सपा बसपा के गठबंधन से जमीनी स्तर पर भले ही कोई बड़ा सामाजिक बदलाव न हो पर इसके सियासी मायने फलदायक हो सकते हैं. सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस भले ही शामिल ना हो पर इस गठबंधन से मिलने वाले सियासी लाभ में उसका हिस्सा भी होगा. 2019 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस होगी. ऐसे में सरकार बनाने ही हालत में कांग्रेस ही सबसे आगे होगी. सपा-बसपा ही नहीं दूसरे क्षेत्रिय दल भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों से परेशान हैं. ऐसे में वह केन्द्र से भाजपा को हटाने के लिये कांग्रेस के खेमे में खड़े हो सकते हैं.

भाजपा के लिये परेशानी का कारण यह है कि उसका एक बडा वोटबैंक पार्टी से बिदक चुका है. उत्तर प्रदेश में पार्टी 2 साल के अंदर ही सबसे खराब हालत में पहुंच चुकी है. सत्ता में रहते हुए भाजपा एक भी उपचुनाव नहीं जीती है. उत्तर प्रदेश के अलावा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भाजपा खराब दौर से गुजर रही है. राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार से विपक्षी दलों को ताकत दे दी है. ऐसे में सबसे पार्टी की जीत का सबसे अधिक दारोमदार उत्तर प्रदेश पर ही टिका है.

लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 सीटें काफी महत्वपूर्ण हो जाती हैं. 2014 के चुनाव में 73 सीटें भाजपा और उनके सहयोगी दलों को मिली थी. 7 सीटे सपा और कांग्रेस के खाते में थी. बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा-सपा के एक होने से सियासी परिणाम बदल सकते हैं. 2014 की जीत में मोदी लहर और कांग्रेस का विरोध भाजपा को सत्ता में लाने का सबसे बड़ा कारण था. नरेन्द्र मोदी ने जनता से जो वादे किये उसे वह पूरा नहीं कर पाए. अपनी कमियों को छिपाने के लिये अपने धर्म के एजेंडे को आगे बढ़ाते गये. पार्टी के नेताओं के स्वभाव में एक अक्खडपन आ गया.

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