Writer- बिरेन्द्र बरियार

28सितंबर, 2021 को वामपंथियों के ‘लाल सलाम’ के नारे से पल्ला झाड़ कर कन्हैया कुमार ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया. जहां एक तरफ कांग्रेस को भरोसा है कि वे बिहार में पार्टी का मजबूत चेहरा बनेंगे, वहीं दूसरी तरफ कन्हैया कुमार को भी यकीन है कि कांग्रेस के कंधे पर सवार हो कर बिहार में उन की राजनीति चमक उठेगी.

कांग्रेस को जहां बिहार में एक दमदार नेता की तलाश थी, वहीं भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी में हाशिए पर धकेल दिए गए कन्हैया कुमार को एक बड़े प्लेटफार्म की दरकार थी. कन्हैया कुमार के सहारे कांग्रेस राज्य में अपनी खोई हुई जमीन को एक बार फिर हासिल करने की कवायद में लगी है.

राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड) और भारतीय जनता पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाना कन्हैया कुमार के लिए सब से बड़ी चुनौती है. पर क्या इस ‘कन्हैया’ की ‘बांसुरी’ की धुन में वोटरों को खींच पाने की ताकत है?

कन्हैया कुमार अचानक ही कांग्रेस में शामिल नहीं हो गए हैं. भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी में दरकिनार कर दिए जाने और पिछला लोकसभा चुनाव हारने के बाद से ही उन का इस पार्टी से मोह भंग हो गया था. उस के बाद से ही वे लगातार कांग्रेस नेताओं के संपर्क में रहने लगे थे.

कन्हैया कुमार ने साल 2019 में हुए 17वें लोकसभा चुनाव में भाकपा के टिकट पर बेगुसराय सीट से चुनाव लड़ा था. तब वे भाजपा के नेता गिरिराज सिंह से 4 लाख, 22 हजार वोट से हार गए थे.

पर पिछले कुछ महीनों से कन्हैया कुमार इस पार्टी में अलगथलग पड़ गए थे. जनवरी, 2021 में हैदराबाद में पार्टी की बैठक में अनुशासनहीनता के मामले में कन्हैया कुमार के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास किया गया था. इस बैठक में कुल 110 सदस्य मौजूद थे और 107 सदस्यों ने इस निंदा प्रस्ताव का समर्थन किया था. कन्हैया कुमार पर पार्टी के सचिव इंदुभूषण के साथ बदसुलूकी करने का आरोप था.

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‘बिहार का लेनिनग्राद’ कहे जाने वाले बेगुसराय से लोकसभा का चुनाव हारने के बाद से ही कन्हैया कुमार का भाकपा से मन ऊब गया था और वे पिछले कई महीनों से कांग्रेस के नेताओं से मिल रहे थे.

बिहार कांग्रेस के गलियारे में चर्चा है कि कन्हैया कुमार को बिहार कांग्रेस की कमान सौंपी जा सकती है. कन्हैया कुमार भी बारबार यह दोहरा रहे हैं कि कांग्रेस को बचा कर ही देश को बचाया जा सकता है. महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी जैसे मसलों पर नाकाम रही भाजपा को कन्हैया कुमार अपने पक्ष में भुना सकते हैं.

यही नहीं, कन्हैया कुमार राजद नेता तेजस्वी यादव के लिए बड़ी चुनौती बन सकते हैं. तेजस्वी और कन्हैया के बीच छत्तीस का आंकड़ा है. इस के पीछे की वजह यह है कि साल 2019 में जब कन्हैया कुमार बेगुसराय लोकसभा सीट से चुनावी मैदान में उतरे थे, तो राजद ने उन के खिलाफ तनवीर हसन को मैदान में उतार दिया था. महागठबंधन के वोटों का बिखराव होने से राजग को सीधा फायदा मिला और भाजपा के गिरिराज सिंह जीत गए.

तेजस्वी यादव को जहां राजनीति विरासत में मिली है, वहीं कन्हैया कुमार छात्र राजनीति की उपज हैं. कन्हैया कुमार से मिली चुनौतियों का सामना सब से ज्यादा तेजस्वी यादव को ही करना होगा.

लालू प्रसाद यादव की गैरमौजूदगी में तेजस्वी यादव महागठबंधन के नेता बने हुए थे और सभी घटक दलों को कबूल भी थे. कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने के बाद तेजस्वी यादव को कड़ी टक्कर मिलनी तय है.

तेजस्वी यादव के मुकाबले कन्हैया कुमार ज्यादा तेजतर्रार और काफी पढ़ेलिखे नेता हैं. कन्हैया कुमार अपनी सटीक बातों के दम पर अच्छेअच्छे नेताओं की जबान पर ताला लगा सकते हैं. कांग्रेस अगर महागठबंधन में रही, तो तेजस्वी और कन्हैया के बीच की खींचतान को देखना दिलचस्प होगा.

फिलहाल राजद कन्हैया कुमार को कितने हलके में ले रहा है, इस का नमूना राजद के प्रवक्ता भाई वीरेंद्र ने तब पेश किया, जब उन से पूछा गया कि कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने से बिहार में महागठबंधन पर क्या असर पड़ेगा, तो उन्होंने तपाक से सवाल दाग दिया कि यह कन्हैया कौन है?

गौरतलब है कि साल 1990 में लालू प्रसाद यादव के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई. अब वह सबकुछ लुटा कर होश में आई है और कन्हैया कुमार के भरोसे अपनी डूबती नैया को पार लगाने की जुगत में लग गई है.

कन्हैया कुमार की वजह से अगड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा फिर से कांग्रेस से जुड़ सकता है, वहीं मुसलिमों में भी कन्हैया कुमार की अच्छीखासी पैठ है.

कांग्रेस के बड़े नेता कहते हैं कि जब तक कांग्रेस राजद से नाता नहीं तोड़ेगी, तब तक कांग्रेस का कुछ नहीं होने वाला है. आज की तारीख में बिहार कांग्रेस कुछ भी खोने की हालत में नहीं है, ऐसे में रिस्क ले कर बड़ा दांव खेला जा सकता है.

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राजद से नाता तोड़ कर कांग्रेस अकेले अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरे, तो उस से बिदका हुआ वोट बैंक दोबारा हासिल हो सकता है. राजद के भरोसे नैया पर लगाने की सियासत को छोड़ने का समय आ गया है.

साल 1985 तक कांग्रेस की हालत बिहार में काफी मजबूत रही थी. उस साल बिहार विधानसभा की कुल

323 सीटों (उस समय झारखंड बिहार का ही हिस्सा था) में से 196 सीटें कांग्रेस के खाते में आई थीं. तब 39.30 फीसदी वोट कांग्रेस को मिले थे.

उस के बाद से ले कर अब तक बिहार में राज कर रहे लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी और रामविलास पासवान जैसे धुरंधर नेता तो कांग्रेस विरोध की राजनीति की उपज हैं. कांग्रेस की कब्र पर ही दर्जनों बड़े नेताओं की फसलें पैदा हुई हैं और फलीफूली हैं.

लालू प्रसाद यादव के बिहार की सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस में गिरावट शुरू हो गई थी. साल 1990 में कांग्रेस को 323 सीटों में से केवल

71 सीटें ही मिल सकी थीं और उस का वोट फीसदी 24.86 रहा था.

उस के बाद से ही कांग्रेस का ग्राफ तेजी से गिरता गया. साल 1995 में वह 320 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसे

29 सीटें मिली थीं. उस का वोट फीसदी 16.51 हो गया था. साल 2000 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 323 सीटों में से 23 सीटों पर ही जीत सकी थी और उस का वोट बैंक घट कर 11.06 फीसदी रह गया था.

साल 2005 में कांग्रेस ने 51 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और 9 सीटें ही उस के खाते में आ सकी थीं. उस का वोट फीसदी बढ़ कर 29.04 हुआ था, पर सीटें नहीं बढ़ सकी थीं. साल 2010 में वह 243 सीटों पर लड़ी थी, पर उसे केवल 4 सीटों पर ही जीत मिली थी. वहीं वोट 8.37 फीसदी मिल सके थे.

साल 2015 में महागठबंधन के बैनर तले 41 सीटों पर कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार उतारे थे और उसे 27 सीटों पर जीत मिली थी. तब उस का वोट फीसदी भी बढ़ कर 39.49 हो गया था.

साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 70 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे, पर 19 ही विधानसभा में पहुंच सके थे.

कांग्रेस की नजर अब राज्य की 11 फीसदी अगड़ी जातियों, 16 फीसदी मुसलमानों और 14 फीसदी दलितों के वोट पर है. इसी को साधने के लिए कन्हैया कुमार को आगे लाया गया है.

अब देखने वाली बात यह होगी कि कन्हैया कुमार कांग्रेस के खिसक चुके वोट बैंक को किस तरह से अपने पाले में ला सकते हैं?

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