बापू की 150वीं वर्षगांठ में खूब किए गए आयोजन, लेकिन क्या गांधी के सपनों का भारत बन पाया?

”नमस्कार मैं भारत कुमार. हां कभी मुझे सोने की चिड़िया कहा जाता था पर अब नहीं रहा. पहले मुझे गांधी, नेहरू, पटेल, लाल बहादुर शास्त्री जैसे महान शक्सियतों से पहचान मिलती थी लेकिन कमबख्त अब मुझे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे से भी पहचान मिल गई है. 2 अक्टूबर को हिंदुस्तान की आजादी के नायक महात्मा गांधी का 150वां जन्मदिन बनाया गया है. इसी दिन सोशल मीडिया के रणबांकुरे गांधी के हत्यारे को अमर कर रहे थे.

इतना ही नहीं टौप ट्रेडिंग में गोडसे अमर रहे था. उस दिन मैं समझ गया कि अब मेरी पहचान बदल गई है. अब मेरी पहचान गोडसे अमर रहे से हो रही है जोकि कभी नहीं होना चाहिए था. मुझे अंग्रेजों की हुकूमत से आजाद करने वाले नायक के हत्यारे से जाना जाए ऐसा नहीं होना चाहिए. आज मैं व्यथित हूं लेकिन कुछ कर नहीं सकता. बस इंतजार है और भरोसा है कि एक दिन ये सब कुछ जरूर बदलेगा…”

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गांधी जयंती के दिन देश भर में  बड़े-बड़े आयोजन किए गए. करोड़ों रूपये की आहूति दे दी गई वो भी ऐसे दौर में जब देश आर्थिक मंदी से जूझ रहा है. हालांकि सरकार इस बात को सिरे से नकारती आई है कि इस देश में किसी भी प्रकार की मंदी है लेकिन ग्रोथ रेट तो यही दर्शाता है. कांग्रेस और बीजेपी दोनों महात्मा गांधी के नाम का इस्तेमाल कर राजनीति चमकाने की कोशिश में जुटे हुए हैं.

2 अक्टूबर के दिन दो दोनों में जुबानी जंग भी छिड़ गई. कोई पदयात्रा निकाल रहा है तो कोई मंचों से भाषणबाजी कर रहा है लेकिन कोई भी बापू के सपनों का भारत नहीं बना रहा है. गांधी जी के भारत में हिंदू-मुसलमानों की बात नहीं होती थी. गांधी के भारत में मौब लिंचिंग शब्द नहीं होता था. लेकिन अब सब हो रहा है. भले ही भारी-भरकम आयोजन कर के गांधी जी की 150वीं वर्षगांठ बनाने की कवायद की जा रही हो लेकिन ये तब तक सार्थक नहीं होगी जब तक गांधी के सपनों का भारत नहीं बनेगा.

पीएम मोदी ने स्मारक टिकटों और 40 ग्राम शुद्ध चांदी के सिक्के को महात्मा गांधी को समर्पित किया. इस टिकट और सिक्के को 15वीं गांधी जयंती पर बापू को समर्पित किया गया है. इस दौरान पीएम मोदी ने भारत को खुले में शौच मुक्त बनाने में योगदान देने वाले स्वच्छाग्रहियों को सम्मानित किया गया.पीएम मोदी ने कहा कि बापू की जयंती का उत्सव तो पूरी दुनिया मना रही है.

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कुछ दिन पहले संयुक्त राष्ट्र ने डाक टिकट जारी कर इस विशेष अवसर को यादगार बनाया और आज यहां भी डाक टिकट और सिक्का जारी किया गया है. मैं आज बापू की धरती से, उनकी प्रेरणा स्थली, संकल्प स्थली से पूरे विश्व को बधाई देता हूं, शुभकामनाएं देता हूं. यहां आने से पहले मैं साबरमती आश्रम गया था. अपने जीवन काल में मुझे वहां अनेक बार जाने का अवसर मिला है. हर बार मुझे वहां पूज्य बापू के सानिध्य का ऐहसास हुआ लेकिन आज मुझे वहां एक नई ऊर्जा भी मिली.

अब हम यहां पर कुछ बात कर लेते हैं अर्थव्यवस्था की जिसका कोई जिक्र नहीं हो रहा है…

साल 2019-20 की पहली तिमाही के आंकड़े जारी किये गए हैं. जिनके अनुसार आर्थिक विकास दर 5 फीसदी रह गई है. बीते वित्तीय वर्ष की इसी तिमाही के दौरान विकास दर 8 प्रतिशत थी. वहीं पिछले वित्तीय साल की आखिरी तिमाही में ये विकास दर 5.8 प्रतिशत थी. अर्थशास्त्री विवेक कौल के अनुसार यह पिछली 25 तिमाहियों में सबसे धीमा तिमाही विकास रहा और ये मोदी सरकार के दौर के दौरान की सबसे कम वृद्धि है.

विशेषज्ञ कहते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में तरक्की की रफ्तार धीमी हो रही है. ऐसा पिछले तीन साल से हो रहा है.उनका कहना है कि उद्योगों के बहुत से सेक्टर में विकास की दर कई साल में सबसे निचले स्तर तक पहुंच गई है. देश मंदी की तरफ़ बढ़ रहा है. लेकिन सरकार को इससे कोई फर्क है ही नहीं. तभी तो सरकार ने हाउडी मोदी कार्यक्रम में आंख बंद कर खूब पैचे खर्च किए.

नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के अनुसार जून में ख़त्म होने वाली साल की पहली तिमाही में विकास दर में गिरावट से ये मतलब नहीं निकलना चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार हो गयी है. वो कहते हैं, “भारत में धीमी गति से विकास के कई कारण हैं जिनमे दुनिया की सभी अर्थव्यवस्था में आयी सुस्ती एक बड़ा कारण है.” वो सरकार के हिस्सा हैं तो ऐसी बातें तो करेंगे ही. लेकिन सच छिपता नहीं है. आज हर सेक्टर में सुस्ती देखी जा रही है.

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पश्चिमी देशों में इसे हल्की मंदी करार देते हैं. साल-दर-साल आधार पर आर्थिक विकास में पूर्ण गिरावट हो तो इसे गंभीर मंदी कहा जा सकता है. इससे भी बड़ी मंदी होती है डिप्रेशन, यानी सालों तक नकारात्मक विकास. अमरीकी अर्थव्यवस्था में 1930 के दशक में सबसे बड़ा संकट आया था जिसे आज डिप्रेशन के रूप में याद किया जाता है. डिप्रेशन में महंगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबी अपने चरम सीमा पर होती है.

साल 2008-09 में वैश्विक मंदी आयी थी. उस समय भारत की अर्थव्यवस्था 3.1 प्रतिशत के दर से बढ़ी थी जो उसके पहले के सालों की तुलना में कम थी लेकिन विवेक कॉल के अनुसार भारत उस समय भी मंदी का शिकार नहीं हुआ था.

द ताशकंद फाइल्स: शास्त्री जी की मौत का वो सच जो कोई नहीं जानता

11 जनवरी 1966 की रात सोवियत संघ के ताशकंद शहर में देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मृत्यु पर सवाल उठाने वाली फिल्म है-‘‘द ताशकंद फाइल्स’. जिसे लेखक व निर्देशक विवेक अग्निहोत्री के अब तक के करियर की बेस्ट फिल्म कहा जा सकता है. फिल्मकार ने इतिहास के किसी भी विवादास्पद पहलू को दिखाने की अपनी रचनात्मक आजादी का बाखूबी उपयोग इस फिल्म में किया है.

लेकिन फिल्मकार की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि फिल्म के आखिरी से पहले कृछ तथ्य एकतरफा नजर आते हैं. एक सीन में एक मसले पर हाथ उठाने के लिए कहे जाने पर इतिहासकार आयशा कहती हैं कि कौन सा हाथ लेफ्ट या राइट?

फिल्म: ताशकंद फाइल्स

निर्देशक: विवेक अग्निहोत्री

कलाकार: मिथुन चक्रवर्ती,पंकज त्रिपाठी,नसीरुद्दीन शाह और श्वेता बसु प्रसाद

रेटिंग: साढ़े 3 स्टार

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कहानी

फिल्म ‘‘द ताशकंद फाइल्स’’ की कहानी के केंद्र में एक युवा राजनीतिक पत्रकार रागिनी फुले (श्वेता बसु प्रसाद)हैं. उसे अपने अखबार के लिए स्कूप वाली स्टोरी देनी होती है. जिस दिन उसका जन्मदिन होता है, उसी दिन उसके संपादक उसे दस दिन के अंदर बड़ी स्कूप वाली स्टोरी न देने पर उसे नौकरी से बाहर करने की बात कह देता है. अब रागिनी परेशान है. तभी उसके पास एक अनजान नंबर से फोन आता है,जो कि उससे कुछ सवाल करता है और शास्त्री जी को लेकर भी सवाल करता है. फिर कहता है कि उसके जन्मदिन के उपहार के तौर पर उसके टेबल की दराज में एक लिफाफा है. इस लिफाफे में उसे ढेरी सारी जानकारी मिलती हैं, जिसके आधार पर वह अपने अखबार को स्टोरी देती है कि शास्त्री जी की मौत हार्ट अटैक से नहीं हुई थी और वह इसके लिए जांच कमेटी गठित करने की मांग करती है.

The Tashkent files film review in hindi

पूरे देश में हंगामा मच जाता है. तब गृहमंत्री पी के आर नटराजन (नसीरूद्दीन शाह) पहले रागिनी फुले से बात करते हैं और फिर एक जांच कमेटी गठित करने का निर्णय लेते हुए विपक्ष के नेता श्याम सुंदर त्रिपाठी (मिथुन चक्रवर्ती) से मिलते हैं तथा उन्हे इस कमेटी का अध्यक्ष बना देते हैं. श्याम सुंदर त्रिपाठी इस जांच कमेटी में अपने साथ रागिनी फुले, समाज सेविका इंदिरा जय सिंह रौय (मंदिरा बेदी), ओंकार कश्यप (राजेश शर्मा), वैज्ञानिक गंगाराम झा (पंकज त्रिपाठी), जस्टिस कूरियन (विश्व मोहन बडोला), पूर्व रा प्रमुख जी के अनंता सुरेश (प्रशांत बेलावड़ी), युवा नेता वीरेंद्र प्रताप सिंह राना (प्रशांत गुप्ता) के साथ-साथ इतिहासकार आयशा  (पल्लवी जोशी) को भी रखते हैं. आयशा ने शास्त्री जी की मौत पर लिखी अपनी किताब में शास्त्री जी की मौत की वजह हार्ट अटैक लिखी है और उन्हे यह मंजूर नही कि कोई उन्हे व उनकी किताब को गलत ठहराए.

डायरेक्शन

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फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री ने इस बार अपनी फिल्म ‘‘द ताशकंद फाइल्स’’ में अतीत के बहुत ही ज्यादा विवादास्पद मुद्दे को उठाया है. फिल्म देखते वक्त अहसास होता है कि उन्होने इस राजनीतिक ड्रामा वाली फिल्म के लिए गहन शोधकार्य किया है. बेहतरीन पटकथा व उत्कृष्ट निर्देशन के चलते फिल्म दर्शकों को अंत तक बांधकर रखती है. फिल्म रोमांचक यात्रा है. इंटरवल से पहले कहानी बेवजह खींची गयी लगती है, मगर इंटरवल के बाद जबरदस्त नाटकीयता है. विवेक अग्निहोत्री व फिल्म एडीटर की कमजोरी के चलते फिल्म में सुनील शास्त्री, अनिल शास्त्री, कुलदीप नय्यर आदि के इंटरव्यू ठीक से कहानी का हिस्सा नहीं बन पाते.

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अभिनय

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो पत्रकार रागिनी फुले का किरदार निभाने वाली अदाकारा श्वेतता बसु प्रसाद के अभिनय की जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है. एक दो सीन को नजरंदाज कर दें, तो वह पूरी फिल्म में अपनी परफार्मेंस की वजह से हावी रहती है. पंकज त्रिपाठी,पल्लवी जोशी, मंदिरा बेदी, मिथुन चक्रवर्ती ने भी बेहतरीन परफार्मेंस दी है. नसीरूद्दीन शाह के हिस्से कुछ खास करने को रहा नही. कैमरामैन उदयसिंह मोहिते भी बधाई के पात्र हैं. इस फिल्म की कमजोर कड़ी इसका बैकग्राउंड साउंड है.

देखें या नहीं

कुल मिलाकर अगर आप एक गंभीर मुद्दे पर कोई अच्छी फिल्म देखना चाहते हैं तो एक बार इसे जरूर देख सकते हैं. लेकिन बौलीवुड की टिपिकल मसाला फिल्में देखने वाले दर्शकों के लिए ये फिल्म नहीं है.

देखिए द ताश्कंद फाइल्स का ट्रेलर

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