केन्द्र में मोदी की सरकार है और भारत के 13 राज्यों में भाजपा की सरकारें बन चुकी हैं. कह सकते हैं, कि उसके कब्जे में देश की बड़ी आबादी है. सही अर्थों में भाजपा पूरे देश पर अपना अधिकार चाहती है. और यह स्वाभाविक है. दशकों से वह देश को अपनी सोच के सांचे में ढ़ालना चाहती है. जिसके लिये सरकार बने रहना जरूरी है. नरेन्द्र मोदी को आधार बना कर वह न सिर्फ सत्ता में बने रहना चाहती है, बल्कि सत्ता में बने रहने के लिये वह देश के प्रमुख राजनीतिक दलों और संगठनों को भी समाप्त करना चाहती है. उसकी नीति वित्तीय ताकतो-विश्व बैंक से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और राष्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय निजी कम्पनियां के लिये काम करते हुए देश की आम जनता को राष्ट्रवाद के सपनों में डुबा कर रखने की है. वह सपनों के समय सीमा का निर्धारण और संभावनाओं की अवधि का निर्धारण ऐसे कर रही है कि चुनावी समर में जीत मिलती रहे. उम्मीदें बनी रहें. अब तक वह अपनी योजनाओं में सफल भी रही है.

भाजपा की सोच एक राष्ट्र, एक धर्म, एक दल और एक नेता की रही है. उसने समाजवाद या गैरपूंजीवादी विकास के बारे में कभी सोचा ही नहीं. लेकिन जैसे ही देश में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की शुरूआत हुई, राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय निजी कम्पनियों का महत्व बढ़ गया और दक्षिणपंथी ताकतों को खुली छूट मिल गई. भाजपा और नरेन्द्र मोदी के मूल में इन्हीं ताकतों की बढ़ी हुई भूमिका है, जिसके प्रथम पुरूष कांग्रेस के मनमोहन सिंह हैं. जिन्होंने राष्ट्रीयकरण की ओट में निजीकरण को बढ़ावा दिया, मगर भाजपा के नरेन्द्र मोदी ने निजीकरण को राष्ट्रीय नीति का रूप दे दिया है. अब भारत में समाजवाद और गैरपूंजीवादी विकास कहीं नहीं है. यह अलग बात है, कि जिस संविधान की कसमें खा कर सरकारें बनती हैं वहां लोकतंत्र और समाजवाद आज भी है. जिसकी नुमाईशें सरकार कभी-कभार मरे हुए सोच के जीवाष्म की तरह कर लेती है.

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