करनाल और लखीमपुर खीरी में जिस बेरहमी से किसानों को मारा गया है, इस देश के लिए कोई नया नहीं है. इस समय सरकार यह समझ नहीं पा रही कि जो किसान और मजदूर नोटबंदी के समय पूंछ दबाए लाइनों में घंटों खड़े रहे आखिर कैसे हाकिमों के सामने खड़े हो कर आंख से आंख मिला कर बात कर रहे हैं. सरकार को तो आदत है कि राजा का आदेश आकाशवाणी की तरह हो कि वह भगवान का कहा है और उसे मानना हरेक को होगा ही.

कांग्रेस सरकारों ने 60-70 सालों में मंडियों का जो जाल बिछाया था वह कोई किसानों के फायदे में नहीं था पर किसानों ने हार मान कर उस में जीना सीख लिया था क्योंकि मंडी का आढ़ती और लाला उन्हीं के आसपास के गांव का तो था जिस से रोज मेलमुलाकात होती थी.

अब सरकार दूर मुंबई, अहमदाबाद में बैठे सेठों को खेती की बागडोर दे रही है जैसे अंगरेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दी थी. ईस्ट इंडिया कंपनी को तो सिर्फ लगान की फिक्र थी, आज सरकार चाहती है कि किसान वह उगाए जो सेठ चाहें, उसे बेचें, जिसे सेठों की कंपनियां चाहें, उतने पैसे पा कर जयजयकार बोलें जितने मिल जाएं.

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सरकार को समझ नहीं आ रहा कि ऐसा क्या हो गया कि हमेशा से अपनी जाति की वजह से डरा रहने वाला किसान आज आंखें तरेर कर पूछ रहा है कि इस फरमान की क्या जरूरत है, क्यों उस की पीठ पर सेठों की कंपनियां लादी जा रही हैं, क्यों मंडियों के बिछे जालों को तोड़ा जा रहा है. सरकार का इरादा तो नेक था. वह चाहती है कि 1947 के बाद के भूमि सुधार कानूनों के बाद जो जमीनें शूद्र कहे जाने वाले किसानों को मिल गई थीं. एक बार फिर उन जमींदारों के हाथों में पहुंच जाएं जिन के नाम कंपनियों सरीखे हैं और जहां से वे किसानों का आज और कल दोनों तय कर सकें.

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