बोसीदा छत: क्या अजरा अपनी मां को बचा पाई?

जब जीनत इस घर में दुलहन बन कर आई थी, तब यह घर इतना बोसीदा और जर्जर नहीं था. पुराना तो था, लेकिन ठीकठाक था. उस के ससुर का गांव में बड़ा रुतबा था. वे गांव के जमींदार के लठैत हुआ करते थे, जिन से गांव के लोग खौफ खाते थे. सास नहीं थीं. शौहर तल्हा का रंग सांवला था, लेकिन वह मजबूत कदकाठी का नौजवान था, जो जीनत से बेइंतिहा मुहब्बत करता था.

एक दिन खेतों में पानी को ले कर मारपीट हुई, जिस में जीनत के ससुर मार दिए गए. तब से समय ने जो पलटा खाया, तो फिर आज तक मनमुताबिक होने का नाम नही लिया.

फिर समय के साथसाथ घर की छत भी टपकने लगी. अपने जीतेजी तल्हा से 10,000 रुपयए का इंतजाम न हो सका कि वह अपने जर्जर मकान के खस्ताहाल और बोसीदा छत की मरम्मत करा सके.

चौदह साल की अजरा ने तुनकते हुए अपनी अम्मी जीनत से कहा, “अम्मी, आलू की सब्जी और बैगन का भरता खातेखाते अब जी भर गया है. कभी गोश्तअंडे भी पकाया करें.”

इस पर जीनत बोली, “अरे नाशुक्री, अभी पिछले ही हफ्ते लगातार 3 दिनों तक कुरबानी का गोश्त खाती रही और इतनी जल्दी फिर तुम्हारी जबान चटपटाने लगी.”

अजरा ने फिर तुनकते हुए कहा, “मालूम है अम्मी… बकरीद को छोड़ कर साल में एक बार भी खस्सी का गोश्त खाने को नहीं मिलता है. काश, हर महीने बकरीद होती, तो कितना अच्छा होता.”

उस की अम्मी ने कहा, “जो भी चोखाभात मिल रहा है, उस का शुक्र अदा करो. बहुत सारे लोग भूखे पेट सोते हैं. और जो यह छत तुम्हारे सिर के ऊपर मौजूद है, इस का भी शुक्र अदा करो. इस बोसीदा छत की कीमत उन लोगों से पूछो जिन के सिरों पर छप्पर भी नहीं है. इस सेहत और तंदुरुस्ती का भी शुक्र अदा करो… जो लोग बीमारी की जद में हैं, उन से सेहत और तंदुरुस्ती की कीमत पूछो…”

अगले दिन जोरों से बारिश हो रही थी. अजरा ने अम्मी को भीगते हुए आते देखा तो दौड़ कर एक फटी हुई चादर ले आई और उन के गीले जिस्म को पोंछने लगी. जीनत पूरी तरह पानी से भीग चुकी थी. उस के कपड़े जिस्म से चिपक कर उस की बूढ़ी हड्डियों को दिखा रहे थे.

जीनत ने उस फटी चादर को सूंघा फिर अलगनी पर फेंक दिया. फिर भीगे हुए दुपट्टे से पानी निचोड़ा, उसे झटका और फिर अलगनी पर सूखने के लिए फैला दिया.

अजरा कनखियों से देख रही थी कि उस की अम्मी छत के एक कोने को बड़े गौर से देख रही हैं.

जीनत ने खुश होते हुए कहा, “देखो अजरा… इस बार उस कोने से पानी नहीं टपक रहा है. कई दिनों की बारिश के बाद भी वह हिस्सा पहले की तरह ही सूखा हुआ है.”

अजरा ने दूसरे कोने की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “लेकिन अम्मी, उस कोने से तो पानी चू रहा है.”

जीनत उस की बात का जवाब दिए बिना ही कमरे से निकल गई और थोड़ी देर बाद मिट्टी का एक बड़ा सा घड़ा ले कर लौटी और उसे टपक रहे पानी के नीचे रख दिया. फिर पानी बूंदबूंद कर के उस में गिरने लगा और अगलबगल की जमीन गीली होने से बच गई.

सैकड़ों साल पुराना यह मकान आहिस्ताआहिस्ता जर्जर होता जा रहा था. ईंट के चूरे, चूना वगैरह से बनी उस की छत अब अपनी उम्र पूरी कर चुकी थी.

जीनत ने 3 साल पहले छत को बड़े नुकसान से बचाने के लिए उस पर सीमेंटबालू से पलास्तर करा दिया था. मगर फिर भी बारिश का पानी किसी न किसी तरह रिसता हुआ फर्श पर टपकता ही रहता था. अलबत्ता इस बार कमरे का सिर्फ एक कोना टपक रहा था, बाकी हिस्से सहीसलामत थे.

रात में सोते समय जीनत का सारा ध्यान बस 2 बातों पर जाता था कि अजरा की शादी कैसे होगी और इस बोसीदा छत की मरम्मत कैसे होगी. अजरा की शादी से पहले छत की मरम्मत तो हर हाल में हो जानी चाहिए. शादी में लोगबाग आएंगे तो उन का ध्यान छत की तरफ जा सकता है.

रात में अजरा तो घोड़े बेच कर सो जाती, लेकिन जीनत का सारा ध्यान इसी उधेड़बुन में उलझा रहता. पानी चूने वाले जगहों पर पड़े बड़ेबड़े बोसीदा निशान जीनत को चिढ़ाते रहते. आंधीतूफान और बरसात के दिनों में तो उस का हाथ कलेजे पर ही रहता. हालांकि दीवारें तो काफी मोटी थीं, लेकिन छत खस्ताहाल हो चुकी थी.

कभीकभी शौहर तल्हा भी जीनत के खयालों में टहलता हुए आ जाता. मजदूरी कर के लौटते वक्त उस के बदन से उठ रही पसीने की खुशबू की याद से जीनत सिहर उठती. वह यादों में खो कर अजरा के माथे पर हाथ फेरने लगती.

‘अब्बू, जलेबी लाए हैं?’ सवाल करते हुए अजरा अपने अब्बू से लिपट जाती. फिर तल्हा अपने थैले से जलेबी का दोना निकाल कर अजरा को थमा देता और वह खुश हो जाती.

5 साल पहले अजरा के अब्बा तल्हा खेत में कुदाल चलाते हुए गश खा कर ऐसे गिरे कि फिर उठ नहीं सके. तब से जीनत मेहनतमजदूरी कर के अपनी एकलौती बेटी की परवरिश कर रही है और उसे पढ़ालिखा रही है. जीनत की ख्वाहिश है कि अजरा पढ़लिख कर अपने परिवार का नाम रोशन करे.

जीनत हर साल बरसात से पहले छत की मरम्मत कराने की सोचती है, लेकिन कोई न कोई ऐसा खर्च निकल आता है कि छत की मरम्मत का सपना अधूरा रह जाता है. जैसे इसी साल अजरा के फार्म भरने और इम्तिहान देने में 2,000 रुपए खर्च हो गए और छत की मरम्मत का काम आगे सरकाना पड़ा.

बरसात के बाद रमजान का महीना आ गया. अगलबगल के घरों से इफ्तार का सामान मांबेटी की जरूरतों से ज्यादा आने लगा. सेहरी व इफ्तार में लजीज पकवान खा कर अजरा बहुत खुश रहा करती.

अजरा ने कहा, “अम्मी, अगर सालभर रमजान का महीना रहता तो कितना मजा आता…”

अजरा की बात सुन कर जीनत मुसकरा कर रह गई.

इसी बीच अजरा की सहेलियों ने बताया कि हालफिलहाल ‘मस्तानी सूट’ का खूब चलन है. इस ईद पर हम सब वही सिलवाएंगे. फिर क्या था… अजरा ने भी अपनी अम्मी से ‘मस्तानी सूट’ की फरमाइश शुरू कर दी.

जीनत अपनी बेटी अजरा का दिल कभी नहीं तोड़ना चाहती है. अलबत्ता उस की ख्वाहिशों पर लगाम लगाने की भरपूर कोशिश करती है.

जीनत ने अजरा को समझाते हुए कहा, “बेटी, यह ‘मस्तानी सूट’ हम गरीबों के लिए नहीं है. उस की कीमत 1,000 रुपए है. अगर उस में 1,000 रुपए और जोड़ लें तो इस बोसीदा छत की मरम्मत हो जाएगी.”

बहरहाल, रमजान का आधा महीना गुजर गया. इस बीच मजदूरी करकर के जीनत के पास कुछ पैसे जमा हो गए थे. उस ने ईद के बाद इस बोसीदा छत से नजात पाने का इरादा कर लिया था.

जीनत ने अजरा से कहा, “मैं तो सोच रही थी कि ईद के बाद छत की मरम्मत करा ली जाए. अब तुम्हारा ‘मस्तानी सूट’ बीच में आ गया. ईद का खर्च अलग है. अगर कहीं से जकात की मोटी रकम मिल जाए तो सब काम आसानी से हो जाएं…”

गरीबों के अरमान रेत के महलों की तरह सजते हैं और फिर भरभरा कर गिर जाते हैं. जब मेहनतमजदूरी से भी अरमान पूरे नहीं होते तो इमदाद और सहारे की उम्मीद होने लगती है. अमीरों की दौलत से निकाली हुई मामूली रकम जकात के रूप में उन के बहुत काम आती है.

ईद से ठीक 4 दिन पहले स्कूल में अजरा को खबर मिली कि उस की अम्मी खेत में बेहोश हो कर गिर पड़ी हैं. वह बदहवास हो कर मां को देखने दौड़ पड़ी.

लोगों ने जीनत को चारों तरफ से घेर रखा था. लोगों की भीड़ देख कर अजरा और बदहवास हो गई. तबतक गांव के नन्हे कंपाउंडर भी वहां पहुंच चुके थे. उन्होंने नब्ज देखते हुए नाउम्मीदी में सिर हिला दिया.

लोग कहने लगे, ‘बेचारी रोजे की हालत में मरी है, सीधे जन्नत में जाएगी…’

किसी ने अजरा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “बेचारी के सिर से मां का साया भी उठ गया. आखिर बाप वाला हाल मां का भी हो गया.”

लेकिन अजरा को यकीन नहीं हो रहा था कि उस की अम्मी मर चुकी हैं. वह पागलों की तरह दौड़ते हुए गांव में गई और केदार काका का ठेला खींचते हुए खेत तक ले आई.

अजरा ने रोते हुए लोगों से कहा, “मेहरबानी कर के मेरी अम्मी को जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचाने में मेरी मदद करें.”

लोगों ने उस की दीवानगी देखी तो जीनत को ठेले पर लादा और अस्पताल के लिए दौड़ पड़े.

अस्पताल पहुंचने में एक घंटा लगा. आधे घंटे तक मुआयना करने के बाद आखिरकार डाक्टरों ने जीनत को मुरदा करार कर दे दिया.

यह सुनते ही अजरा वहीं गिर पड़ी. लोगों ने सोचा कि लड़की रोजे से है. मां की मौत का सदमा और भागदौड़ बरदाश्त नहीं कर सकी है.

डाक्टरों ने उस की नब्ज देखी और हैरत से एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

धीरेधीरे गांव के लोग सरकने लगे. अब मांबेटी दोनों की लावारिस लाश का पंचनामा बन रहा था.

कोरा कागज: माता-पिता की सख्ती से घर से भागे राहुल के साथ क्या हुआ?

राहुल औफिस से घर आया तो पत्नी माला की कमेंट्री शुरू हो गई, ‘‘पता है, हमारे पड़ोसी शर्माजी का टिंकू घर से भाग गया.’’

‘‘भाग गया? कहां?’’ राहुल चौंक कर बोला.

‘‘पता नहीं, स्कूल की तो आजकल छुट्टी है. सुबह दोस्त के घर जाने की बात कह कर गया था. तब से घर नहीं आया.’’

‘‘अरे, कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई. पुलिस में रिपोर्ट की या नहीं?’’ राहुल डर से कांप उठा.

‘‘हां, पुलिस में रिपोर्ट तो कर दी पर 13-14 साल का नादान बच्चा न जाने कहां घूम रहा होगा. कहीं गलत हाथों में न पड़ जाए. नाराज हो कर गया है. कल रात उस को बहुत डांट पड़ी थी, पढ़ाई के कारण. उस की मां तो बहुत रो रही हैं. आप चाय पी लो. मैं जाती हूं, उन के पास बैठती हूं. पड़ोस की बात है, चाय पी कर आप भी आ जाना,’’ कह कर माला चली गई.

राहुल जड़वत अपनी जगह पर बैठा का बैठा ही रह गया. उस के बचपन की एक घटना भी कुछ ऐसी ही थी, जरा आप भी पढ़ लीजिए :

वर्षों पहले उस दिन बस से उतर कर राहुल नीचे खड़ा हो गया था. ‘अब कहां जाऊं?’ वह सोचने लगा, ‘पिता की डांट से दुखी हो कर मैं ने घर तो छोड़ दिया. आगरा से दिल्ली भी पहुंच गया, लेकिन अब कहां जाऊं? घर तो किसी हालत में नहीं जाऊंगा.’ उस ने अपना इरादा पक्का किया, ‘पता नहीं क्या समझते हैं मांबाप खुद को. हर समय डांट, हर समय टोकाटाकी, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, टीवी मत देखो, दोस्तों से फोन पर बात मत करो, हर समय बस पढ़ो.’

उस की जेब में 500 रुपए थे. उन्हें ही ले कर वह घर से चल दिया था. 13 साल के राहुल के लिए 500 रुपए बहुत थे.

दुनिया घर से बाहर कितनी भयानक और जिंदगी कितनी त्रासदीपूर्ण होती है इस का उसे अंदाजा भी नहीं था. नीली जींस और गुलाबी रंग का स्वैटर पहने स्वस्थ, सुंदर बच्चा अपने पहनावे और चालढाल से ही संपन्न घर का लग रहा था.

बस अड्डे पर बहुत भीड़ थी. राहुल एक तरफ खड़ा हो गया. बसों की रेलमपेल, टिकट खिड़की की लाइन, यात्रियों का रेला, चढ़नाउतरना. टैक्सी व आटो वालों का यात्रियों के पीछे पड़ना. यह सब वह खड़ेखड़े देख रहा था.

उस के मन में तूफान सा भरा था. घर तो जाना ही नहीं है. जब वह शाम तक घर नहीं पहुंचेगा तब सब उसे ढूंढ़ेंगे. मां रोएंगी. पिता चिंता करेंगे. बहन उस के दोस्तों के घर फोन मिलाएगी. खूब परेशान होंगे सब. अब हों परेशान. जब पापा हर समय डांटते रहते हैं, मां हर छोटीछोटी बात पर पापा से उस की शिकायत करती रहती हैं तब वह रोता है तो किसी को नहीं दिखता है.

पापा के घर आते ही जैसे घर में कर्फ्यू लग जाता है. न कोई जोर से बोलेगा, न जोर से हंसेगा, न फोन पर बात करेगा, न टीवी देखेगा. उन्हें तो बस बच्चे पढ़ते हुए नजर आने चाहिए. हर समय पढ़ने के नाम से तो उसे नफरत सी हो गई.

छोटीछोटी बातों पर दोनों झगड़ते भी रहते हैं. छोटेमोटे झगड़े से तो इतना फर्क नहीं पड़ता पर जब पापा के दहाड़ने की और मां के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है तो वह दीदी के पहलू में छिप जाता है. बदन में कंपकंपी होने लगती है. अब कहीं उस का भी नंबर न आ जाए पिटने का, वैसे भी उस के रिपोर्ट कार्ड से पापा हमेशा ही खफा रहते हैं.

अगले कुछ दिनों तक घर का वातावरण दमघोंटू हो जाता है. मां की आंखें हर वक्त आंसुओं से भरी रहती हैं और पापा तनेतने से रहते हैं. उसे संभल कर रहना पड़ता है. दीदी बड़ी हैं, ऊपर से पढ़ने में अच्छी, इसलिए उन को डांट कम पड़ती है.

वह घर के वातावरण के ठीक होने का इंतजार करता है. घर के वातावरण का ठीक होना पापा के मूड पर निर्भर करता है. बड़ी मुश्किल से पापा का मूड ठीक होता है. जब तक सब चैन की सांस लेते हैं तब तक किसी न किसी बात पर उन का मूड फिर खराब हो जाता है. तंग आ गया है वह घर के दमघोंटू वातावरण से.

इस बार तिमाही परीक्षा के रिजल्ट पर मैडम ने पापा को बुलाया. स्कूल से आ कर पापा ने उसे खूब डांटा, मारा. उस का हृदय दुखी हो गया. पापा के शब्द अभी तक उस के कानों में गूंज रहे थे, ‘तेरे जैसी औलाद से तो बेऔलाद होना अच्छा है.’

उस का हृदय तारतार हो गया था. उसे कोई पसंद नहीं करता. उस की समस्या, उस के नजरिए से कोई देखना नहीं चाहता, समझना ही नहीं चाहता. दीदी कहती हैं कि पढ़ाई अच्छी कर ले, सब ठीक हो जाएगा लेकिन उस का मन पढ़ाई में लगता ही नहीं. पढ़ाई उसे पहाड़ जैसी लगती है. उस ने दीदी से कहा भी था कि मैथ्स, साइंस में उस का मन बिलकुल नहीं लगता, उसे समझ ही नहीं आते दोनों विषय, पर पापा कहते हैं साइंस ही पढ़ो. वैसे भी विषय तो वह 10वीं के बाद ही बदल सकता है. राहुल इसी सोच में डूबा था कि एक टैक्सी वाले ने उसे जोर से डांट दिया.

‘अबे ओ लड़के, मरना है क्या? बीचोंबीच खड़ा है, बेवकूफ की औलाद. एक तरफ हट कर खड़ा हो.’

राहुल अचकचा कर एक तरफ खड़ा हो गया. ऐसे गाली दे कर तो कभी किसी ने उस से बात नहीं की थी.

उस की आंखें अनायास ही छलछला आईं पर उस ने खुद को रोक लिया. उसे इस तरह सोचतेसोचते काफी लंबा समय बीत गया था. शाम ढलने को थी. भूख लग आई थी और ठंड भी बढ़ रही थी. उस के बदन पर सिर्फ एक स्वैटर था. उस ने गले का मफलर और कस कर लपेटा और सामने खड़े ठेलीवाले वाले की तरफ बढ़ गया. सोचा पहले कुछ खा ले फिर आगे की सोचेगा. ठेली पर जा कर उस ने कुछ खानेपीने का सामान लिया और एक तरफ बैठ कर खाने लगा.

तभी एक बदमाश किस्म का लड़का उस के चारों तरफ चक्कर काटने लगा. वह बारबार उस की बगल में आ कर खड़ा हो जाता. आखिर राहुल से न रहा गया. वह बोला, ‘क्या बात है, आप इस तरह मेरे चारों तरफ क्यों घूम रहे हैं?’

‘साला, अकड़ किसे दिखा रहा है? तेरे बाप की सड़क है क्या?’ लड़का अपने पीले दांतों को पीसते हुए बोला.

राहुल उस के बोलने के अंदाज से डर गया.

‘मैं तो सिर्फ पूछ रहा था,’ कह कर वह वहां से हट कर थोड़ा अलग जा कर खड़ा हो गया. लड़का थोड़ी देर बाद फिर उस के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘कहां से आया है बे? अकेला है क्या?’ वह आंखें नचाता हुआ राहुल से पूछने लगा. राहुल ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘अबे बोलता क्यों नहीं, कहां से आया है? अकेला है क्या?’

‘आगरा से,’ किसी तरह राहुल बोला.

‘अकेला है क्या?’

राहुल फिर चुप हो गया.

‘अबे लगाऊं एक, साला, बोलता क्यों नहीं?’

‘हां,’ राहुल ने धीरे से कहा.

‘अच्छा, घर से भाग कर आया है,’ उस लड़के के हौसले थोड़े और बुलंद हो गए. तभी वहां उसी की तरह के उस से कुछ बड़े 3 लड़के और आ गए.

‘राजेश, यह कौन है?’ उन लड़कों में से एक बोला.

‘घर से भाग कर आया है. अच्छे घर का लगता है. अपने मतलब का लगता है. उस्ताद खुश हो जाएगा,’ उस ने पूछने वाले के कान में फुसफुसाया.

‘क्यों भागा बे घर से, बाप की डांट खा कर?’ दूसरे लड़के ने राहुल से पूछा.

‘हां,’ राहुल उन चारों को देख कर डर के मारे कांप रहा था.

‘मांबाप साले ऐसे ही होते हैं. बिना बात डांटते रहते हैं. मैं भी घर से भाग गया था, मां के सिर पर थाली मार कर,’ वह उस के गाल सहला कर, उस को पुचकारता हुआ बोला, ‘ठीक किया तू ने, चल, हमारे साथ चल.’

‘मैं तुम लोगों के साथ नहीं जाऊंगा,’ राहुल सहमते हुए बोला.

‘अबे चल न, यहां कहां रहेगा? थोड़ी देर में रात हो जाएगी, तब कहां जाएगा?’ वे उसे जबरदस्ती अपने साथ ले जाना चाह रहे थे.

‘नहीं, मुझे अकेला छोड़ दो. मैं तुम लोगों के साथ नहीं जाऊंगा,’ डर के मारे राहुल की आंखों से आंसू बहने लगे. वह उन से अनुनय करने लगा, ‘प्लीज, मुझे छोड़ दो.’

‘अरे, ऐसे कैसे छोड़ दें. चलता है हमारे साथ या नहीं? सीधेसीधे चल वरना जबरदस्ती ले जाएंगे.’

इस सारे नजारे को थोड़ी दूर पर बैठे एक सज्जन देख रहे थे. उन्हें लग रहा था शायद बच्चा अपनों से बिछड़ गया है.

उन लड़कों की जबरदस्ती से राहुल घबरा गया और रोने लगा. अंधेरा गहराने लगा था. डर के मारे राहुल को घर की याद भी आने लगी थी. घर वालों को मालूम भी नहीं होगा कि वह इस समय कहां है. वे तो उसे आगरा में ढूंढ़ रहे होंगे.

आखिर एक लड़के ने उस का हाथ पकड़ा और जबरदस्ती अपने साथ घसीटने लगा. राहुल उस से हाथ छुड़ाने की कोशिश कर रहा था. दूर बैठे उन सज्जन से अब न रहा गया. उन का नाम सोमेश्वर प्रसाद था, एकाएक वे अपनी जगह से उठ कर उन लड़कों की तरफ बढ़ गए और साधिकार राहुल का हाथ पकड़ कर बोले, ‘अरे, बंटी, तू कहां चला गया था? मैं तुझे कितनी देर से ढूंढ़ रहा हूं. ऐसे कोई जाता है क्या? चल, घर चल जल्दी. बस निकल जाएगी.’

फिर उन लड़कों की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘क्या कर रहे हो तुम लोग मेरे बेटे के साथ? करूं अभी पुलिस में रिपोर्ट. अकेला बच्चा देखा नहीं कि उस के पीछे पड़ गए.’

सोमेश्वर प्रसाद को एकाएक देख कर लड़के घबरा कर भाग गए. राहुल सोमेश्वर प्रसाद को देख कर चौंक गया. लेकिन परिस्थितियां ऐसी थीं कि उस ने उन के साथ जाने में ही भलाई समझी. उम्रदराज शरीफ लग रहे सज्जन पर उसे भरोसा हो गया.

थोड़ी देर बाद राहुल सोमेश्वर प्रसाद के साथ जयपुर की बस में बैठ कर चल दिया.

सोमेश्वर प्रसाद का स्टील के बरतनों का व्यापार था और वे व्यापार के सिलसिले में ही दिल्ली आए थे. सोमेश्वर प्रसाद ने उस के बारे में जो कुछ पूछा, उस ने सभी बातों का जवाब चुप्पी से ही दिया. हार कर सोमेश्वरजी चुप हो गए और उन्होंने उसे अपने घर ले जाने का निर्णय ले लिया.

घर पहुंचे तो उन की पत्नी उन के साथ एक लड़के को देख कर चौंक गईं. उन्हें अंदर ले जा कर बोलीं, ‘कौन है यह? कहां से ले कर आए हो इसे?’

‘यह लड़का घर से भागा हुआ लगता है. कुछ बदमाश इसे अपने साथ ले जा रहे थे. अच्छे घर का बच्चा लग रहा है. इसलिए इसे अपने साथ ले आया. अभी घबराहट और डर के मारे कुछ बता नहीं रहा है. 2-4 दिन बाद जब इस की घबराहट कुछ कम होगी, तब बातोंबातों में प्यार से सबकुछ पूछ कर इस के घर खबर कर देंगे,’ सोमेश्वर प्रसाद पत्नी से बोले, ‘अभी तो इसे खानावाना खिलाओ, भूखा है और थका भी. कल बात करेंगे.’

सोमेश्वरजी के घर में सब ने उसे प्यार से लिया. धीरेधीरे उस की घबराहट दूर होने लगी. वह उन के परिवार में घुलनेमिलने लगा. रहतेरहते उसे 15 दिन हो गए. राहुल को अब घर की याद सताने लगी. वह अनमना सा रहने लगा. मम्मीपापा की, स्कूल की, संगीसाथियों की याद सताने लगी. महसूस होने लगा कि जिंदगी घर से बाहर इतनी सरल नहीं, ये लोग भी उसे कब तक रखेंगे. किस हैसियत से यहां पर रहेगा? क्या नौकर की हैसियत से? 13-14 साल का लड़का इतना छोटा भी नहीं था कि अपनी स्थिति को नहीं समझता.

और एक दिन उस ने सोमेश्वर प्रसाद को अपने बारे में सबकुछ बता दिया. उस से फोन नंबर ले कर सोमेश्वरजी ने उस के घर फोन किया, जहां बेसब्री से सब उस को ढूंढ़ रहे थे. एकाएक मिली इस खबर पर घर वालों को विश्वास ही नहीं हुआ. जब सोमेश्वरजी ने फोन पर उन की बात राहुल से कराई तो वह फूटफूट कर रो पड़ा.

‘मुझे माफ कर दो पापा, मैं आज से ऐसा कभी नहीं करूंगा, मन लगा कर पढ़ूंगा. मुझे आ कर ले जाओ,’ कहतेकहते उस की हिचकियां बंध गईं. उस की आवाज सुन कर पापा का कंठ भी अवरुद्ध हो गया.

राहुल के घर से भागने के मामले में वे कहीं न कहीं खुद को जिम्मेदार समझ रहे थे. उन की अत्यधिक सख्ती ने उन के बेटे को अपने ही घर में पराया कर दिया था. उसे अपना ही घर बेगाना लगने लगा.

हर बच्चे का स्वभाव अलग होता है. राहुल की बहन उसी माहौल में रह रही थी. लेकिन वह उस घुटन भरे माहौल में नहीं रह पा रहा था. फिर यों भी लड़कों का स्वभाव अधिक आक्रामक होता है.

जब बेटे को खोने का एहसास हुआ तो अपनी गलतियां महसूस होने लगीं. सभी बच्चों का दिमागी स्तर और सोचनेसमझने का तरीका अलग होता है. अपने बच्चों के स्वभाव को समझना चाहिए. किस के लिए कैसे व्यवहार की जरूरत है, यह मातापिता से अधिक कोई नहीं समझ सकता. किशोरावस्था में बच्चे मातापिता को नहीं समझ सकते, इसलिए मातापिता को ही बच्चों को समझने की कोशिश करनी चाहिए.

खैर, उन के बेटे के साथ कोई अनहोनी होने से बच गई. अब वे बच्चों पर ध्यान देंगे. अब थोड़े समय उन के बच्चों को उन के प्यार, मार्गदर्शन व सहयोग की जरूरत है. हिटलर पिता की जगह एक दोस्त पिता कहलाने की जरूरत है, जिन से वे अपनी परेशानियां शेयर कर सकें.

मन ही मन ऐसे कई प्रण कर के राहुल के मम्मीपापा राहुल को लेने पहुंच गए. राहुल मम्मीपापा से मिल कर फूटफूट कर रोया. उसे भी महसूस हो गया कि वास्तविक जिंदगी कोई फिल्मी कहानी नहीं है. अपने मातापिता से ज्यादा अपना और बड़ा हितैषी इस संसार में कोई नहीं. उन्हें ही अपना समझना चाहिए तो सारा संसार अपना लगता है और उन्हें बेगाना समझ कर सारा संसार पराया हो जाता है.

ये 15 दिन राहुल और राहुल के मातापिता के लिए एक पाठशाला की तरह साबित हुए. दोनों ने ही जिंदगी को एक नए नजरिए से देखना सीखा.

राहुल अभी सोच में ही डूबा था कि तभी दुखी सी सूरत लिए माला बदहवास सी आई. वह अतीत से वर्तमान में लौट आया.

‘‘सुनो, जल्दी चलो जरा. बड़ी अनहोनी घट गई, टिंकू की लाश हाईवे पर सड़क किनारे झाडि़यों में पड़ी मिली है, पता नहीं क्या हुआ उस के साथ.’’

‘‘क्या?’’ सुन कर राहुल बुरी तरह से सिहर गया, ‘‘अरे, यह क्या हो गया?’’

‘‘बहुत बुरा हुआ. मातापिता तो बुरी तरह बिलख रहे हैं. संभाले नहीं संभल रहे. इकलौता बेटा था. कैसे संभलेंगे इतने भयंकर दुख से,’’ बोलतेबोलते माला का गला भर आया.

‘‘चलो,’’ राहुल माला के साथ तुरंत चल दिया. चलते समय राहुल सोच रहा था कि टिंकू उस के जैसा भाग्यशाली नहीं निकला. उसे कोई सोमेश्वर प्रसाद नहीं मिला. हजारों टिंकुओं में से शायद ही किसी एक को कोई सोमेश्वर प्रसाद जैसा सज्जन व्यक्ति मिलता है.

बच्चे सोचते हैं कि शायद घर से बाहर जिंदगी फिल्मी स्टाइल की होगी. घर से भाग कर वे जानेअनजाने मातापिता को दुख पहुंचाना चाहते हैं. उन पर अपना आक्रोश जाहिर करना चाहते हैं. पर मातापिता की छत्रछाया से बाहर जिंदगी 3 घंटे की फिल्म नहीं होती, बल्कि बहुत भयानक होती है. बच्चों को इस बात का अनुभव नहीं होता. उन्हें समझने और संभालने के लिए मातापिता को कुछ साल बहुत सहनशक्ति से काम लेना चाहिए. बच्चों का हृदय कोरे कागज जैसा होता है, जिस पर जिस तरह की इबारत लिख गई, जिंदगी की धारा उधर ही मुड़ गई, वही उन का जीवन व भविष्य बन जाता है.

उस दिन अगर उसे सोमेश्वर प्रसाद नहीं मिलते तो पता नहीं उस का भी क्या हश्र होता. सोचते सोचते राहुल माला के साथ तेजी से कदम बढ़ाने लगा.

सबसे बड़ा गिफ्ट: नेहा ने राहुल को कौन-सा तोहफा दिया?

राहुल रविवार के दिन सुबह जब नींद से जागा तो टैलीफोन की घंटी लगातार बज रही थी. अकसर ऐसी स्थिति में नेहा टैलीफोन अटैंड कर लेती थी. रोज जो बैड टी, बैड के पास के टेबल पर रख कर उसे जगाया जाता था, आज वह भी मिसिंग थी.

नेहा को आवाज लगाई तो भी कोई उत्तर न पा राहुल खुद बिस्तर से उठ कर टैलीफोन तक गया.

‘‘हैलो, मैं नेहा बोल रही हूं,’’ दूसरी तरफ से नेहा की ही आवाज थी.

‘‘कहां से बोल रही हो?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘मैं ने एक अपार्टमैंट किराए पर ले लिया है. अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती.’’

‘‘देखो, तुम ऐसा नहीं कर सकतीं,’’ राहुल ने कहा.

‘‘मैं वैसा ही करूंगी जैसा मैं सोच चुकी हूं,’’ नेहा ने बड़े इतमीनान से कहा, ‘‘तुम चाहते हो कि तुम कोई काम न करो, मैं कमा कर लाऊं और घर मेरी कमाई से ही चले, ऐसा कब तक चलेगा? मैं तुम से तलाक नहीं लूंगी. बस तब तक अकेली रहूंगी, जब तक तुम कोई काम नहीं ढूंढ़ लोगे. मैं तुम्हें जीजान से चाहती हूं, मगर तुम्हें इस स्थिति में नहीं देखना चाहती कि तुम मेरे रहमोकरम पर ही रहो. मैं तुम्हारे नाम के साथ तभी जुड़ूंगी, जब तुम कुछ कर दिखाओगे.’’

‘‘तुम अपने मांबाप के घर भी तो रह सकती हो. वे बहुत अमीर हैं. वहां आराम से और सब सुखसुविधाओं के बीच रहोगी,’’ राहुल ने सलाह दी तो बगैर तैश में आए नेहा का उत्तर था, ‘‘मैं उन के पास तो बिलकुल नहीं जाऊंगी. मेरे आत्मसम्मान को यह मंजूर नहीं है. हां, मैं संपर्क सब के साथ रखूंगी, लेकिन तुम्हारे साथ रहना मुझे तभी मंजूर होगा जब तुम जिंदगी में किसी काबिल बन जाओगे.’’

क्षण भर के लिए राहुल किंकर्तव्यविमूढ हो  गया. उस ने ऐसा कभी सोचा भी न था कि नेहा इस तरह उसे अचानक छोड़ कर अकेले जीवन बिताने का कदम उठा लेगी. उस ने नेहा से कहा, ‘‘यदि तुम ने अलग रहने का फैसला कर ही लिया है तो अपने पापा को इस विषय में सूचना दे दो.’’

नेहा ने राहुल की सलाह मान ली. उस के पापा ने जब उसे मायके आने के लिए कहा तो नेहा ने कहा, ‘‘पापा, आप ने पढ़ालिखा कर मुझे इस काबिल बनाया है कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूं. मैं राहुल को तलाक नहीं दे रही हूं. आप को पता है कि मैं राहुल को बहुत चाहती हूं. आप के और ममा के विरोध के बावजूद मैं ने राहुल से विवाह किया. मैं तो बस इतना चाहती हूं कि राहुल को उस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दूं, जहां वह कुछ बन कर दिखाए.’’

नेहा की बात उस के पापा की समझ में आ गई. उन्होंने कहा, ‘‘नेहा, इस रचनात्मक कदम पर मैं तुम्हारे साथ हूं. फिर भी यदि कभी सहायता की जरूरत हो तो संकोच न करना, मुझे बता देना.’’

राहुल को इस तरह नेहा का अचानक उसे छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लगा, लेकिन उसे इस बात से बहुत राहत मिली कि नेहा ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि स्थिति बदली और राहुल ने या तो कोई व्यवसाय कर लिया या अपनी काबिलीयत के आधार पर कोई अच्छी नौकरी कर ली, तो वह उस की जिंदगी में फिर वापस आएगी. नेहा ने राहुल को यह भी स्पष्ट कर दिया कि उसे सारा ध्यान अपने बेहतर भविष्य और कैरियर पर लगाना चाहिए. वह उस से मिलने की भी कोशिश न करे, न ही मोबाइल पर लंबीचौड़ी बातें करे. राहुल को तब बहुत बुरा लगा जब उस ने अपना पता तो बता दिया, लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि वह उस के घर पर न आए. वह तब ही आ कर उस से मिल सकता है, जब आय के अच्छे साधन जुटा ले और जिंदगी में उस की उपलब्धियां बताने लायक हों.

नेहा को इस बात का बहुत संतोष था कि अब तक उस की कोई औलाद नहीं थी और वह स्वतंत्रतापूर्वक दफ्तर के कार्य पर पूरा ध्यान और समय दे सकती थी. नेहा के बौस उम्रदराज और इंसानियत में यकीन रखने वाले सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, इसलिए नेहा को दफ्तर के वातावरण में पूरी सुरक्षा और सम्मान हासिल था. एक योग्य, स्मार्ट और आधुनिक महिला के रूप में उस की छवि बहुत अच्छी थी, दफ्तर के सहकर्मी उस का आदर करते थे.

कालेज की कैंटीन में राहुल ने नेहा को पहली बार देखा था. वह अपनी बहन सीमा का दाखिला बी.ए. में करवाने के लिए वहां गया था. पहली नजर में नेहा उसे बहुत सुंदर लगी. वह अपनी सहेलियों के साथ कैंटीन में थी. बाद में उसे देखने के लिए वह सीमा को कालेज छोड़ने के बहाने से जाने लगा. नेहा को भी बारबार दिखने पर राहुल का व्यक्तित्व, चालढाल, तौरतरीका आकर्षक लगा. फिर सीमा से कह कर उस ने नेहा से परिचय कर ही लिया. बाद में जब उन्होंने शादी की तब राहुल पोस्ट ग्रैजुएट था लेकिन कोई नौकरी नहीं कर रहा था और नेहा एम.बी.ए. करने के बाद नौकरी करने लगी थी.

राहुल से अलग रहने में नेहा ने कोई कष्ट अनुभव नहीं किया, क्योंकि यह उस का अपना सोचासमझा फैसला था. दृढ़ निश्चय और स्पष्ट सोच के कारण अपने बौस की पर्सनल सैक्रेटरी का काम वह बखूबी कर रही थी. धीरेधीरे औफिस में बौस के साथ उस की नजदीकियां बढ़ रही थीं. ऐसे में उन्हें कोई गलतफहमी न हो जाए, इस के लिए उस ने अपने संबंध के विषय में स्पष्ट करते हुए एक दिन उन से कहा, ‘‘सर, मैं अपने पति से अलग भले ही रह रही हूं किंतु मेरा पति के पास वापस जाना निश्चित है. फ्लर्टिंग में मैं यकीन नहीं रखती हूं.

‘‘हां, महीने में 1-2 बार डिनर या लंच पर मैं आप के साथ किसी अच्छे रेस्तरां में जाना पसंद करूंगी. वह भी इस खयाल से कि अगर इस बात की खबर राहुल को पहुंची या कभी आप के साथ आतेजाते उस ने देख लिया तो या तो उसे आप से ईर्ष्या होगी या इस बात का टैस्ट हो जाएगा कि वह मुझ पर कितना विश्वास करता है. दूर रहने पर संदेह पैदा होने में देर नहीं लगती.’’

उधर अपनी योग्यता के बल पर और कई इंटरव्यू दे कर राहुल एक अच्छी नौकरी पा चुका था. एक मल्टीनैशनल कंपनी में उसे पब्लिक रिलेशन औफिसर के पद पर काम करने का अवसर मिल चुका था.

नौकरी शुरू करने के 2 महीने बाद राहुल ने नेहा को फोन पर इस विषय में सूचना दी, ‘‘नेहा, मैं पिछले 2 महीने से नौकरी कर रहा हूं.’’

‘‘बधाई हो राहुल, मुझे पता था कि तुम्हारी अच्छाइयां एक दिन जरूर रंग लाएंगी.’’

राहुल को बहुत समय बाद नेहा से बात करने का मौका मिला था. उस की खुशी फोन पर बात करते समय नेहा को महसूस हो रही थी. वह भी बहुत खुश थी. राहुल ने कहा, ‘‘अभी फोन मत काटना, कुछ और भी कहना चाहता हूं. बातें और करनी हैं. नेहा, वापस मेरे पास आने के बारे में जल्दी फैसला करना…’’

राहुल अपने विषय में बहुत कुछ बताना चाहता था लेकिन नेहा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘मेरे बौस अपने चैंबर में मेरा इंतजार कर रहे हैं. एक मीटिंग के लिए मुझे पेपर्स तैयार करने हैं. जो बातें तुम पूछ रहे हो, उस विषय में मैं बाद में बात करूंगी.’’

जिस तरह सोना आग में तपतप कर कुंदन बनता है, ठीक वैसे ही राहुल ने जीजान से मेहनत की. उसे कंपनी ने विदेशों में प्रशिक्षण के लिए भेजा और 1 वर्ष के भीतर ही पदोन्नति दी. राहुल, जिस में शुरुआत में आत्मविश्वास व इच्छाशक्ति की कमी थी, अब एक सफल अधिकारी बन चुका था. उस के पास आने की बात का नेहा से कोई उत्तर न मिलने पर उस में क्रोध जैसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. वह नेहा को उस के प्रति छिपे प्यार को पहचान रहा था.

मन से नेहा उस के पास आने को आतुर थी, मगर इस बात के लिए न तो वह पहल करना चाहती थी, न ही जल्दबाजी में कोई निर्णय लेना चाहती थी.

नेहा के पापा और ममा ने कभी ऐसी भूमिका नहीं अदा की कि वे नेहा और राहुल के आत्मसम्मान के खिलाफ कोई काम करें. नेहा को पता भी नहीं चला कि उस के पापा राहुल को फोन कर के उस का हालचाल जानते रहते हैं और अपनी तरफ से उसे उस के अच्छे कैरियर के लिए मार्गदर्शन देते रहते हैं. राहुल के पिता का देहांत उस के बचपन में ही हो चुका था. राहुल के घर पर उस की मां और बहन के अलावा और कोई नहीं था. बहुत छोटी फैमिली थी उस की.

नेहा के बौस ने एक दिन नेहा को बताया कि उसे उन के साथ एक मीटिंग में दिल्ली चलना है. लैपटौप पर कुछ रिपोर्ट्स बना कर साथ ले जानी हैं और कुछ काम दिल्ली के कार्यालय में भी करना होगा. वहां जाने पर कामकाज की बेहद व्यस्तता होने पर भी वे समय निकाल कर नेहा को डिनर के लिए कनाट प्लेस के एक अच्छे रेस्तरां में ले गए. डिनर तो एक बहाना था. दरअसल, वे संक्षेप में अपने जीवन के बारे में कुछ बातें नेहा के साथ शेयर करना चाहते थे.

‘‘नेहा, तुम ने एक दिन मुझ से स्पष्ट बात की थी कि तुम फ्लर्ट करने में विश्वास नहीं करती हो. लेकिन किसी को पसंद करना फ्लर्ट करना नहीं होता. मैं तुम्हारे निर्मल स्वभाव और अच्छे कामकाज की वजह से तुम्हें पसंद करता हूं. तुम स्मार्ट हो, हर काम लगन से समय पर करती हो, दफ्तर में सब सहकर्मी भी तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं.’’ बौस के ऐसा कहने पर नेहा ने बहुत आदर के साथ अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किए, ‘‘सर, जो बातें आप बता रहे हैं उन्हें मैं महसूस करती हूं. आप को ले कर मुझे औफिस में कोई असुरक्षा की भावना नहीं है. आप ने मेरा पूरा खयाल रखा है.’’

वे आगे बोले, ‘‘मैं अपनी पर्सनल लाइफ किसी के साथ शेयर नहीं करता. लेकिन न जाने क्यों दिल में यह बात उठी कि तुम से अपने मन की बात कहूं. तुम में मुझे अपनापन महसूस होता है. अगर मेरा विवाह हुआ होता तो शायद तुम्हारी जैसी मेरी एक बेटी होती. बचपन में ही मांबाप का साया सिर से उठ गया था. तब से अब तक मैं बिलकुल अकेला हूं. घर पर जाता हूं तो घर काटने को दौड़ता है. दोस्त हैं लेकिन कहने को. सब स्वार्थ से जुड़े हैं. कोई रिश्तेदार शहर में नहीं है. शायद तुम्हें मेरे हावभाव या व्यवहार से ऐसा लगा हो कि मेरी तरफ से फ्लर्ट करने जैसी कोई कोशिश जानेअनजाने में हो गई है. लेकिन ऐसा नहीं है. मैं ने मांबाप को खोने के बाद मन में कभी यह बात आने नहीं दी कि मैं विवाह करूंगा. मेरी जिंदगी में किसी भी चीज की कोई कमी नहीं है.’’

नेहा भी थोड़ी भावुक हो गई. उसे लगा कि जिंदगी में सच्चे मित्र की आवश्यकता सभी को होती है. उस ने अपने पति में भी एक सच्चे दोस्त की ही तलाश की थी.

मीटिंग के बाद नेहा अपने बौस के साथ चंडीगढ़ लौट आई. अपने बौस जैसे इंसान को करीब से देखने, परखने का यह अवसर उसे जीवन के अच्छे मूल्यों और अच्छाइयों के प्रति आश्वस्त करा गया. उन्होंने नेहा से यह भी कहा कि जहां तक संभव होगा वे उसे राहुल के जीवन में वापस पहुंचाने में पूरी मदद करेंगे. नेहा मन ही मन बहुत खुश थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे बौस के रूप में उसे एक सच्चा दोस्त मिल गया हो.

वे दिल्ली में मैनेजिंग डायरैक्टर से विचारविमर्श कर के नेहा को पदोन्नति देने के विषय में निर्णय ले चुके थे. लेकिन यह बात उन्होंने गुप्त ही रखी थी. सोचा था किसी अच्छे मौके पर वह प्रमोशन लैटर नेहा को दे देंगे.

कंपनी की ऐनुअल जनरल मीटिंग की तिथि निश्चित हो चुकी थी, जो सभी कर्मचारियों और शेयर होल्डर्स द्वारा अटैंड की जानी थी. भव्य प्रोग्राम के दौरान उन्होंने प्रमोटेड कर्मचारियों के नामों की घोषणा की, जिस में नेहा का नाम भी था. नेहा ने देखा कि उस का पति राहुल भी हौल में बैठा था. नेहा की खुशी का ठिकाना न था. नेहा ने बौस से इस विषय में पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया कि राहुल को मैं ने आमंत्रित किया है. वैसे इस कंपनी के कुछ शेयर्स भी इस ने खरीदे हैं. आज का दिन तुम्हारे लिए आश्चर्य भरा है. जरा इंतजार करो. मैं वास्तव में तुम्हारे गार्जियन की तरह कुछ करने वाला हूं. नेहा कुछ समझ नहीं पाई. उस ने चुप रहना बेहतर समझा.

घोषणाओं का सिलसिला चलता रहा. फिर नेहा के बौस ने घोषणा की, ‘‘फ्रैंड्स, आप को जान कर खुशी होगी कि यहां आए राहुल की योग्यता और अनुभव के आधार पर उस का चयन हमारी कंपनी में असिस्टैंट जनरल मैनेजर पद के लिए हो चुका है. राहुल और उस की पत्नी नेहा को बधाई हो.’’

नेहा की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली. सब आमंत्रित लोगों के जाने के बाद, राहुल और नेहा दोनों उन के पास गए और उन को धन्यवाद प्रकट किया. खुशनुमा माहौल था.

‘‘कैन आई हग यू?’’ उन्होंने नेहा से पूछा.

‘‘ओ श्योर, वाई नौट’’ कहते हुए नेहा उन से ऐसे लिपट गई, जैसे वह अपने पापा से लाड़प्यार में लिपट जाया करती थी. उन की आंखें भर आई थीं. उन्हें लगा जैसे एक पौधा जो मुरझा रहा था, उन्होंने उस की जड़ें सींच दी हैं.

आंसुओं के बीच उन्होंने नेहा से कहा, ‘‘आज की शाम का सब से बड़ा गिफ्ट मैं तुम्हें दे रहा हूं. राहुल के साथ आज ही अपने घर लौट जाओ. अब तुम दोनों की काबिलीयत प्रूव हो चुकी है.’’

जरूरी सबक: हवस में लांघी रिश्तों की मर्यादा

नेहा को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. दरवाजे की झिर्री से आंख सटा कर उस ने ध्यान से देखा तो जेठजी को अपनी ओर देखते उस के होश फाख्ता हो गए. अगले ही पल उस ने थोड़ी सी ओट ले कर दरवाजे को झटके से बंद किया, मगर थोड़ी देर बाद ही चर्ररर…की आवाज के साथ चरमराते दरवाजे की झिर्री फिर जस की तस हो गई. तनिक ओट में जल्दी से कपड़े पहन नेहा बाथरूम से बाहर निकली. सामने वाले कमरे में जेठजी जा चुके थे. नेहा का पूरा शरीर थर्रा रहा था. क्या उस ने जो देखा वह सच है. क्या जेठजी इतने निर्लज्ज भी हो सकते हैं. अपने छोटे भाई की पत्नी को नहाते हुए देखना, छि, उन्होंने तो मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ लीं…नेहा सोचती जा रही थी.

कितनी बार उस ने मयंक से इस दरवाजे को ठीक करवाने के लिए कहा था, लेकिन हर बार बात आई गई हो गई थी. एक तो पुराना दरवाजा, उस पर टूटी हुई कुंडी, बारबार कस कर लगाने के बाद भी अपनेआप खुल जाया करती थी. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि उस झिर्री से उसे कोई इस तरह देखने का यत्न कर सकता है. पहले भी जेठजी की कुछ हरकतें उसे नागवार लगती थीं, जैसे पैर छूने पर आशीर्वाद देने के बहाने अजीब तरह से उस की पीठ पर हाथ फिराना, बेशर्मों की तरह कई बार उस के सामने पैंट पहनते हुए उस की जिप लगाना, डेढ़ साल के नन्हें भतीजे को उस की गोद से लेते समय उस के हाथों को जबरन छूना और उसे अजीब सी निगाहों से देखना आदि.

नईनई शादी की सकुचाइट में वह मयंक को भी कुछ नहीं बता पाती. कई बार उसे खुद पर संशय होता कि क्या उस का शक सही है या फिर यह सब सिर्फ वहम है. जल्दबाजी में कोई निर्णय कर वह किसी गलत नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहती थी, क्योंकि यह एक बहुत ही करीबी रिश्ते पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने जैसा था. लेकिन आज की घटना ने उसे फिर से सोचने पर विवश कर दिया.

घर के आंगन से सटा एक कोने में बना यह कमरा यों तो अनाज की कोठी, भारी संदूक व पुराने कूलर आदि रखने के काम आता था, परंतु रेलवे में पदस्थ सरकारी कर्मचारी उस के जेठ अपनी नाइट ड्यूटी के बाद शांति से सोने के लिए अकसर उक्त कमरे का इस्तेमाल किया करते थे. हालांकि घर में 4-5 कमरे और थे, लेकिन जेठजी इसी कमरे में पड़े एक पुराने दीवान पर बिस्तर लगा कर जबतब सो जाया करते थे. इस कमरे से आंगन में बने बाथरूम का दरवाजा स्पष्ट दिखाई देता था. आज सुबह भी ड्यूटी से आए जेठजी इसी कमरे में सो गए थे. उन की बदनीयती से अनभिज्ञ नेहा सुबह के सभी कामों को निबटा कर बाथरूम में नहाने चली आई थी. नेहा के मन में भारी उथलपुथल मची थी, क्या इस बात की जानकारी उसे मयंक को देना चाहिए या अपनी जेठानी माला से इस बाबत चर्चा कर देखना चाहिए. लेकिन अगर किसी ने उस की बात पर विश्वास नहीं किया तो…

मयंक तो अपने बड़े भाई को आदर्श मानता है और भाभी…वे कितनी भली महिला हैं. अगर उन्होंने उस की बात पर विश्वास कर भी लिया तो बेचारी यह जान कर कितनी दुखी हो जाएंगी. दोनों बच्चे तो अभी कितने छोटे हैं. नहींनहीं, यह बात वह घर में किसी को नहीं बता सकती. अच्छाभला घर का माहौल खराब हो जाएगा. वैसे भी, सालछह महीने में मयंक की नौकरी पक्की होते ही वह यहां से दिल्ली उस के पास चली जाएगी. हां, इस बीच अगर जेठजी ने दोबारा कोई ऐसी हरकत दोहराई तो वह उन्हें मुंहतोड़ जवाब देगी, यह सोचते हुए नेहा अपने काम पर लग गई.

उत्तर प्रदेश के कानपुर में 2 वर्षों पहले ब्याह कर आई एमए पास नेहा बहुत समझदार व परिपक्व विचारों की लड़की थी. उस के पति मयंक दिल्ली में एक कंपनी में बतौर अकाउंट्स ट्रेनी काम करते थे. अभी फिलहाल कम सैलरी व नौकरी पक्की न होने के कारण नेहा ससुराल में ही रह रही थी. कुछ पुराना पर खुलाखुला बड़ा सा घर, किसी पुरानी हवेली की याद दिलाता सा लगता था. उस में जेठजेठानी और उन के 2 छोटे बच्चे, यही नेहा की ससुराल थी.

यहां उसे वैसे कोई तकलीफ नहीं थी. बस, अपने जेठ का दोगलापन नेहा को जरा खलता था. सब के सामने प्यार से बेटाबेटा कहने वाले जेठजी जरा सी ओट मिलते ही उस के सामने कुछ अधिक ही खुलने का प्रयास करने लगते, जिस से वह बड़ी ही असहज महसूस करती. स्त्रीसुलभ गुण होने के नाते अपनी देह पर पड़ती जेठजी की नजरों में छिपी कामुकता को उस की अंतर्दृष्टि जल्द ही भांप गई थी. एहतियातन जेठजी से सदा ही वह एक आवश्यक दूरी बनाए रखती थी.

होली आने को थी. माला और बच्चों के साथ मस्ती और खुशियां बिखेरती नेहा जेठजी के सामने आते ही एकदम सावधान हो जाती. उसे होली पर मयंक के घर आने का बेसब्री से इंतजार था. पिछले साल होली के वक्त वह भोपाल अपने मायके में थी. सो, मयंक के साथ उस की यह पहली होली थी. होली के 2 दिनों पहले मयंक के आ जाने से नेहा की खुशी दोगुनी हो गई. पति को रंगने के लिए उस ने बच्चों के साथ मिल कर बड़े जतन से एक योजना बनाई, जिस की भनक भी मयंक को नहीं पड़ने पाई.

होली वाले दिन महल्ले में सुबह से ही बच्चों की धमाचौकड़ी शुरू हो गई थी. नेहा भी सुबह जल्दी उठ कर भाभी के साथ घर के कामों में हाथ बंटाने लगी. ‘‘जल्दीजल्दी हाथ चला नेहा, 10-11 बजे से महल्ले की औरतें धावा बोल देंगी. कम से कम खाना बन जाएगा तो खानेपीने की चिंता नहीं रहेगी,’’ जेठानी की बात सुन नेहा दोगुनी फुरती से काम में लग गई. थोड़ी ही देर में पूड़ी, कचौड़ी, दही वाले आलू, मीठी सेवइयां और अरवी की सूखी सब्जी बना कर दोनों देवरानीजेठानी फारिग हो गईं. ‘‘भाभी, मैं जरा इन को देख कर आती हूं, उठे या नहीं.’’

‘‘हां, जा, पर जरा जल्दी करना,’’ माला मुसकराते हुए बोली. कमरे में घुस कर नेहा ने सो रहे मयंक के चेहरे की खूब गत बनाई और मजे से चौके में आ कर अपना बचा हुआ काम निबटाने लगी.

इधर, मयंक की नींद खुलने पर सभी उस का चेहरा देख कर हंसतेहंसते लोटपोट हो गए. हैरान मयंक ने बरामदे में लगे कांच में अपनी लिपीपुती शक्ल देखी तो नेहा की शरारत समझ गया. ‘‘भाभी, नेहा कहां है?’’ ‘‘भई, तुम्हारी बीवी है, तुम जानो. मुझे तो सुबह से नजर नहीं आई,’’ भाभी ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘बताता हूं उसे, जरा मिलने दो. अभी तो मुझे अंदर जाना है.’’ हाथ से फ्रैश होने का इशारा करते हुए वह टौयलेट में जा घुसा. इधर, नेहा भाभी के कमरे में जा छिपी थी.

फ्रैश हो कर मयंक ने ब्रश किया और होली खेलने के लिए बढि़या सफेद कुरतापजामा पहना. ‘‘भाभी, नाश्ते में क्या बनाया है, बहुत जोरों की भूख लगी है. फिर दोस्तों के यहां होली खेलने भी निकलना है,’’ मयंक ने भाभी से कहा, इस बीच उस की निगाहें नेहा को लगातार ढूंढ़ रही थीं. मयंक ने नाश्ता खत्म ही किया था कि भतीजी खुशी ने उस के कान में कुछ फुसफुसाया. ‘‘अच्छा…’’ मयंक उस की उंगली थामे उस की बताई जगह पर आंगन में आ खड़ा हुआ. ‘‘बताओ, कहां है चाची?’’ पूछने पर ‘‘एक मिनट चाचा,’’ कहती हुई खुशी उस का हाथ छोड़ कर फुरती से दूर भाग गई. इतने में पहले से ही छत पर खड़ी नेहा ने रंग से भरी पूरी की पूरी बालटी मयंक पर उड़ेल दी. ऊपर से अचानक होती रंगों की बरसात में बेचारा मयंक पूरी तरह नहा गया. उस की हालत देख कर एक बार फिर पूरा घर ठहाकों से गूंज उठा. थोड़ी ही देर पहले पहना गया सफेद कुरतापजामा अब गाढ़े गुलाबी रंग में तबदील हो चुका था.

‘‘ठहरो, अभी बताता हूं तुम्हें,’’ कहते हुए मयंक जब तक छत पर पहुंचा, नेहा गायब हो चुकी थी. इतने में बाहर से मयंक के दोस्तों का बुलावा आ गया. ‘‘ठीक है, मैं आ कर तुम्हें देखता हूं,’’ भनभनाता हुआ मयंक बाहर निकल गया. उधर, भाभी के कमरे में अलमारी के एक साइड में छिपी नेहा जैसे ही पलटने को हुई, किसी की बांहों ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया. उस ने तुरंत ही अपने को उन बांहों से मुक्त करते हुए जेठजी पर तीखी निगाह डाली.

‘‘आप,’’ उस के चहेरे पर आश्चर्य और घृणा के मिलेजुले भाव थे. ‘‘अरे तुम, मैं समझा माला है,’’ जेठजी ने चौंकने का अभिनय करते हुए कहा. बस, अब और नहीं, मन में यह विचार आते ही नेहा ने भरपूर ताकत से जेठजी के गाल पर तड़ाक से एक तमाचा जड़ दिया.

‘‘अरे, पागल हुई है क्या, मुझ पर हाथ उठाती है?’’ जेठजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था. ‘‘पागल नहीं हूं, बल्कि आप के पागलपन का इलाज कर रही हूं, क्योंकि सम्मान की भाषा आप को समझ नहीं आ रही. गलत थी मैं जो सोचती थी कि मेरे बदले हुए व्यवहार से आप को अपनी भूल का एहसास हो जाएगा. पर आप तो निर्लज्जता की सभी सीमाएं लांघ बैठे. अपने छोटे भाई की पत्नी पर बुरी नजर डालते हुए आप को शर्म नहीं आई, कैसे इंसान हैं आप? इस बार आप को इतने में ही छोड़ रही हूं. लेकिन आइंदा से अगर मुझ से जरा सी भी छेड़खानी करने की कोशिश की तो मैं आप का वह हाल करूंगी कि किसी को मुंह दिखाने लायक न रहेंगे. आज आप अपने छोटे भाई, पत्नी और बच्चों की वजह से बचे हो. मेरी नजरों में तो गिर ही चुके हो. आशा करती हूं सब की नजरों में गिरने से पहले संभल जाओगे,’’ कह कर तमतमाती हुई नेहा कमरे के बाहर चली गई.

कमरे के बाहर चुपचाप खड़ी माला नेहा को आते देख तुरंत दरवाजे की ओट में हो गई. वह अपने पति की दिलफेंक आदत और रंगीन तबीयत से अच्छी तरह वाकिफ थी. पर रूढि़वादी बेडि़यों में जकड़ी माला ने हमेशा ही पतिपरमेश्वर वाली परंपरा को शिरोधार्य किया था. वह कभीकभी अपने पति की गलत आदतों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत न कर पाई थी. लेकिन आज नेहा ने जो बहादुरी और हिम्मत दिखाई, उस के लिए माला ने मन ही मन उस की बहुत सराहना की. नेहा ने उस के पति को जरूरी सबक सिखाने के साथसाथ उस घर की इज्जत पर भी आंच न आने दी. माला नेहा की शुक्रगुजार थी.

उधर, कुछ देर बाद नहा कर निकली नेहा अपने गीले बालों को आंगन में सुखा रही थी. तभी पीछे से मयंक ने उसे अपने बाजुओं में भर कर दोनों मुट्ठियों में भरा रंग उस के गालों पर मल दिया. पति के हाथों प्रेम का रंग चढ़ते ही नेहा के गुलाबी गालों की रंगत और सुर्ख हो चली और वह शरमा कर अपने प्रियतम के गले लग गई. यह देख कर सामने से आ रही माला ने मुसकराते हुए अपनी निगाहें फेर लीं.

दिव्या आर्यन: जब दो अनजानी राहों में मिले धोखा खा चुके हमराही

‘पता नहीं बस और गाड़ियों में रात में भी एसी क्यों चलाया जाता है, माना कि गरमी से नज़ात पाने के लिए एसी का चलाया जाना ज़रूरी है पर तब क्यों जब ज्यादा गरमी न हो,’ बस की खिड़की से बाहर देखती हुई दिव्या सोच रही थी. मन नहीं माना तो उस ने खिड़की को ज़रा सा खिसका भर दिया, एक हवा का झोंका आया और दिव्या की ज़ुल्फों से अठखेलियाँ करते हुए गुज़र गया.

कोई टोक न दे, इसलिए धीरे से खिड़की को वापस बंद कर दिया दिव्या ने. दिव्या जो आज अपने कसबे लालपुर से शहर को जा रही थी. वहां उसे कुछ दिन रुकना था. उस ने शहर के एक होटल में एक सिंगल रूम की बुकिंग पहले से ही करा रखी थी.

चर्रचर्र की आवाज़ के साथ बस रुकी. दिव्या ने बाहर की ओर देखा तो पाया कि पुलिसचेक है. शायद स्वतंत्रता दिवस करीब है, इसीलिए पुलिस वाले हर बस को रोक कर गहन तलाशी करते हैं. हरेक व्यक्ति की तलाशी और आईडी चेक होती है. पुलिस की चेकिंग के बाद बस आगे बढ़ी.

अब भी आधा सफर बाकी था. ‘अब तो लगता है मुझे पहुंचने में काफी रात हो जाएगी. तब, बसस्टैंड से होटल तक जाने में परेशानी होगी,’ दिव्या सोच रही थी.

ऐसा हुआ भी.बस को शहर पहुंचने में काफी रात हो गई. दिव्या ने अपना सामान उठाया और किसी रिकशे या कैब वाले को देखने लगी. कई औटो रिकशे वाले खड़े थे पर उन में से कुछ ने होटल तक जाने से मना कर दिया तो कुछ औटो में ही सो रहे थे जबकि कुछ में ड्राइवर थे ही नहीं.

परेशान हो उठी दिव्या, ‘अगर कोई सवारी नहीं मिली तो मैं होटल कैसे जाऊंगी और बाकी की रात यहां कैसे बिताऊंगी!’

तभी उस की नज़र कोने में खड़े एक औटो पर पड़ी. दिव्या उस की तरफ गई तो देखा कि ड्राइवर उस के अंदर बैठबैठे हुआ सो रहा है.

“ए औटो वाले, खाली हो, होटल रीगल तक चलोगे?” दिव्या का स्वर पता नहीं क्यों तेज़ हो गया था. उस की आवाज़ सुन कर वह उठ गया और इधरउधर देखने लगा.

“ज…जी, वह आखिरी बस आ गई क्या? मैं ज़रा सो गया था. हां, बताइए मैडम, कहां जाना है?”

“होटल रीगल जाना है मुझे,” दिव्या बोली थी.

“हां जी, बैठिए,” कह कर उस ने औटो स्टार्ट कर के आगे बढ़ा दिया.

“होटल रीगल यहां से कितनी दूर होगा?” दिव्या ने पूछा

“वह मैडम, कुछ नहीं तो 16 किलोमीटर तो पड़ ही जाएगा. बात ऐसी है न मैडम, कि यह बसस्टैंड शहर के काफी बाहर और सुनसान जगह पर बनवा दिया गया है, इसीलिए यहां से हर चीज़ दूर पड़ती है. पर, आप घबराइए मत, हम अभी पहुंचाए देते हैं,” औटो वाले ने जवाब दिया.

औटो वाले का चेहरा तो नहीं दिख रहा था पर उस के कान में एक चेन में पिरोया हुआ कोई बुंदा पहना हुआ था, जो बारबार बाहर की चमक पड़ने पर रोशनी बिखेर देता था. उस चमक से बारबार दिव्या का ध्यान औटो वाले के कानों पर चला जाता.

अचानक से औटो के अंदर रोशनी सी भर गई. औटो वाले और दिव्या दोनों का ध्यान उस रोशनी पर गया. 4 लड़के थे जो अपनी बाइक की हेडलाइट को जानबूझ कर औटो के अंदर तक पंहुचा रहे थे .

इन को भी कहीं जाना होगा, ऐसा सोच कर दिव्या ने अपना ध्यान वहां से हटा लिया पर औटो वाले की आंखें लगातार पीछे आने वाली बाइकों पर थीं और वह उन लोगों की नीयत भांप चुका था.

अचानक से औटो वाले ने अपनी गति बढ़ा दी जितनी बढ़ा सकता था और औटो को मुख्य सड़क से हटा कर किसी और सड़क पर चलाने लगा.

“क्या हुआ, यह तुम इतनी तेज़ क्यों चला रहे हो और औटो को किस दिशा में ले जा रहे हो? बात क्या है आखिर?” दिव्या ने कई सवाल दाग दिए.

“जी, कुछ नहीं मैडम, आप डरिए नहीं. दरअसल, इस शहर में कुछ भेड़िए इंसानी भेष में रोज़ रात को लड़कियों का मांस नोचने के लिए निकल पड़ते हैं और आज इन लोगों ने आप को अकेले देख लिया है. पर आप घबराइए नहीं, मैं इन के मंसूबे कामयाब नहीं होने दूंगा,” आंखों को रास्ते और साइड मिरर पर जमाए हुए औटो वाला बोल रहा था.

पीछे आती हुई बाइकों ने अपनी गति और बढ़ा दी और वे औटो के बराबर में आने लगे .

औटो वाले ने अचानक औटो को एक दिशा में लहरा दिया और औटो के लहराने से बाइक वाला संभल नहीं पाया और बाइक कंट्रोल से बाहर हो गई. और वह लहराता हुआ गिर गया.

अपने साथी को गिरा देख कर दूसरा गुस्से में भर गया और बाइक चलाते हुए अंदर बैठी दिव्या के बराबर हाथ पहुंचाया. तुरंत ही दिव्या ने अपने साथ में लाए हुए लेडीज़ छाते का एक ज़ोरदार वार उस के हेलमेट पर कर दिया. इस अप्रत्याशित वार से वह भी बाइक समेत गिर गया. अपने 2 साथियों के चोटिल होने के बाद बाकी के दोनों सवारों का हौसला टूट गया उन दोनों ने पीछे आना छोड़ कर अपनी बाइकों को मोड़ लिया.

उन गुंडों से पीछा छुड़ाने के चक्कर में औटो मुख्य सड़क से भटक कर पास में छोटी सड़क पर चलने लगा था और औटोवाला ड्राइवर बगैर इस बात का ध्यान करे औटो भगाता जा रहा था. और अब जब उसे इस बात का भान हुआ तब तक औटो शहर के किसी दूसरे हिस्से में आ गया था. वहां चारों और घुप्प अंधेरा था. बस, जितनी दूर औटो की रोशनी जाती उतना ही रास्ता दिखाई दे रहा था.

औटो चला जा रहा था. तभी अचानक औटो से खटाक की आवाज़ आई और औटो रुक गया. औटो ड्राइवर को जितनी तकनीक मालूम थी वह सबकुछ अपना लिया. पर कुछ न हो सका .

“मैडम, अफ़सोस की बात है, हम शहर के किसी बाहरी हिस्से में आ गए हैं और वापसी का कोई उपाय नहीं है. अब हमें रात यही कहीं काटनी होगी.”

“क्या मतलब, यहां कहां और कैसे?”

“अब क्या करें मैडम, मजबूरी है,” औटोवाला युवक बोला, फिर कहने लगा, “वह सामने आसमान में ऊंचाई पर एक लाल बल्ब चमक रहा है, वहां चलते हैं. ज़रूर वहां हमे सिर छिपाने लायक जगह मिल जाएगी.” अपनी उंगली दिखाते हुए उस ने कहा और एक झटके से दिव्या का बैग उठा लिया और तेज़ी से चल पड़ा.

उस का अंदाज़ा सही था. यह एक निर्माणाधीन बहुमंज़िली इमारत थी, जिस के एक हिस्से में कुछ मज़दूर सो रहे थे और बाकी की इमारत खाली थी. दोनों चलते हुए ऊपर वाले फ्लोर पर पहुंचे और एक कोने में सामान रख दिया.

यह सब दिव्या को बड़ा अजीब लग रहा था और वह यह भी सोच रही थी, एक अजनबी के साथ वह इतनी देर से है, फिर भी उसे कोई असुरक्षा का भाव क्यों नहीं आ रहा है?

“इधर आ जाइए, हवा अच्छी आ रही है,” युवक ने बालकनी में आवाज़ देते हुए कहा.

“वैसे, तुम्हारा नाम क्या है?” अचानक से दिव्या ने पूछा.

“ज जी, मेरा नाम आर्यन है,” युवक ने थोड़ा झिझकते हुए उत्तर दिया.

” भाई वाह, क्या नाम है, वैरी गुड़,” दिव्या ने अपने पर्स में रखे हुए बिस्कुट निकाल कर आर्यन की ओर बढ़ाते हुए कहा.

“जी मैडम, बात ऐसी है कि मेरी मां शाहरुख खान की बहुत बड़ी फैन थी और जब ‘मोहब्बतें’ फिल्म रिलीज़ हुई न, तब मैं उस के पेट में था और तभी उस ने सोच लिया था कि अगर बेटा पैदा हुआ तो उस का नाम आर्यन रखेगी.”

आर्यन की सरल बातें सुन कर बिना मुसकराए न रह सकी दिव्या. पानी पीते हुए घड़ी पर निगाह डाली तो अभी रात का 2 बज रहा था. अभी तो पूरी रात यहीं काटनी है, इस गरज से दिव्या ने बातचीत जारी रखी.

“दिखने में तो खूबसूरत लगते हो और पढ़े लिखे भी. फिर, यह औटो चलाने की जगह कोई नौकरी क्यों नहीं करते?” दिव्या ने पूछा.

“मैडम, मैं ने एमए किया है वह भी इंग्लिश में. पर आजकल इस पढ़ाई से कुछ नहीं होता. या तो बहुत बड़ी डिग्री हो या फिर किसी की सिफारिश. और अपने पास दोनों ही नहीं. मरता क्या न करता, इसलिए औटो लाने लगा.

“ऊं…मोहब्बतें… तो कुछ अपनी मोहब्बत के बारे में भी बताओ. किसी लड़की से प्यारव्यार भी हुआ है या फिर…?” दिव्या ने पूछा.

उस की इस बात पर पहले तो आर्यन कुछ शरमा सा गया, फिर उस की आंखों में गुस्सा उत्तर आया, बोला, “हां मैडम, मुझे भी प्यार हुआ तो था पर अफ़सोस कि लड़की ने धोखा दे दिया…एक दिन मैं औटो ले कर घर वापस जा रहा था. तभी सड़क के किनारे मैं ने देखा कि एक लड़का पड़ा हुआ है. उस के सिर से खून बह रहा है और भीड़ मोबाइल से वीडियो बना रही है. कोई उस लड़के को अस्पताल ले कर नहीं जा रहा. उस लड़के के साथ एक बदहवास सी लड़की भी थी. मुझे उन दोनों पर दया आई और इंसानियत के नाते मैं ने उन दोनों को अस्पताल पहुंचाया. “अस्पताल में उस लड़के को जब खून की ज़रूरत पड़ी तो उस लड़की ने मुझ से मदद मांगी. मुझ से कहा कि वह लड़का उस का भाई है और खून का इंतज़ाम करना है.

“मैं क्या करता, मैं ने अपना खून उस लड़के को दिया और उस की जान बचाई. उस लड़की ने मुझे शुक्रिया कहा और बदले में मेरे को अपने घर का पता व अपना मोबाइल नंबर दिया, साथ ही मेरा नंबर लिया भी. और फिर रोज़ सुबह ही उस लड़की का व्हाट्सऐप्प पर मैसेज आता और चैटिंग भी करती. वह मुझ से पूछती कि वह उसे कैसी लगती है. और इसी तरह की कई दूसरी बातें भी पूछती थी.

“एक दिन मेरे मोबाइल पर उसी लड़की का फोन आया और उस ने मुझे अपने घर पर बुलाया. मैं उस से मिलने के लिए आतुर था, इसलिए तैयार हो कर उस के घर पहुंच गया. पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा था कि वह लड़की मुझ से प्यार करने लगी है, इसलिए मैं उस के लिए एक लाल गुलाब भी ले कर गया था. जब मैं वहां पहुंचा तो उस ने मेरा खूब स्वागत भी किया. उस के घर में सिर्फ उस की मां ही रहती थी पर उस दिन वह कहीं गई हुई थी.

“जब मैं ने उस लड़की से पूछा कि उस का वह भाई कहां है तो उस ने बताया कि वह भी मां के साथ ही कहीं गया है. अकेलापन देख कर मैं ने उस लड़की को शादी का प्रस्ताव दे डाला.

“अभी तक उस लड़की ने मेरा नाम नहीं पूछा था. नाम पूछने पर जब मैं ने उसे अपना नाम आर्यन डिसूजा बताया तब उस ने मेरे ईसाई होने पर सवाल खड़ा कर दिया और निराश हो कर कहने लगी, ‘मुझे भूल जाओ. मैं शादी तुम से नहीं कर सकती क्योंकि मेरी मां और पापा कट्टर हिंदू हैं, वे किसी गैरधर्म वाले लड़के से मेरी शादी नहीं करेंगे.’ हालांकि उस के भाई को खून देने को ले कर किसी को कोई एतराज नहीं था पर शादी की बात आते ही जातिधर्म सब आ गया. बस मैडम, मेरी पहली और आखिरी कहानी यही थी,” यह कह कर आर्यन चुप हो गया.

“काफी अजीब कहानी है तुम्हारे प्यार की. पर है बहुत ही इमोशनल और नई सी. इस पर कोई फिल्म वाला एक फिल्म बना सकता है,” दिव्या ने हंसते हुए कहा.

“हां जी, हो सकता है. पर आप ने कुछ अपने बारे में नहीं बताया, मसलन आप के मांबाप?” आर्यन भी दिव्या की प्रेमकथा ही जानना चाहता था, पर वह बात कहने की हिम्मत नहीं कर पाया, इसलिए मांबाप का नाम ले लिया.

“मेरे बाप एक फार्मा कंपनी में काम करते थे. उन का सेल्स का काम था, तो अकसर घर के बाहर रहते. घर में सबकुछ था, ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं. जब वे घर आते तो हम सब को खूब समय और तोहफे भी देते…” कहतेकहते चुप हो गई दिव्या.

“जी, और आप की मां?”

“मां, अब उस के बारे में क्या बताऊं. उस का पेट हर तरह से भरा हुआ था- रुपए से, पैसे से. पर कुछ औरतों को अपने जिस्म की भूख मिटाने के लिए रोज़ एक नया मर्द चाहिए होता है न, कुछ ऐसी ही थी मेरी मां. वह कहीं भी जाती तो अपने लिए गुर्गा तलाश ही लेती और उसे अपना फोन नंबर दे देती. और जब वह आदमी घर तक आ जाता तो मुझे किसी बहाने से घर के बाहर भेज देती और उस आदमी के साथ जिस्मानी ताल्लुकात बनाती.

“धीरेधीरे उस की बेशर्मी इतनी बढ़ गई थी कि वह मेरे सामने ही किसी भी गैरमर्द के साथ प्रेम की अठखेलियां करने लगती. उस की ये हरकतें पापा को पता चलीं, तो उन्होंने तुरंत ही उसे तलाक़ दे दिया और मुझे मां के पास ही छोड़ दिया. तलाक़ के बाद मां को सम्भल जाना चाहिए था, पर वह और भी निरंकुश हो गई. “अब तो आदमी आते और घर पर ही पड़े रहते, बल्कि आदमी लोग शिफ्टों में आने लगे थे और मेरी मां जीभर सेक्स का मज़ा लेती थी. मां की हरकतें देख कर मैं ने अपने घर की छत पर जा कर आत्महत्या करने की कोशिश की, पर तभी मेरे पड़ोस में रहने वाले लड़के ने अपनी जान पर खेलते हुए मेरी जान बचाई.

“मुझे किसी का सहारा चाहिए था. मैं उस लड़के के कंधे पर सिर रख कर खूब रोई. मैं सिसकियों में बंध सी गई थी.

उस लड़के ने मुझे ऐसे वक्त में सहारा दिया कि मुझे उस से प्यार हो जाना स्वाभाविक ही था. प्यार तो उस को भी मुझ से हो गया था पर हमारी शादी के बीच मेरी मां का दुष्चरित्र आ गया और उस लड़के ने मुझ से साफ कह दिया कि उस के मांबाप किसी ऐसी लड़की से उस की शादी नहीं कराना चाहते जिस की तलाकशुदा मां कई मर्दों से सम्बन्ध रखती हो,” इतना कह कर चुप हो गई थी दिव्या.

दोनों चुप थे. रात का सन्नाटा भी बखूबी उन का साथ दे रहा था. हवा आआ कर अब भी कभीकभी दिव्या की ज़ुल्फों को उड़ा दे रही थी, जिन्हें वह परेशान हो कर बारबार संभालती थी.

“पर मैडम, मेरी कहानी कुछ नई लग सकती है आप को पर आप की कहानी में तो दर्द के अलावा कुछ नहीं है” पास में बैठे हुए आर्यन ने कहा.

प्रतिउत्तर में कोई जवाब नहीं आया, सिर्फ एक छोटी सी सिसकी ही आई जिसे चाह कर भी दिव्या छिपा न सकी थी.

“क्या तुम रो रही हो?” आर्यन ने पूछा.

बिना कोई उत्तर दिए ही आर्यन के सीने से लिपट गई दिव्या…रोती रही…शायद बचपन से ले कर अब तक कोई कंधा नहीं नसीब हुआ था उसे जिस पर वह सिर रख सके. रोती रही वह जब तक उस का मन हलका नहीं हो गया.

और आर्यन ने भी अपनी मज़बूत बांहों का घेरा दिव्या के गिर्द डाल दिया था. और दिव्या के माथे पर चुम्बन अंकित कर दिया. वह खामोश इमारत अब उन के मिलन की गवाह बन रही थी.

सूरज की पहली किरण फूटी पर वे दोनों अब भी किसी लता की तरह एकदूसरे से लिपटे हुए थे.

तभी दूर से एक दुग्ध वाहन आता हुआ दिखाई दिया. दिव्या ने आर्यन का हाथ पकड़ा और आर्यन ने बैग उठाया और दोनों ने दौड़ कर उस वाहन में लिफ्ट मांगी.

“हम कहां जा रहे हैं …और मेरा औटो तो वहीं रह गया मैडम,” आर्यन ने पूछा.

“अगर तुम्हें कोई और काम मिले तो क्या तुम करोगे ?” दिव्या ने आर्यन की आंखों में झांकते हुए कहा.

“हां मैडम, क्यों नहीं करूंगा.”

“पर हो सकता है तुम्हें उम्रभर मेरा साथ देना पड़े?”

“हां, पर तुम्हें साथ देना होगा तो ही करूंगा मैडम.”

“मैडम नहीं, दिव्या नाम है मेरा,” दिव्या ने कहा.

बदले में आर्यन सिर्फ मुसकरा कर रह गया.

शहर आ गया था. दोनों पूछतेपाछते होटल रीगल पहुंच गए.

रिसेप्शन पर जा कर दिव्या ने मैनेजर से कहा, “जी, मैं ने अपने लिए एक सिंगल बैडरूम बुक कराया था. मुझे आने में देर हो गई. पर, अब मुझे सिंगल नहीं बल्कि डबल बैडरूम चाहिए.”

“जी मैडम, किस नाम से रूम बुक था?” मैनेजर ने पूछा.

“मेरा कमरा दिव्या नाम से बुक था. पर अब आप रजिस्टर में मेरे पति आर्यन डिसूजा और दिव्या डिसूजा का नाम लिख सकते हैं,” दिव्या ने आर्यन की तरफ देखते हुए कहा.

खतरा यहां भी है: महामारी का कहर

‘‘मम्मीमम्मी, आप जा रही हो? पापा को यहां कौन देखेगा?’’ राजू अपनी मम्मी को तैयार होते देख कर बोला, ‘‘पापा अकेले परेशान नहीं हो जाएंगे…’’

‘‘नहीं बेटा, वे बिलकुल परेशान नहीं होंगे,’’ मम्मी पैंट की बैल्ट कसते हुए बोलीं, ‘‘उन्हें पता है कि इस समय हमारी ड्यूटी कितनी जरूरी है. फिर तुम हो, तुम्हारी दीदी सुहानी हैं. तुम लोग उन का ध्यान रखोगे ही. खाना बना ही दिया है. तुम लोग मिलजुल कर खा लेना.

‘‘पापा होम आइसोलेशन में हैं. तुम्हें तो पता ही है कि जब तक वे पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते, उन से दूरी बना कर रखना है, इसलिए तुम उन के कमरे में नहीं जाना. अपनी पढ़ाई करना और मन न लगे तो टैलीविजन देख लेना.’’

‘‘मन नहीं करता टैलीविजन देखने का…’’ राजू मुंह बना कर बोला, ‘‘सब चैनल में एक ही बात ‘कोरोनाकोरोना’. ऊब गया हूं यह सब सुनतेदेखते.’’

‘‘इसी से समझ लो कि कैसी परेशानी बढ़ी हुई है…’’ मम्मी राजू को समझाते हुए बोलीं, ‘‘इसलिए तो लोग बाहर नहीं निकल रहे. और तुम लोग भी घर से बाहर नहीं निकलना. घर में जो किताबें और पत्रिकाएं तुम लोगों के लिए लाई हूं, उन्हें पढ़नादेखना.’’

‘‘रचना मैडमजी, चलिए देर हो रही है…’’ ड्राइवर मोहसिन खान ने बाहर से हांक लगाई, ‘‘हम समय से थाने नहीं पहुंचे, तो इंस्पैक्टर साहब नाराज होने लगेंगे. उन की नसीहतें तो आप जानती ही हैं. बेमतलब शुरू हो जाएंगे.’’

‘‘नहीं जी, वे बेमतलब नहीं बोलते हैं…’’ रचना जीप में बैठ कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘जब हम ही समय का खयाल नहीं रखेंगे, तो पब्लिक क्यों खयाल रखेगी, इसलिए वे बोलते हैं. हमें तो समय का, अनुशासन का सब से पहले खयाल रखना होता है.’’

जीप एक झटके के साथ आगे बढ़ी, तो रचना ने बच्चों को दूर से ही हाथ हिला कर ‘बाय’ कहा. पति रमाशंकर अपने कमरे की खिड़की से उन्हें एकटक देखे जा रहे थे.

जीप जैसे ही थाने पहुंची, रचना  उस से तकरीबन कूद कर थाने के अंदर आ गईं.

‘‘आप आ गईं… अच्छा हुआ…’’ इंस्पैक्टर हेमंत रचना को देख कर बोले, ‘‘अभी रमाशंकरजी कैसे हैं?’’

‘‘वे ठीक हैं सर,’’ रचना उन का अभिवादन करते हुए बोलीं, ‘‘होम आइसोलेशन में हैं. उन्हें समझा दिया है कि कमरे से बिलकुल बाहर न निकलें और बच्चों को दूर से ही दिशानिर्देश देते रहें. वैसे, मेरे बच्चे समझदार हैं.’’

‘‘जिन की आप जैसी मां हों, वे बच्चे समझदार होंगे ही मैडम रचनाजी…’’ इंस्पैक्टर हेमंत हंसते हुए बोले, ‘‘क्या कहें, हमारी ड्यूटी ही ऐसी है. सरकार ने ऐन वक्त पर हम पुलिस वालों की छुट्टियां कैंसिल कर दीं, जिस से मजबूरन आप को आने के लिए कहना पड़ा, वरना आप को घर पर होना चाहिए था. औरतें तो घर की ही शान होती हैं.’’

‘‘वह समय कब का गया सर,’’ रचना हंसते हुए बोलीं, ‘‘अब तो औरतें भी घर के बाहर फर्राटा भर रही हैं. तभी तो हम लोगों को भी पुलिस में नौकरी मिलने लगी है.’’

‘‘ठीक कहती हैं आप,’’ इंस्पैक्टर हेमंत जोर से हंसे, फिर बोले, ‘‘देखिए, 10 बजने वाले हैं. आप गश्ती दल के साथ सब्जी बाजार की ओर चली जाइए. वहां की भीड़ को चेतावनी देने के साथ उसे तितरबितर कराइए. मैं दूसरी गाड़ी से बड़े बाजार की ओर निकल रहा हूं.’’

‘‘ठीक है सर,’’ बोलते हुए रचना उठने को हुईं, तो वे फिर बोले, ‘‘लोगों के मास्क पर खास नजर रखिएगा. और हां, आप भी लोगों से सोशल डिस्टैंसिंग बना कर रखिएगा.’’

‘‘जरूर सर…’’ रचना बाहर निकलते हुए बोलीं, ‘‘आप भी अपना खयाल रखिएगा.’’

‘‘किधर धावा मारना है?’’ मोहसिन उठते हुए बोला, ‘‘हम चैन से बैठ भी नहीं पाते कि बाहर निकलना पड़ जाता है.’’

‘‘क्या करें, हमारी नौकरी ही ऐसी है…’’ वे बोलीं, ‘‘हमारे साथ 3 और कांस्टेबल जाएंगे.’’

तभी थाने परिसर में बनी छावनी से 2 कांस्टेबल हाथ में राइफल और डंडा उठाए आते दिखाई दिए.

‘‘क्यों हरिनारायण, ठीक तो हो न?’’ रचना उन से मुखातिब हुईं, ‘‘और रामजी, क्या हाल है तुम्हारा?’’

‘‘अब थाने की चाकरी कर रहे हैं, तो ठीक तो होना ही है,’’ रामजी हंस कर बोला, ‘‘इस लौकडाउन की वजह से बेवजह हमारा काम बढ़ गया, तो भागादौड़ी लगी ही रहती है. चलिए, किधर जाना है?’’

‘‘अरे, तुम 2 ही लोग साथ जाओगे?’’ रचना बोली ही थीं कि इंस्पैक्टर हेमंत बाहर निकल कर बोले, ‘‘अभी इन दोनों के साथ ही जाइए मैडम. आप तो जानती ही हैं कि एरिया कितना बड़ा है हमारा और कांस्टेबल कितने कम हैं. स्टेशन के पास के बाजार में ज्यादा कांस्टेबल भेजने पड़ गए, क्योंकि वह संवेदनशील इलाका ठहरा. आप तो समझ ही रही हैं. वैसे, आप ने अपना रिवाल्वर चैक कर लिया है न?’’

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी सर…’’ वह अपने बगल में लटके रिवाल्वर पर हाथ धर कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘यह वरदी ही काफी है भीड़ को कंट्रोल करने के लिए.’’

अपने गश्ती दल के साथ रचना बाजार की ओर बढ़ रही थीं. उन की गाड़ी देखते ही लोग अलगअलग हो कर दूरी बना लेते थे, मगर उन के आगे बढ़ते ही दोबारा वही हालत बन जाती थी.

रचना तिराहेचौराहे पर कभीकभी गाड़ी रुकवा लेतीं और अपने साथियों के साथ उतर कर सभी से एक दूरी बनाने की हिदायत देती फिरतीं. समयसीमा खत्म होने के साथ ही दुकानें बंद और सड़कें सुनसान होने लगी थीं. अब कुछ ही लोग बाहर नजर आ रहे थे, जिन्हें उन्होंने अनदेखा सा किया. वे सब थक चुके थे शायद.

थाना लौटने के पहले ही रचना का मोबाइल फोन बजने लगा था. उन्होंने फोन रिसीव किया. फोन की दूसरी तरफ से जिले के पुलिस अधीक्षक मोहन वर्मा थे, ‘आप सबइंस्पैक्टर रचना हैं न?’

‘‘जी सर, जय हिंद सर…’’ रचना सतर्क हो कर बोलीं, ‘‘क्या आदेश  है सर?’’

‘अरे, जरा तुम उधर से ही गांधी पार्क वाले चौराहे पर चली जाना,’ मोहन वर्मा रचना को बताने लगे, ‘कुछ पत्रकार बता रहे थे कि उधर लौकडाउन का पालन नहीं हो रहा है. आतेजाते लोगों और गाडि़यों पर नजर रखना और कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखना.

‘जरूरत के हिसाब से थोड़ा सख्त हो जाना. जिन के पास उचित कागजात हों, उन्हें छोड़ कर सभी के साथ सख्ती करना. कितनी और कैसी सख्ती करनी है, यह तुम्हें समझाने की जरूरत तो  है नहीं.’

रचना की गाड़ी अब थाने के बजाय गांधी पार्क की ओर मुड़ चुकी थी. वहां भी सन्नाटा ही पसरा था. मगर कुछ गाडि़यां तेजी से आजा रही थीं.

रचना ने वहां एक साइड में रखे बैरिकेडिंग को सड़क पर ठीक कराया और हर आतीजाती गाडि़यों की खोजखबर लेने लगी थीं.

पुलिस को देखते ही एक बाइक पर सवार 2 नौजवान हड़बड़ा से गए. रचना ने उन्हें रोक कर पूछा, ‘‘कहां चल दिए? पता नहीं है क्या कि लौकडाउन लगा हुआ है?’’

‘‘सदर अस्पताल से आ रहा हूं मैडम…’’ एक नौजवान हकलाते हुए बोला, ‘‘दवा लेने गया था.’’

‘‘जरा डाक्टर का परचा तो दिखाना कि किस चीज की दवा लेने गए थे?’’

‘‘वह घर पर ही छूट गया है मैडम…’’ दूसरा नौजवान घिघियाया, ‘‘हम जल्दी में थे मैडम. हमें माफ कर दीजिए. हमें जाने दीजिए.’’

‘‘जब तुम गलत नहीं थे, तो हमें देख कर कन्नी कटाने की कोशिश क्यों की?’’ रचना सख्त हो कर बोलीं, ‘‘तुम दोनों के मास्क गले में लटके हुए थे. हमें देख कर तुम ने अभी उन्हें ठीक किया है. अपने साथ दूसरों को भी क्यों खतरे में डालते हो. अच्छा, बाइक के कागज तो होंगे ही न तुम्हारे पास?’’

‘‘सौरी मैडम, हम हड़बड़ी में कागज रख नहीं पाए थे…

‘‘और कितना झूठ बोलोगे?’’

‘‘सच कहता हूं, दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी. कान पकड़ता हूं,’’ उस ने हरिनारायण की ओर मुसकरा कर देखा. वह उस का इशारा समझ गया और उन्हें घुड़कता हुआ बोला, ‘‘एक तो गलती करोगे और झूठ पर झूठ बोलते जाओगे. जैसे कि हम समझते ही नहीं. चलो सड़क किनारे और इसी तरह कान पकड़े सौ बार उठकबैठक करो, ताकि आगे से याद रहे.’’

अब वे दोनों नौजवान सड़क किनारे कान पकड़े उठकबैठक करने लग गए थे.

अचानक रचना ने तेजी से गुजरती कार रुकवाई, तो उस का चालक बोला, ‘‘जरूरी काम से सदर होस्पिटल गए थे मैडम. आप डाक्टर का लिखा परचा देख लें, तो आप को यकीन हो जाएगा. हमें जाने दें.’’

‘‘वह तो हम देखेंगे ही. मगर पीछे की सीट पर जिन सज्जन को आप बिठाए हुए हैं, उन के पास तो मास्क ही नहीं है. आप लोग हौस्पिटल से आ रहे हैं, तो आप को तो खास सावधानी बरतनी चाहिए. वे कोरोना पौजिटिव हैं कि नहीं हैं, यह कैसे पता चलेगा? अगर वे कोरोना पौजिटिव हुए, तो आप भी हो जाएंगे. बाद में हमारे जैसे कई लोग हो जाएंगे. आप पढ़ेलिखे लोग इतनी सी बात को समझते क्यों नहीं हैं?’’

‘‘अरे मैडम, मेरे पास मास्क है न…’’ पीछे बैठे सज्जन ने मास्क निकाल कर उसे मुंह पर लगाया और बोले, ‘‘हमारे मरीज की हालत सीरियस है. हमें जल्दी है, प्लीज जाने दें.’’

‘‘वह तो हम जाने ही देंगे…’’ रचना उन के दिए डाक्टर के परचे को देखते हुए बोलीं, ‘‘मगर, आप को फाइन देना ही होगा, ताकि आप को पता तो चले कि आप ने गलती की है.’’

धूप तीखी हो चली थी और रचना पसीने से तरबतर थीं. उन्होंने देखा कि साथी कांस्टेबल भी गरमी से बेहाल हो थक चुके थे. उन्होंने ड्राइवर मोहसिन को आवाज दी और वापस थाना चलने का संकेत दिया.

थाने आ कर रचना ने अच्छे से हाथमुंह धोया और खुद को सैनेटाइज किया, फिर एक कांस्टेबल को भेज कर गरम पानी मंगवा कर पीने लगीं. इस के बाद वे अपनी टेबल पर रखी फाइलों और कागजात के निबटान में लग गईं.

शाम के 6 बज चुके थे. तब तक इंस्पैक्टर हेमंत आ चुके थे. आते ही वे बोले, ‘‘अरे रचना मैडम, आप क्या  कर रही हैं. अभी तक यहीं हैं, घर  नहीं गईं?’’

‘‘कैसे चली जाती…’’ वे बोलीं, ‘‘आप भी तो नहीं थे.’’

‘‘ठीक है, ठीक  है. अब मैं आ गया हूं, अब आप घर जाइए. घर में आप के पति बीमार हैं. छोटेछोटे बच्चे हैं. आप घर जाइए,’’ इतना कह कर वे मोहसिन को आवाज देने लगे, ‘‘मोहसिन भाई, कहां हैं आप? जरा, मैडम को घर  छोड़ आइए.’’

‘‘मैडम को कहा तो था…’’ मोहसिन बोला, ‘‘मगर, आप तो जानते ही हैं कि वे अपनी ड्यूटी की कितनी पक्की हैं.’’

‘‘ठीक है, अब तो पहुंचा दो यार…’’

साढ़े 6 बजे जब रचना घर पहुंचीं, तो राजू लपक कर बाहर निकल आया था. वह उन से चिपकना ही चाहता था कि वे बोलीं, ‘‘अभी नहीं, अभी दूर ही रहो मुझ से. दीदी को बोलो कि वे सैनेटाइज की बोतल ले कर आएं. सैनेटाइज होने के बाद सीधे बाथरूम जाना है मुझे.’’

पूरे शरीर को सैनेटाइज करने के बाद रचना बाहर ही अपने भारीभरकम जूते खोल कर घर में घुसीं, गीजर औन करने के बाद वे अपनी ड्रैस उतारने लगीं.

अच्छी तरह स्नान करने के बाद हलके कपड़े पहन कर रचना बाहर निकलीं और सीधी रसोईघर में आ गईं. दूध गरम कर कुछ नाश्ते के साथ बच्चों को दिया. फिर गैस पर चाय के लिए पानी चढ़ा कर पति के लिए कुछ खाने का सामान निकालने लगीं.

चाय पीते हुए रचना ने रिमोट ले समाचार चैनल लगाया, जिस में कोरोना संबंधी खबरें आ रही थीं. थोड़ी देर बाद उन्होंने टैलीविजन बंद किया, फिर बच्चों की ओर मुखातिब हुईं.

सुहानी पहले की तरह चुप थी. शायद समय की नजाकत ने उस 12 साल की बच्ची को गंभीर बना दिया था. मगर राजू उन्हें दुनियाजहान की बातें बताने में लगा था और वे चुपचाप सुनती रही थीं.

रचना का सारा शरीर थकान से टूट रहा था और उन्हें अभी भोजन भी बनाना था. जल्दी खाना नहीं बना, तो रात में सोने में देर हो जाएगी.

भोजन बनाने और सब को खिलानेपिलाने में रात के 10 बज गए थे. राजू को समझाबुझा कर बहन के कमरे में ही सुला कर वे बाहर अपने कमरे में आईं और अपने पलंग पर लेट गईं. थकान उन पर हावी हो रही थी. मगर अब अतीत उन के सामने दृश्यमान होने लगा था.

कितना संघर्ष किया है रजनी ने यहां तक आने के लिए, मगर कभी उफ तक नहीं की. देखतेदेखते इतना समय बीत गया. दोनों बच्चे बड़े हो गए, मगर ऐसा खराब समय नहीं देखा कि लोग  अपनों के सामने हो कर भी उन के लिए तरस जाएं.

घर में एक नौकर था, वह इस महामारी में अपने गांव क्या भागा, पीछे पलट कर देखने की जरूरत भी नहीं समझी. कामवाली महरी भी कब का किनारा कर चुकी है. ऐसे में उन्हें ही घरबाहर सब देखना पड़ रहा है.

यह सब अपनी जगह ठीक था, मगर जब रचना के शिक्षक पति बीमार पड़े, तो वे घबरा गई थीं. पहले वे छिटपुट काम कर लेते थे, बच्चों को संभाल भी लेते थे. इधर उन का स्कूल भी बंद था, जिस से वे निश्चिंत भी थीं, मगर एक दिन किसी शादी में क्या गए, वहीं कहीं पति कोरोना संक्रमित हो गए.

शुरू के कुछ दिन तो जांच और भागदौड़ में बीता, मगर बाद में पता चला कि पति कोरोना पौजिटिव हैं, तो मुश्किलें बढ़ गईं. घर पर ही रह कर इलाज शुरू हुआ था. मगर सांस लेने में तकलीफ और औक्सीजन के घटते लैवल को देख कर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ा. उफ, क्या मुसीबत भरे दिन थे वे. सारे अस्पताल कोरोना मरीजों से भरे पड़े थे. एकएक बिस्तर के लिए मारामारी थी. अगर बिस्तर मिल गया, तो दवाएं नहीं थीं या औक्सीजन सिलैंडर नहीं मिलते थे.

ऐसे में एसपी मोहन वर्मा ने अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए उन्हें बिस्तर दिलवाया था और औक्सीजन का इंतजाम कराया था. रचना उन के इस अहसान को हमेशा याद रखेगी.

उन दिनों रचना एक आम घरेलू औरत की तरह रोने लगती थी, तब वे ही उन्हें हिम्मत बंधाते थे. उन्होंने खुद आगे बढ़ कर रचना की छुट्टी मंजूर की और उन्हें हर तरह से मदद की…

अचानक राजू के रोने की आवाज से रचना की तंद्रा टूटी. राजू उन के पलंग के पास आ कर रोता हुआ कह रहा था, ‘‘मुझे डर लग रहा है मम्मी. मैं आप के साथ ही रहूंगा, कहीं नहीं जाऊंगा…’’

रचना ने उसे समझाबुझा कर चुप कराया, फिर वापस उसे अपने कमरे  में पलंग पर लिटा कर थपकियां देदे  कर सुलाया.

इस कोरोना काल में कैसेकैसे लोगों के साथ मिलनाजुलना होता है. क्या पता कि कोरोना वायरस उन के शरीर में ही घुसा बैठा हो. ऐसे में वे अपने परिवार के साथ खुद को कैसे खतरे में डाल सकती हैं… अपने कमरे में जाते हुए सबइंस्पैक्टर रचना यही सोच रही थीं.

ऊंची उड़ान: स्नेहा को क्या पता चली दुनिया की सच्चाई

‘‘दीदी, तुम्हारे लिए जतिन का फोन है,’’ कह कर मैं हंसती हुई दीदी के हाथ में फोन दे कर बाहर चली गई.

तभी पिताजी की आवाज आई, ‘‘किस का फोन है इतनी रात में?’’

‘‘जी पापा, वो…. दीदी की एक सहेली का.’’

‘‘पर मैं ने तुम दोनों से क्या कह रखा है?’’ पापा चिल्लाए तो उन की ऊंची आवाज सुन कर मैं सहम गई. मुझे लगा आज तो दीदी की खैर नहीं. वह हमारे कमरे में चले आए और दीदी को फोन पर हंसते हुए देख कर गरज पड़े.

‘‘स्नेहा, क्या हो रहा है?’’

पापा की आवाज से दीदी के हाथ से रिसीवर छूट गया. पापा ने रिसीवर उठाया और उसी लहजे में बोले, ‘‘हैलो, कौन है वहां?’’

उधर से कोई आवाज न पा कर उन्होंने रिसीवर पटक दिया.

‘‘बताओ कौन था?’’

‘‘कोई नहीं पापा. नीरज भैया थे. आप उन से हमेशा नाराज रहते हैं न. इसलिए उन्होंने आप से बात नहीं की,’’ दीदी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बड़ी मौसी के बेटे का नाम ले लिया.

नीरज भैया पढ़ाई पर जरा कम ध्यान देते थे. इस वजह से पापा उन्हें पसंद नहीं करते थे.

‘‘इस समय क्यों फोन किया था उस नालायक ने?’’

‘‘पापा, उन्हें मेरी कुछ पुरानी किताबें चाहिए थीं.’’

‘‘उसे कब से किताबें अच्छी लगने लगीं? 11 बज गए हैं घड़ी में अलार्म लगाओ और बत्ती बंद कर सो जाओ.’’

पापा के जाते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘बच गए दीदी.’’

बस, यही थी हमारी जिंदगी. मम्मीपापा, दोनों के अनुशासन के बीच झूठ के सहारे हमारी जिंदगी कट रही थी. मम्मी तो कभीकभी मनमानी करने भी देती थीं पर पिताजी, वह तो लगता था कि पूर्वजन्म के हिटलर थे.

हम दोनों बहनों पर वे ऐसी नजर रखते थे जैसे जेलर कैदियों पर रखता है. घर से बाहर हमें सिर्फ कालिज जाने की इजाजत थी. हमारे हर फोन, हर चिट्ठी, हर दोस्त पर उन की निगाह रहती और हमारे दिलों में उन का एक अजीब सा खौफ बैठ गया था. अकसर जब हम दोनों बहनें दूसरी लड़कियों को फिल्म देखने या घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते देखते तो हमें बहुत दुख होता पर इस के अलावा हमारे बस में कुछ था भी नहीं.

इस सब के बावजूद हम दोनों बहनें एकदूसरे के बहुत करीब थीं. मैं तो फिर भी इस सब के बारे में ज्यादा नहीं सोचती थी और खुश रहती थी पर दीदी अपनों का यह व्यवहार देख कर दुखी होती थीं और उन्हें गुस्सा भी बहुत आता था. उन्हें इस बात पर बहुत हैरानी होती थी कि हमारे अपने इतना मानसिक कष्ट कैसे दे सकते हैं.

अगली सुबह जब हम कालिज जा रहे थे तो रास्ते में दीदी ने मुझ से पूछा, ‘‘नेहा, मातापिता इतना दुख क्यों देते हैं?’’

मैं कुछ पल सोचती रही कि क्या कहूं फिर चलतेचलते रुक कर बोली, ‘‘दीदी, पालने वाले जो भी दें, ले लेना चाहिए.’’

‘‘नेहा, तुम्हें इतने अच्छे खयाल कहां से आते हैं?’’ दीदी ने मेरी तरफ देख कर पूछा.

मैं ने आसमान की तरफ देखा और फिर हम हंस पड़े.

ऐसे ही खट्टेमीठे लम्हों के बीच दीदी का बी.ए. हो गया. उन दिनों मेरे पेपर चल रहे थे. जब मैं आखरी पेपर दे कर घर लौटी तो दीदी के बारे में ऐसी बातें सुनने को मिलीं जिस की कल्पना मैं ने सपने में भी नहीं की थी. मम्मीपापा दोनों मुझ पर सवाल बरसाए जा रहे थे.

‘‘बताती क्यों नहीं, किस के साथ भाग गई वह? इसी दिन के लिए पढ़ालिखा रहा था तुम दोनों को.’’

मम्मी बैठेबैठे रोए जा रही थीं. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं.

उन के पास जा कर मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, दीदी यहीं कहीं होंगी. आप रो क्यों रही हैं?’’

‘‘उस की सब सहेलियों से पूछ लिया है, कहीं नहीं है वह,’’ मम्मी ने रोते हुए बस, इतना ही कहा था कि पापा फिर चिल्ला पड़े, ‘‘कालिख पोत दी हमारे मुंह पर.’’

इतना कह कर वह अपने कमरे में गए और दरवाजा बंद कर लिया. मैं दौड़ कर अपने कमरे में गई और हर चीज को उठाउठा कर देखा. फिर जतिन को फोन मिलाया तो उसे भी दीदी के बारे में कुछ मालूम नहीं था. मैं पलंग पर बैठ कर रोने लगी. तभी मेज पर रखी दीदी की डायरी पर नजर पड़ी. मैं ने उस के पन्ने पलटे तो एक कागज मिला जिस पर लिखा था :

प्रिय नेहा,

तुम्हें याद होगा, कुछ दिनों पहले कालिज में कैंपस इंटरव्यू हुए थे. इस के कुछ दिनों बाद ही मुझे एक कंपनी की ओर से ‘कस्टमरकेयर एग्जिक्यूटिव’ का नियुक्ति पत्र मिला था. मैं मम्मीपापा से इजाजत मांगती तो वे मुझे यह नौकरी नहीं करने देते, इसलिए बिना बताए जा रही हूं.

मुझे मालूम है, उन्हें दुख होगा पर नेहा थोड़े दिन ही सही, मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं. यह मत करो, वह मत करो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, यह मत पहनो, ये बातें सुनसुन कर मैं थक गई हूं. मुझे वहां अच्छा नहीं लगा तो मैं वापस लौट आऊंगी. तुम अपना और मम्मीपापा का ध्यान रखना.

तुम्हारी दीदी,

स्नेहा

इस खत को पढ़ने के बाद मुझे बहुत सुकून मिला. मैं ने पत्र ले जा कर मम्मी को थमा दिया.

‘‘अरे, उसे इस तरह जाने की क्या जरूरत थी? हम से पूछा तो होता…’’

‘‘अगर दीदी पूछतीं तो क्या आप उन्हें जाने देतीं?’’

उन के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. वह बुत सी बैठी रहीं और फिर रोने लगीं.

दीदी के जाने के बाद मैं ने मम्मीपापा का एक नया ही रूप देखा. दोनों हमेशा उदास रहते थे. ऐसा लगता था जैसे अंदर ही अंदर टूट रहे हों. जबकि पहले लगता था कि उन के दिल पत्थर के हैं पर अब पता चला कि ऐसा नहीं है. मम्मी की सेहत गिरती जा रही थी और पापा भी घंटों चुपचाप कमरे में बैठे रहते.

उन की तकलीफ इस बात से और बढ़ती जा रही थी कि दीदी ने जाने के बाद कोई खबर नहीं भेजी. मेरी बड़ी अजीब सी स्थिति थी. मम्मीपापा के दुख से दुखी थी पर दिल में दीदी के लिए खुशी भी थी. उन के न होने से अकसर अपनेआप से बातें कर लिया करती कि अगर मम्मीपापा दीदी से इतना ही प्यार करते थे तो उन्हें इतना दुखी क्यों किया जाता था.

कभीकभी लगता कि अच्छा ही हुआ जो दीदी चली गईं. कम से कम थोड़ा सुकून तो पाया उन्होंने.

फिर ऐसे ही एक शाम बैठेबैठे दीदी की बात याद आने लगी.

‘नेहा, एक दिन मैं पर लगा कर आसमान के उस पार उड़ जाऊंगी और सितारों से दोस्ती करूंगी.’

‘फिर मेरा क्या होगा?’

‘तुझे भी अपने साथ ले जाऊंगी.’

‘और जतिन का क्या होगा?’

‘वह…वह तो बस, मेरा दोस्त है जो पता नहीं कैसे बन गया? उसे धरती पर ही रहने दो. आसमान पर सिर्फ हम दोनों चलेंगे.’

और फिर हम जोर से हंस पड़े थे.

वक्त अच्छा हो या बुरा, थमता नहीं है. मेरे आसपास सबकुछ ठहर गया था. मुझे अब दीदी की चिंता होने लगी थी. 3 महीने गुजर जाने के बाद भी उन्होंने कोई खबर नहीं भेजी. इस बीच मुझे यह भी एहसास हो गया कि मातापिता भले ही पत्थर से लगते हों, उन का दिल तितली के पंखों से भी नाजुक होता है.

रविवार के दिन मम्मीपापा को चाय दे कर मैं बरामदे में बैठी ही थी कि गेट खुलने की आवाज आई. देखा तो दीदी थीं. मैं दौड़ कर उन के पास  गई. जब हम गले मिले तो हमारी आंखें भर आईं. मैं ने वहीं से मम्मीपापा को बाहर आने की आवाज दी.

दोनों जब बाहर आए तो दीदी उन के सामने हाथ जोड़ कर रोने लगीं. दोनों ने कुछ भी नहीं कहा. मैं ने उन का सामान उठाया और हम अंदर आ गए.

दीदी को मैं ने पानी दिया. थोड़ा सा पानी पी कर वह पापा से बोलीं, ‘‘आप बहुत नाराज हैं न पापा मुझ से?’’

‘‘नहीं…हां, बच्चे गलती करेंगे तो मांबाप नाराज नहीं होंगे?’’

‘‘होंगे न पापा. होना भी चाहिए. वहां हास्टल में आप तीनों को मैं बहुत मिस करती थी. सितारों से दोस्ती करने गई थी पर उन के पास जा कर पता चला कि वे सिर्फ धरती से ही खूबसूरत दिखाई देते हैं. उन्हें छूना चाहो तो हाथ जल जाता है. मैं अपनी जमीन पर लौट आई हूं पापा. मुझे माफ करेंगे न?’’

पापा ने प्यार से दीदी के सिर पर हाथ फेरा. उस के बाद दीदी ने मम्मी से भी माफी मांगी. उस रात हम लोग चैन से सोए.

‘‘मैं तुम दोनों को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए ही पढ़ा रहा हूं. तुम्हें नौकरी करनी है तो कर लेना पर पहले अच्छी तरह से पढ़ तो लो, बेटा. उच्च शिक्षा लोगे तो और भी अच्छी नौकरी मिलेगी,’’ नाश्ते की मेज पर पापा की यह बात सुन कर हमें बहुत अच्छा लगा.

दीदी ने एम.ए. में एडमिशन लिया. अब घर में ज्यादा सुकून था. हमारे सारे दोस्त व सहेलियां घर आजा सकते थे और कभीकभी हमें भी उन के साथ बाहर जाने की इजाजत मिल जाती. दीदी को यकीन हो गया था कि सच्ची खुशियां अपनों के ही बीच मिलती हैं.

ऐसे ही एक खुशी के पल में दीदी के साथ मैं एक पार्क के बाहर खड़ी हो कर नारियल पानी पी रही थी. अचानक मुझे एक खयाल आया तो बोल पड़ी, ‘‘दीदी, क्या आप को नहीं लगता कि मांबाप नारियल की तरह होते हैं या ये कहें कि कुछ रिश्ते नारियल जैसे होते हैं, यानी अंदर से मीठे और बाहर से रूखे.’’

दीदी ने मुझे अपने पुराने अंदाज में देखा और बोलीं, ‘‘नेहा, तुम्हें इतने अच्छे खयाल कहां से आते हैं?’’

और इसी के साथ हम दोनों आसमान की ओर देख कर हंस पड़े.

रोटी: क्या था अम्मा के संदूक में छिपा रहस्य

ढाई बजे तक की अफरातफरी ने पंडितजी का दिमाग खराब कर के रख दिया था. ये लाओ, वो लाओ, ये दिखाइए, वो दिखाइए, ऐसा क्यों है, कहां है, किस तरह है? इस का सुबूत…उस का साक्ष्य?

पारिवारिक सूची क्या बनी, पूरे खानदान की ही फेहरिस्त तैयार हो गई. पूरे 150 नाम दर्ज हो गए, सभी के पते, फोन नंबर, मोबाइल नंबर, उन का व्यवसाय और उन सब के व्यवसायों से जुड़े दूसरेदूसरे लोग.

पंडित खेलावन ने बेटी की सगाई पिछले माह ही की थी. उन्हें डर था कि कहीं ऐसा कुछ न हो कि उन के संबंधों पर आंच आए, सो कह उठे, ‘‘देखिए शर्मा साहब, आप को मेरे परिवार और मेरे धंधे के बाबत जो कुछ पूछना और जानना है, पूछिए किंतु मेरे समधी को इस में न घसीटिए, प्लीज. बेटी के विवाह का मामला है. कहीं ऐसा न हो कि…’’

पंडित खेलावन को बीच में टोकते हुए शर्माजी बोले, ‘‘देखिए पंडितजी, जिस तरह से आप को अपने संबंधों की परवा है उसी तरह मुझे भी अपनी नौकरी की चिंता है. यह सब तो आप को बताना ही होगा. आखिर आप का, आप के व्यापार का किसकिस से और कैसाकैसा संबंध है, यह मुझे देखना है और यही मेरे काम का पार्र्ट है.’’

तमाम जानकारियां दर्ज कर शर्माजी लंच के लिए बाहर निकल गए थे किंतु पीछे अपनी पूरी फौज छोड़ गए थे. घर के हर सदस्य पर पैनी नजर रखने के लिए आयकर विभाग का एकएक कर्मचारी मुस्तैद था.

पलंग पर निढाल हो पंडित खेलावन ने सारी स्थितियों पर गौर करना शुरू किया. आयकर वालों की ऐसी रेड पड़ी थी कि छिपनेछिपाने की तनिक भी मोहलत नहीं मिली. यह शनि की महादशा ही थी कि सुबहसुबह हुई दस्तक ने उन्हें जैसे सड़क पर नंगा ला कर खड़ा कर दिया हो.

पंडित खेलावन का दिमाग हर समय हर बात को धंधे की तराजू पर तोलता रहता था. पलड़ा अपनी तरफ झुके तभी फायदा है, इसी सिद्धांत को उन्होंने अपनाना सीखा था. और पलड़ा अपनी ओर झुकाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति ही कारगर सिद्ध  होती थी, होती आई है. इसीलिए पूरे जीवन को उन्होंने धंधे की तराजू पर तोला था.

‘‘मुझे, नहीं खाना कुछ भी,’’ कह कर पंडित खेलावन ने थाली परे सरका दी.

‘‘हमारी तो तकदीर ही फूटी थी जो यह दिन देखना पड़ रहा है,’’ पत्नी ने पीड़ा पर मरहम लगाते हुए कहा, ‘‘मैं कहती थी न कि अपने दुश्मनों से होशियार रहो. कहने को भाई हैं तुम्हारे मांजाए. पर हैं नासपीटे…यह सबकुछ उन्हीं का कियाधरा है, नहीं तो…’’ कहतेकहते पंडिताइन सिसकसिसक कर रोने लगीं.

‘‘देख लूंगा…एकएक को देख लूंगा…किसी को नहीं छोड़ं ूगा. मुझे बरबाद करने पर तुले हैं…उन को भी आबाद नहीं रहने दूंगा. क्या मैं उन की रगरग को नहीं जानता हूं कि उन की औलादें क्याक्या गुल खिलाती फिरती हैं? मेरे मुंह खोलने की देर भर है, सब लपेटे में आ जाएंगे.’’

पंडितजी जोरजोर से चिल्ला रहे थे. वह जानते थे कि दीवार के उस पार जरूर भाइयों के कान लगे होंगे, भाभियों को चटखारे लेने का आज अच्छा मौका जो मिला था.

आयकर जांच अधिकारी ने लंच से लौटते ही एकएक चीज का मूल्यांकन करना शुरू किया. पत्नी के काननाक को भी उन्होंने नहीं छोड़ा.

‘‘हर चीज सामने होनी चाहिए…सोना, चांदी, हीरा, मोती, नकदी, बैंकबैलेंस, जमीनजायदाद, फैक्टरी, दुकान, घर, मकान, कोठी, बंगला, खेत खलिहान… सबकुछ नामे या बेनामे.’’

ज्योंज्यों लिस्ट बढ़ती जा रही थी त्योंत्यों पंडित खेलावन का दिल बैठता जा रहा था.

कोई जगह, कोई  कोना, कोई तहखाना नहीं छोड़ा था रेड पार्टी ने. हर कमरे की तलाशी, गद्दोंतकियों को छू- दबा कर देखा तो देखा, दीवारों के प्लास्टर को भी ठोकबजा कर देखने से नहीं चूके.

पंडितजी कुछ कहने को होते तो शर्मा साहब उन्हें बीच में ही रोक देते, ‘‘हम, अच्छी तरह जानते हैं, कहां क्या हो सकता है. टैक्स बचाने के चक्कर में आप लोगों का बस चले तो क्या कुछ नहीं कर सकते?’’

आखिरी कमरा बचा था अम्मां वाला. शर्माजी ने कहा, ‘‘इसे भी देखना होगा.’’

‘‘इस में क्या रखा है…बूढ़ी मां का कमरा है. जाओजाओ, अब उसे भी देख लो…कोई कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए पंडितजी की इज्जत का फलूदा बनाने में…’’ झल्लाहट में पंडित खेलावन बड़बड़ा रहे थे.

समाज में इज्जत बनाने के लिए और बाजार में अपनी साख कायम रखने के लिए पंडित खेलावन ने क्याक्या नहीं किया था. थोड़ीबहुत राजनीति में भी दखल रखने का इरादा था. इसीलिए उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हुए अपने एक चित्र को परचे पर छपवाया और इस खूबसूरत परचे को शहर के कोनेकोने में चस्पां करवा डाला था. गली, महल्ला, टैक्सी, जीप, बस और रेल के डब्बों में भी उन की पहचान कायम थी.

सबकुछ धो डाला है आज के मनहूस दिन ने. हो न हो, कहीं यह सामने वाली पार्टी की करतूत तो नहीं? हो भी सकता है क्योंकि अभी वह पार्टी पावर में है. उन का मानना था कि अगले चुनाव में केंद्र वाली पार्टी ही राज्य में भी आएगी, इसलिए उस से ही जुड़ना ठीक होगा. पर इस बार के अनुमान में वह गच्चा खा गए.

अम्मां 80 को पार कर रही थीं. इस आयु में तो हर कोई सठिया जाता है. बातबात पर बच्चों जैसी जिद…अब वह क्या जानें कि ये आयकर क्या होता है वह तो जिद पर अड़ी हैं कि अपने कमरे में किसी को नहीं आने देंगी.

आंख से भले ही पूरा दिखाई न देता हो पर किसी बच्चे के पैरों की आहट भी सुनाई दे जाती है तो कोहराम मचा देती हैं…रोने लगती हैं. उन्हें अकेले पड़े रहना ही सुहाता है. अब अम्मां को कौन समझाए कि ये रेड पार्टी वाले जो ठान लेते हैं कर के ही दम लेते हैं, उन्हें तो यह कमरा भी चेक कराना ही होगा.

शर्माजी समय की नजाकत को जानते थे और जांचपड़ताल के दौरान किस के साथ कैसा व्यवहार कर के जड़ तक पहुंचना है, खूब जानते थे. उन्होंने सभी को रोक कर अकेले अम्मां के कमरे में प्रवेश किया.

‘‘अम्मां, पांव लागूं. कैसी हो अम्मां जी. बहुत दिनों से सुनता था कि बड़ेबूढ़ों का आशीर्वाद जीवन में पगपग पर कामयाबी देता है, क्या ऐसा वरदान आप मुझे नहीं देंगी?’’

‘‘बेटा, सब करनी का फल है… आशीषों से क्या होता है? पर तुम हो कौन? सुबह से इस घर में कोहराम मचा हुआ है. क्यों परेशान कर रखा है मेरे बच्चों को?’’ अम्मां के शब्दों में तल्खी भी थी और आर्तनाद भी, जैसे वह सबकुछ जानतीसमझती हों.

शर्माजी ने अम्मां को जैसे समझाने का प्रयास किया, ‘‘हम लोग सरकारी आदमी हैं, अम्मां. हमारा काम है गलत तरीकों से कमाए गए रुपएपैसों की पड़ताल करना…खरी कमाई पर खरा टैक्स लेना सरकार का कायदा है. अब देखिए न अम्मांजी, मैं ठहरा सरकारी मुलाजिम. मुझे आदेश मिला है कि पंडित खेलावन पर टैक्स चोरी का मुआमला है, उस की छानबीन करो…सो आदेश तो बजाना ही होगा न…अब बताइए अम्मां, इस में मेरा क्या दोष है? जो खरा है तो खरा ही रहेगा…पंडितजी ने कोई गुनाह किया नहीं है तो उन्हें सजा कैसे मिल सकती है पर खानापूर्ति तो करनी ही होगी न…’’

‘‘सो तो है, बेटा…तुम आदमी भले लगते हो. मुझ से क्या चाहते हो? सारे घर का हिसाब तो तुम ले ही चुके हो…लो, मेरा कमरा भी देख लो. यही चाहते हो न…पूरी कर लो अपनी ड्यूटी,’’ शर्माजी की बातों से अम्मां प्रभावित हुई थीं.

पुराने कमरे में क्या लुकाधरा है लेकिन शर्माजी की पैनी नजर ने संदेह तो खड़ा कर ही दिया था.

‘‘इस संदूक में क्या है? अम्मां, जरा खोल कर दिखाओ तो,’’ शर्माजी ने कहा तो अम्मां जैसे फिर बिफर पड़ीं, ‘‘नहीं… नहीं, इसे नहीं खोलने दूंगी. तुम इसे नहीं देख सकते…’’

‘‘लेकिन ऐसा भी क्या है, अम्मां, संदूक को जरा देख तो लेने दो,’’ शर्माजी बोले, ‘‘आप ने ही तो कहा है कि मुझे मेरी ड्यूटी पूरी करने देंगी. सो समझिए कि मेरी ड्यूटी में हर बंद चीज को खोल कर देखना शामिल है.’’

अम्मां ने अब और जिद नहीं की. खटिया से उठीं, दरवाजा भीतर से बंद किया.

संदूक का नाम सुनते ही पंडिताइन के मन में खटका हुआ था कि हो न हो, बुढि़या ने सब से छिपा कर जरूर कुछ बचा रखा है. इसीलिए वह अपने संदूक के पास किसी को फटकने तक नहीं देती थीं. जरूर कुछ ऐसा है जिसे शर्माजी ताड़ गए हैं, नहीं तो…

इधर पंडितजी भी शंकालु हो उठे तो पंडिताइन से कहने लगे, ‘‘अम्मां रहती हैं मेरे यहां और मन लगा रखा है दूसरे बेटों के साथ. भले ही वे उन्हें न पूछते हों. कहीं ऐसा तो नहीं है कि बड़के भैया के लिए कुछ रख छोड़ा हो. चलो, जो भी होगा, आज सामने आ ही जाएगा.’’

बंद कमरे में पसरे अंधकार में पिछली खिड़की से जो थोड़ी रोशनी की लकीर  आ रही थी उसी रोशनी में संदूक रखा था. ताला खोल कर ज्यों अम्मां ने संदूक का ढक्कन उठाया तो शर्माजी अवाक् रह गए.

‘‘रोटियां, ये क्या अम्मां… रोटियां और संदूक में?’’

‘‘हां, बेटे, यही जीवन का सत्य है… रोटियां. इन्हीं के लिए इनसान दुनिया में जीता है, जीवन भर भागता फिरता है, रातदिन एक करता है, बुरे से बुरा काम करता है. किस के लिए ? रोटी के लिए ही तो. खानी उसे सिर्फ दो रोटी ही हैं. फिर भी न जाने क्यों…’’ कहतेकहते अम्मां का गला भर उठा था.

‘‘लेकिन मांजी, ये तो सूखी रोटियां हैं. आप ने इन्हें संदूक में सहेज कर क्यों रख छोड़ा है?’’ शर्माजी इस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहे थे, भले ही उन्होंने बड़ी से बड़ी गुत्थियों को सुलझा दिया हो.

‘‘सप्ताह में एक दिन ऐसा भी आता है बेटे, जब कोई भी घर में नहीं रहता. इतवार को सभी बाहर खाना खाते हैं. उस दिन घर में रोटी नहीं बनती. उसी दिन के लिए मैं इन्हें बचाए रखती हूं. दो रोटियों को पानी में भिगो देती हूं और फिर किसी न किसी तरह से उन्हें चबा कर पेट भर ही लेती हूं…लो बेटे, तुम ने तो देख ही लिया है… अब इस कटुसत्य को पूरे घर के सामने भी जाहिर हो जाने दो…न जाने मेरे बच्चे क्या सोचेंगे.’’ आंसू पोंछते हुए अम्मां ने बंद दरवाजा खोल दिया.

फरिश्ता: क्या जीशान ने मोना को धोखा दिया ?

“आप को पता है, जीशान सर ने शादी कर ली है…”

“क्या? कैसे? कब? लेकिन वे ऐसा कैसे कर सकते हैं?”

जिस ने भी सुना वह इन्हीं सारे सवालों की गोलियां दनादन दागने लगा. किसी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. हर कोई, हर किसी से यह सवाल पूछता, मगर जवाब में हर कोई हैरानी जाहिर करता…

लेकिन मोना, वह ‘काटो तो खून नहीं’ वाली हालत में थी. हर एक की तरफ यों आंखें गड़ाए देख रही थी मानो वह आंखोें के रास्ते उस के दिल और दिमाग में उतर जाना चाह रही हो. उसे सच का पता लगाना था कि आखिर जीशान ने क्या वाकई शादी कर ली है? लेकिन नहीं, वे ऐसा कर ही नहीं सकते. वे ऐसा कर कैसे सकते हैं?

मोना के सामने सब से बड़ा सवाल था कि वह ‘किस से’ सवाल करे और ऐसा वहां कौन था जो मोना के सवालों भरी आंखों में देख सकने की हिम्मत रखता हो.

बात तब की है जब मोना हमारे दफ्तर में पहली बार नौकरी के लिए आई थी. सुडौल और कसा हुआ बदन, बड़ीबड़ी आंखें, गोल लुभावना चेहरा और रंग एकदम साफ, बल्कि यों लगता था जैसे वह गुलाबी रंग का गुलाब है जिसे छू लिया जाए तो वह सकुचा कर खून जैसा लाल हो जाए.

उम्र में छोटी होने के चलते मोना मुझे ‘दीदी’ कह कर पुकारती थी, जो मुझे पसंद भी था. नहीं तो हर कोई ‘मैडममैडम’ कह कर ही बुलाता था. ‘दीदी’ का संबोधन मुझे बहुत अच्छा लगता है, सो मैं ने भी खुशीखुशी उस अनजान सी लड़की को अपनी ‘छोटी बहन’ समझ लिया था.

धीरेधीरे मोना मेरे काफी करीब आ गई. अपने घरपरिवार के बारे में छोटीछोटी बातें भी बेहिचक मुझ से कहने लगी.

एक दिन अपनी जिंदगी की सब से बड़ी घटना बताते हुए मोना कहने लगी, “उन दिनों मैं 15 साल की थी. मैं जिस स्कूल में पढ़ती थी, उसी स्कूल में रमेश भी था. बहुत ज्यादा हैंडसम. पैसे वाला, मांबाप का एकलौता और अमीर बाप की बिगड़ी औलाद, पर मुझे वह अच्छा लगता था.

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“धीरेधीरे पता नहीं चला कि कब वह मेरे दिलोदिमाग पर छा गया. अगर वह एक दिन भी स्कूल नहीं आता तो मैं बेचैन होने लगती और दूसरे दिन पागलों की तरह समय से पहले स्कूल पहुंच कर उस का इंतजार करने लगती.

“मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा था मुझे नहीं मालूम. दिनरात उसी के खयालों में रहने लगी. हर एक धड़कन जैसे उसी का नाम ले कर धड़कती. हर आतीजाती सांस मानो उसी की तलबगार थी.

“रफ्तारफ्ता मेरी इस हालत की खबर पूरे स्कूल में फैल गई. अब रमेश भी मुझे चाहने लगा था. हमारी चाहत इतनी बढ़ी कि हम दोनों ने घर से भागने का फैसला कर लिया.

“किशोर उम्र का प्यार कितना हिम्मती और ताकतवर होता है, इस का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता, खुद मुझे भी नहीं था. कुछ ही दिनों के किसी लड़के के प्यार की खातिर मैं ने अपने मांबाप तक के प्यार को भी ठुकरा दिया था.

“घर से तो निकल गए मगर जाते कहां? यों तो लगता था कि दुनिया बहुत बड़ी है, लेकिन घर से बाहर निकलो तो दुनिया बहुत छोटी मालूम पड़ती है. किधर जाएं? कहां ठहरें?

“इसी भटकाव में कुछ महीने गुजर गए. फिर हमारे पैसे खत्म हो गए. घर से लाए गए गहने भी बिक गए. खाने तक के लाले पड़ गए, मगर हमारा भटकना खत्म नहीं हुआ. कभी मेरे मातापिता और भाई का डर, कभी रमेश के मातापिता का डर… इन सब बातों के अलावा पुलिस का खौफ हमें कहीं भी चैन से रहने नहीं दे रहा था.

“बात यहीं तक रहती तो जिंदगी की दास्तान कुछ और होती, पर ऐसा नहीं हुआ. जिंदगी के इस भटकाव ने रमेश को कमजोर कर दिया. वह अपने पुराने रूप में आ गया. नशे की हालत में अपनी बेतरतीब जिंदगी की वजह मुझे बताने लगा. मेरे पैरों तले की जमीन सरक गई. मैं ने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की, पर वह मानने को तैयार नहीं था. उसे अपने पिता की दौलत याद आने लगी.

“एक दिन की बात है. वह मेरी बरबादी और तबाही का दिन था. रमेश घर लौटा तो वह अकेला नहीं था, साथ में थे उस के पिता. मैं कुछ समझ पाती इस से पहले रमेश के पिता ने कहा, ‘मैं अपने बेटे को ले जा रहा हूं.’

‘‘मैं तड़प उठी और कहा, ‘यह क्या कह रहे हैं आप?’

“वे बोले, ‘जो तुम ने सुना वही कह रहा हूं.’

“मैं ने रमेश की तरफ देख कर कहा, ‘ये आप के साथ नहीं जाएंगे.’

“पर रमेश ने दो टूक कह दिया, ‘तुम अपना देख लो, मैं अपने डैडी के साथ जा रहा हूं.’

“मैं कुछ समझ ही नहीं पाई कि यह सब क्या हो रहा है. मैं ने रमेश को झकझोरते हुआ कहा, ‘तुम मुझे छोड़ कर जा रहे हो? ऐसे कैसे जा सकते हो मुझे और मेरे पेट में पल रहे इस बच्चे को छोड़ कर?’

“रमेश कुछ कहता, इस से पहले उस के पिता ने कहा, ‘समाज की नजरों में शादी ही नहीं हुई तो बच्चा कैसा? और फिर तुम जैसी लड़कियों के लिए मैं अपने बेटे की जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता.’

“मैं अवाक रह गई. रमेश के पिता की बातें मेरे कानों में गरम लावे की तरह बह रही थीं. मेरे होश उड़ गए थे.

“मैं कुछ कहती, इस से पहले रमेश दरवाजे के बाहर निकल चुका था. मेरी दुनिया लुट रही थी और मैं खड़ेखड़े देख रही थी. फिर पता नहीं कैसे मैं एकाएक दहाड़ें मारते हुए रमेश के पैरों पर गिर पड़ी और गिड़गिड़ाने लगी, ‘मुझे किस के सहारे छोड़ कर जा रहे हो? मत जाओ, मत जाओ न…’

“लेकिन उस ने मेरे हाथों को इतनी जोर का झटका दिया कि मैं कुछ दूरी पर जा कर गिर पड़ी.

“मुझे होश आया तो मैं अस्पताल के बिस्तर पर थी और साथ में थीं मेरी मां, जो मेरा सिर सहला रही थीं. मैं उन की गोद में मुंह छिपा कर जोरजोर से रोने लगी.

“फिर मुझे अहसास हुआ कि 2 और हाथ मेरी पीठ को सहला रहे थे. मैं कितनी बड़ी बेवकूफ थी, मैं ने समझा कि रमेश लौट आया है. झट से पलट कर देखा तो वे 2 प्यारभरे हाथ मेरे पापा के थे.

“तब से अब तक मैं मम्मीपापा के साथ ही रहती हूं और साथ में है मेरा बेटा. जिस समय मेरा बेटा पैदा हुआ, मेरी उम्र 16 साल थी. आज मैं 21 साल की हो चुकी हूं. मातापिता के प्यार के साए में पता ही नहीं चला कि 5 साल कैसे गुजर गए.

“सच में सारी दुनिया दुश्मन हो जाए, पर मातापिता का प्यार कभी कम नहीं होता है. इन के प्यार को ठुकराने और विश्वास को तोड़ने की बेवकूफी कभी नहीं करनी चाहिए…”

5 साल पहले ही मोना मेरे दफ्तर में आई थी. आज की घटना एक बार फिर दहला गई. जीशान हमारे औफिस में हैड थे. औफिस के सारे अहम कामों का दारोमदार जीशान पर ही था. वे बरताव के भी अच्छे थे. यही वजह थी कि जीशान औफिस में सब के चहेते थे. वे मुझ से कुछ ही साल बड़े थे, इसलिए मैं उन्हें ‘भाई’ कह कर बुलाया करती थी.

जीशान जरा आशिकमिजाज भी थे. भंवरा फूल से दूर कैसे रह सकता है? जीशान को मोना भाने लगी. फिर वही हुआ जो अकसर होता है. मोना भी जीशान के करीब जाने लगी. दोनों के दिलों में मुहब्बत की लहर सी आ गई. उस लहर में दोनों गोते लगाने लगे.

पिछले चंद सालों में ही उन का प्यार परवान चढ़ गया. सारे औफिस में उन की चर्चा होने लगीं, मगर इन चर्चाओं से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ सकता था, क्योंकि दोनों दिलोजान से एकदूसरे को चाहते थे.

प्यार में धोखा खाई हुई एक बच्ची को दोबारा सच्चा प्यार मिल रहा था. दोनों एकदूसरे से बेपनाह मुहब्बत करने लगे. मगर एकाएक सुनने में आया कि जीशान ने शादी कर ली. मैं क्या मोना को हिम्मत देती, खुद ही इस खबर से परेशान थी.

किसी तरह हम ने दिन गुजारा. ड्यूटी खत्म कर जीशान के घर सचाई जानने के लिए निकलने ही वाली थी कि एकाएक शोर उठा कि ‘जीशान आ गए, जीशान आ गए’.

मैं ने पलट कर देखा जीशान मेरे सामने थे. मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी. ढेरों सवालों के बीच एक ही तो सवाल था, क्या आप ने शादी की?

जीशान मेरे साथ वाली कुरसी पर बैठते हुए बोले, “हां.”

“आप किसी और से शादी कैसे कर सकते हो…”

“मजबूरी थी, करनी पड़ी.”

‘”ऐसी क्या मजबूरी थी कि एकाएक एक ही दिन में आप को शादी करनी पड़ी, वह भी किसी और से? ऐसा कभी होता है कि प्यार किसी से करो और शादी किसी और से? आखिर आप समझते क्या हैं अपनेआप को कि मर्द जो चाहे वह कर सकता है. कोई शादी कर के धोखा देगा और कोई प्यार कर के?

“लड़की क्या पत्थर की बेजान बुत है जिस के साथ जैसा चाहे सुलूक कर लें. कितना प्यार करती है मोना आप से और आप भी तो प्यार करते थे न मोना से. वह प्यार था कि दिखावा था? बोलिए. लानत है ऐसे धोखेबाजों पर…”

गुस्से में न जाने और क्याक्या बोलती चली गई मैं. जीशान सिर झुकाए चुपचाप बैठे थे. आंसुओं की धार से उन की शर्ट भीगती जा रही थी, लेकिन मेरा बड़बड़ाना बंद नहीं हुआ.

मोना, जो मेरी बगल वाली सीट पर बैठी थी, उस ने मेरे कंधे को जोर से दबाते हुए इशारा किया कि मैं अब और ज्यादा न बोलूं.

मैं चुप हो गई. सारा स्टाफरूम सन्नाटे में था. ऐसा सन्नाटा मानो हम सब को निगल रहा हो. अब और बरदाश्त के बाहर था चुप रहना.

चुप्पी तोड़ते हुए मैं ने ही कहा, “बोलिए जीशान भाई, कुछ तो बोलिए. आप की यह खामोशी हमारी जान ले लेगी.”

जीशान धीरेधीरे कहने लगे. उन्हें एकएक लफ्ज कहने में मानो बड़ी मशक्कत करनी पड़ रही थी, “कल हम एक शादी में गए थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि ऐन निकाह से पहले दूल्हे के पास एक लड़की आई. कुछ डरीसहमी सी. कहने लगी कि दुलहन आप से कुछ कहना चाहती है.

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“शोरशराबा एकाएक थम गया. सैकड़ों की भीड़ में भी ऐसी खामोशी कि सूई भी गिरे तो आवाज सब को सुनाई दे.

“दूल्हे के अब्बा ने कहा, ‘ऐसी क्या बात है कि निकाह से पहले दुलहन कुछ कहना चाहती है?’

“दुलहन के अब्बा दौड़ते हुए अंदर गए. खलबली मच गई. हर एक की जबान पर एक ही बात अटक गई कि क्या बात हो सकती है.

“ऊहापोह की हालत में वहां हाजिर कुछ समझदार लोगों ने कहा कि चल कर सुन लेना चाहिए कि क्या कहना चाहती है लड़की.

“लड़की के कमरे तक जा कर समझदारों की टोली रुक गई. लड़के को अंदर भेजा गया.

“दुलहन घूंघट को जरा सरका कर सिर नीचे किए कहने लगी, ‘निकाह से पहले मैं एक सचाई आप को बताना चाह रही हूं. मैं आप को धोखे में रख कर शादी नहीं कर सकती. मैं कभी मां नहीं बन सकती. टीनएज में ही किसी बीमारी की वजह से मेरा यूट्रेस निकाल दिया गया है. बस, यही कहना था.’

“लड़के के पिता ने दहाड़ लगाई, ‘इतना बड़ा धोखा. एक बंजर लड़की से मेरे बेटे का रिश्ता होने जा रहा था…’

“दुलहन के पिता और कुछ सुन पाते, इस से पहले ही गश खा कर गिर पड़े.
मैं ने कहा, ‘मां ही तो नहीं बन सकती. बीवी, बहू जैसे सारे रिश्ते तो निभा सकती है. मुहब्बत कर सकती है. सब से बड़ी बात कि इस ने धोखा नहीं दिया, निकाह से पहले ही सचाई बता दी. यह इस का ईमान है.’

“यह सुन कर दूल्हे के अब्बा चिल्लाए, ‘इस के ईमान का क्या हम अचार डालें…’

“मैं ने कहा, ‘इस तरह अधूरी शादी से बैरंग लौटेंगे तो आप लोगों की भी फजीहत होगी.’

“इतना सुन कर लड़के की मां चीखीं, ‘सैकड़ों लड़कियां मिल जाएंगी मेरे बेटे के लिए.’

“मैं भी अड़ा रहा, ‘क्या गारंटी है कि जो आप की बहू बनेगी, वह मां बनेगी ही?’

“इस के बाद लड़के की मां ने हद करते हुए कहा, ‘अरे, मां नहीं बनी तो हम उसे भी छोड़ देंगे. दुनिया में लड़कियों का अकाल है क्या?’

“मैं ने उन्हें प्यार से समझना चाहा, ‘दुनिया में बहुत सी औरतें मां नहीं बन पाती हैं. इस का मतलब क्या यह है कि उन्हें जीने का हक नहीं?’

“इस पर दूल्हे के पिता ने सवाल दागा, ‘तुम कौन हो जी? क्या तुम कर सकते हो ऐसी बंजर लड़की से शादी? बोलो, जवाब दो?’

“मैं कुछ कह पाता इस से पहले मेरे अब्बा ने साम ने आ कर ऊंची आवाज में कहा, ‘हां, मेरा बेटा करेगा इस ईमानदार लड़की से निकाह.'”

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इतना कह कर जीशान ने अपना झुका हुआ सिर उठा कर मेरी नजरों में नजरें डाल कर कहा, “बस इतना ही हुआ. न मुझे वहां सचाई बताने का मौका मिला और न ही अब खुद को बेगुनाह साबित करना चाहता हूं. मैं मोना का कुसूरवार हूं. आप सब मुझे जो सजा देना चाहें, मैं सिर झुकाता हूं.”

बाकियों का तो मुझे नहीं मालूम लेकिन मैं एकटक जीशान को देखती रही, देखती रही. मेरा दिल समंदर की तरह उछाल मारने लगा. दिल में आया कि जीशान जैसे फरिश्ते को अपने गले से लगा लूं…

इसी बीच मोना खड़ी हो गई और अपनी आदत के मुताबिक जोरजोर से ताली बजा कर कहने लगी, “अरे, सारे मुंह लटकाए क्यों बैठे हैं… हमारे जीशान सर की शादी हुई है भई, पार्टी तो बनती है. इन की पार्टी मेरी तरफ से. मैं तो शादी का लड्डू खा चुकी हूं, दूसरों को भी तो मौका मिलना चाहिए.”

वजूद से परिचय: भैरवी के बदले रूप से क्यों हैरान था ऋषभ?

‘‘मम्मी… मम्मी, भूमि ने मेरी गुडि़या तोड़ दी,’’ मुझे नींद आ गई थी. भैरवी की आवाज से मेरी नींद टूटी तो मैं दौड़ती हुई बच्चों के कमरे में पहुंची. भैरवी जोरजोर से रो रही थी. टूटी हुई गुडि़या एक तरफ पड़ी थी.

मैं भैरवी को गोद में उठा कर चुप कराने लगी तो मुझे देखते ही भूमि चीखने लगी, ‘‘हां, यह बहुत अच्छी है, खूब प्यार कीजिए इस से. मैं ही खराब हूं… मैं ही लड़ाई करती हूं… मैं अब इस के सारे खिलौने तोड़ दूंगी.’’

भूमि और भैरवी मेरी जुड़वां बेटियां हैं. यह इन की रोज की कहानी है. वैसे दोनों में प्यार भी बहुत है. दोनों एकदूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं.

मेरे पति ऋषभ आदर्श बेटे हैं. उन की मां ही उन की सब कुछ हैं. पति और पिता तो वे बाद में हैं. वैसे ऋषभ मुझे और बेटियों को बहुत प्यार करते हैं, परंतु तभी तक जब तक उन की मां प्रसन्न रहें. यदि उन के चेहरे पर एक पल को भी उदासी छा जाए तो ऋषभ क्रोधित हो उठते, तब मेरी और मेरी बेटियों की आफत हो जाती.

शादी के कुछ दिन बाद की बात है. मांजी कहीं गई हुई थीं. ऋषभ औफिस गए थे. घर में मैं अकेली थी. मांजी और ऋषभ को सरप्राइज देने के लिए मैं ने कई तरह का खाना बनाया.

परंतु यह क्या. मांजी ऋषभ के साथ घर पहुंच कर सीधे रसोई में जा घुसीं और फिर

जोर से चिल्लाईं, ‘‘ये सब बनाने को किस ने कहा था?’’

मैं खुशीखुशी बोली, ‘‘मैं ने अपने मन से बनाया है.’’

वे बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में चली गईं और दरवाजा बंद कर लिया. ऋषभ भी चुपचाप ड्राइंगरूम में सोफे पर लेट गए. मेरी खुशी काफूर हो चुकी थी.

ऋषभ क्रोधित स्वर में बोले, ‘‘तुम ने अपने मन से खाना क्यों बनाया?’’

मैं गुस्से में बोली, ‘‘क्यों, क्या यह मेरा घर नहीं है? क्या मैं अपनी इच्छा से खाना भी नहीं बना सकती?’’

मेरी बात सुन कर ऋषभ जोर से चिल्लाए, ‘‘नहीं, यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो मां की इच्छानुसार चलना होगा. यहां तुम्हारी मरजी नहीं चलेगी. तुम्हें मां से माफी मांगनी होगी.’’

मैं रो पड़ी. मैं गुस्से से उबल रही थी कि सब छोड़छाड़ अपनी मां के पास चली जाऊं. लेकिन मम्मीपापा का उदास चेहरा आंखों के सामने आते ही मैं मां के पास जा कर बोली, ‘‘मांजी, माफ कर दीजिए. आगे से कुछ भी अपने मन से नहीं करूंगी.’’

मैं ने मांजी के साथ समझौता कर लिया था. सभी कार्यों में उन का ही निर्णय सर्वोपरि रहता. मुझे कभीकभी बहुत गुस्सा आता मगर घर में शांति बनी रहे, इसलिए खून का घूंट पी जाती.

सब सुचारु रूप से चल रहा था कि अचानक हम सब के जीवन में एक तूफान आ गया. एक दिन मैं औफिस में चक्कर खा कर गिर गई और फिर बेहोश हो गई. डाक्टर को बुलाया गया, तो उन्होंने चैकअप कर बताया कि मैं मां बनने वाली हूं.

सभी मुझे बधाई देने लगे, मगर ऋषभ और मैं दोनों परेशान हो गए कि अब क्या किया जाए.

तभी मांजी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं था उसी कमी को पूरा करने के लिए यह अवसर आया है.’’

मां खुशी से नहीं समा रही थीं. वे अपने पोते के स्वागत की तैयारी में जुट गई थीं.

अब मां मुझे नियमित चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जातीं.

चौथे महीने मुझे कुछ परेशानी हुई तो डाक्टर के मुंह से अल्ट्रासाउंड करते समय अचानक निकल गया कि बेटी तो पूरी तरह ठीक है औैर मां को भी कुछ नहीं है.

मांजी ने यह बात सुन ली. फिर क्या था. घर आते ही फरमान जारी कर दिया कि दफ्तर से छुट्टी ले लो और डाक्टर के पास जा कर गर्भपात कर लो. मांजी का पोता पाने का सपना जो टूट गया था.

मैं ने ऋषभ को समझाने का प्रयास किया, परंतु वे गर्भपात के लिए डाक्टर के पास जाने की जिद पकड़ ली. आखिर वे मुझे डाक्टर के पास ले ही गए.

डाक्टर बोलीं, ‘‘आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है. अब मैं गर्भपात की सलाह नहीं दे सकती.’’

अब मांजी का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया. व्यंग्यबाणों से मेरा स्वागत होता. एक दिन बोलीं, ‘‘बेटियों की मां तो एक तरह से बांझ ही होती हैं, क्योंकि बेटे से वंश आगे चलता है.’’

अब घर में हर समय तनाव रहता. मैं भी बेवजह बेटियों को डांट देतीं. ऋषभ मांजी की हां में हां मिलाते. मुझ से ऐसा व्यवहार करते जैसे इस सब के लिए मैं दोषी हूं. वे बातबात पर चीखतेचिल्लाते, जिस से मैं परेशान रहती.

एक दिन मांजी किसी अशिक्षित दाई को ले कर आईं और फिर मुझ से बोलीं, ‘‘तुम औफिस से 2-3 की छुट्टी ले लो… यह बहुत ऐक्सपर्ट है. इस का रोज का यही काम है.

यह बहुत जल्दी तुम्हें इस बेटी से छुटकारा दिला देगी.’’

सुन कर मैं सन्न रह गई. अब मुझे अपने जीवन पर खतरा साफ दिख रहा था. मैं ऋषभ के आने का इंतजार करने लगीं. वे औफिस से आए तो मैं ने उन्हें सारी बात बताई.

ऋषभ एक बार को थोड़े गंभीर तो हुए, लेकिन फिर धीरे से बोले, ‘‘मांजी नाराज हो जाएंगी, इसलिए उन का कहना तो मानना ही पड़ेगा.’’

मुझे कायर ऋषभ से घृणा होने लगी. अपने दब्बूपन पर भी गुस्सा आने लगा कि क्यों मैं मुखर हो कर अपने पक्ष को नहीं रखती. मैं क्रोध से थरथर कांप रही थी. बिस्तर पर लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी.

ऋषभ बोले, ‘‘क्या बात है? बहुत परेशान दिख रही हो? सो जाओ… डरने की जरूरत नहीं है. सबेरे सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं मन ही मन सोचने लगी कि ऋषभ इतने डरपोक क्यों हैं? मांजी का फैसला क्या मेरे जीवन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? मेरा मन मुझे प्रताडि़त कर रहा था. मुझे अपने चारों ओर उस मासूम का करुण क्रंदन सुनाई पड़ रहा था. मेरा दिमाग फटा जा रहा था… मुझे हत्यारी होने का बोध हो रहा था. ‘बहुत हुआ, बस अब नहीं,’ सोच मैं विरोध करने के लिए मचल उठी. मैं चीत्कार कर उठी कि नहीं मेरी बच्ची, अब तुम्हें मुझ से कोई नहीं दूर कर सकता. तुम इस दुनिया में अवश्य आओगी…

मैं ने निडर हो कर निर्णय ले लिया था. यह मेरे वजूद की जीत थी. अपनी जीत पर मैं स्वत: इतरा उठी. मैं निश्चिंत हो गई और प्रसन्न हो कर गहरी नींद में सो गई.

सुबह ऋषभ ने आवाज दी, ‘‘उठो, मांजी आवाज दे रही हैं. कोई दाई आई है… तुम्हें बुला रही हैं.’’

मेरे रात के निर्णय ने मुझे निडर बना दिया था. अत: मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे सोने दीजिए… आज बहुत दिनों के बाद चैन की नींद आई है. मांजी से कह दीजिए कि मुझे किसी दाईवाई से नहीं मिलना.’’

मांजी तब तक खुद मेरे कमरे में आ चुकी थीं. वे और ऋषभ दोनों ही मेरे धृष्टता पर हैरान थे. मेरे स्वर की दृढ़ता देख कर दोनों की बोलती बंद हो गई थी. मैं आंखें बंद कर उन के अगले हमले का इंतजार कर रही थी. लेकिन यह क्या? दोनों खुसुरफुसुर करते हुए कमरे से बाहर जा चुके थे.

भैरवी और भूमि मुझे सोया देख कर मेरे पास आ गई थीं. मैं ने दोनों को अपने से लिपटा कर खूब प्यार किया. दोनों की मासूम हंसी मेरे दिल को छू रही थी. मैं खुश थी. मेरे मन से डर हवा हो चुका था. हम तीनों खुल कर हंस रहे थे.ऋषभ को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि रात भर में इसे क्या हो गया. अब मेरे मन में न तो मांजी का खौफ था न ऋषभ का और न ही घर टूटने की परवाह थी. मैं हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार थी.

यह मेरे स्वत्व की विजय थी, जिस ने मुझे मेरे वजूद से मेरा परिचय कराया था.

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