लेखक- मीनू त्रिपाठी
दुनिया कितनी छोटी है, इस का अंदाजा महाबलेश्वर में तब हुआ जब बारिश में भीगने से बचने के लिए दुकान के टप्परों के नीचे शरण लेती रेवती को देखा. जयपुर में वह और रेवती एक ही औफिस में काम करती थीं.
आज काफी समय बाद पर्यटन स्थल की अनजान जगह पर रेवती से मिलना एक इत्तफाक और रोमांचकारी था. खुशी से बौराती सौम्या रेवती के गले लगते हुए बोली, ‘‘कहां रही इतने दिन? कितना फोन लगाया तुझ को, लगता ही नहीं था. कैसी हो तुम?’’
‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. हां, इधर बहुत व्यस्त रही. बेटी रिया की शादी में मुझे होश ही नहीं था.’’
‘‘बड़ी अजीब हो, बेटी की शादी में निमंत्रण तक नहीं भेजा,’’ सौम्या ने शिकायत की तो वह मुसकरा दी.
‘‘आप लोग बातें करो, मैं गरमागरम भुट्टे ले आता हूं,’’ सौम्या के पति सलिल ने भुट्टे के बहाने दोनों सहेलियों को अकेले छोड़ना बेहतर समझा.
‘‘हाय, कितने दिनों बाद मिले हैं, समझ नहीं आ रहा, कहां से बातें शुरू करूं. यहां कब तक हो और कैसे आई हो?’’
‘‘आज ही निकलना है. मैं कैब का इंतजार कर रही हूं. दरअसल, यहां एक रिश्तेदार के पास आई थी, फंक्शन था.’’
‘‘अकेले?’’ सौम्या ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘और क्या, इन के पास समय कहां है, जब देखो बिजनैस. अब बेटे ने संभाल लिया है, तो इन्हें कुछ आराम है.’’
‘‘सुन न रेवती, मेरे होटल चलते हैं, गप्पें मारेंगे.’’
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‘‘नहीं यार सौम्या, बिलकुल समय नहीं है,’’ कहती हुई वह मोबाइल पर अपनी कैब की लोकेशन देखने लगी और हड़बड़ा कर बोली, ‘‘कैब आ गई.’’ रेवती मोबाइल से कैब वाले को अपनी लोकेशन बताने लगी.
‘‘हां भैया, लोकेशन पर ही हूं. हां, हां, बस, थोड़ा सा आगे आइए, मैं आप को देख रही हूं,’’ अपने कैब ड्राइवर को दिशानिर्देश देती हुई रेवती को सौम्या ने अजीब नजरों से देखा.
सौम्या की ओर देखे बगैर ही रेवती ने बैग में अपने मोबाइल को सरकाते हुए कहा, ‘‘यहां की चाय ले जाना और स्ट्राबेरी भी. वैसे, कहांकहां घूमी हो, छोटी सी तो जगह है. बरसात में तो लगता है हम बादलों में हैं,’’ कह कर वह कैब की ओर देखने लगी.
सौम्या उस से ढेर सारी बातें करना चाहती थी, पर दोनों सहेलियों के बीच वह कैब ड्राइवर किसी खलनायक सा आ गया.
कैब ड्राइवर के आते ही रेवती उस के कंधे पर हाथ रखती हुई, ‘‘चलो, फिर मिलते हैं.’’ कह कर चलती बनी.
अरसे बाद मिलने पर क्या कैब छोड़ी नहीं जा सकती थी, यह क्षोभ मिलने की खुशी पर भारी पड़ गया.
‘‘अरे, तुम अकेली खड़ी हो, तुम्हारी सहेली कहां गई?’’ दोनों हाथों में भुट्टा पकड़े सलिल पूछ रहे थे.
‘‘चली गई, उसे कुछ ज्यादा ही जल्दी थी.’’
‘‘चलो, तुम दोनों भुट्टे खा लो,’’ कहते हुए सलिल ने उसे भुट्टा पकड़ाया.
बारिश थम चुकी थी. सलिल आसपास के खूबसूरत नजारों में खो गए. पर, सौम्या का व्यथित मन रेवती के उदासीन व्यवहार का आकलन करने में लगा हुआ था. संपर्कसूत्र का आदानप्रदान हुए बगैर कब मिलेंगे, कैसे मिलेंगे जैसे अनुत्तरित प्रश्न उस के पाले में डाल कर यों हड़बड़ी में निकल जाना उसे बड़ा अजीब लगा. लगा ही नहीं, कभी दोनों में घनिष्ठता थी. न कुछ जानने की ललक, न बताने की उत्सुकता. रेवती का अतिऔपचारिक व्यवहार सौम्या को अच्छा नहीं लगा.
जयपुर से दिल्ली शिफ्ट होने के बाद वह जब भी रेवती को फोन करती, पूरे उत्साह के साथ अपने सुखदुख उस से साझा करती. फोन पर लंबीलंबी बेतकल्लुफ बातचीत में जहां सौम्या दिल्ली जैसी नई जगह पर मन न लगने का रोना रोती, वहीं रेवती अपनी नौकरी की व्यस्तता की भागादौड़ी के बारे में बताती थी.
रिटायरमैंट का समय नजदीक आने पर लोग जहां भविष्य की चिंता में डूबते हैं, वहीं रेवती खुश थी कि रिटायरमैंट के बाद खूब आराम करेगी. रिटायरमैंट के पलों को सुकून से जिएगी और अपने पति आकाश के साथ खूब घूमेगी. इधर कुछ सालों से रेवती से उस का संपर्क टूट गया था. जो नंबर उस के पास था, उस से उस का फोन नहीं लगता था.
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सौम्या को पुराने दिन याद आए. उस के और रेवती के बीच कितनी अच्छी मित्रता थी. दोनों एकदूसरे के सुखदुख की साझीदार थीं.
जब सलिल का ट्रांसफर दिल्ली हुआ, तो वह बहुत दुखी हुई. उस वक्त रेवती ने उसे समझाया, ‘परिस्थितियोंवश हमें कोई निर्णय लेना हो, तो उस के पीछे खुश होने के कारण ढूंढ़ लेने चाहिए.
‘अब देखो न, आकाश मेरे घर में खाली बैठने के खिलाफ हैं. उन का मानना है कि काम सिर्फ पैसों के लिए नहीं किया जाता. काम करने से क्रियाशीलता बनी रहती है.
‘आकाश औरत की आजादी के पक्ष में हैं. क्या इतना मेरे लिए काफी नहीं. उन की सकारात्मक सोच के चलते मैं अलवर से जयपुर अपडाउन कर पाती हूं.
‘मैं खुश हूं कि आकाश खुले विचारों के हैं. वहीं दूसरी ओर तुझे नौकरी छोड़नी पड़ रही है, क्योंकि सलिल को दूसरे शहर में तबादले पर जाना है. इस समझौते के पीछे सकारात्मक सोच यह होनी चाहिए कि सलिल और तुम्हें टुकड़ोंटुकड़ों में जीवन जीने को नहीं मिलेगा.’
‘तुम कुछ भी कहो, मैं तो खालिस समझौता ही कहूंगी. एक मिनट को मेरी बात छोड़ दो. आकाश क्या चाहते हैं, यह भी छोड़ दो. बस, दिल से कहो, अपने लिए तुम्हारा अपना मन क्या कहता है,’ सौम्या की यह बात सुन कर रेवती फीकी हंसी हंसी और बोली, ‘इस भागदौड़ में क्या रखा है. कहने को आजाद हूं. आकाश जैसी खुली विस्तृत सोच वाला पति मिला है, फिर भी जीवन आसान कहां है. 60-65 किलोमीटर रोज के आनेजाने में कब दिन शुरू होता है, कब खत्म, पता ही नहीं चलता.
‘कभीकभी मन में कसक उठती है कि कब वह दिन आएगा जब मैं रिटायरमैंट के बाद उन्मुक्त जीवन जिऊंगी. चिडि़यों की चहचहाहट सुनूंगी. चाय के कप से धीमेधीमे चुसकियां भरूंगी. बरसती बूंदों की टपटप सुनूंगी. जानपहचान के लोगों से संपर्क बढ़ाऊंगी. कुछ छूटा हुआ समेटूंगी. कुछ बेवजह यों ही छोड़ दूंगी. जब बच्चे हायर स्टडीज के लिए बाहर हैं… आकाश के साथ बिना प्लानिंग कहीं निकल जाऊंगी. एकदूसरे का अकेलापन दूर करते हुए सुकून से जिऊंगी.