मेरी सास बातबेबात टोका-टाकी करती रहती हैं, मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 23 वर्षीय नवविवाहिता हूं. शादी के बाद ढेरों सपने संजोए मायके से ससुराल आई, मगर ससुराल का माहौल मुझे जरा भी पसंद नहीं आ रहा. मेरी सास बातबेबात टोकाटाकी करती रहती हैं और कब खुश और कब नाराज हो जाएं, मैं समझ ही नहीं पाती. वे अकसर मुझ से कहती रहती हैं कि अब तुम शादीशुदा हो और तुम्हें उसी के अनुरूप रहना चाहिए. मन बहुत दुखी है. मैं क्या करूं, कृपया सलाह दें?

जवाब

अगर आप की सास का मूड पलपल में बनताबिगड़ता रहता है, तो सब से पहले आप को उन्हें समझने की कोशिश करनी होगी. खुद को कोसते रहना और सास को गलत समझने की भूल आप को नहीं करनी चाहिए. घरगृहस्थी के दबाव में हो सकता है कि वे कभीकभी आप पर अपना गुस्सा उतार देती हों, मगर इस का मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि उन का प्यार और स्नेह आप के लिए कम है.

दूसरा, अपनी हर समस्या के समाधान और अपनी हर मांग पूरी कराने के लिए आप ने शादी की है, यह सोचना व्यर्थ होगा. किसी बात के लिए मना कर देने से यह जरूरी तो नहीं कि वे आप की बेइज्जती करती हैं.आज की सास आधुनिक खयालात वाली और घरगृहस्थी को स्मार्ट तरीके से चलाने की कूवत रखती हैं. एक बहू को बेटी बना कर तराशने का काम सास ही करती हैं. जाहिर है, घरपरिवार को कुशलता से चलाने और उन्हें समझाने के

आप की सास आप को अभी से तैयार कर रही हों. बेहतर यही होगा कि आप एक बहू नहीं बेटी बन कर रहें. सास के साथ अधिक से अधिक समय रहें, साथ घूमने जाएं, शौपिंग करने जाएं. जब आप की सास को यकीन हो जाएगा कि अब आप घरगृहस्थी संभाल सकती हैं तो वे घर की चाबी आप को सौंप निश्चिंत हो जाएंगी.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
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सौतेली मां: क्या था अविनाश की गलती का अंजाम

मां की मौत के बाद ऋजुता ही अनुष्का का सब से बड़ा सहारा थी. अनुष्का को क्या करना है, यह ऋजुता ही तय करती थी. वही तय करती थी कि अनुष्का को क्या पहनना है, किस के साथ खेलना है, कब सोना है. दोनों की उम्र में 10 साल का अंतर था. मां की मौत के बाद ऋजुता ने मां की तरह अनुष्का को ही नहीं संभाला, बल्कि घर की पूरी जिम्मेदारी वही संभालती थी.

ऋजुआ तो मनु का भी उसी तरह खयाल रखना चाहती थी, पर मनु उम्र में मात्र उस से ढाई साल छोटा था. इसलिए वह ऋजुता को अभिभावक के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं था. तमाम बातों में उन दोनों में मतभेद रहता था. कई बार तो उन का झगड़ा मौखिक न रह कर हिंसक हो उठता था. तब अंगूठा चूसने की आदत छोड़ चुकी अनुष्का तुरंत अंगूठा मुंह में डाल लेती. कोने में खड़ी हो कर वह देखती कि भाई और बहन में कौन जीतता है.

कुछ भी हो, तीनों भाईबहनों में पटती खूब थी. बड़ों की दुनिया से अलग रह सकें, उन्होंने अपने आसपास इस तरह की एक दीवार खड़ी कर ली थी, जहां निश्चित रूप से ऋजुता का राज चलता था. मनु कभीकभार विरोध करता तो मात्र अपना अस्तित्व भर जाहिर करने के लिए.

अनुष्का की कोई ऐसी इच्छा नहीं होती थी. वह बड़ी बहन के संरक्षण में एक तरह का सुख और सुरक्षा की भावना का अनुभव करती थी. वह सुंदर थी, इसलिए ऋजुता को बहुत प्यारी लगती थी. यह बात वह कह भी देती थी. अनुष्का की अपनी कोई इच्छाअनिच्छा होगी, ऋजुता को कभी इस बात का खयाल नहीं आया.

अगर अविनाश को दूसरी शादी न करनी होती तो घर में सबकुछ इसी तरह चलता रहता. घर में दादी मां यानी अविनाश की मां थीं ही, इसलिए बच्चों को मां की कमी उतनी नहीं खल रही थी. घर के संचालन के लिए या बच्चों की देखभाल के लिए अविनाश का दूसरी शादी करना जरूरी नहीं रह गया था.

इस के बावजूद उस ने घर में बिना किसी को बताए दूसरी शादी कर ली. अचानक एक दिन शाम को एक महिला के साथ घर आ कर उस ने कहा, ‘‘तुम लोगों की नई मम्मी.’’

उस महिला को देख कर बच्चे स्तब्ध रह गए. वे कुछ कहते या इस नई परिस्थिति को समझ पाते, उस के पहले ही अविनाश ने मां की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘संविधा, यह मेरी मां है.’’

बूढ़ी मां ने सिर झुका कर पैर छू रही संविधा के सिर पर हाथ तो रखा, पर वह कहे बिना नहीं रह सकीं. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इस तरह अचानक… कभी सांस तक नहीं ली, चर्चा की होती तो 2-4 सगेसंबंधी बुला लेती.’’

‘‘बेकार का झंझट करने की क्या जरूरत है मां.’’ अविनाश ने लापरवाही से कहा.

‘‘फिर भी कम से कम मुझ से तो बताना चाहिए था.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ अविनाश ने उसी तरह लापरवाही से कहा, ‘‘नोटिस तो पहले ही दे दी थी. आज दोपहर को दस्तखत कर दिए. संविधा का यहां कोई सगासंबंधी नहीं है. एक भाई है, वह दुबई में रहता है. रात को फोन कर के बता देंगे. बेटा ऋजुता, मम्मी को अपना घर तो दिखाओ.’’

उस समय क्या करना चाहिए, यह ऋजुता तुरंत तय नहीं कर सकी. इसलिए उस समय अविनाश की जीत हुई. घर में जैसे कुछ खास न हुआ हो, अखबार ले कर सोफे पर बैठते हुए उस ने मां से पूछा, ‘‘मां, किसी का फोन या डाकवाक तो नहीं आई, कोई मिलनेजुलने वाला तो नहीं आया?’’

संविधा जरा भी नरवस नहीं थी. अविनाश ने जब उस से कहा कि हमारी शादी हम दोनों का व्यक्तिगत मामला है. इस से किसी का कोई कुछ लेनादेना नहीं है. तब संविधा उस की निडरता पर आश्चर्यचकित हुई थी. उस ने अविनाश से शादी के लिए तुरंत हामी भर दी थी. वैसे भी अविनाश ने उस से कुछ नहीं छिपाया था. उस ने पहले ही अपने बच्चों और मां के बारे में बता दिया था. पर इस तरह बिना किसी तैयारी के नए घर में, नए लोगों के बीच…

‘‘चलो,’’ ऋजुता ने बेरुखी से कहा.

संविधा उस के साथ चल पड़ी. उसे पता था कि विधुर के साथ शादी करने पर रिसैप्शन या हनीमून पर नहीं जाया जाता, पर घर में तो स्वागत होगा ही. जबकि वहां ऐसा कुछ भी नहीं था. अविनाश निश्चिंत हो कर अखबार पढ़ने लगा था. वहीं यह 17-18 साल की लड़की घर की मालकिन की तरह एक अनचाहे मेहमान को घर दिखा रही थी. घर के सब से ठीकठाक कमरे में पहुंच कर ऋजुता ने कहा, ‘‘यह पापा का कमरा है.’’

‘‘यहां थोड़ा बैठ जाऊं?’’ संविधा ने कहा.

‘‘आप जानो, आप का सामान कहां है?’’ ऋजुता ने पूछा.

‘‘बाद में ले आऊंगी. अभी तो ऐसे ही…’’

‘‘खैर, आप जानो.’’ कह कर ऋजुता चली गई.

पूरा घर अंधकार से घिर गया तो ऋजुता ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘मनु, तू जाग रहा है?’’

‘‘हां,’’ मनु ने कहा, ‘‘दीदी, अब हमें क्या करना चाहिए?’’

‘‘हमें भाग जाना चाहिए.’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘कहां, पर अनुष्का तो अभी बहुत छोटी है. यह बेचारी तो कुछ समझी भी नहीं.’’

‘‘सब समझ रही हूं,’’ अनुष्का ने धीरे से कहा.

‘‘अरे तू जाग गई?’’ हैरानी से ऋजुता ने पूछा.

‘‘मैं अभी सोई ही कहां थी,’’ अनुष्का ने कहा और उठ कर ऋजुता के पास आ गई. ऋजुता उस की पीठ पर हाथ फेरने लगी. हाथ फेरते हुए अनजाने में ही उस की आंखों में आंसू आ गए. भर्राई आवाज में उस ने कहा, ‘‘अनुष्का, तू मेरी प्यारी बहन है न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘देख, वह जो आई है न, उसे मम्मी नहीं कहना. उस से बात भी नहीं करनी. यही नहीं, उस की ओर देखना भी नहीं है.’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ अनुष्का ने पूछा.

‘‘वह अपनी मम्मी थोड़े ही है. वह कोई अच्छी औरत नहीं है. वह हम सभी को धोखा दे कर अपने घर में घुस आई है.’’

‘‘चलो, उसे मार कर घर से भगा देते हैं,’’ मनु ने कहा.

‘‘मनु, तुझे अक्ल है या नहीं? अगर हम उसे मारेंगे तो पापा हम से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘भले न करें बात, पर हम उसे मारेंगे.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते मनु, पापा उसे ब्याह कर लाए हैं.’’

‘‘तो फिर क्या करें?’’ मनु ने कहा, ‘‘मुझे वह जरा भी अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘मुझे भी. अनुष्का तुझे?’’

‘‘मुझे भी अच्छी नहीं लगती.’’ अनुष्का ने कहा.

‘‘बस, तो फिर हम सब उस से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘पापा कहेंगे, तब भी?’’ मनु और अनुष्का ने एक साथ पूछा.

‘‘हां, तब भी बात नहीं करेंगे. उसे देख कर हंसना भी नहीं है, न ही उसे कुछ देना है. उस से कुछ मांगना भी नहीं है. यही नहीं, उस की ओर देखना भी नहीं है. समझ गए न?’’

‘‘हां, समझ गए.’’ मनु और अनुष्का ने एक साथ कहा, ‘‘पर दादी मां कहेंगी कि उसे बुलाओ तो…’’

‘‘तब देखा जाएगा. दोनों ध्यान रखना, हमें उस से बिलकुल बात नहीं करनी है.’’

‘‘पापा, इसे क्यों ले आए?’’ मासूम अनुष्का ने पूछा.

‘‘पता नहीं.’’ ऋजुता ने लापरवाही से कहा.

‘‘दीदी, एक बात कहूं, मुझे तो अब पापा भी अच्छे नहीं लगते.’’

‘‘मुझे भी,’’ मनु ने कहा. मनु ने यह बात कही जरूर, पर उसे पापा अच्छे लगते थे. वह उस से बहुत प्यार करते थे. उस की हर इच्छा पूरी करते थे. पर दोनों बहनें कह रही थीं, इसलिए उस ने भी कह दिया. इतना ही नहीं, उस ने आगे भी कहा, ‘‘दीदी, अब यहां रहने का मन नहीं होता.’’

‘‘फिर भी रहना तो पड़ेगा ही. अच्छा, चलो अब सो जाओ.’’

‘‘मैं तुम्हारे पास सो जाऊं दीदी?’’ अनुष्का ने पूछा.

‘‘लात तो नहीं मारेगी?’’

‘‘नहीं मारूंगी.’’ कह कर वह ऋजुता का हाथ पकड़ कर क्षण भर में सो गई.

ऋजुता को अनुष्का का इस तरह सो जाना अच्छा नहीं लगा. घर में इतनी बड़ी घटना घटी है, फिर भी यह इस तरह निश्चिंत हो कर सो गई. कुछ भी हो, 17-18 साल की एक लड़की पूरी रात तो नहीं जाग सकती थी. वह भी थोड़ी देर में सो गई.

सुबह वह सो कर उठी तो पिछले दिन का सब कुछ याद आ गया. उस ने अनुष्का को जगाया, ‘‘कल रात जैसा कहा था, वैसा ही करना.’’

‘‘उस से बात नहीं करना न?’’ अनुष्का ने कहा.

‘‘किस से?’’

‘‘अरे वही, जिसे पापा ले आए हैं, नई मम्मी. भूल गई क्या? दीदी, उस का नाम क्या है?’’

‘‘संविधा. पर हमें उस के नाम का क्या करना है. हमें उस से बात नहीं करनी है बस. याद रहेगा न?’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘अरे हां, हंसना भी नहीं है.’’

‘‘ठीक है.’’

इस के बाद ऋजुता ने मनु को भी समझा दिया कि नई मम्मी से बात नहीं करेगा. जबकि वह समझदार था और खुद भी उस से चिढ़ा हुआ था. इसलिए तय था कि वह भी संविधा से बात नहीं करेगा. विघ्न आया दादी की ओर से. चायनाश्ते के समय वह बच्चों का व्यवहार देख कर सब समझ गईं. अकेली पड़ने पर वह ऋजुता से कहने लगीं, ‘‘बेटा, अब तो वह घर आ ही गई है. उस के प्रति अगर इस तरह की बात सोचोगी, तो कैसे चलेगा. अविनाश को पता चलेगा तो वह चिढ़ जाएगा.’’

‘‘कोई बात नहीं दादी,’’ पीछे खड़े मनु ने कहा.

‘‘बेटा, तू तो समझदार है. आखिर बात करने में क्या जाता है.’’

दादी की इस बात का जवाब देने के बजाए ऋजुता ने पूछा, ‘‘दादी, आप को पता था कि पापा शादी कर के नई पत्नी ला रहे हैं?’’

‘‘नहीं, जब बताया ही नहीं तो कैसे पता चलता.’’

‘‘इस तरह शादी कर के नई पत्नी लाना आप को अच्छा लगा?’’

‘‘अच्छा तो नहीं लगा, पर कर ही क्या सकते हैं. वह उसे शादी कर के लाए हैं, इसलिए अब साथ रहना ही होगा. तुम सब बचपना कर सकते हो, पर मुझे तो बातचीत करनी ही होगी.’’ दादी ने समझाया.

‘‘क्यों?’’ ऋजुता ने पूछा.

‘‘बेटा, इस तरह घरपरिवार नहीं चलता.’’

‘‘पर दादी, हम लोग तो उस से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘ऋजुता, तू बड़ी है. जरा सोच, इस बात का पता अविनाश को चलेगा तो उसे दुख नहीं होगा.’’ दादी ने समझाया.

‘‘इस में हम क्या करें. पापा ने हम सब के बारे में सोचा क्या? दादी, वह मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती. हम उस से बिलकुल बात नहीं करेंगे. पापा कहेंगे, तब भी नहीं.’’ ऋजुता ने कहा. उस की इस बात में मनु ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘बेटा, तू बड़ी हो गई है, समझदार भी.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘बिलकुल नहीं करेगी बात?’’ दादी ने फिर पूछा. इसी के साथ वहां खड़ी अनुष्का से भी पूछा, ‘‘तू भी बात नहीं करेगी अनुष्का?’’

अनुष्का घबरा गई. उसे प्यारी बच्ची होना अच्छा लगता था. अब तक उसे यही सिखाया गया था कि जो बड़े कहें, वही करना चाहिए. ऋजुता ने तो मना किया था, अब क्या किया जाए? वह अंगूठा मुंह में डालना चाहती थी, तभी उसे याद आ गया कि वह क्या जवाब दे. उस ने झट से कहा, ‘‘दीदी कहेंगी तो बात करूंगी.’’

अनुष्का सोच रही थी कि यह सुन कर ऋजुता खुश हो जाएगी. पर खुश होने के बजाए ऋजुता ने आंखें दिखाईं तो अनुष्का हड़बड़ा गई. उस हड़बड़ाहट में उसे रात की बात याद आ गई. उस ने कहा, ‘‘बात की छोड़ो, हंसना भी मना है. अगर कुछ देती है तो लेना भी नहीं है. वह मुझे ही नहीं मनु भैया को भी अच्छी नहीं लगती. और ऋजुता दीदी को भी, है न मनु भैया?’’

‘‘हां, दादी मां, हम लोग उस से बात नहीं करेंगे.’’ मनु ने कहा.

‘‘जैसी तुम लोगों की इच्छा. तुम लोग जानो और अविनाश जाने.’’

पर जैसा सोचा था, वैसा हुआ नहीं. बच्चों के मन में क्या है, इस बात से अनजान अविनाश औफिस चले गए. जातेजाते संविधा से कहा था कि वह चिंता न करे, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा.

संविधा ने औफिस से 2 दिनों की छुट्टी ले रखी थी. नया घर, जिस में 3 बच्चों के मौन का बोझ उसे असह्य लगने लगा. उसे लगा, उस ने छुट्टी न ली होती, तो अच्छा रहता. अविनाश के साथ वह भी अपने औफिस चली गई होती.

अविनाश उसे अच्छा तो लग रहा था, पर 40 की उम्र में ब्याह करना उसे खलने लगा था. बालबच्चों वाला एक परिवार…साथ में बड़ों की छत्रछाया और एक समझदार आदमी का जिंदगी भर का साथ…उस ने हामी भर दी और इस अनजान घर में आ गई. पहले से परिचय की क्या जरूरत है, अविनाश ने मना कर दिया था.

उस ने कहा था, ‘‘जानती हो संविधा, अचानक आक्रमण से विजय मिलती है. अगर पहले से बात करेंगे तो रुकावटें आ सकती हैं. बच्चे भी पूर्वाग्रह में बंध जाएंगे. तुम एक बार किसी से मिलो और उसे अच्छी न लगो, ऐसा नहीं हो सकता. यह अलग बात है कि तुम्हें मेरे बच्चे न अच्छे लगें.’’

तब संविधा ने खुश हो कर कहा था, ‘‘तुम्हारे बच्चे तो अच्छे लगेंगे ही.’’

‘‘बस, बात खत्म हो गई. अब शादी कर लेते हैं.’’ अविनाश ने कहा.

फिर दोनों ने शादी कर ली. संविधा ने पहला दिन तो अपना सामान लाने और उसे रखने में बिता दिया था पर चैन नहीं पड़ रहा था. बच्चे सचमुच बहुत सुंदर थे, पर उस से बिलकुल बात नहीं कर रहे थे. चौकलेट भी नहीं ली थी. बड़ी बेटी ने स्थिर नजरों से देखते हुए कहा था, ‘‘मेरे दांत खराब हैं.’’

संविधा ढीली पड़ गई थी. अविनाश से शिकायत करने का कोई मतलब नहीं था. वह बच्चों से बात करने के लिए कह सकता है. बच्चे बात तो करेंगे, पर उन के मन में सम्मान के बजाए उपेक्षा ज्यादा होगी. ऐसे में कुछ दिनों इंतजार कर लेना ज्यादा ठीक रहेगा. पर बाद में भी ऐसा ही रहा तो? छोड़ कर चली जाएगी.

रोजाना कितने तलाक होते हैं, एक और सही. अविनाश अपनी बूढ़ी मां और बच्चों को छोड़ कर उस के साथ तो रहने नहीं जा सकता. आखिर उस का भी तो कुछ फर्ज बनता है. ऐसा करना उस के लिए उचित भी नहीं होगा. पर उस का क्या, वह क्या करे, उस की समझ में नहीं आ रहा था. वह बच्चों के लिए ही तो आई थी. अब बच्चे ही उस के नहीं हो रहे तो यहां वह कैसे रह पाएगी.

दूसरा दिन किस्सेकहानियों की किताबें पढ़ कर काटा. मांजी से थोड़ी बातचीत हुई. पर बच्चों ने तो उस की ओर ताका तक नहीं. फिर भी उसे लगा, सब ठीक हो जाएगा. पर ठीक हुआ नहीं. पूरे दिन संविधा को यही लगता रहा कि उस ने बहुत बड़ी गलती कर डाली है. ऐसी गलती, जो अब सुधर नहीं सकती. इस एक गलती को सुधारने में दूसरी कई गलतियां हो सकती हैं.

दूसरी ओर बच्चे अपनी जिद पर अड़े थे. जैसेजैसे दिन बीतते गए, संविधा का मन बैठने लगा. अब तो उस ने बच्चों को मनाने की निरर्थक चेष्टा भी छोड़ दी थी. उसे लगने लगा कि कुछ दिनों के लिए वह भाई के पास आस्ट्रेलिया चली जाए. पर वहां जाने से क्या होगा? अब रहना तो यहीं है. कहने को सब ठीक है, पर देखा तो बच्चों की वजह से कुछ भी ठीक नहीं है. फिर भी इस आस में दिन बीत ही रहे थे. कभी न कभी तो सब ठीक हो ही जाएगा.

उस दिन शाम को अविनाश को देर से आना था. उदास मन से संविधा गैलरी में आ कर बैठ गई. अभी अचानक उस का मन रेलिंग पर सिर रख कर खूब रोने का हुआ. कितनी देर हो गई उसे याद ही नहीं रहा. अचानक उस के बगल से आवाज आई, ‘‘आप रोइए मत.’’

संविधा ने चौंक कर देखा तो अनुष्का खड़ी थी. उस ने हाथ में थामा चाय का प्याला रखते हुए कहा, ‘‘रोइए मत, इसे पी लीजिए.’’

ममता से अभिभूत हो कर संविधा ने अनुष्का को खींच कर गोद में बैठा कर सीने से लगा लिया. इस के बाद उस के गोरे चिकने गालों को चूम कर वह सोचने लगी, ‘अब मैं मर भी जाऊं तो चिंता नहीं है.’

तभी अनुष्का ने संविधा के सिर पर हाथ रख कर सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी मम्मी ही तो हूं, इसलिए तुम मम्मी कह सकती हो.’’

‘‘पर दीदी ने मना किया था,’’ सकुचाते हुए अनुष्का ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मन का बोझ झटकते हुए संविधा ने पूछा.

‘‘दीदी, आप से और पापा से नाराज हैं.’’

‘‘क्यों?’’ संविधा ने फिर वही दोहराया.

‘‘पता नहीं.’’

‘‘तुम मान गई न, अब दीदी को भी मैं मना लूंगी.’’ खुद को संभालते हुए बड़े ही आत्मविश्वास के साथ संविधा ने कहा.

संविधा की आंखों में झांकते हुए अनुष्का ने कहा, ‘‘अब मैं जाऊं?’’

‘‘ठीक है, जाओ.’’ संविधा ने प्यार से कहा.

‘‘अब आप रोओगी तो नहीं?’’ अनुष्का ने पूछा

‘‘नहीं, तुम जैसी प्यारी बेटी को पा कर भला कोई कैसे रोएगा.’’

छोटेछोटे पग भरती अनुष्का चली गई. नन्हीं अनुष्का को बेवफाई का मतलब भले ही पता नहीं था, पर उस के मन में एक बोझ सा जरूर था. उस ने बहन से वादा जो किया था कि वह दूसरी मां से बात नहीं करेगी. पर संविधा को रोती देख कर वह खुद को रोक नहीं पाई और बड़ी बहन से किए वादे को भूल कर दूसरी मां के आंसू पोंछने पहुंच गई.

जाते हुए अनुष्का बारबार पलट कर संविधा को देख रही थी. शायद बड़ी बहन से की गई बेवफाई का बोझ वह सहन नहीं कर पा रही थी. इसलिए उस के कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे.

अपनी मंजिल: क्या था सुदीपा का फैसला

मां, मैं आप से बारबार कह चुकी हूं कि अभी शादी नहीं करूंगी. मुझे अभी आगे पढ़ाई करनी है,” सुदीपा ने मां के समीप जा कर बड़े प्यार से कहा.

“सुदीपा बेटा, क्या खराबी है लड़के में? इंजीनियर है, ऊंचे खानदान और रसूख वाला है. तेरे पापा के मित्र का लड़का है और अच्छी आमदनी है उस की. शुक्र मनाओ कि जिस शानदार और आरामदायक जिंदगी जीने के लिए अधिकतर लड़कियां केवल सपने देखती आई हैं, वे सारी खुशियां तुम्हें बिना मांगे ही मिल रहा है. 2 हजार गज में बनी शानदार कोठी है उन की…

“दसियों नौकरचाकर वहां एक आवाज पर हाथ बांधे खडे रहते हैं. इतने योग्य और गुणवान लड़के का रिश्ता खुद चल कर तुम्हारे पास आया है. सारे सुख व ऐश्वर्य हैं उस घर में. और क्या चाहिए तुम्हें…” मां ने नाराजगी जाहिर करते हुए सुदीपा के गाल पर हलकी सी चपत लगाई .

मां के गले से लिपटती सुदीपा बोली,”मेरी प्यारी मां, मुझे आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई करनी है अभी. मुझे अभी योग्य शिक्षिका बनना है, जिस से कि अपने भीतर समाए ज्ञान को अन्य को बांट सकूं,” सुदीपा मां को मनाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही थी, क्योंकि मां के इनकार करने पर ही यह रिश्ता टल सकता था.

“सुदीपा, तुम एक बार उस लड़के से मिल कर देख तो लो,” सुदीपा को विचार में डूबा देख कर मां ने उस पर आखिरी बात छोड़ते हुए कहा.

एमए की हुई सुदीपा गोरीचिट्टी, लंबी, छरहरी काया वाली आकर्षक युवती थी. संगीत विशारद में विशेष योगदान हेतु गोल्ड मैडलिस्ट थी. उस के पड़ोसी, परिचित, नातेरिश्तेदार आदि सभी सुदीपा के सुंदर व्यक्तित्व एवं हंसमुख व्यवहार की प्रशंसा किए
बिना नहीं रहते थे. जैसे अधिकतर लोग रूपसौंदर्य और सुगढ़ता को देख कर अनायास ही कह उठते हैं कि कुदरत ने इसे बहुत फुरसत में गढ़ा होगा, ऐसे ही रूपवती सुदीपा जब गजगामिनी चाल की मंथर गति से चलती थी तब अनेक चाहने वाले उसे पाने की तमन्ना रखते थे.

मन ही मन उसे चाहने वाले आहें भरते थे और सुदीपा से मिलने के बहाने ढूंढ़ा करते थे. वह तो अपनेआप में खुश रहने वाली मस्त लड़की थी. सुदीपा की कमर तक लहराते बाल बिजलियां गिराती थीं. पतलीपतली और लंबी उंगलियां जब सितार पर राग छेड़तीं तो उसे देखनेसुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते.

मां का कहना मान कर एक दिन सुदीपा समीर नाम के उस लड़के से मिली. वह लड़का उसे सुंदर लगा. रूपरंग, व्यक्तित्व के अनुसार वह सुदर्शन नवयुवक था. 2-4 मुलाकातों के बाद सुदीपा को समीर पसंद आ गया था. संयोग से तभी सुदीपा को कालेज में अध्यापिका की नौकरी भी मिल गई थी.

सुदीपा के मम्मीपापा सगाई कर के ही उसे नौकरी पर जाने देने की जिद कर रहे थे. इसलिए मम्मीपापा का दिल रखने के लिए उस ने सगाई की हामी भर दी. नौकरी पर जाने से पहले ही दोनों की धूमधाम से सगाई हो गई थी.

कोमल कुआंरे मन में सुंदर जीवन के अनेक रंगीन सपने सजाए सुदीपा कालेज में पहुंच गई. वह दिल्ली शहर की एक सोसायटी फ्लैट में किराए पर रहने लगी. सगाई हो जाने के कारण समीर काम के सिलसिले में जब दिल्ली आता तो सुदीपा से मिलने चला आता था. दोनों तरफ से रिश्ते की डोर मजबूत हो जाए, एकदूसरे को अच्छी तरह से जानसमझ लें,
इस के लिए वे किसी रेस्तरां में कौफी पीने या कभी डिनर करने चले जाते थे. कभीकभी कोई अच्छी और नई मूवी साथ देखने के लिए मौल भी चले जाते थे.

ऐसे ही उन के बीच प्यार भरी मेलमुलाकातों का सिलसिला जारी था. अब सुदीपा और समीर के बीच घनिष्ठता भरे संबंध पनपने लगे थे. मगर इधर कुछ दिनों से सुदीपा ने एहसास किया था कि समीर में शिष्टाचार और विनम्रता जैसे संस्कारी गुण बहुत कम थे. उस ने कई बार समीर को फोन पर अपनी बात मनवाने के लिए सामने वाले को दबंग टाइप से हड़काते हुए भी सुना था.सुदीपा के साथ होने पर भी लापरवाह सा समीर फोन पर अकसर गालीगलौच कर दिया करता था. सुदीपा आधुनिक और खुले विचारों को दिल में जगह देने वाली संस्कारी और मृदुभाषी लडकी थी.

एक दिन सुदीपा कुछ खरीदारी कर के सोसायटी में प्रवेश कर रही थी. उस के दोनों हाथों में सामान था कि तभी अचानक हाई हील सैंडिल के कारण उस का संतुलन बिगड़ गया और वह डगमगा कर नीचे गिर पड़ी.तभी अचानक एक हाथ ने सहारा दे कर उसे उठाया,”अरे, आप को तो काफी चोटें लगी हैं. मैं आप का सामान समेट देता हूं…” अपने सामने गोरेचिट्टे, लंबे कद के सुंदर नाकनक्श वाले लड़के की आवाज सुन कर वह अचकचा गई.

उस की कुहनियां छिल गई थीं. पैर में मोच आ गई थी. उस लड़के ने अपने कंधे पर उस का हाथ पकड़ कर सहारा दिया,”आइए, मैं आप को कमरे तक छोड़ देता हूं,” वह चुपचाप लगंडाते हुए उस के साथ चल पड़ी.

टेबल पर सामान रख कर लड़के ने कहा,”मैं फस्ट ऐड बौक्स ला कर पट्टी बांध देता हूं,” अब वह लड़का ड्रैसिंग कर रहा था.

वह अब तक स्वयं को काफी संभाल चुकी थी. अकेले कमरे में अनजान लड़के के हाथ में अपना हाथ देख कर सुदीपा के मन को भारतीय संस्कार और परंपराएं घेरने लगीं. लेकिन वह लड़का बड़ी सहजता से उस के हाथ पर दवा लगा कर पट्टी बांध रहा था. उस लड़के के स्पर्श से सुदीपा असहज और रोमांचित हो रही थी,”अब तुम आराम करो मैं चाय बना लाता हूं,” थोड़ी देर में वह ट्रै में चाय और बिस्कुट ले आया.

वे दोनों कुछ देर एकदूसरे के परिवार के बारे में बात करते रहे. चलते समय उस ने एक गहरी नजर डाली और अपना फ्लैट नंबर बता कर बोला,”कोई भी जरूरत हो तो मुझे बता देना. संकोच मत करना…”

जब तक उस के पैर की मोच ठीक नहीं हो गई तब तक वह रोज उस के लिए कभी चाय बना कर लाता, तो कभी सैंडविच ले आता. बाहर से एकसाथ खाना भी और्डर कर देता फिर दोनों साथ ही खाना खाते.

सुदीपा के के मन में प्रेम का पहला एहसास फूटा था. एक अनजान कोमल स्पर्श दिल में तरंगित हो कर रमने लगा था. वह अपने घरसमाज की वर्जनाएं जानती थी. संस्कारित परंपराओं के बंधन में बंधने के बाद भी रूमानियत से भीगा एहसास बंजर मरूस्थल में हरा होने लगा था. समीर का साथ पा कर उस ने कभी ऐसा स्पर्श, स्नेह व अपनेपन का एहसास नहीं जाना था.

सुदीपा के मन की भीतरी परतों में शेखर के प्रति रोमांस का बीज पनपने लगा. शेखर बहुत अपनेपन से उस की देखभाल कर रहा था. उस का साथ मिलने के कारण उसे किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हुई थी .
अब वह ठीक हो कर कालेज जाने लगी थी.

रात के 8 बज रहे थे. गुलाबी रंग की कैप्री के साथ मैंचिग टौप में लंबी खुली केशराशि के बीच सुदीपा ऐसी लग रही थी जैसे श्यामल घटाओं के बीच दूधिया चांद खिला हो. उस ने मैंचिग ईयर टौप्स के साथ गले में छोटे मोतियों की माला पहनी थी. आज वह बहुत खुश थी. उस का गुलाब की तरह खिला खिला रूप सौंदर्य चित्ताकर्षक था. खुद को आईने में देख कर वह स्वयं ही लजा गई. वह रसोईघर में जा रही थी कि अचानक से बेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सामने समीर खडा था,”अरे, समीर तुम?” अकस्मात समीर को सामने देख कर वह अचकचा गई.

“हां मेरी जान, तुम्हारा समीर…” कहतेकहते समीर ने उसे बांहों में उठा कर 3-4 गोल चक्कर से घुमा दिया.

“आज तो तुम बेहद खूबसूरत और रूप की रानी लग रही हो. किस पर बिजली गिराओगी,” समीर ने रोमांटिक अंदाज में कहते हुए खींच कर उसे अपने सीने से लगाना चाहा.

तेज शराब के भभके से सुदीपा का तनमन जलने लगा. वह चिहुंक कर दूर जा खडी हुई. समीर ने आगे बढ़ कर उस की कलाई पकड़ ली. उस ने हाथ छुड़ा कर दूर जाने का प्रयत्न किया, लेकिन समीर की पकड़ से छूट नहीं सकी. समीर जोरजबरदस्ती करने लगा. यों अचानक ऐसे किसी हालात का सामना करना पड़ेगा, उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.सुदीपा का दिलदिमाग सुन्न हो गया. समीर की बांहों में कसमसा कर दरवाजा खोलते हुए बोली,”समीर, अभी तुम होश में नहीं हो, जाओ.अभी होटल चले जाओ और कल आना.”

“क्यों, कल क्यों मेरी जान, जो होना है आज ही होने दो न. अब तो हम दोनों की शादी भी होने वाली है. इसलिए तुम तो मेरी हो.”

शादी होने वाली है, हुई तो नहीं है न.
फिलहाल, मैं तुम से कोई बात नहीं करना चाहती. प्लीज, तुम यहां से चले जाओ,” सुदीपा ने संयत स्वर में उसे समझाने की कोशिश की.

मगर अपनी मनमरजी पर उतारू समीर ने उस की एक नहीं सुनी. पुरुषत्व के दर्प में चूर, शराब के नशे में मदहोश, समीर के भीतर का जानवर जनूनी हो गया. अपने मंसूबे पूरे न होते देख अब समीर बदतमीजी पर उतर आया. उस के हाथ में सुदीपा का टौप आ गया. जबरदस्ती खींचते हुए टौप चर्रचर्र… कर फटता चला गया.

“यू ब्लडीफूल, तेरी इतनी हिम्मत. तू मुझे मना करती है… अरे, तेरे जैसी पचासों लड़कियां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. तू समझती क्या है अपनेआप को…मैं जिस चीज पर हाथ रख देता हूं, वह मेरी हो जाती है…” नशे में समीर की लड़खड़ाती जबान से अंगार बरसने लगे.

जैसे ही वह सुदीपा को पकड़ने के लिए बढ़ा नशे की झोंक में लहराते हुए पीछे को गिर पड़ा. अपनी अस्मिता पर प्रहार होता देख सुदीपा रणचंडी बन गई. उस में न जाने कहां से इतनी शक्ति आ गई कि त्वरित ताकत से मेज पर रखा चाकू हाथ में ले कर डगमगाते समीर को पूरी शक्ति से बाहर धकेल दिया और बिजली की फुरती से दरवाजा बंद कर लिया. समीर बहुत देर तक दरवाजे पर आवाजें देता रहा, लेकिन उस के कान जैसे बहरे हो चुके थे. वह दरवाजे से लगी फूटफूट कर रोने लगी.

वह स्वयं को संयत कर उठी और कटे पेड़ की भांति पलंग पर गिर पड़ी. बिस्तर पर लेटी तो लगा जैसे समीर की ओछी सोच में लिपटे हाथ लंबे हो कर उस की ओर बढ़ रहे हैं. उस ने घबरा कर आंखे बंद कीं तो समीर की लाल घूरती आंखें देख सूखे पत्तों सी कांपने लगी.

सूरज चढ़ आया था. पूरी रात आंखों में कट गई. वह उस दिन को कोस रही थी जब समीर के साथ उस की सगाई हुई थी. लगाव रूमानियत से भीगे मीठे एहसास का प्रेममयी भाव सोच कर शेखर का चेहरा उस की आंखों के समक्ष तैर उठा. उसे इन दोनों की जेहनी सोचसमझ में जमीनआसमान का फर्क नजर आ रहा था.

मोबाइल की घंटी बजने पर न चाहते हुए भी देखा तो मां का फोन था,”मां खुशी से चहकते हुए बता रही थीं,”बेटा, सुबह तुम्हारे पापा के पास समीर के पापा का फोन आया था. वह इसी महीने शादी करने के लिए जोर डाल रहे हैं. कहते हैं कि अगले माह समीर विदेश जा रहा है. वह जल्दी ही तुम दोनों को विवाह बंधन में बांधना चाहते हैं.”

“नहींनहीं… मां, मैं समीर से शादी नहीं करूंगी. मैं उस की शक्ल भी देखना नहीं चाहती. आप मुझे समीर के साथ विवाह की सूली पर मत टांगना. मैं जी नहीं सकूंगी,” कहतेकहते उस की रुलाई फूट पड़ी.

“क्या बात है बेटा? तुम बहुत परेशान लग रही हो,” मां के स्वर में चिंता झलकने लगी

“हां मां, यहां बहुत कुछ घटा है,” और
उस ने मां को रात की सारी घटना बता दी,”मां, पत्नी का दिल जीतने के लिए पति के मन में भावनात्मक लगाव होता है. पर समीर केवल वासना का लिजलिजा कीडा़ निकला.उसे बस मेरा जिस्म चाहिए था, जिसे वह जबरदस्ती हासिल कर के अपनी मर्दानगी की मुहर लगाना चाहता था. उसे मेरी खुशियों से कोई सरोकार नहीं है…

“मेरी अपनी मंजिल समीर कभी नहीं हो सकता,” कह कर वह बच्चों की तरह बिलखने लगी.

सारी सचाई जान कर मां की आंखों से समीर के गुणी और लायक वर होने का परदा हट चुका था,”अच्छा सुदीपा… बेटा… तू रोना बंद कर और बिलकुल चिंता मत कर. अच्छा ही हुआ कि हमें उस की औकात शादी से पहले पता चल गई,”मां ने बेटी को धीरज बंधाया,” मैं और पापा आज तुम्हारे पास आ रहे हैं. मैं हूं न… तुम्हारी मां अब सब संभाल लेगी…”

सुदीपा ने इत्मीनान की सांस ले कर फोन रख दिया.

जब बहन लगे बहकने तो क्या करें

बहन जब मरजी से किसी से प्यार करने लगती है, तो ज्यादातर भाई हैवान बन जाते हैं. विरले ही भाई ऐसे होंगे, जिन्होंने अपनी बहन के जज्बात समझते हुए उस की मुहब्बत को शादी में तबदील करने की पहल की होगी…

बि हार में पटना सिटी का गायघाट आएदिन होने वाली आपराधिक वारदात के लिए बदनाम है. ऐसी ही एक वारदात ज्यूडिशियल एकेडमी के नजदीक

26 अप्रैल, 2023 की रात को हुई, जिस में उस वक्त सनाका खिंच गया था, जब फिल्मी स्टाइल में एक नौजवान ने दूसरे नौजवान पर कट्टे से गोली दागते हुए उस की हत्या कर दी. जब तक लोग समझ पाते कि आखिर हुआ क्या है, तब तक अपराधी हवा में फायर करते हुए भाग खड़े हुए.

अफरातफरी मची और कुछ लोग हिम्मत करते हुए उस घायल नौजवान के पास पहुंचे और उसे नजदीक के एनएमसीएच अस्पताल पहुंचाया, जहां इलाज के दौरान नौजवान ने दम तोड़ दिया.

पुलिस आई और जांच शुरू हुई, तो मामला इश्कबाजी का निकला. बाद में यह कहानी सामने आई : मरने वाले 22 साला नौजवान का नाम राजा कुमार था, जो गुड़ की मंडी मालसलामी का रहने वाला था और मारने वाले का नाम अभिषेक कुमार था. वे दोनों दोस्त तो नहीं थे, लेकिन एकदूसरे को जानते जरूर थे.

कुछ दिन पहले ही अभिषेक को भनक लगी थी कि राजा का चक्कर उस की बहन से चल रहा है. इस बाबत उस ने कई बार राजा को समझाया भी था कि वह उस की बहन से मिलनाजुलना छोड़ दे, वरना अंजाम अच्छा नहीं होगा.

समझाया तो अभिषेक ने अपनी बहन अर्चना (बदला हुआ नाम) को भी था, लेकिन राजा से उस का मिलनाजुलना बंद नहीं हो रहा था, इसलिए वह कुसूरवार राजा को ही मानता था और चाहता था कि वही मान जाए, फिर चाहे इस के लिए उंगली टेढ़ी भी करनी पड़े, तो बात हर्ज की नहीं, क्योंकि सवाल आखिर घर की इज्जत का था.

लेकिन राजा कहां मानने वाला था, जिसे यह एहसास था कि जब प्यार किया है, तो हजार रुकावटें भी आएंगी, जिन से डरने या भागने के बजाय उन का मुकाबला करना है.

मालसलामी का ही रहने वाला अभिषेक और राजा हमउम्र थे. लिहाजा, राजा को उम्मीद थी कि कभी आमनेसामने बैठ कर बात होगी, तो अभिषेक उस के जज्बात समझते हुए राजी हो जाएगा, क्योंकि अर्चना भी उसे चाहती थी.

वारदात के दिन अभिषेक ने राजा को चाय पीने के लिए ज्यूडिशियल अकेडमी के नजदीक के होटल पर बुलाया, तो

वह झट से राजी हो गया. उसे उम्मीद थी कि वह गुस्साए अभिषेक को मनाने में कामयाब हो जाएगा. लेकिन उसे क्या मालूम था कि अभिषेक कुछ और ही ठाने बैठा था.

रात को राजा अपने एक दोस्त सरवन को साथ ले कर होटल पर पहुंचा तो वहां मौत उस का इंतजार कर रही थी. अभिषेक ने कब कहां से आ कर उस पर गोलियां दागते हुए अपने घर की इज्जत का बदला ले लिया, यह उसे पता भी नहीं चला.

सरवन ने एक पहचान वाले संजीव कुमार की मदद से राजा को अस्पताल पहुंचाया और फिर पुलिस को राजा और अर्चना की लवस्टोरी के बारे में बताया, तो पुलिस ने अभिषेक को हिरासत में ले लिया, जिस ने अपना जुर्म कबूल करते हुए हत्या करने की वजह बता दी. विलेन बनते भाई यह कोई पहला या आखिरी मामला नहीं था, जिस में किसी भाई ने बहन के प्यार का खात्मा यों जानलेवा तरीके से न किया हो. यह रोग हर धर्म, जाति और तबके में बराबरी से है.

इसी साल फरवरी के महीने में मेरठ, उत्तर प्रदेश के लिसाड़ी इलाके में मैडिकल स्टोर चलाने वाले 24 साला साजिद सैफी की दिनदहाड़े हत्या उस की माशूका आयशा के भाइयों ने कर दी थी. साजिद और आयशा पड़ोसी थे और एकदूसरे से बेपनाह मुहब्बत करने लगे थे. यह मामला किसी से छिपा भी नहीं रह गया था. साजिद के घर वाले तो उस की जिद देखते हुए आयशा को घर की बहू बनाने को तैयार हो गए थे, लेकिन आयशा के घर वालों को किसी गैरजाति के नौजवान को दामाद बनाना गवारा न था.

साजिद ने कुछ महीने पहले ही बीफार्मा का कोर्स कर के अपना मैडिकल स्टोर खोला था और आयशा के साथ शादी कर अपने प्यार का जहां बनाने के सपने देखता था. वह दिनरात मेहनत भी कर रहा था.

जब लाख कोशिशों के बाद भी आयशा के घर वाले तैयार नहीं हुए, तो साजिद के घर वालों ने उस की शादी की बात दूसरी जगहों पर चलानी शुरू कर दी थी. वे अपने बेटे को उदास और परेशान नहीं देख पा रहे थे. हालांकि, इस से साजिद टैंशन में था, क्योंकि उस के दिलोदिमाग में तो आयशा गहरे तक बस चुकी थी.

11 फरवरी, 2023 की रात साजिद दुकान बंद करने की सोच ही रहा था कि तभी मोटरसाइकिल से 3 लोग नीचे उतरे. सभी के चेहरे कपड़े से ढके हुए थे. उन्होंने उस पर ताबड़तोड़ 5 गोलियां दाग दीं. साजिद गिर पड़ा, तो उन में से 2 नकाबपोशों ने उसे हिलाडुला कर उस के मरने की तसल्ली भी की. आसपास के लोग कुछ समझ पाते, इस के पहले ही वे तीनों लोग हवा में हथियार लहराते हुए भाग निकले. फिर वही हुआ, जो राजा के मामले में हुआ था कि तरहतरह की बातें, कानून व्यवस्था को कोसना, पोस्टमार्टम, पुलिस में रिपोर्ट, जांच और गवाही, लेकिन मुद्दे की बात हमेशा की तरह गायब है कि क्यों भाइयों से अपनी बहनों का प्यार करना बरदाश्त नहीं होता?

साजिद की मौत के बाद मेरठ में खूब हंगामा हुआ, लेकिन वह सियासी ज्यादा था सामाजिक कम. सैफी परिवार से हर किसी को हमदर्दी थी, क्योंकि साजिद बहुत होनहार और लायक होने के साथसाथ हंसमुख और हैंडसम भी था, जिस की मुहब्बत माशूका के भाइयों रिजवान और फुरकान को रास नहीं आई, तो उन्होंने उस का कत्ल ही कर दिया. इन लोगों ने पहले आयशा को भी

खूब समझायाबुझाया और मारापीटा भी था, लेकिन वह भी झुकने को तैयार नहीं हुई थी. बराबरी का दर्जा क्यों नहीं इन दोनों ही मामलों के आरोपियों की तकलीफ यह थी कि वे अपनी बहनों को नादान समझ रहे थे, साथ ही इस बात पर भी तिलमिलाए हुए थे कि आखिर उस की जुर्रत कैसे हुई किसी से प्यार करने की, जिस से इज्जत पर आंच आती है यानी दिक्कत यह मान लेने की है कि बहनें घर के कामकाज करें, पक्षी की तरह घर के पिंजरे में बंद रहें और हर सहीगलत फैसले को सिर झुका कर मान लें, तो ही सही माने में अच्छी लड़की हैं.

बहनों को अपनी मरजी से जीने और रहने देने का हक हमारे समाज में कभी नहीं मिला. उन की आजादी पर अंकुश लगाने को मर्द शान की बात समझते हैं. यह बात बुनियादी तौर पर सिखाई धर्म ने ही है कि औरत को बचपन में पिता और भाई के, जवानी में पति के और बुढ़ापे में बेटे के कंट्रोल में रहना चाहिए.

बहनभाई के रिश्ते को सब से प्यारा रिश्ता माना गया है. दोनों साथ हंसतेखेलते एकदूसरे का दुखदर्द समझते हुए बड़े होते हैं और जिंदगीभर इन खट्टीमीठी यादों को सीने से लगाए हुए जीते हैं.

शादी के बाद बहन अपनी ससुराल चली जाती है, तो उस की सब से ज्यादा फिक्र भाई ही करता है, लेकिन बहन जब मरजी से किसी से प्यार करने लगती है, तो यही भाई हैवान बन जाते हैं.

बिरले ही भाई ऐसे होंगे, जिन्होंने अपनी बहन के जज्बात समझते हुए उस की मुहब्बत को शादी में तबदील करने की पहल की होगी, क्योंकि उन के लिए जाति, समाज और धर्म से ज्यादा अहम बहन थी.

जिस तरह लड़कों को न केवल प्यार, बल्कि एक उम्र के बाद अपनी जिंदगी से जुड़े तमाम फैसले लेने का हक मिल जाता है, वैसा ही हक लड़कियों को भी मिलना चाहिए, नहीं तो साजिद और राजा जैसे बेकुसूर नौजवान मारे जाते रहेंगे और आयशा और अर्चना जैसी लड़कियां जिंदगीभर अपने भाइयों को कोसती रहेंगी, जो अब जेल में पड़े सड़ रहे हैं. मिला उन्हें भी कुछ नहीं है, सिवा इस झूठी शान और तसल्ली के कि उन्होंने घर की इज्जत बचा ली.

पर अगर यह इज्जत बहन के अरमानों की कब्र है तो यह इज्जत नहीं, बल्कि मर्दों के दबदबे वाले समाज की खोखली बुनियाद है, जिस का दरकना शुरू हो गया है. लेकिन यह बहुत ही छोटे पैमाने पर है.

जिस दिन लोग बेटियों को बेटों के बराबर का दर्जा और हक देने लगेंगे, उस दिन बेटियों को भी अपने इनसान होने का एहसास होगा और वे घर, समाज और देश की तरक्की में अहम रोल निभाएंगी, पर इस के लिए खुले दिल से पहल भाइयों को भी करनी पड़ेगी. उन्हें यह समझना होगा कि बहन को भी अपनी मरजी से रहने, खानेपीने, पहनने और प्यार करने का हक है.

पुरस्कार: रिटायरमेंट के बाद पिता और परिवार की कहानी

उन्हें एक निष्ठावान तथा समर्पित कर्मचारी बताया गया और उन के रिटायरमेंट जीवन की सुखमय कामना की गई थी. अंत में कार्यालय के मुख्य अधिकारी ने प्रशासन तथा साथी कर्मचारियों की ओर से एक सुंदर दीवार घड़ी, एक स्मृति चिह्न के साथ ही रामचरितमानस की एक प्रति भी भेंट की थी. 38 वर्ष का लंबा सेवाकाल पूरा कर के आज वह सरकारी अनुशासन से मुक्त हो गए थे.

वह 2 बेटियों और 3 बेटों के पिता थे. अपनी सीमित आय में उन्होंने न केवल बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया बल्कि रिटायर होने से पहले ही उन की शादियां भी कर दी थीं. इन सब जिम्मेदारियों को ढोतेढोते वह खुद भारी बोझ तले दब से गए थे. उन की भविष्यनिधि शून्य हो चुकी थी. विभागीय सहकारी सोसाइटी से बारबार कर्ज लेना पड़ा था. इसलिए उन्होंने अपनी निजी जरूरतों को बहुत सीमित कर लिया था, अकसर पैंटशर्ट की जगह वह मोटे खद्दर का कुरतापजामा पहना करते. आफिस तक 2 किलोमीटर का रास्ता आतेजाते पैदल तय करते. परिचितों में उन की छवि एक कंजूस व्यक्ति की बन गई थी.

बड़ा लड़का बैंक में काम करता था और उस का विवाह साथ में काम करने वाली एक लड़की के साथ हुआ था. मंझला बेटा एफ.सी.आई. में था और उस की भी शादी अच्छे परिवार में हो गई थी. विवाह के बाद ही इन दोनों बेटों को अपना पैतृक घर बहुत छोटा लगने लगा. फिर बारीबारी से दोनों अपनी बीवियों को ले कर न केवल अलग हो गए बल्कि उन्होंने अपना तबादला दूसरे शहरों में करवा लिया था.

शायद वे अपने पिता की गरीबी को अपने कंधों पर ढोने को तैयार न थे. उन्हें अपने पापा से शिकायत थी कि उन्होंने अपने बच्चों को अभावों तथा गरीबी की जिंदगी जीने पर विवश किया पर अब जबकि वह पैरों पर खड़े थे, क्यों न अपने श्रम के फल को स्वयं ही खाएं.

हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं. उन का तीसरा बेटा श्रवण कुमार साबित हुआ और उस की पत्नी ने भी बूढ़े मातापिता के प्रति पति के लगाव को पूरा सम्मान दिया और दोनों तनमन से उन की हर सुखसुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास करते रहते थे.

सब से छोटी बहू ने तो उन्हें बेटियों की कमी भी महसूस न होने दी थी. मम्मीपापा कहतेकहते दिन भर उस की जबान थकती न थी. सासससुर की जरा भी तबीयत खराब होती तो वह परेशान हो उठती. सुबह सो कर उठती तो दोनों की चरणधूलि माथे पर लगाती. सीमित साधनों में जहां तक संभव होता, उन्हें अच्छा व पौष्टिक भोजन देने का प्रयास करती.

सुबह जब वह दफ्तर के लिए तैयार होने कमरे में जाते तो उन का साफ- सुथरा कुरता- पजामा, रूमाल, पर्स, चश्मा, कलम ही नहीं बल्कि पालिश किए जूते भी करीने से रखे मिलते और वह गद्गद हो उठते. ढेर सारी दुआएं अपनी छोटी बहू के लिए उन के होंठों पर आ जातीं.

उस दिन को याद कर के तो वह हर बार रोमांचित हो उठते जब वह रोजाना की तरह शाम को दफ्तर से लौटे तो देखा बहूबेटा और पोतापोती सब इस तरह से तैयार थे जैसे किसी शादी में जाना हो. इसी बीच पत्नी किचन से निकली तो उसे देख कर वह और हैरान रह गए. पत्नी ने बहुत सुंदर सूट पहन रखा था और आयु अनुसार बड़े आकर्षक ढंग से बाल संवारे हुए थे. पहली बार उन्होंने पत्नी को हलकी सी लिपस्टिक लगाए भी देखा था.

‘यह टुकरटुकर क्या देख रहे हो? आप का ही घर है,’ पत्नी बोली.

‘पर…यह सब…बात क्या है? किसी शादी में जाना है?’

‘सब बता देंगे, पहले आप तैयार हो जाइए.’

‘पर आखिर जाना कहां है, यह अचानक किस का न्योता आ गया है.’

‘पापा, ज्यादा दूर नहीं जाना है,’ बड़ा मासूम अनुरोध था बहू का, ‘आप झट से मुंहहाथ धो कर यह कपड़े पहन लीजिए. हमें देर हो रही है.’

वह हड़बड़ाए से बाथरूम में घुस गए. बाहर आए तो पहले से तैयार रखे कपड़े पहन लिए. तभी पोतापोती आ गए और अपने बाबा को घसीटते हुए बोले, ‘चलो न दादा, बहुत देर हो रही है…’ और जब कमरे में पहुंचे तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. रंगबिरंगी लडि़यों तथा फूलों से कमरे को सजाया गया था. मेज पर एक बड़ा सुंदर केक सजा हुआ था. दीवार पर चमकदार पेपर काट कर सुंदर ढंग से लिखा गया था, ‘पापा को स्वर्ण जयंती जन्मदिन मुबारक हो.’

वह तो जैसे गूंगे हो गए थे. हठपूर्वक उन से केक कटवाया गया था और सभी ने जोरजोर से तालियां बजाते हुए ‘हैपी बर्थ डे टू यू, हैपी बर्थ डे पापा’ कहा. तभी बहू और बेटा उन्हें एक पैकेट पकड़ाते हुए बोले, ‘जरा इसे खोलिए तो, पापा.’

पैकेट खोला तो बहुत प्यारा सिल्क का कुरता और पजामा उन के हाथों में था.

‘यह हम दोनों की ओर से आप के 50वें जन्मदिन पर छोटा सा उपहार है, पापा,’ उन का गला रुंध गया और आंखें नम हो गईं.

‘खुश रहो, मेरे बच्चो…अपने गरीब बाप से इतना प्यार करते हो. काश, वह दोनों भी…बहू, एक दिन…एक दिन मैं तुम्हें इस प्यार और सेवा के लिए पुरस्कार दूंगा.’

‘आप के आशीर्वाद से बढ़ कर कोई दूसरा पुरस्कार नहीं है, पापा. यह सबकुछ आप का दिया ही तो है…आप जो सारा विष स्वयं पी कर हम लोगों को अमृत पिलाते रहते हैं.’

सेवानिवृत्त हो कर जब वह घर पहुंचे तो पत्नी ने आरती उतार कर स्वागत किया. बहूबेटे, पोतेपोती ने फूलों के हार पहनाए और चरणस्पर्श किए. कुछ साथी घर तक छोड़ने आए थे. कुछ पड़ोसी भी मुबारक देने आ गए थे, उन सब को जलपान कराया गया. बड़े बेटे व बहुएं इस अवसर पर भी नहीं आ पाए. किसी न किसी बहाने न आ पाने की मजबूरी जता कर फोन पर क्षमा याचना कर ली थी उन्होंने.

अतिथियों के जाने के बाद उन्होंने बहूबेटे से कहा था, ‘‘लो भई, अब तक तो हम फिर भी कुछ न कुछ कमा लाते थे, आज से निठल्ले हो गए. फंड तो पहले ही खा चुका था, ग्रेच्युटी में से सोसाइटी ने अपनी रकम काट ली. यह 80 हजार का चेक संभालो, कुछ पेंशन मिलेगी. कुछ न बचा सका तुम लोगों के लिए. अब तो पिंकी और राजू की तरह हम बूढ़ों को भी तुम्हें ही पालना होगा.’

बहू रो दी थी. सुबकते हुए बोली थी, ‘‘बेटी को यों गाली नहीं देते, पापा. यह चेक आज ही मम्मी के खाते में जमा कर दीजिए. आप ने अपनी भूखप्यास कम कर के, मोटा पहन कर, पैदल चल कर, एकएक पैसा बचा कर, बेटेबेटियों को आत्मनिर्भर बनाया है. आप इस घर के देवता हैं, पापा. हमारी पूजा को यों लज्जित न कीजिए.’’

उन्होंने अपनी सुबकती हुई बहू को पहली बार सीने से लगा लिया था और बिना कुछ कहे उस के सिर पर हाथ फेरते रहे थे.

समय अपनी निर्बाध गति से चलता जा रहा था. अचानक एक दिन उन के हृदय की धड़कन के साथ ही जैसे समय रुक गया. घर में कोहराम मच गया. भलेचंगे वह सुबह की सैर को गए थे. लौट कर स्नान आदि कर के कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. बहू चाय का कप तिपाई पर रख गई थी. अचानक उन्होंने बाईं ओर छाती को अपनी मुट्ठी में भींच लिया. उन के चेहरे पर गहरी पीड़ा की लकीरें फैलती गईं और शरीर पसीने से तर हो गया.

उन के कराहने का स्वर सुन कर सभी दौड़े आए थे पर मृत्यु ने डाक्टर को बुलाने तक की मोहलत न दी. देखते ही देखते वह एकदम शांत हो गए थे. यों लगता था जैसे बैठेबैठे सो गए हों पर यह नींद फिर कभी न खुलने वाली नींद थी.

शवयात्रा की तैयारी हो चुकी थी. बाहर रह रहे दोनों बेटों का परिवार, बेटियां व दामाद सभी पहुंच गए थे. बेटियों और छोटी बहू ने रोरो कर बुरा हाल कर लिया था. पत्नी की तो जैसे दुनिया ही वीरान हो गई थी.

शवयात्रा के रवाना होतेहोते लोगों की काफी भीड़ जुट गई थी. बेटे यह देख कर हैरान थे कि इस अंतिम यात्रा में शामिल बहुत से चेहरे ऐसे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी न देखा था. पिता के कोई लंबेचौड़े संपर्क नहीं थे. तब न जाने यह अपरिचित लोग क्यों और कैसे इस शोक में न केवल शामिल होने आए थे बल्कि वे गहरे गम में डूबे हुए दिखाई दे रहे थे.

क्रियाकर्म के बाद दोनों बड़े बेटेबहुएं और बेटियां विदा हो गए. अंतिम रस्मों का सारा व्यय छोटे बेटे ने ही उठाया था, क्योंकि बड़ों का कहना था कि पिता की कमाई तो वही खाता रहा है.

मेहमानों से फुरसत पा कर छोटे बहूबेटे का जीवन धीरेधीरे सामान्य होने लगा. बेटे के आफिस चले जाने के बाद घर में बहू व सास प्राय: उन की बातें ले बैठतीं और रोने लगतीं, फिर एकदूसरे को स्वयं ही सांत्वना देतीं.

कुछ ही दिन बीते थे. रविवार को सभी घर पर थे. किसी ने दरवाजा खटखटाया. बेटे ने द्वार खोला तो एक अधेड़ उम्र के सज्जन को सामने पाया. बेटे ने पहचाना कि पिताजी की शवयात्रा में वह अनजाना व्यक्ति आंसू बहाते हुए चल रहा था.

‘‘आइए, अंकल, अंदर आइए, बैठिए न,’’ बेटे ने विनम्रता से कहा.

‘‘तुम मुझे नहीं जानते बेटा, तुम मुझ जैसे अनेक लोगों को नहीं जानते, जिन के आंसुओं को तुम्हारे पिताजी ने हंसी में बदला, उन की गरीबी दूर की.’’

‘‘मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा, अंकल…आप…’’ बेटा बोला.

‘‘मैं तुम्हें समझाता हूं बेटे. 10 साल पहले की बात है. तुम्हारे पिता दफ्तर जाते हुए कभीकभी मेरे खोखे पर एक कप चाय पीने के लिए रुक जाते थे. मैं एक टूटे खोखे में पुरानी सी केतली में चाय बनाता और वैसे ही कपों में ग्राहक को देता था. मैं खुद भी उतना ही फटेहाल था जितना मेरा खोखा. मेरे ग्राहक गरीब मजदूर होते थे क्योंकि मेरी चाय बाजार में सब से सस्ती थी.

‘‘तुम्हारे पिता जब भी चाय पीते तो कहते, ‘क्या गजब की चाय बनाते हो दोस्त, ऐसी चाय बड़ेबड़े होटलों में भी नहीं मिल सकती, अगर तुम जरा ढंग की दुकान बना लो, साफसुथरे बरतन और कप रखो, ग्राहकों के बैठने का प्रबंध हो तो अच्छेअच्छे लोग लाइन लगा कर तुम्हारे पास चाय पीने आएं.’

‘‘मैं कहता, ‘क्या कंरू बाबूजी, घरपरिवार का रोटीपानी मुश्किल से चलता है. दुकान बनाने की तो सोच ही नहीं सकता.’

‘‘और एक दिन तुम्हारे पिताजी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में आए और बोले, ‘लो दोस्त, तुम्हारे लिए एक दुकान मैं ने अगले चौक पर ठीक कर ली है. 3 माह का किराया पेशगी दे दिया है. उस में कुछ फर्नीचर भी लगवा दिया है और क्राकरी, बरतन भी रखवा दिए हैं. रविवार को सुबह 8 बजे मुहूर्त है.’

‘‘मैं उन की बातें सुन कर हक्काबक्का रह गया. उन की कोई बात मेरी समझ में नहीं आई थी तो उन्होंने सीधेसादे शब्दों में मुझे सबकुछ समझा दिया. शायद यह बात आप लोग भी नहीं जानते कि वह अपनी नौकरी के साथसाथ ओवरटाइम कर के कुछ अतिरिक्त धन कमाते थे.

‘‘उन्होंने मुझे बताया कि ओवरटाइम की रकम वह बैंक में जमा कराते रहते थे. मेरी दुर्दशा को देख कर उन्होंने योजना बनाई थी और वह कई दिनों तक मेरे खोखे के आसपास किसी उपयुक्त दुकान की तलाश करते रहे और आखिर उन की तलाश सफल हो गई. वह दुकान को पूरी तरह तैयार करवा कर मुझे बताने आए थे कि अगले रविवार मुझे अपना काम वहां शुरू करना है.

‘‘अगले रविवार को मेरी उस दुकान का मुहूर्त हुआ तो बरबस मेरी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं उन के चरणों में झुक गया. मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था कि किन शब्दों में मैं उन का धन्यवाद करूं. उन्होंने तो मेरे जीवन की काया ही पलट दी थी.

‘‘एक दिन मुझे एक बैंक पासबुक पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं ने यह सब तुम्हारे उपकार के लिए नहीं किया. इस में मेरा भी स्वार्थ है. नई दुकान पर तुम्हें जितना भी लाभ होगा, उस का 5 प्रतिशत तुम स्वयं ही मेरे इस खाते में जमा कर दिया करना.

‘‘उन के आशीर्वाद ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मेरी दुकान दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती गई और आज वह दुकान एक शानदार रेस्तरां का रूप ले चुकी है. मैं और मेरा बेटा तो अब उस का प्रबंध ही देखते हैं. आज तक नियमित रूप से मैं लाभ का 5 प्रतिशत इस पासबुक में जमा करा रहा हूं.

‘‘इसी तरह एक बूढ़ा सिर पर फल की टोकरी उठाए गलीगली भटक कर अपनी रोजीरोटी चलाता था. बढ़ती उम्र के साथ उस का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि टोकरी का वजन सिर पर उठाना उस के लिए कठिन होने लगा था. एक दिन इसी तरह केलों की टोकरी उठाए जब वह बूढ़ा चिलाचिलाती धूप में घूम रहा था तो संयोग से तुम्हारे पापा पास से गुजरे थे. सहसा बूढ़े को चक्कर आ गया और वह टोकरी समेत गिर गया.

‘‘तुम्हारे पापा उसे सहारा दे कर फौरन एक डाक्टर के पास ले गए और उस का उपचार कराया. उस के बाद उस बूढ़े ने उन्हें बताया कि वह 600 रुपए मासिक पर एक अमीर आदमी के लिए फल की फेरी लगाता है, जिस ने इस तरह के और भी 10-15 लाचार लोगों को इस काम के लिए रखा हुआ है जो गलीगली घूम कर उस का फल बेचते हैं.

‘‘तुम्हारे पिताजी उस बूढ़े की हालत देख कर द्रवित हो उठे और मुझ से बोले, ‘मैं इस बुजुर्ग के लिए कुछ करना चाहता हूं, जरा मेरी पासबुक देना.’

‘‘कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक ऐसी रेहड़ी तैयार करवाई जो चलने में बहुत हलकी थी. रेहड़ी उस बूढ़े के हवाले करते हुए उन्होंने कहा था, ‘इस रेहड़ी पर बढि़या और ताजा फल सजा कर निकला करना. आप की रोजीरोटी इस से आसानी से निकल आएगी. काम शुरू करने के लिए यह 10 हजार रुपए रख लो और हां, मैं आप के ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहा हूं. अपने काम में आप को जो लाभ हो उस का 5 प्रतिशत श्यामलाल को दे दिया करना, ताकि यह मेरे खाते में जमा करा दे.’

‘‘वह बूढ़ा तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उसी रेहड़ी की कमाई से अब उस का बेटा एक बड़ी फल की दुकान का मालिक बन चुका है. वह भी अब तक नियमित रूप से लाभ का 5 प्रतिशत मेरे पास जमा कराता है, जिसे मैं तुम्हारे पिताजी की पासबुक में जमा करता रहता हूं. उस बूढ़े के बाद उन्होंने 7-8 वैसे ही दूसरे फेरी वालों को रेहडि़यां बनवा कर दीं जो अब खुशहाली का जीवन बिता रहे हैं और उन के लाभ का भाग भी इसी पासबुक में जमा हो रहा है.

‘‘इतना ही नहीं, एक नौजवान की बात बताता हूं. एम.ए. पास करने के बाद जब उस को कोई नौकरी न मिली तो उस ने पटरी पर बैठ कर पुस्तकें बेचने का काम शुरू कर दिया. एक बार तुम्हारे पिताजी उस ओर से निकले तो उस पटरी वाली दुकान पर रुक कर पुस्तकों को देखने लगे. यह देख कर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उस युवक ने घटिया स्तर की अश्लील पुस्तकें बिक्री के लिए रखी हुई थीं.

‘‘लालाजी ने जब उस युवक से क्षोभ जाहिर किया तो वह लज्जित हो कर बोला, ‘क्या करूं, बाबूजी. साहित्य में एम.ए. कर के भी नौकरी न मिली. घर में मां बिस्तर पर पड़ी मौत से संघर्ष कर रही हैं. 2 बहनें शादी लायक हैं. ऐसे में कुछ न कुछ कमाई का साधन जुटाना जरूरी था. अच्छी पुस्तकें इतनी महंगी हैं कि बेचने के लिए खरीदने की मेरे पास पूंजी नहीं है. ये पुस्तकें काफी सस्ती मिल जाती हैं और लोग किराए पर ले भी जाते हैं. इस तरह कम पूंजी में गुजारे लायक आय हो रही है.’

‘‘‘यदि चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ आर्थिक सहायता कर सकता हूं. यदि तुम वादा करो कि इस पूंजी से केवल उच्च स्तर की पुस्तकें ही बेचने के लिए रखोगे, तो मैं 40 हजार रुपए तुम्हें उधार दे सकता हूं, जिसे तुम अपनी सुविधानुसार धीरेधीरे वापस कर सकते हो. मेरा तुम पर कोई एहसान न रहे, इस के लिए तुम मुझे अपने लाभ का 5 प्रतिशत अदा करोगे.’

‘‘शायद तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे पिताजी द्वारा लगाया गया वह पौधा आज फलफूल कर कैपिटल बुक डिपो के रूप में एक बड़ा वृक्ष बन चुका है और शहर में उच्च स्तर की पुस्तकों का एकमात्र केंद्र बना हुआ है.

‘‘एक बार मैं ने तुम्हारे पिताजी से पूछा था, ‘बाबूजी, बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं?’

‘‘वह हंस कर बोले थे, ‘तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगा. तुम तो मेरे छोटे भाई हो. कहो, क्या बात है?’

‘‘‘आप ने बीसियों लोगों की जिंदगी को अंधेरे से निकाल कर उजाला दिया है. उन की बेबसी और लाचारी को समाप्त कर के उन्हें स्वावलंबी बनाया है पर आप स्वयं सदा ही अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते रहे हैं. कभी एक भी पैसा आप ने अपनी सुविधा या सुख के लिए व्यय किया हो, मुझे नहीं लगता. आखिर बैंक में जमा यह सब रुपए…’

‘‘और बीच में ही मेरी बात काट दी थी उन्होंने. वह बोले थे, ‘यह सब मेरा नहीं है, श्यामलाल. इस पासबुक में जमा एकएक पैसा मेरे छोटे बेटे और बहू की अमानत है. तुम्हें छोटा भाई कहा है तभी तुम से कहता हूं, मेरे बड़े बेटे और बहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर मेरे बुढ़ापे का सारा बोझ छोटे बेटे पर छोड़ कर दूसरे शहरों में जा बसे हैं और ये मेरे छोटे बच्चे दिनरात मेरे सुख और आराम की चिंता में रहते हैं. बहू ने तो मेरी दोनों बेटियों की कमी पूरी कर दी है. मेरा उस से वादा है श्यामलाल कि मैं उसे एक दिन उस की सेवा का पुरस्कार दूंगा. मेरी बात गांठ बांध लो. जब मैं न रहूं, तब यह पासबुक जा कर मेरी बहू के हाथ में दे देना और उन्हें सारी बात समझा देना. मैं ने अपनी वसीयत भी इस लिफाफे में बंद कर दी है जिस के अनुसार यह सारी पूंजी मैं ने अपनी बहू के नाम कर दी है. यही उस का पुरस्कार है.’’’

बहू की आंखों से गंगाजमुना बह चली थीं. श्यामलाल ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक लिफाफा और पासबुक उस के हाथों में थमा दिए. बहू रोतेरोते उठ खड़ी हुई और धीरेधीरे चल कर पिता की तसवीर के सामने जा पहुंची और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे. उस के मुख से केवल इतना ही निकला, ‘‘पापा…’’

मेरी ननद बुरी संगत से प्रभावित हो रही है, मैं क्या करूं?

सवाल

मेरी ननद किसी लड़के से 8 सालों से रिलेशनशिप में है. हालांकि वह कहती है कि उन्होंने कभी मर्यादा की सीमारेखा नहीं लांघी है, फिर भी मुझ डर लगता है कि वह कभी कोई गलत फैसला न ले ले. उसने यह बात घर में सभी से छिपा रखी है. मुझे भी इस बात की जानकारी अनजाने में ही हो गई है. अब मुझे लगता है कि यह बात मुझे अपने पति व सास को बता देनी चाहिए. पर कहीं ननद मुझ से हमेशा के लिए खफा न हो जाए. क्या यह ठीक रहेगा?

जवाब

आप अपनी ननद की नाराजगी की चिंता किए बगैर इस बात से घर वालों को अवगत कराएं, क्योंकि यदि जानेअनजाने कल को उस के जीवन में कुछ गलत होता है तो आप को सारी उम्र इस बात का मलाल रहेगा.

Tips For Happy Family Life: 4 ईजी टिप्‍स से जाने हैप्‍पी फैमिली लाइफ

हर किस के जीवन में फैमिली की अहम भूमिका होती है. और फैमिली में यूनिटी होना बेहद जरूरी होता है. आपको फैमिली के साथ जो खुशी मिलती है, वह और कहीं नहीं मिलती.

ऐसा कहा जाता है कि एक घर तब घर कहलाता है, जब उसमें आपका परिवार रहता है. परिवार और उसकी खुशी के आगे सारी चीजें छोटी लगती है. फैमिली में हर एक सदस्य को आपस में सहेज कर रखना आपकी जिम्मेदारी है. तो आइए जानते हैं, हैप्पी फैमिली लाइफ के लिए आपको क्या करना चाहिए.

1. एक साथ बैठकर खाना खाएं

एक साथ खाना खाने से भी आपका रिश्‍ता मजबूत होता है और परिवार में प्‍यार बढ़ता है. भले ही किसी दिन आपको अलग खाना पड़ जाए, लेकिन आप कोशिश करें कि परिवार के साथ बैठकर खाना खाएं.

2. अच्‍छी चीजों की करें तारीफ 

जब कभी आपको लगे कि परिवार के किसी सदस्‍य या बच्‍चे ने कुछ अच्‍छा किया है, तो आप उनकी सराहना करें.  ऐसा करने से उन्‍हें खुशी मिल सकती है. इससे आपके परिवार में करीबियां बढ़ेंगी.

3. वीकेंड ट्रिप पर जाएं

जरूरी नहीं कि परिवार होने के बाद आपका हर वीकेंड घर के काम काजों में ही बीते. आप अपने बच्‍चों के साथ मिलकर एक वीकेंड ट्रिप का प्‍लान करें. जिसमें आप कहीं घूमने, मूवी देखने, पिकनिक मनाने या फिर अन्‍य कुछ प्‍लान कर सकते हैं. यह आपके बच्‍चों और परिवार के लोगों को एक-दूसरे को करीब लाने में मदद करेगा.

4. प्रोफेशनल और प्रसनल लाइफ के बीच बिठाएं तालमेल

आप कोशिश करें कि अपने काम को इस हिसाब से मैनेज करें कि आप परिवार को भी समय दे पाएं. ऐसा न हो कि हर बार परिवार की जरूरतों या चाहतों के सामने आपका काम रोड़ा बनकर आए. पर्सनल या प्रोफेशनल लाइफ में से किसी एक को भी नजरअंदाज करना आपकी फैमिली लाइफ पर बुरा असर डाल सकता है.

नया सवेरा : आलोक की क्या कहानी थी

सावन का महीना, स्कूल-कालेज के बच्चे सुबह 8.30 बजे सड़क के किनारे चले जा रहे थे, इतने घमें नघोर घटाओं के साथ जोर से पानी बरसने लगा और सभी लड़के, लड़कियाँ पेड़ के नीचे, दुकानों के शेड के नीचे खड़े हो गये थे. उन्हें सबसे ज्यादा डर किताब, कापी भीगने का था. उन्हीं बच्चों में एक लड़की जिसका नाम व्याख्या था और वह कक्षा-6 में पढ़ती थी, वह एक मोटे आम के तने से सटकर खड़ी थी. पेड़ का तना थोड़ा झुका हुआ था जिससे वह पानी से बच भी रही थी. लगभग दस मिनट बाद पानी बन्द हो गया और धूप भी निकल आई.

एक लड़का जिसका नाम आलोक था, वह भी कक्षा-6 में ही व्याख्या के साथ पढ़ता था. वहाँ पर कोई कन्या पाठशाला न होने के कारण लड़के और लड़कियाँ उसी सर्वोदय काॅलेज में पढ़ते थे. आलोक बहुत गोरा व सुगठित शरीर का था लेकिन व्याख्या बहुत सांवली थी, व्याख्या संगीत विषय लेकर पढ़ रही थी, उसकी आवाज में एक जादू था, जो उसकी एक पहचान बन गयी थी. काॅलेज के कार्यक्रमों में वह अपने मधुर स्वर के कारण सभी की प्रिय थी. इसी तरह समय धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया और व्याख्या ने संगीत में कक्षा-10 तक काफी ख्याति प्राप्त कर ली थी.

आलोक उसी की कक्षा में था और वह व्याख्या को देखता रहता था. कभी भी कोई भी दिक्कत, परेशानी किसी भी प्रकार की होती थी, तो आलोक उसे हल कर देता था. दोपहर इन्टरवल में लड़कियों की महफिल अलग रहती और लड़कों की मंडली अलग रहती थी. लेकिन आलोक की नजर व्याख्या पर ही होती थी.

हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर व्याख्या कक्षा-11 में पहुंच गयी थी और आलोक भी कक्षा-10 उत्तीर्ण कर कक्षा-11 में पहुंच गया था. शाम 3 बजे से 4 बजे तक संगीत की क्लास चलती थी तथा सभी बच्चों में सबसे होशियार और मेहनती व्याख्या ही मानी जाती थी. कक्षा ग्यारह के बाद यानि कि छः वर्ष में व्याख्या ने संगीत प्रभाकर की डिग्री हासिल कर ली थी, जिससे शहर और अन्य शहरों में स्टेज कार्यक्रम के लिए आमंत्रित की जाने लगी. माँ वीणादायिनी ने व्याख्या को बहुत उम्दा स्वर प्रदान किये थे, जिसके कारण गायन में व्याख्या का नाम प्रथम पंक्ति में लिया जाना लगा. व्याख्या को कई सम्मानों से सम्मानित किया जाने लगा. अब तो जहाँ कहीं भी संगीत-सम्मेलन होता, सबसे पहले व्याख्या आहूत की जाती. यदि शहर में कार्यक्रम होता तो आलोक वहाँ व्याख्या को सुनने पहुँच जाता और व्याख्या कार्यक्रम देते समय एक नजर आलोक को जरूर देख लेती थी मगर उसका अधिक सांवलापन उसके जेहन को हमेशा झझकोरता रहता था.

धीरे-धीरे समय बीतता गया और व्याख्या ने संगीत की प्रवीण परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली, लेकिन इतना होने पर भी वह हर समय यही सोचती रहती थी कि मेरे माता-पिता इतने सुन्दर है फिर मैं काली कैसे पैदा हो गयी. उसका रूप-रंग ना जाने किस पर चला गया.

आज व्याख्या संगीत के चरम पर विराजमान थी. शास्त्रीय संगीत की दुनिया में लगातार सीढ़ियाँ चढ़ती चली जा रही थी और संगीत की दुनिया में राष्ट्रीय स्तर की एक जानी-मानी गायिका कहलाने लगी थी. उसे आज भी याद है कि…..

घर के बाहर खूबसूरत लाॅन में बैठी धीरे-धीरे ना जाने क्या सोचते-सोचते वह चाय का प्याला हाथ में लिए अपनी आरामवाली कुर्सी पर बैठी थी. ‘‘मेम साहब, आपका पत्र आया है ? ‘अरे आप ने तो चाय पी नहीं, अब तो यह बहुत ठंडी हो गयी होगी, लाइये दूसरी बना लाऊँ. ‘‘ बिना उत्तर की प्रतीक्षा करे हरि काका ने मेरे हाथ से प्याला लिया और पत्र मेज पर रखकर चले गये. मैंने देखा आलोक का पत्र था. ‘‘व्याख्या, तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत अकेला हो गया हूँ बहुत लड़ चुका हूँ मैं अपने अहं से. अब थक गया हूँ, हार चुका हूँ…….. मुझे नहीं मालूम कि मैं किसके लिए जी रहा हूँ,? मैं नहीं जानता कि मैं इस योग्य हूँ या नहीं, पर तुम्हारे वापस आने की उम्मीद ही मेरे जीवन का मकसद रह गया है, बस उसी क्षण का इन्तजार है, ना जाने क्यों…………….? आओगी न,…………..

पत्र पढ़ने के बाद व्याख्या की भाव शून्य आंखों में एक भाव लहरा कर रह गया. पत्र तहा कर उसने लिफाफे में रख दिया, उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि आलोक जैसा जिद्दी, अभिमानी और कठोर दिल इंसान भी इस तरह की बातें कर सकता है. जरूर कोई मतलब होगा, मेज पर पड़ी किताब के पन्ने हवा के झोंके के कारण फड़फड़ाते हुये एक तरफ होने लगे. जिंदगी के पंद्रह वर्ष पीछे लौटना व्याख्या के लिए मुश्किल नहीं था क्योंकि उसके आज पर पन्द्रह वर्षों के यादों का अतीत कहीं न कहीं हावी हो जाता है.

सोचते-सोचते वह आज भी नहीं समझ पाई कि माँ-पापा तो खूबसूरत थे, पर उसकी शक्ल न जाने किस पर चली गयी, पर माँ उसे हमेशा हिम्मत बंधाती थी कि ‘‘कोई बात नहीं बेटी, ईश्वर ने तुझे रंग नहीं दिया तो क्या हुआ, तू अपने नाम को इतना विकसित कर ले कि सब तेरी व्याख्या करते ना थके.’’ बस व्याख्या ने सचमुच अपने नाम को एक पहचान देनी प्रारम्भ कर दी. उसने हुनर का कोई भी क्षेत्र नहीं छोड़ा, साथ ही ईश्वर की दी गयी वो नियामत जिसे व्याख्या ने पायी थी., ‘सुरीली आवाज’ जिसके कारण वह संगीत की दुनिया में लगातार सीढ़िया चढ़ती गयी और शास्त्रीय संगीत की दुनिया में राष्ट्रीय स्तर की एक जानी मानी गायिका कहलाने लगी.

उसे आज भी याद है कि अहमदाबाद का वो खचाखच भरा सभागार और सामने बैठे जादू संगीतज्ञ पं0 राम शरन पाठक जी. सितार पर उंगलिया थिरकते ही, सधी हुई आवाज का जादू लगातार डेढ़ घंटे तक दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर गया. दर्शकों की तालियाँ और पं0 जी के वो वचन कि ‘‘बेटी तुम बहुत दूर तक जाओगी. शायद आज उनकी वो बात सच हो गयी लेकिन उन दर्शकों में एक हस्ती, जो नामी-गिरामी लोगों में जानी जाती थी, देवाशीस जी, उनका खत एक दिन पिता के नाम पहुँचा कि ‘‘हमें अपने बेटे के लिए आपकी सुपुत्री चाहिए जो साक्षात सरस्वती का ही रूप है. ‘‘एक अंधा क्या मांगे दो आंखे. मेरे पिताजी ने बगैर कुछ सोचे समझे हाँ कर दी. शादी के समय मंडप पर बैठे उन्हें देखा था, एक संुदर राजकुमार की तरह लग रहे थे. सभी परिवार के लोग मुझे मेरी किस्मत पर बधाई दे रहे थे. पर खुदा को कुछ और मंजूर था. आलोक जिन्हें मैं बिल्कुल पसन्द नहीं थी. शादी के बाद क्या, उसी दिन ही अपने पिताजी से लड़ना कि ‘‘कहाँ फसा दिया’’ इस बदसूरत लड़की के साथ.

आलोक घर पर नहीं रूके और पूरे आग बबूला होकर घर छोड़कर चले गये. मेरे सास-ससुर ने सचमुच दिलासा दी. सुबह उठकर नहा धोकर बहू के सारे कर्तव्य निभाते हुये मैं भगवान भजन भी गाती रही. सास ससुर तो अपनी बहू की कोयल सी आवाज पर मंत्र मुग्ध थे, पर मैं कहीं न कहीं अपनी किस्मत को रो रही थी. आलोक पन्द्रह-बीस दिन में कभी-कभार आते थे, लेकिन मेरी तरफ रूख भी नहीं करते थे, बस अपनी जरूरत की चीजें लेकर तुरन्त निकल जाते थे, अब तो यह नियम सा बन गया था. मैं भी अपनी किस्मत को ही निर्णय मान लिया लेकिन कहीं न कही आलोक का इंतजार भी था.

एक दिन मुझे चुपचाप बैठे देख ससुर जी ने कहा-कि ‘‘मैं तो एक बढ़िया सी खुशखबरी लाया हूँ, वो यह कि एक संगीत आयोजन में विशेष  प्रस्तुति के लिए तुम्हारे नाम का आमंत्रण आया है, ‘‘पर बाबूजी मुझे तो दो साल हो गये हैं स्टेज शो किये हुए. अब डर लगता है, पता नहीं क्यों ? में आत्मविश्वास खो सा गया है. नहीं-नहीं मैं नहीं गा पाऊँगी‘‘व्याख्या ने कहा. तुम गा सकती हो, मेरी बेटी जरूर गायेगी और जायेगी, पिता जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा. ‘‘बाबूजी के विश्वास से ही मैंने अपना रियाज शुरू कर दिया. बाबूजी घंटो मेरे साथ रियाज में मेरा साथ देते. वो दिन आ गया. खचाखच भरा वही सभागार, अचानक उसे याद आया कि उसी मंच से तो उसके जीवन में अंधेरा आया लेकिन आज इसी मंच से तो उसके जीवन का नया सवेरा होने वाला है. कार्यक्रम के बाद दर्शकों की बेजोड़ तालियों ने एक बार फिर मुझे वो आत्मविश्वास भर दिया जो सालों पहले कहीं खो गया था.

दूसरे दिन मैं अपनी तस्वीर अखबार में देख रहीं थी कि बाबूजी अचानक घबराते हुए आये और कहने लगे बेटी ‘‘जल्दी तैयार हो जाओ, आलोक का एक्सीडंेट हो गया.’’ व्याख्या के चेहरे पर कोई शिकन न उभरी लेकिन अचानक हाथ सर की मांग में भरे सिंदूर पर गया कि यह तो आलोक के नाम का है.

मैं बाबूजी के साथ गाड़ी में बैठ गयी. अस्पताल में शरीर पर कई जगह पर गहरी चोटों को लिए आलोक बुरी हाल में डाक्टरों की निगरानी में था. पुलिस ने मुझसे आकर पूछा कि-‘‘आप जानती हैं, इसके साथ कार में कौन था ?‘‘मैं समझ नहीं पाई कि किसकी बात हो रही है, फिर थोड़ी देर में पता चला कि आलोक के गाड़ी में जो मैडम थी, उनको नहीं बचाया जा सका. पूरे एक हफ्ते बाद जब आलोक को होश आया तो आंखें खुलते ही उसने पूछा-‘‘मेघा कहाँ है’’? डाॅक्टर साहब, वह ठीक तो है न ? वह मेरी पत्नी है.‘‘ पुलिस की पूछ-ताछ से पता चला कि उन दोनों का एक पाँच महीने का बेटा भी है जो अभी नानी के यहां है ? व्याख्या के सब्र का बांध टूट गया और उसमें इससे ज्यादा कुछ सुनने की शक्ति न बची. 6-7 महीने का कम्पलीट बेड रेस्ट बताया था डाॅक्टर ने. आलोक घर आ चुका था. व्याख्या आलोक का पूरा ध्यान रखती, खाने-पीने का, दवाई का. पूरी दिनचर्या के हर काम वह एक पत्नी की अहमियत से नहीं, इंसानियत के रिश्ते से कर रही थी. चेहरे पर पूरा इत्मीनान, कोमल आवाज, सेवा-श्रद्धा, धैर्य, शालीनता ना जाने और कितने ही गुणों से परिपूर्ण व्याख्या का वह रूप देखकर खुद अपने व्यवहार के प्रति मन आलोक का मन आत्मग्लानि से भर जाता. इतना होने पर भी वही भावशून्य व्यवहार.

कितनी बार मन करा कि वो मेरे पास बैठे और मैं उससे बाते करूँ, लेकिन वह सिर्फ काम से काम रखती, सेवा करती और मेरे पास बोलने की हिम्मत न होने के कारण शब्द मुंह में रह जाते. व्याख्या अपने कार्यक्रम के लिए बाबूजी के साथ भोपाल गयी थी. आलोक ने सोचा लौटने पर अपने दिल की बात जरूर व्याख्या से कह देगा और मांफी मांग लेगा. भोपाल से लौटने पर बाबूजी ने खबर दी कि-‘‘मेरी बहू का दो साल तक विदेशों में कार्यक्रम का प्रस्ताव मिला है, अब मेरी बहू विदेशों में भी अपने स्वर से सबको आनन्दित करेगी. ‘‘एक दिन जब व्याख्या सुबह नहाकर निकली तो आलोक ने कहा-‘‘ मैं अपनी सारी गलतियों को स्वीकारता हूँ. मैं गुनहगार हूँ तुम्हारा………………….मुझे माफ कर दो………..’’ कितना आसान होता है न मांफी मांगना. पर सब कुछ इससे नहीं लौट सकता ना, जो मैंने खोया है, जितनी पीड़ा मैने महसूस की है, जितने आंसू मैनें बहाए हैं, जितने कटाक्ष मैनें झेले हैं. क्या सच है उसकी बिसात और फिर आलोक जो आपने किया यदि मैं करती तो क्या मुझे स्वीकारते ? नहीं, कभी नहीं बल्कि मुझे बदचलन होने का तमगा और तलाक का तोहफा मिलता. व्याख्या ने बिना कुछ कहे मन में सोचा. व्याख्या के कुछ न कहने पर उस समय तो आलोक को मानो काठ मार गया. वो अपनी जिंदगी की असलियत पर  पड़ा परदा हटते देख रहा था कि वह कैसा था…‘‘इतने दिनों तक मैनें आपकी सेवा की, आपका एहसान उतारने के लिए. मैं वास्तव में एहसान मंद हूँ. आपने जितना अपमानित किया उतना ही अधिक अपने लक्ष्य के प्रति मेरा निश्चय दृढ हुआ है.‘‘ अचानक व्याख्या की आवाज से आलोक अपनी सोच से बाहर आया. व्याख्या एक आर्कषक अनुबंध के अंतर्गत विदेश यात्रा पर निकल गयी और अब जब कभी वह लौटती तो, प्रायोजकों के द्वारा भेंट किये गये किराये के बंगले पर ठहरती, लेकिन कभी-कभार बाबूजी से मिलने जरूर आती. एक-एक दिन करके महीने और अब तो कई साल गुजर गये, सभी अपने आप में मस्त हैं. संगीत के अलावा कुछ नहीं सूझता व्याख्या को. अब तो वही उसके लिए प्यार, वही जीवनसाथी. कार्यक्रमों की धूम, प्रशंसकों की भीड़ पूरे दिन व्यस्त रहती, मगर फिर एक रिक्तता थी, जीवन में. रह रहकर आलोक का ख्याल आता, दुर्घटना के पहले और बाद में आलोक के साथ बिताए एक-एक पल उसकी स्मृति में उमड़ने-घूमड़ने लगे. लेकिन आज आलोक की यह छोटी सी चिट्ठी. पर इतने छोटे से कागज पर, कम मगर कितने स्पष्ट शब्दों में बरसों की पीड़ा को सहजता से उकेर कर रख दिया है उसने, आखिर कब तक अकेली रहेगी वह? सब कुछ है उसके पास, मगर वह तो नहीं है जिसकी ज़रूरत सबसे ज्यादा है. व्याख्या सोच में पड़ गयी. बाबूजी भी बीमार चल रहे हैं, मिलने जाना होगा.

अगले ही दिन व्याख्या ससुराल पहुँची, चेहरे पर टांको के निशानों के साथ आलोक बहुत दुबला प्रतीत हो रहा था. बाबूजी को देखने के पश्चात जैसे ही व्याख्या दरवाजे के बाहर निकली, आलोक ने उसका हाथ थाम लिया. बरसों पहले कहा गया वाक्य फिर से लड़खड़ाती जुबान से निकल पड़ा-‘‘व्याख्या, क्या हम नई जिंदगी की शुरूआत नहीं कर सकते? ‘‘क्या तुम मुझे माफ नहीं कर सकती? व्याख्या की निगाहें आलोक के चेहरे पर टिक गयी. घबरा कर आलोक व्याख्या का हाथ छोड़ने ही वाला था कि व्याख्या मुस्करा उठी. मजबूती से आलोक ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए ‘‘अब मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा. ‘‘व्याख्या शरमा कर आलोक के सीने से लग गयी. आज उसके दीप्तिमान तेजोमय मुखमंडल पर जो मुस्कान आई उसे लगा वास्तव में आज ही उसकी संगीत का रियाज पूरा हुआ और आत्म संगीत की वर्षा हुई है. क्योंकि कल उसके जीवन का नया सवेरा जो आने वाला था.

लेखिका- डाॅ0 अनीता सहगल ‘वसुन्धरा’

मरीचिका : मधु के साथ उस रात आखिर क्या हुआ

मधु अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में किसी अपराधी की तरह सिर झुकाए बुत बनी बैठी थी. पता ही नहीं चला कि वह कितनी देर से ऐसे ही बैठी थी. एकएक पल कईकई साल की तरह बीत रहा था. उसे रहरह कर पिछले कुछ महीनों की उथलपुथल भरी घटनाएं भुलाए नहीं भूल रही थीं.

मधु की नौकरी जब शहर की एक बड़ी कंपनी में लगी थी, तो घर में खुशी का माहौल था. लेकिन साथ ही मम्मीपापा को यह चिंता भी थी कि अपने शहर से दूर उस अनजान बड़े शहर में बेटी को कैसे भेजें? आखिर वह वहां कैसे रहेगी?

फिर उस ने ही मम्मीपापा का हौसला बढ़ाया था और कहा था कि शहर भेज रहे हैं या जंगल में? लाखों लोगों में आप की बेटी अकेले कैसे रहेगी? उस जैसी और भी बेटियां वहां होंगी या नहीं?

जब वे लोग शहर पहुंचे, तो मम्मीपापा उसे नौकरी जौइन करा कर और उस की ही जैसी 3 और लड़कियों के गु्रप में छोड़ कर घर लौट आए. थोड़े ही दिनों के बाद उन में से 2 लड़कियों के रहने का इंतजाम उन के साथियों ने कर दिया.

मधु और एक दूसरी लड़की, जिस का नाम प्रीति था, भी इसी कोशिश में लगी थीं कि रहने का कुछ ठीक से इंतजाम हो जाए, तो जिंदगी ढर्रे पर आ जाए.

एक दिन मधु और प्रीति कंपनी में कैंटीन से लौट रही थीं, तो स्मोकिंग जोन से एक लड़की ने मधु का नाम ले कर आवाज लगाई. वह ठिठक गई कि यहां कौन है, जो उसे नाम ले कर आवाज लगा रहा है?

मधु ने उधर देखा तो एक स्मार्ट सी दिखने वाली लड़की, जिस के हाथ में सिगरेट थी, उसे बुला रही थी. वे दोनों बिना कुछ सोचे उस के पास चली गईं.

‘‘मैं श्वेता हूं. सुना है कि तुम रहने की जगह देख रही हो? मेरे पास जगह है,’’ उस लड़की ने सिगरेट के धुएं का छल्ला छोड़ते हुए कहा.

‘‘हां, लेकिन आप…’’ मधु को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या बोले.

‘‘ऐसी ही हूं मैं. कल मैं इसी समय इधर ही मिलूंगी. सोचो और फैसला लो,’’ उस लड़की ने सिगरेट का आखिरी कश जोर से खींचा और वहां से चली गई.

वे दोनों उसे देखती रह गईं. उन्होंने श्वेता के बारे में पता किया, तो पता चला कि वह खुली सोच वाली लड़की है, पर है दिल की साफ. साथ ही यह भी कि वह तलाकशुदा मातापिता की एकलौती औलाद है, इसीलिए इतनी बिंदास है. उस के पास अपना फ्लैट भी है, जिसे वह नए आने वालों से शेयर करती है.

मधु और प्रीति को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई. उन्होंने फ्लैट देखा और पसंद आने पर उस के साथ रहने लगीं.

एक दिन श्वेता की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए वह उस दिन दफ्तर नहीं गई. जब शाम को मधु और प्रीति घर लौटीं, तो उन्होंने श्वेता के साथ एक लड़के को बैठे देखा.

श्वेता ने बताया कि वह लड़का उस का दूर का भाई है और अब उन के साथ ही रहेगा.

यह सुन कर मधु और प्रीति उस पर काफी नाराज हुईं, लेकिन श्वेता इस बात पर अड़ी रही कि वह उस के साथ ही रहेगा. उस ने तो यहां तक कह दिया कि वे चाहें तो अपने रहने का इंतजाम दूसरी जगह कर सकती हैं. यह सुन कर वे सन्न रह गईं.

इस के बाद मधु और प्रीति डरीसहमी उन के साथ रहने लगीं. उन्होंने देखा कि श्वेता का वह दूर का भाई कुछ दिन तो बालकनी में सोता था, लेकिन बाद में वह उस के बैडरूम में ही शिफ्ट हो गया.

जब उन्होंने एतराज किया, तो श्वेता बोली, ‘‘मेरा रिश्तेदार है और मेरा ही फ्लैट है. तुम्हें क्या दिक्कत है?’’

श्वेता का यह रूप देख कर मधु को उस से नफरत हो गई. वैसे, मधु के सीधेसहज स्वभाव के चलते श्वेता उस से उतनी नहीं खुली थी, लेकिन प्रीति से वह खुली हुई थी. वह उस को अपने दैहिक सुख के किस्से सुनाती रहती थी. कई बार मधु को भी यही सबकुछ दिखातीसुनाती, मधु थोड़ी असहज हो जाती.

एक दिन मधु प्रीति और श्वेता दोनों पर इन बातों के लिए खासा नाराज हुई. आखिर में किसी तरह प्रीति ने ही बात संभाली.

मधु ने उसी समय यह तय किया कि वह अब इन लोगों के साथ नहीं रहेगी. वह अगले दिन दफ्तर में पापा की तबीयत खराब होने का बहाना कर के अपने शहर चली गई थी.

घर के लोग मधु के तय समय से 15 दिन पहले ही अचानक आ जाने से खुश तो बहुत थे, पर समझ नहीं सके थे कि वह इतने दिन पहले कैसे आई थी. लेकिन उस ने उस समय घर वालों को यह नहीं बताया कि वह किस वजह से आई थी.

कुछ दिन वहां रुक कर मधु वापस आ गई. उस ने प्रीति को रेलवे स्टेशन से ही फोन लगाया. उस ने बताया, ‘तेरे जाने के बाद अगले दिन ही मैं भी अपने शहर चली गई थी, क्योंकि श्वेता और उस के भाई के साथ रहना मुझे बहुत भारी पड़ रहा था. मेरे घर वाले मुझे नौकरी पर नहीं जाने दे रहे हैं.’

यह सुन कर तो मधु के पैरों तले जमीन खिसक गई. उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि क्या करे, क्या न करे. एक मन कर रहा था कि ट्रेन में बैठ कर घर लौट जाए, लेकिन वह नहीं गई.

मधु ने असीम को फोन लगाया. वह उस के साथ दफ्तर में काम करता था. मधु ने रोंआसा होते हुए बात की, तो उस ने हिम्मत दी, फिर रेलवे स्टेशन आ गया.

असीम ने मधु को समझाबुझा कर श्वेता के फ्लैट पर रहने के लिए राजी किया. वह उसे वहां ले कर भी गया. श्वेता और उस का ‘भाई’, जिस का नाम कुणाल था, उन को देख कर हैरान रह गए. फिर सहज होते हुए श्वेता ने मधु को गले लगा लिया.

‘अरे वाह, तू भी. वैलडन,’  श्वेता ने असीम की ओर देख कर उसे एक आंख मारते हुए कहा.

‘‘तू जैसा समझ रही है, वैसा कुछ भी नहीं है,’’ मधु एकदम सकपका गई.

‘‘कोई बात नहीं यार. शुरू में थोड़ा अटपटा लगता है, फिर मजे ही मजे,’’ श्वेता बोली.

‘‘तू गलत समझ रही है,’’ मधु ने उसे फिर समझाने की कोशिश की, लेकिन उस ने उसे मुंह पर उंगली रख कर चुप रहने का इशारा किया और फ्रिज से कोल्डड्रिंक निकाल कर सब को देने लगी.

असीम कुछ समझ नहीं पा रहा था या समझ कर भी अनजान बन रहा था, कहना मुश्किल था. फिर बातों ही बातों में श्वेता ने अपने और कुणाल के बारे में सबकुछ बेबाकी से बताया. मधु की उम्मीद के उलट कुणाल ने उन सब को बड़ी सहजता से लिया. जब असीम वापस जाने लगा, तो उस ने कहा कि वह मधु के रहने का दूसरा इंतजाम करेगा और यह भी कि तब तक वह बारबार आता रहेगा. मधु किसी तरह मन मार कर वहीं रहने लगी.

‘हमारी कोई शादी नहीं हुई तो क्या फर्क पड़ता है, देखेंगे… जब जरूरत लगेगी, तब कर लेंगे. ऐसे रहने में क्या बुराई है?’

श्वेता अकसर मधु से बातें करते हुए कहती थी. मधु को कई बार यह भी लगता था कि वह सच ही तो कह रही है.

एक दिन मधु शाम को दफ्तर से घर लौटी, तो पाया कि श्वेता और कुणाल ब्लू फिल्म देख रहे थे.

मधु को लगा, जैसे वह उन दोनों का बैडरूम ही हो. उन के कपड़े यहांवहां बिखरे पड़े थे. शराब की बोतल मेज पर खुली रखी थी. वे दोनों उस फिल्म में पूरी तरह डूबे हुए थे.

अजीब सी आवाजों ने मधु को असहज कर दिया था. वह जल्दी से अपने कमरे की ओर बढ़ी, तो श्वेता ने उस से कहा, ‘‘हमारे साथ बैठो और जिंदगी का मजा लो.’’

मधु ने उसे अनसुना कर के खुद को कमरे में बंद कर लिया. फिर यह सिलसिला चलने लगा. असीम भी अकसर वहीं आ जाता था. मधु आखिर कब तक अपने को बचा पाती. उस पर भी उस माहौल का असर होने लगा था. अब वह भी यह सब देखनेसुनने में मजा लेने लगी थी.

एक शनिवार को असीम ने कहीं पिकनिक पर जाने का प्रोग्राम बनाया, तो मधु मना नहीं कर सकी. वह सारा दिन मजे और मस्ती में बीत गया.

रात होतेहोते बादल घिरने लगे. थोड़ी ही देर में तेज बारिश होने लगी और वे अपने शहर की ओर चल दिए.

मधु के मना करने के बावजूद असीम उसे घर तक छोड़ने आया था और आते ही सोफे पर पसर गया था. थोड़ी ही देर में उसे गहरी नींद आ गई थी.

मधु ने असीम को थोड़ी देर सोने दिया, फिर उसे जगा कर वहां से जाने को कहा.

इतने में टैलीविजन पर उन के फ्लैट के पास वाले मौल में बम धमाका होने की खबर आई. पुलिस हरकत में आती, तब तक वहां दंगा शुरू हो गया था.

श्वेता और कुणाल खुश हो रहे थे कि दंगा होने से कंपनी से छुट्टी मिलेगी और वे मजे करेंगे. असीम वहां से न जा पाने के चलते बेचैन था और मधु  उस से भी ज्यादा परेशान थी कि आखिर रात को वह कहां रुकेगा?

असीम ने जाने की कोशिश की और मधु ने उसे भेजने की, पर पुलिस ने शहर के हालात का हवाला दे कर उस की एक नहीं सुनी. उसे वहीं रुकना पड़ा.

मधु न जाने क्यों मन ही मन डर रही थी. श्वेता और कुणाल सोने चले गए थे. मधु ने असीम को चादरतकिया दे कर सोफे पर सोने को कहा, फिर वह भी सोने चली गई.

अचानक मधु की नींद खुली, तो देखा कि असीम उस के जिस्म से खेल रहा था. वह चीख पड़ी और जोर से चिल्लाई. असीम ने उसे चुप रहने को कहा और उस से जबरदस्ती करने लगा.

मधु किसी कातर चिडि़या की तरह तड़पती ही रह गई और असीम एक कामयाब शिकारी जैसा लग रहा था.

मधु चिल्लाते हुए ड्राइंगरूम में और उस के बाद उस ने श्वेता के बैडरूम का दरवाजा जोर से बजाया.

श्वेता और कुणाल तकरीबन अधनंगे से बाहर आए. वह उन्हें देख कर असहज हो गई और सबकुछ बताया.

‘‘तुम जरा सी बात के लिए इतना चीख रही हो?’’ श्वेता बोली, फिर उस ने कुणाल के कंधे पर सिर रखा और बोली, ‘‘चलो, अपना अधूरा काम पूरा करते हैं.’’

वे दोनों अपने बैडरूम में चले गए.

मधु नीचे फर्श पर बैठी रो रही थी. वहां कोई नहीं था, जिस पर वह भरोसा करती और जो उसे दिलासा देता. फिर वह अपनेआप को किसी तरह संभालने की कोशिश कर रही थी कि उस ने  अपने माथे पर किसी का हाथ महसूस किया. देखा तो असीम था. उस ने उस का हाथ झटक दिया और उसे बेतहाशा पीटने लगी.

असीम उस की मार सहता हुआ थोड़ी देर तक खड़ा रहा. मधु थकहार कर निढाल हो कर बैठ गई.

‘‘लो, पानी पी लो,’’ असीम पानी का गिलास लिए खड़ा था.

मधु ने जोर से झटक कर गिलास फेंक दिया.

‘‘लो, पानी पी लो,’’ असीम फिर से गिलास में पानी भर कर लाया था.

मधु ने जलती आंखों से उसे देखा, तो एक पल के लिए वह सहम गया. फिर उस ने मधु के मुंह से गिलास

लगा दिया.

मधु ने पानी पी कर उस से पूछा, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया?’’

असीम ने उसे बड़े प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘क्या मुझ से शादी करोगी?’’

‘‘मुझे नहीं करनी किसी फरेबी से शादी. मैं पुलिस के पास जा रही हूं.’’

मधु हिम्मत कर के उठी.

‘‘शौक से जाओ,’’ कह कर असीम ने फ्लैट का दरवाजा खोल दिया.

मधु बिल्डिंग के बाहर आई. उसे देख कर दरबान चिल्लाया, ‘‘मेम साहब, अंदर जाइए. पुलिस को देखते ही गोली मार देने का आदेश है.’’

तब मधु को उस से पता चला कि शहर के हालात कितने खराब हो गए थे. वह थकहार कर वापस आ गई.

मधु कुछ दिनों तक गुमसुम रही, लेकिन श्वेता के कहने पर वह असीम के साथ लिवइन रिलेशन में रहने लगी.

मधु ने एक दिन पूछा, तो पता चला कि श्वेता पेट से है और कुणाल, जो कल तक दिनरात शादी की बात करता था, शादी से मुकर रहा था.

जब श्वेता उस से शादी के लिए बारबार कहने लगी, तो वह उसे मारनेपीटने लगा.

यह देख कर मधु दौड़ी और उस ने कुणाल को रोका. उस ने उन दोनों को समझाने की कोशिश की, पर वे अपनीअपनी बात पर अड़े हुए थे.

जब श्वेता कुणाल पर ज्यादा दबाव डालने लगी, तो वह शादी करने से एकदम मुकर गया और कभी शादी न करने की बात कह कर वहां से चला गया.

मधु और श्वेता उसे रोकती रह गईं. श्वेता किसी घायल पक्षी की तरह तड़पती रह गई. मधु को उस की यह हालत देख कर दया भी आई और गुस्सा भी.

श्वेता की इस अनचाही खबर के कुछ दिन बाद ही मधु को भी यह एहसास हुआ कि वह भी पेट से है. तब उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने असीम से यह ‘खुशखबरी’ कही, तो उस ने लापरवाही से कहा, ‘‘ठीक है, देखते हैं कि क्या हो सकता है.’’

‘‘मतलब? हम जल्दी ही शादी कर लेते हैं,’’ मधु ने खुशी से कहा.

‘‘अभी हम शादी कैसे कर सकते हैं? अभी तो मेरा प्रोजैक्ट चल रहा है. वह पूरा होने में एकाध साल लगेगा, उस के बाद देखा जाएगा,’’ असीम बोला.

‘‘फिर हमारा बच्चा?’’ मधु ने पूछा.

‘‘हमारा नहीं तुम्हारा. वह तुम्हारा सिरदर्द है, मेरा नहीं,’’ असीम बेशर्मी से बोला, तो मधु उस के बदले रूप को देखती रह गई.

मधु जब असीम से शादी करने के लिए बारबार कहने लगी, तो एक दिन वह भाग गया. पता करने पर

मालूम हुआ कि वह तो कंपनी के एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में विदेश जा चुका है. साथ ही, यह भी कि उस का विदेश जाने का तो पहले से ही प्रोग्राम तय था, लेकिन उस ने मधु को इस बारे में हवा तक नहीं लगने दी.

मधु हाथ मलती रह गई. अब वह और श्वेता एक ही दुख की दुखियारी थीं. श्वेता और मधु ने बारीबारी से बच्चा गिराने का फैसला लिया. डाक्टर ने भी भरपूर फायदा उठाया और उन से मोटी रकम ऐंठी.

आज श्वेता की बच्चा गिराने की बारी थी और मधु उस की देखभाल के लिए साथ आई थी. कल को उसे भी तो इसी दौर से गुजरना है.

अचानक दरवाजे पर हुई हलचल ने मधु का ध्यान तोड़ा. नर्सिंग स्टाफ श्वेता को बेसुध हाल में बिस्तर पर लिटा गया.

मधु खुद को श्वेता की जगह रख कर ठगी सी बैठी थी. उन्होंने जिस सुख को अपनी जिंदगी मान लिया था, वह मरीचिका की तरह सिर्फ छलावा साबित हुआ था.

सोनू ने खोली नीतीश सरकार की पोल

छठी जमात में पढ़ने वाले महज 11 साल के एक लड़के सोनू कुमार ने बिहार राज्य में पढ़ाईलिखाई के इंतजाम और शराबबंदी की असलियत की पोल खोल दी है. हुआ यों कि कुछ समय पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने पुश्तैनी गांव कल्याण बिगहा में अपनी पत्नी मंजू देवी की पुण्यतिथि पर आए थे. वे वहां ‘जनसंवाद’ में लोगों की समस्याएं सुन रहे थे. इसी बीच सोनू ने हाथ जोड़ कर रोते हुए नीतीश कुमार से फरियाद की,

‘मेरे पिता शराब पीते हैं. दही बेच कर लाए सारे पैसे शराब में बरबाद कर देते हैं. ‘‘मैं जो पढ़ा कर के पैसे लाता हूं, उन की भी पिता शराब पी जाते हैं. सरकारी स्कूल में टीचर कुछ भी नहीं पढ़ाते हैं. उन्हें अंगरेजी नहीं आती है, इसलिए मुझे अच्छे स्कूल में पढ़ना है.’’ बेहाल सरकारी स्कूल सरकारी स्कूलों में बच्चे मिडडे मील, स्कौलरशिप और वरदी के पैसे के लिए जा रहे हैं. मई महीने तक भी बच्चों को सरकारी स्कूलों में किताबें नहीं मिली थीं. पंचायत प्रतिनिधियों द्वारा बहाल किए गए टीचर पढ़ा नहीं पाते हैं. ऐसे भी टीचर बहाल हैं, जो मुश्किल से अपनी हाजिरी बनाते हैं.

पंचायत प्रतिनिधियों ने दूसरों से घूस ले कर या फिर अपने परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों को बतौर टीचर बहाल कर दिया है. दबंग पंचायत प्रतिनिधियों द्वारा बहाल किए गए इन टीचरों की मनमानी पर सरकारी महकमे के पदाधिकारी भी लगाम लगाने में नाकाम साबित हो रहे हैं. शराबबंदी पर निशाना सोनू ने बेबाकी से बोल कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बोलती बंद कर दी है. सचाई यही है कि बिहार में गैरकानूनी शराब दोगुनेतिगुने दाम पर मिल रही है. देशी जहरीली शराब से हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं. आएदिन जहरीली शराब के पीने से मौतें होने का सिलसिला जारी है.

मदद का हाथ बढ़ाया सोनू को पढ़ाने के लिए राज्यसभा सांसद और बिहार के उपमुख्यमंत्री रह चुके सुशील कुमार मोदी, सांसद रह चुके पप्पू यादव, फिल्म दुनिया के सितारे सोनू सूद समेत दर्जनों लोगों ने अपना हाथ आगे बढ़ाया है, पर वहां की पढ़ाईलिखाई में सुधार कैसे हो, ताकि बिहार के सोनू जैसे लाखों बच्चों को बेहतर तालीम मिल सके, इस के लिए जोरदार आवाज नहीं उठाई जा रही है. राष्ट्रीय जनता दल के नेता सत्येंद्र यादव का कहना है कि सोनू जैसे बिहार में हजारों मेधावी बच्चे हैं,

जो ट्यूशन पढ़ा कर, सब्जी बेच कर, फुटपाथ पर तरहतरह का सामान बेच कर अपने परिवार को पैसे की मदद करते हुए पढ़ाई कर रहे हैं. इन बच्चों को अगर बेहतर तालीम दी जाए, तो उन की तरक्की के साथसाथ इस राज्य की भी तरक्की होगी. लेकिन अफसोस की बात है कि सरकारी स्कूलों में बेहतर और क्वालिटी की पढ़ाईलिखाई के लिए पहल नहीं की जा रही है.

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