सरकारी और भारतीय भाषाओं के स्कूलों के साथ देश में बड़ा भेदभाव किया जा रहा है. वहां टीचर तो नियुक्त होते हैं ऊंची जातियों के, पर पढ़ने वाले 90 फीसदी छात्रछात्राएं पिछड़ी व निचली जातियों की होती हैं और उन में तालमेल नहीं बैठता. संविधान व कानून चाहे कहता रहे कि देश का हर नागरिक बराबर है, पर सच यही है कि देश में जाति की जड़ें बहुत गहरी हैं और हर शहर ही नहीं, बल्कि महल्ले और एक ही बिल्डिंग में साथसाथ रहने वाले परिवारों के बीच भी न दिखने वाली लाइनें खिंची रहती हैं.

महाराष्ट्र में गोखले इंस्टीट्यूट औफ पौलिटिक्स ऐंड इकोनौमिक्स ने अपने सर्वे और 2004 की जनगणना के आधार पर पाया कि मराठा, कुरबी व अन्य पिछड़ी व निचली जातियों के लोगों की गिनती 84.3 फीसदी के लगभग है और इन का स्तर बाकी ऊंचों से कहीं कम है. गायकवाड़ आयोग ने अपनी लंबी रिपोर्ट में अपने सर्वे से यह सिद्ध किया कि 1872 और 2021 के बीच राज्य में कोई लंबाचौड़ा फर्क नहीं आया है और आज भी लोग अपनी जाति से चिपके हुए हैं.

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जाति का यह बिल्ला न सिर्फ नौकरियों में आड़े आता है, आम लेनदेन, दोस्ती, प्रेम, विवाह में आड़े आता है. जब से हर जाति को अपने देवीदेवता पूजने को दे दिए गए हैं, तब से यह फर्क और ज्यादा पड़ने लगा है. अब हर जाति के इतने लोग हो गए हैं कि वे खोदखोद कर अपने देवीदेवता की कहानियां सुननेसुनाने लगे हैं और समाज में खिंची न दिखने वाली लाइनें हर रोज और ज्यादा गहरी होती जा रही हैं. चूंकि हर जाति के लोगों की गिनती अपनेआप में कहीं ज्यादा है. आपसी लेनदेन, समूह के रहने में, शहरी सुविधाएं जुटाने में दिक्कत नहीं होती और अपनी ही जाति के इतने लोग इकट्ठे किसी भी काम के लिए हो जाते हैं कि दूसरों की जरूरत नहीं होती.

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