नितीश के सियासी रंग और बिहार का चुनाव

सबसे अधिक छह बार बिहार के मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले नितीश कुमार भारतीय राजनीति मे सत्ता के लिए सबसे अधिक रंग बदलने वाले चेहरे भी हैं. उनके पास सुशासन का तमगा, केवल मंचों से नैतिकता का पाठ पढ़ाने और आश्वासन देने का हुनर भी है. नितीश जब सफेद मुस्लिम टोपी और हरे गमछे मे होते थे तब भी उनके पास सत्ता थी और केसरिया साफे और गमछे के साथ भी सत्ता है. इससे जाहिर है कि वह देश‌ के ऐसे नेता हैं जो सत्ता के लिए कभी भी रंग बदल सकते हैं. जबकि वह खुद आज भी मंचों से सबसे अधिक नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं.

बहुत पीछे जाने की जरूरत नही है.नितीश ने मुस्लिम वोटर्स को रिझाने के लिए ट्रिपल तलाक़ और जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने का विरोध किया था. यहां तक कि तीन तलाक और आर्टिकल 370 के मुद्दे पर वोटिंग के दौरान दोनों सदनों से उनकी पार्टी के सांसद वॉकआउट कर गए थे. बिहार विधान सभा मे एनआरसी और एनपीआर लागू न करने का प्रस्ताव पास करवाने वाले नितीश कुमार की पार्टी ने केंद्र में सीएए का समर्थन किया, राज्यसभा और लोकसभा मे उनके सांसदों ने वोट किया. यहां तक की राज्य सभा मे उनके मुस्लिम सांसदों ने भी वोट किया.

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वहीं साल 2010 के नितीश कुमार सब को याद होंगें, जब वह हर कुछ महीनों में केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार के पास बिहार के मदरसों के अनुदान का प्रस्ताव भेजते थे. मनमोहन सरकार उसे बार बार नकार देती थी. केंद्र में सत्ता बदली तो यही नितीश केसरिया साफे में आ गये और अपने पुराने प्रस्ताव को भूल गए. आपको ये भी बता दें कि ये वही नितीश हैं जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी का 10 साल से ज्यादा का सत्ता का साथ छोड़ कर अपने धुर विरोधी लालू यादव का, जिनको वह डेढ़ दशक से ज्यादा समय से कोसते आए थे, हाथ थाम लिया था.

यही नही नितीश उन्हें अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का सबसे बड़ा मसीहा बताने लगे और भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे थे. बात यहीं खतम नही होती, फिर वही नितीश थे कि अभी सुहाग की मेहंदी सूखी भी नहीं थी कि पाला बदला भाजपा के बगलगीर हो गये और फिर भाजपा के साथ सरकार बना ली. जो दुनिया के प्रजातंत्र में एक अनूठी अनैतिकता कही जा सकती है? राजनीति में नैतिकता के साथ खिलवाड़ का या जनमत के साथ इतना हास्य शायद इससे पहले नहीं हुआ होगा. वैसे पाला बदलने की घटनाएं पिछले छह सालों मे अब देश के कई राज्यों मे हो चुकी हैं. लेकिन वह नितीश कुमार जैसे नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले लोग नही थे.

बिहार विधानमंडल के पिछले सत्र मे विधानसभा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी ने अपना भाषण उर्दू में पढ़ा,क्या ये मुसलमानों को पटाने की कवायद नही थी. जबकि भाजपा विधायकों ने इस पर एतराज भी जताया. उसके बाद ही नितीश कुमार ने अजमेर शरीफ चादर भेजी हजरत ख्वाजा गरीब नवाज के मजार पर चढ़ाने के लिए. जबकि उनका उस्र नही था, पर बिहार मे चुनाव की आहट जरूर थी. बिहार की राजनीति मे 17 प्रतिशत मुसलमान चुनावी नतीजे को प्रभावित करते हैं. लालू के बाद बिहार के मुसलमानों के लिए नितीश कुमार ही पसंदीदा चेहरें हैं.

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सत्ता मे आने के बाद उन्होने इस समुदाय को लेकर तमाम घोषणएं भी की थी. लेकिन सथानीय लागों का कहना हे कि अधीकांश धोष्णओं की जमीनी हकीकत आज भी, मंचों और भाषणों तक सीमित है.अलबत्ता कब्रिस्तानों की धेराबंदी के मामले मे बड़े पैमाने पर काम दिखता है. उर्दू शिक्षकों की बहाली का मामला हो,मदरसा शिक्षकों के वेतन, मदरसों के अनुदान का मामला हो, मुस्लिम नौजवानों के रोजगार का मामला हो, शिक्षा और स्वास्थ्य का मामला हो, मुस्लिम क्षेत्रों के अस्पताल और सरकारी स्कूलों का मामला हो या अल्पसंख्यक लोन का मामला हो, पर जदयू सरकार ने अब तक काम ठोस काम नही किया है.

नितीश कुमार कभी मुसलमानों को लाली पाप देते हैं तो कभी दलितों और पिछड़ों को. दरअसल, बिहार में अब तक राजनीति जाति से संचालित होती रही है, यानी वह जाति के लचीले खोल में समाकर ही आकार लेती रही है. लेकिन नितीश कुमार ने यहां भी एक दांव खेला और जाति समूहों और उन समूहों से बनने वाले समीकरण को साधा. जैसे कि लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय का नारा देकर पिछड़ों और दलितों को गोलबंद कर अपनी राजनीति को परवान चढ़ाया था. वहीं नितीश ने सामाजिक न्याय के साथ विकास का नारा दिया.जातीय न्याय के साथ ही आर्थिक न्याय और लैंगिक न्याय के नारें को भी उन्होने उछाला.

महिलाओं को पंचायती चुनाव में आरक्षण देकर, अतिपिछड़ा और महादलित नाम से नए राजनीतिक समूह का गठन कर वे ऐसा करने में सफल हो सके. वहीं मुस्लिम में अशराफ मुस्लिम के मुकाबले पसमांदा समूह को उभारकर भी वे ऐसा करने में कामयाब रहे. दरअसल बिहार में जाति का समीकाण उतना आसान है भी नहीं.ओबीसी में दस जातियां हैं, बात सिर्फ कोईरी, कुरमी, यादव और बनिया पर होकर रह जाती है. दलितों मे करीब दो दर्जन जातियां हैं. मुस्लिमों में ही 42 जातियां हैं.अतिपिछड़ा समूह में तो जातियों की संख्या 120 के पार है.गौरतलब है कि ये वही बिहार है जहां आजादी से पहले जनेऊ आंदोलन हुआ था, यादवों और कुछ अन्य ग़ैर-ब्राह्मण पिछड़ी जातियों ने जनेऊ पहनना शुरू किया. फिर समय ने करवट बदला तो इसी बिहार मे जेपी आंदोलन के वक़्त संपूर्ण क्रांति के लिए हज़ारों लोगों ने पटना के गांधी मैदान में जनेऊ तोड़े भी थे. यानी बिहार मे जाति का गणीत बेहद जटिल है और हर राजनीतिक दल उसे अपने हिसाब से हल करना चाहता है.

दरअसल  लालू-राबड़ी के 15 साल के काल के बाद नितीश कुमार बिहार के लिए उम्मीदों और अरमानों की गठरी ले कर आए थे. वादों की लम्बी फेहरिस्त के साथ और कुछ अच्छा करेंगे जैसे भरोसे के साथ. अगर लालू के 15 साल और नितीश के 15 सालों की तुलना की जाये तो बिहार मे बदलाव तो दिखता है, लेकिन उनके अधिकांश वादे फाइलों मे कैद रह गये. खासकर दलितों और मुस्लिमों से जुड़े मामलों पर वह उतने खरे नही उतरे जितना इन वर्गों को सपना दिखाया गया था.

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कोरोना वायरस के चलते हुए लाकडाउन के दौरान बिहार के प्रवासी मजदूरों और छात्रों को लेकर जिस तरह से सुशासन बाबू ने रूख अपनाया था, उससे सत्ता के पहले वाले नितीश कुमार के मुकाबाले मुख्यमंत्री नितीश कुमार ही एक अकुशल प्रशासक के तौर पर दिखे थे.बहुत तेज़ी से उनकी लोकप्रियता मे कमी आयी है. बिहार मे उनकी साख को बट्टा बहुत तेज़ी से लग रहा है. आपको याद होगा कि नितीश को लोगों ने लालू प्रसाद यादव से ज्यादा सक्षम प्रशासक माना था. लेकिन आज राज्य में भ्रष्टाचार हर स्तर पर है. कानून व्यवास्था का मजाक हर जगह, हर रोज़ उड़ता है. कहा जाता है कि शराबबंदी ने राज्य में पुलिस के लिए कमाई का एक नया रास्ता खोल दिया है.छह साल पहले केंद्र से बेटी बचाओ का नारा खूब जोर से उछला था, लेकिन बिहार मे अक्सर बेटियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं होती है.

इसके बावजूद खाकी के बड़े ओहदेदार राजनीति की आकांक्षा रखते हैं. आईपीएस अफसर सुनील कुमार और पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने खाकी से खादी की तरफ रूख कर भी लिया है. यहां भी वही जाति का खेल दिख रहा है. आपको याद होगा कि सुशांत सिंह राजपूत मामले मे तब डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पांडेय ने जिस तरह की टिप्पणीयां की थी, इतने बड़े पद पर रहने के दौरान ऐसी टिप्पणीयां सुनने को नही मिलती हैं. राजनीतिक हलकों मे कहा जा रहा है कि नितीश कुमार ने हाल मे दलितों के साथ कुछ कागजी और कुछ असल की जो दरियादिली दिखायी है, कहीं वो सब भारी न पड़ जाये इसलिए बैलेंस करने के लिए  गुप्तेश्वर पांडेय को सवर्ण कार्ड के तौर पर प्रयोग करेगें. वैसे इन चुनावों मे श्री पांडेय को नितीश ने कहीं से उम्मीदवार नही बनाया है. बिहार मे रोजगार की समस्या सारे पुराने आंकड़ों को पार कर गयी है. याद रहे इन में से कई मुद्दों के खिलाफ ही माहौल बना कर नितीश कुमार बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे. आज वो सब कुछ किसी न किसी रूप मे उनके शासन का अंग है.

बिहार में 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव जीतने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मतदाता महत्वपूर्ण हैं. राज्य में एससी/एसटी वोट करीब 16 प्रतिशत से ज्यादा है. यही वजह है कि सभी पार्टियों और गठबंधन की रणनीती के केंद्र में ये वोटबैंक है. कुमार शुरू से दलितों को किसी न किसी रूप मे रिझातें रहें हैं. ये बात अलग है कि चुनावों से ठीक पहले उन्होने दलितों को रिझाने के लिए एक और दांव खेला, कि अनुसूचित जाति-जनजाति के किसी व्यक्ति की हत्या हो जाने पर उसके परिवार के किसी एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी.

राजनीतिक हलके मे इसे केवल चुनावी ऐलान माना जा रहा है.क्यों कि घोषण मे पिछली हत्यायों का कोई जिक्र नही है. नितीश ने दलितों को 3 डिसमिल जमीन देने का वादा किया गया था जो आज तक पूरा नहीं हो पाया है. इसी लिए चिराग पासवान जैसे दलित नेताओं ने कहा है कि सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अपराधियों में क़ानून का भय हो. जिससे भविष्य में न सिर्फ़ दलितों बल्कि किसी भी वर्ग के लोगों की हत्या न हो सके. बहरहाल बिहार की राजनीति में पिछले 15 दिनों में दिलचस्प बदलाव देखने को मिल रहा है.जो चुनाव अब तक राजग के लिए काफी आसान लग रहा था जिसमें भाजपा आगे नजर आ रही थी लेकिन अब हालात बिल्कुल बदल चुके हैं.

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राजग ने 180 से अधिक सीटें जीतने की बात करनी बंद कर दी है. इसके अलावा, भाजपा ने नितीश कुमार के शासन का बचाव करना शुरू कर दिया है. हालांकि जब चुनावी प्रक्रिया की शुरुआत हो रही थी तब पार्टी के कई नेताओं ने इसको नजरअंदाज किया था और मांग की थी कि चुनाव के बाद नितीश की जगह भाजपा के किसी और नेता को लाया जाए. भाजपा को डर सताने लग रहा है कि नितीश तो खुद डूबेंगे ही,उसके साथ-साथ भाजपा को भी नुकसान हो सकता है. इस लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा फिर एक बार सामने किया जा रहा है. नितीश और प्रधानमंत्री की संयुक्त रैलियों और सभाओं की रणनीति बन रही है.देखना है कि आने वाले दिनों मे चुनाव कितना और करवट बदलता है, क्योंकि कई छोटे-छोटे राजनीतिक दल भी अपने अंदाज मे ताल ठोंक रहें हैं.

भाजपाई नीतीश को पटकनी देंगे पीके?

भारतीय जनता पार्टी को केंद्र में और जनता दल (यू) को बिहार में अपनी चुनावी योजनाओं से जीत दिलाने वाले प्रशांत किशोर उर्फ पीके ने अपने पुराने दोनों क्लाइंट को धूल चटाने के लिए कमर कस ली है. उन्होंने बिहार की कुल 8,800 पंचायतों में पैठ बनाने की कवायद शुरू कर दी है. पंचायतों में अपनी पैठ बना कर वे बिहार विधानसभा पर नजरें टिका चुके हैं.

20 फरवरी, 2020 से ‘बात बिहार की’ नाम से नए कार्यक्रम की शुरुआत कर चुके पीके का दावा है कि 3 लाख नौजवान इस से जुड़ चुके हैं और 20 मार्च, 2020 तक 10 लाख और नौजवानों को जोड़ना है.

गौरतलब है कि इस साल के आखिर में बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. सवाल यह भी है कि क्या पीके नीतीश कुमार जैसे सियासी धुरंधर और भाजपा जैसी नैशनल पार्टी को चुनौती देने की ताकत रखते हैं, क्योंकि मार्केटिंग और राजनीति दोनों अलगअलग चीजें हैं.

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जनता दल (यू) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर ने 18 फरवरी, 2020 को पटना में प्रैस कौंफ्रैंस कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजग के खिलाफ हल्ला बोल दिया था. उन्होंने नीतीश कुमार को अपने पिता समान बताते हुए दावा किया कि उन दोनों का रिश्ता केवल राजनीति का नहीं रहा है. उस के तुरंत बाद उन्होंने नीतीश कुमार के साथ विचारों के मतभेद का खुलासा कर डाला.

पीके ने कहा कि साल 2019 के लोकसभा चुनाव के समय से ही नीतीश कुमार और उन के बीच ‘आल इज वैल’ नहीं रहा.

नीतीश कुमार हमेशा कहते हैं कि वे गांधी, लोहिया और जेपी की विचारधारा को नहीं छोड़ सकते हैं, पर गांधी के साथसाथ गोडसे के विचारों को मानने वालों के साथ वे कैसे खड़े हैं? इसी से हमारे बीच मतभेद रहा.

पीके ने नीतीश कुमार के विकास के कामों को तथाकथित विकास करार दे डाला. भाजपा के साथ होते हुए भी आज तक बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की उन की सालों पुरानी मांग क्यों नहीं पूरी हुई?

बिहार में शिक्षा की हालत बेहद खराब है. प्रति परिवार बिजली की खपत में बिहार सब से पिछड़ा है. विकास के मामले में बिहार पिछले 15 सालों से 22वें नंबर पर क्यों है? अपनी बात कहने और मनवाने के लिए हरदम नीतीश कुमार पिछलग्गू बने रहते हैं.

पीके ने नीतीश कुमार को सियासी चुनौती दे दी है, लेकिन क्या उन में कूवत है कि वे नीतीश कुमार जैसे सियासी धुरंधर और सोशल इंजीनियरिंग के मास्टर के सामने टिक सकेंगे? पीके जहां मार्केटिंग और पब्लिसिटी के मास्टर हैं, वहीं नीतीश कुमार के पास तकरीबन 45 सालों का सियासी अनुभव है. वे विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री रहे हैं और भाजपा और राजद जैसे ताकतवर दलों को साधते रहे हैं.

साल 1974 के जेपी आंदोलन की उपज नीतीश कुमार साल 1985 में पहली बार विधायक बने थे. साल 1989 में वे पहली बार सांसद बने थे. उस के बाद साल 1991, साल 1996, साल 1998, साल 1999 और साल 2004 में वे लोकसभा चुनाव जीते थे. साल 1990 के अप्रैल से नवंबर महीने तक वे केंद्रीय कृषि मंत्री रहे.

19 मार्च, 1998 से ले कर 5 अगस्त, 1999 तक नीतीश कुमार केंद्रीय रेल मंत्री रहे. 13 अक्तूबर, 1999 से ले कर 22 नवंबर, 1999 तक वे भूतल परिवहन मंत्री रहे. 27 मई, 2000 से 20 मार्च, 2001 तक वे कृषि मंत्री रहे. 22 जुलाई, 2001 से ले कर साल 2004 तक वे रेल मंत्री रहे.

साल 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने न्याय के साथ विकास का नारा दिया. तब से अब तक वे लगातार बिहार के मुख्यमंत्री की कुरसी पर काबिज हैं.

साल के आखिर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज कराने के लिए नीतीश कुमार ने सियासी दांवपेंच खेलना शुरू कर दिया है. नीतीश कुमार की सब से बड़ी ताकत उन की ईमानदार छवि है और फैसला लेने के मामले में वे पक्के माने जाते हैं.

पीके पर पलटवार करते हुए जद (यू) के राष्ट्रीय संगठन के महासचिव आरसीपी सिंह ने कहा कि नीतीश कुमार को पिछलग्गू बनाने की औकात किसी के पास नहीं है. वे अपने काम के बूते देशभर में पहचान बन चुके हैं. हमें किसी ऐरेगैरे से सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है.

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जद (यू) के सीनियर नेता ललन सिंह ने पीके की तुलना टिटहरी से करते हुए कहा कि टिटहरी रात को पैर उठा कर सोती है, क्योंकि उसे लगता है कि उस ने अपने पैरों से आसमान को थाम रखा है. सुबह उठ कर वह इस बात का प्रचार भी करती है कि अगर वह पैर उठा कर नहीं सोती तो आसमान गिर पड़ता.

भाजपा नेता सुशील मोदी ने पीके पर तंज कसते हुए कहा कि इवैंट मैनेजमैंट करने वालों की कोई विचारधारा नहीं होती है. वे अपने क्लाइंट की विचारधारा और बोली को तुरंत अपना लेने में माहिर होते हैं.

पीके साल 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत का सेहरा अपने सिर बांधने में बड़बोले बने रहे, तब भाजपा और मोदी उन्हें गोडसेवादी नहीं लगे? पिछले ढाई साल से पीके नीतीश कुमार के साथ मिल कर अपनी राजनीति चमकाने में लगे रहे और अब चुनाव आते ही नीतीश गोडसेवादी बन गए?

वहीं राजद के सीनियर नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि पीके के बयान से साफ हो गया है कि बिहार में विकास नहीं हुआ है. पीके ने साफ कहा है कि साल 2005 में जिस जगह पर बिहार खड़ा था, आज भी वहीं खड़ा है.

बिहार भाजपा के अध्यक्ष और सांसद संजय जायसवाल कहते हैं कि चुनावी साल में पीके जैसे कई लाउडस्पीकर बजेंगे. पैसे ले कर टेप बजाने वाले पीके वही बोलते हैं, जिस बात के लिए उन्हें भुगतान किया जा सकता है.

नीतीश कुमार के खिलाफ पीके की यह बयानबाजी उन की सियासत में ऐंट्री की कवायद है या जद (यू) से निकाले जाने की खुन्नस है, इसे पीके ने साफ नहीं किया. बिहार विधानसभा चुनाव में उन की भूमिका केवल रणनीतिकार की होगी या वे राज्य के धुरंधर नेताओं के साथ चुनावी अखाड़े में ताल ठोंक कर उतरेंगे, यह भी साफ नहीं किया.

पिछले विधानसभा चुनाव में पीके नीतीश कुमार के साथ बतौर रणनीतिकार जुड़े और बाद में सलाहकार भी बने. कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला और उस के बाद राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए गए.

महागठबंधन से नाता तोड़ लेने के बाद भाजपा के साथ जब नीतीश कुमार ने अपनी सरकार बनाई, तब भी पीके चुप क्यों रहे? जद (यू) में रहते हुए भी पश्चिम बंगाल और दिल्ली के चुनावों में किस विचारधारा के साथ रणनीतिकार बने रहे? अपने कारोबार और सियासत को साथसाथ चलाते रहे. गांधीवादी होते हुए भी भाजपा के रणनीतिकार बनना क्यों कबूल किया? इन सारे सवालों का जवाब पीके को आने वाले समय में देना होगा.

साल 1977 को बिहार के रोहतास जिले के कोनर गांव में जनमे प्रशांत किशोर उर्फ पीके के पिता श्रीकांत पांडे डाक्टर थे. पीके ने गांव में ही मिडिल क्लास तक की पढ़ाई की. 8 साल तक यूएनओ से जुड़े रहने के बाद साल 2014 के आम चुनाव में भाजपा के प्रचार मुहिम की रणनीति बना कर मशहूर हुए प्रशांत किशोर साल 2012 में गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा से जुड़े थे.

भाजपा के लिए साल 2014 के चुनाव में ‘चाय पर चर्चा’ उन का कामयाब और मशहूर कार्यक्रम साबित हुआ था. भाजपा की सोशल मीडिया मुहिम को उन्होंने ही डिजाइन किया था. उसी समय अनेक कालेजों और कंपनियों से 200 प्रोफैशनलों को चुन कर पीके ने सीएजी (सिटीजन फौर अकाउंटेबेल गवर्नैंस) नाम की कंपनी बनाई. साल 2015 में भाजपा से अलग होने के बाद उन्होंने अपनी कंपनी सीएजी का नाम बदल कर आईपीएसी यानी इंडियन पौलिटिकल ऐक्शन कमेटी कर दिया था.

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साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में पीके जद (यू) के प्रचार मुहिम से जुड़े. जद (यू) और राजद के गठबंधन को भारी जीत दिलाने के इनाम में उन्हें नीतीश कुमार ने जद (यू) का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद दे दिया. पिछले साल एनआरसी के मसले पर जद (यू) की पार्टी लाइन से अलग राय रखने के बाद नीतीश कुमार के साथ उन के मतभेद शुरू हुए थे.

साल 2016 में पीके ने पंजाब में कांग्रेस की प्रचार मुहिम संभाली और कांग्रेस को भारी जीत मिली. इस से प्रशांत किशोर का रुतबा और कद दोनों बढ़ गए. साल 2017 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जीत दिलाने की चुनौती कबूल की, लेकिन उस में बुरी तरह नाकाम रहे.

साल 2019 में उन्होंने आंध्र प्रदेश में वाइएसआर कांग्रेस की प्रचार की नैया की पतवार संभाली और उस में कामयाबी मिली. साल 2020 में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी ‘आप’ के प्रचार का दारोमदार लिया और केजरीवाल को दोबारा दिल्ली की सत्ता पर काबिज कराने में मददगार बने.

अब प्रशांत किशोर ने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में द्रमुक को जिताने की कमान अपने कंधों पर ली है. लगता है कि भाजपा के लिए ‘चाय पर चर्चा’ राहुल गांधी के लिए ‘खाट पर चर्चा’ और नीतीश कुमार के लिए ‘बिहार में बहार हो नीतीशे कुमार हो’ जैसे नारे गढ़ने वाले पीके अब खुद राजनीतिक अखाड़े में कमर कस कर उतरने की तैयारी में हैं.

नीतीश का मास्टर स्ट्रोक

चुनावी साल में बिहार विधानसभा ने एनपीआर और एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पास कर नीतीश कुमार ने अपने विरोधियों को एक बार फिर चारों खाने चित कर दिया है. गौरतलब है कि देश में पहली बार भाजपा के सहयोग से यह प्रस्ताव पास किया गया. नीतीश कुमार ने अपने इस मास्टर स्ट्रोक से राजद समेत तमाम विरोधी दलों की बोलती बंद कर दी है, वहीं भाजपा को उस के ही दांव से बेबस कर दिया है.

विधानसभा में नीतीश कुमार ने साफ कहा है कि बिहार में एनआरसी लागू होने का सवाल ही नहीं है. एनपीआर साल 2010 के प्रावधान पर ही लागू होगा. मुझे भी नहीं पता है कि मेरी मां का जन्म कब हुआ था.

नीतीश कुमार के इस राजनीतिक पैतरे से बौखलाए राजद नेता तेजस्वी यादव ने अपनी खुन्नस निकालते हुए कहा कि नीतीशजी कब किधर चले जाएं, पता नहीं. उन का ऐसा ही इतिहास रहा है.

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तेजस्वी यादव के इस बयान के बाद नीतीश कुमार ने उन्हें गार्जियन की तरह समझाते हुए कहा कि कुछ बातें बोलने का अधिकार केवल आप के पिता को है, आप को सोचसमझ कर बोलना चाहिए.

मिथिला की बेटी ने उड़ा दी है नीतीश कुमार की नींद

बिहार में आजकल सियासी रोटी गरम है और हर छोटे बड़े नेता तवे पर रोटी रख गरमगरम बयान देने में कसर नहीं छोड़ रहे.

अब बिहार सहित देश के कई जगहों पर एक खबर ने अनायास ही बिहार की राजनीति में सनसनी फैला दी है और यह सनसनी कोई और नहीं लंदन से पढलिख कर आई एक आधुनिक युवती पुष्पम प्रिया चौधरी ने फैलाई है.

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दरअसल, बिहार के कई अखबारों में छपे एक विज्ञापन ने सब को चौंका दिया है. विज्ञापन में पुष्पम प्रिया चौधरी नाम की एक महिला ने खुद को बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बताया है. विज्ञापन के जरीए इस महिला ने बताया है कि उस ने ‘प्लूरल्स’ नाम का एक राजनीतिक दल बनाया है और वह उस की अध्यक्ष हैं.

महिला दिवस पर पेश की दावेदारी

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर जहां पूरा विश्व महिला सशक्तिकरण पर जोर देने की बात कर रहा था, पुष्पम प्रिया चौधरी ने बिहार के अखबारों में विज्ञापन देते हुए मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश की. अपनी पार्टी का नाम उन्होंने प्लूरल्स  दिया है जबकि ‘जन गण सब का शासन’ पंच लाइन दी है.

पुष्पम प्रिया ने विज्ञापन में बताया कि उन्होंने विदेश में पढ़ाई की है और अब बिहार वापस आ कर प्रदेश को बदलना चाहती हैं.

कौन हैं पुष्पम

इंगलैंड के द इंस्टीट्यूट औफ डेवलपमैंट स्टडीज विश्वविद्यालय से एमए इन डेवलपमैंट स्टडीज और लंदन स्कूल औफ इकोनोमिक्स ऐंड पोलीटिकल साइंस से पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन में एमए किया है. वह दरभंगा की रहने वाली हैं और जेडीयू के पूर्व एमएलसी विनोद चौधरी की बेटी हैं. फिलहाल वे लंदन में ही रहती हैं.

जनता से अपील

पुष्पम प्रिया चौधरी ने विज्ञापन में बिहार की जनता को एक पत्र भी लिखा है, जिस में उन्होंने कहा है कि अगर वह बिहार की मुख्यमंत्री बनीं  तो 2025 तक बिहार को देश का सब से विकसित राज्य बना देंगी और 2030 तक इस का विकास यूरोपियन देशों जैसा होगा.

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पिता ने कहा नैतिक समर्थन है

पुष्पम प्रिया के पिता विनोद चौधरी चूंकि जेडीयू नेता हैं इसलिए मीडिया ने उन्हें घेर कर उन की राय जाननी चाही. पिता विनोद चौधरी ने कहा,”मेरी बेटी विदेश में पढ़ीलिखी  है. वह बालिग है और उस की और मेरी सोच में फर्क स्वाभाविक है. वह जो भी कर रही है सोचसमझ कर कर रही होगी. एक पिता होने के कारण मेरा आशीर्वाद सदैव उस के साथ है.”

क्या बदलने वाली है बिहार की राजनीति

बिहार की राजनीति यों तो दबंगई की रही है और अपने इसी दबंगई से कभी यहां की सत्ता पर राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने एकतरफा राज किया था. उन्हें करिश्माई नेता के तौर पर भी जाना जाता था. अपने चुटीली बोल और ठेठ गंवई अंदाज में बोलने वाले लालू फिलहाल चारा घोटाले में जेल में हैं पर उन की अनुपस्थिति में पत्नी राबङी देवी, बेटा तेजस्वी और तेजप्रताप राजनीति की बागडोर संभाले हुए हैं. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में राजद का अपना वोट बैंक है, जो कभी भी निर्णायक साबित हो सकता है.

उधर बीजेपी से नाता जोङ कर सरकार चला रहे सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार के लिए आगामी चुनाव जीतना आसान नहीं होगा, क्योंकि अभी तक बिहार में जातिगत आधार पर वोट पङते हैं मगर बीजेपी सरकार द्वारा लागू कैब, बढती बेरोजगारी, बिगङते कानून व्यवस्था से बिहार की जनता हलकान है और इस बार बीजेपी+जेडीयू गंठबंधन वहां आसानी से सरकार बना लेगी, इस में संशय ही है.

प्रशांत किशोर का दांव

उधर कभी नीतीश के खास रहे प्रशांत  किशोर भी सुशासन बाबू को खूब चिढा रहे हैं. नीतीश का बीजेपी के समर्थन में बोलना प्रशांत किशोर को शुरू से ही खल रहा था. वे पार्टी में रहते हुए भी नीतीश कुमार की नीतियों का कई बार आलोचना कर चुके थे, सो नीतीश ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया.

राजनीति के जानकार बताते हैं कि प्रशांत नीतीश के लिए राह का रोङा बन सकते हैं.

जल्दी ही मशहूर हो गई हैं प्रिया

पुष्पम प्रिया चौधरी यों तो युवा चेहरा हैं और जल्दी लोकप्रिय भी हो गई हैं पर बिहार की राजनीति में अभी नई हैं. पर यह राजनीति है और कहते हैं कि राजनीति और क्रिकेट अनिश्चितताओं का होता है. ऐसे में दिल्ली की तरह वहां भी कोई नया समीकरण बन जाए क्या पता?

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यह तो वक्त ही बताएगा कि बिहार में किस की सरकार बनेगी पर मिथिला की इस बेटी ने सियासी तीसमारखाओं की नींद जरूर उङा दी है.

पानी पानी नीतीश, आग लगाती भाजपा

इस वजह से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में काफी अजीबोगरीब हालत पैदा हो गई है. अगले साल बिहार विधानसभा का चुनाव है और नीतीश कुमार पर हमला कर भाजपाई नए राजनीतिक समीकरण गढ़ने की ओर इशारा कर रहे हैं.

भाजपा के अंदरखाने की मानें तो भाजपा आलाकमान इस बार नीतीश कुमार की बैसाखी के बगैर अकेले ही विधानसभा चुनाव लड़ने का माहौल बना रहा है और इस काम के लिए गिरिराज सिंह जैसे मुंहफट नेताओं को आगे कर रखा है.

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ऐसे में नीतीश कुमार के सामने बड़े अजीब हालात पैदा हो गए हैं. अगर भाजपा उन से दामन छुड़ा लेती है, तो उन के सामने दूसरा सियासी विकल्प क्या होगा? क्या वे दोबारा लालू प्रसाद यादव की लालटेन थामेंगे? कांग्रेस की हालत ऐसी नहीं है कि उस से हाथ मिला कर जद (यू) को कोई फायदा हो सकेगा. हमेशा किसी न किसी के कंधे का सहारा ले कर 15 साल तक सरकार में बने रहने वाले नीतीश कुमार क्या अकेले विधानसभा चुनाव में उतरने की हिम्मत दिखा पाएंगे?

नीतीश कुमार की इसी मजबूरी का फायदा भारतीय जनता पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में उठाना चाहती है. कई मौकों पर कई भाजपा नेता कह चुके

हैं कि साल 2020 के विधानसभा चुनाव में राजग के मुखिया को बदलने की जरूरत है. इस बार भाजपा के किसी नेता को मुख्यमंत्री बनाया जाए. इस से जद (यू) के अंदर उबाल पैदा हो गया था.

हालांकि भाजपा नेता और राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने यह कह कर मामले को ठंडा कर दिया था कि जब कैप्टन ही अच्छी तरह से कप्तानी कर रहा हो और चौकेछक्के लगा रहा हो तो कैप्टन बदलने की जरूरत नहीं होती है.

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6 अक्तूबर, 2019 को भाजपा की राजनीति कुछ दिलचस्प अंदाज में नजर आई. कुलमिला कर हालत ‘नीतीश से मुहब्बत, नीतीश से ही लड़ाई’ वाली रही. बारिश के पानी में पटना के डूबने के मसले पर भाजपा और जद (यू) के कई नेताओं के बीच जबानी जंग तेज होती गई थी.

एक ओर जहां भाजपा के नेता पटना को डूबने से बचाने के मामले में नीतीश कुमार को पूरी तरह से नाकाम बता रहे थे, वहीं दूसरी ओर ऐसे में एक बार फिर सुशील कुमार मोदी ढाल ले कर नीतीश कुमार के बचाव में उतर पड़े.

उन्होंने आपदा से निबटने के लिए नीतीश कुमार की जम कर तारीफ की और उन के दोबारा जद (यू) अध्यक्ष बनने पर बधाई भी दी.

वहीं भाजपा के कुछ नेता दबी जबान में कहते हैं कि सुशील कुमार मोदी 3 दिनों तक खुद ही राजेंद्र नगर वाले अपने घर में 7-8 फुट से ज्यादा पानी में फंसे रहे. नीतीश कुमार ने उन की कोई खोजखबर तक नहीं ली.

जब भाजपा के कुछ नेताओं ने सुशील कुमार मोदी को ले कर हल्ला मचाया, तब पटना के जिलाधीश लावलश्कर के साथ ट्रैक्टर और जेसीबी ले कर मोदी के घर पहुंचे और डिप्टी सीएम का रैस्क्यू आपरेशन किया.

जद (यू) के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी कहते हैं कि भाजपा के कुछ नेता मुख्यमंत्री पर राष्ट्रीय जनता दल से ज्यादा तीखा हमला कर रहे हैं. हमारे घटक दल ही विरोधी दल की तरह काम कर रहे हैं. इस से सरकार और गठबंधन दोनों की फजीहत हो रही है.

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मुंबई महानगरपालिका का बजट 70,000 करोड़ रुपए का है और हर साल बारिश के मौसम में पानी जमा होता है. चेन्नई, हैदराबाद, बैंगलुरु और मध्य प्रदेश में भी भारी पानी जमा हुआ. आपदा के इस माहौल में साथ मिल कर काम करने के बजाय कुछ भाजपा नेता बयानबाजी करने में लगे रहे.

गौरतलब है कि पटना नगरनिगम का इलाका 109 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. इस की आबादी 17 लाख है. नगरनिगम का सालाना बजट 792 करोड़ रुपए का है और 75 वार्ड हैं.

बारिश का पानी जमा होने को ले कर सत्ताधारी दलों के नेता आपस में उलझे रहे और सचाई यह सामने आई कि पटना के सारे नाले जाम पड़े थे और पटना नगरनिगम नालों के नक्शे की खोज में लगा हुआ था. नालों का नक्शा ही निगम को नहीं मिला, जिस से सफाई को ले कर अफरातफरी का माहौल बना रहा और जनता गले तक पानी में डूबती रही.

दरअसल, पटना नगरनिगम के नालों को बनाने का जिम्मा किसी एक एजेंसी के पास नहीं है. शहरी विकास विभाग, बुडको, नगरनिगम, राज्य जल पर्षद और सांसदविधायक फंड से यह काम कराया जाता रहा है. जिसे जितने का ठेका मिला, उसे बना कर चलता बना. नगरनिगम ने भी उस से नालों की पूरी जानकारी ले कर रिकौर्ड में नहीं रखा.

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भाजपा सांसद गिरिराज सिंह के नीतीश कुमार पर हमलावर होते ही जद (यू) के कई नेता उन पर तीर दर तीर चलाने लगे. जद (यू) के मुख्य प्रवक्ता संजय सिंह कहते हैं कि गिरिराज सिंह डीरेल हो गए हैं. वे नीतीश कुमार के पैरों की धूल के बराबर भी नहीं हैं. अगर जद (यू) नेताओं का मुंह खुल गया, तो गिरिराज सिंह पानीपानी हो जाएंगे.

भवन निर्माण मंत्री अशोक चौधरी कहते हैं कि गिरिराज सिंह का राजनीतिक आचरण कभी ठीक नहीं रहा है और वे अंटशंट बयान देने के आदी हैं. उन्हें कोई सीरियसली लेता भी नहीं है.

गिरिराज सिंह कहते हैं कि पटना एक हफ्ते तक पानी में डूबा रहा और नीतीश कुमार के अफसर भाजपा नेताओं का फोन नहीं उठाते थे. पटना के जिलाधीश तक ने फोन रिसीव नहीं किया और न ही कौल बैक किया. इस से यह साफ है कि अफसरों को मुख्यमंत्री ने निर्देश दिया है कि किस का फोन उठाना?है, किस का नहीं. ताली सरदार को मिली है तो गाली भी सरदार को ही मिलेगी, इस बात को नीतीश कुमार को नहीं भूलना चाहिए.

शाहनवाज हुसैन कहते हैं कि गिरिराज सिंह के बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया जा रहा है. उन की चिंता है कि जद (यू) के साथ भाजपा भी सरकार में है. ऐसे में भाजपा को भी जनता के सवालों का जवाब देना होगा.

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गिरिराज सिंह से पूछा गया था कि नीतीश कुमार पिछले 15 सालों से सत्ता में हैं, तो क्या जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? तो उन का जवाब था कि बिलकुल लेनी चाहिए. इसी बात का बतंगड़ बना दिया गया है और कहा जा रहा है कि राजग टूटने के कगार पर है.

सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री नीरज कुमार राजग में खींचतान की बात को खारिज करते हुए कहते हैं कि बिहार में कुदरती आपदा आई है, ऐसे में राजनीतिक आपदा का कयास लगाना बेमानी है. राजग में टूट की बात करने वाले दिन में सपना देख रहे हैं. राजग अटूट है. वैसे भी गिरिराज सिंह जैसे नेताओं की बयानबाजी का कोई सियासी असर नहीं होता है.

पटना की जनता एक हफ्ते तक पानी में फंसी परेशान रही और नीतीश सरकार के नगर विकास मंत्री सुरेश शर्मा अपनी जवाबदेही से बचने की कवायद में लगे रहे. उन की बात सुनेंगे तो हंसी भी आएगी और गुस्सा भी.

मंत्री महोदय बड़ी ही मासूमियत से कहते हैं कि पटना में जलजमाव के लिए पटना नगरनिगम के पहले के कमिश्नर अनुपम कुमार सुमन जबावदेह हैं. वे किसी की बात ही नहीं सुनते थे. मुख्यमंत्री से भी इस की शिकायत कई दफा की गई थी. अनुपम कुमार सुमन की लापरवाही और मनमानी की वजह से ही पटना की बुरी हालत हुई है. विभाग की ओर से अनुपम कुमार सुमन पर कार्यवाही की सिफारिश की जाएगी.

सियासी गलियारों में चर्चा गरम है कि नीतीश कुमार ने जानबूझ कर पटना को पानी में डूबने दिया. वे भाजपा नेताओं को उन की औकात बताना चाहते थे और जनता के सामने उन्हें नीचा दिखाने की साजिश रची गई.

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पटना की 2 लोकसभा सीट और 14 विधानसभा सीटों में से 7 पर भाजपा का कब्जा है. पटना शहरी इलाकों में भाजपा का दबदबा होने की वजह से  ही नीतीश कुमार ने इन इलाकों पर ध्यान नहीं दिया. नीतीश कुमार के मन में हमेशा यह चिढ़ रहती है कि पटना की जनता उन की पार्टी को तवज्जुह नहीं देती है. कई भाजपाई नेता दबी जबान में यह कह रहे हैं कि पटना को जानबूझ कर डुबोया गया. मेन नालों को जहांतहां जाम कर के रख दिया गया था. पंप हाउसों की मोटर खराब थी. जब मौसम विभाग ने बारिश को ले कर रेड अलर्ट जारी किया था तो पंप हाउस की मोटर को ठीक क्यों नहीं कराया गया?

पटना साहिब के सांसद रविशंकर प्रसाद कहते हैं कि पटना के ड्रेनेज सिस्टम, पंप हाउस जैसे बुनियादी मसलों पर पहले से पूरी तैयारी होती और मौनीटरिंग का इंतजाम होता तो इतनी बुरी हालत नहीं होती. सांसद अश्विनी चौबे कहते हैं कि पटना की तबाही के लिए लालफीताशाही जिम्मेदार है.

पटना के एक हफ्ते तक बारिश के पानी में डूबने का मामला शांत होता नहीं दिख रहा है. इस मसले को जिंदा रख कर भाजपा मजबूत सियासी फायदा उठाने की कवायद में लगी हुई है. इस साल के आम चुनाव में बड़ी जीत मिलने के बाद से ही भाजपा बिहार में भी ‘एकला चलो रे’ का माहौल बनाने में लगी हुई है.

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पटना में भारी जल जमाव के बाद भाजपा ने खुल कर इस कोशिश को तेज कर दिया है. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या पटना के डूबने के बाद अब नीतीश कुमार की राजनीति के भी डूबने के आसार हैं?

रावण वध में हुआ राजग की एकता का वध? 

भाजपा और जद (यू)  के बीच तनातनी पूरी तरह से खुल कर तब सामने आ गई, जब 8 अक्तूबर को दशहरे के मौके पर पटना के गांधी मैदान में होने वाले रावण दहन कार्यक्रम में भाजपा का एक भी नेता नहीं पहुंचा.

14 सालों के राजग के शासन में पहली बार ऐसा हुआ. इस मसले को ले कर जद (यू) खासा नाराज है कि भाजपा नेताओं ने मुख्यमंत्री के प्रोटोकौल का उल्लंघन किया है.

जद (यू) के विधान पार्षद रणवीर नंदन कहते हैं कि अगर भाजपा नेताओं के मन कोई छलकपट है, तो वह किसी गलतफहमी में न रहें. विधानसभा चुनाव में जनता उन्हें करारा जवाब देगी.

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भाजपा आपदा के मौके पर भी सियासी फायदा उठाने की जुगत में है, वहीं भाजपा नेताओं का कहना है कि रावण वध कार्यक्रम से ज्यादा जरूरी जलजमाव में फंसी जनता को राहत पहुंचाना था और भाजपा उसी में मसरूफ रही.

पटना साहिब के सांसद रविशंकर प्रसाद कहते हैं कि इस साल जनता की परेशानियों को देखते हुए उन्होंने दशहरा नहीं मनाया और न ही किसी आयोजन में हिस्सा लिया. पटना के सातों शहरी विधानसभा क्षेत्र का विधायक जनता की सेवा का हवाला दे कर कन्नी कटाता रहा.

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने इस मामले में किसी तरह की राजनीति से इनकार करते हुए कहा है कि भाजपा और जद (यू) के बीच किसी भी तरह का मतभेद नहीं है. राजग अटूट है.

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