फौज की नौकरी ने आत्माराम को अनुशासन और सेहतमंद रहने की उपयोगिता के बारे में अच्छी तरह से बता दिया था.

50 साल की उम्र में 20 साल की फौज की नौकरी से उन्होंने छुट्टी तो पा ली थी, पर हर समय कुछ करने को मचलने वाला मन और तन अभी काम करने को तैयार रहता था.

आत्माराम की बड़ी बेटी शादी कर अपनी ससुराल जा चुकी थी और बेटा मस्तमलंग भविष्य के लिए कुछ भी ढंग से सोचने लायक नहीं हुआ था. मौजमस्ती ही उस की जिंदगी का टारगेट बना हुआ था.

बेटे की हालत और अपना खालीपन भरने को देखते हुए आत्माराम ने अपने घर पर ही एक परचून की दुकान खोल ली थी. अब फौजी रह चुका आत्माराम दुकानदार बनने और महल्ले में अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश में था. आटेनमक के भाव के साथसाथ वह चेहरे के भाव को भी पढ़ना सीख रहा था.

कोई सिगरेट पीने दुकान में आता तो पीने वाले को उसे फौज की नौकरी का एक किस्सा फ्री में सुनाया जाता. अच्छा बरताव और आमदनी में बढ़ोतरी दुकान पर मन लगाने के लिए काफी थी. अब बेटे को भी 3-4 घंटे दुकान में गुजारने के लिए मना लिया गया.

लड़का भी दुकानदारी में तेज निकला और सालभर में उस ने दुकान से उठने वाले गल्ले को दोगुना कर दिया. पिता की पुत्र की भविष्य को ले कर चिंता काफी कम हो गई थी और वे अब लोगों के निजी और सार्वजनिक काम कराने में मदद करने लगे.

नगरपालिका के चुनाव में कुछ लोगों ने आत्माराम को वार्ड पार्षद का चुनाव लड़ने के लिए राजी कर लिया. आत्माराम की बस एक ही शर्त थी कि वे अपनी जमापूंजी से चुनाव के लिए पैसा खर्च नहीं करेंगे, जो लोगों ने मान ली. मैदान में 5 मुख्य उम्मीदवार थे, लेकिन आत्माराम 563 वोट से जीत गए.

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