी होती है. उसे पढ़ कर भी दीवारों को साफ किया जा सकता है.

– पानी प्रतिरोधी रंगों से रंगी दीवारों को साफ करने के लिए स्टेन ब्लागर की भी मदद ले सकती हैं. इस से दीवारों पर दागधब्बे नहीं लगते.

– यदि सादे पानी के प्रयोग से दीवारें साफ न हों तो टचअप का प्रयोग करें.

हलका सा टचअप कर के आप अपनी दीवारों को नया लुक दे सकती हैं. इस से आप की दीवारें बिलकुल नई सी लगने लगेंगी.

– टचअप करने का प्रयास आप स्वयं न करें. इस के लिए प्रोफैशनल की मदद लें अन्यथा शेड का हलका सा डिफरैंस भी दीवारों का लुक खराब कर देगा.

– दीवारों पर पड़े धब्बों को कभी बेकिंग पाउडर या ब्लीच से साफ करने का प्रयास न करें अन्यथा उन का रंग हलका पड़ जाएगा.

फर्श

– जहां तक संभव हो फर्श पर गिरे रंग को तुरंत साफ करने का प्रयास करें और यदि ऐसा करना संभव न हो तो उस पर थोड़ा सा पानी डाल दें ताकि रंग का धब्बा न पड़ने पाए.

– हलकेफुलके धब्बों को साबुन के पानी से एक नायलौन ब्रश से हलके हाथ से रगड़ कर साफ करें ताकि फर्श पर स्क्रैच न हो.

– अधिक पक्के धब्बों को साफ करने के लिए 2 बड़े चम्मच बेकिंग पाउडर में 1 छोटा चम्मच पानी मिला कर पेस्ट बनाएं और उसे धब्बों पर लगा कर आधे घंटे के लिए छोड़ दें. फिर साफ कपड़े से पोंछ दें. यदि धब्बे फिर भी न छूटें तो इस प्रक्रिया को 2-3 बार दोहराएं.

– पक्के धब्बों को साफ करने के लिए हाइड्रोजन पैराक्साइड को स्पंज पर लगा कर फर्श पर रगड़ें.

– यदि आप का फर्श सफेद संगमरमर का है, तो उस पर तरल ब्लीच का प्रयोग करें.

परंतु रंगीन और लैमिनेटेड फर्श पर ब्लीच का प्रयोग न करें अन्यथा यह उस का रंग फीका कर देगा.

– लकड़ी के फर्श पर गिरे सूखे रंग को तुरंत पोंछ कर साफ करें. यदि गीला रंग गिरा है तो साफ सूती कपड़े को ऐसिटोन में भिगो कर हलके हाथ से रगड़ते हुए साफ करें. ध्यान रखें कि कई बार इस से नाजुक फर्नीचर की पौलिश भी निकल जाती है. ऐसे में धब्बे हटाने के बाद पुन: पौलिश करवा लें जहां तक संभव हो रंग और पानी की व्यवस्था घर से बाहर ही करें और एक बार रंग या गुलाल लग जाने पर आप स्वयं भी बारबार अंदरबाहर न आएंजाएं. इस से आप व्यर्थ की परेशानियों से बच जाएंगी.

सहारा: क्या जबरदस्ती की शादी निभा पाई सुलेखा

“शादी… यानी बरबादी…” सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी थी.

“मां मुझे शादी नहीं करनी है. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी देखभाल करना चाहती हूं,” और फिर सुलेखा ने बड़े प्यार से अपनी मां की ओर देखा.

“नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते,” मां ने स्नेह भरी दृष्टि से अपनी बेटी की ओर देखा.

“मां, मुझे शादी जैसे रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं,.. विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है…

“आप जरा अपनी जिंदगी में देखो… शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है. पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…” कहती हुई वह अचानक रुक सी जाती है और आंसू भरी नेत्रों से अपनी मां की ओर देखती है तो मां दूसरी तरफ मुंह घुमा लेती हैं और अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलती हैं, “अरे छोड़ो इन बातों को. इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते. और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन.

“देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,” और वह अपनी बेटी को गले से लगा कर उस के माथे को चूम लेती है.

मालती अपनी बेटी सुलेखा को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए.

जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था, तब सुलेखा महज 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का ही प्यार दिया था. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं, बल्कि उन की सुखदुख की साथी भी थी.

अपनी टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया था, वह सभी कुछ अपनी बेटी पर ही लुटाया था. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरतों का खयाल रखा था. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, चाहे खुद उन्हें कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

आज जब वह अपनी बेटी की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया, ताकि उन की बेटी को कोई कष्ट ना हो.

सुलेखा आजाद खयालों की लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद ही आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिश नहीं लगाई.

सुलेखा ने भी अपनी मां को हमेशा ही एक स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह से यह बात जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें झेलना पड़े झेल लेंगी, परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा का शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती बड़े ही भावुक हो कर कहती हैं, “बेटा तू क्यों नहीं समझती? तुझे ले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी. एक ना एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,” और फिर हंसते हुए वे बोलती हैं, “और, तुम्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छुपा हुआ है. कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक ना एक दिन मैं भी इस दुनिया को अलविदा तो कहने वाली ही हूं… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी…” कहते हुए उन का गला भर्रा जाता है.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है, जो कि एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर के पद पर तैनात है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी हैं, जो 80 या 85 उम्र की हैं.

मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आता है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में बहुत ही खुशहाल जिंदगी जिएगी. यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं था. वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं होगी. तो उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

विदाई के वक्त सुलेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. धुंधली आंखों से उस ने अपनी मां की तरफ और उस घर की ओर देखा, जिस में उस का बचपन बीता था.

“अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो… ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से झिड़कते हुए कहा और उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया गया…

“परंतु आंखें पल्लू में ढक गईं तो मैं देख कैसे पाऊंगी…” उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए हुए अपनी जेठानी को देखा, जो बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने के लिए अपनी नाक तक घूंघट खींच रखी थी.

“तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट रखा जाता है,” यह आवाज उस की सास की थी.

“आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल ना उठाएं…” सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई थी.

“तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,” योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्ला पड़ता है.

ऐसा बरताव देख सुलेखा तिलमिला सी जाती है और गुस्से से योगेंद्र की ओर देखती है.

“अरे, नई बहू दरवाजे पर ही कब तक खड़ी रहेगी? कोई उसे अंदर क्यों नहीं ले आता?” दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था, उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं. वैसे भी उन के कानों ने उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. यमराज तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गए थे, क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखनी थी.

अपनी लंबी उम्र और घर की उन्नति के लिए कई बार काशी के बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड पूजाअर्चना करवा चुकी हैं, ताकि चित्रगुप्त का लिखा बदलवाया जा सके, उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी कर दी थी कि उन के छोटे पोते की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो, उसी लड़की से छोटे पोते की शादी कराई जाए.

अतः सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा दे दिया गया था और अब उन्हें बेचैनी इस बात से हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए… वरना कहीं कुछ अनिष्ट ना हो जाए.

लेकिन घूंघट के ना होने पर उखड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

“आप मुझ से ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?” सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोलती है.

“तुम्हें तुम्हारे पति से कैसे बात करनी चाहिए, क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया,” घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

“अरे, इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,” सुलेखा की सास ने बेहद ही गुस्से में कहा.

“आप मुझे तमीज मत सिखाइए…” सुलेखा के स्वर भी ऊंचे हो उठे थे.

“पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए… ”

“सुलेखा…” योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ता है.

“चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझे भी आता है,” सुलेखा ने भी ठीक उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा था.

“इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है. पति से जबान लड़ाती है,” सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

“आप लोगों के संस्कार का क्या…? नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है,” सुलेखा ने भी जोर से चिल्लाते हुए कहा.

“तुम सीमा लांघ रही हो…” योगेंद्र चिल्लाता है.

“और आप लोग भी मुझे मेरी हद न सिखाएं….”

“सुलेखा…” और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ जाता है.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठती है. साथ में उस की आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगती है और आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उमड़ पड़ता है.

अचानक उस के पैर डगमगा जाते हैं और नीचे रखे तांबे के कलश से उस के पैर जा टकराते हैं और वह कलश उछाल खाता हुआ सीधा दादी सास के सिर से जा टकराता है और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर ही एक ओर लुढ़क जाती हैं. सभी तरफ कोहराम मच जाता है.

लोग चर्चा करते हुए कहते हैं, “देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के… गुस्से में दादी सास को ही कलश चला कर दे मारी… अरे हाय… हाय, अब तो ऊपर वाला ही रक्षा करे…

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झुका हुआ था और गले से तुलसी की माला नीचे लटकी हुई जमीन को छू रही थी.

यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें मानो क्षणभर के लिए जैसे रुक सी गईं…

“अरे हाय, ये क्या कर दिया तुम ने,” सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई बेतहाशा दादी सास की ओर दौड़ पड़ती है.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा, उस के होठों पर लाल गहरे रंग की लिपिस्टिक लगी हुई थी और साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आखों पर नीले रंग के आईशैडो भी लगा रखे थे और गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहन रखा था. उन का यह बनावसिंगार उन के अति सिंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा जाती है और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस के पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है…

“कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,” योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही थी.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी होता है. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह जाती है. उस की आंखों से छलछल आंसू बहने लगते हैं. वह मन ही मन सोचने लगती है कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है, उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है.

जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया है, जितनी कुंठित विचारधारा इन सबों की है, वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी. उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इन सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे सब से ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी, तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी, अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि, जिस सुंदर चित्र को उस ने संजोया था, वह अब एक झटके में ही टूटताबिखरता नजर आ रहा था.

खैर, उन की पूजापाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि के प्रभाव से भी दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

“अरे, अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,” सास ने बड़े ही गुस्से में आवाज लगाई.

“नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,” सुलेखा ने बड़ी ही दृढ़ता से कहा.

“क्या कहा…? कैसी कुलक्षणी है यह…? अब और कोई कसर रह गई है क्या…?” सास ने गुस्से से गरजते हुए कहा.

“अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो, अंदर चलो…” योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

“नहीं, मै अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकूंगी,” कहते हुए सुलेखा एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपने हाथ को छुड़ा लेती है.

“जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया. जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई, अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,” कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल कर अपनी मां के घर की ओर चल देती है.

सुलेखा मन ही मन सोचती जाती है, ‘जिस रिश्ते में सम्मान नहीं, उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी? जो परंपरा एक औरत को खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे. जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करें और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो, वैसे रिश्ते से तो अकेले की ही जिंदगी बेहतर है.

‘मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के. उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है. सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है. अब मैं उन का सहारा बनूंगी…”

Holi 2024: रिश्तों में रंग घोले होली की ठिठोली

वैसे तो होली रंगों का त्योहार है पर इस में शब्दों से भी होली खेलने का पुराना रिवाज रहा है. होली ही ऐसा त्योहार है जिस में किसी का मजाक उड़ाने की आजादी होती है. उस का वह बुरा भी नहीं मानता. समय के साथ होली में आपसी तनाव बढ़ता जा रहा है. धार्मिक और सांप्रदायिक कुरीतियों की वजह से होली अब तनाव के साए में बीतने लगी है. पड़ोसियों तक के साथ होली खेलने में सोचना पड़ता है. अब होली जैसे मजेदार त्योहार का मजा हम से अधिक विदेशी लेने लगे हैं. हम साल में एक बार ही होली मनाते हैं पर विदेशी पानी, कीचड़, रंग, बीयर और टमाटर जैसी रसदार चीजों से साल में कई बार होली खेलने का मजा लेते हैं. भारत में त्योहारों में धार्मिक रंग चढ़ने से दूसरे धर्म और बिरादरी के लोग उस से दूर होने लगे हैं.

बदलते समय में लोग अपने करीबियों के साथ ही होली का मजा लेना पसंद करते हैं. कालोनियों और अपार्टमैंट में रहने वाले लोग एकदूसरे से करीब आने के लिए होली मिलन और होली पार्टी जैसे आयोजन करने लगे हैं. इस में वे फूलों और हर्बल रंगों से होली खेलते हैं. इस तरह के आयोजनों में महिलाएं आगे होती हैं. पुरुषों की होली पार्टी बिना नशे के पूरी नहीं होती जिस की वजह से महिलाएं अपने को इन से दूर रखती हैं. अच्छी बात यह है कि होली की मस्ती वाली पार्टी का आयोजन अब महिलाएं खुद भी करने लगी हैं. इस में होली गेम्स, होली के गीतों पर डांस और होली क्वीन चुनी जाती है. महिलाओं की ऐसी पहल ने अब होली को पेज थ्री पार्टी की शक्ल दे दी है. शहरों में ऐसे आयोजन बड़ी संख्या में होने लगे हैं. समाज का एक बड़ा वर्ग अब भी होली की मस्ती से दूर ही रह रहा है.

धार्मिक कैद से आजाद हो होली

समाजशास्त्री डा. सुप्रिया कहती हैं, ‘‘त्योहारों की धार्मिक पहचान मौजमस्ती की सीमाओं को बांध देती है. आज का समाज बदल रहा है. जरूरत इस बात की है कि त्योहार भी बदलें और उन को मनाने की पुरानी सोच को छोड़ कर नई सोच के हिसाब से त्योहार मनाए जाएं, जिस से हम समाज की धार्मिक दूरियों, कुरीतियों को कम कर सकें. त्योहार का स्वरूप ऐसा बने जिस में हर वर्ग के लोग शामिल हो सकें. अभी त्योहार के करीब आते ही माहौल में खुशी और प्रसन्नता की जगह पर टैंशन सी होने लगती है. धार्मिक टकराव न हो जाए, इस को रोकने के लिए प्रशासन जिस तरह से सचेत होता है उस से त्योहार की मस्ती उतर जाती है. अगर त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्ति मिल जाए तो त्योहार को बेहतर ढंग से एंजौय किया जा सकता है.’’

पूरी दुनिया में ऐसे त्योहारों की संख्या बढ़ती जा रही है जो धार्मिक कैद से दूर होते हैं. त्योहार में धर्म की दखलंदाजी से त्योहार की रोचकता सीमित हो जाती है. त्योहार में शामिल होने वाले लोग कुछ भी अलग करने से बचते हैं. उन को लगता है कि धर्म का अनादार न हो जाए कि जिस से वे अनावश्यक रूप से धर्म के कट्टरवाद के निशाने पर आ जाएं. लोगों को धर्म से अधिक डर धर्म के कट्टरवाद से लगता है. इस डर को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्त किया जाए. त्योहार के धार्मिक कैद से बाहर होने से हर जाति व धर्म के लोग आपस में बिना किसी भेदभाव के मिल सकते हैं.

मस्त अंदाज होली का

होली का अपना अंदाज होता है. ऐसे में होली की ठिठोली के रास्ते रिश्तों में रस घोलने की पहल भी होनी चाहिए. होली की मस्ती का यह दस्तूर है कि कहा जाता है, ‘होली में बाबा देवर लागे.’ रिश्तों का ऐसा मधुर अंदाज किसी और त्योहार में देखने को नहीं मिलता. होली चमकदार रंगों का त्योहार होता है. हंसीखुशी का आलम यह होता है कि लोग चेहरे और कपड़ों पर रंग लगवाने के बाद भी खुशी का अनुभव करते हैं. होली में मस्ती के अंदाज को फिल्मों में ही नहीं, बल्कि फैशन और लोकरंग में भी खूब देखा जा सकता है. साहित्य में होली का अपना विशेष महत्त्व है. होली में व्यंग्यकार की कलम अपनेआप ही हासपरिहास करने लगती है. नेताओं से ले कर समाज के हर वर्ग पर हास्यपरिहास के अंदाज में गंभीर से गंभीर बात कह दी जाती है.

इस का वे बुरा भी नहीं मानते. ऐसी मस्ती होली को दूसरे त्योहार से अलग करती है. होली के इस अंदाज को जिंदा रखने के लिए जरूरी है कि होली में मस्ती को बढ़ावा दिया जाए और धार्मिक सीमाओं को खत्म किया जाए. रिश्तों में मिश्री सी मिठास घोलने के लिए होली से बेहतर कोई दूसरा तरीका हो ही नहीं सकता है. होली की मस्ती के साथ रंगों का ऐसा रेला चले जिस में सभी सराबोर हो जाएं. सालभर के सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएं. कुछ नहीं तो पड़ोसी के साथ संबंध सुधारने की शुरुआत ही हो जाए.

Holi 2024: सुधा- एक जांबाज लड़की की कहानी

दरवाजे की घंटी की मीठी आवाज ने सारे घर को गुंजा दिया था. यह घंटी अब कभीकभार ही बजती है, पर जब भी बजती है, तो सारे घर के माहौल को महका देती है.

मैं ने बड़े ही जोश से दरवाजा खोला था. दरवाजा खोलते ही एक सूटबूटधारी नौजवान पर निगाह पड़ते ही मेरी आंखों में अपनेआप सवालिया निशान उभर आया था. मुझे लगा था कि इस ने या तो गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है या फिर किसी का पता पूछना चाहता है, क्योंकि उसे मैं नहीं पहचानता था.

‘‘मैं सौरभ… मेरी मां सुधा और पिताजी गौरव… उन्होंने मुझ से बोला था कि मैं आप से आशीर्वाद ले कर आऊं…’’

‘‘ओह… अच्छा… कैसे हैं वे दोनों…’’ मेरे सामने अतीत के पन्ने खुलते चले गए थे. एकएक चेहरा ऐसे सामने आता जा रहा था मानो मैं अतीत के चलचित्र देख रहा हूं.

‘‘पिताजी तहसीलदार बन गए हैं… उन्होंने यह बताने को जरूर बोला था.’’

‘‘ओह… अच्छा, पर वे तो रीडर थे… मैं ने ही उन्हें नियुक्त किया था…’’ मुझे वाकई हैरानी हो रही थी.

‘‘जी, इसलिए तो उन्होंने मुझे आप को बताने के लिए बोला था… उन्होंने विभागीय परीक्षा दी थी… उस में वे पास हो गए थे और नायब तहसीलदार बना दिए गए थे… बाद में उन का प्रमोशन हो गया और अब वे तहसीलदार बन गए हैं,’’ सौरभ सबकुछ पूरे जोश के साथ बताता चला जा रहा था.

‘‘अच्छा… और सुधा का स्कूल…’’

‘‘मम्मी का स्कूल… अभी चल रहा है… तकरीबन 4 एकड़ में नई बिल्डिंग बन गई है और उस में 2,000 से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं…’’

जब सौरभ ने मेरे पैर छू कर बताया कि वह सुधा का बेटा है, तब मेरी यादों के धुंधले पड़ चुके पन्ने अचानक पलटने लगे.

सुधा… ओह… वह जांबाज लड़की, जिस ने एक झटके में ही आपने मातापिता का घर केवल इसलिए छोड़ दिया था कि वह किसी के साथ नाइंसाफी कर रहे थे. वैसे तो मैं उन को पहचानता नहीं था… वह तो उस दिन वे कचहरी आए थे, कार्ट मैरिज का आवेदन देने, तब मैं ने जाना था पहली बार उन को…

‘‘सर, मैं और ये कोर्ट मैरिज करना चाहते हैं…’’

मेरा ध्यान सुधा के साथ खड़े एक लड़के की ओर गया. सामान्य सी कदकाठी का दुबलापतला लड़का बैसाखियों के सहारे खड़ा था. उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी.

मुझे हैरानी हुई थी कि इतनी खूबसूरत लड़की कैसे इस लड़के को पसंद कर सकती है और शादी कर सकती है. मैं ने आवेदनपत्र को गौर से पढ़ा :

नाम- कु. सुधा

पिता का नाम- रामलाल

शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएशन

लड़के का नाम- गौरव

पिता का नाम- स्व. गिरिजाशंकर

शिक्षा- बीए

मेरी निगाह एक बार फिर उन दोनों की तरफ घूम गई थी.

‘‘सर, आवेदन में कुछ रह गया है क्या? अंक सूची भी लगी हुई है. मेरी उम्र

18 साल से ज्यादा है और इन की उम्र 21 साल पूरी हो चुकी है…’’

मैं ने अपनी निगाहों को उन से हटा लिया था, ‘‘नहीं… आवेदन तो ठीक है… पर क्या मातापिता की रजामंदी है?’’

‘‘जी नहीं, तभी तो कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. वैसे, हम बालिग हैं और अपनी पसंद से शादी कर सकते हैं…’’ सुधा ने जवाब दिया था.

‘‘ठीक है… आप 15 दिन बाद फिर आइए. हम नोटिस चस्पां करेंगे और फिर आप को शादी की तारीख बताएंगे…’’

दरअसल, मैं चाहता था कि लड़की को कुछ दिन और सोचने का मौका मिले कि कहीं वह जल्दबाजी में या जोश में तो शादी नहीं कर रही है.

उस लड़की को ले कर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. वह भले घर की लग रही थी और खूबसूरत भी थी. लड़का किसी भी लिहाज से उस के लायक नहीं लग रहा था. शुरू में तो मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़का किसी

तरह से उसे ब्लैकमेल कर रहा हो…

मैं ने छानबीन कराने का फैसला कर लिया था.

सुधा के पिता का बड़ा करोबार था. शहर में उन की इज्जत भी बहुत थी. सुधा उन की एकलौती संतान थी, जो लाड़प्यार में पली थी.

गौरव सुधा के पिताजी की दुकान में काम करता था. वह काफी गरीब परिवार से था, पर शरीफ था. उस की मां ने मेहनतमजदूरी कर के उसे पालापोसा और पढ़ायालिखाया था.

मां बूढ़ी हो चुकी थीं. इस वजह से गौरव को पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर काम पर लग जाना पड़ा था. वह सुधा के पिताजी के यहां काम करने लगा था.

गौरव की मेहनत और ईमानदारी को देखते हुए एक दिन सेठजी ने उसे मैनेजर बना दिया और वह सेठजी का पूरा कारोबार संभालने लगा था.

इसी दौरान सुधा का परिचय गौरव से हुआ. सुधा भी गौरव से बेहद प्रभावित हुई. वे दोनों हमउम्र थे. इस वजह से उन में जानपहचान बढ़ती चली गई. इस के बावजूद उन के बीच में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे सामाजिक तौर से गलत माना जा सके.

गौरव ने अपनी पारिवारिक परेशानियों की वजह से पढ़ाई भले ही छोड़ दी हो, पर वह समय निकाल कर पढ़नेलिखने के अपने शौक को पूरा करता रहता था. सेठजी के काम से उसे जरा सी भी फुरसत मिलती, वह या तो लिखने बैठ जाता या पढ़ने.

सुधा पोस्ट ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थी. वह कभीकभार गौरव से पढ़ाई के विषय पर चर्चा करने लगी थी. वह जानती थी कि गौरव ने भले ही पोस्ट ग्रेजुएशन न किया हो, पर उसे जानकारी पूरी थी.

गौरव की मां की बीमारी ठीक नहीं हो रही थी. गौरव की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा मां की दवाओं पर ही खर्च हो जाता था, पर उसे सुकून था कि वह मां की सेवा कर रहा है.

सुधा गौरव के हालात के बारे में इतना बेहतर तो नहीं जानती थी, पर मां की बीमारी और माली तंगी को वह समझने लगी थी.

तभी गौरव के साथ घटे दर्दनाक हादसे ने उसे गौरव के और करीब ला दिया था. सेठजी के गोदाम में रखी एक लोहे की छड़ उस के पैरों को छलनी करती हुई तब आरपार निकल गई थी, जब वह माल का निरीक्षण कर रहा था.

गौरव को तत्काल अस्पताल ले जाया गया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. डाक्टरों को उस का एक पैर काट देना पड़ा था.

गौरव अब विकलांग हो चुका था. वह अब सेठजी के किसी काम का नहीं रहा था, इसलिए उन्होंने उस का इलाज तो पूरा कराया, पर इस के बाद उसे काम पर आने से मना कर दिया.

अपने पिताजी के इस बरताव से सुधा दुखी थी. अपंग गौरव के सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो गया था. सुधा ने अपने पिताजी को काफी समझाने की कोशिश भी की थी, पर उन्होंने साफ कह दिया था, ‘‘हम बैठेबिठाए किसी को तनख्वाह नहीं दे सकते.’’

‘‘पर, वह आप की रोकड़बही का काम करेगा न, पहले भी वह यही काम करता था और आप खुद उस के काम की तारीफ करते थे,’’ सुधा ने कहा था.

‘‘रोकड़बही का काम कितनी देर का रहता है… बाकी दिनभर तो वह बेकार ही रहेगा न. पहले वह इस काम के अलावा बैंक जाने से ले कर गोदाम तक का काम कर लेता था, पर अब तो वह यह भी नहीं कर पाएगा,’’ सेठजी मानने को तैयार नहीं थे.

ऐसे में सुधा के पास एक आखिरी हथियार बचा था अपने पिता को धमकी देने का, ‘‘पिताजी, अगर आप ने गौरव को काम पर नहीं रखा, तो मैं भी इस घर में नहीं रहूंगी…’’

‘‘ठीक है बेटी, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ पिताजी ने इतना कह कर बात को खत्म कर दिया था. वे इसे सुधा का बचपना ही मान कर चल रहे थे, परंतु सुधा स्वाभिमानी लड़की थी. उसे अपने पिता से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी. उसने गौरव को अपनाने का फैसला कर लिया.

जब सुधा ने अपना फैसला सुनाया, तो उस की मां दुखी हो गई थीं. उन्होंने उसे रोका भी था, पर वे अपनी बेटी के स्वभाव से परिचित थीं. इस वजह से उन्होंने उसे जाने दिया.

‘‘यह मत समझना कि मैं किसी फिल्मी पिता की तरह तुम्हें समझाबुझा कर वापस लाने की कोशिश करूंगा… वैसे भी तुम बालिग हो और अपना फैसला खुद ले सकती हो…’’ पिताजी की आवाज में सहजता ही थी. उधर गौरव की मां जरूर घबरा गई थीं.

‘‘नहीं बेटी, मैं तुम्हें अपने घर पर नहीं रख सकती. हम तो पहले से ही इतने परेशान हैं, तुम क्यों हमारी परेशानी बढ़ाना चाहती हो…’’ कहते हुए गौरव की मां फफक पड़ी थीं.

‘‘मां, मैं तो अब आ ही चुकी हूं. अब मैं वापस तो जाने से रही, इसलिए आप परेशान न हों… मैं सब संभाल लूंगी… अपने पिताजी को भी.’’

सुधा ने परिवार को वाकई संभाल लिया था. वह मां की पूरी सेवा करती और गौरव का भी ध्यान रखती. गौरव घर में रह कर बच्चों को पढ़ाता रहता और सुधा एक स्कूल में टीचर बन गई थी.

एक दिन सुधा ही गौरव को ले कर कचहरी गई थी, ताकि कोर्ट मैरिज का आवेदन दे सके. यों बगैर शादी किए वह कब तक इस परिवार में रह सकती थी.

सुधा और गौरव की पूरी कहानी का पता चलने के बाद मैं ने उन दोनों की मदद करने का फैसला ले लिया था. दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई थी.

गौरव को मैं ने ही कचहरी में काम पर लगा लिया था. सुधा का मन स्कूल संचालन में ज्यादा था. सो, मैं ने अपने माध्यमों का उपयोग कर उस को स्कूल खोलने की इजाजत दिला दी थी, साथ ही अपने परिचितों से उस स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला दिलाने को भी कह दिया था.

सुधा का स्कूल खुल चुका था. 2 कमरे से शुरू हुआ उस का स्कूल धीरेधीरे बड़ा होता जा रहा था.

सौरभ का जब जन्म हुआ, तब तक सुधा का स्कूल शहर के नामी स्कूलों में गिना जाने लगा था.

रिटायर होने के बाद मैं अपने शहर आ गया था. इस के चलते फिर न तो सुधा से कभी मुलाकात हो सकी और न ही सौरभ के बारे में जान सका. आज जब सौरभ को यों अपने सामने देखा तो पहचान ही नहीं पाया.

सुधा और गौरव ने जीरो से शुरुआत की थी और आज उंचाइयों पर पहुंच गए थे. मुझे खुशी इस बात की भी थी कि इस सब में मेरा भी कुछ न कुछ योगदान था. अपने ही लगाए पौधे को जब माली फलताफूलता देखता है, तो उसे खुशी तो होती ही है.

अच्छी बात यह भी थी कि गौरव और सुधा मुझे अभी भूले भी नहीं थे, जबकि न जाने कितना समय गुजर चुका है.

मैं ने सौरभ को गले से लगा लिया और पूछा, ‘‘और बेटा, तुम क्या कर रहे हो?’’

‘‘जी, मेरा अभीअभी आईएएस में चयन हुआ है. मैं जानता हूं अंकल कि आप ने मेरे परिवार को इस मुकाम तक पहुंचाने में कितना सहयोग दिया है. मां ने मुझे सबकुछ बताया है. अगर उस समय आप उन का साथ नहीं देते तो शायद…’’ उस की आंखों में आंसू डबडबा आए थे. मैं ने एक बार फिर उसे अपने सीने से लगा लिया था.

Holi 2024: होली से दूरी, यंग जेनरेशन की मजबूरी

होली का दिन आते ही पूरे शहर में होली की मस्ती भरा रंग चढ़ने लगता है लेकिन 14 साल के अरनव को यह त्योहार अच्छा नहीं लगता. जब सारे बच्चे गली में शोर मचाते, रंग डालते, रंगेपुते दिखते तो अरनव अपने खास दोस्तों को भी मुश्किल से पहचान पाता था. वह होली के दिन घर में एक कमरे में खुद को बंद कर लेता  होली की मस्ती में चूर अरनव की बहन भी जब उसे जबरदस्ती रंग लगाती तो उसे बहुत बुरा लगता था. बहन की खुशी के लिए वह अनमने मन से रंग लगवा जरूर लेता पर खुद उसे रंग लगाने की पहल न करता. जब घर और महल्ले में होली का हंगामा कम हो जाता तभी वह घर से बाहर निकलता. कुछ साल पहले तक अरनव जैसे बच्चों की संख्या कम थी. धीरेधीरे इस तरह के बच्चों की संख्या बढ़ रही है और होली के त्योहार से बच्चों का मोहभंग होता जा रहा है. आज बच्चे होली के त्योहार से खुद को दूर रखने की कोशिश करते हैं.

अगर उन्हें घरपरिवार और दोस्तों के दबाव में होली खेलनी भी पड़े तो तमाम तरह की बंदिशें रख कर वे होली खेलते हैं. पहले जैसी मौजमस्ती करती बच्चों की टोली अब होली पर नजर नहीं आती. इस की वजह यही लगती है कि उन में अब उत्साह कम हो गया है.

1. नशे ने खराब की होली की छवि

पहले होली मौजमस्ती का त्योहार माना जाता था लेकिन अब किशोरों का रुझान इस में कम होने लगा है. लखनऊ की राजवी केसरवानी कहती है, ‘‘आज होली खेलने के तरीके और माने दोनों ही बदल गए हैं. सड़क पर नशा कर के होली खेलने वाले होली के त्योहार की छवि को खराब करने के लिए सब से अधिक जिम्मेदार हैं. वे नशे में गाड़ी चला कर दूसरे वाहनों के लिए खतरा पैदा कर देते हैं ऐसे में होली का नाम आते ही नशे में रंग खेलते लोगों की छवि सामने आने लगती है. इसलिए आज किशोरों में होली को ले कर पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है.’’

2. एग्जाम फीवर का डर

होली और किशोरों के बीच ऐग्जाम फीवर बड़ी भूमिका निभाता है. वैसे तो परीक्षा करीबकरीब होली के आसपास ही पड़ती है. लेकिन अगर बोर्ड के ऐग्जाम हों तो विद्यार्थी होली फैस्टिवल के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि उन का सारा फोकस परीक्षाओं पर जो होता है. पहले परीक्षाओं का दबाव मन पर कम होता था जिस से बच्चे होली का खूब आनंद उठाते थे. अब पढ़ाई का बोझ बढ़ने से कक्षा 10 और 12 की परीक्षाएं और भी महत्त्वपूर्ण होने लगी हैं, जिस से परीक्षाओं के समय होली खेल कर बच्चे अपना समय बरबाद नहीं करना चाहते.

होली के समय मौसम में बदलाव हो रहा होता है. ऐसे में मातापिता को यह चिंता रहती है कि बच्चे कहीं बीमार न पड़ जाएं. अत: वे बच्चों को होली के रंग और पानी से दूर रखने की कोशिश करते हैं, जो बच्चों को होली के उत्साह से दूर ले जाता है. डाक्टर गिरीश मक्कड़ कहते हैं, ‘‘बच्चे खेलकूद के पुराने तौरतरीकों से दूर होते जा रहे हैं. होली से दूरी भी इसी बात को स्पष्ट करती है. खेलकूद से दूर रहने वाले बच्चे मौसम के बदलाव का जल्द शिकार हो जाते हैं. इसलिए कुछ जरूरी सावधानियों के साथ होली की मस्ती का आनंद लेना चाहिए.’’ फोटोग्राफी का शौक रखने वाले क्षितिज गुप्ता का कहना है, ‘‘मुझे रंगों का यह त्योहार बेहद पसंद है. स्कूल में बच्चों पर परीक्षा का दबाव होता है. इस के बाद भी वे इस त्योहार को अच्छे से मनाते हैं. यह सही है कि पहले जैसा उत्साह अब देखने को नहीं मिलता.

‘‘अब हम बच्चों पर तमाम तरह के दबाव होते हैं. साथ ही अब पहले वाला माहौल नहीं है कि सड़कों पर होली खेली जाए बल्कि अब तो घर में ही भाईबहनों के साथ होली खेल ली जाती है. अनजान जगह और लोगों के साथ होली खेलने से बचना चाहिए. इस से रंग में भंग डालने वाली घटनाओं को रोका जा सकता है.’’

3. डराता है जोकर जैसा चेहरा

होली रंगों का त्योहार है लेकिन समय के साथसाथ होली खेलने के तौरतरीके बदल रहे हैं. आज होली में लोग ऐसे रंगों का उपयोग करते हैं जो स्किन को खराब कर देते हैं. रंगों में ऐसी चीजों का प्रयोग भी होने लगा है जिन के कारण रंग कई दिनों तक छूटता ही नहीं. औयल पेंट का प्रयोग करने के अलावा लोग पक्के रंगों का प्रयोग अधिक करने लगे हैं. लखनऊ के आदित्य वर्मा कहता है, ‘‘मुझे होली पसंद है पर जब होली खेल रहे बच्चों के जोकर जैसे चेहरे देखता हूं तो मुझे डर लगता है. इस डर से ही मैं घर के बाहर होली खेलने नहीं जाता.’’

उद्धवराज सिंह चौहान को गरमी का मौसम सब से अच्छा लगता है. गरमी की शुरुआत होली से होती है इसलिए इस त्योहार को वह पसंद करता है. उद्धवराज कहता है, ‘‘होली में मुझे पानी से खेलना अच्छा लगता है. इस फैस्टिवल में जो फन और मस्ती होती है वह अन्य किसी त्योहार में नहीं होती. इस त्योहार के पकवानों में गुझिया मुझे बेहद पसंद है. रंग लगाने में जोरजबरदस्ती मुझे अच्छी नहीं लगती. कुछ लोग खराब रंगों का प्रयोग करते हैं, इस कारण इस त्योहार की बुराई की जाती है. रंग खेलने के लिए अच्छे किस्म के रंगों का प्रयोग करना चाहिए.’’

4. ईको फ्रैंडली होली की हो शुरुआत

‘‘होली का त्योहार पानी की बरबादी और पेड़पौधों की कटाई के कारण मुझे पसंद नहीं है. मेरा मानना है कि अब पानी और पेड़ों का जीवन बचाने के लिए ईको फ्रैंडली होली की पहल होनी चाहिए. ‘‘होली को जलाने के लिए प्रतीक के रूप में कम लकड़ी का प्रयोग करना चाहिए और रंग खेलते समय ऐसे रंगों का प्रयोग किया जाना चाहिए जो सूखे हों, जिन को छुड़ाना आसान हो. इस से इस त्योहार में होने वाले पर्यावरण के नुकसान को बचाया जा सकता है,’’ यह कहना है सिम्बायोसिस कालेज के स्टूडेंट रह चुके शुभांकर कुमार का. वह कहता है, ‘‘समय के साथसाथ हर रीतिरिवाज में बदलाव हो रहे हैं तो इस में भी बदलाव होना चाहिए. इस से इस त्योहार को लोकप्रिय बनाने और दूसरे लोगों को इस से जोड़ने में मदद मिलेगी.’’

एलएलबी कर रहे तन्मय को होली का त्योहार पसंद नहीं है. वह कहता है, ‘‘होली पर लोग जिस तरह से पक्के रंगों का प्रयोग करने लगे हैं उस से कपड़े और स्किन दोनों खराब हो जाते हैं. कपड़ों को धोने के लिए मेहनत करनी पड़ती है. कई बार होली खेले कपड़े दोबारा पहनने लायक ही नहीं रहते. ‘‘ऐसे में जरूरी है कि होली खेलने के तौरतरीकों में बदलाव हो. होली पर पर्यावरण बचाने की मुहिम चलनी चाहिए. लोगों को जागरूक कर इन बातों को समझाना पड़ेगा, जिस से इस त्योहार की बुराई को दूर किया जा सके. इस बात की सब से बड़ी जिम्मेदारी किशोर व युवावर्ग पर ही है.

होली बुराइयों को खत्म करने का त्योहार है, ऐसे में इस को खेलने में जो गड़बड़ियां होती हैं उन को दूर करना पड़ेगा. इस त्योहार में नशा कर के रंग खेलने और सड़क पर गाड़ी चलाने पर भी रोक लगनी चाहिए.’’

5. किसी और त्योहार में नहीं होली जैसा फन

होली की मस्ती किशोरों व युवाओं को पसंद भी आती है. एक स्टूडेंट कहती है, ‘‘होली ऐसा त्योहार है जिस का सालभर इंतजार रहता है. रंग और पानी किशोरों को सब से पसंद आने वाली चीजें हैं. इस के अलावा होली में खाने के लिए तरहतरह के पकवान मिलते हैं. ऐसे में होली किशोरों को बेहद पसंद आती है

‘‘परीक्षा और होली का साथ रहता है. इस के बाद भी टाइम निकाल कर होली के रंग में रंग जाने से मन अपने को रोक नहीं पाता. मेरी राय में होली जैसा फन अन्य किसी त्योहार में नहीं होता. कुछ बुराइयां इस त्योहार की मस्ती को खराब कर रही हैं. इन को दूर कर होली का मजा लिया जा सकता है.’’ ऐसी ही एक दूसरी छात्रा कहती हैं, ‘‘होली यदि सुरक्षित तरह से खेली जाए तो इस से अच्छा कोई त्योहार नहीं हो सकता. होली खेलने में दूसरों की भावनाओं पर ध्यान न देने के कारण कई बार लड़ाईझगड़े की नौबत आ जाती है, जिस से यह त्योहार बदनाम होता है. सही तरह से होली के त्योहार का आनंद लिया जाए तो इस से बेहतर कोई दूसरा त्योहार हो ही नहीं सकता.

‘‘दूसरे आज के किशोरों में हर त्योहार को औनलाइन मनाने का रिवाज चल पड़ा है. वे होली पर अपनों को औनलाइन बधाइयां देते हैं. भले ही हमारा लाइफस्टाइल चेंज हुआ हो लेकिन फिर भी हमारा त्योहारों के प्रति उत्साह कम नहीं होना चाहिए.’’

थोड़ी सी बेवफाई : प्रिया के घर सरोज ने ऐसा क्या देख लिया

कपड़े सुखातेसुखाते सरोज ने एक नजर सामने वाले घर की छत पर भी डाली. उस घर में भी अकसर उसी वक्त कपड़े सुखाए जाते थे. हालांकि उस घर में रहने वाली महिला से सरोज की अधिक जानपहचान नहीं थी, फिर भी कपड़े सुखातेसुखाते रोजाना होने वाले वार्त्तालाप से ही आपसी दुखसुख की बातें हो जाती थीं.

बातों ही बातों में सरोज को पता चला कि उस महिला का नाम प्रिया है और उस के पति का नाम प्रकाश. प्रकाशजी एक बैंक औफिसर थे तथा घर के पास ही एक बैंक में कार्यरत थे. प्रकाश एवं प्रिया की एक छोटी बेटी थी- पाखी. छोटा सा खुशहाल परिवार था. छुट्टी के दिन वे अकसर घूमने जाते थे.

प्रकाशजी बहुत ही सुंदर एवं हंसमुख स्वभाव के थे, यह सरोज को भी नजर आता था पर प्रिया स्वयं भी सदा उन की तारीफों के पुल बांधा करती थी.

‘‘देखिए न भाभीजी, आज ये फिर मेरे लिए नई साड़ी ले आए. मैं ने तो मना किया था, पर माने ही नहीं. मेरा बहुत खयाल रखते हैं ये,’’ एक दिन प्रिया ने बड़े ही गर्व से बताया.

‘‘अच्छी बात है… सच में तुम्हें इतना हैंडसम, काबिल और प्यार करने वाला पति मिला है,’’ कह सरोज ने मन ही मन सोचा, काश दुनिया में सभी विवाहित जोड़े इसी प्रकार खुश रहते तो कितना अच्छा होता. एक आदर्श पतिपत्नी हैं दोनों.

सरोज और प्रिया की बातचीत का मुद्दा अकसर उन का घरपरिवार ही हुआ करता था, जिस में भी प्रिया की 80 फीसदी बातें प्रकाशजी की प्रशंसा और प्यार से जुड़ी होती थीं.

एक दिन प्रिया ने सरोज से कहा, ‘‘भाभीजी, मेरे पापा की तबीयत बहुत खराब है. अब मुझे कुछ दिन उन के पास जाना होगा. मन तो नहीं मानता कि प्रकाश को अकेले छोड़ कर जाऊं, पर क्या करूं मजबूरी है. प्लीज, आप थोड़ा इन का ध्यान रखिएगा. खानेपीने की व्यवस्था तो बैंक में ही हो जाएगी… उस की मुझे कोई चिंता नहीं है, पर हमारा घर सारा दिन सूना रहेगा… आप आतेजाते एक नजर इधर भी डाल लिया करना.’’

‘‘ठीक है, तुम बेफिक्र हो कर जाओ,’’ सरोज ने कहा और फिर प्रिया के जाने के बाद वह एक पड़ोसिन की जिम्मेदारी निभाते हुए आतेजाते एक नजर उन के घर पर भी डाल लेती थी.

इन दिनों प्रकाशजी को बैंक में वर्कलोड ज्यादा था, इसलिए वे काम में काफी व्यस्त रहते थे. सरोज से उन की मुलाकात नहीं हो पाती थी.

प्रिया को गए 15 दिन से ऊपर हो गए थे, परंतु वह अभी तक लौटी नहीं थी. प्रकाशजी भी दिखाई नहीं देते थे. सरोज को चिंता होने लगी थी कि कहीं उस के पिताजी की तबीयत ज्यादा खराब तो नहीं हो गई… पूछे तो किस से…

रात के 11 बजे थे. सरोज अपने घर के मेन गेट पर ताला लगाने के लिए बाहर आई तो सामने वाले घर के आगे प्रकाशजी की गाड़ी रुकती दिखी. गाड़ी का दरवाजा खुला और उस में से एक महिला भी प्रकाशजी के साथ उतरी.

‘‘अरे लगता है प्रिया आ गई,’’ सरोज चहकी और आवाज देने ही वाली थी कि उस महिला की वेशभूषा और शारीरिक गठन देख कर रुक गई.

‘नहींनहीं यह प्रिया नहीं लगती. प्रिया कभी जींसटौप नहीं पहनती और न ही वह इतनी दुबलीपतली है. बालों का स्टाइल भी प्रिया से बिलकुल अलग है.

यह प्रिया नहीं कोई और है,’ सोच कर सरोज दरवाजे की ओट में छिप कर खड़ी हो गई. उस ने देखा कि प्रकाशजी ने उस महिला को घर के अंदर चलने का इशारा किया और फिर दोनों घर के अंदर चले गए.

हो सकता है यह प्रकाशजी के बैंक की सहकर्मचारी हो. किसी काम की वजह से आई हो, सरोज ने सोचा, ‘पर रात के 11 बजे ऐसा क्या काम है. कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं,’ सरोज को बड़ा अटपटा सा लग रहा था. इसी सोच में उसे सारी रात नींद नहीं आई. सिर भारी होने के कारण वह अगले दिन सुबह जल्दी उठ गई ताकि चाय बना कर पी सके.

‘बाहर से अखबार ले आती हूं. 6 बजे तक आ ही जाता है,’ सोच कर सरोज बाहर बरामदे में निकली तो प्रकाशजी को उसी महिला के साथ घर से बाहर निकल गाड़ी की ओर बढ़ते देखा.

अचानक प्रकाशजी की नजरें सरोज की नजरों से मिली और तत्क्षण ही झुक भी गईं मानो उन की कोई चोरी पकड़ी गई हो. वे चुपचाप गाड़ी में बैठ गए, साथ में वह महिला भी. शायद वे उसे छोड़ने जा रहे थे. सरोज का भ्रम सही था.

‘बाप रे, कितना बहुरुपिया है यह आदमी… दिखाने को तो अपनी पत्नी से इतना प्रेम करता है और उस के पीछे से यह गुल खिला रहा है,’ सरोज मन ही मन बुदबुदाई.

सरोज मन ही मन सोचने लगी कि पूरी रात यह औरत प्रकाशजी के साथ घर में अकेली थी… सच इस दुनिया में किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता. अरे, इस से अच्छे तो वे पति हैं, जो भले ही अपनी बीवियों से रातदिन लड़ते रहते हों, पर दिल से प्रेम करते हैं.

ये सब सोचतेसोचते सरोज अंदर आ गई. अखबार ला कर मेज पर पटक दिया. अब न तो उस की रुचि अखबार पढ़ने में रही थी और न ही चाय पीने की इच्छा रही थी. वह चादर ओढ़ कर पलंग पर लेट गई और फिर प्रिया के बारे में सोचने लगी…

कितनी मासूम है प्रिया. बेचारी जातेजाते भी अपने पति की चिंता कर रही थी कि इतने दिन अकेले कैसे रहेंगे… पर यहां तो अलग ही मंजर है. लगता है प्रकाशजी तो इसी दिन का इंतजार कर रहे थे. आने दो प्रिया को… यदि इन बाबूजी की पोल न खोली तो मेरा नाम भी सरोज नहीं. जब प्रिया इन्हें आड़े हाथों लेगी तब पता चलेगा बच्चू को. सारी मौजमस्ती भूल जाएंगे जनाब.

ऐसे पतियों को तो सबक सिखाना ही चाहिए. पत्नियों की तो जरा सी भी गलती इन्हें बरदाश्त नहीं होती. स्वयं चाहे कुछ भी करें… अरे वाह, यह भी कोई बात हुई मर्द जात की… यह तो सरासर अन्याय है पत्नियों के साथ. यह विश्वासघात है. उन्हें इस का फल मिलना ही चाहिए, सोचतेसोचते सरोज को फिर नींद आ गई.

रविवार का दिन था. सरोज ने बालों में शैंपू किया था तथा साथ ही कुछ कपड़े भी धो लिए थे. वह बाल खुले छोड़ कर छत पर गई ताकि धूप में बाल भी सूख जाएं तथा कपड़े भी.

आदतन उस की नजर फिर सामने वाली छत पर पड़ी. आज वहां भी कपड़े सूख रहे थे, ‘यानी प्रिया आ गई है. मुझे उस से मिल कर आना चाहिए. जा कर उस के पिताजी का हालचाल भी पूछ लूं तथा उस के पीछे से उस के पति ने जो कारनामा किया है उस की भी जानकारी बातों ही बातों में उसे दे दूं ताकि वह आगे से सतर्क रहे,’ यह सोच कर सरोज प्रिया के घर चल दी.

सरोज को प्रिया बाहर ही मिल गई. नया सलवारकुरता पहन रखा था तथा हाथ में हैंडबैग था. लगता था कहीं जाने की तैयारी है.

‘‘प्रिया कब आई तुम?

कैसे हैं तुम्हारे पापा?’’ सरोज ने पूछा.

‘‘आज सुबह ही. पापा की तबीयत ठीक है, इसलिए चली आई. स्कूल भी तो मिस हो रहा था पाखी का. इधर इन के फोन पर फोन आ रहे थे कि जल्दी आओ… जल्दी आओ… तुम्हारे बिना मन नहीं लग रहा. सच भाभीजी, ये तो मेरे बिना रह ही नहीं सकते. इसीलिए तो cचली आई वरना कुछ दिन और रह लेती.’’

तभी प्रकाशजी भी आ गए. पाखी उन की गोद में थी और प्रकाशजी उसे बारबार चूम रहे थे. पाखी भी पापापापा कह कर उन से लिपट रही थी.

‘‘हैलो पाखी, कैसी हो? जानती हो मैं ने तुम्हें बहुत मिस किया,’’ सरोज ने प्रकाशजी की ओर देखते हुए पाखी से कहा तो प्रकाशजी ने नजरें झुका लीं और फिर संकोचवश नजरें उठा कर सरोज की ओर देखा मानो अपना अपराध स्वीकार कर रहे हों.

‘‘अरे प्रिया, तुम्हारे प्रकाशजी तो तुम्हारे दीवाने हैं… तुम्हारे बिना ऐसे हो गए थे जैसे प्राण बिना तन. एक दिन तो मुझ से कहने लगे ‘‘भाभीजी, जब बैंक से घर आता हूं तो सूनासूना घर काटने को दौड़ता है. सच, पत्नी, बच्चों के बिना घर घर नहीं लगता.’’

प्रिया के चेहरे पर मुसकराहट दौड़ गई. उस ने शरमा कर प्रकाशजी की ओर देखा.

सरोज फिर बोली, ‘‘अरे, मैं ने भी बेवक्त तुम लोगों को किन बातों में उलझा दिया… शायद तुम लोग कहीं जा रहे हो… बहुत दिन हो गए प्रकाशजी को अकेले बोर होते हुए.’’

‘‘हां मूवी देखने जा रहे हैं… लौटते समय किसी रैस्टोरैंट में पिज्जा खाएंगे. प्रिया और पाखी को बहुत पसंद है,’’ प्रकाशजी ने गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए कहा. उन की आंखों में सरोज के प्रति कृतज्ञता झलक रही थी. प्रिया और पाखी गाड़ी में बैठ गईं तथा प्रकाशजी ने गाड़ी स्टार्ट कर दी.

आज तो सरोज प्रिया को बिना कुछ कहे घर लौट आई थी, पर अब उस ने यह निर्णय भी ले लिया था कि वह प्रिया को उस दिन के बारे में कभी कुछ नहीं बताएगी, क्योंकि उस ने महसूस किया कि यदि वह ऐसा करेगी तो यह प्रकाशजी के लिए तो अपमानजनक होगा ही, प्रिया को भी उस से आघात ही पहुंचेगा.

सरोज को लगा कि यदि प्रकाशजी की इस तनिक सी बेवफाई पर परदा ही पड़ा रहने दिया जाए तो उचित होगा. इस तरह कम से कम पतिपत्नी में प्यार का भ्रम बना रहने से एक खुशहाल परिवार तो आबाद रहेगा और शायद भविष्य में प्रकाशजी को भी अपनी भूल व नादानी समझ आ जाए और वे फिर कभी ऐसा न करें, क्योंकि कई बार अपराधी को दंड देने के बजाय माफ करना ज्यादा लाभकारी सिद्ध होता है.

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