देश में ऐसा पहले कभी न सुना गया और न ही हुआ है. भाजपा के नेतृत्व में नरेंद्र मोदी की सरकार जिस तरह संवैधानिक संस्थाओं पर अंकुश लगाती चली जा रही है, वह लोकतंत्र के लिए एक अंधा कुआं बन कर सामने आ सकता है. लोकतंत्र के उजाले में एक ऐसा अंधेरा छा सकता है, जिस का खमियाजा देश और देश की जनता को आगामी समय में उठाना पड़ सकता है.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद की उन की अब तक की सत्ता यात्रा पर अगर हम नजर डालें तो पाते हैं कि उन का सब से पहला आगाज था कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सच्ची आजादी तो अब आई है और दूसरी कोई हिंदू मोदी सरकार कई शताब्दियों के बाद. यह बात बड़े गर्व के साथ प्रचारित की गई, लेकिन नरेंद्र मोदी के सवा 8 साल के कार्यकाल के बाद अगर हम देखें तो चाहे वह सुप्रीम कोर्ट हो या चुनाव आयोग, सूचना आयोग हो या फिर प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो, सब एक नई चाल से चलते दिखाई दे रहे हैं, जो संविधान से इतर है.

नैशनल हैराल्ड वाले मामले पर की गई कार्यवाही को देखें तो पाते हैं कि पूरे देश की निगाह आज ईडी पर है. राहुल गांधी के बाद सोनिया गांधी से पूछताछ और नैशनल हैराल्ड के दफ्तर को सील करना संकेत दे रहा है कि आने वाले समय में राजनीतिक घमासान के साथ हालात बेकाबू हो सकते हैं. शायद इन्हीं हालात को देखते हुए अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस समेत 17 विपक्षी दलों ने धनशोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को मिले हकों के सिलसिले में आए सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले को ले कर 3 जुलाई, 2022 को निराशा जताई और कहा कि इस फैसले से ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ में लगी सरकार के हाथ और मजबूत होंगे.

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