Love Story : संयोग

Love Story : संयोग

लेखक- सनंत प्रसाद

मंजुला और मुकेश के बीच प्यार की कोंपलें फूटने लगी थीं. लेकिन महत्त्वाकांक्षी मंजुला ने मुकेश के प्यार को अपने सपनों से ज्यादा तरजीह दी. बरसों बाद मुकेश से मिलने पर एक बार फिर मंजुला की यादें ताजा हो उठीं.

रात के 10 बज चुके थे. मरीजों को निबटा कर डा. मंजुला प्रियदर्शिनी अपने क्लिनिक में अकेली बैठी थीं. अचानक उन्होंने रिलेक्स के मूड में अपने जूड़े को खोल कर लंबे घने बालों को एक झटका सा दिया और इसी के साथ लंबी जुल्फें लहरा कर इजीचेयर पर फैल गईं.

डा. मंजुला इजीचेयर से उठीं और क्लिनिक के बगल में बने शानदार बाथरूम के आदमकद शीशे में अपने पूरे व्यक्तित्व को निहारने लगीं.

दिनभर की भीड़भाड़ भरी व्यस्त जिंदगी में डा. मंजुला अपने को भूल सी जाती हैं. जिस को समय का ही ध्यान नहीं रहता वह अपना ध्यान कैसे रख सकता है. किंतु समय तो अपनी गति से चलता ही जाता है न. शहर के पौश इलाके में बना उन का नर्सिंग होम  और क्लिनिक उन्हें इतना समय ही नहीं देते कि वह मरीजों को छोड़ कर अपने बारे में सोच सकें.

डा. मंजुला ने अपनी संपन्नता  अथक मेहनत से अर्जित की थी. वह अपनी व्यस्ततम जिंदगी से जब भी कुछ पल अपने लिए निकालतीं तो उन का अकेलापन उन्हें काटने को दौड़ता था. आखिर थीं तो वह भी एक औरत ही न. अपने को आईने में देखा तो 45-50 की ‘प्रियदर्शिनी’ का एक अछूता सा मादक सौंदर्य और यौवन उन्हें थिरकता नजर आया. बालों में थोड़ी सफेदी तो आ गई थी पर उसे स्वाभाविक रंग में रंग कर उन्होंने कलात्मकता से छिपा रखा था.

डा. मंजुला के मन के एक कोने से आवाज आई, काश, कोई उन के आज भी छिपे हुए मादक यौवन और गदराई देह को अपनी सबल बांहों में थाम लेता और उन्हें मसल कर रख देता. एक अनछुई सिहरन उन के मनप्राणों में समा गई. औरत के मन की यह अद्भुत विशेषता और विरोधाभास भी है कि वह जो अंतर्मन से चाहती है, उसे शायद शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाती. इसीलिए नारी अपनी कामनाओं को तब तक छिपा कर रखती है जब तक भावनाओं की आंधी में बहा कर ले जाने वाला और उस की अस्मिता की रक्षा करने का आश्वासन देने वाला कोई सबल पुरुष उस के रास्ते में न आ जाए.

बाथरूम से निकल कर डा. मंजुला अपने केबिन में आईं और इजीचेयर पर बैठते ही सिर पीछे की ओर टिका दिया. घर जाने का अभी मन नहीं कर रहा था अत: आंखें बंद कर वह अतीत में खो सी गईं.

20 वर्ष पहले वह मेडिकल कालिज में फाइनल की छात्रा थी. बिलकुल रिजर्व और अंतर्मुखी. लड़के भंवरा बन कर उस पर मंडराते थे क्योंकि मंजुला ‘प्रियदर्शिनी’ एक कलाकार के सांचे में ढली हुई चलतीफिरती प्रतिमा सी लगती थी. अद्भुत देहयष्टि और खिलाखिला सा रूपरंग, उस पर कालेकाले घुंघराले बाल और कजरारे नैननक्श की मलिका मंजुला जिधर से निकलती मनचलों पर बिजलियां सी टूट पड़तीं पर वह किसी को घास न डालती. कोई लड़का उस पर डोरे डालने का साहस भी नहीं जुटा पाता, क्योंकि उस के पिता मनोरम पुलिस के आला अफसर थे और मां माधुरी कलेक्टर जो थीं.

मुकेश कब और कैसे मंजुला के जीवन में आ गया, इसे शायद स्वयं मंजुला भी न समझ सकी. वह लजीला सा नवयुवक उस का सहपाठी तो था पर कभी उस ने मंजुला की ओर आंख उठा कर भर नजर देखा तक नहीं था, जबकि दूसरे लड़के मंजुला को देख कर दबी जबान कुछ न कुछ फब्तियां कस ही देते थे.

मंजुला कभी मुकेश को लाइब्रेरी के एक कोने में चुपचाप किताबों में डूबा हुआ देखती या फिर कक्षा से निकल कर घर जाते हुए. इस अंतर्मुखी लड़के के प्रति उस की उत्सुकता बढ़ती जाती. किंतु उस का अहं कोई पहल करने से उसे रोक देता.

मंजुला को उस दिन बड़ा आश्चर्य हुआ जब मुकेश ने उस के समीप आ कर पूछा, ‘आप इतनी चुपचुप क्यों रहती हैं? क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि इस तरह रहने से आप को डिप्रेशन या हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी हो सकती है?’

मंजुला उस के भोलेपन पर मन ही मन मुसकरा उठी, साथ ही उस के शरारती मन को टटोलने का प्रयास भी करने लगी. ऊपर से सीधासादा दिखने वाला यह लड़का अंदर से थोड़ा शरारती भी है. तभी तो इतना खूबसूरत बहाना ढूंढ़ा है उस से बात करने का या उस के करीब आने का. फिर भी बनावटी मुसकराहट के साथ उस ने जवाब दिया, ‘नहीं तो, मुझे तो कुछ ऐसा नहीं लगता.’

मुकेश बड़ी विनम्रता से बोला, ‘यदि मैं कैंटीन में चल कर आप को एक कप कौफी पीने का निमंत्रण दूं तो आप बुरा तो न मानेंगी.’

इस बार मंजुला उस के भोलेपन पर सचमुच खिलखिला उठी, ‘चलिए, आई डोंट माइंड.’

कौफी पीतेपीते ही मंजुला से मुकेश का परिचय हुआ. मुकेश एक मध्यवर्ग के संभ्रांत परिवार का लड़का था. घर में उस की मां थीं, 2 बड़ी बहनें थीं,  जिन की शादियां हो चुकी थीं और वे अपनीअपनी गृहस्थी में खुश थीं. मुकेश के पिता एक सरकारी मुलाजिम थे जो लगभग 2 वर्ष पहले बीमारी के चलते दिवंगत हो चुके थे. मां को पिता की सरकारी नौकरी की पेंशन मिलती थी, किंतु गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए और अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के लिए मुकेश कालिज के बाद ट्यूशन पढ़ाया करता था.

मंजुला ने जैसे ही अपने बारे में मुकेश को बताना शुरू किया उस ने बीच में ही उसे टोक दिया, ‘मैडम, क्यों कौफी ठंडी कर रही हैं. आप के बारे में मैं तो क्या यह पूरा मेडिकल कालिज जानता है कि आप के मातापिता क्या हैं.’

मंजुला सीधेसादे मुकेश के प्रति एक अनजाना सा ख्ंिचाव महसूस करने लगी थी. उस ने अपने मन से कई बार पूछा कि कहीं वह मुकेश से प्यार तो नहीं करने लगी है?

नारी का मनोविज्ञान सदियों से वही रहा है जो आज है और आगे भी वही रहेगा. हर स्त्री के मन में प्यार और प्रशंसा पाने की ललक होती है, चाहे वह अवचेतन की किसी अतल गहराइयों में ही छिपी हो, जिसे वह समझ नहीं पाती या जाहिर नहीं कर पाती.

खैर, इस प्रकार मंजुला के जीवन में प्यार बन कर मुकेश कब आ गया इसे न मंजुला समझ पाई न मुकेश. दोनों का प्यार परवान चढ़ता रहा. दोनों ने अच्छे नंबरों से मेडिकल की परीक्षाएं पास कीं. मंजुला के पिता के पास पैसा था, सो उन्होंने एक खूबसूरत सा नर्सिंगहोम शहर के बीचोेंबीच एक पौश इलाके में खोल दिया और इसी के साथ डा. मंजुला के अपने कैरियर की शुरुआत करने के दरवाजे खुल गए.

मंजुला कुछ दिनों के लिए विदेश चली गई. लौटी तो ढेर सारी डिगरियां उस ने बटोर ली थीं. एम.डी., एम.एस. और भी कई डिगरियां. मंजुला अपने ही नाम वाले नर्सिंगहोम की मालिक बन कर जीवन में लगभग सेटल हो चुकी थी.

मुकेश अपने ही शहर के एक मेडिकल कालिज में लेक्चरर हो गया था. दोनों का जीवन नदी के दो किनारों की तरह मंथर गति से आगे बढ़ने लगा था. मंजुला के मातापिता ने उसे शादी के लिए प्रेरित करना शुरू किया, किंतु वह शादी से ज्यादा कुछ करने की, कुछ ऊंचाई छू लेने की हसरत रखती थी. इसलिए शादी के बहुतेरे प्रस्तावों को वह किसी न किसी बहाने टालती रही और अपने व्यावसायिक जीवन को संवारने में तनमन से जुट गई.

मुकेश ने मां के बेबस प्यार और आग्रह के सामने सिर झुका लिया. उस की शादी जिस युवती से हुई वह झगड़ालू प्रवृत्ति के साथसाथ हद दरजे की शक्की, बदमिजाज, स्वार्थी एवं ईर्ष्यालु भी थी. सामाजिक दबाव, आर्थिक समस्याओं आदि ने कोई विकल्प मुकेश के सामने छोड़ा ही नहीं और उस ने भी हथियार डाल दिए. आखिर किसी शायर ने ठीक ही तो फरमाया है, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, किसी को जमीं तो किसी को आसमां नहीं मिलता.’

मुकेश अब कालिज की ड्यूटी के बाद घर लौट कर एक थीसिस की तैयारी में जुट जाता और देर रात तक उसी में व्यस्त रहता. पत्नी झींकती रहती, तकदीर को कोसती कि कैसे निखट्टू से पाला पड़ गया. मुकेश बेबस हो कर सुनता और चुप रह जाता.

मुकेश के जीवन की एक त्रासदी उस दिन उभर कर सामने आई जब उस की पत्नी चंचला और सास सविता ने उसे निसंतान होने का ताना देना शुरू किया. तमाम मेडिकल जांच के बाद यह तसवीर उभर कर सामने आई कि चंचला मां नहीं बन सकती. नतीजतन, चंचला और भी उग्र और आक्रामक बनती चली गई और मुकेश दीवार पर जड़ दिए गए फ्रेम में सहनशीलता की तसवीर भर बन कर रह गया.

उस दिन शाम के समय गाड़ी से मंजुला कुछ खरीदारी करने निकली थी. मौर्या कांपलेक्स के शौपिंग आरकेड में घुसते ही अचानक मुकेश पर उस की निगाहें टिक गईं. दोनों के बीच औपचारिक बातों के बाद मंजुला ने उसे अगले दिन अपने नर्सिंग होम में आ कर बातचीत करने का निमंत्रण दिया.

दूसरे दिन शाम को मुकेश आया तो दोनों बड़ी देर तक बातों में खोए रहे. रात घिर आई. बातों का सिलसिला टूटा तो घड़ी पर नजर गई. 12 बज चुके थे. मुकेश बाहर निकला तो हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई. मुकेश ने अपनी ईर्ष्यालु पत्नी चंचला का जिक्र छेड़ा तो मंजुला उसे घर छोड़ने का साहस नहीं कर पाई. मंजुला ने उस के खाने का आर्डर दे दिया. फिर उसे अपने नर्सिंग होम के आरामदायक गेस्ट हाउस में ही ठहर जाने का आग्रह किया.

मुकेश ने अपने घर टेलीफोन कर दिया कि एक आवश्यक काम के सिलसिले में उसे रात में रुकना पड़ा है. मुकेश मंजुला के आग्रह को नहीं ठुकरा पाने के कारण नर्सिंग होम के गेस्ट रूम में आराम करने के इरादे से रुक गया. खाना खाने के बाद मुकेश को ‘गुडनाइट’ कह कर मंजुला अपने निकटवर्ती आवास में आराम करने चली गई. मुकेश ने बत्ती बुझा कर थोड़ी झपकियां ही ली थीं कि उस के दरवाजे पर हलकी दस्तक हुई. उस ने अंदर से ही पूछा, ‘कौन?’

‘मैं हूं, मंजुला.’

इस आवाज ने उसे चौंका दिया. मुकेश ने दरवाजा खोला और बत्ती जला दी. मुकेश विस्मित सा मंजुला को सिर से पांव तक निहारता ही रह गया. कांधे तक लहराते गेसुओं और मंजुला की आकर्षक देहयष्टि को एक पारदर्शी नाइटी में देख कर कोई भी होता तो घबरा जाता. मंजुला कमरे की धीमी रोशनी में साक्षात सौंदर्य की प्रतिमा लग रही थी और उस के अंगअंग से रूप की मदिरा छलक रही थी. फिर भी अपने ऊपर संयम का आवरण ओढ़े मुकेश ने धीमे स्वर में पूछा, ‘इतनी रात गए? क्या बात है?’

मंजुला ने उबासियां लेते हुए अंगड़ाई ली तो उस के मादक यौवन में एक तरह का खुला आमंत्रण था जो कह रहा था कि मुकेश, अपनी बांहों में मुझे थाम लो. वह पुरुष था, एक औरत के खुले आमंत्रण को कैसे ठुकरा सकता था, वह भी उसे जिसे वह दिल से चाहता है.

मुकेश अपने को रोक न सका और मंजुला को अपनी बांहों में लेते हुए उस के लरजते होंठों पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. मंजुला तो मानो किसी दूसरी दुनिया में तिर रही थी. एक औरत के लिए पुरुष का यह पहला एहसास था. बंद आंखों से उस ने भी अपनी बांहों के घेरे में मुकेश को कस लिया और यौवन का ऐसा ज्वार आया कि दोनों एकदूसरे में खो गए.

इस सुखद एहसास की पुनरावृत्ति मंजुला के जीवन में दोबारा नहीं हो सकी क्योंकि घटनाओं का सिलसिला ऐसा चला कि मुकेश का तबादला दूसरे शहर के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कालिज में हो गया. मंजुला के जीवन में वह मादक क्षण और वह मधुर रात अतीत का एक स्वप्न बन कर रह गई. तभी फोन की घंटी बजी तो वह सपनों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गई. फोन उठाया तो दूसरी ओर से उस की नौकरानी थी जो अभी तक घर न पहुंचने पर चिंता जता रही थी.

डा. मंजुला अपनी इजीचेयर से उठीं. घड़ी पर नजर डाली तो आधी रात हो चुकी थी. वह सधे कदमों से निवास की ओर चल दीं. थके हुए तनमन के साथ थोड़ा सा खाना खा कर वह कब नींद के आगोश में समा गईं, होश ही नहीं रहा. दूसरे दिन जब दिन चढ़ आया तब मंजुला की नींद खुली. बाथरूम में से निकल कर हलका सा बे्रकफास्ट लिया और अपने नर्सिंग होम के कामों को पूरा करने में जुट गईं.

मंजुला को अपने काम के सिलसिले में नैनीताल जाना पड़ा. 2 दिनों तक तो वह काम को पूरा करने में लगी रहीं. काम खत्म हुआ तो मंजुला प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर इस पहाड़ी शहर का आनंद लेने निकली थीं. वह अपनी वातानुकूलित गाड़ी में बैठी शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने में खोई थीं कि एक जगह जा कर उन की नजर ठहर गई. उन्होंने गाड़ी रोक कर पास जा कर देखा तो वह मुकेश ही था. दाढ़ी बढ़ी हुई और नंगे पांव पैदल ही वह भीमताल की सड़कों पर जा रहा था. मंजुला ने गाड़ी एकदम उस के बगल में जा कर रोकी और गाड़ी से सिर निकाल कर बोलीं, ‘‘अरे, मुकेश, तुम यहां कैसे? कब आए? ह्वाट ए प्लिजेंट सरप्राइज?’’ कई प्रश्न एकसाथ मंजुला ने कर डाले.

मुकेश मूक ही बना रहा तो मंजुला ने ही चहक कर कहा, ‘‘आओ, गाड़ी में बैठो. अरे, मेरी बगल ही में बैठो भाई. मैं अच्छी ड्राइविंग करती हूं, घबराओ नहीं.’’

मुकेश को ले कर मंजुला अपने होटल वापस आ गईं और वहां के खुशनुमा माहौल में उसे बिठा कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या लोगे? चाय, कौफी या डिनर. खैर, अभी तो मैं गरमागरम कौफी और पकौडे़ मंगवाती हूं.’’

मुकेश ने कौफी में उस का साथ देते हुए अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘‘मंजुला, मेरी यह दशा देख कर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा पर यह वक्त की मार है जो मैं अकेले यहां झेल रहा हूं. यहां आने के कुछ महीनों बाद मां की मृत्यु हो गई. पत्नी चंचला पिछले साल ब्रेनफीवर की बीमारी से चल बसी. जीवन की इस त्रासदी को अकेले झेल रहा हूं,’’ अपनी कहानी बतातेबताते मुकेश की आंखें भर आई थीं. उस की दुखद कहानी सुन कर मंजुला भी दुखित हो उठी थी.

मुकेश चलने के लिए उठा तो मंजुला ने उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे बिठा लिया फिर याचना भरे स्वर में बोलीं, ‘‘इतने दिनों बाद मिले हो तो कम से कम आज तो साथ में बैठ कर खाना खा लो, फिर जहां जाना है चले जाना.’’

थोड़ी देर बाद ही होटल के कमरे में खाना आ गया. दोनों आमनेसामने बैठ कर खाना खा रहे थे. मंजुला ने मुकेश की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘मुकेश, मुझ से शादी करोगे?’’

मुकेश की आंखों से दो बूंद आंसू मोती बन कर टपक पड़े.

‘‘मंजुला, तुम ने इतनी प्रतीक्षा क्यों कराई? काश, तुम मेरे जीवन में पहली किरण बन कर आ जातीं तो जीवन में इतना भटकाव तो न आता.’’ इन शब्दों को सुनने के बाद मंजुला ने मुकेश के दोनों हाथों को जोर से जकड़ लिया और उस के कांधे पर सिर रख कर मंदमंद मुसकराने लगीं.

हम दिल दे चुके सनम : देवर को लेकर शिखा की बेचानी

शिखा को नीचे से ऊपर तक प्रशंसा भरी नजरों से देखने के बाद रवि ऊंचे स्वर में सविता से बोला, ‘‘भाभी, आप की बहन सुंदर तो है, पर आप से ज्यादा नहीं.’’

‘‘गलत बोल रहा है मेरा भाई,’’ राकेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, यह तो सविता से कहीं ज्यादा खूबसूरत है.’’

‘‘लगता है शिखा को देख कर देवरजी की आंखें चौंधिया गई हैं,’’ सविता ने रवि को छेड़ा.

‘‘भाभी, उलटे मेरी स्मार्टनैस ने शिखा को जबरदस्त ‘शाक’ लगाया है. देखो, कैसे आंखें फाड़फाड़ कर मुझे देखे जा रही है,’’ रवि ने बड़ी अकड़ के साथ अपनी कमीज का कालर ऊपर किया.

जवाब में शिखा पहले मुसकराई और फिर बोली, ‘‘जनाब, आप अपने बारे में काफी गलतफहमियां पाले हुए हैं. चिडि़याघर में लोग आंखें फाड़फाड़ कर अजीबोगरीब जानवरों को उन की स्मार्टनैस के कारण थोड़े ही देखते हैं.’’

‘‘वैरीगुड, साली साहिबा. बिलकुल सही जवाब दिया तुम ने,’’ राकेश तालियां बजाने लगा.

‘‘शिखा, गलत बात मुंह से न निकाल,’’ अपनी मुसकराहट को काबू में रखने की कोशिश करते हुए सावित्री ने अपनी छोटी बेटी को हलका सा डांटा.

‘‘आंटी, डांटिए मत अपनी भोली बेटी को. मैं ने जरा कम तारीफ की, इसलिए नाराज हो गई है.’’

‘‘गलतफहमियां पालने में माहिर लगते हैं आप तो,’’ शिखा ने रवि का मजाक उड़ाया.

‘‘आई लाइक इट, भाभी,’’ रवि सविता की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘हंसीमजाक करना जानती है आप की मिर्च सी तीखी यह बहन.’’

‘‘तुम्हें पसंद आई है शिखा?’’ सविता ने हलकेफुलके अंदाज में सब से महत्त्वपूर्ण सवाल पूछा.

‘‘चलेगी,’’ रवि लापरवाही से बोला, ‘‘आप लोग चाहें तो घोड़ी और बैंडबाजे वालों को ऐडवांस दे सकते हैं.’’

‘‘एक और गलतफहमी पैदा कर ली आप ने. कमाल के इंसान हैं आप भी,’’ शिखा ने मुंह बिगाड़ कर जवाब दिया और फिर हंस पड़ी.

‘‘भाभी, आप की बहन शरमा कर ऐसी बातें कर रही है. वैसे तो अपने सपनों के राजकुमार को सामने देख कर मन में लड्डू फूट रहे होंगे,’’ रवि ने फिर कालर खड़ा किया.

‘‘इन का रोग लाइलाज लगता है, जीजू. इन्हें शीशे के सामने ज्यादा खड़ा नहीं होना चाहिए. मेरी सलाह तो किसी दिमाग के डाक्टर को इन्हें दिखाने की भी है. आप सब मेरी सलाह पर विचार करें, तब तक मैं सब के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ ड्राइंगरूम से हटने के इरादे से शिखा रसोई की तरफ चल पड़ी.

‘‘शर्मोहया के चलते ‘हां’ कहने से चूक गईं तो मैं हाथ से निकल जाऊंगा, शिखा,’’  रवि ने उसे फिर छेड़ा.

जवाब में शिखा ने जीभ दिखाई, तो ठहाकों से कमरा गूंज उठा.

रवि अपनी सविता भाभी का लाड़ला देवर था. उस की अपनी बहन शिखा के सामने प्रशंसा करते सविता की जबान न थकती थी.

अपनी बड़ी बहन सविता की शादी की तीसरी सालगिरह के समारोह में शामिल होने के लिए शिखा अपनी मां सावित्री के साथ दिल्ली आई थी.

सविता का इकलौता इंजीनियर देवर रवि मुंबई में नौकरी कर रहा था. वह भी सप्ताह भर की छुट्टी ले कर दिल्ली पहुंचा था.

सविता और उस के पति राकेश के विशेष आग्रह पर रवि और शिखा दोनों इस समारोह में शामिल हो रहे थे. जब वे पहली बार एकदूसरे के सामने आए, तब सविता, राकेश और सावित्री की नजरें उन्हीं पर जम गईं.

राकेश अपनी साली का बहुत बड़ा प्रशंसक था. वह चाहता था कि शिखा भी उन के घर की बहू बन जाए.

अपने दामाद की इस इच्छा से सावित्री पूरी तरह सहमत थीं. देखेभाले इज्जतदार घर में दूसरी बेटी के पहुंच जाने पर वह पूरी तरह से चिंतामुक्त हो जातीं.

सावित्रीजी, राकेश और सविता को उम्मीद थी कि लड़कालड़की यानी रवि और शिखा इस बार की मुलाकात में उन की पसंद पर अपनी रजामंदी की मुहर जरूर लगा देंगे.

क्या शिखा उसे पसंद आ गई है

रवि ने अपनी बातों व हावभाव से साफ कर दिया कि शिखा उसे पसंद आ गई है. उस का दीवानापन उस की आंखों से साफ झलक रहा था. उस के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि शिखा की ‘हां’ के प्रति उस के मन में कोई शक नहीं है.

अपने भैयाभाभी का लाड़ला रवि शिखा को छेड़ने का कोई मौका नहीं चूक रहा था.

उस दिन शाम को शिखा अपनी बहन का खाना तैयार कराने में हाथ बंटा रही थी, तो रवि भी वहां आ पहुंचा.

‘‘शिखा, मेरी रुचियां भाभी को अच्छी तरह मालूम हैं. वे जो बताएं, उसे ध्यान से सुनना,’’ रवि ने आते ही शिखा को छेड़ना शुरू कर दिया.

‘‘आप को मेरी एक तमन्ना का शायद पता नहीं है,’’ शिखा का स्वर भी फौरन शरारती हो उठा.

‘‘तुम इसी वक्त अपनी तमन्ना बयान करो, शिखा. बंदा उसे जरूरपूरी करेगा.’’

‘‘मैं दुनिया की सब से घटिया कुक बनना चाहती हूं और इसीलिए अपनी मां या दीदी से पाक कला के बारे में कुछ भी सीखने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

‘‘लेकिन यह तो टैंशन वाली बात है. मैं तो अच्छा खानेपीने का बहुत शौकीन हूं.’’

‘‘मैं कब कह रही हूं कि आप इस तरह का शौक न पालिए.’’

‘‘पर तुम अच्छा खाना बनाना सीखोगी नहीं, तो हमारी शादी के बाद मेरा यह शौक पूरा कैसे होगा?’’

‘‘रवि साहब, बातबात पर गलतफहमियां पाल लेने में समझदारी नहीं.’’

‘‘अब शरमाना छोड़ भी दो, शिखा. तुम्हारी मम्मी, भैया, भाभी और मैं इस रिश्ते के लिए तैयार हैं, तो तुम क्यों जबरदस्ती की ‘न’ पर अड़ी हो?’’

‘‘जब लड़की नहीं राजी, तो क्या करेगा लड़का और क्या करेंगे काजी?’’ अपनी इस अदाकारी पर शिखा जोर से हंस पड़ी.

रवि उस से हार मानने को तैयार नहीं था. उस ने और ज्यादा जोरशोर से शिखा को छेड़ना जारी रखा.

अगले दिन सुबह सब ने सविता और राकेश को उन के सुखी वैवाहिक जीवन के लिए शुभकामनाएं दीं. इस दौरान भी रवि और शिखा में मीठी नोकझोंक चलती रही.

अपने असली मनोभावों को शिखा ने उस दिन दोपहर को अपनी मां और दीदी के सामने साफसाफ प्रकट कर दिया.

‘‘देखो, रवि वैसा लड़का नहीं है, जैसा मैं अपने जीवनसाथी के रूप में देखती आई हूं. उस से शादी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है,’’ शिखा ने दृढ़ लहजे में उन्हें अपना फैसला सुना दिया.

‘‘क्या कमी नजर आई है तुझे रवि में?’’ सावित्री ने चिढ़ कर पूछा.

‘‘मां, रवि जैसे दिलफेंक आशिक मैं ने हजारों देखे हैं. सुंदर लड़कियों पर लाइन मारने में कुशल युवकों को मैं अच्छा जीवनसाथी नहीं मानती.’’

‘‘शिखा, रवि के अच्छे चरित्र की गारंटी मैं लेती हूं,’’ सविता ने अपनी बहन को समझाने का प्रयास किया.

‘‘दीदी, आप के सामने वह रहता ही कितने दिन है? पहले बेंगलुरु में पढ़ रहा था और अब मुंबई में नौकरी कर रहा है. उस की असलियत तुम कैसे जान सकती हो?’’

‘‘तुम से तो ज्यादा ही मैं उसे जानती हूं. बिना किसी सुबूत उसे कमजोर चरित्र का मान कर तुम भारी भूल कर रही हो, शिखा.’’

‘‘दीदी मैं उसे कमजोर चरित्र का नहीं मान रही हूं. मैं सिर्फ इतना कह रही हूं कि उस जैसे दिलफेंक व्यक्तित्व वाले लड़के आमतौर पर भरोसेमंद और निभाने वाले नहीं निकलते. फिर जब मैं उसे ज्यादा अच्छी तरह जानतीसमझती नहीं हूं, तो उस से शादी करने को ‘हां’ कैसे कह दूं? आप लोगों ने अगर मुझ पर और दबाव डाला, तो मैं कल ही घर लौट जाऊंगी,’’ शिखा की इस धमकी के बाद उन दोनों ने नाराजगी भरी चुप्पी साध ली.

सविता ने शिखा का फैसला राकेश को बताया, तो राकेश ने कहा, ‘‘उसे इनकार करने का हक है, सविता. इस विषय पर हम बाद में सोचविचार करेंगे. मैं रवि से बात करता हूं. तुम शिखा पर किसी तरह का दबाव डाल कर उस का मूड खराब मत करना.’’

पति के समझाने पर फिर सविता ने इस रिश्ते के बारे में शिखा से एक शब्द भी नहीं बोला.

राकेश ने अकेले में रवि से कहा, ‘‘भाई, शिखा को तुम्हारी छेड़छाड़ अच्छी नहीं लग रही है. उस से अपनी शादी को ले कर हंसीमजाक करना बंद कर दो.’’

‘‘लेकिन भैया, उस से तो मेरी शादी होने ही जा रही है,’’ रवि की आंखों में उलझन और उदासी के मिलेजुले भाव उभरे.

‘‘सोच तो हम भी यही रहे थे, लेकिन अंतिम फैसला तो शिखा का ही माना जाएगा न?’’

‘‘तो क्या उस ने इनकार कर दिया है?’’

‘‘हां, पर तुम दिल छोटा न करना. ऐसे मामलों में जबरदस्ती दबाव बनाना उचित नहीं होता है.’’

‘‘मैं समझता हूं, भैया. शिखा को शिकायत का मौका मैं अब नहीं दूंगा,’’ रवि उदास आवाज में बोला.

शाम को शादी की सालगिरह के समारोह में राकेश के कुछ बहुत करीबी दोस्त सपरिवार आमंत्रित थे. घर के सदस्यों ने उन की आवभगत में कोई कमी नहीं रखी, पर कोई भी खुल कर हंसबोल नहीं पा रहा था.

रवि ने एकांत में शिखा से सिर्फ इतना कहा, ‘‘मैं सचमुच बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार था. मेरी जिन बातों से आप के दिल में दुख और नाराजगी के भाव पैदा हुए, उन सब के लिए मैं माफी मांगता हूं.’’

‘‘मैं आप की किसी बात से दुखी या नाराज नहीं हूं. आप के व मेरे अपनों के अति उत्साह के कारण जो गलतफहमी पैदा हुई, उस का मुझे अफसोस है,’’ शिखा ने मुसकरा कर रवि को सहज करने का प्रयास किया, पर असफल रही, क्योंकि रवि और कुछ बोले बिना उस के पास से हट कर घर आए मेहमानों की देखभाल करने में व्यस्त हो गया. उस के हावभाव देख कर कोई भी समझ सकता था कि वह जबरदस्ती मुसकरा रहा है.

‘इन जनाब की लटकी सूरत सारा दिन देखना मुझ से बरदाश्त नहीं होगा. मां को समझा कर मैं कल की ट्रेन से घर लौटने का इंतजाम करती हूं,’ मन ही मन यह फैसला करने में शिखा को ज्यादा वक्त नहीं लगा, मगर उसे अपनी मां से इस विषय पर बातें करने का मौका ही नहीं मिला और इसी दौरान एक दुर्घटना घटी और सारा माहौल तनावग्रस्त हो गया.

आखिरी मेहमानों को विदा कर के जब सविता लौट रही थी, तो रास्ते में पड़ी ईंट से ठोकर खा कर धड़ाम से गिर गई.

सविता के गर्भ में 6 महीने का शिशु था. काफी इलाज के बाद वह गर्भवती हो पाई थी. गिरने से उस के पेट में तेज चोट लगी थी. चोट से पेट के निचले हिस्से में दर्द शुरू हो गया. कुछ ही देर बाद हलका सा रक्तस्राव हुआ, तो गर्भपात हो जाने का भय सब के होश उड़ा गया.

राकेश और रवि सविता को फौरन नर्सिंगहोम ले गए. सावित्रीजी और शिखा घर पर ही रहीं और कामना कर रही थीं कि कोई और अनहोनी न घटे.

सविता की हालत ठीक नहीं है, गर्भपात हो जाने की संभावना है, यह खबर राकेश ने टेलीफोन द्वारा सावित्रीजी और शिखा को दे दी.

मांबेटी दोनों की आंखों से नींद छूमंतर हो गई. दोनों की आंखें रहरह कर आंसुओं से भीग जातीं.

सुबह 7 बजे के करीब रवि अकेला लौटा. उस की सूजी आंखें साफ दर्शा रही थीं कि वह रात भर जागा भी है और रोया भी.

‘‘सविता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है,’’ यह खबर इन दोनों को सुनाते हुए उस का गला भर आया था.

फिर रवि जल्दी से नहाया और सिर्फ चाय पी कर नर्सिंगहोम लौट गया.

उस के जाने के आधे घंटे बाद राकेश आया तो उस का उदास, थका चेहरा देख कर सावित्रीजी रो पड़ीं.

राकेश बहुत थका हुआ था. वह कुछ देर आराम करने के इरादे से लेटा था, पर गहरी नींद में चला गया. 3-4 घंटों के बाद सावित्रीजी ने उसे उठाया.

नाश्ता करने के बाद सावित्री और राकेश नर्सिंगहोम चले गए. शिखा ने सब के लिए खाना तैयार किया, पर शाम के 5 बजे तक रवि, राकेश या सावित्रीजी में से कोई नहीं लौटा. चिंता के मारे अकेली शिखा का बुरा हाल हो रहा था.

करीब 7 बजे राकेश और सावित्रीजी लौटे. उन्होंने बताया कि रवि 1 मिनट को भी वहां से हटने को तैयार नहीं था.

सुबह से भूखे रवि के लिए राकेश खाना ले गया. फोन पर जब शिखा को अपने जीजा से यह खबर मिली कि रवि ने अभी तक खाना नहीं खाया है और न ही वह आराम करने के लिए रात को घर आएगा, तो उस का मन दुखी भी हुआ और उसे रवि पर तेज गुस्सा भी आया.

खबर इस नजरिए से अच्छी थी कि सविता की हालत और नहीं बिगड़ी थी. उस रात भी रवि और राकेश दोनों नर्सिंगहोम में रुके. शिखा और सावित्रीजी ने सारी रात करवटें बदलते हुए काटी. सुबह सावित्रीजी पहले उठीं. शिखा करीब घंटे भर बाद. उस ने खिड़की से बाहर झांका, तो बरामदे के फर्श पर रवि को अपनी तरफ पीठ किए बैठा पाया.

अचानक रवि के दोनों कंधे अजीब से अंदाज में हिलने लगे. उस ने अपने हाथों से चेहरा ढांप लिया. हलकी सी जो आवाजें शिखा के कानों तक पहुंची, उन्हें सुन कर उसे यह फौरन पता लग गया कि रवि रो रहा है.

बेहद घबराई शिखा दरवाजा खोल कर रवि के पास पहुंची. उस के आने की आहट सुन कर रवि ने पहले आंसू पोंछे और फिर गरदन घुमा कर उस की तरफ देखा.

रवि का थका, मुरझाया चेहरा देख कर शिखा का दिल डर के मारे जोरजोर से धड़कने लगा.

‘‘दीदी की तबीयत…’’ शिखा रोंआसी हो अपना सवाल पूरा न कर पाई.

‘‘भाभी अब ठीक हैं. खतरा टल गया है,’’ रवि ने मुसकराते हुए उसे अच्छी खबर सुनाई.

‘‘तो तुम रो क्यों रहे हो?’’ आंसू बहा रही शिखा का गुस्सा करने का प्रयास रवि को हंसा गया.

‘‘मेरी आंखों में खुशी के आंसू हैं, शिखाजी,’’ रवि ने अचानक फिर आंखों में छलक आए आंसुओं को पोंछा.

‘‘मैं शिखा हूं, ‘शिखाजी’ नहीं,’’  मन में गहरी राहत महसूस करती शिखा उस के बगल में बैठ गई.

‘‘मेरे लिए ‘शिखाजी’ कहना ही उचित है,’’ रवि ने धीमे स्वर में जवाब दिया.

‘‘जी नहीं. आप मुझे शिखा ही बुलाएं,’’ शिखा का स्वर अचानक शरारत से भर उठा, ‘‘और मुझ से नजरें चुराते हुए न बोलें और न ही मैं आप को ठंडी सांसें भरते हुए देखना चाहती हूं.’’

‘‘वह सब मैं जानबूझ कर नहीं कर रहा हूं. तुम्हें दिल से दूर करने में कष्ट तो होगा ही,’’ रवि ने एक और ठंडी सांस भरी.

‘‘वह कोशिश भी छोडि़ए जनाब, क्योंकि मैं अब जान गई हूं कि इस दिलफेंक आशिक का स्वभाव रखने वाले इनसान का दिल बड़ा संवेदनशील है,’’ कह शिखा ने अचानक रवि का हाथ उठा कर चूम लिया.

रवि मारे खुशी के फूला नहीं समाया. फिर अचानक गंभीर दिखने का नाटक करते हुए बोला, ‘‘मेरे मन में अजीब सी बेचैनी पैदा हो गई है, शिखा. सोच रहा हूं कि जो लड़की जरा सी भावुकता के प्रभाव में आ कर लड़के का हाथ फट से चूम ले, उसे जीवनसंगिनी बनाना क्या ठीक होगा?’’

‘‘मुझ पर इन व्यंग्यों का अब कोई असर नहीं होगा, जनाब,’’ शिखा ने एक बार फिर उस का हाथ चूम लिया, ‘‘क्योंकि आप की इस सोच में कोई सचाई नहीं है और…’’

‘‘और क्या?’’ रवि ने उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए पूछा.

‘‘अब तो तुम्हें हम दिल दे ही चुके सनम,’’ शिखा ने अपने दिल की बात कही और फिर शरमा कर रवि के सीने से लग गई.

विरक्ति: उस बूढ़े दंपति में कैसे संक्रमण फैला?

मैं उन से मिलने गया था. पैथोलाजी विभाग के अध्यक्ष और ब्लड बैंक के इंचार्ज डा. कांत खराब मूड में थे, विचलित और विरक्त.

‘‘सब बेमानी है, बकवास है. महज दिखावा और लफ्फाजी है,’’ माइक्रो- स्कोप में स्लाइड देखते हुए वह कहे जा रहे थे, ‘‘सोचता हूं सब छोड़छाड़ कर बच्चों के पास चला जाऊं. बहुत हो गया.’’

‘‘क्या हुआ, सर? क्या हो गया?’’ मैं ने पूछा तो कुछ क्षण चुपचाप माइक्रोस्कोप में देखते रहे, फिर बोले, ‘‘एच.आई.वी., एड्स… ऐसा शोर मचा रखा है जैसे देश में यही एक महामारी है.’’

‘‘सर, खूब फैल रही है. कहते हैं अगर रोकथाम नहीं की गई तो स्थिति भयानक हो जाएगी. महामारी…’’

मेरी बात बीच में ही काटते हुए डा. कांत तल्ख लहजे में बोले, ‘‘महामारी, रोकथाम. क्या रोकथाम कर रहे

हो. पांचसितारा होटल

में कानफ्रेंस, कंडोम वितरण. महामारी तो तुम लोगों के आडंबर और हिपोक्रेसी की है. बड़ी चिंता है लोगों की. इतनी ही चिंता है तो हिपे- टाइटिस बी. के बारे में क्यों नहीं कुछ करते. देश में महामारी हिपे टाइ-टिस बी. की है.

‘‘हजारों लोग हर साल मर रहे हैं, लाखों में संक्रमण है. यह भी तो वैसा ही रक्त प्रसारित, विषाणुजनित रोग है. इस की चिंता क्यों नहीं. असल में चिंता तो विदेशी पैसे और बिलगेट्स की है. एड्स उन की चिंता है तो हमारी चिंता भी है.’’

‘‘क्या हुआ, सर? आज तो आप बहुत नाराज हैं,’’ मैं बोला.

‘‘होना क्या है, तुम लोगों की बकवास सुनतेदेखते तंग आ गया हूं. एच.आई.वी., एड्स, दोनों का एकसाथ ऐसे प्रयोग करते हो जैसे संक्रमण न हुआ दालचावल की खिचड़ी हो गई. क्या दोनों एक ही बात हैं. क्या रोकथाम कर रहे हो? तुम्हें याद है यूनिवर्सिटी वाली उस महिला का केस?’’

‘‘कौन सी, सर? उस अविवाहित महिला का केस जिस ने रक्तदान किया था और जिस का ब्लड एच.आई.वी. पाजिटिव निकला था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वही,’’ डा. कांत बोले.

‘‘उस को कैसे भूल सकते हैं, सर. गुस्से से आगबबूला हो रही थी. हम ने तो उसे गुडफेथ में बुला कर रिजल्ट बताया था वरना कानूनन एच.आई.वी. पोजि-टिव ब्लड को नष्ट करना भर लाजमी होता है. हमारा पेशेंट तो रक्त लेने वाला होता है, देने वाला तो स्वेच्छा से आता है. देने वाले में रोग निदान के लिए तो हम टेस्ट करते नहीं.’’

डा. कांत कुछ नहीं बोले, चुपचाप सुनते रहे.

‘‘वह महिला अविवाहित थी. उस के किसी से यौन संबंध नहीं थे. उस ने कभी रक्त नहीं लिया और न ही किसी प्रकार के इंजेक्शन आदि. इसीलिए तो हम ने उस की प्री टेस्ट काउंसिलिंग कर वेस्टर्न ब्लोट विधि से टेस्ट करवाने की सलाह दी थी. हम ने उसे बता दिया था कि जिस एलिसा विधि से हम टेस्ट करते हैं वह सेंसिटिव होती है, स्पेसिफिक नहीं. उस में फाल्स पाजिटिव होने के चांसेज होते हैं. सब तो समझा दिया था, सर. उस में हम ने क्या गलती की थी?’’

‘‘गलती की बात नहीं. इन टेस्टों के चलते उस महिला को जो मानसिक क्लेश हुआ उस के लिए कौन जिम्मेदार है?’’

‘‘सर, उस के लिए हम क्या कर सकते थे. जीव विज्ञान में कोई भी टेस्ट 100 प्रतिशत तो सही होता नहीं. हर टेस्ट की अपनी क्षमता होती है. हर टेस्ट में फाल्स पाजिटिव या फाल्स निगेटिव होने की संभावना

होती है. सेंसिटिव में फाल्स पाजिटिव और स्पेसिफिक में फाल्स निगेटिव.’’

‘‘बड़ी ज्ञान की बातें कर रहे हो,’’ डा. कांत बोले, ‘‘यह बात आम लोगों को समझाने की जिम्मेदारी किस की है? खुद को उस महिला की जगह, उस की समझ और सोच के हिसाब से रख कर देखो. उसे कितना संताप हुआ होगा. खैर, उसे छोड़ो. उस लड़के की बात करो जो अपनी लिम्फनोड की बायोप्सी ले कर आया था. उस का तो वेस्टर्न ब्लोट टेस्ट भी पाजिटिव आया था. वह तो कनफर्म्ड एच.आई.वी. पाजिटिव था. उस में क्या किया? क्या किया तुम ने रोकथाम के लिए?’’

‘‘वही जवान लड़का न सर, जिस की किसी बाहर के सर्जन ने गले की एक लिम्फनोड निकाल कर भिजवाई थी? जिस लड़के को कभीकभार बुखार, शरीर गिरागिरा रहना और वजन कम होने की शिकायत थी, पर सारे टेस्ट करवाने पर भी कोई रोग नहीं निकला था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वही,’’ डा. कांत बोले, ‘‘याद है तुम्हें, वह बायोप्सी रक्त कैंसर की आरंभिक अवस्था न हो, इस का परीक्षण करवाने आया था. टेस्ट में रक्त कैंसर के लक्षण तो नहीं पाए गए थे, पर उस की लिम्फनोड में ऐसे माइक्रोस्कोपिक चेंजेज थे जो एच.आई.वी. पाजिटिव मामलों में देखने को मिलते हैं.’’

‘‘जी, सर याद है. उस की स्वीकृति ले कर ही हम ने उस का एच.आई.वी. टेस्ट किया था और वह पाजिटिव निकला था. उसे हम ने पाजिटिव टेस्ट के बारे में बताया था. उस की भी हम ने काउंसिलिंग की थी. किसी प्रकार के यौन संबंधों से उस ने इनकार किया था. रक्त लेने, इंजेक्शन, आपरेशन आदि किसी की भी तो हिस्ट्री नहीं थी. हम ने सब समझा कर नियमानुसार ही उसे वैस्टर्न ब्लोट टेस्ट करवाने की सलाह दी थी.’’

‘‘नियमानुसार,’’ बड़े तल्ख लहजे में डा. कांत ने दोहराया, ‘‘जब उस ने आ कर बताया था कि उस का वैस्टर्न ब्लोट टेस्ट भी पाजिटिव है तब तुम ने नियमानुसार क्या किया था? याद है उस ने आ कर माफी मांगी थी. हम से झूठ बोलने के लिए माफी. उस ने बाद में बताया था कि उस की शादी हो चुकी है, गौना होना है. मंगेतर कालिज में पढ़ रही थी. उस ने यौन संबंध न होने का झूठ भी स्वीकारा था. उस ने कहा था वह और उस के कुछ दोस्त एक लड़की के यहां जाते थे, याद है?’’

‘‘जी, सर, अच्छी तरह याद है, भले घर का सीधासादा लड़का था. उस ने सब कुछ साफसाफ बता दिया था. बड़ा घबराया हुआ था. जानना चाहता था कि उस का क्या होगा. हम ने उस की पूरी पोस्ट टेस्ट काउंसिलिंग की थी. बता दिया था उसे, कैसे सुरक्षित जीवन जीना…’’

‘‘नियमानुसार जबानी जमाखर्च हुआ और एड्स की रोकथाम

की जिम्मेदारी

पूरी हो गई,’’

डा. कांत ने बीच में बात काटी.

‘‘और क्या कर सकते थे, सर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जिस लड़की के साथ उस का विवाह हो चुका था और गौना होना था उसे ढूंढ़ कर बताना आवश्यक नहीं था? उस के प्र्रति क्या तुम्हारा दायित्व नहीं था? तुम कौन सा वह केस बता रहे थे जिस में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि अगर आप का कोई रोगी एच.आई.वी. या ऐसे ही किसी संक्रमण से ग्रसित है और वह किसी व्यक्ति को संक्रमण फैला सकता है तो ऐसे व्यक्ति को इस खतरे के बारे में न बताने पर डाक्टर को दोषी माना जाएगा. अगर उस चिह्नित रोगी व्यक्ति को संक्रमण हो जाए तो उस डाक्टर के खिलाफ फौजदारी की काररवाई भी हो सकती है.’’

‘‘जी सर, डा. एक्स बनाम अस्पताल एक्स नाम का मामला था,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां, वही, अजीब नाम था केस का,’’ डा. कांत ने कहना जारी रखा, ‘‘लिम्फनोड वाले लड़के ने अपने दोस्तों के बारे में बताया था. क्या उन दोस्तों को पहचान कर उन का भी एच.आई.वी. टेस्ट करना आवश्यक नहीं था? क्या उस लड़की या वेश्या, जिस के यहां वे जाते थे उसे पहचानना, उस का टेस्ट करना आवश्यक नहीं था? एड्स की रोकथाम के लिए क्या उसे पेशे से हटाना जरूरी नहीं था?’’

‘‘जरूरी तो था, सर, पर नियमों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, और न ही ऐसी कोई व्यवस्था है जिस से हम यह सब कर सकें,’’ मैं ने अपनी मजबूरी बताई.

‘‘तो फिर एड्स की रोकथाम क्या खाक करोगे. बेकार के ढकोसले क्यों करते हो? जो एच.आई.वी. पाजिटिव है उसे बताने की क्या आवश्यकता है. उसे जीने दो अपनी जिंदगी. जब एच.आई.वी. पाजिटिव व्यक्ति एड्स का रोगी हो कर आए तब जो करना हो वह करना.’’

‘‘लेकिन सर,’’ मैं ने कहना शुरू किया तो डा. कांत ने फिर बीच में ही टोक दिया.

‘‘लेकिन दुर्भाग्य तो यह है कि एच.आई.वी. संक्रमण, वेश्या के पास जाने या यौन संबंधों से ही नहीं, किसी शरीफ आदमी और महिला को चिकित्सा प्रक्रिया से भी हो सकता है,’’ वह बोले.

‘‘हां, सर, एच.आई.वी. संक्रमण होने के तुरंत बाद जिसे हम विंडो पीरियड कहते हैं, ब्लड टेस्ट पाजिटिव नहीं आता. लेकिन ऐसा व्यक्ति अगर रक्तदान करे तो उस से रक्त पाने वाले को संक्रमण हो सकता है.’’

सुन कर डा. कांत बोले, ‘‘मैं इस चिकित्सा प्रक्रिया की बात नहीं कर रहा. ऐसा न हो उस के पूरे प्रयास किए जाते हैं, जिस केस को ले कर मुझे ग्लानि विरक्ति और अपनेआप को दोषी मान कर क्षोभ हो रहा है और जिसे ले कर मैं सबकुछ छोड़ने की बात कर रहा हूं, वह कुछ और ही है.’’

मैं कुछ बोला नहीं. चुपचाप उन के बताने का इंतजार करता रहा. अवश्य ही कोई खास बात होगी जिस ने डा. कांत जैसे वरिष्ठ चिकित्सक को इतना विचलित कर दिया कि वह सबकुछ छोड़ने की सोच रहे हैं.

काफी देर चुप रहने के बाद बड़ी संजीदगी से लरजती आवाज में वह बोले, ‘‘कल देर रात घर आए थे, मियांबीवी दोनों. काफी बुजुर्ग हैं. रिटायर हुए भी 15 साल हो चुके हैं. बेटेपोतों के भरे परिवार के साथ रहते हैं.

‘‘कहने लगे, दोनों सोच रहे हैं कहीं जा कर चुपके से आत्महत्या कर लें क्योंकि एच.आई.वी पाजिटिव होना बता कर मैं ने उन्हें किसी लायक नहीं रखा है. मैं ने उन्हें किसलिए बताया कि वे एच.आई.वी. पाजिटिव हैं. उन दोनों का किसी से यौन संबंध नहीं हो सकता और न ही रक्तदान करने की उन की उम्र है. फिर उन से संक्रमण होने का किसे खतरा था जो मैं ने उन्हें एच.आई.वी. पाजिटिव होने के बारे में बताया? जब एच.आई.वी. का निदान कर कुछ किया ही नहीं जा सकता तो फिर बताया किसलिए? वे कैसे सहन करेंगे, अपने बच्चों, पोतों का बदला हुआ रुख जब उन्हें मालूम होगा. उन को संक्रमण का कोई खतरा नहीं है पर अज्ञात का भय, जब बच्चे उन के पास आने से कतराएंगे. कहने लगे, उचित यही होगा कि नींद की गोलियां खा कर जीवन समाप्त कर लें.’’

कहतेकहते डा. कांत चुप हो गए तो मैं ने कहा, ‘‘सर, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा. एड्स संक्रमण ऐसे तो होता नहीं. जब संक्रमण हुआ है तो उसे भुगतना और फेस भी करना ही होगा.’’

जवाब में डा. कांत ने कहा, ‘‘मेरी भी समझ में नहीं आया था कि उन्हें संक्रमण हुआ कैसे. मैं उन्हें अरसे से बहुत नजदीक से जानता हूं. घनिष्ठ घरेलू संबंध हैं. बड़ा साफसुथरा जीवन रहा है उन का. किसी प्रकार के बाहरी यौन संबंधों का सवाल ही नहीं उठता और उन का विश्वास करने का भी कोई कारण नहीं.

‘‘जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं था कि जिस से चाहेअनचाहे एच.आई.वी. संक्रमण हो सकता. सब पूछा था, काफी चर्चा हुई. वे बारबार मुझ से ही पूछते थे कि फिर कैसे हो गया संक्रमण. अंत में उन्होंने मुझे बताया कि वे डायबिटीज के रोगी अवश्य हैं. उन्हें इंसुलिन या अन्य इंजेक्शन तो कभी लेने नहीं पड़े पर वे नियमित रूप से टेस्ट करवाने एक प्राइवेट लैब में जाते थे. उन्होंने बताया, उस लैब में उंगली से ब्लड एक प्लंजर से लेते थे. दूसरे रोगियों में भी वही प्लंजर काम में लिया जाता था.

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‘‘क्या उस से उन को संक्रमण हुआ है, क्योंकि इस के अलावा तो उन्होंने कभी कोई इंजेक्शन नहीं लिए. जब मैं ने बताया कि यह संभव है तो उन्होंने कहा कि इस लैब के खिलाफ काररवाई क्यों नहीं करते? लैब को ऐसा करने से रोका क्यों नहीं गया? जो उन्हें हुआ है वह दूसरे मासूम लोगों को भी हो सकता है या हुआ होगा.’’

कुछ पल शांत रह कर वह फिर बोले, ‘‘और मैं सोच रहा था कि आत्महत्या उन्हें करनी चाहिए या मुझे? क्या लाभ है ऐसे रोगों का निदान करने में जिन का इलाज नहीं कर सकते और जिन की रोकथाम हम करते नहीं. महज ऐसे रोेगियों का जीना दुश्वार करने से लाभ? क्या सोचते होंगे वे लोग जिन का निदान कर मैं ने जीना दूभर कर दिया?’’        द्य

भटका हुआ आदमी : अजंता देवी की मनकही

आटा सने हाथों से ही अजंता देवी ने दरवाजा खोला. तब तक डाकिया एक नीला लिफाफा दरवाजे की दरार से गिरा चुका था. लिफाफे पर किए गए टेढ़ेमेढ़े हस्ताक्षर को एक क्षण वह अपनी उदास निगाहों से घूरती रही. पहचान की एक क्षीण रेखा उभरी, पर कोई आधार न मिलने के कारण उस लिखावट में ही उलझ कर रह गई. लिफाफे को वहीं पास रखी मेज पर छोड़ कर वह चपातियां बनाने रसोईघर में चली गई.

अब 1-2 घंटे में राहुल और रत्ना दोनों आते ही होंगे. कालिज से आते ही दोनों को भूख लगी होगी और ‘मांमां’ कर के वे उस का आंचल पकड़ कर घूमते ही रह जाएंगे. मातृत्व की एक सुखद तृप्ति से उस का मन सराबोर हो गया. चपाती डब्बे में बंद कर, वह जल्दीजल्दी हाथ धो कर चिट्ठी पढ़ने के लिए आ खड़ी हुई.

पत्र उस के ही नाम का था, जिस के कारण वह और भी परेशान हो उठी. उसे पत्र कौन लिखता? भूलेभटके रिश्तेदार कभी हालचाल पूछ लेते. नहीं तो राहुल के बड़े हो जाने के बाद रोजाना की समस्याओं से संबंधित पत्र उसी के नाम से आते हैं, लेदे कर पुरुष के नाम पर वही तो एक है.

मर्द का साया तो वर्षों पहले उस के सिर पर से हट गया था. खैर, ये सब बातें सोच कर भी क्या होगा? फिर से उस ने लिफाफे को उठा लिया और डरतेडरते उस का किनारा फाड़ा. पत्र के खुलते ही काले अक्षरों में लिखे गए शब्द रेतीली मिट्टी की तरह उस की आंखों के आगे बिखर गए. इतने वर्षों के बाद यह आमंत्रण. ‘‘मेरे पास कोई भी नहीं है, तुम आ जाओ.’’ और भी कितनी सारी बातें. अचानक रुलाई को रोकने के लिए उस ने मुंह में कपड़ा ठूंस लिया, पर आंसू थे कि बरसों रुके बांध को तोड़ कर उन्मुक्त प्रवाहित होते जा रहे थे. उस खारे जल की कुछ बूंदें उस के मुख पर पड़ रही थीं, जिस के मध्य वह बिखरी हुई यादों के मनके पिरो रही थी. उसे लग रहा था कि वह नदी में सूख कर उभर आए किसी रेतीले टीले पर खड़ी है. किसी भी क्षण नदी का बहाव आएगा और वह बेसहारा तिनके की तरह बह जाएगी.

चिट्ठी कब उस के हाथ से छूट गई, उसे पता ही नहीं चला और वह जाल में फंसी घायल हिरनी की तरह हांफती रही. अभी राहुल, रत्ना भी तो नहीं आएंगे. डेढ़ घंटे की देर है. घड़ी की सूइयां भी उस की जिंदगी सी ठहर गई हैं. चलतेचलते घिस गई हैं. एक दमघोंटू चुप्पी पूरे कमरे में सिसक रही थी. मात्र उसे यदाकदा अपनी धड़कनों की आवाज सुनाई दे जाती थी, जिन में विलीन कितनी ही यादें उस के दिल के टुकड़े कर जाती थीं.

जब वह इस घर में दुलहन बन कर आई थी, सास ने बलैया ली थीं. ननदों और देवरों की हंसीठिठोली से घरआंगन महक उठा था. वह निहाल थी अपने गृहस्थ जीवन पर. शादी के बाद 3 ही वर्षों में राहुल और रत्ना से उस का घर खिलखिला उठा था. उसे मायके गए 2 वर्ष हो गए थे. मां की आंखें इंतजार में पथरा गईं. कभी राहुल का जन्मदिन है तो कभी रत्ना की पढ़ाई. कभी सास की बीमारी है, तो कभी देवर की पढ़ाई. सच पूछो तो उसे अपने पति को छोड़ कर जाने की इच्छा ही नहीं होती. उन की बलवान बांहों में आ कर उसे अनिर्वचनीय आनंद मिलता. उस का तनमन मोगरे के फूलों की तरह महक उठता.

भाभी ही कभी ठिठोली भरा पत्र लिखतीं, ‘क्यों दीदी, अब क्या ननदोई के बिना एक रात भी नहीं सो सकतीं.’ वह होंठों के कोनों में हंस कर रह जाती.

सास कभीकभी मीठी झिड़की देतीं, ‘एक बार मायके हो आओ बहू, नहीं तो तुम्हारी मां कहेगी कि बूढ़ी अपनी सेवा कराने के लिए हमारी बेटी को भेज नहीं रही है.’

वह हंस कर कहती, ‘अम्मां, चली तो जाऊं पर तुम्हें कौन देखेगा? देवरजी का ब्याह कर दो तब साल भर मायके रह कर एक ही बार में मां का हौसला पूरा कर दूंगी.’

रात को राहुल के पिताजी ने भावभीने कंठ से कहा, ‘अंजु, साल भर मायके रहोगी तो मेरा क्या होगा? मैं तो नौकरी छोड़ कर तुम्हारे ही साथ चला चलूंगा.’

उन के मधुर हास्य में पति प्रेम का अभिमान भी मिला होता. पर उसे क्या पता था कि एक दिन यह सबकुछ रेतीली मिट्टी की तरह बिखर जाएगा. राहुल के पिताजी के तबादले की सूचना दूसरे ही दिन मिल गई थी. उन्होंने बहुत कोशिश की कि उन का तबादला रुक जाए पर कुछ भी नहीं हो सका. आखिर उन्हें कोलकाता जाना ही पड़ा.

जाने के बाद कुछ दिनों तक लगातार उन के पत्र आते रहे. सप्ताह में 2-2, 3-3. मां ने कई बार लिखा, अब तो जंवाई भी नहीं हैं, इधर ही आजा, अकेली का कैसे दिल लगेगा? वह लिखती, ‘अम्मां अकेली कहां हूं, सास हैं, देवर हैं. अब तो मेरी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है. मेरे सिवा कौन देखेगा इन्हें,’ फिर भरोसा था कि राहुल के पिताजी शीघ्र ही बुला लेंगे.

धीरेधीरे सबकुछ खंडित हो गया, उन के विश्वास की तरह. लिफाफे से अंतर्देशीय, फिर पोस्टकार्ड और तब एक लंबा अंतराल. पत्र भी बाजार भाव की तरह महंगे हो गए थे. बच गए थे मात्र उस के सुलगते हुए अरमान. सास, देवर का रवैया भी अब सहानुभूतिपूर्ण नहीं रह गया था.

बीच में यह खबर भी लावे की तरह भभकी थी कि राहुल के पिताजी ने किसी बंगालिन को रख लिया है. पहले उसे यकीन नहीं आया था, पर देवर के साथ जा कर उस ने जब अपनी आंखों से देख लिया तो बरसों से ठंडी पड़ी भावनाएं राख में छिपी चिनगारी की तरह सुलग कर धुआं देने लगीं. भावावेश में उस का कंठ अवरुद्ध हो गया. हाथपैर कांप उठे. उस ने राहुल के पिता के आगे हाथ जोड़ दिए.

‘मेरी छोड़ो, इन बच्चों की तो सोचो, जिन्हें तुम ने जन्म दिया है. कहां ले कर जाऊंगी मैं इन्हें,’ आगे की बात उस की रुलाई में ही डूब गई.

जवाब उस के पति ने नहीं, उस सौत ने ही दिया था, ‘एई हियां पर काय को रोनाधोना कोरता है. जब मरद को सुखमौज नहीं दे सोकता तो काहे को बीवी. खली बच्चा पोइदा कोरने से कुछ नहीं होता, समझी. अब जाओ हियां से, जियादे नखरे नहीं देखाओ.’

वह एक क्षण उसे नजर भर कर देखती रही. सांवले से चेहरे पर बड़ा गोल टीका, पूरी मांग में सिंदूर, पैरों में आलता और उंगलियों में बिछुआ…उस में कौन सी कमी है. वह भी तो पूरी सुहागिन है. मगर वह भूल गई कि उस के पास एक चीज नहीं है, पति का प्यार. पर कहां कमी रह गई उस के प्यार में, पूरे घर को संभाल कर रखा उस ने. उसी का यह प्रतिफल है.

हताश सी उस की आत्मा ने फिर से संघर्ष चालू किया, ‘मैं तुम से नहीं अपने पति से पूछ रही हूं.’

‘ओय होय, कौन सा पति, वो हमारा होय. पाहीले तो बांध के रखा नहीं, अभी उस को ढूंढ़ने को आया. खाली बिहाय करने से नाहीं होता, मालूम होना चाहिए कि मरद क्या मांगता है. अब जाओ भी,’ कहतेकहते उस ने धक्का दे दिया.

रत्ना भी गिर कर चिल्लाने लगी. उसे अपनेआप पर क्षोभ हुआ. काश, वह इतनी बड़ी होती कि पति को छोड़ कर चल देती या वह इतने निम्न स्तर की होती कि इस औरत को गालियां दे कर उस का मुंह बंद कर देती और उस की चुटिया पकड़ कर घर से बाहर कर देती, पर अब तो बाजी किसी और के हाथ थी.

लेकिन उस के देवर से नहीं रहा गया. बच्चों को पकड़ कर उस ने कहा, ‘बोलो भैया, क्या कहते हो? अगर भाभी से नाता तोड़ा तो समझ लो हम से भी नाता टूट जाएगा. तुम्हें हम से संबंध रखना है कि नहीं? भैया, चलो हमारे साथ.’

‘मेरा किसी से कोई संबंध नहीं.’

दिसंबर की ठिठुरती सांझ सा वह संवेदनशील वाक्य उस की पूरी छाती बींध गया था. अचेत हो गई थी वह. होश आया तो देवर उस के सिरहाने बैठा था और दोनों बच्चे निरीह गौरैया से सहमे हुए उसे देख रहे थे.

‘अब चलो, भाभी, यहां रह कर क्या करोगी? तुम जरा भी चिंता मत करो, हम लोग हैं न तुम्हारे साथ. और फिर देखना, कुछ ही दिनों में भैया वापस आएंगे.’

बिना किसी प्रतिक्रिया के वह लौट आई. पर इसी एक घटना से उस की पूरी जिंदगी में बदलाव आ गया. कुछ दिनों तक तो घर वालों का रवैया अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रहा. सास कुछ ज्यादा ही लाड़ दिखाने लगी थीं, पर एक कमाऊ पूत का बिछोह उन को साले जा रहा था.

देवर की नौकरी लगते ही देवर की भी आंखें बदलने लगी थीं. न तो सास के हाथों में दुलार ही रह गया था और न देवर की बोली में प्यार. बच्चे उपेक्षित होने लगे थे. देवर की शादी के बाद वह भी घर की नौकरानी बन कर रह गई थी. अपनी उपेक्षा तो वह सह भी लेती पर दिन पर दिन बिगड़ते हुए बच्चों को देख कर उस का मन ग्लानि से भर उठता. आखिर कब तक वह इन बातों को सह सकती थी. मां के ढेर सारे पत्रों के उत्तर में वह एक दिन बच्चों के साथ स्वयं ही वहां पहुंच गई.

वर्षों से बंधा धीरज का बांध टूट कर रह गया और दोनों उस अविरल बहती अजस्र धारा में बहुत देर तक डूबतीउतराती रही थीं. मां ने कुम्हलाए हुए चेहरे पर एक नजर डाल कर कहा था, ‘जो हो गया उसे भूल जा, अब इन बच्चों का मुंह देख.’

पर मां के यहां भी वह बात नहीं रह गई थी. पिताजी की पेंशन से तो गुजारा होने से रहा. भैयाभाभी मुंह से तो कुछ नहीं बोलते पर उसे लगता कि उस सीमित आय में उस का भार उन्हें पसंद नहीं. तब उस ने ही मां के सामने प्रस्ताव रखा था कि वह कहीं नौकरी कर लेगी.

मां पहले तो नहीं मानी थीं, ‘लोग क्या कहेंगे, बेटी क्या मायके में भारी पड़ गई?’

पर उस ने ही उन्हें समझाया था, ‘मां, छोटीछोटी आवश्यकताओं के लिए भैया पर निर्भर रहना अच्छा नहीं लगता. कल बच्चे बड़े होंगे तो क्या उन्हें भैया के दरवाजे का भिखारी बना कर रखूंगी.’

मां ने बेमन से ही उसे अनुमति दी थी. कहांकहां उस ने पापड़ नहीं बेले. कभी नगरपालिका में क्लर्क बनी, तो कभी किसी की छुट्टी की जगह काम किया. अंत में जा कर मिडिल स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली. छोेटे बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते बच्चे कब बडे़ हो गए, उसे पता ही नहीं चला. और आज तो इस स्थिति में आ गई है कि अब राहुल चार पैसे का आदमी हो जाएगा तो वह नौकरी छोड़ कर निश्चिंत हो जाएगी. हालांकि आज भी वह आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं हो सकी है, लेकिन किसी का सहारा भी तो नहीं लेना पड़ा.

पर आज यह पत्र, वह क्या जा पाएगी वहां? इतने वर्षों का अंतराल?

राहुल के आने के बाद ही उस की तंद्रा टूटी. वह पत्थर की मूर्ति की तरह थी. उसे झकझोरते हुए राहुल ने चिट्ठी लपक ली.

‘‘मां, तुम्हें क्या हो गया है?’’

‘‘बेटे,’’ और वह राहुल का कंधा पकड़ कर रोने लगी, ‘‘मैं क्या करूं?’’

‘‘मां, तुम वहां नहीं जाओगी.’’

‘‘राहुल.’’

‘‘हां मां, उस आदमी के पास जिस ने आज तक यह जानने की जुर्रत नहीं की कि हम लोग कैसे जीते हैं. तुम ने कितनी मेहनत से हमें पाला है. तुम्हें न सही पर हमें क्यों छोड़ दिया? मां, तुम अगर समझती हो कि हम लोग बुढ़ापे में तुम्हारा साथ छोड़ देंगे तो विश्वास रखो, ऐसा कभी नहीं होगा. मैं शादी ही नहीं करूंगा. मां, तुम उन्हें बर्दाश्त कर सकती हो, क्योंकि वे तुम्हारे पति हैं पर हम कैसे बर्दाश्त कर लेंगे उसे, जो सिर्फ नाम का हमारा पिता है? कभी उस ने दायित्व निभाने का सोचा भी नहीं. तुम अगर जाना ही चाहती हो तो जाओ, पर याद रखो, मैं साथ नहीं रह पाऊंगा.’’

उस की आंखों से अनवरत बहते आंसुओं ने पत्र के अक्षरों को धो दिया और वह राहुल का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई.

हिंदी की दुकान : क्या पूरा हुआ सपना

मेरे रिटायरमेंट का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, एक ही चिंता सताए जा रही थी कि इतने वर्षों तक बेहद सक्रिय जीवन जीने के बाद घर में बैठ कर दिन गुजारना कितना कष्टप्रद होगा, इस का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. इसी उधेड़बुन में कई महीने बीत गए. एक दिन अचानक याद आया कि चंदू चाचा कुछ दिन पहले ही रिटायर हुए हैं. उन से बात कर के देखा जा सकता है, शायद उन के पास कोई योजना हो जो मेरे भावी जीवन की गति निर्धारित कर सके.

यह सोच कर एक दिन फुरसत निकाल कर उन से मिला और अपनी समस्या उन के सामने रखी, ‘‘चाचा, मेरे रिटायरमेंट का दिन नजदीक आ रहा है. आप के दिमाग में कोई योजना हो तो मेरा मार्गदर्शन करें कि रिटायरमेंट के बाद मैं अपना समय कैसे बिताऊं?’’

मेरी बात सुनते ही चाचा अचानक चहक उठे, ‘‘अरे, तुम ने तो इतने दिन हिंदी की सेवा की है, अब रिटायरमेंट के बाद क्या चिंता करनी है. क्यों नहीं हिंदी की एक दुकान खोल लेते.’’

‘‘हिंदी की दुकान? चाचा, मैं समझा नहीं,’’ मैं ने अचरज से पूछा.

‘‘देखो, आजकल सभी केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों और सार्वजनिक उपक्रमों में हिंदी सेल काम कर रहा है,’’ चाचा बोले, ‘‘सरकार की ओर से इन कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग करने और उसे बढ़ावा देने के लिए तरहतरह के प्रयास किए जा रहे हैं. कार्यालयों के आला अफसर भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं. इन दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारियों को समयसमय पर प्रशिक्षण आदि की जरूरत तो पड़ती ही रहती है और जहां तक हिंदी का सवाल है, यह मामला वैसे ही संवेदनशील है. इसी का लाभ उठाते हुए हिंदी की दुकान खोली जा सकती है. मैं समझता हूं कि यह दुकानदारी अच्छी चलेगी.’’

‘‘तो मुझे इस के लिए क्या करना होगा?’’ मैं ने पूछा.

‘‘करना क्या होगा,’’ चाचा बोले, ‘‘हिंदी के नाम पर एक संस्था खोल लो, जिस में राजभाषा शब्द का प्रयोग हो. जैसे राजभाषा विकास निगम, राजभाषा उन्नयन परिषद, राजभाषा प्रचारप्रसार संगठन आदि.’’

‘‘संस्था का उद्देश्य क्या होगा?’’

‘‘संस्था का उद्देश्य होगा राजभाषा का प्रचारप्रसार, हिंदी का प्रगामी प्रयोग तथा कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन में आने वाली समस्याओं का समाधान. पर वास्तविक उद्देश्य होगा अपनी दुकान को ठीक ढंग से चलाना. इन सब के लिए विभिन्न प्रकार की कार्यशालाओं का आयोजन किया जा सकता है.’’

‘‘चाचा, इन कार्यशालाओं में किनकिन विषय पर चर्चाएं होंगी?’’

‘‘कार्यशालाओं में शामिल किए जाने वाले विषयों में हो सकते हैं :राजभाषा कार्यान्वयन में आने वाली कठिनाइयां और उन का समाधान, वर्तनी का मानकीकरण, अनुवाद के सिद्धांत, व्याकरण एवं भाषा, राजभाषा नीति और उस का संवैधानिक पहलू, संसदीय राजभाषा समिति की प्रश्नावली का भरना आदि.’’

‘‘कार्यशाला कितने दिन की होनी चाहिए?’’ मैं ने अपनी शंका का समाधान किया.

‘‘मेरे खयाल से 2 दिन की करना ठीक रहेगा.’’

‘‘इन कार्यशालाओं में भाग कौन लोग लेंगे?’’

‘‘केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों तथा उपक्रमों के हिंदी अधिकारी, हिंदी अनुवादक, हिंदी सहायक तथा हिंदी अनुभाग से जुड़े तमाम कर्मचारी इन कार्यशालाओं में भाग लेने के पात्र होंगे. इन कार्यालयों के मुख्यालयों एवं निगमित कार्यालयों को परिपत्र भेज कर नामांकन आमंत्रित किए जा सकते हैं.’’

‘‘परंतु उन के वरिष्ठ अधिकारी इन कार्यशालाओं में उन्हें नामांकित करेंगे तब न?’’

‘‘क्यों नहीं करेंगे,’’ चाचा बोले, ‘‘इस के लिए इन कार्यशालाओं में तुम्हें कुछ आकर्षण पैदा करना होगा.’’

मैं आश्चर्य में भर कर बोला, ‘‘आकर्षण?’’

‘‘इन कार्यशालाओं को जहांतहां आयोजित न कर के चुनिंदा स्थानों पर आयोजित करना होगा, जो पर्यटन की दृष्टि से भी मशहूर हों. जैसे शिमला, मनाली, नैनीताल, श्रीनगर, ऊटी, जयपुर, हरिद्वार, मसूरी, गोआ, दार्जिलिंग, पुरी, अंडमान निकोबार आदि. इन स्थानों के भ्रमण का लोभ वरिष्ठ अधिकारी भी संवरण नहीं कर पाएंगे और अपने मातहत कर्मचारियों के साथसाथ वे अपना नाम भी नामांकित करेंगे. इस प्रकार सहभागियों की अच्छी संख्या मिल जाएगी.’’

‘‘इस प्रकार के पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कार्यशालाएं आयोजित करने पर खर्च भी तो आएगा?’’

‘‘खर्च की चिंता तुम्हें थोड़े ही करनी है. अधिकारी स्वयं ही खर्च का अनुमोदन करेंगे/कराएंगे… ऐसे स्थानों पर अच्छे होटलों में आयोजन से माहौल भी अच्छा रहेगा. लोग रुचि ले कर इन कार्यशालाओं में भाग लेंगे. बहुत से सहभागी तो अपने परिवार के साथ आएंगे, क्योंकि कम खर्च में परिवार को लाने का अच्छा मौका उन्हें मिलेगा.’’

‘‘इन कार्यशालाओं के लिए प्रतिव्यक्ति नामांकन के लिए कितना शुल्क निर्धारित किया जाना चाहिए?’’ मैं ने पूछा.

चाचा ने बताया, ‘‘2 दिन की आवासीय कार्यशालाओं का नामांकन शुल्क स्थान के अनुसार 9 से 10 हजार रुपए प्रतिव्यक्ति ठीक रहेगा. जो सहभागी खुद रहने की व्यवस्था कर लेंगे उन्हें गैर आवासीय शुल्क के रूप में 7 से 8 हजार रुपए देने होंगे. जो सहभागी अपने परिवारों के साथ आएंगे उन के लिए 4 से 5 हजार रुपए प्रतिव्यक्ति अदा करने होंगे. इस शुल्क में नाश्ता, चाय, दोपहर का भोजन, शाम की चाय, रात्रि भोजन, स्टेशनरी तथा भ्रमण खर्च शामिल होगा.’’

‘‘लेकिन चाचा, सहभागी अपनेअपने कार्यालयों में इन कार्यशालाओं का औचित्य कैसे साबित करेंगे?’’

‘‘उस के लिए भी समुचित व्यवस्था करनी होगी,’’ चाचा ने समझाया, ‘‘कार्यशाला के अंत में प्रश्नावली का सत्र रखा जाएगा, जिस में प्रथम, द्वितीय, तृतीय के अलावा कम से कम 4-5 सांत्वना पुरस्कार विजेताओं को प्रदान किए जाएंगे. इस में ट्राफी तथा शील्ड भी पुरस्कार विजेताओं को दी जा सकती हैं. जब संबंधित कार्यालय पुरस्कार में मिली इन ट्राफियों को देखेंगे, तो कार्यशाला का औचित्य स्वयं सिद्ध हो जाएगा. विजेता सहभागी अपनेअपने कार्यालयों में कार्यशाला की उपयोगिता एवं उस के औचित्य का गुणगान स्वयं ही करेंगे. इसे और उपयोगी साबित करने के लिए परिपत्र के माध्यम से कार्यशाला में प्रस्तुत किए जाने वाले उपयोगी लेख तथा पोस्टर व प्रचार सामग्री भी मंगाई जा सकती है.’’

‘‘इन कार्यशालाओं के आयोजन की आवृत्ति क्या होगी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वर्ष में कम से कम 2-3 कार्य-शालाएं आयोजित की जा सकती हैं.’’

‘‘कार्यशाला के अतिरिक्त क्या इस में और भी कोई गतिविधि शामिल की जा सकती है?’’

मेरे इस सवाल पर चाचा बताने लगे, ‘‘दुकान को थोड़ा और लाभप्रद बनाने के लिए हिंदी पुस्तकों की एजेंसी ली जा सकती है. आज प्राय: हर कार्यालय में हिंदी पुस्तकालय है. इन पुस्तकालयों को हिंदी पुस्तकों की आपूर्ति की जा सकती है. कार्यशाला में भाग लेने वाले सहभागियों अथवा परिपत्र के माध्यम से पुस्तकों की आपूर्ति की जा सकती है. आजकल पुस्तकों की कीमतें इतनी ज्यादा रखी जाती हैं कि डिस्काउंट देने के बाद भी अच्छी कमाई हो जाती है.’’

‘‘लेकिन चाचा, इस से हिंदी कार्यान्वयन को कितना लाभ मिलेगा?’’

‘‘हिंदी कार्यान्वयन को मारो गोली,’’ चाचा बोले, ‘‘तुम्हारी दुकान चलनी चाहिए. आज लगभग 60 साल का समय बीत गया हिंदी को राजभाषा का दर्जा मिले हुए. किस को चिंता है राजभाषा कार्यान्वयन की? जो कुछ भी हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है वह हिंदी सिनेमा व टेलीविजन की देन है.

‘‘उच्चाधिकारी भी इस दिशा में कहां ईमानदार हैं. जब संसदीय राजभाषा समिति का निरीक्षण होना होता है तब निरीक्षण तक जरूर ये निष्ठा दिखाते हैं, पर उस के बाद फिर वही ढाक के तीन पात. यह राजकाज है, ऐसे ही चलता रहेगा पर तुम्हें इस में मगजमारी करने की क्या जरूरत? अगर और भी 100 साल लगते हैं तो लगने दो. तुम्हारा ध्यान तो अपनी दुकानदारी की ओर होना चाहिए.’’

‘‘अच्छा तो चाचा, अब मैं चलता हूं,’’ मैं बोला, ‘‘आप से बहुत कुछ जानकारी मिली. मुझे उम्मीद है कि आप के अनुभवों का लाभ मैं उठा पाऊंगा. इतनी सारी जानकारियों के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

चंदू चाचा के घर से मैं निकल पड़ा. रास्ते में तरहतरह के विचार मन को उद्वेलित कर रहे थे. हिंदी की स्थिति पर तरस आ रहा था. सोच रहा था और कितने दिन लगेंगे हिंदी को अपनी प्रतिष्ठा व पद हासिल करने में? कितना भला होगा हिंदी का इस प्रकार की दुकानदारी से?

नौटंकीबाज पत्नी : क्या सागर कर पाया खुदकुशी

इसलिए सागर को अपने लिए बागबगीचे पसंद करने और मांसमछली पका लेने वाली पत्नी चाहिए थी. वह चाहता था कि उस की पत्नी घर और खेतीबारी संभालते हुए गांव में रह कर उस के मातापिता की सेवा करे, क्योंकि सागर नौकरी में बिजी रहने के चलते ज्यादा दिनों तक गांव में नहीं ठहर सकता था. ऐसे में उसे ऐसी पत्नी चाहिए थी जो उस का घरबार बखूबी संभाल सके.

आखिरकार, सागर को वैसी ही लड़की पत्नी के रूप में मिल गई, जैसी उसे चाहिए थी. नयना थोड़ी मुंहफट थी, लेकिन खूबसूरत थी. उस ने शादी की पहली रात से ही नखरे और नाटक करना शुरू कर दिया. सुहागरात पर सागर से बहस करते हुए वह बोली, ‘‘तुम अपना स्टैमिना बढ़ाओ. जो सुख मुझे चाहिए, वह नहीं मिल पाया.’’

दरअसल, सागर एक आम आदमी की तरह सैक्स में लीन था, लेकिन वह बहुत जल्दी ही थक गया. इस बात पर नयना उस का जम कर मजाक उड़ाने लगी, लेकिन सागर ने उस की किसी बात को दिल पर नहीं लिया. उसे लगा, समय के साथसाथ पत्नी की यह नासमझी दूर हो जाएगी. छुट्टियां खत्म हो चुकी थीं और उसे मुंबई लौटना था.

नयना ने कहा, ‘‘मुझे इस रेगिस्तान में अकेली छोड़ कर क्यों जा रहे हो?’’

सच कहें तो नयना भी यही चाहती थी कि सागर गांव में न रहे, क्योंकि पति की नजर व दबाव में रहना उसे पसंद नहीं था और न ही उस के रहते वह पति के दोस्तों को अपने जाल में फंसा सकती थी. मायके में उसे बेरोकटोक घूमने की आदत थी, जिस वजह से गांव के लड़के उसे ‘मैना’ कह कर बुलाते थे.

मुंबई पहुंचने के बाद सागर जब भी नयना को फोन करता, उस का फोन बिजी रहता. उसे अकसर कालेज के दोस्तों के फोन आते थे.

लेकिन धीरेधीरे सागर को शक होने लगा कि कहीं नयना अपने बौयफ्रैंड से बात तो नहीं करती है? सागर की मां ने बताया कि नयना घर का कामधंधा छोड़ कर पूरे गांव में आवारा घूमती रहती है.

एक दिन अचानक सागर गांव पहुंच गया. बसस्टैंड पर उतरते ही सागर ने देखा कि नयना मैदान में खड़ी किसी लड़के से बात कर रही थी और कुछ देर बाद उसी की मोटरसाइकिल पर बैठ कर वह चली गई. देखने में वह लड़का कालेज में पढ़ने वाला किसी रईस घर की औलाद लग रहा था. नैना उस से ऐसे चिपक कर बैठी थी, जैसे उस की प्रेमिका हो.

घर पहुंचने के बाद सागर और नैना में जम कर कहासुनी हुई. नैना ने सीधे शब्दों में कह दिया, ‘‘बौयफ्रैंड बनाया है तो क्या हुआ? मुझे यहां अकेला छोड़ कर तुम वहां मुंबई में रहते हो. मैं कब तक यहां ऐसे ही तड़पती रहूंगी? क्या मेरी कोई ख्वाहिश नहीं है? अगर मैं ने अपनी इच्छा पूरी की तो इस में गलत क्या है? तुम खुद नौर्मल हो क्या?’’

‘‘मैं नौर्मल ही हूं. लेकिन तू हवस की भूखी है. फिर से उस मोटरसाइकिल वाले के साथ अगर गई तो घर से निकाल दूंगा,’’ सागर चिल्लाया.

‘‘तुम क्या मुंबई में बिना औरत के रहते हो? तुम्हारे पास भी तो कोई होगी न? ज्यादा बोलोगे तो सब को बता दूंगी कि तुम मुझे जिस्मानी सुख नहीं दे पाते हो, इसलिए मैं दूसरे के पास जाती हूं.’’

यह सुन कर सागर को जैसे बिजली का करंट लग गया. ‘इस नौटंकीबाज, बदतमीज, पराए मर्दों के साथ घूमने वाली औरत को अगर मैं ने यहां से भगा दिया तो यह मेरी झूठी बदनामी कर देगी… और अगर इसे मां के पास छोड़ता हूं तो यह किस के साथ घूम रही होगी, क्या कर रही होगी, यही सब सोच कर मेरा काम में मन नहीं लगेगा,’ यही सोच कर सागर को नींद नहीं आई. वह रातभर सोचता रहा, ‘क्या एक पल में झूठ बोलने, दूसरे पल में हंसने, जोरजोर से चिल्ला कर लोगों को जमा करने, तमाशा करने और धमकी देने वाली यह औरत मेरे ही पल्ले पड़नी थी?’

बहुत देर तक सोचने के बाद सागर के मन में एक विचार आया और बिना किसी वजह से धमकी देने वाली इस नौटंकीबाज पत्नी नयना को उस ने भी धमकी दी, ‘‘नयना, मैं तुझ से परेशान हो कर एक दिन खुदकुशी कर लूंगा और एक सुसाइड नोट लिख कर जाऊंगा कि तुम ने मुझे धोखा दे कर, डराधमका कर और झूठी बदनामी कर के आत्महत्या करने पर मजबूर किया है. किसी को धोखा देना गुनाह है. पुलिस तुझ से पूछताछ करेगी और तेरा असली चेहरा सब के सामने आएगा. तेरे जैसी बदतमीज के लिए जेल का पिंजरा ही ठीक रहेगा.’’

सागर के लिए यह औरत सिर पर टंगी हुई तलवार की तरह थी और उसे रास्ते पर लाने का यही एकमात्र उपाय था. खुदकुशी करने का सागर का यह विचार काम आ गया. यह सुन कर नयना घबरा गई.

‘‘ऐसा कुछ मत करो, मैं बरबाद हो जाऊंगी,’’ कह कर नयना रोने लगी.

इस के बाद सागर ने नयना को मुंबई ले जाने का फैसला किया. उस ने भी घबरा कर जाने के लिए हां कर दी. उस के दोस्त फोन न करें, इसलिए फोन नंबर भी बदल दिया.

अब वे दोनों मुंबई में साथ रहते हैं. नयना भी अपने बरताव में काफी सुधार ले आई है.

बेशरम: गिरधारीलाल शर्मा के बेटों के साथ क्या हु्आ?

पारिवारिक विघटन के इस दौर में जब भी किसी पारिवारिक समस्या का निदान करना होता तो लोग गिरधारीलाल को बुला लाते. न जाने वह किस प्रकार समझाते थे कि लोग उन की बात सुन कर भीतर से इतने प्रभावित हो जाते कि बिगड़ती हुई बात बन जाती.

गिरधारीलाल का सदा से यही कहना रहा था कि जोड़ने में वर्षों लगते हैं और तोड़ने में एक क्षण भी नहीं लगता. संबंध बड़े नाजुक होते हैं. यदि एक बार संबंधों की डोर टूट जाए तो उन्हें जोड़ने में गांठ तो पड़ ही जाती है, उम्र भर की गांठ…..

गिरधारीलाल ने सनातनधर्मी परिवार में जन्म लिया था पर जब उन की विदुषी मां  ने पंडितों के ढकोसले देखे, छुआछूत और धर्म के नाम पर बहुओं पर अत्याचार देखा तो न जाने कैसे वह अपनी एक सहेली के साथ आर्यसमाज पहुंच गईं. वहां पर विद्वानों के व्याख्यान से उन के विकसित मस्तिष्क का और भी विकास हुआ. अब उन्हें जातपांत और ढकोसले से ग्लानि सी महसूस होने लगी और उन्होंने अपनी बहुओं को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने की कला सिखाई. इसी कारण उन का परिवार एक वैदिक परिवार के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था.

आर्ची को अच्छी तरह से याद है कि जब बूआजी को बेटा हुआ था और  उसे ले कर अपने पिता के घर आई थीं तब पता लगातेलगाते हिजड़े भी घर पर आ गए थे. आंगन में आ कर उन्होंने दादाजी के नाम की गुहार लगानी शुरू की और गानेनाचने लगे थे. दादीमां ने उन्हें उन की मांग से भी अधिक दे कर घर से आदर सहित विदा किया था. उन का कहना था कि इन्हें क्यों दुत्कारा जाता है? ये भी तो हाड़मांस के ही बने हुए हैं. इन्हें भी कुदरत ने ही बनाया है, फिर इन का अपमान क्यों?

दादी की यह बात आर्ची के मस्तिष्क में इस प्रकार घर कर गई थी कि जब भी कहीं हिजड़ों को देखती, उस के मन में उन के प्रति सहानुभूति उमड़ आती. वह कभी उन्हें धिक्कार की दृष्टि से नहीं देख पाई. ससुराल में शुरू में तो उसे कुछेक तीखी नजरों का सामना करना पड़ा पर धीरेधीरे सबकुछ सरल, सहज होता गया.

मेरठ में पल कर बड़ी होने वाली आर्ची मुंबई पहुंच गई थी. एकदम भिन्न, खुला वातावरण, तेज रफ्तार की जिंदगी. शादी हो कर दिल्ली गई तब भी उसे माहौल इतना अलग नहीं लगा था जितना मुंबई आने पर. साल में घर के 2 चक्कर लग जाते थे. विवाह के 5 वर्ष बीत जाने पर भी मायके जाने का नाम सुन कर उस के पंख लग जाते.

बहुत खुश थी आर्ची. फटाफट पैकिंग किए जा रही थी. मायके जाना उस के पैरों में बिजलियां भर देता था. आखिर इतनी दूर जो आ गई थी. अपने शहर में होती थी तो सारे त्योहारों में कैसी चटकमटक करती घूमती रहती थी. दादा कहते, ‘अरी आर्ची, जिस दिन तू इस घर से जाएगी घर सूना हो जाएगा.’ ‘क्यों, मैं कहां और क्यों जाऊंगी, दादू? मैं तो यहीं रहूंगी, अपने घर में, आप के पास.’

दादी लाड़ से उसे अपने अंक में भर लेतीं, ‘अरी बिटिया, लड़की का

तो जन्म ही होता है पराए घर जाने के लिए. देख, मैं भी अपने घर से आई हूं, तेरी मम्मी भी अपने घर से आई हैं, तेरी बूआ यहां से गई हैं, अब तेरी बारी आएगी.’

13 वर्षीय आर्ची की समझ में

यह नहीं आ पाता कि जब दादी और मां अपने घर से आई हैं तब यह उन का घर कैसे हो गया. और बूआ अपने घर से गई हैं तो उन का वह घर कैसे हो गया. और अब वह अपने घर से जाएगी…

क्या उधेड़बुन है… आर्ची अपना घर, उन का घर सोचतीसोचती फिर से रस्सी कूदने लगती या फिर किसी सहेली की आवाज से बाहर भाग जाती या कोई भाई आवाज लगा देता, ‘आर्ची, देख तो तेरे लिए क्या लाया हूं.’

इस तरह आर्ची फिर व्यस्त हो जाती. एक भरेपूरे परिवार में रहते हुए आर्ची को कितना लाड़प्यार मिला था वह कभी उसे तोल ही नहीं सकती. उस का मन उस प्यार से भीतर तक भीगा हुआ था. वैसे भी प्यार कहीं तोला जा सकता है क्या? अपने 3 सगे भाई, चाचा के 4 बेटे और सब से छोटी आर्ची.

‘‘क्या बात है भई, बड़ी फास्ट पैकिंग हो रही है,’’ किशोर ने कहा.

‘‘कितना काम पड़ा है. आप भी तो जरा हाथ लगाइए,’’ आर्ची ने पति से कहा.

‘‘भई, मायके आप जा रही हैं और मेहनत हम से करवाएंगी,’’ किशोर आर्ची की खिंचाई करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे.

‘‘हद करते हैं आप भी. आप भी तो जा रहे हैं अपने मायके…’’

‘‘भई, हम तो काम से जा रहे हैं, फिर 2 दिन में लौट भी आएंगे. लंबी छुट्टियां तो आप को मिलती हैं, हमें कहां?’’

किशोर को कंपनी की किसी मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना था सो तय कर लिया गया था कि दिल्ली तक आर्ची भी फ्लाइट से चली जाएगी. दिल्ली में किशोर उसे और बच्चों को टे्रन में बैठा देंगे. मेरठ में कोईर् आ कर उसे उतार लेगा. एक सप्ताह अपने मायके मेरठ रह कर आर्ची 2-3 दिन के लिए ससुराल में दिल्ली आ जाएगी जबकि किशोर को 2 दिन बाद ही वापस आना था. बच्चे छोटे थे अत: इतनी लंबी यात्रा बच्चों के साथ अकेले करना जरा कठिन ही था.

किशोर को दिल्ली एअरपोर्ट पर कंपनी की गाड़ी लेने के लिए आ गई, सो उस ने आर्ची और बच्चों को स्टेशन ले जा कर मेरठ जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया और फोन कर दिया कि आर्ची इतने बजे मेरठ पहुंचेगी. फोन पर डांट भी खानी पड़ी उसे. अरे, भाई, पहले से फोन कर देते तो दिल्ली ही न आ जाता कोई लेने. आजकल के बच्चे भी…दामाद को इस से अधिक कहा भी क्या जा सकताथा.

किशोर ने आर्ची को प्रथम दरजे में बैठाया था और इस बात से संतुष्ट हो गए थे कि उस डब्बे में एक संभ्रांत वृद्धा भी बैठी थी. आर्ची को कुछ हिदायतें दे कर किशोर गाड़ी छूटने पर अपने गंतव्य की ओर निकल गए.

अब आर्ची की अपनी यात्रा प्रारंभहुई थी, जुगनू 2 वर्ष के करीब था और बिटिया एनी अभी केवल 7 माह की थी. डब्बे में बैठी संभ्रांत महिला उसे घूरे जा रही थी.

‘‘कहां जा रही हो बिटिया?’’ वृद्धा ने पूछा.

‘‘जी, मेरठ?’’

‘‘ये तुम्हारे बच्चे हैं?’’

‘‘जी हां,’’ आर्ची को कुछ अजीब सा लगा.

‘‘आप कहां जा रही हैं?’’ उस ने माला फेरती उस महिला से पूछा.

‘‘मेरठ,’’ उस ने छोटा सा उत्तर दिया फिर उसे मानो बेचैनी सी हुई. बोली, ‘‘वे तुम्हारे घर वाले थे?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘रहती कहां हो…मेरठ?’’

‘‘जी नहीं, मुंबई…’’

‘‘तो मेरठ?’’

‘‘मायका है मेरा.’’

‘‘किस जगह?’’

‘‘नंदन में…’’ नंदन मेरठ की एक पौश व बड़ी कालोनी है.

‘‘अरे, वहीं तो हम भी रहते हैं. हम गोल मार्किट के पास रहते हैं, और तुम?’’

‘‘जी, गोल मार्किट से थोड़ा आगे चल कर दाहिनी ओर ‘साकेत’ बंगला है, वहीं.’’

‘‘वह तो गिरधारीलालजी का है,’’ फिर कुछ रुक कर वह वृद्धा बोली, ‘‘तुम उन की पोती तो नहीं हो?’’

‘‘जी हां, मैं उन की पोती ही हूं.’’

‘‘बेटी, तुम तो घर की निकलीं, अरे, मेरे तो उस परिवार से बड़े अच्छे संबंध हैं. कोई लेने आएगा?’’

‘‘जी हां, घर से कोई भी आ जाएगा, भैया, कोई से भी.’’

वृद्धा निश्ंिचत हो माला फेरने लगीं.

‘‘तुम्हारी दादी ने मुझे आर्यसमाज का सदस्य बनवा दिया था. पहले ‘हरे राम’ कहती थी अब ‘हरिओम’ कहने लगी हूं,’’ वह हंसी.

आर्ची मुसकरा कर चुप हो गई.

वृद्धा माला फेरती रही.

गाड़ी की रफ्तार कुछ कम हुई. मुरादनगर आया था. गाड़ी ने पटरी बदली. खटरपटर की आवाज में आर्ची को किसी के दरवाजा पीटने की आवाज आई. उस ने एनी को देखा वह गहरी नींद में सो रही थी. जुगनू भी हाथ में खिलौना लिए नींद के झटके खा रहा था. आर्ची ने उसे भी बर्थ पर लिटा दिया और अपने कूपे से गलियारे में पहुंच कर मुख्यद्वार पर पहुंच गई.

कोई बाहर लटका हुआ था. अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण वह दस्तक दे रहा था. आर्ची ने इधरउधर देखा, उसे कोई दिखाई नहीं दिया. सब अपनेअपने कूपों में बंद थे. आर्ची ने आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया और वह मनुष्य बदहवास सा अंदर आ गया. वृद्धा वहीं से चिल्लाई, ‘‘अरे, क्या कर रही हो? क्यों घुसाए ले रही हो इस मरे बेशरम को, हिजड़ा है.’’

‘‘मांजी, मुझे दूसरे स्टेशन तक ही जाना है, मैं तो गाड़ी धीमी होते ही उतर जाऊंगा, देखो, यहीं दरवाजे के पास बैठ रहा हूं…’’ और वह भीतर से दरवाजा बंद कर वहीं गैलरी में उकड़ूूं बैठ गया.

आर्ची अपने कूपे में आ गई. वृद्धा का मुंह फूल गया था. उस ने आर्ची की ओर से मुंह घुमा कर दूसरी ओर कर लिया और जोरजोर से अपने हाथ की माला घुमाने लगी.

आर्ची को बहुत दुख हुआ. बेचारा गाड़ी से लटक कर गिर जाता तो? कुछ पल बाद ही आर्ची को बाथरूम जाने की जरूरत महसूस हुई. दोनों बच्चे खूब गहरी नींद सो रहे थे.

‘‘मांजी, प्लीज, जरा इन्हें देखेंगी. मैं अभी 2 मिनट में आई,’’ कह कर आर्ची  बाथरूम की ओर गई. उस का कूपा दरवाजे के पास था, अत: गैलरी से निकलते ही थोड़ा मुड़ कर बाथरूम था. जैसे ही आर्ची ने बाथरूम में प्रवेश किया गाड़ी फिर से खटरपटर कर पटरियां बदलने लगी. उसे लगा बच्चे कहीं गिर न पड़ें. जब तक बाथरूम से वह बाहर भागी तब तक गाड़ी स्थिर हो चुकी थी. सीट पर से गिरती हुई एनी को उस ‘बेशरम’ व्यक्ति ने संभाल लिया था.

वृद्धा क्रोधपूर्ण मुद्रा में खूब तेज रफ्तार से माला पर उंगलियां फेर रही थी. जुगनू बेखबर सो रहा था. उस बेशरम व्यक्ति का झुका हुआ एक हाथ जुगनू को संभालने की मुद्रा में उस के पेट पर रखा हुआ था. यह देख कर आर्ची भीतर से भीग उठी. यदि उस ने बच्चे संभाले न होते तो उन्हें गहरी चोट लग सकती थी.

‘‘थैंक्यू…’’ आर्ची ने कहा और एनी को अपनी गोद में ले लिया.

उस बेशरम की आंखों से चमक जैसे अचानक कहीं खो गई. हिचकिचाते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा स्टेशन आ रहा है. बस, 2 मिनट आप की बेटी को गोद में ले लूं?’’

आर्ची ने बिना कुछ कहे एनी को उस की गोद में थमा दिया. वृद्धा के मुंह से ‘हरिओम’ शब्द जोरजोर से बाहर निकलने लगा.

बारबार गोद बदले जाने के कारण एनी कुनमुन करने लगी थी. उस हिजड़े ने एनी को अपने सीने से लगा कर आंखें मूंद लीं तो 2 बूंद आंसू उस की आंखों की कोरों पर चिपक गए. आर्ची ने देखा कैसी तृप्ति फैल गई थी उस के चेहरे पर. एनी को उस की गोदी में देते हुए उस ने कहा, ‘‘यहां गाड़ी धीमी होगी, बस, आप जरा एक मिनट दरवाजा बंद मत करना…’’ और धीमी होती हुईर् गाड़ी से वह नीचे कूद गया. आर्ची ने खुले हुए दरवाजे से देखा, वह भाग कर सामने के टी स्टाल पर गया. वहां से बिस्कुट का एक पैकेट उठाया, भागतेभागते बोला, ‘‘पैसा देता हूं अभी…’’ और पैकेट दरवाजे के पास हाथ लंबा कर आर्ची की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘बहन, इसे अपने बच्चों को जरूर खिलाना.’’

गाड़ी रफ्तार पकड़ रही थी. आर्ची कुछ आगे बढ़ी, उस ने पैकेट पकड़ना चाहा पर गोद में एनी के होने के कारण वह और आगे बढ़ने में झिझक गई और पैकेट हाथ में आतेआते गाड़ी के नीचे जा गिरा. आर्ची का मन धक्क से हो गया. बेबसी से उस ने नजर उठा कर देखा वह ‘बेशरम’ व्यक्ति हाथ हिलाता हुआ अपनी आंखों के आंसू पोंछ रहा था.

आखिरी बाजी: असद अपनी पत्नी की क्यों उपेक्षा करता था

सकीना बानो ने घबरा कर घर के बाहर देखा. दूरदूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था. उस ने दरवाजा बंद कर दिया और लौट कर जोहरा के पास आ गई. जोहरा बिस्तर पर पड़ी प्रसवपीड़ा से तड़प रही थी. कभीकभी उस की कराहटें तीव्र हो जाती थीं. ऐसे में सकीना का कलेजा मुंह को आने लगता. उस से जोहरा की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी.

उसे बारबार असद पर क्रोध आ रहा था. वह कह कर गया था कि शाम तक लौट आएगा, लेकिन रात हो आने पर भी उस का कहीं पता नहीं था. घर में असद ने इतने पैसे भी नहीं छोड़े थे कि वह स्वयं ही किसी डाक्टर को बुला लाती. अब तो यह सोचने के सिवा और कोई चारा नहीं था कि जो कुछ होगा उस से निबटना ही पडे़गा.

तभी अचानक लगा कि दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी है. वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी. दरवाजा खोला, पर बाहर  कोई नहीं था. उसे अपने ऊपर क्रोध आ गया.

जैसेजैसे अंधेरा बढ़ता जा रहा था, उस के हृदय की धड़कनें भी बढ़ती जा रही थीं. असद के न आने पर उस ने मजबूरन पड़ोस के लड़के शमीम को असद को बुलाने भेजा था.

अब तो शमीम को गए भी 1 घंटा बीत चुका था, लेकिन अभी तक न असद का पता था न शमीम का.

बेचैनी से टहलती वह जोहरा के पास पहुंची और बोली, ‘‘सब्र और हिम्मत से काम ले, बेटी, थोड़ी ही देर में असद आ जाएगा.’’

‘‘अम्मी,’’ जोहरा तड़प उठी, ‘‘मुझे यकीन है, वह आज भी नहीं आएंगे. कहीं जुआ खेलने बैठ गए होंगे.’’

‘‘बहू, ऐसी औलाद या ऐसा खाविंद मिलने पर इनसान अपनेआप को कोसने के अलावा और कर ही क्या सकता है?’’ सकीना की आवाज से दर्द भरी मायूसी साफ झलक रही थी.

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कुछ ही देर में शमीम आ गया. आते ही बोला, ‘‘भाईजान का तो कहीं पता नहीं चला, वह जहांजहां बैठते थे, सब जगह देख आया.’’

शमीम के आते ही सकीना ने अपनी बेटी नजमा को बुला कर कहा, ‘‘तू अपनी भाभी के पास बैठ. मैं बन्नो दाई को बुला कर लाती हूं,’’ यह कह कर सकीना बुरका ओढ़ कर घर से बाहर निकल गई.

फजर (तड़के) की नमाज के वक्त जोहरा ने एक सुंदर लड़के को जन्म दिया. सकीना प्रसन्नता से खिल उठी, लेकिन जोहरा की आंखें आंसुओं से भरी थीं. वह सोच रही थी, कैसा दुख भरा जीवन है उस का कि उस के पहले बच्चे के जन्म के समय उस का शौहर सब कुछ जानते हुए भी उस के पास नहीं है.

सकीना उस दर्द को समझती थी. इसीलिए उस ने उसे समझाया, ‘‘बहू, रंज मत करो, बुरे वक्त को भी हंस कर गुजार देना चाहिए. तुम्हारे मियां की तो अक्ल ही मारी गई है, फिर कोई क्या कर सकता है. मैं तो उसे समझासमझा कर हार गई. घर में जवान बहन बैठी है, फिर भी उस पर कोई असर नहीं. कहां से करूं बेटी की शादी? मुझे तो रातदिन उस की ही फिक्र खाए जाती है.’’

दूसरे दिन शाम को कहीं जा कर असद ने घर में प्रवेश किया. बच्चा पैदा होने के बावजूद घर में बजाय खुशी के सन्नाटा छाया हुआ था. वैसे वह ऐसे माहौल का आदी हो चुका था. अकसर हर शनिवार को वह गायब हो जाता था और दूसरे दिन शाम को लौट कर आता था.

सकीना ने जब उसे बताया कि वह एक बेटे का बाप बन चुका है तो वह सिर्फ मुसकरा कर रह गया.

जब असद जोहरा के पास पहुंचा तो जोहरा ने उसे देख कर मुंह फेर लिया. असद हलके से मुसकरा दिया और बोला, ‘‘लगता है, मुझ से बहुत नाराज हो. भई, क्या बताऊं, रात एक दोस्त ने रोक लिया. उस के यहां दावत थी. सुबह सो कर उठा तो बोला, दोपहर का खाना खा कर जाना. इसलिए देर हो गई. लाओ, मुन्ने को मुझे दे दो, देखूं तो किस पर गया है.’’

जोहरा ने पटकने वाले अंदाज में बच्चे को असद की ओर बढ़ा दिया. असद ने बच्चे को गोद में लिया तो वह रोने लगा, ‘‘अरे…अरे, रोता है. बिलकुल अपनी अम्मी पर गया है,’’ असद ने हंस कर कहा और बच्चे को जोहरा की ओर बढ़ा दिया. जोहरा ने बच्चे को ले लिया.

असद ने हंस कर जोहरा की ओर देखा और बोला, ‘‘लगता है, आज बेगम साहिबा ने न बोलने की कसम खा रखी है.’’

‘‘पूरी रात तकलीफ से छटपटाती रही पर आप को तो अपने दोस्तों और जुए से ही फुरसत नहीं थी. हार कर अम्मी को ही जा कर दाई को बुला कर लाना पड़ा. आप की बला से, मैं मर भी जाती तो आप को क्या फर्क पड़ता?’’ कह कर जोहरा सिसक पड़ी.

‘‘लेकिन मैं ने जुआ कहां

खेला?’’ असद ने अपनी सफाई पेश करनी चाही, ‘‘मैं तो दोस्तों के साथ दावत में था.’’

‘‘दावत में थे तो वे 500 रुपए कहां हैं जो कल आप मुझ से झूठ बोल कर ले गए थे,’’ जोहरा ने पूछा.

‘‘वे…वे…मैं तो…’’ असद का रंग सफेद पड़ गया. फिर वह तुरंत ही संभल गया और कड़क कर बोला, ‘‘तुम कौन होती हो पूछने वाली?’’

‘‘मैं…’’ जोहरा कुछ कहना ही चाहती थी कि अचानक सकीना ने खांस कर कमरे में प्रवेश किया. सास को देख कर जोहरा चुप हो गई. सकीना जोहरा के निकट आ कर बोली, ‘‘बहू, मुन्ने का अच्छी तरह ध्यान रखना. बाहर बड़ी ठंडी हवा चल रही है. मैं अभी थोड़ी देर में तुम्हारे लिए खाना लाती हूं,’’ फिर एक नजर उस ने असद पर डाली और बोली, ‘‘जाओ, असद, तुम भी खाना खा लो.’’

असद चुपचाप कमरे से निकल गया. जोहरा उदास नजरों से अपने शौहर को जाते देखती रही.

सकीना ने अपने पोते का नाम जफर रखा था. जफर 2 माह का हो गया था. उस ने हाथपैर चलाने के साथसाथ मुंह टेढ़ा करना भी सीख लिया था. उस की इस हरकत से घर के सब लोग हंस पड़ते थे.

असद तो जैसे मुन्ने के लिए दीवाना सा रहता था. दफ्तर से आते ही वह मुन्ने से खेलने लगता. जुआ तो उस ने खेलना बंद नहीं किया था लेकिन उस का रातरात भर गायब रहना अब तकरीबन बंद सा हो गया था.

एक दिन जब असद मुन्ने से खेल रहा था तो जोहरा बोली, ‘‘सुनिए, मुन्ने के लिए बाजार से कुछ कपडे़ ला दीजिए. अभी तक आप ने मुन्ने के लिए कुछ भी नहीं खरीदा. आप को कल ही तनख्वाह मिली है, लेकिन अभी तक आप ने अपनी तनख्वाह अम्मी को भी नहीं दी. अम्मी पूछ रही थीं, कहीं आप तनख्वाह को भी जुए में तो नहीं हार आए?’’ बोलते हुए जोहरा का हृदय जोरों से धड़क रहा था.

‘‘मुझे क्या करना है, क्या नहीं, यह सोचना मेरा काम है. न ही मैं इस बात के लिए पाबंद हूं कि दूसरों के सवालों का जवाब देता फिरूं,’’ असद ने क्रोध भरे स्वर में कहा और मुन्ने को सोफे पर लिटा कर जोहरा को घूर कर देखा.

फिर कुछ क्षण चुप रहने के बाद बोला, ‘‘मैं देख रहा हूं, तुम्हारा दिमाग दिनबदिन खराब होता जा रहा है. तुम मेरे हर काम में दखल देने लगी हो. आखिर तुम्हें क्या हक है मुझ से हिसाबकिताब मांगने का?’’ असद क्रोध से कांपने लगा था.

‘‘मैं आप की बीवी हूं. मुझे यह जानने का पूरा हक है कि आखिर आप ने अम्मी को अपनी तनख्वाह क्यों नहीं दी,’’ जोहरा गुस्से से बिफर कर बोली, ‘‘मैं कोई भगा कर लाई गई औरत नहीं हूं जो आप के जुल्म बरदाश्त करती रहूंगी. मेरा आप के साथ निकाह हुआ है. जितनी जिम्मेदारी आप पर है उतनी ही मुझ पर भी है.’’

‘‘जोहरा, तुम अपनी हद से आगे बढ़ रही हो. तुम भूल रही हो कि मैं तुम्हारा शौहर हूं. शौहर के सामने बात करने की तमीज सीखो.’’

‘‘शौहर को भी तो यह तमीज होनी चाहिए कि वह अपनी बीवी से कैसे पेश आए.’’

‘‘तुम मेरी गैरत को ललकार रही हो, जोहरा,’’ असद आपे से बाहर हो गया था.

‘‘आप में गैरत है कहां?’’ जोहरा तेज स्वर में बोली.

‘‘मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा,’’ असद चीखा.

‘‘फिर देते क्यों नहीं तलाक? अपनी इस नापाक जबान से 3 बार तलाक, तलाक, तलाक कहिए और निकाल दीजिए घर से धक्के दे कर. आप मर्दों ने औरत को समझ क्या रखा है, सिर्फ एक खिलौना? जब जी भर गया, उठा कर फेंक दिया. आप की नजरों में औरत का जन्म शायद मर्दों के जुल्म सहने के लिए ही हुआ है.’’

‘‘जोहरा,’’ असद इतनी जोर से चीखा कि उस के गले की नसें तक तन गईं, ‘‘मैं ने तुम्हें तलाक दिया, मैं ने तुम्हें तलाक दिया, मैं ने तुम्हें तलाक दिया.’’

जोहरा अवाक् फटीफटी आंखों से असद को देखती रही. फिर अचानक ही बेहोश हो कर नीचे गिर पड़ी. सकीना और नजमा उस समय घर में नहीं थीं. वे अभीअभी एक रिश्तेदार से मिल कर लौटी थीं. दोनों ने असद के अंतिम शब्द सुन लिए थे.

सकीना ने असद की ओर क्रोध से देखा और बोली, ‘‘असद, यह तू ने बहुत बुरा किया.’’

असद बुत की तरह स्थिर खड़ा था. सकीना ने असद को झंझोड़ा तो उस ने चौंक कर अपनी अम्मी को देखा और तेजी से घर से बाहर निकल गया. सकीना उसे आश्चर्य से जाते देखती रही.

फिर सकीना ने नजमा की मदद से जोहरा को चारपाई पर लिटाया और उसे होश में लाने की कोशिश करने लगी. उधर नजमा रोते हुए मुन्ने को गोद में ले कर उसे बहलाने की कोशिश करने लगी.

शाम को जब असद ने घर में प्रवेश किया तो घर में छाई खामोशी ने उसे अंदर तक कचोट दिया. एक आशंका ने उसे कंपा दिया. कमरे में घुसते ही उस की नजर सोफे पर बैठी अपनी अम्मी पर पड़ी, जो गुमसुम सी कहीं खोई हुई थीं.

असद ने धड़कते हृदय के साथ पूछा, ‘‘जोहरा कहां है, अम्मी?’’

‘‘जोहरा,’’ अचानक ही सकीना ने चौंक कर असद की ओर देखा और बोली, ‘‘अपने मायके चली गई है. मैं ने बहुत रोका, लेकिन वह बोली कि अब उस का इस घर से क्या रिश्ता है? उन्होंने मुझे तलाक दे दिया है. अब उन के पास मेरा रहना हराम होगा.’’

यह सुन कर असद अवाक् रह गया. उस का सिर घूमने लगा. उसे उम्मीद न थी कि वह क्रोध में यह सब कर बैठेगा. उस ने भर्राए स्वर में पूछा, ‘‘अब क्या होगा, अम्मी? मैं जोहरा के बिना नहीं रह सकता. मुझे नहीं मालूम था कि मैं इस जुए के चक्कर में अपने जीवन की सब से बड़ी बाजी हार जाऊंगा.’’

‘‘तुम ने बहुत देर कर दी, बेटे. ऐसी शरीफ और नेक बहू ढूंढे़ से भी नहीं मिलेगी. तुम उस पर जुल्म करते रहे लेकिन उस ने कभी उफ तक न की. मगर आज तो तुम ने वह काम किया जो कोई खूनी इनसान ही कर सकता है. तुम ने औरत की अहमियत को नहीं समझा. उसे पैर की जूती समझ कर निकाल फेंका,’’ सकीना ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘अम्मी, तुम कल ही जा कर जोहरा को बुला लाओ. मैं अपने किए की माफी मांग लूंगा,’’ असद ने उम्मीद के साथ अपनी अम्मी की तरफ देखा.

‘‘अब ऐसा नहीं हो सकता,’’ सकीना बोली, ‘‘हमारा मजहब इस बात की इजाजत नहीं देता. हमारे मजहब ने मर्द को इतनी आसानी से तलाक देने का हक दे कर औरत को इतना कमजोर बना दिया है कि निर्दोष होते हुए भी उस की जरा सी भूल उसे धूल में मिला देती है. हमारे मजहब के मुताबिक इन हालात में ‘हलाला’ होना जरूरी है. अब जोहरा का तुम से दोबारा निकाह तभी हो सकता है जब उस का किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह हो और वह मर्द जोहरा को एक रात अपने साथ रख कर तलाक दे दे.’’

‘‘मैं इस के लिए भी तैयार हूं, अम्मी. तुम जोहरा से बात तो करो,’’ असद ने डूबे स्वर में कहा.

‘‘अभी 1-2 महीने रुक जाओ, मैं कोशिश करूंगी,’’ सकीना बोली.

इस के बाद असद कुछ नहीं बोला.  वह गुमसुम सा चारपाई पर जा कर

लेट गया. उस की आंखों के सामने जोहरा की सूरत घूम गई. उस के दफ्तर से आते ही वह उस का कोट उतार कर टांग देती थी. उस के जूतों के तसमे खोल कर जूते उतारती थी. उस के आते ही उसे चाय देती थी. उस के जरा से उदास हो जाने पर स्वयं भी उदास हो जाती थी.

उसे ध्यान आया, एक बार जब वह बीमार पड़ गया था तो जोहरा ने रातदिन जाग कर उस की खिदमत की थी.

जोहरा की खिदमत और मुहब्बत का उस ने कितना अच्छा सिला दिया, उस के जरा से क्रोध पर उसे घर से निकाल दिया. असद का मन आत्मग्लानि से भर उठा.

असद के दिन अब बड़ी खामोशी  से गुजरने लगे थे. दफ्तर से आते ही वह घर में गुमसुम सा पड़ा रहता. कहीं आताजाता भी नहीं था. जुआ तो दूर की बात थी, उस दिन से उस ने ताश के पत्तों को छुआ तक नहीं था.

एक दिन अख्तर ने असद से जुआ खेलने को कहा तो असद ने उस को पीट दिया. उस दिन से असद और अख्तर में अनबन हो गई थी.

जोहरा से उस ने कई बार मिल कर माफी मांगने की कोशिश भी की लेकिन सफल नहीं हो सका. आखिर मजबूर हो कर उस ने अम्मी को जोहरा के मांबाप के पास भेजने का निश्चय किया.

सकीना को जोहरा से मिलने के लिए गए हुए 2 दिन हो चुके थे लेकिन वह अभी तक नहीं लौटी थी, ये 2 दिन असद ने बड़ी मुश्किल से काटे थे.

तीसरे दिन शाम को जब सकीना लौटी तो असद दौड़ादौड़ा अम्मी के पास आया और बोला, ‘‘क्या कहा जोहरा ने, अम्मी?’’

सकीना खामोश रही तो असद का हृदय धड़क उठा. बेचैन हो कर उस ने दोबारा पूछा, ‘‘अम्मी, तुम बतातीं क्यों नहीं?’’

‘‘फिक्र क्यों करता है, बेटे, मैं तेरी दूसरी शादी कर दूंगी,’’ सकीना का स्वर बुझाबुझा सा था, ‘‘अभी कौन सी तेरी उम्र निकल गई? लोग तो बुढ़ापे में शादियां करते हैं.’’

‘‘अम्मी, मैं जो तुम से पूछ रहा हूं, उस का जवाब क्यों नहीं देतीं,’’ असद बोला.

‘‘जोहरा ने इनकार कर दिया, बेटे. वह किसी भी हालत में तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं है.’’

‘‘अम्मी,’’ असद का स्वर कांप कर रह गया. उस की आंखें शून्य में टिक गईं. जुए की आखिरी बाजी ने उस की सारी प्रसन्नताएं हर ली थीं. असद थकेथके कदमों से चलता अपने कमरे में आ गया. सकीना और नजमा कुछ कहना चाह कर भी कुछ न कह सकीं.   द्य

अकेलापन: क्यों दर्द झेल रही थी सरोज

राजेश पिछले शनिवार को अपने घर गए थे लेकिन तेज बुखार के कारण वह सोमवार को वापस नहीं लौटे. आज का पूरा दिन उन्होंने मेरे साथ गुजारने का वादा किया था. अपने जन्मदिन पर उन से न मिल कर मेरा मन सचमुच बहुत दुखी होता.

राजेश को अपने प्रेमी के रूप में स्वीकार किए मुझे करीब 2 साल बीत चुके हैं. उन के दोनों बेटों सोनू और मोनू व पत्नी सरोज से आज मैं पहली बार मिलूंगी.

राजेश के घर जाने से एक दिन पहले हमारे बीच जो वार्तालाप हुआ था वह रास्ते भर मेरे जेहन में गूंजता रहा.

‘मैं शादी कर के घर बसाना चाहती हूं…मां बनना चाहती हूं,’ उन की बांहों के घेरे में कैद होने के बाद मैं ने भावुक स्वर में अपने दिल की इच्छा उन से जाहिर की थी.

‘कोई उपयुक्त साथी ढूंढ़ लिया है?’ उन्होंने मुझे शरारती अंदाज में मुसकराते हुए छेड़ा.

उन की छाती पर बनावटी गुस्से में कुछ घूंसे मारने के बाद मैं ने जवाब दिया, ‘मैं तुम्हारे साथ घर बसाने की बात कर रही हूं.’

‘धर्मेंद्र और हेमामालिनी वाली कहानी दोहराना चाहती हो?’

‘मेरी बात को मजाक में मत उड़ाओ, प्लीज.’

‘निशा, ऐसी इच्छा को मन में क्यों स्थान देती हो जो पूरी नहीं हो सकती,’ अब वह भी गंभीर हो गए.

‘देखिए, मैं सरोज को कोई तकलीफ नहीं होने दूंगी. अपनी पूरी तनख्वाह उसे दे दिया करूंगी. मैं अपना सारा बैंकबैलेंस बच्चों के नाम कर दूंगी… उन्हें पूर्ण आर्थिक सुरक्षा देने…’

उन्होंने मेरे मुंह पर हाथ रखा और उदास लहजे में बोले, ‘तुम समझती क्यों नहीं कि सरोज को तलाक नहीं दिया जा सकता. मैं चाहूं भी तो ऐसा करना मेरे लिए संभव नहीं.’

‘पर क्यों?’ मैं ने तड़प कर पूछा.

‘तुम सरोज को जानती होतीं तो यह सवाल न पूछतीं.’

‘मैं अपने अकेलेपन को जानने लगी हूं. पहले मैं ने सारी जिंदगी अकेले रहने का मन बना लिया था पर अब सब डांवांडोल हो गया है. तुम मुझे सरोज से ज्यादा चाहते हो?’

‘हां,’ उन्होंने बेझिझक जवाब दिया था.

‘तब उसे छोड़ कर तुम मेरे हो जाओ,’ उन की छाती से लिपट कर मैं ने अपनी इच्छा दोहरा दी.

‘निशा, तुम मेरे बच्चे की मां बनना चाहती हो तो बनो. अगर अकेली मां बन कर समाज में रहने का साहस तुम में है तो मैं हर कदम पर तुम्हारा साथ दूंगा. बस, तुम सरोज से तलाक लेने की जिद मत करो, प्लीज. मेरे लिए यह संभव नहीं होगा,’ उन की आंखों में आंसू झिलमिलाते देख मैं खामोश हो गई.

सरोज के बारे में राजेश ने मुझे थोड़ी सी जानकारी दे रखी थी. बचपन में मातापिता के गुजर जाने के कारण उसे उस के मामा ने पाला था. 8वीं तक शिक्षा पाई थी. रंग सांवला और चेहरामोहरा साधारण सा था. वह एक कुशल गृहिणी थी. अपने दोनों बेटों में उस की जान बसती थी. घरगृहस्थी के संचालन को ले कर राजेश ने उस के प्रति कभी कोई शिकायत मुंह से नहीं निकाली थी.

सरोज से मुलाकात करने का यह अवसर चूकना मुझे उचित नहीं लगा. इसलिए उन के घर जाने का निर्णय लेने में मुझे ज्यादा कठिनाई नहीं हुई.

राजेश इनकार न कर दें, इसलिए मैं ने उन्हें अपने आने की कोई खबर फोन से नहीं दी थी. उस कसबे में उन का घर ढूंढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई. उस एक- मंजिला साधारण से घर के बरामदे में बैठ कर मैं ने उन्हें अखबार पढ़ते पाया.

मुझे अचानक सामने देख कर वह पहले चौंके, फिर जो खुशी उन के होंठों पर उभरी, उस ने सफर की सारी थकावट दूर कर के मुझे एकदम से तरोताजा कर दिया.

‘‘बहुत कमजोर नजर आ रहे हो, अब तबीयत कैसी है?’’ मैं भावुक हो उठी.

‘‘पहले से बहुत बेहतर हूं. जन्मदिन की शुभकामनाएं. तुम्हें सामने देख कर दिल बहुत खुश हो रहा है,’’ राजेश ने मिलाने के लिए अपना दायां हाथ आगे बढ़ाया.

राजेश से जिस पल मैं ने हाथ मिलाया उसी पल सरोज ने घर के भीतरी भाग से दरवाजे पर कदम रखा.

आंखों से आंखें मिलते ही मेरे मन में तेज झटका लगा.

सरोज की आंखों में अजीब सा भोलापन था. छोटी सी मुसकान होंठों पर सजा कर वह दोस्ताना अंदाज में मेरी तरफ देख रही थी.

जाने क्यों मैं ने अचानक अपने को अपराधी सा महसूस किया. मुझे एहसास हुआ कि राजेश को उस से छीनने के मेरे इरादे को उस की आंखों ने मेरे मन की गहराइयों में झांक कर बड़ी आसानी से पढ़ लिया था.

‘‘सरोज, यह निशा हैं. मेरे साथ दिल्ली में काम करती हैं. आज इन का जन्मदिन भी है. इसलिए कुछ बढि़या सा खाना बना कर इन्हें जरूर खिलाना,’’ हमारा परिचय कराते समय राजेश जरा भी असहज नजर नहीं आ रहे थे.

‘‘सोनू और मोनू के लिए हलवा बनाया था. वह बिलकुल तैयार है और मैं अभी आप को खिलाती हूं,’’ सरोज की आवाज में भी किसी तरह का खिंचाव मैं ने महसूस नहीं किया.

‘‘थैंक यू,’’ अपने मन की बेचैनी के कारण मैं कुछ और ज्यादा नहीं कह पाई.

‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कह कर सरोज तेजी से मुड़ी और घर के अंदर चली गई.

राजेश के सामने बैठ कर मैं उन से उन की बीमारी का ब्योरा पूछने लगी. फिर उन्होंने आफिस के समाचार मुझ से पूछे. यों हलकेफुलके अंदाज में वार्तालाप करते हुए मैं सरोज की आंखों को भुला पाने में असमर्थ हो रही थी.

अचानक राजेश ने पूछा, ‘‘निशा, क्या तुम सरोज से अपने और मेरे प्रेम संबंध को ले कर बातें करने का निश्चय कर के यहां आई हो?’’

एकदम से जवाब न दे कर मैं ने सवाल किया, ‘‘क्या तुम ने कभी उसे मेरे बारे में बताया है?’’

‘‘कभी नहीं.’’

‘‘मुझे लगता है कि वह हमारे प्रेम के बारे में जानती है.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद मैं ने अपना फैसला राजेश को बता दिया, ‘‘तुम्हें एतराज नहीं हो तो मैं सरोज से खुल कर बातें करना चाहूंगी. आगे की जिंदगी तुम से दूर रह कर गुजारने को अब मेरा दिल तैयार नहीं है.’’

‘‘मैं इस मामले में कुछ नहीं कहूंगा. अब तुम हाथमुंह धो कर फ्रैश हो जाओ. सरोज चाय लाती ही होगी.’’

राजेश के पुकारने पर सोनू और मोनू दोनों भागते हुए बाहर आए. दोनों बच्चे मुझे स्मार्ट और शरारती लगे. मैं उन से उन की पढ़ाई व शौकों के बारे में बातें करते हुए घर के भीतर चली गई.

घर बहुत करीने से सजा हुआ था. सरोज के सुघड़ गृहिणी होने की छाप हर तरफ नजर आ रही थी.

मेरे मन में उथलपुथल न चल रही होती तो सरोज के प्रति मैं ज्यादा सहज व मैत्रीपूर्ण व्यवहार करती. वह मेरे साथ बड़े अपनेपन से पेश आ रही थी. उस ने मेरी देखभाल और खातिर में जरा भी कमी नहीं की.

उस की बातचीत का बड़ा भाग सोनू और मोनू से जुड़ा था. उन की शरारतों, खूबियों और कमियों की चर्चा करते हुए उस की जबान जरा नहीं थकी. वे दोनों बातचीत का विषय होते तो उस का चेहरा खुशी और उत्साह से दमकने लगता.

हलवा बहुत स्वादिष्ठ बना था. साथसाथ चाय पीने के बाद सरोज दोपहर के खाने की तैयारी करने रसोई में चली गई.

‘‘सरोज के व्यवहार से तो अब ऐसा नहीं लगता है कि उसे तुम्हारे और मेरे प्रेम संबंध की जानकारी नहीं है,’’ मैं ने अपनी राय राजेश को बता दी.

‘‘सरोज सभी से अपनत्व भरा व्यवहार करती है, निशा. उस के मन में क्या है, इस का अंदाजा उस के व्यवहार से लगाना आसान नहीं,’’ राजेश ने गंभीर लहजे में जवाब दिया.

‘‘अपनी 12 सालों की विवाहित जिंदगी में सरोज ने क्या कभी तुम्हें अपने दिल में झांकने दिया है?’’

‘‘कभी नहीं…और यह भी सच है कि मैं ने भी उसे समझने की कोशिश कभी नहीं की.’’

‘‘राजेश, मैं तुम्हें एक संवेदनशील इनसान के रूप में पहचानती हूं. सरोज के साथ तुम्हारे इस रूखे व्यवहार का क्या कारण है?’’

‘‘निशा, तुम मेरी पसंद, मेरा प्यार हो, जबकि सरोज के साथ मेरी शादी मेरे मातापिता की जिद के कारण हुई. उस के पिता मेरे पापा के पक्के दोस्त थे. आपस में दिए वचन के कारण सरोज, एक बेहद साधारण सी लड़की, मेरी इच्छा के खिलाफ मेरे साथ आ जुड़ी थी. वह मेरे बच्चों की मां है, मेरे घर को चला रही है, पर मेरे दिल में उस ने कभी जगह नहीं पाई,’’ राजेश के स्वर की उदासी मेरे दिल को छू गई.

‘‘उसे तलाक देते हुए तुम कहीं गहरे अपराधबोध का शिकार तो नहीं हो जाओगे?’’ मेरी आंखों में चिंता के भाव उभरे.

‘‘निशा, तुम्हारी खुशी की खातिर मैं वह कदम उठा सकता हूं पर तलाक की मांग सरोज के सामने रखना मेरे लिए संभव नहीं होगा.’’

‘‘मौका मिलते ही इस विषय पर मैं उस से चर्चा करूंगी.’’

‘‘तुम जैसा उचित समझो, करो. मैं कुछ देर आराम कर लेता हूं,’’ राजेश बैठक से उठ कर अपने कमरे में चले गए और मैं रसोई में सरोज के पास चली आई.

हमारे बीच बातचीत का विषय सोनू और मोनू ही बने रहे. एक बार को मुझे ऐसा भी लगा कि सरोज शायद जानबूझ कर उन के बारे में इसीलिए खूब बोल रही है कि मैं किसी दूसरे विषय पर कुछ कह ही न पाऊं.

घर और बाहर दोनों तरह की टेंशन से निबटना मुझे अच्छी तरह से आता है. अगर मुझे देख कर सरोज तनाव, नाराजगी, गुस्से या डर का शिकार बनी होती तो मुझे उस से मनचाहा वार्तालाप करने में कोई असुविधा न महसूस होती.

उस का साधारण सा व्यक्तित्व, उस की बड़ीबड़ी आंखों का भोलापन, अपने बच्चों की देखभाल व घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों के प्रति उस का समर्पण मेरे रास्ते की रुकावट बन जाते.

मेरी मौजूदगी के कारण उस के दिलोदिमाग पर किसी तरह का दबाव मुझे नजर नहीं आया. हमारे बीच हो रहे वार्तालाप की बागडोर अधिकतर उसी के हाथों में रही. जो शब्द उस की जिंदगी में भारी उथलपुथल मचा सकते थे वे मेरी जबान तक आ कर लौट जाते.

दोपहर का खाना सरोज ने बहुत अच्छा बनाया था, पर मैं ने बड़े अनमने भाव से थोड़ा सा खाया. राजेश मेरे हावभाव को नोट कर रहे थे पर मुंह से कुछ नहीं बोले. अपने बेटों को प्यार से खाना खिलाने में व्यस्त सरोज हम दोनों के दिल में मची हलचल से शायद पूरी तरह अनजान थी.

कुछ देर आराम करने के बाद हम सब पास के पार्क में घूमने पहुंच गए. सोनू और मोनू झूलों में झूलने लगे. राजेश एक बैंच पर लेटे और धूप का आनंद आंखें मूंद कर लेने लगे.

‘‘आइए, हम दोनों पार्क में घूमें. आपस में खुल कर बातें करने का इस से बढि़या मौका शायद आगे न मिले,’’ सरोज के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर मैं मन ही मन चौंक पड़ी.

उस की भोली सी आंखों में झांक कर अपने को उलझन का शिकार बनने से मैं ने खुद को इस बार बचाया और गंभीर लहजे में बोली, ‘‘सरोज, मैं सचमुच तुम से कुछ जरूरी बातें खुल कर करने के लिए ही यहां आई हूं.’’

‘‘आप की ऐसी इच्छा का अंदाजा मुझे हो चुका है,’’ एक उदास सी मुसकान उस के होंठों पर उभर कर लुप्त हो गई.

‘‘क्या तुम जानती हो कि मैं राजेश से बहुत पे्रम करती हूं?’’

‘‘प्रेम को आंखों में पढ़ लेना ज्यादा कठिन काम नहीं है, निशाजी.’’

‘‘तुम मुझ से नाराज मत होना क्योंकि मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हूं.’’

‘‘मैं आप से नाराज नहीं हूं. सच तो यह है कि मैं ने इस बारे में सोचविचार किया ही नहीं है. मैं तो एक ही बात पूछना चाहूंगी,’’ सरोज ने इतना कह कर अपनी भोली आंखें मेरे चेहरे पर जमा दीं तो मैं मन में बेचैनी महसूस करने लगी.

‘‘पूछो,’’ मैं ने दबी सी आवाज में उस से कहा.

‘‘वह 14 में से 12 दिन आप के साथ रहते हैं, फिर भी आप खुश और संतुष्ट क्यों नहीं हैं? मेरे हिस्से के 2 दिन छीन कर आप को कौन सा खजाना मिल जाएगा?’’

‘‘तुम्हारे उन 2 दिनों के कारण मैं राजेश के साथ अपना घर  नहीं बसा सकती हूं, अपनी मांग में सिंदूर नहीं भर सकती हूं,’’ मैं ने चिढ़े से लहजे में जवाब दिया.

‘‘मांग के सिंदूर का महत्त्व और उस की ताकत मुझ से ज्यादा कौन समझेगा?’’ उस के होंठों पर उभरी व्यंग्य भरी मुसकान ने मेरे अपराधबोध को और भी बढ़ा दिया.

‘‘राजेश सिर्फ मुझे प्यार करते हैं, सरोज. हम तुम्हें कभी आर्थिक परेशानियों का सामना नहीं करने देंगे, पर तुम्हें, उन्हें तलाक देना ही होगा,’’ मैं ने कोशिश कर के अपनी आवाज मजबूत कर ली.

‘‘वह क्या कहते हैं तलाक लेने के बारे में?’’ कुछ देर खामोश रह कर सरोज ने पूछा.

‘‘तुम राजी हो तो उन्हें कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘मुझे तलाक लेनेदेने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती है, निशाजी. इस बारे में फैसला भी उन्हीं को करना होगा.’’

‘‘वह तलाक चाहेंगे तो तुम शोर तो नहीं मचाओगी?’’

मेरे इस सवाल का जवाब देने के लिए सरोज चलतेचलते रुक गई. उस ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए. इस पल उस से नजर मिलाना मुझे बड़ा कठिन महसूस हुआ.

‘‘निशाजी, अपने बारे में मैं सिर्फ एक बात आप को इसलिए बताना चाहती हूं ताकि आप कभी मुझे ले कर भविष्य में परेशान न हों. मेरे कारण कोई दुख या अपराधबोध का शिकार बने, यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘सरोज, मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं हूं, पर परिस्थितियां ही कुछ…’’

उस ने मुझे टोक कर अपनी बात कहना जारी रखा, ‘‘अकेलेपन से मेरा रिश्ता अब बहुत पुराना हो गया है. मातापिता का साया जल्दी मेरे सिर से उठ गया था. मामामामी ने नौकरानी की तरह पाला. जिंदगी में कभी ढंग के संगीसाथी नहीं मिले. खराब शक्लसूरत के कारण पति ने दिल में जगह नहीं दी और अब आप मेरे बच्चों के पिता को उन से छीन कर ले जाना चाहती हैं.

‘‘यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि मैं ने अकेलेपन में भी सदा खुशियों को ढूंढ़ निकाला. मामा के यहां घर के कामों को खूब दिल लगा कर करती. दोस्त नहीं मिले तो मिट्टी के खिलौनों, गुडि़या और भेड़बकरियों को अपना साथी मान लिया. ससुराल में सासससुर की खूब सेवा कर उन के आशीर्वाद पाती रही. अब सोनूमोनू के साथ मैं बहुत सुखी और संतुष्ट हूं.

‘‘मेरे अपनों ने और समाज ने कभी मेरी खुशियों की फिक्र नहीं की. अपने अकेलेपन को स्वीकार कर के मैं ने खुद अपनी खुशियां पाई हैं और मैं उन्हें विश्वसनीय मानती हूं. उदासी, निराशा, दुख, तनाव और चिंताएं मेरे अकेलेपन से न कभी जुड़ी हैं और न जुड़ पाएंगी. मेरी जिंदगी में जो भी घटेगा उस का सामना करने को मैं तैयार हूं.’’

मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई. राजेश ठीक ही कहते थे कि सरोज से तलाक के बारे में चर्चा करना असंभव था. बिलकुल ऐसा ही अब मैं महसूस कर रही थी.

सरोज के लिए मेरे मन में इस समय सहानुभूति से कहीं ज्यादा गहरे भाव मौजूद थे. मेरा मन उसे गले लगा कर उस की पीठ थपथपाने का किया और ऐसा ही मैं ने किया भी.

उस का हाथ पकड़ कर मैं राजेश की तरफ चल पड़ी. मेरे मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला, पर मन में बहुत कुछ चल रहा था.

सरोज से कुछ छीनना किसी भोले बच्चे को धोखा देने जैसा होगा. अपने अकेलेपन से जुड़ी ऊब, तनाव व उदासी को दूर करने के लिए मुझे सरोज से सीख लेनी चाहिए. उस की घरगृहस्थी का संतुलन नष्ट कर के अपनी घरगृहस्थी की नींव मैं नहीं डालूंगी. अपनी जिंदगी और राजेश से अपने प्रेम संबंध के बारे में मुझे नई दृष्टि से सोचना होगा, यही सबकुछ सोचते हुए मैं ने साफ महसूस किया कि मैं पूरी तरह से तनावमुक्त हो भविष्य के प्रति जोश, उत्साह और आशा प्रदान करने वाली नई तरह की ऊर्जा से भर गई हूं.

बेटियां : क्या श्वेता बन पाई उस बूढ़ी औरत का सहारा

‘‘ओफ्फो, आज तो हद हो गई…चाय तक पीने का समय नहीं मिला,’’ यह कहतेकहते डाक्टर कुमार ने अपने चेहरे से मास्क और गले से स्टेथोस्कोप उतार कर मेज पर रख दिया.

सुबह से लगी मरीजों की भीड़ को खत्म कर वह बहुत थक गए थे. कुरसी पर बैठेबैठे ही अपनी आंखें मूंद कर वह थकान मिटाने की कोशिश करने लगे.

अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुन कर डाक्टर कुमार को लगा यह फोन उन्हें अधिक देर तक आराम करने नहीं देगा.

‘‘नंदू, देखो तो जरा, किस का फोन है?’’

वार्डब्वाय नंदू ने जा कर फोन सुना और फौरन वापस आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लिए लेबर रूम से काल है.’’

आराम का खयाल छोड़ कर डाक्टर कुमार कुरसी से उठे और फोन पर बात करने लगे.

‘‘आक्सीजन लगाओ… मैं अभी पहुंचता हूं्…’’ और इसी के साथ फोन रखते हुए कुमार लंबेलंबे कदम भरते लेबर रूम की तरफ  चल पड़े.

लेबर रूम पहुंच कर डाक्टर कुमार ने देखा कि नवजात शिशु की हालत बेहद नाजुक है. उस ने नर्स से पूछा कि बच्चे को मां का दूध दिया गया था या नहीं.

‘‘सर,’’ नर्स ने बताया, ‘‘इस के मांबाप तो इसे इसी हालत में छोड़ कर चले गए हैं.’’

‘‘व्हाट’’ आश्चर्य से डाक्टर कुमार के मुंह से निकला, ‘‘एक नवजात बच्चे को छोड़ कर वह कैसे चले गए?’’

‘‘लड़की है न सर, पता चला है कि उन्हें लड़का ही चाहिए था.’’

‘‘अपने ही बच्चे के साथ यह कैसी घृणा,’’ कुमार ने समझ लिया कि गुस्सा करने और डांटडपट का अब कोई फायदा नहीं, इसलिए वह बच्ची की जान बचाने की कोशिश में जुट गए.

कृत्रिम श्वांस पर छोड़ कर और कुछ इंजेक्शन दे कर डाक्टर कुमार ने नर्स को कुछ जरूरी हिदायतें दीं और अपने कमरे में वापस लौट आए.

डाक्टर को देखते ही नंदू ने एक मरीज का कार्ड उन के हाथ में थमाया और बोला, ‘‘एक एक्सीडेंट का केस है सर.’’

डाक्टर कुमार ने देखा कि बूढ़ी औरत को काफी चोट आई थी. उन की जांच करने के बाद डाक्टर कुमार ने नर्स को मरहमपट्टी करने को कहा तथा कुछ दवाइयां लिख दीं.

होश आने पर वृद्ध महिला ने बताया कि कोई कार वाला उन्हें टक्कर मार गया था.

‘‘माताजी, आप के घर वाले?’’ डाक्टर कुमार ने पूछा.

‘‘सिर्फ एक बेटी है डाक्टर साहब, वही लाई है यहां तक मुझे,’’ बुढ़िया ने बताया.

डाक्टर कुमार ने देखा कि एक दुबलीपतली, शर्मीली सी लड़की है, मगर उस की आंखों से गजब का आत्म- विश्वास झलक रहा है. उस ने बूढ़ी औरत के सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी और कहा, ‘‘मां, फिक्र मत करो…मैं हूं न…और अब तो आप ठीक हैं.’’

वृद्ध महिला ने कुछ हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘श्वेता, मुझे जरा बिठा दो, उलटी सी आ रही है.’’

इस से डाक्टर कुमार को पता चला कि उस दुबलीपतली लड़की का नाम श्वेता है. उन्होंने श्वेता के साथ मिल कर उस की मां को बिठाया. अभी वह पूरी तरह बैठ भी नहीं पाई थी कि एक जोर की उबकाई के साथ उन्होंने उलटी कर दी और श्वेता की गुलाबी पोशाक उस से सन गई.

मां शर्मसार सी होती हुई बोलीं, ‘‘माफ करना बेटी…मैं ने तो तुम्हें भी….’’

उन की बात बीच में काटती हुई श्वेता बोली, ‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है मां कि आप की सेवा का मुझे मौका मिल रहा है.’’

श्वेता के कहे शब्द डाक्टर कुमार को सोच के किसी गहरे समुद्र में डुबोए चले जा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, कोई गहरी चोट तो नहीं है न,’’ श्वेता ने रूमाल से अपने कपड़े साफ करते हुए पूछा.

‘‘वैसे तो कोई सीरियस बात नहीं है फिर भी इन्हें 5-6 दिन देखरेख के लिए अस्पताल में रखना पड़ेगा. खून काफी बह गया है. खर्चा तकरीबन….’’

‘‘डाक्टर साहब, आप उस की चिंता न करें…’’ श्वेता ने उन की बात बीच में काटी.

‘‘कहां से करेंगी आप इंतजाम?’’ दिलचस्प अंदाज में डाक्टर ने पूछा.

‘‘नौकरी करती हूं…कुछ जमा कर रखा है, कुछ जुटा लूंगी. आखिर, मेरे सिवा मां का इस दुनिया में है ही कौन?’’ यह सुन कर डाक्टर कुमार निश्चिंत हो गए. श्वेता की मां को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

इधर डाक्टर ने लेबररूम में फोन किया तो पता चला कि नवजात बच्ची की हालत में कोई सुधार नहीं है. वह फिर बेचैन से हो उठे. वह इस सच को भी जानते थे कि बनावटी फीड में वह कमाल कहां जो मां के दूध में होता है.

डाक्टर कुमार दोपहर को खाने के लिए आए तो अपने दोनों मरीजों के बारे में ही सोचते रहे. बेचैनी में वह अपनी थकान भी भूल गए थे.

शाम को डाक्टर कुमार वार्ड का राउंड लेने पहुंचे तो देखा कि श्वेता अपनी मां को व्हील चेयर में बिठा कर सैर करा रही थी.

‘‘दोपहर को समय पर खाना खाया था मांजी ने?’’ डाक्टर कुमार ने श्वेता से मां के बारे में पूछा.

‘‘यस सर, जी भर कर खाया था. महीना दो महीना मां को यहां रहना पड़ जाए तो खूब मोटी हो कर जाएंगी,’’ श्वेता पहली बार कुछ खुल कर बोली. डाक्टर कुमार भी आज दिन में पहली बार हंसे थे.

वार्ड का राउंड ले कर डाक्टर कुमार अपने कमरे में आ गए. नंदू गायब था. डाक्टर कुमार का अंदाजा सही निकला. नंदू फोन सुन रहा था.

‘‘जल्दी आइए सर,’’ सुन कर डाक्टर ने झट से जा कर रिसीवर पकड़ा, तो लेबर रूम से नर्स की आवाज को वह साफ पहचान गए.

‘‘ओ… नो’’, धप्प से फोन रख दिया डाक्टर कुमार ने.

नवजात बच्ची बच न पाई थी. डाक्टर कुमार को लगा कि यदि उस बच्ची के मांबाप मिल जाते तो वह उन्हें घसीटता हुआ श्वेता के पास ले जाता और ‘बेटी’ की परिभाषा समझाता. वह छटपटा से उठे. कमरे में आए तो बैठा न गया. खिड़की से परदा उठा कर वह बाहर देखने लगे.

सहसा डाक्टर कुमार ने देखा कि लेबर रूम से 2 वार्डब्वाय उस बच्ची को कपड़े में लपेट कर बाहर ले जा रहे थे… मूर्ति बने कुमार उस करुणामय दृश्य को देखते रह गए. यों तो कितने ही मरीजों को उन्होंने अपनी आंखों के सामने दुनिया छोड़ते हुए देखा था लेकिन आज उस बच्ची को यों जाता देख उन की आंखों से पीड़ा और बेबसी के आंसू छलक आए.

डाक्टर कुमार को लग रहा था कि जैसे किसी मासूम और बेकुसूर श्वेता को गला घोंट कर मार डाला गया हो.

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