ट्रस्ट एक प्रयास : भाग 1

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

हम सब अपनीअपनी जिंदगी में कितने ही सपने देखते हैं. कुछ टूटते हैं तो कुछ पूरे भी हो जाते हैं. बस, जरूरत है तो मात्र ‘प्रयास’ की. कई बार सिर्फ एक शब्द जिंदगी के माने बदल देता है. मेरी जिंदगी में भी एक शब्द ‘ट्रस्ट’ ने जहां मेरा दिल तोड़ा वहीं उसी शब्द ने मेरे सब से खूबसूरत सपने को भी साकार किया.

अंगरेजी के शब्द ट्रस्ट का हिंदी में अर्थ है ‘विश्वास’ और इस छोटे से शब्द में कितना कुछ छिपा हुआ है. उफ, कितनी आहत हुई थी, जब अपनों से ही धोखा खाया था.

आलोक मेरे सामने खडे़ थे. मैं अभीअभी रजिस्ट्रार आफिस से सब बंधनों से मुक्त हो कर आई थी.

‘‘नैना, क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘आलोक, मुझे आप पर पूरा विश्वास है लेकिन हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे.’’

मेरी आंखों के सामने बाऊजी का चेहरा आ रहा था और उन्हें याद करतेकरते वे फिर भर आईं.

मेरी आंखें गंगायमुना की तरह निरंतर बह रही थीं तो मन अतीत की गलियों में भटक रहा था जो भटकतेभटकते एक ऐसे दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से मायके के लिए कोई रास्ता जाता ही नहीं था.

मेरा विवाह कुछ महीने पहले ही हुआ था. शादी के कुछ समय बाद आलोक और मैं सिंगापुर गए हुए थे. आलोक का यह बिजनेस ट्रिप था. हम दोनों काफी समय से सिंगापुर में थे. बाऊजी से फोन पर मेरी बात होती रहती थी. अचानक एक दिन बड़े भैया का होटल में फोन आया, ‘नैना, बाऊजी, नहीं रहे.’

ये भी पढ़ें- अंतत -भाग 3: जीत किस की हुई

मुझे नहीं पता कब आलोक ने वापसी की टिकटें बुक कराईं और कब हम लोग सिंगापुर से वापस भारत आए.

बरामदे में दरी बिछी हुई थी. बाऊजी की तसवीर पर माला चढ़ी हुई थी. उन के बिना घर कितना सूनासूना लग रहा था. पता लगा कि भाई हरिद्वार उन की अस्थियां प्रवाहित करने गए हुए थे.

‘नैना, तू आ गई बेटी,’ पीछे पलट कर देखा तो वर्मा चाचा खडे़ थे. उन्हें देख मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

‘चाचाजी, अचानक बाऊजी कैसे चले गए.’

‘बेटी, वह काफी बीमार थे.’

‘लेकिन मुझे तो किसी ने नहीं बताया. यहां तक कि बाऊजी ने भी नहीं.’

‘शायद वह नहीं चाहते थे कि तुम बीमारी की खबर सुन कर परेशान हो, इसलिए नहीं बताया.’

लेकिन भाइयों ने भी मुझे उन के बीमार होने की खबर देने की जरूरत नहीं समझी थी. मैं पूछना चाहती थी कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया? लेकिन शब्द थे कि जबान तक आ ही नहीं रहे थे. वर्मा चाचाजी ने बताया कि आखिरी समय तक बाऊजी की आंखें मुझे ही ढूंढ़ रही थीं.

घर वापस आ कर मैं चुपचाप लेटी रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि बाऊजी अब इस दुनिया में नहीं रहे.

बाऊजी मेरे लिए सबकुछ थे क्योंकि होश संभालने के बाद से मैं ने उन्हें ही देखा था. बडे़ भाई विजय और अजय दोनों मुझ से उम्र में काफी बडे़ थे. बेहद सरल स्वभाव के बाऊजी डी.ए.वी. स्कूल की एक शाखा में प्रिंसिपल थे और स्कूल से लौटने के बाद का सारा समय वह मेरे साथ बिताते थे.

मां को तो मैं बचपन में ही खो चुकी थी लेकिन बाऊजी ने मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. वह कहानियां भी लिखा करते थे. उन की उपदेशात्मक कहानियां मुझे आज भी याद हैं. एक बार उन्होंने मुझे कृष्ण की जन्मकथा सुनाई और पूछा कि नैना, बताओ, कृष्ण पर किस का ज्यादा हक है? यशोदा का या देवकी का? मेरे द्वारा यशोदा का नाम लेते ही उन का चेहरा खुशी से खिल उठा था.

उस समय तो नहीं लेकिन कुछ वर्षों के बाद बाऊजी ने एक रहस्य से परदा उठाया था. वह नहीं चाहते थे कि मुझे किसी और से पता चले कि मैं उन की गोद ली हुई बेटी हूं. हां, मैं उन की सगी संतान नहीं थी लेकिन शायद उन्हें अपने प्यार व मुझे दिए हुए संस्कारों पर पूरापूरा विश्वास था. इसीलिए मेरे थोड़ा समझदार होते ही उन्होंने खुद ही मुझे सच से अवगत करा दिया था.

अतिशयोक्ति नहीं होगी, मैं कुछ देर के लिए सकते में अवश्य आ गई थी लेकिन बाऊजी के प्यार व उन की शिक्षा का ऐसा असर था कि मैं बहुत जल्द सामान्य हो गई थी.

ये भी पढ़ें- ऐसा तो होना ही था

खुद से ही यह सवाल किया था कि क्या कभी उन के प्यार में बनावट या पराएपन का आभास हुआ था? नहीं, कभी नहीं. कितने स्नेह से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘मेरी बेटी, तुम तो मेरे लिए इस दुनिया का सब से नायाब तोहफा हो. तुम मेरी बेटी हो इसलिए नहीं कि तुम्हें हमारी जरूरत थी बल्कि इसलिए क्योंकि हमें तुम्हारी जरूरत थी. तुम्हारे आने के बाद ही हमारा परिवार पूर्ण हुआ था.’

बाऊजी को सब लोग बाबूजी या लालाजी कह कर पुकारते थे लेकिन मैं अपनी तोतली बोली में उन्हें बचपन में ‘बाऊजी’ कहा करती थी और जब बड़ी हुई तो उन्होंने बाबूजी की जगह बाऊजी ही कह कर पुकारने को कहा. उन्हें मेरा बाऊजी कहना बहुत अच्छा लगता था.

ये भी पढ़ें- अधूरे प्यार की टीस

बाऊजी ने बताया था कि मां हर त्योहार या किसी भी खुशी के मौके पर अनाथाश्रम जाया करती थीं. एक बार उन्होंने आश्रम में एक छोटी सी बच्ची को रोते देखा. इतना छोटा बच्चा, आज तक आश्रम में नहीं आया था. रोती हुई वह बच्ची मात्र कुछ हफ्तों की थी और उसे अपनी मां की गोद भी नसीब नहीं हुई थी. पता नहीं किस निर्मोही मां ने अपनी बच्ची का त्याग कर दिया था.

‘पता नहीं क्या सम्मोहन था उस बच्ची की आंखों में कि प्रकाशवती यानी तुम्हारी मां अब हर रोज उस बच्ची को देखने जाने लगीं और किसी दिन न जा पातीं तो बेचैन हो जाती थीं. एक दिन मैं और तुम्हारी मां आश्रम पहुंचे. जैसे ही बच्ची आई उन्होंने उसे उठा लिया. बच्ची उन की गोद से वापस आया के पास जाते ही रोने लगी. यह देख कर मैं चकित था कि इतनी छोटी सी बच्ची को ममता की इतनी सही पहचान.

‘प्रकाशवती अब मुझ पर उस बच्ची को गोद लेने के लिए जोर डालने लगीं. दरअसल, उन्हें बेटी की बहुत चाह थी, जबकि मैं  ‘हम दो हमारे दो’ का प्रण ले चुका था. बच्ची को देखने के बाद उन की बेटी की इच्छा फिर से जागने लगी थी. मैं ने प्रकाशवती को समझाया कि बच्ची बहुत छोटी है. बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होगा. लेकिन वह टस से मस न हुईं. आखिर मुझे उन की जिद के आगे झुकना ही पड़ा. वैसे एक बात कहूं, बेटी, मन ही मन मैं भी उस बच्ची को चाहने लगा था. बस, वह बच्ची कुछ ही दिनोें में नैना के रूप में हमारी जिंदगी में बहार बन कर मेरे घर आ गई.’

मैं डबडबाई नजरों से बाऊजी को निहारती रही थी.

‘लेकिन ज्यादा खुशी भी कभीकभी रास नहीं आती. तुम अभी 2 साल की भी नहीं हुई थीं कि तुम्हारी मां का निधन हो गया. दोनों बेटे बडे़ थे, खुद को संभाल सकते थे लेकिन जब तुम्हें देखता था तो मन भर आता था.

‘एक बार किसी जानकार ने तुम्हें ‘बेचारी बिन मां की बच्ची’ कह दिया. मुझे बहुत खला था वह शब्द. बस, मैं ने उस दिन से ही फैसला कर लिया था कि प्रकाशवती की बेटी को किसी भी तरह की कमी नहीं होने दूंगा. कोई उसे बेचारी कहे, ऐसी नौबत ही नहीं आने दूंगा. उस के बाद से ही तुम्हारे भविष्य को ले कर बहुत कुछ सोच डाला.’

ट्रस्ट एक प्रयास : भाग 2

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

उफ, बाऊजी ने मुझे इतनी अच्छी परवरिश दी थी लेकिन लानत है मुझ पर जो आखिरी समय उन की सेवा न कर सकी. वह लाड़ करते  हुए मुझ से कहते थे कि किसी ने सच ही कहा है कि बेटी सारी जिंदगी बेटी ही रहती है. लेकिन मैं ने क्या फर्ज पूरे किए बेटी होने के?

आलोक ने मुझे बहुत समझाया कि इस सब में मेरी कोई गलती नहीं थी. हमें यदि समय पर खबर की जाती और तब भी न पहुंचते तब गलत था. उन की बातें ठीक थीं लेकिन दिल को कैसे समझाती.

बहुत गुस्सा था मन में भाइयों के लिए. बाऊजी की क्रिया थी. पगड़ी की रस्म के बाद आलोक किसी जरूरी काम से चले गए पर मैं वहीं रुकी थी. जब सब लोग चले गए तो मैं जा कर भाइयों के पास बैठ गई.

‘भैया, आप लोगों ने मुझे खबर क्यों नहीं की? बाऊजी आखिरी समय तक मेरी राह देखते रहे.’

‘नैना, जो बात करनी है, हम से करो,’ तीखा स्वर गूंजा तो मैं चौंक पड़ी. सामने दोनों भाभियां लाललाल आंखों से मुझे घूर रही थीं.

मैं थोड़ी सी अचकचा कर बोली, ‘भाभी, क्या बात हो गई. आप सब मुझ से नाराज क्यों हैं?’

‘पूछ रही हो नाराज क्यों हैं? पता नहीं तुम ने बाबूजी को क्या पट्टी पढ़ा दी कि उन्होंने हमारा हक ही छीन लिया,’ जवाब में छोटी भाभी बोलीं तो मैं तिलमिला गई.

बस, फिर क्या था, दोनों भाभियों ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाईं और उस का सार था कि बाऊजी ने मेरे बहकावे में आ कर मकान में मेरा भी हिस्सा रखा था. बाऊजी के इलाज पर खर्चा उन लोगों ने किया, सेवा उन लोगों ने की इसीलिए केवल उन लोगों का ही मकान पर हक बनता था.

ये भी पढ़ें- बैकुंठ : धर्मकर्म की चादर में थे श्यामाचरण

मैं ने भाइयों की ओर देखा तो बडे़ भाई विजय मुझ से नजरें चुरा रहे थे. इस का मतलब था कि मकान के गुस्से में आ कर इन लोगों ने मुझे बाऊजी के बीमार होने की खबर नहीं की थी.

मैं ने बाऊजी की तसवीर की ओर देखा, वह मुसकरा रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, छोटी भाभी ने ऐसी बात कह दी कि मेरे पांव तले की जमीन खिसक गई. उन्होंने कड़वाहट से कहा, ‘पता नहीं बाबूजी को बाहर वालों पर इतना तरस क्यों आता था. न जात का पता न मांबाप का, बस, ले आए उठा कर.’

मुझ से और नहीं सुना गया. मैं उठ खड़ी हुई. मेरे दोनों बडे़ भाई एकदम से मेरे पास आ कर बोले, ‘नैना, दरअसल हम पर बहुत उधार है और मकान बेच कर हम यह उधार चुकाएंगे, इसलिए ये दोनों परेशान हैं. हम ने तो इन से कहा था कि नैना को हम अपनी परेशानी बताएंगे तो वह हमारे साथ रजिस्ट्रार आफिस जा कर ‘रिलीज डीड’ पर साइन कर देगी. ठीक कहा न?’

सच क्या था, मैं अच्छी तरह समझती थी. मैं मरी सी आवाज में केवल यही पूछ पाई कि कब चलना है, और अगले ही दिन हम रजिस्ट्रार आफिस में बैठे हुए थे.

मेरे आगे कई कागज रखे गए. मैं एकएक कर के सब कागजों पर अंगूठा लगाती गई और अपने हस्ताक्षर भी करती गईर्र्र्र्. हर हस्ताक्षर पर भाई का प्यारदुलार, मेरा रूठना उन का मनाना मेरी आंखों के आगे आता चला गया. वहीं बैठे एक आदमी ने जब मुझ से उन कागजों को पढ़ने के लिए कहा, तो मेरा मन भर आया था. क्या कहती उस से कि मेरा तो मायका ही सदा के लिए छिन गया. बाऊजी क्या गए सब ने मुंह ही फेर लिया. भाभियां तो फिर पराई थीं लेकिन भाइयों की क्या कहूं. वे भी पराए हो गए.

भाइयों को जो चाहिए था वह उन्हें मिल गया लेकिन मेरा सबकुछ छिन गया. मेरे बाऊजी, मेरा मायका, मेरा बचपन. लगा, जैसे अनाथ तो मैं आज हुई हूं.

शायद मैं यानी नैना, जिस पर बाऊजी कितना गर्व करते थे, उस रोज टूट गई थी. घर पहुंची तो आलोक कहीं फोन मिला रहे थे.

‘कहां चली गई थीं तुम? पता है कहांकहां फोन नहीं किए?’ वह चिल्ला पडे़ लेकिन मेरी हालत देख कर कुछ नरम पड़ते हुए पूछा, ‘नैना, कहां थीं तुम?’

क्या कहती उन्हें. वह मेरे पास आए और बोले, ‘तुम्हारे वर्मा चाचाजी ने यह पैकेट तुम्हारे लिए भिजवाया था.’

मैं चुपचाप बैठी रही.

वह आगे बोले, ‘लाओ, मैं खोल देता हूं.’

वह जब पैकिट खोल रहे थे तो मैं अंदर कमरे में चली गई.

कुछ देर बाद वह भी मेरे पीछेपीछे कमरे में आ गए और बोले, ‘नैना, आखिर बात क्या हुई. कल से देख रहा हूं तुम हद से ज्यादा परेशान हो.’

ये भी पढ़ें- ऊंच नीच की दीवार : क्या हो पाई उन दोनों की शादी

कब तक छिपाती उन से. वैसे छिपाने का फायदा क्या और बताने में नुकसान क्या. रिश्ता तो उन लोगों ने लगभग तोड़ ही दिया था. मैं ने आलोक को एकएक बात बता दी.

वह कुछ देर के लिए सन्न रह गए. कुछ देर बाद बोले, ‘नैना, कितना सहा तुम ने. तुम्हें क्या जरूरत थी उन लोगों के साथ अकेले रजिस्ट्रार आफिस जाने की. मुझे इस लायक भी नहीं समझा. कल रात से मैं तुम से पूछ रहा था लेकिन तुम ने कुछ नहीं बताया. वहां से इतना कुछ सुनना पड़ा फिर भी उन लोगों की हर बात मानती चली गईं. द फैक्ट इज, यू डोंट ट्रस्ट मीं. सचाई तो यह है कि तुम्हें मुझ पर भरोसा ही नहीं है,’ कह कर वह दूसरे कमरे में चले गए.

जेहन में जैसे ही भरोसे की बात आई मुझे लगा जैसे किसी ने झकझोर कर मुझे जगा दिया हो. मैं अतीत से निकल वर्तमान में आ गई.

‘‘आलोक, क्या कह रहे हैं आप. मैं आप पर भरोसा नहीं करती.’’

ट्रस्ट एक प्रयास

टीनऐजर्स लव : वासना के बीच की महीन सीमारेखा

टीनऐजर्स लव : भाग 3

असल तूफान तो उस के बाद आया जब समर अचानक अस्मिता से दूर होने लगा. फिर 6 महीने में सबकुछ बदल गया था. अब सिर्फ अस्मिता उसे फोन करती थी. और…समर, अस्मिता का फोन भी नहीं उठाता था. वह अब उस से बात नहीं करना चाहता था. जब उस की मरजी होती, मिलने को बुलाता, पर उस दौरान भी बात नहीं करता. ऐसा लगता था जैसे वह जिस्म की भूख मिटा रहा है.

अस्मिता उस से प्यार करती थी, लेकिन वह अस्मिता को सिर्फ इस्तेमाल कर रहा था.

अस्मिता की तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी. वह खुद से नफरत करने लगी थी. उस का आत्मविश्वास हिल गया था. वह अकसर अपनेआप से कहती, ‘मैं इतनी बेवकूफ कैसे हो सकती हूं? मैं अंधों की तरह एक मृगतृष्णा की ओर भागती जा रही हूं.’  वह घंटों रोती.

ये भी पढ़ें- आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा

निराशा उस की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी थी. इस हार को बरदाश्त न कर पाते हुए इसी बीच अस्मिता बारबार समर को वापस लाने की नाकाम कोशिश करने लगी. उसे मेल भेजना, प्रेम गीत भेजना, कभीकभी गाली लिख कर भेजना, अब यही उस का काम था.

इसी बीच, एक दिन-

समर : तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कि मैं तुम से अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता? मुझे दोबारा फोन मत करना.

अस्मिता : देखो, तुम क्यों ऐसा कर रहे हो? मुझे पता है कि तुम भी मुझ से प्यार करते हो, लेकिन क्या है जिस से तुम परेशान हो?

समर : ऐसा कुछ नहीं है. हमारा रिश्ता आगे नहीं बढ़ सकता. मुझे जिंदगी में बहुतकुछ करना है. मेरे पास इन चीजों के लिए वक्त नहीं है.

अस्मिता : नहीं, देखो समर, प्लीज मेरी बात सुनो. हम दोस्त बन कर भी तो रह सकते हैं? हम इस रिश्ते को वक्त देते हैं. अगर कई साल बाद भी तुम को ऐसा ही लगा. तब सोचेंगे.

समर : तुम पागल हो, मेरे पास फालतू वक्त नहीं है. मेरी एक गर्लफ्रैंड है. और मैं तुम से आगे कभी बात नहीं करना चाहता.

टैलीफोन की यह बातचीत अस्मिता को आज भी याद है. यह उन दोनों के बीच आखिरी बातचीत थी.

इसे सुन कर कोईर् भी कह सकता है कि अस्मिता बेवकूफ थी, भ्रम में जी रही थी. लेकिन वह भी क्या करती? कुल 16 की थी, और उसे लगता था, सब फिल्मों की तरह ही होता है. ‘जब वी मेट’ फिल्म से वह काफी प्रभावित थी. वैसे भी 16 का प्यार हो या 60 का, जब कोई प्यार में होता है, तो कुछ भी सहीगलत नहीं होता.

पर स्कूल में समर उस से बचता, नजरें छिपाता, अस्मिता उस से बात करने जाती तो वह झिड़क देता या दोस्तों के साथ मिल कर उस की खिल्ली उड़ाता, कहता, ‘‘कितनी बेवकूफ है जो उस की बातों में आ कर सबकुछ लुटा बैठी. उस ने तो यह सब एक शर्त के लिए किया था.’’

‘ओह, तो यह सिर्फ उस की एक चाल थी. काश, मैं पहले ही समझ जाती,’  वह घंटों रोती रही.

आज प्यार के मामले में भी उस का भरोसा टूट गया था. प्यार पर से विश्वास तो पहले ही  उठने लगा था.

वार्षिक परीक्षाएं सिर पर मंडरा रही थीं. वह खुद से जूझ रही थी. पर अस्मिता ने पढ़ाई या स्कूल बंद नहीं किया. यह शायद उस की अंदरूनी शक्ति ही थी जिस से वह उबर रही थी या उबरने की कोशिश कर रही थी. हालांकि चिड़चिड़ाहट बढ़ रही थी और उस के बढ़ते चिड़चिड़ेपन से घर पर सब परेशान थे. अगर घर पर कोई कुछ जानना चाहता भी तो उस ने कभी नहीं बताया कि उस के साथ क्या हुआ है.

अस्मिता नई क्लास में आ गई थी. हर बार से नंबर काफी कम थे. समर ने नई कक्षा में पहुंच कर स्कूल ही बदल लिया था. यही नहीं, मोबाइल नंबर भी. अस्मिता के लिए यह सब किसी बहुत बड़े जलजले से कम न था. बात न करे पर रोज वह समर को देख कर ही अपना मन शांत कर लेती थी. पर अब तो…

अस्मिता ने खाना बंद कर दिया था. इस कारण उस की तबीयत बिगड़ रही थी.

बहुत मेहनत से उस ने समर का नया नंबर पता किया. समर ने फोन उठाया मगर सिर्फ इतना कहा, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे फोन करने की? किस से नंबर मिला तुम्हें? आइंदा फोन किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. मेरे पास तुम्हारे कुछ फोटोज हैं. मैं उन्हें सार्वजनिक कर दूंगा. फिर मत कहना, हा…हा…हा… और समर ने फोन काट दिया.’’

ये भी पढ़ें- साथ वाली सीट

समर के लिए यह सब खेल था, लेकिन अस्मिता के लिए वह पहला प्यार था. ‘कितनी बेवकूफ थी न मैं, जो अपने आत्मसम्मान को पीछे रख कर भी उसे मनाना और पाना चाहती थी,’ अस्मिता ने सोचा. अब उसे अपनेआप से घिन और नफरत सी होने लगी थी. अस्मिता खुद को खत्म करना चाहती थी.

लेकिन, दीपिका जो उस के अच्छे और बुरे दोनों ही पलों की सहेली थी, ने अस्मिता के मनोबल और उसे, एक हद तक टूटने नहीं दिया. उसे समझाया, ‘‘ऐसे एकतरफा रिश्तों से जिंदगी नहीं चलती. अगर आप किसी से प्यार करते हो और वह नहीं करता. तो आप चाहे जितनी भी कोशिश कर लो, कुछ नहीं हो सकता. और ऐसे में आत्मसम्मान सब से अहम होता है.’’ कहीं न कहीं अस्मिता की इस हालत की जिम्मेदार वह खुद को भी ठहराती थी.

उस ने कभी भी अस्मिता को अकेला नहीं छोड़ा. हर समय उसे टूटने से बचाया वरना इतना अपमान और असम्मान सहना किसी लड़की के लिए आसान नहीं था. दीपिका की कोशिश का ही नतीजा था कि इतने अपमान, असम्मान के बाद भी अस्मिता ने ठान लिया, ‘‘अब मैं नहीं रोऊंगी. मैं जिंदगी में आगे बढ़ूंगी, कुछ करूंगी. एक हादसे की वजह से मेरी पूरी जिंदगी खराब नहीं हो सकती.’’

अब वह समर को याद भी नहीं करना चाहती थी. समर उस की जिंदगी में अब कोई माने नहीं रखता. लेकिन उस के धोखे को वह माफ नहीं कर पाई. प्यार करना उस ने यदि समर से मिल कर सीखा तो प्यार का सही मतलब और वादे का सही मतलब, शायद समर को अस्मिता से समझना चाहिए था. समर ने सिर्फ प्यार ही नहीं, धोखा क्या होता है, यह भी समझा दिया था. समर से मिल कर उस के साथ रिश्ते में रह कर, अस्मिता का प्यार पर से यकीन उठ चुका अब. वाकई कितनी छोटी उम्र होती है ऐसे प्यार की. शायद सिर्फ शारीरिक आकर्षण आधार होता है. तभी तो इसे कच्ची उम्र का प्यार कहते हैं ‘टीनऐजर्स लव.’

टीनऐजर्स लव : भाग 1

‘‘आसमानी ड्रैस में बड़ी सुंदर लग रही हो, अस्मिता. बस, एक काम करो जुल्फों को थोड़ा ढीला कर लो.’’  अस्मिता कोचिंग क्लास की अंतिम बैंच पर खाली बैठी नोट बुक में कुछ लिख रही थी कि समर ने यह कह कर उन की तंद्रा तोड़ी.

यह कह कर वह जल्दी ही अपनी बैंच पर जा कर बैठ गया और पीछे मुड़ कर मुसकराने लगा. किशोर हृदय में प्रेम का पुष्पपल्लवित होने लगा और दिल बगिया की कलियां महकने लगीं. भीतर से प्रणयसोता बहता चलता गया. उस ने आंखों में वह सबकुछ कह दिया था जो अब तक पढ़ी किताबें ही कह पाईं.

अस्मिता इंतजार करने लगी कि ब्रैक हो, समर बाहर आए और मैं उस से कुछ कहूं. आधे घंटे का समय एक सदी के बराबर लग रहा था. ‘क्या कहूंगी? शुरुआत कैसे करूंगी? जवाब क्या आएगा,’ ये सब प्रश्न अस्मिता को बेचैन किए जा रहे थे. कुछ बनाती, फिर मिटाती. मन ही मन कितने ही सवाल तैयार करती, जो उसे पूछने थे और फिर कैंसिल कर देती कि नहीं, कुछ और पूछती हूं.

ये भी पढ़ें- पंडित जी : बुरा समय आया तो हो गए कंगाल

घंटी की आवाज अस्मिता के कानों में पड़ी. जैसे मां की तुतलाती बोली सुन कर कोई बच्चा दौड़ आता है, वह तत्क्षण क्लासरूम से बाहर आ गई. सोच रही थी कि वह अकेला आएगा. मगर हुआ इच्छा और आशा के प्रतिकूल. वह अपने दोस्तों से बतियाते हुए क्लासरूम से बाहर निकला. समर दोस्तों की टोली में बैठा गपें मार रहा था और चोर नजरों से उसे अकेला देखने की कोशिश भी कर रहा था. घर जाने का समय हो रहा था और आशाइच्छा धूमिल हो रही थी.

कहते हैं न, जब सब रास्ते बंद हो जाते हैं, तब कोई न कोई रास्ता अवश्य निकलता है. अस्मिता किसी काम से अकेली क्लास में आई और समर इसी ताक में था. अस्मिता के पास मात्र 2 मिनट का समय था और कहने को ढेर सारी बातें. उस ने समर के पास आने पर कहा, ‘‘तुम भी न, बहुत स्मार्ट हो.’’

समर ने थैंक्स कहते हुए अस्मिता की हथेली के पृष्ठ भाग पर अपने हाथ से स्पर्श किया. फिर धीरेधीरे उस की पांचों उंगलियां अस्मिता की उंगलियों में समा चुकी थीं. यह थी अस्मिता के जीवन की प्रथम प्रणय गीतिका. जीवन का मृदुल वसंत प्रारंभ हो चुका था. उन दोनों ने एकदूसरे को जी भर कर देखा.

तभी अस्मिता की कुछ सहेलियां क्लासरूम में आ गईं. प्रेममयी क्षणों के चलते दोनों को न ध्यान रहा, न कोई भान. वे उन दोनों की यह हरकत देख कर मुसकराईं और बाहर चली गईं. स्कूल की छुट्टी हुई. अस्मिता घर आ गई. रातभर सो नहीं पाई, करवटें बदलती रही. कब सुबह हो गई, पता ही न चला. सुबह फिर तैयार हो, स्कूल चली गई. उस दिन समर भी जल्दी आ गया था. अस्मिता ने ध्यान से समर की तरफ  देखा. समर ने स्कूलबैग क्रौस बैल्ट वाला डाला हुआ था, जोकि किसी बदमाश बच्चे की भांति इधरउधर हो रहा था.

‘‘हैलो,’’ समर ने अन्य लोगों की नजर से बचते हुए अस्मिता से कहा.

‘‘हाय समर, कैसे हो?’’ उस ने जवाब के साथ ही समर से प्रश्न किया.

‘‘मैं ठीक हूं और तुम से कुछ कहना चाहता हूं. क्या कह सकता हूं?’’

‘‘बिलकुल,’’ अस्मिता समर से मन ही मन प्यार करने लगी थी. कच्ची उम्र में ही उस ने समर को अपना सबकुछ मान लिया था.

‘‘क्या तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’ समर ने संकोच करते हुए कहा.

‘‘ओह हां, अच्छा, तो क्या करोगे नंबर का?’’ अस्मिता ने जानबूझ कर अनजान बनते हुए कहा.

‘‘मुझे तुम से कुछ कहना है,’’ समर ने कहा.

‘‘ओके, लिखो…97….’’ अस्मिता ने नंबर दे दिया.

‘‘थैंक्स.’’

एकदूसरे को देखते, हंसतेमुसकराते समय निकल रहा था जैसे मुट्ठी में से रेत देखते ही देखते उंगलियों के बीच की जगह से निकल जाती है.

ये भी पढ़ें- अपने लोग : आनंद ने आखिर क्या सोचा था

दोनों को ही छुट्टी होने की अधीर प्रतीक्षा थी. समर तो मन ही मन योजना बना रहा था…‘12 बजे छुट्टी होगी, 1 बजे यह घर पहुंचेगी, 2 बजे तक फ्री होगी और मुझे ठीक ढाई बजे कौल करना होगा.’ उस का दिमाग तेजगति से काम कर रहा था जैसे मार्च में अकाउंटैंट का दिमाग किया करता है. आखिर ढाई बज ही गए. समर ने बिना क्षण गंवाए, मोबाइल उठाया और अस्मिता का नंबर डायल किया.

पहली बार में तो अस्मिता ने कौल काट दी. फिर मिस्डकौल की. सामान्य औपचारिक बातचीत के बाद समर गंभीर मुद्दे पर आना चाहता था. शायद अस्मिता भी यही तो चाहती थी.

‘‘क्या तुम मुझ से इसी तरह रोज बात करोगी?’’ समर ने पूछा.

‘‘किसी लड़की के भोलेपन का फायदा उठा रहे हो?’’ अस्मिता ने जान कर प्रतिप्रश्न किया.

‘‘नहींनहीं, ऐसे ही, अगर तुम्हें उचित लगे तो,’’ समर ने शराफत दिखाते हुए कहा.

रुकरुक कर दिन में 5-6 बार बातें होने लगीं. समर कभी मिस्डकौल करता तो कभी जोखिम उठाते हुए सीधा कौल कर देता.

दिन बीतते गए, बातें बढ़ती गईं और उन दोनों के संबंधों में प्रगाढ़ता आती गई. हंसीमजाक, स्कूल की बातें, दोस्तोंसहेलियों के किस्से उन के विषय रहते थे. वे स्कूल में बहाना खोजते ताकि एकांत में बैठ कर प्यारभरी बातें कर सकें. रास्ते सुहाने होते गए, हलके स्पर्श में मिठास का एहसास होता.

एक दिन आया जब उन के प्रेम का जिक्र क्लास के हर स्टूडैंट की जबां पर तो था ही, टीचर्स के बीच में भी बात फैल गई और प्रधानाचार्य ने दोनों को स्टाफरूम में बुला कर ऐसी हरकतों के दुष्परिणामों से अवगत करवाया. उन दोनों ने भविष्य में इस प्रकार की गलती दोहराने की प्रतिबद्घता व्यक्त कर पीछा छुड़ा लिया.

ये भी पढ़ें- तुम टूट न जाना: वाणी और प्रेम की कहानी

अब लगभग सब लोग उन के बीच का सबकुछ जान चुके थे. यह वह वक्त था जब अर्धवार्षिक परीक्षाएं सिर पर थीं. दोनों को ही किताब खोले महीनों हो गए थे. अस्मिता अपनी बौद्धिकता के अहं में थी और समर अपने बौद्धिक होने के वहम में.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

टीनऐजर्स लव : भाग 2

एक रोज फोन पर समर कुछ उदास आवाज में बोला, ‘‘क्या मैं पास हो सकूंगा? मैं ने पढ़ा तो कुछ नहीं. तुम तो फिर भी होशियार हो, मेरा क्या होगा?’’

‘‘सब ठीक होगा, क्लास में तुम से कमजोर भी बहुत हैं,’’ अस्मिता ने उसे ढांढ़स बंधाते हुए कहा.

‘‘मैं क्या करूं बताओ? तुम से बात किए बिना एक पल भी नहीं रहा जाता. हर बार मोबाइल उठा कर देखता हूं कि कहीं तुम्हारा मैसेज या कौल तो नहीं आई, अस्मिता.’’

‘‘मेरा भी यही हाल है. सभी सखीसहेलियों, परिजनों के इतर जीवन अब सिर्फ तुम पर केंद्रित हो गया है. मेरी हर कल्पना, हर सपने का प्रधान किरदार तुम ही हो, समर. मैं इन सभी चीजों को ले कर मजाक में थी. मगर अब यह बेचैनी बताती है, छटपटाहट बताती है कि दिल पर अब मेरा बस नहीं रहा. अब मैं तुम्हारी हो गई हूं. पर क्या वह सब संभव है? मैं भी न, क्याक्या बकती जा रही हूं.’’

ये भी पढ़ें- तुम टूट न जाना: वाणी और प्रेम की कहानी

दिन बीतते गए, फोन पर उन की बातें चलती गईं. ‘‘कहीं मिलते हैं, कुछ घंटे साथ बिताते हैं, अब सिर्फ बातों से मन नहीं भरता, अस्मिता.’’ अब समर कभीकभी अस्मिता पर, घर से बाहर मिलने पर भी जोर डालने लगा.

एक दिन निश्चय किया कि कहीं एकांत में मिलते हैं. लेकिन कहां? यह प्रश्न था कि कहां मिला जाए. परेशानी को दूर किया अस्मिता की सहेली दीपिका ने. उसी ने रास्ता सुझाया. दीपिका ने कहा, ‘‘मैं अपनी मम्मी को अपनी बहन के साथ मूवी देखने के लिए भेज दूंगी. उन लोगों के जाते ही तुम दोनों मेरे फ्लैट में आ जाना. मैं बाहर से ताला लगा कर चली जाऊंगी. और ठीक 2 घंटे बाद आ कर ताला खोल दूंगी. अगर कोई आएगा भी तो समझेगा कि घर में कोई नहीं है. देख अस्मिता, तुझे समर के साथ समय बिताने का इस से अच्छा कोई मौका नहीं मिल सकता. तू और समर वहां खूब मस्ती करना.’’

समर को भी इस में कोई आपत्ति न थी. 2 दिन बाद मिलने का कार्यक्रम तय कर लिया गया. मौसम साफ था, हवा में संगीत था, पंछियों की कोमल आवाज मनमस्तिष्क में नव स्फूर्ति भर रही थी. नीयत स्थान और निश्चित समय. समर का पहला और आखिरी काम जो पूर्व तैयारी के साथ संपन्न होने जा रहा था वरना अब तक तो उस ने परीक्षा तक के लिए कोई तैयारी नहीं की थी.

तय दिन तय समय पर, अस्मिता समर के साथ दीपिका के फ्लैट पर पहुंची. प्लान के मुताबिक दीपिका ने अपनी मम्मी और बहन को नई मूवी देखने के लिए भेज दिया. वे दोनों फ्लैट के अंदर और बाहर ताला. लेकिन उन की ये सब गतिविधियां फ्लैट के सामने दूसरे फ्लैट में रहने वाले एक अंकल खिड़की से देख रहे थे.

उन्हें शायद कुछ गड़बड़ लगा. वे अपने फ्लैट से नीचे उतर कर आए और कालोनी के 2-3 लोगों को एकत्र कर धीरे से बोले, ‘‘यह जो फ्लैट है, अरे वही सामने, बख्शीजी का फ्लैट, उस में एक लड़का और एक लड़की बंद हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ दूसरे फ्लैट वाले अंकल ने पूछा.

‘‘मतलब… बख्शीजी की लड़की तो बाहर से ताला लगा गई है पर अंदर लड़कालड़की बंद हैं.’’

‘‘अरे, छोड़ो यार, हमें क्या मतलब. इस में नया क्या है? आजकल तो यह आम बात है,’’ दूसरे फ्लैट वाले अंकल टालते हुए बोले.

‘‘अमा यार, कैसी बात कर रहे हो? अपनी आंखों के सामने, यह गलत काम कैसे होने दूं्?’’

‘‘गलत?’’

‘‘हां जी, मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है दोनों को फ्लैट के अंदर जाते हुए.’’

तभी पड़ोस की एक आंटी भी आ गई, ‘‘क्या हुआ भाईसाहब?’’

‘‘अरे, सामने बख्शीजी के फ्लैट में एक लड़कालड़की बंद हैं,’’ पहले वाले अंकल बोले.

‘‘तो ताला तोड़ दो,’’ महिला ने मशवरा दिया.

‘‘नहीं, यह सही नहीं है, जिस का मकान है, उसे बुलाओ,’’ दूसरे अंकल ने सलाह दी.

शोर बढ़ता गया. लोग इकट्ठे होते चले गए. तभी कहीं से पुलिस का एक हवलदार भी पहुंच गया. लोगबाग दरवाजा पीटने लगे. ‘‘बाहर निकलो, दरवाजा खोलो…’’  बिना यह सोचेसमझे कि ताला तो बाहर से बंद है, तो दरवाजा खुलेगा कैसे?

प्लान के मुताबिक, दीपिका समय पूरा होने से 10 मिनट पहले वहां पहुंच गई, लेकिन भीड़ को देख कर एक बार वह भी घबरा गई. उस ने लोगों से वहां इकट्ठे होने का प्रयोजन पूछा और गुस्से में बोली, ‘‘मेरा फ्लैट है, मैं जानूं. आप लोगों को क्या मतलब?’’

ये भी पढ़ें- आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा

हवलदार ने दीपिका की हां में हां मिलाई और भीड़ से जाने के लिए कहा. और फिर दीपिका के पीछेपीछे वह भी सीढि़यां चढ़ने लगा. थोड़ी देर बाद हवलदार फ्लैट से वापस आया और बोला, ‘‘फ्लैट में तो कोई नहीं था. किस ने कहा कि वहां लड़कालड़की बंद हैं. फालतू में इतना शोर मचा दिया.’’

सामने के फ्लैट वाले अंकल चुपचाप वहां से गायब हो गए, लेकिन उन का दिमाग अभी भी चल रहा था…जैसे ही भीड़ छटी, दीपिका ने अस्मिता और समर को चुपचाप बाहर निकाल दिया. दरअसल, सीढि़यां चढ़ते समय ही दीपिका ने हवलदार को कुछ रुपए दे कर उस का मुंह बंद कर दिया था. जैसेतैसे आई हुई बला टल गई, लेकिन अस्मिता और समर को मुंह देख कर साफ पता लग रहा था कि उन्होंने इन 2 घंटों के दौरान कितना अच्छा समय बिताया होगा.

जब दोनों फ्लैट के अंदर थे तब समर ने कहा, ‘‘सौरी, जल्दीजल्दी में तुम्हारे लिए कोई उपहार लाना तो भूल ही गया.’’

‘‘तुम आ गए हो तो नूर आ गया है,’’ कहते हुए अस्मिता हंस पड़ी. तब दोनों ने हृदय के तार झंकृत हो उठे थे. दिल में एक रागिनी बज उठी थी. रहीसही कसर आंखों से छलकते प्रेम निमंत्रण ने पूरी कर दी थी. सहसा ही समर के हाथ उस के तन से लिपट गए और यह आलिंगन हजारोंलाखों उपहारों से कहीं ज्यादा था.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

साथ वाली सीट

साथ वाली सीट : भाग 1

लेखक- हेमंत कुमार

मालती और उस का परिवार संजय कालोनी की एक 8×8 फुट की झुग्गी में जबरदस्ती रहा करते थे. मालती से बड़ी और 2 बहनें थीं, जिन की शादी पिछले 2 सालों में हो चुकी थीं. अब उस पैर पसारने भर की झुग्गी में 3 लोग रह रहे थे, मालती और उस के मातापिता. मालती के पिता का भेलपुरी का ठेला था, जिस के सहारे उन की गुजरबसर हो जाती थी.

कालोनी की हर औरत चार पैसे फालतू कमाने के लिए झुग्गियों से निकल कर बाहर पौश इलाकों में अमीर लोगों के घरों में झाड़ूपोंछे का काम कर लिया करती थीं, पर मालती की मां ने पिछले कुछ सालों से बाहर काम पर जाना छोड़ दिया था.

ये भी पढ़ें- काश: क्या मालती प्रायश्चित्त कर सकी?

17 साल की मालती के अंदर भी अब जवानी के रंगरूप दिखाई देने लगे थे. उस के शरीर की बनावट में भी काफी फर्क आने लगा था.

मालती नगरनिगम के एक सरकारी स्कूल के पढ़ती थी, जो उस की झुग्गी से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर था. उस की कालोनी की बाकी लड़कियां भी उसी स्कूल में जाती थीं.

मालती और उस की सहेलियां स्कूल से घर आते समय रास्ते में खूब मस्ती किया करतीं. कभी किसी राह चलते लड़के को छेड़ दिया या किसी इमली वाले से उधार में इमली ले कर खा ली.

एक दिन स्कूल के बाहर जब मालती ने अपने ही पड़ोस की झुग्गी में नए रहने आए रघु को देखा, तो वह चौंक गई.

रघु अभी कुछ दिन पहले ही मालती के सामने वाली झुग्गी पर अपने मामा चरण दास के यहां आया था. उस का मामा भाड़े का टैंपो चलाता था और रघु के पास उस का अपना ईरिकशा था.

रघु जवान था. 22 साल का रहा होगा. कंधे चौड़े, सीना बाहर, रंग साफ, लंबाई भी कुछ साढ़े 5 फुट, पर अनपढ़.

सयानी मालती हमेशा रघु से बात करने के मौके तलाशती, पर मां के रहते ऐसा करना मुश्किल था. पर आज मालती अपनी सारी सहेलियों के साथ उस के ईरिकशा को आगे से घेर कर खड़ी हो गई, मानो उस रघु का अब सबकुछ छिनने वाला हो. पर उन लोगों ने तो सिर्फ मुफ्त में सवारी करने के लिए रघु के ईरिकशा को रोका था.

मालती ने फटाफट सब को पीछे वाली सीट पर बैठा दिया. जो कोई बचा, उसे एकदूसरे की गोद में और खुद सारी सीटें भर जाने के बहाने से रघु के साथ वाली सीट पर जा बैठी.

बेचारे रघु ने अभी कुछ ही दिनों पहले ईरिकशा चलाना शुरू किया था. उस के साथ वाली सीट पर अभी तक कोई लेडीज सवारी नहीं बैठी थी.

रघु थोड़ा हिचकिचाया, पर भला अपने पड़ोस की लड़की को घर छोड़ने से वह कैसे मना कर सकता था. मालती अपना बस्ता गोद में लिए उस के साथ वाली सीट पर जा बैठी. मालती के बदन की?छुअन से रघु थोड़ा घबराया.

मालती ने रघु से पूछा, ‘‘आज  स्कूल के बाहर कैसे?’’

‘‘जी, वह मैं घर जा ही रहा था, तो सोचा कि खाली रिकशा ले जाने से अच्छा क्यों न जातेजाते थोड़ी और सवारी बैठा लूं. आखिर हमारी मंजिल भी तो एक ही हैं,’’ रघु ने बताया.

‘‘पर, मैं ने तो आप का नुकसान करवा दिया,’’ मालती ने भोली सूरत बना कर रघु से कहा.

‘‘वह कैसे?’’ रघु ने मालती से हैरानी से पूछा.

‘‘अरे, इन्हें लगा कि आप पड़ोसी हैं तो पैसे नहीं लेंगे,’’ मालती ने पीछे बैठी अपनी सहेलियों की ओर इशारा करते हुए बताया.

लड़कियों ने अपनी मरजी से ही रघु के ईरिकशा का रेडियो चालू कर लिया था, जिस की वजह से मालती और रघु की आवाज उन तक नहीं पहुंच रही थी.

‘‘तो क्या गलत सोचा इन्होंने? मैं वैसे भी आप लोगों से पैसे नहीं लेता,’’ रघु ने पड़ोसी धर्म निभाते हुए कहा.

घर पहुंच कर रघु उस दिन सिर्फ मालती के बारे में ही सोचता रहा. अगले दिन फिर जब स्कूल से निकलते वक्त सामने रघु को ईरिकशा पर देखा तो मालती खिल उठी. आज रघु ने जानबूझ कर अपने साथ वाली सीट मालती के लिए बचा कर रखी थी.

मालती ने अपनी सहेलियों से कहा, ‘‘तुम लोग जाओ, आज मुझे जल्दी जाना है. मैं ईरिकशा से चली जाऊंगी.’’

मालती आज फिर बस्ता अपनी गोद में रख कर रघु से सट कर बैठ गई. दोनों में काफी छेड़छाड़ भरी बातें हुईं. हालांकि शुरुआत मालती ने की थी, पर अब रघु भी काफी खुल चुका था.

ये भी पढ़ें- प्यार की तलाश में: क्या सोहनलाल को मिला प्यार

उन दोनों को अब एकदूसरे से प्यार होने लगा. रघु अब सुबह भी मालती को ईरिकशा पर स्कूल छोड़ दिया करता और दोपहर को अपने साथ ले भी आता.

एक दिन रघु मालती को लालकिला घुमाने ले गया. दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर लालकिला घूमने लगे. पूरे दिन दोनों में खूब रंगीन बातें हुईं आखिर में शाम को रघु थक कर दीवानेआम के नजदीक गार्डन में मालती की गोद में सिर रख कर उसे अपने भविष्य के सपने दिखाने लगा, तभी मालती ने कहा, ‘‘हमारी शादी ऐसे नहीं हो सकती रघु.’’

‘‘क्यों?’’ रघु ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरे घर वालों और तुम्हारे मामा की वैसे भी नहीं बनती, ऊपर से यह लव मैरिज,’’ मालती ने अपनी दुविधा बताते हुए कहा.

‘‘तो चलो भाग चलें,’’ रघु ने बड़ी ही आसानी से मालती की ओर देखते हुए कहा.

मंदमंद मुसकराते हुए मालती ने दुपट्टे से मुंह को ढकते हुए अपने होंठ रघु के होंठ पर रख दिए और एक खुश्क हंसी अपने होंठों पर बिखेरी.

मालती की हंसी मानो कह रही हो कि वह रघु से सहमत है.

अगले दिन मालती स्कूल जाने के लिए रघु के ईरिकशा पर बैठी, तो उस के स्कूल बैग में किताबों की जगह कुछ कपड़े और जरूरी दस्तावेज थे.

दोनों ने भाग कर कोर्टमैरिज की और एक छोटा सा कमरा किराए पर ले कर रहने लगे.

कुछ दिन तो दोनों के परिवार वालों ने उन की तलाश की, फिर हार कर अपनी पुरानी जिंदगी में लौट आए.

मालती का पिता शर्मिंदा तो हुआ, पर उस के सिर से मालती की शादी का बहुत बड़ा बोझ कम हो गया था. मालती और रघु अपनी शादीशुदा जिंदगी से काफी खुश थे. देखते ही देखते मालती एक बच्ची की मां भी बन गई.

एक दिन रघु दोपहर को लंच करने के लिए अपने कमरे में आया. उस ने मालती को बताया, ‘‘कुछ दिनों में मेरा एक दोस्त उमेश गांव से आ जाएगा, तो उसे मैं अपना यह ईरिकशा किराए पर दे कर खुद नई ले लूंगा और ऐसे ही अपना धंधा बड़ा करता चला जाऊंगा.’’

पर बातबात पर बीड़ी पीने वाला रघु अकसर बीड़ी के पैकट पर दी हुई चेतावनी को नजरअंदाज कर जाता. रघु को कैंसर तो नहीं, पर टीबी की बीमारी ले डूबी.

एक दिन बहुत ज्यादा तबीयत बिगड़ जाने के चलते रघु को अस्पताल में भरती होना पड़ा. दिनोंदिन नए ईरिकशे के लिए जमा किए हुए पैसे और रघु के दिन कम होते जा रहे थे. रघु सूख कर आधा हो चुका था.

तकरीबन 3 दिन सरकारी अस्पताल में लेटे रहने के बाद चौथे दिन रघु को नींद आ ही गई. वह मर चुका था.

रघु की निशानी के तौर पर सिर्फ एक ईरिकशा और उस की बेटी ही मालती के पास रह गई थी. मालती गहरे गम के आगोश में अपनी जिंदगी गुजार रही थी. कमाई का भी कोई साधन न था.

ये भी पढ़ें- रिटायरमेंट : आखिर क्या चाहते थे शर्मा जी के लालची रिश्तेदार

मालती को अपनी और बेटी की चिंता खाए जा रही थी. मालती के मन में अकसर यह खयाल उठते, अब गुजरबसर कैसे होगी? बेटी का भविष्य क्या होगा? अकेली बेवा औरत का इस समाज में क्या होगा?

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

साथ वाली सीट : भाग 2

लेखक- हेमंत कुमार

ऐसे में एक दिन रघु का एक दोस्त हसन रघु के घर आया. हसन की रघु से अभी कुछ ही दिन पहले दोस्ती हुई थी. मालती ने उसे चायनाश्ता करवाया.

कुछ देर वह रघु की मौत पर मौन साधे बैठा रहा, फिर असली मुद्दे पर आ गया. उस ने मालती को दिलासा दिलाते हुए कहा, ‘‘भाभीजी, आप चिंता मत कीजिए, मैं चलाऊंगा रघु भाई का यह ईरिकशा और आप को रोज पूरे 300 रुपए किराया भी दूंगा.’’

मालती को भी आज नहीं तो कल यह करना ही था, इसलिए उस ने भी इस सौदे पर हामी भरते हुए सिर हिला दिया.

ये भी पढ़ें- रिटायरमेंट : आखिर क्या चाहते थे शर्मा जी के लालची रिश्तेदार

हसन अपने वादे मुताबिक रोज समय से मालती के घर उस का किराया देने आ जाया करता था. मालती की जिंदगी भी बस कट ही रही थी.

एक दिन हसन शराब के नशे में चूर हो कर मालती को किराया देने आया. चूल्हे की आग के सामने रोटी सेंकती मालती के माथे का पसीना उस के चेहरे और गालों से होता हुआ सीधा उस के उभारों पर जा कर ठहर रहा था.

यह देख कर हसन मदहोश हो गया. वह विधवा मालती को बिन मांगे ही पति का सुख देने को उतावला हो गया.

मालती ने हसन को बैठने को कहा, तो वह मौकापसंद बिस्तर पर ही पसर गया. मालती जानती थी कि इस समय वह नशे में है, इसलिए मालती अपनी बेटी के साथ वहीं नीचे बिस्तर बिछा कर सो गई.

तकरीबन आधी रात को हसन मौका देख कर मालती के साथ जा लेटा और अभी हसन ने उसे छूना शुरू ही किया था कि अचानक मालती की नींद टूट गई.

अपने साथ गलत काम होते देख मालती की आंखें फटी की फटी रह गईं. मालती ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई.

उस रात के मंजर के बाद हसन भी अब मालती से नजरें चुराने लगा. कईकई दिनों तक किराया न देता और कभी देता भी तो 100 या 200.

मालती के पूछने पर हसन कह देता, ‘‘अरे, रिकशा है, कभी टायर भी पंचर हो सकता है, कभी ब्रेक भी फेल हो सकते हैं, कभी मोटर भी खराब हो सकती है. भला है तो एक मशीन ही.’’

मालती ने कहा, ‘‘इतना कुछ पहले तो नहीं होता था वह भी रोजरोज. कुछ दिनों से ही सारी खराबियां होने लगी हैं क्या?’’ मालती के लहजे में ताना था.

‘‘अगर 300 रुपए किराया चाहिए, तो रिकशे की सारी मरम्मत खुद ही करवानी पड़ेगी. कभी रिकशा खराब हुआ, तो तुम्हीं बनवा कर दोगी और अगर ऐसा नहीं कर सकती तो आगे से बिन बात मुंह भी मत चलाना, नहीं तो ढूंढ़ती रहना दूसरा ड्राइवर.’’

हसन को पता था कि मालती को दूसरा ड्राइवर मिलना मुश्किल था और यह बात भी जानता था कि उस ने तो उसे छोड़ दिया, पर कोई और मालती जैसी जवान विधवा को नोंचे बिना नहीं छोड़ेगा.

मालती ने बिना सोचेसमझे हसन से कह दिया, ‘‘हां, छोड़ जाना रिकशा मेरे पास में, बनवा लूंगी खुद. देखती हूं कि कितने पैसे लगते हैं पंचर बनवाने में.’’

हसन अब नीचता पर उतर आया था. उस ने अगले ही दिन रिकशा के पिछले दोनों टायरों को कील से जानबूझ कर पंचर कर के चुपचाप मालती के घर के बाहर लगा दी और अंदर जा कर मालती से कहने लगा, ‘‘यह लो किराया पूरे 300 हैं. हां, और आज घर आते वक्त पिछले दोनों टायर पंचर हो गए, रिकशा बाहर खड़ा है, बनवा देना. मैं कल सुबह आ कर ले जाता हूं.’’

मालती समझ चुकी थी कि हसन अपनी उस दिन की सारी भड़ास निकाल रहा है. तभी मालती को याद आया कि शुरुआत में जब वह इस रिकशे पर रघु के साथ बैठा करती थी, तो उस ने रघु को अच्छी तरह से रिकशा चलाते हुए देखा था.

मालती ने खुद को तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘रिकशा चलाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है और वह भी ईरिकशा. कल हसन भी देखेगा कि आखिर यह मालती भी एक रिकशे वाले की ही बीवी है.’’

मालती ने एक्सीलेटर ऐंठा और रिकशा आगे बढ़ा. मालती को पहले से ही मालूम था कि ईरिकशे में सिर्फ एक्सीलेटर और ब्रेक ही होते हैं. ईरिकशा चलाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं. जिस काम के लिए हसन उस का पूरा किराया मार लिया करता था, मालती ने वही काम सिर्फ 50 रुपए में निबटा दिया.

ये भी पढ़ें- स्वदेश के परदेसी : कहां दफन हुई अलाना की इंसानियत

अपना ईरिकशा खुद चला कर मालती काफी आत्मनिर्भर महसूस करने लगी. उन ने अब ठान लिया कि वह किसी का एहसान नहीं लेगी, किसी के भरोसे नहीं रहेगी. वह अब खुद मेहनतमजदूरी कर के ईरिकशा चलाएगी और अपनी बेटी को खूब पढ़ाएगी.

अगले दिन सुबह हसन अपने एक आदमी होने के घमंड में मालती के यहां चला आ रहा था. वह यह सोच कर काफी खुश हो रहा था कि मालती को अब उस के सामने झुकना पड़ेगा, पर मालती ने हसन के आते ही उस का हिसाबकिताब कर उसे चलता कर दिया.

अब मालती ईरिकशा खुद ही चलाने लगी. अपनी 5 साल की बच्ची को भरोसेमंद पड़ोसन के यहां छोड़ कर मालती खूब मेहनत करती. मालती को शुरुआत में दिक्कतों का सामना तो करना पड़ा, पर धीरेधीरे मालती सभी रास्तों से वाकिफ हो गई.

मालती बाकी सभी रिकशे वालों से ज्यादा कमाने लगी. मालती में कोई खास बात तो नहीं, पर फिर भी उस का रिकशा हर वक्त सवारियों से लबालब भरा रहता, पर शायद इस की वजह मालती जानती थी.

मालती को पता था कि कुछ लोग तो सिर्फ उस के साथ वाली सीट पर बैठने के लिए या उस से बतियाने के लिए और कुछ तो मौके की तलाश में उस के रिकशे में बैठते थे. पर अब मालती को इन से कोई खतरा न था, क्योंकि वह ऐसे लोगों से निबटना खूब अच्छी तरह से सीख चुकी थी.

मालती की आमदनी अब हजारों में होने लगी. वजह कुछ भी हो, पर मालती का ईरिकशा एक पल के लिए भी खाली न रहता था.

ऐसे ही एक दिन मालती के ईरिकशा पर एक आदमी बैठा. वह आदमी न जाने क्यों मालती के ईरिकशा को अजीब ढंग से घूरे जा रहा था. फिर उस ने मालती

से पूछ ही लिया, ‘‘यह ईरिकशा  तुम्हारा है?’’

‘‘हां, क्यों?’’ मालती ने उस से पूछा.

‘‘कुछ नहीं, यह ईरिकशा जानापहचाना सा लगा तो पूछ लिया.’’

मालती को शक हुआ कि शायद यह रघु को जानता है, इसलिए मालती ने शक दूर करते हुए पूछ ही लिया, ‘‘क्यों आप ने कहीं किसी और के पास भी यह ईरिकशा देखा है क्या?’’

‘‘नहीं, मेरे दोस्त रघु के पास भी ऐसा ही रिकशा था. मैं कई बार बैठ चुका हूं उस के ईरिकशे पर,’’ उस आदमी ने कहा.

मालती को याद आया कि कहीं यह वही तो नहीं, जिस के बारे में उस दिन रघु ने मुझ से जिक्र किया था. मालती ने उस से उस का नाम पूछा.

‘‘उमेश नाम है मेरा. क्यों…?’’

‘‘मैं रघु की विधवा हूं,’’ मालती की इस बात पर उमेश सन्न रह गया. एक पल को तो उसे लगा कि कहीं यह मजाक तो नहीं, पर फिर सोचा कि किसी की बीवी इतना भद्दा मजाक नहीं कर सकती.

मालती उमेश को अपने घर ले कर गई. चूंकि वह रघु का दोस्त था, इसीलिए मालती से जो बन पड़ा उस से उस की मेहमाननवाजी की.

उमेश ने बताया, ‘‘रघु भैया तो मुझे अपना रिकशा किराए पर देने वाले थे, पर शायद अब मुझे कोई और काम तलाशना पड़ेगा,’’ उमेश निराश हो कर बोला.

उमेश की इस बात पर मालती के मन में खिचड़ी पकी. उस ने रघु का सपना खुद पूरा करने की ठान ली. उस ने उमेश को अपने रिकशे की चाभी पकड़ाई और इस बार पूरे 400 रुपए दिन के हिसाब से ईरिकशा किराए पर दे दिया.

मालती ने वैसे भी इतने दिन ई-रिकशा चला कर ठीकठाक पैसे जोड़ लिए थे. वह कुछ दिनों में ही एक और रिकशे की मालकिन बन गई.

ये भी पढ़ें- घर ससुर: क्यों दमाद के घर रहने पर मजबूर हुए पिताजी?

मालती तरक्कीपसंद लोगों में से थी. शायद इसी वजह से महज 5 सालों में ही मालती पूरे 10 ईरिकशे की अकेली मालकिन बन चुकी थी. अब मालती की महीने की कमाई लाखों रुपए तक पहुंच गई थी. जिन मांबाप ने उन की तीसरी औलाद भी लड़की होने पर अपनी सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं, जिस मालती के भाग जाने पर उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा था, आज वही मातापिता मालती के साथ एक 3 बीएच के फ्लैट में ऐशोआराम की जिंदगी काट रहे थे.

मालती की बेटी का दाखिला भी अब शहर के एक मशहूर ला कालेज में हो चुका था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें