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लेखक- मीनू त्रिपाठी

‘आकाश का बस चले, तो रिटायरमैंट के बाद भी मुझे व्यस्त रखें. जबकि, मैं सुकून चाहती हूं. अब तो उस दिन का इंतजार है, जब मेरा फेयरवैल होगा,’ कह कर रेवती अपने फुरसती दिनों की कल्पना में डूब गई.

‘‘क्या हुआ? तुम इतनी चुपचुप सी  क्यों हो,’’ सलिल के टोकने पर मन का पक्षी अतीत से वर्तमान में फुदक कर आ गया.

‘‘थकान सी हो रही है सलिल, होटल चल कर आराम करते हैं,’’ सौम्या के कहने पर सलिल उस के साथ वापस होटल में आ गए.

रात को डिनर के लिए डाइनिंग एरिया की ओर जाते समय सहसा ही सलिल के मुंह से निकला, ‘‘अरे, आज तो वाकई इत्तफाक का दिन है.’’

सलिल के इशारे पर सौम्या की नजरें उठीं, तो वह बुरी तरह चौंक गई. कौरीडोर में रेवती अपने रूम का लौक खोलती दिखी. पीठ उन की तरफ होने से रेवती सौम्या और सलिल को देख नहीं पाई.

सलिल उस की बेचैनी देख कर बोले, ‘‘अगर तुम्हें लगता है कि वह तुम्हें एवौयड कर रही है, तो समझदारी इसी में है कि तुम उस की भावनाओं का खयाल करते हुए उसे शर्मिंदा न करो.’’

पर, सौम्या को चैन कहां था. रात 9 बजे वह रेवती के कमरे का दरवाजा खटखटा दिया.

दरवाजा खुलते ही विस्मय, शर्मिंदगी और हड़बड़ाहटभरे भाव लिए खड़ी रेवती को परे धकेलती वह बेधड़क अंदर आ गई और नाराजगीभरे भाव में व्यंग्यात्मक स्वर में बोली, ‘‘तू तो अपने रिश्तेदार के यहां आई है. वहां जगह नहीं होगी, तभी शायद होटल में रुकी है. वह भी उस होटल में, जिस में हम ठहरे हैं. शायद वे… तू तो आज निकलने वाली थी न?’’

‘‘तू क्या लेगी, चाय बनाऊं?’’ रेवती के कहने पर सौम्या उस का हाथ पकड़ कर कहने लगी, ‘‘इतने दिनों बाद मुझ से मिली है. क्या मन नहीं करता बातें करने का? जान सकती हूं, वजह क्या है मुझे एवौयड करने की?’’

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वह सकपकाते हुए बोली, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है यार. क्यों एवौयड करूंगी तुझे? रिश्तेदार से मिलने जरूर आई थी, पर रुकी होटल में हूं. इस में कौन सी बड़ी बात है.’’

यह सुन कर दो पल के लिए सौम्या रेवती को घूरती रही, फिर सहसा ही उस का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘क्या हुआ है तुझे, सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, हां बिलकुल ठीक है.’’

‘‘सच बता, अकेले आई है क्या?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’

‘‘बच्चे और पति कहां हैं?’’

‘‘बताया तो… बेटी रिया की शादी हो गई और बेटा रोहन एमबीए कर के फैमिली बिजनैस में है.

‘‘और पति आकाश?’’

‘‘बिलकुल बढि़या हैं आकाश.’’

उस के बाद कुछ पल के लिए चुप्पी छा गई, एक अनावश्यक सी चुप्पी. सौम्या उस के चेहरे को ध्यान से देखने लगी. दोपहर बाद की चंद पलों की मुलाकात में वह हंसी तो थी, पर उस की हंसी आंखों तक नहीं पहुंची थी.

अजीब सी गंभीरता ओढ़े, मुरझाया चेहरा और सूखी भावहीन आंखें, औपचारिकता में लिपटा रूखासूखा व्यवहार देख कर वह फुसफुसाई, ‘‘चेहरा कैसा मुरझा गया है. कहां गया तेरा सुकून वाला फंडा. मैं समझती हूं कि एक बार काम करने की आदत पड़ जाए न, तो घर बैठना बिलकुल नहीं सुहाता. आकाशजी अपने बिजनैस में व्यस्त होंगे और तू खालीपन सा महसूस करती होगी.’’

यह सब सुन कर रेवती मुसकराती रही. उसे ध्यान से देख कर सौम्या बोली, ‘‘मत मुसकरा इतना, कुछ चल रहा है तेरे दिल में तो बता दे.’’

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इतना सुन मुसकराती रेवती के भीतर जमा दर्द, सखी के स्नेहिल स्पर्श से, आंखों में आंसू बन कर झरझर छलकने लगे. सौम्या उसे रोते देख हैरान रह  गई, फिर बिना कुछ कहे उसे सीने से लगा लिया.

कुछ देर तक दोनों सहेलियां मौन रहीं. फिर कुछ देर बाद रेवती बोली, ‘‘क्या कहूं तुझ से, और कह के भी क्या फायदा?’’

‘‘मन हलका होगा और क्या,’’ सौम्या के कहते ही जब दर्द का गुबार निकला, तो वह सन्न रह गई, लगा जैसे पैरों के नीचे से धरती सरक गई.

रेवती ने अतीत के अवांछित प्रसंग को उस के साथ साझा किया…

रेवती के औफिस का आखिरी दिन था. वह बड़ी उमंगों से भरी घर से निकली. औफिस पहुंचने पर उस का जोरदार स्वागत हुआ.

भावभीनी विदाई की पार्टी के बाद तकरीबन 12 बजे बौस ने कहा, ‘मुझे अलवर में कुछ काम है. तुम चाहो तो मैं तुम्हें घर छोड़ सकता हूं, लेकिन तुम को अभी निकलना होगा.

फूलों के हार, बुके और गिफ्ट को देखते हुए उसे बौस के साथ जाने में ही समझदारी लगी. आखिरी दिन उस को जल्दी घर जाने की छूट मिलना कौंप्लीमैंट्री था. उस ने झट से हां  कर दी.

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