Love Story : संयोग
लेखक- सनंत प्रसाद
मंजुला और मुकेश के बीच प्यार की कोंपलें फूटने लगी थीं. लेकिन महत्त्वाकांक्षी मंजुला ने मुकेश के प्यार को अपने सपनों से ज्यादा तरजीह दी. बरसों बाद मुकेश से मिलने पर एक बार फिर मंजुला की यादें ताजा हो उठीं.
रात के 10 बज चुके थे. मरीजों को निबटा कर डा. मंजुला प्रियदर्शिनी अपने क्लिनिक में अकेली बैठी थीं. अचानक उन्होंने रिलेक्स के मूड में अपने जूड़े को खोल कर लंबे घने बालों को एक झटका सा दिया और इसी के साथ लंबी जुल्फें लहरा कर इजीचेयर पर फैल गईं.
डा. मंजुला इजीचेयर से उठीं और क्लिनिक के बगल में बने शानदार बाथरूम के आदमकद शीशे में अपने पूरे व्यक्तित्व को निहारने लगीं.
दिनभर की भीड़भाड़ भरी व्यस्त जिंदगी में डा. मंजुला अपने को भूल सी जाती हैं. जिस को समय का ही ध्यान नहीं रहता वह अपना ध्यान कैसे रख सकता है. किंतु समय तो अपनी गति से चलता ही जाता है न. शहर के पौश इलाके में बना उन का नर्सिंग होम और क्लिनिक उन्हें इतना समय ही नहीं देते कि वह मरीजों को छोड़ कर अपने बारे में सोच सकें.
डा. मंजुला ने अपनी संपन्नता अथक मेहनत से अर्जित की थी. वह अपनी व्यस्ततम जिंदगी से जब भी कुछ पल अपने लिए निकालतीं तो उन का अकेलापन उन्हें काटने को दौड़ता था. आखिर थीं तो वह भी एक औरत ही न. अपने को आईने में देखा तो 45-50 की ‘प्रियदर्शिनी’ का एक अछूता सा मादक सौंदर्य और यौवन उन्हें थिरकता नजर आया. बालों में थोड़ी सफेदी तो आ गई थी पर उसे स्वाभाविक रंग में रंग कर उन्होंने कलात्मकता से छिपा रखा था.
डा. मंजुला के मन के एक कोने से आवाज आई, काश, कोई उन के आज भी छिपे हुए मादक यौवन और गदराई देह को अपनी सबल बांहों में थाम लेता और उन्हें मसल कर रख देता. एक अनछुई सिहरन उन के मनप्राणों में समा गई. औरत के मन की यह अद्भुत विशेषता और विरोधाभास भी है कि वह जो अंतर्मन से चाहती है, उसे शायद शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाती. इसीलिए नारी अपनी कामनाओं को तब तक छिपा कर रखती है जब तक भावनाओं की आंधी में बहा कर ले जाने वाला और उस की अस्मिता की रक्षा करने का आश्वासन देने वाला कोई सबल पुरुष उस के रास्ते में न आ जाए.
बाथरूम से निकल कर डा. मंजुला अपने केबिन में आईं और इजीचेयर पर बैठते ही सिर पीछे की ओर टिका दिया. घर जाने का अभी मन नहीं कर रहा था अत: आंखें बंद कर वह अतीत में खो सी गईं.
20 वर्ष पहले वह मेडिकल कालिज में फाइनल की छात्रा थी. बिलकुल रिजर्व और अंतर्मुखी. लड़के भंवरा बन कर उस पर मंडराते थे क्योंकि मंजुला ‘प्रियदर्शिनी’ एक कलाकार के सांचे में ढली हुई चलतीफिरती प्रतिमा सी लगती थी. अद्भुत देहयष्टि और खिलाखिला सा रूपरंग, उस पर कालेकाले घुंघराले बाल और कजरारे नैननक्श की मलिका मंजुला जिधर से निकलती मनचलों पर बिजलियां सी टूट पड़तीं पर वह किसी को घास न डालती. कोई लड़का उस पर डोरे डालने का साहस भी नहीं जुटा पाता, क्योंकि उस के पिता मनोरम पुलिस के आला अफसर थे और मां माधुरी कलेक्टर जो थीं.
मुकेश कब और कैसे मंजुला के जीवन में आ गया, इसे शायद स्वयं मंजुला भी न समझ सकी. वह लजीला सा नवयुवक उस का सहपाठी तो था पर कभी उस ने मंजुला की ओर आंख उठा कर भर नजर देखा तक नहीं था, जबकि दूसरे लड़के मंजुला को देख कर दबी जबान कुछ न कुछ फब्तियां कस ही देते थे.
मंजुला कभी मुकेश को लाइब्रेरी के एक कोने में चुपचाप किताबों में डूबा हुआ देखती या फिर कक्षा से निकल कर घर जाते हुए. इस अंतर्मुखी लड़के के प्रति उस की उत्सुकता बढ़ती जाती. किंतु उस का अहं कोई पहल करने से उसे रोक देता.
मंजुला को उस दिन बड़ा आश्चर्य हुआ जब मुकेश ने उस के समीप आ कर पूछा, ‘आप इतनी चुपचुप क्यों रहती हैं? क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि इस तरह रहने से आप को डिप्रेशन या हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी हो सकती है?’
मंजुला उस के भोलेपन पर मन ही मन मुसकरा उठी, साथ ही उस के शरारती मन को टटोलने का प्रयास भी करने लगी. ऊपर से सीधासादा दिखने वाला यह लड़का अंदर से थोड़ा शरारती भी है. तभी तो इतना खूबसूरत बहाना ढूंढ़ा है उस से बात करने का या उस के करीब आने का. फिर भी बनावटी मुसकराहट के साथ उस ने जवाब दिया, ‘नहीं तो, मुझे तो कुछ ऐसा नहीं लगता.’
मुकेश बड़ी विनम्रता से बोला, ‘यदि मैं कैंटीन में चल कर आप को एक कप कौफी पीने का निमंत्रण दूं तो आप बुरा तो न मानेंगी.’
इस बार मंजुला उस के भोलेपन पर सचमुच खिलखिला उठी, ‘चलिए, आई डोंट माइंड.’
कौफी पीतेपीते ही मंजुला से मुकेश का परिचय हुआ. मुकेश एक मध्यवर्ग के संभ्रांत परिवार का लड़का था. घर में उस की मां थीं, 2 बड़ी बहनें थीं, जिन की शादियां हो चुकी थीं और वे अपनीअपनी गृहस्थी में खुश थीं. मुकेश के पिता एक सरकारी मुलाजिम थे जो लगभग 2 वर्ष पहले बीमारी के चलते दिवंगत हो चुके थे. मां को पिता की सरकारी नौकरी की पेंशन मिलती थी, किंतु गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए और अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के लिए मुकेश कालिज के बाद ट्यूशन पढ़ाया करता था.
मंजुला ने जैसे ही अपने बारे में मुकेश को बताना शुरू किया उस ने बीच में ही उसे टोक दिया, ‘मैडम, क्यों कौफी ठंडी कर रही हैं. आप के बारे में मैं तो क्या यह पूरा मेडिकल कालिज जानता है कि आप के मातापिता क्या हैं.’
मंजुला सीधेसादे मुकेश के प्रति एक अनजाना सा ख्ंिचाव महसूस करने लगी थी. उस ने अपने मन से कई बार पूछा कि कहीं वह मुकेश से प्यार तो नहीं करने लगी है?
नारी का मनोविज्ञान सदियों से वही रहा है जो आज है और आगे भी वही रहेगा. हर स्त्री के मन में प्यार और प्रशंसा पाने की ललक होती है, चाहे वह अवचेतन की किसी अतल गहराइयों में ही छिपी हो, जिसे वह समझ नहीं पाती या जाहिर नहीं कर पाती.
खैर, इस प्रकार मंजुला के जीवन में प्यार बन कर मुकेश कब आ गया इसे न मंजुला समझ पाई न मुकेश. दोनों का प्यार परवान चढ़ता रहा. दोनों ने अच्छे नंबरों से मेडिकल की परीक्षाएं पास कीं. मंजुला के पिता के पास पैसा था, सो उन्होंने एक खूबसूरत सा नर्सिंगहोम शहर के बीचोेंबीच एक पौश इलाके में खोल दिया और इसी के साथ डा. मंजुला के अपने कैरियर की शुरुआत करने के दरवाजे खुल गए.
मंजुला कुछ दिनों के लिए विदेश चली गई. लौटी तो ढेर सारी डिगरियां उस ने बटोर ली थीं. एम.डी., एम.एस. और भी कई डिगरियां. मंजुला अपने ही नाम वाले नर्सिंगहोम की मालिक बन कर जीवन में लगभग सेटल हो चुकी थी.
मुकेश अपने ही शहर के एक मेडिकल कालिज में लेक्चरर हो गया था. दोनों का जीवन नदी के दो किनारों की तरह मंथर गति से आगे बढ़ने लगा था. मंजुला के मातापिता ने उसे शादी के लिए प्रेरित करना शुरू किया, किंतु वह शादी से ज्यादा कुछ करने की, कुछ ऊंचाई छू लेने की हसरत रखती थी. इसलिए शादी के बहुतेरे प्रस्तावों को वह किसी न किसी बहाने टालती रही और अपने व्यावसायिक जीवन को संवारने में तनमन से जुट गई.
मुकेश ने मां के बेबस प्यार और आग्रह के सामने सिर झुका लिया. उस की शादी जिस युवती से हुई वह झगड़ालू प्रवृत्ति के साथसाथ हद दरजे की शक्की, बदमिजाज, स्वार्थी एवं ईर्ष्यालु भी थी. सामाजिक दबाव, आर्थिक समस्याओं आदि ने कोई विकल्प मुकेश के सामने छोड़ा ही नहीं और उस ने भी हथियार डाल दिए. आखिर किसी शायर ने ठीक ही तो फरमाया है, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, किसी को जमीं तो किसी को आसमां नहीं मिलता.’
मुकेश अब कालिज की ड्यूटी के बाद घर लौट कर एक थीसिस की तैयारी में जुट जाता और देर रात तक उसी में व्यस्त रहता. पत्नी झींकती रहती, तकदीर को कोसती कि कैसे निखट्टू से पाला पड़ गया. मुकेश बेबस हो कर सुनता और चुप रह जाता.
मुकेश के जीवन की एक त्रासदी उस दिन उभर कर सामने आई जब उस की पत्नी चंचला और सास सविता ने उसे निसंतान होने का ताना देना शुरू किया. तमाम मेडिकल जांच के बाद यह तसवीर उभर कर सामने आई कि चंचला मां नहीं बन सकती. नतीजतन, चंचला और भी उग्र और आक्रामक बनती चली गई और मुकेश दीवार पर जड़ दिए गए फ्रेम में सहनशीलता की तसवीर भर बन कर रह गया.
उस दिन शाम के समय गाड़ी से मंजुला कुछ खरीदारी करने निकली थी. मौर्या कांपलेक्स के शौपिंग आरकेड में घुसते ही अचानक मुकेश पर उस की निगाहें टिक गईं. दोनों के बीच औपचारिक बातों के बाद मंजुला ने उसे अगले दिन अपने नर्सिंग होम में आ कर बातचीत करने का निमंत्रण दिया.
दूसरे दिन शाम को मुकेश आया तो दोनों बड़ी देर तक बातों में खोए रहे. रात घिर आई. बातों का सिलसिला टूटा तो घड़ी पर नजर गई. 12 बज चुके थे. मुकेश बाहर निकला तो हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई. मुकेश ने अपनी ईर्ष्यालु पत्नी चंचला का जिक्र छेड़ा तो मंजुला उसे घर छोड़ने का साहस नहीं कर पाई. मंजुला ने उस के खाने का आर्डर दे दिया. फिर उसे अपने नर्सिंग होम के आरामदायक गेस्ट हाउस में ही ठहर जाने का आग्रह किया.
मुकेश ने अपने घर टेलीफोन कर दिया कि एक आवश्यक काम के सिलसिले में उसे रात में रुकना पड़ा है. मुकेश मंजुला के आग्रह को नहीं ठुकरा पाने के कारण नर्सिंग होम के गेस्ट रूम में आराम करने के इरादे से रुक गया. खाना खाने के बाद मुकेश को ‘गुडनाइट’ कह कर मंजुला अपने निकटवर्ती आवास में आराम करने चली गई. मुकेश ने बत्ती बुझा कर थोड़ी झपकियां ही ली थीं कि उस के दरवाजे पर हलकी दस्तक हुई. उस ने अंदर से ही पूछा, ‘कौन?’
‘मैं हूं, मंजुला.’
इस आवाज ने उसे चौंका दिया. मुकेश ने दरवाजा खोला और बत्ती जला दी. मुकेश विस्मित सा मंजुला को सिर से पांव तक निहारता ही रह गया. कांधे तक लहराते गेसुओं और मंजुला की आकर्षक देहयष्टि को एक पारदर्शी नाइटी में देख कर कोई भी होता तो घबरा जाता. मंजुला कमरे की धीमी रोशनी में साक्षात सौंदर्य की प्रतिमा लग रही थी और उस के अंगअंग से रूप की मदिरा छलक रही थी. फिर भी अपने ऊपर संयम का आवरण ओढ़े मुकेश ने धीमे स्वर में पूछा, ‘इतनी रात गए? क्या बात है?’
मंजुला ने उबासियां लेते हुए अंगड़ाई ली तो उस के मादक यौवन में एक तरह का खुला आमंत्रण था जो कह रहा था कि मुकेश, अपनी बांहों में मुझे थाम लो. वह पुरुष था, एक औरत के खुले आमंत्रण को कैसे ठुकरा सकता था, वह भी उसे जिसे वह दिल से चाहता है.
मुकेश अपने को रोक न सका और मंजुला को अपनी बांहों में लेते हुए उस के लरजते होंठों पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. मंजुला तो मानो किसी दूसरी दुनिया में तिर रही थी. एक औरत के लिए पुरुष का यह पहला एहसास था. बंद आंखों से उस ने भी अपनी बांहों के घेरे में मुकेश को कस लिया और यौवन का ऐसा ज्वार आया कि दोनों एकदूसरे में खो गए.
इस सुखद एहसास की पुनरावृत्ति मंजुला के जीवन में दोबारा नहीं हो सकी क्योंकि घटनाओं का सिलसिला ऐसा चला कि मुकेश का तबादला दूसरे शहर के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कालिज में हो गया. मंजुला के जीवन में वह मादक क्षण और वह मधुर रात अतीत का एक स्वप्न बन कर रह गई. तभी फोन की घंटी बजी तो वह सपनों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गई. फोन उठाया तो दूसरी ओर से उस की नौकरानी थी जो अभी तक घर न पहुंचने पर चिंता जता रही थी.
डा. मंजुला अपनी इजीचेयर से उठीं. घड़ी पर नजर डाली तो आधी रात हो चुकी थी. वह सधे कदमों से निवास की ओर चल दीं. थके हुए तनमन के साथ थोड़ा सा खाना खा कर वह कब नींद के आगोश में समा गईं, होश ही नहीं रहा. दूसरे दिन जब दिन चढ़ आया तब मंजुला की नींद खुली. बाथरूम में से निकल कर हलका सा बे्रकफास्ट लिया और अपने नर्सिंग होम के कामों को पूरा करने में जुट गईं.
मंजुला को अपने काम के सिलसिले में नैनीताल जाना पड़ा. 2 दिनों तक तो वह काम को पूरा करने में लगी रहीं. काम खत्म हुआ तो मंजुला प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर इस पहाड़ी शहर का आनंद लेने निकली थीं. वह अपनी वातानुकूलित गाड़ी में बैठी शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने में खोई थीं कि एक जगह जा कर उन की नजर ठहर गई. उन्होंने गाड़ी रोक कर पास जा कर देखा तो वह मुकेश ही था. दाढ़ी बढ़ी हुई और नंगे पांव पैदल ही वह भीमताल की सड़कों पर जा रहा था. मंजुला ने गाड़ी एकदम उस के बगल में जा कर रोकी और गाड़ी से सिर निकाल कर बोलीं, ‘‘अरे, मुकेश, तुम यहां कैसे? कब आए? ह्वाट ए प्लिजेंट सरप्राइज?’’ कई प्रश्न एकसाथ मंजुला ने कर डाले.
मुकेश मूक ही बना रहा तो मंजुला ने ही चहक कर कहा, ‘‘आओ, गाड़ी में बैठो. अरे, मेरी बगल ही में बैठो भाई. मैं अच्छी ड्राइविंग करती हूं, घबराओ नहीं.’’
मुकेश को ले कर मंजुला अपने होटल वापस आ गईं और वहां के खुशनुमा माहौल में उसे बिठा कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या लोगे? चाय, कौफी या डिनर. खैर, अभी तो मैं गरमागरम कौफी और पकौडे़ मंगवाती हूं.’’
मुकेश ने कौफी में उस का साथ देते हुए अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘‘मंजुला, मेरी यह दशा देख कर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा पर यह वक्त की मार है जो मैं अकेले यहां झेल रहा हूं. यहां आने के कुछ महीनों बाद मां की मृत्यु हो गई. पत्नी चंचला पिछले साल ब्रेनफीवर की बीमारी से चल बसी. जीवन की इस त्रासदी को अकेले झेल रहा हूं,’’ अपनी कहानी बतातेबताते मुकेश की आंखें भर आई थीं. उस की दुखद कहानी सुन कर मंजुला भी दुखित हो उठी थी.
मुकेश चलने के लिए उठा तो मंजुला ने उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे बिठा लिया फिर याचना भरे स्वर में बोलीं, ‘‘इतने दिनों बाद मिले हो तो कम से कम आज तो साथ में बैठ कर खाना खा लो, फिर जहां जाना है चले जाना.’’
थोड़ी देर बाद ही होटल के कमरे में खाना आ गया. दोनों आमनेसामने बैठ कर खाना खा रहे थे. मंजुला ने मुकेश की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘मुकेश, मुझ से शादी करोगे?’’
मुकेश की आंखों से दो बूंद आंसू मोती बन कर टपक पड़े.
‘‘मंजुला, तुम ने इतनी प्रतीक्षा क्यों कराई? काश, तुम मेरे जीवन में पहली किरण बन कर आ जातीं तो जीवन में इतना भटकाव तो न आता.’’ इन शब्दों को सुनने के बाद मंजुला ने मुकेश के दोनों हाथों को जोर से जकड़ लिया और उस के कांधे पर सिर रख कर मंदमंद मुसकराने लगीं.