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‘‘ऐसा जीवन बारबार जीना चाहता हूं मैं. कोई भी ऐसी इच्छा नहीं है मेरी जो पूरी न हुई हो. संतुष्ट हूं मैं. बारबार थोड़े ही मरूंगा. एक बार ही तो मरना है...जब उस की इच्छा हो...मैं तैयार हूं.’’

मित्र का सीधासादा मध्यवर्गीय परिवार है. अपने छोटे से फ्लैट में वह पत्नी के साथ रहता है. बेटा नई पीढ़ी का है... परेशान रहता है. अच्छी कंपनी में नौकरी करता है. जितना पिता ने नौकरी के आखिरी दिनों में कमाया होगा उस से कहीं ज्यादा वह आज हर महीने कमाता है फिर भी सुखी नहीं है.

‘‘पता नहीं आज के बच्चों को चैन क्यों नहीं है. सबकुछ है फिर भी खुश नजर नहीं आते. हम ने जो सब धीरेधीरे बनाया था उस को यह शुरू के 4-5 साल में ही बना लेते हैं. कर्ज पर घर बना लिया, कर्ज पर गाड़ी, कर्ज पर घर का सारा सामान. कभी इस के घर जा कर देखो क्या नहीं है मगर सब कर्ज पर है. महीने के शुरू में ही कंगाल नजर आता है क्योंकि पूरी तनख्वाह तो किस्तों में बंट कर अपनीअपनी जगह पर चली जाती है. अभी अकेला है, खानापीना हमारे पास चल जाता है. कल को शादी होगी तो घर कैसे चलाएगा, मेरी तो समझ में नहीं आता.’’

‘‘बीवी भी तो कमाएगी न. रोजीरोटी वह चला लेगी घर इस ने बना ही लिया है. सब प्लान बना रखा है बच्चों ने, तुम क्यों परेशान...’’

‘‘अरे, नहीं बाबा, मैं परेशान नहीं हो रहा...मैं तो खुश हूं कि आज भी अपने कमाऊ बेटे को पाल रहा हूं. आज भी उस पर बोझ नहीं हूं. इस से बड़ा संतोष मेरे लिए और क्या होगा कि मेरे शरीर में स्थापित कैंसर भी मुझे तंग नहीं कर रहा. इतनी खतरनाक बीमारी पेट में लिए घूम रहा हूं पर क्या मजाल मुझे जरा सी भी तकलीफ हो.

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