धर्म के अंधे दलित-पिछड़े भाजपा की जीत की गारंटी

रोहित

यह दोहा 14वीं ईसवी में उत्तर प्रदेश के काशी (बनारस) में जनमे संत रविदास का है. वही रविदास, जो अपने तमाम कथनों में धर्म की जगह कर्म पर विश्वास करते थे और पाखंड के खिलाफ थे. आज की भाषा में अगर उन्हें धार्मिक कट्टरवाद और पोंगापंथ के खिलाफ एक मिसाल माना जाए तो गलत नहीं होगा.

इस दोहे में भी रविदास साफ शब्दों में कहते हैं कि न मुझे मंदिर से कोई मतलब है, न मसजिद से, क्योंकि दोनों में ईश्वर का वास नहीं है.

रविदास निचली जाति से संबंध रखते थे और जूते सिलने का काम करते थे. उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी, जहां शोषण, अन्याय और गैरबराबरी पर आधारित समाज नहीं होगा, कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं होगा और न ही वहां कोई छूतअछूत होगा. अपने इस समाज को उन्होंने बेगमपुरा नाम दिया, जहां कोई गम न हो.

समयसमय पर संत रविदास जैसे महापुरुष धर्म पर आधारित सत्ता और पाखंड को चुनौती देते रहे और उन से प्रेरणा लेने वाली दबीशोषित जनता इन पाखंडों के खिलाफ खड़ी होती रही.

जैसे अपनेअपने समय में बुद्ध, कबीर और रविदास ने ब्राह्मणवाद को चुनौती दी, ऐसे ही आधुनिक काल में अय्यंकाली, अंबेडकर और कांशीराम जैसों ने भेदभाव की सोच को इस तरह खारिज किया, जिस से दलितपिछड़ों की आवाज सुनी और बोली जाने लगी.

इतने सालों की कोशिशों और टकरावों के बाद एक ऐसा समय भी आया, जब भले ही दलितपिछड़ों की हालत में बड़ा बदलाव न आया हो, पर देश की राजनीति से ले कर सत्ता तक इन जातियों के प्रतिनिधि संसद, विधानसभा में तो पहुंचे ही, साथ ही सरकार बनाने में भी कामयाब रहे, लेकिन आज हालात वापस पलटते दिखाई दे रहे हैं.

आज रविदास के बेगमपुरा जाने वाले रास्ते में ब्राह्मणवाद की गहरी खाई खुद गई है और इस खाई को खोदने वाले जितने सवर्ण रहे हैं, उस से कई ज्यादा खुद दलितपिछड़े हो गए हैं.

सवर्णों की बेबाकी की चर्चा तो हमेशा की जाती है, लेकिन आज जरूरत इस बात की है कि दलितपिछड़ों की चुप्पी और भगवाधारियों पर मूक समर्थन की चर्चा की जाए, क्योंकि आज हालात ये हैं कि दलितपिछड़ों की राजनीति और उस के मुद्दे धार्मिक उन्माद के शोर में दब चुके हैं और इस की वजह भी वे खुद ही हैं.

5 राज्यों के चुनाव

10 मार्च, 2022 को 5 राज्यों के चुनावी नतीजे सामने आए. इन 5 राज्यों में से 4 राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भगवाधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपनी मजबूत वापसी की, वहीं पंजाब में कुल 117 सीटों में से

92 सीटें जीत कर आम आदमी पार्टी ने राज्य के पहले दलित मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया.

उत्तर प्रदेश में जहां एक तरफ भाजपा गठबंधन को 403 सीटों में से 273 सीटें, उत्तराखंड में 70 सीटों में से 47 सीटें, मणिपुर में 60 सीटों में से 32 सीटें और गोवा में 40 सीटों में से 20 सीटें मिलीं, वहीं दूसरी तरफ विपक्ष इन चुनावों में पूरी तरह से धराशायी हो गया.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने अपने लैवल पर थोड़ीबहुत लड़ाई जरूर लड़ी, पर जिस तरह के कयास भारतीय जनता पार्टी को हराने के लगाए जा रहे थे, वे सब धूल में मिल गए.

उत्तर प्रदेश के अलावा भाजपा न सिर्फ दूसरे 3 राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब रही, बल्कि उत्तर प्रदेश में तो उस का वोट फीसदी गिरने की जगह बढ़ गया और यह सब इसलिए मुमकिन हो पाया कि दलितपिछड़ों के एक बड़े तबके ने भाजपा को वोट दिए.

दलितपिछड़ा वोटर कहां

पहली बार ऐसा हुआ है कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी को महज एक सीट से संतोष करना पड़ा और उस का कोर वोटर इस अनुपात में किसी दूसरी पार्टी में शिफ्ट हुआ.

चुनाव में बुरी तरह हार का मुंह देखने के बाद बसपा मुखिया मायावती ने मीडिया के सामने कहा, ‘‘संतोष की बात यह है कि खासकर मेरी बिरादरी का वोट चट्टान की तरह मेरे साथ खड़ा रहा. मुसलिम समाज अगर दलित के साथ मिलता तो परिणाम चमत्कारिक होते.’’

यह तो वही बात हुई कि खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे. मायावती मुसलिमों और सपा पर हार का ठीकरा फोड़ने की जगह अगर इस बात को समझने पर जोर देतीं कि उन का कोर दलित वोटर भाजपा की तरफ कैसे खिसक गया तो शायद उन की जीरो होती राजनीति में यह आगे के लिए एक बेहतर कदम साबित होता. पर अपनी हार का सही विश्लेषण करने की जगह उन की टीकाटिप्पणी यही साबित कर रही है कि वे अभी तक यह नहीं समझ पाई हैं कि जिस तरह से बसपा और मायावती ने भाजपा जैसी हिंदूवादी पार्टी के साथ मेलजोल बढ़ाया है और जो अभी भी जारी है, उसी का  नतीजा है कि उस के अपने वोटरों ने भी भाजपा के धर्म के इर्दगिर्द जुड़े मुद्दों और पाखंडों से संबंध बना लिए हैं.

इसी का खमियाजा है कि बसपा को इस विधानसभा चुनाव में महज 12.8 फीसदी ही वोट मिले, जो पिछली बार के 22.9 फीसदी से 10 फीसदी कम हैं. जाहिर है कि ये वोट पूरी तरह से भाजपा के साथ गए. यह दिखाता है कि सवर्णपिछड़ा तबके के वोटों का जितना नुकसान सपा ने भाजपा का किया, उस से ज्यादा वोटों की भरपाई भाजपा ने बसपा के दलित वोटों को पाखंड के जाल में फंसा कर कर ली.

यह सब इसलिए हुआ कि जिस सियासी जमीन पर कभी कांशीराम ने दलित हितों के लिए बहुजन समाज पार्टी की बुनियाद रखी थी, मायावती ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जैसी दलितों की वैचारिक दुश्मन संस्थाओं के साथ अपने रिश्तों को बढ़ा कर उस बुनियाद को खोखला करने का काम ही किया, जिस का सीधा नतीजा यह है कि वे दलित, जिन्हें सवर्णों के बनाए पाखंडों को चुनौती देनी थी, वे भी उन पाखंडों में रमते चले गए.

यहां तक कि भगवा भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए जहां बसपा को ताकत लगानी चाहिए थी, उसी बसपा ने 122 सीटों पर ऐसे उम्मीदवार खड़े किए, जिन का सीधा टकराव सपा के उम्मीदवारों से ही था. इन में से 91 मुसलिम बहुल और 15 यादव बहुल सीटें थीं. ये ऐसी सीटें थीं, जिन में सपा की जीत की ज्यादा उम्मीद थी, पर इन 122 सीटों में से 68 सीटें भाजपा गठबंधन ने जीतीं.

साफ है कि उत्तर प्रदेश में एक नया और बड़ा तबका भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में आया है. इसी तरह समाजवादी पार्टी को पिछड़ों के एक हिस्से ने भाजपा से अलग हो कर वोट जरूर दिया, पर यह इतना नहीं था कि भाजपा को चोट पहुंचा सके.

बसपा के वोट फीसद और सीटों के रुझान को देखें, तो यह पता चलता है कि भाजपा को पड़े और बढ़े वोट दलितों के ही बसपा से शिफ्ट हुए, जो आगे की राजनीति (लोकसभा चुनाव) में भाजपा के लिए वरदान और दलितपिछड़ों व अल्पसंख्यकों के लिए चिंता का सबब बनेंगे.

पोंगापंथ में फंसे दलितपिछड़े

5 राज्यों के चुनाव खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव से सीधेसीधे समझ आता है कि दलितपिछड़ों का एक बड़ा तबका भाजपा और संघ के पोंगापंथ में फंस चुका है. वह खुद नहीं समझ पा रहा है कि जिस पार्टी का समर्थन कर रहा है, वह न सिर्फ उस की वैचारिक दुश्मन है, क्योंकि संघ और भाजपा ब्राह्मणवादी संस्कृति से प्रभावित रहे हैं, बल्कि जिस हिंदुत्व के लिए वह भाजपा को समर्थन दे रहा है, उस हिंदुत्व की बुनियाद ही दलितपिछड़ों के शोषण पर टिकी हुई है, जो आज नहीं तो कल सामने आने वाला ही है.

यह बहुत हद तक सामने आने भी लगा है, क्योंकि रामराज्य से खुद को जोड़ रहा दलित समाज सरकारी संपत्तियों के बिकने पर अपने आरक्षण की चढ़ती भेंट को नहीं देख पा रहा है. वह यह नहीं समझ पा रहा है कि मंदिर का मुद्दा उस के किसी काम का नहीं है, यह मुद्दा तो बस उसे पाखंड में शामिल करने को ले कर है, ताकि उस के दिमाग में यह बात फिट कर दी जाए कि सारी इच्छाएं, कष्ट सब मोहमाया है, इनसान तो मरने के लिए जन्म लेता है, आत्मा अजरअमर है, इस जन्म में पिछले जन्म का पापपुण्य भोगना पड़ता है, इसलिए जो भूख और तकलीफ है, वह सब पुराने जन्म के कर्मों का फल है, इसलिए ज्यादा इच्छाएं मत पालो, सरकार से सवाल मत पूछो. बस कर्म करो, फल की चिंता मत करो.

जाहिर है कि भाजपा दलितबहुजनों का इस्तेमाल बस अपने एजेंडे के लिए ही करेगी, बाकी इस के आगे अगर हाथ फैलाए तो रोहित वेमुला हत्याकांड, ऊना, सहारनपुर और हाथरस कांड के उदाहरण भी सब के सामने हैं. रविदास, कबीर, नानक, बुद्ध, अंबेडकर, कांशीराम क्या कह गए, यह भले ही दलितों को पता न चले, पर इन के मंदिर और मूर्तियां बना कर उन्हें ही भगवान बना दो, सब सही हो जाएगा.

भाजपा ने अपना पूरा चुनाव हिंदुत्व और कठोर राजकाज के मुद्दे पर लड़ा. ये दोनों मुद्दे ही किसी लोकतंत्र और संविधान के लिए घातक हैं. ऐसे में आने वाले समय में हिंदुत्व की गतिविधियां तेज होंगी, जो खुद दलितपिछड़े समाज के लिए घातक होंगी. आज दलितपिछड़े ऐसे रामराज्य का सपना देख रहे हैं, जिस में नुकसान उन्हीं का होना है.

गहरी पैठ: भारतीय जनता पार्टी और जातिवाद

भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में चुनावों में बारबार जातिवादी पार्टियों को कोस रही है कि वे कभी किसी का भला नहीं कर सकतीं. असल में अगर देश में आज सब से बड़ी जातिवादी पार्टी है तो वह भारतीय जनता पार्टी है, जिस ने पूरे देश में पौराणिक जातिवाद को हर पायदान पर बिना साफ किए लागू कर दिया है.

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यह जातिवादी तौरतरीकों का नतीजा है कि आज देश में भूखा ब्राह्मण सुदामा सरीखा कहीं नहीं मिलेगा, क्योंकि हर गांव में 5-6 मंदिर और हर शहर की हर गली में 5-6 मंदिर खुलवा दिए गए हैं जिन में ऋषिमुनियों की संतानें ठाठ से ‘हमारे पास तो कुछ नहीं है’, ‘सब भगवान का है’ कह कर रेशमी कपड़ों में, एयरकंडीशंड हालों में, हलवापूरी रोज चार बार खा रहे हैं.

सरकार को संविधान के हिसाब से 50 फीसदी नौकरियां पिछड़ों और दलितों को दे देनी थीं, पर किसी भी सरकारी दफ्तर में घुस जाएं, वहां इक्केदुक्के ही सपाबसपा वाले नाम दिखेंगे. वहां काम कर रहे लोग ज्यादातर ठेकों पर काम कर रहे हैं और ठेकदार को जाति के हिसाब से रखने का कोई कानून नहीं है. ठेकेदार ऊंची जातियों का है और उस ने जिन्हें रखा होगा वे भी ऊंची जातियों के ही होंगे.

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भारतीय जनता पार्टी बारबार माफिया को नीची जातियों से जोड़ रही है. यह पुरानी तरकीब है. पुराणों में हर कहानी में दस्युओं को, जो कहर ढाते थे, नीची जाति का दिखाया गया है. रामायण में मारीच, शूर्पणखा, रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद सब को माफिया की तरह दिखाया गया है और पिछले 200 सालों से हर शहर में रामलीला के दौरान उन्हें काला भुजंग बता कर दिखाया जाता है. जब अमित शाह कहते हैं कि कमल पर वोट नहीं दिया तो जातिवादी माफिया आ जाएगा, उन का इशारा इन्हीं की ओर होता है. उन के लिए ये जातियां पौराणिक युग के दस्युओं, शूद्रों और अछूतों की संतानें हैं. शंबूक या एकलव्य जैसों के लिए भारतीय जनता पार्टी में कोई जगह नहीं है.
सरकार के 500 सब से ऊंचे अफसरों में से मुश्किल से 60 अफसर उन जातियों के हैं जिन्हें रिजर्वेशन मिला हुआ है.

भारतीय जनता पार्टी चुनचुन कर ऊंची जातियों के लोगों को ताकत दे रही है. वैसे भी हर पार्टी में चाहे वह समाजवादी हो या बहुजन समाज या तृणमूल कांग्रेस, ऊंची जातियों के ही लोग ऊंचे पदों पर हैं पर फिर भी कम से कम वे बात तो उन जातियों की करते हैं जिन के बच्चे आज पढ़ कर आगे आ गए हैं और हर बाधा पार करने को तैयार हैं.

यह न भूलें कि देश चलता उन मजदूरों और किसानों के बल है जिन्हें भारतीय जनता पार्टी माफिया कहती है. यहां तक कि पुलिस और ठंडी हड्डियां जमाने वाली पहाड़ी सीमाओं पर यही लोग हैं. इन्हें माफिया के साथ होने की गाली दे कर भारतीय जनता पार्टी जाति के नाम पर देश को बांट रही है.

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देश का बंटवारा हिंदूमुसलिम के नाम पर तो 1947 में भी नहीं हुआ था, क्योंकि जो लोग पिछले 500-600 सालों में मुसलमान बने थे, उन में ज्यादातर उन जातियों के थे जिन्हें माफिया की गाली दी जा रही है. इसी गाली को एकलव्य को सुनना पड़ा था, घटोत्कच को सुनना पड़ा था, हिरण्यकश्यप को सुनना पड़ा था, बाली को सुनना पड़ा था. आज नए दौर में नए नेता सुन रहे हैं.

विधानसभा चुनाव 2022: दलित, पिछड़े और मुसलिम तय करेंगे जीत-हार

शैलेंद्र सिंह

त्रेता युग में अयोध्या के राजा दशरथ ने जब अपने बड़े बेटे राम को 14 साल के लिए वनवास भेजा तो राम ने अयोध्या के सजातीय लोगों या वहां की सेना से कोई मदद नहीं ली, बल्कि मदद लेने के लिए वे पिछड़ी जाति के केवट के पास गए. वन में खानेपीने के लिए वे आदिवासी जनजाति की शबरी के पास गए.

जब वन में रहते हुए पत्नी सीता का अपहरण रावण ने कर लिया, तब सीता को रावण की कैद से छुड़ाने के लिए भी राम ने अयोध्या की सेना और अपने सगेसंबंधियों का साथ नहीं लिया. रावण से युद्ध के लिए जो सेना राम ने बनाई उस में वानर, भालू जैसे वन में रहने वाले शामिल थे. लेकिन जब राम अयोध्या की गद्दी पर बैठे, तब उन्होंने अपने राज्य के लोगों, मंत्रियों और सजातीय लोगों को हिस्सा दिया.

राम की बात और रामराज लाने वाली भाजपा ने भी यही किया. साल 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दलित और पिछड़ों में फूट डालने के लिए गैरयादव, पिछड़ी जातियों और गैरजाटव दलित जातियों के नेताओं से सत्ता बनाने में मदद ली. जैसे ही भाजपा को बहुमत मिला, सत्ता ऊंची जातियों के ठाकुरब्राह्मणों को सौंप दी.

इस से दलित और पिछड़े ठगे से रह गए. इन लोगों ने किसी न किसी बहाने अपनी बात रखने की कोशिश की, पर उन की आवाज को सुना नहीं गया. अब साल 2022 के विधानसभा चुनाव में दलितपिछड़ों ने तय किया है कि वे भाजपा की बात को नहीं सुनेंगे.

सत्ता की चाबी इन के पास

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में दलित, पिछड़े और मुसलिम जीतहार के सब से बड़े फैक्टर हैं. ये तीनों मिल कर तकरीबन 85 फीसदी होते हैं. बहुत से दलों और नेताओं को लग रहा है कि मायावती इस चुनाव में हाशिए पर हैं. तमाम चुनावी सर्वे मायावती को कांग्रेस से भी नीचे चौथे नंबर की पार्टी मानते हैं.

यह सच है कि मायावती का असर उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहले जैसा दमदार नहीं है, इस के बाद भी दलित बड़ा वोट बैंक है. चुनावी जीत में वह सब से बड़ा फैक्टर है. इस की वजह यह है कि सब से ज्यादा दलित वोट ही एक दल से दूसरे दल की तरफ जाते हैं.

साल 2014 से ले कर साल 2019 तक लोकसभा के 2 और विधानसभा के एक चुनाव में दलित वोटर धर्म के नाम पर भाजपा के साथ खड़े हो गए. साल 2017 में योगी सरकार के राज में दलितों पर हुए जोरजुल्म ने इस तबके को फिर से भाजपा से दूर खड़ा कर दिया है. अब यह तबका जिधर होगा जीत उधर ही होगी. उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में से 85 सीटें रिजर्व्ड विधानसभा सीटें हैं.

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने इन रिजर्व्ड सीटों में 31.5 फीसदी वोट ले कर 58 और बहुजन समाज पार्टी ने 27.5 फीसदी वोटों के साथ 15 सीटें जीती थीं. भारतीय जनता पार्टी को 14.4 फीसदी वोटों के साथ केवल 3 सीटें मिली थीं.

पर साल 2017 के विधानसभा चुनाव में नतीजे उलट गए और 85 रिजर्व्ड सीटों में से 69 सीटें भाजपा ने जीतीं. भाजपा को 39.8 फीसदी वोट मिले. वहीं सपा को 19.3 फीसदी वोट और 7 सीटें मिलीं, जबकि बसपा सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई. मतलब, दलित समाज जिधर खड़ा होगा जीत उधर ही होगी.

दलित को सत्ता में हिस्सेदारी देने के लिए संविधान में रिजर्व्ड सीटों का इंतजाम किया गया है. उत्तर प्रदेश विधानसभा की 403 सीटों में से 85 सीटें रिजर्व्ड हैं. इन सीटों पर जिस का कब्जा रहा है, वही उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहा है. साल 2017 में 85 रिजर्व्ड सीटों में भाजपा ने 65 गैरजाटवों को टिकट दिया था. भाजपा ने 76 रिजर्व्ड सीटों पर जीत हासिल की. बसपा को 2, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 3 और अपना दल को 2 सीटें मिली थीं.

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा 58, बसपा 15 और भाजपा 3 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी, वहीं साल 2007 में बसपा 62, सपा 13, भाजपा 7 और कांग्रेस 5 सीटों पर जीती थी.

योगी राज में जब दलित अत्याचार की घटनाएं तेजी से घट रही थीं, उस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर दलित राजनीति का नया चेहरा बन कर उभरे. दलित वर्ग उन को किस तरह से साथ दे रहा है, यह बात 2022 के विधानसभा चुनाव में तय हो जाएगी.

चंद्रशेखर समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करना चाहते थे, लेकिन सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने उन को केवल 3 सीटें देने की बात कही. इस से नाराज हो कर चंद्रशेखर ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया.

इन में बंटी दलित राजनीति

बसपा प्रमुख मायावती का अब दलितों के बीच वैसा असर नहीं रहा, जैसा 1990 के दशक में था. इस के बाद भी दलित तबका जीत का सब से बड़ा फैक्टर है. बसपा संस्थापक कांशीराम ने 80 के दशक में दलित समाज के बीच राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया था. यह उन की चेतना जगाने का ही नतीजा था कि मायावती 1-2 बार नहीं, बल्कि 4 बार मुख्यमंत्री बनी थीं.

दलित वोटों पर कांशीराम के बाद मायावती का लंबे समय तक एकछत्र राज रहा. पर मायावती ने जब सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ‘दलितब्राह्मण’ किया तब से दलित तबका मायावती से दूर जाने लगा. बसपा जाटव और गैरजाटव में बंट गई. मायावती सिर्फ जाटव दलितों की ही नेता बन कर रह गईं. इसी वजह से मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिए पर चली गईं.

मायावती ने खुद को राजनीति की मुख्यधारा में बनाए रखने के लिए अपने धुर विरोधी दल समाजवादी पार्टी के साथ साल 2019 के लोकसभा चुनावों में गठबंधन भी किया था. इस के बाद भी दलित तबका मायावती के साथ खड़ा नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव में जीत के लिए बना यह गठबंधन चुनाव के खत्म होते ही टूट गया.

अब साल 2022 के विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों पर कांग्रेस, सपा और भाजपा की नजर है. असल में पिछड़े समुदाय के बाद उत्तर प्रदेश में दूसरी सब से बड़ी हिस्सेदारी दलित बिरादरी की है.

उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 22 फीसदी के करीब है. यह दलित वोट बैंक जाटव और गैरजाटव के बीच बंटा हुआ है. दलित आबादी की सब से बड़ी तादाद 12 फीसदी जाटवों की है और 10 फीसदी गैरजाटव दलित हैं. उत्तर प्रदेश में दलितों की कुल 66 उपजातियां हैं, जिन में 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिन का संख्या बल ज्यादा नहीं है.

दलित तबके की कुल आबादी में से 56 फीसदी जाटव के अलावा दलितों की दूसरी जो उपजातियां हैं, उन की तादाद 46 फीसदी के करीब है. पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक तकरीबन 5 फीसदी हैं.

उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की तादाद 20 फीसदी से ज्यादा है. राज्य में सब से ज्यादा दलित आबादी सोनभद्र में 42 फीसदी, कौशांबी में 36 फीसदी, सीतापुर में 31 फीसदी है, बिजनौरबाराबंकी में 25-25 फीसदी है. इस के अलावा सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर, जौनपुर में दलित तबका निर्णायक भूमिका में है.

उत्तर प्रदेश में दलितों की सब से बड़ी आबादी आजमगढ़, जौनपुर, आगरा, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, गोरखपुर, गाजीपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, नोएडा, अलीगढ़, गाजियाबाद, बस्ती, संत कबीरनगर, गोंडा, सिद्धार्थनगर, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं और सहारनपुर जिलों में है. दलितों में जाटव के बाद दूसरे नंबर पर पासी जाति आती है, जो खासकर राजधानी लखनऊ के आसपास के जिलों जैसे सीतापुर, रायबरेली, बाराबंकी, अमेठी, कौशांबी, प्रतापगढ़, लखनऊ देहात, फतेहपुर, उन्नाव, हरदोई, बस्ती, गोंडा आदि में खासा असर रखती है.

मायावती की तरह ही दलित नेता चंद्रशेखर भी जाटव समुदाय से आते हैं. दोनों ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आते हैं. उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति जाटव समुदाय के ही आसपास रही है, जिस की वजह से अनदेखी का शिकार हो कर साल 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद से गैरजाटव दलित में वाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी समेत तमाम ऐसी जातियों के लोग विरोधी दलों के साथ चले गए.

दलित आबादी का यह बिखराव ही उस को कमजोर कर गया. बसपा के अलावा दूसरे दलों ने गैरजाटव दलित नेताओं को अपने पक्ष में करने का काम किया. भाजपा ने इस दिशा में बेहतर काम किया. पासी बिरादरी के कौशल किशोर को केंद्र सरकार में मंत्री बनाया गया. उन की पत्नी को लखनऊ की मलिहाबाद सीट से विधायक बनाया गया.

दलित सियासत में धोबी और वाल्मीकि वोटरों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. बरेली, शाहजहांपुर, सुलतानपुर, गाजियाबाद, मेरठ, हाथरस और बागपत में धोबी और वाल्मीकि काफी बड़ी तादाद में रहते हैं. जाटवों और वाल्मीकि समाज के बीच काफी दूरियां देखने को मिलती हैं. वाल्मीकि तबका शुरू से ही भाजपा के साथ जुड़ा है. धोबी समाज भी साल 2012 के बाद से बसपा से हट गया.

उत्तर प्रदेश के दलित नेता

उत्तर प्रदेश में दलित नेताओं में मायावती का नाम सब से ऊपर आता है. उन की छांव में बसपा में कोई बड़ा नेता उभर नहीं पाया. भाजपा में सुरेश पासी, रमापति शास्त्री, गुलाबो देवी, कौशल किशोर और विनोद सोनकर जैसे नेता हैं. कांग्रेस के पास आलोक प्रसाद और पीएल पुनिया जैसे नेता हैं. साल 2017 के बाद दलित नेता चंद्रशेखर का नाम चर्चा में आया.

समाजवादी पार्टी में सुशीला सरोज और अंबरीश सिंह ‘पुष्कर’ जैसे नेता हैं. अंबरीश सिंह ‘पुष्कर’ ऐसे नेता हैं, जो साल 2017 में भाजपा लहर में भी विधानसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे. अगर समाजवादी पार्टी के संगठन में इन को अहमियत दी गई होती, तो आज वे दलितों के बड़े नेता बनते.

दलित राजनीति में एक दौर ऐसा भी था, जब कांग्रेस में बड़े दलित नेता होते थे. धीरेधीरे कांग्रेस का दलित वोट बैंक भाजपा में चला गया. इस को अपनी तरफ करने में सपा और बसपा दोनों ही नाकाम रहे.

जिधर पिछड़े उधर जीत

उत्तर प्रदेश की राजनीति में गैरयादव, अतिपिछड़ी जातियां चुनावी जीत का आधार बन गई हैं. इस वजह से ही भाजपा और सपा दोनों ही इन जातियों पर निर्भर हो चुकी हैं. छोटीछोटी ये जातियां आबादी में कम होने की वजह से अकेले दम पर भले ही सियासी तौर पर खास असर न दिखा सकें, लेकिन किसी बड़ी तादाद वाली जाति या फिर तमाम छोटीछोटी जातियां मिल कर किसी भी दल का राजनीतिक खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखती हैं.

उत्तर प्रदेश में सब से बड़ा वोट बैंक पिछड़े तबके का है. 52 फीसदी पिछड़े वोट बैंक में से तकरीबन 43 फीसदी वोट बैंक गैरयादव बिरादरी का है. जीतहार में इस का रोल सब से ज्यादा होता है.

उत्तर प्रदेश में पिछड़े तबके की 79 जातियां हैं, जिन में सब से ज्यादा यादव और दूसरा नंबर कुर्मी समुदाय का है. यादव सपा का परंपरागत वोटर माना जाता है. गैरयादव जातियों में कुर्मी और पटेल 7 फीसदी, कुशवाहा, मौर्य, शाक्य और सैनी 6 फीसदी, लोध 4 फीसदी, गड़रिया और पाल 3 फीसदी, निषाद, मल्लाह, बिंद, कश्यप, केवट 4 फीसदी, तेली, साहू, जायसवाल 4 फीसदी, जाट 3 फीसदी, कुम्हार, प्रजापति, चौहान 3 फीसदी, कहार, नाई, चौरसिया 3 फीसदी, राजभर 2 फीसदी और गुर्जर 2 फीसदी हैं.

स्वामी प्रसाद मौर्य समेत 12 दूसरे पिछड़ी जाति के विधायकों के भाजपा छोड़ने से यह बात साफ है कि इस चुनाव में भाजपा के साथ अतिपिछड़ी जातियां नहीं जा रही हैं.

फूट डालो और राज करो

उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित, पिछड़े और मुसलिम सब से मजबूत हैं. मुसलिम तबका हमेशा से भाजपा के खिलाफ रहा है. ऐसे में भाजपा के पास केवल दलित और पिछड़े ही थे, जिन्हें भाजपा अपनी तरफ कर सकती थी. यहां यादव और जाटव भले ही भाजपा के साथ न हों, पर गैरजाटव और गैरयादव जातियों को वह अपनी तरफ करने में कामयाब रही है.

उत्तर प्रदेश का एक सामाजिक समीकरण और भी है, जिस में पिछड़ी जातियां और दलित एक जगह नहीं खड़े हो सकते. 90 के दशक में मंडल और कमंडल की राजनीति के बाद साल 1993 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई. 2 साल में ही यह सरकार गिर गई. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा ने चुनावी गठबंधन किया, पर वह भी कामयाब नहीं रहा.

भाजपा दलित और पिछड़ों के बीच इस दूरी का फायदा उठा कर सत्ता में बनी रहती है. भाजपा के लिए भी अब मुश्किल यह है कि वह दलित और पिछड़ों को एकसाथ कैसे साधेगी. जैसे ही चुनाव भाजपा बनाम सपा होगा, गैरजाटव दलित सपा के साथ न जा कर भाजपा के साथ खड़े हो जाएंगे, जो भाजपा के लिए फायदे का काम होगा. उत्तर प्रदेश में जाटव बनाम यादव एक मुद्दा रहा है. वे दोनों एकसाथ खड़े नहीं रहना चाहते हैं.

भाजपा की राजनीति

भारतीय जनता पार्टी ने जैसेजैसे राम मंदिर की राजनीति को आगे बढ़ाया, वैसेवैसे मुसलिम राजनीति उस के विरोध में एकजुट होने लगी. पहले मुसलिम तबका कांग्रेस के साथ पूरी तरह से लामबंद था. साल 1993 में उत्तर प्रदेश में मुसलिम वोटर का एक बड़ा धड़ा समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ खड़ा हो गया.

उत्तर प्रदेश में तकरीबन 20 फीसदी मुसलिम मतदाता हैं, जो पूरी तरह से भाजपा के विरोध में हैं. साल 2014 के बाद मुसलिम व भाजपा 2 अलगअलग ध्रुवों पर खड़े हो गए हैं. 20 फीसदी वोट जीतहार में बड़ा माने रखते हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस खाई को और भी चौड़ा कर दिया है.

इस के साथसाथ तीन तलाक, नागरिकता कानून और राम मंदिर के चलते मुसलिम तबका खुद को असुरक्षित महसूस कर के एकजुट हो गया है. योगी आदित्यनाथ ने ‘80 बनाम 20’ का नारा दे कर साफ कर दिया है कि मुसलिम भाजपा के साथ नहीं हैं.

इस चुनाव से पहले भी मुसलिम एकजुटता ने कमंडल की राजनीति को पछाड़ने का काम किया है. मुसलिम राजनीति तब और ज्यादा असरदार हो जाती है, जब दलित और पिछड़े उस के साथ मिल जाते हैं. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल में साल 1991 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए. हिंदुत्व के बल पर भाजपा ने उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल कर ली. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. उन्हीं के मुख्यमंत्री रहते 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मसजिद ढहा दी गई.

इस के बाद मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के एकमात्र मसीहा बन कर उभरे. मुसलिम वोटों के जरीए वे साल 1993 में मुख्यमंत्री बन गए. मुसलमानों का एक बड़ा तबका मुलायम सिंह यादव को एक मसीहा के रूप में देखने लगा. तब उत्तर प्रदेश की राजनीति में नारा लगा था ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गया जय श्रीराम’.

इस समीकरण को तोड़ने में भाजपा ने ‘फूट डालो राज करो’ का काम किया. इस का असर साल 2014 से देखने को मिला. हिंदुत्व का भाव दलित और पिछड़ों में जगा कर मुसलिम विरोध की ढाल तैयार हो गई.

पर साल 2022 में जिस तरह से दलितपिछड़ा तबका भाजपा से दूर हो रहा है, उस से उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ?ाटका लगेगा.

सियासत : इत्र, काला धन और चुनावी शतरंज

शैलेंद्र सिंह

गांवदेहात की एक बहुत पुरानी कहावत है, ‘कहता तो कहता, सुनता ब्याउर’. इस का मतलब है कि कहने वाला तो जैसा है वैसा है ही, सुनने वाला भी अपना दिमाग नहीं इस्तेमाल करता. वह भी झूठ को सच मान लेता है.

कुछ इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश की ‘इत्र नगरी’ कन्नौज में इत्र और गुटके का कारोबार करने वाले पीयूष जैन के यहां इनकम टैक्स का छापा पड़ा. पीयूष जैन पर टैक्स न अदा करने और काला धन रखने का आरोप लगा. उन के यहां से बहुत सारा पैसा नकदी के रूप में मिला.

इस को ले कर राजनीति होने लगी. भारतीय जनता पार्टी के नेता पीयूष जैन को समाजवादी पार्टी का नेता बताते हुए कहते हैं कि ‘समाजवादी इत्र बनाने वाले कारोबारी के घर से काला धन निकला है’.

इस के बाद केवल छोटेमोटे लोकल नेता ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक इस का जिक्र करने लगते हैं. एक तरह से ‘इत्र’ की खुशबू को काले धन की ‘बदबू’ में बदल दिया जाता है. झूठ बोलने में न तो कहने वाला कुछ संकोच कर रहा है और न समझने वाला अपना दिमाग लगाना चाह रहा है.

क्या भारतीय जनता पार्टी का यह ‘मिथ्या प्रचार’ कामयाब हो गया? वैसे, किसी ने यह जानने और समझने की कोशिश नहीं की कि पीयूष जैन कौन हैं? उन का समाजवादी पार्टी के साथ किसी भी तरह का संबंध है भी या नहीं? समाजवादी इत्र किस ने बनाया था?

पीयूष जैन के जरीए समझा जा सकता है कि सोशल मीडिया के जमाने में राजनीतिक दलों के लिए काम करने वाली आईटी सैल किस तरह से सच को झूठ में बदल सकती है. ऐसा अकेले पीयूष जैन के ही साथ नहीं हुआ है, बल्कि बहुत सारे ऐसे नेताओं के साथ हुआ है, जो भाजपा और उस की विचारधारा के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दिखाते हैं.

इस का एक बहुत बड़ा उदाहरण कांग्रेस नेता राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी को आईटी सेल की ताकत ने ‘पप्पू’ में बदल दिया. इस दिशा में बहुत सारे नाम हैं, जिन्हें आईटी सैल ने हीरो से विलेन बना दिया.

याद रहे कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भी वहां पर केंद्र सरकार की एजेंसियों ने ममता बनर्जी पर शिकंजा कसने की कवायद की थी, पर पश्चिम बंगाल की जनता ने केंद्र की ‘डबल इंजन’ सरकार को धो डाला था.

अब कन्नौज के रहने वाले पीयूष जैन पर आते हैं. उन का कुसूर इतना था कि वे उस महल्ले में रहते हैं, जहां समाजवादी पार्टी के विधायक पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी रहते हैं. वे दोनों ही जैन हैं और इत्र व गुटके के कारोबार से जुड़े हैं. जैसे ही पीयूष जैन के यहां छापा पड़ा और तथाकथित काला धन मिला, भाजपा की आईटी सैल ने पीयूष जैन को सपा विधायक पुष्पराज जैन के रूप में बदनाम करना शुरू कर दिया.

छापा और बरामदगी

यह बात सच है कि पीयूष जैन के घर से जो पैसा बरामद हुआ, वह आंखें खोल देने वाला था. पर इस छापे में मिली रकम से 2 बातें भी साफ होती हैं कि सरकार नोटबंदी के बाद जिस काले धन के खत्म होने की बात कर रही थी, वह सही नहीं है. नोटबंदी से काले धन को रोकने में कोई मदद नहीं मिली, उलटे छोटे कारोबारी खत्म हो गए, क्योंकि अगर काले धन पर लगाम लग गई होती तो पीयूष जैन के यहां से इतना पैसा नहीं निकलता.

दूसरी बात यह कि भाजपा सरकार ने यह दावा भी किया था कि जीएसटी के बाद टैक्स चोरी खत्म हो गई है या न के बराबर रह गई है, पर यहां भी वह मात खा गई.

बहरहाल, पीयूष जैन को टैक्स चोरी के आरोप में अहमदाबाद की जीएसटी इंटैलिजैंस टीम ने 50 घंटे की लंबी पूछताछ के बाद गिरफ्तार किया. उन्हें सीजीएसटी ऐक्ट की धारा-69 के तहत गिरफ्तार कर पूछताछ के लिए कानपुर से अहमदाबाद ले जाया गया.

सर्विस ऐंड सर्विसेज टैक्स के अफसरों ने बताया कि छापामारी में इत्र कारोबारी के घर के अंदर एक बड़ा तहखाना मिला और 16 बेशकीमती प्रोपर्टी के दस्तावेज मिले. इन में कानपुर में 4, कन्नौज में 7, मुंबई में 2, दिल्ली में एक और दुबई की 2 प्रोपर्टी के दस्तावेज शामिल हैं.

इस के अलावा 18 लौकर और 500 चाबियां मिलीं. कुलमिला कर शुरुआती 120 घंटे की कार्यवाही में पीयूष जैन के ठिकानों से 257 करोड़ रुपए नकद और कई किलो सोना बरामद हुआ.

पीयूष जैन के घर में इतने पैसे मिले कि नोट गिनने के लिए मशीनें लाई गईं. कुल 8 मशीनों के जरीए पैसे को गिना गया.

कैसे खुला काला सच

अहमदाबाद की जीएसटी टीम को पुख्ता जानकारी मिली थी कि कानपुर में एक ट्रांसपोर्ट बिजनैसमैन टैक्स चोरी करता है. दरअसल, अहमदाबाद में एक ट्रक पकड़ा गया था. इस ट्रक में जा रहे सामान का बिल फर्जी कंपनियों के नाम पर बनाया गया था. सभी बिल 50,000 रुपए से कम के थे. टीम ने उस ट्रांसपोर्टर के घर और दफ्तर पर छापा मारा. वहां पर डीजीजीआई को तकरीबन 200 फर्जी बिल मिले. वहीं से पीयूष जैन और फर्जी बिलों के कनैक्शन का पता लगा. इस के बाद पीयूष जैन के घर पर छापामारी की गई.

पीयूष जैन कन्नौज की मशहूर इत्र वाली गली में इत्र का कारोबार करते हैं. इन के मुंबई में भी औफिस हैं. इनकम टैक्स को इन की तकरीबन 40 से ज्यादा ऐसी कंपनियां मिली हैं, जिन के जरीए पीयूष जैन अपना इत्र कारोबार चला रहे थे. वे गुटके के कारोबार से भी जुड़े हैं. कानपुर के ज्यादातर पान मसाला बनाने वाले उन के ग्राहक हैं. वे पीयूष जैन से ही पान मसाला कंपाउंड खरीदते हैं. गुटके के बिजनैस का कारोबार बढ़ने की वजह से ही पीयूष जैन को कन्नौज छोड़ कर कानपुर जाना पड़ा.

पीयूष जैन के पिता महेश चंद्र जैन कैमिस्ट की अच्छी जानकारी रखते हैं और उन का कारोबार भी इत्र से न जुड़ा हो कर कैमिस्ट की कंपाउंडिंग से जुड़ा हुआ है. पीयूष जैन के एक और भाई हैं अमरीश जैन. वे दोनों ही भाई कभी कन्नौज तो कभी कानपुर के घर पर रहते हैं. इन के पिताजी महेश चंद्र जैन ज्यादातर कन्नौज के मकान में रहते हैं.

50 साल के पीयूष जैन एक बहुत ही लोप्रोफाइल बिजनैसमैन हैं, जो एक आम जिंदगी बिताते हैं. वे अभी भी स्कूटर पर चलते हैं. उन के घर से सोना और नकदी बरामद होने के बाद और टैक्स चोरी के आरोप में कोर्ट ने उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है.

जब पीयूष जैन के कानपुर वाले घर पर डीजीजीआई टीम की छापेमारी हुई, उस के बाद से उन का संबंध समाजवादी पार्टी और कन्नौज से समाजवादी पार्टी के एमएलसी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन से जोड़ा जाने लगा. ऐसे में जब इस बात की पड़ताल की गई, तो पता चला कि पीयूष जैन और पुष्पराज जैन का आपस में कोई संबंध नहीं है. बस, इतना ही संबंध है कि वे दोनों एक ही जगह महल्ला छिपट्टी के रहने वाले हैं. वे दोनों जैन हैं और इत्र कारोबारी भी हैं. उन की आपस में न तो कोई रिश्तेदारी है और न ही कोई राजनीतिक संबंध.

समाजवादी इत्र को पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन ने लौंच किया था. इस से पीयूष जैन का कोई संबंध नहीं था. 60 साल के पुष्पराज जैन को कन्नौज में ‘परोपकारी’ और ‘राजनेता’ कहा जाता है. उन के पास एक पैट्रोल पंप और कोल्ड स्टोरेज यूनिट है. वे खेतीबारी से भी कमाई करते हैं और उन के पास मुंबई में भी घर और दफ्तर हैं. पुष्पराज जैन को साल 2016 में इटावाफर्रुखाबाद से एमएलसी के रूप में चुना गया था. वे प्रगति अरोमा औयल डिस्टिलर्स प्राइवेट लिमिटेड के सहमालिक हैं. उन के इस बिजनैस की शुरुआत उन के पिता सवाई लाल जैन ने साल 1950 में की थी.

पुष्पराज जैन और उन के 3 भाई कन्नौज में कारोबार चलाते हैं और एक ही घर में रहते हैं. उन के 3 भाइयों में से 2 भी मुंबई औफिस में काम करते हैं, जबकि तीसरा भाई उन के साथ कन्नौज में मैन्युफैक्चरिंग सैटअप पर काम करता है.

साल 2016 में पुष्पराज जैन के चुनावी हलफनामे के मुताबिक, पुष्पराज और उन के परिवार के पास 37.15 करोड़ रुपए की चल संपत्ति और 10.10 करोड़ रुपए की अचल संपत्ति है. उन का कोई आपराधिक रिकौर्ड नहीं है और उन्होंने कन्नौज के स्वरूप नारायण इंटरमीडिएट कालेज में 12वीं जमात तक पढ़ाई की है.

इन का है समाजवादी इत्र

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने ‘इत्र नगरी’ कन्नौज से सांसद होने का सफर शुरू किया तो उन के साथ इत्र कारोबारी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी पार्टी में शामिल हो गए और धीरेधीरे उन की गिनती अखिलेश यादव के करीबी नेताओं में होने लगी. इस के बाद उन्होंने समाजवादी इत्र का निर्माण कर उसे लौंच किया और पार्टी से एमएलसी का चुनाव लड़ कर जीत हासिल की.

पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन शुरू से ही अपने पुश्तैनी घर पर रहे हैं और घर के पास ही इत्र का कारखाना लगाए हुए हैं, जहां से इत्र तैयार हो कर देशविदेश में भेजा जाता है.

पीयूष जैन के घर हुई छापेमारी के बाद पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी सुर्खियों में आ गए. भाजपा के लोगों ने पीयूष जैन को ही समाजवादी पार्टी का नेता बताना शुरू कर दिया, तो अखिलेश यादव ने उन पर आरोप लगाते हुए कहा कि भाजपा ने पुष्पराज उर्फ पंपी जैन के घर छापा मारने के लिए कहा था, पर अफसर गलती से पीयूष जैन के घर पर छापा मार बैठे. पीयूष जैन के घर जो काला धन मिला है, उस से सपा का कोई मतलब नहीं है. यह सारा पैसा भाजपा के नेताओं का है. अफसरों की गलती से भाजपा का सच बाहर आ गया है.

अखिलेश यादव ने दावा किया कि भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार का असली निशाना पुष्पराज जैन थे, जिन्होंने हमारे लिए परफ्यूम बनाया था. उन्होंने (भाजपा) मीडिया के जरीए विज्ञापन दिया कि जिस पर छापा मारा गया, वह आदमी सपा का है. बाद में लोग सम?ा गए कि सपा के एमएलसी का इस से कोई लेनादेना नहीं है. भाजपा के लोग ‘सपा के इत्र कारोबारी पर छापा’ को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगे. यह सब ‘डिजिटल इंडिया’ की गलती की तरह लग रहा था.

काले धन पर प्रधानमंत्री का निशाना

समाजवादी पार्टी को बदनाम करने के लिए काले धन के आरोपी पीयूष जैन को सपाई नेता साबित करने की लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कूद पड़े. नरेंद्र मोदी का भाषण देश के प्रधानमंत्री का भाषण होता है. इस के तथ्यों में गलतियां नहीं होनी चाहिए. पीयूष जैन और पुष्पराज जैन के बीच के फर्क को पीएमओ के लोग भी नहीं समझ पाए या उत्तर प्रदेश में चुनावी फायदे के लिए इस फर्क को जानबूझ कर मिटाने का काम किया गया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीयूष जैन के घर हुई छापेमारी का इशारे से जिक्र किया, जिस में 194 करोड़ रुपए से ज्यादा की नकदी बरामद हुई है और समाजवादी पार्टी पर सत्ता में अपने कार्यकाल के दौरान पूरे उत्तर प्रदेश में ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ छिड़कने का आरोप लगाया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीयूष जैन पर मारे गए छापे का जिक्र किया और कहा कि उन्होंने (सपा) साल 2017 से पहले पूरे उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार की इत्र बिखेर दी थी, जो सभी के सामने है, मगर अब वे अपना मुंह बंद रखे हुए हैं और के्रडिट लेने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं. नोटों का पहाड़, जिसे पूरे देश ने देखा है, यही उन की उपलब्धि और हकीकत है.

झूठ को सच में बदलने के लिए छापेमारी

बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस भाषण की आलोचना होने लगी. समाजवादी पार्टी ने भाजपा के इस झूठ को मुद्दा बना लिया. इस के बाद अचानक समाजवादी पार्टी के एमएलसी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन के कारोबारी ठिकानों पर भी इनकम टैक्स वालों की छापेमारी होने लगी. इस को अखिलेश यादव ने पकडे़ गए झूठ को सच में बदलने की कोशिश बताया.

सपा नेता रामगोपाल यादव ने कहा कि जबजब चुनाव आता है, तो छापे मारने वाले अफसरों की गाडि़यों पर लिख दिया जाता है, ‘आल इलैक्शन ड्यूटी’. तो ये तो इलैक्शन ड्यूटी पर हैं. वे अपना काम कर रहे हैं. अगर वे प्रोफैशनली करना चाहते थे, तो चुनाव से ठीक पहले यह छापे क्यों मारे जा रहे हैं? इस से पहले क्या इनकम टैक्स विभाग सो रहा था? सरकारी एजेंसियां दबाव में भी काम कर रही हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को कितनी परेशानी उठानी पड़ी, पर जीत ममता की हुई, भाजपा को मुंह की खानी पड़ी. उत्तर प्रदेश में भी यही होगा. जनता भाजपा को सबक सिखाने के लिए तैयार है.

जाति की राजनीति में किस को फायदा

इस देश में शादीब्याह में जिस तरह जाति का बोलबाला है वैसा ही राजनीति में भी है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ मिल यादवोंपिछड़ों को दलितों के साथ जोड़ने की कोशिश की थी पर चल नहीं पाई. दूल्हे को शायद दुलहन पसंद नहीं आई और वह भाजपा के घर जा कर बैठ गया. अब दोनों समधी तूतू मैंमैं कर रहे हैं कि तुम ने अपनी संतान को काबू में नहीं रखा.

इस की एक बड़ी वजह यह रही कि दोनों समधियों ने शादी तय कर के मेहनत नहीं की कि दूल्हेदुलहन को समझाना और पटाना भी जरूरी है. दूसरी तरफ गली के दूसरी ओर रह रही भाजपा ने अपनी संतान को दूल्हे के घर के आगे जमा दिया और आतेजाते उस के आगे फूल बरसाने का इंतजाम कर दिया, रोज प्रेम पत्र लिखे जाने लगे, बड़ेबड़े वायदे करे जाने लगे कि चांदतारे तोड़ कर कदमों में बिछा दिए जाएंगे. वे दोनों समधी अपने घर को तो लीपनेपोतने में लगे थे और होने वाले दूल्हेदुलहन पर उन का खयाल ही न था कि ये तो हमारे बच्चे हैं, कहना क्यों नहीं मानेंगे?

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अब दूल्हा भाग गया तो दोष एकदूसरे पर मढ़ा जा रहा है. यह सांप के गुजर जाने पर लकीर पीटना है. मायावती बेवकूफी के बाद महाबेवकूफी कर रही हैं. यह हो सकता है कि पिछड़ों ने दलितों को वोट देने की जगह भाजपा को वोट दे दिया जो पिछड़ों को दलितों पर हावी बने रहने का संदेश दे रही थी.

इस देश की राजनीति में जाति अहम है और रहेगी. यह कहना कि अचानक देशभक्ति का उबाल उबलने लगा, गलत है. जाति के कारण हमारे घरों, पड़ोसियों, दफ्तरों, स्कूलों में हर समय लकीरें खिंचती रहती हैं. देश का जर्राजर्रा अलगअलग है. ब्राह्मण व बनियों में भी ऊंचनीच है. कुंडलियों को देख कर जो शादियां होती हैं उन में न जाने कौन सी जाति और गोत्र टपकने लगते हैं.

जाति का कहर इतना है कि पड़ोसिनें एकदूसरे से मेलजोल करने से पहले 10 बार सोचती हैं. प्रेम करने से पहले अगर साथी का इतिहास न खंगाला गया हो तो आधे प्रेम प्रसंग अपनेआप समाप्त हो जाते हैं. अगर जाति की दीवारें युवकयुवती लांघ लें तो घर वाले विरोध में खड़े हो जाते हैं. घरघर में फैला यह महारोग है जिस का महागठबंधन एक छोटा सा इलाज था पर यह नहीं चल पाया. इसका मतलब यह नहीं कि उसे छोड़ दिया जाए.

देश को जाति की दलदल से निकालने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपना अहंकार छोड़ें और पिछड़े और दलित अपनी हीनभावना को. अखिलेश यादव और मायावती ने प्रयोग किया था जो अभी निशाने पर नहीं बैठा पर उन्होंने बहुत देर से और आधाअधूरा कदम उठाया. इस के विपरीत जाति को हवा देते हुए भाजपा पिछले 100 सालों से इसे हिंदू धर्म की मूल भावना मान कर अपना ही नहीं रही, हर वर्ग को सहर्ष अपनाने को तैयार भी कर पा रही है.

अखिलेश यादव और मायावती ने एक सही कदम उठाया था पर दोनों के सलाहकार और आसपास के नेता यह बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं.

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भीड़ को नहीं है किसी का डर

मामला परशुराम के पिता का पुत्रों को मां का वध करने का हो, अहिल्या का इंद्र के धोखे के कारण अपने पति को छलने का या शंबूक नाम के एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर राम के हाथों वध करने का, हमारे धर्म ग्रंथों में तुरंत न्याय को सही माना गया है और उस पर धार्मिक मुहर लगाई गई है. यह मुहर इतनी गहरी स्याही लिए है कि आज भी मौबलिंचिंग की शक्ल में दिखती है. असम में तिनसुकिया जिले में भीड़ ने पीटपीट कर एक पति व उस की मां को मार डाला, क्योंकि शक था कि उस ने अपनी 2 साल की बीवी और 2 महीने की बेटी को मार डाला.

मजे की बात तो यह है कि जब पड़ोसी और मृतक बीवी के घर वाले मांबेटे की छड़ों से पिटाई कर रहे थे, लोग वीडियो बना कर इस पुण्य काम में अपना साथ दे रहे थे.

देशभर में इस तरह भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने और भीड़ में खड़े लोगों का वीडियो बनाना अब और ज्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि शासन उस तुरंत न्याय पर नाकभौं नहीं चढ़ाता. गौरक्षकों की भीड़ों की तो सरकारी तंत्र खास मेहमानी करते हैं. उन्हें लोग समाज और धर्म का रक्षक मानते हैं.

तुरंत न्याय कहनेसुनने में अच्छा लगता है पर यह असल में अहंकारी और ताकतवर लोगों का औरतों, कमजोरों और गरीबों पर अपना शासन चलाने का सब से अच्छा और आसान तरीका है. यह पूरा संदेश देता है कि दबंगों की भीड़ देश के कानूनों और पुलिस से ऊपर है और खुद फैसले कर सकती है. यह घरघर में दहशत फैलाने का काम करता है और इसी दहशत के बल पर औरतों, गरीबों, पिछड़ों और दलितों पर सदियों राज किया गया है और आज फिर चालू हो गया है.

जब नई पत्नी की मृत्यु पर शक की निगाह पति पर जाने का कानून बना हुआ है तो भीड़ का कोई काम नहीं था कि वह तिनसुकिया में जवान औरत की लाश एक टैंक से मिलने पर उस के पति व उस की मां को मारना शुरू कर दे. यह हक किसी को नहीं. पड़ोसी इस मांबेटे के साथ क्यों नहीं आए, यह सवाल है.

लगता है हमारा समाज अब सहीगलत की सोच और समझ खो बैठा है. यहां किसी लड़केलड़की को साथ देख कर पीटने और लड़के के सामने ही लड़की का बलात्कार करने और उसी समय उस का वीडियो बनाने का हक मिल गया है.

यहां अब कानून पुलिस और अदालतों के हाथों से फिसल कर समाज में अंगोछा डाले लोगों के हाथों में पहुंच गया है, जो अपनी मनमानी कर सकते हैं. पिछले 100-150 साल के समाज सुधार और कानून के सहारे समाज चलाने की सही समझ का अंतिम संस्कार जगहजगह भीड़भड़क्के में किया जाने लगा है. यह उलटा पड़ेगा पर किसे चिंता है आज. आज तो पुण्य कमा लो.

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सतर्क रहना युवती का पहला काम

शराब बलात्कारों का दरवाजा खोलती है, क्योंकि शराब के नशे में न तो लड़कियों को सुध रहती है कि उन के साथ क्या हो रहा है न बलात्कारियों को. देशी एयरलाइनों में काम करने वाली एअरहोस्टेसें अपनेआप में खासी मजबूत होती हैं और यात्रियों से डील करतेकरते उन्हें दिलफेंक लोगों को झिड़कना आता है. उन की ट्रेनिंग ऐसी होती है कि वे छुईमुई नहीं होतीं और उन के मसल्स मजबूत होते हैं.

ऐसे में कोई एअरहोस्टेस पुलिस में शिकायत करे कि उस के साथ बलात्कार हुआ तो यह काफी जोरजबरदस्ती और शराब के साथ नशीली दवा के कारण ही हुआ होगा. हैदराबाद में रहने वाली इस युवती की शिकायत है कि वह कुछ ड्रिंक्स लेने अपने सहयोगी के साथ गई थी और फिर उस के साथ उस के घर चली गई. वहां सहयोगी और 2 अन्य ने उसे बेहोश कर के उस के साथ बलात्कार किया.

इस दौरान उस का मंगेतर और पिता लगातार फोन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे और जब सुबह उस के होश आने पर उस ने फोन उठाया और पिता व मंगेतर से बात की तो पुलिस कंप्लेंट फाइल की.

बलात्कार के बारे में अकसर यह कह दिया जाता है कि उस में लड़की की सहमति होगी जो बाद में मुकर गई पर इस पर प्रतिप्रश्न यही है कि यदि उस ने पहले सहमति से अपने सुख के लिए संबंध बनाया तो वह आगे भी संबंध बनाएगी न कि शिकायतें करेगी. वह शिकायत तो तभी करेगी जब उस से जबरदस्ती करी जाए.

यह कुछ ऐसा ही है कि यदि दोनों में से एक दोस्त दूसरे की लंबे दिनों तक आर्थिक सहायता करता रहे पर एक दिन जब वह मना कर दे तो क्या सहायता मांगने वाले के पास देने वाले का पर्स चोरी करने का अधिकार है? हां, शराब के नशे में दोस्त दोस्त का पर्स साफ कर जाए तो संभव है पर यह भी अपराध ही है. पैसे का अपराध छोटा है, शारीरिक अपराध बड़ा है. एक घूंसा मारने पर लोग बदले में दूसरे पर गोली तक चला देते हैं. यह अपने अधिकारों का इस्तेमाल है.

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अपने बारे में सतर्क रहना हर युवती का पहला काम है. यदि उसे किसी से सैक्स संबंध बनाने पर एतराज नहीं है तो उसे खुली छूट है कि वह रात उस के घर जाए, उस के साथ नशा करे. पर यदि किसी कारण उसे किसी युवक दोस्त के साथ रहना पड़े तो शराब का रिस्क तो वह ले ही नहीं सकती. अपनी सुरक्षा पहले अपने हाथ में है. छुईमुई न बनें, पर बेमतलब रिस्क भी न लें. रात अंधेरे में आदमी भी जेब में पर्स और मोबाइल लिए चलने में घबराते हैं, यह न भूलें.

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