लेखक- एस भाग्यम शर्मा
जब तक मैं ने बीएड किया. मम्मी पूरे साल इन्हीं चक्करों में पड़ी रहीं और रुपयों को बरबाद करती रहीं. पापा बहुत नाराज होते. मम्मी कभीकभी उन से छिप कर ऐसे काम करने लगीं कि मेरे मम्मीपापा में भी तकरार होने लगी.
पंडितों और ज्योतिषियों ने मम्मी से कह दिया कि इन का डाइवोर्स कभी नहीं होगा. ये दोनों हमेशा साथ रहेंगे, तो मम्मी को विश्वास हो गया कि सब ठीक हो जाएगा.
मु झे लगता कि इन सब का कारण मैं ही हूं. मु झे खुद पर शर्म महसूस होती.
फिर भी मैं राजीव के साथ जाने को तैयार नहीं थी. पर ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान...’ कुछ लोग भी बीच में पड़ कर मु झे सम झौता करने के लिए मजबूर करने लगे.
मेरे पापा की हालत भी ठीक नहीं थी. उस का दोष भी मेरा भाई मु झ पर ही मढ़ना चाहता था.
मेरा बीएड पूरा हो चुका था और राजीव ने अपना ट्रांसफर दूसरे प्रदेश में करा लिया था ताकि दोनों फैमिली का हस्तक्षेप न रहे.
मु झे नौकरी करने की परमिशन मिल गई थी. शहर भी बड़ा था तो मैं ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई.
वहां पर मु झे तुरंत नौकरी मिल गई. अच्छी नौकरी थी. मेरा बेटा भी मेरे साथ ही जाने लगा. पर राजीव अपनी हरकतों से बाज नहीं आए. हरेक बात पर लड़ाई झगड़ा करना, बातबात पर हाथ उठाना उन के लिए बड़ी बात नहीं थी.
अब मैं मां को पत्र लिख सकती थी. स्कूल जाने से मेरा मन भी बदल गया था. इन बातों को मैं ने बड़ा नहीं लिया. मैं ने भी सोचा कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा.