गहरी पैठ: भारतीय जनता पार्टी और जातिवाद

भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में चुनावों में बारबार जातिवादी पार्टियों को कोस रही है कि वे कभी किसी का भला नहीं कर सकतीं. असल में अगर देश में आज सब से बड़ी जातिवादी पार्टी है तो वह भारतीय जनता पार्टी है, जिस ने पूरे देश में पौराणिक जातिवाद को हर पायदान पर बिना साफ किए लागू कर दिया है.

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यह जातिवादी तौरतरीकों का नतीजा है कि आज देश में भूखा ब्राह्मण सुदामा सरीखा कहीं नहीं मिलेगा, क्योंकि हर गांव में 5-6 मंदिर और हर शहर की हर गली में 5-6 मंदिर खुलवा दिए गए हैं जिन में ऋषिमुनियों की संतानें ठाठ से ‘हमारे पास तो कुछ नहीं है’, ‘सब भगवान का है’ कह कर रेशमी कपड़ों में, एयरकंडीशंड हालों में, हलवापूरी रोज चार बार खा रहे हैं.

सरकार को संविधान के हिसाब से 50 फीसदी नौकरियां पिछड़ों और दलितों को दे देनी थीं, पर किसी भी सरकारी दफ्तर में घुस जाएं, वहां इक्केदुक्के ही सपाबसपा वाले नाम दिखेंगे. वहां काम कर रहे लोग ज्यादातर ठेकों पर काम कर रहे हैं और ठेकदार को जाति के हिसाब से रखने का कोई कानून नहीं है. ठेकेदार ऊंची जातियों का है और उस ने जिन्हें रखा होगा वे भी ऊंची जातियों के ही होंगे.

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भारतीय जनता पार्टी बारबार माफिया को नीची जातियों से जोड़ रही है. यह पुरानी तरकीब है. पुराणों में हर कहानी में दस्युओं को, जो कहर ढाते थे, नीची जाति का दिखाया गया है. रामायण में मारीच, शूर्पणखा, रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद सब को माफिया की तरह दिखाया गया है और पिछले 200 सालों से हर शहर में रामलीला के दौरान उन्हें काला भुजंग बता कर दिखाया जाता है. जब अमित शाह कहते हैं कि कमल पर वोट नहीं दिया तो जातिवादी माफिया आ जाएगा, उन का इशारा इन्हीं की ओर होता है. उन के लिए ये जातियां पौराणिक युग के दस्युओं, शूद्रों और अछूतों की संतानें हैं. शंबूक या एकलव्य जैसों के लिए भारतीय जनता पार्टी में कोई जगह नहीं है.
सरकार के 500 सब से ऊंचे अफसरों में से मुश्किल से 60 अफसर उन जातियों के हैं जिन्हें रिजर्वेशन मिला हुआ है.

भारतीय जनता पार्टी चुनचुन कर ऊंची जातियों के लोगों को ताकत दे रही है. वैसे भी हर पार्टी में चाहे वह समाजवादी हो या बहुजन समाज या तृणमूल कांग्रेस, ऊंची जातियों के ही लोग ऊंचे पदों पर हैं पर फिर भी कम से कम वे बात तो उन जातियों की करते हैं जिन के बच्चे आज पढ़ कर आगे आ गए हैं और हर बाधा पार करने को तैयार हैं.

यह न भूलें कि देश चलता उन मजदूरों और किसानों के बल है जिन्हें भारतीय जनता पार्टी माफिया कहती है. यहां तक कि पुलिस और ठंडी हड्डियां जमाने वाली पहाड़ी सीमाओं पर यही लोग हैं. इन्हें माफिया के साथ होने की गाली दे कर भारतीय जनता पार्टी जाति के नाम पर देश को बांट रही है.

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देश का बंटवारा हिंदूमुसलिम के नाम पर तो 1947 में भी नहीं हुआ था, क्योंकि जो लोग पिछले 500-600 सालों में मुसलमान बने थे, उन में ज्यादातर उन जातियों के थे जिन्हें माफिया की गाली दी जा रही है. इसी गाली को एकलव्य को सुनना पड़ा था, घटोत्कच को सुनना पड़ा था, हिरण्यकश्यप को सुनना पड़ा था, बाली को सुनना पड़ा था. आज नए दौर में नए नेता सुन रहे हैं.

गहरी पैठ: औरतों की बदलती सामाजिक स्थिति

औरतों के बारे में हमदर्दी रखने वाले कानूनों और लगातार अदालतों का औरतों की शिकायतों पर आदमियों को जेल में भेज देने से जहां आदमियों के लिए औरतों को खिलवाड़ की चीज सम?ाने पर खतरा पैदा कर दिया है, वहीं औरतों का अपनी जवानी और बदन का इस्तेमाल अपने सुखों को पाने का रास्ता भी बंद कर दिया है. पिछले 10-20 सालों में जिस तरह से औरतों ने सामाजिक बेइज्जती से डरे बिना शिकायतें करना शुरू किया है उस से सैकड़ों लोग देशभर में जेलों में बंद हैं और छूटते हैं तो तब जब शिकायती औरतें अपना रवैया बदलती हैं.

एक तरह से तो यह सामाजिक बदलाव अच्छा है और आदमी औरतों को कमजोर नहीं सम?ा सकते पर दूसरी ओर औरतों के हाथ से अपने बदन का इस्तेमाल कर के अपना काम निकलवाने का मौका मारा गया है. चाहे यह मौका औरतों की अपनी कमजोरियों को पूरा करने में काम आता था पर फिर भी राजनीति, दफ्तरों, छोटीबड़ी नौकरियों में जहां औरतों के पास बदन के अलावा कोई और हुनर नहीं होता वहां कुछ दे देता था. इन कानूनों की वजह से अब औरतों को अपने बदन और अपनी अदाओं से नहीं, अपने काम और गुणों से आदमियों से डील करने की आदत डालनी पड़ेगी.

जिन लड़कियों को किशोरपन में आदत डाल दी जाती थी कि एक मुसकान से वे कुछ पा सकती हैं उन्हें अब सारी मेहनत अपने हुनर को ठीक करने पर लगानी होगी. आदमियों को भी एहसास हो गया है कि औरत कोई कबूतरी नहीं कि कुछ दाने फेंक कर उसे पिंजरे में बंद किया जा सकता है. जिन औरतों में योग्यता होगी, हुनर होगा, सिर्फ बदन का इस्तेमाल कर बच्चे पैदा करना आता होगा, वे पीछे रह जाएंगी. मांबाप को अब अपनी सुंदर बेटियों पर नहीं अपनी हुनरमंद लड़कियों पर सिर ऊंचा करना होगा और लड़की सांवली है या नाटी है या सुंदर नहीं है, अब बेमतलब का हो गया है.

यह बदलाव उन धर्मग्रंथों के बावजूद हो रहा है जिन में बारबार औरतों को पाप की खान बताया गया है और बेटी के जन्म होते ही घर वालों के मुंह लटक जाते थे. अब बेटियां घरों की शान बनने लगी हैं, क्योंकि वे लड़कों से ज्यादा मेहनत कर रही हैं. उन्हें मालूम है कि सिर्फ अच्छे बदन और सुंदर चेहरे के बल पर वे अपनी जिंदगी नहीं गुजार सकतीं. आदमी अब कानूनों की वजह से भयभीत हैं और कभी भी कौन सी लड़की जो आज छूट दे रही है, कल बिफर जाए, पता नहीं.

अभी दिल्ली में एक बौडी बिल्डर को जेल भेज दिया गया क्योंकि 38 साल की एक बच्चे की विवाहित मां ने आरोप लगा दिया कि उस के साथ न सिर्फ शादी का वादा कर के सैक्स किया गया, उस की वीडियो क्लिप बना कर उसे ब्लैकमेल किया गया और इस वजह से वह न पति की रह गई है, न प्रेमी ने उसे अपनाया. प्रेमी बौडी बिल्डर जो शायद सोच रहा होगा कि औरत भी उस के शरीर को चाहती है अब जेलों में रहेगा और वकीलों पर अपनी जमापूंजी खर्च करेगा. आधीअधूरी शिकायत के बावजूद प्रेमी की अदालत ने नहीं सुनी.

आदमियों के लिए तो यह चेतावनी है ही पर औरतों के लिए भी सबक है कि आज के युग में चाहे वे अच्छी प्रेमिका बनना चाहें या अच्छी बीवी, उन्हें बहुत तरीके के हुनर आने चाहिए. अपनी पढ़ाई पूरी करनी होगी, शादी हो गई तो सबकुछ मिल गया जैसी बातें नहीं चलेंगी. गांवकसबों में भी यह सम?ा फैल गईर् है और लड़कियों ने अब पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया है और वे लड़कों से ज्यादा आगे निकल रही हैं.

औरतों के बदन की खरीदारी जितनी जल्दी खत्म हो, उतना अच्छा है क्योंकि पाखंड और अंधविश्वास तभी दूर होंगे जब औरतें अपने को भगवान की पाप की गिनती में नहीं गिनेंगी.

जातिवाद के चेहरे को उजागर करता सीसीटीवी कैमरा

सीसीटीवी कैमरा आज आम आदमी को बौना बना रहे हैं और उन को ज्यादा फर्क पड़ने लगा है जिन के पास अगर कुछ है तो थोड़ी सी इज्जत है. देश के गरीब किसानों, मजदूरों, कारीगरों के पास आज बस थोड़ी सी इज्जत होती है, रुपयापैसा नहीं. उन की इस इज्जत की खुली नीलामी होने लगे तो इस से बुरा कुछ न होगा.
मद्रास हाईकोर्ट के एक सिंगल जज ने कहा कि राज्य के हर ब्यूटी पार्लर और मसाज स्पा में सीसीटीवी होना चाहिए ताकि वहां कोई अनैतिक काम न हो. यह हुक्म असल में उस हुक्म की तरह है कि दलित औरतें अपनी छातियों को न ढकें जो कभी केरल में जबरन लागू किया जाता था और बाकी जगह अपनेआप लागू हो जाता था क्योंकि गरीब औरतों के पास 2 जोड़ी तक कपड़े होते ही नहीं थे और नहाते या कपड़े धोते समय उन्हें अपना बदन सब की आंखों के सामने खोलना पड़ता. अंगरेजी में बनी फिल्म ‘गांधी’ में एक सीन यह बड़ी अच्छी तरह दिखाया गया है जब नदी में नहाती एक बिना कपड़ों के गरीब लड़की को गांधी अपनी धोती दे देते हैं.
हाईकोर्ट के फैसले का मतलब है कि इन ब्यूटी पार्लरों और मसाज स्पाओं में काम करने वाली लड़कियां असल में देह बेचती हैं और ऊंची जातियों के लोग खरीदते हैं. वे न ब्यूटी ट्रीटमैंट कराते हैं, न मालिश. यह पूरी जमात को बदनाम करने वाला फैसला है. ब्यूटी पार्लरों व मसाज स्पाओं में काम करने वाली ज्यादातर लड़कियां निचली जातियों की होती हैं. फाइवस्टार होटलों को भी धर्म के हिसाब से ऊंची कही जाने वाली लड़कियां इन कामों के लिए कम मिलती हैं.
ये लड़कियां अगर देह व्यापार में हैं तो भी क्या? यह उन का हक है. वे मेहनत की कमाई करती हैं. ऊंचे हाईकोर्ट में बैठे जज कमाऊ लड़की की आमदनी को रोकने या उस की इज्जत को खराब करने का हक नहीं रखते. देह व्यापार से जुड़ा सारा कानून असल में देश की दलित व ओबीसी लड़कियों के खिलाफ साजिश है जिस में ग्राहकों को तो बरी कर दिया जाता है पर लड़कियों, उन को घर में रखने वालियों, दलालों, सहायकों पर मुकदमे चलाए जाते हैं जो सब निचली जातियों के होते हैं. हां, ऊंची जातियों के पुलिस वाले, फाइनैंसर, नेता, मकान मालिक, म्यूनिसिपल कमेटी के इंस्पैक्टर वगैरह इन से अच्छी कमाई करते हैं.
गनीमत है कि सिंगल जज के फैसले को 2 जजों की बैंच ने जल्दी ही उलट दिया. 2 जजों ने जाति का मसला तो नहीं लिया, पर उन की चिंता थी ऊंची जातियों के ग्राहकों की, जिन की सीसीटीवी फुटेज ब्लैकमेल के लिए इस्तेमाल हो सकती हैं और जो निजता के हक का हनन करती हैं. उन्हें भी उन लड़कियों की चिंता नहीं थी जो ब्यूटी ट्रीटमैंट दे रही थीं या मसाज कर रही थीं और सीसीटीवी में आ जातीं.
चाहे ये लड़कियां ज्यादातर दलित और पिछड़ी क्यों न हों, इन को इज्जत से रहने का हक है, पूरा हक है. इन की फोटो ब्यूटी पार्लर या स्पा मालिक या पुलिस वालों के पास नहीं हो सकती. तमिलनाडु सरकार का आदेश कि ब्यूटी पार्लर या मसाज स्पा में घुसने के रास्ते पर सीसीटीवी लगा हो जजों ने बहाल किया है पर वह भी गलत है क्योंकि वह फुटेज वहां काम कर रही लड़कियों की इज्जत को तारतार करती है.    

हिंदू धर्म के ठेकेदारों ने जो नफरत फैलाई है उसमें पिसेंगे हम सभी

नफरत का जो माहौल देश में 20-25 सालों में बनाया जा रहा है .इस का मतलब असल में इतिहास के काले धब्बों को धोना नहीं है, अपनी दुकान चमकाना मात्र है. हिंदू धर्म के दुकानदारों को राजाओं की छत्रछाया भारत के काफी बड़े हिस्से में पिछले 1000 साल तक नहीं मिली. हालांकि समाज पर उन का कंट्रोल पूरा रहा और दलितों (अछूतों), पिछड़ों (शूद्रों) और दूसरों जैसे बनियों, किसानों, कारीगरों पर वे धर्म का नाम ले कर अपना दबदबा बनाए रख सके.

अब हिंदूमुसलिम या हिंदूईसाई को ले कर जो नफरत कभी राममंदिर, कभी गौपूजा, कभी आरक्षण, कभी पाकिस्तान से बदला, कभी कश्मीर को ले कर फैलाई जाती है उस में मतलब एक ही रहता है कि धर्म के ठेकेदार बिना काम किए पैसा भी पाते रहें और पावर में भी रहें. इस में कहना पड़ेगा कि वे पूरी तरह सफल रहे हैं और न सिर्फ पिछड़ों, दलितों, दूसरे धर्म वालों, ऊंचों को भी लूटने और उन की औरतों को पूरी तरह गुलाम सा बनाए रख पाए हैं.

हरिद्वार की हिंदू संसद सभा में कालीचरण, बैंगलुरु के सांसद एलएस तेजस्वी सूर्या और बुल्ली बाई वाले विशाल झा और श्वेता सिंह की बातों से असली चोट अगर किसी को लगती है तो वे पिछड़े और दलित हैं, हिंदूमुसलिम का नाम ले कर, वोट पा कर, धर्म के ठेकेदार मंदिरों को बनवा रहे हैं, तीर्थों को ठीक कर रहे हैं, नएनए तीर्थस्थान बनवा रहे हैं, मुफ्त में खानेपीने के अपनी जाति वालों के लिए होटलों का इंतजाम कर रहे हैं, पढ़ाई पर कब्जा कर रहे हैं, नौकरियों और धंधों को पहले की तरह अपनी मुट्ठी में कर रहे हैं.

नफरत का धुआं जब फैलता है तो चारों ओर फैलता है. नफरत के उपले जलाएंगे तो धुआं जलाने वालों के घरों में भी घुसेगा. नफरत की आंधी में दूसरों के घरों को उड़वाने की साजिश में धर्म के दुकानदार भूल गए कि उन के अपने मकान, उन के अपने ऐशगाह के स्थान बनाने तो ये ही आएंगे जो नफरत के शिकार हैं. यह नफरत का कीड़ा केवल मुसलिमों और ईसाइयों को ही नहीं काटेगा, यह खुद ऊंची जातियों में घुस जाएगा.

आज देशभर के घरों में नफरत करना सिखाना पहला काम हो गया है. लोगों को साथ काम करने से पहले सभी से नफरत करना सिखाया जा रहा है. बच्चों को मिड डे मील खाने में दलित औरत का पकाया खाना न खाने का पाठ पढ़ाया जा रहा है. भेदभाव पहले भी था, पर तब सब अपनेअपने दायरे में रहते थे जो खुद गलत था पर तब नफरत न थी, उसे रास्ते के पत्थर व गड्ढे मान कर कुदरत की देन माना जाता था जिसे पिछले जन्मों के कर्मों का फल बता कर समझाया जाता था.

आज भी भेदभाव नफरत की शक्ल में बदल गया है. आज हर पिछड़े व दलित से नफरत हो गई है. किसानों को ले कर न जाने क्याक्या कहा गया है क्योंकि वे गैरजरूरी कानूनों का विरोध कर रहे थे, पर वे नीची जातियों के, वे ऊंची जातियों की नफरत पर सवाल उठाएं, ऐसा कैसे हो सकता है. हर दूसरे धर्म वाले से नफरत सिखाई जा रही है पर इस का मतलब यह भी है कि अपने खुद के सगों के साथ भी नफरती रवैया अपनाने की आदत पड़ना. अब मंदिरों में चढ़ावे के लिए मारपीट आम हो गई है. अब मंदिरों की सी पढ़ाई पढ़ाने वाले स्कूलों में जबरदस्त गुटबाजी शुरू हो गई है. स्वामियों में आपसी ईर्ष्या पैदा हो गई है.

नफरत का मतलब है कि आप पड़ोसी को दुश्मन मानें, दोस्त नहीं. साथ देने वाले को हमलावर मानें, बचाने वाला नहीं. शहरों, गांवों में जो आज अकेलापन दिखता है, वह इसी नफरत का नतीजा है जो हिंदू धर्म के ठेकेदारों ने फैलाई है पर पिसेंगे सब इस में.

अदालत तो वही देखेगी न जो दिखाया जाएगा!

उम्मीद तो नहीं थी कि 2020 की फरवरी में उत्तरी दिल्ली में कराए गए मुसलिमों के खिलाफ दंगों, आगजनी और हत्याओं पर किसी हिंदू को भी सजा मिलेगी पर पहली कोर्ट ने एक दिनेश यादव को गुनाहगार मान ही लिया है. वह एक घर जलाने का अपराधी माना गया है जिस में 73 साल की मुसलिम औरत जल कर मर गई.

पुलिस और गवाहों की मिलीभगत से कई दशकों से सत्ता में बैठी पार्टी के गुरगों के किए कुकर्मों पर सजा कम ही मिल पाती है. 1984 के दंगों में 2-4 को सजा मिली, मेरठ के हिंदूमुसलिम दंगों में नहीं मिली, 2002 के गुजरात के दंगों में नहीं मिली और उत्तरी दिल्ली के दंगों में बीसियों मुसलिम आज भी गिरफ्तार हैं. पर हिंदू दंगाई आजाद हैं और 1-2 को पहली अदालत ने सजा दी है और शायद ऊंची अदालतों तक यह भी खत्म हो जाएगी.

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हमारी क्रिमिनल कानून व्यवस्था ही ऐसी है कि गुनाहगारों को अगर सजा देनी है तो अदालत में मामला जाने से पहले दे दो, जमानत न दो. इस चक्कर में गुनाहगार और बेगुनाह दोनों फंस जाते हैं. 200-300 की हिंदुओं की भीड़ में से केवल एक को अपराधी मान कर न्याय का कचूमर निकाला गया है. इस भीड़ ने मकानों पर हमला किया, लूटा और फिर वहां दुबकेछिपे लोगों के साथ मकान को बिना डरे आग लगा दी और फैसला अभी ?ोल लिए हुए है कि वह अपराधी भीड़ का हिस्सा था और भीड़ ने लूट व हत्या की. यह फैसला ऐसा है जो अपील में बदला जाए तो बड़ी बात नहीं.

आज भी उस इलाके में डर का माहौल यह है कि भीड़ में चेहरे पहचानने वाले केवल पुलिस वाले गवाह हैं, आम आदमी नहीं. जो मरे उन के रिश्तेदार भी चुप हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इस तरह के दंगों में किसी को सजा न देने की पुरानी परंपरा है और इक्केदुक्के मामलों में सजा पहली अदालत ने दे भी दी तो बाद में छूट जाएंगे.

हिंदूमुसलिम दंगों या हिंदूसिख दंगों में खुलेआम हत्याएं हुईं और लूट व आगजनी हुई, पर गिरफ्तार मुट्ठीभर लोग हुए और वे भी 1-1 कर के छूट गए. हां, उन में से कुछ को लंबे समय तक अदालतों के चक्कर काटने पड़े जो अपनेआप में किसी सजा से कम नहीं है. पर यह तो लाखों बेगुनाहों को करना होता है, जिन्हें जैसेतैसे पुलिस के हां करने पर जमानत मिल ही जाती है.

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धर्म किसी को सुधारता है, आदमी बनाता है, सच बोलना सिखाता है, अच्छे काम करने का रास्ता दिखाता है, गलत कामों से रोकता है, ये सब खयालीपुलाव हैं और धार्मिक दंगे इस की पोल खोलते हैं. आज नहीं हमेशा से, भारत में ही नहीं दुनियाभर में, औरत, जमीन और पैसे पर नहीं धर्म पर ज्यादा मारकाट हुई है और मारने और लूटने वालों को हमेशा अपने धर्म के दुकानदारों से धर्म की रक्षा करने की वाहवाही मिली है. हर धार्मिक नेता के पीछे कोई बड़ा अपराध या बड़ा अपराधी है. फिर भी लोगों को कहा जाता है कि धर्म के सहारे ही समाज टिका है.

उत्तरी दिल्ली के कई मामलों में फैसले आने हैं पर वे कुछ अच्छा फैसला देंगे या भरोसा पैदा करेंगे, इस का भरोसा कम है. अदालत तो वही देखेगी न जो दिखाया जाएगा.

गहरी पैठ

लोकतंत्र का मतलब होता है कि सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्यों की या फिर पंचायतों की ही क्यों न हो, जनता की जरूरत के हिसाब से जनता की राय से कानून व नियम बनाए जाने चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार जिस दिन से सत्ता में आई है उसे लगा है कि उसे तो सारी ताकत हिंदू देवीदेवताओं ने दी है जिन के बखान पुराणों में भरे हैं जो जनता तो दूर, राजाओं तक के लिए आदेश बनाते रहते थे, बिना किसी से पूछे और बिना यह सोचे कि यह कितना गलत होगा.

नरेंद्र मोदी ने रातोंरात नोटबंदी का फैसला लिया, बिना किसी से पूछ के, बिना जरूरत के. बिना सहमति के जीएसटी थोपा. बिना पूरी तरह बात किए कश्मीर में 370 अनुच्छेद में हेरफेर किया. बिना जांचेपरखे जनवरी, 2020 में कह डाला कि उन्होंने कोविड पर जीत हासिल कर ली, और, बिना राय लिए, बिना जरूरत के, किसानों की रोजीरोटी छीनने वाले 3 कृषि कानून आननफानन में पहले और्डिनैंस से और फिर संसद से पास करा लिए.

पहली बार जनता इस धौंस के खिलाफ खड़ी हुई. बुरी तरह से मार खाने के बाद भी किसान लगभग पूरे साल दिल्ली के चारों ओर बैठे रहे. उन्होंने पानी की बौछारें सहीं, गालियां सुनीं, मोदीभक्त मीडिया ने उन्हें देशद्रोही, खालिस्तानी, अमीर किसान, विदेशियों की सुनने वाला बताया पर वे टिके रहे. भाजपा के नेताओं की हिम्मत तो उन से जिरह करने की नहीं हुई, पर भाजपा भक्त टीवी चैनलों ने जम कर नेताओं से ऐसे जिरह की मानो वे अपराधी हों, गुनाहगार हों.

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किसान न केवल जमीनों, मंडियों और अनाज जमा करने वाले काले कानूनों को हटवा सके, अपने पर लादे गए हजारों मुकदमे वापस करवा सके और न्यूनतम समर्थन मूल्य का वादा सभी फसलों के लिए ले सके. किसानों की यह जीत एक दंभी और अपने को दुर्वासा ऋषि के समान समझने वाली सरकार के खिलाफ अड़ने की थी. अगर श्रीराम दुर्वासा की गलत बात को नहीं मानते तो उन्हें लक्ष्मण को नहीं खोना पड़ता, अगर एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य की गलत बात नहीं मानता तो उसे अंगूठा नहीं कटवाना पड़ता.

आज का किसान समझदार हो गया?है. किसान ही पिछले कई सौ सालों से राजाओं को सैनिक देते रहे हैं. किसान ही आज सेना और पुलिस में भी हैं और अब किसानों में घुसपैठ कर के भारतीय जनता पार्टी मंदिरों को चलवा रही है, मुसलिमों के खिलाफ डंडे बरसाती है. अगर किसानों ने भारतीय जनता पार्टी का पूरी तरह से बौयकौट कर दिया तो न सिर्फ केंद्र व राज्यों की सत्ता हाथ से निकल जाती, मंदिरों का धंधा भी आधाअधूरा रह जाता.

किसानों को अपने मामले खुद तय कर देने दें. किसान अपनी जमीन किसे किस कीमत पर देना चाहते हैं, उस के कानून वही हों जो शहरियों की जमीनों के होते हैं. किसानों को अपने किस काम के पैसे मिलें यह वैसा ही जरूरी है जैसा सरकार अपनी खरीद टैंडर से करती है और बेचने वाले की लागत से दाम को मोटामोटा तय करती है. अखबारों के विज्ञापन भी सरकार अखबारों के खर्च के हिसाब से तय करती है. फिर किसानों से खरीद करने और सिर्फ लागत मूल्य देने में कोई हर्ज नहीं है.

हो सकता है कि सरकार पर बोझ बढ़ जाए पर यह बोझ नरेंद्र मोदी और निर्मला सीतारमन थोड़ी ही जेब से पूरा करेंगे? ये तो टैक्स से जमा करेंगे जिस का मतलब होगा कि किसानों को फसल के जो पैसे मिलेंगे यदि भारी उपज की वजह से कम हो रहे हों तो सब उस का बोझ उठाएंगे.

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किसानों की इस जीत ने शासन को एक सबक सिखाया है और जनता को रास्ता दिखाया है. सरकार की कोई गलत बात नहीं मानो और जनता का हित देख कर फैसले करो. सिर्फ इसलिए कि 15-20 साल अच्छे पद पर अफसर बन कर कुछ लोग देश का आगापीछा तय नहीं कर सकते. देशों ने हिटलरों, मुसोलिनियों, माओ जैसे हठधर्मी शासकों का कहर बहुत सहा है. अब और नहीं. किसानों को तो पूरे देश को शुक्रिया कहना चाहिए कि उन्होंने बहुत ढंग से पूरे साल आंदोलन चलाया, दंगे नहीं होने दिए, सड़कें रोकीं पर शहरों को चलने दिया. यह जीत जनता की जीत है, लोकतंत्र की जीत है और सही शासन करने की नीति समझाने की जीत है.

गुलाम बनते जा रहे युवा

नई टैक्नोलौजी युवाओं पर भारी पड़ेगी. जो युवा गुणगान करते रहते हैं कि आज उन की मुट्ठी में दुनियाभर की नौलज है, वे यह भूल रहे है कि यह नौलज एकतरफा व प्लांटेड है. यह उन के विवेक व उन की सोच को बरबाद करने वाली है. मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीम पर बंद जानकारी, गपें मारने के प्लेटफौर्म, नाचगाना दिखाने वाली ऐप, बहुत ही उलझे हुए कंप्यूटर असल में एक तरह से साजिश हैं जो आज के युवा का मन चाहे बहलाएं लेकिन इस चक्कर में उन्हें मानसिक व शारीरिक गुलाम भी बना रहे हैं.

पहली नजर में यह गलत लगता है पर जरा सी परतें उधेड़ें, तो साफ पता चल जाएगा. आज मोबाइल की जंजीर में बंधे युवा का ध्यान म्यूजिक ऐप, डांस ऐप या कंप्यूटर गेम पर होता है, सो उसे, दूसरों की जरूरतें तो छोडि़ए, किसी को देखने तक की फुरसत तक नहीं होती. मांबाप, भाईबहन, दोस्त क्या कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं, कैसे भाव उन के चेहरों पर हैं, उन्हें मालूम ही नहीं रहता. वे तो सिर्फ स्क्रीन पर आंख और दिमाग गड़ाए रहते हैं.

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इन ऐप्स और गेम्स को जम कर पैसा मिल रहा है. कुछ एड्स से तो कुछ ऐप को खरीदने से. बिटकौइनों ने खरीदारी आसान कर दी है पर खरीद करने पर हाथ में क्या रहता है? जीरो. इन युवाओं को बिना कुछ बदले में पाए पैसे खर्चने की आदत इतनी बढ़ गई है कि उन को काम करने की आदत नहीं रह गई है. उन्हें अपने में मगन रहने और मोबाइल में डूबे रहने की इतनी लत हो गई है कि वे बाहर जो हो रहा है, उस के अच्छेबुरे पर सोच भी नहीं सकते.

आज का युवा अगर जरा सी हवा में उड़ रहा है, जरा सी लहर में बह रहा है तो इसलिए कि उस के पैर जमीन पर हैं ही नहीं. उस के पास किसी लक्ष्य तक पहुंचने की इच्छा ही नहीं है. वह तो अपने डांस के लाइक्स, अपने नेता के विरोधियों को दी गई गालियों वाले मैसेजों को फौरवर्ड करने में लगा है. वह न तो कुछ नया सोच रहा है, न कुछ नया कर रहा है.

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हां, टैक्नोलौजी बहुत उन्नति कर रही है. नईनई चीजें बन रही है. नए ऊंचे भवन बन रहे हैं. आसमान और सितारों को छुआ जा रहा है पर यह सब काम जनता का छोटा सा वर्ग कर रहा है जिस के हाथ में सारी डोरे हैं. वे पूरी मेहनत कर रहे हैं. मोटी किताबें पढ़ रहे है, मोटी किताबें लिख रहे हैं, लैब्स में खोज कर रहे हैं, कंस्ट्रक्शन साइटों पर घंटों और कईकई दिनों जमे रहते हैं पर उन की गिनती कम होती जा रही है. वे कम हैं, इसलिए उन को मिलने वाले पैसे बढ़ रहे हैं. पहले सब से कम और सब से ज्यादा वेतन पाने वालों का अंतर 20-30 गुना होना था, अब हजारों गुना हो रहा है. अडानी, अंबानी हर घंटे में सैंकड़ों करोड़ कमा रहे हैं. लैब्स में काम कर रहे साइंटिस्ट महंगे और महंगे होते जा रहे है. एमबीए, एमबीबीएस, लौ, इंजीनियरिंग कोर्सों में जगह नहीं मिल रही. थोड़े से भी कमजोरों की किसी को जरूरत नहीं. वे तो अब एमेजौन के डिलीवरी बौय बन रहे हैं, मैक्डोनल्ड में कैरियर या स्टोर में सैल्समैन. उन के पास है, तो मोबाइल, जो असल में जंजीर है, मोटी, दिमाग को बांधने वाली.

गहरी पैठ

जम्मूकश्मीर और बंगलादेश के निहत्थे निर्दोष हिंदू अपने ही देश के नागरिकों द्वारा मारे जा रहे हैं और महान हिंदू राष्ट्र बनाने का वादा करने वाले असहाय ताक रहे हैं. जम्मूकश्मीर में अचानक हिंदू बिहारी मजदूरों पर आक्रमण शुरू हो गए और लगभग उसी समय बंगलादेश में बंगलादेशी नागरिक हिंदुओं पर भी आक्रमण होने लगे. कुछ गोलियां से मारे गए, कुछ हिंसा में, कुछ के घर जले. धर्म के नाम पर एक गुट दूसरे के खून का प्यासा होने लगा, जबकि दोनों ही जगह न हिंदू, न मुसलमान इतनी फुरसत में हैं कि वे किसी तरह का दंगा सह सकें.

आर्थिक संकटों से जूझ रहे बंगलादेश और जम्मूकश्मीर दोनों में समय व शक्ति काम में लगनी चाहिए, पर लग रही है फालतू के दंगों में. जिन से तथाकथित कल्याण करने वाला धर्म बचाया जा सके. बंगलादेश ने हाल में उल्लेखनीय आर्थिक प्रगति की है और इस में वहां के हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का बराबर का हाथ है और कोई खास वजह नहीं कि वे एकदूसरे के खून के प्यासे हों.

जम्मूकश्मीर में जो भी नाराजगी कश्मीरी मुसलमानों को है वह दिल्ली सरकार से है और बिहार से गए हिंदू मजदूर उस के लिए कहीं से जिम्मेदार नहीं हैं. ये लोग कश्मीर इसलिए आते हैं, क्योंकि यहां इस तरह का काम करने वाले नहीं मिलते. ये कमा रहे हैं पर साथ ही उन कश्मीरियों की सेवा भी कर रहे हैं जो काम नहीं करना चाहते, वरना क्यों गरम इलाकों में रहने वाले कश्मीर की ठंड में सर्दियों में अपने को ठिठुराएंगे?

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धर्म को असल में लोगों के सुख से कुछ लेनादेना नहीं होता. जन्म से ही धर्म में कैद लोगों को चाहे जैसे मरजी हांका जा सकता है. धर्म ने सदियों से यह फार्मूला अपनाया है. झोंपड़ी में रह कर, भूखेनंगे लोगों के पिरामिड बनाए, रोम के चर्च बनाए, मसजिदें बनाईं, मकबरे बनाए, अंकोरवाट जैसे मंदिर बनाए, एलोरा और अजंता में पत्थर काट कर महल बनाए, अपने सुख के लिए नहीं उस धर्म के लिए जिस का न ओर पता है, न छोर और जो देता सपने और वादे है और लेता पैसा, औरतें और जान है.

जो हिंदू कश्मीर और बंगलादेश में मारे जा रहे हैं और जो मुसलमान मर रहे हैं उन की आपस में कोई दुश्मनी नहीं है, किसी ने एकदूसरे से कुछ लियादिया नहीं. धर्म ने कहा मार दो तो मार डाला. हमारे देश में भी यही काम हिंदू बजरंगी, सेवादल कर रहे हैं. सड़कों पर चल रहे निहत्थे मुसलमानों को मारापीटा जा रहा है, बिना किसी कारण के. न कश्मीर में, न बंगलादेश में और न भारत में दूसरे धर्म को लूटने की नीयत से भी नहीं मारा जा रहा. सिर्फ इसलिए पीट दो, मार दो कि  उस का हुक्म उन के धर्म ने दिया है.

अफगानिस्तान में अमेरिका के भाग जाने से मुसलिम जगत की हिम्मत भी बढ़ गई तो बड़ी बात नहीं. तालिबानी अपने मनसूबे पहले ही जता चुके हैं. अफीम के व्यापार के कारण उन के पैर हर जगह फैले हैं. वे अब यूरोप में भी कहर मचाने लगे हैं, अमेरिका में न जाने फिर कभी न्यूयौर्क के ट्विन टौवर जैसा 9/11 हादसा हो जाए.

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इस सब से क्या हिंदू या ईसाई अपना धर्म छोड़ कर मुसलमान बन जाएं तो बात होती. हर धर्म की अपने मूर्ख भक्तों पर इतनी पकड़ है कि वह जानता है कि लोग जान दे देंगे पर धर्म नहीं बदलेंगे. वैसे भी जब भी 10-20 लोग एक धर्म छोड़ कर हावी हो रहे धर्म को अपनाते हैं तो उन के पुराने धर्म वाले ही उन के दुश्मन हो जाते हैं और उन्हें मारने के स्पष्ट आदेश हर धर्म में हैं. एक तरह से हर धर्म का भक्त अपने धर्म का गुलाम है और ये हत्याएं भक्ति का प्रसाद हैं.

इन से न तो इसलाम को लाभ होगा और न हिंदू धर्म को कोई नुकसान होगा. पिसेंगे तो दोनों धर्मों के लोग. दुकानों की हलवापूरी चालू रहेगी. औरतें भी मिलती रहेंगी.

गहरी पैठ

करनाल और लखीमपुर खीरी में जिस बेरहमी से किसानों को मारा गया है, इस देश के लिए कोई नया नहीं है. इस समय सरकार यह समझ नहीं पा रही कि जो किसान और मजदूर नोटबंदी के समय पूंछ दबाए लाइनों में घंटों खड़े रहे आखिर कैसे हाकिमों के सामने खड़े हो कर आंख से आंख मिला कर बात कर रहे हैं. सरकार को तो आदत है कि राजा का आदेश आकाशवाणी की तरह हो कि वह भगवान का कहा है और उसे मानना हरेक को होगा ही.

कांग्रेस सरकारों ने 60-70 सालों में मंडियों का जो जाल बिछाया था वह कोई किसानों के फायदे में नहीं था पर किसानों ने हार मान कर उस में जीना सीख लिया था क्योंकि मंडी का आढ़ती और लाला उन्हीं के आसपास के गांव का तो था जिस से रोज मेलमुलाकात होती थी.

अब सरकार दूर मुंबई, अहमदाबाद में बैठे सेठों को खेती की बागडोर दे रही है जैसे अंगरेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दी थी. ईस्ट इंडिया कंपनी को तो सिर्फ लगान की फिक्र थी, आज सरकार चाहती है कि किसान वह उगाए जो सेठ चाहें, उसे बेचें, जिसे सेठों की कंपनियां चाहें, उतने पैसे पा कर जयजयकार बोलें जितने मिल जाएं.

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सरकार को समझ नहीं आ रहा कि ऐसा क्या हो गया कि हमेशा से अपनी जाति की वजह से डरा रहने वाला किसान आज आंखें तरेर कर पूछ रहा है कि इस फरमान की क्या जरूरत है, क्यों उस की पीठ पर सेठों की कंपनियां लादी जा रही हैं, क्यों मंडियों के बिछे जालों को तोड़ा जा रहा है. सरकार का इरादा तो नेक था. वह चाहती है कि 1947 के बाद के भूमि सुधार कानूनों के बाद जो जमीनें शूद्र कहे जाने वाले किसानों को मिल गई थीं. एक बार फिर उन जमींदारों के हाथों में पहुंच जाएं जिन के नाम कंपनियों सरीखे हैं और जहां से वे किसानों का आज और कल दोनों तय कर सकें.

इंदिरा गांधी ने जब निजी कंपनियों का सरकारीकरण करा था तो उन्होंने प्राइवेट सेठों का हक छीन कर सरकारी अफसरों को दे दिया था. जनता के पल्ले तो तब भी कुछ नहीं पड़ा था. मंडी कानून भी अफसरशाही को किसानों पर बैठाने के लिए थे पर कम से कम वे मंडियां अफसरों की निजी जागीरें तो नहीं बनती थीं. उन के बच्चे बैठेबिठाए तो नहीं खा सकते थे. अब सेठों के बच्चों के अकाउंट विदेशों में खुलेंगे, पैसा वहां जमा होगा जहां टैक्स नहीं देना होता, वे हर साल 6 महीने विदेशों के मजे लेंगे और मेहनती किसान बिना अपनी जमीन के रातदिन जोत में लगेगा. किसान इस की खिलाफत कर रहे हैं तो किसानों के घरों से ही अब पुलिस बलों के सिपाहियों के हाथों उन्हें पिटवाया जा रहा है. न वह खट्टर और न वह आयुष सिन्हा जो किसानों के सिर फोड़ने की वकालत करते हुए कैमरों में पकड़े गए किसानों के घर से आए हैं.

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अगर देश के नेता किसान होते जैसे देवगौड़ा, लालू प्रसाद यादव, चरण सिंह, देवीलाल या मुलायम सिंह तो किसान कानून न बनते न आफत आती. कांग्रेस ने तो जातेजाते किसानों की जमीन को छीनने को रोकने का कानून बना दिया था और नई सरकार 7 सालों में चाह कर भी उसे अपने आकाओं के हिसाब से बदल नहीं सकी तो उस ने कृषि कानूनों का सहारा लिया है कि किसान इतने फटेहाल हो जाएं कि जमीन बेच कर कुएं में कूद जाएं. नहीं तो पुलिस के डंडे और गाडि़यां तो हैं न कुचलने के लिए.

सरकारी नौकरी किसान की जान से ज्यादा कीमती है?

मोदी सरकार का एक छिपा काम किसी तरह देश में फिर से पूरी तरह पौराणिक ऊंचनीच वाले समाज को बनाना है जिस में पैदा होते ही तय हो जाए कि कौन क्या बनेगा. रामायण और महाभारत में  2 राजसी घरों का ?ागड़ा ही सब से बड़ी बात है और पैदा होने के हक को देने या न देने पर इन पूजे जाने वाले भारीभरकम किताबों से निकलने वालों को पूजा भी जाता है और उन्हीं की तर्ज पर पैदा होने को ही जिंदगी की जड़ माना जाता है.

हमारे संविधान ने चाहे सभी अमीरों और गरीबों के बच्चों को बराबर का माना हो पर असलियत यही है कि रोजाना ऊंचे घरों में पैदा हुए लोगों की ही गारंटी है. अंबेडकर और मंडल की वजह से शैड्यूल कास्टों और बैकवर्डों को जगह मिलने लगी पर यह बात समाज के कर्ताधर्ताओं को पसंद नहीं आई और उन्होंने रामायण और महाभारत के पन्नों से कुछ पात्रों को निकाल कर जनता को ऐसा बहकाया है कि आज सादे घर में पैदा हुआ सिर्फ मजदूर बन कर रह गया है. उसे ज्यादा से ज्यादा कुछ मिल सकता है तो वह ऊंचे घरों में पैदा हुए लोगों के घरों और धंधों में छोटे कामकरना या उन की सुरक्षा करने का. पुलिस और सेना में खूब भरतियां हुई हैं पर अफसरी गिनेचुनों को मिली है. आम घरों के पैदा हुए तो सलूट ही मारते हैं चाहे उन्हें चुप करने के लिए अफसरी का बिल्ला लगाने को दे दिया गया हो.

देश में बढ़ती बेरोजगारी एक पूरी साजिश है. सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन हो गया है इसलिए सरकार ने सरकारी कारखाने धड़ाधड़ बेचने शुरू कर दिए ताकि सादे घरों में पैदा हुए लोगों को ऊंची सरकारी नौकरियां देनी ही न पड़ें. पुलिस और सेना के अलावा कहीं और थोक में भरतियां हो ही नहीं रहीं. आधुनिक टैक्नोलौजी ने निजी कंपनियों को वह रास्ता दिखा दिया जिस में सादे घरों के लोगों का काम मशीनें कर सकती हैं और उन मशीनों को ऊंचे घरों में पैदा हुए एयरकंडीशंड कमरों में बंद दफ्तरों से चला सकते हैं.

आज हालात ये हो गए हैं कि किसानों की मौतों का मुआवजा एक अदद सरकारी नौकरी रह गई है. करनाल और लखीमपुर खीरी में राकेश टिकैत जैसे जु?ारू नेता ने भी एकएक सरकारी नौकरी का वादा पा कर मौतों का सम?ौता कर लिया. बेकारी इतनी बढ़ा दी गई है कि एक सरकारी नौकरी किसान की जान से ज्यादा कीमती हो गई है.

नौकरियों को खत्म करने में नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानूनों, नागरिक कानूनों को जबरन साजिश के तौर पर लाया गया है. सरकार को पहले से पता था कि इन का क्या नुकसान होगा. इन से छोटे घरों से पनपते छोटेछोटे व्यापारी मारे जाएंगे यह एहसास सरकार को था और छोटे धंधे और छोटे व्यापार जो छोटे घरों के मेहनती युवा करने लगे थे, भारीभरकम टैक्सों, नियमों, नोटों की किल्लतों, बैंक अकाउंट रखने की जरूरत जिसे खोलना आसान नहीं है, एक पूरी साजिश की तरह थोपा गया है, ताकि देश की 80 फीसदी जनता गुलाम बन कर रह जाए. उन्हें बहलाने के लिए रामायण और महाभारत, जिसे पहले टीवी पर चला कर घरघर पहुंचा दिया गया था, से लिए पात्रों को दे दिया गया कि इन्हें बचाओ चाहे खुद मर जाओ.

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आज देश बुरी तरह कराह रहा है पर हर गरीब इसे अपने पिछले जन्मों का फल मानता है क्योंकि गीता में यही कृष्ण कह गए हैं. हर गरीब शंबूक, केवट या शबरी की तरह है, इस से ज्यादा नहीं. बेरोजगार हैं तो क्या हुआ, देश के धर्म का डंका तो बज रहा है न.

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