अपना अपना नजरिया : शुभी का क्यों था ऐसा बरताव – भाग 3

‘‘तुम्हारे पापा हर सुखदुख में तुम्हारी बूआ के काम आते हैं न. मां की एक आवाज पर भागे चले जाते हैं लेकिन जब उन की पत्नी अस्पताल में पड़ी थी तब कौन आया था उन के काम? क्या दादी या बूआ आई थीं यहां. मुझे किस ने संभाला था? कौन था मेरे पास?”

‘‘रिश्तों के होते हुए भी क्या कभी तुम ने हमारे परिवार को सुखदुख बांटते देखा है? उम्मीद करना मनुष्य की सब से बड़ी कमजोरी है, अजय. वही सुखी है जिस ने कभी किसी से कोई उम्मीद नहीं की. जीवन की लड़ाई हमेशा अकेले ही लड़नी पड़ती है और सुखदुख में काम आता है हमारा चरित्र, हमारा व्यवहार. किसी के बन जाओ या किसी को अपना बना लो.

‘‘मैं 15 दिन अस्पताल में रही… कौन हमारा खानापीना देखता रहा, क्या तुम नहीं जानते? हमारा आसपड़ोस, तुम्हारे पापा के मित्र, मेरी सहेलियां. तुम्हारे दोस्त ने तो मुझे खून भी दिया था. जो लोग हमारे काम आए क्या वे हमारे सगेसंबंधी थे? बोलो?

‘‘भाईबहन के न होने से तुम्हारा दिल छोटा कैसे रह जाएगा? रिश्तों के होते हुए हमारा कौन सा काम हो गया जो तुम्हारा नहीं होगा. किसी की तरफ प्यार भरा ईमानदार हाथ बढ़ा कर देखना अजय, वही तुम्हारा हो जाएगा. प्यार बांटोगे तो प्यार मिलेगा.’’

‘‘मुझे एक भाई चाहिए, मां,’’ रोने लगा अजय.

‘‘जिन के भाई हैं क्या उन का झगड़ा नहीं देखा तुम ने? क्या वे सुखी हैं? हर घर का आज यही झगड़ा है… भाई ही भाई को सहना नहीं चाहता. किस मृगतृष्णा में हो… कल अगर तुम्हारा भाई तुम्हारा साथ छोड़ कर चला जाएगा तो तुम्हें अकेले ही तो जीना होगा…अगर हमारी संपत्ति को ले कर ही तुम्हारा भाई तुम से झगड़ा करेगा तब कहां जाएगी रिश्तेदारी, अपनापन जिस के लिए आज तुम रो रहे हो?

‘‘अजय, तुम्हारी अपनी संतान होगी, अपनी पत्नी, अपना घर. तब तुम अपने बच्चों के लिए करोगे या भाई के लिए? तुम से 20 साल छोटा भाई तुम्हारे लिए संतान के बराबर होगा. दोनों के बीच पिस जाओगे, जिस तरह तुम्हारे पापा पिसते हैं, मां की बिना वजह की दुत्कार भी सहते हैं और बहन के ताने भी सहते हैं…अच्छा पुत्र, अच्छा भाई बनने का पूरा प्रयास करते हैं तुम्हारे पापा फिर भी उन्हें खुश नहीं कर सके. उन का दोष सिर्फ इतना है कि उन्हें अपनी पत्नी, अपने बच्चे से भी प्यार है, जो उन की मांबहन के गले नहीं उतरता.

‘‘कल यही सब तुम्हारे साथ भी होगा. जरूरत से ज्यादा प्यार भी इनसान को संकुचित और स्वार्थी बना देता है. तुम्हारी दादी और बूआ का तुम्हारे पापा के साथ हद से ज्यादा प्यार ही सारी पीड़ा की जड़ है और यह सब आज हर तीसरे घर में होता है, सदा से होता आया है. जिस दिन पराया खून प्यारा लगने लगेगा उसी दिन सारे संताप समाप्त हो पाएंगे.

‘‘शायद तुम्हारी पत्नी का खून मुझे पानी जैसा न लगे…शायद मेरी बहू की पीड़ा पर मेरी भी नसें टूटने लगें… शायद वह मुझे तुम से भी ज्यादा प्यारी लगने लगे. इसी शायद के सहारे तो मैं ने अपनी एक ही संतान रखने का निर्णय लिया था ताकि मेरी ममता इतनी स्वार्थी न हो जाए कि बहू को ही नकार दे. मैं अपनी बेटी के सामने अपनी बहू का अपमान कभी न कर पाऊं इसीलिए तो बेटी को जन्म नहीं दिया…क्या तुम मेरे इस प्रयास को नकार दोगे, अजय?’’

आंखें फाड़ कर अजय मेरा मुंह देखने लगा था. उस के पापा भी पता नहीं कब चले आए थे और चुपचाप मेरी बातें सुन कर मेरा चेहरा देख रहे थे.

‘‘जीवन इसी का नाम है, अजय. वे घर भी हैं जहां बहुएं दिनरात बुजुर्गों का अपमान करती हैं और एक हमारा घर है जहां पहले दिन से मेरी सास मेरा अपमान कर रही हैं, जहां बेटी के तो सभी शगुन मनाए जाते हैं और बहू का मानसम्मान घर की नौकरानी से भी कम. बेटी का साम्राज्य घर के चप्पेचप्पे पर है और बहू 22 साल बाद भी अपनी नहीं हो सकी.’’

आवेश में पता नहीं क्याक्या निकल गया मेरे मुंह से. अजय के पापा चुप थे. अजय भी चुप था. मैं नहीं जानती वह क्या सोच रहा है. उस की सोच कुछ ही शब्दों से बदल गई होगी ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती लेकिन यह सत्य मेरी समझ में अवश्य आ गया है कि जीवन को नापने का सब का अपनाअपना फीता होता है. जरूरी नहीं किसी के पैमाने में मेरा सच या मेरा झूठ पूरी तरह फिट बैठ जाए.

मैं ने अपने जीवन को उसी फीते से नापा है जो फीता मेरे अपनों ने मुझे दिया है. मैं यह भी नहीं कह सकती कि अगर मेरी कोई बेटी होती तो मैं बहू को उस के सामने सदा अपमानित ही करती. हो सकता है मैं दोनों रिश्तों में एक उचित तालमेल बिठा लेती. हो सकता है मैं यह सत्य पहले से ही समझ जाती कि मेरा बुढ़ापा इसी पराए खून के साथ कटने वाला है, इसलिए प्यार पाने के लिए मुझे प्यार और सम्मान देना भी पड़ेगा.

हो सकता है मैं एक अच्छी सास बन कर बहू को अपने घर और अपने मन में एक प्यारा सा मीठा सा कोना दे देती. हो सकता है मैं बेटी का स्थान बेटी को देती और बहू का लाड़प्यार बहू को. होने को तो ऐसा बहुत कुछ हो सकता था लेकिन जो वास्तव में हुआ वह यह कि मैं ने अपनी दूसरी संतान कभी नहीं चाही, क्योंकि रिश्तों की भीड़ में रह कर भी अकेला रहना कितना तकलीफदेह है यह मुझ से बेहतर कौन समझ सकता है जिस ने ताउम्र रिश्तों को जिया नहीं सिर्फ ढोया है. खून के रिश्ते सिर्फ दाहसंस्कार करने के काम ही नहीं आते जीतेजी भी जलाते हैं.

तो बुरा क्या है अगर मनुष्य खून के रिश्तों से आजाद अकेला रहे, प्यार करे, प्यार बांटे. किसी को अपना बनाए, किसी का बने. बिना किसी पर कोई अधिकार जमाए सिर्फ दोस्त ही बनाए, ऐसे दोस्त जिन से कभी कोई बंटवारा नहीं होता. जिन से कभी अधिकार का रोना नहीं रोया जाता, जो कभी दिल नहीं जलाते, जिन के प्यार और अपनत्व की चाह में जीवन एक मृगतृष्णा नहीं बन जाता.

‘‘तुम्हारे पापा हर सुखदुख में तुम्हारी बूआ के काम आते हैं न. मां की एक आवाज पर भागे चले जाते हैं लेकिन जब उन की पत्नी अस्पताल में पड़ी थी तब कौन आया था उन के काम?

जिंदगी की उजली भोर- भाग 2

सीमा ने जो कल बताया कि समीर किसी खूबसूरत औरत के साथ खुशीखुशी शौपिंग कर रहा था, मुंबई के बजाय बड़ौदा में था, उस का सारा सुखचैन एक डर में बदल गया कि कहीं समीर उस खूबसूरत औरत के चक्कर में तो नहीं पड़ गया है. उसे यकीन न था कि समीर जैसा चाहने वाला शौहर ऐसा कर सकता है. सीमा ने उसे समझाया था, अभी कुछ न कहे जब तक परदा रहता है, मर्द घबराता है. बात खुलते ही वह शेर बन जाता है.

समीर दूसरे दिन लौट आया. वही प्यार, वही अपनापन. रूना का उतरा हुआ चेहरा देख कर वह परेशान हो गया. रूना ने सिरदर्द का बहाना बना कर टाला. रूना बारीकी से समीर की हरकतें देखती पर कहीं कोई बदलाव नहीं. उसे लगता कि समीर की चाहत उजली चांदनी की तरह पाक है, पर ये अंदेशे? बहरहाल, यों ही 1 माह गुजर गया.

एक दिन रात में पता नहीं किस वजह से रूना की आंख खुल गई. समीर बिस्तर पर न था. बालकनी में आहट महसूस हुई. वह चुपचाप परदे के पीछे खड़ी हो गई. वह मोबाइल पर बातें कर रहा था, इधर रूना के कानों में जैसे पिघला सीसा उतर रहा था, ‘आप परेशान न हों, मैं हर हाल में आप के साथ हूं. आप कतई परेशान न हों, यह मेरी जिम्मेदारी है. आप बेहिचक आगे बढ़ें, एक खूबसूरत भविष्य आप की राह देख रहा है. मैं हर अड़चन दूर करूंगा.’

इस से आगे रूना से सुना नहीं गया. वह लौटी और बिस्तर पर औंधेमुंह जा पड़ी. तकिए में मुंह छिपा कर वह बेआवाज घंटों रोती रही. आखिरी वाक्य ने तो उस का विश्वास ही हिला दिया. समीर ने कहा था, ‘परसों मैं होटल पैरामाउंट में आप से मिलता हूं. वहीं हम आगे की सारी बातें तय कर लेंगे.’

यह जिंदगी का कैसा मोड़ था? हर तरफ अंधेरा और बरबादी. अब क्या होगा? वह लौट कर चाचा के पास भी नहीं जा सकती. न ही इतनी पढ़ीलिखी थी कि वह नौकरी कर लेती और न ही इतनी बहादुर कि अकेले जिंदगी गुजार लेती. उस का हर रास्ता एक अंधी गली की तरह बंद था.

सुबह वह तेज बुखार से तय रही थी. समीर ने परेशान हो कर छुट्टी के लिए औफिस फोन किया.  उसे डाक्टर के पास ले गया. दिनभर उस की खिदमत करता रहा. बुखार कम होने पर समीर ने खिचड़ी बना कर उसे खिलाई. उस की चाहत व फिक्र देख कर रूना खुश हो गई पर रात की बात याद आते ही उस का दिल डूबने लगता.

दूसरे दिन तबीयत ठीक थी. समीर औफिस चला गया. शाम होने से पहले उस ने एक फैसला कर लिया, घुटघुट कर मरने से बेहतर है सच सामने आ जाए, इस पार या उस पार. अगर दुख  को उस की आखिरी हद तक जा कर झेला जाए तो तकलीफ का एहसास कम हो जाता है. डर के साए में जीने से मौत बेहतर है.

उस दिन समीर औफिस से जल्दी आ गया. चाय वगैरह पी कर, फ्रैश हुआ. वह बाहर जाने को निकलने लगा तो रूना तन कर उस के सामने खड़ी हो गई. उस की आंखों में निश्चय की ऐसी चमक थी कि समीर की निगाहें झुक गईं, ‘‘समीर, मैं आप के साथ चलूंगी उन से मिलने,’’ उस के शब्द चट्टान की मजबूती लिए हुए थे, ‘‘मैं कोई बहाना नहीं सुनूंगी,’’ उस ने आगे कहा.

समीर को अंदाजा हो गया, आंधी अब नहीं रोकी जा सकती. शायद, उस के बाद सुकून हो जाए. समीर ने निर्णयात्मक लहजे में कहा, ‘‘चलो.’’

रास्ता खामोशी से कटा. दोनों अपनीअपनी सोचों में गुम थे. होटल पहुंच कर कैबिन में दाखिल हुए. सामने एक खूबसूरत औरत, एक बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. रूना के दिल की धड़कनें इतनी बढ़ गईं कि  उसे लगा, दिल सीना फाड़ कर बाहर आ जाएगा, गला बुरी तरह सूख रहा था. रूना को साथ देख कर उस के चेहरे पर घबराहट झलक उठी. समीर ने स्थिर स्वर में कहा, ‘‘रोशनी, इन से मिलो. ये हैं रूना, मेरी बीवी. और रूना, ये हैं रोशनी, मेरी मां.’’

रूना को सारी दुनिया घूमती हुई लगी. रोशनी ने आगे बढ़ कर उस के सिर पर हाथ रखा. रूना शर्म और पछतावे से गली जा रही थी. कौफी आतेआते उस ने अपनेआप को संभाल लिया. बच्ची बड़े मजे से समीर की गोद में बैठी थी. समीर ने अदब से पूछा, ‘‘आप कब जाना

चाहती हैं?’’

‘‘परसों सुबह.’’

‘‘कल शाम मैं और रूना आ कर बच्ची को अपने साथ ले जाएंगे,’’ समीर ने कहा.

वापसी का सफर दोनों ने खामोशी से तय किया. रूना संतुष्ट थी कि उस ने समीर पर कोई गलत इल्जाम नहीं लगाया था. अगर उस ने इस बात का बतंगड़ बनाया होता तो वह अपनी ही नजरों में गिर जाती.

घर पहुंच कर समीर ने उस का हाथ थामा और धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘रूना, मैं

बेहद खुश हूं कि तुम ने मुझे गलत नहीं समझा. मैं खुद बड़ी उलझन में था. अपने बड़ों के ऐब खोलना बड़ी हिम्मत का काम है. मैं चाह कर भी तुम्हें बता नहीं सका. करीब 4 साल पहले, पापा ने रोशनी को किसी प्रोग्राम में गाते सुना था. धीरेधीरे उन के रिश्ते गहराने लगे. उस वक्त मैं अहमदाबाद में एमबीए कर रहा था.

‘‘मेरी अम्मी हार्टपेशैंट थीं. अकसर ही बीमार रहतीं. पापा खुद को अकेला महसूस करते. घर का सारा काम हमारा पुराना नौकर बाबू ही करता. ऐसे में पापा की रोशनी से मुलाकात, फिर गहरे रिश्ते बने. रोशनी अकेली थी. रिश्तों और प्यार को तरसी हुई लड़की थी. बात शादी पर जा कर खत्म हुई. अम्मी एकदम से टूट गईं. वैसे पापा ने रोशनी को अलग घर में रखा था. लेकिन दुख को दूरी और दरवाजे कहां रोक पाते हैं.

Holi 2024 सतरंगी रंग: कैसा था पायल का जीवन- भाग 2

वहां मौजूद औरतें उस की चाची के भाग्य को कोसे जा रही थीं कि ये बेचारी कितनी अभागिन है. भरी जवानी में ही विधवा हो गई.

एक औरत चाची को उलाहना देते हुए बोली, ‘‘खा गई अपने पति को… यह चुड़ैल.’’

ये सब बातें सुन कर पायल बौखला गई. उसे इन औरतों पर बहुत गुस्सा आया था. उस ने आगे देखा न पीछे और इन औरतों पर  झुं झलाते हुए बरस पड़ी, ‘‘आप सब को इस तरह की बातें करते शर्म नहीं आती. एक तो मेरी चाची ने अपना पति खो दिया है, ऊपर से आप उन का दर्द बांटने के बजाय उन्हें पता नहीं क्याक्या बोले जा रही हैं.’’

‘‘हां… ठीक ही तो कह रही हैं वे,’’ उन में से एक औरत बोली.

पायल दोबारा उन पर बरसते हुए बोली, ‘‘हांहां, तो बताओ कि क्या मतलब है अपने पति को खा गई? मेरी चाची ने क्या मेरे चाचा का खून किया है, जो आप सब इस तरह की बातें कर रही हो? प्लीज, आप सब यहां से चली जाओ, वरना ठीक नहीं होगा.’’

पायल की इस बात पर एक औरत बोली, ‘‘चलो… चलो… यहां से सब… यह लड़की चार अक्षर क्या पढ़ गई, शहर की मैम बन गई है… अरे भाषण देना भी सीख गई है यह तो.’’

उस औरत की इस बात पर तो पायल का गुस्सा सातवें आसमान पर ही पहुंच गया. वह उन औरतों से बोली, ‘‘जब मेरी मां मरी थीं, तब आप सब ने ही तो कहा था न कि मेरी मां बड़ी सौभाग्यशाली हैं, फिर इस हिसाब से तो आज मेरे चाचा को भी सौभाग्यशाली होना चाहिए न?’’

पायल की इस बात पर उन में से एक औरत बोली, ‘‘अरे, जब औरत की अर्थी पति के कंधों पर जाती है, तो उसे बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है, जबकि किसी औरत का पति मर जाता है, तो वह औरत विधवा हो जाती है. यह सब तो सदियों से होता रहा है. हम सब कोई नई बात तो नहीं कह रही हैं.’’

इस पर पायल  झल्लाते हुए बोली, ‘‘पर काकी, जरूरी तो नहीं जो अब तक होता रहा है, वही सही हो और वही आगे भी होता रहे. आज जो मेरी चाची के साथ हुआ है, वह किसी के साथ भी हो सकता है…’’ और फिर वह सभी औरतों की ओर उंगली दिखाते हुए बोल पड़ी, ‘‘…आप के साथ… आप के साथ… और आप के साथ भी…’’ वह बोलती चली गई.

पायल का इतना कहना था कि उन औरतों के मुंह सिल गए और सब की गरदनें नीचे लटक गईं.

बहुत देर से उन सब की बातें सुन रही दादी अचानक चिल्लाते हुए वहां आईं और बोलीं, ‘‘पायल, तू ने यह क्या लगा रखा है. तेरे चाचा को ले जा रहे हैं. आखिरी बार उन के दर्शन कर ले.’’

दादी की बातें सुन कर पायल  झट से अपने चाचा की लाश के पास जा कर बैठ गई और वहां मौजूद अपनी चाची को चुप कराने लगी.

13 दिनों तक रस्मोरिवाज चलते रहे. उन्हीं में से एक रस्म ने पायल को अंदर तक  झक झोर दिया था. उस रस्म के दौरान एक दिन नाइन को बुलाया गया और फिर उस ने चाची का पूरा सोलह शृंगार किया. उस के बाद उन्हें नहलाधुला कर सफेद साड़ी में लपेट दिया गया और इस के बाद ही चाची की जिंदगी बेरंग कर दी गई.

पायल वापस होस्टल चली गई. कुछ महीने बाद जब पायल किसी काम से गांव आई तो उस के कानों में एक अजीब सी बात सुनाई दी. उस की दादी उस की चाची की तरफ इशारा करते हुए उन के बारे में बताते हुए बोलीं, ‘‘इस कलमुंही ने तो हमारी नाक ही कटा दी है.’’इस बात पर पायल कुछ मजाकिया अंदाज में बोली, ‘‘दादी, आप की नाक तो जैसी की तैसी लगी हुई है, पर आखिर हुआ क्या है? चाची से आप की इतनी नाराजगी क्यों है?’’

इस पर दादी गुस्सा होते हुए बोलीं, ‘‘इसी कलमुंही से पूछ ले… पूरा गांव हम पर थूथू कर रहा है.’’

दादी की बातें सुन कर चाची फूटफूट कर रो पड़ीं और अपने कमरे में चली गईं.

चाची के जाते ही पायल खीजते हुए बोली, ‘‘देखा दादी, आप ने चाची को रुला दिया न. आखिर हुआ क्या है… कुछ बताओगी भी या यों ही पहेलियां बु झाती रहोगी.’’

इस पर दादी ने पायल के कान में फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘अरे, बगल वाले ठाकुर साहब हैं न. उन के यहां कोई किराएदार आया है. उसी से नैनमटक्का करती रहती है यह कलमुंही आजकल.’’

दादी की बातों पर पायल कुछ  झुं झलाते हुए बोली, ‘‘यह तुम क्या कह रही हो दादी. तुम तो जो भी मन में आया, बोलती रहती हो चाची के बारे में.’’

जवाब में दादी ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तेरी चाची रोज शाम को बाहर जा कर खड़ी हो जाती है. अरे विधवा है… विधवा की तरह रहे. इधरउधर देखने की क्या जरूरत है… किसी से बात करने की भी क्या जरूरत है. घर में दो रोटी चैन से खाए और पड़ी रहे एक कोने में.’’

दादी की बातें सुन कर पायल उन के मुंह की ओर ताकते हुए बोली, ‘‘दादी, यह आप क्या कह रही हो? यह बात आप अपनी बहू के लिए कह रही हो…’’

पायल के मन में अपनी मां के जाने बाद अपने पापा की जिंदगी की यादें घूमने लगीं. मां के जाने के बाद तो पापा की जिंदगी पर कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का तो गांव में घूमनाफिरना, किसी से भी बातचीत करना, पहननाओढ़ना सबकुछ पहले जैसा ही रहा. उन की तो तुरंत ही दूसरी शादी भी हो गई. फिर वह मन ही मन बुदबुदाई, ‘अच्छा, वे मर्द जो ठहरे.’

उन यादों से बाहर आतेआते पायल का मन बहुत कसैला हो गया. उस की आंखों के कोरों से ढेर सारा पानी बह निकला. उस ने दादी से कहा, ‘‘दादी, आप को अपनी सोच बदलनी चाहिए. अब बहुत हो गया औरतमर्द में फर्क. चाची भी पापा की ही तरह इनसान हैं. उन्हें भी उतना ही जीने का हक है, जितना पापा को है. आप नहीं सम झती हो कि इस तरह की बातें कर के आप चाची के साथ नाइंसाफी कर रही हैं.’’

इस पर दादी  झुं झलाते हुए बोलीं, ‘‘ओए छोरी, तू पागल हो गई है क्या. औरत मर्द की बराबरी कभी नहीं कर सकती है. ये बड़ीबड़ी बातें किताबों में ही अच्छी लगती हैं.’’

पायल अपनी दादी के गालों को प्यार से पकड़ते हुए बोली, ‘‘दादी, आप चाहो तो सबकुछ बदल सकती हो. चाची को भी अपनी जिंदगी जी लेने दो. मत दो, उन्हें बिना अपराध की कोई सजा.’’

अब तक दादी थोड़ा नरम पड़ गईं. उन्हें पायल की बात कुछकुछ ठीक भी लगने लगी थी.

थोड़ी देर बाद पायल चाची के कमरे में जा कर उन के पास बैठ गई. चाची जमीन पर घुटनों के बीच सिर रख कर उदास बैठी थीं. पायल ने जब उन के कंधे पर हाथ रखा, तो वे चौंक गईं.

पायल ने हमदर्दी का मरहम लगाते हुए चाची से कहा, ‘‘चाची, इस तरह कब तक बैठी रहोगी.’’

फिर चाची का दिल बहलाने के मकसद से उस ने इधरउधर की बातें करनी शुरू कर दीं. इस के बाद पायल बात को आगे बढ़ाते हुए चाची से पूछ बैठी, ‘‘चाची, आखिर कौन किराएदार आया है ठाकुर चाचा के यहां? और गांव के लोग इतनी बातें क्यों बना रहे हैं?’’

फिर कुछ सोचते हुए पायल आगे बोली, ‘‘चाची, आप मु झे गलत मत सम झना, पर आप से इस बारे में जानना मेरी मजबूरी है.’’

अपना अपना नजरिया : शुभी का क्यों था ऐसा बरताव – भाग 2

22 साल पुरानी वह घटना आज फिर आंखों के सामने साकार हो उठी. ‘‘भाभी, यह क्या पागलपन है? आते ही बहू को अपना यह क्या रूप दिखा रही हो. बेटे ने उस की जरा सी चिंता कर के ऐसा कौन सा पाप कर दिया जो बेटा छिन जाने का रोना ले कर बैठ गई हो… घर घर मांएं हैं, घरघर बहनें हैं… तुम क्या अनोखी मांबहन हो जो बहू का घर में पैर रखना ही तुम से सहा नहीं जा रहा. हमारी मां ने भी तो अपना सब से लाड़ला बेटा तुम्हें सौंपा था. क्या उस ने कभी ऐसा सलूक किया था तुम से, जैसा तुम कर रही हो?’ ’’ पति की बूआ ने किसी तरह सब ठीक करने का प्रयास किया था.

तब का उन का वह रूप और आज का उन का यह रूप. उन की जलन त्योंत्यों बढ़ती रही ज्योंज्यों मेरे पति अपने परिवार में रमते रहे.

हम साथ कभी नहीं रहे क्योंकि पति की नौकरी सदा बाहर की रही, लेकिन यह भी सच है, यदि साथ रहना पड़ता तो रह भी न पाते. मेरी सूरत देखते ही उन का चेहरा यों बिगड़ जाता है मानो कोई कड़वी दवा मुंह में घुल गई हो. अकसर मैं सोचती हूं कि क्या मैं इतनी बुरी हूं.

मैं ने ऐसा कभी नहीं चाहा कि मैं एक बुरी बहू बनूं मगर क्या करूं, मेरी बुराई इसी कड़वे सच में है कि मैं अपने पति की पत्नी बन कर ससुराल में चली आई थी. मेरा हर गुण, मेरी सारी अच्छाई उसी पल एक काले आवरण से ढक सी गई जिस पल मैं ने ससुराल की दहलीज पर पैर रखा था. मेरा दोष सिर्फ इतना सा रहा कि अजय के पिता को अजय की दादी मानसिक रूप से कभी अपने से अलग ही नहीं कर पाईं. लाख सफल मान लूं मैं स्वयं को मगर ससुराल में मैं सफल नहीं हो पाई. न अच्छी बहू बन सकी न ही अच्छी भाभी.

‘‘दादी अकेली संतान थीं न अपने घर में…बूआ भी अकेली बहन. यही वजह है कि दादी और बूआ ने अपने खून के अलावा किसी को अपना नहीं माना. जो बेटे में हिस्सा बांटने चली आई वही दुश्मन बन गई. मैं भले ही उन का पोता हूं लेकिन तुम से प्यार करता हूं इसलिए मुझे भी अपना दुश्मन समझ लिया.

‘‘मां, दादी की मानसिकता यह है कि वह अपने प्यार का दायरा बड़ा करना तो दूर उस दायरे में जरा सा रास्ता भी बनाना नहीं चाहतीं कि हम दोनों को उस में प्रवेश मिल सके. वह न हमारी बनती हैं न हमें अपना बनाती हैं. हमतुम भला कब तक बंद दरवाजे पर सिर फोड़ते रहेंगे.

‘‘जाने दो उन्हें, मां… मत सोचो उन के बारे में. अगर हमारे नसीब में उन का प्यार नहीं है तो वह भी कम बदनसीब नहीं हैं न, जिन के नसीब में हम दोनों ही नहीं. जिसे बदला न जा सके उसे स्वीकार लेना ही उचित है. वह वहां खुश हम यहां खुश…’’

सारी कहानी का सार मेरे सामने परोस दिया अजय ने. पहली बार लगा, ससुराल में कोई साथी मिल गया है जो मेरी पीड़ा को जीता भी है और महसूस भी करता है. सब ठीक चल रहा था फिर भी अजय उदास रहता था. मैं कुरेदती तो गरदन हिला देता.

मेरी एक सहेली के पति एक शाम हमारे घर आए तो सहसा मैं ने अपने मन की बात उन से कह दी. उन के बडे़ भाई एक अच्छे मनोवैज्ञानिक हैं.

‘‘भैया, आप अजय को किसी बहाने से उन्हें दिखा देंगे क्या? मैं कहूंगी तो शायद न उसे अच्छा लगेगा न उस के पापा को. हर पल चुपचुप रहता है और उदास भी.’’

उन्होंने आश्वासन दे दिया और जल्दी ही ऐसा संयोग भी बन गया. मेरी उसी सहेली के घर पर कोई पारिवारिक समारोह था. परिवार सहित हम भी आमंत्रित थे. सभी परिवार आपस में खेल खेल रहे थे. कोई ताश, कोई कैरम.  सहेली के जेठ भी वहीं थे, जो बड़ी देर तक अजय से बतियाते रहे थे और ताश भी खेलते रहे थे. उस दिन अजय खुश था. न कहीं उदासी थी न चुप्पी.

दूसरे दिन उन का फोन आया. मेरे पति से उन की खुल कर बात हुई. मेरे पति चुप रह गए.

‘‘क्या बात है, क्या कहा डाक्टर साहब ने?’’

कुछ देर तक मेरे पति मेरा चेहरा बड़े गौर से पढ़ते रहे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘अजय अकेलेपन से पीडि़त है. उस के यारदोस्त 2-2, 3-3 भाईबहन हैं. उन के भरेपूरे परिवार को देख कर अजय को ऐसा लगता है कि एक वही है जो संसार में अकेला है.’’

क्या कहती मैं? एक ही संतान रखने की जिद भी मेरी ही थी. अब जो हो गया सो हो गया. बीता वक्त लौटाया तो नहीं जा सकता न. शाम को अजय कालिज से आया तो मन हुआ उस से कुछ बात करूं…फिर सोचा, भला क्या बात करूं… माना मांबेटे दोनों काफी हद तक दोस्त बन कर रहते हैं फिर भी भाईबहन की कमी तो है ही. पति अपने काम में व्यस्त रहते हैं और मेरी अपनी सीमाएं हैं, जो नहीं है उसे पूरा कैसे करूं?

अजय की हंसी धीरेधीरे और कम होने लगी थी. मैं ने जोर दे कर कुरेदा तो सहसा बोला, ‘‘मां, क्या मेरा कोई भाईबहन नहीं हो सकता?’’

हैरान रह गई मैं. अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ मुझे. बड़े गौर से मैं ने अपने बेटे की आंखों में देखा और कहा, ‘‘तुम 20 साल के होने वाले हो, अजय. इस उम्र में अगर तुम्हारा कोई भाई आ गया तो लोग क्या कहेंगे, क्या शरम नहीं आएगी तुम्हें?’’

‘‘इस में शरम जैसा क्या है, अधूराअधूरा सा लगता है मुझे अपना जीना. कमी लगती है, घर में कोई बांटने वाला नहीं, कोई मुझ से लेने वाला नहीं… अकेले जी नहीं लगता मेरा.’’

‘‘मैं हूं न बेटा, मुझ से बात करो, मुझ से बांटो अपना सुख, अपना दुख… हम अच्छे दोस्त हैं.’’

‘‘आप तो मुझ से बड़ी हैं… आप तो सदा देती हैं मुझे, कोई ऐसा हो जो मुझ से मांगे, कोई ऐसा जिसे देख कर मुझे भी बड़े होने का एहसास हो… मैं स्वार्थी बन कर जीना नहीं चाहता… मैं अपनी दादी, अपनी बूआ की तरह इतने छोटे दिल का मालिक नहीं बनना चाहता कि रिश्तों को ले कर निपट कंगाल रह जाऊं, मेरा अपना कौन होगा मां. सुखदुख में मेरे काम कौन आएगा?’’

22 साल पुरानी वह घटना आज फिर आंखों के सामने साकार हो उठी. ‘‘ ‘भाभी, यह क्या पागलपन है? आते ही बहू को अपना यह क्या रूप दिखा रही हो.

काला दरिंदा: जब बहादुर लड़की ने किया रेपिस्ट का सामना

वह एक टैक्सी ड्राइवर था. उस का रंग जले तवे की तरह काला था, तभी तो उस के घर वालों ने सोचसमझ कर उस का नाम काला रखा था. उस ने कार के पिछले शीशे पर मोटेमोटे अक्षरों में ‘काला’ लिखवा दिया था.

19 साल की उम्र में वह माहिर ड्राइवर बन गया था. तभी से वह टैक्सी चला रहा था. अब उस की उम्र 35 साल के करीब थी.

थोड़ी देर पहले एक ऐक्सप्रैस ट्रेन प्लेटफार्म पर आ कर रुकी थी. कुछ सवारियां गेट से बाहर निकलीं, तो काला मुस्तैदी से खड़ा हो गया. कुछ सवारियों से उस ने टैक्सी के लिए पूछा भी था लेकिन सवारियों ने मना कर दिया.

कुछ सवारियों को टैक्सी की जरूरत नहीं थी और जिन्हें जरूरत थी, वे अपने परिवार के साथ थे. उन्होंने शक्ल देखते ही काला को मना कर दिया था, क्योंकि शराब के नशे में डूबा काला शक्ल से ही बदमाश लगता था.

काला ने कलाई में बंधी घड़ी की तरफ देखा. रात के 10 बज रहे थे. समता ऐक्सप्रैस ट्रेन के आने का समय हो गया था. शायद उसे कोई सवारी मिल जाए, यह सोच कर काला ने बीड़ी सुलगा ली.

काला का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था. 3 भाइयों में वह अकेला जिंदा बचा था. उस ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था. उस की मां तो उसे स्कूल भेजना चाहती थी, पर उस का बाप उसे स्कूल भेजने के सख्त खिलाफ था.

काला की उम्र जब 10 साल की थी, तभी उस की मां मर गई थी और उस के बाप ने उसे एक लुहार के यहां काम पर लगा दिया था. सारा दिन भट्ठी के आगे बैठ कर वह लोहे का पंखा चलाता था. महीने में उसे मेहनत के जो पैसे मिलते थे, उन पैसों को उस का बाप शराब में उड़ा देता था.

7 साल तक काला ने लुहार की दुकान पर काम किया था. तभी उस के शराबी बाप की मौत हो गई थी. बाप के मरने का उसे जरा भी दुख नहीं हुआ था, क्योंकि अब वह पूरी तरह आजाद हो गया था.

कुछ गलत लड़कों के साथ काला का उठनाबैठना हो गया था. 20 साल का होतेहोते वह पक्का शराबीजुआरी बन चुका था. एक करीबी रिश्तेदार को उस पर दया आ गई थी. उसी ने भागदौड़ कर के उस की शादी करा दी थी. उस की औरत ज्यादा खूबसूरत तो नहीं थी, पर उस से कई गुना अच्छी थी.

काला ने हमेशा से ही अपनी बीवी को इस्तेमाल की चीज समझा था. अब वह 4 बच्चों का बाप बन चुका था. फिर भी बच्चों के लिए एक बाप की क्या जिम्मेदारियां होती हैं, इस का उसे पता नहीं था.

काला जितना शौकीन था, उस से कहीं ज्यादा मेहनती भी था. वह सुबह 7 बजे टैक्सी ले कर घर से निकल जाता था और रात 12 बजे के बाद ही लौटता था.

वह 300 से 500 रुपए तक रोजाना कमा लेता था. इतना कमाने के बाद भी उस के घर की माली हालत ठीक नहीं थी, क्योंकि उसे शराब पीने के अलावा कोठे पर जाने का भी शौक था.

रात 11 बजे समता ऐक्सप्रैस ट्रेन प्लेटफार्म पर आई. ट्रेन पूरे एक घंटा लेट थी. सवारियां जल्दीजल्दी स्टेशन के गेट से बाहर निकल रही थीं. काला सवारियों पर नजरें दौड़ाने लगा. अचानक उस की नजर एक लड़की पर पड़ी तो उस की आंखों में एक अजीब सी चमक उभर आई.

काला तेजी से उस लड़की की तरफ लपका और उस से पूछा, ‘‘मैडम क्या आप को टैक्सी चाहिए?’’

‘‘हां चाहिए,’’ लड़की ने उस की तरफ बिना देखे ही जवाब दिया.

‘‘कहां जाना है आप को?’’

‘‘विजय नगर,’’ लड़की ने बताया.

‘‘चलिए,’’ कह कर काला ने लड़की के हाथ से बैग ले लिया.

कुछ ही दूर टैक्सी स्टैंड पर काला की टैक्सी खड़ी थी.

काला ने डिक्की खोल कर बैग उस में रखा और फिर अपनी सीट पर जा कर बैठ गया. तब तक लड़की पिछली सीट पर बैठ चुकी थी.

उस लड़की की उम्र 22-23 साल के आसपास थी. वह बेहद खूबसूरत थी. पहनावे से वह अमीर और हाई सोसायटी की लग रही थी. वह शायद किसी सोच में गुम थी, तभी तो उस ने काला के ऊपर ध्यान नहीं दिया था, वरना काला का चेहरा और शराब के नशे में डूबी उस की आंखें देख कर वह उस की टैक्सी में कभी न बैठती.

लड़की पिछली सीट पर अधलेटी सी आंखें बंद किए हुए थी. काला सामने लगे शीशे में से उसे बारबार देख रहा था.

रेलवे स्टेशन से विजय नगर का रास्ता महज आधे घंटे का था. काला धीमी रफ्तार से टैक्सी चला रहा था. उस लड़की ने काला के अंदर उथलपुथल मचा रखी थी.

काला का ध्यान टैक्सी चलाने में कम, उस लड़की पर ज्यादा था. वह जितना उस लड़की को देख रहा था, उस पर उतना ही एक नशा सा छा रहा था.

काला एक नंबर का आवारा था. जवान लड़कियों को देख कर उस के खून में गरमी पैदा हो जाती थी.

एक बार स्कूटर पर जा रही एक लड़की को घूरते हुए वह अपने होश खो बैठा था. नतीजतन, उस की टैक्सी एक बस के पिछले हिस्से से जा टकराई थी. इत्तिफाक से वह बच गया था, मगर टैक्सी को काफी नुकसान पहुंचा था. लेकिन इस के बाद भी वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया था.

काला का दिमाग और ध्यान कार में बैठी लड़की पर ही लगा था. अचानक

5 महीने पहले की एक घटना याद कर उस के अंदर धीरेधीरे वासना का शैतान जागने लगा.

हुआ यों था कि उस रात वह कुछ सवारियों को रेलवे स्टेशन छोड़ने आया था. रात के तकरीबन साढ़े 11 बज रहे थे. शायद कोई सवारी मिल जाए, इस उम्मीद के साथ वह सवारी मिलने का इंतजार करने लगा था.

कुछ ही देर में उसे एक सवारी मिल गई थी. वह एक लड़की थी और उसे अशोक नगर जाना था. उसे टैक्सी की जरूरत थी. उस ने कई टैक्सी वालों से बात की थी. रेलवे स्टेशन से अशोक नगर काफी दूर था, तकरीबन एक घंटे का रास्ता था.

ज्यादातर टैक्सी वालों ने रात को इतनी दूर जाने से मना कर दिया था. कुछ टैक्सी वाले वहां जाने के लिए तैयार हुए भी, मगर उन्होंने किराया बहुत ज्यादा मांगा.

आखिर में लड़की का सौदा काला से पट गया था. वह लड़की कम उम्र की व खूबसूरत थी. सफर में बोरियत से बचने के लिए लड़की टाइमपास करने की नीयत से काला को ‘अंकल’ पुकार कर बातें करने लगी थी.

काला उस के सवालों के जवाब देने के साथसाथ खुद भी उस के बारे में पूछताछ करने लगा था.

उस लड़की का नाम श्वेता था. वह एक अमीर घर की लड़की थी. श्वेता अपने घर से दूर एक शहर में पढ़ती थी. वहां वह होस्टल में रहती थी. कुछ दिनों की छुट्टियों में वह अपने घर चली आई थी. श्वेता ने अपने आने की खबर घर वालों को नहीं दी थी. अगर वह फोन कर देती, तो उसे स्टेशन पर लेने घर से कार आ जाती.

श्वेता ने जानबूझ नहीं बताया था, क्योंकि अगले दिन उस का जन्मदिन था और वह अचानक अपने घर पहुंच कर घर वालों को चौंका देना चाहती थी.

श्वेता अब तक अपने घर पहुंच भी चुकी होती, अगर ट्रेन 2 घंटे लेट नहीं हुई होती. रात का समय था. जाड़े का मौसम होने की वजह से सड़क पर दूरदूर तक सन्नाटा था.

श्वेता से बात करते हुए काला टैक्सी चला जरूर रहा था, मगर उस का मन कहीं और भटक रहा था. उस के साथ गोरी रंग की जवान और हसीन लड़की थी, जिस के जिस्म से भीनीभीनी मदहोश कर देने वाली खुशबू आ रही थी.

काला पर एक अजीब सा नशा हावी होता जा रहा था. काला ने एक बेहद घटिया और भयानक फैसला कर लिया.

उस रात काला ड्राइवर से दरिंदा बन गया था. उस ने टैक्सी एक सुनसान जगह पर रोक दी थी. इस से पहले कि श्वेता कुछ समझ पाती, काला कार के अंदर ही उस पर टूट पड़ा था. श्वेता तो जैसे एकदम से हैरान ही रह गई थी. उसे काला से ऐसी उम्मीद हरगिज नहीं थी.

श्वेता रोते हुए काला से छोड़ देने के लिए गिड़गिड़ाने लगी थी, पर उस के रोनेगिड़गिड़ाने का असर काला पर नहीं हुआ था. फिर श्वेता रोनागिड़गिड़ाना छोड़ काला का विरोध करने लगी थी.

अचानक काला ने सीट के नीचे रखा चाकू निकाल लिया और बोला था, ‘सुन लड़की, अगर ज्यादा फड़फड़ाएगी तो इसी चाकू से तेरी गरदन काट डालूंगा. इस सुनसान जगह पर कोई तुझे बचाने नहीं आएगा. जान प्यारी है तो जैसा मैं कहता हूं वैसा ही कर.’

श्वेता पर इस धमकी का असर फौरन हुआ था. वह मासूम लड़की मौत के डर से बुत सी बन गई थी.

अपनी इच्छा पूरी करने के बाद काला बेहोशी की हालत में श्वेता और उस के सामान को सड़क के किनारे छोड़ कर रफूचक्कर हो गया था.

आज बहुत दिनों बाद काला को सुनहरा मौका मिला था, जिसे वह हाथ से नहीं जाने देना चाहता था. उस लड़की को अपना शिकार बनाने से पहले काला उस के और उस के घरपरिवार के बारे में जानना चाहता था.

काला ने अपनी तरफ से बातचीत की शुरुआत की, पर लड़की ने उस के किसी भी सवाल का जवाब ‘हां’ या ‘न’ से ज्यादा शब्दों में नहीं दिया.

पहले वाली लड़की श्वेता हंसमुख, चंचल और मिलनसार थी, जबकि यह उस के बिलकुल उलट, गंभीर, मगरूर और नकचढ़ी थी.

काफी सोचनेसमझने के बाद काला ने फैसला किया कि लड़की का संबंध चाहे किसी भी घर से हो, वह उस के साथ मनमानी जरूर करेगा, बाद में चाहे जो कुछ भी होता रहे.

सड़क पर सन्नाटा था. काला मन ही मन लड़की की इज्जत से खेलने का तानाबाना बुनने लगा था. विजय नगर से एक किलोमीटर पहले एक दूसरे शहर को सड़क जाती थी. वह सड़क ज्यादातर सुनसान रहती थी. काला ने टैक्सी उसी सड़क पर मोड़ दी थी.

कार में बैठी लड़की को अपने रास्ते का पता था, इसलिए उस ने फौरन काला से गलत रास्ता होने की बात की, पर काला ने उस की बात अनसुनी कर दी.

खतरा महसूस कर के लड़की विरोध करने लगी, तो काला ने एक जगह टैक्सी रोक दी और सीट के नीचे से चाकू निकाल कर दहाड़ा, ‘‘सुन लड़की, अगर जरा सी भी आनाकानी की तो पेट फाड़ दूंगा.’’

काला की भयानक आंखों में वासना के लाललाल डोरे तैर रहे थे. लड़की को धमकी दे कर काला उस पर टूट पड़ा.

अगले दिन जब काला को होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में देख कर वह चौंक पड़ा. दर्द से उस का पूरा बदन दुख रहा था. कल रात के सीन उस के जेहन में घूमे तो उस का पूरा जिस्म कांप उठा. वह 2 बार दरिंदा बना था, एक बार उस दिन जिस दिन उस ने मासूम श्वेता की इज्जत लूटी थी और दूसरी बार कल रात.

कल रात वह दरिंदा बना जरूर था, लेकिन कामयाब नहीं हो सका था, क्योंकि कल रात वाली लड़की पहले वाली लड़की की तरह कमजोर नहीं थी. वह लड़की मुक्केबाजी और कराटे में माहिर थी. उस लड़की ने काला को बहुत पीटा था.

लड़की ने एक जोरदार लात काला की दोनों टांगों के बीच मारी थी. इस के बाद उसे कुछ होश नहीं था. वह अस्पताल कैसे पहुंचा? कब पहुंचा और किस ने पहुंचाया? इस का उसे कुछ पता नहीं था.

काला ने डाक्टरों से जब यह खबर सुनी तो मानो उस की जान ही निकल गई. डाक्टरों ने उसे बताया कि उन्होंने उस की जान तो बचा ली, मगर अब वह कभी दरिंदा नहीं बन सकता था, क्योंकि टांगों के बीच चोट लग जाने से वह हमेशा के लिए नामर्द बन चुका था.

सस्ते में चूड़िया : आखिर क्या चाहती थी सुंदरी

पति के हाथ धुलाते हुए सुंदरी ने कहा, ‘‘अब की 2-2 सोने की चूड़ियां जरूर बनवा दो, नहीं तो राखी पर मायके वाले कहेंगे कि इतनी भी नहीं जुटा पाते कि…’’ तभी लू का एक जोरदार थपेड़ा सूरज की कनपटी पर तमाचा सा मारता हुआ ऊपर की ओर उड़ गया. कानों पर हथेलियां रख उस ने जवाब दिया, ‘‘आमों की फसल अच्छी आई है. कुदरत ने चाहा तो इस बार के शहर के चक्कर में ही चूड़ियां निकल आएंगी. तू अब घर जा. धूप तेज हो रही है.

’’ सुंदरी के चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गई. उठते हुए वह बोली, ‘‘हम इतने बुरे लगने लगे अब?’’ सूरज जानता था कि उस की बीवी के दिन चढ़े हैं. उस ने कुछ जवाब नहीं दिया. घर की ओर लौटती हुई बीवी की ओर वह तब तक देखता रहा, जब तक कि वह आंखों से ओझल न हो गई. उस ने सोचा, ‘सुंदरी सचमुच सुंदरी है. तन से ही नहीं, मन से भी.’ खलिहान उठ चुके थे. किसान किसी छप्पर अथवा पेड़ के नीचे आराम कर रहे थे. परंतु सूरज इस साल आम की रखवाली में डट गया था. वैसे तो गांव में और भी आम के पेड़ थे, पर सूरज के आमों का स्वाद ही गजब का था.

सूरज ने इस बार बौर आने पर ही पेड़ के नीचे बसेरा कर लिया था. गांव वाले मन ही मन गुस्सा कर रहे थे. सूरज की यह पहरेदारी उन्हें अच्छी नहीं लग रही थी. सुंदरी के हाथों की रोटियों ने पेट में पहुंचते ही अपना काम दिखाना शुरू कर दिया. सूरज की आंखें झपकने लगीं. एक पेड़ के नीचे अधलेटा हो उस ने आंखें मूंद लीं. अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि खड़खड़ाहट सुन कर किसी जानवर को आया जान नींद की हालत में ही हाथ पसार उस ने मिट्टी का ढेला उठा कर मार फेंका.

अचानक जोर से ‘धम्म’ की एक आवाज ने उसे चौंका दिया. सूरज की नींद फुर्र हो गई. ढेला फूट कर चूरचूर हो चुका था और एक गाय धरती पर पड़ी छटपटा रही थी. सूरज को पसीना छूट गया. वह उठा, तो पैर डगमगा गए. उस ने पास जा कर देखा, तो गाय खामोश पड़ी थी. उस की जीभ बाहर निकल आई थी. सूरज ने सोचा, ‘हाय, गौहत्या. अब क्या करूं?’

तभी मंडन चौबे नदी से नहा कर लौटे. थोड़ी दूर हट कर वे रुक गए. उन्होंने सारी हालत का जायजा लिया. सूरज के चेहरे पर उड़ रही हवाइयां साफ बता रही थीं कि करतूत किस की है. वे बोले, ‘‘सूरज, तू बड़ा नीच है. तू ने गौहत्या कर डाली,’’

और ऊंची आवाज में ‘रामराम’ कहते हुए गांव की ओर चले गए. वह मरियल सी गाय एक हरिजन की थी. एक पल के लिए सूरज ने सोचा, ‘गई सुंदरी की चूड़ियां, रामू काका का हर्जाना ही पहले चुकाना होगा.’’ यह बात जल्दी ही पूरे गांव में फैल गई. सुंदरी के कानों ने सुना, तो मानो धरती पैरों के नीचे से सरक गई. लाज छोड़ ससुर के सामने जा रोई, ‘‘दादा, अब क्या होगा? सचझूठ का पता तो लगाओ.’’

दादा ने दुखी मन से कहा, ‘‘एक तो वैसे ही गरीबी से कमर टूटी जा रही है, तिस पर गौहत्या का कलंक.’’ सुंदरी की परेशानी कम होने के बजाय और बढ़ गई. सोचा, ‘क्यों न रामू काका के यहां जा कर विनती कर लूं.

उन की गाय मरी है, धीरेधीरे सब पैसा चुकता कर देंगे. अभी हाथ तंग है और आगे खर्चा भी लगा है,’ अपने बढ़े हुए पेट को देख कर आज न जाने क्यों पहली बार उसे खीज सी हुई. रामू काका बेरी की छाया में बैठे जूते सी रहे थे. थोड़ा सा घूंघट सरका कर सुंदरी कुछ कहे इस से पहले ही काका ने काकी को आवाज दे पीढ़ा लाने को कहा और काम छोड़ कर बैठ गए.

सुंदरी अपनेआप को बहुत छोटा महसूस करने लगी. उस की आंखें छलछला उठीं. बात करना भूल कर वह धरती कुरेदती रह गई. काका ने हलका सा चिलम का कश खींचा, तो खांसी आ गई. जब कुछ थमी तो हांफते से बोले, ‘‘बहुरिया, काहे को परेशान है. गाय बूढ़ी थी, मर गई. भैया के ढेले से आज नहीं तो कल भूख से मरती ही. छुट्टल फिरती थी, बांधूं तो तब जब उसे खिला सकूं.

परंतु यहां तो अपने लाले पड़े हैं. अच्छा हुआ, ठिकाने लग गई. मुसीबत तो यह है कि भाजपाइयों को खबर मिल गई तो बवाल कर देंगे. उस में भला क्या कर सकता हूं.’’ सुंदरी अब और चुप न रह सकी. बिलखती सी वह बोली, ‘‘काका, हम तुम्हारी भलमनसाहत का फायदा नहीं उठाएंगे. कुछ दिनों की बात है, पूरे पैसे दे देंगे…’’ रमुआ ने बात पूरी न होने दी. बीच में ही वह बोल उठे, ‘‘ऐसा पहले होता था सुंदरी.

हम छोटे भले ही हैं, पर इतने गिरे हुए तो नहीं, जो मरने का भोज लें और पैदा होने का भी. तू घर जा और सुन, अब से कभी यह मन में न आए कि काका को कुछ देना है. पर भाजपाइयों से तू कैसे निबटेगी और सूरज कैसे निबटेगा, मैं नहीं जानता.’’

सुंदरी लौट आई. रास्तेभर यही सोचती रही कि धरती पर आज भी कुछ इनसानियत बची है, वह गरीब की कुटिया में ही पल रही है. पर भाजपाइयों का डर उसे मन में सता रहा था. पिछले 10 सालों में गौहत्या के नाम पर हर बार बवाल मचता है. अब कैसे नहीं मचेगा. शाम तक चौपाल पर पंचायत जुट गई. 2-4 भगवे झंडे लग गए. सब के मुंह से लार ठपक रही थी.

बहुत दिनों से गांव में कोई ‘कांड’ नहीं हुआ था. विवाहशादी नहीं तो यही सही. मौका मुट्ठी में आता जान सब के मुंह में पानी आने लगा. सूरज और रमुआ को बुलाया गया. महंत बलदेव सरपंच भी थे. वे पार्टी के खास कार्यकर्ता थे. वे अपनी सख्ती के लिए आसपास के गांवों में ‘दुर्वासा’ के नाम से जाने जाते थे. उन्होंने एक बड़ा सा मंदिर बनवा लिया था चंदे पर, लेकिन उसे अपनी मिल्कीयत ही मानते थे. 10-12 लौंडे वहां पलते थे.

पंचायत के सामने रमुआ ने कहा भी कि हर्जाने की एक कौड़ी भी उसे मंजूर न होगी, क्योंकि गाय बूढ़ी थी और मरने को थी. सूरज ने भी बयान दिया कि उस का विचार गाय को मारने का बिलकुल नहीं था, वह तो उसे भगाना चाहता था. ढेला भी उस ने ढीले हाथ से नींद में फेंका था. परंतु वह गाय को कहां लगा और वह कैसे मर गई, वह अभी तक नहीं समझ पाया.

महंतों और पार्टी के पेशेवर वर्करों को यह आसान रास्ता रास नहीं आ रहा था. सब ने सलाहमशवरे के बाद तय किया कि रमुआ यदि हर्जाना नहीं लेना चाहता तो मजबूर नहीं किया जा सकता है. परंतु गऊ आखिर गऊ है. उस की हत्या करने के लिए सूरज को ‘ब्रह्मभोज’ देना पड़ेगा और गंगा स्नान भी करना होगा… तभी वह ‘शुद्ध’ हो सकेगा. पार्टी के लिए एक मंदिर भी अपनी जमीन पर बनवाना होगा, जिस का पट्टा महंतजी के नाम होगा. सूरज जवान था. थोड़ा पढ़ालिखा भी था.

उस ने पंचों के फैसले को नामंजूर करते हुए जब बहस करनी शुरू की, तो पंच ही नहीं बल्कि चौपाल में बैठे सभी लोग सन्न रह गए. सब की आंखें सरपंच की ओर उठ गईं. सूरज ने निडर हो कर कहा, ‘‘रामू काका की गाय मेरे द्वारा मारी गई. इसलिए उन्हें हर्जाना देने के लिए मैं जिम्मेदार हूं. यह उन का बड़प्पन है कि वे इसे लेने को तैयार नहीं. इस का मतलब यह नहीं कि मैं अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लूं. वे 2 जने हैं. मैं भरी पंचायत में वादा करता हूं कि जब तक काकाकाकी जिंदा रहेंगे, मैं मातापिता की तरह उन की सेवा करता रहूंगा. ‘‘वे जाति से आप सब की नजर में जितने छोटे हैं, खयालों से उतने ही ऊंचे हैं.

वे अपने लिए कुछ नहीं चाहते, जबकि ‘ऊंचे’ कहाने वाले आप सब ठीकगलत सभी कुछ केवल अपने लिए ही चाहते हैं. ‘‘यह ‘ब्रह्मभोज’ क्यों? यह मंदिर क्यों? पार्टी के लिए पैसा क्यों?

इस ‘ब्रह्मभोज’ और मेरी ‘शुद्धि’ में ऐसा कौन सा सीधा रिश्ता है, यह मेरी समझ के बाहर की चीज है. ‘‘रमुआ आप लोगों के लिए अछूत हैं, परंतु उन की जूठन पर जिंदा रहने वाली गाय आप की पूज्या है, आप की नजर में पवित्र है. यह कैसी अक्लमंदी है? अगर पंचायत मुझे यह बात नहीं बताती, तो अपना फैसला वापस ले…’’ पंचों में कुछ खुसुरफुसुर हुई. तभी सरपंच के आसन से महंत बलदेव गरज कर बोले, ‘‘देखते क्या हो, घेर लो इस सूअर के बच्चे को… हाथपैर बांध कर चौपाल के नीम से कस दो. और मुनादी कर दो कि जो भी इधर से गुजरे, इस की खोपड़ी में 2 जूतियां जुड़ता जाए.

एक दिन में धरती पर आ जाएगा.’’ वहां एकदम सन्नाटा छा गया. सूरज का खून खौल उठा, भहें तन गईं. वह तमक कर बोलने को ही था कि बीच में रामू काका आ गए. वे उसे रोक कर बोले, ‘‘बेटा, गुस्से में किया काम अच्छा नहीं होता. फिर जब तुम ने मुझे पिता के बराबर माना है तो मेरा भी फैसला सुन लो.’’ सूरज का पिता और उस की बीवी हैरान से खड़े यह नजारा देख रहे थे. रामू काका पंचों की ओर हाथ जोड़ कर बोले,

‘‘मेरा घर और खेत इसी पल से पंचायत के हैं. जो भी कीमत आप ठीक समझें, दिला दें. मुझे उस में से एक पैसा भी नहीं चाहिए. जो मिलेगा वह ब्रह्मभोज में नहीं, बल्कि ‘ग्राम भोज’ के लिए दे दूंगा. मुझे इस बुढ़ापे में बेटा मिल गया, लक्ष्मी सी बहू मिली. इस के अलावा अब चाहिए ही क्या.’’ चारों ओर खामोशी छा गई. सब देख रहे थे. आंसू बहाता सूरज रामू काका के पैरों पर औंधा पड़ा था. पिता ने अपने बेटे के सिर पर हाथ रख कर उसे उठाया और सीने से लगा लिया. फिर वह पास खड़ी बहू से बोले, ‘‘ससुरजी के पांव छू बेटी.’’ काकी भी लाठी टेकते आ पहुंचीं.

सुंदरी ने आंचल का छोर पकड़ काकाकाकी के पैर छुए. इसी बीच मंडन चौबे कहते सुने गए, ‘‘भैया धरती से धर्म नहीं उठ सकता. गऊ माता को मार कर हाथ तक नहीं धोए और ऊपर से हरिजन के पैर धोधो पी रहे हैं. यह नहीं चलेगा.’’ देखतेदेखते पांचों जने घर की ओर चलने लगे कि महंत के लौंडे डंडों से पांचों की पिटाई करने लगे.

एक लौंडे ने सूरज के कान में कहा, ‘‘तू रात को सुंदरी को हमारे पास भेज दियो, सब सुलटा लेंगे.’’ सुंदरी ने सुन लिया और हामी भर दी. जीने के लिए आखिर कुछ तो देना पड़ेगा. पहले भी देते रहे थे. ये उस के दादा बताया करते थे. वे रजवाड़ों के दिन थे, जो लौट आए थे. अब सुंदरी के हाथों को चूडि़यों की जरूरत नहीं थी. रात को वहशियों ने उसे बुरी तरह हाथों और सारे बदन पर काटा था कि वह महीनों तक पट्टी बांधती रही. सारा पैसा तो इलाज में निकल गया. गनीमत यह रही कि मामला पुलिस में नहीं गया. महंत कई बार कहते, ‘‘सस्ते में छोड़ दिया.’

बाबा का सच : अंधविश्वास की एक सच्ची कहानी

मेरा तबादला उज्जैन से इंदौर के एक थाने में हो गया था. मैं ने बोरियाबिस्तर बांधा और रेलवे स्टेशन आया. रेल चलने के साथ ही उज्जैन के थाने में रहते हुए वहां गुजारे दिनों की यादें ताजा होने लगीं.

हुआ यह था कि एक दिन एक मुखबिर थाने में आ कर बोला, ‘‘सर, एक बाबा पास के ही एक गांव खाचरोंद में एक विधवा के घर ठहरा हुआ है. मुझे उस का बरताव कुछ गलत लग रहा है.’’

उस की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया. फिर मेरे पास उस बाबा के खिलाफ कोई ठोस सुबूत भी नहीं था.

लेकिन मुखबिर से मिली सूचना को हलके में लेना भी गलत था, सो उसी रात  मैं सादा कपड़ों में उस विधवा के घर जा पहुंचा. उस औरत ने पूछा, ‘‘आप किस से मिलना चाहते हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘दीदी, मैं ने सुना है कि आप के यहां कोई चमत्कारी बाबा ठहरे हैं, इसीलिए मैं उन से मिलने आया हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘भैया, अभी तो बाबा अपने किसी भक्त के घर गए हैं.’’

‘‘अगर आप को कोई एतराज न हो, तो क्या मैं आप से उन बाबा के बारे में कुछ बातें जान सकता हूं? दरअसल, मेरी एक बेटी है, जो बचपन से ही बीमार रहती है. मैं उस का इलाज इन बाबा से कराना चाहता हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘भैया, जितनी जानकारी मेरे पास है, वह मैं आप को बता सकती हूं.

‘‘एक दिन ये बाबा अपने 2 शिष्यों के साथ रात 8 बजे मेरे घर आए थे.

‘‘बाबा बोले थे, ‘तुम्हारे पति के गुजरने के बाद से तुम तंगहाल जिंदगी जी रही हो, जबकि उस के दादाजी परिवार के लिए लाखों रुपयों का सोना इस घर में दबा कर गए हैं.

‘‘‘ऐसा कर कि तेरे बीच वाले कमरे की पूर्व दिशा वाला कोना थोड़ा खोद और फिर देख चमत्कार.’

‘‘मैं अपने बीच वाले कमरे में गई, तभी उन के दोनों शिष्य भी मेरे पीछेपीछे आ गए और बोले, ‘बहन, यह है तुम्हारे कमरे की पूर्व दिशा का कोना.’

‘‘मैं ने कोने को थोड़ा उकेरा, करीब 7-8 इंच कुरेदने के बाद मेरे हाथ में एक सिक्का लगा, जो एकदम पीला था.

‘‘उस सिक्के को अपनी हथेली पर रख कर बाबा बोले, ‘ऐसे हजारों सिक्के इस कमरे में दबे हैं. अगर तू चाहे, तो हम उन्हें निकाल कर तुझे दे सकते हैं.’

‘‘मैं ने बाबा से पूछा, ‘बाबा, ये दबे हुए सिक्के बाहर निकालने के लिए क्या करना होगा?’

‘‘वे बोले, ‘तुझे कुछ नहीं करना है. जो कुछ करेंगे, हम ही करेंगे, लेकिन तुम्हारे मकान के बीच के कमरे की खुदाई करनी होगी, वह भी रात में… चुपचाप… धीरेधीरे, क्योंकि अगर सरकार को यह मालूम पड़ गया कि तुम्हारे मकान में सोने के सिक्के गड़े हुए हैं, तो वह उस पर अपना हक जमा लेगी और तुम्हें उस में से कुछ नहीं मिलेगा.’

‘‘आगे वे बोले, ‘देखो, रात में चुपचाप खुदाई के लिए मजदूर लाने होंगे, वह भी किसी दूसरे गांव से, ताकि गांव वालों को कुछ पता न चल सके. इस खुदाई के काम में पैसा तो खर्च होगा ही. तुम्हारे पति ने तुम्हारे नाम पर डाकखाने में जो रुपया जमा कर रखा है, तुम उसे निकाल लो.’

‘‘इस के बाद बाबा ने कहा, ‘हम महीने भर बाद फिर से इस गांव में आएंगे, तब तक तुम पैसों का इंतजाम कर के रखना.’

‘‘डाकखाने में रखे 4 लाख रुपयों में से अब तक मैं बाबा को 2 लाख रुपए दे चुकी हूं.’’

‘‘दीदी, क्या मैं आप के बीच वाले कमरे को देख सकता हूं?’’

वह औरत बोली, ‘‘भैया, वैसे तो बाबा ने मना किया है, लेकिन इस समय वे यहां नहीं हैं, इसलिए आप देख लीजिए.’’

मैं फौरन उठा और बीच के कमरे में जा पहुंचा. मैं ने देखा कि सारा कमरा 2-2 फुट खुदा हुआ था और उस की मिट्टी एक कोने में पड़ी हुई थी.

मुझे लगा कि अगर अब कानूनी कार्यवाही करने में देर हुई, तो इस औरत के पास बचे 2 लाख रुपए भी वह बाबा ले जाएगा.

मैं ने उस औरत से कहा, ‘‘दीदी, मैं इस इलाके का थानेदार हूं और मुझे उस पाखंडी बाबा के बारे में जानकारी मिली थी, इसलिए मैं यहां आया हूं.

‘‘आप मेरे साथ थाने चलिए और उस बाबा के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाइए, ताकि मैं उसे गिरफ्तार कर सकूं.’’

उस औरत को भी अपने ठगे जाने का एहसास हो गया था, इसलिए वह मेरे साथ थाने आई और उस के खिलाफ रिपोर्ट लिखा दी.

चूंकि बाबा घाघ था, इसलिए उस ने उस औरत के घर के नुक्कड़ पर ही अपने एक शिष्य को नजर रखने के लिए  बैठा दिया था. इसलिए उसे यह पता चलते ही कि मैं उस औरत को ले कर उस के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने थाने ले गया हूं. वह बाबा उस गांव को छोड़ कर भाग गया.

इस के बाद मैं ने आसपास के गांवों में मुखबिरों से जानकारी भी निकलवाई, लेकिन उस का पता नहीं चल सका. मैं यादों की बहती नदी से बाहर आया, तब तक गाड़ी इंदौर रेलवे स्टेशन पर आ कर ठहर गई थी.

जब मैं ने इंदौर का थाना जौइन किया, तब एक दिन एक फाइल पर मेरी नजर रुक गई. उसे पढ़ कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. रिपोर्ट में लिखा था, ‘गडे़ धन के लालच में एक मां ने अपने 7 साला बेटे का खून इंजैक्शन से निकाला.’

उस मां के खिलाफ लड़के के दादाजी और महल्ले वालों ने यह रिपोर्ट लिखाई थी.

यह पढ़ कर मैं सोच में पड़ गया कि कहीं यह वही खाचरोंद गांव वाला बाबा ही तो नहीं है.

मैं ने सबइंस्पैक्टर मोहन से कहा, ‘‘मैं इस मामले में उस लड़के के दादाजी से बात करना चाहता हूं. उन्हें थाने आने के लिए कहिए.’’

रात के तकरीबन 10 बजे एक बुजुर्ग  मेरे क्वार्टर पर आए. मैं ने उन से उन का परिचय पूछा. तब वे बोले, ‘‘मैं ही उस लड़के का दादाजी हूं.’’

‘‘दादाजी, मैं इस केस को जानना चाहता हूं,’’ मैं ने पूछा.

वे बताने लगे, ‘‘सर, घर में गड़े धन के लालच में बहू ने अपने 7 साल के बेटे की जान की परवाह किए बगैर इंजैक्शन से उस का खून निकाला और तांत्रिक बाबा को पूजा के लिए सौंप दिया.’’

‘‘दादाजी, आप मुझे उस बाबा के बारे में कुछ बताइए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘सर, यह बात तब शुरू हुई, जब कुछ दिनों के लिए मैं अपने गांव गया था. फसल कटने वाली थी, इसलिए मेरा गांव जाना जरूरी था. उन्हीं दिनों यह तांत्रिक बाबा हमारे घर आया और बहू से बोला कि तुम्हारे घर में गड़ा हुआ धन है. इसे निकालने से पहले थोड़ी पूजापाठ करानी पड़ेगी.’’

‘‘मेरी बहू उस के कहने में आ गई. फिर उस तांत्रिक बाबा ने रात को अपना काम करना शुरू किया. पहले दिन उस ने नीबू, अंडा, कलेजी और सिंदूर का धुआं कर उसे पूरे घर में घुमाया, फिर उस ने बीच के कमरे में अपना त्रिशूल एक जगह जमीन पर गाड़ा और कहा कि यहां खोदने पर गड़ा धन मिलेगा.

‘‘उस के शिष्यों ने एक जगह 2 फुट का गड्ढा खोदा. चूंकि रात के 12 बज चुके थे, इसलिए उन्होंने यह कहते हुए काम रोक दिया कि अब खुदाई कल करेंगे.

‘‘इसी बीच मेरी 5 साल की पोती उस कमरे में आ गई. उसे देख कर तांत्रिक गुस्से में लालपीला हो गया और बोला कि आज की पूजा का तो सत्यानाश हो गया है. यह बच्ची यहां कैसे आ गई? अब इस का कोई उपचार खोजना पड़ेगा.

‘‘अगले दिन रात के 12 बजे वह तांत्रिक अकेला ही घर आया और बहू से बोला, ‘तू गड़ा हुआ धन पाना चाहती है या नहीं?’

‘‘बहू लालची थी, इसलिए बोली, ‘हां बाबा.’

‘‘फिर बाबा तैश में आ कर बोला, ‘कल रात उस बच्ची को कमरे में नहीं आने देना चाहिए था. अब उस बच्ची को भी ‘पूजा’ में बैठा कर अकेले में तांत्रिक क्रिया करनी पड़ेगी. जाओ और उस बच्ची को ले आओ.

‘‘इस पर मेरी बहू ने कहा, ‘लेकिन बाबा, वह तो सो रही है.’

‘‘बाबा बोला, ‘ठीक है, मैं ही उसे अपनी विधि से यहां ले कर आता हूं.

‘‘अगले दिन सुबह उस बच्ची ने अपनी दादी को बताया, ‘रात को वह तांत्रिक बाबा मुझे उठा कर बीच के कमरे में ले गया और मेरे सारे कपड़े उतार कर उस ने मेरे साथ गंदा काम किया.’

‘‘जब मेरी पत्नी ने बहू से पूछा, तो वह बोली, ‘बच्ची तो नादान है. कुछ भी कहती रहती है. आप ध्यान मत दो.’

‘‘अगले दिन बाबा ने बीच का कमरा खोद दिया. लेकिन कुछ नहीं निकला. फिर वह बाबा बोला, ‘बाई, लगता है कि तुम्हारे ही पुरखे तुम्हारे वंश का खून चाहते हैं, तुम्हें अपने बेटे की ‘बलि’ देनी होगी या उस का खून निकाल कर चढ़ाना होगा.’

‘‘गड़े धन के लालच में मां ने बिना कोई परवाह किए अपने बेटे का खून ‘इंजैक्शन’ से खींचा और उस का इस्तेमाल तांत्रिक क्रिया करने के लिए बाबा को दे दिया.

‘‘यह सब देख कर मेरी पत्नी से रहा नहीं गया और उस ने फोन पर ये सब बातें मुझे बताईं. मैं तभी सारे काम छोड़ कर इंदौर आया और अपने पोते और महल्ले वालों को ले कर थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई.’’

‘‘दादाजी, इस समय वह तांत्रिक बाबा कहां है?’’

‘‘सर, मेरी बहू अभी भी उस के मोहपाश में बंधी है. चूंकि उसे मालूम पड़ चुका है कि मैं ने उस के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई है, इसलिए वह हमारे घर नहीं आ रहा है, लेकिन मैं उस पर नजर रखे हुए हूं.’’

सुबह एक मुखबिर आया और बोला, ‘‘सर, एक सूचना मिली है कि अपने इलाके की एक मलिन बस्ती में एक तांत्रिक आज ही आ कर ठहरा है.’’

रात के 12 बजे मैं अपने कुछ पुलिस वालों को साथ ले कर सादा कपड़ों में वहां जा पहुंचा.

एक पुलिस वाले ने एक मकान से  धुआं निकलते देखा. हम ने चारों तरफ से उस मकान को घेर लिया.

जब मैं ने उस मकान का दरवाजा खटखटाया, तो एक अधेड़ औरत ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘क्या है? यहां पूजा हो रही है. आप जाइए.’’

इतना सुनते ही मैं ने दरवाजे को जोर से धक्का दिया और बीच के कमरे में पहुंचा.

मुझे देखते ही वह तांत्रिक बाबा भागने की कोशिश करने लगा, तभी मेरे साथ आए पुलिस वालों ने उसे घेर लिया और गाड़ी में डाल कर थाने ले आए.

थाने में थर्ड डिगरी देने पर उस ने अपने सारे अपराध कबूल कर लिए, जिस में खाचरोंद गांव में की गई ठगी भी शामिल थी.

मैं थाने में बैठा सोच रहा था कि अखबारों में गड़े धन निकालने के बारे में ऐसे ठग बाबाओं की खबरें अकसर छपती ही रहती हैं, फिर भी न जाने क्यों लोग ऐसे बाबाओं के बहकावे में आ कर अपनी मेहनत की कमाई को उन के हाथों सौंप कर ठगे जाते हैं?

अपना अपना नजरिया : शुभी का क्यों था ऐसा बरताव – भाग 1

अजय कुछ दिन से चुपचुप सा है. समझ नहीं पा रही हूं कि क्या वजह है. मैं मानती हूं कि 18-20 साल की उम्र संवेदनशील होती है, मगर यही संवेदनशीलता अजय की चुप्पी का कारण होगी यह मानने को मेरा दिल नहीं मान रहा. अजय हंसमुख है, सदा मस्त रहता है फिर उस के मन में ऐसा क्या है, जो उसे गुपचुप सा बनाता जा रहा है.

‘‘क्या अकेला बच्चा स्वार्थी हो जाता है, मां?’’

‘‘क्या मतलब…मैं समझी नहीं?’’

सब्जी काटतेकाटते मेरे हाथ रुक से गए. अजय हमारी इकलौती संतान है, क्या वह अपने ही बारे में पूछ रहा है?

‘‘मैं ने मनोविज्ञान की एक किताब में पढ़ा है कि जो इनसान अपने मांबाप की इकलौती संतान होता है वह बेहद स्वार्थी होता है. उस की सोच सिर्फ अपने आसपास घूमती है. वह किसी के साथ न अपनी चीजें बांटना चाहता है न अधिकार. उस की सोच का दायरा इतना संकुचित होता है कि वह सिर्फ अपने सुखदुख के बारे में ही सोचता है…’’ कहताकहता अजय तनिक रुक गया. उस ने गौर से मेरा चेहरा देखा तो मुझे लगा मानो वह कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘मां, आप भी तो उस दिन कह रही थीं न कि आज का इनसान इसीलिए इतना स्वार्थी होता जा रहा है क्योंकि वह अकेला है. घर में 2 बच्चों में अकसर 1 बहन 1 भाई होने लगा है और बहन के ससुराल जाने के बाद बेटा मांबाप की हर चीज का एकमात्र अधिकारी बन जाता है.’’

‘‘बड़ी गहरी बातें करने लगा है मेरा बच्चा,’’ हंस पड़ी मैं, ‘‘हां, यह भी सत्य है, हर संस्कार बच्चा घर से ही तो ग्रहण करता है. लेनादेना भी तभी आएगा उसे जब वह इस प्रक्रिया से गुजरेगा. देने का सुख क्या होता है, यह वह कैसे जान सकता है जिस ने कभी किसी को कुछ दिया ही नहीं.’’

‘‘तो फिर दादी आप से इतनी घृणा क्यों करती हैं? क्या आप उन का अपमान करती रही हैं? जिस का फल वह आप से नफरत कर के आप को देना चाहती हैं?’’

अवाक् रह गई मैं. अजय का सवाल कहां से कहां चला आया था. कुछ दिन पहले वह अपनी दादी के साथ रहने गया था. मैं चाहती तो बेटे को वहां जाने से रोक सकती थी क्योंकि जिस औरत ने कभी मुझ से प्यार नहीं किया वह मेरे खून से प्यार कैसे करेगी? फिर भी भेज दिया था. मैं नहीं चाहती कि मेरा बेटा मेरे कहने पर अपना व्यवहार निर्धारित करे.

20 साल का बच्चा इतना भी छोटा या नासमझ नहीं होता कि उसे रिश्तों के बारे में उंगली पकड़ कर चलाया जाए. रिश्तों की समझ उसे उन रिश्तों के साथ जी कर ही आए तो वही ज्यादा अच्छा है. अजय जितना मेरा है उतना ही वह अपनी दादी का भी है न.

‘‘मां, दादी तुम से इतनी नफरत क्यों करती हैं?’’ अजय ने अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘तुम दादी से ही पूछ लेते, यह सवाल मुझ से क्यों पूछ रहे हो?’’

हंस पड़ी मैं, यह सोच कर कि 3-4 दिन अपनी दादी के साथ रह कर मेरा बेटा यही बटोर पाया था. अब समझी मैं कि अजय इतना चुप क्यों है.

‘‘4 दिन मैं वहां रहा था मां. दादी ने जब भी आप से संबंधित कोई बात की उन की जबान की मिठास कड़वाहट में बदलती रही. एक बार भी उन के मुंह से आप का नाम नहीं सुना मैं ने. बूआ आईं तो उन्होंने भी आप के बारे में कुछ नहीं पूछा. पिछले दिनों आप अस्पताल में रहीं, आप का इतना बड़ा आपरेशन हुआ था. आप का हालचाल ही पूछ लेतीं एक बार.’’

‘‘तुम पूछते न उन से… पूछा क्यों नहीं…तुम्हारे पापा से भी मैं अकसर पूछती हूं पर वह भी कोई उत्तर नहीं देते. मुझे तो इतना ही समझ में आता है कि तुम्हारे पापा की पत्नी होना ही मेरा सब से बड़ा दोष है.’’

‘‘क्यों? क्या तुम्हारी शादी दादी की इच्छा के खिलाफ हुई थी?’’

‘‘नहीं तो. तुम्हारी दादी खुद गई थीं मेरा रिश्ता मांगने क्योंकि तुम्हारे पापा को मैं बहुत पसंद थी.’’

‘‘क्या पापा ने अपनी मां और बहन को मजबूर किया था इस शादी के लिए?’’

‘‘यह बात तुम अपने पापा से पूछना क्योेंकि कुछ सवालों का उत्तर मेरे पास है ही नहीं. लेकिन यह सच है कि तुम्हारी दादी ने हमारे 22 साल के विवाहित जीवन में कभी मुझ से प्यार के दो मीठे बोल नहीं बोले.’’

‘‘तुम तो उन के साथ भी नहीं रहती हो जो गिलेशिकवे की गुंजाइश उठती हो. जब भी हम घर जाते हैं या दादी यहां आती हैं वह आप से ज्यादा बात नहीं करतीं. हां, इतना जरूर है कि उन के आने से पापा का व्यवहार  बहुत अटपटा सा हो जाता है…अच्छा नहीं लगता मुझे… इसीलिए इस बार मैं उन के साथ रहने चला गया था यह सोच कर कि शायद मैं अकेला जाऊं तो उन्हें अच्छा लगे.’’

‘‘तो कैसा लगा उन्हें? क्या अच्छा लगा तुम्हें उन का व्यवहार?’’

‘‘मां, उन्हें तो मैं भी अच्छा नहीं लगा. एक दिन मैं ने इतना कह दिया था कि मां आलू की सब्जी बहुत अच्छी बनाती हैं. आप भी आज वैसी ही सब्जी बना कर खिलाएं. मेरा इतना कहना था कि दादी को गुस्सा आ गया. डोंगे में पड़ी सब्जी उठा कर बाहर डस्टबिन में गिरा दी. भूखा ही उठना पड़ा मुझे. रोेटियां भी उठा कर फेंक दीं. कहने लगीं कि इतनी अच्छी लगती है मां के हाथ की रोटी तो यहां क्या लेने आया है, जा, चला जा अपनी मां के पास…’’

अवाक् रह गई थी मैं. एक 80 साल की वृद्धा में इतनी जिद. बुरा तो लगा था मुझे लेकिन मेरे लिए यह नई बात नहीं थी.

‘‘क्या मैं अपनी मां के हाथ के खाने की तारीफ भी नहीं कर सकता हूं… आप का नाम लिया उस का फल यह मिला कि मुझे पूरी रात भूखा रहना पड़ा, ऐसा क्यों, मां?’’

मैं अपने बच्चे को उस क्यों का क्या उत्तर देती. मन भर आया मेरा. मेरा बच्चा पूरी रात भूखा रहा इस बात का अफसोस हुआ मुझे, मगर इतना संतोष भी हुआ कि मेरे सिवा कोई और भी है जिसे मेरी ही तरह अपमानित कर उस वृद्धा ने घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया. इस का मतलब अजय इसी वजह से जल्दी वापस चला आया होगा.

‘‘मेरे साथ तो तेरी दादी का व्यवहार ऐसा ही है. डोली से निक ली थी उस पल भी उन्होंने ऐसा ही व्यवहार किया था. तुम्हारे पापा ने तुम्हारी बूआ से बस, इतना ही कहा था कि दीदी, जरा शुभा को कुछ खिला देना, उस ने रास्ते में भी कुछ नहीं खाया. पर भाई के शगुन करना तो दूर, मांबेटी ने रोनापीटना शुरू कर दिया और उन के रोनेधोने से घर आए तमाम मेहमान जमा हो गए थे.’’

अब कोई नाता नहीं : अतुल-सुमित में से कौन बना अपना

Story in Hindi

मैडमजी: गीता ने किसे सबक सिखाया

‘‘प्रमोदजी, मैं यह क्या सुन रही हूं…’’ गीता मैडम पार्टी के इलाकाई प्रभारी प्रमोदजी के दफ्तर में कदम रखते हुए बोली.

‘‘क्या हुआ मैडमजी… इतना गुस्सा क्यों हो?’’ प्रमोदजी के चेहरे से साफ पता चल रहा था कि वे मैडमजी के गुस्से की वजह जानते हैं.

‘‘प्रमोदजी, बताएं कि पार्टी ने आने वाले इलैक्शन में मेरी जगह उस कल की आई लड़की सारिका को टिकट देने का फैसला किया है. कल की आई वह लड़की आज आप के लिए इतनी खास हो गई है कि उस को मेरी जगह दी जा रही है?’’

‘‘अरे मैडमजी, आप कहां सब की बातों में आ रही हैं. आप तो पार्टी की पुरानी कार्यकर्ता हैं. आप ने तो पार्टी के लिए बहुतकुछ किया है. हम भी आप के बारे में सोचते, पर नेताजी के निर्वाचन समिति को आदेश हैं कि इस बार सब नए लोगों को ही आगे करना है…

‘‘दूसरी पार्टियां रोज नएनए चेहरों के साथ अखबारों में बने रहना चाहती हैं. बस, जनता को दिखाने के लिए हमारी पार्टी भी खूबसूरत चेहरों को आगे लाना चाहती है. ये कल के आए बच्चे हमारी और आप की जगह थोड़े ही ले सकते हैं,’’ बात करतेकरते प्रमोदजी ने अपना हाथ मैडमजी के हाथ पर रख दिया, ‘‘मैडमजी, हमारी नजर से देखो, तो उस सारिका से लाख गुना खूबसूरत हैं आप. पर नेताजी को कौन समझाए.’’

प्रमोदजी के चेहरे की मुसकान उन के इरादे साफ बता रही थी, पर छोटू की चाय ने उन को अपना हाथ मैडमजी के हाथ से हटाने पर मजबूर कर दिया.

छोटू चाय रख कर चला गया, तो मैडमजी ने फिर अपनी नाराजगी जताई, ‘‘प्रमोदजी, आप इन बातों से मुझे बहलाने की कोशिश मत कीजिए. आप के कहने पर मैं ने पिछली बार भी परचा नहीं भरा, क्योंकि आप चाहते थे कि आप की भाभी इलैक्शन लड़े. तब मैं भी नई थी और आप की बात मान गई थी. पर अब क्या? सारिका 2 साल पहले पार्टी से जुड़ी है और उस को टिकट मिल रहा है. यह गलत है. आप एक बार मेरी मुलाकात नेताजी से तो कराइए.

‘‘प्रमोदजी, मैं ने हमेशा वही किया है, जो आप ने कहा. कितनी बार आप के कहने पर झूठ भी बोला…यहां तक कि आप के कहने पर उस मनोहर पर गलत आरोप भी लगाए, ताकि आप इस कुरसी पर बने रहें. पर मुझे क्या मिला?

‘‘प्रमोदजी, आप जो कहेंगे, मैं करूंगी. बस, एक बार टिकट दिलवा दीजिए, फिर देखिए जीत तो मेरी पक्की है. आप समझ रहे हैं न,’’ इस बार मैडमजी ने प्रमोदजी का हाथ पकड़ लिया.

जब मैडमजी ने खुद प्रमोदजी का हाथ पकड़ लिया, तो उन की तो मानो मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई. उन्होंने मैडमजी को भरोसा दिया कि वे आज ही नेताजी से उन के लिए बात करेंगे.

मैडमजी अपना धूप का चश्मा सिर से वापस आंखों पर लगा कर दफ्तर से घर चली आईं.

‘‘क्या बात है गीता, आज जल्दी घर आ गईं? कोई पार्टी या मीटिंगविटिंग नहीं थी आज?’’

घर में आते ही मैडमजी सिर्फ गीता बन जाती थीं, जो मैडमजी को बिलकुल पसंद नहीं था.

अपने पति की यह बात सुन कर वे एकदम चिढ़ गईं और बिना जवाब दिए अपने कमरे में चली गईं.

मैडमजी को पैसों की कोई कमी नहीं थी. उन को कमी थी तो एक पहचान की. मैडमजी सुनने की आदत हो गई थी उन को. उन का यही सपना था कि लोग सलाम करें, हाथ जोड़ कर आगेपीछे घूमें. वे सत्ता का नशा चखना चाहती थीं और इस के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थीं.

‘‘क्या बात है गीता, बहुत परेशान दिख रही हो?’’ कहते हुए समीर ने कमरे की बत्ती जलाई, तो मैडमजी को एहसास हुआ कि रात हो गई है.

‘‘नहीं, कुछ नहीं. बस, सिरदर्द कर रहा है. दवा ली है. ठीक हो जाऊंगी. आप कहीं जा रहे हैं क्या?’’

‘‘हां… तुम को कल रात को बताया तो था कि मैं आज रात को 3 दिन के लिए बाहर जा रहा हूं. अगर ज्यादा तबीयत खराब हो, तो डाक्टर बुला लेना,’’ समीर इतना कह कर कमरे से बाहर चला गया.

समीर के जाते ही गीता ने फोन उठा कर प्रमोदजी को मिला दिया, ‘‘हैलो प्रमोदजी, मैं बोल रही हूं. क्या आप ने नेताजी से बात की?’’

‘‘अरे मैडमजी, मैं आप के बारे में ही सोच रहा था. आज आप गजब की लग रही थीं. क्या मदहोश खुशबू आती है…अभी तो घर पर हूं, कल दफ्तर जा कर आप से बात करता हूं,’’ प्रमोदजी के पास से शायद उन की पत्नी की आवाज आ रही थी, इसलिए उन्होंने फोन जल्दी रख दिया.

मैडमजी भी कच्ची खिलाड़ी नहीं थी. सारी रात जाग कर उन्होंने सोच लिया था कि आगे क्या करना है, जिस से सारिका को टिकट न मिले और प्रमोद को भी सबक मिल जाए.

अगले दिन अपनी अलमारी से नोटों की 3 गड्डियां पर्स में डाल कर मैडमजी जल्दी ही घर से निकल गईं. सीधे कौफी हाउस पहुंच कर वे पत्रकारों से मिलीं. उन्हें कुछ समझाया और एक नोट की गड्डी उन्हें दी.

फिर वे एक सुनसान जगह पर 6-7 लड़कों से मिलीं. नोटों की बाकी गड्डी और एक फोटो उन को दी. थोड़ी देर बात की और तेजी से निकल गईं. वहां से वे सीधे प्रमोदजी के दफ्तर पहुंच गईं.

वहां अभी कोई नहीं आया था. बस, छोटू सफाई कर रहा था. वे चुपचाप छोटू के पास गईं, उसे कुछ समझाया. उस के हाथ में सौ रुपए का एक नोट रख दिया.

अब इंतजार था प्रमोदजी का. बाथरूम में जा कर मैडमजी ने पर्स से लिपस्टिक निकाल कर दोबारा लगाई और प्रमोदजी का इंतजार करने लगीं.

दफ्तर में मैडमजी को देख कर प्रमोदजी पहले थोड़ा हैरान हुए, पर वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘मैडमजी, आप इतनी सुबहसुबह?’’

‘‘बस, क्या बताऊं प्रमोदजी, सारी रात सो नहीं पाई,’’ इतना कह कर मैडमजी ने साड़ी का पल्लू सरका दिया और बोलीं, ‘‘अरे, यह पल्लू भी न… माफ कीजिए,’’ फिर उन्होंने अदा से अलग पल्लू ठीक कर लिया.

‘‘मैडमजी, आज तो आप कहर बरपा रही हैं. यह रंग बहुत जंचता है आप पर,’’ प्रमोदजी मैडमजी के पास आ कर बोले.

‘‘आप भी न प्रमोदजी, बस कुछ भी…’’ मैडमजी ने अपना सिर प्रमोदजी के कंधे पर रख दिया.

उन्होंने मैडमजी की कमर पर हाथ रखना चाहा, पर उसी वक्त छोटू चाय ले कर आ गया और वे सकपका कर मैडमजी से दूर हो गए और बोले, ‘‘मैं ने तो चाय नहीं मंगवाई. चल, भाग यहां से.’’

‘‘प्रमोदजी, चाय मैं ने मंगवाई थी. रख दे यहां. चल, तू जा,’’ मैडमजी ने फिर अदा से प्रमोदजी की ओर देखा, पर प्रमोदजी को एहसास हो गया था कि वे पार्टी दफ्तर में हैं, इसलिए अपनी कुरसी पर जा कर बैठ गए.

मैडमजी खुश थीं कि छोटू एकदम सही वक्त पर आया.

‘‘प्रमोदजी, बातें तो होती ही रहेंगी. आप यह बताओ कि नेताजी से बात कब करोगे?’’

‘‘मैडमजी, बस आज ही… रैली के बारे में बात करने मैं आज ही पार्टी दफ्तर जा रहा हूं. आप के बारे में भी बात कर लूंगा.’’

‘‘पर आप को लगता है कि वे मानेंगे?’’ मैडमजी ने चिंता जताई.

‘‘अरे, वह सब आप मुझ पर छोड़ दो,’’ प्रमोदजी ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘नहीं, आप ही कह रहे थे न कल कि नए चहरे… बस, इसलिए पूछा… और नेताजी अपना फैसला बदलेंगे,’’ मैडमजी फिर अदा से बोलीं.

‘‘इतने सालों में आप हमें ठीक से जान नहीं पाई हैं. पार्टी में अच्छी पकड़ है हमारी. हाईकमान के फैसले को बदलना मेरे लिए कोई मुश्किल बात नहीं,’’ प्रमोदजी अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रहे थे और मैडमजी कुरसी पर टेक लगा कर उन की बातें अपने फोन पर रिकौर्ड कर रही थीं.

प्रमोदजी आगे बोले, ‘‘मैडमजी, इतने साल तक पार्टी में झक नहीं मारी है मैं ने. हर किसी की कमजोरी जानता हूं. हर किसी को बोतल में उतार कर ही यहां तक पहुंचा हूं. आप ने तो देखा ही है कि जो मेरी बात नहीं मानता, उस का हाल उस मनोहर जैसा होता है.

‘‘बेचारा कुछ किए बिना ही जेल की हवा खा रहा है. और नेताजी के भी कई किस्से इस दिल में कैद हैं,’’ मैडमजी के सामने अपनी शान दिखाने के चक्कर में प्रमोदजी न जाने क्याक्या बोल गए.

मैडमजी का काम हो चुका था. वे किसी काम का बहाना कर के वहां से निकल गईं. अब उन्हें अगले काम के पूरा होने का इंतजार था. घर जाने का उन का मन नहीं था, इसलिए वे पास की कौफी शौप में जा कर बैठ गईं. समय देखा… अब तक तो खबर आ जानी चाहिए थी.

मैडमजी कौफी पी कर पैसे देने ही वाली थीं कि उन की नजर टैलीविजन पर गई. चेहरे पर हलकी मुसकान आ गई. पर्स उठा कर वापस प्रमोदजी के दफ्तर आ गईं.

प्रमोदजी फोन पर थे. वे काफी परेशान थे, ‘‘नहीं नेताजी, मुझे तो कुछ भी नहीं पता. यह खबर सच्ची है या नहीं… आप यकीन कीजिए, मुझे नहीं पता था कि सारिका कालेज में दाखिले के नाम पर छात्रों से पैसे लेती है…

‘‘पर नेताजी, आप मेरी बात तो सुनो. आप मुझे… ठीक है, जैसा आप कहो,’’ प्रमोदजी ने पलट कर के देखा, ‘‘अरे मैडमजी, अच्छा हुआ आप आ गईं.’’

‘‘क्या हुआ प्रमोदजी?’’ मैडमजी ने झूठी चिंता जताई.

‘‘हां मैडमजी, पार्टी दफ्तर से फोन था. कुछ लड़कों ने किसी टैलीविजन रिपोर्टर को इंटरव्यू दिया है कि कालेज में दाखिला करवाने के नाम पर सारिका ने उन से मोटी रकम ली है. अब देखो, इतना बड़ा कांड कर दिया और हमें कानोंकान खबर तक नहीं…’’

प्रमोदजी कुरसी पर बैठते हुए बोले, ‘‘नेताजी ने फिर हमें जिम्मेदारी दे दी है. उन का मानना है कि इस बार किसी भी बदनाम आदमी को टिकट तो क्या, पार्टी में भी जगह न दी जाए,’’ कहते हुए प्रमोदजी के चेहरे से एकदम चिंता के भाव गायब हो गए, जैसे उन के शैतानी दिमाग में कुछ आया हो.

‘‘मैडमजी, इस से पहले कि फिर कोई नया चेहरा सामने आए, मैं आप का नाम आगे कर देता हूं… कल नेताजी से मिलने जा रहा हूं, तो आज शाम को पहले आप से एक छोटी सी मुलाकात हो जाए… दफ्तर के पीछे वाले मेरे फ्लैट पर.’’

प्रमोदजी की बात सुन कर मैडमजी फिर मुसकारा दीं और बोलीं, ‘‘प्रमोदजी, नाम तो आप को मेरा ही लेना होगा और कान खोल कर सुन लो, अगर मेरे बारे में कोई गलत खयाल मन में भी लाए, तो आप भी इस पार्टी में नजर नहीं आएंगे.

‘‘…अब ध्यान से मेरी बात सुनो. जिन लड़कों ने सारिका पर इलजाम लगाया है, वे सारिका के साथसाथ आप का नाम भी ले सकते थे, पर मुझे इस पार्टी में लाने वाले आप थे, मैं ने हमेशा आप को अपने पिता जैसा माना, इसलिए अपनी परेशानी ले कर मैं आप के पास आई और आप मुझ पर ही गंदी नजर रखे हुए हैं. शर्म नहीं आई आप को…’’

इतना कह कर मैडमजी ने अपने मोबाइल फोन से अपनी और प्रमोदजी के बीच हुई सारी बातों की रिकौर्डिंग उन्हें सुना दी. प्रमोदजी को पसीने आ गए.

‘‘अब आप के लिए बेहतर होगा कि नेताजी को अभी फोन कर के मेरे नाम पर मुहर लगवा दीजिए, वरना कल आप की यह आवाज हर टैलीविजन चैनल पर सुनने को मिलेगी,’’ मैडमजी पर्स संभालते हुए तेज कदमों से कमरे से बाहर निकल गईं.

शाम होतेहोते मैडमजी के खास कार्यकर्ताओं के उन्हें टिकट मिलने की बधाई देने के फोन आने भी शुरू हो गए थे.

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