गांव वालों के उस समूह में चर्चा का मुद्दा ऐसा था, जो पंडेपुजारियों के धंधे पर सीधे चोट करने वाला था. वे लोग तय कर रहे थे कि मृत्युभोज की सामाजिक बुराई को खत्म किया जाए. इस से लोगों पर दोहरी मार पड़ती है. वे पंडों का तो पेट भरते ही हैं, उन्हें आडंबरों का शिकार भी होना पड़ता है. प्रियजनों को खोने वालों के लिए ऐसी प्रथा मृत्युभोज न हो कर ‘मृत्युदंड’ बन जाती है.

घंटों हुई चर्चा के बाद आखिर में यह तय किया गया कि इस बुराई के खिलाफ सामाजिक आंदोलन छेड़ा जाएगा. गांव में न तो कोई किसी पंडे के कहने पर मृत्युभोज देगा और न ही कोई उस में शामिल होगा. उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के विकासखंड धनीपुर इलाके में ऐसी बुराई के खिलाफ खड़ा हो रहा आंदोलन मौत के बाद परिजनों को तरहतरह के धार्मिक कर्मकांडों और डर दिखा कर जेबें भरने वाले पंडेपुजारियों को भले ही नागवार गुजरे, लेकिन सोचविचार के बाद 24 जनवरी को गांव वालों ने जो सामूहिक फैसला किया, उस की तारीफ भी हो रही है.

3 दर्जन से ज्यादा गांवों में इस प्रथा को लोग खुद ही खत्म कर देना चाहते हैं. वे शपथ ले रहे हैं कि न तेरहवीं में खाएंगे और न किसी को खिलाएंगे. दरअसल, किसी की मौत होने के बाद कर्मकांडी पंडेपुजारियों के कहने पर सामाजिक व धार्मिक परंपरा के नाम पर अनापशनाप पैसे खर्च होते हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो अंतिम संस्कार से ले कर तेरहवीं तक कमाई करने का कोई रास्ता नहीं छोड़ा जाता है. दुख की बात तो यह है कि लोगों को मुंह भरने के लिए ऐसी प्रथाओं को निभाना पड़ता है. कोढ़ में खाज तब और बढ़ जाती है, जब बीमारी से किसी की मौत हो. इलाज कराने के खर्चों से ही परिवार खोखला हो चुका होता है. इस के बाद कर्मकांडियों का पेट भी भरना पड़ता है. गरीब आदमी सामाजिक व धार्मिक परंपरा निभाने के चक्कर में और भी गरीब हो जाता है.

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