लेखक-  रंजना भारिज

दोपहर का समय था. मैं औफिस में लंच टाइम में खाना खा कर के जल्दीजल्दी अपनी फाइलें इकट्ठी कर रही थी.

बस, 15 मिनट में एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी. इतने में फोन की  घंटी बजी.

‘उफ, अब यह किस का फोन आ गया?’ परेशान हो कर मैं ने फोन उठाया, तो उधर से कमला आंटी की आवाज सुनाई पड़ी.

कमला आंटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उन के पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.

आंटी की आवाज से मेरा माथा ठनका. आंटी कुछ उदास सी लग रही थीं और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज को भरसक मुलायम बना कर मैं ने कहा, ‘‘कहिए आंटी, बताइए कैसी हैं आप?’’

‘‘बेटा, मैं तो ठीक हूं पर तुम्हारे अंकल की तबीयत काफी खराब है. हम लोग 10 दिनों से अस्पताल में ही हैं,’’ बोलतेबोलते उन का गला भर्रा गया, तो मुझे भी चिंता हो गई.

‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?’’

‘‘सीरियस ही है बेटी. उन को एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब... अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डाक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं,’’ कहते हुए उन का गला रुंध गया.

‘‘आंटी, आप फिक्र मत कीजिए. अंकल ठीक हो जाएंगे. आप हिम्मत रखिए. मैं शाम को आती हूं आप से मिलने,’’ एक तरफ मैं उन्हें दिलासा दिला रही थी, वहीं दूसरी तरफ अपनी घड़ी देख रही थी.

मीटिंग का समय होने वाला था और मेरे बौस देर से आने वालों की तो बखिया ही उधेड़ देते हैं. किसी तरह भागतेभागते मीटिंग में पहुंची, पर मेरा दिमाग कमला आंटी और वीरेन अंकल की तरफ ही लगा रहा.

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