लेखक-रोहित और शाहनवाज
दिल्ली की बढ़ती ठंड में ईंटों की दीवारों वाले गरम कमरे में रजाई में पैर डाले आराम फरमाते हुए शहरी अमीर लोग अपने लैपटौप पर इंटरनैट के जरीए किसान आंदोलन की लेटेस्ट अपडेट जान रहे थे. यूट्यूब पर अलगअलग चैनलों की लेटेस्ट खबरें देखीं तो कुछ और ही तरह के नैरेटिव चल रहे थे.
किसान आंदोलन मजे में... आखिर पिज्जा, फुट मसाजर, गीजर, वाशिंग मशीन वाले इन किसानों को फंड कहां से आ रहा है? क्या इतनी सहूलियत वाले ये किसान गरीब हैं? आंदोलन या पिकनिक... आखिर चल क्या रहा है?
ऐसे न जाने कितनी सुर्खियां खबरिया चैनलों की हैडलाइंस बनी हुई थीं. सिर्फ न्यूज चैनलों में ही नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर भी इसी के संबंध में मैसेज फौरवर्ड हो रहे थे.
एक पल के लिए सोचा कि क्या सही में किसान मजे में यह आंदोलन कर रहे हैं? क्या सच में ये किसान नहीं, बल्कि आढ़ती और बिचौलिए हैं? हमारे मन में इन सवालों के उठने के बावजूद इस के काउंटर में कुछ और सवाल भी खड़े हो रहे थे. हम ने खुद को कहीं न कहीं असमंजस में पाया, जिसे खत्म करने का एक ही रास्ता था कि एक बार फिर से सिंघु बौर्डर पर जा कर माहौल का जायजा लिया जाए और देखा जाए कि न्यूज चैनल और सरकार के मंत्री जो दावा कर रहे हैं, उस में कितना दम है.
सिंघु बौर्डर पर जाने के बाद हमने पाया कि पिछली बार पुलिस की जो बैरिकेडिंग 200 मीटर आगे हरियाणा की तरफ थी, वह अब 200 मीटर पीछे दिल्ली की तरफ बढ़ाई हुई थी. बैरिकेड लोहे वाले नहीं बल्कि रास्तों को बांटने के लिए पत्थर के बड़ेबड़े डिवाइडर लगाए गए थे, वह भी 10-12 लेयर में. उन के ऊपर लोहे की कंटीली जंजीरें बिछी हुई थीं.