फिल्म रिव्यू : लोमड़ – औरोशिखा डे व हेमवंत तिवारी का जानदार अभिनय

  • रेटिंग: पांच में से तीन स्टार
  • निर्माता: हेमवंत तिवारी
  • लेखक निर्देशक: हेमवंत तिवारी
  • कलाकार:हेमवंत तिवारी,औरोशिखा डे,परमिल आलोक, नवनीत शर्मा,रोशन सजवान,मेाहित कुलश्रेष्ठ,शिल्पा शभलोक तीर्था मुरबाडकर
  • अवधि: एक घंटा 37 मिनट

 

इन दिनों भारतीय सिनेमा काफी कठिन दौर से गुजर रहा है.फिल्में सिनेमाघरों में सफलता दर्ज नही करा पा रही है.ऐसे ही दौर में  हौलीवुड कलाकार एरिक रॉबर्ट्स और नताशा हेनस्ट्रिज के साथ इंटरनेशनल वेब सीरीज ‘‘मदीनाह’’ में अभिनय कर चुके अभिनेता हेमवंत तिवारी बतौर लेखक व निर्देशक विश्व की पहली ‘‘वन शौट ब्लैक एंड व्हाइट’’ फिल्म ‘‘लोमड़’’ लेकर आए हैं.यानी कि यह फिल्म बिना रूके लगातार शूटिंग करते हुए एक घंटे 37 मिनट में ही फिल्मायी गयी है.इसमें एडीटिंग नही हुई है.रोमांचक क्राइम फिल्म ‘‘लोमड़’’ चार अगस्त को सिनेमाघरों में पहुॅच चुकी है.

 

कहानीः

अभय तिवारी (हेमवंत तिवारी) एक अच्छा युवक है.उसकी अपनी गार्मेंट फैक्टरी है.उसे याद है कि भ्रष्ट,कुख्यात और एक मंत्री  की शह पर किसी की भी हत्याएं करने वाले पुलिसकर्मी (परिमल आलोक) ने ही छह साल पहले उसके पिता की हत्या की थी,जिसके सदमें से उसकी मां पैरलाइज है.अभय की पत्नी नैना, बेटी शताक्षी व बेटा पृथ्वी है.अभय का स्कूल दिनों में रिया  (औरोशिका डे) संग इश्क था.मगर बाद में रिया को मजबूरन अपनी उम्र से दस साल बड़े रोनित से विवाह करना पड़ा.अब दस साल बाद सोशल मीडिया के माध्यम से आकाश व रिया मिले हैं तथा वह दोनों नैना को सरप्राइज देने जा रहे हैं.पर अचानक सुनसान जंगल की सड़क पर उनकी कार खराब हो जाती है.कुछ देर में स्कूटर से उसी सड़क से गुजर रहे राहुल ( मोहित कुलश्रेष्ठ) नामक युवक का एक्सीडेंट हो जाता है.रिया की इच्छा के विपरीत जाकर अभय उस युवक को बचाने की कोशिश करता है.इसके लिए वह रिया के साथ खुद को मुसीबत में डालने के लिए भी तैयार है.इतना ही नही उसी वक्त वहां पहुॅचे भ्रष्ट और कुख्यात पुलिसकर्मी (परिमल आलोक) को भी नुकसान पहुंचाने से इनकार कर देता है.उधर रिया हर स्थिति में खुद को पहले स्थान पर रखती है.रिया, अभय के साथ पकड़े जाने से बचने के लिए किसी मरते हुए आदमी को सड़क के  किनारे छोड़ने या किसी की हत्या करने से नहीं हिचकिचाती. यही बात अभय की पत्नी नैना (तीर्था मुरबादकर) पर भी लागू होती है, जिसका क्षमाप्रार्थी और विनम्र व्यवहार तब गायब हो जाता है,जब वह खुद को दोषी महसूस करती है, भले ही वह गलती हो.वास्तव में राहुल,नैना का प्रेमी है.यानी कि नैना अपने पति अभय को धोखा देते हुए राहुल संग रंगरेलियंा मना रही थी.अभय के अंदर का अजनबी इंसान जागता है.फिर कहानी में कई घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदलते हैं.

 

लेखन निर्देशनः

रंगीन फिल्मों के जमाने में फिल्मकार हेमवंत तिवारी श्वेत श्याम फिल्म लेकर आए हैं,पर यह ‘वन शाॅट श्वेत श्याम’ फिल्म है.विश्व में कुछ वन शाॅट फिल्में बनी हैं,पर वह सभी रंगीन बनी हैं.मगर हेमवंत ने श्वेत श्याम बनायी है. अपनी पटकथा के बल पर हेमवंत तिवारी इस बात को रेखांकित करने मंे सफल रहे हें.क हर इंसान के अंदर लोमड़ /लोमड़ी छिपा होता है,जो कि अजनबी जगह पर अनचाहे मोड़ पर बाहर आता है.यॅूं तो यह बेहतरीन रोमांचक कहानी है.मगर पटकथा में कुछ गड़बड़ी है,जिसके चलते कुछ दृश्य असंगत नजर आते हैं.फिल्म में उसी सुनसान जंगल के रास्ते से गुजरती गर्भवती महिला के दृश्य से फिल्म की कहानी में गतिरोध पैदा होता है.इसका कहानी से कोई संबंध नही है.इसे यदि न रखा गया होता तो फिल्म काफी कसी हुई होती.वैसे पूरी फिल्म देखने के बाद यह अहसास नही होता कि इसे पहली बार निर्देशक बने निर्देशक ने निर्देशित किया है और वह भी वन शाॅट फिल्म को.कुछ दृश्यों को बेवजह रबर की तरह खींचा गया है.शायद वन शाॅट फिल्म होने के चलते व ख्ुाद अभिनय भी करने के चलते निर्देशक बीच में कट नही कर सके.और फिल्म की प्रकृति के चलते इसे एडीटिंग टेबल पर ले जाना नहीं था.फिल्मकार ने कहानी को वर्तमान से एक वर्ष बाद मंे ले जाते समय जिस खूबसूरती से इसे चित्रित किया है,उससे उनकी लेखन व निर्देशकीय काबीलियत उभर कर आती है.हर मिनट कहानी में अतीत के खुलने से जो रहस्यमयता व रोमांच बढ़ता है,वह संुदर लेखन का परिचायक है.बीच बीच में दो तीन जगह दृश्य धीमी गति से चलते हैं,जो कि आवश्यक है.इन दृश्यों को ‘48 फ्रेंम प्रति सेकंड’ पर रखा गया है.अन्यथा पूरी फिल्म ‘24 फ्रेम प्रति सेकंड’ पर है.यह तकनीक पहली बार अपनायी गयी है.निर्देशक ने इस बारे में बताया कि यह पहली बार हुआ है,जब किसी फिल्म को नई तकनीक अपनाते हुए ‘24 फ्रेम प्रति सेकंड ’ की बजाय ‘48 फ्रेम प्रति सेकंड’ में फिल्माने के फिल्म के कुछ दृश्यों को छोड़कर पूरी फिल्म को ‘‘24 फ्रेम प्रति सेकंड’ में बदला है.

फिल्मकार हेमवंत तिवारी के साथ ही कैमरामैन सुप्रतिम भोल ने अपनी खास कलात्मक प्रतिभा के प्रदर्शन से फिल्म को रोचक,मनोरंजक व देखने योग्य बनाया है.

 

अभिनयः

एक असहाय व पीड़ित युवक,वफादार पति,दयालु पिता,उसूलो ंपर चलने वाले आकाश,जो रिया के अचानक गुस्से से भ्रमित हो जाता है,के किरदार को हेमवंत तिवारी अपने अभिनय से संवारने में सफल रहे हैं.अपने पति से खुश न होने के बावजूद अपनी शादी को बचाने के लिए फिक्र मंद रिया के किरदार में ‘‘द वाॅरियर क्वीन आफ झांसी’’सहित तीन इंटरनेशनल फिल्मों व कई सीरियलों में अपने अभिनय का परचम लहरा चुकी अभिनेत्री औरोशिखा डे जानदार अभिनय किया है.मंत्री की षह पर खुद को सर्वेसर्वा मानने वाले कुख्यात व भ्रष्ट पुलिस कर्मी के किरदार में परिमल आलोक अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं.मोहित कुलश्रेष्ठ, नवनीत शर्मा,रोशन सजवान और शिल्पा शभलोक के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं.अपने पति को धोखा देने वाली अभरय की पत्नी के छोटे किरदार में तीर्था मुरबाडकर अपने अभिनय की छाप छोड़ जाती हैं.

 

सर मेडम सरपंच रिव्यू: वर्तमान सामाजिक व राजनीतिक परिवेश पर जोरदार तमाचा

  • रेटिंगः तीन स्टार
  • निर्माताः सनकाल प्रोडक्षन इंटरनेशनल
  • निर्देशकः प्रवीण मोरछले
  • कलाकारः सीमा बिस्वास,भवन तिवारी,अरियाना सजनानी,अजय चैरे,तनिष्का अठानवले,हेमंत देवलेकर, ज्योति
  • दुबे, शुभांगिनी श्रीवास
  • अवधिः एक घंटा बयालिस मिनट

मानवीय संवेदनाओं और रिष्तों को काव्यात्मक तरीके से सिनेमा में पेश करने के लिए पहचान रखने वाले फिल्मकार प्रवीण मोरछले इस बार वर्तमान सामाजिक व राजनीतिक परिदृष्य के साथ वर्तमान सरकार के समय में पुस्तकों के प्रति सरकारी रैवेए पर कटाक्ष करने वाली फिल्म ‘‘सर मेडम सरपंच’’ लेकर आए हैं,जो कि 14 अप्रैल से हिंदी व अंग्रेजी सहित सात भाषाओं में पूरे देा के सिनेमाघरों में पहुॅचने वाली है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में अमरीका में न्यूकलियर टेक्नोलाॅजी में पीएचडी करने के बाद अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिए एना (एरियाना सजनानी) मध्य प्रदेश के बड़गाँव में एक पुस्तकालय खोलने के लिए वापस आती है,जहां उसके चाचा गुरूदेव(हेमंत देवलेकर), दादी (सीमा बिस्वास ),चाची व चचेरी बहन (तनिष्का अठानवले ) रहती है.एना को पता चलता है कि अपने पिता की जिस जगह पर वह पुस्तकालय खोलना चाहती है,उस पर गांव के नेता राजनारायण भइया(भगवान तिवारी) ने कब्जा कर रखा है.राजनारायण की पत्नी सुधा (ज्योति दुबे) गांव की सरपंच है,पर असली सरपंच तो राज नारायण (भवन तिवारी) ही हैं. एना की दादी (सीमा विश्वास) को मोबाइल की लत है,जो अपनी पोती और बहू के साथ मनमुटाव करती है और मोाबइल पर व्हाट्सअप पर व्यस्त रहती है.एना पुस्तकालय की जगह के लिए भैयाजी (भवन तिवारी) से भिड़ जाती है.अब षुरू होता है एना का उसके पिता के सपने को साकार करने के लिए संघर्ष… जी हाॅ!एना अपने नेक काम को पूरा करने के लिए संघर्ष करती है.जबकि नेता भईया जी के इषारे पर स्कूल प्रिंसिपल से लेकर स्थानीय अधिकारियों की हास्यास्पद मांगों के चलते एना पुस्तकालय के लिए दस एनओसी नही जुटा पाती.पर जब एना खुद ही सरपंच का चुनाव लड़ने का ऐलान करती है,तो किस तरह चीजें बदलती है.राज नारायण किस तरह गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं.

लेखन व निर्देशनः

बेहतरीन पटकथा व निर्देशन के चलते फिल्म षुरू से ही कई ज्वलंत मुद्दों को हास्य व्यंग के साथ उठाते हुए दर्षकों को बांधकर रखती है.लेकिन एना के चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद फिल्मकार की फिल्म पर से पकड़ कुछ ढीली पड़ जाती है.‘न्यू इंडिया‘(जब दादी अपनी पोती से सवाल करती है कि ‘न्यू इंडिया का होत है?), ट्रिलियन इकोनॉमी, अमरीका की दबंगई, पाठ्यपुस्तकों में इतिहास को संशोधित करने, जाति और सांप्रदायिक राजनीति, क्राउड- फंडिंग,सोशल मीडिया,गांवों में स्वास्थ्य सेवा,ग्रामीण राजनीति,नेता बनकर गांव वालों की जमीन पर जबरन कब्जा,नारी षोशण से लेकर हर उस बात को व्यंगकार हरिषंकर परसाइ के ही अंदाज में फिल्म मेें पेश करने में फिल्मकार प्रवीण मोरछले सफल रहे हैं.मगर जब इंटरवल के बाद फिल्मकार का ध्यान चुनाव पर आ जाता है,तो वह भटक जाते हैं.फिर वह पुस्तकों को लेकर कोई बात नही करते.उन्होने फिल्म में ग्रामीण परिवेश,वर्तमान सामाजिक व राजनीतिक उथल पुथल आदि को सजीवता प्रदान की है.कई जगह वह सरकार पर हास्यव्यंग षैली में गंभीर चोट भी करते हैं.आठवीं पास नेता जी का षिक्षा को लेकर संवाद-‘‘देश की तरक्की हो रही है,तो हमें पढ़ने की क्या जरुरत.?’सरकार व षिक्षा प्रणाली पर जबरदस्त तमाचा है. स्कूल के प्रिंसिपल एना को पुस्तकालय खोलने के लिए वास्तु विभाग से एनओसी प्राप्त करने के लिए कहते हैं.क्योंकि उनकी राय में कुछ किताबें इतनी शक्तिशाली होती हैं कि वह सरकारों को हिला सकती हैं. फिल्म के कुछ संवाद- मसलन-‘पढ़ाई और नौकरी तलाकषुदा हैं. ’,‘पुस्तकें कई विचारधाराओं की होती हैं.’‘हिंदुस्तान में किताबें भी दान देना आसान नहीं.’,‘गांधी जी एक विचार धारा है,जो मिट नही सकती.’अच्छे बन पड़े हैं.

अभिनयः

पूरी फिल्म में मोबाइल पर व्यस्त रहने के साथ ही समाज व राजनीति पर बेपरवाह मगर सटक बात कह देने वाली अम्मा के किरदार में सीमा बिस्वास ने दमदार परफॉर्मेंस दी है.वह दर्षकों के दिलो दिमाग पर लंबे समय तक छायी रहती हैं. भइया जी के किरदार में भवन तिवारी कुछ जगह खतरनाक नजर आते हैं,मगर कुछ दृष्यों में वह मसत खा गए हैं.अमरीका से वापस आयी एना के किरदार में एरियाना सजनानी अपने अभिनय का जादू नही जगा पायी.हालाँकि,उनका संवाद अदायगी मेें अमरीकी लहजा उनके चरित्र को प्रामाणिक बनाता है.नाई के छोटे किरदार में अजय चैरे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहे हंै.छोटी बच्ची चुटकी के किरदार में अपने अभिनय से तनिष्का अठानवले दर्षकों का मन मोह लेती हैं.कई जगह चुटकी को देखकर समझ में आता है कि वर्तमान समय के राजनीतिक व सामाजिक परिवेश में बच्चे किस तरह समय से पहले ही परिपक्व हो जाते हैं.

लकड़बग्घा फिल्म रिव्यू: कमजोर स्क्रीन प्ले पर कलाकारों की बेहतरीन एक्टिंग

  • रेटिंग: तीन स्टार
  • निर्माताः फस्ट रे फिल्मस
  • निर्देषकः विक्टरमुखर्जी
  • कलाकारः अंषुमन झा,मिलिंद सोमण, रिद्धि डोगरा,परेष पाहुजा,इकक्षा केरुंग, व अन्य
  • अवधिः दो घंटे 12 मिनट

पुरुष प्रेमियों के लिए एक जानवर की क्या अहमियत होती है, इसे समझने के लिए एक्षन,इमोषन व रोमांच से भर पूर फिल्म ‘‘लकड़बग्घा’’ से बेहतर कुछ नही हो सकता. लेकिन फिल्म की धीमीगति व रोमांच की कमी अखरतीहै.

कहानीः

फिल्म की कहानी के केंद्र में कोलकता का एक साधारण युवक अर्जुन बख्षी ( अंषुमनझा ) है,जो कूरियरब्वौय और अपने इलाके के बच्चों को मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी देताहै.अर्जुन को बेजुबान जानवरों से काफी प्यार करता है.उसने भारतीय नस्ल के कुत्तों को पाल रखा है.उसके पिता (मिलिंद सोमण ) ने उसे बचपन से ही बेजुबान और बेसहारा जानवरों,खास कर कुत्तों के लिए लड़ना सिखाया है.जब कोई इंसान किसी कुत्ते को नुकसान पहुंचाताहै, तो अर्जुन उसका दुष्मन बन जाता है.अर्जुन ऐसे ही पषुओं के दुष्मनों की हड्डी पसली तोड़ता रहता है.कोलकत्ता शहर में आए दिन बुरी तरह से घायल लोग मिलते हैं,इससे पुलिस हरकत में आती हैं.

इसकी जांच का जिम्मा क्राइम ब्रांच अफसर अक्षरा डिसूजा (रिद्धि डोगरा ) को सौंपा जाता है.अर्जुन बख्षी,अक्षरा का कूरियर देने जाता है ,तब दोनों की पहली मुलाकात होती है. उसके बाद अर्जुन अपने भारतीय नस्ल के कुत्ते शौंकु के लापता की षिकायतलिखने अक्षरा के पास जाता है.अपने कुत्ते षौंकू की तलाष के दौरान अर्जुन को अवैध पशु व्यापार के बारे में पता चलता है.अर्जुन को यह भी पता चलता है कि कई रेस्टोरेंट में मटन के नाम पर कुत्तों के मीट की बिरयानी खिलायी जाती है.एक दिन अचानक आर्यन की मुलाकात दुर्लभ लाल-धारी लकड़बग्घा (लकड़बग्घा) से हो जाती है,जिसे आर्यन विदेष भेजने की फिराक मेथा,पर अर्जुन उसे अपने साथ ले आने में सफल हो जाता है.

कहानी आगे  बढ़ती है और अक्षरा के साथ अर्जुन उसके भाई आर्यन डिसूजा से मिलता है और आर्यन की जानवरों के प्रतिसंवेदनशीलता की कमी से असहज महसूस करता है .परवह आर्यन के ेअसली व्यापार सेपरिचित नही होता.अर्जुन को बहुत देर से पता चलता है कि पषुओं का असली दुष्मन आर्यन डिसूजा ही है.आर्यन एक निर्दयीव्यवसायी, मांसप्रेमी, पशु-दवातस्करहै.इसके बाद अर्जुन और पशुओं के अवैध व्यापार में संलग्न आर्यन डिसूजा ( परेषपाहुजा ) के बीच युद्ध छिड़ जाताहै.अब क्या अर्जुन उन पशु सरगना का पर्दा फाश कर पाएगा?

समीक्षाः

भारतीय नस्ल के कुत्तों व जानवरों केा बाने ,उनसे प्रेम करने का एक अति आवष्यक संदेष देने वाली एक्षन व रोमांच प्रधान फिल्म की कमजोर कड़ी इसकी पटकथा है.फिल्म में रोमांचक का अभा है.फिल्मकार ने कलकत्ता में षूटिंग की है, मगर कलकत्ता पोर्ट से पषुओं की होने वाली तस्करी के दृष्योंको नही रखा है.जब कि इस तरह के दृष्य होने चाहिए थे.फिल्म कार ने कुछ बातों को महज संवादों में ही समेट दिया.हो सकता है कि बजट की कमी के चलते ऐसा किया गया हो,मगर इससे फिल्म थोड़ी कमजोर हो जाती है.इतना ही नही एक क्राइम ब्रांच अफसर अक्षरा डिसूजा आखिर अपने ही घर यानी कि अपने भाई आर्यन डिसूजा की काली करतूतों से कैसे अनजान रहती है,यह समझ से परे है.

कमजोर पटकथा के बावजूद यह फिल्म अपनी अनूठी कहानी और विनम्र शैली में काफी प्रभावशाली है.अक्षरा व अर्जुन के बीच के रोमांस को और अधिक बेहतर किया जास कता था.निर्देषक विक्टर मुखर्जी सफल रहे हैं .फिल्म के कुछ दृष्य काफी बेहतर बने हैं.यह फिल्म पष्चि मीनस्ल के पालतू जानवरों के मालिकों कीमान सिकता को उजागर करने में सफल रही है, जोदे सी कुत्तों दूर भागते हैं.फिल्म में बिना मे लोड्ामा के कुछ भावुक दृष्य भी हैं.फिल्म की धीमी गति अखरतीहै. बेल्जियन संगीतका रसाइमन फ्रैंक्के टदेसी संगीत पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं.जीन मार्क सेल्वा का कैमरा वर्क कमाल का है.

अभिनयः

पषु प्रेमी अर्जुन के किरदार में अंषुमन झा थोड़ा कमजोर नजर आए हैं,मगर एक्षन दृष्योंमेे ंउन्होेने जबरदस्त कमाल किया है.उनकी मेहनत साफ साफ झलकती है.मार्शल आर्ट ट्रेनर के रूप में अंशुमन झा ने अपने किरदार को बाखूबी निभाया है.अंषुमन झा में काफी संभावनाएं हैं.क्राइम ब्रांच अफसर अक्षरा के किरदार में रिद्धि डोगरा ने एक बार फिर अपने अभिनय काजलवा विखेरने मंे सफल रही हैं.क्राइम ब्रांच अफसर के तौर पर उनके अंदर क्या चल रहा है,वह क्या सोच रही हैं,इसकी भनक वहदर्ष कों कोन हीं लगने देती .दर्षक लगातार कन्फ्यूज होता रहता है कि अक्षरा,अर्जुन के साथ है या अर्जुन को गिरफ्तार करना चाहती हैं?

इस फिल्म के दोआष्र्चय जनक पर फार्मेंस हैं. एक हैं परेष पाहुजा.अब तक रोमांटिक किरदार निभाते आए परेष पाहुजा ने इस फिल्म में अहंकारी, बुद्धिमान, परिष्कृत व अवैध पषु व्यापार में संलग्न विलेन आर्यन डिसूजा  के किरदार में परेष पाहुजा एकदम नए अवतार में नजर आए हैं.तो वहीं आर्यन की राइट हैंड फाइटर के किरदार में इष्का केरुंग ने जिस तरह के खतरनाक एक्षन दृष्य किए हैं,वह बिरला कलाकार ही कर सकता है.सिक्किम पुलिस की अफसर इक्षा की यह पहली फिल्म है,मगर जबरदस्त परफार्मेंस देकर वह  किसी का ध्यान अपनी तरफ खींचने में कामयाब रही हैं.मिलिंद सोमण की प्रतिभा को जाया किया गया है.

Review: ‘वेल्ले’- समय व पैसे की बर्बादी

रेटिंग: एक़ स्टार

निर्माताः अभिषेक नामा, सुनील एस सैनी, नंदिनी शर्मा, गणेश एम सिंह, जोहरी टेलर

निर्देशकः देवेन मुंजाल

लेखकः पंकज मट्टा

कलाकारः करण देओल, आन्या सिंह, अभय देओल, मौनी रॉय, जाकिर हुसैन, विशेष तिवारी,  सावंत सिंह प्रेमी, राजेश कुमार, महेश ठाकुर,  अनुराग अरोड़ा व अन्य

अवधिः दो घंटा चार मिनट

धर्मंन्द्र के पोते और सनी देओल के बेटे करण देओल असफल फिल्म ‘‘पल पल दिल के पास’’ के बाद अब हास्य फिल्म ‘‘वेल्ल’े ’ में नजर आ रहे हैं,जो कि 2019 में प्रदर्शित तेलगू फिल्म ‘‘ब्रोचेवारेवारूरा’’ का हिंदी रीमेक है. वेले का मतलब हाते है ऐसे लोग जिनके पास र्काइे काम नहीं होता. फिल्म ‘वेले’ में भी करण देओल अपने अभिनय का जलवा दिखाने में बुरी तरह से असफल रहे हैं.

काश करण देओल धड़ाधड़ फिल्में करने की बनिस्बत अपनी अभिनय प्रतिभा को निखारने पर वक्त देते.

कहानीः

लेखक व निर्देशक ऋषि सिंह  अभय देआ देओल अपनी नई कहानी पर फिल्म बनाने के लिए निर्माता की तलाश के साथ ही अपनी इस फिल्म में मशहूर अदाकारा रोहिणी, मौनी रॉय को हीरोइन लेना चाहते है. ऋषि सिंह अभिनेत्री रोहिणी को कहानी सुनाने बैठते हैं. वह कहानी सुना रहे है.

यह कहानी 12 वीं कई वर्षां  से पढ़ रहे तीन दोस्तों- राहुल- करण देओल, राम्बो- सावंत सिंह प्रेमी और राजू- विशेष तिवारी के गैंग की है. यह वही गैंग है यानी कि ‘वेल्ले’  जो सिर्फ मस्ती करते हैं. इनकी जिंदगी का मकसद रिलैक्स करने के साथ मौज मस्ती करना है. यह तीनों जिस स्कूल में पढ़ते हैं, वहां के सख्त प्रिंसिपल राधेश्याम 1की बेटी रिया को अपने गैंग का हिस्सा बनाकर अपने गैंग को ‘आर 4’ नाम देते हैं.वास्तव मं े रिया की मां नही है.उसे पढ़ने की बजाय नृत्य का शौक है.पर रिया के पिता नृत्य के खिलाफ हैं.राहुल अपने दोस्त रितेषदीप की मदद से नृत्य का परषिक्षण दिलाने की बात करता है. पर पैसा नही है. तब रिया एक योजना बनाती है. जिसमें राहुल,रम्बो व राजू फंस जाते हैं. रिया की येाजना के अनुरूप यह लोग रिया का अपहरण कर रिया के पिता से आठ लाख रूपए वसूलते है. फिर रिया घर से भागकर राहुल के मित्र रितेषदीप की मदद से नृत्य की कोचिंग क्लासेस में प्रवेश लेती है.

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इसी बीच एक गैंग रिया का अपहरण कर रिया के कहने पर राहुल को फाने कर दस लाख रूपए की मांग करता है अन्यथा वह रिया को बेच देने की धमकी देता है.उधर ऋषि सिंह के पिता अस्पताल पहुंच गए हैं, जिनके ऑपरेशन के लिए दस लाख रूपए चाहिए.

रोहिणी उसे दस लाख रूपए देने के साथ ही ऋषि सिंह के साथ अस्पताल रवाना होती है.रास्ते में राहुल व उसके साथी यह दस लाख रूपए छीन लते हैं. फिर कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः राधेश्याम का अपनी बेटी रिया के प्रति प ्रेम उमड़ता है.राहुल ,ऋषि सिंह व राधेश्याम को पैसे वापस दे देत.सभी सुधर जाते हैं.

लेखन व निर्दशनः

इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजारे कड़ी इसकी कथा व पटकथा तथा कथा कथन शैली है. फिल्मकार एक बात भूल जाते है कि दक्षिण भारत की कहानी को उत्तर भारत के दशर्क के लिए ज्यो का त्यों नही परासे जाना चाहिए. इसके लिए पटकथा में आवशयकक बदलाव करने के लिए मेहनत की जानी चाहिए, जो कि लेखक व निर्देशको ने नहीं किया. इतना ही नही किरदारों के लिए कलाकारो का चयन भी गलत रहा. फिल्म के निर्देशक दवे ने मुंजाल बुरी तरह से मात खा गए हैं.

फिल्म देखते समय कई जगह ऐसा लगता है कि निर्देशक ने कलाकारो से कह दिया कि कुछ करते रहा. हिसाब से करना है,यह बताना भलू गए या वह स्वयं नहीं समझ पाए.कई दृष्यों का दोहराव भी अजीबो गरीब तरीके से किया गया है. बतौर निर्देशक देवेन मुंजाल फिल्म के किरदारों और फिल्म के मूल संघर्ष को स्थापित करने में विफल रहे हैं. एडीटर ने भी अपने काम को सही ढंग से अंजाम नही दिया.

अभिनयः

राहुल के किरदार में करण दोओल ने बुरी तरह से निराश किया है. उनके चेहरे पर न भाव है और न ही किरदार के अनुरूप उनकी बौडी लैंगवेज है. करण देओल को अपनी संवाद अदायगी पर भी मेहनत करने की जरुरत है. महज सुंदर हाने से अभिनय नही आ जाता. करण देओल की बनिस्बत उनके दास्त बने विशेष तिवारी व सावंत सिंह ज्यादा बेहतर नजर आए है.

ऋषि सिंह के किरदार में अभय देओल के लिए करने को कुछ खास रहा नही. जो कुछ दृश्य उनके हिस्से आए, वह लेखक व निर्देशक की महे रबानी से उभर नही पाए. अभिनेत्री रोहिणी के किरदार में मौनी रॉय भी निराश करती है.

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मौनी रॉय खुद को सदैव सूर्खियां में रखने के लिए उल जलूल खबरें फैलाने में अपना वक्त व पैसा बर्बाद करने के अभिनय को निखारने पर ध्यान देती. मौनी रॉय की बनिस्बत रिया के किरदार में आन्या सिंह बाजी मार ले जाती है. आन्या सिंह कई दृश्यों में लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचन में सफल रही है. राजेश कुमार जैसे प्रतिभाशली व अनुभवी कलाकार ने यह फिल्म क्यों की,  यह समझ से परे है.

Film Review- बली: अस्पताल व डाक्टरी पेशे से जुड़े अहम मुद्दे को ‘रहस्य व रोमांच की चाशनी में’

रेटिंग: दो स्टार

निर्माता: अर्जुन सिंह बरन,कार्तिक निशानदर

निर्देशक: विशाल फूरिया

कलाकार: स्वप्निल जोशी,पूजा सावंत, बाल कलाकार

समर्थ जाधव, बाल कलाकार अभिषेक

बचनकर,प्रीतम कगने,रोहित कोकटे, संजय रणदिवे,

श्रृद्धा कौल, महेश बोडस

अवधि: एक घंटा 44 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: अमजाॅन प्राइम वीडियो

कुछ समय पहले प्रदर्शित फिल्म ‘‘छोरी’’ के निर्देशक विशाल फुरिया अब एक मराठी भाषा की रहस्य व रोमांच से भरपूर फिल्म ‘‘बली’’ लेकर आए हैं, जो कि नौ दिसंबर 2021 से ‘अमेजाॅन प्राइम वीडियो’’ पर स्ट्रीम हो रही है.

फिल्म ‘बली’ में डाक्टरी पेशे से जुड़े एक अहम मुद्दे को उठाकर अस्पतालों में आम इंसानों के साथ होने वाली ठगी आदि का चित्रण है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में मध्यम वर्गीय श्रीकांत साठे और उनका सात वर्षीय बेटा मंदार साठे है.श्रीकांत साठे की पत्नी की मौत हो चुकी है.श्रीकांत ही मंदार का पालन पोषण कर रहे हैं.मंदार अच्छा क्रिकेट खेलता है.एक दिन क्रिकेट खेलते हुए मंदार बेहोश होकर गिर पड़ता है. मंदार को जन संजीवनी अस्पताल में भर्ती किया जाता है,जहां वह एक रहस्यमयी एलिजाबेथ नामक नर्स से बातें करना शुरू करता है.

मंदार के अनुसार यह नर्स जन संजीवनी अस्पताल की पुरानी इमारत में रहती है,जो कि आठ माह से बंद पड़ी है.कहानी ज्यों ज्यों आगे बढ़ती है, त्यों त्यों रहस्य गहराता जाता है.अंततः जो सच सामने आता है,उससे इंसान दहल जाता है.

लेखन व निर्देशनः

लेखक व निर्देशक ने डाक्टरी पेशा व अस्पतालों से जुड़े एक अहम मुद्दे को रहस्य व रोमांच के ताने बाने के तहत पेश किया है. फिल्म में डाक्टरी की पढ़ाई में असफल रहे इंसान का डाक्टर के रूप में अपने पिता के अस्पताल का मुखिया बनकर लोगों को मौत के मुंह में ढकेलने से लेकर गलत रिपोर्ट के आधार पर एनजीओ से पैसे ऐठने तक के मुद्दे उठाए हैं. पर वह इसे सही अंदाज में पेश करने में बुरी तरह से असफल रहे हैं.फिल्म की गति काफी धीमी है.

निर्देशक ने बेवजह के बोझिल दृष्य पिरोकर फिल्म को लंबा खींचने के साथ ही बेकार कर दिया.वैसे निर्देषक विषाल फुरिया ने दर्शकों को डराने के मकसद से अत्यधिक कूदने वाले या भयानक भूतों के चेहरों का इस्तेमाल नहीं किया.जबकि कई दृष्यों को भयवाहता के साथ पेश करने की जरुरत थी.पर फिल्म की कहानी का रहस्य और मूल मुद्दा सब कुछ अंतिम बीस मिनट में ही समेट दिया है.

अभिनयः

सात वर्षीय बेटे के पिता श्रीकांत साठे के किरदार में स्वप्निल जोशी का अभिनय उत्कृष्ट है.मंदार के किरदार में समर्थ जाधव अपने अभिनय से लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता है.वह उन दृश्यों और स्थितियों में भी अत्यधिक अभिव्यंजक हैं,जो केवल सर्वश्रेष्ठ की मांग करते हैं.बाकी कलाकारों का अभिनय ठीक ठाक है.डा.राधिका के किरदार में पूजा सावंत सुंदर नजर आयी हैं,मगर अभिनय के लिए उन्हे काफी मेहनत करने की आवश्यकता है.

Film Review- बंटी और बबली 2: पुराने स्थापित ब्रांड को भुनाने की असफल कोशिश

रेटिंग: डेढ़ स्टार

निर्माता: यशराज फिल्मस

लेखक व निर्देशक: वरूण वी शर्मा

कलाकार: रानी मुखर्जी, सैफ अली खान, सिद्धांत चतुर्वेदी,  शारवरी वाघ, यशपाल शर्मा, पंकज त्रिपाठी

अवधि: 2 घंटे 13 मिनट

यशराज फिल्मस की 2005 में कान फिल्म ‘‘बंटी और बबली’’ ने बॉक्स आफिस पर जबरदस्त सफलता बटोरी थी- इस फिल्म में बंटी के किरदार में अभिषेक बच्चन और बबली के किरदार में रानी मुखर्जी थीं- छोटे शहर के इन बंटी और बबली की चालाकी व धुर्ततता ने दर्शकों का दिल जीत लिया था-अब 16 वर्ष बाद यशराज फिल्मस अपनी इसी फिल्म का सिक्वअल ‘‘बंटी और बबली2’’ लेकर आया है,जिसमें बबली के किरदार में रानी मुखर्जी हैं, मगर बंटी के किरदार में अभिषेक बच्चन की जगह पर

सैफ अली खान आ गए हैं. इसी के साथ नई  पीढ़ी के बंटी के किरदार में सिद्धांत चतुर्वेदी और बबली के किरदार में शारवरी वाघ हैं.  मगर सिक्वअल फिल्म ‘‘बंटी और बबली 2’’ की वजह से पुराने ब्रांड को नुकसान पहुंचाता है.

कहानीः

अब बंटी और बबली धुर्ततता छोड़कर फुरसगंज में रह रहे हैं- बंटी यानी कि राकेश त्रिवेदी ( सैफ अली खान) अब रेलवे में नौकरी कर रहे हैं-बबली यानी कि विम्मी त्रिवेदी (रानी मुखर्जी)  अब एक साधारण गृहिणी  हैं- उनका अपना एक बेटा है- अचानक एक दिन पता चलता है कि बंटी और बबली की तर्ज पर काम करने वाले कुणाल सिंह (सिद्धांत चतुर्वेदी) और सोनिया कपूर (शारवरी वाघ) नामक दो ठग पैदा हो गए हैं.

जिन्होने बंटी और बबली स्टाइल में ठगी करने के बाद लोगों के पास  पास बंटी और बबली का पुराना लेबल छोड़ देते हैं. यह दोनों कम्प्यूटर इंजीनियर हैं, मगर नाकैरी न मिलने के कारण इस काम में लग गए हैं. अब उनका मूल मंत्र ठगों और ऐश करो हो गया है. मगर ठगी के 16 वर्ष पुराने वाले तरीके  ही आजमा रहे हैं- नए बंटी  और बबली के कारनामों के चलते पुलिस विभाग  हरकत में आता है- अब दशरथ सिंह के रिटायरमेट की वजह से पुलिस अफसर जटायु सिंह (पंकज त्रिपाठी) इसकी जांच शुरू करते हैं, उन्हं लगता है कि पुराने बंटी और बबली वापस अपनी कारगुजारी दिखा रहे हैं, इसलिए, वह इन्हें पकड़ कर जेल में डाल देता है- लेकिन न, बंटी और बबली दूसरी ठगी करते हैं, तब जटायु सिंह को अहसास हो जाता है कि जिन्हे उन्होंने जिसे जेल में बंद किया है, वह निर्दोष हैं- तब वह इन्हें नए बंटी और बबली को पकड़ने की जिम्मेदारी देता है- अब चूहे बिल्ली का खेल शुरू होता है-फिर कहानी फुरसत गंज से आबू धाबी व दिल्ली तक जाती है-इस बीच जटायु सिंह की बेवकूफियां भी उजागर होती रहती ह हैं-

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लेखन व निर्देशनः

इस नई सिक्वअल फिल्म से उम्मीद थी कि बंटी और बबली नए अंदाज में ठगी ,छल, धोखा देने वाला काम करेंगे पर वह तो वही 16 वर्ष पुराना तरीका ही अपनाते हुए नजर आते हैं- यह फिल्म डिजिटल युग  में बनी हैं-इ सके बंटी और बबली कम्प्यूटर इंजीनियर हैं, मगर वह इटंरनेट का उपयोग कर ठगी नहीं करते हैं- पिछली फिल्म में बंटी आ और बबली ने ताजमहल बेचा था तो  नए  बंटी और बबली ने गंगा का पानी बेच दिया. मगर नए बंटी और बबली कुछ भी नया करते हुए  नजर नहीं आते- फिल्म की सबसे बड़ी कमजारे यह है कि 16 साल पुरानी फिल्म के मसालों से पुरानी कढ़ी में उबाल लान का  असफल प्रयास किया गया है- निर्देशक वरुण वी शर्मा अपना कमाल नही दिखा पाया- ‘यशराज फिल्मस’ के आदित्य चोपड़ा ने अपने स्थापित ब्राडं को तहस नहस करने के अलावा कुछ नही किया- संवाद बहुत साधारण है- ठगी के दृ’य भी रोमाचंक या फनी नहीं है. पटकथा काफी कमजार है- इसका एक भी गाना करणप्रिय नहीं है. फिल्म की गति काफी धीमी है- होली का दृश्य भी मजा किरकिरा करता है-

अभिनय:

सैफअली खान व रानी मुखर्जी  का अभिनय औसत दर्जे का ही है-पुरानी फिल्म के अनुरूप इस फिल्म में बंटी व बबली के रूप में सैफ अली खान व रानी मुखर्जी के बीच कमिस्ट्री जम नहीं पायी है.

शारवरी वाघ महज खूबसूरत नजर आती हैं, मगर उनका अभिनय काफी कमजोर है- सिद्धांत चतुर्वेदी भी कुछ खास कमाल नही दिखा पाया  हैं-जटायु सिंह के किरदार में अभिनेता पंकज त्रिपाठी अपने आपको दोहराते हुए नजर आये हैं. यशपाल शर्मा  ने यह फिल्म क्यो की, यह समझ से परे है.

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Film Review- शुभो बिजया: गुरमीत चौधरी व देबिना बनर्जी का बेहतरीन अभिनय

रेटिंग: तीन स्टार

निर्माता:एसोर्टेड मोशन पिक्चर्स, जीडी

प्रोडक्शन और वहाइट एप्पल

निर्देशक: राम कमल मुखर्जी

कलाकार: गुरमीत चैधरी, देबिना बनर्जी, खुशबू कारवा व अन्य

अवधि: 52 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: बिग बैंग

पत्रकार से निर्देशक बने राम कमल मुखर्जी ने पहले रितुपर्णो घो-ुनवजय  को श्रृद्धांजली देेते हुए फिल्म ‘‘सिटिजंस ग्रीटिंग्स’’ बनायी थी और अब ओ हेनरी की सबसे चर्चित लघु कहानी ‘गिफ्ट ऑफ मैगी’ को एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि देनेके लिए फिल्म ‘‘षुभो बिजया’’ लेकर आए हैं. जो कि ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘बिग बैंग’’ पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानी:

यह कहानी मशहूर फैशन फोटोग्राफर शुभो(गुरमीत चैधरी) और मशहूर फैशन मॉडल विजया (देबिना बनर्जी ) के इर्द गिर्द घूमती है. कहानी शुरू होती है कलकत्ता में अंधे शुभो के आरती(खुश्बू कारवा )के कैफे हाउस में पहुंचने से. जहां कैफे हाउस में आरती, शुभो को काफी पिलाते हुए उससे बिजया को लेकर सवाल करती है, तब शुभो को अपना अतीत याद आता है.

फैशन फोटोग्राफर के रूप में शुभो की तूती बोलती है.तमाम मॉडल, लड़कियां उसकी दीवानी हैं.मगर शुभो तो मशहूर फैशन मॉडल बिजया का दीवाना है. धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के प्यार में पड़ जाते हैं और फिर शादी कर लेते हैं. जीवन खुशहाल जा रहा था कि अचानक पता चलता है कि बिजया को चौथे स्टेज का त्वचा कैंसर/स्क्रीन कैंसर है. विजय डॉ. रश्मी गुप्ता से कहती है कि यह सच शुभो को नहीं पता चलना चाहिए. पर एक दिन जब शुभो कार चला रहा था, तब डा. रश्मी गुप्ता फोन करके शुभो को सच बताती है, इस सच को सुनकर शुभो की कार का एक्सीडेंट हो जाता है.

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और शुभो की आंखो की रोशनी चली जाती है. उसके बाद वह अंधा बनकर चलने वगैरह की ट्रेनिंग लेता है. पर एक दिन बिजय, शुभो को छोड़कर चली जाती है. कुछ समय बाद शुभो वह घर और उस शहर को छोड़ने का फैसला कर लेता, जिस घर व शहर से बिजया की यादें जुड़ी हुई हैं. इस बीच शुभो की काफी खत्म हो चुकी है. आरती उससे कहती है कि कुछ लोग उसे मिस करेंगं.

शुभों काफी हाउस से निकलकर अपने घर पहुंचता है, जहां उसका सारा सामान पैक हो चुका है. फिर एक ऐसा सच सामने आता है,जो प्यार के नए चरमोत्क-नवजर्या को दिखाता है.

लेखन व निर्देशनः

ई-रु39या देओल के साथ ‘केकवॉक’,सेलिना जेटली के साथ ‘सीजन्स ग्रीटिंग्स’ और अविना-रु39या द्विवेदी के साथ ‘‘रिक्-रु39याावाला’की अपार सफलता व कई पुरस्कारों से नवाजे जा चुके राम कमल मुखर्जी ने फिल्म ‘‘शुभो बिजया’’ भी अपनी निर्देशकीय प्रतिभा को उजागर किया है.

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वह बहुत स्प-नवजयटता के साथ युगल के बीच के रि-रु39यते में कड़वे मधुर क्षणों को उजागर करते हैं. मगर बीच में पटकथा शिथिल पड़ जाती है. निर्देशक राम कमल मुखर्जी मूलतः बंगाली हैं, तो उम्मीद थी कि वह इस फिल्म में बंगाली विवाह को विस्तार से दिखाएंगे,मगर उन्होंने बहुत ही लघु रास्ता अपनाया.

अभिनयः

मशहूर युवा फै-रु39यान फोटोग्राफर की भूमिका में गुरमीत चैधरी ने उत्कृनवजयट अभिनय किया है. अंधे इंसान की भूमिका में वह अपनी अभिनय प्रतिभा से द-रु39र्याकों को आ-रु39यचर्य चकित करते हैं. वहीं मशहूर फैशन मॉडल बिजया के जटिल किरदार को देबिना बनर्जी ने जीवंतता प्रदान की है. खुश्बू कारवा के हिस्से करने को कुछ खास आया ही नही.

Film Review-‘‘निर्मल आनंद की पप्पी”: कमजोर लेखन व निर्देशन

रेटिंग: डेढ़ स्टार

निर्माताः गिजू जाॅन व संदीप मोहन

लेखक व निर्देशकः संदीप मोहन

कलाकार: करनवीर खुल्लर,गिलियन पिंटो,खुशबू,सलमिन शेरिफ,विपिन हीरो,सफून फारुकी,अविनाश कुरी, ज्योति सिंह, अमन शुक्ला,अश्वनी कुमार, नैना सरीन व अन्य

अवधि: एक घंटा चालिस मिनट

मुंबई जैसे शहरों में एकरसता का जीवन जीने वाले परिवारों और आधुनिक  रिश्तों पर फिल्म ‘‘निर्मल आनंद की पप्पी’ लेकर आए हैं. फिल्मकार संदीप मोहन, जो कि सत्रह सितंबर को सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी.

कहानीः

एक मधुमेह विरोधी दवा कंपनी में कार्यरत एम आर निर्मल आनंद (करनवीर खुल्लर) और उसकी ईसाई पत्नी सारा (गिलियन पिंटो) के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है.दंपति अपनी बेटी ईषा व पालतू कुत्ते परी के साथ मुंबई में एक आरामदायक जिंदगी जीते हुए जल्द ही अपने दूसरे बच्चे की उम्मीद कर रहे हैं.माता-पिता के समर्थन के अभाव में उनका पारिवारिक नेटवर्क उनके प्यारे कुत्ते परी तक ही सीमित है.निर्मल को यह पसंद नहीं कि उनकी बेटी ईषा हमेशा इमारत में अन्य लड़कियों की बजाय एक लड़के दीपू के साथ ही खेले.

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बेटी की देखभाल करने के लिए वह पत्नी को पूर्णकालिक नौकरी करने नही देता. लेकिन एक के बाद एक होने वाली दो घटनाओं से निर्मल को पता चलता है कि उसे मधुमेह/ डायबिटीज है.वह कुछ दिन मधुमेह से छुटकारा पाने के लिए उपाय करने लगता है और काम करने में उसका मन नहीं लगता.यह एक बड़ी विडंबना को चिह्नित करता है,जो उसके अहंकार के लिए एक बड़ा झटका बन जाता है.

इसी बीच परी का भी निधन हो जाता है. दोनों घटनाओं का योग इस घनिष्ठ रूप से बंधे परिवार पर काफी असर डालता है.तभी निर्मल आनंद को अचानक एक फिल्म में अभिनय करने का अवसर मिलता है. जिसमें वह टैक्सी ड्रायवर का किरदार निभाता है.यहीं से उसकी पत्नी के साथ उसके संबंधों में तनाव आता है. जैसे ही निर्मल अपनी पहली फिल्म की शूटिंग शुरू करते हैं, दंपति की जिंदगी में दूरियां बढ़ने लगती है.फिल्म में निर्मल का चुंबन दृश्य करना सारा को रास नही आता.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म की पटकथा बहुत धीमी गति से चलती है.फिल्म में कई दृश्यों को दोहराव है.खासकर जब निर्मल एक अभिनेता बनने की इच्छा रखते हैं और एक टैक्सी चालक के जीवन के बारे में अपनी समझ को सुधारने के लिए विधि अभिनय तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं. अपने पालतू कुत्ते (परी) के प्रति दंपति के लगाव को विकसित करने में बेवजह फिल्म खींची गयी.फिर भी उसे केवल एक सहारा के रूप में उपयोग किया गया है.

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जबकि कुत्ते परी के माध्यम से कहानी में बहुत कुछ रोचक तत्व पिरोए जा सकते थे,पर लेखक व निर्देषक मात खा गए.संवाद प्रभावशाली नही बन पाए हैं.फिर भी यह फिल्म एक सामान्य व्यक्ति के जीवन को काफी सरल तरीके से चित्रित करने में सफल है.फिल्म का क्लायमेक्स बहुत साधारण है.फिल्म की कहानी में जितने भी मोड़ हैं,उनका अहसास पहले से ही हो जाता है.यह लेखक व निर्देशक दोनों की विफ लता हैं. फिल्म के कैमरामैन ने बहुत निराश किया है.

अभिनयः

निर्मल के किरदार में अभिनेता करनवीर खुल्लर ने अच्छा अभिनय किया है. कुछ दृश्यों में उनके चेहरे के भाव उन्हे बेहतरीन कलाकार के रूप में उभारते हैं.उनके हाव-भाव से पता चलता है कि वह किस दौर से गुजर रहे हैं. गिलियन पिंटो को ऑन-स्क्रीन देखना एक खुशी की बात है.वह सहजता से एक मां,एक जिम्मेदार पत्नी और एक कामकाजी महिला की भावनाओं को व्यक्त करती है.पर एक उत्कृष्ट अदाकारा बनने के लिए उन्हें अभी मेहनत करने की जरुरत है. अन्य कलाकारों का अभिनय ठीक ठाक है.

Film Review- हेलमेटः कमजोर लेखन व निर्देशन

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताःसोनी पिक्चर्स और डीनो मोरिया

निर्देशकः सतराम रमानी

कलाकार: अपारशक्ति खुराना, प्रनूतन बहल, अभिषेक बनर्जी, आशीष विद्यार्थी, शारिब हाशमी, रोहित तिवारी, सानंद वर्मा, हिमांशु कोहली, दीपक वर्मा,जयशंकर त्रिपाठी,अनुरीता झा, श्रीकांत वर्मा और अन्य.

अवधिः एक घंटा 44 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5

भारत में बहुत से विषयों पर बात करने से लोग हिचकते हैं. कुछ चीजों पर बात करना ‘टैबू’बना हुआ है. उन्हीं में से जनसंख्या नियंत्रण के उपाय के तौर पर कंडोम का उपयोग करना भी षामिल है. हमारे देश में कंडोम खरीदते हुए लोग झिझकते हैं.कंडोम के बारें में बात करना भी गंवारा नही है.इसी मुद्दे पर फिल्मकार सतराम रमानी फिल्म ‘‘हेलमेट’’ लेकर आए हैं,जो कि तीन सितंबर से ‘जी 5’’पर स्टीम हो रही है.

कहानीः

जोगी(अशीष विद्यार्थी) के साले गुप्ता(श्रीकांत वर्मा ) की शादी व्याह में बैंड बाजा बजाने वाली बैंड कंपनी है, जिसमें गीत गाने वाले अनाथ युवक लक्की(अपारषक्ति खुराना ) संग जोगी की बेटी रूपाली(प्रनूतन बहल) को प्यार है. लक्की और रूपाली के बीच प्यार की खिचड़ी पकते हुए चार वर्ष हो गए हैं. एक शादी के मौके पर जहां फूलों से सजावत करने का काम रूपाली करते हैं.वहीं रूपाली व लक्की को एक कमरे में एकांत मिलता है,पर हमबिस्तर होने केे लिए रूपाली,लक्की से कंडोम लेकर आने के लिए कहती है.

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लक्की, शंभू मेडिकल स्टोर पर जाने के बावजूद कंडोम नहीं खरीद पाता. रूपाली कहती है कि लक्की उसके पिता जोगी से उसका हाथ मांगकर शादी कर ले. लक्की जोगी के पास जाता है, मगर रूपाली के सामने ही जोगी,लक्की से कहते हैं कि वह रूपाली की शादी अमरीका में रह रहे विक्रम से करेंगे,जिसकी कमायी तीन लाख है. इतना ही नहीं गुप्ता जी लक्की को अपने बैंड से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं.अब लक्की के पास नौकरी नही है.अपना खुद का बैंड शुरू करने के लिए पैसे नही है.

उसका दोस्त माइनस(अषीष वर्मा ) भी बेरोजगार है.माइनस के दोस्त सुल्तान(अभिषेक बनर्जी ) को बंटी (शारिब हाशमी) का कर्ज चुकाना है. अब लक्की,माइनस व सुल्तान तीनों योजना बनाकर एक ट्क से मोबाइल से भरे डिब्बे समझ कर चुुराते हैं.पर उन डिब्बों में मोबाइल की बजाय कंडोम के छोटे छोटे डिब्बे निकलते हैं.अब क्या करेे?तब तीनो हेलमेट पहनकर अपनी शक्ल व पहचान छिपाकर कंडोम के छेटे डिब्बे बेचना शुरू करते हैं. रूपाली भी उनका साथ देती है.पैसे आते ही लक्की अपना ‘‘लक्की ब्रास बैंड’’ शुरू करता है. पर जोगी, गुप्ता से कहते हैं कि लक्की का बैंड शुरू न होने पाए.उसके बाद कई घटनाकम्र तेजी से बदलते हैं.

लेखन व निर्देशन:

आयुष्मान खुराना जिस तरह की फिल्में करते हैं,उसी तरह की फिल्म सतराम रमानी ‘हेलमेट’लेकर आए हैं,मगर पटकथा बहुत कमजोर हैं. कहानी में नयापनद नही है.इस तरह की प्रेम कहानी साठ व सत्तर के दशक में काफी नजर आती थीं.इतना ही नही फिल्म में लक्की व रूपाली के रोमांस को भी ठीक से चित्रित नहीं किया जा सका.सब कुछ एकदम मोनोटोनस है. फिल्म में ह्यूमर का घोर अभाव है. जबकि इस तरह के विषय वाली फिल्म में ह्यूमर तो अनिवार्य रूप से होना चाहिए.कुछ दृश्य बड़े अजीबोगरीब हैं.दो दशक पूर्व एड्स की बीमारी का हौव्वा पैदा हुआ था.

उस वक्त एड्स जागरूकता मिशन के तहत कई एनजीओ कार्यरत हुए थे, उसी की पृष्ठभूमि में 2021 में लोगों को जन्म नियंत्रण के बारे में शिक्षित करने के साथ-साथ ‘कंडोम’खरीदने की शर्म और शर्मिंदगी को पेश करने का यह असफल प्रयास है. इस तरह के विषयों में ह्यूमर व व्यंग्य अनिवार्य होता है.पर सतराम रामनी बुरी तरह से मात खा गए.हास्य के दृश्य मेलोडमौटिक हो गए हैं. हकीकत में लेखन व निर्देशन इस कदर कमजोर है कि एक बेहतरीन विषय का सट्टानाश हो गया है.

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अभिनय:

अफसोस अपारशक्ति अपने अभिनय को निखार नही सके.लक्की के किरदार में अपारशक्ति खुराना को देखकर इस बात का अहसास हुआ कि उनके अंदर की अभिनय क्षमता को निकालने का काम अच्छा निर्देषक ही कर सकता है.क्योकि पिछली फिल्मों में अपारशक्ति बेहतरीन अभिनय कर चुके हैं. अपारशक्ति खुराना और आशीष वर्मा के पास तो स्वाभावकि मजाकिया गुण है,मगर वह भी इस फिल्म में नजर नहीं आया.अभिषेक बनर्जी का काम अच्छा है.आशीष वर्मा भी जमे नही. प्रनूतन बहल खूबसूरत लगने के अलावा कुछ नही कर पायी.उन्हे अपनी अभिनय प्रतिभा को निखारने के लिए काफी मेहनत करने की जरुरत है.अशीष विद्यार्थी की प्रतिभा को जाया किया गया है.षारिब हाषमी ने फिल्म क्यों की,यह समझ से पर है.

Film Review: पीटर

रेटिंग: ढाई स्टार

निर्माताः ‘‘आनंदी इंटरप्राइजेज ‘‘,‘‘जंपिंग टोमेटो मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड ‘‘और ‘‘7 कलर्स सिने विजन ‘’

निर्देशकः अमोल अरविंद भावे

कलाकार: प्रेम बोरहडे, मनीषा भोर, अमोल

पंसारे, विनिता संचेती, सिद्धेश्वर सिद्धेश व अन्य.

अवधिःएक घंटा 43 मिनट

प्रेम, मासूमियत, अज्ञानता, विश्वास, भाग्य और अंधविश्वास के साथ ग्रामण समाज का वास्तविक चित्रण करने वाली मराठी भाषा की फिल्म‘पीटर’ फिल्मकार अमोल अरविंद भावे लेकर आए हैं,जो कि 22 जनवरी को सिनेमाघरों में प्रदर्षित हुई है.इस फिल्म में धर्म और साधु-संतों पर भी कटाक्ष के साथ इस बात का भी चित्रण है कि जब आस्था,अंधश्रृद्धा में परिवर्तिर्त हो जाती है,तो उसके किस तरह के दुष्परिणाम होते हैं.

कहानीः

फिल्म ‘पिटर‘ 10 वर्षीय बालक धन्या (प्रेम बोरहाडे) और बकरी के बच्चे की बीच की दोस्ती को बयां करने के साथ दिल को छू लेने वाली कहानी है. एक दिन धन्या के दादाजी, धन्या के चाचा को एक संत के पास ले जाते हैं. क्योंकि धन्या के चाचा की शादी के 5 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी कोई संतान नहीं है. संत कहते हैं कि उन्हें भगवान सोनोबा को बकरे की बलि देनी पड़ेगी.फिर बकरे के मांस से बनी दावत पूरे गांव को दी जानी चाहिए.अब धन्या के पिता सोपन व चाचा दोनों बकरे की तलाश शुरू कर देते हैं.

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मगर गांव में फेस्टिवल के चलते बकरे खत्म हो गई है. आसपास के 4 गांव में तलाश करने के बाद उन्हें एक घर के सामने बकरी का एक बच्चा मिलता है, जिसकी मां सांप के काटने के कारण मर चुकी है. बकरी के बच्चे को भगवान सोनोबा को बलि नहीं दी जा सकती. ऐसे में निर्णय लिया जाता है कि बकरी के बच्चे को घर ले जाकर पांच छह माह तक पाल पोस कर बड़ा करेंगे,उसके बाद उसे सोनोबा भगवान को समर्पित कर देंगे. लेकिन घर आने के बाद धन्या, बकरी के बच्चे यानी कि बकरे के साथ खेलना शुरू कर देता है.

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धन्या को उसके दोस्त स्पाइडर मैन बुलाते हैं और स्कूल के दोस्त उस बाल बकरे को ‘पीटर‘बुलाने लगते हैं. क्योंकि धन्या, बकरे को अपना भाई मानता है. धीरे-धीरे धन्या और पीटर के बीच संबंध प्रगाढ़ होते जाते हैं . यह देख कर धन्या की मां को चिंता सताने लगती है कि जब पीटर की बलि देने का दिन आएगा,तो क्याहोगा?

धन्या की मां पारु की इच्छा के विपरीत एक दिन धन्या की आंखो केसामने ही भगवान सोनोबा को पीटर की बलि दे दी जाती हैं.इस घटना से धन्या को सदमा लगता है और वह एकदम गुमसुम रहने लगता है. फिर धन्या के पूरे परिवार को पता चलता है कि धन्या की चाची गर्भनिरोधक गोली का सेवन करती हैं, इसी कारण बच्चा नहीं हो रहा है. क्योंकि धन्या की चाची लीला खुद भी मां नहीं बनना चाहती.

तब पूरे परिवार को एहसास होता है संत ने भी मूर्ख बनाया.अब धान्या की मां उसे स्वस्थ करने के लिए प्रयासरत है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्मकार अमोल अरविंद भावे की मराठी भाषा की फिल्म‘‘पिटर’’बाल मन को पढ़ने के साथ ही समाज का एक कच्चा और वास्तविक दर्पण है,जिसमें धर्म के नाम पर प्रचलित प्रथाओं व अंधविष्वास पर कठोर प्रहार किया गया है.इसमें फिल्मकार ने इस बात का सटीक चित्रण किया है कि किस तरह ढोंगी साधु व संत निजी स्वार्थ पशुओं  की बलि चढ़वाकर हकीकत में मानवता का बलिदान करते हैं.इस यथार्थपरक फिल्म से वह समाज के हर तबके को यह संदेश भेजने में सफल रहे हैं कि ‘ईश्वर पर विश्वास होना चाहिए,मगर अंध श्रृद्धा नही.इसके साथ ही मनोरंजक तरीके से एक बच्चे के माध्यम से फिल्मसर्जक ने इस बात का सफल आव्हान किया है कि बकरे की बलि प्रथा बंद की जानी चाहिए.मगर फिल्म कीगति काफी धीमी है.इसे एडीटिंग टेबल पर कसे जाने की जरुरत थी.फिल्म में ग्रामीण परिवेश का चित्रण काफी सटीक है.

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अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो बाल कलाकार प्रेम बोरहाडे ने कमाल का अभिनय किया है.अन्य कलाकार भी अपने अपने किरदार में ठीक जमे हैं.

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