Family Story: खुशी के रास्ते

Family Story: श्वेता एक दबंग चौधरी परिवार की बेटी थी और उस की शादी भी अच्छे खातेपीते घर में हुई थी. वह नौकरी नहीं करना चाहती थी, पर सास ने उसे नौकरी करने पर जोर दिया. वह कालेज में लैक्चरर हो गई. एक दिन गाड़ी खराब होने की वजह से श्वेता के पति का दोस्त युवराज उसे कालेज छोड़ने गया. फिर यह सिलसिला चल निकला. आगे क्या हुआ?

श्वेता चौधरी बचपन से ही ऐसे घर में पलीबढ़ी थी, जिस की चौधराहट की धमक पूरे इलाके में थी. उस के दादा चौधरी जबर सिंह की धाक भी उस समय पूरे इलाके में थी. वे खुद तो जिला पंचायत के सदस्य थे ही, अपने बेटे यानी श्वेता के पिता चौधरी समर सिंह को भी गांव का प्रधान बनवा रखा था. जिले के डीएम और एसपी के साथ उन की अच्छी उठबैठ थी, इसलिए सरकारी महकमे में भी उन की अच्छी पकड़ थी. वहां उन का काम बेरोकटोक होता था.

श्वेता को भी कभी किसी चीज की कोई कमी नहीं रही थी. उसे जो चीज पसंद आ जाती, उसे ले कर छोड़ती थी. वह बचपन से ही जिद्दी और मनमानी हो गई थी, बिलकुल अपने पापा और दादा की तरह दबंग.

जब श्वेता शादी के लायक हुई, तो उस ने अपने दादा जबर सिंह को चेताया, ‘‘दादाजी, मेरी शादी शहर में करना, मैं गांव में नहीं रहूंगी.’’

‘‘अरी मेरी लाडो, तू चिंता क्यों करती है? हम तेरे लिए गांव में लड़का ढूंढ़ेंगे ही नहीं. शहर के चौधरियों से मेरी खूब जानपहचान है, देखना, जल्दी ही तेरे लिए कोई अच्छा सा लड़का मिल जाएगा. लेकिन, एक परेशानी है…’’

‘‘वह क्या दादाजी?’’

‘‘बस, वह लड़का हमारी लाडो को पसंद आ जाए.’’

‘‘अरे दादाजी, आप भी मजाक करने से बाज नहीं आते,’’ इतना कह कर श्वेता दालान से घर के अंदर चली गई.

जबर सिंह मुसकराते हुए फिर से अपना हुक्का गुड़गुड़ाने लगे.

कुछ ही दिनों के बाद श्वेता की शादी दिल्ली के कनाट प्लेस के एक अमीर चौधरी परिवार में कर दी गई.

उस समय श्वेता कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से वनस्पति शास्त्र में पीएचडी कर रही थी और उस की थीसिस पूरी होने वाली थी.

श्वेता का पति हरबंस अपने घर के कारोबार को देखता था. कमला नगर में वह एक पेइंगगैस्ट चलाता था. 4 डंपर किराए पर चलाता था. ऐसे ही उस के और भी काम थे. कुलमिला कर उस की अच्छीखासी आमदनी थी और श्वेता को कोई कमी न थी. अपना हनीमून भी वे फ्रांस में मना कर आए थे.

कुछ दिनों के बाद श्वेता की पीएचडी भी पूरी हो गई. उस ने अपने शौक और रुतबे के लिए यह डिगरी ली थी. नौकरी करने का न उस का कोई मन था और न ही जरूरत. उस के परिवार की सात पुश्तों में से कभी किसी ने नौकरी नहीं की थी. नौकरी करना उस के खून में ही नहीं था.

श्वेता की सासू मां दमयंती पुराने जमाने की पढ़ीलिखी औरत थीं. जब वे इस घर में बहू बन कर आई थीं, तो उन की बड़ी चाह थी कि वे नौकरी करें, लेकिन हरबंस के बुजुर्गों ने उन की यह चाह पूरी नहीं होने दी थी.

उन का कहना था, ‘हमारे घर में कौन सी कमी है, जो हम बहू की कमाई खाएंगे… हम अपनी बहू से नौकरी कराएंगे, तो दुनिया हमारे मुंह पर थूकेगी.’

इसी दकियानूसी सोच के चलते दमयंती से यह मौका छीन लिया गया था, लेकिन अब दुनिया बदल चुकी थी. दमयंती अब घर की मालकिन थीं. वे चाहती थीं कि जो वे नहीं कर पाईं, वह उन की बहू कर के दिखाए.

उन्होंने सब के विरोध के बावजूद श्वेता को नौकरी करने के लिए बढ़ावा दिया, ‘‘श्वेता, समय बदल गया है.

अब हर पढ़ीलिखी औरत अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश कर रही है. तू ने तो पीएचडी कर रखी है.

घर में बैठ कर क्या करेगी? चार पैसे कमा कर लाएगी, तो घर में ही नहीं, बल्कि बाहर भी तेरी इज्जत और रुतबा बढ़ेगा.’’

लेकिन श्वेता तो उलटे बांस बरेली को. उस की तो नौकरी करने की जरा भी इच्छा नहीं थी. हरबंस भी नहीं चाहता था कि श्वेता नौकरी करे. लेकिन इस समय घर में श्वेता और हरबंस की नहीं, बल्कि दमयंती की ज्यादा चलती थी.

दमयंती ने श्वेता पर नौकरी करने का दबाव बनाया, तो हरबंस और श्वेता को झुकना पड़ा. वह दिल्ली के ही एक डिगरी कालेज में लैक्चरर हो गई. उस का कालेज घर से महज 10 किलोमीटर दूर था.

लेकिन एक दिन ऐनवक्त पर श्वेता की कार खराब हो गई. हरबंस और ड्राइवर ने कार की खराबी ठीक करने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. घर में दूसरी कार भी थी, लेकिन उसी समय हरबंस को भी कहीं जाना था.

अभी श्वेता कैब बुक करा कर कालेज जाने की सोच ही रही थी कि तभी हरबंस का दोस्त युवराज अपनी कार से वहां आ पहुंचा. वह अपने औफिस जा रहा था.

हरबंस को घर के बाहर परेशान हालत में खड़ा देख वह बोला, ‘‘यार हरबंस, क्या परेशानी है? हमारे रहते तू परेशान… यह कैसे हो सकता है यार…’’

‘‘नहीं, युवराज. ऐसी कोई बड़ी परेशानी नहीं है. कार खराब हो गई है. तेरी भाभी को कालेज जाना था और मुझे भी अभी निकलना है.’’

‘‘यार हरबंस, तू ने भी क्या बात कह दी… अरे यार, हम किसलिए हैं. तुझे न खटके तो श्वेता भाभी को मैं कालेज के गेट पर छोड़ दूंगा. मेरी कंपनी का औफिस भी उधर ही है.’’

‘‘अरे युवराज, ऐसा कुछ नहीं है. मैं अभी कैब बुक कर देता हूं. तुझे परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

तभी गेट पर खड़ी दमयंती बोली, ‘‘हरबंस, इस में गलत ही क्या है. युवराज शाम को श्वेता को उधर से लेता भी आएगा. ड्राइवर को तू ले जाना. दोस्तों पर इतना तो भरोसा करना ही पड़ता है.’’

‘‘मां, तुम नहीं जानतीं…’’ हरबंस कहना चाहता था कि ये दोस्त एक नंबर के बदमाश होते हैं. लेकिन युवराज के सामने वह यह बात गटक गया.

‘‘अरे, मैं सब जानती हूं. दुनिया देखी है मैं ने. बहू, जल्दी से आ. युवराज उधर ही जा रहा है. तुझे यह कालेज तक छोड़ देगा और वापस भी ले आएगा,’’ दमयंती ने भी बड़े विश्वास से और्डर सा देते हुए कहा.

हरबंस कुछ कहना चाहता था, लेकिन उस के होंठ फड़फड़ा कर रह गए. श्वेता तो गैरमर्द के साथ कार में बैठ कर बिलकुल भी नहीं जाना चाहती थी. लेकिन, सासू मां का आदेश और हरबंस की लाचारी देख वह युवराज की कार में पिछली सीट पर बैठ गई.

अब ऐसा अकसर होने लगा कि श्वेता युवराज की कार में बैठ कर जाने लगी. युवराज मजाकिया और मिलनसार स्वभाव का था. वह जल्दी ही श्वेता से हिलमिल गया.

श्वेता का संकोच भी जल्दी ही दूर हो गया. वह अब कार की पिछली सीट पर नहीं, बल्कि ड्राइविंग सीट की बगल वाली सीट पर बैठने लगी.

हरबंस को यह बात पसंद नहीं थी कि श्वेता आएदिन युवराज की कार में बैठ कर कालेज जाए, लेकिन उस की मां दमयंती उसे समझतीं, ‘‘बेटा, कौन से जमाने में जी रहे हो… बहू नौकरी करने घर से बाहर निकलेगी तो गैरमर्दों से बातें करेगी ही. क्या वह अपने कालेज में जवान लड़कों और आदमियों से बात नहीं करती?

उसे तो सब से मिलनाजुलना पड़ता ही है.

‘‘वह युवराज के साथ जा रही है, तो तेरा कार का खर्चा बच ही रहा है. उसे भागना ही होगा तो युवराज क्या किसी और के साथ भी भाग जाएगी.’’

‘‘मां, तुम यह कैसी अनापशनाप बातें कर रही हो?’’

‘‘हरबंस, मैं एक औरत हूं और एक औरत के दिल को अच्छी तरह समझती हूं. भागने वाली औरत को तू सात तालों में भी बंद कर दे, वह तेरे कहने से भी नहीं रुकेगी. न भागने वाली औरत कोठे से भी वापस आ जाती है.’’

हरबंस को अपनी मां की बातें बड़ी अजीब लग रही थीं. उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अगर वह अपनी मां की बात न माने तो दकियानूसी और शक्की कहलाए और माने तो श्वेता को युवराज के साथ जाना बरदाश्त करना पड़े. वह चक्की के दो पाटों के बीच पिस रहा था.

अब तो युवराज श्वेता को ले जाने के लिए रोज उस के घर के सामने कार रोक देता और श्वेता भी पहले से ही सजधज कर उस की कार में जा बैठती. शर्म की दीवारें धीरेधीरे गिर चुकी थीं. आग और घी कब तक दूर रहते. युवराज और श्वेता इतने पास आ चुके थे कि अब उन का दूर रहना मुश्किल हो गया.

एक दिन श्वेता युवराज के साथ ही चली गई. वह घर वापस नहीं आई. हरबंस ने उसे फोन किया, तो उस की बातें सुन कर हरबंस के होश उड़ गए.

श्वेता ने बिना लागलपेट के कहा, ‘हरबंस, मेरा इंतजार मत करना. युवराज और मैं ने एक मंदिर में शादी कर ली है. अब मैं उस की हो गई हूं,’ कह कर श्वेता ने फोन काट दिया.

हरबंस के पैरों तले से जमीन निकल चुकी थी. उस ने श्वेता के नाम एक फ्लैट कर दिया था. इनकम टैक्स से बचने के लिए लाखों रुपए श्वेता के खाते में ट्रांसफर कर दिए थे. लाखों के गहने श्वेता के पास थे.

उस दिन हरबंस ने अपनी मां को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘‘मां, यह श्वेता से तुम्हारा नौकरी कराने का लालच ही था, जो आज हमें ले डूबा. तुम्हें ही पड़ी थी उस से नौकरी करवाने की.

‘‘मैं ने तो क्या, श्वेता ने भी नौकरी करने से मना किया था, लेकिन तुम पर तो मौडर्न बनने का भूत सवार था और फिर कार का खर्च बचाने के चक्कर में उसे युवराज के साथ भेजने लगीं. अब चखो बदनामी का मजा.’’

‘‘हरबंस, यह समझ ले कि जो हुआ, सही हुआ. तू एक औरत को नहीं समझता. अच्छा हुआ वह बहुत जल्दी और आसानी से चली गई, नहीं तो ऐसी औरतें अपने इश्क और आशिक के चक्कर में अपने पति की जान तक ले लेती हैं.’’

‘‘हां मां, आप सही कह रही हो. आजकल की घटनाओं को सुन कर तो रूह कांप जाती है. कहीं आदमी औरत के टुकड़े कर के फ्रिज में दफन कर रहा है, तो कहीं औरत आदमी के टुकड़े कर रही है. समझ में नहीं आता कि समाज को क्या होता जा रहा है…’’

‘‘बेटा, यह कोई नई बात नहीं है. यह तो हमेशा से होता आया है. बस, फर्क इतना है कि सोशल मीडिया के जमाने में ये बातें एकदम फैल जाती हैं.’’

हरबंस कारोबारी था. उस का दिमाग पैसे की ओर दौड़ता था. किसी तरह का घाटा उसे सहन न था. उसे श्वेता के जाने की इतनी चिंता नहीं थी, जितनी अपने पैसे, गहने और फ्लैट की चिंता थी. इन सब को पाने के लिए हरबंस ने बिरादरी के खास लोगों की पंचायत बुला ली.

पंचायत में श्वेता, युवराज और उन की तरफ के लोगों को भी बुलाया गया. सब को लगता था कि पंचायत हंगामेदार होगी और लंबी खिंचेगी. मजा और चटकारे लेने वाले तो यही चाह रहे थे, लेकिन श्वेता ने पंचायत ज्यादा देर तक न चलने दी.

श्वेता ने यह कह कर पंचायत खत्म करवा दी, ‘‘अब मैं युवराज की हूं और उस की ही रहूंगी. जोकुछ भी हरबंस ने मेरे नाम किया है, फ्लैट, 30 लाख रुपए, गहने, जेवरात, मैं उन सब को हरबंस को लौटाने को तैयार हूं. मुझे दौलत नहीं युवराज चाहिए.’’

कुछ पंचों ने विवाद बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन युवराज इतने से संतुष्ट था. हरबंस ने कहा, ‘‘मैं भी यही चाहता हूं कि श्वेता अब युवराज के पास ही रहे और मेरे पैसे वगैरह मुझे वापस कर दे. उस ने इस के लिए हामी भर दी है, तो मुझे पंचायत को आगे नहीं बढ़ाना है.’’

इस के बाद एक समझौतापत्र पर दस्तखत हो गए, तो पंचायत वहीं खत्म हो गई. कोर्टकचहरी के चक्कर काटने से दोनों बच गए. आसानी से फैसला हो जाने पर पंचों को भी कोई तवज्जुह नहीं मिली. वे खिसयाते हुए अपनेअपने घरों को चले गए.

लेकिन श्वेता के दादा और पिता जबर सिंह और समर सिंह ने युवराज को धौंसडपट देने की कोशिश की. श्वेता ने उन की शिकायत पुलिस से कर दी. पुलिस ने उन्हें अपनी भाषा में कानून का पाठ पढ़ा दिया.

युवराज और श्वेता अब भी हरबंस के घर के सामने से ही अपनी कार में बैठ कर निकलते हैं.

लेकिन कमाल की बात यह थी कि हरबंस अपनी दौलत वापस पा कर खुश था. उस के चेहरे पर रत्तीभर भी शिकन नहीं थी. श्वेता नाम का चैप्टर उस ने अपनी जिंदगी से ही निकाल दिया था. जल्दी ही हरबंस बड़े धूमधाम के साथ दूसरी बीवी ले आया.

ऐसे मामलों में बीवी के छोड़ जाने पर अकसर जहां पति डिप्रैशन में चला जाता है, लेकिन इस मामले में हरबंस के चेहरे की खुशी किसी की समझ में नहीं आ रही थी. वह दूसरी बीवी के साथ खुश था.

इस बात से श्वेता को भी मिर्ची लगी हुई थी. उसे यह उम्मीद नहीं थी कि हरबंस इतनी जल्दी दूसरी शादी कर लेगा. वह तो एक औरत की तरह सोचती थी कि हर मर्द की तरह हरबंस भी उस की याद में तड़पेगा, परेशान होगा, मजनूं की तरह पागल हो जाएगा.

लेकिन हरबंस ने जता दिया था कि यह नए जमाने का दस्तूर है, जिस में एक औरत के धोखा देने का मतलब गम में डूब जाना नहीं, बल्कि खुशी के रास्ते तलाशना है.

Hindi Story: आतंक

Hindi Story, लेखक – पुष्पेश कुमार ‘पुष्प’

दिवाकर आज सुबहसवेरे ही रामकिशन को खोजने आया था. घर पर दिवाकर को आया देख रामकिशन की पत्नी साधना के होशोहवास उड़ गए. आते ही दिवाकर ने पूछा, ‘‘रामकिशन कहां है?’’

साधना घबराई हुई आवाज में बोली, ‘‘वे घर पर नहीं हैं.’’

साधना का जवाब सुन कर दिवाकर ने उसे अजीब सी निगाहों से घूरा और तेज कदमों से बाहर निकल गया.

साधना दिवाकर को आया देख कर एक अनजाने डर से थरथर कांप रही थी. उस की सम झ में नहीं आ रहा था कि 15 साल बाद दिवाकर उस के घर पर क्यों आया है और आखिर उस का इरादा क्या है?

साधना के मन में तरहतरह के खयाल आने लगे, क्योंकि दिवाकर के भाई मनोज की हत्या उस के पति रामकिशन ने की थी. हत्या की वजह थी रामकिशन की फसल को मनोज द्वारा चोरीछिपे काटना.

साधना सोचने लगी कि क्या दिवाकर अपने भाई मनोज की हत्या का बदला लेने आया था? आखिर इतने सालों के बाद उस का पति जेल से बाहर आया है. उस का तो सबकुछ खत्म हो गया है. जीने की तमन्ना न होने के बावजूद वह जीना चाहता है. जिंदा लाश बना वह जिंदगी की नई किरण की तलाश में भटक रहा है.

इस सब के बीच दिवाकर का आना साधना को अच्छा नहीं लगा.

साधना अपनेआप को ताकत देते हुए सोचने लगी कि आज 15 साल बाद उस का पति घर का बना स्वादिष्ठ खाना खाएगा. मटरपनीर की सब्जी और पूरियां उसे बहुत पसंद हैं, लेकिन दिवाकर का खयाल आते ही साधना का सारा जोश पलभर में ही छूमंतर हो गया.

तभी घर के भीतर से साधना की बूढ़ी सास ने पूछा, ‘‘कौन आया था साधना?’’

‘‘कोई नहीं मांजी… दिवाकर आया था,’’ साधना बोली.

दिवाकर तो चला गया था, लेकिन अपने पीछे डर का एक भयंकर नाग छोड़ गया था. साधना को वह नाग बारबार डरा रहा था.

साधना को घुटन सी महसूस हुई, तो उस ने घर के सारे दरवाजे और खिड़कियां खोल दीं, मानो इस उमस भरी गरमी से कुछ राहत मिले.

फिर अपने मन को शांत करते हुए साधना सोचने लगी कि रामकिशन के आते ही गरमगरम पूरियां तल देगी. सब्जी तो बना ही ली है.

रात को 10 बजे जब रामकिशन घर आया, तो साधना को लगा कि कमरे में मौजूद उमस अब खत्म हो गई है. वह तेज आवाज में बोली, ‘‘यह भी कोई घर आने का समय है… सारा दिन भूखेप्यासे कहां बैठे थे.’’

जेल जाने के पहले रामकिशन देर रात तक लोगों के साथ गपें लड़ाया करता था, लेकिन कभी साधना ने इस बात के लिए मना नहीं किया. रामकिशन सम झ नहीं पा रहा था कि आज साधना के बरताव में इतना बदलाव कैसे आ गया? लेकिन वह चुप ही रहा.

रामकिशन अब पहले जैसा जवान और फुरतीला नहीं रहा था. वह भीतर ही भीतर खोखला हो चुका था, मानो उस के शरीर में दीमक लग गया हो, जो धीरेधीरे उसे कमजोर करता जा रहा था. बीते पल उसे एक दुखांत नाटक जैसे लग रहे थे.

‘‘अब उठो भी… जाओ और हाथमुंह धो लो. मैं तुम्हारे लिए पूरियां तल रही हूं. मटरपनीर की सब्जी बनाई है,’’ साधना स्नेह में डूब कर बोली.

खाना खाने के बाद रामकिशन बिस्तर पर गिर गया. साधना पैर दबाते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे पीछे दिवाकर आया था. आखिर क्या करने आया था वह? मैं तो कुछ सम झ ही नहीं पाई, लेकिन उस का आना मुझे ठीक नहीं लगा. न जाने उस के मन में क्या चल रहा था. वह मु झे घूर रहा था.’’

दिवाकर का नाम सुनते ही रामकिशन की आंखों से नींद कोसों दूर चली गई. वह उठ कर बैठ गया, मानो कमरे में उस का दम घुटने लगा हो. उसे बीती बातें याद आने लगीं, जब पुलिस उसे पकड़ कर ले जा रही थी, तो दिवाकर ने उसे रास्ते में रोक कर कहा था, ‘रामकिशन, कानून चाहे जो भी सजा दे, पर मैं अपने भाई मनोज की हत्या का बदला ले कर ही रहूंगा. मैं तुम्हारे आने का बेसब्री से इंतजार करूंगा.

‘जब तक मैं तुम से अपने भाई का बदला नहीं ले लेता, मेरे मन की आग शांत नहीं होगी,’ दिवाकर की गुस्से से दहकती वे आंखें आज फिर उसे दहला गई थीं.

दिवाकर और रामकिशन के खेत एक ही साथ थे. दिवाकर का भाई मनोज उस की हर फसल को चोरीछिपे काट लेता था. उस ने कई बार मनोज को सम झाने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार मनोज इस बात से इनकार कर देता था. वह कहता था, ‘मैं तुम्हारी फसल क्यों काटूंगा? तुम्हारी फसल कौन काट कर ले जाता है, मैं क्या जानूं? चोरी कोई और करे और आरोप मु झ पर लगाते हो.

‘अपनी फसल की देखभाल क्यों नहीं करते? चोरी का आरोप लगा कर मु झे बदनाम मत करो,’ लेकिन मनोज अपनी आदत से बाज नहीं आ रहा था.

एक दिन गांव के सुरेश ने आ कर कहा था, ‘रामकिशन, तुम यहां हो और वहां मनोज तुम्हारी फसल को काट कर ले जा रहा है.’

यह सुनते ही रामकिशन गुस्से से कांप गया. वह फौरन अपने खेत की ओर भागा. सचमुच, मनोज उस की फसल काट कर ले जा रहा था. उस ने मनोज को ऐसा करने से रोका, लेकिन मनोज जबरदस्ती फसल ले जाने लगा.

रामकिशन ने मनोज को जोर से धक्का दिया. वह दूर जा गिरा. फिर दोनों में उठापटक होने लगी. थोड़ी ही देर में इस मामूली लड़ाई ने अचानक बड़ा रूप ले लिया. मनोज ने अपनी कमर से पिस्तौल निकाल ली.

रामकिशन अपने बचाव में उस से पिस्तौल छीनने लगा. इसी छीना झपटी में पिस्तौल से गोली चल गई और
सीधी मनोज के सीने में जा धंसी.

कुछ देर छटपटाने के बाद मनोज ने वहीं दम तोड़ दिया. यह देख कर रामकिशन की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. वह अपनेआप को संभालते हुए किसी तरह गांव की ओर चल पड़ा.

मनोज की मौत की खबर जंगल की आग की तरह पूरे गांव में फैल गई. जल्दी ही पुलिस आ गई और रामकिशन को गिरफ्तार कर लिया.

पुलिस के सामने रामकिशन ने कहा, ‘मैं ने मनोज की हत्या नहीं की, बल्कि अपनी जान बचाने के लिए मैं उस से पिस्तौल छीनने लगा था. इसी बीच गोली चल गई और उस की मौत हो गई. मनोज चोरीछिपे मेरी फसल काट रहा था…’

यह सब सोचते हुए रामकिशन की आंखों से नींद कोसों दूर चली गई. वह बेचैन हो गया. उसे दिवाकर की कसम याद आ गई थी.

अब रामकिशन ने घर से बाहर निकलना भी बंद कर दिया. वह सारा दिन चोरों की तरह घर में छिपा रहता, लेकिन दिवाकर द्वारा छोड़ा गया डर का काला नाग उसे डरा जाता.

दिवाकर फिर दोबारा रामकिशन को खोजने नहीं आया. रामकिशन सोचता, ‘दिवाकर इतना कठोर नहीं हो सकता. मु झे मारने से क्या उस का भाई वापस आ जाएगा? गलती किसी की और सजा मु झे मिली. इस घटना के चलते मेरा पूरा परिवार ही बिखर गया. क्या उसे बेऔलाद साधना और मेरी बूढ़ी मां पर तरस नहीं आएगा? इन 15 सालों में मैं ने अपना सबकुछ खो दिया है. मेरा तो वंश में कोई दीया जलाने वाला भी नहीं रहा…’ यह सब सोचने के बाद भी रामकिशन के मन में दिवाकर का डर बैठा हुआ था.

सुहानी चांदनी रात में आकाश में टिमटिमाते तारों की बरात को देख कर रामकिशन का मन खुली हवा में सांस लेने को मचल उठा और वह खुली हवा में सांस लेने के लिए घर से बाहर निकल पड़ा.

थोड़ी देर के बाद एक कठोर आवाज ने रामकिशन को बुरी तरह से चौंका दिया, ‘‘रामकिशन…’’

यह आवाज जानीपहचानी सी लग रही थी. रामकिशन ने मुड़ कर देखा, तो सामने दिवाकर पिस्तौल लिए खड़ा था.

यह देख कर रामकिशन की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और वह ‘धड़ाम’ से जमीन पर गिर गया.

‘‘रामकिशन, मैं ने कहा था न कि कानून तुम्हें जितनी सजा दे दे, लेकिन मैं अपने भाई मनोज की हत्या का बदला ले कर ही रहूंगा. आज वह दिन आ गया है. मैं कई दिनों से तुम्हारी खोज में था. जब तक मैं तुम्हें मौत की नींद नहीं सुला दूं, मेरे भाई की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी. तेरे मरने के बाद ही मेरे दिल में धधकती बदले की आग को ठंडक मिलेगी,’’ कहते हुए दिवाकर की आंखों में खून उतर आया था.

यह सुनते ही रामकिशन की घिग्घी बंध गई. उसे लगा मानो उस के सामने दिवाकर नहीं, बल्कि मौत खड़ी है.

रामकिशन काफी नरम आवाज में बोला, ‘‘दिवाकर, मैं पिछले 15 सालों तक जेल की कालकोठरी में रहा. इन 15 सालों में मैं ने अपना सबकुछ खो दिया है. अब मेरे लिए इस दुनिया में बचा ही क्या है… मैं तो बस एक जिंदा लाश हूं. मैं ने तुम्हारे भाई की हत्या नहीं की. हत्या तो वह मेरी करना चाहता था, पर गलती से गोली उसे जा लगी. इस में मेरा कोई कुसूर नहीं है..’’

यह सुन कर दिवाकर का हाथ ठिठक गया और सोचने लगा, ‘क्या सचमुच रामकिशन जिंदा है? यह तो जिंदा लाश बन गया है. इस का तो पूरा परिवार ही बिखर गया है. क्या मनोज ने अपनी मौत का बदला नहीं ले लिया है? भला, मैं मरे हुए को क्यों मारूं? यह खुद ही तड़पतड़प कर मर जाएगा…’ दिवाकर को लगा मानो रामकिशन की बेबसी ने उसे पंगु बना दिया है.

दिवाकर ने एक गहरी सांस ले कर चांदनी रात में तारों से पटे आकाश को देखा. उसे लगा कि खुले आकाश की खूबसूरती वह पहली बार देख रहा था.

बेहोश रामकिशन को वहीं गिरा छोड़ कर दिवाकर पिस्तौल अपने हाथ में लिए घर की ओर चल पड़ा, तभी उस ने पीछे मुड़ कर रामकिशन की ओर देखा और बोला, ‘‘रामकिशन, मैं तु झे यों ही डराता रहूंगा और घुटघुट कर जीने को मजबूर कर दूंगा. मैं तेरी जिंदगी को नरक बना दूंगा.’’

उधर रामकिशन को घर आने में देरी होने पर साधना का मन किसी अनहोनी के डर से कांप उठा. साधना रामकिशन की खोज में निकल पड़ी.

बदहवास सी साधना चारों ओर देखती चली जा रही थी कि अचानक चांद की दूधिया रोशनी में उस की निगाह रामकिशन पर पड़ी, जो खेत में गिरा पड़ा था और दिवाकर अपने हाथ में पिस्तौल लिए चला जा रहा था.

यह देख कर साधना की चीख निकल पड़ी, ‘‘दिवाकर… अरे, मार दिया चांडाल ने…’’ वह तेज कदमों से भागती हुई बदहवास पड़े रामकिशन के ऊपर ‘धड़ाम’ से गिर गई.

साधना के गिरते ही रामकिशन ने धीरे से अपनी आंखें खोलीं और साधना को एकटक देखने लगा. अचानक उसे अपनेआप से नफरत होने लगी. वह सोचने लगा, ‘ऐसी बेइज्जती की जिंदगी जीने से अच्छा है कि मैं मर जाऊं…’

रामकिशन को लगा कि क्यों न वह दिवाकर से पिस्तौल छीन कर अपनेआप को गोली मार लेता…
यह सोचते हुए रामकिशन आकाश में टिमटिमाते तारों को देखता हुआ शून्य में खो गया.

Romantic Story: मन से मन का जोड़ – क्या छवि मनोज के पास लौट सकी?

Romantic Story: मोती से मिल कर धागा और गंगाजल के कारण जैसे साधारण पात्र भी कीमती हो जाता है, वैसे ही छवि भी मनोज से विवाह कर इतनी मंत्रमुग्ध थी कि अपनी किस्मत पर गर्व करती जैसे सातवें आसमान पर ही थी. उस का नया जीवन आरंभ हो रहा था.

हालांकि अमरोहा के इतने बड़े बंगले और बागबगीचों वाला पीहर छोड़ कर गाजियाबाद आ कर किराए के छोटे से मकान में रहना यों आसान नहीं होता, मगर मनोज और उस के स्नेह की डोर में बंध कर वह सब भूल गई.

मनोज के साथ नई गृहस्थी, नया सामान, सब नयानया, वह हर रोज मगन रहती और अपनी गृहस्थी में कुछ न कुछ प्रयोग या फेरबदल करती. इसी तरह पूरे 2 साल निकल गए.

मगर, कहावत है ना कि ‘सब दिन होत न एक समान‘ तो अब छवि के जीवन में प्यार का प्याला वैसा नहीं छलक रहा था, जैसा 2 साल पहले लबालब रहता था.

यों तो कोई खास दिक्कत नहीं थी, मगर छवि कुछ और पहनना चाहती तो मनोज कुछ और पहनने की जिद करता. यह दुपट्टा ऐसे ओढ़ो, यह कुरता वापस फिटिंग के लिए दे दो वगैरह.

मनोज हर बात में दखलअंदाजी करता था, जो छवि को कभीकभी बहुत ही चुभ जाती थी. बाहर की बातें, बाहर के मामले तो छवि सहन कर लेती थी, मगर यह कप यहां रखो, बरतन ऐसे रखो वगैरह रोकटोक कर के मनोज रसोई तक में टीकाटिप्पणी से बाज नहीं आता था.

परसों तो हद ही हो गई. छवि पूरे एक सप्ताह तक बुखार और सर्दी से जूझ रही थी, मगर मनोज तब भी हर पल कुछ न कुछ बोलने से बाज नहीं आ रहा था. छवि जरा एकांत चाहती थी और खामोश रह कर बीमारी से लड़ रही थी, मगर मनोज हर समय रायमशवरा दे कर उस को इतना पागल कर चुका था कि वह पक गई थी.

तब तो हद पार हो गई, जब वह सहन नहीं कर सकी. हुआ यह था कि अपने फोन पर पसंदीदा पुराने गीत लगा कर जब किसी तरह वह रसोई में जा कर नाश्ता वगैरह तैयार करने लगी और मनोज ने आदतन बोलना शुरू कर दिया, ‘‘छवि, यह नहीं यह वाले बढ़िया गाने सुनो,‘‘ और फिर वह रुका नहीं, ‘‘छवि, यह भिंडी ऐसे काटना, वो बींस वैसे साफ करना, उस लहसुन को ऐसे छीलना,‘‘ बस, अब तो छवि ने तमतमा कर चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘ये लो, यह पकड़ो अपने घर की चाबी. यह रहा पर्स, यह रहे बचत के रुपए और यह रहे 500 रुपए, बस यही ले जा रही हूं… और जा रही हूं,‘‘ कह कर छवि ने बड़बड़ाते हुए बाहर आ कर रिकशा किया और सीधा बस स्टैंड चल दी.

बस तैयार खड़ी थी. छवि को सीट भी मिल गई. वह पूरे रास्ते यही सोचती रही, ‘‘अब इस टोकाटाकी करने वाले मनोज नामक व्यक्ति के पास कभी जाएगी ही नहीं, कभी नहीं.‘‘

महज 4 घंटे में वह पीहर पहुंच गई. वह पीहर, जहां वह पूरे 2 साल में बस एक बार पैर फिराने और दूसरी बार पीहर के इष्ट को पूजने गई थी.

पीहर में पहले तो उस को ऐसे अचानक देख पापामम्मी, चाचाचाची और चचेरे भाईबहन सब चैंक गए, मगर छवि ने बहाना बनाया, ‘‘वहां कोई परिचित अचानक बीमार हो गए हैं. मनोज को वहां जाना है. मुझे पहले से बुखार था, तो मनोज ने कहा कि अमरोहा जा कर आराम करो. बस जल्दी में आना पड़ा, इसलिए केवल यह मिठाई लाई हूं.‘‘

सब लोग खामोश रहे. मां सब समझ गई थीं. वे छवि को नाश्ता करा कर उस की अलमारी की चाबी थमा कर बोलीं, ‘‘जब से तुम गई हो, तुम्हारे पापा हर रोज 100 रुपए तुम्हारे लिए वहां रख देते हैं. यह लो चाबी और वो सब रुपए खुल कर खर्च करो.‘‘

यह सुन कर छवि उछल पड़ी और चाबी ले कर झटपट अपनी अलमारी खोल दी. उस में बहुत सी पोशाकें थीं और कुछ पर्स थे नोटों से भरे हुए.

छवि ने मां से पूछा, ‘‘पापा यहां रुपए क्यों रख रहे थे?‘‘

मां ने हंस कर कहा, ‘‘तुम हमारी सलोनी बिटिया कैसे कुशलता से अपना घर चला रही हो. हम को गर्व है, यह तो तुम्हारे लिए है बेटी.‘‘

‘‘अच्छा, गर्व है मुझ पर,‘‘ कह कर छवि आज सुबह का झगड़ा याद कर के मन ही मन शर्मिंदा होने लगी. उस को लगा कि मां कुछ छानबीन करेंगी, कुछ सवाल तो जरूर ही पूछ लेंगी, मगर उस को प्यार से सहला कर और आराम करो, ऐसा कह कर मां कुछ काम करने चली गईं. वह अलमारी के सामने अकेली रह गई, मगर अभी कुछ जरूरी काम करना था. इसलिए छवि सबकुछ भूल कर तुरंत दुनियादार बन गई. वहां तकरीबन 25,000 रुपए रखे थे. उस ने चट से एक सूची बना कर तैयार कर ली.

छवि फिलहाल तो कुछ खा कर सो गई, मगर शाम को बाजार जा कर उन रुपयों से पीहर में सब के लिए उपहार ले आई. बाजार में उस को अपनी सहेली रमा मिल गई. छवि और उस की गपशप भी हो गई. उस के गांव का बाजार बहुत ही प्यारा था. छोटा ही था, पर वहां सबकुछ मिल गया था.

उपहार एक से बढ़ कर एक थे. सब से उन उपहारों की तारीफ सुन कर कुछ बातें कर के वह उठ गई और फिर छवि ने रसोई में जा कर कुछ टटोला. वहां आलू के परांठे रखे थे. उस ने बडे़ ही चाव से खाए और गहरी नींद में सो गई. नींद में उस को रमा दिखाई दी. रमा से जो बातें हुईं, वे सब वापस सपने में आ गईं. छवि पर इस का गहरा असर हुआ.

सुबह उठ कर छवि वापस लौटने की जिद पर अड़ गई थी. मां समझ गईं कि शायद सब मामला सुलझ गया है. वे कभी भी बच्चों के किसी निर्णय पर टोकाटाकी नहीं करतीं थीं. वे ग्रामीण थीं, मगर बहुत ही सुलझी हुई महिला थीं. छवि को पीहर की मनुहार मान कर कम से कम आज रुकना पड़ा. वह कल तो आई और आज वापस, यह भी कोई बात हुई. सब की मानमनुहार पर छवि बस एक दिन और रुक गई.

उधर, मनोज को इतनी लज्जा आ रही थी कि उस ने ससुराल मे शर्म से फोन तक नहीं किया. मगर वह 2 दिन तक बस तड़पता ही रहा और उस के बाद फोन ले कर कुछ लिखने लगा.

‘‘छवि, पता है, तुम सब से ज्यादा शाम को याद आतीं. दिनभर तो मैं काम करता था, मगर निगोड़ी शाम आते ही पहली मुश्किल शुरू हो जाती थी कि आखिर इस तनहा शाम का क्या किया जाए. तुम नहीं होती थीं, तो एक खाली जगह दिखती थी, कहना चाहिए कि बेचैनी और व्याकुलता से भरी. तब मैं एलबम उठा लेता था, इसे तुम्हारी तसवीरों से, उन मुलाकातों की यादों से, बातों से, तुम्हारी किसी अनोखी जिद और बहस को हूबहू याद करता और जैसेतैसे भर दिया करता था, वरना तो यह दैत्य अकेलापन मुझे निगल ही गया होता.

‘‘तुम होती थीं, तो मेरी शामों में कितनी चहलपहल, उमंग, भागमभाग, तुम्हारी आवाजें, गंध, शीत, बारिश, झगड़े, उमस या ओस सब हुआ करता था, मगर अब तो ढलती हुई शाम हर क्षण कमजोर होती हुई जिंदगी बन रही है कि जितना विस्मय होता है, उस से अधिक बेचैनी.

‘‘तुम्हारे बिना एक शाम न काटी गई मुझ से, जबकि मैं ने कोशिश भरसक की थी. परसों सुबह तुम नाराज हो कर चली गईं. मैं ने सोचा कि वाह, मजा आ गया. अब पूरे 2 साल बाद मैं अपनी सुहानी शाम यारों के साथ गुजार लूंगा. अब पहला काम था उन को फोन कर के कोई अड्डा तय करना. रवि, मोहित और वीर यह तीनों तो सपरिवार फिल्म देखने जा रहे थे. इसलिए तीनों ने मना कर दिया. अब बचा राजू. उसे फोन किया तो पता लगा कि वह अपनी प्रेमिका को समय दे चुका है. इतनी कोफ्त हुई कि आगे कोई कोशिश नहीं की.

‘‘बस, चैपाटी चला गया, मगर वहां तो तुम्हारे बिना कभी अच्छा लगता ही नहीं था. बोर होता रहा और कुछ फोटोग्राफी कर ली. बाहर कुछ खाया और घर आ गया.

‘‘घर आ कर ऐसा लगा कि घर नहीं है, कोई खंडहर है. बहुत ही भयानक लग रहा था तुम्हारे बिना, पर मेरे अहंकार ने कहा कि कोई बात नहीं, कल सुबह से शाम बहुत मजेदार होने वाली है और बस सोने की कोशिश करता रहा. करवट बदलतेबदलते किसी तरह नींद आ ही गई. सुबह मजे से चाय बनाई, मगर बहुत बेस्वाद सी लगी, फिर अकेले ही घर साफ कर डाला और दफ्तर के लिए तैयार हो गया.

‘‘अब नाश्ता कौन बनाता, बाहर ही सैंडविच खा लिए, तब बहुत याद आई, जब तुम कितने जायकेदार सैंडविच बनाती हो, यह तो बहुत ही रूखे थे.

‘‘मुझे अपने जीवन की फिल्म दिखाई देने लगी किसी चित्रपट जैसी, मगर नायिका के बगैर. मैं बहुत बेचैन हो गया. दफ्तर की मारामारी में मन को थोड़ा सा आराम मिला, मगर पलक झपकते ही शाम हो गई और दफ्तर के बाहर मैदान में हरी घास देख कर तुम्हारी फिर याद आ गई. 1-2 महिला मित्र हैं, उन को फोन लगाया, मगर वे तो अब अपनी ही दुनिया में मगन थीं. कहां तो 4 साल पहले तक वे कितनी लंबीलंबी बातें करती थीं और कहां अब वे मुझे भूल ही गई थीं.

अब क्या करता, फिर से एक उदास शाम को धीरेधीरे से रात में तबदील होता नहीं देख सकता, पर झक मार कर सहता रहा. मन ऐसा बेचैन हो गया था कि खाना तो बहुत दूर की बात पानी तक जहर लग रहा था. शाम के गहरे रंग में तारों को गिन रहा था, मगर तुम को न फोन किया और न तुम्हारा संदेश ही पढ़ा. तुम को जितना भूलना चाहता, तुम उतना ही याद आ रही थीं.

बस, इस तरह से दो शामों को रात कर के अपने ऊपर से गुजर जाने दिया. मेरा अहंकार मुझे कुचल रहा था, पर मैं कुछ समझना ही नहीं चाहता था. तुम हर पल मेरे सामने होतीं और मैं नजरअंदाज करना चाहता, यह भी मेरे अहंकार का विस्तार था.

अब तुम को लेने आ रहा हूं, तुम तैयार रहना, यह सब अपने फोन पर टाइप कर के मनोज ने छवि को भेज दिया. मगर 10 मिनट हो गए, कोई जवाब नहीं आया. 20 मिनट बीततेबीतते मनोज की आंखें ही छलक आईं. वह समझ गया कि अब शायद छवि कभी लौट कर नहीं आने वाली है, तभी दरवाजा खुला. मनोज चैंक गया, ‘‘ओह छवि, उसे पता रहता तो कभी दरवाजा बंद ही नहीं करता.’’

छवि ने हंस कर अपने फोन का स्क्रीन दिखाते हुए कहा, ‘‘वह बारबार यह संदेश पढ़ रही थी.‘‘

संदेश पढ़ कर तुम उड़ कर ही वापस आ गई, ‘‘हां… हां, पंख लगा कर आ गई,’’ यह सुन कर मनोज ने कुछ नहीं कहा. वह बडे़ गिलास में पानी ले आया और छवि को गरमागरम चाय भी बना कर पिला दी.

छवि ने अपने भोलेपन में मनोज को यह बात बता दी कि पीहर के बाजार में सहेली रमा मिली थी. रमा से बात कर के उस का मन बदल गया. वह उसे पूरे 2 साल बाद अचानक ही मिली थी. वह बता रही थी, ‘‘उस के पति सूखे मेवे का बड़ा कारोबार करते हैं. रोज उस को 5,000 रुपए देते हैं कि जहां मरजी हो खर्च करो. घरखर्च अलग देते हैं, पर कोई बात नहीं करते. कभी पूछते तक नहीं कि रसोई कैसे रखूं, कमरा कैसे सजाऊं, क्या पहनूं और क्या नहीं?

‘‘हर समय बस पैसापैसा यही रहता है दिमाग में. मुझे हर महीने पीहर भेज कर अपने कारोबारी दोस्तों के साथ घूमते हैं. मेरे मन की बात, मेरी कोई सलाह, मेरा कोई सपना, उन को इस से कुछ लेनादेना नहीं है. बस, मैं तो चैकीदार हूं, जिस को वे रुपयों से लाद कर रखते हैं.

‘‘सच कहूं, ऐसा लापरवाह जीवनसाथी है कि बहुत उदास रहती हूं, पर किसी तरह मन को मना लेती हूं. मगर यह सपाट जीवन लग रहा है.‘‘

यह सब सुन कर मुझे बारबार मनोज बस आप की याद आने लगी. मन ही मन मैं इतनी बेचैन हो गई कि रात सपने में भी रमा दिखाई दी और वही बातें कहने लगी. मैं समझ गई कि यह मेरी अंतरात्मा का संकेत है. रमा अचानक राह दिखाने को ही मिली, और मैं वापस आ गई.’’

‘‘पर छवि, तुम कम से कम रमा को कोई उचित सलाह तो देतीं. तुम तो सब को अच्छी राय देती हो. जब वह तुम को अपना राज बता रही थी छवि,‘‘ मनोज ने टोका, तो छवि ने कहा, ‘‘हां, हां, मैं ने उस को अपने दोनों फोन नंबर दे दिए हैं और गाजियाबाद आने का आमंत्रण दिया है.

‘‘साथ ही, उसे यह सलाह दी कि रमा, तुम मन ही मन मत घुटती रहो. मुझे लगता है, मातापिता, भाईबहन, पड़ोसन या किसी मित्र को अपना राजदार बना लो. अगर कोई एक भी आप को समझता है, तो अगर वह सलाह नहीं देगा, पर कम से कम सुनेगा तो, तब भी मन हलका हो जाता है. साहित्य से लगाव हो, तो सकारात्मक साहित्य पढ़ो. नई जगहों पर अकेले निकल जाओ, नई जगह को अपनी यादों में बसा कर उन को अपना बना लो.

‘‘आमतौर पर जब भी कभी किसी को ऐसी बेचैनी वाली परिस्थिति का सामना करना पड़ा है, अच्छी किताब और संगीत, वफादार मित्र साबित होते हैं वैसे समय में. और अकेले खूब घूमा करो, पार्क में या मौल में या हरियाली को दोस्त बना लो और यह भी सच है कि सब से बड़ा आनंद तो अपना काम देता है. झोंक देना स्वयं को, काम में. चपाती सेंकना और पकवान बनाना यह सब मन की सारी नकारात्मकता को खत्म करता है.‘‘

‘‘हूं, वाह, वाह, बहुत अच्छी दी सलाह,‘‘ कह कर मनोज ने गरदन हिला दी.

‘‘बहुत शुक्रिया,‘‘ शरारत से कह कर छवि ने मनोज को कुछ पैकेट थमा दिए. उन सब में मनोज के लिए उपहार रखे थे, जो छवि को पीहर से दिए गए थे.

छवि ने रुपयों से भरी अलमारी का पूरा किस्सा भी सुना दिया, तो मनोज ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘तब तो पिता के गौरव की हिफाजत करो. छवि, अब नाराज मत होना. ठीक है.‘‘

छवि ने प्रगट में तो होंठों पर हंसी फैला दी, पर वह मन ही मन कहने लगी, मगर, मुझे तो मजा आ गया, ऐसे लड़ कर जाने में तो बहुत आनंद है. नहीं, अब बिलकुल नहीं, मनोज ने उस के मन की आवाज सुन कर प्रतिक्रिया दी. दोनों खिलखिला कर हंसने लगे.

Romantic Story: आखिरी टैलीग्राम – क्या शादी के बाद तनु अपने प्रेमी से मिल पाई

Romantic Story: प्लेन से मुंबई से दिल्ली तक के सफर में थकान जैसा तो कुछ नहीं था पर मां के ‘थोड़ा आराम कर ले,’ कहने पर मैं फ्रैश हो कर मां के ही बैडरूम में आ कर लेट गई. भैयाभाभी औफिस में थे. मां घर की मेड श्यामा को किचन में कुछ निर्देश दे रही थीं. कल पिताजी की बरसी है. हर साल मैं मां की इच्छानुसार उन के पास जरूर आती हूं. मैं 5 साल की ही थी जब पिताजी की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. भैया उस समय 10 साल के थे. मां टीचर थीं. अब रिटायर हो चुकी हैं. 25 सालों के अपने वैवाहिक जीवन में मैं सुरभि और सार्थक के जन्म के समय ही नहीं आ पाई हूं पर बाकी समय हर साल आती रही हूं. विपिन मेरे सकुशल पहुंचने की खबर ले चुके थे. बच्चों से भी बात हो चुकी थी.

मैं चुपचाप लेटी कल होने वाले हवन, भैयाभाभी और अपने इकलौते भतीजे यश के बारे में सोच ही रही थी कि तभी मां की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘ले तनु, कुछ खा ले.’’ पीछेपीछे श्यामा मुसकराती हुई ट्रे ले कर हाजिर हुई.

मैं ने कहा, ‘‘मां, इतना सब?’’ ‘‘अरे, सफर से आई है, घर के काम निबटाने में पता नहीं कुछ खा कर चली होगी या नहीं.’’

मैं हंस पड़ी, ‘‘मांएं ऐसी ही होती हैं, मैं जानती हूं मां. अच्छाभला नाश्ता कर के निकली थी और प्लेन में कौफी भी पी थी.’’ मां ने एक परांठा और दही प्लेट में रख कर मुझे पकड़ा दिया, साथ में हलवा.

मायके आते ही एक मैच्योर स्त्री भी चंचल तरुणी में बदल जाती है. अत: मैं ने भी ठुनकते हुए कहा, ‘‘नहीं, मैं इतना नहीं खाऊंगी और हलवा तो बिलकुल भी नहीं.’’ मां ने प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘यह डाइटिंग मुंबई में ही करना, मेरे सामने नहीं चलेगी. खा ले मेरी बिटिया.’’

‘‘अच्छा ठीक है, अपना नाश्ता भी ले आओ आप.’’

‘‘हां, मैं लाती हूं,’’ कह कर श्यामा चली गई. हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. भैयाभाभी रात तक ही आने वाले थे. मैं ने कहा, ‘‘कल के लिए कुछ सामान लाना है क्या?’’

‘‘नहीं, संडे को ही अनिल ने सारी तैयारी कर ली थी. तू थोड़ा आराम कर. मैं जरा श्यामा से कुछ काम करवा लूं.’’

दोपहर तक यश भी आ कर मुझ से लिपट गया. मेरे इस इकलौते भतीजे को मुझ से बहुत लगाव है. मेरे मायके में गिनेचुने लोग ही तो हैं. सब से मुधर स्वभाव के कारण घर में एक स्नेहपूर्ण माहौल रहता है. जब आती हूं अच्छा लगता है. 3 बजे तक का टाइम कब कट गया पता ही नहीं चला. यश कोचिंग चला गया तो मैं भी मां के पास ही लेट गई. मां दोपहर में थोड़ा सोती हैं. मुझे नींद नहीं आई तो मैं उठ कर ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. इतने में डोरबैल बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला, श्यामा पास में ही रहती है. वह दोपहर में घर चली जाती है. शाम को फिर आ जाती है.

पोस्टमैन था. टैलीग्राम था. मैं ने उलटापलटा. टैलीग्राम मेरे नाम था. प्रेषक के नाम पर नजर पड़ते ही मुझे हैरत का एक तेज झटका लगा. मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठीं. अनिरुद्ध. मैं टैलीग्राम ले कर सोफे पर धंस गई. हमेशा की तरह कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया था अनिरुद्ध ने, ‘‘तुम इस समय यहीं होगी, जानता हूं. अगर ठीक समझो तो संपर्क करना.’’

पता नहीं कैसे मेरी आंखें मिश्रित भावों की नमी से भरती चली गई थीं. ओह अनिरुद्ध. तुम्हें आज 25 साल बाद भी याद है मेरे पिताजी की बरसी. और यह टैलीग्राम. 3 दिन बाद 164 साल पुरानी टैलीग्राम सेवा बंद होने वाली है. अनिरुद्ध के पास यही एक रास्ता था आखिरी बार मुझ तक पहुंचने का. मेरा मोबाइल नंबर उस के पास है नहीं, न मेरा मुंबई का पता है उस के पास. तब यहां उन दिनों घर में भी फोन नहीं था. बस यही आखिरी तरीका उसे सूझा होगा. उसे यह हमेशा से पता था कि पिताजी की बरसी पर मैं कहीं भी रहूं, मां और भैया के पास जरूर आऊंगी और उस की यह कोशिश मेरे दिल के कोनेकोने को उस की मीठी सी याद से भरती जा रही थी. अनिरुद्ध… मेरा पहला प्यार एक सुगंधित पुष्प की तरह ही तो था. एक पूरा कालखंड ही बीत गया अनिरुद्ध से मिले. वयसंधि पर खड़ी थी तब मैं जब पहली बार मन में प्यार की कोंपल फूटी थी. यह वही नाम था जिस की आवाज कानों में उतरने के साथ ही जेठ की दोपहर में वसंत का एहसास कराने लगती. तब लगता था यदि परम आनंद कहीं है तो बस उन पलो में सिमटा हुआ जो हमारे एकांत के हमसफर होते, पर कालेज के दिनों में ऐसे पल हम दोनों को मुश्किल से ही मिलते थे. होते भी तो संकोच, संस्कार और डर में लिपटे हुए कि कहीं कोई

देख न ले. नौकरी मिलते ही उस पर घर में विवाह का दबाव बना तो उस ने मेरे बारे में अपने परिवार को बताया. फिर वही हुआ जिस का डर था. उस के अतिपुरातनपंथी परिवार में हंगामा खड़ा हो गया और फिर प्यार हार गया था. परंपराओं के आगे, सामाजिक नियमों के आगे, बुजुर्गों के आदेश के आगे मुंह सिला खड़ा रह गया था. प्यार क्या योजना बना कर जातिधर्म परख कर किया जाता है या किया जा सकता है? और बस हम दोनों ने ही एकदूसरे को भविष्य की शुभकामनाएं दे कर भरे मन से विदा ले ली थी. यही समझा लिया था मन को कि प्यार में पाना जरूरी भी नहीं, पृथ्वीआकाश कहां मिलते हैं भला. सच्चा प्यार तो शरीर से ऊपर मन से जुड़ता है. बस, हम जुदा भर हुए थे.

उस की विरह में मेरी आंखों से बहे अनगिनत आंसू बाबुल के घर से विदाई के आंसुओं में गिन लिए गए थे. मैं इस अध्याय को वहीं समाप्त समझ पति के घर आ गई थी. लेकिन आज उसी बंद अध्याय के पन्ने फिर से खुलने के लिए मेरे सम्मुख फड़फड़ा रहे थे. टैलीग्राम पर उस का पता लिखा हुआ था, वह यहीं दिल्ली में ही है. क्या उस से मिल लूं? देखूं तो कैसा है? उस के परिवार से भी मिल लूं. पर यह मुलाकात हमारे शांतसुखी वैवाहिक जीवन में हलचल तो नहीं मचा देगी? दिल उस से मिलने के लिए उकसा रहा था, दिमाग कह रहा था पीछे मुड़ कर देखना ठीक नहीं रहेगा. मन तो हो रहा था, देखूंमिलूं उस से, 25 साल बाद कैसा लगता होगा. पूछूं ये साल कैसे रहे, क्याक्या किया, अपने बारे में भी बताऊं. फिर अचानक पता नहीं क्या मन में आया मैं चुपचाप स्टोररूम में चली गई. वहां काफी नीचे दबा अपना एक बौक्स उठाया. मेरा यह बौक्स सालों से यहीं पड़ा है. इसे कभी किसी ने नहीं छेड़ा. मैं ने बौक्स खोला, उस में एक और डब्बा था.

सामने अनिरुद्ध के कुछ पुराने पीले पड़ चुके, भावनाओं की स्याही में लिपटे खतों का 1-1 पन्ना पुरानी यादों को आंखों के सामने एक खूबसूरत तसवीर की तरह ला रहा था. न जाने कितनी भावनाओं का लेखाजोखा इन खतों में था. मुझे अचानक महसूस हुआ आजकल के प्रेमियों के लिए तो मोबाइल ने कई विकल्प खोल दिए हैं. फेसबुक ने तो अपनों को छोड़ कर अनजान रिश्तों को जोड़ दिया है.

सारा सामान अपनी गोद में फैलाए मैं अनगिनत यादों की गिरफ्त में बैठी थी जहां कुछ भी बनावटी नहीं होता था. शब्दों का जादू और भावों का सम्मोहन लिए ये खत मन में उतर जाते थे. हर शब्द में लिखने वाले की मौजूदगी महसूस होती थी. अनिरुद्ध ने एक पेपर पर लिखा था, ‘‘खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार. जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.’’

मेरे होंठों पर एक मुसकराहट आ गई. आजकल के बच्चे इन शब्दों की गहराई नहीं समझ पाएंगे. वे तो अपने प्रिय को मनाने के लिए सिर्फ एक आई लव यू स्माइली का सहारा ले कर बात कर लेते हैं. अनिरुद्ध खत में न कभी अपना नाम लिखता था न मेरा, इसी वजह से मैं इन्हें संभाल कर रख सकी थी. अनिरुद्ध की दी हुई कई चीजें मेरे सामने पड़ी थीं. उस का दिया हुआ एक पैन, उस का पीला पड़ चुका एक सफेद रूमाल जो उस ने मुझे बारिश में भीगे हुए चेहरे को साफ करने के लिए दिया था. मुझे दिए गए उस के लिखे क्लास के कुछ नोट्स, कई बार तो वह ऐसे ही कोई कागज पकड़ा देता था जिस पर कोई बहुत ही सुंदर शेर लिखा होता था.

स्टोररूम के ठंडेठंडे फर्श पर बैठ कर मैं उस के खत उलटपुलट रही थी और अब यह अंतिम टैलीग्राम. बहुत सी मीठी, अच्छी, मधुर यादों से भरे रिश्ते की मिठास से भरा, मैं इसे हमेशा संभाल कर रखूंगी पर कहां रख पाऊंगी भला, किसी ने देख लिया तो क्या समझा पाऊंगी कुछ? नहीं. फिर वैसे भी मेरे वर्तमान में अतीत के इस अध्याय की न जरूरत है, न जगह. फिर पता नहीं मेरे मन में क्या आया कि मैं ने अंतिम टैलीग्राम को आखिरी बार भरी आंखों से निहार कर उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मुझे उसे कहीं रखने की जरूरत नहीं है. मेरे मन में इस टैलीग्राम में बसी भावनाओं की खुशबू जो बस गई है. अब इसी खुशबू में भीगी फिरती रहूंगी जीवन भर. वह मुझे भूला नहीं है, मेरे लिए यह एहसास कोई ग्लानि नहीं है, प्यार है, खुशी है.

Romantic Story: थोड़ी सी जमीन, सारा आसमान

Romantic Story: फरहा 5 सालों के बाद अपने शहर आ रही थी. प्लेन से बाहर निकलते ही उस ने एक लंबी सांस ली मानों बीते 5 सालों को इस एक सांस में जी लेगी. हवाईअड्डा पूरी तरह बदला दिख रहा था. बाहर निकल उस ने टैक्सी की और पुश्तैनी घर की तरफ चलने को कहा, जो हिंदपीढ़ी महल्ले में था.

5 सालों में शहर ने काफी तरक्की कर ली, यह देख फरहा खुश हो रही थी. रास्ते में कुछ मौल्स और मल्टीप्लैक्स भी दिखे. सड़कें पहले से साफ और चौड़ी दिख रही थीं. जींस और आधुनिक पाश्चात्य कपड़ों में लड़कियों को देख उसे सुखद अनुभूति होने लगी. कितना बदल गया है उस का शहर. उसे रोमांच हो आया.

रेहान सो चुका था. फरहा ने भी पीठ सीट पर टिका टांगों को थोड़ा फैला दिया. लंबी हवाईयात्रा की थकावट महसूस हो रही थी. आज सुबह ही सिडनी, आस्ट्रेलिया से वह अपने बेटे के साथ दिल्ली पहुंची थी. आना भी जरूरी था. 1 हफ्ते पहले ही अब्बू रिटायर हो कर अपने घर लौटे थे. अब सब कुछ एक नए सिरे से शुरू करना था. भले शहर अपना था पर लोग तो वही थे. इसी से फरहा कुछ दिनों के लिए अम्मांअब्बू के पास रहने चली आई थी ताकि घरगृहस्थी को नए सिरे से जमाने में उन की मदद कर सके.

तभी टैक्सी वाले ने जोर से ब्रेक लगाए तो उस की तंद्रा भंग हुई. उस ने देखा कि टैक्सी हिंदपीढ़ी महल्ले में प्रवेश कर चुकी है. बुरी तरह से टूटीफूटी सड़कों पर अब टैक्सी हिचकोले खा रही थी. उस ने खिड़की के शीशे को नीचे किया. एक अजीब सी बू टैक्सी के अंदर पसरने लगी. किसी तरह अपनी उबकाई को रोकते हुए उस ने झट से शीशा चढ़ा दिया. शहर की तरक्की ने अभी इस महल्ले को छुआ भी नहीं है. सड़कें और संकरी लग रही थीं. इन सालों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए छोटेछोटे घरों ने भूलभुलैया बना दिया था महल्ले को. उस के अब्बा का दोमंजिला मकान अलबत्ता सब से अलग दिख रहा था.

अब्बा और अम्मां बाहर ही खड़े थे.

‘‘तुम ने अपना फोन अभी बंद कर रखा है. राकेश तब से परेशान है कि तुम पहुंची या नहीं?’’ मिलते ही अब्बू ने पहले अपने दामाद की ही बातें कीं.

अचानक महसूस हुआ कि बंद खिड़कियों की दरारों से कई जोड़ी आंखें झांकने लगी हैं.

फ्रैश हो कर फरहा आराम से हाथ में चाय का कप पकड़े घर का, महल्ले का और रिश्तेदारों का मुआयना करने लगी.

एक 22-23 साल की लड़की सलमा फुरती से सारे काम निबटा रही थी.

‘‘कैसा लग रहा है अब्बू अपने घर में आ कर? अम्मां पहले से कमजोर दिख रही हैं. पिछले साल सिडनी आई थीं तो बेहतर थीं,’’ फरहा ने पूछा.

एक लंबी सांस लेते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कुछ भी नहीं बदला यहां. पर हां घर में बच्चे न जाने कितने बढ़ गए हैं… लोफर कुछ ज्यादा दिखने लगे हैं गलियों में. लड़कियां आज भी उन्हीं बेडि़यों में कैद हैं, जिन में उन की मांएं या नानियां जकड़ी रही होंगी. तुम्हारी शादी की बात अलबत्ता लोग अब शायद भूल चले हैं.’’

फरहा ने कमरे में झांका. नानीनाती आपस में व्यस्त दिखे.

‘‘अब्बू, मुझे लग रहा था न जाने रिश्तेदार और महल्ले वाले आप से कैसा व्यवहार करें. मुझे फिक्र हो रही थी आप की, इसलिए मैं चली आई. अगले हफ्ते राकेश भी आ रहे हैं.’’

फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोली, ‘‘फूफी के क्या हाल हैं?’’ और फिर फरहा अब्बू के पास आ कर बैठ गई.

‘‘अब छोड़ो भी बेटा. जो बीत गई सो बात गई. जाओ आराम करो. सफर में थक गई होगी,’’ कह अब्बू उठने लगे.

फरहा जा कर अम्मां के पास लेट गई. बीच में नन्हा रेहान नींद में मुसकरा रहा था.

पर आज नींद आ रही थी. कमरे में चारों तरफ जैसे यादों के फूल और शूल उग आए हों… जहां मीठी यादें दिल को सहलाने लगीं, वहीं कड़वी यादें शूल बन नसनस को बेचैन करने लगीं…

अब्बा सरकारी नौकरी में उच्च पद पर थे. हर कुछ सालों में तबादला निश्चित था. काफी छोटी उम्र से ही फरहा को होस्टल में रख दिया गया था ताकि उस की पढ़ाई निर्बाध चले. अम्मां हमेशा बीमार रहती थीं पर अब्बूअम्मां में मुहब्बत गहरी थी. अब्बू उस वक्त पटना में तैनात थे. उन्हीं दिनों फूफी उन के पास गई थी. अब्बू का रुतबा और इज्जत देख उस के दिल पर सांप लोट गया और फिर फूफी ने शुरू किया अब्बू के दूसरे निकाह का जिक्र, अपनी किसी रिश्ते की ननद के संग. अम्मां की बीमारी का हवाला दे पूरे परिवार ने तब खूब अपनापन दिखा, रजामंदी के लिए दबाव डाला था. अब्बू ने बड़ी मुश्किल से इन जिक्रों से पिंड छुड़ाया था. भला पढ़ालिखा आदमी ऐसा सोच भी कैसे सकता है. ये सारी बातें अम्मां ने फरहा को बड़ी होने पर बताई थीं. उसे फूफी और घर वालों से नफरत हो गई थी कि कैसे वे उस के वालिद और वालिदा का घर उजाड़ने को उतारू थे.

फरहा के घर का माहौल उस के रिश्तेदारों की तुलना में बहुत भिन्न था. उस के अब्बू की सोच प्रगतिशील थी. वह अकेली संतान थी और उस के अब्बू उस के उच्च तालीम के जबरदस्त हिमायती थे. उस से छोटी उस की चचेरी और मौसेरी बहनों का निकाह उस से पहले हो गया था. जब भी कोई पारिवारिक आयोजन होता उस के निकाह के चर्चे ही केंद्र में होते. यह तो अब्बू की ही जिद थी कि उसे इंजीरियरिंग के बाद नौकरी नहीं करने दी, बल्कि मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया.

जब वह इंजीनियरिंग के फाइनल वर्ष में था तो फूफी फिर घर आई थी. आते ही अम्मां से फरहा की बढ़ती उम्र का जिक्र शुरू कर दिया, ‘‘भाभी जान, मैं कहे देती हूं कि फरहा की उम्र इतनी हो गई है कि अब जानपहचान में उस के लायक कोई कुंआरा लड़का नहीं मिलेगा. भाईजान की तो अक्ल ही मारी गई है… भला लड़कियों को इतनी तालीम की क्या जरूरत है? असल मकसद उन की शादी है. अब देखो मेरा बेटा फीरोज कितना खूबसूरत और गोराचिट्टा है. जब से दुबई गया है खूब कमा भी रहा है… दोनों की जोड़ी खूब जमेगी.’’

बेचारी अम्मा रिश्तेदारों की बातों से पहले ही हलकान रहती थीं, फूफी की बातों ने उन के रक्तचाप को और बढ़ा दिया. वह तो अब्बूजी ने जब सुना तो फूफी को खूब खरीखटी सुनाई.

‘‘क्यों रजिया तुम ने क्या मैरिज ब्यूरो खोल रखा है… कभी मेरी तो कभी मेरी बेटी की चिंता करती रहती हो? इतनी चिंता अपने बड़े लाड़ले की की होती तो उसे 10वीं फेल हो दुबई में पैट्रोल पंप पर नौकरी नहीं करनी पड़ती. फरहा की तालीम अभी अधूरी है. मेरी प्राथमिकता उस की शादी नहीं तालीम है.’’

फूफी उस के बाद रुक नहीं पाई थी. हफ्तों रहने की सोच कर आने वाली फूफी शाम की ही बस से लौट गई.

सोचतेसोचते फरहा को कब नींद आ गई उसे पता नहीं चला.

सुबह रेहान की आवाज से उस की नींद खुली.

‘‘फरहा बाजी आप उठ गईं? चाय लाऊं?’’ मुसकराती सलमा ने पूछा.

चाय का कप पकड़े सलमा उस के पास ही बैठ गई. फरहा ने महसूस किया कि वह उसे बड़े ध्यान से देख रही है.

‘‘बाजी, अब तो आप सिंदूर लगाने लगी होंगी और बिंदिया भी? क्या आप अभी भी रोजे रखती हैं? क्या आप ने अपने नाम को भी बदल लिया है?’’

सलमा की इन बातों पर फरहा हंस पड़ी. बोली, ‘‘नहीं, मैं तो बिलकुल वैसी ही हूं जैसी थी. वही करती हूं जो बचपन से करती आ रही… तुम्हें ऐसा क्यों लगा?’’

‘‘जी, कल मैं जब काम कर लौटी तो महल्ले में सब पूछ रहे थे… आप ने काफिर से शादी की है?’’ सलमा ने मासूमियत से पूछा.

फरहा के अब्बू ने फूफी को तो लौटा दिया था. पर विवाद थमा नहीं था. आए दिन उस की तालीम बढ़ती उम्र और निकाह पर चर्चा होने लगी. धीरेधीरे अब्बू ने अपने पुश्तैनी घर आना कम कर दिया. फरहा अपनी मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए देश के सर्वश्रेष्ठ कालेज के लिए चुनी गई. अब्बू के चेहरे का सुकून ही उस का सब से बड़ा पारितोषिक था. कालेज में यों ही काफी कम लड़कियां थीं पर मुसलिम लड़की वह अकेली थी अपने बैच में. फरहा काफी होनहार थी. कालेज में बहुत सारी गतिविधियां होती रहती थीं और वह सब में काफी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती. सब उस के कायल थे.

इसी दौरान राकेश के साथ उसे कई प्रोजैक्ट पर काम करने को मिला. उस की बुद्धिमानी और शालीनता धीरेधीरे फरहा को आकर्षित करने लगी. संयोग से दोनों साथ ही समर इंटर्नशिप के लिए एक ही कंपनी के लिए चुने गए. नए शहर में उन 2 महीनों में दिल की बातें जबान पर आ ही गईं. दुनिया इतनी हसीं कभी न थी.

इंटर्नशिप के बाद फरहा 1 हफ्ते के लिए अब्बूअम्मां से मिलने दिल्ली चली गई. अब्बू की पोस्टिंग उस वक्त वहीं थी. अब्बू काफी खुश दिख रहे थे.

‘‘फरहा कुछ महीनों में तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो जाएगी. मेरे मित्र रहमान अपने सुपुत्र के लिए तुम्हारा हाथ मांग रहे हैं. मुझे तो उन का बेटा और परिवार सब बहुत ही पसंद है. पर मैं ने कह रखा है कि फैसला मेरी बेटी ही लेगी.’’

उस एक पल में फरहा की नसनस में तूफान सा गुजर गया. फिर खुद को संयत करते हुए उस ने कहा, ‘‘आप जो फैसला लेंगे वह सही होगा अब्बूजी.’’

‘‘शाबाश बेटा, तुम ने मेरी लाज रख ली. सब कहते थे कि इतना पढ़लिख कर तुम भला मेरी बात क्यों मानोगी. मैं जानता था कि मेरी बेटी मुझ से अलग नहीं है. मैं कल ही रहमान को परिवार के साथ खाने पर बुलाता हूं.’’

सपना देखना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि नींद खुल गई. फरहा रात भर रोती रही.

बहते अश्कों ने बहुत सारे संशय सुलझा लिए. राकेश और वह नदी के 2 किनारे हैं. फरहा ने सोचा कि यह तो अच्छा हुआ कि उस ने अब्बूजी को अपनी भावनाओं के बारे में नहीं बताया. वैसे ही वे घरसमाज से लड़ मुझे उच्च तालीम दिला रहे हैं. अगर मैं ने एक हिंदू काफिर से ब्याह की बात भी की, तो शायद आने वाले वक्त में अपनी बेटीबहन को मेरी मिसाल दे उन से शिक्षा का हक भी छीना जाए. उसे सिर्फ अपने लिए नहीं सोचना चाहिए… फरहा मन को समझाने लगी.

दूसरे दिन ही रहमान साहब अपने सुपुत्र और बीबी के साथ तशरीफ ले आए. ऐसा लग रहा था मानो सिर्फ औपचारिकता ही पूरी हो रही है. सारी बातें पहले से तय थीं.

‘‘समीना, आज मुझे लग रहा है कि मैं ने फरहा के प्रति अपनी सारी जिम्मेदारियों को लगभग पूरा कर लिया है… आज मैं बेहद खुश हूं. निकाह फरहा की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही करेंगे. तभी सारे रिश्तेदारों को बताएंगे,’’ अब्बू अम्मां से कह रहे थे.

2 दिन बाद फरहा अपने कालेज अहमदाबाद लौट गई. लग रहा था राकेश मिले तो उस के कंधे पर सिर रख खूब रोए. पर राकेश सामने पड़ा तो वह भी बेहद उदास और उलझा हुआ सा दिखा. फरहा अपना गम भुला राकेश के उतरे चेहरे के लिए परेशान हो गई.

‘‘फरहा, मैं ने घर पर तुम्हारे बारे में बात की. पर तुम्हारा नाम सुनते ही घर में बवाल मच गया. मैं ने भी कह दिया है कि मैं तुम्हें छोड़ किसी और से शादी कर ही नहीं सकता.

इस बार सब से लड़ कर आया हूं,’’ राकेश ने कहा तो फरहा ने भी कहा कि उस की हालत भी बकरीद पर हलाल होने वाले बकरे से बेहतर नहीं.

वक्त गुजरा. फरहा और राकेश दोनों की नौकरी दिल्ली में ही लगी. दोनों अब तक मान चले थे कि एक हिंदू लड़का और मुसलिम लड़की की शादी मुकम्मल हो ही नहीं सकती.

फरहा के निकाह की तारीख कुछ महीनों बाद की ही थी. एक दिन फरहा अपने अब्बू और अम्मां के साथ कार से गुड़गांव की तरफ जा रही थी कि सामने से आते एक बेकाबू ट्रक ने जोर से टक्कर मार दी. तीनों को गंभीर चोटें आईं. बेहोश होने से पहले फरहा ने राकेश को फोन कर दिया था.

अब्बू और अम्मां को तो हलकी चोटें आईं पर फरहा के चेहरे पर काफी चोटें आई थीं. नाक और ठुड्डी की तो हड्डी ही टूट गई थी. पूरे चेहरे पर पट्टियां थीं.

रहमान साहब और उन का परिवार भी आया हौस्पिटल उसे देखने. सब बेहद अफसोस जाहिर कर रहे थे. उस के होने वाले शौहर ने जब सब के सामने ही डाक्टर से पूछा कि क्या फरहा पहले की तरफ ठीक हो जाएगी तो डाक्टर ने कहा कि इस की उम्मीद बहुत कम है कि वह पहले वाला चेहरा वापस पा सकेगी. हां, शरीर का बाकी हिस्सा बिलकुल स्वस्थ हो जाएगा… प्लास्टिक सर्जरी के बाद कुछ बदलावों के साथ वह एक नया चेहरा पा सकेगी, जिस में बहुत वक्त लगेगा.

वह दिन और आज का दिन रहमान परिवार फिर मिलने भी नहीं आया, अलबत्ता निकाह तोड़ने की खबर जरूर फोन पर दे दी.

दुख की घड़ी में उन का यों रिश्ता तोड़ देना बेहद पीड़ादायक था. अब्बू अम्मां उतना दुर्घटना से आहत नहीं हुए थे, जितना उन के व्यवहार से हुए. यह तो अच्छा था कि किसी रिश्तेदार को खबर नहीं हुई थी वरना और भद्द होती. फिलहाल, सवाल फरहा के ठीक होने का था. इस बीच राकेश उन का संबल बना रहा. हौस्पिटल, घर, औफिस और फरहा के अब्बू अम्मां सब को संभालता. वह उन के घर का एक सदस्य सा हो गया.

उस दिन अब्बू ने हौस्पिटल के कमरे के बाहर सुना, ‘‘फरहा प्लीज रो मत. तुम्हारी पट्टियां कल खुल जाएंगी. मैं हूं न. मैं तुम्हारे लिए जमीन आसमान एक कर दूंगा. जल्द ही तुम औफिस जाने लगोगी.’’

‘‘अब मुझ से कौन शादी करेगा?’’ यह फरहा की आवाज थी.

‘‘बंदा सालों से इंतजार कर रहा है. अब तो मां भी हार कर बोलने लगी हैं कि कुंआरा रहने से बेहतर है जिस से मन हो कर लो शादी… पट्टियां खुलने दो… एक दिन मां को ले कर आता हूं.’’

राह के कांटे धीरेधीरे दूर होते गए. राकेश के घर वाले इतनी होनहार और उच्च शिक्षित बहू पा कर निहाल थे. उस के गुणों ने उस के दुर्घटनाग्रस्त चेहरे के ऐब को ढक दिया था. पहले से तय निकाह की तारीख पर ही दोनों की कोर्ट मैरिज हुई और फिर हुआ एक भव्य रिसैप्शन समारोह, जिस में दोनों तरफ के रिश्तेदारों को बुलाया गया. दोनों ही तरफ से लोग न के ही बराबर शामिल हुए. हां, दोस्त कुलीग सब शामिल हुए. कुछ ही दिनों के बाद राकेश की कंपनी ने उसे सिडनी भेज दिया. दोनों वहीं चले गए और खूब तरक्की करने लगे.

फरहा की शादी के बाद अब्बू एक बार अपने शहर, अपने घर गए थे. महल्ले के लोगों ने उन की खूब खबर ली. कुछ बुजुर्ग लोगों ने उन्हें डांटा भी. रात में उन के घर पर पथराव भी किया. किसी तरह पुलिस बुला अब्बू और अम्मां घर से निकल पाए थे.

‘‘अब्बूजी, आप किस से बातें कर रहे थे?’’ फरहा ने पूछा.

‘‘अरे, तुम्हारी फूफी जान थी. बेचारी आती रहती है मुझ से मदद लेने. बेटे तो उस के सारे नालायक हैं. कोई जेल में तो कोई लापता. बेचारी के भूखों मरने वाले दिन आ गए हैं,’’ अब्बूजी ने कहा.

‘‘फरहा उस रात हमारे घर पर इसी ने पथराव करवाया था… अपने लायक बेटों से. हम ने तुम्हारी शादी इस के बेटे से जो नहीं कराई थी. सारे महल्ले वालों को भी इस ने ही उकसाया था. बहुत साजिश की इस ने हिंदू लड़के से तुम्हारी शादी करने के हमारे फैसले के खिलाफ,’’ अम्मा ने हंसते हुए कहा.

‘‘यह जो सलमा है न. इस वर्ष वह 10वीं कक्षा की परीक्षा दे रही है. वह भी तुम्हारी तरह तालीमयाफ्ता होने की चाहत रखती है.’’

‘‘सिर्फ मैं ही क्यों महल्ले की हर लड़की आप के जैसी बनना चाहती है,’’ यह सलमा थी, ‘‘काश, सब के अब्बू आप के अब्बू जितने समझदार होते,’’ कह सलमा फरहा के गले लग गई.

Romantic Story: भीगी पलकों में गुलाबी ख्वाब

Romantic Story: मालविका की गजल की डायरी के पन्ने फड़फड़ाने लगे. वह डायरी छोड़ दौड़ी गई. पति के औफिस जाने के बाद वह अपनी गजलों की डायरी ले कर बैठी ही थी कि ड्राइंगरूम के चार्ज पौइंट में लगा उस का सैलफोन बज उठा.

फोन उठाया तो उधर से कहा गया, ‘‘मैं ईशान बोल रहा हूं भाभी, हम लोग मुंबई से शाम तक आप के पास पहुंचेंगे.’’

42 साल की मालविका सुबह 5 बजे उठ कर 10वीं में पढ़ रहे अपने 14 वर्षीय बेटे मानस को स्कूल बस के लिए  रवाना कर के 49 वर्षीय पति पराशर की औफिस जाने की तैयारी में मदद करती है. नाश्तेटिफिन के साथ जब पराशर औफिस के लिए निकल जाता और वह खाली घर में पंख फड़फड़ाने के लिए अकेली छूट जाती तब वह भरपूर जी लेने का उपक्रम करती. सुबह 9 बजे तक उस की बाई भी आ जाती जिस की मदद से वह घर का बाकी काम निबटा कर 11 बजे तक पूरी तरह निश्ंिचत हो जाती.

इस वक्त शेरोशायरी, गीतगजलों की लंबी कतारें उस के मनमस्तिष्क में आ खड़ी होती हैं. अपने लिखे कलामों को धुन में बांधने की धुन पर सवार हो जाती है वह. नृत्य में भी पारंगत है मालविका और नृत्य कलाओं की प्रस्तुति से ले कर गीत गजलों के कार्यक्रमों में अकसर हिस्सा लेती है. वह अपने शहर में एक नामचीन हस्ती है और अपनी दुनिया में उस के फैंस की लिस्ट बड़ी लंबी है.

गजलों के फड़फड़ाते पन्नों को बंद कर उस ने डायरी को टेबल की दराज के हवाले किया और जल्द ही अपने चचेरे देवर ईशान व उस की नवेली पत्नी रिनी के स्वागत की तैयारी में लग गई.

लगभग सालभर पहले चचेरे देवर 34 साल के ईशान की शादी हुई थी. तब पराशर इन की शादी में चंडीगढ़ गए थे. लेकिन मालविका नहीं जा पाई थी, बेटे का 9वीं कक्षा का फाइनल एग्जाम था. अब ईशान पत्नी रिनी के साथ उस के मायके होते हुए लक्षदीप से मुंबई और फिर नागपुर आ रहे थे.

मालविका ने पराशर को फोन पर सूचना दी और आइसक्रीम व बुके लाने को कहा. वैसे यह पराशर के मूड पर निर्भर करता है कि वह मालविका के सु झाव पर गौर करेगा या नहीं.

देवर ईशान और उस की पत्नी 28 साल की रिनी के आने से घर रंग और रौनक से भर गया था. मालविका का बेटा मानस अपनी कोचिंग और पढ़ाई के बीच थोड़ाबहुत हायहैलो करने का ही समय निकाल पाता, लेकिन भैया पराशर का रिनी को ले कर अतिव्यस्त हो जाना कभीकभी ईशान को हैरत में डाल रहा था. ईशान रहरह कर मालविका की ओर तिरछी निगाहों से देखने लगा था और मालविका?

16 सालों से अपने पति को लगातार सम झती हुई भी मालविका जैसे अनबू झ मकड़जाल में उल झी हुई थी. कौन कोशिश करे इन उल झे जालों को हटाने की? मालविका को तो इस की इजाजत ही नहीं थी. हां, बिना इजाजत मालविका को कोई भी निर्णय लेने का यहां अधिकार नहीं था.

हां, उल झनों के मकड़जाल हट सकते थे अगर मालविका पराशर की बात मान ले. लेकिन यह संभव नहीं. अवहेलना, ईर्ष्या, व्यंग्य, हिंसा  झेल कर भी मालविका ने अपने मौनस्वर को किस तरह जिंदा रखा है, यह वही जानती है. खैर, रिनी मदमस्त हिरनी सी खूब खेल रही है पराशर के साथ.

चंडीगढ़ में नारी मुक्ति आंदोलन और बेटी बचाओ एनजीओ की प्रैसिडैंट है वह. आजादी का उपयोग करने में इतनी बिंदास है कि मालविका को खुद पर तरस हो आता. क्या वह दूसरों के मुकाबले ज्यादा घुटी हुई सी नहीं रहती. कुछ ज्यादा संत्रस्त?

पराशर यों तो अच्छीभली नौकरी में है, देखनेभालने में भी स्मार्ट है लेकिन उस की एक ही परेशानी है मालविका.

ईशान जब से आया है, हर प्रकार की मौजमस्ती, खानपान, घूमनेफिरने के बीच एक और चीज जो सब से ज्यादा महसूस कर रहा था वह यह कि पराशर मालविका को ले कर काफी अशांत था. वह जानने को आतुर था कि मालविका जैसी सुंदर, सुघड़, मितभाषी स्त्री के प्रति भी किसी पुरुष में आक्रोश हो सकता है. फिजी से आते वक्त एक मधुर मजाकिया माहौल की कल्पना उस के जेहन में बसी थी, लेकिन यहां माहौल इतना तनावभरा होगा, उस के खयालों में भी नहीं रहा था.

साउथ पैसिफिक ओशन के देश फिजी से वह आया था जहां उस के पिता डाक्टर और मां एक मौल की मालकिन है. वह खुद भी वहां सरकारी अस्पताल में डाक्टर है. चंडीगढ़ में उस की शादी एक वैबसाइट के माध्यम से हुई थी और रिनी के साथ तालमेल बैठाने की उस की कोशिश जारी थी.

शादी के एक साल बाद भारत के रिश्तेदारों से मिल कर अगले 10 दिनों में उन के वापस जाने का प्रोग्राम था. इस लिहाज से 4 दिन ही बचे थे और इन दिनों मालविका ईशान को अपने किसी तनाव के घेरे में नहीं लेना चाहती थी लेकिन पराशर का असामान्य व्यवहार बारबार मालविका के प्यारे मेहमान को असमंजस में डाल देता था.

34 साल का ईशान 42 साल की भाभी से अब धीरेधीरे बहुत खुल चुका था. ईशान को इस के पहले मालविका ने 2 बार ही देखा था. पहली दफा उस से जब मुलाकात हुई थी. तब मालविका की शादी हुए 3 साल ही हुए थे और वह 27 की तथा ईशान 19 साल का था. उस वक्त सालभर का मानस मालविका को कितना तंग करता था और वह किस तरह  झल्लाती थी, यह बोलबोल कर ईशान मालविका को आज खूब चिढ़ा रहा था.

पराशर ने इस मौके को गंवाना नहीं चाहा. ईशान का भाभी के प्रति नम्र रुख पराशर को भी सम झ आ ही रहा था, कहा, ‘‘अब भी क्या कम है? न बच्चे में रुचि है न पति में. सारा दिन नाच, गाना और चाहने वाले.’’

ईशान से रहा नहीं गया. उस ने कहा, ‘‘क्यों भैया, सारा दिन तो सबकुछ मैनेज करने में ही बिता रही हैं भाभी, एकएक को खुश करने पर तुली हैं. अब कोई किसी भी कीमत पर खुश न हो तो भाभी भी क्या करें. अगर इस के बाद समय निकाल कर कुछ क्रिएटिव कर रही हैं तो यह तो गौरव की बात हुई न? रिनी भी तो चंडीगढ़ में महिलाशक्ति की नेत्री है. आप इस बारे में क्या कहेंगे?’’

पराशर के लिए रिनी एक मनोरंजन मात्र थी. अकसर ऐसा ही होता भी है और स्त्री सोचती है वह कितनी महत्त्वपूर्ण है जो एक पुरुष अपनी पत्नी को बेबस छोड़ उसे तवज्जुह दे रहा है. खैर, पराशर ने बात घुमा दी, ‘‘चलो, तुम लोगों को यहां का प्रसिद्ध बाजार घुमा दूं.’’

रिनी मचल उठी, ईशान को सुने बिना ही कह पड़ी, ‘‘चलो, चलें.’’

‘‘अरे, भाभी से तो पूछो,’’ ईशान रिनी से यह कहते हुए जरा तल्ख हो चुका था.

मालविका जानती थी कि पराशर उसे कतई साथ ले जाना नहीं चाहेगा. उस ने खुद ही कहा, ‘‘मु झे घर पर काम है, तुम सब जाओ.’’

कार पराशर ने ड्राइव की और तीनों साथ गए. लेकिन आधी दूरी पर जा कर ईशान ने कहा, ‘‘भैया, आप मु झे यहां उतार दें, मु झे बैंक में कुछ जरूरी काम है, आप लोकेशन बता जाइए. मेरा काम होते ही मैं वहां आ कर आप को कौल कर लूंगा.’’

पराशर फिलहाल रिनी को ले कर वक्त बिताने में ज्यादा उत्सुक था और साथ ही उस के लिए यह राहत की बात थी कि ईशान और मालविका अकेले साथ नहीं हैं.

मालविका बेमिसाल हुस्न की मलिका थी. गुलाब सी खूबसूरत गालों से भोर की लाली सा नूर  झरता था. सुगठित देहयष्टि में तरुणी सी लचक, नृत्य की मुद्रा में जैसे सर्वश्रेष्ठ शिल्पी की किसी नायाब कलाकृति सी नजर आती थी वह.

कौन किसे देखे, कौन किसे देख कर ज्यादा मुग्ध हो जाए? ईशान भी क्या कम स्मार्ट, जहीन और खूबसूरत नौजवान था. 6 फुट की बलिष्ठ कदकाठी में वह एक बोलती आंखों वाला स्मार्ट प्रोफैशनल था, जिस के साथ देखनेभालने में बेहद मौडर्न, सुंदर रिनी का अच्छा मैच था.

मालविका आज हफ्तेभर बाद अपनी डायरी के पन्ने पलट रही थी कि ईशान को वापस आया देख वह अवाक रह गई.

‘‘क्या हुआ, तुम अकेले? गए नहीं उन के साथ?’’

‘‘बरदाश्त करो थोड़ी देर, पराशर भैया और रिनी का अकेले घूमना.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘क्या नहीं हुआ भाभी.’’

ईशान मालविका के पास आ कर सोफे पर बैठ गया. उस के हाथ पर अपना हाथ यों रखा जैसे वह उस का संबल हो, फिर शांति से पूछा, ‘‘मालविका, हां, नाम ही सही रहेगा. इस मामले में मैं तुम्हारी राय नहीं मांगूंगा क्योंकि मै जानता हूं तुम संस्कारों की दुहाई दोगी और हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाएंगे.’’

मालविका बेहद उल झन वाली स्थिति में आ गई थी,  उस ने  िझ झकते हुए पूछा, ‘‘आखिर क्या कहना चाह रहे हो तुम ईशान?’’

‘‘तुम्हें क्या हुआ मालविका, मु झे बताओ. भैया क्यों तुम से खफाखफा रहते हैं? तुम इतनी खूबसूरत हो, मितभाषी, सब का दिल जीत लेने वाली, गीत नृत्य में माहिर हो, फिर क्यों भैया अकसर व्यंग्य कसते रहते हैं, जैसे उन के अंदर बहुत क्रोध जमा है तुम्हारे लिए?’’

‘‘ईशान यह दुविधा मेरे लिए आग का दरिया है और इस में डूबे रहना मेरा समय.’’

‘‘आप इतनी टैलेंटेड और खूबसूरत हो, क्यों सहती हो इतना?’’

‘‘मानस के लिए, उसे मैं टूटे घरौंदे का पंख टूटा पंछी नहीं बनाना चाहती.’’

‘‘तुम ने जो सोचा है, वह एक मां का दृष्टिकोण है.’’

‘‘मैं अभी सब से पहले मां ही हूं ईशान.’’

‘‘और तुम खुद?’’

‘‘तुम जैसा प्यारा दोस्त अगर साथ रहे, तो खुद को भी धीरेधीरे सम झने लगूंगी.’’

‘‘मालविका, मैं कब से तुम से यही कहने वाला था. हम अब से पक्के दोस्त. तुम मु झे अपनी सारी परेशानी बताओगी और घुटन से खुद को मुक्त रखोगी. मैं जानता हूं तुम कितनी अकेली हो. अपने मायके में तुम इकलौती बेटी थी और अब तुम्हारे मातापिता रहे नहीं. मैं यह भी सम झता हूं कि तुम्हारी पहचान की वजह से तुम बाहर अपना दुख किसी से सा झा भी नहीं कर पाती होगी, कितनी घुटती होगी तुम. मालविका, आज तुम्हें जानने के लिए मैं ने भैया के साथ रिनी को भी अकेला छोड़ देना पसंद कर लिया.’’

मालविका की आंखों से टपटप आंसू उस की गोद में गिरने लगे, जैसे सालों से धरी रखी ग्लानि अब तोड़ चुकी थी अपनी सीमाएं.

‘‘ये बड़ी उल झन भरी बातें हैं,  तुम कैसे सम झोगे ईशान. तुम तो अभी बच्चे हो.’’

‘‘अब कान खींच लूंगा तुम्हारा, सम झी. हमारी दोस्ती के बीच अब कभी भी उम्र को मत लाना.’’

आंसुओं के बीच मालविका की आंखों में वैसी ही चमक उठी जैसी बारिश के बाद कई बार दिखती है. निगाहें मिलीं दोनों की और छोटीछोटी सम झ की बड़ी सी जगह बन गई.

‘‘तो बताओ.’’

हक से यह कहा ईशान ने तो मालविका ने मुंह खोला, ‘‘पराशर खुद बहुत हैंडसम और अच्छी नौकरी में हैं, मगर वे स्वीकार नहीं पाते कि उन के रहते कोई मेरी प्रशंसा करे. रिश्तेदार, जानपहचान वाले या मेरे परिचितअपरिचित फैंस. मैं अपना काम और नाम छोड़ कर सिर्फ उन के हाथों की कठपुतली बन जाऊं, तो शायद उन का दिल पसीजे. दरअसल, पराशर में प्रतिद्वंद्विता और तुलना करने की भावना हद से ज्यादा है जो उन्हें कभी चैन की सांस लेने नहीं देती. जब तक वे मेरा आत्मविश्वास नहीं तोड़ते उन का आत्मविश्वास नहीं गढ़ता. रातें मेरी कभी खुद की नहीं रहतीं, वे अपनी मरजी थोप कर मु झे कमतर का एहसास कराने की कोशिश करते हैं.’’

मालविका बोलते हुए अचानक रुक गई, शायद ज्यादा खुल जाने की  िझ झक ने उस के शब्दों को रोक लिया.

‘‘यानी, तुम्हारी इच्छा या अनिच्छा का कोई मोल नहीं, जो वे चाहें. पतिपत्नी में रिश्ता तो बराबरी का होता है.’’

‘‘परेशानी और भी है, सोच यह भी है कि अगर स्त्री कुछ अपनी खुशी के लिए कर रही है, जिस से समाज में उस की पहचान बनती है तो वह स्वार्थी और क्रूर है, क्योंकि वह अपने लिए समय निकालती है. जिस पति की ऐसी सोच रहे वह पत्नी को प्यार और सम्मान किस तरह दे सकेगा? तुम्ही बताओ ईशान.’’

‘‘लड़कियों को देख उन से ऐसा व्यवहार करते, जिस से मैं परेशान होऊं. जतलाने की यही मंशा रहती है कि चाहें तो वे अभी भी बहुतकुछ कर सकते हैं, लड़कियां अब भी उन के पीछे दीवानी हो सकती हैं, अर्थात मु झे भ्रम न हो कि लोग मेरे ही दीवाने हैं. क्या कहूं ऐसे बचकानेपन को. मैं ने उन्हें माफ करना सीख लिया है.’’

‘‘मालविका, तुम अपनी प्यारी सी दोस्ती मु झे दोगी? मैं एहसान मानूंगा तुम्हारा. तुम इतनी गुणी होते हुए भी कितनी सिंपल हो, तुम से बहुतकुछ सीखना है मु झे. जिंदगी को तुम्हारे नजरिए से जानना है मु झे. एक सुकूनभरा एहसास मैं भी दे पाऊंगा तुम्हें, ऐसा भरोसा दिलाता हूं. हमेशा रिश्ता लेने और देने का ही नहीं होता, कभी यह बिन कुछ लिएदिए आपस में खोए रहने का भी होता है. तुम कितनी अकेली हो, दोस्ती वाला यह हाथ थाम लो मालविका. मैं तुम्हारे दिल को थाम लूंगा.’’ ईशान ने अपना हाथ मालविका की ओर बढ़ा दिया था.

‘‘एक अच्छा दोस्त जो आप के दर्द का सा झीदार भी हो, बहुत मुश्किल से मिलता है. लेकिन तुम्हें संभाल कर कैसे रखूं ईशान? तुम जो मु झ से कितने छोटे हो. पराशर भी कभी नहीं चाहेंगे कि मैं तुम से संपर्क रखूं और फिर रिनी? उसे क्यों पसंद होगी हमारी दोस्ती?’’

‘‘तो मालविका तुम अभी भी उल झी हुई हो. सामाजिक संपर्क में मैं तुम्हारा देवर हूं. लेकिन जहां दोस्ती का संबंध सब से ऊंचा होता है वहां रिश्तों की थोपी हुई पाबंदियां माने नहीं रखतीं. रही बात पराशर भैया और रिनी की, तो एक बात का उत्तर दो, तुम्हें उत्तर खुद ही मिल जाएगा. पराशर भैया क्या तुम्हारे दिल के राजदार हैं? क्या उन्होंने तुम्हें यह अधिकार दिया है? क्या वे तुम्हारे दिल के हमदम हैं? उन का वास्ता तुम्हारे शरीर से है, तुम से नहीं. घुटघुट कर बच्चे को बड़ा कर तो लिया, अब बाकी जिंदगी में एक अच्छी सी दोस्ती को भी अपनाना नहीं चाहोगी? जहां तक रिनी की बात है, तो वह आज की मौडर्न प्रोफैशनल लड़की है और उस के खुद के पक्के व अच्छे पुरुष दोस्त हैं.

‘‘मालविका, जैसे तुम अपने रचना संसार को पराशर भैया के न चाहते हुए भी जिंदा रखे हुए हो, क्योंकि तुम जानती हो कि तुम सही कर रही हो, उसी तरह हमारी दोस्ती को खुद के दिलदिमाग के सुकून के लिए जीने का हक दो. बात है हम दोनों अपनेअपने पार्टनर के साथ सच्चे और अच्छे रहें और इस के लिए शादी से अलग रिश्तों में भी सम झ कर चलें. सब की अपनी जिंदगी के माने हैं और शादी से वे माने खत्म नहीं होते.’’

कम बोलने वाला ईशान इतना बोल कर एकदम चुप हो गया. थक कर बेबस सा मालविका की ओर देखने लगा.

मालविका बोली, ‘‘यानी, अब मेरे मन के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान पैदा हो गया है और मै आसानी से उस में दो घड़ी बिता सकती हूं,’’ मालविका ने ईशान के हाथ पर अपना हाथ रख दिया था. ईशान अब संतुष्ट था. 2 दिनों बाद जब ईशान और रिनी ने फिजी के लिए फ्लाइट पकड़ी तब ढेर सारी अच्छीबुरी बातों के बीच एक बात बहुत अच्छी थी कि मालविका के पास मुसकराने की एक बेहतरीन वजह हो गई थी. इन भीगी सी पलकों में एक गुलाबी सा ख्वाब पैदा हो गया था जो बड़ी आसानी से अब उसे सहलाता, बहलाता और वह बेवजह ही मुसकराने लगती.

Romantic Story: अधूरा सपना – हर शाम अभीन गुप्ता स्टोर के पास क्यों जाता था

Romantic Story, लेखक- पंकज कुमार यादव

पता नही क्यों जब भी शादी में , बैंड बाजे की धुन में कोइ फिल्मी गाने की सैड सैंाग बजती है, अभीन की धड़कने तेज हो जाती. उसकी आंखे बंद हो जाती कुछ पल के लिए ,दिल और मन रूआंसा सा हो जाता है  कुछ पल के लिए.  रभीना हां यही तो नाम था उस लड़की का जिसे देख देख वो फिल्मी प्यार मे डुब जाता था. रभीना अभीन को के प्रति सीरियस है इसका एहसास कभी भी नही होने देती थी. ये बात अभीन को भी पता था. पर अभीन हर शाम गुप्ता स्टोर के पास पांच बजे के करीब खडा़ हो जाता था ,ताकि वो टियूशन जाती रभीना का दीदार कर सके. रोज दीदार के नाम पर खडा़ तो नही हो सकता था गुप्ता जी के स्टोर पर ,इसलिए कुछ ना कुछ रोज अभीन को दुकान से खरीदना ही पड़ता था. गुप्ता अंकल सब कुछ जानते हुए भी अंजान बने रहते थे. अभीन अभी अभी बारहवीं में तो गया था.

मैथ ,फिजिक्स ,केमिस्ट्री के प्रशनो केा रट्टा मारने के बाद वो तुरंत रभीना के याद में डूब जाता था. और याद में भी ऐसे डूबता मानो सच में गोता लगा रहा हो. रभीना उसकी बाहों में ,रभीना उसके जोक पर लागातार हंसते हुए. अभीन, रभीना को बस सोचता जाता और अपना होश खोता जाता. अभीन के इस पढ़ाकू व्यवहार से मां चिंतित रहने लगी. ऐसी भी क्या पढाइ जो बंद कमरे में पढते -पढते बिना खाये पिये सो जाये. मां को कहां पता था कि अभीन बंद कमरे सिर्फ पढाई नही करता. वारहवीं का इग्जाम खत्म होते होते ही अभीन का प्यार और भी परवान चढ़ने लगा. अभीन से रभीना कभी बात नही करती थी. इन दो सालो में भी अभीन रभीना से बात नही कर पाया. पर इससे अभीन को कोइ फर्क नही पड़ता था. वो हर रोज गुप्ता स्टोर से खरीदारी कर आता. गुप्ता जी के दुकान की ऐसी कोइ चीज नही रही हो जिसे अभीन ने नही खरीदी हो. अब तो गुप्ता अंकल ही अभीन को बता देते थे कि बेटे आज सर्ट में लगाने वाली बटन ही खरीद ले ,बेटे आज ना हेयर डाई खरीद ले. और फिर अभीन दे देा अंकल कह कर टियूशन जाती अभीना को निहारता निढाल हो जाता कुछ पलो के लिए. अभीन पढ़ने में तो तेज था ही साथ ही उसने अपने बेहतर जीवन के सपने भी बुने थे.

उसका प्यार जितना फिल्मी था उतना ही फिल्मी उसके सपने थे. पर उसकी खूबसूरत सपने में भी खूबसूरत रभीना भी थी. एक अच्छी पैकेज वाली नौकरी ,एक मकान और छोटी सी कार में खुद से डाªइव करते हुए रभीना को बारिश के बूदों में घुमााना. अपनी इसी सपने को पूरा करने के लिए अभीन दिन रात पढा़ई करता था. अभी भी अभीना उसके लिए सपना ही थी , एक कल्पना जिसे देख वो खुश हुआ करता था. जिसे महसूस कर वो अपने सपनो को सच करने के लिए आइ लीड को पीटते नींद केा भगाने के लिए आंख के पुतलियों पे उर्जा देती पानी की छिंटो के सहारे पढाई करता था.

पहली कोशिश में पहली ही दफा में ही अभीन ने इजीनियरिंग परीक्षा इंट्रेस निकाल ली. अपार खुशी ,पर दुखः इस बात की थी  ,कि अब गुप्ता अंकल के दुकान पर रोज समान खरीदने का मौका नही मिलेगा. अब वो अब अपनी सपना को अपने खव्वाब को रोज अपनी आंखो से दीदार नही कर पायेगा. अभीन वापस अपने घर आते ही चिंतित हो उठा. उसके कइ दिनो से इस तरह के व्यवहार से उसके माता पिता भी चिंतित हो उठे. हमेशा खुश रहने वाला लड़का इतना परेशान क्यों है ?

अभीन के होश उड़े हुए थे. वो थोड़ा बेसुध सा रहने लगा. अभीन अब उतावले से रभीना से बात करने और उसे मिलने के रास्ते तलाशने लगा. अपने मोहल्ले में ही रहने वाली रभीना के लिए उसने कभी ऐसी कोशिश नही की थी. उसने कभी ये बात नही सोची थी कि ऐसा भी कभी अवस्था आयेगा. आखिरकर वो अपने मासी के घर रहने वाली रेंटर निकली. किसी बहाने से अभीन अपने मासी के यहां पहुंच भी गया. पर ये क्या रभीना दो बार सामने से गुजरी , उसने ध्यान ही नही दिया.

गुप्ता अंकल के स्टोर पर तो रोज मुझे देख हंसती थी. वो मुझसे कही ज्यादा खुश लगती थी ,मुझे गुप्ता अंकल के स्टोर पर इंतजार करता देख. पर आज ना जाने ऐसा व्यवहार क्यू कर रही है. अभीन को रभीना पर गुस्सा भी आ रहा था. ऐसी भी क्या बेरूखी. आखिर अभीन गुस्सा होकर यो कहें निराश होकर अपने हल्के कदम और भारी मन के साथ कब अपने घर पहुच गया उसे भी  पता ना चला. अभीन अभी भी गुस्से में ही था. रात का भोजन नही ,अगले दिन, दिन भर कमरे से बाहर निकलना नही. अभीन के माता पिता परेशान हो गये. कही ऐसा तो नही कि अभीन घर से दूर इंजीनियरिंग की पढाई करने जाने से दुखी है.

अभीन माता पिता से, घर से दूर रहने के फायदे और स्वालंबी बनने की जरूरत पर लम्बी लेक्चर सूनते सूनते बोर होने लगा. तो घर से निकला. माता पिता समझे अब अभीन समझदार हो गया. अभीन गुप्ता अंकल क स्टोर पर पहुंचा. दो साल में पहली बार अभीन गुप्ता अंकल के स्टोर पर साम पांच बजे के बाद मुरझाया चेहरा लेकर पहुंचता है. गुप्ता अंकल ने पुछा ’’ अरे तुमने बताया नही  तुमने आइआइटी एक बार में ही निकाल ली.’’ ’’ हां अंकल निकाल ली  ’’ कह कर अभीन चुपचाप हो गया. और एका एक अपने मासी के घर की ओर बढ चला. आज रभीना से पुछ ही लुंगा कि शादी करोगी या नही ? और कुछ ही देर में अभीन रभीना के घर के दरवाजे पर था. पर ये क्या उसके दरवाजे पर ताला लगा हुआ था. तभी उसकी मासी आवाज देती हैं. ’’ अरे अभीन उधर रेंटर के कमरे की ओर क्या कर रहा है ़ इधर आ ’’  ’’ आता हूं मासी  ये आपके रेंटर कहां गये ,इनका दवाजा बंद है  लगता है मार्केट गये हैं !’’  ’’ नही नही !

मार्केट नही गये अपने गांव गये हैं. उनकी बेटी है ना रभीना उसकी शादी है अगल हप्ते ’’. अभीन अंदर से हिल जाता है. रोते हुए अपने घर की ओर दैाड़ता है. उसका दिमाग भारी लगने लगता है. अपने बहते आॅशु को पोछते हुए दौड़ते हुए चलने लगता है. अभीन को मालुम है कि लोग उसे रोते हुए देख रहे हैं. पर आंशु रोकना उसके बस की बात नही थी , सो उसने दौड़ कर घर जल्द पहुंचना ही अच्छा समझा. और बंद कमरे में जी भर रोया अभीन और रोते हुए थक कर सो गया.

रात को सपने में भी आयी राभीना ,पर कहीं से ऐसा नही लगा जैसे रभीना उसकी जिंदगी से चली गयी हो. पहले की ही तरह अभीन के बाहों में लिपटी अभीन के बाल को खींचती. और अभीन के जोक पर पहले चुपचाप रहती ये भी कोइ जोक है. और फिर खिलखिला कर हसंती और जी खोल कर हंसती. अभीन के चेतन में अभी भी था कि रभीना उसकी जिंदगी से चली गयी है. पर उसकी हिम्म्त ही नही हुइ पुछने की ,क्यूकिं रभीना तो अभी उसकी बाहों मे थी. सुबह तैयार होकर अपने सपने को पूरा करने के लिए अभीन आईआईटी दिल्ली निकल रहा था. पर उसका सपना थोड़ा थेाड़ा अधूरा सा लग रहा था क्यूकि इस सपने में रभीना नही थी.

Romantic Story: महानायक – आखिर विष्णुजी के नखरे का क्या राज था?

Romantic Story, लेखिका – वीना शर्मा

शालिनी ने घड़ी देखी. 12 बज रहे थे. अभी आधा रास्ता भी पार नहीं हुआ था.

‘‘हम लोग 1 बजे तक बच्चों के स्कूल पहुंच जाएंगे न?’’ शालिनी ने कुछ अधीर स्वर में अपने ड्राइवर भुवन से पूछा.

‘‘पहुंच जाएंगे मैडम. इसीलिए तो मैं इस रोड से लाया हूं. यहां ट्रैफिक कम होता है.’’

‘‘ट्रैफिक तो अब किसी भी रोड पर कम नहीं होता,’’ पास बैठी शालिनी की सहेली रीना बोली.

रीना का बेटा चिंटू भी उसी स्कूल में पढ़ता था, जिस में शालिनी के दोनों बच्चे अनूषा और माधव थे.

शालिनी और रीना बचपन की सहेलियां थीं. साथ पढ़ी थीं और समय के साथ दोस्ती बढ़ती ही गई थी. शालिनी के पति अमर कुमार मशहूर फिल्म अभिनेता थे और रीना के पति बिशन एक बड़े व्यापारी. दोनों का जीवन अति व्यस्त था.

अमर कुमार की व्यवस्तता तो बहुत ही अधिक थी. पिछले 7 सालों में उन की इतनी फिल्में जुबली हिट हुई थीं कि शालिनी को अब गिनती भी याद नहीं थी. इतनी अधिक सफलता की कल्पना तो न शालिनी ने की थी न अमर कुमार ने. शालिनी को गर्व था अपने पति पर. हर जगह अमर के नाम की धूम मची रहती थी. बच्चों को भी अपने पापा पर कम गर्व नहीं था. पापा की वजह से वे स्कूल में वीआईपी थे.

आज अनूषा और माधव ने चिंटू और अपनी क्लास के अन्य साथियों के साथ पापा की नई गाड़ी में घूमने का प्रोग्राम बनाया था. स्कूल में जल्दी छुट्टी होने वाली थी.

बच्चों में पापा की नई गाड़ी के लिए बहुत उत्साह था. सब से बढि़या गाड़ी जो अभी तक सिर्फ उन के पापा के पास थी. कितने उत्साह से दोनों आज के दिन का इंतजार कर रहे थे, जब उन के स्कूल में जल्दी छुट्टी होने वाली थी.

गाड़ी सिगनल पर रुकी. शालिनी परेशान होने लगी कि अब और देर होगी. उस ने फिर घड़ी देखी. तभी अचानक शालिनी का मोबाइल बजा.

‘‘हैलो,’’ शालिनी धीरे से बोली.

‘‘मैडम बहुत गड़बड़ हो गई है… आप कहां हैं?’’ उधर से आने वाला स्वर अमर के सैके्रेटरी वसु का था.

‘‘क्या हुआ वसु? हम स्कूल के रास्ते में हैं.’’

‘‘मैडम, विष्णुजी अभी तक नहीं आए हैं. यहां इतना बड़ा सैट लगा हुआ है. प्लीज आप…’’

‘‘हां बोलो वसु, क्या करना है?’’

‘‘आप वह नई गाड़ी जल्दी से विष्णुजी के यहां पहुंचा दीजिए. जब तक वह गाड़ी नहीं पहुंचेगी विष्णुजी नहीं आएंगे और आप तो जानती हैं, जब तक विष्णुजी नहीं आएंगे…’’

‘‘शूटिंग नहीं होगी,’’ शालिनी ने गुस्से में कहा.

‘‘जी मैडम, आप जल्दी से भुवन को उनझ्र के यहां भेज दीजिए. आप के लिए दूसरी गाड़ी पहुंच जाएगी.’’

शालिनी ने फोन बंद किया ही था कि वह फिर बजा. इस बार अमर ने फोन किया था.

‘‘हां बोलिए,’’ शालिनी ने अपने गुस्से को भरसक रोकते हुए कहा.

‘‘शालू प्लीज, वह नई गाड़ी फौरन…’’

‘‘विष्णुजी के यहां भेज दूं?’’

‘‘हां, प्लीज, जल्दी…’’

शालिनी ने तेजी से फोन बंद किया और फिर बोली, ‘‘भुवन गाड़ी रोको.’’

भुवन हैरान था. अभीअभी तो ग्रीन सिगनल हुआ था. फिर भी उस ने गाड़ी किनारे लगा दी. शालिनी तेजी से नीचे उतर गई. पीछेपीछे रीना भी उतर गई.

‘‘भुवन, जल्दी से विष्णुजी के घर उन्हें लेने जाओ.’’

‘‘लेकिन मैडम आप?’’

‘‘हम टैक्सी से चले जाएंगे.’’

शालिनी और रीना टैक्सी में जा रही थीं. शालिनी का परेशान चेहरा देख कर रीना भी परेशान हो रही थी.

‘‘इतना परेशान मत हो शालू… ये सब तो…’’

‘‘मैं विष्णुजी से तंग आ गई हूं,’’ शालिनी रोंआसे स्वर में बोली.

रीना क्या कहती? वह शालिनी से कितना कुछ तो सुनती रहती थी, इन विष्णुजी के बारे में.

अमर के गुरु हैं वे. उन के सैट पर आए बिना अमर शूटिंग नहीं करता. उन के नखरे उठातेउठाते निर्माता परेशान हो जाते हैं. महंगी से महंगी दारू, बढि़या से बढि़या होटल से खाना और क्या कुछ नहीं…

आउटडोर पर तो उन की फरमाइश और भी बढ़ जाती है. उन्हें वही फल और सब्जियां चाहिए होती हैं, जिन का मौसम नहीं होता.

कालेज के जमाने में अमर नाटकों में काम करता था, जिन के निर्देशक यही विष्णुजी हुआ करते थे. इन की योग्यता पर कोई संदेह नहीं था, बहुत सफल निर्देशक थे ये. अपने काम में बहुत मेहनत करते थे. हर कलाकार पर विशेष ध्यान देते थे. उन से प्रशंसा के 2 बोल सुनने के लिए अमर जमीनआसमान एक कर देता था.

अमर को फिल्मों का बेहद शौक था. इसीलिए तो जब उस ने एक फिल्मी पत्रिका में टेलैंट कौंटैस्ट के बारे में पढ़ा तो जल्दी से फार्म भर कर भेज दिया. फिर जब वहां से बुलावा आया तो अमर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन वहां ‘स्क्रीन टैस्ट’ होगा, बड़ेबड़े लोगों के सामने डायलौग बोलने पड़ेंगे, वह कालेज का नाटक नहीं है कि हंसतेखेलते ट्राफी जीती जा सके, विष्णुजी ने अमर को कई दिनों तक अभ्यास कराया, हिम्मत बंधाई…

‘‘अपने पर भरोसा रखो. तुम बहुत अच्छे कलाकार हो…’’

अमर चुन लिया गया. उसे फिल्म मिल गई. शूटिंग पर विष्णुजी साथ रहे.

अमर की फिल्म हिट हो गई. धड़ाधड़ नई फिल्में मिलने लगीं. विष्णुजी हर जगह साथ होते. उन के बिना अमर काम नहीं कर पाता था.

अमर स्टार बन गया. नाम और पैसा सभी कुछ बरसने लगा. विष्णुजी के घर की हालत बदलने लगी. उन की तीनों बेटियां अच्छे स्कूल में जाने लगीं. बढि़या फ्लैट, नौकरचाकर सभी कुछ…

उन की पत्नी मालती खुश रहने लगी, क्योंकि उस ने अभी तक अच्छे दिन देखे ही नहीं थे. विष्णुजी कभी कोई नौकरी नहीं कर पाए थे और दारू पीना भी कम नहीं करते थे.

अमर की शादी हुई. शादी की पार्टी में पहली बार शालिनी ने विष्णुजी को देखा. नाटे, मोटे शराब का गिलास पर गिलास खाली करते हुए… उस व्यक्ति को शालिनी आश्चर्य से देख रही थी.

अमर ने शालिनी का परिचय करवाया, ‘‘ये मेरे गुरुजी हैं.’’

अमरके इशारे पर शालिनी ने  झुक कर उन के पांव छूए. पार्टी भर शालिनी देखती रही. बहुत से लोग विष्णुजी के आगेपीछे घूम रहे थे और वे सब से अकड़अकड़ कर बातें कर रहे थे.

जैसेजैसे अमर की सफलता बढ़ती गई, विष्णुजी की यह अकड़ भी बढ़ती रही.

शालिनी के मन में उन के लिए कभी कोई श्रद्धा पैदा नहीं हुई, लेकिन अमर की वजह से वह उन्हें हमेशा चुपचाप सहती रही.

सारे निर्मातानिर्देशक भी अमर की वजह से ही चुप रहते. अमर उन के बिना शौट नहीं दे सकता. उन का सैट पर होना जरूरी है. वे हर निर्देशक को काम सिखाने लगते. निर्माता को छोटीछोटी बातों पर डांटनेफटकारने लगते. फिर भी अमर की वजह से कोई कुछ नहीं कहता.

मम्मी और आंटी को टैक्सी से उतरता देख, बच्चों के मुंह उतर गए.

रीना ने बात संभाली, ‘‘वह बात यह है कि रास्ते में गाड़ी खराब हो गई… अभी आती ही होगी… तब तक सब लोग आइसक्रीम खाते हैं.’’

दूसरी गाड़ी जल्दी आ गई. लेकिन यह तो पापा की नई गाड़ी नहीं है. अनूषा और माधव का मुंह उतर गया. उन के चेहरे देख कर शालिनी को धक्का जैसा लग रहा था.

बच्चों के घूमने का कार्यक्रम एक औपचारिकता की तरह निभाया गया. रीना ही उन्हें बहलाती रही.

शालिनी का उखड़ा मूड देख कर अमर परेशान हो गया. बोला, ‘‘वह क्या है न शालू… विष्णुजी की जिद थी उन्हें लेने वही गाड़ी आए. बेचारे कुमार का लाखों का नुकसान हो रहा था… मैं क्या करूं?’’

‘‘लेकिन विष्णुजी को हमेशा आप की नई गाड़ी ही क्यों चाहिए होती है?’’ शालिनी अपने गुस्से पर काबू नहीं रख सकी.

‘‘उन का ईगो संतुष्ट होता है… तुम तो जानती हो उन्हें.’’

‘‘हां, मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूं. ईगो के सिवा और है क्या उन के पास?’’

अमर कुछ नहीं कह सका. घर का वातावरण कई दिनों तक तनावपूर्ण रहा.

शालिनी को अब अमर की चिंता होने लगी थी, क्योंकि अमर विष्णुजी पर इतना निर्भर करता है? क्यों काम नहीं कर सकता उन के बिना? सफलता के इस शिखर पर पहुंच कर भी आत्मविश्वास क्यों नहीं आ पाया अमर में? इस तरह कितने दिन चलेगा? कहीं ऐसा न हो कि अमर को काम मिलना बंद हो जाए. फिर क्या होगा? अमर सम झता क्यों नहीं?

नीरज साहब एक बहुत बड़ी फिल्म बना रहे थे. अमर उन की अनेक हिट फिल्मों का हीरो ही नहीं, बल्कि बहुत अच्छा दोस्त भी था. जाहिर है मुख्य भूमिका इस बार भी उसे ही निभानी थी. नीरज साहब की यह फिल्म एकसाथ कई भाषाओं में बन रही थी और इस में कई विदेशी कलाकार भी काम कर रहे थे.

आज बहुत ही भव्य सैट लगा था. प्रैस वाले, मीडिया वाले सब आने वाले थे. अमर चाहता था कि शानिली भी सैट पर आए.

वैसे शालिनी अमर के सैट पर बहुत कम जाती थी और कुछ सालों से तो उस ने जाना बिलकुल छोड़ दिया था. वह लोगों के साथ विष्णुजी का व्यवहार सहन नहीं कर पाती थी. लेकिन इस बार अमर और नीरज साहब के बारबार आग्रह करने पर शालिनी को जाना पड़ा.

सारी तैयारी हो चुकी थी. विदेशी कलाकारों सहित सारे कलाकार तैयार थे. सैट तैयार था. लेकिन शूटिंग शुरू नहीं हो पा रही थी. विष्णुजी अभी तक नहीं पहुंचे थे. कई बार फोन किया गया, गाड़ी भेज दी गई थी. लेकिन वे नहीं आए. इस फिल्म के मुहूर्त वाले दिन से ही वे काफी नाराज थे, क्योंकि इस बार नीरज साहब ने मुहूर्त उन से नहीं बल्कि एक नामी विदेशी कलाकार से करवाया था.

जब बहुत देर हो गई तो अमर ने खुद फोन लगाया. मालती ने ही फोन उठाया, बोली, ‘‘क्या बताऊं अमर भैया, मैं तो सम झासम झा कर थक गई. ये सुबह से ही पी रहे हैं और नीरज साहब को गालियां दे रहे हैं.’’

शालिनी की मनो:स्थिति बहुत खराब हो रही थी. क्या सोच रहे होंगे सब लोग अमर के लिए… यह इतना बड़ा नायक… इतना असमर्थ… इतना असहाय है.

आखिर शूटिंग शुरू हुई. अमर ने विष्णुजी के बिना ही काम किया.

‘‘कमाल कर दिया तुम ने,’’ नीरज साहब ने अमर को गले लगा लिया. विदेशी कलाकार अमर के अभिनय से बेहद प्रभावित हुए.

मेकअप रूम में शालिनी अमर की ओर प्रशंसा से देख रही थी. बोली, ‘‘आप उन के बिना काम कर सकते हैं… क्यों सहते हैं उन के इतने नखरे? आप उन के मुंहताज नहीं हैं… आप उन के बिना भी…’’

‘‘जानता हूं शालू मैं उन के बिना काम कर सकता हूं,’’

‘‘तो फिर हमेशा क्यों नहीं करते?’’

‘‘शालू… वह आदमी… जिंदगी में कुछ नहीं कर पाया… मेरी स्टारडम को जी रहा है वह… यह उस से छिन गई तो वह टूट जाएगा, फिर क्या होगा उस का? क्या होगा उस के परिवार का? बोलो?’’ शालिनी अवाक सी अमर को देख रही थी.

न जाने कब वहां आ कर खड़े हो गए थे नीरज साहब. फिर धीरे से बोले, ‘‘यह बात हम लोग सम झते हैं भाभीजी.’’

शालिनी को लग रहा था वह सचमुच एक महानायक की पत्नी है.

Romantic Story: एक रिश्ता प्यारा सा – माया और रमन के बीच क्या रिश्ता था?

Romantic Story: “अरे रमन जी सुनिए, जरा पिछले साल की रिपोर्ट मुझे फॉरवर्ड कर देंगे, कुछ काम था” . मैं ने कहा तो रमन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया “क्यों नहीं मिस माया, आप फरमाइश तो करें. हमारी जान भी हाजिर है.

“देखिए जान तो मुझे चाहिए नहीं. जो मांगा है वही दे दीजिए. मेहरबानी होगी.” मैं मुस्कुराई.

इस ऑफिस और इस शहर में आए हुए मुझे अधिक समय नहीं हुआ है. पिछले महीने ही ज्वाइन किया है. धीरेधीरे सब को जानने लगी हूं. ऑफिस में साथ काम करने वालों के साथ मैं ने अच्छा रिश्ता बना लिया है.

वैसे भी 30 साल की अविवाहित, अकेली और खूबसूरत कन्या के साथ दोस्ती रखने के लिए लोग मरते हैं. फिर मैं तो इन सब के साथ काम कर रही हूं. 8 घंटे का साथ है. मुझे किसी भी चीज की जरूरत होती है तो सहकर्मी तुरंत मेरी मदद कर देते हैं. अच्छा ही है वरना अनजान शहर में अकेले रहना आसान नहीं होता.

दिल्ली के इस ब्रांच ऑफिस में मैं अपने एक प्रोजेक्ट वर्क के लिए आई हुई हूं. दोतीन महीने का काम है. फिर अपने शहर जयपुर वाले ब्रांच में चली जाऊंगी. इसलिए ज्यादा सामान ले कर नहीं आई हूं.

मैं ने लक्ष्मी नगर में एक कमरे का घर किराए पर ले रखा है. बगल के कमरे में दो लड़कियां रहती हैं. जबकि मेरे सामने वाले घर में पतिपत्नी रहते हैं. शायद उन की शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ है. पत्नी हमेशा साड़ी में दिखती है. मैं सुबहसुबह जब भी खिड़की खोलती हूं तो सामने वह लड़का अपनी बीवी का हाथ बंटाता हुआ दिखता है. कभीकभी वह छत पर एक्सरसाइज करता भी दिख जाता है.

उस की पत्नी से मेरी कभी बात नहीं हुई मगर वह लड़का एकदो बार मुझे गली में मिल चुका है. काफी शराफत से वह इतना ही पूछता है,” कैसी हैं आप ? कोई तकलीफ तो नही यहां.”

“जी नहीं. सब ठीक है.” कह कर मैं आगे बढ़ जाती.

इधर कुछ दिनों से देश में कोरोना के मामले सामने आने लगे हैं. हर कोई एहतियात बरत रहा है. बगल वाले कमरे की दोनों लड़कियों के कॉलेज बंद हो गए. दोनों अपने शहर लौट गई .

उस दिन सुबहसुबह मेरे घर से भी मम्मी का फोन आ गया,” बेटा देख कोरोना फैलना शुरु हो गया है. तू घर आ जा.”

“पर मम्मी अभी कोई डरने की बात नहीं है. सब काबू में आ जाएगा. यह भी तो सोचो मुझे ऑफिस ज्वाइन किए हुए 1 महीना भी नहीं हुआ है. इतनी जल्दी छुट्टी कैसे लूं? बॉस पर अच्छा इंप्रेशन नहीं पड़ेगा. वैसे भी ऑफिस बंद थोड़े न हुआ है. सब आ रहे हैं.”

“पर बेटा तू अनजान शहर में है. कैसे रहेगी अकेली? कौन रखेगा तेरा ख्याल?”

“अरे मम्मी चिंता की कोई बात नहीं. ऑफिस में साथ काम करने वाले मेरा बहुत ख्याल रखते हैं. सरला मैडम तो मेरे घर के काफी पास ही रहती है. उन की फैमिली भी है. 2 लोग हैं और हैं जिन का घर मेरे घर के पास ही है. इसलिए आप चिंता न करें. सब मेरा ख्याल रखेंगे.”

“और बेटा खानापीना… सब ठीक चल रहा है ?”

“हां मम्मा. खानेपीने की कोई दिक्कत नहीं है . मुझे जब भी कैंटीन में खाने की इच्छा नहीं होती तो सरला मैडम या दिवाकर सर से कह देती हूं. वे अपने घर से मेरे लिए लंच ले आते हैं. ममा डोंट वरी. मैं बिल्कुल ठीक हूं. गली के कोने में ढाबे वाले रामू काका भी तो हैं. मेरे कहने पर तुरंत खाना भेज देते हैं. ममा कोरोना ज्यादा फैला तो मैं घर आ जाऊंगी. आप चिंता न करो .”

उस दिन मैं ने मां को तो समझा दिया था कि सब ठीक है. मगर मुझे अंदाज भी नहीं था कि तीनचार दिनों के अंदर ही देश में अचानक लॉकडाउन हो जाएगा और मैं इस अनजान शहर में एक कमरे में बंद हो कर रह जाऊंगी. न घर में खानेपीने की ज्यादा चीजें हैं और न ही कोई रेस्टोरेंट ही खुला हुआ है .

मैं ने सरला मैडम से मदद मांगी तो उन्होंने टका सा जवाब दे दिया,” देखो माया अभी तो अपने घर में ही खाने की सामग्री कब खत्म हो जाए पता नहीं . अभी न तुम्हारा घर से निकलना उचित है और न हमारे घर में ऐसा कोई है जो तुम्हें खाना दे कर आए. आई एम सॉरी. ”

“इट्स ओके .” बस इतना ही कह सकी थी मैं. इस के बाद मैं ने दिवाकर सर को फोन किया तो उन्होंने उस दिन तो खाना ला कर दे दिया मगर साथ में अपना एक्सक्यूज भी रख दिया कि माया अब रोज मैं खाना ले कर नहीं आ सकूंगा. मेरी बीवी भी तो सवाल करेगी न.

“जी मैं समझ सकती हूं . मुझे उन की उम्मीद भी छोड़नी पड़ी. अब मैं ने रमन जी को फोन किया जो हर समय मेरे लिए जान हाजिर करने की बात करते रहते थे. उन का घर भी लक्ष्मी नगर में ही था. हमेशा की तरह उन का जवाब सकारात्मक आया. शाम में खाना ले कर आने का वादा किया. रात हो गई और वह नहीं आए. मैं ने फोन किया तो उन्होंने फोन उठाया भी नहीं और एक मैसेज डाल दिया, सॉरी माया मैं नहीं आ पाऊंगा.

अब मेरे पास खाने की भारी समस्या पैदा हो गई थी. किराने की दुकान से ब्रेड और दूध ले आई. कुछ बिस्किट्स और मैगी भी खरीद ली. चाय बनाने के लिए इंडक्शन खरीदा हुआ था मैं ने. उसी पर किसी तरह मैगी बना ली. कुछ फल भी खरीद लिए थे. दोतीन दिन ऐसे ही काम चलाया मगर ऐसे पता नहीं कितने दिन चलाना था. 21 दिन का लॉकडाउन था. उस के बाद भी परिस्थिति कैसी होगी कहना मुश्किल था.

उस दिन मैं दूध ले कर आ रही थी तो गेट के बाहर वही लड़का जो सामने के घर में रहता है मिल गया. उस ने मुझ से वही पुराना सवाल किया,” कैसी हैं आप? सब ठीक है न? कोई परेशानी तो नहीं?”

“अब ठीक क्या? बस चल रहा है. मैगी और ब्रेड खा कर गुजारा कर रही हूं .”

“क्यों खाना बनाना नहीं जानती आप?

उस के सवाल पर मैं हंस पड़ी.

“जानती तो हूं मगर यहां कोई सामान नहीं है न मेरे पास. दोतीन महीने के लिए ही दिल्ली आई थी. अब तक ऑफिस कैंटीन और रामू काका के ढाबे में खाना खा कर काम चल जाता था. मगर अब तो सब कुछ बंद है न. अचानक लॉक डाउन से मुझे तो बहुत परेशानी हो रही है.”

“हां सो तो है ही. मेरी वाइफ भी 5-6 दिन पहले अपने घर गई थी. 1 सप्ताह में वापस आने वाली थी. संडे मैं उसे लेने जाता तब तक सब बंद हो गया. उस के घरवालों ने कहा कि अभी जान जोखिम में डाल कर लेने मत आना. सब ठीक हो जाए तो आ जाना. अब मैं भी घर में अकेला ही हूं.”

“तो फिर खाना?”

“उस की कोई चिंता नहीं. मुझे खाना बनाना आता है. ” उस के चेहरे पर मुस्कान खिल गई.

“क्या बात है! यह तो बहुत अच्छा है. आप को परेशानी नहीं होगी.”

“परेशानी आप को भी नहीं होने दूंगा. कल से मैं आप के लिए खाना बना दिया करूंगा. आप बिल्कुल चिंता न करें. कुछ सामान लाना हो तो वह भी मुझे बताइए. आप घर से मत निकला कीजिए. मैं हूं न.”

एक अनजान शख्स के मुंह से इतनी आत्मीयता भरी बातें बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा.” थैंक यू सो मच “मैं इतना ही कह पाई.

अगले दिन सुबहसुबह वह लड़का यानी अमर मेरे लिए नाश्ता ले कर आ गया. टेबल पर टिफिन बॉक्स छोड़ कर वह चला गया था. नाश्ते में स्वादिष्ट पोहा खा कर मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई. मैं दोपहर का इंतजार करने लगी. ठीक 2 बजे वह फिर टिफिन भर लाया. इस बार टिफिन में दाल चावल और सब्जी थे. मैं सोच रही थी कि किस मुंह से उसे शुक्रिया करूं. अनजान हो कर भी वह मेरे लिए इतना कुछ कर रहा है.

मैं ने उसे रोक लिया और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. वह थोड़ा सकुचाता हुआ बैठ गया. मैं बोल पड़ी ,” आई नो एक एक अनजान, अकेली लड़की के घर में ऐसे बैठना आप को अजीब लग रहा होगा. मगर मैं इस अजनबीपन को खत्म करना चाहती हूं. आप अपने बारे में कुछ बताइए न. मैं जानना चाहती हूं उस शख्स के बारे में जो मेरी इतनी हेल्प कर रहा है.”

“ऐसा कुछ नहीं माया जी. हम सब को एकदूसरे की सहायता करनी चाहिए.” बड़े सहज तरीके से उस ने जवाब दिया और फिर अपने बारे में बताने लगा,

“दरअसल मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं. मेरठ में मेरा घर है . स्कूल में हमेशा टॉप करता था. मगर घर के हालात ज्यादा अच्छे नहीं थे. सो इंटर के बाद ही मुझे नौकरी करनी पड़ी. करोल बाग में मेरा ऑफिस है. वाइफ भी मेरठ की ही है. बहुत अच्छी है. बहुत प्यार करती है मुझ से. हम दोनों की शादी पिछले साल ही हुई थी. दिल्ली आए ज्यादा समय नहीं हुआ है.”

“बहुत अच्छे. मैं भी दिल्ली में नई हूं. हमारे इस ऑफिस का एक ब्रांच जयपुर में भी है. वही काम करती थी मैं. यहां एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आई हुई हूं .अगर प्रमोशन मिल गया तो शायद हमेशा के लिए भी रहना पड़ जाए.”

अच्छा जी अब आप खाना खाएं. देखिए मैं ने ठीक बनाया है या नहीं.”

आप तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाते हैं. सुबह ही पता चल गया था. कह कर मैं हंस पड़ी. वह भी थोड़ा शरमाता हुआ मुस्कुराने लगा था. मैं खाती रही और वह बातें करता रहा.

अब तो यह रोज का नियम बन गया था. वह 3 बार मेरे लिए खाना बना कर लाता. मैं भी कभीकभी चाय बना कर पिलाती. किसी भी चीज की जरूरत होती तो वह ला कर देता . मुझे निकलने से रोक देता.

मेरे आग्रह करने पर वह खुद भी मेरे साथ ही खाना खाने लगा. हम दोनों घंटों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करते.

इस बीच मम्मी का जब भी फोन आता और वह चिंता करतीं तो मैं उन्हें समझा देती कि सब अच्छा है. मम्मी जब भी खाने की बात करतीं तो मैं उन्हें कह देती कि सरला मैडम मेरे लिए खाना बना कर भेज देती हैं. कोई परेशानी की बात नहीं है.

इधर अमर की वाइफ भी फोन कर के उस का हालचाल पूछती. चिंता करती तो अमर कह देता कि वह ठीक है. अपने अकेलेपन को टीवी देख कर और एक्सरसाइज कर के काट रहा है.

हम दोनों घरवालों से कही गई बातें एकदूसरे को बताते और खूब हंसते. वाकई इतनी विकट स्थिति में अमर का साथ मुझे मजबूत बना रहा था. यही हाल अमर का भी था. इन 15- 20 दिनों में हम एकदूसरे के काफी करीब आ चुके थे. और फिर एक दिन हमारे बीच वह सब हो गया जो उचित नहीं था.

अमर इस बात को ले कर खुद को गुनहगार मान रहा था. मगर मैं ने उसे समझाया,” तुम्हारा कोई दोष नहीं अमर. भूल हम दोनों से हुई है. पर इसे भूल नहीं परिस्थिति का दोष समझो. यह भूल हम कभी नहीं दोहराएंगे. मगर इस बात को ले कर अपराधबोध भी मत रखो. हम अच्छे दोस्त हैं और हमेशा रहेंगे. एक दोस्त ही दूसरे का सहारा बनता है और तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. मुझे खुशी है कि मुझे तुम्हारे जैसा दोस्त मिला.”

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर से भी तनाव की रेखाएं गायब हो गई और वह मंदमंद मुस्कुराने लगा.

Romantic Story: मौसमी बुखार – पति के प्यार को क्यों अवहेलना समझ बैठी माधवी?

Romantic Story, लेखिका – डा. मीरा दिक्षित

‘‘उठो भई, अलार्म बज गया है,’’ कह कर पत्नी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना राकेश ने फिर करवट बदल ली.

चिडि़यों की चहचहाहट और कमरे में आती तेज रोशनी से राकेश चौंक कर जाग पड़ा, ‘‘यह क्या तुम अभी तक सो रही हो? मधु…मधु सुना नहीं था क्या? मैं ने तुम्हें जगाया भी था. देखो, क्या वक्त हो गया है? बाप रे, 8…’’

जल्दी से राकेश बिस्तर से उठा तो माधवी के हाथ से अचानक उस का हाथ छू गया, वह चौंक पड़ा. माधवी का हाथ तप रहा था. माधवी बेखबर सो रही थी. राकेश ने एक चिंता भरी नजर उस पर डाली और सोचने लगा, ‘यदि मौसमी बुखार ही हो तो अच्छा है, 2-3 दिन में लोटपोट कर मधु खड़ी हो जाएगी. अगर कोई और बीमारी हुई तो जाने कितने दिन की परेशानी हो जाए,’ सोचतेसोचते राकेश बच्चों को जगाने पहुंचा.

चाय बना कर माधवी को जगाते हुए राकेश बोला, ‘‘उठो, मधु, चाय पी लो.’’

माधवी ने आंखें खोलीं, ‘‘क्या समय हो गया? अरे, 9. आप ने मुझे जगाया नहीं. आज बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे?’’

राकेश मुसकरा कर बोला, ‘‘बच्चे तो स्कूल गए, तुम क्या सोचती हो, मैं कुछ कर ही नहीं सकता. मैं ने उन्हें स्कूल भेज दिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘चिंता न करो. टिफिन दे कर ही भेजा है.’’

माधवी को खुशी भी हुई और अचंभा भी कि राकेश इतने लायक कब से बन गए? वह सोई रह गई और इतने काम हो गए.

राकेश पुन: बोला, ‘‘मधु और बिस्कुट लो, तुम्हें बुखार लगता है. यह रहा थर्मामीटर. बुखार नाप लेना. अब दफ्तर जा रहा हूं.’’

‘‘नाश्ता?’’

‘‘कर लिया है.’’

‘‘टिफिन?’’

‘‘जरूरत नहीं, वहीं दफ्तर में खा लूंगा. यह दवाइयों का डब्बा है, जरूरत के मुताबिक गोली ले लेना,’’ एक सांस में कहता हुआ राकेश कमरे से बाहर हो गया.

पर दूसरे ही पल फिर अंदर आ कर बोला, ‘‘अरे, दूध तो गैस पर ही चढ़ा रह गया,’’ शीघ्र ही राकेश थर्मस में दूध भर कर माधवी के पास रखते हुए बोला, ‘‘थोड़ी देर बाद पी ले.’’

राकेश के जाते ही माधवी सोचने लगी, ‘इतनी चिंता, इतनी सेवा,’ फिर भी खुश होने के बजाय उस का मन भारी होता जा रहा था, ‘इतना भी नहीं हुआ कि माथे पर हाथ रख कर देख लेते. खुद बुखार नाप लेते तो लाट- साहबी पर धब्बा लग जाता? कितने मजे से सब संभाल लिया. वही पागल है जो सोचती रहती है कि उस के बिना सब को तकलीफ होगी. दिन भर जुटी रहती है सब के आराम के लिए. देखो, सब हो गया न? उस के न उठने पर भी सब काम हो गया? वह सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी बन कर नाचती रहती है और सब उसे नचाते रहते हैं. आज तो सब को सबकुछ मिल गया न? लगता है सब जानबूझ कर उसे परेशान करते हैं.’

सोचतेसोचते माधवी का सिर दुखने लगा. चाय के साथ एक गोली सटक कर वह फिर लेट गई. झपकी आई ही थी कि बिन्नो की आवाज से नींद खुल गई, ‘‘बहूजी, आज दरवाजा कैसे खुला पड़ा है? अरे, लेटी हो. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

माधवी की आंखें छलछला आईं, ‘‘बिन्नो, जरा देखना, स्नानघर में कपड़े पड़े होंगे. धो देना. गीले कपड़े मेरी छाती पर बोझ बढ़ाते हैं. सब यह जानते हैं पर कपड़े ऐसे ही फेंक गए होंगे.’’

बिन्नो ने स्नानघर से ही आवाज लगाई, ‘‘बहूजी, स्नानघर एकदम साफ है. यहां तो एक भी कपड़ा नहीं.’’

‘क्या एक भी कपड़ा नहीं?’ विस्मय से माधवी ने सोचा. उस की मनोस्थिति ऐसी हो रही थी कि राकेश और बच्चों के हर कार्य से उसे अपनेआप पर अत्याचार होता ही महसूस हो रहा था.

बिन्नो ने काम खत्म कर के उस का सिर और हाथपैर दबा दिए. माधवी कृतज्ञता से भर गई, ‘घर वालों से तो महरी ही अच्छी है. बेचारी कितनी सेवा करती है, अब की दीवाली पर इसे एक अच्छी सी साड़ी दूंगी.’

कुछ तो हाथपैर दबाए जाने से और कुछ दवा के असर से दर्द कम हो गया था. इसलिए माधवी दोपहर तक सोती ही रही.

अचानक ही आंखें खुलीं तो प्रिय सखी सुधा को देख माधवी आश्चर्यमिश्रित खुशी से भर गई, ‘‘तू आज अचानक कैसे?’’

सुधा ने हंस कर कहा, ‘‘मन ने कहा और मैं आ गई,’’ सुधा सुरीले स्वर में गुनगुनाने लगी, ‘‘दिल को दिल से राह होती है. तू बीमार पड़ी है, अकेली है, कितने सही समय पर मैं आई हूं.’’

माधवी कुछ बोले बिना एकटक सुधा को देखती रही. फिर उस की आंखें छलछला आईं. सुधा ने अचरज से पूछा, ‘‘अरे, क्या हुआ?’’

भीगे हुए करुण स्वर में अपने दिन भर के विचारबिंदु एकएक कर सुधा के सामने परोस दिए माधवी ने. स्वार्थी राकेश और बच्चों के किस्से, उस की सेवाटहल में की गई कोताही, जानबूझ कर उस से फायदा उठाने के लिए की गई लापरवाहियों के किस्से, उदाहरण सब सुनाते हुए अंत में न चाहते हुए भी माधवी के मुंह से वह निकल गया जो उसे सवेरे से परेशान किए था, ‘‘देखो न, मेरे बिना भी तो सब का काम होता है. मेरी इन लोगों को जरूरत ही क्या है? सवेरे 6 से 9 बजे तक चकरघिन्नी की तरह नाचती हूं. मुझ से तो राकेश ज्यादा कार्यकुशल है, सुबह फटाफट बच्चों को स्कूल भेज दिया.’’

सुधा मुंह दबा कर मुसकान रोक रही थी. उस पर नजर पड़ते ही  माधवी भभक उठी, ‘‘तुम हंस रही हो? हंसो, मैं ने बेवकूफी में जो इतने साल गंवाएं हैं, उन के लिए तुम्हारा हंसना ही ठीक है.’’

सुधा ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘सच मधु, तुम बहुत भोली हो,’’ फिर गंभीर होते हुए समझाने लगी, ‘‘क्या मैं अपनेआप आ गई हूं? राकेश भैया ने ही मुझे फोन किया था कि आप की मित्र बहुत बीमार है, कृपया दोपहर में उन्हें देख आइएगा. जरूरत पड़े तो डाक्टर को दिखा दीजिए.’’

‘‘अब यही बचा है? मेरी बीमारी का ढिंढ़ोरा सारे शहर में पीटना था. खुद नहीं दिखा सकते थे डाक्टर को? डाक्टर की बात छोड़ो, माथा तक छू कर नहीं देखा. क्या पहले कभी मुझे छुआ नहीं?’’

सुधा हंस कर बोली, ‘‘खुद छुआ है भई, इस में क्या शक है? पर मधु इतना गुस्सा केवल इसीलिए कि माथा छू कर बुखार नहीं देखा? तुम्हें डाक्टर को दिखाने के लिए क्या वे बिना छुट्टी लिए घर बैठ जाते? तुम्हीं सोचो जो काम तुम 3 घंटे में करती हो, बेचारे ने इतनी जल्दी कैसे किया होगा?’’

‘‘यही तो बात है, मेरी उन्हें अब जरूरत ही नहीं. इतने कार्यकुशल…’’

‘‘खाक कार्यकुशल,’’ सुधा गुस्से से बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारे आराम के लिए खुद कितनी परेशानी उठाई उन्होंने? इस में तुम्हें उन का प्यार नहीं दिखता? अच्छा हुआ, मैं आ गई. डाक्टर से ज्यादा तुम्हें मेरी जरूरत थी. ऐसा करो, आंखों से गुस्से की पट्टी उतार कर देखो चुपचाप. आंखें खुली, जबान बंद. सब पता लग जाएगा कि सचाई क्या है और उन लोगों को तुम्हारी कितनी जरूरत है? तुम्हारी चिंता कम करने के लिए ही वे सब तुम्हारी देखभाल कर रहे हैं.’’

माधवी को सुधा की बातें कुछ समझ आईं, कुछ नहीं पर उस ने तय किया कि जबान बंद और आंखें खुली रख कर देखने की कोशिश करेगी. शाम को एकएक कर सब घर लौटे. पहले बच्चे, फिर राकेश. उस ने आते ही पूछा, ‘‘क्या हाल है? बिन्नो आई थी? दवा ली?’’

‘‘हां, एक गोली ली थी,’’ माधवी ने धीरे से कहा.

ठीक है, आराम करो. और कोई तो नहीं आया था?’’

‘‘नहीं तो. किसी को आना था क्या?’’

‘‘नहीं भई, यों ही पूछ लिया.’’

‘‘हां, याद आया, सुधा आई थी,’’ माधवी बोली. सुनते ही राकेश के चेहरे पर इतमीनान झलक उठा. वह उत्साह से बोला, ‘‘चलो बच्चो, दू पी लो. फिर हम सब खिचड़ी बनाएंगे.’’

गुडि़या सोचते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमें खिचड़ी बनानी तो आती नहीं है.’’

‘‘अच्छा, तो क्या बनाना आता है?’’

गुडि़या चुप हो गई क्योंकि उसे तो कुछ भी बनाना नहीं आता था. उसे देख कर सब हंसने लगे.

राकेश उत्साहपूर्वक बोला, ‘‘चलो, हम सब मिल कर बनाएंगे. तुम्हारी मां आराम करेंगी.’’

रसोई से आवाजें आ रही थीं. माधवी सुन रही थी, ‘‘पिताजी, चावलदाल बीनने होंगे?’’

‘‘नहीं बेटा, धो कर काम चल जाएगा.’’

‘‘पर पिताजी मां तो शायद बीनती भी हैं.’’

‘‘शायद न? तुम्हें पक्का तो नहीं मालूम?’’

माधवी का मन हुआ कि चिल्ला कर बता दे, ‘चावल, दाल बीने जाएंगे,’ पर फिर सोचा, ‘हटाओ, कौन उस से पूछने आ रहा है जो वह बताने जाए?’

खिचड़ी बन कर आई. राकेश ने पहली प्लेट उसी को पेश की. पहला चम्मच मुंह में डालते ही कंकड़ दांतों के नीचे बज गया. सब एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोचार कौर के बाद राकेश ने खिसियाते हुए कहा, ‘‘कंकड़ हैं खिचड़ी में.’’

पप्पू बोला, ‘‘पिताजी, कहा था न कि चावल, दाल बीनने पड़ेंगे.’’

‘‘चुप, पिताजी क्या रोज बनाते हैं? जैसा मालूम था बेचारों को वैसा बना दिया,’’ गुडि़या पप्पू को घूरते हुए बोली.

‘‘बेटा, डबलरोटी खा लो,’’ राकेश ने धीरे से कहा.

‘‘पिताजी, सवेरे से बस डबलरोटी ही तो खा रहे हैं. नाश्ते में, टिफिन में, दूध के साथ, अब फिर?’’ पप्पू गुस्से से बोला. गुडि़या बिगड़ कर बोली, ‘‘तू एकदम बुद्धू है क्या? मां इतनी बीमार हैं, एक दिन डबलरोटी खा कर तू दुबला हो जाएगा? पिताजी ने भी सवेरे से क्या खाया है? कितने परेशान हैं?’’

गुडि़या की इस बात से कमरे में  सन्नाटा छा गया. सब अपनीअपनी प्लेटों के सामने चुप बैठे थे.

पप्पू अपनी प्लेट छोड़ कर उठा और मां की बगल में लेटता हुआ बोला, ‘‘मां, आप कब ठीक होंगी? जल्दी ठीक हो जाइए, कुछ सही नहीं चल रहा है.’’

गुडि़या मां का सिर दबाते हुए बोली, ‘‘अभी चाहें तो और आराम कर लीजिए, हम लोग काम चला लेंगे.’’

राकेश ने माधवी का माथा छू कर कहा, ‘‘अब लगता है, बुखार कम है.’’

माधवी आनंद की लहरों में डूबती उतराती उनींदे स्वर में बोली, ‘‘तुम सब जा कर होटल से खाना खा आओ.’’

‘‘और तुम?’’ राकेश के प्रश्न के जवाब में असीम तृप्ति से उस का हाथ अपने माथे पर दबा कर माधवी ने कहा, ‘‘मैं अब सोऊंगी.’’

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