राजस्थान के सीमावर्ती जिलों बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर से पाकिस्तान की सीमा लगी हुई है. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों की सीमा के सामने पाकिस्तान का सिंध प्रांत है. सिंध में राजस्थान के सैकड़ों लोगों के रिश्तेदार हैं. सिंध के अमरकोट के सोढ़ा राजपूतों की रिश्तेदारियां जैसलमेर, बाड़मेर और जोधपुर के तमाम गांवों में हैं. इन जिलों से लगती पाक सीमा पर जब से तारबंदी हुई, तब से लोग परेशान हैं. तारबंदी से पहले इन जिलों के लोग पाकिस्तान में अपनी रिश्तेदारी में हो आते थे. पाक के लोग भी भारत में आ जाते थे और शादीब्याह कर के लौट जाते.

सिंध और पश्चिमी राजस्थान के लोगों की बोलचाल की भाषा और रहनसहन मिलताजुलता है. इसलिए उन की यह पहचान नहीं हो पाती थी कि वे भारतीय हैं या पाकिस्तानी.

1965 और 1971 के भारतपाक युद्ध के दौरान कई लोग पाक से जैसलमेर, बाड़मेर के गांवों में आ बसे थे. इन में ज्यादातर हिंदू थे. उन परिवारों की महिलाएं हस्तशिल्प के काम में निपुण थीं.

ये महिलाएं हस्तशिल्प कला गुदड़ी (राली), रूमाल, बैडशीट, तकिया कवर, चादर, पर्स, बैग और अन्य चीजों पर हाथ से ऐसी कशीदाकारी करती हैं कि देखने वाला देखता रह जाए. इन अनपढ़ महिलाओं का हुनर पढ़ेलिखे फैशन डिजाइनरों को भी पीछे छोड़ देता है.

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पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों के पास राजस्थान में न तो जमीन थी और न ही रोजगार के साधन. बाड़मेर, जैसलमेर के गांवों में बिजली, पानी, सड़क, विद्यालय आदि की भी व्यवस्था नहीं थी. गांवों में मजदूरी का भी कोई साधन नहीं था. इस के अलावा हर साल पड़ने वाले अकाल ने भी इस इलाके में भुखमरी बढ़ाने का काम किया.

पाकिस्तान से आए शरणार्थी परिवारों की महिलाओं की हस्तकला ने यहां पर दो जून की रोटी का प्रबंधन किया. उन दिनों एजेंट कपड़ा ला कर इन महिलाओं को दे देते थे. ये महिलाएं उस कपडे़ पर आकर्षक दस्तकारी कर के कपड़े की कीमत दोगुनी कर देतीं.

एजेंट इन अशिक्षित गरीब महिलाओं को अनाज व चंद रुपए दे कर बाजार में मोटा मुनाफा कमाते थे. गांवों में उन दिनों भेड़ की ऊन से भी कपड़े, दरियां, पट्टू, बरड़ी आदि बनाए जाते थे. गांव के लोग बुनकर को ऊन दे कर कपड़े बनवाते थे. बुनकर आधी ऊन स्वयं रख कर आधी ऊन से कपड़े बुन कर गांव वालों को दे देते थे.

कहने का मतलब यह कि इस इलाके में उन दिनों बहुतों ने गरीबों को ठगने का काम किया. गांव के लोगों के पास उस समय और कोई चारा नहीं था. इसलिए सब कुछ समझते हुए वे शोषण का शिकार बनते रहे. दशकों से हस्तशिल्प कला का इस इलाके में काम होता रहा, मगर इसे पहचान कोई नहीं दिला सका.

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बहुत संघर्ष किया थार की बेटी ने

बाद में बाड़मेर की इस कला को थार की बेटी रूमा देवी ने विश्वस्तर पर पहचान दिलाई. उन की वजह से आज पूरे विश्व में बाड़मेर का नाम है. अपनी कोशिश से 8वीं तक पढ़ी रूमा देवी ने 75 गांवों में करीब 22 हजार महिलाओं की जिंदगी बदल दी है.

राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर में एक गांव है रावतसर. इसी गांव के खेताराम चौधरी की बेटी हैं रूमा देवी. खेताराम गरीब किसान थे. किसी तरह परिवार की गुजरबसर चल रही थी. उन की 7 बेटियां थीं. रूमा जब 4 साल की हुई तो मां का देहांत हो गया. उस छोटी बच्ची की परवरिश उस की दादी और चाची ने की.

पिता खेताराम ने तो पत्नी की मौत के बाद दूसरी शादी कर ली थी. रूमा चाचाचाची के पास रही. उन्होंने ही उसे पालापोसा. 8वीं पास करने के बाद रूमा आगे भी पढ़ना चाहती थी लेकिन चाचाचाची ने पढ़ाई छुड़वा कर उसे घर के काम में लगा दिया.

रूमा की दादी कशीदाकारी करती थीं. उन के साथ रूमा भी यह काम बखूबी सीख गई. घर के काम निपटाने के बाद रूमा दस्तकारी करती थी. रूमा को घर के कामों के लिए 10 किलोमीटर दूर से बैलगाड़ी द्वारा पानी लाना पड़ता था.

मोहल्ले के कुछ लोग भी उस से अपने लिए पानी मंगा लेते थे. इस के बदले में वे उसे कुछ पैसे जरूर दे दिया करते थे. इस तरह लोगों की प्यास बुझाने के साथसाथ उसे कुछ आमदनी भी हो जाती थी.

रूमा जब 17 साल की हुई तो उस की शादी बाड़मेर जिले के गुड़ामालानी तहसील के गांव मंगला की बेरी निवासी टीकूराम चौधरी के साथ हो गई. रूमा का बाल विवाह हुआ था. टीकूराम के पिता कहीं छोटी सी नौकरी करते थे, जिस की वजह से उन्हें परिवार के साथ बलदेव नगर कच्ची बस्ती में रहने के लिए विवश होना पड़ा था.

रूमा भी शादी के बाद ससुराल मंगला की बेरी से बाड़मेर शहर आ गई. वह ससुराल में खुश थी. मगर यहां भी गरीबी ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था. ससुर की नौकरी से बमुश्किल घर का खर्च चलता था.

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शादी के 2 साल बाद रूमा ने एक बेटे को जन्म दिया. बेटा कमजोर था. उस का इलाज कराने के भी पैसे नहीं थे, जिस से 2 दिन बाद ही उस की मौत हो गई थी. बेटे की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया था.

रूमा ने उसी समय तय कर लिया था कि वह चूल्हेचौके में जिंदगी खपाने के बजाय कोई ऐसा काम करेगी, जिस से दो पैसे आएं. लेकिन उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह काम कौन सा करे. तभी उस के दिमाग में बैग बनाने का विचार आया.

सोचनेविचारने के बाद रूमा ने एक पुरानी सिलाई मशीन खरीदी और छोटेमोटे बैग बनाने लगी. वह बाजार से बैग बनाने का सामान खरीद कर लाती, फिर बैग बना कर दुकानों पर सप्लाई करने जाती. घर की जिम्मेदारियों के साथ बैग बनाने के लिए रूमा अकेली ही संघर्ष करती रही.

कुछ महीनों बाद उस के बनाए बैग की मांग बढ़ने लगी तो रूमा ने मोहल्ले की अन्य महिलाओं को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया. महिलाओं को जब पैसे मिलने लगे तो वे भी मन से काम करने लगीं.

काम बढ़ा तो सन 2008 में रूमादेवी ने 10 महिलाओं के साथ ‘दीप देवल महिला स्वयं सहायता समूह’ का गठन किया. रूमा के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह बैग बनाने का सामान इकट्ठा खरीद सके. दुकानदार भी उसे जान गए थे. वे उसे उधार में सामान दे देते थे. बैगों की बिक्री कर के वह सभी के पैसे चुका देती थी. यह सिलसिला कई महीनों तक चला.

बलदेवनगर क्षेत्र में ही ग्रामीण विकास चेतना संस्थान का कार्यालय था. रूमा वहां गई और सेक्रेटरी विक्रम सिंह चौधरी से मिल कर उन से हस्तशिल्प के लिए सहयोग मांगा. इस पर वहां के अध्यक्ष ने कुछ सैंपल बना कर दिखाने को कहा. रूमा ने अन्य महिलाओं के साथ कई दिनों तक सैंपल तैयार किए.

खुद ढूंढी राह रूमा ने

सैंपल देख कर विक्रम सिंह खुश हुए. इस से उन्हें यकीन हो गया कि रूमा एवं उस की साथी महिलाएं अच्छा काम कर सकती हैं, इसलिए उन्होंने रूमा को पहला और्डर दिला दिया. रूमा और उस की साथी महिलाओं ने तय समय पर उन का और्डर पूरा कर के दे दिया.

काम अच्छा था, इसलिए रूमा के उत्पाद की तारीफ होने लगी. काम की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए रूमा ने समूह में काम करने वाली महिलाओं को ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी. इस के अलावा उन्होंने कच्ची बस्ती की अन्य महिलाओं को हस्तकला सिखाई.

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सन 2008 से 2010 तक रूमा ने करीब 1500 महिलाओं को हस्तकला के कई पैटर्न सिखा कर अपनी संस्था से जोड़ा. रूमा का व्यवहार एवं काम के प्रति लगन, मेहनत और ईमानदारी देख कर सभी महिलाओं ने रूमा देवी को ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान की अध्यक्ष चुन लिया.

अध्यक्ष चुने जाने के बाद रूमा की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी. रूमा को रोजाना 10 से 12 घंटे काम करना पड़ता था. बाड़मेर शहर के बाद रूमा गांवगांव, ढाणीढाणी पहुंच कर वहां की महिलाओं को हस्तकला के लिए प्रेरित करने लगीं.

शुरू में रूमा को इस काम में सफलता नहीं मिली. मर्द तो यह कहने लगे थे कि यह उन की बय्यरवानियों को बिगाड़ देगी. लेकिन रूमा के अंदर काम करने की ललक थी, इसलिए उस ने हिम्मत नहीं हारी.

ग्रामीण महिलाओं से मिल कर उन्हें घर बैठे काम और मजदूरी देने का वादा किया तो महिलाएं मान गईं. इस के बाद उन के पति भी रूमा का आदरसम्मान करने लगे.

दरअसल, पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर जिलों के सभी गांवों ढाणियों में आज भी परदा प्रथा कायम है. हालांकि घूंघट से महिलाएं छुटकारा चाहती हैं, मगर पुरुष प्रधान समाज में उन की  एक नहीं चलती.

इस कारण छाती तक घूंघट निकालती महिलाएं अपने घर में ही कैद रहने को मजबूर हैं. घर का काम निपटा कर महिलाएं घर में ही पड़े रह कर समय बिताती हैं. उन के पास और कोई काम नहीं रहता.

आजकल पढ़ीलिखी बहुएं गांवों में आने लगी हैं. उन्हें भी रिवाज के अनुसार ससुराल में रहना पड़ता है. इसलिए राजस्थान में 21वीं सदी में भी परदा प्रथा कायम है. ऐसे रूढि़वादी परिवेश में रूमादेवी ने किस तरह महिलाओं और उन के घर वालों को समझा कर काम से जोड़ा, इस की कल्पना की जा सकती है.

रूमा को बहुत संघर्ष करना पड़ा. मगर उस ने हिम्मत नहीं हारी. उसी संघर्ष और साहस का परिणाम यह है कि आज उस ने बाड़मेर के मंगला की बेरी, रावतसर सहित 3 बड़े जिलों बाड़मेर, जैसलमेर और बीकानेर के 75 गांवों की करीब 22 हजार महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता दिलाई.

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रूमा की वजह से बाड़मेर, बीकानेर और जैसलमेर की ये महिलाएं आत्मनिर्भर बन कर खुद के पैरों पर खड़ी हो गई हैं. इन महिलाओं में पाकिस्तान से आए उन शरणार्थी परिवार की महिलाओं भी शामिल हैं,जो हस्तकला में पारंगत हैं.

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