शुरू में तो गरीबों को लगा कि जो मंच पर कहा गया है वही सच है कि अमीर लोगों के घरों से कमरे भरभर कर नोट निकलेंगे, काले धन का सफाया हो जाएगा, अमीरों का पैसा सरकारी खजाने से हो कर गरीबों तक आ जाएगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और गरीबों को न सिर्फ लाइनों में खड़ा होना पड़ा, अपनी दिहाडि़यों का नुकसान करना पड़ा और उसी वजह से आज सारे उद्योगधंधे बंद होने के कगार पर आ गए हैं.
चतुर नेता वही होता है जो अपनी एक गलती को छिपाने के लिए दूसरी बड़ी गलती करे और फिर तीसरी. हर गलती का सुहावना रूप भी हो जो दिखे, नीचे चाहे भयंकर सड़न और बदबू हो. जीएसटी भी ऐसा ही था, नए टैक्स भी ऐसे ही थे और कश्मीर में की गई आधीअधूरी कार्यवाही भी ऐसी रही.
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तीनों एक से बढ़ कर एक. दिखने में अच्छे, पर असल में बेहद नुकसानदेय.
नोटबंदी के बाद नोटों की कुल गिनती बाजार में कम होने के बजाय बढ़ गई है. 3 साल बाद भी भारतीय रिजर्व बैंक से छपे नोटों की गिनती बढ़ रही है जबकि सरकार हर भुगतान औनलाइन करने को कह रही है. लोग अब अपना पैसा नकदी में रखने लगे हैं. उन्हें तो अब बैंकों पर भी भरोसा नहीं है. जिस काले धन को निकालने के कसीदे पढ़े गए थे और भगवा सोशल मीडिया ने झूठे, बनावटी किस्से और वीडियो रातदिन डाले थे, वे सब अब दीवाली के फुस पटाखे साबित हुए हैं.
अब पैसा धन्ना सेठ नहीं रख रहे, क्योंकि 2000 रुपए के नोटों को नहीं रखा जा रहा है. यह आम आदमी रख रहा है, गरीब रख रहा है, 2000 रुपए के नोट जो पहले 38 फीसदी थे अब घट कर 31 फीसदी रह गए हैं. साफ है कि लोग 500 और 100-200 रुपए के नोट रख रहे हैं. ये गरीब हैं. ये जोखिम ले रहे हैं कि उन के नोट चोरी हो जाएं, गल जाएं, जल जाएं, पर ये बैंक अकाउंट में नहीं रख रहे.
जीएसटी का भी यही हुआ है. ‘एक देश एक टैक्स’ के नाम पर लोगों को जी भर के बहलाया गया. पूजापाठी जनता जो सोचती है कि उस के सारे दुखों को दूर करने का मंत्र मंदिर या उस के पंडों के पास है, इस पर खूब खुश हुई. अब एकएक कर के सख्त जीएसटी कानून में ढीलें देनी पड़ रही हैं.
इस साल निर्मला सीतारमन ने अमीरों पर 7 फीसदी का टैक्स बढ़ाया था. 3 महीने में उन की हेकड़ी निकल गई और टैक्स वापस ही नहीं लिया गया कुछ छूट और दे दी गई.
‘एक देश एक संविधान एक कानून’ के नाम पर कश्मीर के बारे में अनुच्छेद 370 और 35ए को संविधान से लगभग हटाया गया, पर क्या हुआ? न कश्मीरी लड़कियां देश के बाकी हिस्से के तैयार बैठे भगवाई सोशल मीडिया रणबांकुरों को मिलीं, न ही कश्मीर में जमीन के प्लाट. उलटे देश अरबों रुपए खर्च कर के एक विशाल जेल चला रहा है जहां खाना भी कैदियों को नहीं दिया जा रहा. जो किया गया और जैसे किया गया, उस से साफ है कि 2 पीढ़ी तक तो कश्मीरी भारत को अपना नहीं समझेगा, दूसरे दर्जे का नागरिक बन कर रहना पड़ेगा. आखिर इसी देश का हिंदू सवर्ण भी तो 2000 साल गुलाम बन कर रहा है, कभी शकों का, कभी हूणों का, कभी लोधियों का, कभी मुगलों का और आखिर में अंगरेजों का.
आज भी देश का पिछड़ा और दलित वर्ग दूसरे दर्जे का नागरिक है. इन में अब कश्मीरी भी शामिल हो गए हैं.
आतंकवादी सीमा के बाहर से नहीं आ रहे. वे छत्तीसगढ़ के जंगलों में भी नहीं हैं. वे नक्सलबाड़ी में भी नहीं हैं और न ही दिल्ली की जानीमानी संस्था जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में हैं. वे हमारे देश के सैकड़ों थानों में हैं, पुलिस की वरदी में. उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के इलाके के एक थाने में एक सिक्योरिटी गार्ड की घंटों की पिटाई के बाद हुई मौत का समाचार तो यही कहता है कि घरघर, महल्लेमहल्ले में यदि किसी आतंकवादी से डर लगना चाहिए तो वह खाकी वरदी में आने वाले से लगना चाहिए.
इस गार्ड प्रदीप तोमर को पुलिस चौकी में बुलाया गया था पूछताछ के लिए. प्रदीप तोमर अपने 10 साल के बेटे को साथ ले गया था. बेटे को बाहर बैठा कर अंदर चौकी में 8-10 पुलिस वालों ने घंटों उसे मारापीटा और उस पर पेचकशों से हमला किया. दर्द से कराहते प्रदीप तोमर को पानी तक नहीं दिया गया और तब तक मारा गया जब तक वह मर नहीं गया. उस की लाश पर पिटाई और पेचकशों के निशान मौजूद थे.
इन आतंकवादियों को पूरे शासन के सिस्टम का बचाव मिलता है. कोई किसी को 4 थप्पड़ मार दो तो पुलिस वाले पिटने वाले और पीटने वाले दोनों के लिए 10 दिन की रिमांड ले लेते हैं, पर यहां एक आदमी को वहशियाना तरीके से मारने के बाद सिर्फ सस्पैंड किया गया है. 10-20 दिन में जब लोग इस मामले को भूल जाएंगे, ये पुलिसकर्मी नए शिकार की तलाश में लग जाएंगे पूरी वरदी में.
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हिंदी फिल्म ‘दृश्यम’ में इसी तरह की एक महिला आईजी और उस के पुलिसकर्मियों की क्रूरता को अच्छीखासी तरह दिखाया गया था और फिल्म बनाने वाले ने सिर्फ नौकरी से निकलने की सजा दिखाई थी. जेल में पुलिस वाले जाएं, यह तो हम क्या, दुनिया के किसी देश में नहीं दिखाया जा सकता. यही तो पुलिस वालों को आतंकवादी बनाता है.
आतंकवादियों और पुलिस वालों के आतंक के पीछे सोच एक ही है. आतंकवादी भी तो यही कहते हैं कि वे जुल्म ढहाने वाली सरकार के खिलाफ काम कर रहे हैं. वे लुटेरे नहीं, डाकू नहीं, जनता को बचाने के लिए हत्याएं कर रहे हैं. पुलिस वाले भी यही कहते हैं कि वे जनता को बचाने के लिए चोरउचक्कों से जबरदस्ती उगलवाते हैं और कभीकभी कस्टोडियल डैथ हो जाए तो क्या हो गया?
जैसे आजकल नाथूराम गोडसे को पूजा जाने लगा है, वैसे ही आतंकवादियों को हो सकता है कभी पूजा जाने लगे. पुलिस वालों को तो वहशीपन के बावजूद इज्जत और पैसा दोनों एकदम मिल जाते हैं न.