सनकी हत्यारा : खून से लथपथ लाश और बेसबौल का डंडा

Crime News in Hindi: सोमनाथ से जबलपुर (Jabalpur) तक आने वाली सोमनाथ एक्सप्रैस ट्रेन 17 दिसंबर, 2018 को शाम करीब 5 बजे जब जबलपुर स्टेशन पहुंची तो सैकड़ों यात्रियों के साथ एक कोच में सवार मनीष वाजपेयी भी प्लेटफार्म नंबर 3 पर उतरे. मनीष वाजपेयी नर्मदा विकास प्राधिकरण (Narmda Development Authority) में इंसपेक्टर (Inspector) के पद पर नौकरी करते थे. मनीष का परिवार जबलपुर के गढ़ा थाना इलाके में इंदिरा गांधी वार्ड की अजनी सोसाइटी में रहता था. मनीष की पोस्टिंग जबलपुर के नजदीक जिले नरसिंहपुर में थी इसलिए वह रोज सुबह ट्रेन से जाने के बाद शाम को सोमनाथ एक्सप्रैस (Somnath Express) से ही वापस घर आ जाते थे. मनीष के 2 बेटे हैं, जिन में से बड़ा बेटा इंदौर में इंजीनियर है और छोटा बेटा नरसिंहपुर के पास मुगली गांव में अपने नानानानी के पास रह कर खेती का काम संभालता है. इस तरह उन की पत्नी विनीता दिन भर में अकेली रह जाती थी. इसलिए शाम को स्टेशन से उतर कर घर जाने से पहले मनीष पत्नी को फोन जरूर करते थे ताकि घर की जरूरत का सामान रास्ते से खरीदते हुए घर पहुंचे.

उस रोज भी मनीष ने जबलपुर स्टेशन से बाहर निकल कर पत्नी विनीता से बात की और फिर सीधे घर पहुंच गए. घर पहुंचने तो उन्हें दरवाजे के चैनल गेट पर अंदर से ताला पड़ा मिला. घर में अकेले रहने पर विनीता चैनल पर ताला लगा देती थी. मनीष ने घंटी बजाई और कुछ देर तक पत्नी द्वारा दरवाजा खोलने का इंतजार किया. लेकिन काफी देर बाद भी विनीता दरवाजा खोलने नहीं आई तो मनीष ने कई बार दरवाजा पीटा व घंटी बजाई. उन्होंने पत्नी के मोबाइल पर भी रिंग की परंतु कोई परिणाम नहीं निकला.
इसी बीच पड़ोस में रहने वाले अशोक वर्मा बाहर आए तो मनीष को दरवाजे पर खड़ा देख कर वह एक मिनट उन के पास रुक कर बात करने लगे. तब मनीष ने विनीता द्वारा दरवाजा न खोलने की बात उन्हें बताई तो अशोक शर्मा ने कहा कि हो सकता है कि विनीता वाशरूम में हो. अशोक मनीष को तब तक अपने घर चाय पीने के लिए ले गए.

मनीष अशोक वर्मा के घर चाय पीतेपीते भी कई बार पत्नी का मोबाइल नंबर मिलाते रहे. लेकिन पत्नी के मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी, पर वह फोन नहीं उठा रही थी. मनीष परेशान थे कि आखिर वह कहां है जो फोन भी नहीं उठा रही.

चाय पीने के बाद दोनों फिर बाहर आ गए. मनीष ने फिर से अपने घर की घंटी बजाई पर कोई नतीजा नहीं निकला. फिर मनीष के कहने पर अशोक वर्मा अपने घर के आंगन से बाउंड्री वाल फांद कर मनीष की छत पर पहुंचे. उन्होंने घर में उतर कर कमरे का नजारा देखा तो वहां उन्हें सब कुछ ठीक नहीं लगा.
अशोक को घबराया देख खुद मनीष भी बाउंड्री वाल फांद कर अपने घर में दाखिल हो गए. जब वह ऊपर की मंजिल पर पहुंचे तो वहां का नजारा देख कर उन के होश उड़ गए.

उन की पत्नी विनीता खून से लथपथ फर्श पर पड़ी थी. विनीता के गले में पतली रस्सी भी बंधी थी. और पास ही खून से सना बेसबौल का डंडा पड़ा था. यह सब देख कर मनीष अपना होश खो बैठे. उन्होंने तत्काल गैलरी के गेट का ताला तोड़ कर पुलिस व ऐंबुलेंस को फोन किया.

घटना की जानकारी मिलते ही गढ़ा थानाप्रभारी शफीक खान पुलिस फोर्स ले कर घटनास्थल पर पहुंच गए. पहली ही नजर में साफ था कि विनीता की मौत हो चुकी थी. गले में रस्सी बंधी थी और चेहरा पूरी तरह से खराब हो चुका था. मामला हत्या का देख कर थानाप्रभारी ने एसपी अमित सिंह, एएसपी संजीव उइक सीएसपी दीपक मिश्रा को भी घटना की जानकारी दे दी. जिस से एएसपी उइक और सीएसपी दीपक मिश्रा के अलावा एफएसएल और फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट की टीम भी मौके पर पहुंच गई.

इंसपेक्टर खान ने पूरे मकान का बारीकी से निरीक्षण किया तो पाया कि हत्यारे ने मकान में फ्रेंडली एंट्री की थी. इस का मतलब यह निकला कि हत्यारा विनीता का परिचित ही था. घटनास्थल की जांच और जरूरी काररवाई करने के बाद पुलिस ने विनीता की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी.

पुलिस ने मनीष से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि उन की शाम करीब 5 बजे विनीता से फोन पर उस समय बात हुई थी जब वह ट्रेन से जबलपुर स्टेशन पर उतरे थे. स्टेशन से घर आने में उन्हें 25 मिनट लगे थे. उसी दौरान विनीता के साथ वारदात हुई थी.

चूंकि घर का सभी सामान सुरक्षित था इसलिए हत्या का मकसद लूट नहीं था. 25 मिनट में इतनी सफाई से हत्या कर हत्यारा भाग ही नहीं सकता था. इस से साफ था कि हत्यारा विनीता के साथ घर में पहले से मौजूद रहा होगा. हत्यारा विनीता का मोबाइल अपने साथ ले गया. मतलब साफ था कि मोबाइल के माध्यम से हत्यारे की पहचान संभव थी.

पुलिस ने मृतका विनीता के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स निकलवाने के अलावा उस के बैकग्राउंड की भी जांच शुरू कर दी. इस के अलावा मनीष वाजपेयी के यहां आनेजाने वालों की सूची बना कर उन सब से भी पूछताछ की.

इस दौरान पता चला कि इन सब में से एक परिचित शहर से लापता मिला और उस का मोबाइल फोन भी बंद आ रहा था. इसलिए पुलिस ने शक की सुई उसी आदमी की तरफ घुमा दी.

इसी बीच पुलिस का ध्यान एक ऐसे फोन नंबर की तरफ भी गया जिस से विनीता के पास अकसर फोन आता था. इस नंबर पर दोनों के बीच वाट्सऐप पर हुई चैटिंग की पुलिस ने जांच की तो पता चला कि उक्त नंबर वाला युवक विनीता पर अनैतिक संबंध बनाने का दबाव बना रहा था.

पुलिस ने इसी बात को ध्यान में रख कर जांच आगे बढ़ाई तो पता चला कि घटना वाले समय उक्त फोन नंबर जबलपुर में ही था. इतना ही नहीं दोपहर 12 बजे से साढ़े 5 बजे के बीच उस की लोकेशन भी विनीता के घर के पास के टौवर के टच में थी. यह फोन घटना से 3 दिन पहले से जबलपुर में था और घटना वाले दिन सुबह के समय उस फोन से विनीता से बात भी की थी.

इसलिए पुलिस ने पूरा ध्यान इस फोन नंबर पर ही लगा दिया. उस फोन का सिमकार्ड शिवकांत उर्फ रिंकू पुत्र धर्मनारायण पांडे, निवासी बड़ा शिवाला मझनपुर, जिला कौशांबी, उत्तर प्रदेश के नाम से खरीदा गया था.

पुलिस ने इस संदिग्ध फोन नंबर को सर्विलांस पर लगा दिया. साइबर सेल की मदद से जांच टीम को जानकारी मिली कि उस फोन की लोकेशन कस्बे में कक्षपुर ब्रिज के पास है. टीम तुरंत वहां पहुंच गई और एक युवक को कक्षपुर ब्रिज के पास से गिरफ्तार कर लिया.

उस ने अपना नाम शिवकांत उर्फ रिंकू बताया. उस के कपड़ों पर खून के कुछ दाग लगे मिले जिस से पुलिस को पूरा भरोसा हो गया कि विनीता का कातिल कोई और नहीं रिंकू ही है. पूछताछ में रिंकू विनीता को जानने से भी इनकार करता रहा लेकिन जब पुलिस ने उस का मिलान विनीता के घर के पास लगे सीसीटीवी कैमरों के फुटेज से किया तो रिंकू दोपहर लगभग 12 बजे विनीता के घर आता हुआ और शाम साढ़े 5 बजे वहां से वापस जाता दिखा.

अब रिंकू सीसीटीवी फुटेज को गलत साबित नहीं कर सकता था. लिहाजा चारों तरफ से घिर जाने पर रिंकू ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया. उस ने विनीता की हत्या की जो कहानी बताई, वह हैरान कर देने वाली निकली—

कोई 25 साल पहले नरसिंहपुर के मुगली गांव की रहने वाली विनीता की शादी नर्मदा विकास प्राधिकरण में कार्यरत मनीष वाजपेयी के साथ हुई थी. दोनों के 2 बेटे हैं.

मनीष संपन्न परिवार के अकेले बेटे थे तो वहीं विनीता भी उच्च परिवार की एकलौती बेटी थी. सरकारी नौकरी में मनीष अच्छे पद पर थे. इसलिए घर में रुपएपैसों की कोई कमी नहीं थी.

पूरा परिवार काफी सभ्य और सुलझे विचारों वाला था. विनीता धार्मिक प्रवृत्ति की थी. वह शहर में होने वाले धार्मिक आयोजनों में अकसर शामिल होती रहती थी. विनीता जितनी सुंदर देखने में थी, उतनी ही वह मन की भी साफ थी.

कुछ समय पहले वह एक धार्मिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने वृंदावन गई थी. उस कार्यक्रम में कौशांबी से शिवकांत मिश्रा उर्फ रिंकू फोटोग्राफी करने वहां आया हुआ था. उस कार्यक्रम में शामिल कई लोग रिंकू से अपने फोटो खिंचवा रहे थे. विनीता को ऐसे मौके पर फोटो खिंचाने का शौक नहीं था. इसलिए वह चुपचाप भीड़ से अलग खड़ी थीं.  इस दौरान रिंकू की नजर विनीता पर पड़ी तो वह उस की सुंदरता पर मोहित हो गया. वह विनीता के पास आ गया और विनीता से अपनी फोटो खिंचवाने का आग्रह करने लगा.
पहले तो विनीता ने उसे मना कर दिया लेकिन जब रिंकू ने जिद की तो विनीता ने अपने कुछ फोटो उस से खिंचवाए. जिस के बाद औनलाइन फोटो भेजने के लिए रिंकू ने उन का वाट्सऐप नंबर भी ले लिया.
इस के 2 दिन बाद रिंकू ने विनीता के सारे फोटो वाट्सऐप से भेज दिए. साथ ही फोटो खिंचवाने के लिए उस ने विनीता का आभार भी व्यक्त किया.

विनीता जैसी खुद सरल स्वभाव की थी, वैसा ही वह फोटोग्राफर रिंकू को समझ रही थी. लेकिन रिंकू ऐसा था नहीं. कुछ दिन बाद फोटो मिलने की बात पूछने के बहाने रिंकू ने विनीता को फोन किया और दोस्ती बढ़ाने के लिए वह उस से मीठीमीठी बातें करने लगा. धीरेधीरे जब उस ने विनीता के घर का पता सहित उस के बारे में सब कुछ जान लिया तो वह अपनी औकात पर आ गया.

वाट्सऐप मैसेज भेज कर वह विनीता से उस की खूबसूरती की तारीफ करने लगा और बातोंबातों में उस ने उस से अपने प्यार का इजहार भी कर दिया. विनीता को यह बात अजीब लगी. कोई दूसरी महिला होती तो शायद वह उस की शिकायत पुलिस से कर देती. लेकिन विनीता ने ऐसा न कर के पहले उसे समझाने की कोशिश की लेकिन वह उसे जितना समझाने की कोशिश करती, रिंकू उतनी ही आशिकी भरी बातें करता.

विनीता ने एक गलती जो की थी, वह यह थी कि जिस रोज रिंकू ने पहली बार उस से इश्क का इजहार किया था, उसी रोज उसे बात पति को बता देनी चाहिए थी, पर नहीं बताई. दरअसल उस का सोचना था कि वह अपने स्तर से इस समस्या को सुलझा लेगी. लेकिन अब पानी सिर से ऊपर पहुंचने लगा था.
समस्या कितनी बड़ी है इस बात का अंदाजा उसे उस रोज लगा जब रिंकू कई दूसरे कार्यक्रम में फोटोग्राफी करने जबलपुर तक आने लगा. विनीता के घर का पता उस ने पहले ही ले लिया था.
उसे यह भी मालूम था कि विनीता अकसर घर पर अकेली रहती है. इसलिए वह रोज अचानक ही वह उस के घर आ धमका.

उस के घर आ कर भी वह उस से अपने प्यार का इजहार करने लगा. इस पर विनीता ने उसे समझाया, ‘‘देखो रिंकू, मैं शादीशुदा हूं, इसलिए मुझ से इस तरह की उम्मीद करना गलत है.’’
‘‘मैं शादी करने की बात कहां कर रहा हूं. मैं तो केवल साथ में एक रात बिताने की मांग कर रहा हूं.’’ रिंकू ने बेशर्मी से कहा.

उस की बात पर विनीता को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन कोई तमाशा खड़ा न हो इसलिए उसे समझाबुझा कर वापस भेज दिया. लेकिन इस घटना के बाद वह विनीता को वाट्सऐप पर काफी अश्लील मैसेज भेजने लगा. जिस से तंग आ कर विनीता ने उसे सख्त शब्दों में आगे से कोई मैसेज या फोन न करने की चेतावनी दे दी.

रिंकू ने पुलिस को बताया कि वह विनीता की खूबसूरती का इतना दीवाना हो चुका था कि वह हर हाल में उसे पाना चाहता था. घटना वाले दिन जब वह जबलपुर आया तो उस ने पहले ही निर्णय कर लिया था कि इस बार विनीता के घर से खाली वापस नहीं आएगा. इसलिए उस रोज मनीष के नरसिंहपुर के लिए रवाना होते ही वह उस के घर पहुंच गया.

घर पहुंच कर वह विनीता पर अपनी बात मनवाने का दबाव बनाने लगा. लेकिन विनीता ने साफतौर पर उस की बात मारने से इनकार कर दिया. इतना ही नहीं उस ने रिंकू से वहां से चले जाने को कह दिया.

लेकिन रिंकू उस के घर पर जम कर बैठ गया. इस पर विनीता ने उस से कहा कि अगर अब भी वह सही रास्ते पर नहीं आया तो वह उस की सारी वाट्सऐप चैटिंग पति को दिखा कर उस की शिकायत पुलिस से भी कर देगी. पर विनीता की बात का रिंकू पर कोई असर नहीं पड़ा.

इसी बीच शाम 5 बजे मनीष ने जबलपुर स्टेशन आ कर विनीता को फोन किया तो उस समय रिंकू वहीं बैठा था. उसे लगा कि आज विनीता अपने पति को सब कुछ बता देगी. इसलिए विनीता के साथ वह जबरदस्ती करने लगा. उस का सोचना था कि अगर वह किसी तरह से संबंध बनाने में कामयाब हो गया तो शायद वह उस की शिकायत पति से नहीं कर पाएगी.

लेकिन विनीता ने रिंकू को धक्का दे कर खुद से दूर कर दिया और बचने के लिए वह ऊपर के कमरे में भागी, जहां पीछे से रिंकू भी पहुंच गया. उसी समय रिंकू ने साथ लाई पतली रस्सी उस के गले पर कस दी जिस से उस की सांस रुक गई. फिर पास रखे बेसबौल के डंडे से उस के चेहरे पर बेहताशा वार किए. उसे लगा कि यह मर चुकी है, तो वह वहां से विनीता का फोन ले कर भाग गया.

उस ने विनीता का फोन कक्षपुरा ब्रिज के पास छिपा दिया था, जो पुलिस ने बरामद कर लिया. रिंकू का सोचना था कि विनीता ने उस की पहचान के बारे में किसी तीसरे को जानकारी नहीं दी है इसलिए उस का नाम कभी भी इस मामले में सामने न आने पर वह कभी नहीं पकड़ा जाएगा.

पर उस की सोच गलत साबित हुई. पुलिस ने रिंकू से पूछताछ करने के बाद उसे न्यायालय में पेश किया जहां से उसे जेल भेज दिया.

दरिंदे : सोनाली की दबी इच्छा

वह अपना सिर घुटनों में छिपा कर बैठी थी लेकिन रहरह कर एक जोर का कहकहा लगता और सारी मेहनत बेकार हो जाती. पास बैठा सोनाली का पति सुरेंद्र भरी आवाज में उसे दिलासा देने में जुटा था, ‘‘ऐसे हिम्मत मत हारो… ठंडे दिमाग से सोचेंगे कि आगे क्या करना है.’’ सुरेंद्र के बहते आंसू सोनाली की साड़ी और चादर पर आसरा पा रहे थे. बच्चों को दूसरे कमरे में टैलीविजन देखने के लिए कह दिया गया था. 6 साल का विकी तो अपनी धुन में मगन था लेकिन 10 साल का गुड्डू बहुतकुछ समझने की कोशिश कर रहा था. विकी बीचबीच में उसे टोक देता मगर वह किसी समझदार की तरह उसे कोई नया चैनल दिखा कर बहलाने लगता था.

2 साल पहले तक सोनाली की जिंदगी में सबकुछ अच्छा चल रहा था. पति की साधारण सरकारी नौकरी थी, पर उन के छोटेछोटे सपनों को पूरा करने में कभी कोई अड़चन नहीं आई थी. पुराना पुश्तैनी घर भी प्यार की गुनगुनाहट से महलों जैसा लगता था. बूढ़े सासससुर बहुत अच्छे थे. उन्होंने सोनाली को मांबाप की कमी कभी महसूस नहीं होने दी थी. एक दिन सुरेंद्र औफिस से अचानक घबराया हुआ लौटा और कहने लगा था, ‘कोई नया मंत्री आया है और उस ने तबादलों की झड़ी लगा दी है. मुझे भी दूसरे जिले में भेज दिया गया है.’ ‘क्या…’ सोनाली का दिल धक से रह गया था. 2 घंटे तक अपने परिवार से दूर रहने से घबराने वाला सुरेंद्र अब 2 हफ्ते में एक बार घर आ पाता था. बच्चे भी बहुत उदास हुए, लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता. मनचाही जगह पर पोस्टिंग मिल तो जाती, मगर उस की कीमत उन की पहुंच से बाहर थी. हार कर सोनाली ने खुद को किसी तरह समझा लिया था. वीडियो काल, चैटिंग के सहारे उन का मेलजोल बना रहता था. जब भी सुरेंद्र घर आता था, सोनाली को रात छोटी लगने लगती थी. सुरेंद्र की बांहों में भिंच कर वह प्यार का इतना रस निचोड़ लेने की कोशिश करती थी कि उन का दोबारा मिलन होने तक उसे बचाए रख सके. उस के दिल की इस तड़प को समझ कर निंदिया रानी तो उन्हें रोकटोक करने आती नहीं थी.

बिस्तर से ले कर जमीन तक बिखरे दोनों के कपड़े भी सुबह होने के बाद ही उन को आवाज देते थे. जिंदगी की गाड़ी चलती रही, लेकिन अपनी दुनिया में मगन रहने वाली सोनाली एक बड़े खतरे से अनजान थी. उस खतरे का नाम राजेश सिंह था जो ठीक उन के पड़ोस में रहता था. शरीर से बेहद लंबेतगड़े राजेश को न अपनी 55 पार कर चुकी उम्र का कोई लिहाज था और न ही गांव के रिश्ते से कहे जाने वाले ‘चाचा’ शब्द का. उस की गंदी नजरें खूबसूरत बदन की मालकिन सोनाली पर गड़ चुकी थीं. दबंग राजेश सिंह हत्या, देह धंधा जैसे अनेक मामलों में फंस कर कई बार जेल जा चुका था लेकिन हमेशा किसी न किसी से पैरवी करा कर बाहर आ जाता था. सुरेंद्र का साधारण समुदाय से होना भी राजेश सिंह की हिम्मत बढ़ाता था. राजेश सिंह का कोई तय काम नहीं था. बेटों की मेहनत पर खेतों से आने वाला अनाज खा कर पड़े रहना और चुनाव के समय अपनी जाति के नेताओं के पक्ष में इधर से उधर दलाली करना उस का पेशा था. हालांकि बेटे भी कोई दूध के धुले नहीं थे. बाकी सारा समय अपने दरवाजे पर किसीकिसी के साथ बैठ कर यहांवहां की गप हांकना राजेश सिंह की आदत थी. सोनाली बाहर कम ही निकलती थी, लेकिन जब भी जाती और राजेश सिंह को पता चल जाता तो घर से निकलने से ले कर वापस लौटने तक वह उस को ही ताकता रहता.

उस के उभारों और खुले हिस्सों को तो वह ऐसे देखता जैसे अभी खा जाएगा. एक दिन सोनाली जब आटोरिकशा पर चढ़ रही थी तो उस की साड़ी के उठे भाग के नीचे दिख रही पिंडलियों को घूरने की धुन में राजेश सिंह अपने दरवाजे पर ठोकर खा कर गिरतेगिरते बचा. उस के साथ बैठे लोग जोर से हंस पड़े. सोनाली ने घूम कर उन की हंसी देखी भी, पर उन की भावना नहीं समझ पाई. आखिर वह दिन भी आया जिस ने सोनाली का सबकुछ छीन लिया. उस के सासससुर किसी संबंधी के यहां गए हुए थे और छोटा बेटा विकी नानी के घर था. बड़ा बेटा गुड्डू स्कूल में था. बाहर हो रही तेज बारिश की वजह से मोबाइल नैटवर्क भी खराब चल रहा था जिस के चलते सोनाली और सुरेंद्र की ठीक से बात नहीं हो पा रही थी. ऊब कर उस ने मोबाइल फोन बिस्तर पर रखा और नहाने चली गई. सोनाली ने दोपहर के भोजन के लिए दालचावल चूल्हे पर पहले ही चढ़ा दिए थे और नहाने के बीच में कुकर की सीटियां भी गिन रही थी. हमेशा की तरह उस का नहाना पूरा होतेहोते कुकर ने अपना काम कर लिया. सोनाली ने जल्दीजल्दी अपने बालों और बदन पर तौलिए लपेटे और बैडरूम में भागी आई. बालों को झटपट पोंछ कर उस ने बिस्तर पर रखे नए सूखे कपड़े पहनने के लिए जैसे ही अपने शरीर पर बंधा तौलिया हटाया कि अचानक 2 मजबूत हाथों ने उसे पीछे से दबोच लिया. अचानक हुए इस हमले से बौखलाई सोनाली ने पीछे मुड़ कर देखा तो हमलावर राजेश सिंह था जो छत के रास्ते उस के घर में घुस आया था और कमरे में पलंग के नीचे छिप कर उस का ही इंतजार कर रहा था. उस के मुंह से शराब की तेज गंध भी आ रही थी. सोनाली चीखती, इस से पहले ही किसी दूसरे आदमी ने उस का मुंह भी दबा दिया. वह जितना पहचान पाई उस के मुताबिक वह राजेश सिंह का खास साथी भूरा था और उम्र में राजेश सिंह के ही बराबर था. सोनाली के कुछ सोचने से पहले ही वे दोनों उसे पलंग पर लिटा कर वहां रखी उस की ही साड़ी के टुकड़े कर उसे बांध चुके थे. सोनाली के मुंह पर भूरा ने अपना गमछा लपेट दिया था. इस के बाद राजेश सिंह ने पहले तो कुछ देर तक अपनी फटीफटी आंखों से सोनाली के जिस्म को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर उस के ऊपर झुकता चला गया. काफी देर बाद हांफता हुआ राजेश सिंह सोनाली के ऊपर से उठा. भयंकर दर्द से जूझती, पसीने से तरबतर सोनाली सांयसांय चल रहे सीलिंग फैन को नम आंखों से देख रही थी. टैलीविजन पर रखा सोनाली, सुरेंद्र और बच्चों का ग्रुप फोटो गिर कर टूट चुका था. रसोईघर में चूल्हे पर चढ़े दालचावल सोनाली के सपनों की तरह जल कर धुआं दे रहे थे. इस के बाद भूरा बेशर्मी से हंसता हुआ अपनी हवस मिटाने के लिए बढ़ा. राजेश सिंह बिस्तर पर पड़े सोनाली के पेटीकोट से अपना पसीना पोंछ रहा था. भूरा ने अपने हाथ सोनाली के कूल्हों पर रखे ही थे कि तभी दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई. राजेश सिंह ने दरवाजे की झिर्री से झांका तो गुड्डू की स्कूल वैन का ड्राइवर उसे साथ ले कर खड़ा था. राजेश सिंह ने जल्दी से भूरा को हटने का इशारा किया.

वह झल्लाया चेहरा लिए उठा और अपने कपड़े ठीक करने लगा. ‘तुम ने बहुत ज्यादा समय ले ही लिया इस के साथ, नहीं तो हम को भी मौका मिल जाता न,’ भूरा भुनभुनाया. लेकिन राजेश सिंह ने उस की बात पर ध्यान नहीं दिया और जैसेतैसे अपने कपड़े पहन कर जिधर से आया था, उधर से ही भाग गया. जब दरवाजा नहीं खुला तो गुड्डू के कहने पर ड्राइवर ने ऊपर से हाथ घुसा कर कुंडी खोली. घुसते ही अंदर के कमरे का सब नजारा दिखता था. ड्राइवर के तो होश उड़ गए. उस ने शोर मचा दिया. सुरेंद्र आननफानन आया. सोनाली के बयान पर राजेश सिंह और भूरा पर केस दर्ज हुए. दोनों की गिरफ्तारी भी हुई लेकिन राजेश सिंह ने अपनी पहचान के नेता से बयान दिलवा लिया कि घटना वाले दिन वह और भूरा उस के साथ मीटिंग में थे. मैडिकल जांच पर भी सवाल खड़े कर दिए गए. कुछ समाचार चैनलों और स्थानीय महिला संगठनों ने थोड़े दिनों तक अपनीअपनी पब्लिसिटी के लिए प्रदर्शन जरूर किए, बाद में अचानक शांत पड़ते गए. सालभर होतेहोते राजेश सिंह और भूरा दोनों बाइज्जत बरी हो कर निकल आए. ऊपरी अदालत में जाने लायक माली हालत सुरेंद्र की थी नहीं. आज राजेश सिंह के घर पर हो रही पार्टी सुरेंद्र और सोनाली के घावों पर रातभर नमक छिड़कती रही. इस के बाद राजेश सिंह और भी छुट्टा सांड़ हो गया. छत पर जब भी सोनाली से नजरें मिलतीं, वह गंदे इशारे कर देता. इस सदमे से सोनाली के सासससुर भी बीमार रहने लगे थे. राजेश सिंह के छूट जाने से सोनाली के मन में भरा डर अब और बढ़ने लगा था. रातों को अपने निजी अंगों पर सुरेंद्र का हाथ पा कर भी वह बुरी तरह से चौंक कर जाग उठती थी. कई बार सोनाली के मन में खुदकुशी का विचार आया, लेकिन अपने पति और बच्चों का चेहरा उसे यह गलत कदम उठाने नहीं देता था. दिन बीतते गए. गुड्डू का जन्मदिन आ गया. केवल उस की खुशी के लिए सोनाली पूरे परिवार के साथ होटल चलने को राजी हो गई. खाना खाने के बाद वे लोग काउंटर पर बिल भर रहे थे कि तभी सामने राजेश सिंह दिखाई दिया. सफेद कुरतापाजामा पहने हुए वह एक पान की दुकान की ओट में किसी से मोबाइल फोन पर बात कर रहा था. राजेश सिंह पर नजर पड़ते ही सोनाली के मन में उसी दिन का उस का हवस से भरा चेहरा घूमने लगा.

उस के द्वारा फोन पर कहे जा रहे शब्द उसे वही आवाज लग रहे थे जो उस की इज्जत लूटते समय वह अपने मुंह से निकाल रहा था. सोनाली का दिमाग तेजी से चलने लगा. उबलते गुस्से और डर को काबू में रख वह आज अचानक कोई फैसला ले चुकी थी. उस ने सुरेंद्र के कान में कुछ कहा. सुरेंद्र ने बच्चों से खाने की मेज पर ही बैठ कर इंतजार करने को बोला और होटल के दरवाजे के पास आ कर खड़ा हो गया. सोनाली ने आसपास देखा और राजेश सिंह के ठीक पीछे आ गई. वह अपनी धुन में था इसलिए उसे कुछ पता नहीं चला. सोनाली ने अपने पेटीकोट की डोरी पहले ही थोड़ी ढीली कर ली थी. उस ने राजेश सिंह का दूसरा हाथ पकड़ा और अपने पेटीकोट में डाल लिया. राजेश सिंह ने चौंक कर सोनाली की तरफ देखा. वह कुछ समझ पाता, इस से पहले ही सोनाली उस का हाथ पकड़ेपकड़े रोते हुए चिल्लाने लगी,

‘‘अरे, यह क्या बदतमीजी है? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे साथ ऐसी घटिया हरकत करने की?’’ सोनाली के चिल्लाते ही सुरेंद्र होटल से भागाभागा वहां आया और उस ने राजेश सिंह पर मुक्कों की बरसात कर दी. वह मारतेमारते जोरजोर से बोल रहा था, ‘‘राह चलती औरत के पेटीकोट में हाथ डालेगा तू?’’ जिन लोगों ने राजेश सिंह का हाथ सोनाली के पेटीकोट में घुसा देख लिया था, वे भी आगबबूला हुए उधर दौड़े और उस को पीटने लगे. भीड़ जुटती देख सुरेंद्र ने अपने जूते के कई जोरदार वार राजेश सिंह के पेट और गुप्तांग पर कर दिए और मौका पा कर भीड़ से निकल गया. जब तक कुछ लोग बीचबचाव करते, तब तक खून से लथपथ राजेश सिंह मर चुका था. जो सजा उसे बलात्कार के आरोप में मिलनी चाहिए थी, वह उसे छेड़खानी के आरोप ने दिलवा दी थी. द्य

थोड़ा सा इंतजार : तनुश्री का दर्द

बरसों बाद अभय को उसी जगह खड़ा देख कर तनुश्री कोई गलती नहीं दोहराना चाहती थी. कई दिनों से तनुश्री अपने बेटे अभय को कुछ बेचैन सा देख रही थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि अपनी छोटी से छोटी बात मां को बताने वाला अभय अपनी परेशानी के बारे में कुछ बता क्यों नहीं रहा है. उसे खुद बेटे से पूछना कुछ ठीक नहीं लगा.

आजकल बच्चे कुछ अजीब मूड़ हो गए हैं, अधिक पूछताछ या दखलंदाजी से चिढ़ जाते हैं. वह चुप रही. तनुश्री को किचन संभालते हुए रात के 11 बज चुके थे. वह मुंहहाथ धोने के लिए बाथरूम में घुस गई. वापसी में मुंह पोंछतेपोंछते तनुश्री ने अभय के कमरे के सामने से गुजरते हुए अंदर झांक कर देखा तो वह किसी से फोन पर बात कर रहा था. वह एक पल को रुक कर फोन पर हो रहे वार्तालाप को सुनने लगी. ‘‘तुम अगर तैयार हो तो हम कोर्ट मैरिज कर सकते हैं…नहीं मानते न सही…नहीं, अभी मैं ने अपने मम्मीपापा से बात नहीं की…उन को अभी से बता कर क्या करूं? पहले तुम्हारे घर वाले तो मानें…रोना बंद करो. यार…उपाय सोचो…मेरे पास तो उपाय है, तुम्हें पहले ही बता चुका हूं…’’ तनुश्री यह सब सुनने के बाद दबेपांव अपने कमरे की ओर बढ़ गई. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलते गुजरी.

अभय की बेचैनी का कारण उस की समझ में आ चुका था. इतिहास अपने आप को एक बार फिर दोहराना चाहता है, पर वह कोशिश जरूर करेगी कि ऐसा न हो, क्योंकि जो गलती उस ने की थी वह नहीं चाहती थी कि वही गलती उस के बच्चे करें. तनुश्री अतीत की यादों में डूब गई. सामने उस का पूरा जीवन था. कहने को भरापूरा सुखी जीवन. अफसर पति, जो उसे बेहद चाहते हैं. 2 बेटे, एक इंजीनियर, दूसरा डाक्टर. पर इन सब के बावजूद मन का एक कोना हमेशा खाली और सूनासूना सा रहा. क्यों? मांबाप का आशीर्वाद क्या सचमुच इतना जरूरी होता है? उस समय वह क्यों नहीं सोच पाई यह सब? प्रेमी को पति के रूप में पाने के लिए उस ने कितने ही रिश्ते खो दिए. प्रेम इतना क्षणभंगुर होता है कि उसे जीवन के आधार के रूप में लेना खुद को धोखा देने जैसा है. बच्चों को भी कितने रिश्तों से जीवन भर वंचित रहना पड़ा.

कैसा होता है नानानानी, मामामामी, मौसी का लाड़प्यार? वे कुछ भी तो नहीं जानते. उसी की राह पर चलने वाली उस की सहेली कमला और पति वेंकटेश ने भी यही कहा था, ‘प्रेम विवाह के बाद थोड़े दिनों तक तो सब नाराज रहते हैं लेकिन बाद में सब मान जाते हैं.’ और इस के बहुत से उदाहरण भी दिए थे, पर कोई माना? पिछले साल पिताजी के गुजरने पर उस ने इस दुख की घड़ी में सोचा कि मां से मिल आती हूं. वेंकटेश ने एक बार उसे समझाने की कोशिश की, ‘तनु, अपमानित होना चाहती हो तो जाओ. अगर उन्हें माफ करना होता तो अब तक कर चुके होते. 26 साल पहले अभय के जन्म के समय भी तुम कोशिश कर के देख चुकी हो.’ ‘पर अब तो बाबा नहीं हैं,’ तनुश्री ने कहा था.

‘पहले फोन कर लो तब जाना, मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं.’ तनुश्री ने फोन किया. किसी पुरुष की आवाज थी. उस ने कांपती आवाज में पूछा, ‘आप कौन बोल रहे हैं?’ ‘मैं तपन सरकार बोल रहा हूं और आप?’ तपन का नाम और उस की आवाज सुनते ही तनुश्री घबरा सी गई, ‘तपन… तपन, हमारे खोकोन, मेरे प्यारे भाई, तुम कैसे हो. मैं तुम्हारी बड़ी दीदी तनुश्री बोल रही हूं?’ कहतेकहते उस की आवाज भर्रा सी गई थी. ‘मेरी तनु दीदी तो बहुत साल पहले ही मर गई थीं,’ इतना कह कर तपन ने फोन पटक दिया था. वह तड़पती रही, रोती रही, फिर गंभीर रूप से बीमार पड़ गई. पति और बच्चों ने दिनरात उस की सेवा की. सामाजिक नियमों के खिलाफ फैसले लेने वालों को मुआवजा तो भुगतना ही पड़ता है. तनुश्री ने भी भुगता. शादी के बाद वेंकटेश के मांबाप भी बहुत दिनों तक उन दोनों से नाराज रहे. वेंकटेश की मां का रिश्ता अपने भाई के घर से एकदम टूट गया.

कारण, उन्होंने अपने बेटे के लिए अपने भाई की बेटी का रिश्ता तय कर रखा था. फिर धीरेधीरे वेंकटेश के मांबाप ने थोड़ाबहुत आना- जाना शुरू कर दिया. अपने इकलौते बेटे से आखिर कब तक वह दूर रहते पर तनुश्री से वे जीवन भर ख्ंिचेख्ंिचे ही रहे. जिस तरह तनुश्री ने प्रेमविवाह किया था उसी तरह उस की सहेली कमला ने भी प्रेमविवाह किया था. तनुश्री की कोर्ट मैरिज के 4 दिन पहले कमला और रमेश ने भी कोर्ट मैरिज कर ली थी. उन चारों ने जो कुछ सोचा था, नहीं हुआ. दिनों से महीने, महीनों से साल दर साल गुजरते गए. दोनों के मांबाप टस से मस नहीं हुए. उस तनाव में कमला चिड़चिड़ी हो गई. रमेश से उस के आएदिन झगड़े होने लगे. कई बार तनुश्री और वेंकटेश ने भी उन्हें समझाबुझा कर सामान्य किया था. रमेश पांडे परिवार का था और कमला अग्रवाल परिवार की. उस के पिताजी कपड़े के थोक व्यापारी थे. समाज और बाजार में उन की बहुत इज्जत थी. परिवार पुरातनपंथी था. उस हिसाब से कमला कुछ ज्यादा ही आजाद किस्म की थी.

एक दिन प्रेमांध कमला रायगढ़ से गाड़ी पकड़ कर चुपचाप नागपुर रमेश के पास पहुंच गई. रमेश की अभी नागपुर में नईनई नौकरी लगी थी. वह कमला को इस तरह वहां आया देख कर हैरान रह गया. रमेश बहुत समझदार लड़का था. वह ऐसा कोई कदम उठाना नहीं चाहता था, पर कमला घर से बाहर पांव निकाल कर एक भूल कर चुकी थी. अब अगर वह साथ न देता तो बेईमान कहलाता और कमला का जीवन बरबाद हो जाता. अनिच्छा से ही सही, रमेश को कमला से शादी करनी पड़ी. फिर जीवन भर कमला के मांबाप ने बेटी का मुंह नहीं देखा. इस के लिए भी कमला अपनी गलती न मान कर हमेशा रमेश को ही ताने मारती रहती. इन्हीं सब कारणों से दोनों के बीच दूरी बढ़ती जा रही थी. तनुश्री के बाबा की भी बहुत बड़ी फैक्टरी थी. वहां वेंकटेश आगे की पढ़ाई करते हुए काम सीख रहा था. भिलाई में जब कारखाना बनना शुरू हुआ, वेंकटेश ने भी नौकरी के लिए आवेदन कर दिया. नौकरी लगते ही दोनों ने भाग कर शादी कर ली और भिलाई चले आए. बस, उस के बाद वहां का दानापानी तनुश्री के भाग्य में नहीं रहा.

सालोंसाल मांबाप से मिलने की उम्मीद लगाए वह अवसाद से घिरती गई. जीवन जैसे एक मशीन बन कर रह गया. वह हमेशा कुछ न कर पाने की व्यथा के साथ जीती रही. शादी के बाद कुछ महीने इस उम्मीद में गुजरे कि आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा. जब अभय पेट में आया तो 9 महीने वह हर दूसरे दिन मां को पत्र लिखती रही. अभय के पैदा होने पर उस ने क्षमा मांगते हुए मां के पास आने की इजाजत मांगी. तनुश्री ने सोचा था कि बच्चे के मोह में उस के मांबाप उसे अवश्य माफ कर देंगे. कुछ ही दिन बाद उस के भेजे सारे पत्र ज्यों के त्यों बंद उस के पास वापस आ गए.

वेंकटेश अपने पुराने दोस्तों से वहां का हालचाल पूछ कर तनुश्री को बताता रहता. एकएक कर दोनों भाइयों और बहन की शादी हुई पर उसे किसी ने याद नहीं किया. बड़े भाई की नई फैक्टरी का उद्घाटन हुआ. बाबा ने वहीं हिंद मोटर कसबे में तीनों बच्चों को बंगले बनवा कर गिफ्ट किए, तब भी किसी को तनु याद नहीं आई. वह दूर भिलाई में बैठी हुई उन सारे सुखों को कल्पना में देखती रहती और सोचती कि क्या मिला इस प्यार से उसे? इस प्यार की उसे कितनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी. एक वेंकटेश को पाने के लिए कितने प्यारे रिश्ते छूट गए. कितने ही सुखों से वह वंचित रह गई.

बाबा ने छोटी अपूर्वा की शादी कितने अच्छे परिवार में और कितने सुदर्शन लड़के के साथ की. बहन को भी लड़का दिखा कर उस की रजामंदी ली थी. कितनी सुखी है अपूर्वा…कितना प्यार करता है उस का पति…ऐसा ही कुछ उस के साथ भी हुआ होता. प्यार…प्यार तो शादी के बाद अपने आप हो जाता है. जब शादी की बात चलती है…एकदूसरे को देख कर, मिल कर अपनेआप वह आकर्षण पैदा हो जाता है जिसे प्यार कहते हैं. प्यार करने के बाद शादी की हो या शादी के बाद प्यार किया हो, एक समय बाद वह एक बंधाबंधाया रुटीन, नमक, तेल, लकड़ी का चक्कर ही तो बन कर रह जाता है. कच्ची उम्र में देखा गया फिल्मी प्यार कुछ ही दिनों बाद हकीकत की जमीन पर फिस्स हो जाता है पर अपने असाध्य से लगते प्रेम के अधूरेपन से हम उबर नहीं पाते. हर चीज दुहराई जाती है. संपूर्ण होने की संभावना ले कर पर सब असंपूर्ण, अतृप्त ही रह जाता है. अगले दिन सुबह तनुश्री उठी तो उस के चेहरे पर वह भाव था जिस में साफ झलकता है कि जैसे कोई फैसला सोच- समझ कर लिया गया है. तनुश्री ने उस लड़की से मिलने का फैसला कर लिया था. उसे अभय की इस शादी पर कोई एतराज नहीं था. उसे पता है कि अभय बहुत समझदार है. उस का चुनाव गलत नहीं होगा. अभय भी वेंकटेश की तरह परिपक्व समझ रखता है.

पर कहीं वह लड़की उस की तरह फिल्मों के रोमानी संसार में न उड़ रही हो. वह नहीं चाहती थी कि जो कुछ जीवन में उस ने खोया, उस की बहू भी जीवन भर उस तनाव में जीए. अभय ने मां से काव्या को मिलवा दिया. किसी निश्चय पर पहुंचने के लिए दिल और दिमाग का एकसाथ खड़े रहना जरूरी होता है. तनुश्री काव्या को देख सोच रही थी क्या यह चेहरा मेरा अपना है? किस क्षण से हमारे बदलने की शुरुआत होती है, हम कभी समझ नहीं पाते. तनुश्री ने अभय को आफिस जाने के लिए कह दिया. वह काव्या के साथ कुछ घंटे अकेले रहना चाहती थी. दिन भर दोनों साथसाथ रहीं.

काव्या के विचार तनुश्री से काफी मिलतेजुलते थे. तनु ने अपने जीवन के सारे पृष्ठ एकएक कर अपनी होने वाली बहू के समक्ष खोल दिए. कई बार दोनों की आंखें भी भर आईं. दोनों एकमत थीं, प्रेम के साथसाथ सारे रिश्तों को साथ ले कर चलना है. एक सप्ताह बाद उदास अभय मां के घुटनों पर सिर रखे बता रहा था, ‘‘काव्या के मांबाप इस शादी के खिलाफ हैं. मां, काव्या कहती है कि हमें उन के हां करने का इंतजार करना होगा. उस का कहना है कि वह कभी न कभी तो मान ही जाएंगे.’’ ‘‘हां, तुम दोनों का प्यार अगर सच्चा है तो आज नहीं तो कल उन्हें मानना ही होगा. इस से तुम दोनों को भी तो अपने प्रेम को परखने का मौका मिलेगा,’’ तनुश्री ने बेटे के बालों में उंगलियां फेरते हुए कहा, ‘‘मैं भी काव्या के मांबाप को समझाने का प्रयास करूंगी.’’ ‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आता, मैं क्या करूं, मां,’’ अभय ने पहलू बदलते हुए कहा. ‘‘बस, तू थोड़ा सा इंतजार कर,’’ तनुश्री बोली. ‘‘इंतजार…कब तक…’’ अभय बेचैनी से बोला.

‘‘सभी का आशीर्वाद पाने तक का इंतजार,’’ तनुश्री ने कहा. वह सोचने लगी कि आज के बच्चे बहुत समझदार हैं. वे इंतजार कर लेंगे. आपस में मिलबैठ कर एकदूसरे को समझाने और समझने का समय है उन के पास. हमारे पास वह समय ही तो नहीं था, न टेलीफोन और न मोबाइल ताकि एकदूसरे से लंबी बातचीत कर कोई हल निकाल सकते. आज बच्चे कोई भी कदम उठाने से पहले एकदूसरे से बात कर सकते हैं…एकदूसरे को समझा सकते हैं. समय बदल गया है तो सुविधा और सोच भी बदल गई है. जीवन कितना रहस्यमय होता है. कच्चे दिखने वाले तार भी जाने कहांकहां मजबूती से जुड़े रहते हैं, यह कौन जानता है. द्य

कितने दूर कितने पास

सरकारी सेवा से मुक्त होने में बस, 2 महीने और थे. भविष्य की चिंता अभी से खाए जा रही थी. कैसे गुजारा होगा थोड़ी सी पेंशन में. सेवा से तो मुक्त हो गए परंतु कोई संसार से तो मुक्त नहीं हो गए. बुढ़ापा आ गया था. कोई न कोई बीमारी तो लगी ही रहती है. कहीं चारपाई पकड़नी पड़ गई तो क्या होगा, यह सोच कर ही दिल कांप उठता था. यही कामना थी कि जब संसार से उठें तो चलतेफिरते ही जाएं, खटिया रगड़ते हुए नहीं. सब ने समझाया और हम ने भी अपने अनुभव से समझ लिया था कि पैसा पास हो तो सब से प्रेमभाव और सुखद संबंध बने रहते हैं. इस भावना ने हमें इतना जकड़ लिया था कि पैसा बचाने की खातिर हम ने अपने ऊपर काफी कंजूसी करनी शुरू कर दी. पैसे का सुख चाहे न भोग सकें परंतु मरते दम तक एक मोटी थैली हाथ में अवश्य होनी चाहिए. बेटी का विवाह हो चुका था. वह पति और बच्चों के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रही थी. जैसेजैसे समय निकलता गया हमारा लगाव कुछ कम होता चला गया था. हमारे रिश्तों में मोह तो था परंतु आकर्षण में कमी आ गई थी. कारण यह था कि न अब हम उन्हें अधिक बुला सकते थे और न उन की आशा के अनुसार उन पर खर्च कर सकते थे. पुत्र ने अवसर पाते ही दिल्ली में अपना मकान बना लिया था. इस मकान पर मैं ने भी काफी खर्च किया था.

आशा थी कि अवकाश प्राप्त करने के बाद इसी मकान में आ कर पतिपत्नी रहेंगे. कम से कम रहने की जगह तो हम ने सुरक्षित कर ली थी. एक दिन पत्नी के सीने में दर्द उठा. घर में जितनी दवाइयां थीं सब का इस्तेमाल कर लिया परंतु कुछ आराम न हुआ. सस्ते डाक्टरों से भी इलाज कराया और फिर बाद में पड़ोसियों की सलाह मान कर 1 रुपए की 3 पुडि़या देने वाले होमियोपैथी के डाक्टर की दवा भी ले आए. दर्द में कितनी कमी आई यह कहना तो बड़ा कठिन था परंतु पत्नी की बेचैनी बढ़ गई. एक ही बात कहती थी, ‘‘बेटी को बुला लो. देखने को बड़ा जी चाह रहा है. कुछ दिन रहेगी तो खानेपीने का सहारा भी हो जाएगा. बहू तो नौकरी करती है, वैसे भी न आ पाएगी.’’ ‘‘प्यारी बेटी,’’ मैं ने पत्र लिखा, ‘‘तुम्हारी मां की तबीयत बड़ी खराब चल रही है. चिंता की कोई बात नहीं. पर वह तुम्हें व बच्चों को देखना चाह रही है. हो सके तो तुम सब एक बार आ जाओ. कुछ देखभाल भी हो जाएगी. वैसे अब 2 महीने बाद तो यह घर छोड़ कर दिल्ली जाना ही है. अच्छा है कि तुम अंतिम बार इस घर में आ कर हम लोगों से मिल लो. यह वही घर है जहां तुम ने जन्म लिया, बड़ी हुईं और बाजेगाजे के साथ विदा हुईं…’’ पत्र कुछ अधिक ही भावुक हो गया था.

मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी, पर कलम ही तो है. जब चलने लगती है तो रुकती नहीं. इस पत्र का कुछ ऐसा असर हुआ कि बेटी अपने दोनों बच्चों के साथ अगले सप्ताह ही आ गई. दामाद ने 10 दिन बाद आने के लिए कहा था. न जाने क्यों मांबेटी दोनों एकदूसरे के गले मिल कर खूब रोईं. भला रोने की बात क्या थी? यह तो खुशी का अवसर था. मैं अपने नातियों से गपें लगाने लगा. रचना ने कहा, ‘‘बोलो, मां, तुम्हारे लिए क्या बनाऊं? तुम कितनी दुबली हो गई हो,’’ फिर मुझे संबोधित कर बोली, ‘‘पिताजी, बकरे के दोचार पाए रोज ले आया कीजिए. यखनी बना दिया करूंगी. बच्चों को भी बहुत पसंद है. रोज सूप पीते हैं. आप को भी पीना चाहिए,’’ फिर मेरी छाती को देखते हुए बोली, ‘‘क्या हो गया है पिताजी आप को? सारी हड्डियां दिखाई दे रही हैं. ठहरिए, मैं आप को खिलापिला कर खूब मोटा कर के जाऊंगी. और हां, आधा किलो कलेजी- गुर्दा भी ले आइएगा. बच्चे बहुत शौक से खाते हैं.’’ मैं मुसकराने का प्रयत्न कर रहा था, ‘‘कुछ भी तो नहीं हुआ. अरे, इनसान क्या कभी बुड्ढा नहीं होता? कब तक मोटा- ताजा सांड बना रहूंगा? तू तो अपनी मां की चिंता कर.’’ ‘‘मां को तो देख लूंगी, पर आप भी खाने के कम चोर नहीं हैं. आप को क्या चिंता है? लो, मैं तो भूल ही गई. आप तो रोज इस समय एक कप कौफी पीते हैं. बैठिए, मैं अभी कौफी बना कर लाती हूं. बच्चो, तुम भी कौफी पियोगे न?’’ मैं एक असफल विरोध करता रह गया. रचना कहां सुनने वाली थी. दरअसल, मैं ने कौफी पीना अरसे से बंद कर दिया था. यह घर के खर्चे कम करने का एक प्रयास था. कौफी, चीनी और दूध, सब की एकसाथ बचत. पत्नी को पान खाने का शौक था. अब वह बंद कर के 10 पैसे की खैनी की पुडि़या मंगा लेती थी, जो 4 दिन चलती थी. हमें तो आखिर भविष्य को देखना था न. 

‘‘अरे, कौफी कहां है, मां?’’ रचना ने आवाज लगा कर पूछा, ‘‘यहां तो दूध भी दिखाई नहीं दे रहा है? लो, फ्रिज भी बंद पड़ा है. क्या खराब हो गया?’’ मां ने दबे स्वर में कहा, ‘‘अब फ्रिज का क्या काम है? कुछ रखने को तो है नहीं. बेकार में बिजली का खर्चा.’’ ‘‘पिताजी, ऐसे नहीं चलेगा,’’ रचना ने झुंझला कर कहा, ‘‘यह कोई रहने का तरीका है? क्या इसीलिए आप ने जिंदगी भर कमाया है? अरे ठाट से रहिए. मैं भी तो सिर उठा कर कह सकूं कि मेरे पिताजी कितनी शान से रहते हैं. ए बिट्टू, जा, नीचे वाली दुकान से दौड़ कर कौफी तो ले आ. हां, पास ही जो मिट्ठन हलवाई की दुकान है, उस से 1 किलो दूध भी ले आना. नानाजी का नाम ले देना, समझा? भाग जल्दी से, मैं पानी रख रही हूं.’’ किट्टू बोला, ‘‘मां, मैं भी जाऊं. फाइव स्टार चाकलेट खानी है.’’ ‘‘जा, तू भी जा, शांति तो हो घर में,’’ रचना ने हंस कर कहा, ‘‘चाकलेट खाने की तो ऐसी आदत पड़ गई है कि बस, पूछो मत. इन की तो नौकरी भी ऐसी है कि मुफ्त देने वालों की कमी नहीं है.’’ मैं मन ही मन गणित बिठा रहा था. 5 रुपए की चाकलेट, 6 रुपए का दूध, 15 रुपए की कौफी, 16 रुपए की आधा किलो कलेजी, ढाई रुपए के 2 पाए…’’ कौफी पी ही रहा था कि रचना का क्रुद्ध स्वर कानों में पड़ा, ‘‘मां, तुम ने घर को क्या कबाड़ बना रखा है. न दालें हैं न सब्जी है, न मसाले हैं. आप लोग खाते क्या हैं? बीमार नहीं होंगे तो क्या होंगे? छि:, मैं भाभी को लिख दूंगी. आप की खूब शिकायत करूंगी. दिल्ली में अगर आप को इस हालत में देखा तो समझ लेना कि भाभी से तो लड़ाई करूंगी ही, आप से भी कभी मिलने नहीं आऊंगी.’

रचना जल्दी से सामान की सूची बनाने लगी. मेरी पत्नी का खाना बनाने को मन नहीं करता था. उसे अपनी बीमारी की चिंता अधिक सताती थी. पासपड़ोस की औरतें भी उलटीसीधी सीख दे जाया करती थीं. मैं ने भी समझौता कर लिया था. जो एक समय बन जाता था वही दोनों समय खा लेते थे. आखिर इनसान जिंदा रहने के लिए ही तो खाता है. अब इस उम्र में चटोरापन किस काम का. यह बात अलग थी कि हमारा खर्च आधा रह गया था. बैंक में पैसे भी बढ़ रहे थे और सूद भी. पत्नी ने धीरे से कहा, ‘‘यह तो पराया समझ कर घर लुटा रही है. सामान तुम ही लाना और मुझे यखनीवखनी कुछ नहीं चाहिए. कलेजी भी कम लाना. अगर बच्चों को खिलाना है तो सीधी तरह से कह देती. लगता है मुझे ही रसोई में लगना पड़ेगा. हमें आगे का देखना है कि अभी का?’’ फिर सिर पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अभी तो दामाद को भी आना है. उन्हें तो सारा दिन खानेपीने के सिवा कुछ सूझता ही नहीं.’’ ‘‘तुम ने ही तो कहा था बुलाने को.’’ ‘‘कहा था तो क्या तुम मना नहीं कर सकते थे. ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि जो मैं ने कहा वह पत्थर की लकीर हो गई,’’ पत्नी ने उलाहना दिया. ‘‘अब तो भुगतना ही पड़ेगा. अब देर हो गई. कल सुबह बैंक से पैसे निकालने जाना पड़ेगा,’’ मैं ने दुखी हो कर कहा. इतने में रचना आ गई, ‘‘मां, देसी घी कहां है? दाल किस में छौंकूंगी? रोटी पर क्या लगेगा?’’ मां ने ठंडे दिल से कहा, ‘‘डाक्टर ने देसी घी खाने को मना किया है न. चरबी वाली चीजें बंद हैं. तेरे लिए आधा किलो मंगवा दूंगी.’’ मैं ने खोखली हंसी से कहा, ‘‘कोलेस्टेराल बढ़ जाता है न, और रक्तचाप भी.’’ ‘‘भाड़ में गए ऐसे डाक्टर. हड्डी- पसली निकल रही है, सूख कर कांटा हो रहे हैं और कोलेस्टेराल की बात कर रहे हैं. आप अभी 5 किलोग्राम वाले डब्बे का आर्डर कर आइए. मेरे सामने आ जाना चाहिए,’’ रचना ने धमकी दी. मेरे और पत्नी के दिमाग में एक ही बात घूम रही थी, ‘कितना खर्च हो जाएगा इन के रहते. सेवा से अवकाश लेने वाला हूं. कम खर्च में काम चलाना होगा. बेटे के ऊपर भी तो बोझ बन कर नहीं रहना है.’ सुबह ही सुबह रचना दूध वाले से झगड़ा कर रही थी, ‘‘क्यों, पहलवान, मैं क्या चली गई, तुम ने तो दूध देना ही बंद कर दिया.’’ ‘‘बिटिया, हम क्यों दूध बंद करेंगे? मांजी ने ही कहा कि बस, आधा किलो दे जाया करो. चाय के लिए बहुत है. क्या इसी घर में हम ने 4-4 किलो दूध नहीं दिया है?’’ ‘‘देखो, जब तक मैं हूं, 3 किलो दूध रोज चाहिए. बच्चे दोनों समय दूध लेते हैं. जब मैं चली जाऊं तो 2 किलो देना, मां मना करें या पिताजी.

यह मेरा हुक्म है, समझे?’’ ‘‘समझा, बिटिया, हम भी तो कहें, क्यों मांजी और बाबूजी कमजोर हो रहे हैं. यही तो खानेपीने की उम्र है. अभी दूध नहीं पिएंगे तो कब पिएंगे?’’ 18 रुपए का दूध रोज. मैं मन ही मन सोच रहा था कि पत्नी इशारे से दूध वाले को कुछ कहने का असफल प्रयत्न कर रही थी. ‘‘अंडे भी नहीं हैं. न मक्खन न डबल रोटी,’’ रचना चिल्ला रही थी, ‘‘आप लोग बीमार नहीं पड़ेंगे तो क्या होगा. बिट्टू, जा दौड़ कर नीचे से एक दर्जन अंडे ले आ और 500 ग्राम वाली मक्खन की टिकिया, नानाजी का नाम ले देना.’’ ‘‘मां, मैं भी जाऊं,’’ किट्टू बोला, ‘‘टाफी लाऊंगा. तुम्हारे लिए भी ले आऊं न?’’ ‘‘जा बाबा, जा, सिर मत खा,’’ रचना ने हंसते हुए कहा. हाथ दबा कर खर्च करने के चक्कर में बहुत मना करने पर भी पत्नी ने रसोई का काम संभाल लिया. जब दामाद आए तब तो किसी को फुरसत ही कहां. रोज बाजार कुछ न कुछ खरीदने जाना और नहीं तो यों ही घूमने के लिए. रिश्तेदार भी कई थे. कोई मिलने आया तो किसी के यहां मिलने गए. परिणाम यह हुआ कि पत्नी के लिए रसोई लक्ष्मण रेखा बन गई. दामाद की सारी फरमाइशें रचना मां को पहुंचा देती थी, ‘‘सास के हाथ के कबाब तो बस, लाजवाब होते हैं. उफ, पिछली दफा जो कीमापनीर खाया था, आज तक याद है. मुर्गमुसल्लम तो जो मां के हाथ का खाया था अशोक होटल में भी क्या बनेगा.’’ जब तक रचना पति और बच्चों के साथ वापस गई, मेरी पत्नी के सीने का दर्द वापस आ गया था, लेकिन दर्द के बारे में सोचने की फुरसत कहां थी. घर छोड़ कर दिल्ली जाने में 1 महीना रह गया था. कुछ सामान बेचा तो कुछ सहेजा. एक दिन 20-25 बक्सों का कारवां ले कर जब दिल्ली पहुंचे तो चमचमाते मुंह से पुत्र ने स्वागत किया और बहू ने सिर पर औपचारिक रूप से साड़ी का पल्ला खींचते हुए सादर पैर छू कर हमारा आशीर्वाद प्राप्त किया. पोता दादी से चिपक गया तो नन्ही पोती मेरी गोदी में चढ़ गई. सुबह जल्दी उठने की आदत थी. पुत्र का स्वर कानों में पड़ा, ‘‘सुनो, दूध 1 किलो ज्यादा लेना. मां और पिताजी सुबह नाश्ते में दूध लेते हैं.’’ बहू ने उत्तर दिया, ‘‘दूध का बिल बढ़ जाएगा. इतने पैसे कहां से आएंगे? और फिर अकेला दूध थोड़े ही है. अंडे भी आएंगे. मक्खन भी ज्यादा लगेगा…’’ पुत्र ने झुंझला कर कहा, ‘‘ओहो, वह हिसाबकिताब बाद में करना. मांबाप हमारे पास रहने आए हैं. उन्हें ठीक तरह से रखना हमारा कर्तव्य है.’’ ‘‘तो मैं कोई रोक रही हूं? यही तो कह रही हूं कि खर्च बढ़ेगा तो कुछ पैसों का बंदोबस्त भी करना पड़ेगा. बंधीबंधाई तनख्वाह के अलावा है क्या?’’ ‘‘देखो, समय से सब बंदोबस्त हो जाएगा. अभी तो तुम रोज दूध और अंडों का नाश्ता बना देना.’’ ‘‘ठीक है, बच्चों का दूध आधा कर दूंगी. एक समय ही पी लेंगे. अंडे रोज न बना कर 2-3 दिन में एक बार बना दूंगी.’’

‘‘अब जो ठीक समझो, करो,’’ बेटे ने कहा, ‘‘सेना के एक कप्तान से मैं ने दोस्ती की है. एक दिन बुला कर उसे दावत देनी है.’’ ‘‘वह किस खुशी में?’’ ‘‘अरे, जानती तो हो, आर्मी कैंटीन में सामान सस्ता मिलता है, एक दिन दावत देंगे तो साल भर सामान लाते रहेंगे.’’ ‘‘ठीक तो है, रंजना के यहां तो ढेर लगा है. जब पूछो, कहां से लिया है तो बस, इतरा कर कहती है कि मेजर साहब ने दिलवा दिया है.’’ जब नाश्ता करने बैठे तो मैं ने कहा, ‘‘अरे, यह दूध मेरे लिए क्यों रख दिया. अब कोई हमारी उम्र दूध पीने की है. लो, बेटा, तुम पी लो,’’ मैं ने अपना आधा प्याला पोते के आधे प्याले में डाल दिया. पत्नी ने कहा, ‘‘यह अंडा तो मुझे अब हजम नहीं होता. बहू, इन बच्चों को ही दे दिया करो. बाबा, डबल रोटी में इतना मक्खन लगा दिया…मैं तो बस, नाम मात्र का लेती हूं.’’ बहू ने कहा, ‘‘मांजी, ऐसे कैसे होगा? बच्चे तो रोज ही खाते हैं. आप जब तक हमारे पास हैं अच्छी तरह खाइए. लीजिए, आप ने भी दूध छोड़ दिया.’’ ‘‘मेरी सोना को दे दो. बच्चों को तो खूब दूध पीना चाहिए.’’ ‘‘हां, बेटा, मैं तो भूल ही गया था. तुम्हारी मां के सीने में दर्द रहता है. काफी दवा की पर जाता ही नहीं. अच्छा होता किसी डाक्टर को दिखा देते. है कोई अच्छा डाक्टर तुम्हारी जानपहचान का?’’ बेटे ने सोच कर उत्तर दिया, ‘‘मेरी जानपहचान का तो कोई है नहीं पर दफ्तर में पता करूंगा. हो सकता है एक्सरे कराना पड़े.’’ बहू ने तुरंत कहा, ‘‘अरे, कहां डाक्टर के चक्कर में पड़ोगे, यहां कोने में सड़क के उस पार घोड़े की नाल बनाने वाला एक लोहार है. बड़ी तारीफ है उस की. उस के पास एक खास दवा है. बड़े से बड़े दर्द ठीक कर दिए हैं उस ने. अरे, तुम्हें तो मालूम है, वही, जिस ने चमनलाल का बरसों पुराना दर्द ठीक किया था.’’

‘‘हां,’’ बेटे ने याद करते हुए कहा, ‘‘ठीक तो है. वह पैसे भी नहीं लेता. बस, कबूतरों को दाना खिलाने का शौक है. सो वही कहता है कि पैसों की जगह आप आधा किलो दाना डाल दो, वही काफी है.’’ मैं ने गहरी सांस ली. पत्नी साड़ी के कोने से मेज पर पड़ा डबल रोटी का टुकड़ा साफ कर रही थी. मेरी मुट्ठी भिंच गईं. मुझे लगा मेरी मुट्ठी में इस समय अनगिनत रुपए हैं. सोचने की बात सिर्फ यह थी कि इन्हें आज खत्म करूं या कल, परसों या कभी नहीं. बेटा दफ्तर जा रहा था. ‘‘सुनो,’’ उस ने बहू से कहा, ‘‘जरा कुछ रुपए दे दो. लौटते हुए गोश्त लेता आऊंगा, और रबड़ी भी. पिताजी को बहुत पसंद है न.’’ बहू ने झिड़क कर कहा, ‘‘अरे, पिताजी कोई भागे जा रहे हैं जो आज ही रबड़ी लानी है? रहा गोश्त, सो पाव आध पाव से तो काम चलेगा नहीं. कम से कम 1 किलो लाना पड़ेगा. मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. अब खाना ही है तो अगले महीने खाना.’’ ‘‘ठीक है,’’ कह कर बेटा चला गया. मुझे एक बार फिर लगा कि मेरी मुट्ठी में बहुत से पैसे हैं. मैं ने मुट्ठी कस रखी है. प्रतीक्षा है सिर्फ इस बात की कि कब अपनी मुट्ठी ढीली करूं. पत्नी ने कराहा. शायद सीने में फिर दर्द उठा था.

अंधेरे की छाया : किस बीमारी का शिकार हुई प्रमिला

महेंद्र सिंह ने अपनी पत्नी प्रमिला के कमरे में झांक कर देखा. अंदर पासपड़ोस की 5-6 महिलाएं बैठी थीं. वे न केवल प्रमिला का हालचाल पूछने आई थीं बल्कि उस से इसलिए भी बतिया रही थीं कि उस की दिलजोई होती रहे. जब से प्रमिला फालिज की शिकार हुई थी, महल्ले के जानपहचान वालों ने अपना यह रोज का क्रम बना लिया था कि 2-4 की टोलियों में सुबह से शाम तक उस का मन बहलाने के लिए उस के पास मौजूद रहते थे. पुरुष नीचे बैठक में महेंद्र सिंह के पास बैठ जाते थे औैर औरतें ऊपर प्रमिला के कमरे में फर्श पर बिछी दरी पर विराजमान रहती थीं.

वे लोग प्रमिला एवं महेंद्र की प्रत्येक छोटीबड़ी जरूरतों का ध्यान रखते थे. महेंद्र को पिछले 3-4 महीनों के दौरान उसे कुछ कहना या मांगना नहीं पड़ा था. आसपास मौजूद लोग मुंह से निकलने से पहले ही उस की जरूरत का एहसास कर लेते थे और तुरंत इस तरह उस की पूर्ति करते थे मानो वे उस घर के ही लोग हों. उस समय भी 2 औरतें प्रमिला की सेवाटहल में लगी थीं. एक स्टोव पर पानी गरम कर रही थी ताकि उसे रबर की थैली में भर कर प्रमिला के सुन्न अंगों का सेंक किया जा सके. दूसरी औरत प्रमिला के सुन्न हुए अंगों की मालिश कर रही थी ताकि पुट्ठों की अकड़न व पीड़ा कम हो. कमरे में झांकने से पहले महेंद्र सिंह ने सुना था कि प्रमिला वहां बैठी महिलाओं से कह रही थी, ‘‘तुम देखना, मेरा गौरव मेरी बीमारी का पत्र मिलते ही दौड़ादौड़ा चला आएगा. लाठी मारे से पानी जुदा थोड़े ही होता है. मां का दर्द उसे नहीं आएगा तो किस को आएगा? मेरी यह दशा देख कर वह मुझे पीठ पर उठाएउठाए फिरेगा. तुरंत मुझे दिल्ली ले जाएगा और बड़े से बड़े डाक्टर से मेरा इलाज कराएगा.’’ महेंद्र के कमरे में घुसते ही वहां मौन छा गया था. कोई महिला दबी जबान से बोली थी, ‘‘चलो, खिसको यहां से निठल्लियो, मुंशीजी चाची से कुछ जरूरी बातें करने आए हैं.’’ देखतेदेखते वहां बैठी स्त्रियां उठ कर कमरे के दूसरे दरवाजे से निकल गईं. महेंद्र्र ऐेनक ठीक करता हुआ प्रमिला के पलंग के समीप पहुंचा. उस ने बिस्तर पर लेटी हुई प्रमिला को ध्यान से देखा.

शरीर के पूरे बाएं भाग पर पक्षाघात का असर हुआ था. मुंह पर भी हलका सा टेढ़ापन आ गया था और बोलने में जीभ लड़खड़ाने लगी थी. महेंद्र प्रमिला से आंखें चार होते ही जबरदस्ती मुसकराया था और पूछा था, ‘‘नए इंजेक्शनों से कोई फर्क पड़ा?’’ ‘‘हां जी, दर्द बहुत कम हो गया है,’’ प्रमिला ने लड़खड़ाती आवाज में जवाब दिया था और बाएं हाथ को थोड़ा उठा कर बताया था, ‘‘यह देखो, अब तो मैं हाथ को थोड़ा हरकत दे सकती हूं. पहले तो दर्द के मारे जोर ही नहीं दे पाती थी.’’ ‘‘और टांग?’’ ‘‘यह तो बिलकुल पथरा गई है. जाने कब तक मैं यों ही अपंगों की तरह पलंग पर पड़ी रहूंगी.’’ ‘‘बीमारी आती हाथी की चाल से है औैर जाती चींटी की चाल से है. देखो, 3 महीने के इलाज से कितना मामूली अंतर आया है, लेकिन अब मैं तुम्हारा और इलाज नहीं करा सकता. सारा पैसा खत्म हो चुका है. तमाम जेवर भी ठिकाने लग गए हैं. बस, 50 रुपए और तुम्हारे 6 तोले के कंगन और चूडि़यां बची हैं.’’ ‘‘हां,’’ प्रमिला ने लंबी सांस ली, ‘‘तुम तो पहले ही बहुत सारा रुपया गौरव और उस के बच्चों के लिए यह घर बनाने में लगा चुके थे. पर वे नहीं आए. अब मेरी बीमारी की सुन कर तो आएंगे. फिर मेरा गौरव रुपयों का ढेर…’’ ‘‘नहीं, मैं और इंतजार नहीं कर सकता,’’ महेंद्र बाहर जाते हुए बोला, ‘‘तुम इंतजार कर लो अपने बेटे का. मैं डा. बिहारी के पास जा रहा हूं, कंपाउंडर की नौकरी के लिए…’’ ‘‘तुम करोगे वही जो तुम्हारे मन में होगा,’’ प्रमिला चिढ़ कर बोली, ‘‘आने दो गौरव को, एक मिनट में छुड़वा देगा वह तुम्हारी नौकरी.’’ ‘‘आने तो दें,’’ महेंद्र बाहर निकल कर जोर से बोला, ‘‘लो, सलमा बाजी और उन की बहुएं आ गई हैं तुम्हारी सेवा को.’’ ‘‘हांहां तुम जाओ, मेरी सेवा करने वाले बहुत हैं यहां. पूरा महल्ला क्या, पूरा कसबा मेरा परिवार है. अच्छी थी तो मैं इन सब के घरों पर जा कर सिलाईकढ़ाई सिखाती थी. कितना आनंद आता था दूसरों की सेवा में. ऐसा सुख तो अपनी संतान की सेवा में भी नहीं मिलता था.’’ ‘‘हां, प्रमिला भाभी,’’ सलमा ने अपनी दोनों बहुओं के साथ कमरे में आ कर आदाब किया और प्रमिला की बात के जवाब में बोली, ‘‘तुम से ज्यादा मुंशीजी को मजा आता था दूसरों की खिदमत में.

अपनी दवाओं की दुकान लुटा दी दीनदुखियों की सेवा में. डाक्टरों का धंधा चौपट कर रखा था इन्होंने. कहते थे गौरव हजारों रुपया महीना कमाता है, अब मुझे दुकान की क्या जरूरत है. बस, गरीबों की खिदमत के लिए ही खोल रखी है. वरना घर बैठ कर आराम करने के दिन हैं.’’ ‘‘ठीक कहती हो, बाजी,’’ प्रमिला का कलेजा फटने लगा, ‘‘क्या दिन थे वे भी. कैसा सुखी परिवार था हमारा.’’ कभी महेंद्र और प्रमिला का परिवार बहुत सुखी था. दुख तो जैसे उन लोगों ने देखा ही नहीं था. जहां आज शानदार गौरव निवास खड़ा है वहां कभी 2 कमरों का एक कच्चापक्का घर था. महेंद्र का परिवार छोटा सा था. पतिपत्नी और इकलौता बेटा गौरव. महेंद्र की स्टेशन रोड पर दवाओं की दुकान थी, जिस से अच्छी आय थी. उसी आय से उन्होंने गौरव को उच्च शिक्षादीक्षा दिला कर इस योग्य बनाया था कि आज वह दिल्ली में मुख्य इंजीनियर है. अशोक विहार में उस की लाखों की कोठी है. वह देश का हाकी का जानामाना खिलाड़ी भी तो था. बड़ेबडे़ लोगों तक उस की पहुंच थी और आएदिन देश की विख्यात पत्रपत्रिकाओं में उस के चर्चे होते रहते थे. गौरव ने दिल्ली में नौकरी मिलने के साथ ही अपनी एक प्रशंसक शीला से शादी कर ली थी. महेंद्र व प्रमिला ने सहर्ष खुद दिल्ली जा कर अपने हाथों से यह कार्य संपन्न किया था. शीला न केवल बहुत सुंदर थी बल्कि बहुत धनवान एवं कुलीन घराने से थी. बस, यहीं वे चूक गए. चूंकि शादी गौरव एवं शीला की सहमति से हुई थी, इसलिए वे महेंद्र और प्रमिला को अपनी हर बात से अलग रखने लगे. यहां तक कि शीला शादी के बाद सिर्फ एक बार अपनी ससुराल नसीराबाद आई थी.

फिर वह उन्हें गंवार और उन के घर को जानवरों के रहने का तबेला कह कर दिल्ली चली गई थी. पिछले 15 वर्षों में उस ने कभी पलट कर नहीं झांका था. महेंद्र और प्रमिला पहले तो खुद भी ख्ंिचेखिंचे रहे थे, लेकिन जब उन के पोता और पोती शिखा औैर सुदीप हो गए तो वे खुद को न रोक सके. किसी न किसी बहाने वे बहूबेटे के पास दिल्ली पहुंच जाते. गौरव और शीला उन का स्वागत करते, उन्हें पूरा मानसम्मान देते. लेकिन 2-4 दिन बाद वे अपने बड़प्पन के अधिकारों का प्रयोग शुरू कर देते, उन के निजी जीवन में हस्तक्षेप करना शुरू कर देते. वे उन्हें अपने फैसले मानने और उन की इच्छानुसार चलने पर विवश करते. यहीं बात बिगड़ जाती. संबंध बोझ लगने लगते और छोटीछोटी बातों को ले कर कहासुनी इतनी बढ़ जाती कि महेंद्र और प्रमिला को वहां से भागना पड़ जाता. प्रमिला और महेंद्र आखिरी बार शीला के पिता की मृत्यु पर दिल्ली गए थे. तब शिखा और सुदीप क्रमश: 10 और 8 वर्ष के हो चुके थे.

उन के मन में हर बात को जानने और समझने की जिज्ञासा थी. उन्होंने दादादादी से बारबार आग्रह किया था कि वे उन्हें अपने कसबे ले जाएं ताकि वे वहां का जीवन व रहनसहन देख सकें. गौरव के दिल में मांबाप के लिए बहुत प्यार व आदर था. उस ने घर ठीक कराने के लिए शीला से छिपा कर मां को 10 हजार रुपए दे दिए ताकि शीला को बच्चों को ले कर वहां जाने में कोई आपत्ति न हो. परंतु प्रमिला की असावधानी से बात खुल गई. सासबहू में महाभारत छिड़ गया और एकदूसरे की शक्ल न देखने की सौगंध खा ली गई. परंतु नसीराबाद पहुंचते ही प्रमिला का क्रोध शांत हो गया. वह पोतापोती और गौरव को नसीराबाद लाने के लिए मकान बनवाने लगी. गृहप्रवेश के दिन वे नहीं आए तो प्रमिला को ऐसा दुख पहुंचा कि वह पक्षाघात का शिकार हो गईर् औैर अब प्रमिला को चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दीख रहा था.

महेंद्र डा. बिहारी के यहां से लौटा तो अंधेरा हो चुका था. पर घर का दृश्य देख कर वह हक्काबक्का रह गया. प्रमिला का कमरा अड़ोसपड़ोस के लोगों से भरा हुआ था. प्रमिला अपने पलंग पर रखी नोटों की गड्डियां उठाउठा कर एक अजनबी आदमी पर फेंकती हुई चीख रही थी, ‘‘ले जाओ इन को मेरे पास से और उस से कहना, न मुझे इन की जरूरत है, न उस की.’’ आदमी नोट उठा कर बौखलाया हुआ बाहर आ गया था. उसे भीतर खड़े लोगों ने जबरदस्ती बाहर धकेल दिया था. कमरे से कईकई तरह की आवाजें आ रही थीं. ‘‘जाओ, भाई साहब, जाओ. देखते नहीं यह कितनी बीमार हैं.’’ ‘‘रक्तचाप बढ़ गया तो फिर कोई नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी. जल्दी निकालो इन्हें यहां से.’’ और 2 लड़के उस आदमी को बाजुओं से पकड़ कर जबरदस्ती बाहर ले गए. वह अजनबी महेंद्र से टकरताटकराता बचा था. महेंद्र ने भी गुस्से में पूछा था, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘मैं गौरव का निजी सहायक हूं, जगदीश. साहब ने ये 50 हजार रुपए भेजे हैं और यह पत्र.’’ महेंद्र ने नोटोें को तो नहीं छुआ, लेकिन जगदीश के हाथ से पत्र ले लिया. पत्र को पहले ही खोला जा चुका था और शायद पढ़ा भी जा चुका था. महेंद्र ने तत्काल फटे लिफाफे से पत्र निकाल कर खोला. पत्र गौरव ने लिखा था: पूज्य पिताजी एवं माताजी, सादर प्रणाम, आप का पत्र मिला. माताजी के बारे में पढ़ कर बहुत दुख हुआ. मन तो करता है कि उड़ कर आ जाऊं, मगर मजबूरी है. शीला और बच्चे इसलिए नहीं आ सकते, क्योंकि वे परीक्षा की तैयारी में लगे हैं. मैं एशियाड के कारण इतना व्यस्त हूं कि दम लेने की भी फुरसत नहीं है. बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर ये चंद पंक्तियां लिख रहा हूं. मैं समय मिलते ही आऊंगा. फिलहाल अपने सहायक को 50 हजार रुपए दे कर भेज रहा हूं ताकि मां का उचित इलाज हो सके. आप ने लिखा है कि आप ने हर तरफ से पैसा समेट कर नए मकान के निर्माण में लगा दिया है, जो बचा मां की बीमारी खा गईर्.

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यह आप ने ठीक नहीं किया. बेकार मकान बनवाया, हम लोगों के लिए वह किसी काम का नहीं है. हम कभी नसीराबाद आ कर नहीं बसेंगे. मां की बीमारी पर भी व्यर्थ खर्च किया. पक्षाघात के रोग का कोई इलाज नहीं है. मैं ने कईर् विशेषज्ञ डाक्टरों से पूछा है. उन सब का यही कहना है मां को अधिकाधिक आराम दें. यही इलाज है इस रोग का. मां को दिल्ली लाने की भूल तो कभी न करें. यात्रा उन के लिए बहुत कष्टदायक होगी. रक्तचाप बढ़ गया तो दूसरा आक्रमण जानलेवा सिद्ध होगा. एक्यूपंक्चर विधि से भी इस रोग में कोई लाभ नहीं होता. सब धोखा है… महेंद्र इस से आगे न पढ़ सका. उस का मन हुआ कि उस पत्र को लाने वाले के मुंह पर दे मारे. लेकिन उस में उस का क्या दोष था. उस ने बड़ी कठिनाई से अपने को संभाला और जगदीश को पत्र लौटाते हुए कहा, ‘‘आप उस से जा कर वही कहिए जो उसे जन्म देने वाली ने कहा है. मेरी तरफ से इतना और जोड़ दीजिए कि हम तो उस के लिए मरे हुए ही थे, आज से वह हमारे लिए मर गया.

काश, वह पैदा होते ही मर जाता.’’ जगदीश सिर झुका कर चला गया. महेंद्र प्रमिला के कमरे में घुसा. उस ने देखा कि वहां सब लोग मुसकरा रहे थे. प्रमिला की आंखें भीग रही थीं, लेकिन उस के होंठ बहुत दिनों के बाद हंसना चाह रहे थे. महेंद्र ने प्रमिला के पास जाते हुए कहा, ‘‘तुम ने बिलकुल ठीक किया, पम्मी.’’ तभी बिजली चली गई. कमरे में अंधेरा छा गया. प्रमिला ने देखा कि अंधेरे में खड़े लोगों की परछाइयां उस के समीप आती जा रही हैं. कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, कोई मोमबत्ती जलाओ.’’ ‘‘नहीं, कमरे में अंधेरा रहने दो,’’ प्रमिला तत्काल चीख उठी, ‘‘यह अंधेरा मुझे अच्छा लग रहा है. कहते हैं कि अंधेरे में साया भी साथ छोड़ देता है. मगर मेरे चारों तरफ फैले अंधेरे में तो साए ही साए हैं. मैं हाथ बढ़ा कर इन सायों का सहारा ले सकती हूं,’’ प्रमिला ने पास खड़े लोगों को छूना शुरू किया, ‘‘अब मुझे अंधेरे से डर नहीं लगता, अंधेरे में भी कुछ साए हैं जो धोखा नहीं हैं, ये साए नहीं हैं बल्कि मेरे अपने हैं, मेरे असली संबंधी, मेरा सहारा…यह तुम हो न जी?’’ ‘‘हां, पम्मी, यह मैं हूं,’’ महेंद्र ने भर्राई आवाज में कहा, ‘‘तुम्हारे अंधेरों का भी साथी, तुम्हारा साया.’’ ‘‘तुम नौकरी करना डा. बिहारी की. रोगियों की सेवा करना. अपनी संतान से भी ज्यादा सुख मिलता है परोपकार में. मुझे संभालने वाले यहां मेरे अपने बहुत हैं. मैं निचली मंजिल पर सिलाई स्कूल खोल लूंगी, मेरे कंगन औैर चूडि़यां बेच कर सिलाई की कुछ मशीनें ले आना औैर पहियों वाली एक कुरसी ला देना.’’ ‘‘पम्मी.’’ ‘‘हां जी, मेरा एक हाथ तो चलता है. ऊपर की मंजिल किराए पर उठा देना. वह पैसा भी मैं अपने इन परिवार वालों की भलाई पर खर्च करना चाहती हूं. हमारे मरने के बाद हमारा जो कुछ है, इन्हें ही तो मिलेगा.’’ एकाएक बिजली आ गई. कमरे में उजाला फैल गया. सब के साथ महेंद्र ने देखा था कि प्रमिला अपने एक हाथ पर जोर लगा कर उठ बैठी थी. इस से पहले वह सहारा देने पर ही बैठ पाती थी. महेंद्र ने खुशी से छलकती आवाज में कहा, ‘‘पम्पी, तुम तो बिना सहारे के उठ बैठी हो.’’ ‘‘हां, इनसान को झूठे सहारे ही बेसहारा करते हैं.

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मैं इस आशा में पड़ी रही कि कोई आएगा, मुझे अपनी पीठ पर उठा कर ले जाएगा औैर दुनिया के बड़े से बड़े डाक्टर से मेरा इलाज कराएगा. मेरा यह झूठा सहारा खत्म हो चुका है. मुझे सच्चा सहारा मिल चुका है…अपनी हिम्मत का सहारा. फिर मुझे किस बात की कमी है? मेरा इतना बड़ा परिवार जो खड़ा है यहां, जो जरा से पुकारने पर दौड़ कर मेरे चारों ओर इकट्ठा हो जाता है.’’ यह सुन कर महेंद्र की छलछलाई आंखें बरस पड़ीं. उसे रोता देख कर वहां खड़े लोगों की आंखें भी गीली होने लगीं. महेंद्र आंसुओं को पोंछते हुए सोच रहा था, ‘ये कैसे दुख हैं, जो बूंद बन कर मन की सीप में टपकते हैं और प्यार व त्याग की गरमी पा कर खुशी के मोती बन जाते हैं.

पतिव्रता: कैसा था वैदेही का पति

पूरे समर्पण के साथ पतिव्रता का धर्म निभाने वाली वैदेही के प्रति उस के पति की मानवीय संवेदनाएं दम तोड़ चुकी थीं. रात की खामोशी को तोड़ते हुए दरवाजा पीटने की बढ़ती आवाज से चौंक कर भास्कर बाबू जाग गए थे. घड़ी पर नजर डाली तो रात के 2 बजे थे. इस समय कौन हो सकता है? यह सोच कर दिल किसी आशंका से धड़क उठा.

उन्होंने एक नजर गहरी नींद में सोती अपनी पत्नी सौंदर्या पर डाली और दूसरे ही क्षण उसे झकझोर कर जगा दिया. ‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. ‘‘क्या हुआ, यह तो मुझे भी नहीं पता पर काफी देर से कोई हमारा दरवाजा पीट रहा है,’’ भास्कर ने स्पष्ट किया. ‘‘अच्छा, पर आधी रात को कौन हो सकता है?’’ सौंदर्या ने कहा और दरवाजे के पास जा कर खड़ी हो गई. ‘‘कौन है? कौन दरवाजा पीट रहा है?’’ उस ने प्रश्न किया. ‘‘आंटी, मैं हूं प्रिंसी.’’ ‘‘यह तो धीरज बाबू की बेटी प्रिंसी का स्वर है,’’ सौंदर्या बोली और उस ने दरवाजा खोल दिया. देखा तो प्रिंसी और उस की छोटी बहन शुचि खड़ी हैं. ‘‘क्या हुआ, बेटी?’’ सौंदर्या ने चिंतित स्वर में पूछा. ‘‘मेरी मम्मी के सिर में चोट लगी है, आंटी. बहुत खून बह रहा है,’’ प्रिंसी बदहवास स्वर में बोली. ‘‘तुम्हारे पापा कहां हैं?’’ ‘‘पता नहीं आंटी, मम्मी को मारनेपीटने के बाद कहीं चले गए,’’ प्रिंसी सुबक उठी. सौंदर्या दोनों बच्चियों का हाथ थामे सामने के फ्लैट में चली गई. वहां का दृश्य देख कर तो उस के होश उड़ गए. उस की पड़ोसिन वैदेही खून में लथपथ बेसुध पड़ी थी.

वह उलटे पांव लगभग दौड़ते हुए अपने घर पहुंची और पति से बोली, ‘‘भास्कर, वैदेही बेहोश पड़ी है. सिर से खून बह रहा है. लगता है उस के पति भास्कर ने सिर फाड़ दिया है. बच्चियां रोरो कर बेहाल हुई जा रही हैं.’’ ‘‘तो कहो न उस के पति से कि वह अस्पताल ले जाए, हम कब तक पड़ोसियों के झमेले में पड़ते रहेंगे.’’ ‘‘वह घर में नहीं है.’’ ‘‘क्या? घर में नहीं है….पत्नी को मरने के लिए छोड़ कर आधी रात को कहां भाग गया डरपोक?’’ ‘‘मुझे क्या पता, पर जल्दी कुछ करो नहीं तो वैदेही मर जाएगी.’’ ‘‘तुम्हीं बताओ, आधी रात को बच्चों को अकेले छोड़ कर कहां जाएं?’’ भास्कर खीज उठा. ‘‘तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं, बस, जल्दी से फोन कर के एंबुलेंस बुला लो. तब तक मैं श्यामा बहन को जगा कर बच्चों के पास रहने की उन से विनती करती हूं,’’ इतना कह कर सौंदर्या पड़ोसिन श्यामा के दरवाजे पर दस्तक देने चली गई थी और भास्कर बेमन से फोन कर एंबुलेंस बुलाने की कोशिश करने लगा. श्यामा सुनते ही दौड़ी आई और दोनों पड़ोसिनें मिल कर वैदेही के बहते खून को रोकने की कोशिश करने लगीं. एंबुलेंस आते ही बच्चों को श्यामा की देखरेख में छोड़ कर भास्कर और सौंदर्या वैदेही को ले कर अस्पताल चले गए.

‘‘इस बेचारी की ऐसी दशा किस ने की है? कैसे इस का सिर फटा है?’’ आपातकालीन कक्ष की नर्स ने वैदेही को देखते ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी. ‘‘देखिए, सिस्टर, यह समय इन सब बातों को जानने का नहीं है. आप तुरंत इन की चिकित्सा शुरू कीजिए.’’ ‘‘यह तो पुलिस केस है. आप इन्हें सरकारी अस्पताल ले जाइए,’’ नर्स पर वैदेही की गंभीर दशा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. भास्कर नर्स के साथ बहस करने के बजाय मरीज को सरकारी अस्पताल ले कर चल पडे़. वैदेही को अस्पताल में दाखिल करते ही गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया. कक्ष के बाहर बैठे भास्कर और सौंदर्या वैदेही के होश में आने की प्रतीक्षा करने लगे. बहुत देर से खुद पर नियंत्रण रखती सौंदर्या अचानक फूटफूट कर रो पड़ी. झिलमिलाते आंसुओं के बीच पिछले कुछ समय की घटनाएं उस के दिलोदिमाग पर हथौडे़ जैसी चोट कर रही थीं. कुछ बातें तो उस के स्मृति पटल पर आज भी ज्यों की त्यों अंकित थीं. उस रात कुछ चीखनेचिल्लाने के स्वर सुन कर सौंदर्या चौंक कर उठ बैठी थी. कुछ देर ध्यान से सुनने के बाद उस की समझ में आया था कि जो कुछ उस ने सुना वह कोई स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत थी. चीखनेचिल्लाने के स्वर लगातार पड़ोस से आ रहे थे. अवश्य ही कहीं कोई मारपीट पर उतर आया था. सौंदर्या ने पास सोते भास्कर पर एक नजर डाली थी. क्या गहरी नींद है.

एक बार सोचा कि भास्कर को जगा दे पर उस की गहरी नींद देख कर साहस नहीं हुआ था. वह करवट बदल कर खुद भी सोने का उपक्रम करने लगी पर चीखनेचिल्लाने के पूर्ववत आते स्वर उसे परेशान करते रहे थे. सौंदर्या सुबह उठी तो सिर बहुत भारी था. ‘क्या हो गया? सुबह के 7 बजे हैं. अब सो कर उठी हो? आज बच्चों की छुट्टी है क्या?’ भास्कर ने चाय की प्याली थामे कमरे में प्रवेश किया था. ‘पता नहीं क्या हुआ है जो सुबह ही सुबह सिरदर्द से फटा जा रहा है.’ ‘चाय पी कर कुछ देर सो जाओ. जगह बदल गई है इसीलिए शायद रात में ठीक से नींद न आई हो,’ भास्कर ने आश्वासन दिया तो सौंदर्या रोंआसी हो उठी थी. ‘सोचा था अपने नए फ्लैट में आराम से चैन की बंसी बजाएंगे. पर यहां तो पहली ही रात को सारा रोमांच जाता रहा.’ ‘ऐसा क्या हो गया? उस दिन तो तुम बेहद उत्साहित थीं कि पुरानी गलियों से पीछा छूटा. नई पौश कालोनी मेें सभ्य और सलीकेदार लोगों के बीच रहने का अवसर मिलेगा,’ भास्कर ने प्रश्न किया था. ‘यहां तो पहली रात को ही भ्रम टूट गया.’ ‘ऐसा क्या हो गया जो सारी रात नींद नहीं आई,’ भास्कर ने कुछ रोमांटिक अंदाज में कहा, ‘प्रिय, देखो तो कितना सुंदर परिदृश्य है. उगता हुआ सूरज और दूर तक फैला हुआ सजासंवरा हराभरा बगीचा. एक अपना वह पुराना बारादरी महल्ला था जहां सूर्य निकलने से पहले ही लोग कुत्तेबिल्लियों की तरह झगड़ते थे. वह भी छोटीछोटी बातों को ले कर. ‘इतना प्रसन्न होने की जरूरत नहीं है. वह घर हम अवश्य छोड़ आए हैं पर वहां का वातावरण हमारे साथ ही आया है.’ ‘क्या तात्पर्य है तुम्हारा?’ ‘यही कि जगह बदलने से मानव स्वभाव नहीं बदल जाता. रात को पड़ोस के फ्लैट से रोनेबिलखने के ऐसे दयनीय स्वर उभर रहे थे कि मेरी तो आंखों की नींद ही उड़ गई. बच्चे भी जोर से चीख कर कह रहे थे कि पापा मत मारो, मत मारो मम्मी को.’ ‘अच्छा, मैं ने तो समझा था कि यह सभ्य लोगों की बस्ती है, पुरानी बारादरी थोडे़ ही है. यहां के लोग तो मानवीय संबंधों का महत्त्व समझते होंगे पर लगता है कि…

सौंदर्या ने पति की बात बीच में काट कर वाक्य पूरा किया, ‘कि मानव स्वभाव कभी नहीं बदलता, फिर चाहे वह पुरानी बारादरी महल्ला हो या फिर शहर का सभ्य सुसंस्कृत आधुनिक महल्ला.’ ‘तुम ने मुझे जगाया क्यों नहीं, मैं तभी जा कर उस वीर पति को सबक सिखा देता. अपने से कमजोर पर रौब दिखाना, हाथ उठाना बड़ा सरल है. ऐसे लोगों के तो हाथ तोड़ कर हाथ में दे देना चाहिए.’ ‘देखो, बारादरी की बात अलग थी. यहां हम नए आए हैं. हम क्यों व्यर्थ ही दूसरों के फटे में पांव डालें,’ सौंदर्या ने सलाह दी. ‘यही तो बुराई है हम भारतीयों में, पड़ोस में खून तक हो जाए पर कोई खिड़की तक नहीं खुलती,’ भास्कर खीज गया था. दिनचर्या शुरू हुई तो रात की बात सौंदर्या भूल ही गई थी पर नीलम और नीलेश को स्कूल बस मेें बिठा कर लौटी तो सामने के फ्लैट से 3 प्यारी सी बच्चियों को निकलते देख कर ठिठक गई थी. सब से बड़ी 10 वर्षीय और दूसरी दोनों उस से छोटी थीं. तीनों लड़कियां मानों सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थीं. सीढि़यां चढ़ते ही सामने के फ्लैट का दरवाजा पकडे़ एक महिला खड़ी थी.

दूधिया रंगत, तीखे नाकनक्श. सौंदर्या ने महिला का अभिवादन किया तो वह मुसकरा दी थी. बेहद उदास फीकी सी मुसकान. ‘मैं आप की नई पड़ोसिन सौंदर्या हूं,’ उस ने अपना परिचय दिया था. ‘जी, मैं वैदेही’ इतना कहतेकहते उस ने अपने फ्लैट में घुस कर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था, मानो कोई उस का पीछा कर रहा हो. भारी कदमों से सौंदर्या अपने फ्लैट में आई थी. अजीब बस्ती है. यहां कोई किसी से बात तक नहीं करता. इस से तो अपनी पुरानी बारादरी अच्छी थी कि लोग आतेजाते हालचाल तो पूछ लेते थे. दालचावल बीनते, सब्जी काटते पड़ोसिनें बालकनी में भी छत पर खड़ी हो सुखदुख की बातें तो कर लेती थीं और मन हलका हो जाता था. पर इस नए परिवेश में तो दो मीठे बोल सुनने को मन तरस जाता था. यही क्रम जब हर 2-3 दिन पर दोहराया जाने लगा तो सौंदर्या का जीना दूभर हो गया. बारादरी में तो ऐसा कुछ होने पर पड़ोसी मिल कर बात को सुलझाने का प्रयत्न करते थे, पर यहां तो भास्कर ने साफ कह दिया था कि वह इस झमेले में नहीं पड़ने वाला. और वह कानों में रूई के फाहे लगा कर चैन की नींद सोता था. पड़ोसियों के पचडे़ में न पड़ने के अपने फैसले पर भास्कर भी अधिक दिनों तक टिक नहीं पाया. हुआ यों कि कार्यालय से लौटते समय अपने फ्लैट के ठीक सामने वाले फ्लैट के पड़ोसी धीरज द्वारा अपनी पत्नी पर लातघूंसों की बरसात को भास्कर सह नहीं सका था.

उस ने लपक कर उस का गिरेबान पकड़ा था और दोचार हाथ जमा दिए. ‘मैं तो आप को सज्जन इनसान समझता था पर आप का व्यवहार तो जानवरों से भी गयागुजरा निकला,’ भास्कर ने पड़ोसी की बांह इस प्रकार मरोड़ी कि वह दर्द से कराह उठा था. भास्कर ने जैसे ही धीरज का हाथ छोड़ा वह शेर हो गया. ‘आप होते कौन हैं हमारे व्यक्तिगत मामलों में दखल देने वाले. मेरी पत्नी है वह. मेरी इच्छा, मैं उस से कैसा भी व्यवहार करूं.’ ‘लानत है तुम्हारे पति होने पर जो मारपीट को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हो,’ दांत पीसते हुए भास्कर पड़ोसी की ओर बढ़ा पर दूसरे ही क्षण वैदेही हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगी थी. ‘भाई साहब, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं, आप हमारे बीच पड़ कर नई मुसीबत न खड़ी करें.’ भास्कर को झटका सा लगा था. दूसरी ओर अपने फ्लैट का द्वार खोले सौंदर्या खड़ी थी. वैदेही पर एक पैनी नजर डाल कर भास्कर अपने फ्लैट की ओर मुड़ गया था. सौंदर्या उस के पीछे आई थी. वह सौंदर्या पर ही बरस पड़ा था. ‘कोई जरूरत नहीं है ऐसे पड़ोसियों से सहानुभूति रखने की. अपने काम से काम रखो, पड़ोस में कोई मरे या जिए. नहीं सहन होता तो दरवाजेखिड़कियां बंद कर लो, कानों में रूई डाल लो और चैन की नींद सो जाओ.’ सौंदर्या भास्कर की बात भली प्रकार समझती थी. उस का क्रोध सही था पर चुप रहने के अलावा किया भी क्या जा सकता था. धीरेधीरे सौंदर्या और वैदेही के बीच मित्रता पनपने लगी थी. ‘क्या है वैदेही, ऐसे भी कोई अत्याचार सहता है क्या? सिर पर गुलम्मा पड़ा है, आंखों के नीचे नील पडे़ हैं जगहजगह चोट के निशान हैं… तुम कुछ करती क्यों नहीं,’ एक दिन सौंदर्या ने पूछ ही लिया था. ‘क्या करूं दीदी, तुम्हीं बताओ. मेरे पिता और भाइयों ने साम, दाम, दंड, भेद सभी का प्रयोग किया पर कुछ नहीं हुआ. आखिर उन्होंने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया. मुझे तो लगता है एक दिन ऐसे ही मेरा अंत आ जाएगा.’ ‘क्या कह रही हो. इस आधुनिक युग में भी औरतों की ऐसी दुर्दशा? मुझे तो तुम्हारी बातें आदिम युग की जान पड़ती हैं.’ ‘समय भले ही बदला हो दीदी पर समाज नहीं बदला. जिस समाज में सीताद्रौपदी जैसी महारानियों की भी घोर अवमानना हुई हो वहां मेरी जैसी साधारण औरत किस खेत की मूली है.’ ‘मैं नहीं मानती, पतिपत्नी यदि एकदूसरे का सम्मान न करें तो दांपत्य का अर्थ ही क्या है.’ ‘हमारे समाज में यह संबंध स्वामी और सेवक का है,’ वैदेही बोली थी.

‘बहस में तो तुम से कोई जीत नहीं सकता. इतनी अच्छी बातें करती हो तुम पर धीरज को समझाती क्यों नहीं,’ सौंदर्या मुसकरा दी थी. ‘समझाया इनसान को जाता है हैवान को नहीं,’ वैदेही की आंखें डबडबा आईं और गला भर आया था. सौंदर्या गहन चिकित्सा कक्ष के बाहर बेंच पर बैठी थी कि चौंक कर उठ खड़ी हुई. अचानक ही वर्तमान में लौट आई वह. ‘‘मरीज को होश आ गया है,’’ सामने खड़ी नर्स कह रही थी, ‘‘आप चाहें तो मरीज से मिल सकती हैं.’’ सौंदर्या को देखते ही वैदेही की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली. ‘‘मैं घर चलता हूं. कल काम पर भी जाना है,’’ भास्कर ने कहा. ‘‘भाई साहब, अब भी नाराज हैं क्या? कोई भूल हो गई हो तो क्षमा कर दीजिए इस अभागिन को,’’ वैदेही का स्वर बेहद धीमा था, मानो कहीं दूर से आ रहा हो. ‘‘गांधी नगर में मेरी बहन रहती है. उसे आप फोन कर दीजिएगा,’’ इतना कह कर वैदेही ने फोन नंबर दिया पर वह चिंतित थी कि न जाने कब तक अस्पताल में रहना पड़ेगा. भास्कर घर पहुंचा तो धीरज वापस आ चुका था. उसे देख कर बाहर निकल आया. ‘‘वैदेही कहां है?’’ उस ने प्रश्न किया. ‘‘कौन वैदेही? मैं किसी वैदेही को नहीं जानता,’’ भास्कर तीखे स्वर में बोला. ‘‘देखो, सीधे से बता दो नहीं तो मैं पुलिस को सूचित करूंगा,’’ धीरज ने धमकी दी. ‘‘उस की चिंता मत करो, पुलिस खुद तुम्हें ढूंढ़ती आ रही होगी.

वैसे तुम्हारी पतिव्रता पत्नी तो तुम्हारे विरोध में कुछ कहेगी नहीं, पर हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं,’’ भास्कर का क्रोध हर पल बढ़ता जा रहा था. तभी भास्कर ने देखा कि उस माउंट अपार्टमेंट के फ्लैटों के दरवाजे एकएक कर खुल गए थे और उन में रहने वाले लोग मुट्ठियां ताने धीरज की ओर बढ़ने लगे थे. ‘‘इस राक्षस को सबक हम सिखाएंगे,’’ वे चीख रहे थे. भास्कर के होंठों पर मुसकान खेल गई. इस सभ्यसुसंस्कृत लोगों की बस्ती में भी मानवीय संवेदना अभी पूरी तरह मरी नहीं है. उसे वैदेही और उस की बच्चियों के भविष्य के लिए आशा की नई किरण नजर आई. उधर धीरज वहां से भागने की राह न पा कर हाथ जोडे़ सब से दया की भीख मांग रहा था.

प्यार : निखिल अपनी पत्नी से क्यों दूर होने लगा था

कहने को निखिल मुझ से बहुत प्यार करते हैं. सभी कहते हैं कि निखिल जैसा पति संयोग से मिलता है. घर में सभी सुखसुविधाएं हैं. मैं जो चाहती हूं वह मुझे मिल जाता है लेकिन लोग यह क्यों नहीं समझते कि मैं इनसान हूं. मुझे घर में सजी रखी वस्तुओं से ज्यादा छोटेछोटे खुशी के पलों की जरूरत है.

शादी के इतने साल बाद भी मुझे यह याद नहीं पड़ता कि कभी निखिल ने मेरे पास बैठ कर मेरा हाथ पकड़ कर यह पूछा हो कि मेघा, तुम खुश तो हो या मैं तुम्हें उतना समय नहीं दे पाता जितना मुझे देना चाहिए लेकिन फिर भी मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. निखिल और मुझ में हमेशा एक दूरी ही रही. मैं अपने उस दोस्त को निखिल में कभी नहीं देख पाई जो एक लड़की अपने पति में ढूंढ़ती है. मैं कभी अपने मन की बात निखिल से नहीं कह पाई. मुझे निखिल के रूप में हमसफर तो मिला लेकिन साथी कभी नहीं मिला. इतने अपनों के होते हुए भी आज मैं बिलकुल अकेली हूं. जिस रिश्ते में मैं ने प्यार की उम्मीद की थी, मेरे उसी रिश्ते में इतनी दूरी है कि एक समुद्र भी छोटा पड़ जाए. मैं अपने इस रिश्ते को कभी प्यार का नाम नहीं दे पाई. मेरे लिए वह बस, एक समझौता ही बन कर रह गया जिसे मुझे निभाना था…चाहे घुटघुट कर ही सही. मैं ने धीरेधीरे अपने हालात से समझौता करना सीख लिया था.

 

अपने आसपास से छोटीछोटी खुशियों के पल समेट कर उन्हीं को अपने जीने की वजह बना लिया था. मैं ने इस के लिए एक स्कूल में नौकरी कर ली थी, जहां बच्चों की छोटीछोटी खुशियों में मैं अपनी खुशियां भी ढूंढ़ लेती थी. बच्चों की प्यारी और मासूमियत भरी बातें मुझे जीने का हौसला देती थीं. किसी इनसान के पास अगर उस के अपनों का प्यार होता है तो वह बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना भी आसानी से कर लेता है, क्योंकि उसे पता होता है कि उस के अपने उस के साथ हैं. लेकिन उसी प्यार की कमी उसे अंदर से तोड़ देती है, बिखरने लगता है सबकुछ…मैं भी टूट कर बिखर रही थी लेकिन मेरे अंदर का टूटना व बिखरना किसी ने नहीं देखा. जिंदगी का यह सफर सीधा चला जा रहा था कि अचानक उस में एक मोड़ आ गया और मेरी जिंदगी ने एक नई राह पर कदम रख दिया. मेरे दिल की सूखी जमीन पर जैसे कचनार के फूल खिलने लगे और उसी के साथ मेरे अरमान भी महकने लगे. स्कूल में एक नए टीचर समीर की नियुक्ति हुई. वह विचारों से जितने सुलझे थे उन का व्यक्तित्व भी उतना ही आकर्षक था. उन से बात कर के दिल को न केवल बहुत राहत मिलती थी बल्कि वक्त का भी एहसास नहीं रहता था. समीर कहा करते थे कि इनसान जो चाहता है उसे हासिल करने की हिम्मत खुद उस में होनी चाहिए. एक दिन बातों ही बातों में समीर ने पूछ लिया, ‘मेघा, तुम इतनी अलगअलग सी क्यों रहती हो? किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती हो. क्यों तुम ने अपने अंदर की उस लड़की को कैद कर के रखा है, जो जीना चाहती है? क्या तुम्हारा दिल नहीं करता कि उड़ कर उस आसमान को छू लूं…एक बार अपने अंदर की उस लड़की को आजाद कर के देखो, जिंदगी कितनी खूबसूरत है.’ समीर की बातें सुनने के बाद मुझे लगने लगा था कि मेरा भी कुछ अस्तित्व है और मुझे भी अपनी जिंदगी खुशियों के साथ जीने का हक है.

यों घुटघुट कर जीने के लिए मैं ने जन्म नहीं लिया है. इस तरह मुझे मेरे होने का एहसास दिया समीर ने और मुझे लगने लगा था जैसे मुझे वह दोस्त व साथी मिल गया है जिस की मुझे तलाश थी, जिसे मैं ने हमेशा निखिल में ढूंढ़ा लेकिन मुझे कभी नहीं मिला. मैं फिर से सपने देखना चाहती थी लेकिन मन में एक डर था कि यह सही नहीं है. समीर की आंखों में एक कशिश थी जो मुझे मुझ से ही चुराती जा रही थी. उन की आंखों में डूब जाने का मन करता था और मैं कहीं न कहीं अपने को बचाने की कोशिश कर रही थी लेकिन असफल होती जा रही थी. मन कह रहा था कि सभी पिंजरे तोड़ कर खुले आकाश में उड़ जाऊं पर इस दुनिया की रस्मोरिवाज की बेडि़यां, जिन में मैं इस कदर जकड़ी हुई थी कि उन्हें तोड़ने की हिम्मत नहीं थी मुझ में. मेरे अंदर एक द्वंद्व चल रहा था. दिल और दिमाग की लड़ाई में कभी दिल दिमाग पर हावी हो जाता तो कभी दिमाग दिल पर. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. समीर का बातें करतेकरते मेरे हाथ को पकड़ना, मुझे छूने की कोशिश करना, मुझे अच्छा लगता था. उन के कहे हर एक शब्द में मुझे अपनी जिंदगी आसान करने की राह नजर आती थी. मेरा मन करने लगा था कि मैं दुनिया को उन की नजरों से देखूं, उन के कदमों से चल कर अपनी राहें चुन लूं. भुला दूं कि मेरी शादी हो चुकी है. पता नहीं वह सब क्या था जो मेरे अंदर चल रहा था. एक अजीब सी कशमकश थी.

अपने अंदर की इस हलचल को छिपाने की मैं कोशिश करती रहती थी. डरती थी कि कहीं मेरे जज्बात मेरी आंखों में नजर न आ जाएं और कोई कुछ समझे, खासकर समीर को कुछ समझ में आए. समीर जब भी मेरे सामने होते थे तो मन करता था कि उन्हें अपलक देखती रहूं और यों ही जिंदगी तमाम हो जाए. उन की आंखों में डूब जाने का मन करता था. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं और क्या न करूं. दिमाग कहता था कि मुझे समीर से दूरी बना कर रखनी चाहिए और दिल उन की ओर खिंचता ही जा रहा था. दिमाग कहता था कि नौकरी ही छोड़ दूं और दिल मेरे कदमों को खुद ब खुद उस राह पर डाल देता था जो समीर की तरफ जाती थी. बहुत सोचने के बाद मैं ने दिमाग की बात मानने में ही भलाई समझी और फैसला किया कि अपने बढ़ते कदमों को रोक लूंगी. मैं ने समीर से कतराना शुरू कर दिया. अब मैं बस, काम की ही बात करती थी. समीर ने कई बार मुझ से बात करने की कोशिश की लेकिन मैं ने टाल दिया. वह परेशानी जो अब तक मैं ने अपने मन में छिपा रखी थी अब समीर की आंखों में दिखने लगी थी और मैं अपनेआप को यह कह कर समझाने लगी थी कि क्या हुआ अगर समीर मेरे पास नहीं हैं, कम से कम मेरे सामने तो हैं. क्या हुआ अगर हमसफर नहीं बन सकते, मगर वह मेरे साथ हमेशा रहेंगे मेरी यादों में…मेरे जीने के लिए तो इतना ही काफी है. मैं अपने विचारों में खोई समीर से दूर, बहुत दूर जाने के मनसूबे बना रही थी कि अगले दिन समीर स्कूल नहीं आए. मेरी नजरें उन्हें ढूंढ़ रही थीं लेकिन किसी से पूछने की हिम्मत नहीं थी क्योंकि जब अपने मन में ही चोर हो तो सारी दुनिया ही थानेदार नजर आने लगती है. किसी तरह वह दिन बीता पर घर आने के बाद भी अजीब सी बेचैनी छाई हुई थी.

अगले दिन भी समीर स्कूल नहीं आए और इसी तरह 4 दिन निकल गए. मेरी बेचैनी दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही थी फिर बहुत हिम्मत कर के सोचा कि फोन ही कर लेती हूं. कुछ तो पता चलेगा. मैं ने फोन किया तो उधर से सीमा ने फोन उठाया. मैं ने उस से पूछा, ‘‘अरे, सीमा तुम, कब आईं होस्टल से?’’ ‘‘दीदी, मुझे तो आए 2 दिन हो गए,’’ सीमा ने बताया. ‘‘सब ठीक तो है न…समीरजी भी 4 दिन से स्कूल नहीं आ रहे हैं.’’ ‘‘दीदी, इसीलिए तो मैं यहां आई हूं. भैया की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है और मेरी बातों का उन पर कोई असर नहीं हो रहा. न तो ठीक से कुछ खा रहे हैं और न ही समय पर दवा ले रहे हैं. मैं तो कहकह कर थक गई. आप ही आ कर समझा दीजिए न.’’ मैं सीमा को मना नहीं कर पाई और अगले दिन आने को कह दिया. अगले दिन समीर के घर जा कर घंटी बजाई तो सीमा ने ही दरवाजा खोला. मुझे देख कर वह बोली, ‘‘अंदर आइए न, मेघाजी, मैं तो आप का ही इंतजार कर रही थी.’’ ‘‘कैसी हो, सीमा,’’ मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है.’’ ‘‘पढ़ाई तो ठीक चल रही है, मेघाजी,’’ सीमा बोली, ‘‘बस, समीर भैया की चिंता है. हम दोनों का एकदूसरे के सिवा है ही कौन और मैं तो होस्टल में रहती हूं और भैया यहां पर बिलकुल अकेले. जब से मैं घर आई हूं देख रही हूं कि भैया बहुत उदास रहने लगे हैं. आप ही देखो न कितना बुखार है लेकिन ढंग से दवा भी नहीं लेते. आप तो उन की दोस्त हैं, आप ही बात कीजिए, शायद उन की समझ में आ जाए.’’ मैं सीमा के साथ समीर के कमरे में गई तो वह लेटे हुए थे. बहुत कमजोर लग रहे थे. मैं ने माथे पर हाथ रखा तो बुखार अभी भी था. मैं ने सीमा से कुछ खाने के लिए और ठंडा पानी लाने के लिए कहा और समीर को बैठने में मदद करने लगी. सीमा खिचड़ी ले आई.

मैं खिलाने लगी तो समीर बच्चों की तरह न खाने की जिद करने लगे. मैं ने कहा, ‘‘समीरजी, आप अपना नहीं तो कम से कम सीमा का तो खयाल कीजिए… वह कितनी परेशान है.’’ खैर, उन्हें खिचड़ी खिला कर दवा दी और लिटा दिया. मैं माथे पर पानी की पट्टियां रखने लगी. कुछ देर बाद बुखार कम हो गया. समीर सो गए तो मैं ने सीमा से कहा, ‘‘सीमा, मैं जा रही हूं. तुम अपने भैया का ध्यान रखना. अगर हो सका तो मैं कल फिर आने की कोशिश करूंगी.’’ मैं घर आ गई लेकिन दिमाग में एक सवाल घूम रहा था कि क्या समीर की इस हालत की जिम्मेदार मैं हूं? क्या मेरी बेरुखी से वह इतने आहत हो गए कि उन की तबीयत खराब हो गई. मुझे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था. ये बातें सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. फोन की घंटी की आवाज सुन कर मेरी नींद खुली. घड़ी में सुबह के 8 बज चुके थे. आज भी स्कूल की छुट्टी हो गई, यह सोचते हुए मैं ने फोन उठाया तो दूसरी तरफ सीमा थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘समीरजी की तबीयत कैसी है?’’ ‘‘मेघाजी, भैया ठीक हैं. बस, मुझे एक जरूरी काम से अपनी सहेली के साथ बाहर जाना है और भैया अभी इस लायक नहीं हैं कि उन्हें अकेला छोड़ा जा सके इसलिए आप की मदद की जरूरत है. क्या आप कुछ देर के लिए यहां आ सकती हैं?’’ मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ और फोन रख दिया. मैं तैयार हो कर वहां पहुंची तो सीमा और उस की सहेली मेरा ही इंतजार कर रही थीं. वह मुझे थैंक्स कहती हुई चली गई. मैं ने समीर के कमरे में जा कर देखा तो वह सो रहे थे. मैं ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ गई और मेज पर रखी किताब के पन्ने पलटने लगी. थोड़ी देर बाद समीर के कमरे में कुछ आवाज हुई…मैं ने जा कर देखा तो समीर अपने बिस्तर पर नहीं थे. शायद बाथरूम में थे, मैं वहां से आ गई और रसोई में जा कर चाय का पानी चूल्हे पर रख दिया. चाय बना कर जब मैं बाहर आई तो समीर नहा चुके थे. उन की तबीयत पहले से ठीक लग रही थी लेकिन कमजोरी बहुत थी. मुझे देख कर वह चौंक गए. शायद उन्हें पता नहीं था कि मैं वहां पर हूं. ‘‘मेघाजी…आप, सीमा कहां है?’’ ‘‘उसे किसी जरूरी काम से जाना था, आप की तबीयत ठीक नहीं थी. अकेला छोड़ कर कैसे जाती इसलिए मुझे बुला लिया. आप चाय पीजिए, वह आ जाएगी.’’ ‘‘सीमा भी पागल है. अगर उसे जाना था तो चली जाती…आप को क्यों परेशान किया,’’ समीर बोले. मैं ने समीर की तरफ देखा और चुपचाप चाय का प्याला उन्हें थमा दिया.

हम खामोशी से चाय पीने लगे. कुछ भी कहने की हिम्मत न तो मुझ में थी और न शायद उन में. चाय पी कर मैं बर्तन रसोई में रखने के लिए उठी तो समीर ने मेरा हाथ पकड़ लिया. एक सिहरन सी दौड़ गई मेरे पूरे शरीर में. टे्र हाथ से छूट जाती अगर मैं उसे मेज पर न रख देती. मैं ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की तो उन्होंने और कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘मेघा, तुम ने मेरे लिए यह सबकुछ क्यों किया?’’ समीर के मुंह से अपने लिए पहली बार मेघाजी की जगह मेघा और आप की जगह तुम का उच्चारण सुन कर मैं चौंक गई. इस तरह से मुझे पुकारने का अधिकार उन्होंने कब ले लिया. मैं कुछ बोल ही नहीं पा रही थी कि उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘मेघा, तुम ने मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया. तुम ने मेरे लिए यह सब क्यों किया?’’ बहुत हिम्मत कर के मैं ने अपना हाथ छुड़ाया और कहा, ‘‘एक दोस्त होने के नाते मैं इतना तो आप के लिए कर ही सकती थी, इतना भी अधिकार नहीं है मेरा?’’ ‘‘पहले तुम यह बताओ कि क्या हमारे बीच अभी भी सिर्फ दोस्ती का रिश्ता है? मेघा, तुम्हारा अधिकार क्या है और कितना है इस का फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ समीर बोले. मैं ने अपनी नजरें उठाईं तो समीर मुझे ही देख रहे थे. कितना दर्द, कितना अपनापन था उन की आंखों में. दिल चाह रहा था कि कह दूं…समीर, मैं आप से बेइंतहा प्यार करती हूं…नहीं जी सकती मैं आप के बिना. अपने सभी जज्बात, सभी एहसास उन के सामने रख दूं…उन की बांहों में समा जाऊं और सबकुछ भुला दूं लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे. बिना कुछ कहे ही हम एकदूसरे के जज्बात और हालात समझ रहे थे. मुझे भी यह एहसास हो चुका था कि समीर भी मुझे उतना ही प्यार करते हैं जितना मैं उन्हें करती हूं. वह भी अपने प्यार की मौन सहमति मेरी आंखों में पढ़ चुके थे और शायद उस अस्वीकृति को भी पढ़ लिया था उन्होंने. कुछ नहीं बोल पाए…हम बस, यों ही जाने कितनी देर बैठे रहे. फिर अचानक समीर ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में लिया और मेरे माथे को चूम लिया. अब मैं खुद को रोक नहीं पाई और उन की बांहों में समा गई. कितनी देर हम रोते रहे मुझे नहीं पता. दिल चाह रहा था कि यह पल यहीं रुक जाए और हम यों ही बैठे रहें. फिर समीर ने कहा, ‘‘मेघा, तुम जहां भी रहो खुश रहना और एक बात याद रखना कि मुझे तुम्हारी आंखों में आंसू और उदासी अच्छी नहीं लगती.

मैं चाहे तुम्हारे पास न रहूं, लेकिन तुम्हारे साथ हमेशा रहूंगा. बहुत देर हो गई है, अब तुम जाओ.’’ मैं ने अपना बैग उठाया और वहां से अपने घर आने के लिए निकल पड़ी. इसी प्यार ने एक बार फिर मुझे नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया. मैं ने सोच लिया था कि अब मैं समीर से कभी नहीं मिलूंगी. आज तो उस तूफान को हम पार कर गए, खुद को संभाल लिया, लेकिन दोबारा मैं ऐसा शायद न कर पाऊं और मैं नहीं चाहती थी कि समीर के आगे कमजोर पड़ जाऊं. मैं अपने प्यार को अपना तो नहीं सकती थी लेकिन उसी प्यार को अपनी शक्ति बना कर अपने फर्ज के रास्ते पर कदम बढ़ा चुकी थी

मैं ने अगले दिन स्कूल में अपना इस्तीफा भेज दिया. मैं ने एक बार फिर प्यार और समझौते में से समझौते को चुन लिया. मेरे अंदर जो प्यार समीर ने जगाया वह एहसास, उन की कही हर एक बात, उन के साथ बिताए हर एक पल मेरी जिंदगी का वह अनमोल खजाना है, जो न तो कभी कोई देख सकता है और न ही मुझ से छीन सकता है. कितना अजीब सा एहसास है न यह प्यार, कब किस से क्या करवाएगा, कोई नहीं जानता. यह एहसास किसी के लिए जान देने पर मजबूर करता है तो किसी की जान लेने पर भी मजबूर कर सकता है. अब आप ही बताइए कि आप प्यार को किस तरह से परिभाषित करेंगे, क्योंकि मेरे लिए तो यह एक ऐसी पहेली है जो कम से कम मैं तो नहीं सुलझा पाई. मैं नहीं जानती कि मैं ने इतना प्यार करते हुए भी समीर को क्यों नहीं अपनाया और अपनी शादी के समझौते.

स्टेशन की वह रात : भाग 1

इसलिए उस ने पुल से चलते हुए आखिरी प्लेटफार्म की तरफ कदम बढ़ाए. सीढि़यों से उतर कर आखिरी प्लेटफार्म की भी वह बैंच पकड़ी, जिस के बाद नशेडि़यों, चोरउच्चकों का इलाका शुरू हो रहा था. थोड़ाबहुत जोखिम लेना तेजा के लिए आम बात थी. कुछ दूरी पर ही मैलीकुचैली चादरों में भिखारी सो रहे थे.

चाय की दुकान पर एकाध खरीदार पहुंच रहे थे. रेलवे जंक्शन के कोने में मौजूद दुकान पर चाय खरीद रहे लोगों की हालत भी टी स्टौल की तरह उजड़ी हुई थी. तेजा जिस मंजिल के लिए निकला था, उसे पाना नामुमकिन था, लेकिन सपनों का पीछा करना उस की लत बन चुकी थी. इस वजह से दिमाग में कभी चैन नहीं रहा था. अचानक ही पीछे से आई हलकी आवाज ने तेजा को चौंका दिया, ‘‘भैयाजी, 2 दिन से कुछ खाया नहीं है.’’ कहने को तो तेजा तेज आवाज से भी डरने वालों में से नहीं था, लेकिन इतनी रात में आखिरी प्लेटफार्म का कोना पकड़ते वक्त उसे नशेडि़यों की नौटंकी का अंदाजा था. सो, अचानक पीछे से आ कर बैंच पर बैठ जाने वाली 30-35 साल की एक औरत की धीमी आवाज ने भी उसे सकते में डाल दिया था. पहनी हुई साड़ी और शक्लसूरत से वह औरत कहीं से भी रईस नहीं लग रही थी, लेकिन भिखारी भी दिखाई नहीं देती थी. हालांकि यह जरूर लगता था कि वह घर से निकल कर सीधी यहां नहीं आई है. उस का कई दिन भटकने जैसा हुलिया बना हुआ था. हालात भांप कर तेजा ने चौकस आवाज में कहा कि वह पैसे नहीं देगा. हां, अपने पैसे से दुकान वाले को बोल कर चायबिसकुट जरूर दिला सकता है. लेकिन औरत का अंदाज चायबिसकुट पाने तक सिमट जाने वाला नहीं था.

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औरत ने दुखियारी बन कर कहा, ‘‘मैं बहुत ही मुश्किल में हूं, कुछ पैसे दे दो.’’ तेजा का दिमाग चकरा गया, क्योंकि यह औरत उस टाइप की भी नहीं लग रही थी, जो अंधेरी रातों में नौजवानों को इशारे कर बुलाती हैं. न ही कपड़े और सूरत उस के भिखारी होने पर मोहर लगा रहे थे. तेजा ने चेहरा थोड़ा नरम करने की कोशिश करते हुए पूछा, ‘‘यहां स्टेशन के अंधेरे कोने में क्या कर रही हो?’’ उस औरत ने धीमी आवाज में और दर्द लाते हुए कहा, ‘‘बस, थोड़े पैसे दे दीजिए.’’ तेजा ने नजरें घुमा कर चारों तरफ देखा. उस की नजरें यह तसल्ली कर लेना चाहती थीं कि कम रोशनी वाले स्टेशन के कोने में एक औरत के साथ बैठने पर दूसरों की नजरें उसे किसी अलग नजरिए से तो नहीं देख रही हैं? लेकिन तेजा को यह जान कर तसल्ली हुई कि स्टेशन जैसे कुछ देर पहले था, ठीक अब भी वैसा ही है. नए हालात देख कर कालेज के फाइनल ईयर का स्टूडैंट तेजा रोमांच से भर उठा. यह रोमांच इस उम्र के लड़कों में खास हालात बनने पर खुद ही पैदा हो जाता है. तेजा भी दूसरे ग्रह का प्राणी नहीं था. सो, उसे भी यह एहसास हुआ. अब जब आसपास के हालात बैंच के माहौल में खलल डालने वाले नहीं थे, तो तेजा का खोजी दिमाग सवाल उछालने लगा. उस ने कहा, ‘‘मैं पैसे तो दे दूंगा, लेकिन पहले यह बताओ कि तुम इस हालत में यहां क्या कर रही हो?’’ पैसे मिलने की बात सुन कर उस औरत ने बताया कि वह बिहार के पटना की रहने वाली है.

मेरा मर्द बहुत बुरा आदमी था. घर खर्च के लिए वह पैसे नहीं देता था. वह दारू पीता था. बच्चे खानेखिलौनों के लिए हमेशा मां को ही कहते थे, लेकिन पति के गलत बरताव और नशेड़ी होने की वजह से वह घुट रही थी. एक दिन जेठानी से उस का झगड़ा हो गया. जब पति घर आया तो उस ने बाल धोने के लिए शैंपू खरीदने के पैसे मांग लिए. पहले से ही जेठानी के सिखाए नशेड़ी पति ने उस की बेरहमी से पिटाई कर दी. यह पिटाई नई नहीं थी, लेकिन लंबे अरसे से उस के मन में जो बगावती ज्वालामुखी दबा बैठा था, उस रात फट पड़ा. पति को जवाब देना तो उस के बूते से बाहर था, लेकिन घर में सबकुछ छोड़ फिल्मी हीरोइन की तरह सीधे स्टेशन पहुंच गई. आंसू पोंछने का दौर चलने के बाद दिल को पत्थर बना लिया और आखिर में अनजान ट्रेन में कदम रख ही दिया और आज यहां है. मच्छरों का काटना, मुसाफिरों की शक्की नजर का डर, सबकुछ तेजा के दिमाग से भाग चुका था और उस औरत की बातें सुन कर उस का घनचक्कर दिमाग और ज्यादा घूम गया.

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तेजा ने पूछा, ‘‘शैंपू की खातिर पति ने पीट क्या दिया, तुम अपने छोटेछोटे बच्चोें को छोड़ कर घर से भाग आई? कितने दिन पहले घर छोड़ा था? क्या तुम ट्रेन से सीधे अंबाला स्टेशन पर उतरी हो? तुम्हारा नाम क्या है?’’ तेजा के 4 सवालों की बौछार का सामना करने के बाद अपने लंबे बालों को हलके से खुजलाते हुए उस औरत ने खुद का नाम रश्मि बता कर कहा, ‘‘सही से याद नहीं.

Short Story : दर्पण

लेखक- मंजरी सक्सेना

‘‘आजकल बड़ा लजीज खाना भेजती हो बेगम,’’ आफिस से आ कर जूते खोलते हुए सुजय ने कहा. ‘‘क्यों, अच्छा खाना न भेजा करूं,’’ मैं ने कहा, ‘‘इन दिनों कुकिंग कोर्स ज्वाइन किया है. सोचा, रोज नईनई डिश भेज कर तुम्हें सरप्राइज दूं.’’ ‘‘शौक से भेजिए सरकार, शौक से. आजकल तो सभी आप के खाने की तारीफ करते हैं,’’ सुजय ने हंस कर कहा. मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘सभी कौन?’’ ‘‘अरे भई, अभी आप यहां किसी को नहीं जानती हैं. हमें यहां आए दिन ही कितने हुए हैं. जब एक बार पार्टी करेंगे तो सब से मुलाकात हो जाएगी. यहां ज्यादातर अधिकारी मैस में ही खाना खाते हैं.

हां, मैं तुम्हें बताना भूल गया था कि निसार भी पिछले हफ्ते ट्रांसफर पर यहीं आ गया है. उसे मेरी सब्जियां बहुत पसंद आती हैं. एक दिन कह रहा था कि जब ठंडे खाने में इतना मजा आता है तो गरम कितना लजीज होगा,’’ सुजय मेरे खाने की तारीफों के पुल बांध रहे थे. मैं ने पूछा, ‘‘यह निसार क्या सरनेम हुआ?’’ ‘‘वह निसार नाम से गजलें लिखता है, वैसे उस का नाम निश्चल है,’’ सुजय ने बताया. ‘‘अच्छा,’’ कह कर मैं चुप हो गई पर चाय के उबाल के साथसाथ मेरे विचारों में भी उबाल आ रहे थे. ‘‘तुम्हें याद नहीं क्या मौली? हमारी शादी में भी निसार आया था.’’ ‘‘हूं, याद है,’’ अतीत की यादें आंधी की तरह दिल के दरवाजे में प्रवेश करने लगी थीं. मुंह दिखाई की रस्म शुरू हो चुकी थी. घर के सभी बड़े, ताऊ, चाचा, मामी, मामा कोई भी उपहार या गहना ले कर आता और पास बैठी छोटी ननद मेरा घूंघट उठा देती. बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को प्रणाम में मैं हाथ जोड़ देती थी. इतना सब करने पर भी मेरी पलकें झुकी ही रहतीं. घूंघट की ओट से अब तक बीसियों अनजान चेहरे देख चुकी थी. अचानक स्टेज के पास निश्चल को देखा तो हैरत में पड़ गई. सोचा, कोई दोस्त होगा, पर वह जब पास आया तो वही अंदाज. ‘भाभी, ऐसे नहीं चलेगा.

आप को मुंह दिखाई के समय आंखें भी दिखानी होंगी. कहीं भेंगीवेंगी आंख वाली तो नहीं?’ कह कर किसी ने घूंघट उठाना चाहा तो आवाज सुन कर मेरा मन हुआ कि आंखें खोल कर पुकारने वाले को देख तो लूं, पर संकोचवश पलक झपक कर रह गए थे. ‘अरे, दुलहन, दिखा दो अपनी आंखें वरना तुम्हारा यह देवर मानने वाला नहीं,’ किसी बूढ़ी औरत का स्वर सुन कर मैं ने आंखें खोल दीं. ऐसा लगा जैसे शिराओं में खून जम सा गया हो. तो यह निश्चल और सुजय आपस में रिश्तेदार हैं. मन ही मन सोचती मैं कई वर्ष पीछे लौट गई थी. निश्चल और कोई नहीं, मेरे स्कूल के दिनों का सहपाठी था जो रिकशे में मेरे साथ जाता था. सारे बच्चे मिल कर धमा- चौकड़ी मचाते थे. इत्तेफाक से कालिज में भी वह साथ रहा और 2-3 बार हमारा पिकनिक भी साथ ही जाना हुआ था. पता नहीं क्यों निश्चल की आंखों की भाषा पढ़ कर हमेशा ऐसा लगता था जैसे उस की आंखें कुछ कहनासुनना चाहती हैं. तब कहां पता था कि एक दिन पापा मेरे रिश्ते के लिए उसी का दरवाजा खटखटाने पहुंचेंगे. निश्चल का बायोडाटा काफी दिनों तक पापा की जेब में पड़ा रहा था. वह उस समय न्यूयार्क में कंप्यूटर इंजीनियर था. 2 महीने बाद भारत आने वाला था. घर वालों को फोटो पसंद आ चुकी थी. बस, जन्मपत्री मिलानी बाकी थी. हरसंभव कोशिशों के बाद भी जन्मपत्री नहीं मिली थी. चूंकि निश्चल के मातापिता जन्मपत्री में विश्वास करते थे इसलिए शादी टल गई थी. उन्हीं दिनों वैवाहिक विज्ञापन के जरिए सुजय से शादी की बात चली. सुजय से जन्मपत्री मिलते ही शादी की रस्म पूरी होगी. ‘‘क्या सोच रही हो, मौली?’’ सुजय की आवाज से मैं अतीत से वर्तमान में आ गई. ‘‘कुछ नहीं,’’ होंठों पर बनावटी हंसी लाते हुए मैं ने कहा.

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निश्चल कुछ ज्यादा मजाकिया स्वभाव का है. उस की बातों का बुरा नहीं मानना तुम. वैसे भी बेचारा अकेला है. न्यूयार्क में किसी अमेरिकन लड़की से शादी कर ली थी पर वह छोड़ कर चली गई…’’ उदार हृदय, पति बताते रहे और मैं हूं, हां करती चाय के कप से उड़ती हुई भाप देखती रही. निरीक्षण भवन में सुजय ने पार्टी का इंतजाम कराया था. खाने की प्लेट हाथ में लिए मैं खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगी थी. रात के अंधेरे में मकानों की रोशनी आसमान में चमकते सितारों सी जगमगा रही थी. ‘‘आप बिलकुल नहीं बदलीं,’’ किसी ने पीछे से आवाज दी. निश्चल को देख कर मैं चौंक कर बोली, ‘‘आप ने मुझे पहचान लिया?’’ ‘‘लो, जिस के साथ बचपन से जवान हुआ उसे न पहचानने की क्या बात है. तब आप संगमरमर की तरह गोरी थीं, आज दूध की तरह सफेद हैं,’’ निश्चल ने कहा. ‘‘पर समय के साथ शक्ल और यादें दोनों बदल जाती हैं,’’ मैं ने यों ही कह दिया. ‘‘आप गलत कह रही हैं. समय का अंतराल यहां नहीं चल पाया. आप 13 साल पहले भी ऐसी ही थीं,’’ निश्चल ने हंसते हुए कहा तो शर्म से मेरी पलकें झुक गई थीं. तभी किसी को अपने आसपास यह कहते सुना, ‘‘ओहो, इस उम्र में भी क्या ब्लश कर रही हैं आप?’’ सुन कर मेरे गाल लाल हो गए थे. प्लेट रख कर हाथ धोने के बहाने दर्पण में अपना चेहरा देख कर मैं खुद ही शरमा गई थी. जब से निश्चल ने मेरी तारीफ में कसीदे पढ़े, मेरी जिंदगी ही बदल गई. जेहन में बारबार यह सवाल उठते कि क्यों कहा निश्चल ने मुझे संगमरमर की तरह गोरी और दूध की तरह सफेद…तब तो चौराहे की भीड़ की तरह मुझे छोड़ कर निश्चल ने पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं और अपना रास्ता ही बदल लिया था.

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अब, जब हमारे रास्ते अलग हो गए, मंजिलें बदल गईं फिर उस कहानी को याद दिलाने की जरूरत किसलिए? मुझे किसी से भी किसी बात की शिकायत नहीं है, न क्षोभ न पछतावा, पर नियति ने क्यों मेरी जिंदगी में उस व्यक्ति को सामने खड़ा कर दिया जिस को मैं ने बचपन से चाहा. मैं सोच नहीं पाती, क्यों मन बारबार संयम का बांध तोड़ना चाहता है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उस से मुलाकात का कोई रास्ता ही न रह जाए. क्लब में तो हर हफ्ते ही मुलाकात होती है. उस पर भी अगर संतोष कर लिया जाए तो ठीक लेकिन गुस्सा तो मुझे अपने ऊपर इसलिए आता था कि जिस का अब जिंदगी से कोई वास्ता नहीं तो फिर क्यों मन उस चीज को पाना चाहता है. क्यों तिरछी बौछार में भीगने की चाहत है, क्या मैं समझती नहीं, निश्चल की आंखों की भाषा? सोचसोच कर मेरी रातों की नींद उड़ने लगी थी. मुलाकातों का सिलसिला अपने आप चलता जा रहा था. अपनी भांजी की शादी में जाना था. व्यस्तताओं के चलते सुजय दिल्ली आ कर मुझे प्लेन में बैठा गए थे. वहीं निश्चल को भी प्लेन में बैठा देख कर मैं हैरान थी कि अचानक उस का कार्यक्रम कैसे बन गया था, मैं समझ नहीं पा रही थी. प्लेन में कई सीटें खाली पड़ी थीं. निश्चल मेरे पास ही आ कर बैठ गया. धरती से हजारों मील ऊपर क्षितिज को अपने बहुत पास देख कर मन पुलकित हो रहा था या निश्चल का साथ पा कर, यह मैं समझ नहीं पा रही थी.

एक दिन पेट में तेज दर्द से अचानक तबीयत खराब हो गई. फोन कर के डाक्टर को घर पर बुला लिया था. उन्होंने ब्लड टेस्ट, अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट देख कर कहा था कि आपरेशन करना पड़ेगा. डाक्टर ने ब्लड का इंतजाम करने को कहा क्योंकि मेरा ब्लड गु्रप ‘ओ पाजिटिव’ था. ‘‘अब क्या होगा?’’ मैं घबरा गई. ‘‘होना क्या है, कोई न कोई दाता तो मिल ही जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा. ‘‘यहां कौन है? अभी तो हम ने किसी को खबर भी नहीं दी है,’’ सुजय ने कहा. मैं ने निश्चल को फोन मिलाया. ‘‘क्या कोई खास बात, आप परेशान लग रही हैं, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर निश्चल ने फोन रख दिया. 10 मिनट के बाद ही निश्चल मेरे सामने था. उस को देखते ही सुजय ने कहा, ‘‘ब्लड का इंतजाम करना पड़ेगा.’’ निश्चल तुरंत अपना ब्लड टेस्ट कराने चला गया और लौट कर बोला, ‘‘सुनो, तुम्हारा और मेरा एक ही ब्लड गु्रप है.’’ ‘‘काश, घर वाले जन्मपत्री की जगह ‘ब्लड गु्रप’ मिला कर शादी करने की बात सोचते तब तो मैं जरूर ही तुम्हें कहीं न कहीं से ढूंढ़ निकालता.’’ अवाक् सी मैं निश्चल को देखती रह गई. शर्म से मेरे गाल लाल हो गए.

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सुजय ने हंस कर कहा, ‘‘फिर तो हम घाटे में रहते.’’ आपरेशन के बाद होश में आने में कई घंटे लग गए थे. पानीपानी कहते हुए मैं ने आंखें खोलीं तो सामने निश्चल को देखा. मेरी आंखें सुजय को तलाश रही थीं. मुझे देख कर निश्चल ने कहा, ‘‘सुजय सब को फोन करने गया है कि आपरेशन ठीक हो गया और होश आ गया है, लेकिन पता है भाभी, आपरेशन के बाद से अब तक सुजय ने एक बूंद पानी तक नहीं पिया है, क्योंकि आप को भी पानी नहीं देना है. वैसे आप को तो ड्रिप चढ़ाई जा रही है,’’ रूमाल से मेरे होंठों को गीला कर के निश्चल बाहर सुजय के इंतजार में खड़ा रहा. निश्चल के कहे शब्दों से मैं अंदर तक हिल गई. जिस दर्पण में भावुक, टूट कर चाहने वाले इनसान का प्रतिबिंब हो उसे मैं खंडित करने की सोच भी नहीं सकती. अगर उस में जरा सी दरार आ जाए तो वह बेकार हो जाता है. अपने मन के दर्पण को मैं खंडित नहीं होने दूंगी. ‘खंडित दर्पण नहीं बनूंगी मैं,’ मन ही मन बुदबुदा रही थी. सुजय की मेरे प्रति आस्था ने मेरी दिशा ही बदल दी. जरा सी दरार जो दर्पण को खंडित कर देती है उस से मैं अपने को संयत कर पाई.

Short Story : जिंदगी

चायनाश्ते और खाने का भी बढि़या इंतजाम है. मतलब, जेब से कुछ खर्च नहीं, फोकट में घूमना हो जाएगा. बस, पार्टी का झंडा भर साथ में ले कर चलना है. मंत्रीजी के प्रताप से मुफ्त में रेलगाड़ी में जाना है.’ मंगरू कुछ कहता, उस से पहले महेंद्र ने उस के कान में मंत्र फूंका था, ‘लगे हाथ किशना से भी मिल लेना. सुना है, गांधी मैदान में कोई होटल खोले बैठा है.’ बात तो ठीक थी. कितने दिन से मंगरू का मन कर रहा था कि बेटे किशना से मिल आए. मगर मौका ही हाथ नहीं लग रहा था, इसलिए वह नेताजी की रैली में शामिल होने के लिए तैयार हो गया था. गाड़ी से उतरते वक्त मंगरू ने जेब में से परची निकाल कर देखी. हां, यही तो पता दिया था किशना का. मगर टे्रन कमबख्त इतनी लेट थी कि दोपहर के बजाय रात 7 बजे पटना स्टेशन पहुंची थी. अब इस समय उसे कहां खोजेगा वह कि उस की जेब में रखा मोबाइल फोन घनघनाने लगा. मंगरू ने लपक कर मोबाइल फोन निकाला और तकरीबन चिल्लाने वाले अंदाज में बोला, ‘‘हां बबुआ, स्टेशन पहुंच गया हूं. अब कहां जाना है?’’

‘स्टेशन से बाहर निकल कर आटोस्टैंड पर आ जाइए,’ किशना बोल रहा था, ‘वहीं से गांधी मैदान के लिए आटोरिकशा पकड़ लेना. 5 मिनट में पहुंचा देगा.’ अपना झोला, लाठी और पोटली संभाल कर मंगरू बाहर निकला. बाहर रेलवे स्टेशन दूधिया रोशनी से नहाया हुआ था. हजारोंलाखों की भीड़ इधरउधर आजा रही थी. उस ने झोले को खोल कर देखा. पार्टी का झंडा सहीसलामत था. एक जोड़ी कपड़ा, गमछा और चनेचबेने भी ठीकठाक थे. किशना की मां ने कुछ पकवान बना कर उस के लिए बांध कर रख दिए थे. आटोरिकशा में बैठा मंगरू आंख फाड़े भागतीदौड़ती, खरीदारी करती, खातीपीती भीड़ को देखता रहा कि ड्राइवर ने उसे टोका, ‘‘आ गया गांधी मैदान. उतरिए न बाबा.’’ आटोस्टैंड की दूसरी तरफ गांधी मैदान के विशाल परिसर को उस ने नजर भर निहारा, ‘बाप रे,’ इतना बड़ा मैदान. बेटे किशना का होटल किधर होगा.’ एक बार फिर मोबाइल घनघनाया, ‘हां, आप गेट के पास ही खड़े रहिए…’ किशना बोल रहा था, ‘मैं आप को लेने वहीं आ रहा हूं.’ मंगरू मैदान के किनारे लोहे के विशाल फाटक के पास खड़ा ही था कि उसे किशना आता दिखा. उसे देख वह लपक कर उस के पास पहुंचा. पैर छूने के बाद किशना ने उसी मैदान में रखी हुई एक बैंच पर बिठा दिया. ‘‘कहां है तुम्हारा होटल?’’ अधीर सा होते हुए मंगरू बोला, ‘‘बहुत मन कर रहा है तुम्हारा होटल देखने का.’’ ‘‘वह भी देख लीजिएगा,’’ किशना कुछ बुझे स्वर में बोला, ‘‘चलिए, पहले कुछ चायनाश्ता तो करवा दूं आप को. ‘‘और हां, वह रहा आप की पार्टी का पंडाल. सुना है, तकरीबन 20 लाख रुपए खर्च हुए हैं पंडाल बनाने में. भोजनपानी और रहने का अच्छा इंतजाम है.’’ एक जगह पूरीसब्जी का नाश्ता करा और चाय पिला कर किशना बोला,

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‘‘अब चलिए आप को पंडाल दिखा दूं.’’ ‘‘अरे, रात में तो वहीं रहना है…’’ मंगरू जोश में था, ‘‘आखिर उसी के लिए तो आया हूं. बाकी तुम्हारा गांधी मैदान बहुत बड़ा है.’’ ‘‘शहर भी तो बहुत बड़ा है बाऊजी,’’ किशना बिना लागलपेट के बोला, ‘‘इस शहर में ढेरों मैदान हैं. मगर उन में रात के 10 बजे के बाद कोई नहीं रह सकता. पुलिस पहरा देती है. भगा देती है लोगों को.’’ ‘‘देखो, तुम्हारी माई ने तुम्हारे खाने के लिए कुछ भेजा?है…’’ मंगरू झोले में से पोटली निकालते हुए बोला, ‘‘वह तो थोड़े चावलदाल भी दे रही थी कि लड़का कुछ दिन घर का अनाज पा लेगा. लेकिन मैं ने ही मना कर दिया कि इसे ढो कर कौन ले जाए.’’ ‘‘अच्छा किया आप ने जो नहीं लाए…’’ किशना की आवाज में लड़खड़ाहट सी थी, ‘‘यह शहर है. यहां सबकुछ मिलता है. बस, खरीदने की औकात होनी चाहिए.’’ ‘‘सब ठीक चल रहा है न?’’ ‘‘सब ठीक चल रहा है. कमाई भी ठीकठाक हो जाती है.’’ ‘‘तभी तो हर महीने 2-3 हजार रुपए भेज देते हो.’’ ‘‘भेजना ही है. अपना घर मजबूत रहेगा, तो हम बाहर भी मजबूत रहेंगे. जो काम मिला, वही कर रहा हूं. बाकी नौकरी कहां मिलती है.’’ ‘‘अरे, यह क्या,’’ मंगरू चौंका. एक ठेले के पास 2-4 लड़के कुछकुछ काम कर रहे थे और वहां ग्राहकों की भीड़ लगी थी. एक कड़ाही में पूरी या भटूरे तल रहा था. दूसरा उन्हें प्लेटों में छोले, अचार और नमकमिर्चप्याज के साथ ग्राहकों को दे रहा था. तीसरा जूठे बरतनों को धोने में लगा था, जबकि चौथा रुपएपैसे का लेनदेन कर रहा था. इधर एक तरफ से अनेक ठेलों की लाइनें लगी हुई थीं, जिन पर इडलीडोसा, लिट्टीचोखा, चाटपकौड़े, मोमो, मैगी, अंडेआमलेट और जाने क्या कुछ बिक रहा था. ‘‘यही है हमारा होटल बाऊजी…’’ फीकी हंसी हंसते हुए किशना बोल रहा था, ‘‘ठेके के साइड में पढि़ए. लिखा है ‘किशन छोलाभटूरा स्टौल’. इसी होटलरूपी ठेले से हम 5 जनों का पेट पल रहा है. ‘‘इतना बड़ा गांधी मैदान है. थक जाने पर यहीं कहीं आराम कर लेते हैं.

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और रात के वक्त चारों तरफ सूना पड़ जाने पर यह सड़क, यह जगह बहुत बड़ी दिखने लगती है. सो, कहीं भी किसी दुकान के सामने चादर बिछा कर सो जाते हैं.’’ ‘‘यह भी कोई जिंदगी हुई?’’ मंगरू ने पूछा. ‘‘हां बाऊजी, यह भी जिंदगी ही है. बड़े शहरों में लाखों लोग ऐसी ही जिंदगी जीते हैं.’’ ‘‘और वह तुम्हारी पढ़ाई, जिस के पीछे तुम ने पटना में रह कर 7 साल लगाए, हजारों रुपए खर्च हुए.’’ ‘‘आज की पढ़ाई सिर्फ सपने दिखाती है, नौकरी या कामधंधा नहीं देती. मैं ने आप की जिंदगी को नजदीक से देखाजाना है. बस उसे अपनी जिंदगी में उतार लिया और जिंदगी आगे चल पड़ी. यही नहीं, मेरे साथ मेरे 4 साथियों की जिंदगी भी पटरी पर आ गई, नहीं तो यहां लाखों बेरोजगार घूम रहे हैं.’’ मंगरू एकटक कभी किशना को तो कभी गांधी मैदान को देखता रहा. ‘‘यह एक कार्टन है बाऊजी, जिस में आप लोगों के लिए नए कपड़े हैं. छोटे भाईबहनों के लिए खिलौने हैं. इसे साथ ले जाना.’’ थोड़ी देर के बाद किशना मंगरू को गांधी मैदान के पास लगे पार्टी के पंडाल में पहुंचा आया. वहां एक तरफ पुआल के ऊपर दरियां बिछी थीं, जिन पर हजारों लोग लेटे या बैठे हुए थे. पर मंगरू को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. वह वहीं अनमना सा लेट गया, चुपचाप. द्य

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