कोटा के इस अस्पताल की दशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह जरूरी उपकरणों के साथ ही मैडिकल स्टाफ की कमी से भी जूझ रहा है. इतना ही नहीं, जब राज्य सरकार की एक समिति इस अस्पताल का दौरा करने गई तो उस ने वहां सूअर व कुत्ते टहलते हुए देखे.
इस पर हैरत नहीं है कि कोटा के अस्पताल में बड़ी तादाद में नवजात बच्चों की मौत की खबर आने के साथ ही एकदूसरे पर आरोप लगाने की ओछी राजनीति सतह पर आ गई. लेकिन ऐसी राजनीति से बचने की नसीहत वे नहीं दे सकते, जो खुद ऐसा करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. आखिर कोई यह कैसे भूल सकता है कि जब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के एक अस्पताल में कोटा की तरह बच्चों की मौत का मामला सामने आया था तो उस के बहाने राजनीति चमकाने की कैसी भद्दी होड़ मची थी.
सरकारी तंत्र की ढिलाई और लापरवाही को उजागर किया ही जाना चाहिए, लेकिन इसी के साथ कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि बदहाली के आलम से कैसे छुटकारा मिले? यह कोशिश रहनी चाहिए, क्योंकि यह एक कड़वी सचाई है कि अस्पतालों की तरह स्कूल, सार्वजनिक परिवहन के साधन वगैरह भी बदहाली से दोचार हैं और इस के लिए वह घटिया राजनीति ही ज्यादा जिम्मेदार है, जो हर वक्त दूसरों पर आरोप मढ़ कर अपने फर्ज को पूरा समझने की ताक में रहती है.
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गलत है मौत पर राजनीति
‘‘मैं अपने बच्चे के निमोनिया का इलाज कराने 50 किलोमीटर दूर से आया हूं. रास्ते में इतनी सर्दी थी कि बच्चे की सांसें तेज चल रही थीं. बच्चे की हालत देख कर ही डर लग रहा था.’’
ये शब्द मोहन मेघवाल के हैं, जो अपने बच्चे का इलाज कराने के लिए राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल आए थे.
यह वही अस्पताल है, जहां बीते दिनों 100 से ज्यादा बच्चों ने दम तोड़ दिया था.
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चिट्ठी लिख कर के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत की रोजाना बढ़ती तादाद को देखते हुए जरूरी सुविधाओं को मजबूत बनाने के लिए गुजारिश की थी. इस के साथ ही बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपने ट्विटर अकाउंट से ट्वीट कर के अशोक गहलोत और प्रियंका गांधी पर निशाना साधा था.
पर, उस से भी ज्यादा दुखद है कि कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं खासकर महासचिव प्रियंका गांधी की इस मामले में चुप्पी साधे रखना. अच्छा होता कि वे उत्तर प्रदेश की तरह उन गरीब पीडि़त मांओं से भी जा कर मिलतीं, जिन की गोद केवल उन की पार्टी की सरकार की लापरवाही के चलते उजड़ गई है. लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस मुद्दे पर राजनीति नहीं किए जाने की अपील की.
अशोक गहलोत ने कहा, ‘‘हम लोग बारबार कह रहे हैं कि पूरे 5-6 साल में सब से कम आंकड़े अब आ रहे हैं. इतनी शानदार व्यवस्था वहां कर रखी है.
‘‘मैं किसी को इस मौके पर दोष नहीं देना चाहता हूं. पिछले 5 साल के आंकड़े थे. इन में भाजपा के शासन में ही ये आंकड़े कम होते गए. हमारी सरकार बनने के बाद ये आंकड़े और कम हो गए.
‘‘नागरिकता संशोधन कानून के बाद देश और प्रदेश में जो माहौल बना हुआ है, ऐसे में कुछ लोग जानबूझ कर ध्यान हटाने के लिए यह शरारत कर रहे हैं.’’
वहीं, राजस्थान सरकार के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा कहते हैं, ‘‘यह सब प्रधानमंत्री कार्यालय से हो रहा है. सीएए और एनआरसी को ले कर राजस्थान में विरोध प्रदर्शन हुए हैं, अब उन्हें कोई और चीज तो मिलती नहीं है. पहला सवाल तो यह है कि जब योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र गोरखपुर में औक्सीजन की कमी से 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हुई थी, तब भाजपा का एक भी डैलिगेशन गया था वहां? यहां राजनीति करने आ रहे हैं, तो एक जवाब दें कि जब 2015 में अस्पताल प्रशासन ने 8 करोड़ रुपए मांगे तो भाजपा सत्ता में थी, ऐसे में अस्पताल को पैसे क्यों नहीं दिए गए?’’
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राजस्थान भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया अस्पताल का औचक निरीक्षण करने पहुंचे. उन्होंने कहा, ‘‘इस मामले में राज्य सरकार के प्रशासन को दोष क्यों नहीं देना चाहिए? मैं ने देखा कि हर बिस्तर पर 2 से 3 बच्चे लेटे थे और उन की देखभाल करने के लिए बिस्तर के किनारे ही उन की मां भी खड़ी थीं. साफतौर पर संक्रमण के प्रसार की जांच के लिए कोई सावधानी नहीं बरती जा रही है.’’
इस से पहले बच्चों की मौत की सूचना के तुरंत बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दावा किया था कि उस अस्पताल में बच्चों की मौत का आंकड़ा पिछले 6 सालों में सब से कम है.
बाद में स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा ने भी अलगअलग सालों में हुई मौतों को गिनाते हुए कहा कि साल 2014 में 1,198 बच्चों की मौत हुई, 2015 में 1,260 बच्चे मारे गए, 2016 में 1,193, 2017 में 1,027 बच्चों और 2018 में 1,005 बच्चों की मौत हुई.
कुलमिला कर राजनीतिक लैवल पर बयानबाजी का सिलसिला जारी है और इस के साथ ही बच्चों की मौत का सिलसिला भी जारी है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन बच्चों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है और क्या रोजाना मरते हुए इन बच्चों को बचाया जा सकता है?
अस्पताल ही बीमार
राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल के आईसीयू में एक ही बिस्तर पर 2 से 3 बीमार बच्चों का होना एक सामान्य सी बात बनी हुई है. इन मासूम बच्चों को साफ हवा के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है.
यही नहीं, अव्यवस्था के बीच गंभीर बीमारियों से जूझ रहे इन बच्चों की देखभाल के लिए नर्स नहीं, बल्कि उन की मां खड़ी रहती हैं.
अस्पताल के सूत्रों ने तसदीक की है कि यहां जरूरी और जिंदगी बचाने की श्रेणियों में आने वाले 60 फीसदी से ज्यादा उपकरण काम नहीं कर रहे हैं. लापरवाही की इतनी हद है कि अस्पताल मैनेजमैंट का कोई भी अफसर इस बात पर ध्यान नहीं देता कि कुछ उपकरणों को फिर से ठीक किया जा सकता है. धूल फांक रहे कुछ उपकरण तो ऐसे भी हैं, जिन्हें महज 2 रुपए की कीमत के एक तार के छोटे से टुकड़े की मदद से फिर से चलाया जा सकता है.
इस के बावजूद कई नैबुलाइजर, वार्मर और वैंटिलेटर काम नहीं कर रहे हैं. साथ ही, अस्पताल में संक्रमण की जांच के लिए इकट्ठा किए गए 14 नमूनों की जांच रिपोर्ट पौजीटिव आई है. यह जांच रिपोर्ट बैक्टीरिया के प्रसार का आकलन करने में मदद करती है. इस रिपोर्ट को अफसरों को सौंपे जाने के बावजूद बड़ी तादाद में बैक्टीरिया के प्रसार को साबित होने पर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई.
बीते एक साल में कोटा के इस अस्पताल में भरती होने वाले तकरीबन 16,892 बच्चों में से 960 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है.
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जेके लोन अस्पताल के शिशु औषधि विभाग के एचओडी डाक्टर अमृत लाल बैरवा बताते हैं, ‘‘बीते एक महीने में यहां मरने वाले बच्चों में से 60 बच्चों का जन्म यहीं हुआ था, बाकी के बच्चे आसपास के अस्पतालों से गंभीर हालात में रैफर हो कर यहां लाए गए थे.
‘‘यह एक ऐसा अस्पताल है, जहां पर आसपास के 3-4 जिलों से बच्चों को लाया जाता है. साथ ही, मध्य प्रदेश के झाबुआ से भी बच्चों को यहां लाया जाता है. पर इस अस्पताल में मौजूद संसाधन और स्वास्थ्य कर्मचारियों की कम तादाद इतनी बड़ी तादाद में आए मरीजों का इलाज करने में चुनौती पेश करती है.’’
डाक्टर अमृत लाल बैरवा की ओर से 27 दिसंबर, 2019 को अस्पताल के सुपरिंटैंडैंट को भेजी गई रिपोर्ट के मुताबिक, अस्पताल में मौजूद 533 उपकरणों में से 320 खराब हैं. इन में 111 इनफ्यूजन पंप में से 80 खराब हैं. 71 वार्मरों में से 44 खराब हैं. 27 फोटोथैरेपी मशीनों में से 7 खराब हैं और 19 वैंटिलेटर मशीनों में से 13 खराब हैं. वहीं, अगर स्टाफ की कमी की बात करें तो एनआईसीयू में कुल 24 बैड के लिए 12 स्टाफ उपलब्ध हैं, जबकि भारत सरकार के नियमों के मुताबिक, 12 बैड पर कम से कम
10 कर्मचारी तैनात होने चाहिए.
इसी तरह एनएनडब्ल्यू में सिर्फ 8 लोगों की तैनाती है. एनआईसीयू में उपलब्ध 42 बैड के लिए कुल 20 लोगों का स्टाफ उपलब्ध है, जबकि यह तादाद 32 होनी चाहिए.
वहीं, इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस अस्पताल में प्रोफैसर और एसोसिएट प्रोफैसर के 4 पद खाली पड़े हैं.
जेके लोन अस्पताल की बात करें, तो बीते 6 सालों में इस अस्पताल में 6,000 बच्चे दम तोड़ चुके हैं. इन में से 4,292 बच्चे गंभीर हालत में आसपास के जिलों से इस अस्तपाल में लाए गए थे.
डाक्टर अमृत लाल बैरवा इन बच्चों की मौत के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में फैली अव्यवस्था और जिला अस्पतालों में डाक्टरों की कम तादाद को जिम्मेदार मानते हैं.
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वे कहते हैं, ‘‘यह मैडिकल कालेज का अस्पताल है. यहां पर कोटा, बूंदी, बारा, झालावाड़, टोंक, सवाई माधोपुर, भरतपुर, मध्य प्रदेश से लोग अपने बच्चों को ले कर आते हैं और ये मरीज रैफर किए मरीज होते हैं.
‘‘हमारे पास काम का बहुत दबाव रहता है. हमारे पास जितने संसाधन हैं, उस से कहीं ज्यादा मरीज आते हैं. इन बच्चों की मौत की यही वजह है.’’
इन का भी बुरा हाल
कोटा से 50 किलोमीटर दूर डाबी कसबे में रहने वाले मोहन मेघवाल निमोनिया की शिकायत होने पर अपने बच्चे को सीधे जेके लोन अस्पताल ले कर आए हैं.
वे कहते हैं, ‘‘मैं ने पहले अपने घर के नजदीक बने सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर बच्चे का इलाज कराया, लेकिन उस अस्पताल में दस्त और खांसीजुकाम जैसी सामान्य बीमारियां सही नहीं होती हैं. ऐसे में जब मेरे बच्चे की सांसें तेज चलना शुरू हो गईं तो मैं उसे ले कर एक निजी अस्पताल में गया. वहां मुझे बताया गया कि बच्चे की हालत गंभीर है और उसे जेके लोन अस्पताल में ले जाना चाहिए.’’
स्वास्थ्य क्षेत्र कवर करने वाली वरिष्ठ अफसर डाक्टर सविता बताती हैं, ‘‘यह कोई नई बात नहीं है कि सीएचसी और पीएचसी की हालत खराब होती है. मैं ने अपनी पड़ताल में पाया है कि अकसर इन संस्थानों के ताले बंद रहते हैं. यहां जरूरी उपकरण और डाक्टर मौजूद नहीं होते हैं. ऐसे में गरीब लोगों को निजी अस्पतालों में जाना पड़ता है.
‘‘कभीकभार प्राइमरी लैवल पर सरकारी सुविधाओं की कमी के चलते लोगों को उन लोगों के पास भी जाने को मजबूर करती हैं, जो डाक्टर भी नहीं होते हैं.’’
‘‘सीएचसी के लैवल पर एक स्पैशलिस्ट, एक शिशु रोग विशेषज्ञ, गायनोकोलौजिस्ट होना चाहिए. ये विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं होते हैं. जिन दवाओं की जरूरत होनी चाहिए, वैसी दवाएं उपलब्ध नहीं होती हैं. एएनएम उपलब्ध नहीं होती हैं. ऐसे में ग्रामीण और कसबाई इलाकों में रहने वाले लोग अपने बच्चों के बीमार होने पर गैरपंजीकृत डाक्टरों के पास ले कर जाते हैं.
‘‘ये डाक्टर उन्हें एंटीबायोटिक्स दे देते हैं, लेकिन जब कई दिनों तक बच्चे ठीक नहीं होते हैं, तब जा कर मांबाप अपने बच्चे को शहर के अस्पताल ले जाने की सोचते हैं.’’
कमजोर है बुनियाद
जनता को बेहतर डाक्टरी इलाज मुहैया कराने की तमाम सरकारी योजनाओं के बड़ेबड़े होर्डिंग भले ही लोगों का ध्यान खींचते हों, पर इन योजनाओं को असरदार तरीके से लागू न करने के चलते मरीजों का हाल बेहाल है.
अगस्त, 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मैडिकल कालेज में औक्सीजन की कमी से हुई सैकड़ों बच्चों की मौतें सरकारी अस्पतालों के बुरे हालात को उजागर करती हैं.
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गौरतलब है कि गोरखपुर और फर्रुखाबाद के जिला अस्पताल में मरने वाले बच्चे उन गरीब परिवारों के थे, जो इलाज के लिए केवल सरकारी अस्पतालों की ओर ताकते हैं.
राजस्थान के बांसवाड़ा में महात्मा गांधी चिकित्सालय में 51 दिनों में 81 बच्चों की मौतें कुपोषण की वजह से हो गईं. जमशेदपुर के महात्मा गांधी मैमोरियल अस्पताल में बीते चंद महीनों में 164 मौतें हुईं तो झारखंड के 2 अस्पतालों में पिछले साल 800 से ज्यादा बच्चों की मौतें हो गईं.
राज्य में जनस्वास्थ्य पर काम करने वाले डाक्टर नरेंद्र गुप्ता ने बताया, ‘‘प्राइमरी लैवल पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बहुत कमजोर है. पहले ऐसी मौतें घर पर ही हो जाती थीं, अब मरीज अस्पताल तक पहुंच रहे हैं. ऐसी मौतें तभी रुक सकती हैं, जब जमीनी लैवल पर बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं हों. यह भी एक हकीकत है कि डाक्टर देहाती क्षेत्र में जाना नहीं चाहते. जो बच्चे मर रहे हैं, उन में काफी कुपोषित होते हैं.
‘‘अगर तहसील लैवल पर स्वास्थ्य सेवाएं ठीक हों, तो काफी सुधार हो सकता है, क्योंकि ऐसे मरीज बड़े अस्पतालों तक देर में पहुंचते हैं. पहले वे लोकल लैवल पर कोशिश करते हैं.
‘‘अस्पतालों पर काफी भार होता है. प्राथमिक और मध्यम स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा न के बराबर है. तभी इन लोगों को कोटा जैसे बड़े शहरों की ओर रुख करना पड़ता है.’’