कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

‘‘कहिए सोमजी, क्या हाल है? भई क्या लिखते हैं आप…बहुत तारीफ हो रही है आप की रचनाओं की. आप अपनी रचनाओं का कोई संग्रह क्यों नहीं निकलवाते. देखिए, आप ने मेरे साथ भी वफा नहीं की. मैं ने मांगा भी था आप से कि कुछ दीजिए न अपना पढ़ने को…’’

‘‘बिना पढ़े ही इतनी तारीफ कर रहे हैं आप साहब, पढ़ लेंगे तो क्या करेंगे…डर गया हूं आप से इसीलिए कभी कुछ दिया नहीं. वैसे मेरे देने न देने से क्या अंतर पड़ने वाला है. पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं. आप कहीं से भी उठा कर पढ़ सकते हैं. मैं ने वफा नहीं की ऐसा क्यों कह रहे हैं?’’

‘‘इतना समय किस के पास होता है जो पत्रिका उठा कर पढ़ी जाए…’’

‘‘तो आप जब भी मिलते हैं इतनी चापलूसी किस लिए करते रहते हैं. मुझ पर आरोप क्यों कि मैं ने अपना कुछ पढ़ने को नहीं दिया. पढ़ने वाला कहीं भी समय निकाल लेता है, वह किसी की कमजोर नस का सहारा ले कर अपनी बात शुरू नहीं करता.’’

इतना बोल कर सोम आगे निकल गए और मैं हक्काबक्का सा उन के प्रशंसक का मुंह देखता रहा. उस के बाद यह सोच कर स्वयं भी उन के पीछे लपका कि पुस्तक मेले में वह कहीं खो न जाएं.

‘‘सोमजी, आप ने उस आदमी से इस तरह बात क्यों की?’’

‘‘वह आदमी है ही इस लायक. बनावटी बातों से बहुत घबराहट होती है मुझे.’’

‘‘वह तो आप का प्रशंसक है.’’

‘‘प्रशंसक नहीं है, सिर्फ बात करने के लिए विषय पकड़ता है. जब भी मिलता है यही उलाहना देता है कि मैं ने उसे कुछ पढ़ने को नहीं दिया जबकि सत्य यह है कि उस के पास पत्रिका हो तो भी उठा कर देखता तक नहीं.’’

‘‘आप को उस का न पढ़ना बुरा लगता है?’’

‘‘क्यों भई, लाखों लोग मुझे पढ़ते हैं…एक वह न पढ़े तो मैं क्यों बुरा मानूं. पढ़ना एक शौक है विजय जिस में कोई जबरदस्ती नहीं चल सकती. जिसे पढ़ने की लत हो वह खाना खाते भी पढ़ लेता है और जिसे नहीं पढ़ना उसे किताबों के ढेर में फेंक दो तो भी वह पढ़ेगा नहीं.

‘‘उस का बेटा इस साल फाइनल में है. मेरे हाथ में उस की एसाइनमेंट है. इसलिए जब भी मिलता है प्रशंसा का चारा मेरे आगे डालने लगता है, जो मेरे गले में फांस जैसा फंस जाता है. बेवकूफ हूं क्या मैं? क्या मुझे समझ में नहीं आता कि वह कितना दिखावा कर रहा है. झूठ क्यों बोलना?

‘‘मैं ने तो उसे नहीं कहा कि मेरी तारीफ करो. जब उस ने मेरा लिखा कभी पढ़ा ही नहीं तो झूठी तारीफ भी क्यों करनी. पढ़ कर चाहे बुराई ही करो वह मुझे मंजूर है. जरूरी नहीं मेरा लिखा सब को पसंद ही आए. सब का अपनाअपना दृष्टिकोण है जीवन को नापने का. जोजो मैं ने अपने जीवन में पाया वहवह मेरा सच है. जो तुम जीवन से सीखोगे वही तुम्हारा भी सच होगा. जरूरी तो नहीं न तुम्हारा और मेरा सच एक ही हो.’’

सोमजी अपनी ही रौ में बहते हुए कहते भी गए और अपनी मनपसंद पुस्तकें भी चुनते गए. सच ही तो कह रहे हैं सोमजी…किसी के भी व्यवहार का सच वह कितनी जल्दी पकड़ लेते हैं. मैं ने उन से कहा तो हंस पडे़.

‘‘अरे, नहीं विजय, किसी का भी व्यवहार झट से पकड़ लेना आसान नहीं है. आज का इंसान बहुत समझदार हो गया है. किस की कौन सी नस पर हाथ रख कर अपना कौन सा काम निकालना है उसे अच्छी तरह आता है. और मुझ जैसा भावुक मूर्ख इस का शिकार अकसर हो जाता है.’’

सोमजी, खरीद कर लाई कुछ किताबें उलटतेपलटते हुए मुसकराने लगे. बड़ी गहरी होती है उन की मुसकान. अपनी मनपसंद पुस्तक में कुछ मिल गया था उन्हें. मेरी ओर देख कर बोले, ‘‘विजय, कुछ बातें सिर्फ कहने के लिए ही कही जाती हैं. उन का कोई अर्थ नहीं होता. जैसे कि किसी ने आप से आप का हाथ पकड़ कर आप का हालचाल पूछा. उसे आप की सेहत से कुछ भी लेनादेना नहीं होता. बस, एक शिष्टाचार है. सिर्फ इसलिए पूछा कि सवाल पूछना था. पूछने वाले के शब्दों में कोई गहराई नहीं होती.

‘‘एक सतही सा सवाल है कि आप कैसे हैं. आप कल चाहे किसी भयानक बीमारी से मर ही क्यों न जाएं लेकिन आज आप को सिर्फ यही उत्तर देना है कि आप अच्छे हैं. अपनी बीमारी का दुखड़ा रोना आज का शिष्टाचार नहीं है. अपने मन की बात खुल कर करना आज का शिष्टाचार है ही नहीं. आप के मन में भावनाओं का ज्वारभाटा तूफानी वेग से उमड़घुमड़ रहा हो लेकिन आज का शिष्टाचार, यही सिखाता है कि बस, चुप रह जाओ. एक बनावटी सी…नकली सी मुसकान चेहरे पर लाओ और अपनी पीड़ा अपने तक ही रखतेरखते हंसते हुए कहो, ‘मैं अच्छा हूं.’

‘‘उस आदमी को न तो मेरी रचनाओं से कुछ लेनादेना है न ही मेरी लेखनी से. उस के हाथ अगर अपना कुछ लिखा दे दूंगा तो हो सकता है कह दे, उसे पढ़ने का शौक ही नहीं है. मैं ने बेकार ही तकलीफ की, क्योंकि शिष्टाचार है इसलिए जब भी मिलता है यही एक उलाहना देता है कि मैं ने उसे कुछ दिया नहीं जिसे वह पढ़ पाता.’’

बड़े गौर से मैं सोमजी का चेहरा पढ़ता रहा. सच ही तो कह रहे हैं सोम. वास्तव में आज का युग वह नहीं रहा जो हमारे बचपन और हमारी जवानी में था. हमारे बचपन में वह था जिस की जड़ें आज भी गहरी समाई हैं हमारी चेतना में. शब्दों में गहराई थी. हां का मतलब हां ही होता था और ना का मतलब सिर्फ ना. आज जरूरी नहीं हां का मतलब हां ही हो. शिष्टाचारवश किसी का हां कह देना वास्तव में ना भी हो सकता है. शब्दों में गहराई है कहां जिन में जरा सी ईमानदारी नजर आए. एक ओढ़ा हुआ जीवन सभी जी रहे हैं. शब्दों का नाता सिर्फ जीभ से है सत्य से नहीं.

हफ्ता भर ही बीता उस वाकया को कि मुझे किसी काम से दिल्ली जाना पड़ा. मेरे एक मित्र बीमार थे…उन्हीं ने बुला भेजा था. कैंसर की आखिरी स्टेज पर हैं वह. कब समय आ जाए नहीं जानते इसलिए मिलना चाहते थे. उन के परिवार से 2-4 दिन वास्ता पड़ा मेरा. मौत के कगार पर खड़ा मेरा मित्र किसी भी कोण से दुखी हो ऐसा नहीं लगा मुझे.

‘‘कहिए सोमजी, क्या हाल है? भई क्या लिखते हैं आप…बहुत तारीफ हो रही है आप की रचनाओं की. आप अपनी रचनाओं का कोई संग्रह क्यों नहीं निकलवाते.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...