तीन कृषि कानून: प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की गलतियां

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के व्यक्तित्व को करीब से जानने समझने वाले यह जानते हैं कि वह एक ऐसे राजनेता हैं जो पीछे मुड़कर नहीं देखते. या फिर यह कहें की आप यह भ्रम पैदा करते हैं की उन्होंने जो कदम उठाए हैं वह अंतिम सत्य हैं. और अगर कोई आलोचना करता है या उसमें मीन मेख निकालता है तो वह स्वयं गलत है. और फिर आगे चलकर के उनके समर्थक विरोध करने वालों पर ऐसे ऐसे आरोप लगाते हैं कि मानो नरेंद्र दामोदरदास मोदी का विरोध देश का विरोध है.

यही सब कुछ बहुत ही शिद्दत के साथ 1 साल तक तीन कृषि कानून के संदर्भ में यह प्रहसन भी देश और दुनिया ने देखा है.

पहले पहल तो इन तीन कृषि कानूनों को आनन-फानन में संसद में पास करवा दिया गया. और जब इसका विरोध हुआ तो कहा गया कि नहीं जो भी हुआ है वह सब तो कानून सम्मत है. क्योंकि नरेंद्र दामोदरदास मोदी तो देश के संविधान और कानून से हटकर के कुछ करते ही नहीं है. और फिर जब इन तीन कानूनों का विरोध होने लगा तो यह कहा गया कि जो लोग जो कानून को अपने हाथ में ले  रहे हैं वह लोग तो भोले भाले हैं और विपक्ष के नेताओं का मोहरा बने हुए हैं.

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एक साल के इस लंबे विरोध और रस्साकशी के दृश्य ब दृश्य यह कहा जा सकता है कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने प्रधानमंत्री की हैसियत से अपने संपूर्ण कबीना और उनकी भारतीय जनता पार्टी ने हर कदम कदम पर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि किसानों के लिए लाया गया यह कानून हर दृष्टि से किसानों के हित में है. क्योंकि यह सरकार किसानों के हित के अलावा कुछ देख ही नहीं रही है. और जो कुछ चुनिंदा लोग विरोध कर रहे हैं वह तो आतंकवादी हैं! वह तो भटके हुए लोग हैं !! बहुसंख्यक किसान तो उनके  साथ हैं ही नहीं. क्योंकि यह कुछ चुनिंदा लोग ही आंदोलन कर रहे हैं इस तरह की भ्रामक बातें हैं. शायद देश के राजनीतिक परिदृश्य में किसानों के संदर्भ में पहली बार सभी ने देखा और नरेंद्र मोदी और भाजपा के कट्टर समर्थक रात दिन यही गीत गाते रहेगी जो लोग सिंघु बॉर्डर पर और अन्य जगहों पर मोर्चा संभाले हुए हैं वे लोग तो देशद्रोही हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की यही गलती बहुत बड़ी गलतियां बन गई है. अब उन्हें न तो खाते बन रहा है ना निगलते. उन्होंने जिस तरीके से आनन-फानन में कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की है वह भी उनके गले की फांस बन चुकी है. और अब आने वाले समय में ऊंट किस करवट बैठेगा यह भारत की जनता तय करने वाली है.

गलती दर गलती

3 कृषि कानूनों के संदर्भ में अगर हम विवेचना करें तो देखते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने  ऐतिहासिक गलतियां ही गलतियां की हैं. पहली गलती तो किसानों को विश्वास में लिए बगैर कानून बना देना है.

दूसरी गलती विपक्ष को अपने विश्वास में लिए बगैर तीन कृषि कानूनों को संसद में पास करवाना उनका एक ऐसा कारनामा है जो एक बहुत बड़ी गलती है.

और तीसरा- जिस तरीके से उन्होंने अचानक कृषि कानूनों को वापस ले लिया है यह भी एक बहुत बड़ी गलती है. राजनीतिक और सामाजिक प्रेक्षकों का कहना है कि 19 नवंबर गुरु नानक जयंती के पावन अवसर पर जिस तरीके से अचानक सुबह-सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र  दामोदरदास मोदी ने कृषि कानूनों को टीवी पर आ कर के वापस लेने की घोषणा की. उससे अच्छा यह होता कि वह अचानक किसानों के बीच चले जाते और उनसे संवाद करते हुए सौहार्दपूर्ण माहौल में इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर देते.

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अथवा दूसरा पक्ष यह हो सकता था कि किसान नेताओं की एक बैठक आयोजित की जाती और उसमें प्रधानमंत्री जी उन सब की बात को सुनते हुए इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर सकते थे. तीसरा देश की विपक्षी पार्टियों के नेताओं के साथ बैठक करके भी वे अपनी बात को देश की जनता के सामने रख सकते थे. जिसका निसंदेह सकारात्मक प्रभाव जाता. मगर जिस तरीके से उन्होंने अचानक टीवी पर अवतरण लेकर  घोषणा की है उससे फजीहत ही हो रही है . लोगों को मौका मिल गया है उन्हें चारों तरफ से घेर कर के मानो अभिमन्यु बना चुके हैं. अब देखना यह है कि आज के भारत के महाभारत में आधुनिक अभिमन्यु का  क्या हश्र होने वाला है. नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी गलती यह है कि वह सबको साथ लेकर के चलने में बहुत पीछे रह जाते हैं परिणाम स्वरूप उन्हें जिस तरीके से आलोचना का सामना करना पड़ रहा है वह उनकी छवि, उनके कार्यकाल और भारत की जनता के लिए भी दुर्भाग्य जनक है.

हकीकत: अब विदेशी इमदाद के भरोसे कोरोना का इलाज

विदेशी अखबारों ने भारत में कोरोना फैलने की वजहों को ले कर संपादकीय लेख छापे हैं व बदतर हालात का जिक्र कर के दुनिया को जानकारी दी है. इस के बाद दूसरे देशों ने मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाए हैं.

‘बीबीसी वर्ल्ड’ ने लिखा है कि भारत के अस्पताल घुटनों के बल पड़े हैं, मरीजों का रैला लगा हुआ है.

‘टाइम्स मैगजीन’ ने लिखा कि यह नरक है. मोदी की नाकामियों के चलते भारत में कोरोना संकट गहराया है.

‘द गार्जियन’ ने अपने संपादकीय में लिखा है कि मोदी की गलतियों के चलते भारत में कोरोना बेकाबू हो कर विकराल हालात में आया है.

‘न्यूयौर्क टाइम्स’ लिखता है कि मजाकिया (हलके में लेने) और गलत फैसले की वजह से भारत में संकट गहराया है.

सभी अखबारों ने कुंभ में जुटी लाखों की भीड़ व 5 राज्यों में चुनावों की रैलियों को कोरोना फैलने की सब से बड़ी वजह बताया है.

गौरतलब है कि जिस सिस्टम की चर्चा भारतीय मीडिया कर रहा है, उस सिस्टम के मुख्य पदों पर पिछले 7 सालों में भगवाई और स्वयंसेवक संघ की बैकग्राउंड के लोगों को बिठाया गया व सिस्टम का मालिक यानी प्रधानमंत्री खुद संघ से आता है.

धर्म विशेष की राजनीति कर के सत्ता में आए लोगों से आपदा के समय वैज्ञानिक मैनेजमैंट की उम्मीद करना ही बेमानी है. यही वजह है कि मोदी सरकार के मंत्री औक्सीजन व बिस्तर का इंतजाम करवाने के लिए नारियल चढ़ाने या रामचरितमानस का पाठ पढ़ने की सलाह दे रहे हैं.

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उत्तर प्रदेश सरकार कोरोना संकट के बीच अयोध्या जाने वाले हाईवे पर करोड़ों रुपए फूंकते हुए रामायणरूपी पौराणिक पात्रों की रंगोलियां बनवा रही है.

‘आस्ट्रेलियन फाइनैंशियल व्यू’ में एक कार्टून छपा है, जिस में मोदी को मरे हुए हाथी के ऊपर सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है, जिन के एक हाथ को रैली की भीड़ का अभिवादन स्वीकार करते हुए व दूसरे हाथ में भाषण को लालायित माइक थामे दिखाया गया है. मरा हुआ हाथी विशालकाय भारत का स्वरूप है.

देशी लश्कर ए मोदी मीडिया द्वारा अंधभक्तों की आंखों की पुतली पर विदेशों में डंका बजने वाला जो रंग चढ़ाया गया था, वह अब पूरी तरह से उतर चुका है. विदेशी अखबारों में जो छप रहा है, वह बेहद शर्मनाक है. 7 साल से सिस्टम पर कुंडली मार कर बैठे लोगों ने दिल्ली समेत 700 बड़ेबड़े पार्टी दफ्तर बनाने के लिए अरबों रुपए फूंक डाले हैं.

ये पैसे पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मनरेगा में काम कर के नहीं कमाए थे, बल्कि पीएम केयर फंड, टैक्स चोरी  व क्रोनीकैपिटलिज्म द्वारा हासिल किए गए थे.

आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फेसबुक के पेज का कमैंट बौक्स चैक कीजिए. औक्सीजन व बिस्तर मांगने वालों की प्रोफाइल चैक कीजिए. पता चलेगा कि ज्यादातर लोग ‘भूतपूर्व चौकीदार’ हैं. ये घर की चौकीदारी के बजाय देश की चौकीदारी करने निकले थे, लेकिन राष्ट्रीय चौकीदार ने इन को उस जगह पर ला खड़ा कर दिया है, जहां मदद के लिए कोई नहीं दिख रहा है.

गौरतलब है कि महाराष्ट्र, दिल्ली व मध्य प्रदेश में कोरोना का विकराल रूप चल रहा था, तब बेपरवाह लोग केंद्रीय चुनाव आयोग के सहयोग से पश्चिम बंगाल जीतने निकले थे. पूरे देश पर पाबंदियां थोपते रहे और खुद पश्चिम बंगाल में नंगा नाच करते रहे थे.

इन के द्वारा पैदा की गई भूलों के चलते जनता ने भी गंभीरता से नहीं लिया और नतीजतन आज लाशों के ढेर पर देश खड़ा है. पश्चिम बंगाल में अब टैस्ट करवा रहे लोगों में से हर दूसरा इनसान कोरोना पौजिटिव आ रहा है.

5 महीनों से किसान आंदोलन कर रहे हैं, दुनियाभर में चर्चा हुई, संयुक्त राष्ट्र संघ तक ने भारत सरकार को नसीहत दी, लेकिन निष्ठुर लोगों ने उस पर ध्यान देने के बजाय किसानों की मौतों का मजाक उड़ाया, संसद तक में खड़े हो कर ‘आंदोलनजीवी’ कहते हुए तंज कसते रहे.

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वहीं, सामाजिक चिंतक रामनारायण चौधरी कहते हैं, ‘‘जिन को कत्ल का हुनर देख कर चुना गया हो, उन से रहमदिल होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. मुझे यकीन है कि विदेशी मीडिया की इन खबरों से भी इन के दिलोदिमाग पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पश्चिम बंगाल में भयंकर रूप से फैले कोरोना व मरते लोगों की जिम्मेदारी भी ये नहीं लेंगे.

‘‘आपदा में अवसर का फायदा कालाबाजारी करने वाले उठा रहे हैं. भारत खुद को आत्मनिर्भर समझे और कोरोना से खुद लड़े, यह नसीहत पहले ही दे दी गई थी. जिस मिडिल क्लास ने पूंजीवाद की पूंछ पकड़ कर हरहर मोदी किया था, वह घरघर अर्थियां सजा रहा है. कुदरत उपहास उड़ाने वालों को उपहास का पात्र कब बना दे, कोई नहीं कह सकता.’’

आंदोलन दंगा और मीडियागीरी

26जनवरी, 2021 से पहले दिल्ली के बौर्डर पर कुहरे की तरह जमा दिखने वाला किसान आंदोलन भीतर ही भीतर उबलते दूध सा खौल रहा था. ऊपर आई मलाई के भीतर क्या खदक रहा था, यह किसी को अंदाजा तक नहीं था.

गणतंत्र दिवस पर एक तरफ जहां देश परेड में सेना की बढ़ती ताकत से रूबरू हो रहा था, वहीं दूसरी तरफ किसानों की ‘ट्रैक्टर परेड’ दिल्ली में हलचल मचाने को उतावली दिख रही थी.

इस के बाद जो दिल्ली में हुआ, वह दुनिया ने देखा. लालकिला, आईटीओ और समयपुर बादली पर किसान और पुलिस आमनेसामने थे. किसान संगठनों ने पुलिस और पुलिस ने किसानों में घुसे दंगाइयों पर इलजाम लगाया.

‘ट्रैक्टर परेड’ की हिंसा पर दिल्ली पुलिस ऐक्शन में दिखी. 33 मुकदमों में दंगा, हत्या का प्रयास और आपराधिक साजिश की धाराएं लगाई गईं. किसान नेता राकेश टिकैत, योगेंद्र यादव और मेधा पाटकर समेत कई लोगों को नामजद किया गया.

इतना ही नहीं, दिल्ली पुलिस की स्पैशल सैल ने सिख फौर जस्टिस के खिलाफ यूएपीए और देशद्रोह की धाराओं में मामला दर्ज किया.

इस किसान आंदोलन से एक सवाल भी उठा कि अगर लोकतंत्र में किसी को भी शांति के साथ अपनी बात आंदोलन के जरीए रखने का हक है, तो सरकार उसे कैसे हैंडल करती है? यह भी देखने वाली बात होती है कि इस सब से जुड़ी खबरों को जनता के पास कैसे पहुंचाना है, इस में मीडिया की कितनी और कैसी जिम्मेदारी होनी चाहिए?

किसी आंदोलन को दंगे में बदलते ज्यादा देर नहीं लगती है, यह दुनिया ने 26 जनवरी को दिल्ली में देखा. इस में गलती किस की थी, यह तो आने वाले समय में सामने आ जाएगा, पर इस या इस से पहले हुए किसी भी दंगे को मीडिया ने कैसे कवर किया, इस पर भी ध्यान देना बड़ा जरूरी है, क्योंकि यह बड़ा ही संवेदनशील मामला जो होता है. जरा सी चूक हुई नहीं कि खुद मीडिया ही दंगे में आग में घी डालने का काम कर देता है.

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ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 28 जनवरी, 2021 को तबलीगी जमात मामले में हुई मीडिया रिपोर्टिंग पर केंद्र सरकार की खिंचाई कर दी थी. उस ने कहा था कि उकसाने वाले टैलीविजन प्रोग्राम रोकने के लिए सरकार कुछ भी कदम नहीं उठा रही है.

सुप्रीम कोर्ट ने 26 जनवरी पर 3 कृषि कानूनों के विरोध में हुई हिंसा के बाद इंटरनैट सेवा बंद किए जाने के मामले का जिक्र करते हुए कहा था कि निष्पक्ष और ईमानदार रिपोर्टिंग करने की जरूरत है. समस्या तब पैदा होती है, जब इस का इस्तेमाल उकसाने के लिए किया जाता है.

याद रहे कि लौकडाउन के दौरान तबलीगी जमात के बारे में हुई मीडिया रिपोर्टिंग पर जमीअत उलेमा ए हिंद ने याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि कुछ टैलीविजन चैनलों ने निजामुद्दीन मरकज की घटना से जुड़ी फर्जी खबरें दिखाई थीं.

कोर्ट ने इस याचिका पर केंद्र सरकार से कहा था कि वह बताए कि आखिर इस तरह की खबरों से निबटने के लिए वह क्या कदम उठाएगी.

जब से दुनियाभर में सोशल मीडिया ने अपनी जड़ें जमाई हैं, तब से मोबाइल फोन के कैमरों से ऐसेऐसे सच सामने आए हैं, जिन को जनता के सामने पेश होना भी चाहिए या नहीं, यह एक बड़ा गंभीर सवाल है. अब तो ‘औफ द रिकौर्ड’ वाली बात ही खबर है, क्योंकि वह सनसनीखेज ज्यादा होती है. पर यह सनसनी समाज के सामने कैसे पेश करनी है, इस की जिम्मेदारी कोई लेने को तैयार नहीं है.

कुछ समय पीछे जाएं तो पता चलेगा कि तब अखबारों और पत्रिकाओं में लिखे हुए शब्दों को लोग बड़ी गंभीरता से लेते थे. किसी आंदोलन और दंगे के समय तो प्रैस की आचार संहिता का कड़ाई से पालन किया जाता था. दंगे में हुई हिंसा में शामिल और शिकार समुदाय की पहचान और तादाद नहीं बताई जाती थी.

पर आज जैसे ही इन बातों का खुलासा होता है कि फलां जगह हुई हिंसा में एक समुदाय ने दूसरे समुदाय को इतना नुकसान पंहुचाया, उस से लोगों में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होती है. इस से दंगा खत्म होने के बजाय बढ़ जाता है या बढ़ने के चांस होते हैं.

हालिया रिंकू शर्मा हत्याकांड में दिल्ली में 2 समुदायों के बीच नफरत फैलाने में सोशल मीडिया में तैरते वे वीडियो भी कम कुसूरवार नहीं हैं, जिन में इस हत्याकांड से जुड़े फुटेज थे. ऐसे फुटेज पुलिस को मामले की तह में जाने के लिए तो मददगार साबित होते हैं, पर जब वे वीडियो मीडिया दुनिया को दिखाता है तो बात गंभीर हो जाती है.

मामला तब और ज्यादा पेचीदा हो जाता है, जब मीडिया और सरकार का गठजोड़ हो जाता है. इस में मीडिया वालों के अपने निजी फायदे, धार्मिक पूर्वाग्रह और सांप्रदायिक पक्षपात बड़ी तेजी से काम करते हैं.

यह ‘गोदी मीडिया’ शब्द सब के सामने यों ही नहीं आया है. दिल्ली के शाहीन बाग में धरने पर बैठे लोगों ने खास सोच के टैलीविजन चैनलों को अपने पास फटकने नहीं दिया था, क्योंकि उन के मुताबिक वे चैनल सरकारी एजेंडा के मद्देनजर उन के धरने को कमजोर करने की साजिश कर रहे थे. यही सब हालिया चल रहे किसान आंदोलन में भी देखने को मिला है.

कठघरे में खबरची

किसी संवेदनशील खबर को कैसे जनता के सामने पेश करना है और उस से जुड़े फोटो या वीडियो को दिखाना भी है या नहीं, इस की सम झ किसी पत्रकार को तभी आ सकती है, जब उसे इस बात की ट्रेनिंग मिली हुई हो. सब से पहले खबर देने के चक्कर में बड़ेबड़े पत्रकार भी इन बातों की अनदेखी कर देते हैं. सब से बड़ा जुर्म तो सुनीसुनाई बातों के आधार पर खबर बना देना होता है.

अगर आप को 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में हुआ आतंकी हमला याद है, तो यहां यह बता देना बड़ा जरूरी है कि इस में हजारों लोगों की जान चली गई थी. इस के बावजूद सीएनएन, बीबीसी, फौक्स न्यूज और दूसरे बड़े मीडिया चैनलों ने इस घटना में मारे गए लोगों की क्षतविक्षत लाशों को नहीं दिखाया था.

भारत में ऐसी संवेदनशीलता की कमी दिखती है. न्यायमूर्ति पीबी सावंत (आप भारतीय प्रैस परिषद के अध्यक्ष रहे थे) ने 23 मार्च, 2002 के राष्ट्रीय सहारा अखबार के ‘हस्तक्षेप’ में ‘दंगा और मीडिया’ विषय पर अपने एक लेख में गुजरात दंगे पर लिखा था, ‘गुजरात के ताजा हालात में गुजराती के कई अखबारों ने ऐसी खबरें छापीं, जिन से कम होने के बदले दंगा और बढ़ता गया.’

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गोधरा की घटना के बाद अखबारों ने सरकार के साथ मिल कर हिंदू समुदाय की भावनाओं को भड़काने में मुख्य भूमिका निभाई. वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘स्टार’ चैनल की आलोचना की, क्योंकि यह चैनल सरकारी मशीनरी की विफलता और दंगों में स्थानीय पुलिस की भागीदारी को बेनकाब कर रहा था. दूसरी ओर ‘आजतक’ की तारीफ की, क्योंकि यह चैनल जिस कंपनी का है, वह इस समय दक्षिणपंथी रु झान को प्रश्रय दे रही है.’

इलैक्ट्रौनिक मीडिया में तो टीआरपी में कैसे सब को पछाड़ना है, यह सोच हावी हो जाती है. बड़े पत्रकार भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं. ‘रिपब्लिक टीवी’ के एडिटर इन चीफ अरनब गोस्वामी पर टीवी रेटिंग एजेंसी बार्क के सीईओ रह चुके पार्थ दासगुप्ता ने इलजाम लगाया था कि फर्जी टीआरपी मामले में उन्हें 40 लाख रुपए की रिश्वत दी गई थी.

सब से खतरनाक हालात तब होते हैं, जब कोई केस कोर्ट में चल रहा हो, तब मीडिया अपना खुद का विश्लेषण, गवाही और नतीजा बता कर एक समानांतर केस चलाने लगे, जिस आम जनता खुद आरोपियों को कुसूरवार या बेकुसूर मानने लगे, तो इसे ‘मीडिया ट्रायल’ कहा जाता है.

फिल्म कलाकार सुशांत सिंह राजपूत के खुदकुशी मामले में यह ‘मीडिया ट्रायल’ अपनी हद पर दिखा था. इस के चलते किसी शख्स को होने वाले नुकसान को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लेते हुए कहा कि इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है.

आपराधिक मामलों में मीडिया की रिपोर्टिंग को ले कर दिशानिर्देश जारी करने पर भी बड़ी अदालत ने विचार करने का फैसला लिया है.

चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि किसी आपराधिक मामले में एफआईआर दर्ज की जाती है और आरोपियों को गिरफ्तार किया जाता है. पुलिस संवाददाता सम्मेलन कर आरोपियों को मीडिया के सामने पेश करती है. इस आधार पर मीडिया में आरोपियों के बारे में खबरें चलती हैं, लेकिन अगर बाद में आरोपी बेकुसूर साबित हो जाता है, तब तक  उस शख्स की साख पर बट्टा लग चुका होता है.

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इस तरह की खबरें मीडिया की विश्वसनीयता को कम करती हैं. अपने फायदे के लिए खबरों को गढ़ना, उन में मिर्चमसाला लगाना, आंदोलनकारी को दंगाई दिखाना ऐसा अपराध है, जो समाज को बांटता है, उस में नफरत के बीज बोता है और देश को उस अराजकता की तरफ धकेल देता है, जो हर तरफ जहर ही फैलाती है.

याद रखिए कि मीडिया का काम समाज की त्रुटियों और विसंगतियों को जनता के सामने पेश करना होता है, पर उसे वक्त की नजाकत को भांप कर रिपोर्टिंग करनी चाहिए. सच को पेश करना भी एक कला है, जिस में पत्रकार की निडरता के साथसाथ उस की निष्पक्षता का तालमेल होना बहुत  जरूरी है. कम से कम संवेदनशील मामलों में तो इस बात का खास खयाल रखना चाहिए.

रालोपा ने भी कहा राजग को अलविदा

कृषि कानून के मसले पर शिरोमणि अकाली दल के बाद अब राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (रालोपा) ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का साथ छोड़ दिया है. पार्टी के संयोजक और नागौर से सांसद हनुमान बेनीवाल ने हाल ही में इस की आधिकारिक घोषणा की थी.

घोषणा के बाद मीडिया से बात करते हुए हनुमान बेनीवाल ने कहा, “केंद्र सरकार कृषि बिलों को वापस न लेने पर अड़ी हुई है. ये तीनों बिल किसानों के खिलाफ हैं, इसीलिए मैंने राजग छोड़ दी है, पर कांग्रेस के साथ किसी तरह का गठबंधन नहीं करूंगा.”

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इस से पहले 19 दिसंबर, 2020 को राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (रालोपा) के प्रमुख हनुमान बेनीवाल ने किसानों के आंदोलन के समर्थन में 3 संसदीय समितियों से इस्तीफा दे दिया था. उन्होंने अपना इस्तीफा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को भेजा था.

इस के बाद हनुमान बेनीवाल ने किसान आंदोलन के समर्थन में 2 लाख किसानों को ले कर राजस्थान से दिल्ली कूच करने का ऐलान किया था. दिल्लीजयपुर हाईवे 48 पर धरने पर बैठे किसानों ने राजस्थान के सांसद हनुमान बेनीवाल को अपना मंच साझा करने से रोक दिया था, जिस पर हनुमान बेनीवाल ने राजग से गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया.

किसानों के मुद्दे पर ही राजग के सहयोगी अकाली दल ने भी भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़ दिया था. तब मोदी सरकार में कृषि मंत्री रहीं शिरोमणि अकाली दल की सांसद हरसिमरत कौर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.

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हरियाणा में भाजपा सरकार में सहयोगी जननायक जनता पार्टी भी न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे पर सरकार पर दबाव बनाए हुए है. इस सिलसिले में उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद सिंह तोमर और गृह मंत्री अमित शाह के साथ बैठक भी कर चुके हैं.

किसान आंदोलन जातीयता का शिकार

पिछले 2 लोकसभा चुनावों में किसानों में ऊंची जातियों के बड़े वर्ग ने जाति और धर्म के असर में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सब से ज्यादा समर्थन दिया, जिस के बाद केंद्र की मोदी सरकार को यह लगा कि कृषि कानूनों के जरीए खेती के निजीकरण का यही सब से सही समय है. जाति और धर्म में फंसा किसान कृषि कानूनों के गूढ़ रहस्यों को समझ नहीं पाएगा. कुछ किसान अगर विरोध पर उतरे भी तो उन की आवाज को दबाना मुश्किल नहीं होगा.

अंगरेजों की फूट डालो और राज करो की नीति का पालन करते हुए केंद्र सरकार खेती में निजीकरण की आड़ में ईस्ट इंडिया वाले कंपनी राज की वापसी के लिए कदम बढ़ा चुकी है.

केंद्र सरकार के 3 कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन जातीय राजनीति का शिकार हो गया. कृषि कानून पूरे देश में लागू होंगे. इस का असर पूरे देश के किसानों पर पड़ेगा, पर किसान आंदोलन में हिस्सा लेने वाले किसानों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कृषि कानूनों का असर केवल पंजाब व हरियाणा के किसानों पर पड़ेगा.

समझने वाली बात यह है कि हरियाणा और पंजाब के किसानों ने ही इस आंदोलन में पूरी मजबूती से हिस्सा क्यों लिया? बाकी देश के किसानों की हाजिरी केवल दिखावा मात्र रही.

8 दिसंबर, 2020 को किसान आंदोलन के पक्ष में भारत बंद उन राज्यों में कामयाब रहा, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं थी. जिन राज्यों में भाजपा की सरकार रही, वहां यह आंदोलन ज्यादा कामयाब नहीं रहा.

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कृषि कानूनों में जो सब से बड़ा डर छिपा है, वह एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का है. निजी मंडियों के आने से सरकारी मंडियों के बंद हो जाने का खतरा किसानों को दिख रहा है, जिस से यह लग रहा है कि सरकार एमएसपी को धीरेधीरे बंद करने की योजना में है.

नीति आयोग ने साल 2016 में  11 राज्यों में किसानों के बीच एमएसपी को ले कर एक सर्वे किया था, जिस में यह पता चला कि एमएसपी की जानकारी भले ही 81 फीसदी किसानों को हो,  पर इस का फायदा देशभर के केवल 6 फीसदी किसानों को ही मिलता है.

उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड में 100 फीसदी किसानों को एमएसपी का पता था. एमएसपी का सब से ज्यादा फायदा पंजाब और हरियाणा के किसानों को ही मिलता रहा है.

1965-66 में जब एमएसपी योजना शुरू  हुई थी, तब यह केवल धान और गेहूं की फसल पर मिलती थी. धीरेधीरे अब 23 फसलों की खरीद पर एमएसपी मिलने लगी है. इन फसलों में ज्वार, कपास, बाजरा, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन और तिल जैसी फसलें शामिल हैं.

एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का मतलब यह होता है कि अगर फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाए, तब भी सरकार तय एमएसपी पर ही किसानों से फसल खरीदेगी, जिस से किसान को नुकसान न हो.

सरकार के कानून इसलिए फेल नहीं होते कि वे गलत तरह से बने होते हैं, बल्कि वे इसलिए फेल होते हैं, क्योंकि उन का क्रियान्वयन गलत तरह से किया जाता है. एमएसपी और मंडियों के साथ भी यही हो रहा है. सरकार को इस में सुधार करना चाहिए था, न कि इस को बंद करने की दिशा में काम करना चाहिए था.

जातपांत है हावी

राजनीतिक विश्लेषक और जन आंदोलन चलाने वाले प्रताप चंद्रा कहते हैं, ‘‘लोकसभा के 2 चुनावों साल 2014 और 2019 में किसानों ने बड़ी तादाद में भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किया था. अगर जातीय आधार पर देखें, तो इन में ऊंची जातियों के किसानों का वोट फीसदी सब से अलग था.

‘‘भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने जब यह सम?ा लिया कि बहुसंख्यक किसान उस के पक्ष में हैं, तो उस ने खेती को प्रभावित करने वाले

3 कानून लागू करने का फैसला कर लिया. उसे यह पता था कि केवल हरियाणा और पंजाब के किसान आंदोलन को लंबे समय तक नहीं चला पाएंगे. इस वजह से यह समय कृषि कानूनों को लागू करने के लिए सब से मुफीद लगा.’’

साल 2014 के लोकसभा चुनावों में पंजाब के किसानों ने भाजपा की अगुआई वाले राजग को 52 फीसदी वोट दिए. ये वोट भी भाजपा की जगह उस के सहयोगी अकाली दल के चलते मिले थे.

साल 2019 के लोकसभा चुनावों में ये वोट घट कर 32 फीसदी रह गए. हरियाणा के किसानों ने राजग यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को साल 2014 में 31 फीसदी वोट दिए और साल 2019 में ये वोट बढ़ कर 59 फीसदी हो गए.

बात केवल पंजाब और हरियाणा की नहीं है, बाकी देश के प्रमुख राज्यों में भी किसानों का सब से बड़ा समर्थन राजग को ही मिला.

बिहार में साल 2014 में 37 फीसदी से बढ़ कर 50 फीसदी हो गया. इसी तरह से उत्तर प्रदेश में 42 फीसदी से  54 फीसदी, गुजरात में 55 फीसदी से  62 फीसदी, राजस्थान में 54 फीसदी से 60 फीसदी, उत्तराखंड में 60 फीसदी से 65 फीसदी, मध्य प्रदेश में 55 फीसदी से 59फीसदी, महाराष्ट्र में साल 2014 और 2019 के चुनावों में 54 फीसदी वोट मिले, छत्तीसगढ़ में साल 2014 के लोकसभा चुनावों में किसानों के राजग को 52 फीसदी वोट मिले और 2019 में वे वोट घट कर 46 फीसदी रह गए.

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई ‘किसान सम्मान निधि’ के असर से किसानों ने राजग को ज्यादा वोट दिए. इस के साथ ही भाजपा के पक्ष में ऊंची जातियों के होने से राजग को किसानों के वोट ज्यादा मिले.

भारत के ज्यादातर किसान बेहद गरीब हैं. उन के लिए सालाना 6,000 रुपए की बहुत अहमियत होती है.

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पंजाब की किसान राजनीति

भाजपा को पंजाब के किसानों ने कभी भी समर्थन नहीं दिया. राजग के सहयोगी अकाली दल को पंजाब के किसान समर्थन देते थे. भाजपा की केंद्र सरकार ने जब 3 कृषि कानून बनाए तो उस के विरोध में अकाली दल कोटे से केंद्र सरकार में मंत्री हरसिमरत कौर ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

पंजाब में अकाली दल को केवल किसानों का समर्थन ही हासिल नहीं है, बल्कि अकाली दल प्रमुख प्रकाश सिंह बादल का परिवार खेती से ही अपना कारोबार चलाता है. किसानों को अकाली दल का समर्थन इस वजह से मिलता था कि वह किसानों की परेशानियों को हल करने की ताकत रखता था.

भाजपा अब पंजाब में अकाली दल को कमजोर करना चाहती है. ऐसे में वह अकाली दल की बातें नहीं मानना चाहती है. किसान आंदोलन के समझते से बाहर होने के बाद अकाली दल की कीमत किसानों में घट जाएगी.

भाजपा पूरे देश के किसानों को यह संदेश देने में कामयाब रही कि कृषि कानूनों का विरोध केवल पंजाब के किसान ही कर रहे हैं. ऐसे में पूरे देश के किसानों को एकजुट होने से रोक लिया गया.

ऊंची जातियों के किसानों का समर्थन भाजपा के साथ होने से यह बात सम?ाने में भाजपा को आसानी रही. जिन थोड़ेबहुत किसान संगठनों ने आंदोलन को समर्थन देने का काम किया भी, उन को कई तरीकों से दबाव में ले लिया गया.

केंद्र की मोदी सरकार ने पूरे किसानों के मुद्दे को अपने प्रचार तंत्र के बल पर केवल पंजाब व हरियाणा के किसानों तक में सीमित कर के रख दिया. इस वजह से किसान आंदोलन पूरे देश के किसानों का आंदोलन नहीं बन सका.

किसान नेता केवल अपनी जाति और बिरादरी के बीच ही अपना असर रखते हैं. उन का कोई देशव्यापी संगठन नहीं है. किसान नेता राजनीतिक दलों के पिछलग्गू बन कर ही अपनी राजनीति चमकाने का काम करते हैं. 3 कृषि कानूनों के खिलाफ भी केवल 30-40 किसान दल ही एकजुट हुए, तब आंदोलन कर पाए. ज्यादातर किसान दलों की अपनीअपनी राजनीतिक विचारधारा है. ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार को इन के बीच तोड़फोड़ करना आसान हो जाता है.

आंदोलन से डरी सरकार

जब किसानों ने एकजुट हो कर सरकार से लड़ाई लड़ी थी, तब फैसला भी किसानों के पक्ष में आया था. तब राष्ट्रीय राजनीति में किसान और किसान नेताओं का मजबूत दखल होता था. कोई भी सरकार इन को नाराज नहीं करना चाहती थी.

चौधरी चरण सिंह ऐसे नेताओं में सब से प्रमुख थे. वे देश के प्रधानमंत्री भी बने थे. उन्होंने साल 1967 में भारतीय क्रांति दल बनाया था और साल 1974 में वे भारतीय लोकदल के नेता बने थे.

ऊंची जातियों के किसानों पर उन की मजबूत पकड़ थी. किसान राजनीति में वही किसान नेता कामयाब रहा है, जिस की पकड़ ऊंची जातियों के किसानों पर रही है.

चौधरी चरण सिंह ने ही साल 1978 में भारतीय किसान यूनियन यानी बीकेयू का गठन किया था. उन की मौत के बाद किसान राजनीति दरकिनार हो गई.

साल 1987 में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन को फिर से संगठित किया. उन्हें पता था कि इस संगठन को राजनीति से दूर रखना है. इस वजह से भारतीय किसान यूनियन गैरराजनीतिक संगठन के तौर पर काम करती रही.

किसान यूनियन की ताकत 80 के दशक में पूरे देश ने देखी थी. देश की राजधानी को बिजली की बढ़ी दरों को वापस लेना पड़ा था. किसानों की उस समय की तमाम मांगों को मान लिया गया था.

पर किसान यूनियन की ताकत चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के साथ ही खत्म हो गई. उत्तर प्रदेश में ही भारतीय किसान यूनियन का असर नहीं रहा. किसान आंदोलन में जब तक पूरे देश के हर वर्ग के किसान शामिल नहीं होंगे, तब तक उस का कामयाब होना मुश्किल है.

भारत के 2 बड़े राज्यों बिहार और उत्तर प्रदेश के किसानों के पास सब से कम मात्रा में खेत हैं. बिहार में प्रति किसान औसत 0.4 हैक्टेयर जमीन है. उत्तर प्रदेश के किसान के पास औसत 0.7 हैक्टेयर जमीन है.

इन 2 राज्यों से लोकसभा की  120 सीटें हैं. नए कृषि कानूनों का असर सब से ज्यादा इन दोनों राज्यों के किसानों  पर पड़ने वाला है. नए कृषि कानूनों में अमीर किसान और चंद उद्योगपतियों को फायदा होगा.  किसानों को बेहद नुकसान होगा.

देश में इन की संख्या 86 फीसदी है. जातीयता की बिसात पर उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान सरकार का विरोध करने से बच रहे हैं.

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उदासीन होता छोटा किसान

किसी भी कृषि सुधार कानून का फायदा छोटे किसानों को नहीं मिलता. ऐसे में वह सोचता है कि ऐसे कानून उस के लिए नहीं हैं और वह इस से उदासीन हो जाता है. हरित क्रांति हो या श्वेत क्रांति, दोनों का फायदा बड़े किसानों को हुआ.

इस के बाद की जनगणना साल 1971 में हुई थी, तो पता चला कि उन में भूमिहीन किसानों की तादाद बढ़ गई. कौंट्रैक्ट फार्मिंग का बुरा असर भी छोटे किसानों पर पड़ेगा. जिन लोगों के पास जमीन है, वे अपनी खेती कौंट्रैक्ट फार्मिंग करने वाले लोगों को दे देंगे तो छोटे किसान मजदूर कहां जाएंगे?

देशभर के किसान अभी भले ही कृषि कानूनों का विरोध नहीं कर पा रहे हों या उन को दिक्कतें सम?ा न आ रही हों, पर आने वाले दिनों में वे इस का विरोध जरूर करेंगे.

देश की माली हालत को मजबूत बनाने के लिए जरूरी है कि खेती की बेहतरी के साथसाथ किसानों की बेहतरी का भी ध्यान रखा जाए. पंजाब और हरियाणा के किसान महंगे मोबाइल फोन और गाडि़यों को इस वजह से अपने साथ रखते हैं, क्योंकि वे अपने खेतों से कमाई करते हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान मजदूर इन के खेतों पर काम करते हैं.

पंजाब और हरियाणा के किसानों की तरह उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान तब तक जागरूक नहीं होंगे, जब तक उन्हें उन का हक नहीं मिल सकेगा.

कृषि कानूनों का फायदा पूरे देश के किसानों को हो, इस बड़ी सोच के साथ ऐसे कानून बनाने होंगे. कानूनों में सुधार की बात को नाक का सवाल नहीं बनाना चाहिए, तभी देश और देश की आर्थिक व्यवस्था में सुधार हो सकेगा. किसान और खेती को अलगअलग देखने से किसी तरह के सुधार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.

किसान आंदोलन में ‘पिज्जा’ की तलाश

लेखक-रोहित और शाहनवाज

दिल्ली की बढ़ती ठंड में ईंटों की दीवारों वाले गरम कमरे में रजाई में पैर डाले आराम फरमाते हुए शहरी अमीर लोग अपने लैपटौप पर इंटरनैट के जरीए किसान आंदोलन की लेटेस्ट अपडेट जान रहे थे. यूट्यूब पर अलगअलग चैनलों की लेटेस्ट खबरें देखीं तो कुछ और ही तरह के नैरेटिव चल रहे थे.

किसान आंदोलन मजे में… आखिर पिज्जा, फुट मसाजर, गीजर, वाशिंग मशीन वाले इन किसानों को फंड कहां से आ रहा है? क्या इतनी सहूलियत वाले ये किसान गरीब हैं? आंदोलन या पिकनिक… आखिर चल क्या रहा है?

ऐसे न जाने कितनी सुर्खियां खबरिया चैनलों की हैडलाइंस बनी हुई थीं. सिर्फ न्यूज चैनलों में ही नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर भी इसी के संबंध में मैसेज फौरवर्ड हो रहे थे.

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एक पल के लिए सोचा कि क्या सही में किसान मजे में यह आंदोलन कर रहे हैं? क्या सच में ये किसान नहीं, बल्कि आढ़ती और बिचौलिए हैं? हमारे मन में इन सवालों के उठने के बावजूद इस के काउंटर में कुछ और सवाल भी खड़े हो रहे थे. हम ने खुद को कहीं न कहीं असमंजस में पाया, जिसे खत्म करने का एक ही रास्ता था कि एक बार फिर से सिंघु बौर्डर पर जा कर माहौल का जायजा लिया जाए और देखा जाए कि न्यूज चैनल और सरकार के मंत्री जो दावा कर रहे हैं, उस में कितना दम है.

सिंघु बौर्डर पर जाने के बाद हमने पाया कि पिछली बार पुलिस की जो बैरिकेडिंग 200 मीटर आगे हरियाणा की तरफ थी, वह अब 200 मीटर पीछे दिल्ली की तरफ बढ़ाई हुई थी. बैरिकेड लोहे वाले नहीं बल्कि रास्तों को बांटने के लिए पत्थर के बड़ेबड़े डिवाइडर लगाए गए थे, वह भी 10-12 लेयर में. उन के ऊपर लोहे की कंटीली जंजीरें बिछी हुई थीं.

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पुलिस की ठीकठाक चौकसी थी. बैरिकेड पर करने के बाद देखा कि बड़ी तादाद में लोगों का हुजूम बैरिकेड के बाद ही मौजूद था. पिछली बार तो एक ही स्टेज देखा था, जहां पर किसान नेताओं और दूसरे लोगों के भाषण चलते रहते थे, लेकिन इस बार गए तो 2 स्टेज लगाए गए थे, एक हरियाणा की तरफ मुंह कर के और एक दिल्ली की तरफ मुंह कर के.

प्रोटैस्ट की जगह पर अंदर की तरफ बढ़े तो देखा कि गरमागरम चाय के साथ लोगों का स्वागत किया जा रहा था. यह मेन स्टेज के पीछे का हिस्सा था जहां पर चाय बांटी जा रही थी. मेन स्टेज की तरफ बढ़े तो हमें स्टेज पर कुछ लोग गाने गाते हुए दिखाई दिए. कुछ देर खड़े हो कर गाना सुना और आगे बढ़ चले पिज्जा की तरफ.

अब हमें मालूम तो नहीं था कि पिज्जा कहां बांटा जा रहा है, इसीलिए हम बड़े ही गौर से हर जगह जहां पर कुछ भी बंटता देखते और आगे की ओर बढ़ते रहते. सिंघु बौर्डर पर डेढ़ किलोमीटर आगे तक बिना किसी से बात किए हम हर जगह का जायजा लेते रहे. कोई रोटीसब्जी बांटता तो कोई आलूपूरी, कोई दालचावल बांटता तो कोई चायबिसकुट. लेकिन एक चीज जो हम ने अभी तक नोटिस नहीं किया वह था पिज्जा का काउंटर. भला नोटिस भी कैसे करते, नोटिस करने के लिए काउंटर का होना भी तो जरूरी था.

अनोखा ‘क्रेजी ब्यूटी सैलून’

पिज्जा का काउंटर ढूंढ़ने का एक फायदा यह हुआ कि हम ने प्रोटैस्ट साइट को बड़े ही गौर से देखापरखा. पिज्जा का काउंटर अभी तक तो नहीं मिला था, लेकिन हमें हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले से सोनू वेरिता का ‘क्रेजी ब्यूटी सैलून’ जरूर दिख गया.

सोनू गांव पेहोवा में नाई हैं और वहीं पर ही अपना ब्यूटी सैलून चलाते हैं. सोनू ने हम से बात की और उन्होंने बताया, “हमारे गांव के लोग इस प्रदर्शन में हिस्सा लेने के लिए यहां आए हुए हैं. जो लोग हफ्ते में 4 दिन मेरे सैलून में आया करते थे, वे लोग पिछले एक महीने से नहीं आए, इसीलिए मैं ने अपना सामान बांधा और मैं भी आ गया अपने गांव के लोगों के पास उन की सेवा करने के लिए.”

सोनू यहां पर पैसे कमाने के लिए नहीं, बल्कि इस किसान आंदोलन में अपने तरीके से हिस्सेदारी निभाने के लिए आए हैं. सोनू और उन के साथ 2 और लोग बिना पैसों के और बिना थके लगातार लोगों के बाल काट कर अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं.

इस में कोई शक नहीं कि सोनू की टीम को देख कर गोदी मीडिया यह कवरेज कर सकता है कि ‘ऐयाशी की हद तो देखिए, अपने साथ नाई भी लाए हैं’, ‘बाल भी कटवा रहे हैं’ वगैरहवगैरह. लेकिन सोनू से बात कर के महसूस हुआ कि वे लोग इस आंदोलन में किसी भी तरह की हिस्सेदारी निभाना चाहते हैं. उन्हें किसी ने यह करने के लिए रिक्वैस्ट नहीं की है और न ही किसी ने उन्हें कमांड दी है. उन्होंने खुद से इस आंदोलन में अपनी जिम्मेदारी ली और वे इस जिम्मेदारी को बखूबी निभा भी रहे हैं.

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बुजुर्गों के लिए ‘फुट मसाजर’

खैर, बात पिज्जा की हो रही थी, लिहाजा ‘क्रेजी ब्यूटी सैलून’ को पीछे छोड़ हम आगे बढ़े. 200-300 मीटर ही चलें होंगे, तो देखा कि एक बड़े से तंबू के अंदर प्रदर्शन में आए लोगों के लिए ‘फुट मसाजर’ का इंतजाम किया गया था. हम ने उस तंबू की तरफ कूच किया. देखा कि उस के बाहर तकरीबन 50-60 उम्र के 20 बुजुर्गों की लाइन लगी थी, जिस के गेट पर एक वालंटियर भी खड़ा था. वालंटियर एकएक कर के लोगों को अंदर भेज रहा था. हम गए तो उन्होंने हमें रोका और पंजाबी में कहा, “वीरे, इकइक कर के सब दा नंबर आएगा.”

हम ने उन्हें बताया कि हमें मसाज नहीं करवाना है, हम मीडिया से हैं और बात करना चाहते हैं, तो उस के जवाब में भी उन्होंने हमें गेट के बाहर से ही दिखाते हुए कहा, “एक मीडिया वाले पहले से ही अंदर हैं, वे निकल जाएं तो आप का नंबर आएगा.”

उस वालंटियर की यह बात सुन कर मन में बड़ी तस्सल्ली सी हुई कि यहां किसी को भी स्पैशल ट्रीटमैंट नहीं दिया जा रहा. सब के साथ एक जैसा बरताव हो रहा है. खैर, पहले वाले मीडिया कर्मी बाहर आए और उन्होंने हमें अंदर जाने के लिए मंजूरी दे दी.

अंदर जाते ही हमारी नजर उन ‘फुट मसाजर’ मशीनों पर पड़ी जिस के लिए नैशनल मीडिया चैनल अपने ‘प्राइम टाइम शो’ पर फालतू के नैरेटिव सैट करने की कोशिश करने में लगे हैं.

अंदर हमारी बात पटियाला के शेरबाज सिंह से हुई, जो चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई कर रहे हैं और ‘खालसा एड संस्था’ से जुड़े हैं.

शेरबाज सिंह से हुई बातचीत में उन्होंने इस पूरे प्रोजैक्ट के बारे में बताया, “यहां हम ने 17-18 फुट मसाजर का इंतजाम किया है यानी एक बार में 17-18 लोगों की ऐंट्री और 10 मिनट का सैशन. यह इनीशिएटिव ‘खालसा एड एनजीओ’ का है. प्रोटैस्ट में बुजुर्गों की तादाद का ध्यान रखते हुए हम ने यहां इन का इंतजाम किया है, क्योंकि बड़े उम्र के लोग जल्दी थक जाते हैं और पैरों का आराम उन की थकान मिटाने के लिए सब से बेहतरीन उपाय है.”

शेरबाज सिंह ने आगे बताया कि यह पूरा प्रोजैक्ट तकरीबन 2 लाख रुपए के आसपास का है, जिस में मशीनों से ले कर, बिजली, कुरसियां, तंबू, तकिए वगैरह सब का खर्चा जुड़ा हुआ है. ‘खालसा एड’ एक इंटरनैशनल एनजीओ है जो मानवतावादी सिद्धांतों पर चलती है और दुनिया में कहीं भी लोगों को जरूरत हो तो वह उन की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती है.

शेरबाज सिंह ने मीडिया में चल रही झूठी खबरों का खंडन करते हुए कहा, “हर एनजीओ के पास पैसे का एक ही सोर्स होता है और वह है लोगों का डोनेशन. डोनेशन से जो पैसा जमा होता है वह हम समाज में नेक काम के लिए खर्च करते हैं. हम ने देखा कि भारत में केंद्र सरकार ने जिन कृषि कानूनों को लागू किया है उस के खिलाफ किसान सड़कों पर आंदोलन करने पर मजबूर हुए हैं. इस आंदोलन की खास बात यह है कि जितनी तादाद यहां पर नौजवानों की संख्या हैं उतनी ही संख्या यहां पर बुजुर्गों की भी है, इसलिए इस बात पर खास हम ध्यान दे रहे हैं.”

वालंटियर की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी, “ये भाई जो गेट पर खड़े हो कर सिस्टम को मैनेज कर रहे हैं इन्हें किसी ने यह काम करने के लिए मजबूर नहीं किया है, बल्कि वे खुद ही पिछले एक हफ्ते से इस आंदोलन में अपनी जिम्मेदारी समझते हुए यहां पर काम कर रहे हैं और बुजुर्गों का खयाल रखना तो हमें हमारे परिवार में ही सिखाया जाता है.

“हम ने बचपन में अपनी किताबों में भी पढ़ा है, तो जब उन्हीं बुजुर्गों के लिए ‘खालसा एड’ इन मशीनों को ले कर उन की केयर करना चाहता है तो यह मानवतावादी काम हुआ, न कि ऐयाशी.”

शेरबाज सिंह की बात तो एकदम सही थी. सरकार और मीडिया को इस आंदोलन को बदनाम करने का जुनून इतना सिर पर चढ़ा है कि बुजुर्गों के लिए किए गए इंतजाम भी उन्हें फूटी आंख नहीं सुहा रहे हैं.

रोटी मेकर मशीन की जरूरत

अब हम थोड़ा और आगे बढ़े, तो एक लंगर वाले काउंटर पर ‘रोटी मेकर मशीन’ नजर आई. हमारे कदम वहीं रुक गए और उस तरफ आगे बढ़ कर काउंटर पर खड़े हो चले. इतने में एक आदमी जयप्रकाश, जो मशीन में बटन दबा कर कुछ सैट करने में बिजी था, हमें आता देख वह हमारी तरफ बढ़ा.

दिल्ली के रहने वाले जयप्रकाश ने हमें इस रोटी मेकर मशीन के बारे में जानकारी दी. उस ने बताया कि यह मशीन एक घंटे में तकरीबन 1,200 रोटियां सेक सकती है. यह मशीन 30 नवंबर से यहां पर लोगों की सेवा के लिए लाई गई है. हर दिन तकरीबन 12,000 से 13,000 लोगों के लिए रोटियां सेंकी जाती हैं.

उन के पास तकरीबन 4 महीने का राशन मौजूद था. एक सवाल जो हम आजकल अकसर लोगों से सुन रहे हैं, वह यह है कि किसानों के पास इतना राशन आया कहां से? यह सवाल बचकाना है, अब कोई ‘मोदी के झूट की पोटली’, ‘अंबानीअडाणी के पास बढ़ती संपति’ और ‘किसानों के पास राशन कहां से आया’, यह पूछे तो उस के मन में खोट है. वह आदमी या तो बेवकूफ है या बेवकूफ बना रहा है. जो किसान अपने उगाए अनाज से पूरे देश का पेट भर रहा है उस के पास राशन नहीं होगा तो किस के पास होगा?

हमने देखा कि तकरीबन 10 लोग बड़े से पतीले पर आटा गूंद रहे थे और 10 और लोग पहले के गुंदे आटे की छोटीछोटी लोई बनाने का काम कर रहे थे. बाकी बेलने और सेंकने का काम रोटी मेकर मशीन का था.

रोटी मेकर मशीन की कीमत का तो जयप्रकाश को भी अंदाजा नहीं था, लेकिन उन्होंने बताया कि ये 2 मशीनें दिल्ली के लोगों ने आपस में चंदा जमा कर के खरीदी है. जो लोग रोटी बनाने का काम कर रहे हैं वे सब इसी आंदोलन में आए लोग हैं, जो अपने हिसाब से अपना समय दे रहे हैं और काम कर रहे हैं.

ठंड में गीजर से राहत

रोटी मेकर मशीन देखने के बाद, हम मेन स्टेज से तकरीबन 4 किलोमीटर आगे की तरफ बढ़ चुके थे, लेकिन हमें अभी तक पिज्जा का काउंटर नहीं दिखाई दिया. हमारे मन में पिज्जा की आस अभी तक खत्म नहीं हुई थी. लेकिन कदम और आगे बढ़ते ही चले जा रहे थे.

मेन स्टेज से इतनी दूर आ जाने के बाद अब हमें एक जगह पर आंदोलन करने आए किसान नहाते हुए दिखाई दिए. हम ने हमारे पास आए व्हाट्सएप फौरवर्ड पर पानी के गीजरों के बारे में भी तो पढ़ासुना था. भला इस को देखे बगैर हम कैसे वापस जा सकते थे.

वहां देखा कि पानी के जिन गीजरों के बारे में बात हो रही थी वे तो एकदम देशी किस्म के गीजर थे. यह भी सुना था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात वाले किसी एडिशन में इस तरह के गीजर के बारे में लोगों को बता कर उन्हें आत्मनिर्भर भी बनने को कहा था.

अब ऐसे में एक बड़ा सवाल तो यह उठ खड़ा होता है कि जब देश के प्रधानमंत्री ही ऐसी चीजों का प्रचार कर रहे हों और किसान अपने प्रोटैस्ट में इन्ही चीजों का इस्तेमाल कर प्रधानमंत्री के भाषण को साकार बना रहे हों, तो यह चीज कैसे अमीरी की निशानी हो सकती है? अगर यह गुमराह करने वाली बात है तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि प्रधानमंत्री ही लोगों को गुमराह करने का काम कर रहे थे?

जिस तरह का गीजर हम ने देखा वह बड़ा ही साधारण और देशी किस्म का गीजर था. जलती लकड़ियां और गोबर के बने उपले डाल कर पतीले को गरम किया जा रहा था और दूसरी तरफ कुप्पी जैसे आकार वाले बरतन में ठंडा पानी डाला जा रहा था. नल के दूसरे मुहाने से गरम पानी बाहर आ रहा था. ऐसी तकरीबन 20 के आसपास देशी मशीनों का सैटअप लगाया गया था. उसी जगह पर 6 सामूहिक वाशिंग मशीन भी रखी हुई थीं, प्रदर्शनकारियों के कपड़े धोने के लिए.

किसान अपने गंदे कपड़ों को यहां ले आते हैं और यहां मौजूद वालंटियर कपड़े धो कर किसानों को वापस कर देते हैं जिन्हें 90 फीसदी मशीनों में ही सुखा लिया जाता है और बाकि किसान बाहर ले जा कर कहीं भी टांग कर सुखा देते हैं.

इस पूरे सैटअप को लगाने के पीछे की वजह बताते हुए मनवीर सिंह, जो खालसा एड के वालंटियर हैं, ने कहा, “यह गीजर लगाने के पीछे का मकसद सिर्फ इतना था कि कोविड काल में सरकार भी लगातार यह प्रचार कर रही है कि साफसुथरा रहना कितना जरूरी है. ऐसे में अगर बड़ेबुजुर्गों या किसी भी उम्र के लोग इस बढ़ती ठंड में ठंडे पानी से नहाने लगें तो उन के बीमार पड़ने के चांस ज्यादा बढ़ जाएंगे. कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन का आयोजन इसीलिए किया गया है कि अगर वे सब लोग अपनेअपने कपड़े धोने में बिजी हो गए तो आंदोलन की जगह पर कौन मौजूद रहेगा? यह एक तरह का इंतजाम है, जो इस आंदोलन की खासीयत है, इसीलिए हमारे वालंटियर ही उन किसानों के कपड़े धो दे रहे हैं.”

मनवीर सिंह की बातें सुन कर अब तो यह पक्का हो गया था कि मीडिया में जिस तरह से प्रदर्शनकारियों के लिए मौजूद सुविधाओं के संबंध में बदनामी हो रही है वह बिलकुल फुजूल और घटिया दर्जे की है. फिर हमें याद आया कि जो मीडिया इस तरह के नैरेटिव चला रहा है उन्हें तो इस प्रदर्शन में ऐंट्री तक नहीं करने दी जा रही है. मजे की बात तो यह थी कि नैशनल मीडिया चैनलों से कहीं ज्यादा इज्जत यूट्यूब पर चैनल चला रहे स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों की थी. कम से कम उन्हें आंदोलन साइट में घुसने की इजाजत तो मिल रही थी.

पिज्जा की उम्मीद अब हमारे मन में धूमिल होती जा रही थी. हम मेन स्टेज से 4-5 किलोमीटर तक आगे जो आ गए थे. लेकिन हमें पिज्जा एक भी जगह पर बंटता हुआ नजर नहीं आया. हां, 1-2 जगहों पर खीर जरूर बांटी जा रही थी, लेकिन पिज्जा तो कहीं नहीं दिखा. शाम ढल चुकी थी और ढलती शाम के साथसाथ ठंड भी बढ़ती जा रही थी.

लिहाजा, हमें हार मान कर किसी से पूछना ही पड़ा, “अंकल, यह पिज्जा कहां बंट रहा है?”

अंकल ने हमें बड़ी पैनी नजरों से देखा और अपने मुंह से मफलर हटा कर कर अपनी भारी आवाज में कहा, “पिज्जा कहां ढूंढ़ रहे हो बेटा. यहां बस एक बार ही पिज्जा बंटा था. उस के बाद तो कुछ ऐसा नहीं बंटा.”

यह सुन कर तो हमें लगा कि हम जिस उम्मीद का पीछा करते करते यहां इतनी दूर आ चुके थे, वह तो यहां मौजूद ही नहीं है. ऐसे में अपने टूटते हौसलों के साथ और ढेरों सवालों के जवाब की गठरी उठाए हम ने अपने गले में मफलर बांधा, पास में बंट रही गरम चाय का एक कप लिया, और चुसकी मारते हुए हम मेन स्टेज की तरफ से होते हुए बसस्टैंड की तरफ चल पड़े.

जवाबों की गठरी

किसान आंदोलन में आए प्रदर्शनकारियों के लिए सुविधाओं को जिस तरह से मेनस्ट्रीम मीडिया ने गलत तरीके से प्रचार करने का काम किया उस से यह समझ में आता है कि ये सभी मीडिया चैनल किसी फिक्स एजेंडा को ले कर काम कर रहे हैं. उदाहरण के लिए किसानों के नहाने के लिए गीजर का इंतजाम करना और कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन का करना करना कहीं से भी उन की ऐयाशी नहीं जाहिर करती. अब इतनी बढ़ती ठंड में कोई भी इनसान नहाने के लिए गरम पानी का ही इंतजाम करेगा न.

मीडिया चैनल वाले क्या चाहते हैं कि किसान न नहाएं? साफसुथरे किसान इन की आंखो को चुभते हैं क्या? किसानों को ले कर इन की यह सोच बस छोटी सोच को ही जाहिर करता है. ये लोग देश के किसानों को अभी भी उसी पुराने किसान की तरह समझते हैं जो फटे कपड़ों में, बदन पर चीथड़े लपेटे, अंगूठाछाप था.

वैसे तो हमें कहीं पर पिज्जा नजर नहीं आया, लेकिन वहां जा कर जब हम ने पिज्जा के बारे में पूछा तो पता चला कि जो पिज्जा बना कर लोगों के बीच बांटा जा रहा था, उस का खर्चा रोटी के खर्चे के तकरीबन बराबर ही है. जब पिज्जा की बात होती है तो शहरी लोगों को डोमिनोज या पिज्जा हट का खयालल आता है, जो एक फैंसी पिज्जा के 150 रुपए तक ले लेता है. यहां ऐसा नहीं था. 2 रोटी के बराबर की आटे की लोई, ऊपर से टमाटर की चटनी जिस के ऊपर टौपिंग के नाम पर कुछ शिमला मिर्च या मक्के के दाने और ऊपर से कोई चीज नहीं. इस के लिए मैटिरियल का इंतजाम करना किसान के लिए बड़ी बात नहीं. रोटी सादी नहीं खाई जा सकती, उस के लिए साथ में सब्जी का होना जरूरी है यानी बनाने में डबल मेहनत और खर्चा कम नहीं है. लेकिन पिज्जा में एक ही बार में बेस के ऊपर सब्जियां डाल कर सेंक दी जाती हैं यानी बनाने में एक बार की ही मेहनत और खर्चा इतना भी नहीं कि जेब ढीली हो जाए.

अब कोई अगर यह पूछ ले कि इन के पास यह सब सामान कहां से आ रहा है, तो यह लाइन फिर से कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के झूठे वादे, अंबानी अडाणी के पास बढ़ता पैसा और किसानों के पास अनाज कहां से आया, पूछना ही बेवकूफी और बेमानी है.

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