Love Story In Hindi: अपने प्यार की तमन्ना

Love Story In Hindi: कालेज जाने के लिए निकल ही रही थी कि अमन ने उसे चिढ़ाते हुए कहा, ‘‘क्यों बहना, इतना सजधज कर कोई कालेज थोड़ा ही जाता है…’’ सीमा इठलाते हुए मुंह बना कर, टेढ़ी सी चाल चलते हुए बाहर निकल गई और अपनी साइकिल ले कर कालेज की ओर चल पड़ी. सीमा रास्तेभर वही जवानी वाली रवायतें, हर तरफ उड़ानों की ख्वाहिशें ले कर आगे बढ़ती गई…

कब कालेज आया, उसे पता ही नहीं चला. जैसे ही उस ने कालेज के बाहर लड़केलड़कियों की बातें करने और ठहाके लगाने की आवाजें सुनीं, तब वह अपने खयालों से बाहर आई और साइकिल स्टैंड पर अपनी साइकिल रख कर वह भी अपनी सहेलियों के साथ क्लास में दाखिल हो गई. घर में छोटे भाई अमन से मस्ती वाली लड़ाइयां और कालेज में दोस्तों की मस्ती… सीमा की जिंदगी कुछ ऐसे ही बीत रही थी. अमन के साथ की चुहलबाजी में कभी सीमा गुस्से में मां से शिकायत कर देती थी, तो मां का एक ही जवाब होता था कि जब वह ससुराल जाएगी, तो इन्हीं बातों को याद कर के रोएगी.

शायद सीमा भी यह बात जानती थी. एक ही तो भाई था उस का, लाड़ला भी तो बहुत था. फिर सीमा की जिंदगी में एक मोड़ ऐसा आया, जब उस के कालेज में रोहन आया, जो स्मार्ट और होशियार भी था. वह किसी पैसे वाले का बेटा नहीं था, लेकिन शान से जीता था, ऊपर से पढ़ाई में अव्वल भी था. वह सीमा से एक साल सीनियर था. सीमा जब भी रोहन को देखती, उस के दिल की धड़कनें बढ़ जाती थीं. उसे बारबार देखने को जी चाहता था. ये सब प्यार हो जाने की निशानियां थीं और अब वह भी समझने लगी थी कि उस की चाहत दिन ब दिन बढ़ती जा रही है. और एक दिन वह हो गया, जिस की सीमा को भी चाह थी. उसे कालेज के दफ्तर में कोई फार्म भरने के लिए बुलाया गया था.

वह दफ्तर की तरफ जा ही रही थी कि सामने से रोहन मस्ती में चलता हुआ आ रहा था. सीमा का कलेजा उछल कर गले तक आ गया. कैसे उस का सामना कर पाएगी वह… कालेज के अहाते में वे आमनेसामने आए, तो दोनों ही रुक गए. रोहन ने पहली बार उसे उसी नजर से देखा, जिस नजर से वह उसे देखती थी. वह एकदम सामने आ खड़ा हुआ, इतना पास कि सीमा उस की महकीमहकी सांसों को महसूस कर रही थी. उसे मदहोशी छाने लगी और वह कुछ बोलती, उस से पहले ही रोहन ने पूछ लिया, ‘‘कहां जा रही हो?’’ सीमा की घिग्घी बंध गई. आवाज मानो गले से निकल ही नहीं रही थी. वह इधरउधर देखने लगी, फिर एकदम से बोल पड़ी, ‘‘आप कहां से हैं?’’ एक प्यारी सी मुसकान के साथ रोहन ने बताया कि वह जयपुर से आया है.

उस के पापा एक बड़ी प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं. यह सुन कर सीमा छोटी सी मुसकान के साथ आगे बढ़ गई. यह थी उन दोनों की पहली और छोटी सी मुलाकात, जो आगे जा कर प्यार का विराट वट वृक्ष बनने वाली थी. एक दिन जब सीमा अपनी साइकिल पर जा रही थी, तो रास्ते में रोहन मिल गया और उस से कौफी पीने के लिए बोला. सीमा भी बरबस ही हां कर के उस के पीछे चल पड़ी. वैसे, वह खुद भी शायद यही चाहती थी. वे दोनों होटल में गए और एक कोने वाली टेबल पर बैठ गए. अब सीमा शर्म छोड़ कर जी भर के रोहन को देख रही थी. रोहन भी बिना पलक झपकाए उस की आंखों में खो जाना चाहता था. जब वेटर ने उन से और्डर के बारे में पूछा,

तो हड़बड़ा कर उन दोनों ने एकसाथ मैनू कार्ड पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाए और मैनू कार्ड के बदले एकदूसरे का हाथ पकड़ लिया. इस से दोनों के जिस्म में सिहरन सी दौड़ गई. वेटर भी मुसकरा कर चला गया. थोड़ी देर बाद उन दोनों ने सैंडविच के साथ चाय मंगवाने का तय कर के वेटर को बुलाया और और्डर कर दिया. थोड़ी देर बाद चाय और सैंडविच खत्म कर उन दोनों ने फिर से मिलने का वादा किया और अपनेअपने घर की तरफ चल दिए. अब तो सीमा और रोहन की लंबीलंबी मुलाकातें शुरू हो गईं. ऐसे ही 2 साल बीत गए और दोनों को लगा कि अब घर वालों को बता कर रिश्ता तय करने की बात करनी चाहिए. एक दिन सीमा और रोहन होटल में बैठे अपनी भावी जिंदगी के बारे में सपने संजो रहे थे कि अमन अपने कुछ दोस्तों के साथ वहां आया और उन दोनों को साथ देख कर वह कुछ परेशान सा हो गया, पर दोस्तों की वजह से उन्हें अनदेखा कर वह चुप रह गया. सीमा जल्दी से होटल के बाहर निकल गई, पर उस के घर की तरफ कदम नहीं उठ रहे थे.

उस ने रोहन को नहीं बताया था कि अमन उस का भाई है. वह घर तो पहुंच गई, पर किसी से कुछ कहे बगैर ही अपने कमरे में जा कर लेट गई और बाहर की आहटें लेती रही. अमन की मोटरसाइकिल की आवाज से ही सीमा डर के मारे कांप सी गई और फिर अमन और मां की फुसफुसाहट की आवाजें आने लगीं. बस इतना समझ आया कि वे लोग पापा के घर आने का इंतजार करने की बात कर रहे थे. वह सोच रही थी कि पापा को पता चलते ही वे उसे बहुत डांटेंगे और शायद पिटाई भी कर दें. इन सब के लिए वह अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार कर रही थी. यह सब सोचतेसोचते कब सीमा की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला. जब आंखें खुलीं, तो उस के पापा पानी का गिलास ले कर सामने खड़े हुए थे. सीमा एकदम से उठ बैठी. पापा ने उसे पानी दे कर हालचाल पूछा,

लेकिन रोहन के बारे में कुछ नहीं पूछा और उस की मां से चाय बनाने की बोल कर वे सीमा का हाथ पकड़ उसे भी डाइनिंग टेबल पर ले गए. सीमा हैरान थी कि क्यों रोहन की कोई बात नहीं हुई. दूसरे दिन जब वह कालेज जाने को तैयार हुई तो उस की मां ने उसे रोका और बोलीं कि वे लोग उसी शाम को घूमने के लिए किसी हिल स्टेशन पर जा रहे हैं, तो उसे भी अपना बैग तैयार कर लेना चाहिए. सीमा हैरान थी, लेकिन वापस अपने कमरे में जा कर कुछ सोचतेसोचते अपने कुछ जोड़ी कपड़े अलमारी से निकाल कर एक अटैची में तह लगा कर रखने लगी, फिर सोचा कि रोहन को तो बताना पड़ेगा कि वह कुछ दिनों के लिए मिल नहीं पाएंगे, लेकिन बताए भी तो कैसे?

शाम को सीमा के पापा थोड़ा जल्दी ही आ गए थे. जैसे ही वे गुसलखाने से बाहर आए, मां सब के लिए चाय लाईं. चाय पी कर वे सब गाड़ी में बैठ निकल पड़े. सीमा का मन कर रहा था कि वह उड़ कर रोहन के पास चली जाए, लेकिन गाड़ी तो उसे रोहन से दूर लिए जा रही थी. कुछ ही घंटों के बाद वे लोग हिल स्टेशन पहुंच गए थे और होटल ढूंढ़ कर सामान ले कर अपने कमरों में गए. सीमा के पापा और मां एक कमरे में थे और वह अपने भाई अमन के साथ अलग कमरे में रहने वाली थी. अमन भी खुश था. उसे पापा के प्लान का पता चल चुका था. शाम की चाय पीने के बाद सब पार्क में घूम कर वापस आए, तो अमन ने ताश की गड्डी निकाली और सब खेलने लगे,

पर सीमा का मन खेलने में नहीं लग रहा था. वह बस रोहन के खयाल में ही उलझी रही थी. वह कब हार गई, पता ही नहीं चला. अगले दिन सीमा की मां ने उस से कहा कि शाम को वे लोग किसी के साथ डिनर पर जाने वाले हैं और उसे ठीक से तैयार होने के लिए भी बोला. शाम को जब सीमा उन लोगों से मिली, तो सारी बातें समझ में आ गईं. वे लड़के वाले लोग थे, जो सीमा को देखने आए थे. सीमा ने सोचा कि जब वह लड़के से अकेले में मिलेगी तो सब बता देगी, पर वह मौका भी नहीं मिला. दूसरे ही दिन उन का रोका और फिर सगाई और शादी भी हो गई. पापा ने डैस्टिनेशन वैडिंग का बहाना कर शादी निबटा दी थी. सीमा के पति का नाम तरुण था. जब वह ससुराल पहुंची, तो एकदम सामान्य सा, छोटा सा घर था और वैसा ही फर्नीचर था. पहले तो उस ने सोचा कि सुहागरात से पहले रोहन के बारे में तरुण को सबकुछ बता देगी, पर बाद में सोचा कि ये सब बातें बताने के लिए बहुत देर हो चुकी है. और आहिस्ता से कब सीमा की जिंदगी उन नई राहों पर चल पड़ी, पता ही नहीं चला.

बेटी कृति का जन्म उस के हजारों जख्मों पर मरहम लगा गया. उस की एकएक मुसकान पर वारी जाने लगी सीमा और जिंदगी कुछ संवर सी रही थी. एक दिन टैलीविजन पर किसी विचारक के इंटरव्यू को सुन कर सीमा चौंक गई. वह रोहन था. सीमा को आज शादी के इतने साल बाद भी रोहन की आवाज और बातें सुनसुन कर जो दुख हुआ, वह उस के चेहरे पर दिखने लगा था. वह रोने लगी थी, पर जल्दी ही उसे याद आया कि सास भी साथ बैठी हैं, तो वह बाथरूम में गई और मुंह धोया. इस के बाद वह जा कर बिस्तर पर लेट गई और कब सो गई, पता ही नहीं चला. अगली सुबह सीमा का थकान और दर्द से बदन टूट रहा था. वह बड़ी मुश्किल से उठ कर रसोईघर की तरफ जा रही थी,

तो चक्कर खा कर गिर पड़ी और बेहोश हो गई. जब उसे होश आया, तो वह बिस्तर पर पड़ी थी और सामने डाक्टर साहब, सास और तरुण बैठे थे. सास ने सारी बातें डाक्टर साहब को बता दी थीं. वे दवाएं दे कर चले गए और बाकी घर वाले भी अपनेअपने काम में लग गए, पर सीमा मानो बिस्तर से लग कर रह गई. उस के मन में एक टीस थी बेवफाई की. धीरेधीरे उस की सेहत और ज्यादा खराब होने लगी. दिनों के बाद हफ्ते और फिर महीने बीतने लगे, लेकिन सीमा की सेहत में कोई फर्क नहीं आया. सीमा को पहले भी कई बार रोहन की याद आती भी थी, पर वह यह सोच कर अपने मन को मना लेती थी कि वह भी शादी कर के घरगृहस्थी जमा चुका होगा, लेकिन जब से उसे यह पता चला कि वह आज भी अकेला है, तो वह भी टूट सी गई. इधर घर में सब डर रहे थे कि सीमा को कोई बड़ी बीमारी ने तो नहीं पकड़ लिया है, पर डाक्टर को भी उस की इस हालत को देख हैरानी हो रही थी,

क्योंकि उसे कोई बीमारी तो थी ही नहीं. तरुण अमन से मिला और सीमा के अतीत के बारे में जानना चाहा. पहले तो अमन ने टालमटोल की, पर जब तरुण ने जोर दे कर पूछा तो उस ने रोहन का सारा किस्सा बता दिया. तरुण को रोहन का पता ढूंढ़ने में ज्यादा तकलीफ नहीं हुई, क्योंकि वह काफी मशहूर हो चुका था. जब वह रोहन के घर पहुंचा, तो गेटकीपर और रोहन के सैक्रेटरी ने मिलवाने से मना कर दिया. तब तरुण ने कहा कि वे रोहन को बताएं कि सीमा के पति उस से मिलने आए हैं, बहुत जरूरी काम है. थोड़ी देर बाद गेटकीपर तरुण को रोहन के पास ले गया. रोहन ने तरुण का स्वागत किया और आने की वजह पूछी. जब तरुण ने पूरे हालात को बयां किया, तो रोहन के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं, फिर उस ने सीमा से मिलने की इच्छा जाहिर की, तो तरुण ने खुशीखुशी उसे अपने घर आने का न्योता दिया और अपने आंसू छिपाता हुआ बाहर निकल गया.

अगले दिन सुबहसुबह रोहन का फोन आया और सुबह के 10 बजने से पहले ही वह तरुण के घर जा पहुंचा. सीमा आंखें बंद किए बिस्तर पर पड़ी थी, लेकिन आहट होने पर जब उस ने अपनी आंखें खोलीं तो तरुण के साथ रोहन को खड़ा देख कर पहले तो वह सकपकाई और फिर उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी. तरुण ने उसे लेटे रहने को कहा. पास में रखी कुरसी पर रोहन बैठ गया और सीमा की तरफ देख कर सोचने लगा कि कैसी हालत बना ली है अपनी सीमा ने. तरुण चाय लाने के बहाने वहां से बाहर चला गया. रोहन और सीमा अकेले रह गए कमरे में.

रोहन से बोलते नहीं बन रहा था. गले में से शब्द नहीं निकल रहे थे. सीमा अपने आंसुओं को रोक नहीं पाई और इतने सालों का दर्द रोहन की आंखों से भी बारिश की तरह बहने लगा, लेकिन जब तरुण चाय ले कर आया, तो उन दोनों ने अपने आंसू पोंछ लिए. रोहन ने तरुण से अगले दिन फिर आने की पूछी तो उस ने दिल खोल कर इस बात का स्वागत किया. रोहन उठा और बिना चाय पिए ही वहां से चला गया. अगले दिन सुबहसुबह ही रोहन आ गया था. तरुण की नमस्ते का जवाब दे कर वह उस के साथ सीमा के कमरे की तरफ चल पड़ा. सीमा की दुबली देह पलंग में पड़ी थी,

पर उस के चेहरे पर पहले जैसे दर्द की जगह अब शांति थी. तरुण ने सीमा के हाथ को छू कर उठाया, तो धीरे से आंखें खोल कर उस ने पहले तरुण को और फिर उस के पीछे खड़े रोहन को देखा. उस के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकान आई, फिर धीरे से आंखें बंद हुईं और चेहरा दाईं तरफ लुढ़क गया. तरुण और रोहन दोनों अवाक से सीमा की देह से चेतना को खत्म होती देखते रहे, जो सभी दुखों से, रिश्तों से कहीं दूर चली गई थी. अपनी बेवफाई के लिए अपनी जान का बलिदान कर अनंत यात्रा पर निकल गई थी सीमा. Love Story In Hindi

Story In Hindi: कर्फ्यू – उसे बिस्तर पर लेटते ही किसकी याद आने लगी थी

Story In Hindi: बिस्तर पर लेटते ही फिर मुझे महेश की याद सताने लगी और बारबार मेरे सामने उस का चेहरा घूमने लगा. कितना समझाया था सुबह मैं ने, लेकिन मेरी एक न मानी और दोस्तों के साथ ऐसी खतरनाक सोच ले कर वह घर से बाहर निकल गया. पता नहीं, आज वह कहांकहां, क्याक्या गुल खिलाएगा और मेरी बनीबनाई इज्जत में दाग लगाएगा.

अभी मैं इन्हीं बातों में उलझा हुआ था कि मेरे खयाल गुजरे हुए कल की तरफ भागने लगे. हमारी 10 साल की शादीशुदा जिंदगी में सैकड़ों बार रानो ने मुझे दूसरी शादी करने की सलाह दी थी. लेकिन मैं हमेशा उसे तसल्ली दिया करता, ‘‘रानो, हिम्मत रखो, तुम्हारी गोद जरूर हरी होगी.’’ आखिर इतने सालों के बाद महेश की शक्ल में एक खूबसूरत लड़के ने जन्म लिया. उस वक्त हमारी खुशियों का कोई ठिकाना न था और घर वाले तो फूले न समा रहे थे. लेकिन रानो को ये खुशियां रास न आईं और वह 2 साल के महेश को हमारे बीच छोड़ कर इस जहान से कूच कर गई. इस भरीपूरी दुनिया में मैं अपनेआप को अकेला महसूस करने लगा, पर महेश ने मुझे कभी कुछ सोचने नहीं दिया. तभी तो दोस्तों के मशवरे के बावजूद मैं ने दोबारा शादी करने से इनकार कर दिया.

महेश की परवरिश करते हुए हंसतेखेलते मेरा वक्त गुजरने लगा… अभी मैं यह सोच ही रहा था कि रात के सन्नाटे में अचानक दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनाई दी. मैं बुरी तरह चौंक गया, क्योंकि कई दिनों से शहर में दंगों के से हालात हो रहे थे. दोबारा जब दरवाजा खटखटाने की आवाज आई, तो मैं उठ कर दरवाजे तक पहुंच गया. ज्यों ही दरवाजा खोला, सामने एक औरत को देख हैरान रह गया. अभी मैं उस से कुछ पूछता कि उस ने बिना झिझक कमरे में दाखिल हो कर दरवाजा बंद कर लिया और मेरे सामने बिलखबिलख कर रोने लगी. ‘‘किसी तरह मेरे पति को बचा लीजिए. मेरी मदद कीजिए,’’ कहते हुए उस ने मेरी ओर देखा. ‘‘क्या हुआ?है आप के शौहर को? और कहां हैं वह, कुछ तो बताइए?’’ ‘‘मेरे पति जख्मी हालत में उधर झाडि़यों के पास पड़े हैं,’’

उस ने इशारे से बताया. ‘‘बैठ जाओ. घबराने की कोई बात नहीं,’’ मैं ने उसे दिलासा दिया. ‘‘चाचाजी, पहले उन्हें ले आइए. मुझे बहुत डर लग रहा है, कहीं कोई आ न जाए,’’ उस की घबराहट अपनी जगह ठीक थी और मैं भी यही सोच रहा था कि कहीं महेश आ न जाए. क्योंकि मैं जानता था कि वह भी दंगा करने वालों के साथ शामिल हो गया है. कुछ देर मैं खड़ा सोचता रहा, फिर उस के साथ दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया और उस के शौहर को सहारा दे कर कमरे में ले आया. वह ज्यादा जख्मी नहीं था, लेकिन अपने होशोहवास खोए हुए था. मैं ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया. फिर घर में रखी दवा निकाल कर मरहमपट्टी करने लगा. फिर मैं उस औरत से बोला, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है. तुम्हारा शौहर अभी ठीक हो जाएगा.’’ ‘‘सच…? मेरे खाविंद ठीक हो जाएंगे?’’

उस की आवाज के साथ पहली दफा मैं ने उस औरत का भरपूर जायजा लिया, तो पता चला कि वह ज्यादा से ज्यादा 22-23 साल की होगी. वह साड़ी में थी और पेट से थी. मैं कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘आप ने बड़ी हिम्मत की, जो यहां आ गईं… आप ने कैसे यकीन कर लिया कि आप को यहां पनाह मिल जाएगी?’’ ‘‘मुझे मालूम है कि आप कौन हैं? कई सालों तक आप पलामू में हमारे पड़ोसी थे. पिछले हफ्ते ही मैं यहां आई हूं… तब से आप से मिलना चाह रही थी. ‘‘कल इन पर दफ्तर से आते हुए हमला हो गया, जिस से ये जख्मी हो गए. वह तो इन के आटोरिकशा के ड्राइवर की मेहरबानी थी कि उस ने किसी तरह इन्हें बचा कर अपने घर में रखा. फिर अंधेरा होते ही उस ने हमारे कहने पर यहां तक पहुंचा दिया. अब मैं आप के सामने हूं. शायद आप ने मुझे पहचाना नहीं चाचा, मैं आप के पड़ोसी रहमान की बेटी आयशा हूं.’’ इतना सुनते ही मैं ने उसे सीने से लगा लिया और भरे गले से बोला, ‘‘इतनी बड़ी हो गई बिटिया… मैं ने तो तुझे पहचाना ही नहीं. बैठोबैठो, आराम से बैठो.’’ तभी मुझे याद आया कि शायद ये लोग भूखे होंगे, इसलिए आयशा से बोला, ‘‘तुम आराम से यहां बैठो. मैं तुम्हारे लिए खाने का बंदोबस्त करता हूं… और हां, अंदर से दरवाजा बंद कर लो और जब तक मैं न कहूं, दरवाजा मत खोलना.’’

इतना सुनते ही वह घबरा कर बोली, ‘‘कोई आने वाला है क्या?’’ ‘‘नहीं, कोई नहीं. हो सकता है महेश लौट आए.’’ ‘‘अरे महेश भाई… तब तो मेरी परेशानी यों ही दूर हो जाएगी.’’ मैं दिल ही दिल में सोचने लगा कि इसे कैसे बताऊं कि मुझे इस वक्त खतरा महसूस हो रहा है तो सिर्फ महेश से ही. मैं इन्हीं खयालों में उलझा हुआ रसोई की तरफ चला गया. अभी मैं आमलेट बना ही रहा था कि दरवाजे पर स्कूटर के रुकने की आवाज सुन कर एकदम घबरा गया. इस से पहले कि महेश दरवाजा खटखटाता, मैं ने किवाड़ खोल दिए. ‘‘क्या बात है बापू, आप बहुत परेशान नजर आ रहे हैं?’’ महेश अंदर दाखिल होते ही मुझ से बोला. ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. तुम सारा दिन घर से गायब रहे, इसीलिए परेशान था.’’ ‘‘शायद यही वजह है कि आप मेरे कमरे की खिड़कियां बंद करना भूल गए? अच्छा, पहले मैं आप के कमरे की खिड़की बंद कर दूं, फिर बातें करेंगे.’’ ‘‘मैं बंद कर देता हूं.

तुम जरा रसोई में आमलेट देख लो.’’ महेश जैसे ही रसोई की तरफ गया, मैं ने धीरे से कहा, ‘‘आयशा बेटी, दरवाजा खोलो.’’ जैसे ही आयशा ने दरवाजा खोला, इस से पहले कि मैं भीतर दाखिल होता, महेश तेजी से पलट कर दरवाजे के दोनों पट खोल कर मेरे सामने खड़ा हो गया. ‘‘तो यह बात है… आप ने जालिमों की संतानों को यहां छिपा रखा है?’’ कह कर महेश मुझे घूरने लगा. अचानक आयशा बोल पड़ी, ‘‘अरे महेश भाई, आप ने मुझे पहचाना नहीं? मैं आप ही की मुंहबोली बहन आयशा हूं.’’ ‘‘मेरी कोई बहनवहन नहीं. तुम विधर्मी की औलाद मेरी बहन कैसे हो सकती हो?’’ फिर वह चीख कर मुझ से बोला, ‘‘आप ने अपने घर में एक मुसलिम को पनाह दे कर अच्छा नहीं किया. मैं इसे जिंदा नहीं छोड़ूंगा,’’

वह छुरा निकाल कर मेरे सामने खड़ा हो गया. यह देख कर आयशा के मुंह से चीख निकल गई और वह भाग कर मेरे पीछे चली आई. मैं महेश के सामने गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘इस ने तुम्हारी मां की कोख से जन्म तो नहीं लिया, लेकिन इस का बचपन मेरी ही गोद में गुजरा था…’’ ‘‘कुछ भी हो बापू, यह है तो एक मुसलिम की औलाद ही. इन्होंने हमारे कितने ही मंदिरों को तोड़ा है, हमारी कौम का खून बहाया है. हमारे मंदिरों की दौलतों को दोनों हाथों से लूटा है. मैं इसे कैसे जिंदा छोड़ सकता हूं?’’ मैं जानता था कि यह महेश रोज ऐसे लोगों में उठताबैठता है, जो रातदिन हिंदूमुसलिम करते रहते हैं. पुलिस वाले डर के मारे उन्हें कुछ नहीं कहते. किसी से भी कुछ भी छीन लेते हैं, कभी चंदे के नाम पर, कभी गाय के नाम पर. होटलों में मुफ्त खाना खाते हैं. पैसे मांगने पर धमकी देते हैं, शोर मचा देंगे कि मीट में गौमांस मिला है. ‘‘बेकार की बातें मत करो महेश. देखते नहीं,

इस का शौहर जख्मी है और आयशा की हालत भी देखो बेटे, इसे तो मजहबी नजर से भी रहम और पनाह चाहिए. इन दोनों पर तुम रहम खाओ,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की. ‘‘नहीं बापू, इस से पहले कि इस धरती पर एक और विधर्मी जन्म ले, मेरी कौम का एक और कातिल पैदा हो, मैं इस का वजूद मिटा दूंगा. आप सामने से हट जाइए.’’ आयशा मेरे पीछे छिपी थरथर कांप रही थी. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. एक तरफ एकलौती औलाद थी और दूसरी तरफ मेरे उसूल थे. मेरे दिलोदिमाग में एक हलचल सी मची हुई थी. मैं ने एक बार फिर महेश को समझाने की कोशिश की, ‘‘अगर इन्हें मारना है तो पहले मुझे मारो, क्योंकि मेरे दादा ने भी आजादी की जंग में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था और इस के दादा ने भी. हिंदुस्तान के बंटवारे पर दोनों ने आंसू बहाए थे और इस के पूरे खानदान के पाकिस्तान चले जाने के बावजूद ये लोग मेरी वजह से पलामू में वतन की मिट्टी से चिपटे रहे. ‘‘महेश, इन्हें अपनी धरती मां से बहुत प्यार है रे, इन्होंने हिंदुस्तान इसीलिए नहीं छोड़ा,

क्योंकि ये मजहब की बुनियाद पर दिलों का बंटवारा नहीं चाहते थे. हिंदू और मुसलमान दोनों ही मुझे अजीज हैं. यही सोच मैं ने तुम्हें भी दी, लेकिन न जाने मेरी परवरिश में कहां कमी रह गई कि तुम्हारे जीने का नजरिया ही न जाने किन लोगों के बीच बैठ कर बदल गया.’’ मेरी इतनी बात सुन कर वह सकते में आ गया. लेकिन थोड़ी देर बाद मुझे महसूस हुआ कि उस की दीवानगी में कोई कमी नहीं आई है. फिर न जाने मुझ में कहां से अचानक ताकत सी पैदा हो गई. मैं ने लपक कर महेश के हाथ से छुरा छीन लिया और चीख कर बोला, ‘‘आयशा को अगर हाथ भी लगाया, तो मुझ से बुरा कोई न होगा.’’ मेरी बात सुन कर महेश ने एक जोरदार ठहाका लगाया, ‘‘तो क्या आप एक मुसलिम को बचाने की खातिर अपने एकलौते बेटे को मारेंगे?’’ और फिर वह हंसने लगा,

‘‘यह तो आप कभी कर ही नहीं पाएंगे. मैं इसे जिंदा नहीं छोड़ूंगा.’’ यह कहते हुए वह आहिस्ताआहिस्ता आयशा की तरफ बढ़ा, ‘‘छुरा आप के पास है तो क्या हुआ, मैं अपने हाथों से इस का गला घोंट दूंगा.’’ जैसे ही महेश आयशा की तरफ बढ़ा, मैं ने छुरा चला दिया. इस से पहले कि वह आयशा को हाथ लगाता, एक दर्दनाक चीख की आवाज गूंज उठी और दूसरे ही पल महेश चकरा कर मेरे कदमों में गिर पड़ा. कुछ पलों तक मैं वहीं खामोश खड़ा खून में लथपथ उस को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘आयशा बेटी, ऐसी वहशी औलाद से बेऔलाद रहना बेहतर है.’’ फिर महेश की लाश पर निगाह डाल कर मैं आयशा के साथ दूसरे कमरे में चला गया. Story In Hindi

Hindi Story: दुश्मन – रिश्तों की सच्चाई का विजय ने जब सोमा को दिखाया आईना

Hindi Story: ‘‘कभी किसी की तारीफ करना भी सीखो सोम, सुनने वाले के कानों में कभी शहद भी टपकाया करो. सदा जहर ही टपकाना कोई रस्म तो नहीं है न, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सदा निभाया ही जाए.’’टेढ़ी आंख से सोम मुझे देखने लगा.

‘‘50 के पास पहुंच गई तुम्हारी उम्र और अभी भी तुम ने जीवन से कुछ नहीं सीखा. हाथ से कंजूस नहीं हो तो जबान से ही कंजूसी किस लिए?’’ बड़बड़ाता हुआ क्याक्या कह गया मैं.

वह चुप रहा तो मैं फिर बोला, ‘‘अपने चारों तरफ मात्र असंतोष फैलाते हो और चाहते हो तुम्हें संतोष और चैन मिले, कभी किसी से मीठा नहीं बोलते हो और चाहते हो हर कोई तुम से मीठा बोले. सब का अपमान करते हो और चाहते हो तुम्हें सम्मान मिले…तुम तो कांटों से भरा कैक्टस हो सोम, कोई तुम से छू भर भी कैसे जाए, लहूलुहान कर देते हो तुम सब को.’’

शायद सोम को मुझ से ऐसी उम्मीद न थी. सोम मेरा छोटा भाई है और मैं उसे प्यार करता हूं. मैं चाहता हूं कि मेरा छोटा भाई सुखी रहे, खुश रहे लेकिन यह भी सत्य है कि मेरे भाई के चरित्र में ऐसा कोई कारण नहीं जिस वजह से वह खुश रहे. क्या कहूं मैं? कैसे समझाऊं, इस का क्या कारण है, वह पागल नहीं है. एक ही मां के शरीर से उपजे हैं हम मगर यह भी सच है कि अगर मुझे भाई चुनने की छूट दे दी जाती तो मैं सोम को कभी अपना भाई न चुनता. मित्र चुनने को तो मनुष्य आजाद है लेकिन भाई, बहन और रिश्तेदार चुनने में ऐसी आजादी कहां है.

मैं ने जब से होश संभाला है सोम मेरी जिम्मेदारी है. मेरी गोद से ले कर मेरे बुढ़ापे का सहारा बनने तक. मैं 60 साल का हूं, 10 साल का था मैं जब वह मेरी गोद में आया था और आज मेरे बुढ़ापे का सहारा बन कर वह मेरे साथ है मगर मेरी समझ से परे है.

मैं जानता हूं कि वह मेरे बड़बड़ाने का कारण कभी नहीं पूछेगा. किसी दूसरे को उस की वजह से दर्द या तकलीफ भी होती होगी यह उस ने कभी नहीं सोचा.

उठ कर सोम ऊपर अपने घर में चला गया. ऊपर का 3 कमरों का घर उस का बसेरा है और नीचे का 4 कमरों का हिस्सा मेरा घर है.

जिन सवालों का उत्तर न मिले उन्हें समय पर ही छोड़ देना चाहिए, यही मान कर मैं अकसर सोम के बारे में सोचना बंद कर देना चाहता हूं, मगर मुझ से होता भी तो नहीं यह कुछ न कुछ नया घट ही जाता है जो मुझे चुभ जाता है.

कितने यत्न से काकी ने गाजर का हलवा बना कर भेजा था. काकी हमारी पड़ोसिन हैं और उम्र में मुझ से जरा सी बड़ी होंगी. उस के पति को हम भाई काका कहते थे जिस वजह से वह हमारी काकी हुईं. हम दोनों भाई अपना खाना कभी खुद बनाते हैं, कभी बाजार से लाते हैं और कभीकभी टिफिन भी लगवा लेते हैं. बिना औरत का घर है न हमारा, न तो सोम की पत्नी है और न ही मेरी. कभी कुछ अच्छा बने तो काकी दे जाती हैं. यह तो उन का ममत्व और स्नेह है.

‘‘यह क्या बकवास बना कर भेज दिया है काकी ने, लगता है फेंकना पड़ेगा,’’ यह कह कर सोम ने हलवा मेरी ओर सरका दिया.

सोम का प्लेट परे हटा देना ही मुझे असहनीय लगा था. बोल पड़ा था मैं. सवाल काकी का नहीं, सवाल उन सब का भी है जो आज सोम के साथ नहीं हैं, जो सोम से दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते हैं.

स्वादिष्ठ बना था गाजर का हलवा, लेकिन सोम को पसंद नहीं आया सो नहीं आया. सोम की पत्नी भी बहुत गुणी, समझदार और पढ़ीलिखी थी. दोषरहित चरित्र और संस्कारशील समझबूझ. हमारे परिवार ने सोम की पत्नी गीता को सिर- आंखों पर लिया था, लेकिन सोम के गले में वह लड़की सदा फांस जैसी ही रही.

‘मुझे यह लड़की पसंद नहीं आई मां. पता नहीं क्या बांध दिया आप ने मेरे गले में.’

‘क्यों, क्या हो गया?’

अवाक् रह गए थे मां और पिताजी, क्योंकि गीता उन्हीं की पसंद की थी. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी और साल भर का बच्चा ले कर गीता सदा के लिए चली गई. पढ़ीलिखी थी ही, बच्चे की परवरिश कर ली उस ने.

उस का रिश्ता सोम से तो टूट गया लेकिन मेरे साथ नहीं टूट पाया. उस ने भी तोड़ा नहीं और हम पतिपत्नी ने भी सदा उसे निभाया. उस का घर फिर से बसाने का बीड़ा हम ने उठाया और जिस दिन उसे एक घर दिलवा दिया उसी दिन हम एक ग्लानि के बोझ से मुक्त हो पाए थे. दिन बीते और साल बीत गए. गीता आज भी मेरी बहुत कुछ है, मेरी बेटी, मेरी बहन है.

मैं ने उसे पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखने दिया. वह मेरी अपनी बच्ची होती तो भी मैं इसी तरह करता.

कुछ देर बाद सोम ऊपर से उतर कर नीचे आया. मेरे पास बैठा रहा. फिर बोला, ‘‘तुम तो अच्छे हो न, तो फिर तुम क्यों अकेले हो…कहां है तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे?’’

मैं अवाक् रह गया था. मानो तलवार सीने में गहरे तक उतार दी हो सोम ने, वह तलवार जो लगातार मुझे जराजरा सी काटती रहती है. मेरी गृहस्थी के उजड़ने में मेरी तो कोई भूल नहीं थी. एक दुर्घटना में मेरी बेटीबेटा और पत्नी चल बसे तो उस में मेरा क्या दोष. कुदरत की मार को मैं सह रहा हूं लेकिन सोम के शब्दों का प्रहार भीतर तक भेद गया था मुझे.

कुछ दिन से देख रहा हूं कि सोम रोज शाम को कहीं चला जाता है. अच्छा लगा मुझे. कार्यालय के बाद कहीं और मन लगा रहा है तो अच्छा ही है. पता चला कुछ भी नया नहीं कर रहा सोम. हैरानपरेशान गीता और उस का पति संतोष मेरे सामने अपने बेटे विजय को साथ ले कर खडे़ थे.

‘‘भैया, सोम मेरा घर बरबाद करने पर तुले हैं. हर शाम विजय से मिलने लगे हैं. पता नहीं क्याक्या उस के मन में डाल रहे हैं. वह पागल सा होता जा रहा है.’’

‘‘संतान के मन में उस की मां के प्रति जहर घोल कर भला तू क्या साबित करना चाहता है?’’ मैं ने तमतमा कर कहा.

‘‘मुझे मेरा बच्चा वापस चाहिए, विजय मेरा बेटा है तो क्या उसे मेरे साथ नहीं रहना चाहिए?’’ सफाई देते सोम बोला.

‘‘आज बच्चा पल गया तो तुम्हारा हो गया. साल भर का ही था न तब, जब तुम ने मां और बच्चे का त्याग कर दिया था. तब कहां गई थी तुम्हारी ममता? अच्छे पिता नहीं बन पाए, कम से कम अच्छे इनसान तो बनो.’’

आखिर सोम अपना रूप दिखा कर ही माना. पता नहीं उस ने क्या जादू फेरा विजय पर कि एक शाम वह अपना सामान समेट मां को छोड़ ही आया. छटपटा कर रह गया मैं. गीता का क्या हाल हो रहा होगा, यही सोच कर मन घुटने लगा था. विजय की अवस्था से बेखबर एक दंभ था मेरे भाई के चेहरे पर.

मुझे हारा हुआ जुआरी समझ मानो कह रहा हो, ‘‘देखा न, खून आखिर खून होता है. आ गया न मेरा बेटा मेरे पास…आप ने क्या सोचा था कि मेरा घर सदा उजड़ा ही रहेगा. उजडे़ हुए तो आप हैं, मैं तो परिवार वाला हूं न.’’

क्या उत्तर देता मैं प्रत्यक्ष में. परोक्ष में समझ रहा था कि सोम ने अपने जीवन की एक और सब से बड़ी भूल कर दी है. जो किसी का नहीं हुआ वह इस बच्चे का होगा इस की भी क्या गारंटी है.

एक तरह से गीता के प्रति मेरी जिम्मेदारी फिर सिर उठाए खड़ी थी. उस से मिलने गया तो बावली सी मेरी छाती से आ लगी.

‘‘भैया, वह चला गया मुझे छोड़ कर…’’

‘‘जाने दे उसे, 20-22 साल का पढ़ालिखा लड़का अगर इतनी जल्दी भटक गया तो भटक जाने दे उसे, वह अगर तुम्हारा नहीं तो न सही, तुम अपने पति को संभालो जिस ने पलपल तुम्हारा साथ दिया है.’’

‘‘उन्हीं की चिंता है भैया, वही संभल नहीं पा रहे हैं. अपनी संतान से ज्यादा प्यार दिया है उन्होंने विजय को. मैं उन का सामना नहीं कर पा रही हूं.’’

वास्तव में गीता नसीब वाली है जो संतोष जैसे इनसान ने उस का हाथ पकड़ लिया था. तब जब मेरे भाई ने उसे और बच्चे को चौराहे पर ला खड़ा किया था. अपनी संतान के मुंह से निवाला छीन जिस ने विजय का मुंह भरा वह तो स्वयं को पूरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रहा होगा न.

संतोष के आगे मात्र हाथ जोड़ कर माफी ही मांग सका मैं.

‘‘भैया, आप क्यों क्षमा मांग रहे हैं? शायद मेरे ही प्यार में कोई कमी रही जो वह…’’

‘‘अपने प्यार और ममता का तिरस्कार मत होने दो संतोष…उस पिता की संतान भला और कैसी होती, जैसा उस का पिता है बेटा भी वैसा ही निकला. जाने दो उसे…’’

‘‘विजय ने आज तक एक बार भी नहीं सोचा कि उस का बाप कहां रहा. आज ही उस की याद आई जब वह पल गया, पढ़लिख गया, फसल की रखवाली दिनरात जो करता रहा उस का कोई मोल नहीं और बीज डालने वाला मालिक हो गया.’’

‘‘बच्चे का क्या दोष भैया, वह बेचारा तो मासूम है…सोम ने जो बताया होगा उसे ही मान लिया होगा…अफसोस यह कि गीता को ही चरित्रहीन बता दिया, सोम को छोड़ वह मेरे साथ भाग गई थी ऐसा डाल दिया उस के दिमाग में…एक जवान बच्चा क्या यह सच स्वीकार कर पाता? अपनी मां तो हर बेटे के लिए अति पूज्यनीय होती है, उस का दिमाग खराब कर दिया है सोम ने और  फिर विजय का पिता सोम है, यह भी तो असत्य नहीं है न.’’

सन्नाटे में था मेरा दिलोदिमाग. संतोष के हिलते होंठों को देख रहा था मैं. यह संतोष ही मेरा भाई क्यों नहीं हुआ. अगर मुझे किसी को दंड देने का अधिकार प्राप्त होता तो सब से पहले मैं सोम को मृत्युदंड देता जिस ने अपना जीवन तो बरबाद किया ही अब अपने बेटे का भी सर्वनाश कर रहा है.

2-4 दिन बीत गए. सोम बहुत खुश था. मैं समझ सकता था इस खुशी का रहस्य.

शाम को चाय का पहला ही घूंट पिया था कि दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘ताऊजी, मैं अंदर आ जाऊं?’’

विजय खड़ा था सामने. मैं ने आगेपीछे नजर दौड़ाई, क्या सोम से पूछ कर आया है. स्वागत नहीं करना चाहता था मैं उस का लेकिन वह भीतर चला ही आया.

‘‘ताऊजी, आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगा?’’

चुप था मैं. जो इनसान अपने बाप का नहीं, मां का नहीं वह मेरा क्या होगा और क्यों होगा.

सहसा लगा, एक तूफान चला आया हो सोम खड़ा था आंगन में, बाजार से लौटा था लदाफंदा. उस ने सोचा भी नहीं होगा कि उस के पीछे विजय सीढि़यां उतर मेरे पास चला आएगा.

‘‘तुम नीचे क्यों चले आए?’’

चुप था विजय. पहली बार मैं ने गौर से विजय का चेहरा देखा.

‘‘मैं कैदी हूं क्या? यह मेरे ताऊजी हैं. मैं इन से…’’

‘‘यह कोई नहीं है तेरा. यह दुश्मन है मेरा. मेरा घर उजाड़ा है इस ने…’’

सोम का अच्छा होने का नाटक समाप्त होने लगा. एकाएक लपक कर विजय की बांह पकड़ ली सोम ने और यों घसीटा जैसे वह कोई बेजान बुत हो.

‘‘छोडि़ए मुझे,’’ बहुत जोर से चीखा विजय, ‘‘बच्चा नहीं हूं मैं. अपनेपराए और अच्छेबुरे की समझ है मुझे. सभी दुश्मन हैं आप के, आप का भाई आप का दुश्मन, मेरी मां आप की दुश्मन…’’

‘‘हांहां, तुम सभी मेरे दुश्मन हो, तुम भी दुश्मन हो मेरे, तुम मेरे बेटे हो ही नहीं…चरित्रहीन है तुम्हारी मां. संतोष के साथ भाग गई थी वह, पता नहीं कहां मुंह काला किया था जो तेरा जन्म हुआ था…तू मेरा बच्चा होता तो मेरे बारे में सोचता.’’

मेरा बांध टूट गया था. फिर से वही सब. फिर से वही सभी को लहूलुहान करने की आदत. मेरा उठा हुआ हाथ विजय ने ही रोक लिया एकाएक.

‘‘रहने दीजिए न ताऊजी, मैं किस का बेटा हूं मुझे पता है. मेरे पिता संतोष हैं जिन्होंने मुझे पालपोस कर बड़ा किया है, जो इनसान मेरी मां की इज्जत करता है वही मेरा बाप है. भला यह इनसान मेरा पिता कैसे हो सकता है, जो दिनरात मेरी मां को गाली देता है. जो जरा सी बात पर दूसरे का मानसम्मान मिट्टी में मिला दे वह मेरा पिता नहीं.’’

स्तब्ध रह गया मैं भी. ऐसा लगा, संतोष ही सामने खड़ा है, शांत, सौम्य. सोम को एकटक निहार रहा था विजय.

‘‘आप के बारे में जो सुना था वैसा ही पाया. आप को जानने के लिए आप के साथ कुछ दिन रहना बहुत जरूरी था सो चला आया था. मेरी मां आप को क्यों छोड़ कर चली गई होगीं मैं समझ गया आज…अब मैं अपने मांबाप के साथ पूरापूरा न्याय कर पाऊंगा. बहुत अच्छा किया जो आप मुझ से मिल कर यहां चले आने को कहते रहे. मेरा सारा भ्रम चला गया, अब कोई शक नहीं बचा है.

‘‘सच कहा आप ने, मैं आप का बच्चा होना भी नहीं चाहता. आप ने 20 साल पहले भी मुझे दुत्कारा था और आज भी दुत्कार दिया. मेरा इतना सा ही दोष कि मैं नीचे ताऊजी से मिलने चला आया. क्या यह इतना बड़ा अपराध है कि आप यह कह दें कि आप मेरे पिता ही नहीं… अरे, रक्त की चंद बूंदों पर ही आप को इतना अभिमान कि जब चाहा अपना नाम दे दिया, जब चाहा छीन लिया. अपने पुरुष होने पर ही इतनी अकड़, पिता तो एक जानवर भी बनता है. अपने बच्चे के लिए वह भी उतना तो करता ही है जितना आप ने कभी नहीं किया. क्या चाहते हैं आप, मैं समझ ही नहीं पाया. मेरे घर से मुझे उखाड़ दिया और यहां ला कर यह बता रहे हैं कि मैं आप का बेटा ही नहीं हूं, मेरी मां चरित्रहीन थी.’’

हाथ का सामान जमीन पर फेंक कर सोम जोरजोर से चीखने लगा, पता नहीं क्याक्या अनापशनाप बकने लगा.विजय लपक कर ऊपर गया और 5 मिनट बाद ही अपना बैग कंधे पर लटकाए नीचे उतर आया

चला गया विजय. मैं सन्नाटे में खड़ा अपनी चाय का प्याला देखने लगा. एक ही घूंट पिया था अभी. पहले और दूसरे घूंट में ही कितना सब घट गया. तरस आ रहा था मुझे विजय पर भी, पता नहीं घर पहुंचने पर उस का क्या होगा. उस का भ्रम टूट गया, यह तो अच्छा हुआ पर रिश्ते में जो गांठ पड़ जाएगी उस का निदान कैसे होगा.

‘‘रुको विजय, बेटा रुको, मैं साथ चलता हूं.’’

‘‘नहीं ताऊजी, मैं अकेला आया था न, अकेला ही जाऊंगा. मम्मी और पापा को रुला कर आया था, अभी उस का प्रायश्चित भी करना है मुझे.’’ Hindi Story

Story In Hindi: टूटते जुड़ते सपनों का दर्द

Story In Hindi: कालेज की लंबी गोष्ठी ने प्रिंसिपल गौरा को बेहद थका डाला था. मौसम भी थोड़ा गरम हो चला था, इसलिए शाम के समय भी हवा में तरावट का अभाव था. उन्होंने जल्दीजल्दी जरूरी फाइलों पर हस्ताक्षर किए और हिंदी की प्रोफेसर के साथ बाहर आईं. अनुराधा की गाड़ी नहीं आई थी, सो उन्हें भी अपनी गाड़ी में साथ ले लिया. घर आने पर अनुराधा ने बहुत आग्रह किया कि चाय पी कर ही वे जाएं, लेकिन एक तो गोष्ठी की गंभीर चर्चाओं पर बहस की थकान, दूसरे मन की खिन्नता ने वह आमंत्रण स्वीकार नहीं किया. वे एकदम अपने कमरे में जाना चाह रही थीं.

सुबह से ही मन खिन्न हो उठा था. अगर यह अति आवश्यक गोष्ठी नहीं होती तो वे कालेज जाती भी नहीं. आज की सुबह आंखों में तैर उठी. कितनी खुश थीं सुबह उठ कर. सिरहाने की लंबी खिड़की खोलते ही सिंदूरी रंग का गोला दूर उठता हुआ रोज नजर आता. आज भी वे उस रंग के नाजुक गाढ़ेपन को देख कर मुग्ध हो उठी थीं. तभी पड़ोस में रहने वाली अनुराधा के नौकर ने बंद लिफाफा ला कर दिया, जो कल शाम की डाक से आया था और भूल से उन के यहां डाकिया दे गया था.

उसी मुदित भाव से लिफाफा खोला. छोटी बहन पूर्वा का पत्र था उस में. गोल तकिए पर सिर टेक कर आराम से पढ़ने लगीं, लेकिन पढ़तेपढ़ते उन का मन पत्ते सा कांपने लगा और चेहरे से जैसे किसी ने बूंदबूंद खुशी निचोड़ ली थी. ऐसा लगा कि वे ऊंची चट्टान से लुढ़क कर खाई में गिर कर लहूलुहान हो गई हैं. जैसे कोई दर्द का नुकीला पंजा है जो धीरेधीरे उन की ओर खौफनाक तरीके से बढ़ता आ रहा है. उन की आंखों से मन का दर्द पानी बन कर बह निकला.

दरवाजे की घंटी बजी. दुर्गा आ गई थी काम करने. गौरा ने पलकों में दर्द समेट लिया और कालेज जाने की तैयारी में लग गईं. मन उजाड़ रास्तों पर दौड़ रहा था, पागल सा. आंखें खुली थीं, पर दृष्टि के सामने काली परछाइयां झूल रही थीं. कितनी कठिनाई से पूरा दिन गुजारा था उन्होंने. हंसीं भी, बोलीं भी, कई मुखौटे उतारतीचढ़ाती भी रहीं, परंतु भीतर का कोलाहल बराबर उन्हें बेरहमी से गरम रेत पर पछाड़ता रहा. क्या पूर्वा का जीवन संवारने की चेष्टा व्यर्थ गई? क्या उन के हाथों कोई अपराध हुआ है, जिस की सजा पूरी जिंदगी पूर्वा को झेलनी होगी?

अपने कमरे में आ कर वे बिस्तर पर निढाल हो कर पड़ गईं. मैले कपड़ों की खुली बिखरी गठरी की तरह जाने कितने दृश्य आंखों में तैरने लगे. विचारों का काफिला धूल भरे रास्तों में भटकने लगा.

3 भाइयों के बाद उन का जन्म हुआ था. सभी बड़े खुश हुए थे. कस्तूरी काकी और सोना बूआ बताती रहती थीं कि 7 दिन तक गीत गाए गए थे और छोटेबड़े सभी में लड्डू बांटे गए थे. बाबा ने नाम दिया, गौरा. सोचा होगा कि बेटी के बाद और लड़के होंगे. इसी पुत्र लालसा के चक्कर में 2 बहनें और हो गईं. तब न गीत गाए गए और न लड्डू ही बांटे गए.

कहते हैं न कि जब लोग अपनी स्वार्थ लिप्सा की पूर्ति मनचाहे ढंग से प्राप्त नहीं कर पाते हैं तब घर के द्वारदेहरी भी रुष्ट हो जाते हैं. वहां यदि अपनी संतान में बेटाबेटी का भेद कर के निराशा, कुंठा, निरादर और घृणा को बो दिया जाए तो घर एक सन्नाटा भरा खंडहर मात्र रह जाता है.

उस भरेपूरे घर में धीरेधीरे कष्टों के दायरे बढ़ने प्रारंभ होने लगे. बड़े भाई छुट्टी के दिन अपने साथियों के साथ नदी स्नान के लिए गए थे. तैरने की शर्त लगी. उन्हें नदी की तेज लहरें अपने चक्रवात में घेर कर ले डूबीं. लौट कर आई थी उन की फूली हुई लाश. घर भर में कुहराम मच गया था. मां और बाबूजी पागल हो उठे. बाबा की आंखें सूखे कुएं की तरह अंधेरों से अट गईं.

धीमेधीमे शब्दों में कहा जाने लगा कि तीनों लड़कियां भाई की मौत का कारण बनी हैं. न तीनों नागिनें पैदा होतीं और न हट्टाकट्टा भाई मौत का ग्रास बनता. समय ने सभी के घावों को पूरना शुरू ही किया था कि बीच वाले भाई हीरा के मोतीझरा निकला. वह ऐसा बिगड़ा कि दवाओं और डाक्टरों की सारी मेहनत पर पानी फेरता रहा.

मौत फिर दबेपांव आई और चुपचाप अपना काम कर गई. इस बार के हाहाकार ने आकाश तक हिला दिया. पिता एकदम टूट गए. 20 वर्ष आगे का बुढ़ापा एक रात में ही उन पर छा गया था. बाबा खाट से चिपक गए थे. मां चीखचीख कर अधमरी हो उठीं और बिना किसी लाजहिचक के जोरजोर से घोषणा करने लगीं कि मेरी तो लड़कियां ही साक्षात मौत बन कर पूरा कुनबा खत्म करने आई हैं. इन का तो मुंह देखना भी पाप है.

महल्ला, पड़ोस, रिश्तेदार सभी परिवार के सदस्यों के साथ तीनों बहनों को भरपूर कोसने लगे. अपने ही घर में तीनों किसी एकांत कोने में पड़ी रहतीं, अपमानित और दुत्कारी हुईं. न कोई प्यार से बोलता, न कोई आंसू पोंछता. तीनों की इच्छाएं मर कर काठ हो गईं. लाख सोचने पर भी वे यह समझ नहीं पाईं कि भाइयों की मृत्यु से उन का क्या संबंध है, वे मनहूस क्यों हैं.

तीसरा भाई बचपन से जिद्दी व दंगली किस्म का था. अब अकेला होने पर वह और बेलगाम हो गया था. सभी उसी को दुलारते रहते. उस की हर जिद पूरी होती और सभी गलतियां माफ कर दी जातीं. नतीजा यह हुआ कि वह स्कूल में नियमित नहीं गया. उलटेसीधे दोस्त बन गए. घर से बाहर सुबह से शाम तक व्यर्थ में घूमता, भटकता रहता. ऐसे ही गलत भटकाव में वह नशे का भयंकर आदी हो गया. न ढंग से खाता, न नींद भर सो पाता था. मातापिता से खूब जेबखर्च मिलता. कोई सख्ती से रोकनेटोकने वाला नहीं था. एक दिन कमरे में जो सोया तो सुबह उठा ही नहीं. उस के चारों ओर नशीली गोलियों और नशीले पाउडरों की रंग- बिरंगी शीशियां फैली पड़ी थीं और वह मुंह से निकले नीले झाग के साथ मौत की गोद में सो रहा था.

उस की ऐसी घिनौनी मौत को देख कर तो जैसे सभी गूंगेबहरे से हो उठे थे. पूरे पड़ोस में उस घर की बरबादी पर हाहाकार मच गया था. कहां तक चीखतेरोते? आंसुओं का समंदर भीतर के पहाड़ जैसे दुख ने सोख लिया था. घर भर में फैले सन्नाटे के बीच वे तीनों बहनें अपराधियों की तरह खुद को सब की नजरों से छिपाए रहती थीं. उचित देखभाल और स्नेह के अभाव में तीनों ही हर क्षण भयभीत रहतीं. अब तो उन्हें अपनी छाया से भी भय लगने लगा था. दिन भर उन्हें गालियां दे कर कोसा जाता और बातबात पर पिटाई की जाती.

जानवर की तरह उन्हें घर के कामों में जुटा दिया गया था. वे उस घर की बेटियां नहीं, जैसे खरीदी हुई गुलाम थीं, जिन्हें आधा पेट भोजन, मोटाझोटा कपड़ा और अपशब्द इनाम में मिलते थे. पढ़ाई छूट गई थी. गौरा तो किसी तरह 10वीं पास कर चुकी थी लेकिन छोटी चित्रा और पूर्वा अधिक नहीं पढ़ पाईं. जब भी सगी मां द्वारा वे दोनों जानवरों की तरह पीटी जातीं, तब भयभीत सी कांपती हुई दोनों बड़ी बहन के गले लग कर घंटों घुटीघुटी आवाज में रोती रहती थीं.

कुछ भीतरी दुख से, कुछ रातदिन रोने से पिता की आंखें कतई बैठ गई थीं. वे पूरी तरह से अंधे हो गए थे. मां को तो पहले ही रतौंधी थी. शाम हुई नहीं कि सुबह होने तक उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता था. बाबा का स्नेह उन बहनों को चोरीचोरी मिल जाया करता था लेकिन शीघ्र ही उन की भी मृत्यु हो गई थी.

पिता की नौकरी गई तो घर खर्च का प्रश्न आया. तब बड़ी होने के नाते गौरा अपना सारा भय और अपनी सारी हिचक,  लज्जा भुला कर ट्यूशन करने लगी थी. साथ ही प्राइवेट पढ़ना शुरू कर दिया. बहनों को फिर से स्कूल में दाखिला दिलाया. तीनों बहनों में हिम्मत आई, आत्मसम्मान जागा.

तीनों मांबाबूजी की मन लगा कर सेवा करतीं और घरबाहर के काम के साथसाथ पढ़ाई चलती रही. वे ही मनहूस बेटियां अब मां और बाबूजी की आंखों की ज्योति बन उठी थीं, सभी की प्रशंसा की पात्र. महल्ले और रिश्तेदारी में उन के उदाहरण दिए जाने लगे. घर में हंसीखुशी की ताजगी लौट आई. इस ताजगी को पैदा करने में और बहनों को ऊंची शिक्षा दिलाने में वे कब अपने तनमन की ताजगी खो बैठीं, यह कहां जान सकी थीं? विवाह की उम्र बहुत पीछे छूट गई थी. छोटेबड़े स्कूलों का सफर करतेकरते इस कालेज की प्रिंसिपल बन गईं. घर में गौरा दीदी और कालेज में प्रिंसिपल डा. गौरा हो गई थीं. छोटी दोनों बहनों की शादियां उन्होंने बड़े मन से कीं. बेटियों की तरह विदा किया.

चित्रा के जब लगातार 5 लड़कियां हुईं, तब उस को ससुराल वालों से इतने ताने मिले, ऐसीऐसी यातनाएं मिलीं कि एक बार फिर उस का मन आहत हो उठा. बहुत समझाया उन लोगों को. दामाद, जो अच्छाखासा पढ़ालिखा, समझदार और अच्छी नौकरी वाला था, उसे भी भलेबुरे का ज्ञान कराया, परंतु सब व्यर्थ रहा.

चित्रा की ससुराल के पड़ोस में ही सुखराम पटवारी की लड़की सत्या की शादी हुई थी. उस ने आ कर बताया था, ‘बेकार इन पत्थरों के ढोकों से सिर फोड़ती हो, दीदी. उन पर क्या असर होने वाला है? हां, जब भी तुम्हारे खत जाते हैं या उन्हें समाज, संसार की बातें समझाती हो, तब और भी जलीकटी सुनाती हैं चित्रा की सास और जेठानी. जिस दामाद को भोलाभाला समझती हो, वह पढ़ालिखा पशु है. मारपीट करता है. हर समय विधवा ननद तानों से चित्रा को छलनी करती रहती है. चित्रा तो सूख कर हड्डियों का ढांचा भर रह गई है. बुखार, खांसी हमेशा बनी रहती है. ऊपर से धोबिया लदान, छकड़ा भर काम.’’

वे कांप उठी थीं सत्या से सारी बातें सुन कर. उस के लिए उन का मन भीगभीग उठा था. बचपन में मां से दुत्कारी जाने पर वे उसे गोदी में छिपा लेती थीं. उन की विवशता भीतर ही भीतर हाहाकार मचाए रहती थी.

एक दिन बुरी खबर आ ही गई कि क्षयरोग के कारण चित्रा चल बसी है. शुरू से ही अपमान से धुनी देह को क्षय के कीटाणु चाट गए अथवा ससुराल के लोग उस की असामयिक मौत के जिम्मेदार रहे? प्रश्नों से घिर उठीं वे हमेशा की तरह.

और इधर आज महीनों बाद मिला यह पूर्वा का पत्र. क्या बदल पाईं वे बहनों का जीवन? सोचा था कि जो कुछ उन्हें नहीं मिला वह सबकुछ बहनों के आंचल में बांध कर उन के सुखीसंपन्न जीवन को देखेगी. कितनी प्रसन्न होगी जीवन की इस उतरती धूप की गहरी छांव में. अपनी सारी महत्त्वाकांक्षाएं और मेहनत से कमाई पाईपाई उन पर न्योछावर कर दी थी. हृदय की ममता से उन्हें सराबोर कर के अपने कर्तव्यों का एकएक चरण पूरा किया परंतु…

पंखे की हवा से जैसे पूर्वा के पत्र का एकएक अक्षर उन के सामने गरम रेत के बगलों की तरह उड़ रहा था या कि जैसे पूर्वा ही सामने बैठ कर हमेशा की तरह आंसुओं में डूबी भाषा बोल रही थी. किसे सुनाएं वे मन की व्यथा? पत्र का एक- एक शब्द जैसे लावा बन कर भीतर तक झुलसाए जा रहा था :

‘दीदी, मैं रह गई थी बंजर धरती सी सूनीसपाट. कितने वर्ष काटे मैं ने ‘बंजर’ शब्द का अपमान सहते हुए और आप भी क्या कम चिंतित और बेचैन रही थीं मेरी मानसिकता देखसुन कर? फिर भी मैं अपनेआप को तब सराहने लगी थी जब आप के बारबार समझाने पर मेरे पति और ससुराल के सदस्य किसी बच्चे को गोद लेने के लिए इस शर्त पर तैयार हो गए थे कि एकदम खोजबीन कर के तुरंत जन्मा बच्चा ही लिया जाएगा और आप ने वह दुरूह कार्य भी संपन्न कराया था.

‘‘फूल सा कोमल सुंदर बच्चा पा कर सभी निहाल हो उठे थे. सास ने नाम दिया, नवजीत. ससुर प्यार से उसे पुकारते, निर्मल. बच्चे की कच्ची दूधिया निश्छल हंसी में हम सभी निहाल हो उठे. आप भी कितनी निश्ंिचत और संतुष्ट हो उठीं, लेकिन दीदी, पूत के पांव पालने में दिखने शुरू हो गए थे. मैं ने आप को कभी कुछ नहीं बताया था. सदैव उस की प्रशंसा ही लिखतीसुनाती रही. आज स्वयं को रोक नहीं पा रही हूं, सुनिए, यह शुरू से ही बेहद हठी और जिद्दी रहा. कहना न मानना, झूठ बोलना और बड़ों के साथ अशिष्ट व्यवहार करना आदि. स्कूल में मंदबुद्धि बालक माना गया.

‘क्या आप समझती हैं कि हमसब चुप रहे? नहीं दीदी, लाड़प्यार से, डराधमका कर, अच्छीअच्छी कहानियां सुना कर और पूरी जिम्मेदारी से उस पर नजर रख कर भी उस के स्वभाव को रत्ती भर नहीं बदल सके. आगे चल कर तो कपटछल से बातें करना, झूठ बोलना, धोखा देना और चोरी करना उस की पहचान हो गई. पेशेवर चोरों की तरह वह शातिर हो गया. स्कूल से भागना, सड़क पर कंचे खेलना, उधार ले कर चीजें खाना, मारनापीटना, अभद्र भाषा बोलना आदि उस की आदत हो गई. सभी परेशान हो गए. शक्लसूरत से कैसा मनोहारी, लेकिन व्यवहार में एकदम राक्षसी प्रवृत्ति वाला.

‘उम्र बढ़ने के साथसाथ उस की आवारागर्दी और उच्छृंखलता भी बढ़ने लगी. दीदी, अब वह घर से जेवर, रुपया और अपने पिता की सोने की चेन वाली घड़ी ले कर भाग गया है. 2 दिन हो चुके हैं. गलत दोस्तों के बीच क्या नहीं सीखा उस ने? जुए से ले कर नशापानी तक. सब बहुत दुखी हैं. कैसे करते पुलिस में खबर? अपनी ही बदनामी है. स्कूल से भी उस का नाम काट दिया गया था. हम क्या रपट लिखाएंगे, किसी स्कूटर की चोरी में उस की पहले से ही तलाश हो रही है.

‘दीदी, यह कैसा पुत्र लिया हम ने? इस से अच्छा तो बांझपन का दुख ही था. यों सांससांस में शर्मनाक टीसें तो नहीं उठतीं. संतानहीन रह कर इस दोहरेतिहरे बोझ तले तो न पिसती हम लोगों की जिंदगी. पढ़ेलिखे, सुरुचिपूर्ण, सुसंस्कृत परिवार के वातावरण में उस बालक के भीतर बहता लहू क्यों स्वच्छ, सुसंस्कृत नहीं हुआ, दीदी? हमारी महकती बगिया में कहां से यह धतूरे का पौधा पनप उठा? लज्जा और अपमान से सभी का सुखचैन समाप्त हो गया है. गौरा दीदी, आप के द्वारा रोपा गया सुनहरा स्वप्न इतना विषकंटक कैसे हो उठा कि जीवन पूर्णरूप से अपाहिज हो उठा है. परंतु इस में आप का भी क्या दोष?’

पत्र का अक्षरअक्षर हथौड़ा बन कर सुबह से उन पर चोट कर रहा था. टूटबिखर तो जाने कब की वे चुकी थीं, परंतु पूर्वा के खत ने तो जैसे उन के समूचे अस्तित्व को क्षतविक्षत कर डाला था. वे सोचने लगीं कि कहां कसर रह गई भला? इन बहनों को सुख देने की चाह में उन्होंने खुद को झोंक दिया. अपने लिए कभी क्षण भर को भी नहीं सोचा.

क्या लिख दें पूर्वा को कि सभी की झोली में खुशियों के फूल नहीं झरा करते पगली. ठीक है कि इस बालक को तुम्हारी सूनी, बंजर कोख की खुशी मान कर लिया था, एक तरह से उधार लिया सुख. एक बार जी तो धड़का था कि न जाने यह कैसी धरती का अंकुर होगा? जाने क्या इतिहास होगा इस का? लेकिन तसल्ली भरे विश्वास ने इन शंकालु प्रश्नों को एकदम हवा दे दी थी कि तुम्हारे यहां का सुरुचिपूर्ण, सौंदर्यबोध और सभ्यशिष्ट वातावरण इस के भीतर नए संस्कार भरने में सहायक होगा. पर हुआ क्या?

लेकिन पूर्वा, इस तरह हताश होने से काम नहीं चलेगा. इस तरह से तो वह और भी बागी, अपराधी बनेगा. अभी तो कच्ची कलम है. धीरज से खाद, पानी दे कर और बारबार कटनीछंटनी कर के क्या माली उसी कमजोर पौधे को जमीन बदलबदल कर अपने परीक्षण में सफल नहीं हो जाता? रख कर तो देखो धैर्य. बुराई काट कर ही उस में नया आदमी पैदा करना है तुम्हें. टूटे को जोड़ना ही पड़ता है. यही सार्थक भी है.

यह सोचते ही उन में एक नई शक्ति सी आ गई और वे पूर्वा को पत्र लिखने बैठ गईं. Story In Hindi

Story In Hindi: बीच की दीवार – क्यों मायके जाकर खुश नहीं थी वो

Story In Hindi: ‘‘मम्मी,आप नानी के यहां जाने के लिए पैकिंग करते हुए भी इतनी उदास क्यों लग रही हैं? आप को तो खुश होना चाहिए. नानी, मामा से मिलने जा रही हैं, पिंकी दीदी, सोनू भैया भी मिलेंगे.’’

‘‘नहींनहीं खुश तो हूं, बस जाने से पहले क्याक्या काम निबटाने हैं, यही सोच रही हूं.’’

‘‘खूब ऐंजौय करना मम्मी, हमारी पढ़ाई के कारण तो आप का जल्दी निकलना भी नहीं होता,’’ कह कर मेरे गाल पर किस कर के मेरी बेटी सुकन्या चली गई.

सही तो कह रही है, कोई मायके जाते हुए भी इतना उदास होता है? मायके जाते समय तो एक धीरगंभीर स्त्री भी चंचल तरुणी बन जाती है पर सुकन्या को क्या बताऊं, कैसे दिखाऊं उसे अपने मन पर लगे घाव. 20 साल की ही तो है. दुनिया के दांवपेचों से दूर. अभी तो उस की अपनी अलग दुनिया है, मांबाप के साए में हंसतीमुसकराती, खिलखिलाती दुनिया.

मेरे जाने के बाद अमित, सुकन्या और उस से 3 साल छोटे सौरभ को कोई परेशानी न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए घर की साफसफाई करने वाली रमाबाई और खाना बनाने वाली कमला को अच्छी तरह निर्देश दे दिए थे. अपना बैग बंद कर मैं अमित का औफिस से आने का इंतजार कर रही थी.

सौरभ ने भी खेल कर आने पर पहला सवाल यही किया, ‘‘मम्मी, पैकिंग हो गई? आप बहुत सीरियस लग रही हैं, क्या हुआ?’’

‘‘नहीं, ठीक हूं,’’ कहते हुए मैं ने मुसकराने की कोशिश की.

इतने में अमित भी आ गए. हम चारों ने साथ डिनर किया. खाना खत्म होते ही अमित बोले, ‘‘सुजाता, आज टाइम पर सो जाना. अब किसी काम की चिंता मत करना, सुबह 5 बजे  एअरपोर्ट के लिए निकलना है.’’

सब काम निबटाने में 11 बज ही गए. सोने लेटी तो अजीब सा दुख और बेचैनी थी. किसी से कह नहीं पा रही थी कि मुझे नहीं जाना मां के घर, मुझे नहीं अच्छे लगते लड़ाईझगड़े. अकसर सोचती हूं क्या शांति और प्यार से रहना बहुत मुश्किल काम है? बस अमित मेरी मनोदशा समझते हैं, लेकिन वे भी क्या कहें, खून के रिश्तों का एक अजीब, अलग ही सच यह भी है कि अगर कोई गैर आप का दिल दुखाए तो आप उस से एक झटके में किनारा कर सकते हैं, लेकिन ये खून के अपने सगे रिश्ते मन को चाहे बारबार लहूलुहान करें आप इन से भाग नहीं सकते. कल मैं मुंबई एअरपोर्ट से फ्लाइट पकड़ूंगी, 2 घंटों में दिल्ली पहुंच कर फिर टैक्सी से मेरठ मायके पहुंच जाऊंगी. जहां फिर कोई झगड़ा देखने को मिलेगा. झगड़ा वह भी मांबेटे के बीच का, सोच कर ही शर्म आ जाती है, रिटायर्ड टीचर मां और पढ़ेलिखे मुझ से 5 साल बड़े नरेन भैया, गीता भाभी और मेरी भतीजी पिंकी व भतीजे सोनू के बीच का झगड़ा, कौन गलत है कौन सही, मैं कुछ सोचना नहीं चाहती, लेकिन दोनों मुझे फोन पर एकदूसरे की गलती बताते रहते हैं, तो मन का स्वाद कसैला हो जाता है मेरा.

मायके का यह तनाव आज का नहीं है.

5 साल पहले मां जब रिटायर हुई थीं तब से यही चल रहा है. आपस के स्नेहसूत्र कहां खो गए, पता ही नहीं चला. पिछली बार मैं 2 साल पहले गई थी. इन 2 सालों में हर फोन पर तनाव बढ़ता ही दिखा. अब तो हालत यह हो गई है कि मुझ से तो कोई यह पूछता ही नहीं है कि मैं कैसी हूं, अमित और बच्चे कैसे हैं, बस मेरे ‘नमस्ते’ कहते ही शिकायतों का पिटारा खोल देते हैं सब. ऐसे माहौल में मायके जाते समय किस बेटी का दिल खुश होगा? मैं तो अब भी न जाती पर मां ने फौरन आने के लिए कहा है तो मैं बहुत बेमन से कल जा रही हूं. काश, पापा होते. बस, इतना सोचते ही आंखें भर आती हैं मेरी.

मैं 13 वर्ष की ही थी जब उन का हार्टफेल हो गया था. उन का न रहना जीवन में एक ऐसा खालीपन दे गया जिस की कमी मुझे हमेशा महसूस हुई है. उन्हें ही याद करतेकरते मेरी आंख कब लगी, पता ही नहीं चला.

सुबह बच्चों को अच्छी तरह रहने के निर्देश देते हुए हम एअरपोर्ट के लिए निकल गए. अमित से बिदा ले कर अंदर चली गई और नियत समय पर उदास सा सफर खत्म हुआ.

जैसे ही घर पहुंची, मां गेट पर ही खड़ी थीं, टैक्सी से उतरते ही घर पर एक नजर डाली तो बाहर से ही मुझे जो बदलाव दिखा उसे देख मेरा दिल बुझ गया. अब घर के एक गेट की जगह 2 गेट दिख रहे थे और एक ही घर के बीच में दिख रही थी एक दीवार. दिल को बड़ा धक्का लगा.

मैं ने गेट के बाहर से ही पूछा, ‘‘मां, यह क्या?’’

‘‘कुछ नहीं, मेरे बस का नहीं था रोजरोज का क्लेश. अब दीवार खींचने से शांति रहती है. वे लोग उधर खुश, मैं इधर खुश.’’

खुश… एक ही आंगन के 2 हिस्से. इस में खुश कैसे रह सकता है कोई?

मां और मेरी आवाज सुन कर भैया और उन का परिवार भी अपने गेट पर आ गया.

भैया ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘कैसी है सुजाता?’’

गीता भाभी भी मुझ से गले मिलीं. पिंकी, सोनू तो चिपट ही गए, ‘‘बूआ, हमारे घर चलो.’’

इतने में मां ने कहा, ‘‘सुजाता, चल अंदर यहां कब तक खड़ी रहेगी?’’

मैं तो कुछ समझ नहीं पा रही थी कि यह क्या हो गया, क्या करूं.

भैया ने ही कहा, ‘‘जा सुजाता, बाद में मिलते हैं.’’

मैं अपना बैग उठाए मां के पीछे चल दी. दीवार खड़ी होते ही घर का पूरा नक्शा बदल गया था. छत पर जाने वाली सीढि़यां भैया के हिस्से में चली गई थीं. अब छत पर जाने के लिए भैया के गेट से अंदर जाना था. आंगन का एक बड़ा हिस्सा भैया की तरफ था और एक छोटी गैलरी मां के हिस्से में जहां से बाहर का रास्ता था.

आंगन और गैलरी के बीच खड़ी एक दीवार जिसे देखदेख कर मेरे दिल

में हौल उठ रहे थे. मां एकदम शांत और सामान्य थीं. नहाधो कर मैं थोड़ी देर लेट गई. मां चाय ले आईं और फिर खुल गया शिकायतों का पिटारा. मैं अनमनी सी हो गई. इतनी दूर मैं क्या इसलिए आई हूं कि यह जान सकूं कि भाभी ने टाइम पर खाना क्यों नहीं बनाया, भैया भाभी के साथ उन के मायके क्यों जाते हैं बारबार, भाभी उन्हें बिना बताए पिक्चर क्यों गईं बगैराबगैरा…

मां ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? बहुत थक गई क्या? बहुत चुप है?’’

मैं ने भर्राए गले से कहा, ‘‘मां, यह दीवार…’’

बात पूरी नहीं होने दी मां ने, ‘‘बहुत अच्छा हुआ, अब रोज की किटकिट बंद हो गई. अब शांति है. अब बोल, क्या खाएगी और इन लोगों को सिर पर मत चढ़ाना.’’

मैं अवाक मां का मुंह देखती रह गई. इतने में दीवार के उस पार से भैया की आवाज आई, ‘‘सुजाता, लंच यहीं कर लेना. तेरी पसंद का खाना बना है.’’

पिंकी की आवाज भी आई, ‘‘बूआ, जल्दी आओ न.’’

मां ने पलभर सोचा, फिर कहा, ‘‘चल, अच्छा, एक चक्कर काट आ उधर, नहीं तो कहेंगे मां ने भाईबहन को मिलने नहीं दिया.’’

मैं भैया की तरफ गई. पिंकी, सोनू की बातें शुरू हो गईं. दोनों सुकन्या और सौरभ की बातें पूछते रहे और फिर धीरेधीरे भैया और भाभी ने भी मां की शिकायतों का सिलसिला शुरू कर दिया, ‘‘मां हर बात में अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की बात करती हैं, उन्हें पैंशन मिलती है, वे किसी पर निर्भर नहीं हैं. बातबात में गुस्सा करती हैं. समय के साथ कोई समझौता नहीं करती हैं.’’

मैं यहां क्यों आ गई, मुझे समझ नहीं आ रहा था. कैसे रहूंगी यहां. यहां सब मुझ से बड़े हैं. मैं किसी को क्या समझाऊं और आज तो पहला ही दिन था.

इतने में मां की आवाज आई, ‘‘सुजाता, खाना लग गया है, आ जा.’’

मैं फिर मां के हिस्से में आ गई. मैं ने बहुत उदास मन से मां के साथ खाना खाया. मां ने मेरी उदासी को मेरी थकान समझा और फिर मैं थोड़ी देर लेट गई. बैड की जिस तरफ मैं लेटी थी वहां से बीच की दीवार साफ दिखाई दे रही थी जिसे देख कर मेरी आंखें बारबार भीग रही थीं.

अपनेअपने अहं के टकराव में मेरी मां और मेरे भैया यह भूल चुके थे कि इस घर की बेटी को आंगन का यह बंटवारा देख कर कैसा लगेगा. मुझे तो यही लग रहा था कि मेरा तो इस घर में गुजरा बचपन, जवानी सब बंट गए हैं. आंगन का वह कोना जहां पता नहीं कितनी दोपहरें सहेलियों के साथ गुड्डेगुडि़या के खेल खेले थे, अमरूद का वह पेड़ जिस के नीचे गरमियों में चारपाई बिछा कर लेट कर पता नहीं कितने उपन्यास पढ़े थे. छत पर जाने वाली वे बीच की चौड़ी सीढि़यां जहां बैठ कर लूडोकैरम खेला था, अब वे सब दीवार के उस पार हैं जहां जाने पर मां की आंखों में नाराजगी के भाव दिखेंगे. मां के हिस्से में वह जगह थी जहां हर तीजत्योहार पर सब साथ बैठते थे, आज वह खालीखाली लग रही थी. घर का बड़ा हिस्सा भैया के पास था. मां ने अपनी जरूरत और घर की बनावट के हिसाब से दीवार खड़ी करवा दी थी.

यही चल रहा था. मैं भैया की तरफ होती तो मां बुला लेतीं और बारबार पूछतीं कि नरेन क्या कह रहा था, भैयाभाभी पूछते मां मुझे क्या बताती हैं उन के बारे में. मैं ‘कुछ खास नहीं’ का नपातुला जवाब सब को देती. मुझे महसूस होता घर भी मेरे दिल की तरह उदास है. मैं मन ही मन अपने जाने के दिन गिनती रहती. अमित और बच्चों से फोन पर बात होती रहती थी. दिनभर मेरा पूरा समय इसी कोशिश में बीतता कि सब के संबंध अच्छे हो जाएं, लेकिन शाम तक परिणाम शून्य होता.

एक दिन मैं ने मां से पूछ ही लिया, ‘‘मां, मुझे आप ने फोन पर इस दीवार के बारे में नहीं बताया और फौरन आने के लिए क्यों कहा था?’’

मां ने कहा, ‘‘ऐसे ही, गीता को दिखाना था मैं अकेली नहीं हूं… बेटी है मेरे साथ.’’

मैं ने भैया से पूछा, ‘‘आप ने फोन पर बताया नहीं कुछ?’’

जवाब भाभी ने दिया, ‘‘बस, फोन पर क्या बताते, दीवार खींच कर मां खुश हो रही हैं तो हमें भी क्या परेशानी है. हम भी आराम से हैं.’’

मेरे मन में आया ये सब खुश हैं तो मुझे ही क्यों तकलीफ हो रही है घर के आंगन में खड़ी दीवार से.

एक दिन तो हद हो गई. मां मुझे साड़ी दिलवाने मार्केट ले जा रही थीं.

मैं ने कहा, ‘‘मां, पिंकी व सोनू को भी बुला लेती हूं. उन्हें उन की पसंद का कुछ खरीद दूंगी.’’

मां ने फौरन कहा, ‘‘नहीं, हम दोनों ही जाएंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां, बच्चे हैं, उन से कैसा गुस्सा?’’

‘‘मुझे उन सब पर गुस्सा आता है.’’

मैं उस समय उन्हें नहीं ले जा पाई. उन्हें मैं अलग से ले कर गई. उन्हें उन की पसंद के कपड़े दिलवाए. फिर हम तीनों ने आइसक्रीम खाई. जब से आई थी यह पहला मौका था कि मन को कुछ अच्छा लगा था. पिंकी व सोनू के साथ समय बिता कर मन बहुत हलका हुआ.

5 दिन बीत रहे थे. मुझे अजीब सी मानसिक थकान महसूस हो रही थी. पूरा दिन दोनों तरफ की आवाजों पर कभी इधर, तो कभी उधर घूमती दौड़ती रहती. मन रोता मेरा. किसी को एक बेटी के दिल की कसक नहीं दिख रही थी. किस बेटी का मन नहीं चाहता कि कभी वह 2-3 साल में अपने मायके आए तो प्यार और अपनेपन से भरे रिश्तों की मिठास यादों में साथ ले कर जाए. मगर मैं जल्दी से जल्दी अपने घर मुंबई जाना चाहती थी, क्योंकि मेरा मायका मायका नहीं रह गया था.

वह तो ऐसा मकान था जहां दीवार की दोनों तरफ मांबेटा बुरे पड़ोसियों की तरह रह रहे थे. इस माहौल में किसी बेटी के दिल को चैन नहीं आ सकता था.

मैं ने अमित को बता दिया कि मैं 1 हफ्ते में ही आ रही हूं. अमित सब समझ गए थे. 7वें दिन मैं ने अपना बैग पैक किया. सब से कसैले मन से बिदा ली. भैया ने अपने जानपहचान की टैक्सी बुलवा दी थी. टैक्सी में बैठ कर सीट पर सिर टिका कर मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं. लगा बिदाईर् तो आज हुई है मायके से. शादी के बाद जो बिदाई हुई थी उस में फिर मायके आने की, सब से मिलने की एक आस, चाह और कसक थी, लेकिन अब लग रहा था कभी नहीं आ पाऊंगी. इतने प्यारे, मीठे रिश्ते में आई कड़वाहट सहन करना बहुत मुश्किल था. मायके में खड़ी बीच की दीवार रहरह कर मेरी आंखों के आगे आती रही और मेरे गाल भिगोती रही. Story In Hindi

Hindi Story: लूडो की बाजी – जब एक खेल बना दो परिवारों के बीच लड़ाई की वजह

Hindi Story: सुबीर और अनु लूडो खेल रहे थे. सुबीर की लाल गोटियां थीं और अनु की नीली. पर पता नहीं क्या बात थी कि सुबीर की गोटियां बारबार अनु की गोटियों से पिट रही थीं. जैसे ही कोई लाल गोटी जरा सा आगे बढ़ती, नीली गोटी झट से आ कर उसे काट देती. जब लगातार 5वीं बार ऐसा हुआ तो सुबीर चिढ़ गया, ‘‘तू हेराफेरी कर रहा है,’’ वह अनु से बोला.

‘‘वाह, मैं क्या कर रहा हूं…तुझे ठीक से खेलना ही नहीं आता, तभी तो हार रहा है. ले बच्चू, यह गई तेरी एक और गोटी,’’ अनु ताली बजाता हुआ बोला.

सुबीर का धैर्य अब समाप्त हो गया. लाख कोशिश करने पर भी उस की आंखों में आंसू आ ही गए.

‘‘रोंदू, रोंदू,’’ अनु उसे अंगूठा दिखाता हुआ बोला, ‘‘यह ले, मेरी दूसरी गोटी भी पार हो गई. यह ले, अब फिर से आ गए 6.’’

सुबीर उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मैं नहीं खेलता तेरे साथ, तू हेराफेरी करता है.’’

जीतती बाजी का ऐसा अंत होते देख कर अनु को भी क्रोध आ गया. उस ने सुबीर को एक घूंसा दे मारा.

अब घूंसा खा कर चुप रहने वाला सुबीर भी नहीं था. सो हो गई दोनों की जम कर हाथापाई. सुबीर ने अनु के बाल नोचे तो अनु ने उस की कमीज फाड़ दी. दोनों गुत्थमगुत्था होते हुए कोने में पड़ी हुई मेज से जा टकराए. सुबीर की तो पीठ थी मेज की ओर, सो उसे अधिक चोट नहीं आई, पर अनु का सिर मेज के नुकीले कोने पर जा लगा. उस के सिर में घाव हो गया और खून बहने लगा. खून देखते ही अनु चीखने लगा, ‘‘मां, मां, सुबीर मुझे मार रहा है.’

खून देख कर अनु की मां घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ मेरे बच्चे?’’

‘‘मां, सुबीर ने मेरी लूडो फाड़ दी और मुझे मारा भी है. मां, सिर में बहुत दर्द हो रहा है,’’ अनु सिसकता हुआ बोला.

यह सब सुन कर अनु की मां सुबीर पर बरस पड़ीं, ‘‘जंगली कहीं का…मांबाप ने घर पर कुछ नहीं सिखाया क्या? खबरदार, इस ओर दोबारा कदम रखा तो…’’

सुबीर को बहुत गुस्सा आया कि अपने बेटे को तो कुछ कहा नहीं और मुझे डांट दिया. वह गुस्से से बोला, ‘‘आप का बेटा जंगली है. आप भी जंगली हैं. सारी कालोनी वाले कहते हैं कि आप झगड़ालू हैं.’’

‘‘बड़ों से बात करने तक की तमीज नहीं तुझे,’’ अनु की मां अपनी निंदा सुन कर चीखीं और उन्होंने सुबीर के गाल पर एक तमाचा दे मारा.

गाल पर हाथ रख कर सुबीर सीधा अपनी मां के पास गया. उस ने खूब बढ़ाचढ़ा कर सारा किस्सा सुनाया. सुन कर सुबीर की मां को भी क्रोध आ गया. उन्होंने भी अपने बेटे से कह दिया, ‘‘ऐसे लोगों के घर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है.’’

इस के बाद दोनों घरों की बोलचाल बंद हो गई.

वार्षिक परीक्षाएं आने वाली थीं, सो सुबीर और अनु ने सारा समय पढ़नेलिखने में लगा दिया. पर इस के बाद जब छुट्टियां आरंभ हुईं तो दोनों ऊबने लगे. अनु अपनी मां के साथ लूडो खेलने का प्रयत्न करता, पर वैसा मजा ही नहीं आता था जो सुबीर के साथ खेलने में आता था.

सुबीर अपने पिताजी के साथ क्रिकेट खेलता तो उसे भी बिलकुल आनंद नहीं आता था. वे स्वयं ही जानबूझ कर जल्दी ‘आउट’ हो जाते, परंतु सुबीर का शतक अवश्य बनवा देते.

सुबीर और अनु दोनों ही अब पछताने लगे कि नाहक बात बढ़ाई. एक दिन अनु ने देखा कि सुबीर दोनों घरों के बीच बनी बाड़ के पास बैठ कर कंचे खेल रहा है. अनु भी चुपचाप अपने कंचे ले कर अपनी बाड़ के पास बैठ कर खेलने लगा. कुछ देर दोनों चुपचाप खेलते रहे. फिर अनु ने देखा सुबीर का एक कंचा उस के बगीचे में आ गया है. उस ने कंचा उठा कर सुबीर को देते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारा है.’’

सुबीर भी बात करने का बहाना ढूंढ़ रहा था, तपाक से बोला, ‘‘कंचे खेलोगे?’’

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा. मैदान साफ पा कर वह बाड़ में से निकल कर सुबीर के बगीचे में पहुंच गया. थोड़ी देर बाद जब सुबीर की मां ने पुकारा तो वह चुपचाप वहां से खिसक कर अपने बगीचे में आ गया.

यह तरीका दोनों को ठीक लगा. अब जब भी अवसर मिलता, दोनों एकसाथ खेलते. मित्र के साथ खेलने का आनंद ही कुछ और होता है. अब बस, एक ही परेशानी थी कि उन्हें डरडर कर खेलना पड़ता था.

‘‘कितना अच्छा हो यदि हमारे माता- पिता भी फिर से मित्र बन जाएं,’’ एक दिन अनु बोला.

‘‘पर यह कैसे संभव होगा, समझ में नहीं आता. मैं तो अपने मातापिता के सामने तेरा नाम लेने से भी डरता हूं,’’ सुबीर उदास हो कर बोला.

एक दिन सुबह का समय था. सुबीर घर पर अकेला था. वह एक पुस्तक ले कर पेड़ पर चढ़ गया और पढ़ने लगा.

अचानक ‘धड़ाम’ की आवाज हुई. अनु ने आवाज सुनी तो वह तेजी से बाहर भागा. उस ने देखा कि सुबीर जमीन पर पड़ा कराह रहा है. वह तेजी से उस के पास गया और उसे खड़ा करने का प्रयत्न करने लगा.

‘‘अनु, मेरी पीठ में जोर की चोट लगी है. बहुत दर्द हो रहा है,’’ सुबीर दर्द से परेशान हो कर बोला.

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा, फिर जल्दी से बोला, ‘‘तुम हिलना मत, मैं सहायता के लिए अभी किसी को बुला कर लाता हूं.’’

अनु सीधा अपनी मां के पास गया और बोला, ‘‘मां, जल्दी चलो, सुबीर को बहुत चोट लगी है. उस की मां भी घर पर नहीं हैं…उसे बहुत दर्द हो रहा है.’’

अनु की मां सुबीर को गोद में उठा कर अंदर ले गईं. फिर उस की टांगों और बांहों की खरोंचों को साफ कर उन पर दवा लगा दी. अभी वे उस की पीठ पर मरहम लगा ही रही थीं कि सुबीर की मां बाजार से लौट आईं.

सुबीर के इर्दगिर्द कई लोगों को देख कर वे घबरा गईं. अनु उन को देखते ही बोला, ‘‘चाचीजी, सुबीर को बहुत दर्द हो रहा है, इसे जल्दी से अस्पताल ले चलिए,’’ उस की आंखों में आंसू तैर रहे थे.

सुबीर की मां अनु के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘अरे, बेटा, रोते नहीं…सुबीर दोचार दिन में बिलकुल ठीक हो जाएगा. तुम इसे देखने आया करोगे न?’’

अनु की आंखों में चमक आ गई. वह उत्सुकता से मां की ओर देखने लगा.

‘‘हां, यह अवश्य आएगा. अनु पास रहेगा तो सुबीर भी अपना दर्द भूल जाएगा,’’ अनु की मां बोलीं.

सुबीर की मां अनु की मां की बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुईं. फिर बोलीं, ‘‘आप ने सुबीर की इतनी देखभाल की. उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘सुबीर भी तो मेरा ही बेटा है…जैसा अनु वैसा सुबीर. अपने बेटे के लिए कुछ करने के लिए धन्यवाद कैसा,’’ अनु की मां ने उत्तर दिया. थोड़ी देर बाद अनु और सुबीर जब अकेले रह गए तो अनु बोला, ‘‘तू पुस्तक पढ़तापढ़ता सो गया था क्या, एकदम से गिर कैसे गया?’’

‘‘जानबूझ कर गिरा था.’’

‘‘क्या?’’ अनु की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘‘जानता है, हड्डीपसली भी टूट सकती थी.’’

‘‘जानता हूं,’’ सुबीर गंभीरता से बोला, ‘‘पर मुझे उस का भी दुख न होता. अब हम सब फिर से मित्र बन गए हैं. तेरी मां ने मुझे कितना प्यार किया…’’

‘‘और तेरी मां ने मुझे…अब हम कभी झगड़ा नहीं करेंगे,’’ अनु भी गंभीर हो कर बोला.

‘‘हां, और क्या…खेल में हारजीत तो लगी ही रहती है. वास्तव में जीतने का मजा आता ही हारने के बाद है,’’ सुबीर बोला.

अनु को अब हंसी आ गई, ‘‘बड़ी बुद्धिमानी की बातें कर रहा है. अब कभी हारने पर रोएगा तो नहीं?’’

‘‘नहीं,’’ सुबीर भी हंसने लगा, ‘‘और न ही जीतने पर तुम्हें चिढ़ाऊंगा.’’

दोनों मित्र एक बार फिर मिल कर लूडो खेलने लगे. Hindi Story

Family Story In Hindi: मेरे बेटे की गर्लफ्रैंड

Family Story In Hindi: बेटे राहुल के स्वभाव में मुझे कुछ बदलाव साफ दिखाई दे रहे थे, ये बदलाव तो प्राकृतिक थे इसलिए इस में कुछ हैरानी की बात नहीं थी और जब राहुल के 14वें जन्मदिन पर मैं ने घर पर उस के दोस्तों के लिए पार्टी रखी तो उस के ग्रुप में पहली बार 2-3 लड़कियां आईं. विजय मेरे कान में फुसफुसाए, ‘अरे वाह, बधाई हो, तुम्हारा लड़का जवान हो गया है.’ मैं ने उन्हें घूरा फिर मुसकरा दी. मुझे उन लड़कियों को देख कर अच्छा लगा. छोटी सी बच्चियां कोने में बैठ गईं, मैं ने उन्हें दिल से अटैंड किया. लड़के- लड़कियां आजकल साथ पढ़ते हैं, साथ खेलते हैं, मैं उन की दोस्ती को बुरा भी नहीं मानती.

उन तीनों में से 1 लड़की स्वाति कुछ ज्यादा ही संकोच में बैठी थी. बाकी 2 मुझे देख कर मुसकराती रहीं, दोचार बातें भी कीं, लेकिन स्वाति ने मुझ से नजरें भी नहीं मिलाईं तो मुझे बहुत अजीब सा लगा. मैं ने अपनी 17 वर्षीया बेटी स्नेहा से कहा भी, ‘‘यह लड़की इतना शरमा क्यों रही है?’’

स्नेहा बोली, ‘‘अरे मम्मी, छोड़ो भी, इतने बच्चों में 1 लड़की के व्यवहार पर इतना क्यों सोच रही हैं?’’ मेरी तसल्ली नहीं हुई. मैं ने विजय से कहा, ‘‘वह लड़की तो कुछ भी नहीं खा रही है, बहुत संकोच कर रही है, सब बच्चों को देखो, कितनी मस्ती कर रहे हैं.’’

विजय ने कहा, ‘‘हां, कुछ ज्यादा ही चुप है. खैर, छोड़ो, बाकी बच्चे तो मस्त हैं न.’’

राहुल ने केक काटा तो हमें खिलाने के बाद उस की नजरें सीधे स्वाति पर गईं तो मैं ने राहुल की मुसकराहट में एक पल के लिए कुछ नई सी बात नोट की, मां हूं उस की लेकिन किसी से कुछ कहने की बात नहीं थी. खैर, कुछ गेम्स फिर डिनर के बाद बच्चे खुशीखुशी अपने घर चले गए. मैं ने बाद में राहुल से पूछा, ‘‘सिया और रश्मि तो सब से अच्छी तरह बात कर रही थीं, यह स्वाति क्यों इतना शरमा रही थी?’’

राहुल मुसकराया, ‘‘हां, उसे शरम आ रही थी.’’

‘‘क्यों? शरमाने की क्या बात थी?’’

‘‘अरे मम्मी, हमारे सब दोस्त हम दोनों का साथ नाम ले कर खूब चिढ़ाते हैं न.’’

मैं चौंकी, ‘‘क्या? क्यों चिढ़ाते हैं?’’

‘‘अरे, आप को भी न हर बात समझा कर बतानी पड़ती है मम्मी. सब दोस्त एकदूसरे को किसी न किसी लड़की का नाम ले कर छेड़ते हैं.’’ मैं अपने युवा होते बेटे के समझाने के इतने स्पष्ट ढंग पर कुछ हैरान सी हुई, फिर मैं ने कहा, ‘‘यह कोई उम्र है इन मजाकों की, पढ़नेलिखने, खेलने की उम्र है.’’

‘‘लीव इट, मम्मी, आप हर बात को इतना सीरियसली क्यों लेती हैं…सभी ऐसी बातें करते हैं.’’

फिर मैं ने आने वाले दिनों में नोट किया कि राहुल का फोन पर बात करना बढ़ गया है. कई बार मैं उठाती तो फोन काट दिया जाता था, फिर राहुल के उठाने पर बात होती रहती थी. मेरे पूछने पर राहुल साफ बताता कि स्वाति का फोन है. मैं कहती, ‘‘इतनी क्या बात करनी होती है तुम दोनों को.’’

राहुल नाराज हो जाता, ‘‘मेरी फ्रैंड है, क्या मैं उस से बात नहीं कर सकता?’’ धीरेधीरे यह सब बढ़ता ही जा रहा था.

स्वाति हमारी ही सोसायटी में रहती थी. उस के मम्मीपापा दोनों नौकरीपेशा थे. मैं उन से कभी नहीं मिली थी. राहुल और स्वाति एक ही स्कूल में थे, एक ही बस में जाते थे. दोनों के शौक भी एक जैसे थे. राहुल अपने स्कूल की फुटबाल टीम का बहुत अच्छा प्लेयर था और स्वाति उस के हर मैच में उस का साहस बढ़ाने के लिए उपस्थित रहती. मैं विजय से कहती, ‘‘कुछ ज्यादा ही हो रहा है दोनों का.’’ विजय कहते, ‘‘तुम यह सब नहीं रोक पाओगी. अब तो उस की ऐसी उम्र भी नहीं है कि ज्यादा डांटडपट की जाए.’’

अब तक हमेशा 90 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाला मेरा बेटा कहीं पढ़ाई में न पिछड़ जाए, इस बात की मुझे ज्यादा चिंता रहती. मैं रातदिन अब राहुल की हरकतों पर नजर रखती और महसूस करती कि मैं किसी भी तरह राहुल और स्वाति को एकदूसरे से मिलने से रोक ही नहीं सकती, सारा दिन तो साथ रहते थे दोनों. कुछ और समय बीता. राहुल और स्वाति दोनों ने 10वीं की बोर्ड की परीक्षाओं में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त किए तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

विजय कहते, ‘‘देखा? इतने दिन तुम अपना खून जलाती रहीं, पढ़ाई तो दोनों ने अच्छी की.’’

मैं कुछ कह नहीं पाई. राहुल को हम ने गिफ्ट में एक मोबाइल फोन ले दिया तो वह बहुत खुश हुआ, कई दिनों से कह रहा था कि उसे फोन चाहिए. फिर मैं ने ही धीरेधीरे अपने मन को समझा लिया कि स्वाति राहुल की गर्लफ्रैंड है और मैं उसे कुछ नहीं कह सकती. सांवली सी, पतलीदुबली स्वाति महाराष्ट्रियन थी, हम उत्तर भारतीय कायस्थ. वह मुझ से अब भी कतराती थी. एक ही सोसायटी थी, कई बार सामना होता तो वह नजरें चुरा लेती. मुझे गुस्सा आता. राहुल से कहती, ‘‘और भी तो लड़कियां हैं, सब हायहलो करती हैं और इस लड़की को इतनी भी तमीज नहीं कि कभी विश कर दे.’’

राहुल तुरंत उस की साइड लेता, ‘‘वह आप से डरती है, मम्मी.’’

‘‘क्यों? क्या मैं उसे कुछ कहती हूं?’’

‘‘नहीं, मैं ने उसे बताया है कि आप को उस की और मेरी दोस्ती के बारे में पता है और आप को यह सब बिलकुल पसंद नहीं है.’’

मैं कहती, ‘‘दोस्ती को मैं थोड़े ही बुरा समझती हूं लेकिन हद से बाहर कुछ दिखता है तो गुस्सा तो आता ही है. सब खबर है मुझे.’’

राहुल पैर पटकता चला जाता. कुछ समय और बीता, दोनों की 12वीं भी हो गई. इस बार राहुल के 91 प्रतिशत और स्वाति के 93 प्रतिशत अंक आए. हम सब बहुत खुश थे. अब राहुल ने कौमर्स ली, स्वाति ने साइंस. अब तो कई मेरी करीबी सहेलियां सोसायटी के गार्डन में सैर करते हुए स्वाति को आतेजाते देख कर मुझे कोहनी मारतीं, ‘‘देख, तेरे बेटे की गर्लफैं्रड जा रही है.’’ मैं ऊपर से मुसकरा देती और दिल ही दिल में सोचती, इस का मतलब अच्छे- खासे मशहूर हैं दोनों. मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि दोनों एकदूसरे को बहुत सीरियसली लेते हैं. अब मैं ही विजय से कहती, ‘‘बचपन से ये दोनों साथ हैं, मुझे तो लगता है अपने पैरों पर खड़ा होने पर ये विवाह भी करेंगे.’’

विजय मेरी इतनी गंभीरता से कही गई बात को हलकेफुलके ढंग से लेते और हंस कर कहते, ‘‘वाह, क्या हमारे घर में महाराष्ट्रियन बहू आ रही है? क्या बुराई है?’’ अब तो मैं भी मानसिक रूप से उसे बहू के रूप में देखने के लिए तैयार हो गई थी. मन ही मन कई बातें उस के बारे में सोचती रहती. स्नेहा कभी अपनी टिप्पणी देती, कभी चुपचाप हमारी बात सुनती. वह भी हमें राहुल और स्वाति की कई बातें बताती रहती.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. राहुल का यहीं मुंबई में ऐडमिशन हुआ, स्वाति का कोटा में. मैं सोचती अब तो बस फोन ही माध्यम होगा इन की बातचीत का. स्वाति कोटा चली गई. राहुल कई दिन चुप व गंभीर सा रहा. फोन पर बात कर रहा होता तो मैं समझ जाती उधर कौन है. वह कई बार फोन पर दोस्तों से बात करता लेकिन जब वह स्वाति से बात करता तो उस के बिना बताए मैं उस के चेहरे के भावों से समझ जाती कि उधर स्वाति है फोन पर.

अब राहुल बीकौम के साथसाथ सीए भी कर रहा था. मैं ने आश्चर्यजनक रूप से एक बड़ा परिवर्तन महसूस किया. अब किसी अवनि के फोन आने लगे थे. राहुल की बातों से पता चला कि उस की क्लासफैलो अवनि उस की खास दोस्त है. 1-2 बार वह उसे किसी प्रोजैक्ट की तैयारी के लिए 2-3 दोस्तों के साथ घर भी लाया. उन की दोस्ती साधारण दोस्ती से हट कर लगी. अवनि ने मुझ से पूरे कौन्फिडैंस से बात की, किचन में मेरा हाथ बंटाने भी आ गई. वह साउथइंडियन थी, स्मार्ट थी. जब तक घर में रही, राहुलराहुल करती रही. मैं चुपचाप उस की भावभंगिमाओं का निरीक्षण करती रही और इस नतीजे पर पहुंची कि जो संबंध अब तक राहुल का स्वाति से था, वही आज अवनि से है.

मुझे मन ही मन राहुल पर गुस्सा आने लगा कि यह क्या तमाशा है, कभी किसी लड़की से इतनी दोस्ती तो कभी किसी और से. वह अवनि के साथ फोन पर गप्पें मारता रहता. मैं ने 1-2 बार पूछ ही लिया, ‘‘स्वाति कैसी है?’’‘‘ठीक है, क्यों?’’‘‘उस से बात तो होती रहती होगी?’’‘‘हां, कभी फ्री होता हूं तो बात हो जाती है, वह भी बिजी है, मैं भी.’’मैं ने मन ही मन सोचा, ‘हां, मुझे पता है तुम कहां बिजी हो.’मैं ने इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारी तो वह अच्छी फ्रैंड है न, उस के लिए तो टाइम मिल ही जाता होगा.’’

वह झुंझला गया, ‘‘तो क्या उस से रोज बात करता रहूं? और रोजरोज कोई क्या बात करे.’’मैं हैरान उस का मुंह देखती रह गई और वह पैर पटकता वहां से चला गया.अब राहुल पर मुझे हर समय गुस्सा आता रहता. अवनि कभी भी उस के दोस्तों के साथ आ जाती, लंच करती, हम सब से खूब बातें करती. रात को बैडरूम में विजय को देखते ही मेरे मन का गुबार निकलना शुरू हो जाता, ‘‘हुंह, पुरुष है न, किसी लड़की की भावनाओं से खेलना अपना हक समझता है, बचपन से जिस के साथ घूम रहा है, जिस के साथ सोसायटी में अच्छेखासे चर्चे हैं, अब इतने आराम से उसे भूल कर किसी और लड़की से दोस्ती कर ली है, आवारा कहीं का.’’

विजय कहते, ‘‘प्रीति, तुम क्यों बच्चों की बातों में अपना दिमाग खराब करती रहती हो. यह उम्र ही ऐसी है, ज्यादा ध्यान मत दिया करो.’’मैं चिढ़ जाती, ‘‘हां, आप तो उसी की साइड लेंगे, खुद भी तो एक पुरुष हो न.’’‘‘अरे, हम तो हमेशा से आप के गुलाम हैं, कभी शिकायत का मौका दिया है,’’ विजय नाटकीय स्वर में कहते तो भी मैं चुप रहती.

मेरा ध्यान स्वाति में रहता. मैं उसी के बारे में सोचती. कोई भी काम करते हुए मुझे उस का ध्यान आ जाता कि बेचारी को राहुल का व्यवहार कितना खलता होगा, उसे राहुल का बचपन का साथ याद आता होगा.

काफी समय बीतता चला गया. स्नेहा एमबीए कर रही थी, राहुल का भी सीए पूरा होने वाला था. यह पूरा समय मुझे स्वाति का ध्यान आता रहा था. राहुल के किसी फोन से मुझे अब यह न लगता कि वह स्वाति के संपर्क में भी है. अवनि से उस की घनिष्ठता बढ़ गई थी. एक दिन मुझे शौपिंग के लिए जाना था, विजय ने कहा, ‘‘तुम शाम को 6 बजे कैफे कौफी डे पहुंच जाना, वहीं कुछ खापी कर शौपिंग करने चलेंगे.’’

मैं वहां पहुंची, एक कार्नर में बैठ गई. विजय को फोन कर के पूछा कि कितनी देर में आ रहे हो. उन्होंने कहा, ‘‘तुम और्डर दे दो, मैं भी पहुंच ही रहा हूं.’’

मैं ने और्डर दे कर यों ही नजरें इधरउधर दौड़ाईं तो मैं चौंक पड़ी, स्वाति एक टेबल पर एक लड़के के साथ बैठी थी और दोनों चहकते हुए आसपास के माहौल से बेखबर अपनी बातों में व्यस्त थे. मैं गौर से स्वाति को देखती रही, वह काफी खुश लग रही थी. मेरी नजरें स्वाति से हट नहीं रही थीं, शायद उसे भी किसी की घूरती निगाहों का एहसास हुआ हो, उस ने इधरउधर देखा, चौंक कर उस लड़के को कुछ कहा, फिर उठ कर आई, मेरी टेबल के पास खड़ी हुई, मुझे नमस्ते की. मैं ने उसे बैठने का इशारा करते हुए उस के हालचाल पूछे.

वह बैठी तो नहीं लेकिन आज पहली बार वह मुझ से बात कर रही थी. मैं ने उस की पढ़ाई के बारे में पूछा. उस से बात करतेकरते मेरी नजर उस के पीछे आ कर खड़े हुए लड़के पर पड़ी. स्वाति ने उस से परिचय करवाया, ‘‘आंटी, यह आकाश है, कोटा में मेरे कालेज में ही है. यहीं मुंबई में ही रहता है.’’ मैं ने दोनों से कुछ हलकीफुलकी बात की, फिर वे दोनों ‘बाय आंटी’ कह कर चले गए.

मैं स्वाति को हंसतेमुसकराते जाते देखती रही. मैं सोच रही थी, यह लड़की कभी नहीं जान पाएगी कि यह कितने दिनों से मेरे दिमाग पर छाई थी. मैं ने मन ही मन पता नहीं क्या रिश्ता बना लिया था इस से, पता नहीं इस की कितनी भावनाओं से मेरा मन जुड़ गया था, लेकिन आज मैं स्वाति को खुश देख कर बेहद खुश थी. Family Story In Hindi

Story In Hindi: कभी अपने लिए

Story In Hindi: विमान ने उड़ान भरी तो मैं ने खिड़की से बाहर देखा. मुंबई की इमारतें छोटी होती गईं, बाद में इतनी छोटी कि माचिस की डब्बियां सी लगने लगीं. प्लेन में बैठ कर बाहर देखना मुझे हमेशा बहुत अच्छा लगता है. बस, बादल ही बादल, उन्हें देख कर ऐसा लगता है कि रुई के गोले चारों तरफ बिखरे पड़े हों. कई बार मन होता है कि हाथ बढ़ा कर उन्हें छू लूं.

मुझे बचपन से ही आसमान का हलका नीला रंग और कहींकहीं बादलों के सफेद तैरते टुकड़े बहुत अच्छे लगते हैं. आज भी इस तरह के दृश्य देखती हूं तो सोचती हूं कि काश, इस नीले आसमान की तरह मिलावट और बनावट से दूर इनसानों के दिल भी होते तो आपस में दुश्मनी मिट जाती और सब खुश रहते.

दिल्ली पहुंचने में 2 घंटे का समय लगना था. बाहर देखतेदेखते मन विमान से भी तेज गति से दौड़ पड़ा, एअरपोर्ट से बाहर निकलूंगी तो अभिराम भैया लेने आए हुए होंगे, वहां से हम दोनों संपदा दीदी को पानीपत से लेंगे और फिर शाम तक हम तीनों भाईबहन मां के पास मुजफ्फरनगर पहुंच जाएंगे.

हम तीनों 10 साल के बाद एकसाथ मां के पास पहुंचेंगे. वैसे हम अलगअलग तो पता नहीं कितनी बार मां के पास चक्कर काट लेते हैं. अभिराम भैया दिल्ली में हृदयरोग विशेषज्ञ हैं. संपदा दीदी पानीपत में गर्ल्स कालेज की पिं्रसिपल हैं और मैं मुंबई में हाउसवाइफ हूं. 10 साल से मुंबई में रहने के बावजूद यहां के भागदौड़ भरे जीवन से अपने को दूर ही रखती हूं. बस, पढ़नालिखना मेरा शौक है और मैं अपना समय रोजमर्रा के कामों को करने के बाद अपने शौक को पूरा करने में बिताती हूं. शशांक मेरे पति हैं. मेरे दोनों बच्चे स्नेहा और यश मुंबई के जीवन में पूरी तरह रम गए हैं. मां के पास तीनों के पहुंचने का यह प्रोग्राम मैं ने ही बनाया है. कुछ दिनों से मन नहीं लग रहा था. लग रहा था कि रुटीन में कुछ बदलाव की जरूरत है.

स्नेहा और यश जल्दी कहीं जाना नहीं चाहते, वे कहीं भी चले जाते हैं तो दोनों के चेहरों से बोरियत टपकती रहती है, शशांक सेल्स मैनेजर हैं, अकसर टूर पर रहते हैं. एक दिन अचानक मन में आया कि मां के पास जाऊं और शांति से कम से कम एक सप्ताह रह कर आऊं. शशांक या बच्चों के साथ कभी जाती हूं तो जी भर कर मां के साथ समय नहीं बिता पाती, इन्हीं तीनों की जरूरतों का ध्यान रखती रह जाती हूं, इस बार सोचा अकेली जाती हूं. मां वहां अकेली रहती हैं, हमारे पापा का सालों पहले देहांत हो चुका है. मां टीचर रही हैं. अभी रिटायर हुई हैं.

हम तीनों भाईबहनों ने उन्हें साथ रहने के लिए कई बार कहा है लेकिन वे अपना घर छोड़ना नहीं चाहतीं, उन्हें वहीं अच्छा लगता है. सुबहशाम काम के लिए राधाबाई आती है. सालों से वैसे भी मां ने अपने अकेलेपन का रोना कभी नहीं रोया, वे हमेशा खुश रहती हैं, किसी न किसी काम में खुद को व्यस्त रखती हैं.

हां, तो मैं ने ही दीदी और भैया के साथ यह कार्यक्रम बनाया है कि हम तीनों अपनेअपने परिवार के बिना एक सप्ताह मां के साथ रहेंगे. अपनी हर व्यस्तता, हर जिम्मेदारी से स्वयं को दूर रख कर. कभी अपने लिए, अपने मन की खुशी के लिए भी तो कुछ सोच कर देखें, बस कुछ दिन.

अभिराम भैया को अपने मरीजों से समय नहीं मिलता, दीदी कालेज की गतिविधियों में व्यस्त रह कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं करतीं, मेरा एक अलग निश्चित रुटीन है लेकिन मेरे प्रस्ताव पर दोनों सहर्ष तैयार हो गए, शायद हम तीनों ही कुछ बदलाव चाह रहे थे. शशांक तो मेरा कार्यक्रम सुनते ही हंस पड़े, बोले, ‘हम लोगों से इतनी परेशान हो क्या, सुखदा?’

मैं ने भी छेड़ा था, ‘हां, तुम लोगों को भी तो कुछ चेंज चाहिए, मैं जा रही हूं, मेरा भी चेंज हो जाएगा और तुम लोगों का भी, बोर हो गई हूं एक ही रुटीन से,’ शशांक ने हमेशा की तरह मेरी इच्छा का मान रखा और मैं आज जा रही हूं.

एअरहोस्टैस की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, मैं काफी देर से अपने विचारों में गुम थी. दिल्ली पहुंच कर जैसे ही एअरपोर्ट से बाहर आई, अभिराम भैया खड़े थे, उन्होंने हाथ हिलाया तो मैं तेजी से बढ़ कर उन के पास पहुंच गई, उन्होंने हमेशा की तरह मेरा सिर थपथपाया, बैग मेरे हाथ से लिया. बोले, ‘‘कैसी हो सुखदा, मान गए तुम्हें, यह योजना तुम ही बना सकती थीं, मैं तो अभी से एक हफ्ते की छुट्टी के लिए ऐक्साइटेड हो रहा हूं, पहले घर चलते हैं, तुम्हारी भाभी इंतजार कर रही हैं.’’

रास्ते भर हम आने वाले सप्ताह की प्लानिंग करते रहे. भैया के घर पहुंच कर स्वाति भाभी के हाथ का बना स्वादिष्ठ खाना खाया. अपने भतीजे राहुल के लिए लाए उपहार मैं ने उसे दिए तो वह चहक उठा. भैया बोले, ‘‘सुखदा, थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं ने कहा, ‘‘बैठीबैठी ही आई हूं, एकदम फ्रैश हूं, कब निकलना है?’’

भाभी ने कहा, ‘‘1-2 दिन मेरे पास रुको.’’

‘‘नहीं भाभी, आज जाने दो, अगली बार रुकूंगी, पक्का’’

‘‘हां भई, मैं कुछ नहीं बोलूंगी बहनभाई के बीच में,’’ फिर हंस कर कहा, ‘‘वैसे कुछ अलग तरह का ही प्रोग्राम बना है इस बार, चलो, जाओ तुम लोग, मां को सरप्राइज दो.’’

मैं ने भाभी से विदा ले कर अपना बैग उठाया, भैया ने अपना सामान तैयार कर रखा था. हम भैया की गाड़ी से ही पानीपत बढ़ चले. वहां संपदा दीदी हमारा इंतजार कर रही थीं. ढाई घंटे में दीदी के पास पहुंच गए, वहां चायनाश्ता किया, जीजाजी हमारे प्रोग्राम पर हंसते रहे, अपनी टिप्पणियां दे कर हंसाते रहे, बोले, ‘‘हां, भई, ले जाओ अपनी दीदी को, इस बहाने थोड़ा आराम मिल जाएगा इसे,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘हमें भी.’’ सब ठहाका लगा कर हंस पड़े. दीदी की बेटियों के लिए लाए उपहार उन्हें दे कर हम मां के पास जाने के लिए निकल पड़े. पानीपत से मुजफ्फरनगर तक का समय कब कट गया, पता ही नहीं चला.

मुजफ्फरनगर में गांधी कालोनी में  जब कार मुड़ी तो हमें दूर से ही  अपना घर दिखाई दिया, तो भैया बच्चों की तरह बोले, ‘‘बहुत मजा आएगा, मां के लिए यह बहुत बड़ा सरप्राइज होगा.’’

हम ने धीरे से घर का दरवाजा खोला. बाहरी दरवाजा खोलते ही गेंदे के फूलों की खुशबू हमारे तनमन को महका गई. दरवाजे के एक तरफ अनगिनत गमले लाइन से रखे थे और मां अपने बगीचे की एक क्यारी में झुकी कुछ कर रही थीं. हमारी आहट से मुड़ कर खड़ी हुईं तो खड़ी की खड़ी रह गईं, इतना ही बोल पाईं, ‘‘तुम तीनों एकसाथ?’’

हम तीनों ही मां के गले लग गए और मां ने अपने मिट्टी वाले हाथ झाड़ कर हमें अपनी बांहों में भरा तो पल भर के लिए सब की आंखें भर आईं, फिर हम चारों अंदर गए, दीदी ने कहा, ‘‘यह कार्यक्रम सुखदा ने मुंबई में बनाया और हम आप के साथ पूरा एक हफ्ता रहेंगे.’’

मां की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, हमारे सुंदर से खुलेखुले घर में मां अकेली ही तो रहती हैं. हां, एक हिस्सा उन के किराएदार के पास है. मां के मना करने पर भी हम दोनों मां के साथ किचन में लग गईं और भैया थोड़ी देर सो गए. इतनी देर गाड़ी चलाने से उन्हें कुछ थकान तो थी ही. फिर हम चारों ने डिनर किया, अपनेअपने घर सब के हालचाल लिए. सोने को हुए तो बिजली चली गई, मां को फिक्र हुई, बोलीं, ‘‘तुम तीनों को दिक्कत होगी अब, इनवर्टर भी खराब है, तुम लोगों को तो ए.सी.  की आदत है. मैं तो छत पर भी सो जाती हूं.’’

संपदा  दीदी ने कहा, ‘‘मां, मुझ से छत पर नहीं सोया जाएगा.’’

भैया बोले, ‘‘फिक्र क्यों करती हो दीदी, चल कर देखते हैं.’’ और हम चारों अपनीअपनी चटाई ले कर छत पर चले गए. हम छत पर क्या गए, तनमन खुशी से झूम उठा. क्या मनमोहक दृश्य था, फूलों की मादक खुशबू छाई हुई थी, संदली हवाओं के बीच धवल चांदनी छिटकी हुई थी. हम सब खुले आसमान के नीचे चटाई बिछा कर लेट गए, फ्लैटों में तो कभी छत के दर्शन ही नहीं हुए थे. खुले आकाश के आंचल में तारों का झिलमिल कर टिमटिमाना बड़ा ही सुखद एहसास था. बचपन में मां ने कई बार बताया था, ठीक 4 बजे भोर का तारा निकल आता है.

‘‘प्रकृति में कितना रहस्य व आनंद है लेकिन आज का मनुष्य तो बस, मशीन बन कर रह गया है. अच्छा किया तुम लोग आ गए, रोज की दौड़भाग से तुम लोगों को कुछ आराम मिल जाएगा,’’ मां ने कहा.

प्राकृतिक सुंदरता को देखतेदेखते हम कब सो गए, पता ही नहीं चला जबकि ए.सी. में भी इतना आनंद नहीं था. सब ने सुबह बहुत ही तरोताजा महसूस किया. जैसे हम में नई चेतना, नए प्राण आ गए थे. गमले के पौधों की खुशबू से पूरा वातावरण महक रहा था. रजनीगंधा व बेले की खुशबू ने तनमन दोनों को सम्मोहित कर लिया था. हम नीचे आए, मां नाश्ता तैयार कर चुकी थीं. भैया अपनी पसंद के आलू के परांठे देख कर खुश हो गए. उत्साह से कहा, ‘‘आज तो खा ही लेता हूं, बहुत हो गया दूध और कौर्नफ्लेक्स का नाश्ता.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां, मुझे तो कुछ हलका ही दे दो, मुझे सुबह कुछ हलका ही लेने की आदत है.’’

दीदी भी बोलीं, ‘‘हां, मां, एक ब्रैडपीस ही दे दो.’’

अभिराम भैया ने टोका, ‘‘यह पहले ही तय हो गया था कि कोई खानेपीने के नखरे नहीं करेगा, जो बनेगा सब एकसाथ खाएंगे.’’

मां हंस पड़ीं, ‘‘क्या यह भी तय कर के आए हो?’’

दीदी बोलीं, ‘‘हां, मां, सुखदा ने ही कहा था, दीदी आप अपना माइग्रेन भूल जाना और मैं कमरदर्द तो मैं ने इस से कहा था, तू भी फिगर और ऐक्सरसाइज की चिंता मुंबई में ही छोड़ कर आना.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, चलो, चारों नाश्ता करते हैं.’’

हम ने डट कर नाश्ता किया और फिर मां के साथ किचन समेट कर खूब बातें कीं.

राधाबाई आई तो हम तीनों बाजार घूमने चले गए. दिल्ली, मुंबई के मौल्स में घूमना अलग बात है और यहां दुकानदुकान जा कर खरीदारी करना अलग बात है. हम तीनों ने अपनेअपने परिवार के लिए कुछ न कुछ खरीदा, फोन पर सब के हालचाल लिए और फिर अपनी मनपसंद जगह ‘गोल मार्किट’ चाट खाने पहुंच गए. हमारा डाक्टर भाई जिस तरह से हमारे साथ चाट खा रहा था, कोई देखता तो उसे यकीन ही नहीं होता कि वह अपने शहर का प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ है. ढीली सी ट्राउजर पर एक टीशर्ट पहने दीदी को देख कर कौन कह सकता है कि वे एक सख्त पिं्रसिपल हैं, मैं ये पल अपने में संजो लेना चाहती थी, दीदी ने मुझे कहीं खोए हुए देख कर पूछा भी, ‘‘चाट खातेखाते हमारी लेखिका बहन कोई कहानी ढूंढ़ रही है क्या?’’ मैं हंस पड़ी.

हम तीनों ने मां के लिए साडि़यां खरीदीं और खाने का काफी सामान पैक करवा कर घर आए. बस, अब हम तीनों मां के साथ बातें करते, चारों कभी घूमतेफिरते ‘शुक्रताल’ पहुंच जाते कभी बाजार. भैया ने अपने मरीजों से, दीदी ने कालेज से और मैं ने अपने गृहकार्यों से जो समय निकाल लिया था, उसे हम जी भर कर जी रहे थे. शाम होते ही हम अपनी चटाइयां ले कर छत पर पहुंच जाते, इनवर्टर ठीक हो चुका था लेकिन छत पर सोने का सुख हम खोना नहीं चाहते थे. अपनी मां के साथ हम तीनों छत पर साथ बैठ कर समय बिताते तो हमें लगता हम किसी और ही दुनिया में पहुंच गए हैं.

मैं सोचती महानगर में सोचने का वक्त भी कहां मिलता है, अपनी भावनाओं को टटोलने की फुरसत भी कहां मिलती है. शाम की लालिमा को निहार कर कल्पनाओं में डूबने का समय कहां मिलता है, सुबह सूरज की रोशनी से आंखें चार करने का पल तो कैद हो जाता है कंकरीट की दीवारों में.

दीदी अपना माइग्रेन और मैं अपना कमरदर्द भूल चुकी थी. आंगन में लगे अमरूद के पेड़ से जब भैया अमरूद तोड़ कर खाते तो दृश्य बड़ा ही मजेदार होता.

छठी रात थी. कल जाना था, छत पर गए तो लेटेलेटे सब चुप से थे, मेरा दिल भी भर आया था, ये दिन बहुत अच्छे बीते थे, बहुत सुकून भरे और निश्चिंत से दिन थे, ऐसा लगता रहा था कि फिर से बचपन में लौट गए थे, वही बेफिक्री के दिन. सच ही है किसी का बचपन उम्र बढ़ने के साथ भले ही बीत जाए लेकिन वह उस के सीने में सदैव सांस लेता रहता है. यह संसार, प्रकृति तो नहीं बदलती, धूपछांव, चांदतारे, पेड़पौधे जैसे के तैसे अपनी जगह खड़े रहते हैं और अपनी गति से चलते रहते हैं. वह तो हमारी ही उम्र कुछ इस तरह बढ़ जाती है कि बचपन की उमंग फिर जीवन में दिखाई नहीं देती.

मां ने मुझे उदास और चुप देखा तो मेरे लेखन और मेरी प्रकाशित कहानियों की बातें छेड़ दीं क्योेंकि मां जानती हैं यही एक ऐसा विषय है जो मुझे हर स्थिति में उत्साहित कर देता है. मुझे मन ही मन हंसी आई, बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं, मां हमेशा अपने बच्चों के दिल की बात समझ जाती है. मां ने मेरी रचनाओं की बात छेड़ी तो सब उठ कर बैठ गए. मां, दीदी, भैया वे सब पत्रिकाएं जिन में मेरी रचनाएं छपती रहती हैं जरूर पढ़ते हैं और पढ़ते ही सब मुझे फोन करते हैं और कभीकभी तो किसी कहानी के किसी पात्र को पढ़ते ही समझ जाते हैं कि वह मैं ने वास्तविक जीवन के किस व्यक्ति से लिया है. फिर सब मुझे खूब छेड़ते हैं. कुछ हंसीमजाक हुआ तो फिर सब का मन हलका हो गया.

जाने का समय आ गया, दिल्ली से ही फ्लाइट थी. मां ने पता नहीं क्याक्या, कितनी चीजें हम तीनों के साथ बांध दी थीं. हम तीनों की पसंद के कपड़े तो पहले ही दिलवा लाईं. अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां से विदा ले कर हम तीनों पानीपत निकल गए, रास्ते में ही अगले साल इसी तरह मिलने का कार्यक्रम बनाया, यह भी तय किया परिवार के साथ आएंगे, यदि बच्चे आ पाए तो अच्छा होगा, हमें भी तो अपने बच्चों का प्रकृति से परिचय करवाना था, हमें लगा कहीं महानगरों में पलेबढ़े हमारे बच्चे प्रकृति के उस रहस्य व आनंद से वंचित न रह जाएं जो मां की बगिया में बिखरा पड़ा था और अगर बच्चे आना नहीं चाहेंगे तो हम तीनों तो जरूर आएंगे, पूरे साल से बस एक हफ्ता तो हम कभी अपने लिए निकाल ही सकते हैं, मां के साथ बचपन को जीते हुए, प्रकृति की छांव में. Story In Hindi

Hindi Story: मलिका – रिद्धिमा के पापा क्यों जल्दी शादी करना चाहते थें

Hindi Story: यह-कहानी शुरू होती है एक साधारण सी लड़की से, जिसे शायद कुदरत रंगरूप देना भूल गई थी, या फिर यों कहिए कि कुदरत ने उस साधारण लड़की में कुछ असाधारण गुण जड़ दिए थे जो वक्त के साथ उभरते और निखरते रहे. 3 बहनों में दूसरे नंबर की सांवली का नाम शायद उस के मातापिता ने उस के रंग के कारण ही रखा था. एक तो सांवली ऊपर से दांत भी बाहर निकले हुए, एक नजर में कुरूपता की निशानी. बड़ी और छोटी बहनें गजब की खूबसूरत थीं. दोनों बहनों में जैसे एक बदनुमा दाग की तरह दिखने वाली, मातपिता की सहानुभूति, रिश्तेदारों, परिचितों से मिली उपेक्षा ने सांवली में एक अद्भुत स्वरूप को उकेरना शुरू कर दिया था.

वह था स्वयं से प्यार. बचपन से ही अंतर्मुखी सांवली का दिमाग उम्र से ज्यादा तेज था. छोटीमोटी उलझनों को चुटकी में सुलझा देना उस के नैसर्गिक गुणों से शुमार था. जहां एक ओर उस की दोनों बहनें घरघर खेलतीं, सजतींसंवरतीं, वहीं सांवली गणित के सवालों को हल करती दिखती. वक्त के साथ तीनों जवान हो गईं. सांवली पढ़ाई में हमेशा अव्वल रही. बहनों की खूबसूरती और निखर गई, सांवली अपना संसार बुनती रही, जहां उस के अपने सपने थे. अपने दम पर खुद को सिर्फ खुद के लिए साबित करना, उस की प्रतियोगिता किसी और से नहीं, स्वयं से थी. जूडो और बौक्सिंग उस के पसंदीदा खेल थे. स्कूल और कालेज स्तरीय कई प्रतियोगिताओं के मैडल उस ने अपने नाम कर लिए थे. मातापिता को चिंता खाए जा रही थी कि तीनों का विवाह करना है और खासकर सांवली को ले कर चिंतित रहते थे कि कैसे होगा इस का विवाह, कौन इसे पसंद करेगा, ज्यादा दहेज देने की हैसियत नहीं है, क्या होगा? लेकिन सांवली इन सब बातों से बेफिक्र थी, उस की डिक्शनरी में अभी विवाह नाम का कोई शब्द नहीं था.

उस ने तो ठान लिया था कि मरुस्थल में फूल खिलाना है. ‘‘पता नहीं, रिद्धिमा के पापा ने लड़के वालों से बात की होगी या नहीं?’’ सांवली की मां मालती ने अपनी सासुमां गिरिजा देवी से कहा. ‘‘अब तो आता ही होगा, आ कर बताएगा कि क्या बात हुई, फिक्र क्यों करती हो,’’ गिरिजा देवी ने कहा. ‘‘अम्मां, 3 जवान लड़कियां छाती पर बैठी हों तो फिक्र तो होती ही है,’’ मालती बोली. ‘‘अरे रिद्धिमा तो खूबसूरत है, निबट ही जाएगी, फिक्र तो सांवली की रहती है, इस का क्या होगा,’’ गिरिजा देवी माथे पर हाथ रखती हुई बोलीं. ‘‘हमारी फिक्र न करो दादी, हमारा लक्ष्य सिर्फ शादी नहीं है, हम तो वे करेंगे जो कोई दूसरा नहीं करता,’’ सांवली ने तपाक से कहा. ‘‘क्या मतलब, क्या तू लड़की नहीं है,

लड़की की जात को चूल्हाचौका ही सुहाता है, समझी,’’ दादी ने आंखें तरेर कर कहा. ‘‘हां दादी, मैं तो समझी, पर आप नहीं समझीं,’’ कह सांवली हंस पड़ी. तभी सांवली के पिता बलरामजी के खखारने की आवाज सुनाई दी. ‘‘अरी जा, देख पापा आ गए,’’ मालती ने सांवली से कहा और खुद भी दरवाजे की ओर दौड़ी. मां पानी का गिलास ले आईं, बोलीं, ‘‘बताओ, लड़के वालों से क्या बात हुई आप की?’’ ‘‘हां, परसों आ रहे हैं, समीक्षा को देखने,’’ बदलेव सिंह सोफे पर बैठते हुए बोले. ‘‘कौनकौन आएगा?’’ मां ने प्रश्न किया. ‘‘अब यह तो नहीं पूछा, 3-4 लोग तो होंगे ही,’’ बलदेव सिंह बोले. ‘‘अच्छा, कितने बजे तक आएंगे, यह तो पूछा होगा?’’ मां ने अगला प्रश्न किया. ‘‘दोपहर 1 बजे. रविवार है… सभी के लिए सुविधाजनक है,’’ बलदेव सिंह ने बताया. ‘‘सांवली ओ सांवली,’’ मां ने पुकारा. ‘‘हां, मां क्या बात है कहो,’’ सांवली ने बैठक में आते हुए पूछा. ‘‘सुन, परसों तेरी समीक्षा जीजी को लड़के वाले देखने आ रहे हैं, तो तू अभी तैयारी शुरू कर दे, क्या बनाएगी? उस के लिए क्या कुछ सामान बाजार से लाना है.

एक लिस्ट बना ले, तेरे पापा शाम को ले आएंगे और सुन तू भी जरा बेसन का लेप लगा लेना, रंग थोड़ा खुला दिखेगा,’’ मां ने सांवली को देखते हुए कहा. ‘‘मां… अब इस में मुझे बेसन का लेप लगाने की क्या जरूरत आन पड़ी? वे लोग तो जीजी को देखने आ रहे हैं,’’ सांवली ने कंधे उचकाते हुए कहा. ‘‘अरे, ऐसे ही एक के बाद एक रस्ते खुलते हैं, हो सकता है उन की नजर में तेरे लायक भी कोई रिश्ता हो, चल अब जा, परसों की तैयारियां कर,’’ मां ने कहा. तैयारियां शुरू हो गईं, समीक्षा फेशियल, साडि़यों के चयन आदि में व्यस्त रही और सांवली किचन की तैयारियों में, जो सूखा नाश्ता जैसे मठरी, गुझिया, चिवड़ा आदि उस ने एक दिन पहले ही बना कर तैयार कर लिए थे. रविवार सुबह से समोसे, मूंग का हलवा और बादाम की खीर की खूशबू से सारा घर महक रहा था. समीक्षा साडि़यों पर साडि़यां बदले जा रही थी, छोटी बहन सुनीति उस की मदद कर रही थी. ‘‘समीक्षा, तू कुछ भी पहन ले, सुंदर ही दिखेगी, तुझे तो एक नजर में पसंद कर लेंगे वे, चिंता मत कर, कुछ भी पहन ले,’’ मां ने पूर्ण विश्वास से कहा.

‘‘सांवली ओ सांवली,’’ मां ने सांवली को पुकारा. ‘‘क्या है मां,’’ किचन से निकलते हुए सांवली बोली. ‘‘सुन, तू भी अब मुंह धो ले, और अच्छी तरह पाउडर लगा कर, हलकेपीले रंग का जो सूट है न उसे पहन ले, उस में तेरा रंग खिला हुआ लगता है,’’ मां ने सांवली को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा. ‘‘मां… तुम भी न… आज तो समीक्षा जीजी को तैयार होने दो, क्यों जीजी…’’ सांवली ने समीक्षा से चुटकी ली. ‘‘जा, तू भी तैयार हो जा…’’ समीक्षा ने मुसकराते हुए सांवली से कहा. ‘‘ठीक है जीजी,’’ सांवली हंसते हुए बोली. ‘‘डेढ़ बजे के करीब लड़के वाले तशरीफ ले आए, मातापिता, लड़का और उस की छोटी बहन, कुल 4 लोग आए थे.’’ ‘‘आइए भाई साहब, नमस्ते बहनजी, आओ बेटा आओ…’’ बलदेव सिंह सब का स्वागत करते हुए बोले. ‘‘बहनजी, आप का घर तो खाने की खुशबूओं से महक रहा है, कितने पकवान बनवा लिए आप ने?’’ लड़के की मां ने घर में घुसते ही कहा. ‘‘अरे बहनजी, बच्चियों से जो कुछ बन सका, बस यों ही थोड़ाबहुत…’’ मां ने मुसकान बिखेरते हुए कहा. सभी को बैठक में बैठाया गया,

जो सांवली की कलाकृतियों से बहुत ही करीने से सजासंवरा, छोटा सा कमरा था. सांवली पानी की ट्रे लिए बैठक में दाखिल हुईर्. लड़के की मां उसे कुछ ज्यादा ही ध्यान से देखने लगी. ‘‘बहनजी, यह मझली बेटी सांवली है, समीक्षा, जिसे आप देखने आई हैं, वह अभी अंदर है,’’ मां ने लड़के की मां की नजरों को ताड़ते हुए कहा. ‘‘ओह, अच्छा…’’ लड़के की मां सोफे से पीठ टिकाती हुई बोली. सांवली ने सभी को नमस्ते कर ट्रे में पानी के गिलास रख दिए. ‘‘जा वांवली, जीजी को ले आ,’’ मां ने कहा. ‘‘ये वौल पीस, हैंगिंग और पेंटिंग्स तो बहुत जोरदार हैं, बिटिया ने बनाई हैं क्या?’’ लड़के की मां ने चारों तरफ नजर घुमाते हुए पूछा. ‘‘हं… हां… हां…’’ मां ने कहा, पर यह बात गोल कर दी कि किस बिटिया ने बनाई है, क्योंकि अभी तो समीक्षा को निबटाना था. तभी सांवली अपनी समीक्षा जीजी के साथ बैठक में दाखिल हुई. लड़के की मां का चेहरा खिल उठा. ‘‘आओ… आओ, बिटिया… वाह… बहुत ही सुंदर, क्यों बेटा है न?’’ लड़के की मां ने अपने बेटे की तरफ देखते हुए कहा. लड़के ने आंखें उठा कर देखा तो उस की नजर सांवली की नजर से टकराई, जो उस का रिएक्शन देखने के लिए उसे ही देख रही थी. लड़के ने झेंप कर नजर झुका ली. ‘‘भई मुझे तो बिटिया बहुत पसंद है, अब फैसला तो श्याम के हाथ में है, मेरे खयाल से हमें इन दोनों को भी एकदूसरे से खुल कर बातचीत करने के लिए अकेला छोड़ देना चाहिए, क्यों जी, सही न,’’ लड़के की मां ने लड़के के पिता से कहा. ‘‘हां बिलकुल ठीक है,’’ लड़के के पिता ने कहा. ‘‘सांवली, जाओ बेटा जीजी और श्याम बाबू को बगीचे की सैर करवा दो,’’ मां ने झट से कहा. ‘‘

जी ठीक है मां, आइए जीजी…’’ सांवली ने समीक्षा और श्याम से चलने को कहा. बगीचे में पहुंच कर सांवली ने कहा, ‘‘जीजी, आप लोग बात कीजिए, तब तक मैं नाश्ते का प्रबंध करती हूं,’’ और वह भीतर चली आई. समीक्षा और श्याम करीब 15 मिनट बातचीत करते रहे, फिर वे भी भीतर बैठक में आ गए. ‘‘वाह भई, ऐसा स्वादिष्ठ नाश्ता कर के मजा आ गया, भई अब तो जी चाहता है सारा जीवन ऐसा ही नाश्ता मिलता रहे,’’ लड़के की मां ने कनखियों से समीक्षा को देखते हुए कहा. समीक्षा मुसकरा रही थी. श्याम और समीक्षा की रजामंदी से विवाह पक्का हो गया. इधर सांवली अपनी परीक्षा की तैयारियों में जुटी थी, उधर समीक्षा का विवाह भी हो गया. सांवली ने एमबीए के कोर्स में प्रवेश ले लिया, मैनेजमैंट और अकाउंटैंसी दोनों में ही सांवली का कोई जोड़ नहीं था. एमबीए पूरा होतेहोते छोटी बहन भी ब्याह कर ससुराल चली गई. अब मातापिता को सांवली की चिंता थी, हालांकि वे यह भी जानते थे कि सारे घर का दारोमदार अब सांवली के कंधों पर ही है, पिता रिटायर हो चुके थे, उन की पैंशन और सांवली की कमाई से ही घर का खर्च चलता था, पिता के पैंशन का मैटर भी विभागीय मसले में उलझ गया था,

जिसे सांवली ने ही अपनी सूझबूझ से निबटाया और पैंशन पक्की हो पाई. पिता तो सांवली के ऐसे कायल हो गए कि हर समस्या के समाधान के लिए उन की जबान पर एक ही नाम होता था सांवली. ‘‘अरे बेटा रो मत, सांवली घर आ जाए, मैं उस से बात करता हूं, दामादजी को वह इस मुश्किल से चुटकी में निकाल देगी, तू फिक्र मत कर,’’ पिता ने समीक्षा से फोन पर कहा. ‘‘ठीक है पापा, मैं कल श्याम के साथ घर आती हूं, सांवली को सारा मसला समझा देंगे,’’ समीक्षा ने कहा और फोन रख दिया. अगले दिन सुबह ही समीक्षा अपने पति के साथ घर आ गई. सांवली को श्याम ने अपने व्यापार में हुए घोटाले और घाटे से सड़क पर आ जाने का पूरा विवरण बताया. सांवली बहुत ही गंभीर मुद्रा में हर बात सुनती रही, फिर उस ने श्याम से कुछ प्रश्न किए जिन के उत्तरों से उसे समझ में आ गया कि आखिर चूक कहां हुई है. उस ने कुछ सुझाव दिए और कहा कि तुम इन पर अमल करो, बाकी मैं संभाल लूंगी. सांवली ने अपने तेज दिमाग से अपने जीजाजी का न केवल घाटा पूरा करवाया, बल्कि उस के बाद उन का बिजनैस जोर पकड़ता गया. अब तो श्याम जैसे सांवली का दीवाना हो गया, कभीकभी मजाक में कह भी देता था कि इस से तो मैं तुम से शादी करता तो ज्यादा अच्छा रहता. खैर, आधी घरवाली तो तुम हो ही.’’ इस पर सांवली कहती,

‘‘इस मुगालते में मत रहना जीजाजी, सांवली सिर्फ सांवली है, किसी की घरवाली नहीं, न आधी न पूरी.’’ जीजाजी जैसे मन मसोस कर रह जाते. कई बार कोशिश करने पर भी सांवली ने उन की दाल गलने न दी. सांवली जानती थी कि, उस का दिमाग और फिट फिगर पुरुषों को बेहद आकर्षित करता है, हर कोई चाहता है कि उस की बीवी खूबसूरत होने के साथ स्मार्ट माइंड भी रखती हो. वह अब यह भी जानती थी कि आज इस समय उस से कोई भी शादी करने के लिए तैयार हो जाएगा, लेकिन अब वह अपनी शर्तों पर जीवन जीना सीख चुकी थी, अब तो पुरुषों को अपनी उंगली पर नचाने में उसे मजा आता था. मन में एक भड़ास थी कि कभी उसे रूप के कारण कमतर आंका गया है, बहुत परिश्रम करना पड़ा है उसे यह मुकाम हासिल करने में. ‘‘हैलो, क्या मैं सांवलीजी से बात कर सकता हूं?’’ फोन पर किसी ने सांवली से कहा. ‘‘जी, कहिए, मैं सांवली बोल रही हूं,’’ सांवली ने जवाब दिया. ‘‘मैडम, आप से अपौइंटमैंट लेना था, एक प्रौपर्टी केस के सिलसिले में आप से कंसल्ट करना चाहता हूं, प्लीज बताइए, मैं आप से किस समय मिल सकता हूं?’’ अजनबी ने कहा.

‘‘आप सारे डौक्युमैंट्स ले कर परसों मेरे औफिस आ जाइए, बाइ दा वे, आप का शुभनाम?’’ सांवली ने पूछा. ‘‘ओह, आई एम सौरी, माई नेम इज बृज, मैं परसों मिलता हूं आप से, थैंक यू सो मच,’’ और फोन काट दिया गया. नियत समय पर बृज सांवली के औफिस पहुंचा. ‘‘गुड मौर्निंग… सांवली,’’ बृज ने अभिवादन किया. ‘‘वैरी गुड मौर्निंग बृज, टेक योर सीट,’’ सांवली ने मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘पेपर्स दिखाइए और केस की डिटेल्स बताइए.’’ ‘‘ओके, ये लीजिए पेपर्स. दरअसल, मेरी पार्टनर मेरी वाइफ ही थी, उस ने अपनी खूबसूरती के जाल में उलझा कर मुझ से कहांकहां साइन करवा लिए, मुझे पता नहीं चला, मेरा सारा बिजनैस खुद के नाम कर के मुझे डिवोर्स पेपर्स भेज दिए, मैं चाहता हूं कि उसे इस की सजा मिले, मुझे किसी ने आप का नाम सजेस्ट किया, बताया कि ऐसे उलझे मामलों को आप ने बड़ी होशियारी से सुलझाया है. मैं चाहता तो किसी वकील के पास भी जा सकता था, लेकिन इस केस को कैसे डील करना है, वह अब आप ही देखिए, वकील तो जो आप कहेंगी उसे कर लेंगे,’’ बृज एक सांस में बोल गया.

‘‘ओके, डौंट वरी, आई विल मैनेज एवरीथिंग, मैं प्लान प्रोग्राम कर आप से कौंटैक्ट करती हूं,’’ सांवली ने फिर एक गहरी मुसकान बिखेरते हुए कहा. ‘‘ओके, थैंक्स,’’ कह कर बृज ने हाथ आगे बढ़ाया, सांवली ने अपना हाथ बढ़ा कर शेक हैंड किया. महीनेभर की मशक्कत के बाद आखिर सांवली केस को सुलझाने में सफल हो गई. बृज की बीवी को स्वीकार करना पड़ा कि उस ने जालसाजी से ये सब किया था, क्योंकि बृज को उस पर अंधाविश्वास था, इसलिए उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाने में वह कामयाब रही, लेकिन जिन पौइंट्स पर वाह चूक गई थी, सांवली ने उन्हें पकड़ कर उस की जालसाजी पकड़ ली, बृज को अपनी प्रौपर्टी वापस मिल गई और महीनेभर की मुलाकातों ने उसे सांवली के व्यक्तित्व ने इतना प्रभावित किया कि उस ने फैसला कर लिया कि वह सांवली को अपना जीवनसाथी बनाएगा, यही सोच कर वह फूलों का बड़ा गुलदस्ता ले कर सांवली के औफिस पहुंचा. ‘‘हैलो मिस सांवली,’’ बृज ने सांवली से कहा. ‘‘हैलो बृज, बधाई हो आप को, अब तो आप खुश हैं न?’’ सांवली ने मुसकान बिखेरते हुए कहा. ‘‘हां, लेकिन यह खुशी दोगुना हो सकती है, अगर आप मेरी हमसफर बनने के लिए राजी हो जाएं?’’

बृज ने बिना किसी भूमिका के दिल की बात कह दी. ‘‘क्यों, एक धोखा खा कर तसल्ली नहीं हुई आप को, जो फिर ओखली में सिर डालने चले हो?’’ अभी तो मैं निकाल लाई आप को, मुझ से कौन बचाएगा आप को? सांवली ने खिलखिलाते हुए कहा. ‘‘अब तुम ने निकलना ही नहीं है. बिजनैस तुम ही संभालोगी, मुझे तो बस एक प्यार करने वाली बीवी चाहिए, जिस की मुसकराहट मेरी जिंदगी संवार दे और जो एक बेहतरीन दिल के साथ, शानदार दिमाग की भी मालिक हो, और वह हो तुम, तो कहो मेरी मलिका बनने को तैयार हो?’’ बृज ने दिल पर हाथ रख कर कुछ झुकते हुए कहा. ‘‘यस जहांपनाह, बाअदब, बामुलाहिजा, होशियार… मलिका ए दिमाग, आप के दिल में दाखिल होने जा रहा है.’’ ‘‘दिमाग चाहे तो वह हर मुकाम हासिल कर सकता है, जो रूप के बूते मिलता है, लेकिन रूप चाह कर भी वह मुकाम हासिल नहीं कर सकता, जो दिमाग हासिल कर सकता है,’’ सांवली बृज की बांहों में झूल रही थी. Hindi Story

Hindi Story: भूल – प्यार के सपने दिखाने वाले अमित के साथ क्या हुआ?

Hindi Story: कैफे कौफी डे’ में रजत, अमित, विनोद और प्रशांत बैठे गपें मार रहे थे, इतने में अचानक रजत की नजर घड़ी पर गई तो वह बोला, ‘‘अमित, तुझे तो अभी ‘उपवन लेक’ जाना है न, वहां पायल तेरा इंतजार कर रही होगी.’’

अमित ने अपने कौलर ऊपर करते हुए कहा, ‘‘वही एक अकेली थोड़ी है जो मेरा इंतजार कर रही है, कई हैं, करने दे उसे भी इंतजार, बंदा है ही ऐसा.’’

प्रशांत हंसा, ‘‘हां यार, तू अमीर बाप की इकलौती औलाद है, हैंडसम है, स्मार्ट है, लड़कियां तो तुझ पर मरेंगी ही.’’

अमित ने इशारे से वेटर को बुला कर बिल मंगवाया और बिल चुकाने के बाद अपनी गाड़ी की चाबी उठाई और बोला, ‘‘चलो, मैं चलता हूं, थोड़ा टाइमपास कर के आता हूं,’’ सब ने ठहाका लगाया और अमित बाहर निकल गया. वह सीधा ‘उपवन लेक’ पहुंचा, पायल वहां बैंच पर बैठी थी, उस ने कार से उतरते अमित को देखा तो खिल उठी. वह अमित को देखती रह गई. शिक्षित, धनी, स्मार्ट अमित उस जैसी मध्यवर्गीय घर से ताल्लुक रखने वाली साधारण लड़की को प्यार करता है, यह सोचते ही पायल खुद पर इतरा उठी. पास आते ही अमित ने उस की कमर में हाथ डाल दिया और इधरउधर देखते हुए कहा, ‘‘चलो, कहीं चल कर कौफी पीते हैं.’’

‘‘नहीं अमित, अगर किसी ने देख लिया तो?’’

‘‘अरे पायल, मैं तुम्हें जिस होटल में ले जाऊंगा वहां तुम्हारी जानपहचान का कोई फटक भी नहीं सकता.’’

पायल को अमित की यह बात बुरी तो लगी, लेकिन उस के व्यक्तित्व के रोब में दबा उस का मन कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया, उस ने चुपचाप सिर हिला दिया. अमित उसे एक शानदार महंगे होटल में ले गया और दोनों ने एक कोने में बैठ कर कौफी और कुछ स्नैक्स का और्डर दे दिया, हलकाहलका मधुर संगीत और होटल के शानदार इंटीरियर को देख पायल का मन झूम उठा.

अमित की मीठीमीठी बातें सुन कर पायल किसी और ही दुनिया में पहुंच गई. करीब घंटेभर दोनों साथ बैठे रहे. इस दौरान कभी अमित पायल का हाथ अपने हाथ में ले कर बैठता तो कभी उस के खूबसूरत सुनहरे बालों को उंगलियों से सहलाने लगता. पायल हमेशा की तरह सुधबुध खो कर उस की बातों की दीवानी बन खोई रही. जब उस के मोबाइल की घंटी बजी तो वह होश में आई, उस के पापा का फोन था, उन्होंने पूछा, ‘‘कहां हो?’’

पायल ने तुरंत कहा, ‘‘बस पापा, रास्ते में हूं, घर पहुंचने वाली हूं.’’ उस ने अमित से कहा, ‘‘अब मैं जा रही हूं, फिर मिलेंगे.’’ अमित ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ, मैं यहां अपने दोस्त का इंतजार कर रहा हूं, वह आता ही होगा.’’ पायल चली गई. अमित ने मुसकराते हुए घड़ी देखी. रंजना को उस ने आधे घंटे बाद यहीं बुलाया था. वह जानता था कि पायल घंटेभर से ज्यादा नहीं रुक पाएगी, क्योंकि उस के पापा काफी अनुशासनप्रिय हैं.

अमित बिजनैसमैन कमलकांत का इकलौता बेटा था, मम्मी का देहांत हो चुका था. उस ने अभीअभी एमबीए किया था ताकि बिजनैस संभाल सके. वह युवतियों को खिलौना समझता था, उन पर पैसा खर्च कर वह अपना उल्लू साधता था. वह कई युवतियों से एकसाथ फ्लर्ट करता था. कालेज में युवतियां उस की दीवानी थीं, जिस का उस ने हमेशा फायदा उठाया.

पायल के जाने के बाद वह अब रंजना का इंतजार कर रहा था. खुले विचारों वाली रंजना मौडर्न ड्रैस पहन कर मिलने आई थी. अमित को देख कर उस ने फ्लाइंग किस की और पास पहुंच कर उस से सट कर बैठ गई. अमित ने उस से प्यार भरी बातें कीं और छेड़खानी शुरू कर दी.

रंजना खुद को बड़ी खुशनसीब मानती थी कि उसे अमित जैसा दौलतमंद बौयफ्रैंड मिला. उस ने शादी का जिक्र किया, ‘‘अमित, तुम डैड से हमारी शादी की बात कब कर रहे हो?’’

अमित चौंक कर बोला, ‘‘देखता हूं, अभी तो डैड बहुत बिजी हैं,’’ कहते हुए वह मन ही मन हंसा, ’कितनी बेवकूफ होती हैं लड़कियां, दो बोल प्यार के सुन कर शादी के सपने देखने लगती हैं, हुंह. शादी और इन से, शादी तो अपने ही जैसे उच्चवर्गीय परिवार की किसी लड़की से करूंगा, मखमल में टाट का पैबंद तो लगने से रहा,’अमित ने रंजना की बातों का रुख मोड़ दिया. फिर घंटेभर टाइमपास कर रंजना को ले कर कार की तरफ बढ़ा और उस के घर से पहले ही कार रोक कर उसे उतार कर आगे बढ़ गया.

वह जब घर पहुंचा तो उस के पिता कमलकांत औफिस से आ चुके थे, वे ड्राइंगरूम में गुमसुम बैठे थे. अमित गुनगुनाते हुए घर के अंदर दाखिल हुआ तो उस से पापा की नजरें मिलीं. अमित ने अपने पिता के चेहरे की गंभीरता भांप ली और बोला, ‘‘डैड, कुछ प्रौब्लम है क्या? आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

कमलकांत कुछ नहीं बोले, बस, सोफे पर उन्होंने सिर टिका लिया. अमित घबरा कर आगे बढ़ा, ‘‘क्या हुआ डैड?’’

कमलकांत की बुझीबुझी सी आवाज आई, ‘‘2 दिन से सोच रहा हूं तुम्हें बताने के लिए, मुझे एबीसी कंपनी के शेयरों में काफी घाटा हुआ है. अब सारा पैसा डूब गया, जबरदस्त नुकसान हुआ है.’’

दोनों बापबेटा काफी देर सिर पकड़ कर बैठे रहे, फिर कमलकांत ने कहा,

‘‘मि. कुलकर्णी की बेटी से तुम्हारे रिश्ते की जो बात चल रही थी आज उन्होंने भी बात घुमाफिरा कर इस रिश्ते को खत्म करने का संकेत दे दिया है. अब तुम्हें कोई लड़की पसंद हो तो बता देना,’’ तभी नौकर ने आ कर खाना बनाने के लिए पूछा तो दोनों ने ही मना कर दिया.

दोनों के होश उड़े हुए थे, दोनों बापबेटा अपनेअपने कमरे में रातभर जागते रहे. कमलकांत रातभर अपने वकील, सैक्रेटरी, मैनेजर से बात करते रहे, अमित ने तो अपना फोन ही स्विचऔफ कर दिया था, कहां तो वह रोज इस समय फोन पर किसी न किसी लड़की को भविष्य के सुनहरे सपने दिखा रहा होता था. अगले कुछ दिनों में स्थिति और भी स्पष्ट होती चली गई थी. शहर में चर्चा होने लगी, इसी वजह से कमलकांत को हार्टअटैक आ गया, उन्हें तुरंत अस्पताल में भरती किया गया. अमित की भी हालत खराब थी. रिश्तेदारों ने भी उस से दूरी बना ली. सिर्फ एकदो दोस्त उस के साथ अस्पताल में थे.

अमित पिता की रातदिन देखभाल कर रहा था. कुछ दिन बाद जब उन की हालत में कुछ सुधार हुआ तो डाक्टर के निर्देशों के साथ घर आते ही उन्होंने अमित से कहा, ‘‘बेटा, तुम जल्दी से जल्दी साधारण ढंग से ही शादी कर लो, मेरी एक चिंता तो खत्म हो जाएगी. तुम्हारी तो इतनी सारी लड़कियों से दोस्ती है. मुझे बताओ, किस से शादी करना चाहते हो?’’

‘‘डैड, पहले आप ठीक तो हो जाओ, मुझे तय करने के लिए थोड़ा समय चाहिए.’’

समाचारपत्रों में छपी खबरों से अब तक रंजना, पायल और अन्य लड़कियों को भी अमित के चरित्र और कमलकांत की गिरती साख की खबर लग चुकी थी. अमित ने पायल को मिलने के लिए फोन किया तो उस ने साफ इनकार कर दिया और बोली, ‘‘तुम एक आवारा और चरित्रहीन लड़के हो, लड़कियों की भावनाओं से खेलते हो. शादी तो दूर मैं तुम्हारी शक्ल भी नहीं देखना चाहती.‘‘

अमित पायल के व्यंग्यबाणों से अपमान, मानसिक पीड़ा और क्रोध में जला जा रहा था. इस पीड़ा से उस ने अपनेआप को बहुत मुश्किल से संभाला. सामान्य होने के बाद उस ने रंजना को फोन किया तो रंजना का भी जवाब था, ‘‘तुम अब कुछ भी नहीं हो अमित, जिस पिता के पैसे पर ऐश कर के लड़कियों को बेवकूफ बनाते थे वह पैसा तो अब डूब गया. अब मेरी भी तुम में कोई रुचि नहीं है. मुझे पूजा, अनीता और मंजू के बारे में भी पता चल चुका है, अब सब तुम्हारी हकीकत जान चुके हैं. पिता की दौलत के बिना तुम कुछ नहीं हो, किसी लड़की को अपने से कम समझना, तुम लड़कों का ही हक नहीं है बल्कि हम में भी फैसला लेने की क्षमता, इच्छा, रुचि और पसंद होती है. काश, तुम गरीब और साधारण रूपरंग वाले लेकिन चरित्रवान युवक होते और लड़कियों की भावनाओं से नहीं खेलते,’’ कह कर रंजना ने उस की बात सुने बिना ही फोन रख दिया.

अमित को ऐसा लगा जैसा कि रंजना ने उसे करारा तमाचा मारा हो. निष्प्राण सा वह बिस्तर पर ढह गया. उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो शरीर का खून पानी हो गया हो. उस का गला सूखने लगा और वह अब कुछ करने की हालत में नहीं था. वह बड़ी मुश्किल से उठा और पापा को उस ने अपने हाथ से जबरदस्ती कुछ खिला कर दवा दी, फिर अपने कमरे में आ कर निढाल पड़ गया. उस के दिलोदिमाग में विचारों की आंधी का तांडव चल रहा था. वह इस तरह अपने को ठुकराना सहन नहीं कर पा रहा था. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस जैसे स्मार्ट, हैंडसम लड़के का कोई लड़की इस तरह से अपमान कर सकती है. उस ने अब तक न जाने कितनी लड़कियों को अपनी बातों के जाल में फंसाया था, लेकिन आज उन साधारण लड़कियों ने उस के घमंड को चकनाचूर कर दिया.

मन शांत हुआ तो उस ने सोचा कि सिर्फ पुरुष होने के नाते वह किसी लड़की की भावनाओं से नहीं खेल सकता. उस ने हमेशा अपनी भावनाओं को ही महत्त्व दिया. कभी उस के मन में यह बात नहीं आई कि किसी लड़की का भी आत्मसम्मान व पसंदनपसंद हो सकती है. उस के दिमाग में तो हमेशा यही गलतफहमी रही कि उसे पा कर हर लड़की खुद को धन्य समझेगी, लेकिन उस रात आत्मविश्लेषण करते हुए उस ने महसूस किया कि पायल और रंजना की बातों ने उस की सोच को नया आयाम दिया है. सुबह उस का मन एकदम शांत था, ठीक तूफान के गुजरने के बाद की तरह शांत. उसे अपनी भूल का एहसास हो चुका था. वह मन ही मन पायल, रंजना और पता नहीं कितनी लड़कियों से माफी मांग रहा था. Hindi Story

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें