Mother’s Day 2024- कन्याऋण : कन्याऋण : क्या नेहा की शादी का फैसला सही साबित हुआ? – भाग 2

अनुभा की सलाह का उस की सास पर कोई असर नहीं हुआ. वह बोलीं, ‘बहू, यह जरूरी नहीं है कि जो तुम्हारी मौसेरी बहन के साथ हुआ, वैसा ही नेहा के साथ भी घटित हो. मुझे गोमती जीजी ने भरोसा दिया है कि उन के रिश्तेदार बहुत भले और नेक इनसान हैं, वे हमारी नेहा को बहुत प्यार से रखेंगे.’

‘मांजी दूसरे लोगों की बातों से तो हम अपनी नेहा के भविष्य का फैसला नहीं कर सकते,’ अनुभा बोली, ‘नेहा की शादी कर के हमें क्या लाभ होगा? कल को शादी के बाद वह गर्भवती हो गई और उस की संतान भी उस जैसी ही होगी तो कितनी मुसीबत हो जाएगी?’

अनुभा की बात सुन कर सास और भी झल्ला गईं. वह आवेश में बोलीं, ‘वाह बहू, तुम भी कितनी दूर की सोचती हो, तुम्हारी अपनी कोई बेटी नहीं है न इसीलिए तुम क्या जानो, कन्यादान का धर्म क्या होता है? कोई भी मां अपनी बेटी को जीवन भर कुंआरी नहीं रख सकती. मैं तो अब तक यही समझ रही थी कि नेहा को उस की दोनों छोटी भाभियां तो नहीं चाहतीं पर कम से कम तुम तो उस को दिल से चाहती हो पर आज तुम्हारी बातों को सुन कर लगा कि वह मेरा भ्रम था.

‘तुम्हें शायद इस बात की चिंता है कि नेहा की शादी के लिए तुम्हारे पति को 2-4 लाख रुपए की व्यवस्था करनी पड़ेगी पर तुम्हें घबराने की जरूरत नहीं है. तुम्हारे ससुरजी ने नेहा के जन्म के समय ही उस के विवाह के लिए 25 हजार की एफ.डी. करवा दी थी जो अब ब्याज समेत 5 लाख की है. मैं उसी से नेहा के विवाह की सारी व्यवस्था कर लूंगी.’

नवीन इतनी देर तक मौन रह कर दोनों की बातें सुन रहा था. अंत में वह अनुभा को डांटते हुए बोला, ‘तुम मां से क्यों बहस कर रही हो. जब उन को तुम्हारी बात ठीक नहीं लग रही है तो इस विषय पर चर्चा बंद करो.’

फिर नवीन मां से बोला, ‘मां, आप जो भी फैसला करेंगी, मुझे मान्य है. नेहा के विवाह के लिए रुपए की व्यवस्था की चिंता करने की आप को जरूरत नहीं है, मैं सारा इंतजाम कर दूंगा.’

2 माह बाद नेहा के विवाह की तारीख तय हो गई. इस बीच नवीन और उस के दोनों भाई नेहा के ससुराल जा कर लड़के और उस के परिवार से मिल आए. वहां से वापस लौटने के बाद नवीन ने नेहा की ससुराल वालों के लालचीपूर्ण रवैये और लड़के के दब्बूपन के बारे में मां को बता कर अपना असंतोष दिखाया था पर मां अपने निर्णय पर दृढ़ रही थीं.

विवाह की तैयारियों में व्यस्त अनुभा जब भी नेहा को देखती, उस की आंखें भर आतीं. नेहा शादीविवाह का असली मतलब क्या है, इस बात से पूरी तरह अनजान थी पर अपने लिए आए ढेर सारे सामान को देख कर उस की आंखें खुशी से चमक उठती थीं. वह बारबार अनुभा से पूछती, ‘भाभी, यह सारी चीजें मेरी हैं न? भाभी, बबलू, टीना, रीना और मिनी मुझे अपनी चीजें छूने नहीं देते. दोनों भाभियां भी मुझे अपना सामान नहीं देखने देतीं, अब मैं भी अपना सामान किसी को छूनेनहीं दूंगी.’ कभी नेहा कहती, ‘भाभी, शादी में मुझे भी घाघराचुन्नी पहनाओगी न.

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हां, साथ में

मैचिंग चूडि़यां भी पहनाना. मुझे लाल रंग बहुत अच्छा लगता है.’

नेहा की बालसुलभ जिज्ञासाएं देख कर कभी अनुभा सोचती, चलो, नेहा के जीवन में कभी तो खुशी के क्षण आए, चाहे थोडे़ समय के लिए ही सही. उस ने शादी के पहले नेहा को उस के वैवाहिक जीवन के बारे में भी जानकारी देने का प्रयास किया. उस का, अपने पति तथा ससुराल के दूसरे सदस्यों से कैसा व्यवहार हो, इस बारे में भी उसे विस्तार से समझाया.

नेहा उस की बातें सुन कर कुछ क्षण तो गंभीर हो जाती पर फिर अपनी वही बालसुलभ बातें और हरकतें करने लगती.

अनुभा को यह देख कर हैरानी होती कि ज्यादातर रिश्तेदार नेहा की शादी के फैसले पर उस की सास को बधाइयां देते हुए कहते, ‘चलो जी, आप ने तो बेटी की शादी कर के बहुत अच्छा किया. अब आप कन्याऋण से उऋण हो जाएंगी.’ उन की बातें सुन कर उस की सास अपने चेहरे पर गर्वीली मुसकान लाते हुए उस की ओर नजर डालती, ताकि उस को एहसास हो कि नेहा के विवाह का विरोध कर वह कितनी बड़ी गलती कर रही थी.

नेहा के ससुराल जाने के बाद घर एकदम सूना हो गया. उस की बालसुलभ हरकतें रहरह कर अनुभा को याद हो आतीं. मांजी भी नेहा के जाने के बाद से उदास रहने लगी थीं. यद्यपि वे सब के सामने अपनी मनोदशा जाहिर नहीं करतीं पर सब की तरह उन के मन में भी यह आशंका जरूर थी कि नेहा ससुराल में एडजस्ट हो पाएगी कि नहीं.

नेहा को ससुराल गए एक माह से अधिक हो गया था. शुरूशुरू में तो उस से हर दिन ही फोन पर बात हो जाती थी और वह खुश भी लगती थी पर धीरेधीरे उस की आवाज में उदासी छलकने लगी. अब फोन पर वह बोलने लगी थी, ‘भाभी, मुझे यहां अच्छा नहीं लगता. यह लोग सारे समय मुझे देख कर हंसते हैं और मुझे पागल कह कर चिढ़ाते हैं. ये सब बहुत गंदे हैं, राजेश भी इन के साथ मेरा मजाक उड़ाता है.’

नेहा की बातें सुन कर अनुभा को थोड़ी चिंता होनी लगी थी पर वह नेहा को यही समझाती कि वह जिद न करे. सब की बात माने.

पिछले एक सप्ताह से वे जब भी फोन करते नेहा के ससुराल वाले कोई न कोई बहाना बना कर उस से बात नहीं होने देते. कभी कहते, नेहा बाजार गई है, कभी बाथरूम में है तो कभी सो रही है. एक दिन नवीन ने राजेश से बात करने की कोशिश की पर वह भी उन से बात करने से कतराता रहा.

उस दिन रविवार था. नवीन, मांजी और अनुभा ड्रांइगरूम में बैठे नेहा की ही बात कर रहे थे कि नवीन बोला, ‘मां, आज एक बार मैं फिर नेहा से बात करने की कोशिश करता हूं, यदि आज भी उस से बात नहीं हो पाती है तो मैं कल नेहा को कुछ दिनों के लिए उस के ससुराल से ले कर आने की सोच रहा हूं.’

इतना कह कर नवीन नेहा के ससुराल फोन डायल करने लगा. संयोग से उस दिन नेहा ने ही फोन उठाया था.

नवीन की आवाज सुनते ही वह फोन पर ही जोरजोर से रो पड़ी, ‘भैया, आप लोग फोन क्यों नहीं करते? आप यहां से मुझे ले जाओ. ये लोग बहुत खराब हैं. मुझे बहुत तंग करते हैं. मैं इन के पास नहीं रहूंगी.’

नेहा आगे कुछ कहती उस के पहले ही किसी ने रिसीवर उस के हाथ से छीन कर रख दिया था.

अब तो कुछ सोचने का प्रश्न ही नहीं था. उन लोगों ने तय किया कि शाम की ट्रेन से ही नवीन और अनुभा नेहा के ससुराल जा कर एक बार वस्तुस्थिति की जानकारी लें. नेहा की बात सुन कर घर में सब का ‘मूड’ खराब हो गया था.

सुबह अचानक अपने घर में नवीन और अनुभा को देख कर नेहा के ससुराल वाले सकपका गए. नेहा को जब उन के आने का पता चला तो वह दौड़ती हुई आई और नवीन को देखते ही उस से लिपट गई. नेहा की आंखों में दहशत और खौफ देख कर दोनों घबरा गए और अनुभा ने ज्यों ही उस की पीठ पर हाथ फेरा, वह जोरजोर से सुबक पड़ी. बारबार एक ही बात दोहरा रही थी, ‘भाभी, मुझे अपने साथ ले चलो, ये सब लोग बहुत गंदे हैं. मैं इन के घर कभी नहीं आऊंगी.’

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Mother’s Day Special- मोहपाश : बच्चों से एक मां का मोहभंग

जब से कुमार साहब ने औफिस से 2 महीने की छुट्टी ले कर नैनीताल जाने का मन बनाया था, तब से ही विभा परेशान थी. उस ने पति को टोका भी था, ‘‘अजी, पूरी जवानी तो हम ने घर में ही काट दी, अब भला बुढ़ापे में कहा घूमने जाएंगे.’’

‘‘अरे भई, यह किस डाक्टर ने कहा है कि जवानी में ही घूमना चाहिए, बुढ़ापे में नहीं,’’ कुमार साहब भी तपाक से बोले.

विभा के गिरते स्वास्थ्य को देख कर कुमार साहब बड़े चिंतित थे. उन्होंने कई डाक्टरों को भी दिखाया था. सभी ने एक ही बात कही थी कि दवा के साथसाथ उन्हें अधिक से अधिक आराम की भी जरूरत है.

काफी सोचविचार के बाद कुमार साहब ने 2 महीने नैनीताल में रहने का प्रोग्राम बनाया था कि इस बहाने कुछ समय के लिए ही सही, शहर के प्रदूषित वातावरण से मुक्ति मिलेगी और घर के झमेलों से दूर रह कर विभा को आराम भी मिलेगा.

कुमार साहब का कोई लंबाचौड़ा परिवार न था. 2 बेटे थे, दोनों ही इंजीनियर. बड़ी कंपनियों में कार्यरत थे. विवाह के बाद दोनों ने अपने अलगअलग आशियाने बना लिए थे. शायद यह घर उन्हें छोटा लगने लगा था. वैसे भी एक गली के पुराने घर में रहना उन के स्तर के अनुकूल न था.

जब से बेटे अलग हुए, तब से ही विभा का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता गया. विभा ने बच्चों को ले कर अनेक सुनहरे सपने बुन रखे थे, पर बच्चों के जीवन में शायद मां का कोईर् स्थान ही न था. विभा इस सदमे को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी. बच्चों के व्यवहार ने विभा के सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया था.

महीने में 1-2 बार बच्चे उन से मिलने आते थे और कुछ देर बैठ कर औपचारिक बातें कर के चले जाते थे. इसी तरह समय बीतता गया. बच्चों से मिलनाजुलना अब पहले से भी कम हो गया. इसी बीच वे 1 पोते व 1 पोती के दादादादी भी बन गए.

दोनों बहुएं पढ़ीलिखी थीं. उन्होंने भी अपने लिए नौकरी ढूंढ़ ली. अब पहली बार उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ कि उन्हें मांबाबूजी से अलग घर नहीं बसाना चाहिए था. मां घर में होतीं तो बच्चों को संभाल लेतीं.

बड़ी बहू नंदिता तो एक दिन बेटे गौतम को ले कर सास के पास पहुंच भी गई. बहू, पोते को देख कर विभा निहाल हो गई.

‘अमित नहीं आया?’ उस ने शिकायती लहजे में बहू से पूछा.

‘क्या करूं मांजी, उन्हें तो दिनभर औफिस के काम से ही फुरसत नहीं है. कितने दिन से कह रही थी कि मांबाबूजी से मिलने की बड़ी इच्छा है, औफिस से जल्दी आ जाना, पर आ ही नहीं पाते. आखिर परेशान हो कर मैं अकेली ही गौतम को ले कर आ गई.’

‘बहुत अच्छा किया बहू,’ गदगद स्वर में विभा बोली और गौतम को खिलाने लगीं.

‘मांजी, आप को यह जान कर खुशी होगी कि मैं ने नौकरी कर ली है.’

‘हां बेटी, बात तो खुशी की ही है. भला हर किसी को नौकरी थोड़े ही मिलती है? जो नौकरी लायक होता है, उसे ही नौकरी मिलती है. मेरी बहू इतनी काबिल है, तभी तो उसे नौकरी मिली,’ विभा ने खुश होते हुए कहा.

‘पर मांजी, एक समस्या है, अब गौतम को तो आप को ही संभालना पड़ेगा. मैं चाहती हूं कि आप और बाबूजी हमारे साथ रहें. इस घर को किराए पर दे देंगे.’

‘नहीं बेटी, यह तो संभव नहीं है. इस घर से मेरी बहुत सी यादें जुड़ी हैं. इस घर में मैं ब्याह कर आई थी. इसी घर में मेरी गोद भरी थी. इस घर के कोनेकोने में मेरे अमित और विजय की किलकारियां गूंजती हैं. इसी घर में तुम और स्मिता आईं और यह घर खुशियों से भर गया. अकेली होने पर यही यादें मेरा सहारा बनती हैं. इस घर को मैं नहीं छोड़ सकती.’

विभा ने साफ मना किया तो नंदिता बोली, ‘ठीक है मांजी, फिर मैं औफिस जाते समय गौतम को यहां छोड़ जाया करूंगी और लौटते समय ले जाया करूंगी.’

‘यह ठीक रहेगा,’ विभा ने अपनी सहमति देते हुए कहा. हालांकि उन का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, पर वह अपने एकाकी जीवन से बहुत ऊब चुकी थी. अब दिन भर गौतम उस के साथ रहेगा. इस कल्पना मात्र से ही वह खुश थी.

जब कुमार साहब को इस बात पता चला कि दिनभर गौतम की देखभाल विभा करेगी तो उन्हें यह अच्छा न लगा. अतएव झुंझला कर बोले, ‘जिम्मेदारी लेने से पहले अपना स्वास्थ्य तो देखा होता. दिनभर एक बच्चे को संभालना कोई आसान काम है?’

‘अपने बच्चे हैं. अपने बच्चों के हम ही काम नहीं आएंगे तो कौन आएगा?’ विभा ने समझाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘गौतम यहां रहेगा तो क्या मुझे अच्छा नहीं लगेगा? मुझे भी अच्छा लगेगा, पर मुझे दुख तो इस बात का है कि तुम्हारे ये स्वार्थी बच्चे काम पड़ने पर तो अपने बन जाते हैं, पर काम निकलते ही पराए हो जाते हैं,’ कुमार साहब बोले तो विभा ने चुप रहने में ही भलाई समझी.

जैसे ही छोटी बहू स्मिता को पता चला कि गौतम दिनभर मांजी के पास रहा करेगा, वैसे ही उस ने भी अपनी बेटी ऋचा को वहां छोड़ने का निर्णय ले लिया.

2 दिनों बाद से ही गौतम और ऋचा पूरा दिन अपनी दादी के साथ बिताने लगे. विभा का पूरा दिन उन दोनों के छोटेछोटे कामों में कैसे निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था. कुछ महीने हंसीखुशी बीत गए, पर जैसेजैसे वे बड़े हो रहे थे, विभा के लिए समस्याएं बढ़ती जा रही थीं. अब बच्चे आपस में लड़तेझगड़ते तो थे ही, पूरे घर को भी अस्तव्यस्त कर देते थे, जिसे फिर से जमाने में विभा को काफी मशक्कत करनी पड़ती थी.

विभा अपनी परेशानियों को कुमार साहब से छिपाने का लाख प्रयत्न करती, पर उन से कुछ छिपा न रहता था. एक दिन वे औफिस से लौटे तो देखा कि विभा के पैर में पट्टी बंधी थी.

‘क्या हुआ पैर में?’ कुछ परेशान होते हुए उन्होंने पूछा.

‘कुछ नहीं,’ विभा ने बात टालने का प्रयत्न किया, पर तभी पास खेलती ऋचा तुतलाती आवाज में बोली, ‘‘दादाजी, दौतम ने तांच ता दिलाछ तोल दिया. दादीमां तांच उथा लही थी. तबी इनते पैल में तांच लद दया. दादाजी, आप दौतम को दांतिए. वह भोत छलालती है. दादीमां को भोत तंग कलता है,’’ ऋचा गौतम की शिकायत लगाते हुए लाड़ से दादाजी के गले में झूल गई.

ऋचा की प्यारीप्यारी तुतलाती बातें सुन कर कुमार साहब मुसकरा दिए,  ‘और तू भी अपनी दादीमां को तंग करती है,’ उन्होंने कहा तो वह तुरंत गरदन हिलाते हुए बोली, ‘नहींनहीं, मैं तभी इन्हें पलेछान नहीं तलती. मैं तो हमेछा इनता ताम ही तरती हूं. बले ही पूछ लो दादीमां छे.’

अभी कुमार साहब और विभा ऋचा की प्यारीप्यारी बातों का आनंद उठा ही रहे थे कि तभी गौतम के चिल्लाने की आवाज आई.

‘अरे, क्या हुआ?’ कहती हुई विभा दूसरे कमरे में भागी. गौतम वहां आंखों में आंसू भरे अपने पैर को पकड़ कर बैठा था.

‘क्या हुआ बेटा?’ विभा ने उसे पुचकारते हुए पूछा.

‘दादीमां, मैं तो स्टूल पर चढ़ कर अलमारी की सफाई कर रहा था, पर पता नहीं स्टूल कैसे खिसक गया और मैं गिर पड़ा,’ गौतम ने सफाई देते हुए कहा.

‘पैर पकड़े क्यों बैठा है? क्या पैर में चोट लग गई?’

‘हां दादीमां, पैर मुड़ गया,’ पैर को और जोर से पकड़ते हुए वह बोला.

विभा ने गौतम को खड़ा कर के चलाने का प्रयास किया, पर दर्द काफी था, वह चल नहीं सका.

‘लगता है गौतम के पैर में मोच आ गई है,’ विभा ने कुमार साहब को बताया तो वे उसे ले कर तुरंत डाक्टर के पास पहुंचे.

मन ही मन वे झुंझला रहे थे कि अब बुढ़ापे में यही काम रह गया हमारा. सचमुच गौतम के पैर में मोच आ गई थी. रात को नंदिता गौतम को लेने के लिए पहुंची तो उस के पैर में मोच आई देख कर वह भी परेशान हो उठी.

कुमार साहब और विभा ने जब नंदिता को गौतम से यह पूछते हुए सुना कि तुम्हारी दादीमां क्या कर रही थीं जो तुम्हें चोट लग गई तो वे सन्न रह गए.

‘अभी भी तुम्हारा मोहभंग हुआ या नहीं?’ कुमार साहब ने उदास सी मुसकान बिखेरते हुए पूछा, पर विभा मौन थी मानो उसे कुछ सुनाई ही नहीं दिया था. पर बहू का वह वाक्य  ‘तुम्हारी दादीमां क्या कर रही थीं जो तुम्हें चोट लग गई,’ उस के कानों में बारबार गूंज रहा था.

ममता की मारी विभा को बच्चों के मोहपाश ने बुरी तरह जकड़ रखा था. वह उस से निकलने का जितना प्रयास करती, उस की जकड़न उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाती. स्थिति यहां तक पहुंची कि विभा ने बिस्तर ही पकड़ लिया.

पिछले कई दिनों से विभा को बुखार था. कुमार साहब ने अमित को फोन कर दिया, ‘बेटा अमित, तुम्हारी मां की तबीयत काफी खराब है. आज तुम गौतम को यहां मत भेजना, वह संभाल नहीं सकेगी. विजय को भी कह देना कि वह भी ऋचा को न भेजे.’

‘पर बाबूजी, ऐसे कैसे चलेगा? नंदिता की नईनई नौकरी है, उसे तो छुट्टी नहीं मिल सकती. मैं कोशिश करूंगा, यदि मुझे छुट्टी मिल गई तो आज मैं गौतम को रख लूंगा. विजय को भी मैं बता दूंगा.’

अगले दिन अमित और विजय के ड्राइवर आ कर दोनों बच्चों को विभा के पास छोड़ गए, साथ ही कह गए कि उन्हें छुट्टी नहीं मिली. मजबूर हो कर कुमार साहब ने छुट्टी ली और दोनों बच्चों की देखभाल की. दिनभर उन की शरारतों से वे परेशान हो गए.

शाम के समय जब विभा की तबीयत कुछ संभली, तब कुमार साहब ने उसे फिर समझाया, ‘देख लिया अपने बच्चों को? तुम उन के बच्चे पालने में दिनभर खटती रहती हो और तुम्हारी दोनों में से एक बहू से भी यह न हुआ कि 1 दिन की छुट्टी ले कर तुम्हारी देखभाल कर लेती.’

‘क्या करें, उन की भी कोई मजबूरी होगी,’ कह विभा ने करवट बदल ली.

रात को दोनों बेटे बच्चों को लेने आए. जितनी देर वे वहां बैठे, अपनी सफाईर् पेश करते रहे.

‘मां, नंदिता के औफिस में आज बाहर से कोई पार्टी आई हुई थी, इसलिए उसे छुट्टी नहीं मिली और मुझे भी जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी.’

अमित ने कहा तो विजय भी कैसे चुप रहता. बोला, ‘मां, स्मिता ने भी छुट्टी लेने की बहुत कोशिश की, पर उस के कालेज में आजकल परीक्षाएं चल रही हैं. और मैं तो अभी शाम को ही टूर से लौटा हूं.’

कुमार साहब यह अच्छी तरह समझ गए थे कि यहां रह कर विभा को आराम नहीं मिलेगा. उस के स्वार्थी बेटे और बहुएं उस की ममता का नाजायज फायदा उठाते रहेंगे. इसलिए उन्होंने कुछ समय के लिए घर से बाहर जाने की सोची थी.

विभा सोच रही थी कि यदि वे नैनीताल चले जाएंगे तो गौतम और ऋचा की देखभाल कौन करेगा. उस ने अपने मन की बात कुमार साहब से कही तो वह भड़क उठे,  ‘‘अरे, जिन के अपने शहर में नहीं रहते उन के बच्चे क्या नहीं पलते? तुम्हारे बेटेबहू इतना कमाते हैं, क्या बच्चों के लिए नौकर नहीं रख सकते? क्या इस शहर में शिशुगृहों की कमी है? तुम ने उन के बच्चों की जिम्मेदारी ले रखी है क्या? उन्हें अपनेआप संभालने दो अपने बच्चों को.’’

जब अमित और विजय को मालूम हुआ कि मां और बाबूजी नैनीताल जा रहे हैं तो वे परेशान हो उठे.

‘‘मांजी, 2 महीने बाद मेरे कालेज में छुट्यिं हो जाएंगी. आप तब चली जाना नैनीताल. यदि आप चली गईं तो बच्चों को कौन संभालेगा,’’ स्मिता ने अपनी परेशानी बताते हुए विभा से कहा.

विभा क्या उत्तर देती, वह तो स्वयं परेशान थी. तभी पास बैठे कुमार साहब बोले, ‘‘बेटी, यदि हम नैनीताल नहीं जाएंगे तब भी तुम्हारी सास की तबीयत ऐसी नहीं है कि वह 2-2 बच्चों को संभाल सके. यह भला किस का सहारा बनेगी, इसे तो स्वयं सहारे की जरूरत है.’’

बाबूजी की बात सुन कर सब चुप थे. पहली बार उन्हें एहसास हो रहा था कि  उन्हें मांबाबूजी कि कितनी जरूरत थी. कुमार साहब और विभा नैनीताल के लिए रवाना हो गए. विभा उदास थी. कुमार साहब भी खुश न थे. उन के सामने अपने बच्चों के परेशान चेहरे घूम रहे थे. कुमार साहब को उदास देख कर विभा ने पूछा, ‘‘आप उदास क्यों हैं? आप को खुश होना चाहिए, हम नैनीताल जा रहे हैं.’’

‘‘तुम क्या सोचती हो कि बच्चों को परेशान देख कर मुझे अच्छा लगता है? पर मैं यह नहीं चाहता कि बच्चे हमारे प्यार का गलत फायदा उठाएं. इस के लिए उन्हें सबक देना जरूरी है और इस के लिए कठोर भी होना पड़े तो झिझकना नहीं चाहिए.’’

कुमार साहब की बात सुन कर विभा संतुष्ट थी. उस के चारों ओर घिरे उदासी के बादल छंटने लगे थे. वह समझ गई थी कि इस मोहपाश में जकड़ कर वह मां का कर्तव्य पूरा नहीं कर पाएगी. आज पहली बार उसे अनुभव हुआ कि जिस मोहपाश में वह अब तक घिरी थी, उस की जकड़न स्वत: ही ढीली हो रही है.

Mother’s Day Special: मां हूं न- भाग 1

आराधना, जिसे घर में सभी प्यार से अरू कहते थे. सुबह जल्दी सो कर उठती या देर से, कौफी बालकनी में ही पीती थी. आराधना कौफी का कप ले कर बालकनी में खड़ी हो जाती और सुबह की ठंडीठंडी हवा का आनंद लेते हुए कौफी पीती. इस तरह कौफी पीने में उसे बड़ा आनंद आता था. उस समय कोठी के सामने से गुजरने वाली सड़क लगभग खाली होती थी. इक्कादुक्का जो आनेजाने वाले होते थे, उन में ज्यादातर सुबह की सैर करने वाले होते थे. ऐसे लोगों को आतेजाते देखना उसे बहुत अच्छा लगता था.

वह अपने दादाजी से कहती भी, ‘आई एम डेटिंग द रोड. यह मेरी सुबह की अपाइंटमेंट है.’

उस दिन सुबह आराधाना थोड़ा देर से उठी थी. दादाजी अपने फिक्स समय पर उठ कर मौ िर्नंग वाक पर चले गए थे. आराधना के उठने तक उन के वापस आने का समय हो गया था. आरती उन के लिए अनार का जूस तैयार कर के आमलेट की तैयारी कर रही थी. कौफी पी कर आराधना नाश्ते के लिए मेज पर प्लेट लगाते हुए बोली, ‘‘मम्मी, मैं ने आप से जो सवाल पूछा था, आप ने अभी तक उस का जवाब नहीं दिया.’’

‘‘कौन सा सवाल?’’ आरती ने पूछा.

‘‘वही, जो द्रौपदी के बारे में पूछा था.’’

फ्रिज से अंडे निकाल कर किचन के प्लेटफौर्म पर रखते हुए आरती ने कहा, ‘‘मुझे नाश्ते की चिंता हो रही है और तुझे अपने सवाल के जवाब की लगी है. दादाजी का फोन आ गया है, वह क्लब से निकल चुके हैं. बस पहुंचने वाले हैं. उन्हीं से पूछ लेना अपना सवाल. तेरे सवालों के जवाब उन्हीं के पास होते हैं.’’

आरती की बात पूरी होतेहोते डोरबेल बज गई. आराधना ने लपक कर दरवाजा खोला. सामने दादाजी खड़े थे. आराधना दोनों बांहें दादाजी के गले में डाल कर सीने से लगते हुए लगभग चिल्ला कर बोली, ‘‘वेलकम दादाजी.’’

आराधना 4 साल की थी, तब से लगभग रोज ऐसा ही होता था. जबकि आरती के लिए रोजाना घटने वाला यह दृश्य सामान्य नहीं था. ऐसा पहली बार तब हुआ था, जब अचानक सुबोध घरपरिवार और कारोबार छोड़ कर एक लड़की के साथ अमेरिका चला गया था. उस के बाद सुबोध के पिता ने बहू और पोती को अपनी छत्रछाया में ले लिया था.

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आरती ने देखा, उस के ससुर यानी आराधना के दादाजी ने उस का माथा चूमा, प्यार किया और फिर उस का हाथ पकड़ कर नाश्ते के लिए मेज पर आ कर बैठ गए. उस दिन सुबोध को गए पूरे 16 साल हो गए थे.

जाने से पहले उस ने औफिस से फोन कर के कहा था, ‘‘आरती, मैं हमेशा के लिए जा रहा हूं. सारे कागज तैयार करा दिए हैं, जो एडवोकेट शर्मा के पास हैं. कोठी तुम्हारे और आराधना के नाम कर दी है. सब कुछ तुम्हें दे कर जा रहा हूं. पापा से कुछ कहने की हिम्मत नहीं है. माफी मांगने का भी अधिकार खो दिया है मैं ने. फिर कह रहा हूं कि सब लोग मुझे माफ कर देना. इसी के साथ मुझे भूल जाना. मुझे पता है कि यह कहना आसान है, लेकिन सचमुच में भूलना बहुत मुश्किल

होगा. फिर भी समझ लेना, मैं तुम्हारे लिए मर चुका हूं.’’

आरती कुछ कहती, उस के पहले ही सुबोध ने अपनी बात कह कर फोन रख दिया था. आरती को पता था कि फोन कट चुका है. फिर भी वह रिसीवर कान से सटाए स्तब्ध खड़ी थी. यह विदाई मौत से भी बदतर थी. सुबोध बसाबसाया घर अचानक उजाड़ कर चला गया था.

दादा और पोती हंसहंस कर बातें कर रहे थे. आरती को अच्छी तरह याद था कि उस दिन सुबोध के बारे में ससुर को बताते हुए वह बेहोश हो कर गिर गई थी. तब ससुर ने अपनी शक्तिशाली बांहों से उसे इस तरह संभाल लिया था, जैसे बेटे के घरसंसार का बोझ आसानी से अपने कंधों पर उठा लिया हो.

‘‘आरती, तुम ने अपना जूस नहीं पिया. आज लंच में क्या दे रही हो?’’ आरती के ससुर विश्वंभर प्रसाद ने पूछा.

‘‘पापा, आज आप की फेवरिट डिश पनीर टिक्का है.’’ आरती ने हंसते हुए कहा.

‘‘वाह! आरती बेटा, तुम सचमुच अन्नपूर्णा हो. तुम्हें पता है अरू बेटा, जब पांडवों के साथ द्रौपदी वनवास भोग रही थी, तभी एक दिन सब ने भोजन कर लिया तो…’’

‘‘बस…बस दादाजी, यह बात बाद में. मेरे बर्थडे पर आप ने मुझे जो टेल्स औफ महाभारत पुस्तक गिफ्ट में दी थी, कल रात मैं उसे पढ़ रही थी, क्योंकि मैं ने आप को वचन दिया था. दादाजी उस में द्रौपदी की एक बात समझ में नहीं आई. उसी से मुझे उस पर गुस्सा भी आया.’’

‘‘द्रौपदी ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया था बेटा, जो तुम्हें उस पर गुस्सा आ गया?’’

‘‘अपने बेटे के हत्यारे को उन्होंने माफ कर दिया था. अब आप ही बताइए दादाजी, इतने बड़े अपराध को भी भला कोई माफ करता है?’’

‘‘अश्वत्थामा का सिर तो झुक गया था न?’’

‘‘व्हाट नानसैंस, जिंदा तो छोड़ दिया न? बेटे के हत्यारे को क्षमा, वह भी मां हो कर.’’ आराधना चिढ़ कर बोली.

‘‘बेटा, वह मां थी न, इसलिए माफ कर दिया कि जिस तरह मैं बेटे के विरह में जी रही हूं, उस तरह का दुख किसी दूसरी मां को न उठाना पड़े. बेटा, इस तरह एक मां ही सोच सकती है.’’

आराधना उठ कर बेसिन पर हाथ धोते हुए बोली, ‘‘महाभारत में बदला लेने की कितनी ही घटनाएं हैं. द्रौपदी ने भी तो किसी से बदला लेने की प्रतिज्ञा ली थी?’’

प्लेट ले कर रसोई में जाते हुए आरती ने कहा, ‘‘दुशासन से.’’

‘‘एग्जैक्टली, थैंक्स मौम. द्रौपदी ने प्रतिज्ञा ली थी कि अब वह अपने बाल दुशासन के खून से धोने के बाद ही बांधेगी. इस के बावजूद भी क्षमा कर दिया था. क्या बेटे की मौत की अपेक्षा लाज लुटने का दुख अधिक होता है? यह बात मेरे गले नहीं उतर रही दादाजी.’’

उसी समय विश्वंभर प्रसाद के मोबाइल फोन की घंटी बजी तो वह फोन ले कर अंदर कमरे की ओर जाते हुए बोले, ‘‘बेटा, द्रौपदी अद्भुत औरत थी. भरी सभा में उस ने बड़ों से चीखचीख कर सवाल पूछे थे. हैलो प्लीज… होल्ड अप पर बेटा वह मां थी न, मां से बढ़ कर इस दुनिया में कोई दूसरा नहीं है.’’

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इतना कह कर विश्वंभर प्रसाद ने एक नजर आरती पर डाली, उस के बाद कमरे में चले गए. दोनों की नजरें मिलीं, आरती ने तुरंत मुंह फेर लिया. आराधना ने हंसते हुए कहा, ‘‘लो दादाजी ने पलभर में पूरी बात खत्म कर दी.’’

इस के बाद वह बड़बड़ाती हुई भागी, ‘‘बाप रे बाप, कालेज के लिए देर हो रही है.’’

आराधना और विश्वंभर चले गए. दोपहर को ड्राइवर आ कर लंच ले गया. आरती ने थोड़ा देर से खाना खाया और जा कर बैडरूम में टीवी चला कर लेट गई. थोड़ी देर टीवी देख कर उस ने जैसे ही आंखें बंद कीं, जिंदगी के एक के बाद एक दृश्य उभरने लगे. सांसें लंबीलंबी चलने लगीं.

हांफते हुए वह उठ कर बैठ गई. घड़ी पर नजर गई. सवा 3 बज रहे थे. 16 साल पहले आज ही के दिन इसी पलंग पर वह फफकफफक कर रो रही थी. डाक्टर सिन्हा सामने बैठे थे. दूसरी ओर सिरहाने ससुर विश्वंभर प्रसाद खड़े थे. वह सिर पर हाथ फेरते हुए कह रहे थे, ‘‘आरती, तुम्हें आज जितना रोना हो रो लो. आज के बाद फिर कभी उस कुल कलंक का नाम ले कर तुम्हें रोने नहीं दूंगा. डाक्टर साहब, मुझे पता नहीं चला कि यह सब कब से चल रहा था. पता नहीं वह कौन थी, जिस ने मेरा घर बरबाद कर दिया. उस ने तो लड़ने का भी संबंध नहीं रखा.’’

Mother’s Day Special- मां: आखिर मां तो मां ही होती है

Mother’s Day Special: मोह का बंधन

Mother’s Day Special: मोह का बंधन- भाग 1

लेखक- वनश्री अग्रवाल

वह अपने बेटे सुशांत के पास पहली बार जा रही थीं. 3 महीने पहले ही सुशांत का विवाह अमृता से हुआ था. दोनों बंगलौर में नौकरी करते थे और शादी के बाद से ही मां को बुलाने की रट लगाए हुए थे. एक हफ्ते पहले सुशांत ने अपने प्रोमोशन की खबर देते हुए मां को हवाई टिकट भेजा और कहा कि मां, अब तो आ जाओ. इस पर बीना उस का आग्रह न टाल सकीं. विमान में पहुंचने पर एअर होस्टेस ने सीट तक जाने में बीना की मदद की और सीटबेल्ट लगाने का उन से आग्रह किया. नियत समय पर विमान ने उड़ान भरी तो नीचे का दृश्य बीना को अत्यंत मोहक लग रहा था. छोटेछोटे भवन, कहीं जंगल तो कहीं घुमावदार सड़क और इमारतें…सभी खिलौने जैसे दिख रहे थे. कुछ देर बाद विमान बादलों को चीरता हुआ बहुत ऊपर पहुंच गया.

थोड़ी देर तक तो बीना बाहर देखती रहीं, फिर ऊब कर एक पत्रिका उठा ली और उस के पन्ने पलटने लगीं. तभी उन की नजर एक विज्ञापन पर पड़ी जो उन के ही बैंक की आवासीय ऋण योजना का था. साथ ही उस में छपे एक खुशहाल परिवार का चित्र देख कर उन्हें अपने घरसंसार का खयाल आ गया.

उसे बैंक में नौकरी करते हुए अब 15 साल बीत चुके हैं. परिवार में वह और उस के 3 बेटे हैं और अब तो 2 बहुएं भी आ गई हैं. बड़ा बेटा प्रशांत अमेरिका में कंप्यूटर इंजीनियर है. मंझला सुशांत बंगलौर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत है. निशांत सब से छोटा है और लखनऊ में डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा है.

आज जब वह बच्चों की सफलता के बारे में सोचती हैं तो उन्हें अपने पति आनंद की कमी सहसा महसूस हो उठती है. आज वह जिंदा होते तो कितने खुश होते, अकसर यही खयाल मन में आता है. हृदयाघात ने 12 साल पहले आनंद को उन से छीन लिया था. बैंक की नौकरी, बच्चों की परवरिश और घर की जिम्मेदारी के बीच पति आनंद की कमी बीना को हमेशा महसूस होती रही पर अब जब बच्चे सक्षम हो कर उन से दूर चले गए हैं तब अकेलेपन का एहसास उन्हें अधिक सालने लगा है.

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कुछ साल पहले तक बीना यही सोच कर आश्वस्त हो जाया करती थीं कि यह स्थिति हमेशा के लिए थोड़े ही रहने वाली है. आफिस के सहकर्मी, नातेरिश्तेदार सभी सलाह देते कि अब तो बेटों की शादियां कर के भरेपूरे परिवार का आनंद उठाएं. इच्छा तो बीना की भी यही होती थी पर उन्हीं लोगों के अनुभवों के कारण उन की सोच बदलने लगी.

आफिस के मेहताजी का उदाहरण बीना को भीतर तक हिला गया था. अपने बेटे की शादी तय होने पर पूरे आफिस में मिठाई बांटते हुए उन्होंने कहा था कि अब वह रिटायरमेंट ले कर गृहस्थी का सुख भोगेंगे. बड़े चाव से उन्होंने सब को शादी का न्योता दिया और महल्ले भर में दिल खोल कर मिठाई बांटी पर महीना बीततेबीतते मेहताजी के चेहरे की चमक जा चुकी थी. पता चला कि अपना मकान उन्होंने उपहारस्वरूप जिस बेटेबहू के नाम कर दिया था, उन्होेंने ही अपने मातापिता को घर से निकालने में ज्यादा समय नहीं लगाया था.

उन की अपनी ननद सरिता की कहानी भी कम दुखदायी नहीं थी. उन के बेटे अमन को उच्च शिक्षा के लिए लंदन भेजते समय बीना ने ही अपने बैंक  से ऋण की व्यवस्था करवाई थी. अमन जो एक बार गया तो अपनी बहन अमिता की शादी पर भी न आ सका. अमिता ने अपने गहनों के शौक के आगे मातापिता की तंग आर्थिक स्थिति की बिलकुल परवा न की. बीना ने सरिता जीजी को चेताने की दबी हुई सी कोशिश की थी पर बेटी के मोह के कारण उन्होंने अपनी हैसियत से बढ़ कर शादी में खर्च किया.

2 महीने बाद जीजाजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने तुरंत आपरेशन की सलाह दी. जीजी ने बच्चों को बुलावा भेजा, अमन तो आफिस से छुट्टी नहीं ले पाया और अमिता ने अपने विदेश भ्रमण के कार्यक्रम को आगे बढ़ाना जरूरी न समझा. बीमार पिता तो कुछ दिनों में ठीक होने लगे पर जीजी को जो आघात मोह के बंधन के टूटने से लगा, उस से वह कभी उबर न सकीं.

आएदिन रिश्तों में आती कड़वाहट के किस्सों के चलते बीना ने मन ही मन एक निर्णय ले लिया कि चाहे जो हो जाए, वह मोह के बंधनों में नहीं बंधेंगी. न होगा बंधन, न रहेगा उस के टूटने का भय और उस के नतीजे में होने वाली वेदना. यद्यपि बीना जानती थीं कि उन के बेटे उन्हें बहुत प्यार करते हैं पर कल किस ने देखा है. एक अनजान भविष्य के अनचाहे डर ने धीरेधीरे उन्हें स्वयं में एक तटस्थ नीरवता लाना सिखला दिया.

पारिवारिक बिखराव का एहसास बीना को पहली बार तब हुआ जब प्रशांत के लिए दिल्ली के एक संभ्रांत परिवार का रिश्ता आया. बीना के मन में नई उमंगें जागने लगीं पर प्रशांत की न्यूयार्क जा कर पढ़ाई करने की जिद के आगे उन्होंने सिर झुका दिया. वह मान तो गईं पर मन में कुछ बुझ सा गया.

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पढ़ाई के बाद प्रशांत ने वहीं की एक फर्म में नौकरी का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया. आफिस में ही उस की मुलाकात जूही से हुई थी और उस ने विवाह करने का मन बना लिया. बीना ने भी स्वीकृति देने में देर नहीं की थी. शादी दिल्ली में हुई पर वीसा की बंदिशों के चलते 2 दिन बाद ही दोनों अमेरिका लौट गए. बीना के सारे अरमान उस के दिल में ही रह गए.

इस के साल भर बाद सुशांत ने एक दिन बताया कि उसे बंगलौर में नौकरी मिल गई है. सुन कर बीना थोड़ी अनमनी तो हुईं पर शीघ्र ही खुद को संयत कर के सुशांत को विदा कर दिया.

दीवाली पर सुशांत घर आया. बातोंबातों में उस ने अमृता का जिक्र किया कि दोनों ने मुंबई में एमबीए की पढ़ाई साथ में की थी और अब शादी करना चाहते हैं. बीना ने सहर्ष हामी भर दी.

Mother’s Day Special: मां का फैसला- भाग 1

रजनीगंधा की बड़ी डालियों को माली ने अजीब तरीके से काटछांट दिया था. उन्हें सजाने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही थी. बिट्टी ने अपने झबरे बालों को झटका कर एक बार उन डालियों से झांका, फिर हंस कर पूछा, ‘‘मां, क्यों इतनी परेशान हो रही हो. अरे, प्रभाकर और सुरेश ही तो आ रहे हैं…वे तो अकसर आते ही रहते हैं.’’ ‘‘रोज और आज में फर्क है,’’ अपनी गुडि़या सी लाड़ली बिटिया को मैं ने प्यार से झिड़का, ‘‘एक तो कुछ करनाधरना नहीं, उस पर लैक्चर पिलाने आ गई. आज उन दोनों को हम ने बुलाया है.’’

बिट्टी ने हां में सिर हिलाया और हंसती हुई अपने कमरे में चली गई. अजीब लड़की है, हफ्ताभर पहले तो लगता था, यह बिट्टी नहीं गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए उस की कोई प्रतिमा है. खोईखोई आंखें और परेशान चेहरा, मुझे राजदार बनाते ही मानो उस की उदासी कपूर की तरह उड़ गई और वही मस्ती उस की रगों में फिर से समा गई.

‘मां, तुम अनुभवी हो. मैं ने तुम्हें ही सब से करीब पाया है. जो निर्णय तुम्हारा होगा, वही मेरा भी होगा. मेरे सामने 2 रास्ते हैं, मेरा मार्गदर्शन करो.’ फिर आश्वासन देने पर वह मुसकरा दी. परंतु उसे तसल्ली देने के बाद मेरे अंदर जो तूफान उठा, उस से वह अनजान थी. अपनी बेटी के मन में उठती लपटों को मैं ने सहज ही जान लिया था. तभी तो उस दिन उसे पकड़ लिया.

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कई दिनों से बिट्टी सुस्त दिख रही थी, खोईखोई सी आंखें और चेहरे पर विषाद की रेखाएं, मैं उसे देखते ही समझ गई थी कि जरूर कोई बात है जो वह अपने दिल में बिठाए हुए है. लेकिन मैं चाहती थी कि बिट्टी हमेशा की तरह स्वयं ही मुझे बताए. उस दिन शाम को जब वह कालेज से लौटी तो रोज की अपेक्षा ज्यादा ही उदास दिखी. उसे चाय का प्याला थमा कर जब मैं लौटने लगी तो उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया और रोने लगी.

बचपन से ही बिट्टी का स्वभाव बहुत हंसमुख और चंचल था. बातबात में ठहाके लगाने वाली बिट्टी जब भी उदास होती या उस की मासूम आंखें आंसुओं से डबडबातीं तो मैं विचलित हो उठती. बिट्टी के सिवा मेरा और था ही कौन? पति से मानसिकरूप से दूर, मैं बिट्टी को जितना अपने पास करती, वह उतनी ही मेरे करीब आती गई. वह सारी बातों की जानकारी मुझे देती रहती. वह जानती थी कि उस की खुशी में ही मेरी खुशी झलकती है. इसी कारण उस के मन की उठती व्यथा से वही नहीं, मैं भी विचलित हो उठी. सुरेश हमारे बगल वाले फ्लैट में ही रहता था. बचपन से बिट्टी और सुरेश साथसाथ खेलते आए थे. दोनों परिवारों का एकदूसरे के यहां आनाजाना था. उस की मां मुझे मानती थी. मेरे पति योगेश को तो अपने व्यापार से ही फुरसत नहीं थी, पर मैं फुरसत के कुछ पल जरूर उन के साथ बिता लेती. सुरेश बेहद सीधासादा, अपनेआप में खोया रहने वाला लड़का था, लेकिन बिट्टी मस्त लड़की थी.

बिट्टी का रोना कुछ कम हुआ तो मैं ने पूछ लिया, ‘आजकल सुरेश क्यों नहीं आता?’ ‘वह…,’ बिट्टी की नम आंखें उलझ सी गईं.

‘बता न, प्रभाकर अकसर मुझे दिखता है, सुरेश क्यों नहीं?’ मेरा शक सही था. बिट्टी की उदासी का कारण उस के मन का भटकाव ही था. ‘मां, वह मुझ से कटाकटा रहता है.’

‘क्यों?’ ‘वह समझता है, मैं प्रभाकर से प्रेम करती हूं.’

‘और तू?’ मैं ने उसी से प्रश्न कर दिया. ‘मैं…मैं…खुद नहीं जानती कि मैं किसे चाहती हूं. जब प्रभाकर के पास होती हूं तो सुरेश की कमी महसूस होती है, लेकिन जब सुरेश से बातें करती हूं तो प्रभाकर की चाहत मन में उठती है. तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. किसे अपना जीवनसाथी चुनूं?’ कह कर वह मुझ से लिपट गई.

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मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है. प्रेम तो एक से ही होता है. प्रेम या जीवनसाथी चुनने का अधिकार उसे मेरे विश्वास ने दिया था. सुरेश उस के बचपन का मित्र था. दोनों एकदूसरे की कमियों को भी जानते थे, जबकि प्रभाकर ने 2 वर्र्ष पूर्व उस के जीवन में प्रवेश किया था. बिट्टी बीएड कर रही थी और हम उस का विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, लेकिन वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि उस का पति कौन हो सकता है, वह किस से प्रेम करती है और किसे अपनाए.

Mother’s Day Special- बहू-बेटी : आखिर क्यों सास के रवैये से परेशान थी जया

Mother’s Day Special- बहू-बेटी: भाग 1

लेखक-अश्विनी कुमार भटनागर

घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाडू बुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

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रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

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हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

Mother’s Day Special: मां हूं न- भाग 2

आरती टुकुरटुकुर ससुर का मुंह ताक रही थी. आखिर सुबोध के बिना वह कैसे जिएगी. अभी तक वह उस से लिपटी बेल की तरह जी रही थी. अब वह आधार के बिना जमीन पर बिखर गई थी. अब कौन सहारा देगा. बिना किसी वजह के पति उसे बेसहारा छोड़ कर चला गया था.

पता नहीं कौन उन के बीच आ गई थी. वह कैसी औरत थी, जो उस के पति को अपने मोहपाश में बांध कर चली गई थी. छोटी सी बिटिया, पिता जैसे ससुर, फैला कारोबार, जीवन अब एक तपती दोपहर की तरह हो गया था. नंगे पैर चलना होगा, न आराम न छाया.

लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

ससुर विश्वंभर प्रसाद ने सहजता से घरसंसार का बोझ अपने कंधों पर उठा लिया था. उस के जीवनरथ का जो पहिया टूटा था, उस की जगह वह खुद पहिया बन गए थे, जिस से आरती के जीवन का रथ फिर से चलने ही नहीं लगा था, बल्कि दौड़ पड़ा था.

विश्वंभर प्रसाद सुबह जल्दी उठ कर नजदीक के क्रिकेट क्लब के मैदान में चले जाते, नियमित टेनिस खेलते. छोटीमोटी बीमारी को तो वह कुछ समझते ही नहीं थे. उन्होंने समय के घूमते चक्र को जैसे मजबूत हाथों से थाम लिया था. वह जवानी के जोश में आ गए थे. सुबोध था तो वह रिटायर हो कर सेवानिवृत्ति का जीवन जी रहे थे. औफिस जाते भी थे तो थोड़े समय के लिए. लेकिन अब पूरा कारोबार वही संभालने लगे थे.

उन की भागदौड़ को देखते हुए एक दिन आरती ने कहा, ‘‘पापा, आप इतनी मेहनत करते हैं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता. हम 3 लोग ही तो हैं. इतना बड़ा घर और कारोबार बेच कर छोटा सा घर ले लेते हैं. बाकी रकम ब्याज पर उठा देते हैं. आप इस उम्र में…’’

‘‘इस उम्र में क्या आरती… देखो ब्याज खाना मुझे पसंद नहीं है. आराधना बड़ी हो रही है. हमें उस का जीवन उल्लास से भर देना है. वह बूढ़े दादा और अकेली मां की छाया में दिन काटे, यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

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विश्वंभर ने बाल रंगवा लिए, पहनने के लिए लेटेस्ट कपड़े ले लिए. वह फिल्म्स, पिकनिक सभी जगह आराधना के साथ जाते, जिस से उसे बाप की कमी न खले.

सब कुछ ठीकठाक चलने लगा था कि अचानक एक दिन आरती के मांबाप आ पहुंचे. वे आरती और आराधना को ले जाने आए थे. उन का कहना था कि विधुर ससुर के साथ बिना पति के बहू के रहने पर लोग तरहतरह की बातें करते हैं.

लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि ससुर और बहू का पहले से ही संबंध था, इसीलिए सुबोध घर छोड़ कर चला गया. दोनों ही परिवारों की बदनामी हो रही है, इसलिए आरती को उन के साथ जाना ही होगा. उन के खर्च के लिए रुपए उस के ससुर भेजते रहेंगे.

मांबाप की बातें सुन कर आरती स्तब्ध रह गई. उस पर जैसे आसमान टूट पड़ा हो. फिर ऐसा कुछ घटा, जिस के आघात से वह मूढ़ बन गई. आरती के मांबाप की बातें सुन कर विश्वंभर प्रसाद ने तुरंत कहा था, ‘‘मैं इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता, जो भी निर्णय करना है, आरती को करना है. अगर वह जाना चाहती है तो खुशी से अरू को ले कर जा सकती है.’’

बस, इतना कह कर अपराधी की तरह उन्होंने सिर झुका लिया था. आराधना उस समय उन्हीं की गोद में थी. नानानानी ने उसे लेने की बहुत कोशिश की थी. पर वह उन के पास नहीं गई थी. उस ने दोनों हाथों से कस कर दादाजी की गरदन पकड़ ली थी.

आराधना के पास न आने से आरती की मां ने नाराज हो कर कहा था, ‘‘आंख खोल कर देख आरती, तेरा यह ससुर कितना चालाक है. आराधना को इस ने इस तरह वश में कर रखा है कि हमारे लाख जतन करने पर भी वह हमारे पास नहीं आ रही है. देखो न ऐसा व्यवहार कर रही है, जैसे हम इस के कुछ हैं ही नहीं.’’

इतना कह कर आरती की मां उठीं और विश्वंभर प्रसाद की गोद में बैठी आराधना को खींचने लगीं. आराधना चीखी. बेटे के घर छोड़ कर जाने पर भी न रोने वाले विश्वंभर प्रसाद की आंखें छलक आईं. ससुर की हालत देख कर आरती झटके से उठी और अपनी मां के दोनों हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मम्मी, मैं और आराधना यहीं पापा के पास ही रहेंगे.’’

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‘‘कुछ पता है, तू ये क्या कह रही है. तू जो पाप कर रही है, ऊपर वाला तुझे कभी माफ नहीं करेगा और इस विश्वंभर के तो रोएंरोएं में कीड़े पड़ेंगे.’’

‘‘तुम भले मेरी मां हो, पर मैं अपने पिता जैसे ससुर का अपमान नहीं सह सकती, इसलिए अब आप लोग यहां से जाइए, यही हम सब के लिए अच्छा होगा.’’

‘‘अपने ही मांबाप का अपमान…’’ आरती के पिता गुस्से में बोले, ‘‘तुझे इस नरक में सड़ना है तो सड़, पर आराधना पर मैं कुसंस्कार नहीं पड़ने दूंगा. इसलिए इसे मैं अपने साथ ले जाऊंगा.’’

आराधना जोरजोर से रो रही थी. आरती के मांबाप उसे और विश्वंभर प्रसाद को कोस रहे थे. आरती दोनों कानों को हथेलियों से दबाए आंखें बंद किए बैठी थी. अंत में वे गुस्से में पैर पटकते हुए यह कह कर चले गए कि आज से उन का उस से कोई नातारिश्ता नहीं रहा.

मांबाप के जाने के बाद आरती उठी. ससुर के आंसू भरे चेहरे को देखते हुए उन के सिर पर हाथ रखा और आराधना को गले लगाया. इस के बाद अंदर जा कर बालकनी में खड़ी हो गई. उतरती दोपहर की तेज किरणें धरती पर अपना कमाल दिखा रही थीं. गरमी से त्रस्त लोग सड़क पर तेजी से चल रहे थे.

विश्वंभर प्रसाद ने जो वचन दिया था, उसे निभाया. उजड़ चुके घर को फिर से संभाल कर सजाया. आराधना को फूल की तरह खिलने दिया. पौधे को खाद, पानी और हवा मिलती रहे, उस का सही पालनपोषण होता है. आराधना बड़ी होती गई. समझदार हो गई तो एक दिन विश्वंभर प्रसाद ने उसे सामने बैठा कर कहा, ‘‘बेटा, मैं तुम्हारा दादा हूं, पर उस के पहले मित्र हूं. इसलिए मैं तुम से कुछ भी नहीं छिपाऊंगा. हम सभी के जीवन में क्याक्या घटा है, यह जानने का तुम्हें पूरा हक है.’’

आराधना दादाजी के सीने से लग कर बोली, ‘‘दादाजी, यू आर ग्रेट. आप न होते तो हमारा न जाने क्या होता.’’

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