Funny Story : लव के लिए कुछ भी करेगा

Funny Story : न जाने क्यों लड़कियां हमेशा से मेरी बड़ी कमजोरी रही हैं. ऐसा नहीं है कि मैं ऐश्वर्या राय, माधुरी दीक्षित या करीना कपूर जैसी परियों की बात कर रहा हूं, मेरे दिल की धड़कनें तो बरतन मांजने वाली धन्नो भी तेज कर दिया करती थी. लेकिन मेरी बीवी ने फौरन उसे हटा दिया. बात तब की है, जब मैं जोरू का गुलाम नहीं बना था. मुझे मनचले लड़कों का गुरु ही समझ लीजिए. लड़कियों को अपनी ओर घुमाने में मुझे महारत हासिल थी. चाहे वे खा जाने वाली नजरों से घूरते हुए घूमें या फिर गाली देने के इरादे से, आखिर घूमती तो थीं.

हालात आज भी कुछ वैसे ही चल रहे हैं. लड़कियों को भी यह अच्छी तरह मालूम है कि वे मेरी कमजोरी हैं.

‘‘लड्डू, मेरे दीवाने…’’

‘‘ओह, मधु तुम…’’

मेरी तो बांछें खिल गईं. आज तक किसी लड़की ने मुझे इतने प्यार से नहीं पुकारा था. शादी जरूर हो गई थी, मगर आज तक लव करने की लालसा मन में ही मचल रही थी.

‘‘ओह लड्डू… क्या तुम मेरा एक काम करोगे?’’

‘‘हांहां, तुम्हारे लिए तो मैं सूली पर चढ़ सकता हूं, जान दे सकता हूं, आसमान से तारे तोड़ कर तेरे कदमों में डाल सकता हूं, सारी दुनिया से लड़…’’

‘‘बसबस, मैं समझ गई. तुम बस बातें ही बनाओगे, काम नहीं करोगे,’’ उस ने रूठने का नाटक किया.

‘‘तुम्हारे लिए तो मैं जमीनआसमान एक कर सकता हूं मधु…’’ मैं ने उसी अंदाज में बोला.

‘‘मुझे स्टेशन जाना है. वहां पहुंचाने के लिए कोई भी 20-30 रुपए मांग ही लेगा. करीब 30-40 किलो की पोटली जो है. क्या तुम मेरी मदद करोगे? यहां से स्टेशन केवल 3 किलोमीटर ही तो है.’’

मेरे तो होश ही उड़ गए. 30-40 किलो वजन और 3 किलोमीटर की दूरी.

मैं ने मधु से कहा, ‘‘मैं दुबलापतला आदमी, भला इतनी दूर कैसे इतना वजन ले जा सकता हूं?’’

‘‘तुम मर्द के नाम पर कलंक हो. देखा नहीं था कि ‘गदर…’ फिल्म में कैसे सनी देओल अपनी हीरोइन के लिए पूरे पाकिस्तान से लड़ गया था. जाओ, तुम मेरे प्यार के काबिल नहीं,’’ मधु ने ताना देते हुए कहा.

‘‘मधु, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था. मैं तो वाकई तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकता हूं,’’ मैं ने दीवानगी जताते हुए कहा.

‘‘ऐ मिस्टर…’’ तभी मधु ने टोका, ‘‘ट्रेन छुड़वाने का विचार है क्या? मैं ने औरत होने के नाते कहा, वरना मैं खुद काफी थी.’’

मर्द वाली बात सुनते ही मेरी छाती गर्व से फूल गई और आननफानन पोटली मेरे सिर पर थी.

मेरे बदन से पसीना टपकने लगा था. लग रहा था, जैसे मेरी जान बाहर ही निकलने वाली है और वह अपनी कमर को लचकाती हुई बेरहम की तरह आगेआगे चल रही थी.

‘‘लड्डू, दिक्कत हो रही हो, तो बोल दो. बाद में कुछ न कहना,’’ मधु ने हाथ मटका कर पूछा.

मेरा तो सिर फटा जा रहा था. मन कर रहा था कि पोटली पटक दूं, मगर प्यार के लिए तो कुछ भी करना पड़ता है न. स्टेशन तक कैसे पहुंचा, यह तो मुझे ही पता है.स्टेशन पहुंचते ही मैं लड़खड़ा गया. एक पत्थर से टकरा जाने की वजह से मैं मुंह के बल जा गिरा. पोटली दूर छिटक गई और खनखन कर के कुछ टूटने की आवाज आई.

मधु दहाड़ें मार कर रोने लगी.

‘‘मैं ने कहा था, दिक्कत है तो बोल दो… पर तुम ने कहा कि यह तो मेरे बाएं हाथ का खेल है…’’ कहते हुए मधु का रोना जारी रहा.

तभी किसी ने मेरा कौलर पकड़ कर मुझे धरती से ऊपर उठा लिया. मेरे तो होश ही उड़ गए. वह बड़ीबड़ी मूंछों वाला सिपाही किसी शेर की तरह खा जाने वाली नजरों से मुझे घूरे जा रहा था.

‘‘क्यों बे, कितने का नुकसान किया है मैडम का?’’

‘‘साहब, मैं ने इस से पहले ही पूछ लिया था कि दम है तो चलो, मगर इस ने मेरा 4 सौ रुपए का सामान तोड़ दिया,’’ मधु ने रोतेरोते कहा.

सिपाही गरजा, ‘‘जल्दी से 4 सौ रुपए दो और मैडम से माफी मांगो.’’

भीड़ ने भी हां में हां मिलाई.

मुझे काटो तो खून नहीं. बीवी ने जो पैसे सामान लाने के लिए दिए थे, वे मैं ने हालात को देखते हुए मधु को दे देने में ही भलाई समझी. मधु ने रोतेरोते रुपए अपने हवाले कर लिए और गाड़ी में चढ़ गई. फिर अचानक ही वह धीरे से मुसकराते हुए बोली, ‘‘तू अपना 30 रुपया भाड़ा तो लेता जा. जरा सौ रुपए के छुट्टे भी कर ला.’’

भीड़ खिलखिला कर हंस पड़ी और मैं शर्म से पानीपानी हो गया.

‘‘लाइसैंस है तुम्हारे पास?’’ तभी सिपाही गुर्राया.

मैं चौंका, ‘‘लाइसैंस… किस चीज का लाइसैंस?’’

‘‘स्टेशन पर कुली का काम करने का…’’

‘‘पर, मैं कुली नहीं हूं. मैं ने तो अपनेपन की खातिर मधु का सामान ला दिया था.’’

‘‘कुली न होने का कोई गवाह?’’

‘‘वह मधु से पूछ लीजिए.’’

‘‘मधु के बच्चे. वह अभी तुझे भाड़ा दे रही थी. चल, अभी मैं तेरे होश ठिकाने लगाता हूं,’’ सिपाही भड़क उठा.

गिड़गिड़ाने के अलावा मुझे कोई चारा नजर नहीं आया.

‘‘चल, 5 सौ रुपए दे दे, मैं तुझे छोड़ दूंगा,’’ सिपाही तरस खाते हुए बोला.

‘‘5 सौ रुपए, पर मेरे पास तो एक रुपया भी नहीं बचा.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ उस की नजर मेरी घड़ी पर थी, ‘‘समय नहीं है मेरे पास, पैसे नहीं हैं, तो अपनी घड़ी ला या फिर अंदर जाने की तैयारी कर.’’

‘‘नहीं, यह घड़ी तो ससुराल की है. मैं इसे नहीं दे सकता,’’ मुझे रोना आने लगा.

‘‘तो फिर चल, तुझे ससुराल की ही सैर करा देता हूं.’’

मैं भी अब अजीब मुसीबत में फंस गया था.

‘किस सौतन को अपनी घड़ी और रुपए दे आए?’ बीवी द्वारा पूछे जाने वाला यह सवाल मेरे दिमाग में घूमने लगा.

‘‘क्यों बे, तू ऐसे नहीं मानेगा,’’ सिपाही चिल्लाया.

तभी उस सिपाही ने मुझे किसी चूहे की तरह दबोचा और दूसरे ही पल मेरी घड़ी उस की हो गई. मैं तड़प कर रह गया. घर पहुंचने पर मेरी बीवी ने क्या खातिरदारी की, यह मत पूछिए..

Social Story : मुनमुन ने कैसे दिखाई हिम्मत

Social Story : ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं मां… मुनमुन पति का घर छोड़ कर आ गई है. फौरन उसे वापस भेजो, वरना हमारी बहुत बदनामी होगी,’ पवन की गुस्से में भरी तेज आवाज रामेश्वरी के कानों से टकराई.

‘‘फोन पर क्यों इतना चिल्ला रहा है. थोड़ा शांत हो जा. तुझे कौन सी सचाई का पता है… और देखा जाए, तो तुझे इस बात में कोई दिलचस्पी भी नहीं है. तुझे तो गांव छोड़े बरसों हो गए हैं. तू क्यों बदनामी की चिंता कर रहा है. जब से गया है, तू ने और तेरे बड़े भाई ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

‘‘ठीक भी है, आखिर अब तुम ऊंचे ओहदे पर हो, बड़े आदमी बन गए हो. शहरी चमकदमक तुम्हें इतनी रास आ गई है कि तुम दोनों ने मांबाप और गांव को ही भुला दिया है,’’ रामेश्वरी की आवाज में कड़वाहट थी.

‘मां, हम शहर में रह रहे हैं तो क्या… मुनमुन की शादी करने में तो हम ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी…’ पवन फिर भड़का, ‘इतनी सी बात पर कोई घर छोड़ कर आता है भला. थोड़ा सहना भी चाहिए. पति का हाथ तो उठ ही जाता है. इस में कौन सी नई बात है. इतना हक तो होता ही है पति का. मारपीट, लड़ाईझगड़ा किस पतिपत्नी में नहीं होता. लेकिन वह तो घर ही छोड़ कर आ गई.

‘क्या पता, अब मुनमुन कौन सा गुल खिलाएगी. सच तो यह है कि ऐसी बहन को चौराहे पर खड़ा कर के गोली मार देनी चाहिए. नाक कटवा दी उस ने हम सब की,’ पवन के शब्दों से कड़वाहट टपक रही थी.

‘‘वाह, मेरे काबिल बेटे. पढ़लिख कर भी तू ऐसी सोच रखता है. तुम दोनों भाइयों को न पढ़ा कर मैं ने मुनमुन की पढ़ाई पर ध्यान दिया होता, तो कम से कम आज वह अपने पैरों पर तो खड़ी हो जाती.

‘‘और बेटा, तू सही कह रहा है कि शादी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी तुम दोनों भाइयों ने. मैं ने और तेरे बाबूजी ने कितना कहा था कि लड़के के बारे में पहले ठीक से जांच कर लो, पर तुम दोनों भाइयों को तो जल्दी थी उस की शादी करने की, ताकि जल्दी से शहर लौट सको.

‘‘तुम ने न घरपरिवार के बारे में पड़ताल की, न लड़के के बारे में. गाय की तरह मुनमुन को उस से बांध दिया और एहसान भी जताया कि देखो बहन की शादी कितनी धूमधाम से कर दी, कितने जिम्मेदार बेटे हैं हम तो…’’ लगातार बोलने से रामेश्वरी की सांस फूलने लगी थी.

‘‘मां, रहने भी दो अब. तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी,’’ मुनमुन ने मां के हाथों से फोन लेने की कोशिश की.

‘‘बोलने दे मुझे आज…’’ रामेश्वरी ने फोन को कस कर पकड़े रखा, ‘‘सुन पवन, मैं नहीं भेजूंगी मुनमुन को वापस उस नरक में. शराबी पति की मार कब तक खाएगी वह. वह हमारे ऊपर बोझ नहीं है, जो रोटी की जगह मार और प्यार की जगह दुत्कार सहती रहे.

‘‘शर्म आनी चाहिए तुम्हें. बहन का साथ देने के बजाय तुम्हें बदनामी का डर सता रहा है. अपने ही जब कीचड़ उछालने से नहीं चूकते, तो समाज को उंगलियां उठाने से कैसे रोक सकते हैं,’’ रोते हुए रामेश्वरी ने खुद ही फोन काट दिया था.

‘‘मां, तुम किसकिस का मुंह बंद करोगी… यह लखीमपुर खीरी जिले का एक छोटा सा गांव है. घरघर में मेरे मायके आ जाने की बात फैल गई है. बाबूजी तो 2 दिनों से खेत पर भी नहीं गए हैं.

‘‘अच्छा यही होगा कि मैं ससुराल चली जाऊं. जो मेरी किस्मत में लिखा है, उसे सह लूंगी,’’ मुनमुन से मां की पीड़ा देखी नहीं जा रही थी.

‘‘तू क्या समझती है, मैं नहीं जानती कि तेरे साथ वहां और क्याक्या होता होगा. मां हूं तेरी. पति की मार से तू ससुराल छोड़ कर आने वाली नहीं है. सच बता, बात क्या है?’’ रामेश्वरी की अनुभवी आंखें मानो भांप गई थीं कि बात कुछ और ही है.

‘‘मां…’’ मुनमुन सुबकते हुए बोली, ‘‘शादी को डेढ़ बरस हो गया है और मैं उन्हें बच्चा न दे सकी. मुझे बांझ कह कर वे डाक्टर के पास ले गए, पर जांच में सब ठीक आया. मैं ने पति से बोला कि तुम अपनी जांच करा लो, तो वह भड़क गया.

‘‘एक दिन सास और पति दूसरे गांव में गए हुए थे किसी के ब्याह में. रात को ससुर ने मेरे साथ जबरदस्ती करनी चाही. वह बोला, ‘मेरा बेटा तुझे बच्चा नहीं दे सकता तो क्या, मैं तो हूं.’

‘‘पति को बताया, तो सास और पति दोनों ही मुझे कोसने लगे कि मैं बदचलन हूं और ससुर पर झूठा इलजाम लगा रही हूं.

‘‘ससुर हाथ जोड़े ऐसे बैठा था, जैसे उस का कुसूर न हो. उस के बाद तो ससुर की हिम्मत बढ़ गई और वह जबतब मेरा हाथ पकड़ने लगा. सास ने कई बार देखा भी, पर चुप रही.

‘‘बता मां, मैं कैसे रहती वहां? जहां हर समय यही डर लगा रहता था कि न जाने कब ससुर मेरे ऊपर झपट्टा मार लेगा.’’

रामेश्वरी कुछ कहती कि तभी बिसेसर वहां आ गए.

‘‘समझ नहीं आता कि क्या करें मेरी बच्ची. तुझे घर में रखते हैं, तो गांव वाले ताने देते रहेंगे और ससुराल भेजते हैं, तो तुझे घुटघुट कर जीना होगा. वैसे भी हमारे गांव की आबोहवा लड़कियों के लिए ठीक नहीं है,’’ बिसेसर की आवाज में छिपा बाप का दर्द मुनमुन को दर्द दे गया.

‘‘बाबूजी, आप बिलकुल भी परेशान मत हों. मैं लौट जाऊंगी. सच तो यह है कि औरत चाहे जिस कोने में चली जाए, उस के लिए सारे समाज की हवा ही ठीक नहीं है. कहां महफूज है वह?’’

‘‘क्या कहूं मेरी बच्ची. देखो, आज हमारे बेटे ही हमें दोष दे रहे हैं. हमारा कुसूर यह है कि दिनरात शराब पी कर पत्नी को पीटने वाले पति के घर बेटी को झोंटा पकड़ कर क्यों नहीं ठेल देते,’’ बिसेसर सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया.

‘‘तेरे दोनों भाइयों को पढ़ाने की खातिर तेरी पढ़ाई बीच में ही छुड़ानी पड़ी और देखो, वही तेरे लायक भाई तेरे दुश्मन बन बैठे हैं,’’ रामेश्वरी के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘मां, तुम जरा भी चिंता मत करो. मैं तुम पर बोझ नहीं बनूंगी. मैं कुछ न कुछ काम जरूर ढूंढ़ लूंगी,’’ मुनमुन ने कहा.

मुनमुन ने ठान लिया था कि वह बेबसी और लाचारी का दामन नहीं थामेगी, वह जीएगी और अपने मांबाबू का सहारा भी बनेगी. सफर आसान न था, क्योंकि उस के पास कोई ऐसी डिगरी नहीं थी, जिस के बल पर नौकरी कर लेती और न ही उस के पास पैसा था, जो कोई कारोबार शुरू कर पाती.

मुनमुन गांव में काम ढूंढ़ने निकलती, तो मर्दों की गंदी नजरें और फिकरे उस का पीछा करते, ‘अरे, पति को छोड़ आई, तो किसी के साथ तो बिस्तर पर सोएगी. तो हम ही क्या बुरे हैं…’

कोई कहता, ‘‘इस में ही दोष होगा, तभी तो पति मारता था. हमारी औरतें भी तो मार खाती हैं, तो क्या वे घर छोड़ कर चली गईं. आदमी अपनी जोरू को न मारे, ऐसा कभी हुआ है…’’

मुनमुन खून का घूंट पी कर रह जाती. बिना किसी कुसूर के उसे सजा मिल रही थी. लड़की हो कर कोई काम मिलना और वह भी एक पति का घर छोड़ कर आई लड़की के लिए… कोई आसान बात न थी.

तभी मुनमुन को एक सामाजिक संस्था ‘श्रमिक भारती’ के बारे में पता चला, जो केंद्र सरकार की टेरी योजना के तहत गांवों में सोलर लाइट का कार्यक्रम चलाती थी. वह उस से जुड़ गई. तब भी समाज उस पर हंसा कि देखो, एक लड़की हो कर कैसा काम कर रही है. पर मुनमुन ने किसी की परवाह नहीं की.

मां ने जब मुनमुन के इस फैसले पर सवालिया नजरों से उसे देखा, तो वह बोली, ‘‘मां, किस ने कहा कि यह काम केवल मर्द ही कर सकते हैं. अब औरतें भी किसी काम में मर्दों से कम नहीं हैं. फिर मां, कभी न कभी तो किसी को इस सोच को तोड़ना होगा. औरत क्या सिर्फ पिटने के लिए ही होती है?’’

ससुराल वालों ने जब यह सुना, तो वे बहुत बिगड़े और फौरन उसे वापस ले जाने के लिए पति आ पहुंचा.

वह बोला, ‘‘बहुत पर निकल आए हैं तेरे मायके आ कर. चल वापस, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा,’’

वह उस पर हाथ उठाने ही वाला था कि रामेश्वरी ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘खबरदार, जो मेरी बेटी को मारने की कोशिश की, तो सीधे थाने पहुंचा दूंगी.’’

मांबेटी का यह भयानक रूप देख पति वहां से भाग गया.

धीरेधीरे मुनमुन ने सोलर लाइट से जुड़ा हर काम सीख लिया और उसे यह काम करने की धुन सवार हो गई.

बस, इसी धुन में उस ने सोलर लाइट का कार्यक्रम शुरू कर दिया. वह गांवगांव जा कर सोलर लाइट, सोलर चूल्हे, सोलर पंखे लगाने लगी. उस की लगन और मेहनत देख कर गांव वालों के ताने तो बंद हो ही गए, साथ ही उस की जैसी सताई हुई और भी लड़कियां उस के साथ जुड़ गईं.

गांव की औरतों में अपने हक के लिए लड़ने की जैसे एक क्रांति सी आ गई. गांव के लोग जो उसे बुरी नजरों से देखते थे, उन्होंने उसे ‘सोलर दीदी’ के नाम से बुलाना शुरू कर दिया. गांव में सोलर लाइट खराब हो, पंखा खराब हो या कुछ और, बस लोग ‘सोलर दीदी’ को फोन मिलाते और वह पूरे जोश से अपने बैग में औजार रख अपनी स्कूटी पर दौड़ी चली जाती.

‘‘मैं बहुत खुश हूं मुनमुन कि तू अपने पैरों पर खड़ी हो गई है, लेकिन बेटी, अकेले जिंदगी काटना आसान नहीं है. तू कहे तो मैं कहीं और तेरे लिए रिश्ते की बात चलाऊं. तेरा तलाक हुए भी 3 साल हो गए हैं,’’ मां की आंखों में अपने लिए गर्व देख मुनमुन की आंखें भर आईं.

‘‘मां, तुम ने और बाबूजी ने मेरा साथ दे कर ही मुझे इस मुकाम पर पहुंचाया है. अगर तुम दोनों ही मुझे घर से निकाल देते, तो मैं कुछ भी नहीं कर पाती. बस, किसी दिन कहीं कुएं या तालाब में मरी मिलती.

‘‘और मां, एक बार शादी कर के देख तो लिया. अभी भी हमारे समाज में औरत या तो बिस्तर पर ले जाने के लिए होती है या फिर बच्चा पैदा करने के लिए. मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए.

‘‘अब तो मैं बस तुम दोनों की सेवा करूंगी और अपनी शर्तों पर जिंदगी जीऊंगी. अभी तो मुझे काफी काम करना है. अपनी जैसी कितनी मुनमुन को राह दिखानी है,’’ मुनमुन के चेहरे पर आत्मविश्वास की जलती लौ को देख रामेश्वरी ने उसे सीने से लगा लिया.

बिसेसर पीछे खड़े उसे मन ही मन कामयाब होने का आशीर्वाद दे रहे थे.

Special Story : दादी की अनमोल नसीहत

Special Story : बचपन में मेरी दादी मुझे कहानियां सुनाया करती थीं. वे कहती थीं, ‘वक्त पड़ने पर अगर गधे को भी बाप कहना पड़े तो कोई बात नहीं.’ जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ, तो दादी की नसीहत मुझे बकवास लगने लगी. लेकिन बाद में जबजब सरकारी बाबुओं, पुलिस वालों, छुटभैए नेताओं से अपना काम निकलवाने के लिए मुझे उन्हें ‘बाप’ कहना पड़ा, तो दादी की नसीहतों का मतलब समझ आने लगा.

दादी कहती थीं, ‘वफादारी कुत्ते से सीखो, चालाकी लोमड़ी से. याद करना तोते से, मेहनत करना चींटी से और लक्ष्य पर झपटना बाज से…’

यानी हर अच्छे काम के लिए दादी पशुपक्षियों की ही मिसाल दिया करती थीं. उन्होंने कभी आदमी की मिसाल नहीं दी. कभी यह नहीं कहा कि ईमानदारी खान साहब से सीखो, फर्ज की अहमियत तिवारीजी से, वक्त की पाबंदी वर्माजी से और सच बोलना यादवजी से.

दादी ने एक बार मुझे बताया था कि सभी प्राणियों में आदमी को सब से अच्छा कहा गया है. मैं ने जब उन से पूछा कि आदमी को किस ने और क्यों अच्छा कहा, तो वे इस बात का कोई जवाब नहीं दे सकीं.

दादी द्वारा दी गई इस जानकारी के लिए उन का पशुपक्षियों की मिसाल देना मुझे खटकने लगा था. मैं चक्कर में पड़ गया कि अगर आदमी सब प्राणियों में बेहतर है, तो उसे नसीहत करने के लिए पशुपक्षियों की मिसाल क्यों दी जा रही है?

मासूम बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाना, दूसरों का माल हड़पना, दूसरों को नुकसान पहुंचाने की ताक में रहना, जो है, उस में संतोष करने के बजाय और ज्यादा की लालसा करना जैसे (अव) गुण पशु वर्ग की खूबी हो सकते हैं, तथाकथित सर्वश्रेष्ठ प्राणी के बिलकुल नहीं. लेकिन कानूनों और संविधानों के बावजूद हमारी पशुता बरकरार है.

कुदरत ने इनसान यानी आदमी को एक बना कर भेजा है, लेकिन मामला अब सिर्फ आदमी का नहीं, आदमी बनाम आदमी का हो गया है. एक वह, जो गुंडों द्वारा बहन को तंग किए जाने की शिकायत करने थाने जाते हुए भी डरता है और एक वह, जो थाने आने वाले हर आदमी को मोटा बकरा समझता है.

एक वह, जिसे तपती धूप में चौराहे पर सिर्फ इसलिए खड़ा कर दिया गया है, क्योंकि चौक से मंत्री के काफिले को गुजरना है. और एक वह, जो इस रुतबे को हासिल करने के लिए एक वोट की खातिर कभी आप के दरवाजे पर भिखारी की तरह हाथ जोड़े खड़ा था.

एक वह, जो लेदे कर धरती का भगवान बना बैठा है और एक वह, जो खाली जेब में एंडोस्कोपी, ईसीजी, यूरिन, ब्लड और स्टूल टैस्ट की रिपोर्ट धरे घर लौटते हुए इस उधेड़बुन में खोया रहता है कि साधारण बुखार की यह कौन सी पैथी है?

Short Story : इस की टोपी उस के सिर

Short Story : अपनी सासूजी और पत्नीजी के साथ सुबह का नाश्ता कर रहे थे. सासूजी अर्थशास्त्री चाणक्य की चर्चा कर रही थीं कि हमारे एक मित्र मनोजजी मुंह लटकाए आते दिखलाई दिए. सासूजी ने उस का पिचका, उतरा चेहरा देखा तो आश्चर्य हुआ क्योंकि हमेशा हंसनेबोलने वाला मनोज का चेहरा ऐसा कैसे हो रहा था. पत्नीजी ने उस से नाश्ता करने को कहा तो उस ने थोड़ी नानुकुर करने के बाद सपाटे से फकाफक खाना शुरू कर दिया. लगा, मानो महीनेभर से वह भूखा हो. खा लेने के बाद उस के चेहरे पर थोड़ी राहत दिखाई दी. उस ने मुंह पोंछते हुए कहा, ‘‘इन दिनों बहुत मंदी का दौर चल रहा है.’’

‘‘किस का?’’ पत्नीजी ने प्रश्न किया.

‘‘देश का भी और मेरा भी,’’ उस ने कहा.

सासूजी ने एक कटीली, जहरीली मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘जब तक मूर्ख जिंदा है, बुद्धिमान भूखे नहीं मर सकते.’’

‘‘क्या मतलब मम्मीजी?’’ मनोज ने आश्चर्य से प्रश्न किया.

‘‘मैं कह रही थी अगर आप के पास बुद्धि है तो केवल आप ही क्या, आप का पूरा परिवार भी भूखा नहीं मर सकता है,’’ सासूजी ने रहस्यमय ढंग से अपनी बात कही.

‘‘वह कैसे मम्मीजी?’’

‘‘अरे बेटा, इस देश में आप फटे कपड़े पहने हो और तिलक लगा लो तो भूखे नहीं मर सकते. यहां पत्थर को एक रुपए का सिंदूर पोत कर भगवान बनाया जा सकता है. ऐसे में दक्षिणा से पूरा परिवार बिना काम के पेट भर सकता है और तुम कह रहे हो कि मंदी का दौर चल रहा है?’’

‘‘आप ने कहा तो बिलकुल सच है लेकिन मैं इस मंदी से कैसे उबरूं?’’ मनोज का दीनहीन स्वर गूंजा.

पत्नीजी ने भी मोरचा संभाला, कहा, ‘‘देवरजी, मम्मी सच कह रही हैं. आप फुटपाथ पर तोता ले कर या हाथ से लिखा साइनबोर्ड लगा कर हस्तरेखा देखने का काम करने लगो तो मूर्खों की भीड़ लग जाएगी, क्योंकि सब से अधिक समाज में गरीब लोग ही मूर्ख बनते हैं.’’

‘‘तो क्या हाथ देखने लग जाऊं?’’

‘‘देवरजी, मैं बिलकुल नहीं कह रही हूं कि आप यह करें, लेकिन मंदी से उबरने का एक उपाय यह भी है. 10 बातें बताएंगे तो 3 तो सच निकलेंगी ही. यह जनता, जो सच निकला उस की अफवाह अधिक फैलाती है. और बस, आप फेमस हो जाएंगे,’’ पत्नीजी ने अपने ज्ञान का बखान किया तो मनोज बहुत खुश हो गया. हम ने रायता फैलाते हुए कहा, ‘‘दोस्त मनोज, कभी एक भी बात सच नहीं निकली तो बहुत जूते पड़ेंगे.’’

मनोज ने सुना, तो घबरा गया. पत्नीजी कहां हार मानने वाली थीं, उन्होंने तर्क दिया, ‘‘क्या आप जानते हैं कि हम एक रात में 3 से 5 हजार सपने देखते हैं, यानी एक माह में 9 लाख सपने. लेकिन कोई एक गलती से सच हो जाता है तो हम उसे ही आधार बना कर कहते हैं कि सपने सच होते हैं जबकि प्रतिशत निकाला जाए तो वह .0001 प्रतिशत सच भी नहीं होता और हम इस कम प्रतिशत का ही बखान करते रहते हैं. ठीक उसी तरह हम लोग, जो एक भविष्यवाणी सच होगी, उस का गुणगान करते रहेंगे.’’

‘‘अरे, हमें तो यह सपनों वाली बात मालूम ही नहीं थी. यदि ऐसा है तो हस्तरेखा देख कर भविष्य बताने वाली बात उत्तम और उचित है,’’ हम ने भी उस का पक्ष लिया.

सासूजी ने कहा, ‘‘मनोज पढ़ालिखा है, वह यदि फुटपाथ पर बैठ कर भविष्यवाणी करेगा तो यह क्या अच्छा लगेगा? हमें कुछ और उपाय सोचना चाहिए. यह कह कर सासूजी चिंतन की मुद्रा में आ गईं. पूरे कमरे में अजीब सी गंभीरता छा गई. थोड़ी देर बाद सासूजी ने कहा, ‘‘मनोज, तुम्हारे पास कितने रुपए हैं व्यापार करने को?’’

‘‘मम्मीजी, नाश्ते को मैं मुहताज हूं, रुपए कहां से लाऊंगा?’’

‘‘ठीक है, हम तुम्हें 1 हजार रुपए व्यापार के लिए कर्ज में देंगे,’’ सासूजी ने कहा तो मैं जोरों से हंस दिया. मैं ने कहा, ‘‘हजार रुपए में जहर नहीं आता, व्यापार कहां से शुरू होगा?’’

‘‘दामादजी, यह सब दिमाग का खेल है.’’

‘‘कैसे?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘देखो मनोज, कुछ पैंफ्लेट छपवाने होंगे, एक बोर्ड लगाना होगा और एक कंपनी का नाम खोजना होगा.’’

‘‘जी,’’ मनोज ने आज्ञाकारी बच्चे की तरह हुंकार भरी.

‘‘तुम 1 रुपए के 10 रुपए एक महीने में दोगे, इस का विज्ञापन करना होगा,’’ सासूजी ने बताया.

‘‘मतलब, मम्मीजी?’’

‘‘तुम 4-5 युवा लड़कों को काम पर रख लो और रसीदें छपवा लो. एक कंपनी का बोर्ड अपने किराए के मकान पर लगा दो और एक टेबल व कुरसी लगा कर कार्यालय खोल लो- मनोज ऐंड कंपनी.’’

‘‘लेकिन किस की कंपनी?’’

‘‘यदि आप 1 रुपए एक माह के लिए देंगे तो हम अगले माह 10 रुपए देंगे और 10 रुपए जमा करेंगे तो 100 रुपए देंगे,’’ सासूजी ने बोलना जारी रखा हुआ था लेकिन मनोज ने बात काट कर कहा, ‘‘और 1 हजार रुपए जमा किया तो पूरे 10 हजार रुपए देंगे.’’

‘‘शटअप, मरना है क्या?’’ नाराजगी से सासूजी ने कहा.

‘‘क्या मतलब, मम्मीजी?’’

‘‘अरे पगले, जो भी हजार रुपए ले कर आए उसे समझाओ कि आप अभी इतना रुपया इन्वैस्ट मत करो, क्योंकि कंपनी नई है, कहीं भाग गई तो? आप 1 रुपया, 10 रुपया ही लगाओ. सामने वाला व्यक्ति आप की ऐसी ईमानदारी की बातें सुन कर खुश हो जाएगा. वह कम ही लगाएगा. बस, हो गया काम.’’ सासूजी ने ताली बजा कर कहा.

‘‘क्या मतलब?’’ हम तीनों की एक जैसी आवाज बाहर निकली.

‘‘अरे बेटी, सिंपल, 1 रुपए और

10 रुपए वाले को 1 महीने बाद जो हम 1 हजार रुपए दे रहे हैं उस में से पेमैंट कर देना. बस, विश्वास जम जाएगा, जो अभी हमारी बिटिया ने कहा कि नौ लाख सपनों में से एक सच होने पर लोग उस का ही विज्ञापन करते हैं, बस, यह 10-20 जमाकर्ता दूरदूर आप का प्रचार करेंगे और अगले माह हजारों ग्राहक आ जाएंगे.’’

‘‘फिर?’’

‘‘अपनी साख 3-4 माह में जमा लो और इस की टोपी, उस के सिर पर रखो और सब का भुगतान करते रहना.’’

‘‘लेकिन अंत में क्या होगा?’’

‘‘अंत में क्या होगा,’’ कुछ देर ठहर कर सासूजी ने कहा, ‘‘3 माह बाद तुम्हारे पास मूर्ख लोग 1 लाख से ले कर 10 लाख रुपए ले कर आएंगे. और 1 करोड़ रुपए होने पर तुम…’’ सासूजी ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘वाह मम्मीजी, यह आइडिया तो बहुत ही बढि़या है,’’ मनोज ने खुश हो कर कहा.

कमरे में अजीब सी खुशी व्याप्त हो गई थी. परिणामस्वरूप मनोज पूरी तैयारी कर चुका था कंपनी खोलने की. सासूजी उठीं, एक हजार रुपए उसे दिए और गंभीर स्वर में कहा, ‘‘बेटा मनोज, इस तरह का लालच गरीबों को दिया जाता है. और वे बेचारे फंस जाते हैं. इस तरह का लालच मंदी के दौर में तुम जैसे ऐसे विज्ञापन देख कर पत्नी के गहने बेच कर रुपया लगा देते हैं और वह कंपनी भाग जाती है.

बेटा, तुम ऐसे पचड़े में मत पड़ना. मैं ने तो तुम्हें साजिश से अवगत कराया है. ये हजार रुपए मैं ने तुम्हें नौकरी खोजने के लिए दिए हैं. दामाद ही मेरा बेटा नहीं है, बल्कि तुम भी मेरे बेटे जैसे हो. कभी भी गलत रास्ते पर मत जाना.’’ यह कह कर सासूजी ने स्नेह से मनोज के सिर पर हाथ फेरा. सासूजी का चेहरा अचानक सास की जगह ममतामयी मां जैसा हो गया था.

Family Story : नैकसा नाई

Family Story

लेखक- ध्रूव कुमार ‘निर्भीक’

नैकसा दुखी मन से अपने गांव लौट रहा था. जुगल के बुरे बरताव ने उसे तोड़ दिया था. वह मन ही मन सोच रहा था कि वह उस के पास क्यों गया?  ऐसी क्या मजबूरी थी उस की? उस ने तो उस के घर की खैरखबर तक नहीं पूछी. मां कैसी हैं? बहन वीरो कैसी है? छोटा काकू कैसा है? कुछ भी तो नहीं पूछा जुगल ने.

उसे पता होता कि जुगल ऐसा बरताव करेगा, तो वह वहां कभी नहीं जाता. वीरो मर जाए तो मर जाए, जुगल का क्या?

नैकसा ने सोचा नहीं था कि जुगल इतना बदल जाएगा. जुगल को कितनी गरीबी में पढ़ाया, तन काटा, पेट काटा और उसे पढ़ायालिखाया, बड़ा किया. सोचा कि बड़ा बेटा है, कुछ बन गया तो घर की काया पलट जाएगी, लेकिन…

भला हो नैकसा की पत्नी नन्ही का, जो साहब से कहसुन कर जुगल को सरकारी मुलाजिम बनवा दिया. भला हो सरकार का कि उस ने रिजर्वेशन का इंतजाम कर दिया है, जिस का फायदा दिलाते हुए साहब ने भी देर नहीं की और पुलिस में सिपाही लगवा दिया.

नन्ही साहब के घर पर रोटी न बनाती, तो साहब से जानपहचान न होती. साहब नन्ही से खुश थे. उन्होंने जुगल को सरकारी नौकरी दिलवा दी थी. अब उसी जुगल को उसे मां कहने में शर्म आती है.

सरकार ने गरीब, दबेकुचले लोगों की जिंदगी के लिए ऊंचनीच, छुआछूत, भेदभाव, गरीबअमीर की खाई पाटने के लिए अनेक सुविधाएं मुहैया कराई हैं, लेकिन छुआछूत, भेदभाव, जातपांत और ऊंचनीच की खाई पटने के बजाय और भी गहरी होती जा रही है. पहले अमीर गरीब से छुआछूत, भेदभाव का बरताव करते थे, आज न जाने कितने जुगल अपने मांबाप, भाईबहन, चाचाताऊ के बीच भेदभाव शुरू कर चुके हैं.

रिजर्वेशन की सीढ़ी पर चढ़ कर सरकारी मुलाजिम बना बेटा अपने बाप को बाप, मां को मां, बहन को बहन, भाई को भाई कहने में शरमाता है. उन के पहनावे से, उन की चालढाल से, उठनेबैठने से, उन के आचारविचार से, भाषाबोली से नफरत करता है.

नैकसा ने सपने में भी नहीं सोचा था कि सरकारी मुलाजिम बनने के बाद बेटा जुगल उसे बाप मानने से इनकार करते हुए घर का नौकर बता देगा.

नैकसा ने तो सोचा था कि जब जुगल सरकारी मुलाजिम बन जाएगा तो घर की गरीबी दूर हो जाएगी और बुढ़ापे में चैन की जिंदगी गुजरेगी, लेकिन उस ने तो वीरो के बारे में भी नहीं पूछा.

वही वीरो जो हर साल भाईदूज और रक्षाबंधन पर भाई जुगल को राखी बांध कर, माथे पर तिलक कर के ही कुछ खातीपीती है. वह उसे ‘दादादादा’ कहती फिरती है. उस के आने का इंतजार करती है. लेकिन जुगल ने उस बेचारी को  झूठे मुंह पूछा तक नहीं कि कैसी है? आज वह गंभीर बीमार है. उसे इलाज की सख्त जरूरत है. वह भी ठीक होना चाहती है, लेकिन क्या वह ठीक हो कर अपनी खुशहाल जिंदगी जी पाएगी?

नैकसा दुखी और भारी मन से घर लौट आया, तो नन्ही ने पूछा, ‘‘कैसा है अपना जुगल… बहुत खुश हुआ होगा वह… बहुत सेवा की होगी उस ने…’’

नैकसा बोला, ‘‘अरी, बहुत बड़ा आदमी बन गया है वह… अब वह जुगल नाई नहीं, ठाकुर जुगल प्रताप सिंह है. अब उसे जुगल नाई मत कहना… अब तो उसे मुझे अपना बाप कहने में भी शर्म आती है.’’

‘‘क्या…?’’ चौंक कर नन्ही बोली.

‘‘मेरी बहुत बेइज्जती की है उस ने…’’ नैकसा ने कहा, ‘‘कहता था, यह हमारा नौकर है. खेत में गेहूं बो दिया है. खादपानी के लिए पैसे लेने आया है…’’

‘‘क्या…? ऐसा बोला वह? इतना बदल गया है जुगल…’’ नन्ही ने चौंक कर कहा, फिर बोली,’’ क्या इसलिए पैदा किया था उस नाशपीटे को?’’

3 भाइयों में सब से छोटा था नैकसा. 3 बच्चे थे और पत्नी नन्ही. जुगल सब से बड़ा बेटा था, वीरो म झली और काकू छोटा. जमीनजायदाद तो थी नहीं, लोगों की हजामत बना कर ही घर का खर्च चलता था.

नैकसा गांव में लोगों के बाल काटता और जब फसल आती तो खेतखेत जा कर गेहूं वगैरह अनाज के पूले इकट्ठा करता, फिर तिमाहीछमाही धड़ी लेता. धड़ी में पक्की तोल का 5 सेर अनाज आता. गांव में एक हजार परिवार थे. हर परिवार से 5 सेर तो एक हजार परिवारों से 5 क्ंिवटल अनाज जमा हो जाता. खाने के लिए तो अनाज मिल जाता, लेकिन दूसरे घरेलू खर्च के लिए पैसा नहीं था. अनाज बेच कर ही वह दूसरे खर्च चलाता था.

नैकसा की पत्नी नन्ही शहर में रहती थी और दूसरों का खाना बना कर घर चलाने में उस का सहयोग करती थी.

नन्ही शहर में एक पुलिस अफसर रमाशंकर तिवारी की कोठी में भी खाना बनाने जाती थी. वह खाना अच्छा बनाती थी, जिस से रमाशंकर खुश थे. एक दिन उस ने रमाशंकर से जुगल की नौकरी लगवाने की गुजारिश की. उन्होंने हां कह दी और मौका मिलते ही उन्होंने जुगल की सिपाही के पद पर भरती करा दी.

पुलिस में नौकरी लगते ही जुगल की शादी भी हो गई. शादी के बाद जुगल शहर में रहने लगा. उस ने अपना नाम जुगल नाई से बदल कर ठाकुर जुगल प्रताप सिंह प्रचारित कर दिया था. अब सब उसे ठाकुर साहब के नाम से बुलाते थे.

जब जुगल गांव आता तो खुद को दारोगा बताता था. नैकसा नाई भी उसे दारोगाजी कह कर और छाती फुला कर बात करता था. अब वह साधारण आदमी नहीं था. उस का बेटा दारोगा जो बन गया था. वह मन ही मन सोचता कि उस का बेटा थाने में दारोगा है. अब वह किसी के दबाव में नहीं आएगा. किसी के सामने अब वह पैसे के लिए नहीं गिड़गिड़ाएगा.

बेटे से सौ मांगेगा, तो वह हजार देगा. फिर क्यों मांगेगा किसी से? मांगने पर उस के बेटे की बेइज्जती होगी. नहीं… नहीं, वह ऐसा कोई काम नहीं करेगा, जिस से उस के बेटे की बेइज्जती हो.

एक दिन बेटी वीरो बीमार हो गई. पहले तो गांव में इलाज कराया, लेकिन जब वह ठीक नहीं हुई तो गांव वालों ने शहर ले जाने की सलाह दी. शहर ले जाने के लिए पैसों का बंदोबस्त नहीं था.

नैकसा गांव में किसी से उधार नहीं लेना चाहता था. उधार मांगेगा तो लोग क्या कहेंगे? बेटा दारोगा है और बाप कर्ज मांगता फिर रहा है, बेटी के इलाज के लिए. बेटे के पास पैसों की कमी नहीं है. हजारपांच सौ तो मिनटों में वह कमा लेता होगा. वह उस के पास जाएगा और 5-10 हजार रुपए ले आएगा.

अगले दिन ही नैकसा उस थाने में पहुंचा, जिस में जुगल तैनात था. एक पुलिस वाले ने उस से पूछा, ‘‘किस से मिलना है?’’

नैकसा ने कहा ‘‘दारोगाजी से…’’

‘‘कौन से दारोगाजी से?’’ पुलिस वाले ने सवाल किया.

नैकसा ने सरल स्वभाव में जवाब दिया, ‘‘जुगल दारोगाजी से…’’

पुलिस वालों ने एकदूसरे को देखा, फिर दूसरा पुलिस वाला बोला, ‘‘यहां तो कोई जुगल दारोगा नहीं है. हां… सिपाही जरूर है.’’

नैकसा बोला, ‘‘हांहां, वही…’’

पहले पुलिस वाले ने हंसी के लहजे में जुगल को बुलाया, ‘‘अरे दारोगाजी, आप को ये बाबा याद कर रहे हैं.’’

जुगल आया और नैकसा को देखते ही आगबबूला हो गया. उस ने नैकसा को अकेले में खूब डांटा, ‘‘यहां क्यों आ गए? करा दी न बेइज्जती. जाओ यहां से. चले आए. तमीज नहीं है जरा भी,’’ कहता हुआ जुगल नैकसा को थाने से बाहर ले जाने लगा, तो एक पुलिस वाले ने पूछा, ‘‘कौन हैं ये? क्यों डांट रहे हो ठाकुर साहब?’’

जुगल ने कहा, ‘‘नौकर है घर का. पैसा लेने आया है. खेत में गेहूं बो दिया है. अब खादपानी को पैसा चाहिए. मैं मनीऔडर भेजने वाला था, पर यह चला आया मुंह उठाए…’’

नैकसा को यह सुन कर बहुत दुख हुआ. वह तुरंत बोला, ‘‘साहब, मैं नाई हूं. कौम का खानदानी हूं.  झूठ नहीं बोलूंगा. जो बात कहूंगा सोलह आने सच कहूंगा. मैं इस का तो नौकर नहीं हूं, इस की मां का नौकर जरूर हूं. मेरी बात का यकीन न हो, तो गांव में चल कर जांच कर लो.’’

नैकसा की बात सुन कर पुलिस वाले हैरान रह गए और जुगल को नफरत से देखने लगे.

थके कदमों और हताश मन से नैकसा गांव की तरफ चल दिया.

देखतेदेखते नैकसा और जुगल की बातें पूरे थाने में फैल गईं. थाने में तैनात हर पुलिस वाले को जुगल की असलियत पता चल गई. अब उस के साथी पुलिस वालों का बरताव पहले जैसा नहीं रहा था. ठाकुर साहब का संबोधन जुगल में बदल गया था. जो पहले उस की इज्जत करते थे, पर अब आगेपीछे उस का मजाक उड़ाते थे.

एक दिन जुगल सोच में डूबा हुआ था. वह साथी पुलिस वालों के बदले बरताव के लिए खुद को कुसूरवार मान रहा था. काश, उस दिन पिताजी के साथ अच्छा बरताव करता, तो आज उस की यह हालत नहीं होती.

अगले दिन जुगल ने दारोगाजी को 15 दिन की छुट्टी की अर्जी दी, तो उन्होंने मंजूर कर ली. जुगल ने सोचा कि वह गांव जाएगा, पिताजी से माफी मांगेगा. छुट्टियों के दौरान अपना तबादला किसी दूसरे थाने में करा लेगा, फिर भविष्य में कभी ऐसी गलती नहीं करेगा.

गांव में वीरो की बीमारी बढ़ती गई. पैसे की कमी के चलते नैकसा वीरो का इलाज नहीं करा सका. उस ने इलाज के लिए किसी से उधार इसलिए नहीं मांगा कि लोग क्या कहेंगे, बेटा थानेदार है और बाप बेटी के इलाज के लिए उधार मांग रहा है.

इलाज की कमी में एक दिन वीरो ने तड़पतड़प कर दम तोड़ दिया.

वीरो की मौत की खबर रुई की तरह गांवभर में फैल गई. लोगों को पैसे की कमी के चलते वीरो की मौत का पता चला तो सभी हमदर्दी जताने लगे.

नैकसा के पास वीरो के अंतिम संस्कार के लिए पैसे का इंतजाम नहीं था. जब गांव के लोगों को पता चला तो घंटेभर में अंतिम संस्कार की तैयारी हो गई. वीरो का शव अर्थी पर कसा जाने लगा. उसी समय सेवाराम बोला, ‘‘दारोगाजी भी आ गए.’’

‘‘कौन दारोगा?’’ नैकसा ने पूछा.

‘‘अरे वही अपने जुगल…’’ सेवाराम ने बताया.

अर्थी पर वीरो के शव को कस रहे नैकसा ने शव कसना रोक दिया. जुगल वीरो के शव को देख कर हैरान रह गया. मां का रोरो कर बुरा हाल था.

अगले पल लोगों ने वीरो की अर्थी उठाने की तैयारी की तो एक ओर जुगल दूसरी ओर नैकसा ने कंधा दिया.

वीरो का अंतिम संस्कार कर के लोग लौट आए. इस बीच जुगल को वीरो की बीमारी, घर की माली हालत और नैकसा की मजबूरी का पता चला तो वह धम्म से जमीन पर गिर कर बेहोश हो गया.

जुगल के बेहोश होते ही लोगों में खलबली मच गई. बाद में किसी तरह जुगल होश में आया, तो लोगों को राहत महसूस हुई.

नैकसा को पता चला, तो लोगों की भीड़ को चीरते हुए आगे आ कर बोला, ‘‘बेटा, मु झे पता है. जिस दिन से मैं तेरे पास आया हूं, उसी दिन से तू परेशान है, लेकिन एक दिन सचाई सामने आ ही जाती है. बनावटी बातों से खून के रिश्ते नहीं मिटाए जा सकते.

‘‘जो हुआ सो हुआ बेटा. अफसोस मत कर बेटा. तू मु झे पिता माने न माने, लेकिन तू मेरा बेटा है और हमेशा रहेगा. मेरा तुझ पर कोई हक नहीं, लेकिन तेरा मुझ पर हक कोई नहीं छीन सकता. तू मेरा बेटा था और रहेगा.’’

नैकसा की बात सुन कर जुगल रोते हुए माफी मांगने लगा. नैकसा आगे बढ़ा और जुगल को सीने से लगा कर बोला, ‘‘पगले, जो हुआ सो हुआ. गलतियां बच्चों से ही होती हैं और बच्चे गलतियां नहीं करेंगे तो क्या बूढ़े करेंगे.’’

लोगों की भीड़ जा चुकी थी. जुगल को ले कर नैकसा भी अपने घर में चला गया.

Social Story : ये ईलूईलू क्या है

Social Story

लेखक- प्रिंस सईद

छेड़छाड़ की बढ़ती घटनाओं से परेशान पुलिस विभाग ने पिछले हफ्ते ‘आपरेशन मजनू पकड़’ नाम से एक खास मुहिम छेड़ी थी. स्कूलकालेज और चौकचौराहों पर सादा वरदी में पुलिस के जवान पूरी मुस्तैदी के साथ ड्यूटी दे रहे थे.

इस मुहिम को कामयाब बनाने के लिए महिला पुलिस वालों की भी मदद ली गई थी. उन के जिम्मे यह काम था कि वे तितली बन इधरउधर मंडराती फिरें, ताकि जैसे ही छेड़छाड़ करने वाले आदतन उन्हें छेड़ें, वे उन्हें धर दबोचें.

मुहिम के तहत जिन महिला पुलिस वालों की मदद ली जा रही थी, उन्हें छिड़ने लायक बनाने के लिए हफ्ते में 2 बार ब्यूटी पार्लर ले जाने का इंतजाम भी पुलिस विभाग के जिम्मे था.

इस की सूचना जैसे ही महिला पुलिस वालों को लगी, वे इस काम के लिए फौरन तैयार हो गईं. उन का उतावलापन देख कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि मां बनने के सुख से ज्यादा मजा शायद छिड़ने के सुख में है.

‘आपरेशन मजनू पकड़’ के दौरान पुलिस वालों की मसरूफियत बढ़ गई थी. हर आधे एक घंटे में किसी मजनू को अपनी गिरफ्त में लिए कोई सिपाही थाने पहुंच रहा था, तो मजनुओं के मातापिता का गिरतेपड़ते थाने पहुंचने और ‘लेदे’ कर अपने लाल को थाने से बाहर निकालने का सिलसिला भी जारी था.

कल की ही बात है. मेरे सामने एक सिपाही मरियल से एक लड़के को पकडे़ थाने पहुंचा और उसे दारोगा के सामने करते हुए बोला, ‘‘देखो साहब, इस ने ईयरफोन लगाया हुआ है.’’

मैं ने देखा, वह हियरिंग एड यानी सुनने की मशीन थी. मैं बोला, ‘‘यह तो हियरिंग एड है.’’

लेकिन दारोगा कहां मेरी मानने वाला था. मु झे  िझड़कते हुए बोला, ‘‘तुम नहीं सम झोगे. यह ईयरफोन ही है. अपने इंडिया में भी आजकल ऐसे ईयरफोन बनने लगे हैं, जो दिखते हियरिंग एड जैसे हैं, लेकिन होते ईयरफोन हैं.’’

इस के जवाब में मैं कुछ कहने ही जा रहा था कि तभी एक दूसरा सिपाही एक और मजनू को लिए हाजिर हुआ. आते ही वह बोला, ‘‘साहब, इसे ईलूईलू और ओएओए एकसाथ हुआ है.’’

‘‘अच्छा…’’ कहते हुए दारोगा उठा और उठते ही उस नौजवान को एक  झापड़ रसीद कर दिया. बाद में पता चला कि वह गूंगा था. उस के मुंह से  ‘आबू… आबू’ निकला, जो शायद सिपाही को ‘ओएओए’ या ‘ईलूईलू’ सुनाई दिया था.

एक सिपाही ने तो हद ही कर दी. उसे कोई और नहीं मिला, तो वह एक बूढे़ को ही पकड़ लाया था. मेरे यह पूछने पर कि इस ने क्या किया है? वह बोला, ‘‘इसे ‘ईलूईलू’ का बाप हो गया है. लोग तो हाथों में मेहंदी लगाते हैं, यह बालों में मेहंदी चुपड़ कर गर्ल्स कालेज के सामने से गुजर रहा था.’’

यह सब चल ही रहा था कि अचानक एक ऐसी घटना घटी, जिस से थाने का पूरा माहौल ही बदल गया था. एक नौजवान एक जवान लड़की को पकड़े थाने में घुसा.

वह गुस्से में बुरी तरह तमतमाया हुआ था. लड़की को दारोगा के सामने करते हुए वह गुस्से में बोला, ‘‘साहब, यह लड़की मेरे साथ जबरदस्ती कर रही थी.’’

‘‘क्या…?’’ दारोगा समेत वहां मौजूद सभी लोग चौंक गए.

‘‘जी हां साहब,’’ वह कहने लगा, ‘‘बाजार में एक पान के ठेले पर मैं रुक गया. पान वाले से मैं कुछ मांग ही रहा था कि अचानक मेरी नजर इस पर पड़ी.

‘‘यह मु झ से थोड़ी दूर खड़ी अजीब सी नजरों से मु झे घूर रही थी. मैं सकपका गया और दूसरी ओर देखने लगा. तभी यह मेरे करीब आई और आसपास मंडराने लगी.

‘‘मैं ने फिर भी इस की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, तो यह मु झे आंख मार कर इशारे करने लगी.

‘‘मैं ने सोचा कि यह ऐसे नहीं मानेगी. इसे तो सबक सिखाना ही पड़ेगा. सो, मैं इसे यहां ले आया.’’

‘‘गुड…’’ दारोगा बोला, ‘‘लेकिन, यह तो बताओ, जब यह खुद छिड़ना चाह रही थी तो तुम ने इसे छेड़ा क्यों नहीं? क्या वजह थी?’’

‘‘मैं कोई ऐसावैसा लड़का नहीं हूं साहब,’’ वह बोला, ‘‘खानदानी हूं. अगर यह जरा ढंग की होती तो कोई बात भी होती.’’

‘‘अच्छा, खैर…’’ दारोगा उस से बोला, ‘‘तुम जाओ. हम इस की खबर लेते हैं,’’ कह कर दारोगा ने उस लड़के को चलता कर दिया. जब वह चला गया, तो दारोगा उस लड़की से बोला, ‘‘मैं ने कहा था न कि मुहिम पर जाने से पहले ब्यूटी पार्लर जरूर जाना, लेकिन तुम नहीं मानी…’’

मैं हैरान हो कर बोला, ‘‘यह ब्यूटी पार्लर का क्या चक्कर है?’’

‘‘ऐ मिस्टर…’’ दारोगा को जब एहसास हुआ कि मैं उस की बातें सुन रहा हूं, तो मु झे घुड़क कर बोला, ‘‘तुम अभी तक यहीं खड़े हो? भागोे यहां से.’’

दारोगा की घुड़की सुन कर मैं ने थाने से निकल जाने में ही भलाई सम झी. क्या पता, दारोगा मु झ पर ही इस लड़की को छेड़ने का इलजाम लगा दे.

थाने से निकल कर मैं सीधा घर पहुंचा. लिखने के लिए मुझे कहीं से कोई मसाला नहीं मिल पाया था, इसलिए खुद पर गुस्सा आ रहा था. बीवी चुन्नू को नहला कर बाहर निकली थी और उस के बाल पोंछ रही थी. मैं वहीं एक कुरसी पर पसर गया.

बीवी और चुन्नू की नजर अब तक मु झ पर नहीं पड़ी थी. मैं आंखें बंद किए सोच में डूबा हुआ था कि तभी चुन्नू के एक वाक्य से मु झे हजार वाट का करंट सा लगा. वह अपनी मां से पूछ रहा था, ‘‘मम्मी, ये ईलूईलू क्या है?’’

उस की मम्मी एक पल चुप रही, फिर बोली, ‘‘बेटा, ये ईलूईलू एक तरह की इल्ली का नाम है. जिस तरह इल्लियां सागसब्जियों को खा कर खराब कर देती हैं, उसी तरह यह बीमारी भी आदमी को खोखला कर देती है.’’

यह सुन कर चुन्नू बोला, ‘‘मम्मी, जब आप को ईलूईलू का मतलब मालूम है और यह इतनी खतरनाक बीमारी है, तो आप पापा को इस के बारे में क्यों नहीं बता देतीं?’’

‘‘तेरे पापा जानते हैं बेटा कि ईलूईलू क्या होता है,’’ बीवी ने यह वाक्य पूरे यकीन से कहा था.

‘‘नहीं मम्मी…’’ चुन्नू कह उठा, ‘‘पापा को नहीं मालूम कि ईलूईलू क्या होता है? अगर उन्हें मालूम होता, तो वे रूबी आंटी से क्यों पूछते कि ये ईलूईलू क्या है?’’

‘‘रूबी आंटी से?’’ बीवी समेत मेरे कान भी खड़े हो गए थे.

‘‘हां, मम्मी. कल पापा जब मु झे ले कर स्कूल जा रहे थे, तो रास्ते में रूबी आंटी मिली थीं. जब वे मु झ से प्यार कर रही थीं, तो पापा उन से पूछ रहे थे कि ये ईलईलू क्या है, ये ईलूईलू…’’

चुन्नू का वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं वहां से गायब हो चुका था.

थोड़े दिनों बाद ही जब ‘आपरेशन मजनू पकड़’ पूरी तरह खत्म हो गया, यहां तक कि उस मुहिम का कोई जिक्र भी अब कहीं सुनाई नहीं दे रहा था, तब एक दिन अचानक अपने शहर की बदली हुई रंगत देख कर मेरे होश गुम हो गए.

मैं दौड़तेभागते सीधा थाने पहुंचा. दारोगा अपनी कुरसी पर आंखें बंद किए पड़ा था. मैं ने उस का हाथ पकड़ा और तकरीबन अपनी ओर खींचते हुए बोला, ‘‘साहब, जल्दी चलिए. आज तो गजब हो गया है.’’

‘‘यह तो बताओ कि आखिर हुआ क्या है?’’ दारोगा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोला, ‘‘इतने हड़बड़ाए हुए क्यों हो?’’

‘‘बात ही कुछ ऐसी है साहब…’’ मैं बोला, ‘‘आज पता नहीं शहर के लड़केलड़कियों को क्या हो गया है? जिसे देखो, वही अपने हाथ में गुलाब लिए एकदूसरे के पीछे भाग रहा है.

‘‘इतना ही नहीं, कुछ लोग जुलूस की शक्ल में  झंडाबैनर लिए जोशीले नारे लगाते हुए घूम रहे हैं. वे नारा लगा रहे थे कि हम अपनी संस्कृति के साथ खिलवाड़ नहीं करने देंगे.

‘‘साहब, मुझे तो ऐसा लगता है कि किसी ने कहीं किसी को जबरदस्त तरीके से छेड़ दिया है. कहीं बलवा न हो जाए…’’

मु झे लग रहा था कि मेरी बातें सुन कर दारोगा हड़बड़ा कर उठेगा, सिपाही से जीप निकालने के लिए कहेगा और मुझे साथ ले कर जाएगा.

लेकिन मेरी उम्मीद के उलट वह अपनी जगह पर शांत बैठा मुसकरा रहा था. उस के चेहरे पर ठीक वैसे ही भाव थे, जैसे आमतौर पर हर उस आदमी के चेहरे पर होते हैं, जो अपने सामने वाले को बेवकूफ सम झता है.

यह देख कर मैं सकपका गया. मेरी हालत देख कर दारोगा बोला, ‘‘बेवकूफ, आज 14 फरवरी है. आज तो किसी पर भी हम छेड़छाड़ का आरोप नहीं लगा सकते. यह सम झ लो कि आज के दिन छेड़छाड़ को अघोषित सरकारी छूट मिली हुई है.’’

‘‘और वह जूलूस… वह नारा कि ‘हम अपनी संस्कृति के साथ खिलवाड़ नहीं होने देंगे’ क्या था?’’ मैं दबी जबान में बोला.

‘‘तुम्हारी तरह के ही बेवकूफ हैं वे लोग भी…’’ दारोगा दोटूक लहजे में बोला, ‘‘जिन्हें अपने मांबाप और घरपरिवार की मानमर्यादा की चिंता नहीं, उन्हें देश की, संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं. इस से भला आज के लोग क्या सबक लेंगे?’’

मैं चुपचाप थाने से बाहर निकल आया… और करता भी क्या?

Short Story : श्रीमान पेट्रोल का सार्वजनिक अभिनंदन

Short Story : मेरे दाम ग्यारह महीने में, बारह बार बढ़ गए. मैं आपके सब्र का कायल हो गया. थोड़ा बहुत आपने गुस्सा दिखाया मगर अंततः मुझे स्वीकार किया. सच, मैं चकित हूं. आपकी सहनशीलता अद्भुत है. आपका प्यार मैं सदैव स्मरण रखूंगा. दुनिया में आप जैसा कोई राष्ट्र नहीं . मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूं मगर मैं भावुक हो रहा हूं. आशा है, मेरे कहे को वृहद रूप में व्याख्या के साथ समझने का कष्ट करेंगे.

आज पेट्रोल का अभिनंदन समारोह था .राष्ट्रपति भवन में श्रीमान पेट्रोल  स॔ज संवर कर मंचस्थ थे.  देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति सहित केंद्रीय कैबिनेट,विपक्ष के नेता इत्यादि मौजूद थे.

श्रीमान पेट्रोल का अभिनंदन समारोह हुआ. अंत में पेट्रोल से उद्गार व्यक्त करने का अनुरोध किया गया. पेट्रोल हल्के पीताभ वस्त्र धारण किये हुए था. चेहरे पर अद्भुत तेजस्विता विद्यमान थी वह माइक पर उपस्थित हुआ और संबोधन शुरू किया .संपूर्ण देश आज उत्साह से परिपूर्ण था. हिंदुस्तान के महानगर से लेकर गांव कस्बे तक जन-जन में उत्साह का संचरण था.

एक ही चर्चा श्रीमान पेट्रोल का राष्ट्रपति भवन में देश की ओर से अभिनंदन है .आज का दिन देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. पेट्रोल जी अभिनंदन के लिए तैयार हो गए ? यही इस देश और सरकार का सौभाग्य है .सभी जानते हैं दुनियाभर में पेट्रोल का जलवा है आज यहां तो कल वहां .ऐसे में हमारी सरकार ने समय मांगा और उन्होंने दे दिया यह बड़े सौभाग्य की बात है.

देश भर के नागरिक जितने मुंह उतनी बात कर रहे थे. मगर सार तत्व यही था – श्रीमान पेट्रोल का अभिनंदन कर के देश के प्रधानमंत्री और सरकार ने बड़ी दूर दृष्टि और संवेदनशीलता का परिचय परिचय दिया है.

श्रीमान पेट्रोल कह रहे थे – यह बहुत बड़ी बात है कि इस देश में हर महीने पेट्रोल के दाम बढ़ते रहे और लोग जरा सी खींझ दिखाकर अपने अपने कामों में लग जाते. मुझे कई बार लगता अब कि गुस्सा फूट पड़ेगा… अब की क्रोध का दावानल उमड़ पड़ेगा और सरकार को बहा ले जाएगा. मगर यह सोचना मेरा भ्रम सिद्ध होता रहा.मैं इसके लिए भारत की जनता का शुक्रगुजार हूं, कितनी सहनशील है इस देश की जनता! कितना भाग्यशाली है इस राष्ट्र का प्रधानमंत्री और कैबिनेट!! अगर कोई दूसरा राष्ट्र  होता, तो पता नहीं क्या हो जाता. मगर वाह! इस देश के लोग… दरअसल इस देश की यही खासियत है, जिससे इस देश की आवाम प्रेम करती है उसके सौ खून माफ भी करती है…

पेट्रोल जी धाराप्रवाह भाषण दे रहे हैं . संपूर्ण देश में टीवी के माध्यम से मिस्टर पेट्रोल के भाषण को देशवासी लाइव देख रहे हैं. हर आदमी टेलीविजन सेट खोल कर बैठा हुआ है. कोई भी भारतीय आज चुकना नहीं चाहता .छोटा, बड़ा, अमीर गरीब, हर आदमी पेट्रोल के श्री मुख से एक-एक बात श्रद्धापूर्वक सुन रहा है या कहें आत्मसात कर रहा है.

राष्ट्रपति के ऐतिहासिक अशोका हाल में अभिनंदन समारोह हुआ. देश की शीर्षस्थ विभूतियां मंचस्थ है । प्रारंभ में देश के राष्ट्रपति महामहिम द्वारा श्रीमान पेट्रोल के स्वागत में दो शब्द कहे- देशवासियों ! आप जानते हैं पेट्रोल जी का समय कितना बेशकीमती है. आप बेहद व्यस्त रहते हैं, मगर जब हमने सार्वजनिक अभिनंदन हेतु समय मांगा आपने उदारता पूर्वक हमारे आग्रह को स्वीकार किया और आज आए. दरअसल में संपूर्ण देशवासियों की और से अभिनंदन करताहूँ.

पेट्रोल का चेहरा देखने के लायक था. मुख पर खुशी फूट पड़ी थी. चेहरा लाल लाल सेब सरीखा हो गया था. राष्ट्रपति जी के पश्चात प्रधानमंत्री जी का संबोधन था- मेरे प्यारे देशवासियों!( उनके स्वर में पार्टी आलाकमान जी की भांति उतार-चढ़ाव था, नकल थी ) आप सभी जानते हैं पेट्रोल की कितनी वैल्यू है, हीरा और अलेग्जेंडर से भी अधिक वैल्यू आपकी ही है.

एक बार हीरा, पन्ना और सोने के बगैर यह देश निष्कंटक प्रगति के पथ पर अविराम बढ़ सकता है, मगर श्रीमान पेट्रोल के स्नेह और अनुराग के बगैर हमारा देश एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता. यह हमारा जीवन है हमारी धड़कन  है .

प्रधानमंत्री का भाषण सुन मन पर मंच पर उपस्थित विभूतिया ने तालियां बजायी.श्रीमान पेट्रोल थोड़ा शरमाया .यह देखकर सभी उनकी सज्जनता के कायल हो गए. संपूर्ण देश एक लय हैं . सिर्फ और सिर्फ एक शख्सियत को छोड़कर.उनके चेहरे पर भाव आ और जा रहे हैं जिसमें प्रमुख है द्वेष का.

प्रधानमंत्री ने अपने विस्तृत भाषण में श्रीमान पेट्रोल की भूरी -भूरी प्रशंसा की . उनका महत्व महत्ता पर प्रकाश डाला और आश्वस्त किया कि शनै: शनै: हम आप की गरिमा के अनुरूप आपके श्री बुद्धि का महत्वपूर्ण काज करते रहेंगे.

तत्पश्चात देश के महत्वपूर्ण विभूतियों ने श्रीमान पेट्रोल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला .सभी ने प्रशंसा के गीत गाए. अब बारी थी विपक्ष के नेता की. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति सहित महत्वपूर्ण शख्सियते नेता प्रतिपक्ष के चेहरे के हाव-भाव देखकर संसकित थे. पता नहीं था यह विघ्न संतोषी क्या करेगा. बोलना तो कोई देना नहीं चाहता था मगर क्या करते डिकोरम में हल करना था फिर देश में इमरजेंसी भी लागू नहीं थी सो नेता प्रतिपक्ष को स्वर में चासनी घोलकर आमंत्रित किया गया.

जिससे प्रभावित होकर वे सम स्वर मे अपनी बात रखें मगर हुआ वही जिसकी शंका थी उन्होंने खिलाफत मैं बोलना शुरू किया – देशवासियों!मैं कहना तो नहीं चाहता,मगर यह सरकार मिस्टर पेट्रोल के आगे घुटने टेक चुकी है. देश में आग लगी हुई है और सरकार इनका अभिनंदन कर रही है. नेता प्रतिपक्ष की वाणी सुन संपूर्ण देश में उनके और उनकी पार्टी के खिलाफ रोष फैल गया .विपक्ष इस गुस्से के कारण थरथर कांपने लगा और छिपकर संसद में जा बैठा.

Family Story : विश्वास

Family Story : फोन पर ‘हैलो’ सुनते ही अंजलि ने अपने पति राजेश की आवाज पहचान ली.

राजेश ने अपनी बेटी शिखा का हालचाल जानने के बाद तनाव भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम यहां कब लौट रही हो?’’

‘‘मेरा जवाब आप को मालूम है,’’ अंजलि की आवाज में दुख, शिकायत और गुस्से के मिलेजुले भाव उभरे.

‘‘तुम अपनी मूर्खता छोड़ दो.’’

‘‘आप ही मेरी भावनाओं को समझ कर सही कदम क्यों नहीं उठा लेते हो?’’

‘‘तुम्हारे दिमाग में घुसे बेबुनियाद शक का इलाज कर ने को मैं गलत कदम नहीं उठाऊंगा…अपने बिजनेस को चौपट नहीं करूंगा, अंजलि.’’

‘‘मेरा शक बेबुनियाद नहीं है. मैं जो कहती हूं, उसे सारी दुनिया सच मानती है.’’

‘‘तो तुम नहीं लौट रही हो?’’ राजेश चिढ़ कर बोला.

‘‘नहीं, जब तक…’’

‘‘तब मेरी चेतावनी भी ध्यान से सुनो, अंजलि,’’ उसे बीच में टोकते हुए राजेश की आवाज में धमकी के भाव उभरे, ‘‘मैं ज्यादा देर तक तुम्हारा इंतजार नहीं करूंगा. अगर तुम फौरन नहीं लौटीं तो…तो मैं कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दे दूंगा. आखिर, इनसान की सहने की भी एक सीमा…’’

अंजलि ने फोन रख कर संबंधविच्छेद कर दिया. राजेश ने पहली बार तलाक लेने की धमकी दी थी. उस की आंखों में अपनी बेबसी को महसूस करते हुए आंसू आ गए. वह चाहती भी तो आगे राजेश से वार्तालाप न कर पाती क्योंकि उस के रुंधे गले से आवाज नहीं निकलती.

शिखा अपनी एक सहेली के घर गई हुई थी. अंजलि के मातापिता अपने कमरे में आराम कर रहे थे. अपनी चिंता, दुख और शिकायत भरी नाराजगी से प्रभावित हो कर वह बिना किसी रुकावट के कुछ देर खूब रोई.

रोने से उस का मन उदास और बोझिल हो गया. एक थकी सी गहरी आस छोड़ते हुए वह उठी और फोन के पास पहुंच कर अपनी सहेली वंदना का नंबर मिलाया.

राजेश से मिली तलाक की धमकी के बारे में जान कर वंदना ने उसे आश्वासन दिया, ‘‘तू रोनाधोना बंद कर, अंजलि. मेरे साहब घर पर ही हैं. हम दोनों घंटे भर के अंदर तुझ से मिलने आते हैं. आगे क्या करना है, इस की चर्चा आमने- सामने बैठ कर करेंगे. फिक्र मत कर, सब ठीक हो जाएगा.’’

वंदना उस के बचपन की सब से अच्छी सहेली थी. उस का व उस के पति कमल का अंजलि को बहुत सहारा था. उन दोनों के साथ अपने सुखदुख बांट कर ही पति से दूर वह मायके में रह रही थी. अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए अंजलि जो बात अपने मातापिता से नहीं कह पाती, वह इन दोनों से बेहिचक कह देती.

राजेश से फोन पर हुई बातचीत का ब्योरा अंजलि से सुन कर वंदना चिंतित हो उठी तो उस के पति कमल की आंखों में गुस्से के भाव उभरे.

‘‘अंजलि, कोई चोर कोतवाल को उलटा नहीं धमका सकता है. राजेश को तलाक की धमकी देने का कोई अधिकार नहीं है. अगर वह ऐसा करता है तो समाज उसी के नाम पर थूथू करेगा,’’ कमल ने आवेश भरे लहजे में अपनी राय बताई.

‘‘मेरी समझ से हमें टकराव का रास्ता छोड़ कर राजेश से बात करनी चाहिए,’’ चिंता के मारे अपनी उंगलियां मरोड़ते हुए वंदना ने अपने मन की बात कही.

‘‘राजेश से बातचीत करने को अगर अंजलि उस के पास लौट गई तो वह अपने दोस्त की विधवा के प्रेमजाल से कभी नहीं निकलेगा. उस पर संबंध तोड़ने को दबाव बनाए रखने के लिए अंजलि का यहां रहना जरूरी है.’’

‘‘अगर राजेश ने सचमुच तलाक की अर्जी कोर्ट में दे दी तो क्या करेंगे हम? तब भी तो अंजलि

को मजबूरन वापस लौटना पडे़गा न.’’

‘‘मैं नहीं लौटूंगी,’’ अंजलि ने सख्त लहजे में उन दोनों को अपना फैसला सुनाया, ‘‘मैं 2 महीने अलग रह सकती हूं तो जिंदगी भर को भी अलग रह लूंगी. मैं जब चाहूं तब अध्यापिका की नौकरी पा सकती हूं. शिखा को पालना मेरे लिए समस्या नहीं बनेगा. एक बात मेरे सामने बिलकुल साफ है. अगर राजेश ने उस विधवा सीमा से अपने व्यक्तिगत व व्यावसायिक संबंध बिलकुल समाप्त नहीं किए तो वह मुझे खो देंगे.’’

वंदना व कमल कुछ प्रतिक्रिया दर्शाते, उस से पहले ही बाहर से किसी ने घंटी बजाई. अंजलि ने दरवाजा खोला तो सामने अपनी 16 साल की बेटी शिखा को खड़ा पाया.

‘‘वंदना आंटी और कमल अंकल आए हुए हैं. तुम उन के पास कुछ देर बैठो, तब तक मैं तुम्हारे लिए खाना लगा लाती हूं,’’ भावुकता की शिकार बनी अंजलि ने प्यार से अपनी बेटी के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘मेरा मूड नहीं है, किसी से खामखां सिर मारने का. जब भूख होगी, मैं खाना खुद ही गरम कर के खा लूंगी,’’ बड़ी रुखाई से जवाब देने के बाद साफ तौर पर चिढ़ी व नाराज सी नजर आ रही शिखा अपने कमरे में जा घुसी.

अंजलि को उस का अचानक बदला व्यवहार बिलकुल समझ में नहीं आया. उस ने परेशान अंदाज में इस की चर्चा वंदना और कमल से की.

‘‘शिखा छोटी बच्ची नहीं है,’’ वंदना की आंखों में चिंता के बादल और ज्यादा गहरा उठे, ‘‘अपने मातापिता के बीच की अनबन जरूर उस के मन की सुखशांति को प्रभावित कर रही है. उस के अच्छे भविष्य की खातिर भी हमें समस्या का समाधान जल्दी करना होगा.’’

‘‘वंदना ठीक कह रही है, अंजलि,’’ कमल ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘तुम शिखा से अपने दिल की बात खुल कर कहो और उस के मन की बातें सहनशीलता से सुनो. मेरी समझ से हमारे जाने के बाद आज ही तुम यह काम करना. कोई समस्या आएगी तो वंदना और मैं भी उस से बात करेंगे. उस की टेंशन दूर करना हम सब की जिम्मेदारी है.’’

उन दोनों के विदा होने तक अपनी समस्या को हल करने का कोई पक्का रास्ता अंजलि के हाथ नहीं आया था. अपनी बेटी से खुल कर बात करने के  इरादे से जब उस ने शिखा के कमरे में कदम रखा, तब वह बेचैनी और चिंता का शिकार बनी हुई थी.

‘‘क्या बात है? क्यों मूड खराब है तेरा?’’ अंजलि ने कई बार ऐसे सवालों को घुमाफिरा कर पूछा, पर शिखा गुमसुम सी बनी रही.

‘‘अगर मुझे तू कुछ बताना नहीं चाहती है तो वंदना आंटी और कमल अंकल से अपने दिल की बात कह दे,’’  अंजलि की इस सलाह का शिखा पर अप्रत्याशित असर हुआ.

‘‘भाड़ में गए कमल अंकल. जिस आदमी की शक्ल से मुझे नफरत है, उस से बात करने की सलाह आज मुझे मत दें,’’  शिखा किसी ज्वालामुखी की तरह अचानक फट पड़ी.

‘‘क्यों है तुझे कमल अंकल से नफरत? अपने मन की बात मुझ से बेहिचक हो कर कह दे गुडि़या,’’ अंजलि का मन एक अनजाने से भय और चिंता का शिकार हो गया.

‘‘पापा के पास आप नहीं लौटो, इस में उस चालाक इनसान का स्वार्थ है और आप भी मूर्ख बन कर उन के जाल में फंसती जा रही हो.’’

‘‘कैसा स्वार्थ? कैसा जाल? शिखा, मेरी समझ में तेरी बात रत्ती भर नहीं आई.’’

‘‘मेरी बात तब आप की समझ में आएगी, जब खूब बदनामी हो चुकी होगी. मैं पूछती हूं कि आप क्यों बुला लेती हो उन्हें रोजरोज? क्यों जाती हो उन के घर जब वंदना आंटी घर पर नहीं होतीं? पापा बारबार बुला रहे हैं तो क्यों नहीं लौट चलती हो वापस घर.’’

शिखा के आरोपों को समझने में अंजलि को कुछ पल लगे और तब उस ने गहरे सदमे के शिकार व्यक्ति की तरह कांपते स्वर में पूछा, ‘‘शिखा, क्या तुम ने कमल अंकल और मेरे बीच गलत तरह के संबंध होने की बात अपने मुंह से निकाली है?’’

‘‘हां, निकाली है. अगर दाल में कुछ काला न होता तो वह आप को सदा पापा के खिलाफ क्यों भड़काते? क्यों जाती हो आप उन के घर, जब वंदना आंटी घर पर नहीं होतीं?’’

अंजलि ने शिखा के गाल पर थप्पड़ मारने के लिए उठे अपने हाथ को बड़ी कठिनाई से रोका और गहरीगहरी सांसें ले कर अपने क्रोध को कम करने के प्रयास में लग गई. दूसरी तरफ तनी हुई शिखा आंखें फाड़ कर चुनौती भरे अंदाज में उसे घूरती रहीं.

कुछ सहज हो कर अंजलि ने उस से पूछा, ‘‘वंदना के घर मेरे जाने की खबर तुम्हें उन के घर के सामने रहने वाली रितु से मिलती है न?’’

‘‘हां, रितु मुझ से झूठ नहीं बोलती है,’’ शिखा ने एकएक शब्द पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया.

‘‘यह अंदाजा उस ने या तुम ने किस आधार पर लगाया कि मैं वंदना की गैर- मौजूदगी में कमल से मिलने जाती हूं?’’

‘‘आप कल सुबह उन के घर गई थीं और परसों ही वंदना आंटी ने मेरे सामने कहा था कि वह अपनी बड़ी बहन को डाक्टर के यहां दिखाने जाएंगी, फिर आप उन के घर क्यों गईं?’’

‘‘ऐसा हुआ जरूर है, पर मुझे याद नहीं रहा था,’’ कुछ पल सोचने के बाद अंजलि ने गंभीर स्वर में जवाब दिया.

‘‘मुझे लगता है कि वह गंदा आदमी आप को फोन कर के अपने पास ऐसे मौकों पर बुलाता है और आप चली जाती हो.’’

‘‘शिखा, तुम्हें अपनी मम्मी के चरित्र पर यों कीचड़ उछालते हुए शर्म नहीं आ रही है,’’ अंजलि का अपमान के कारण चेहरा लाल हो उठा, ‘‘वंदना मेरी बहुत भरोसे की सहेली है. उस के साथ मैं कैसे विश्वासघात करूंगी? मेरे दिल में सिर्फ तुम्हारे पापा बसते हैं, और कोई नहीं.’’

‘‘तब आप उन के पास लौट क्यों नहीं चलती हो? क्यों कमल अंकल के भड़काने में आ रही हो?’’ शिखा ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘बेटी, तेरे पापा के और मेरे बीच में एक औरत के कारण गहरी अनबन चल रही है, उस समस्या के हल होते ही मैं उन के पास लौट जाऊंगी,’’ शिखा को यों स्पष्टीकरण देते हुए अंजलि ने खुद को शर्म के मारे जमीन मेें गड़ता महसूस किया.

‘‘मुझे यह सब बेकार के बहाने लगते हैं. आप कमल अंकल के कारण पापा के पास लौटना नहीं चाहती हो,’’ शिखा अपनी बात पर अड़ी रही.

‘‘तुम जबरदस्त गलतफहमी का शिकार हो, शिखा. वंदना और कमल मेरे शुभचिंतक हैं. उन दोनों का बहुत सहारा है मुझे. दोस्ती के पवित्र संबंध की सीमाएं तोड़ कर कुछ गलत न मैं कर रही हूं न कमल अंकल. मेरे कहे पर विश्वास कर बेटी,’’ अंजलि बहुत भावुक हो उठी.

‘‘मेरे मन की सुखशांति की खातिर आप अंकल से और जरूरी हो तो वंदना आंटी से भी अपने संबंध पूरी तरह तोड़ लो, मम्मी. मुझे डर है कि ऐसा न करने पर आप पापा से सदा के लिए दूर हो जाओगी,’’ शिखा ने आंखों में आंसू ला कर विनती की.

‘‘तुम्हारे नासमझी भरे व्यवहार से मैं बहुत निराश हूं,’’ ऐसा कह कर अंजलि उठ कर अपने कमरे में चली आई.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में बहुत खिंचाव आ गया. आपस में बातचीत बस, बेहद जरूरी बातों को ले कर होती. अपने दिल पर लगे घावों को दोनों नाराजगी भरी खामोशी के साथ एकदूसरे को दिखा रही थीं.

शिखा की चुप्पी व नाराजगी वंदना और कमल ने भी नोट की. अंजलि उन के किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकी. वह कैसे कहती कि शिखा ने कमल और उस के बीच नाजायज संबंध होने का शक अपने मन में बिठा रखा था.

करीब 4 दिन बाद रात को शिखा ने मां के कमरे में आ कर अपने मन की बातें कहीं.

‘‘आप अंदाजा भी नहीं लगा सकतीं कि मेरी सहेली रितु ने अन्य सहेलियों को सब बातें बता कर मेरे लिए इज्जत से सिर उठा कर चलना ही मुश्किल कर दिया है. अपनी ये सब परेशानियां मैं आप के नहीं, तो किस के सामने रखूं?’’

‘‘मुझे तुम्हारी सहेलियों से नहीं सिर्फ तुम से मतलब है, शिखा,’’ अंजलि ने शुष्क स्वर में जवाब दिया, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन क्यों मान लिया? मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है?’’

‘‘मम्मी, बात विश्वास करने या न करने की नहीं है. हमें समाज में मानसम्मान से रहना है तो लोगों को ऊटपटांग बातें करने का मसाला नहीं दिया जा सकता.’’

‘‘तब क्या दूसरों को खुश करने के लिए तुम अपनी मां को चरित्रहीन करार दे दोगी? उन की झूठी बातों पर विश्वास कर के अपनी मां को उस की सब से प्यारी सहेली से दूर करने की जिद पकड़ोगी?’’

‘‘मुझ पर क्या गुजर रही है, इस की आप को भी कहां चिंता है, मम्मी,’’ शिखा चिढ़ कर गुस्सा हो उठी, ‘‘मैं आप की सहेली नहीं बल्कि सहेली के चालाक पति से आप को दूर देखना चाहती हूं. अपनी बेटी की सुखशांति से ज्यादा क्या कमल अंकल के साथ जुडे़ रहना आप के लिए जरूरी है?’’

‘‘कमल अंकल मेरे लिए तुम से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं, शिखा? मुझे तो अफसोस और दुख इस बात का है कि मेरी बेटी को मुझ पर विश्वास नहीं रहा. मैं पूछती हूं कि तुम ही मुझ पर विश्वास क्यों नहीं कर रही हो?  अपनी सहेलियों की बकवास पर ध्यान न दे कर मेरा साथ क्यों नहीं दे रही हो? मेरे मन में खोट नहीं है, इस बात को मेरे कई बार दोहराने के बावजूद तुम ने उस पर विश्वास न कर के मेरे दिल को जितनी पीड़ा पहुंचाई है, क्या उस का तुम्हें अंदाजा है?’’ बोलते हुए अंजलि का चेहरा गुस्से से लाल हो गया.

‘‘यों चीखचिल्ला कर आप मुझे चुप नहीं कर सकोगी,’’ गुस्से से भरी शिखा उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘चित भी मेरी और पट भी मेरी का चालाकी भरा खेल मेरे साथ न खेलो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ अंजलि फौरन उलझन का शिकार बन गई.

‘‘मतलब यह कि पापा ने अपनी बिजनेस पार्टनर सीमा आंटी को ले कर आप को सफाई दे दी तब तो आप ने उन की एक नहीं सुनी और यहां भाग आईं, और जब मैं आप से कमल अंकल के साथ संबंध तोड़ लेने की मांग कर रही हूं तो किस आधार पर आप मुझे गलत और खुद को सही ठहरा रही हो?’’

अंजलि को बेटी का सवाल सुन कर तेज झटका लगा. उस ने अपना सिर झुका लिया. शिखा आगे एक भी शब्द न बोल कर अपने कमरे में लौट गई. दोनों मांबेटी ने तबीयत खराब होने का बहाना बना कर रात का खाना नहीं खाया. शिखा के नानानानी को उन दोनों के उखडे़ मूड का कारण जरा भी समझ में नहीं आया.

उस रात अंजलि बहुत देर तक नहीं सो सकी. अपने पति के साथ चल रहे मनमुटाव से जुड़ी बहुत सी यादें उस के दिलोदिमाग में हलचल मचा रही थीं. शिखा द्वारा लगाए गए आरोप ने उसे बुरी तरह झकझोर दिया था.

राजेश ने कभी स्वीकार नहीं किया था कि अपने दोस्त की विधवा के साथ उस के अनैतिक संबंध थे. दूसरी तरफ आफिस में काम करने वाली 2 लड़कियों और राजेश के दोस्तों की पत्नियों ने इस संबंध को समाप्त करवा देने की चेतावनी कई बार उस के कानों में डाली थी.

तब खूबसूरत सीमा को अपने पति के साथ खूब खुल कर हंसतेबोलते देख अंजलि जबरदस्त ईर्ष्या व असुरक्षा की भावना का शिकर रहने लगी.

राजेश ने उसे प्यार से व डांट कर भी खूब समझाया पर अंजलि ने साफ कह दिया, ‘मेरे मन की सुखशांति, मेरे प्यार व खुशियों की खातिर आप को सीमा से हर तरह का संबंध समाप्त कर लेना होगा.’

‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से अपनी नजरों में गिर जाऊं. मैं कुसूरवार हूं ही नहीं, तो सजा क्यों भोगूं? अपने दिवंगत दोस्त की पत्नी को मैं बेसहारा नहीं छोड़ सकता हूं. तुम्हारे बेबुनियाद शक के कारण मैं अपनी नजरों में खुद को गिराने वाला कोई कदम नहीं उठाऊंगा,’ राजेश के इस फैसले को अंजलि किसी भी तरह से नहीं बदलवा सकी.

पहले अपने पति और अब अपनी बेटी के साथ हुए टकरावों में अंजलि को बड़ी समानता नजर आई. उस ने सीमा को ले कर राजेश पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाया था और शिखा ने कमल को ले कर खुद उस पर.

वह अपने को सही मानती थी, जैसे अब शिखा अपने को सही मान रही थी. वहां राजेश अपराधी के कटघरे में खड़ा हो कर सफाई देता था और आज वह अपनी बेटी को सफाई देने के लिए मजबूर थी.

अपने दिल की बात वह अच्छी तरह जानती थी. उस के मन में कमल को ले कर रत्ती भर भी गलत तरह का आकर्षण नहीं था. इस मामले में शिखा पूरी तरह गलत थी.

तब सीमा व राजेश के मामले में क्या वह खुद गलत नहीं हो सकती थी? इस सवाल से जूझते हुए अंजलि ने सारी रात करवटें बदलते हुए गुजार दी.

अगली सुबह शिखा के जागते ही अंजलि ने अपना फैसला उसे सुना दिया, ‘‘अपना सामान बैग में रख लो. नाश्ता करने के बाद हम अपने घर लौट रहे हैं.’’

‘‘ओह, मम्मी. यू आर ग्रेट. मैं बहुत खुश हूं,’’ शिखा भावुक हो कर उस से लिपट गई.

अंजलि ने उस के माथे का चुंबन लिया, पर मुंह से कुछ नहीं बोली. तब शिखा ने धीमे स्वर में उस से कहा, ‘‘गुस्से में आ कर मैं ने जो भी पिछले दिनों आप से उलटासीधा कहा है, उस के लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूं. आप का फैसला बता रहा है कि मैं गलत थी. प्लीज मम्मा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

अंजलि ने उसे अपने सीने से लगा लिया. मांबेटी दोनों की आंखों में आंसू भर आए. पिछले कई दिनों से बनी मानसिक पीड़ा व तनाव से दोनों पल भर में मुक्त हो गई थीं.

उस के बुलावे पर वंदना उस से मिलने घर आ गई. कमल के आफिस चले जाने के कारण अंजलि के लौटने की खबर कमल तक नहीं पहुंची.

वंदना को अंजलि ने अकेले में अपने वापस लौटने का सही कारण बताया, ‘‘पिछले दिनों अपनी बेटी शिखा के कारण राजेश और सीमा को ले कर मुझे अपनी एक गलती…एक तरह की नासमझी का एहसास हुआ है. उसी भूल को सुधारने को मैं राजेश के पास बेशर्त वापस लौट रही हूं.

‘‘सीमा के साथ उस के अनैतिक संबंध नहीं हैं, मुझे राजेश के इस कथन पर विश्वास करना चाहिए था, पर मैं और लोगों की सुनती रही और हमारे बीच प्रेम व विश्वास का संबंध कमजोर पड़ने लगा.

‘‘अगर राजेश निर्दोष हैं तो मेरा झगड़ालू रवैया उन्हें कितना गलत और दुखदायी लगता होगा. बिना कुछ अपनी आंखों से देखे, पत्नी का पति पर विश्वास न करना क्या एक तरह का विश्वासघात नहीं है?

‘‘मैं राजेश को…उन के पे्रम को खोना नहीं चाहती हूं. हो सकता है कि सीमा और उन के बीच गलत तरह के संबंध बन गए हों, पर इस कारण वह खुद भी मुझे छोड़ना नहीं चाहते. उन के दिल में सिर्फ मैं रहूं, क्या अपने इस लक्ष्य को मैं उन से लड़झगड़ कर कभी पा सकूंगी?

‘‘वापस लौट कर मुझे उन का विश्वास फिर से जीतना है. हमारे बीच प्रेम का मजबूत बंधन फिर से कायम हो कर हम दोनों के दिलों के घावों को भर देगा, इस का मुझे पूरा विश्वास है.’’

अंजलि की आंखों में दृढ़निश्चय के भावों को पढ़ कर वंदना ने उसे बडे़ प्यार से गले लगा लिया.

Love Story : संयोग

Love Story : संयोग

लेखक- सनंत प्रसाद

मंजुला और मुकेश के बीच प्यार की कोंपलें फूटने लगी थीं. लेकिन महत्त्वाकांक्षी मंजुला ने मुकेश के प्यार को अपने सपनों से ज्यादा तरजीह दी. बरसों बाद मुकेश से मिलने पर एक बार फिर मंजुला की यादें ताजा हो उठीं.

रात के 10 बज चुके थे. मरीजों को निबटा कर डा. मंजुला प्रियदर्शिनी अपने क्लिनिक में अकेली बैठी थीं. अचानक उन्होंने रिलेक्स के मूड में अपने जूड़े को खोल कर लंबे घने बालों को एक झटका सा दिया और इसी के साथ लंबी जुल्फें लहरा कर इजीचेयर पर फैल गईं.

डा. मंजुला इजीचेयर से उठीं और क्लिनिक के बगल में बने शानदार बाथरूम के आदमकद शीशे में अपने पूरे व्यक्तित्व को निहारने लगीं.

दिनभर की भीड़भाड़ भरी व्यस्त जिंदगी में डा. मंजुला अपने को भूल सी जाती हैं. जिस को समय का ही ध्यान नहीं रहता वह अपना ध्यान कैसे रख सकता है. किंतु समय तो अपनी गति से चलता ही जाता है न. शहर के पौश इलाके में बना उन का नर्सिंग होम  और क्लिनिक उन्हें इतना समय ही नहीं देते कि वह मरीजों को छोड़ कर अपने बारे में सोच सकें.

डा. मंजुला ने अपनी संपन्नता  अथक मेहनत से अर्जित की थी. वह अपनी व्यस्ततम जिंदगी से जब भी कुछ पल अपने लिए निकालतीं तो उन का अकेलापन उन्हें काटने को दौड़ता था. आखिर थीं तो वह भी एक औरत ही न. अपने को आईने में देखा तो 45-50 की ‘प्रियदर्शिनी’ का एक अछूता सा मादक सौंदर्य और यौवन उन्हें थिरकता नजर आया. बालों में थोड़ी सफेदी तो आ गई थी पर उसे स्वाभाविक रंग में रंग कर उन्होंने कलात्मकता से छिपा रखा था.

डा. मंजुला के मन के एक कोने से आवाज आई, काश, कोई उन के आज भी छिपे हुए मादक यौवन और गदराई देह को अपनी सबल बांहों में थाम लेता और उन्हें मसल कर रख देता. एक अनछुई सिहरन उन के मनप्राणों में समा गई. औरत के मन की यह अद्भुत विशेषता और विरोधाभास भी है कि वह जो अंतर्मन से चाहती है, उसे शायद शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाती. इसीलिए नारी अपनी कामनाओं को तब तक छिपा कर रखती है जब तक भावनाओं की आंधी में बहा कर ले जाने वाला और उस की अस्मिता की रक्षा करने का आश्वासन देने वाला कोई सबल पुरुष उस के रास्ते में न आ जाए.

बाथरूम से निकल कर डा. मंजुला अपने केबिन में आईं और इजीचेयर पर बैठते ही सिर पीछे की ओर टिका दिया. घर जाने का अभी मन नहीं कर रहा था अत: आंखें बंद कर वह अतीत में खो सी गईं.

20 वर्ष पहले वह मेडिकल कालिज में फाइनल की छात्रा थी. बिलकुल रिजर्व और अंतर्मुखी. लड़के भंवरा बन कर उस पर मंडराते थे क्योंकि मंजुला ‘प्रियदर्शिनी’ एक कलाकार के सांचे में ढली हुई चलतीफिरती प्रतिमा सी लगती थी. अद्भुत देहयष्टि और खिलाखिला सा रूपरंग, उस पर कालेकाले घुंघराले बाल और कजरारे नैननक्श की मलिका मंजुला जिधर से निकलती मनचलों पर बिजलियां सी टूट पड़तीं पर वह किसी को घास न डालती. कोई लड़का उस पर डोरे डालने का साहस भी नहीं जुटा पाता, क्योंकि उस के पिता मनोरम पुलिस के आला अफसर थे और मां माधुरी कलेक्टर जो थीं.

मुकेश कब और कैसे मंजुला के जीवन में आ गया, इसे शायद स्वयं मंजुला भी न समझ सकी. वह लजीला सा नवयुवक उस का सहपाठी तो था पर कभी उस ने मंजुला की ओर आंख उठा कर भर नजर देखा तक नहीं था, जबकि दूसरे लड़के मंजुला को देख कर दबी जबान कुछ न कुछ फब्तियां कस ही देते थे.

मंजुला कभी मुकेश को लाइब्रेरी के एक कोने में चुपचाप किताबों में डूबा हुआ देखती या फिर कक्षा से निकल कर घर जाते हुए. इस अंतर्मुखी लड़के के प्रति उस की उत्सुकता बढ़ती जाती. किंतु उस का अहं कोई पहल करने से उसे रोक देता.

मंजुला को उस दिन बड़ा आश्चर्य हुआ जब मुकेश ने उस के समीप आ कर पूछा, ‘आप इतनी चुपचुप क्यों रहती हैं? क्या आप को ऐसा नहीं लगता कि इस तरह रहने से आप को डिप्रेशन या हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी हो सकती है?’

मंजुला उस के भोलेपन पर मन ही मन मुसकरा उठी, साथ ही उस के शरारती मन को टटोलने का प्रयास भी करने लगी. ऊपर से सीधासादा दिखने वाला यह लड़का अंदर से थोड़ा शरारती भी है. तभी तो इतना खूबसूरत बहाना ढूंढ़ा है उस से बात करने का या उस के करीब आने का. फिर भी बनावटी मुसकराहट के साथ उस ने जवाब दिया, ‘नहीं तो, मुझे तो कुछ ऐसा नहीं लगता.’

मुकेश बड़ी विनम्रता से बोला, ‘यदि मैं कैंटीन में चल कर आप को एक कप कौफी पीने का निमंत्रण दूं तो आप बुरा तो न मानेंगी.’

इस बार मंजुला उस के भोलेपन पर सचमुच खिलखिला उठी, ‘चलिए, आई डोंट माइंड.’

कौफी पीतेपीते ही मंजुला से मुकेश का परिचय हुआ. मुकेश एक मध्यवर्ग के संभ्रांत परिवार का लड़का था. घर में उस की मां थीं, 2 बड़ी बहनें थीं,  जिन की शादियां हो चुकी थीं और वे अपनीअपनी गृहस्थी में खुश थीं. मुकेश के पिता एक सरकारी मुलाजिम थे जो लगभग 2 वर्ष पहले बीमारी के चलते दिवंगत हो चुके थे. मां को पिता की सरकारी नौकरी की पेंशन मिलती थी, किंतु गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए और अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के लिए मुकेश कालिज के बाद ट्यूशन पढ़ाया करता था.

मंजुला ने जैसे ही अपने बारे में मुकेश को बताना शुरू किया उस ने बीच में ही उसे टोक दिया, ‘मैडम, क्यों कौफी ठंडी कर रही हैं. आप के बारे में मैं तो क्या यह पूरा मेडिकल कालिज जानता है कि आप के मातापिता क्या हैं.’

मंजुला सीधेसादे मुकेश के प्रति एक अनजाना सा ख्ंिचाव महसूस करने लगी थी. उस ने अपने मन से कई बार पूछा कि कहीं वह मुकेश से प्यार तो नहीं करने लगी है?

नारी का मनोविज्ञान सदियों से वही रहा है जो आज है और आगे भी वही रहेगा. हर स्त्री के मन में प्यार और प्रशंसा पाने की ललक होती है, चाहे वह अवचेतन की किसी अतल गहराइयों में ही छिपी हो, जिसे वह समझ नहीं पाती या जाहिर नहीं कर पाती.

खैर, इस प्रकार मंजुला के जीवन में प्यार बन कर मुकेश कब आ गया इसे न मंजुला समझ पाई न मुकेश. दोनों का प्यार परवान चढ़ता रहा. दोनों ने अच्छे नंबरों से मेडिकल की परीक्षाएं पास कीं. मंजुला के पिता के पास पैसा था, सो उन्होंने एक खूबसूरत सा नर्सिंगहोम शहर के बीचोेंबीच एक पौश इलाके में खोल दिया और इसी के साथ डा. मंजुला के अपने कैरियर की शुरुआत करने के दरवाजे खुल गए.

मंजुला कुछ दिनों के लिए विदेश चली गई. लौटी तो ढेर सारी डिगरियां उस ने बटोर ली थीं. एम.डी., एम.एस. और भी कई डिगरियां. मंजुला अपने ही नाम वाले नर्सिंगहोम की मालिक बन कर जीवन में लगभग सेटल हो चुकी थी.

मुकेश अपने ही शहर के एक मेडिकल कालिज में लेक्चरर हो गया था. दोनों का जीवन नदी के दो किनारों की तरह मंथर गति से आगे बढ़ने लगा था. मंजुला के मातापिता ने उसे शादी के लिए प्रेरित करना शुरू किया, किंतु वह शादी से ज्यादा कुछ करने की, कुछ ऊंचाई छू लेने की हसरत रखती थी. इसलिए शादी के बहुतेरे प्रस्तावों को वह किसी न किसी बहाने टालती रही और अपने व्यावसायिक जीवन को संवारने में तनमन से जुट गई.

मुकेश ने मां के बेबस प्यार और आग्रह के सामने सिर झुका लिया. उस की शादी जिस युवती से हुई वह झगड़ालू प्रवृत्ति के साथसाथ हद दरजे की शक्की, बदमिजाज, स्वार्थी एवं ईर्ष्यालु भी थी. सामाजिक दबाव, आर्थिक समस्याओं आदि ने कोई विकल्प मुकेश के सामने छोड़ा ही नहीं और उस ने भी हथियार डाल दिए. आखिर किसी शायर ने ठीक ही तो फरमाया है, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, किसी को जमीं तो किसी को आसमां नहीं मिलता.’

मुकेश अब कालिज की ड्यूटी के बाद घर लौट कर एक थीसिस की तैयारी में जुट जाता और देर रात तक उसी में व्यस्त रहता. पत्नी झींकती रहती, तकदीर को कोसती कि कैसे निखट्टू से पाला पड़ गया. मुकेश बेबस हो कर सुनता और चुप रह जाता.

मुकेश के जीवन की एक त्रासदी उस दिन उभर कर सामने आई जब उस की पत्नी चंचला और सास सविता ने उसे निसंतान होने का ताना देना शुरू किया. तमाम मेडिकल जांच के बाद यह तसवीर उभर कर सामने आई कि चंचला मां नहीं बन सकती. नतीजतन, चंचला और भी उग्र और आक्रामक बनती चली गई और मुकेश दीवार पर जड़ दिए गए फ्रेम में सहनशीलता की तसवीर भर बन कर रह गया.

उस दिन शाम के समय गाड़ी से मंजुला कुछ खरीदारी करने निकली थी. मौर्या कांपलेक्स के शौपिंग आरकेड में घुसते ही अचानक मुकेश पर उस की निगाहें टिक गईं. दोनों के बीच औपचारिक बातों के बाद मंजुला ने उसे अगले दिन अपने नर्सिंग होम में आ कर बातचीत करने का निमंत्रण दिया.

दूसरे दिन शाम को मुकेश आया तो दोनों बड़ी देर तक बातों में खोए रहे. रात घिर आई. बातों का सिलसिला टूटा तो घड़ी पर नजर गई. 12 बज चुके थे. मुकेश बाहर निकला तो हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई. मुकेश ने अपनी ईर्ष्यालु पत्नी चंचला का जिक्र छेड़ा तो मंजुला उसे घर छोड़ने का साहस नहीं कर पाई. मंजुला ने उस के खाने का आर्डर दे दिया. फिर उसे अपने नर्सिंग होम के आरामदायक गेस्ट हाउस में ही ठहर जाने का आग्रह किया.

मुकेश ने अपने घर टेलीफोन कर दिया कि एक आवश्यक काम के सिलसिले में उसे रात में रुकना पड़ा है. मुकेश मंजुला के आग्रह को नहीं ठुकरा पाने के कारण नर्सिंग होम के गेस्ट रूम में आराम करने के इरादे से रुक गया. खाना खाने के बाद मुकेश को ‘गुडनाइट’ कह कर मंजुला अपने निकटवर्ती आवास में आराम करने चली गई. मुकेश ने बत्ती बुझा कर थोड़ी झपकियां ही ली थीं कि उस के दरवाजे पर हलकी दस्तक हुई. उस ने अंदर से ही पूछा, ‘कौन?’

‘मैं हूं, मंजुला.’

इस आवाज ने उसे चौंका दिया. मुकेश ने दरवाजा खोला और बत्ती जला दी. मुकेश विस्मित सा मंजुला को सिर से पांव तक निहारता ही रह गया. कांधे तक लहराते गेसुओं और मंजुला की आकर्षक देहयष्टि को एक पारदर्शी नाइटी में देख कर कोई भी होता तो घबरा जाता. मंजुला कमरे की धीमी रोशनी में साक्षात सौंदर्य की प्रतिमा लग रही थी और उस के अंगअंग से रूप की मदिरा छलक रही थी. फिर भी अपने ऊपर संयम का आवरण ओढ़े मुकेश ने धीमे स्वर में पूछा, ‘इतनी रात गए? क्या बात है?’

मंजुला ने उबासियां लेते हुए अंगड़ाई ली तो उस के मादक यौवन में एक तरह का खुला आमंत्रण था जो कह रहा था कि मुकेश, अपनी बांहों में मुझे थाम लो. वह पुरुष था, एक औरत के खुले आमंत्रण को कैसे ठुकरा सकता था, वह भी उसे जिसे वह दिल से चाहता है.

मुकेश अपने को रोक न सका और मंजुला को अपनी बांहों में लेते हुए उस के लरजते होंठों पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. मंजुला तो मानो किसी दूसरी दुनिया में तिर रही थी. एक औरत के लिए पुरुष का यह पहला एहसास था. बंद आंखों से उस ने भी अपनी बांहों के घेरे में मुकेश को कस लिया और यौवन का ऐसा ज्वार आया कि दोनों एकदूसरे में खो गए.

इस सुखद एहसास की पुनरावृत्ति मंजुला के जीवन में दोबारा नहीं हो सकी क्योंकि घटनाओं का सिलसिला ऐसा चला कि मुकेश का तबादला दूसरे शहर के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कालिज में हो गया. मंजुला के जीवन में वह मादक क्षण और वह मधुर रात अतीत का एक स्वप्न बन कर रह गई. तभी फोन की घंटी बजी तो वह सपनों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गई. फोन उठाया तो दूसरी ओर से उस की नौकरानी थी जो अभी तक घर न पहुंचने पर चिंता जता रही थी.

डा. मंजुला अपनी इजीचेयर से उठीं. घड़ी पर नजर डाली तो आधी रात हो चुकी थी. वह सधे कदमों से निवास की ओर चल दीं. थके हुए तनमन के साथ थोड़ा सा खाना खा कर वह कब नींद के आगोश में समा गईं, होश ही नहीं रहा. दूसरे दिन जब दिन चढ़ आया तब मंजुला की नींद खुली. बाथरूम में से निकल कर हलका सा बे्रकफास्ट लिया और अपने नर्सिंग होम के कामों को पूरा करने में जुट गईं.

मंजुला को अपने काम के सिलसिले में नैनीताल जाना पड़ा. 2 दिनों तक तो वह काम को पूरा करने में लगी रहीं. काम खत्म हुआ तो मंजुला प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर इस पहाड़ी शहर का आनंद लेने निकली थीं. वह अपनी वातानुकूलित गाड़ी में बैठी शहर के दर्शनीय स्थलों को देखने में खोई थीं कि एक जगह जा कर उन की नजर ठहर गई. उन्होंने गाड़ी रोक कर पास जा कर देखा तो वह मुकेश ही था. दाढ़ी बढ़ी हुई और नंगे पांव पैदल ही वह भीमताल की सड़कों पर जा रहा था. मंजुला ने गाड़ी एकदम उस के बगल में जा कर रोकी और गाड़ी से सिर निकाल कर बोलीं, ‘‘अरे, मुकेश, तुम यहां कैसे? कब आए? ह्वाट ए प्लिजेंट सरप्राइज?’’ कई प्रश्न एकसाथ मंजुला ने कर डाले.

मुकेश मूक ही बना रहा तो मंजुला ने ही चहक कर कहा, ‘‘आओ, गाड़ी में बैठो. अरे, मेरी बगल ही में बैठो भाई. मैं अच्छी ड्राइविंग करती हूं, घबराओ नहीं.’’

मुकेश को ले कर मंजुला अपने होटल वापस आ गईं और वहां के खुशनुमा माहौल में उसे बिठा कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या लोगे? चाय, कौफी या डिनर. खैर, अभी तो मैं गरमागरम कौफी और पकौडे़ मंगवाती हूं.’’

मुकेश ने कौफी में उस का साथ देते हुए अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘‘मंजुला, मेरी यह दशा देख कर तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा पर यह वक्त की मार है जो मैं अकेले यहां झेल रहा हूं. यहां आने के कुछ महीनों बाद मां की मृत्यु हो गई. पत्नी चंचला पिछले साल ब्रेनफीवर की बीमारी से चल बसी. जीवन की इस त्रासदी को अकेले झेल रहा हूं,’’ अपनी कहानी बतातेबताते मुकेश की आंखें भर आई थीं. उस की दुखद कहानी सुन कर मंजुला भी दुखित हो उठी थी.

मुकेश चलने के लिए उठा तो मंजुला ने उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे बिठा लिया फिर याचना भरे स्वर में बोलीं, ‘‘इतने दिनों बाद मिले हो तो कम से कम आज तो साथ में बैठ कर खाना खा लो, फिर जहां जाना है चले जाना.’’

थोड़ी देर बाद ही होटल के कमरे में खाना आ गया. दोनों आमनेसामने बैठ कर खाना खा रहे थे. मंजुला ने मुकेश की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘मुकेश, मुझ से शादी करोगे?’’

मुकेश की आंखों से दो बूंद आंसू मोती बन कर टपक पड़े.

‘‘मंजुला, तुम ने इतनी प्रतीक्षा क्यों कराई? काश, तुम मेरे जीवन में पहली किरण बन कर आ जातीं तो जीवन में इतना भटकाव तो न आता.’’ इन शब्दों को सुनने के बाद मंजुला ने मुकेश के दोनों हाथों को जोर से जकड़ लिया और उस के कांधे पर सिर रख कर मंदमंद मुसकराने लगीं.

Family Story : पक्षाघात

Family Story : पक्षाघात

लेखिका- प्रतिभा सक्सेना

विजय जी काफी देर लिखने के बाद उठे पर ठीक से उठ न पाए और गिर पड़े. उन्होंने दोबारा उठना चाहा पर हाथपैर बेजान ही रहे. वह घबरा तो गए पर हिम्मत न हारी. उठने का उपक्रम करते रहे, फिर थक कर निढाल हो जमीन पर पड़े रहे.

उन्होंने चिल्लाना चाहा पर जबान ने जैसे न हिलने की कसम खा ली. तभी उन्हें याद आया कि सब तो पिक्चर देखने गए हैं, अब तो आने ही वाले होंगे. अब दरवाजा कौन खोलेगा उन के लिए? बेचारे बाहर ठंड में अकड़ जाएंगे.

थोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजी. सब आ चुके थे. उन्होंने फिर उठना चाहा पर न जाने क्या हो गया है, वह यही सोचसोच कर हैरान हो रहे थे. घंटी लगातार बजती ही जा रही थी.

पत्नी तो बेटे- बहुओं के साथ अकेली जाना ही नहीं चाह रही थी. पर उन्हें कुछ लेखन का काम करना था सो जबरन ही उसे बेटों के साथ भेज दिया था. वह तो बहुएं बड़ी लायक हैं, उन्हें यह विचार ही नहीं आता कि मां- बाबूजी को उन के साथ नहीं लगना चाहिए, पर अब वह अपनी जिद को कोस रहे थे कि क्यों भेजा पत्नी को उन के साथ?

बाहर से बेटे बाबूजीबाबूजी चिल्ला रहे थे. दरवाजे को पीटा जाने लगा. तभी पत्नी का दहशत भरा स्वर सुनाई दिया, ‘‘मुकुल, दरवाजा तोड़ दो.’’

शायद दोनों बेटों ने मिल कर दरवाजा तोड़ा. घर में घुसते ही बाबूजीबाबूजी की आवाजें लगनी शुरू हो गईं. कमरे में बाबूजी को यों पड़े देखा तो हाहाकार मच गया. झट से दोनों बेटों ने मिल कर उन्हें पलंग पर लिटाया. उन की पत्नी ललिता उन के तलवे मलने लगी. बहुएं झट रसोई से उन के लिए पानी और हलदी वाला दूध ले आईं.

मुकेश ने पत्नी के हाथ से पानी का गिलास ले लिया और बाबूजी को हाथ के सहारे से उठा कर पिलाना चाहा तो होंठों के किनारों से पानी बाहर बह निकला. पति की यह हालत देख ललिता बिलखने लगीं. मुकेशमुकुल अपनीअपनी पत्नियों को मां को संभालने की आज्ञा दे कर डाक्टर को बुलाने चल दिए.

डाक्टर ने जांच कर के बताया

कि विजयजी को पक्षाघात हुआ है. सब यह सोच कर अचंभित रह गए कि अब क्या होगा? सब को अब अपनी दुनिया अंधेरी नजर आने लगी.

डाक्टर ने दवाइयां और मालिश के लिए तेल लिख दिया और कहा, ‘‘संभालिए आप सब अपनेआप को. यदि आप सब घबरा जाएंगे तो इन्हें कौन संभालेगा? देखिए, इन के जीवन को तो कोई खतरा नहीं है पर कब तक ठीक होंगे यह कहना मुश्किल है. सेवा कीजिए, दवा दीजिए. शायद आप सब का परिश्रम रंग लाए और विजयजी ठीक हो जाएं. और हां, घर का वातावरण शांत रखिए. आप सब हाहाकार मचाएंगे तो मरीज का मन कैसे शांत रहेगा.’’

फिर तो परिवार में हर किसी की दिनचर्या ही बदल गई. फिक्र भरी सुबहें, तो दोपहर व्यस्त हो गई, शामें चिंतित और रातें दुखदायी हो गईं. बेटों ने कुछ दिनों की छुट्टियां ले लीं पर आखिर कब तक घर बैठे रहते. सब की अपनीअपनी उलझनें और परेशानियां थीं, अपनेअपने कार्य थे पर विजयजी कितने निरीह, कितने बेबस हो गए थे यह कौन समझ सकता है. आखिर कोई भी मातापिता अपने बच्चों को परेशान नहीं करना चाहता, पर नियति के आगे किसी की कब चली है.

तय यह हुआ कि अभी सुमि दीदी को खबर नहीं की जाए, इतनी दूर अमेरिका से आ तो पाएंगी नहीं पर परेशान बहुत होंगी. बच्चों को भी सख्त हिदायत दे दी गई कि बूआ का फोन आए तो बाबूजी के बारे में उन से कुछ न कहा जाए.

सुमि का फोन आने पर जब वह बाबूजी से बात कराने को कहती तो अलगअलग बहाने बना दिए जाते. बाबूजी सुमि से क्या बात कर पाते, वह तो जबान ही न हिला पाते.

एक फिजियोथेरैपिस्ट रोज आ कर बाबूजी को हलके व्यायाम करा जाता. दोनों बेटों ने बाबूजी को नहलानेधुलाने और उन की साफसफाई करने के लिए एक नौकर की व्यवस्था कर ली थी. मालिश का काम कभीकभी वह नौकर तो कभी ललिता करतीं.

डाक्टर की नसीहत के कारण बच्चों को बाबूजी के कमरे में ज्यादा देर रुकने को मना कर दिया गया था इसलिए बच्चे कम ही आते थे. विजयजी कमरे में अकेले पड़ेपड़े ऊब गए थे. बेटे तो कामकाजी थे सो वे घर में कम ही रहते थे. बहुएं कमरे में उन का खाना, चाय, दूध, नाश्ता आदि ले कर आतीं और अम्मां को पकड़ा कर चली जातीं. साथ ही कहतीं, ‘‘अम्मांजी, कुछ और जरूरत हो तो आवाज लगा दीजिएगा,’’ फिर वे दोनों अपनेअपने कामों में व्यस्त हो जातीं.

बाबूजी की बीमारी से काम भी तो बहुत बढ़ गए थे. पहले तो उन की मालिश बेटे करते थे पर अब अम्मां और कभीकभी नौकर किशन कर देता था. ललिता उन से दिन भर की बातें करतीं. पर बाबूजी की तरफ से कोई जवाब नहीं आ पाता तो धीरेधीरे बोलने का नियम कम होतेहोते समाप्त सा हो गया. वह भी बस, जरूरत भर की ही बातें करने लगीं.

विजयजी ने कई बार अपनी पत्नी ललिता से कहने की कोशिश की कि बच्चों को कमरे में खेलने दिया करो, कुछ तो मन लगे पर गोंगों का अस्पष्ट स्वर ही निकल पाता. ललिता पूछती ही रह जातीं कि क्या कहना चाह रहे हो? पर स्वत: उन की बात समझने में असफल ही रहतीं.

विजयजी बहुत बेबस हो जाते. दोनों बेटे भी सुबहशाम उन के पास बैठ जाते, पर आखिर कब तक. बाद में तो आफिस से आ कर हालचाल पूछ कर अपनेअपने कमरों में घुस जाते या बाहर आंगन में सब साथ बैठ कर बतियाते. बहुएं भी वहीं बैठ कर कुछ न कुछ करतीं और बच्चे या तो खेलते या फिर पढ़ते पर बाबूजी के कमरे में जाने की उन्हें मनाही थी. ललिता भी अब बाबूजी का काम निबटा कर बहूबेटों के साथ आंगन में बैठने लगीं. अब बाबूजी ज्यादातर दिन भर अकेले ही पड़े रहने लगे.

पहले खबर लगते ही विजयजी के दोस्त घर में जुटने लगे थे. 3-4 दोस्त साथ आ जाते तो उन की गप्पें शुरू हो जातीं. बाबूजी का उन की बातें ही सुन कर वक्त कट जाता पर कभीकभी उन की बातें सुन कर परेशान भी होने लगते. एक दिन गुप्ताजी कहने लगे, ‘‘वैसे यह रोग है बड़ा जानलेवा, जल्दी ठीक ही नहीं होता. मेरे साढू भाई के बड़े भाई साहब को हुआ तो 10 साल बिस्तर पर पड़े रहे. हिलडुल भी नहीं पाते थे, बड़े कष्ट झेले.’’

चोपड़ा साहब ने कहा, ‘‘हां, ठीक कहते हो. कई साल पहले मेरे सगे फूफाजी इसी बीमारी को 11 साल झेल कर गुजर गए. बेचारी बूआ बहुत परेशान रहा करती थीं. पैसों की काफी तंगी हो गई थी उन्हें. सब रिश्तेदारों के आगे हाथ फैलाया करती थीं. शुरू में तो सब ने मदद की पर धीरेधीरे सब ने हाथ खींच लिए.’’

विजयजी सकते में आ गए. तो क्या इतनी वेदना से गुजरेंगे वह और उन के परिवार के लोग. अगर इतने साल बिस्तर पर पड़ेपड़े गुजारने पड़े तो कैसे गुजरेंगे पहाड़ से ये दिन. बाबूजी दिन भर सोचते कि इस दिमाग पर क्यों नहीं फालिज मार गया. कम से कम हर तकलीफ से नजात तो मिल जाती. बस, बाबूजी बेचारगी में छत को देखते रहते और दूर से आती आवाजें सुनते.

एक दिन किशन ने उन के दोस्तों की बातें सुन लीं. वह उस समय बाबूजी की मालिश कर रहा था. कई दोस्त तो उन्हें खूब तसल्ली देते परंतु कुछ एक ऐसे खरदिमाग होते हैं कि कहां क्या बात करनी चाहिए इस की समझ नहीं रखते. तो किशन ने महसूस किया कि इन दिल बैठा देने वाली बातों को सुन कर बाबूजी का रंग उड़ गया है.

उस ने बाद में सारी बातें ज्यों की त्यों मुकुल और मुकेश को सुना दीं. घर के सारे लोग बहुत खफा हुए कि हम सब तो यहां सेवा करकर के बेदम हो रहे हैं और बाबूजी के दोस्तों की कृपा रही तो वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो पाएंगे. इस के बाद जब बाबूजी के दोस्त आते तो बाबूजी अभी सो रहे हैं कह कर बाहर से ही विदा कर दिया जाता. ऐसा कई दिनों तक चला तो बाबूजी के दोस्तों ने आना ही बंद कर दिया.

अब बाबूजी सिवा डाक्टर और किशन के बाहर की दुनिया से कट गए थे.

सुमि के फोन आने पर उस से बहाने तो बना दिए जाते पर आखिर कब तक. एक दिन छोटी बहू ने बता ही दिया. सुमि बहुत नाराज हुई कि अब तक उस से छिपाया क्यों गया? क्या भाई नहीं चाहते कि वह मायके आए. भाइयों ने बहुत समझाया कि ऐसा नहीं है, वह इतनी दूर है कि आसानी से आ नहीं सकती तो उसे परेशान नहीं करना चाहते हैं, इस के अलावा न बताने के पीछे कोई और मंशा नहीं थी.

और सच में सुमि फौरन नहीं आ पाई. हां, उस के फोन अब बाबूजी के हालचाल को जानने के लिए जल्दीजल्दी आने लगे.

एक दिन जाने क्या हुआ कि बाबूजी को घर में होहल्ला, चीखपुकार सुनाई पड़ने लगी. उन के काम लोग बदस्तूर कर रहे थे पर उन्हें कोई कुछ बता नहीं रहा था. किशन की तरफ बाबूजी पूछने वाली निगाहों से देखते पर वह भी चुप ही रहता. जिज्ञासा उन्हें खाए जा रही थी.

2 दिन बाद छोटा बेटा मुकेश आया. वह बहुत तैश में था और चुपचाप उन के पास बैठ गया. उन्होंने बड़े प्यार से सवालिया निगाहों से उसे देखा.

मुकेश अचानक फट पड़ा, ‘‘बाबूजी, आप भैया को समझा दें. बातबात पर मुझ को डांटें नहीं. अब मैं बच्चा नहीं रहा. खुद बालबच्चों वाला हूं.’’

बाबूजी ने हंसने की कोशिश में होंठ फैलाने की कोशिश की, जैसे कह रहे हों, ‘अरे, बेटा, तुम कितने भी बालबच्चेदार हो जाओ, बड़ों के लिए तो तुम छोटे ही रहोगे.’

मुकेश ने फिर कहा, ‘‘भैया अब बातबात पर मुझ से उलझने की कोशिश करते हैं, यह मुझे अब बरदाश्त नहीं.’’

बाबूजी बेचारे क्या करते. समझ गए कि दोनों भाई उन की बीमारी से इतने दुखी हो चुके हैं कि अपनीअपनी भड़ास एकदूसरे पर निकालने लगे हैं.

विजयजी पेशे से वकील थे. सरकारी नौकरी उन्होंने कभी नहीं की. रोज कमाओ, रोज खाओ वाली स्थिति रही. वह मेहनती और काबिल वकील थे, तो अच्छा कमा लेते थे. बच्चों को अच्छा खिलाया, पहनाया. उन की इच्छाएं भी पूरी कीं और संस्कार भी अच्छे दिए. काफी कुछ बचाया जिस में से एक बड़ा हिस्सा बेटी के विवाह और घर बनाने में लग गया. बेटों को अलगअलग घर बना कर दे सकते थे पर उन का मानना था कि एक घर में दोनों साथसाथ रहें तो परिवार मजबूत बनेगा. उन के अनुसार दोनों के परिवार 2 नहीं वरन एक बड़ा परिवार है.

घर उन्होंने बेटी के विवाह के बाद बनाया. दोनों बेटों ने पढ़लिख कर कमाना शुरू कर दिया था. अपने घर में उन्होंने बेटे रूपी 2 मजबूत स्तंभ खड़े कर दिए थे जो इस घर की छत कभी भी गिरने नहीं देंगे.

बहुएं भी उन्होंने अपनी पसंद की चुनी थीं. मध्यम वर्ग की संस्कारी लड़कियां, जो अब तक उन की कसौटी पर खरी उतरी थीं. करुणा और ऋतु मिलजुल कर ही रहतीं, काम भी मिलजुल कर करतीं. कभी कोई कटुता दोनों के बीच आई हो ऐसा कभी नहीं लगा. अगर कोई चिल्लपों रही हो घर में तो वह घर के बच्चों के मासूम झगड़े ही थे. अपना परिवार उन का ऐसा किला था जिस को कोई भेद नहीं सकता था. बड़ा सुखद जीवन चल रहा था कि अचानक इस में पक्षाघात रूपी बवंडर आ गया.

आज अपने इस बेटे के उखड़े हुए रूप को देख कर वह दहल गए कि कहीं यह बवंडर उन के घर को तिनकेतिनके कर न ले उड़े पर एक विश्वास था उन्हें कि उन के द्वारा निर्माण किए हुए ये 2 मजबूत स्तंभ ऐसा नहीं होने देंगे, पर अब डर तो बना रहेगा ही.

ऐसे में एक दिन खबर आई कि सुमि अपने पति और बच्चों सहित आ रही है. एक नीरसता भरे वातावरण में उल्लास की लहर दौड़ गई. वह बाबूजी की बीमारी के ढाई वर्ष बाद आ पा रही थी.

सुमि आई. वह और उस के दोनों बेटे बाबूजी के पास बैठते, वहां ताश, लूडो और तरहतरह के खेल खेलते और अपने मामा के बच्चों को भी अपने साथ खेलने को उकसाते. मुकुलमुकेश के बच्चे बड़े असमंजस में पड़ गए कि क्या वे भी बाबाजी के कमरे में खेल सकते थे? इन दोनों को कोई क्यों नहीं मना करता बाबाजी के पास जाने को? पर रिश्ता ही ऐसा था कि उन पर किसी

भी प्रकार का बंधन नहीं डाला जा सकता.

सुमि के जोर देने पर मुकुल व मुकेश ने भी अपने बच्चों को बाबाजी के पास हुड़दंग मचाने की अनुमति दे दी. क्या पता ऐसे ही कुछ फायदा हो जाए. अभी तक तो पहले जैसी ही स्थिति है बाबूजी की.

यह परिवर्तन बाबूजी के लिए सुखद था. अब तक सुमि कहां थी? अब उन का मन लगने लगा. धीरेधीरे उन में जीने की इच्छा जागने लगी. गों गों का स्वर धीरेधीरे अस्फुट शब्दों में परिवर्तित होने लगा. उंगलियों में हरकत होने लगी. सभी तो खुश लग रहे थे इस सुधार से.

सुमि के वापस जाने का समय नजदीक आ रहा था. एक दिन जब सुमि और बच्चे बाबूजी के पास बैठे थे कि मुकुल व मुकेश अपनीअपनी पत्नियों के साथ आ गए. बच्चों को बाहर भेज दिया गया. बाबूजी का दिल बैठने लगा. ऐसी क्या बात है जो बच्चों के सामने नहीं हो सकती?

बड़े बेटे मुकुल ने, अटकते हुए कहना शुरू किया, ‘‘बाबूजी, हमें आप को कुछ बताना है.’’

सुमि बोली, ‘‘क्या बात है, मुकुल?’’

मुकुल बोला, ‘‘दीदी, यह बड़ी अच्छी बात है कि आप के आने से बाबूजी की स्थिति में सुधार आ रहा है, पर…’’

‘‘हां, पर क्या, बोलो?’’

मुकुल थूक निगलते हुए बोला, ‘‘दीदी, बाबूजी की बीमारी के कारण अब हम दोनों की स्थिति ठीक नहीं है.’’

वह आगे कुछ कहता कि सुमि ने आंखें तरेरीं और चुप रहने का इशारा किया पर दोनों भाई तो ठान कर आए थे, सो चुप कैसे रहते, ‘‘बाबूजी, मुकेश आप की बीमारी का कुछ भी खर्चा उठाने को तैयार नहीं है. अभी तक मैं अकेला ही सब खर्चे का बोझ उठा रहा हूं.’’

मुकेश जो अब तक चुप था बोला, ‘‘बाबूजी, आप तो जानते ही हैं कि मेरी इस के जितनी तनख्वाह नहीं है.’’

‘‘तो मैं क्या करूं, अगर आप की तनख्वाह कम है,’’ मुकुल बोला, ‘‘आखिर मुझे भी तो अपने परिवार के भविष्य का खयाल रखना है.’’

‘‘तुम्हारा अपना परिवार? लेकिन मैं तो समझती थी कि यह पूरा परिवार एक ही है, नहीं है क्या?’’ सुमि ने कहा.

‘‘दीदी, किस जमाने की बातें कर रही हो आप. अब वह जमाना नहीं है जब सब एकसाथ हंसीखुशी रहते थे. देखना कुछ सालों बाद आप का यह लाड़ला मुझ से अपना हिस्सा मांगेगा. तो जो कल होना है वह आज अम्मांबाबूजी के सामने क्यों न हो जाए?’’

‘‘कुछ तो शर्म करो तुम दोनों, बाबूजी को ठीक तो होने देते, बेशर्मी करने से पहले,’’ सुमि ने डपटा, ‘‘और अब तो बाबूजी ठीक भी हो रहे हैं. कुछ दिन और सह लो, फिर बंटवारे की जरूरत ही नहीं रहेगी. बाबूजी स्वस्थ हो जाएं तो वह भी कुछ न कुछ कर लेंगे.’’

‘‘नहीं दीदी, आप नहीं समझ रही हैं. बात खर्चे की नहीं है, नीयत की है. मुकेश की नीयत ठीक नहीं,’’ मुकुल बोल पड़ा.

‘‘सोचसमझ कर बोलिए भैया, मेरी नीयत में कोई भी खोट नहीं, यह कहिए कि आप ही निबाहना नहीं चाहते,’’ मुकेश ने बात काटी. दोनों एकदूसरे को खूनी नजरों से घूर रहे थे.

‘‘चुप रहो दोनों. बाबूजी को ठीक होने दो फिर कर लेना जो दिल में आए.’’

‘‘देखिए दीदी, आप बाबूजी की बीमारी के बारे में जानने के बाद अब 1 वर्ष बाद आ पाई हैं. अब बुलाने पर तो आप आएंगी नहीं. यह बात आप के सामने हो तो बेहतर होगा. वरना बाद में आप ने कुछ आपत्ति उठाई तो?’’ मुकेश बोला.

‘‘मुकेश,’’ सुमि चीखी, ‘‘मैं तुम दोनों की तरह बेशर्म नहीं हूं, जो ऐसी बातें करूंगी और सुन लो, मुझे अपने अम्मांबाबूजी की खुशी के अलावा कुछ नहीं चाहिए. और हां, बंटवारे के बाद अम्मांबाबूजी कहां रहेंगे, बताओ तो जरा?’’

‘‘क्यों, मुकेश के पास. वही अम्मां का लाड़ला छोटा बेटा है,’’ मुकुल ने झट कहा.

‘‘मेरे पास क्यों? आप बड़े हैं. आप की जिम्मेदारी है,’’ मुकेश ने नहले पर दहला मारा.

विजयजी की आंखों की कोरों से 2 बूंद आंसू लुढ़क गए. उन के दोनों स्तंभ बड़े कमजोर निकले. उन का अभेद्य किला आज ध्वस्त हो गया था, जाने कब से अंदर ही अंदर यह ज्वालामुखी धधक रहा था. ललिता ने भी मुझे कुछ भनक नहीं लगने दी. अंदर का ज्वालामुखी मन में दबाए मेरे आगे हमेशा हंसती रही. उन की नजरें ललिता को खोजने लगीं. वह उन्हें दरवाजे की ओट में से भीतर झांकती दिखीं. बेहद डरीसहमी हुई. दोनों बहुएं भी वहीं थीं. शायद वे भी यह सब चाहती थीं, पर उन के चेहरों पर ऐसा कुछ भी नहीं था. उन की निगाहें झुकी हुई थीं, चुप थीं दोनों.

सुमि फिर दहाड़ी, ‘‘इतना सबकुछ तय कर लिया अपनेआप, यह भी बताओ, बंटवारा कैसे करना है, यह भी तो सोच ही लिया होगा? आखिर बाबूजी तो लाचार हैं, कुछ बोल नहीं सकेंगे, तो?’’

‘‘इतना बड़ा घर है. बीच से एक दीवार डाल देंगे, जो आंगन को भी बराबरबराबर बांट दे. रसोई काफी बड़ी है, आंगन के बीचोंबीच. उस में भी दीवार डाल देंगे,’’ मुकुल ने कहा.

‘‘और अम्मांबाबूजी के बारे में भी तो तुम दोनों ने सोच ही लिया होगा. उन का क्या होगा, क्या सोचा है?’’ सुमि का चेहरा लाल हो रहा था.

‘‘दीदी, आप अमेरिका में रह कर ऐसी नादानी भरी बातें करेंगी, आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी. वहां बूढ़े और अपाहिज मातापिता का क्या करते हैं यह आप से बेहतर कोई क्या जानेगा?’’ मुकुल फुसफुसाया जो सब ने सुन लिया.

‘‘हां, भैया ठीक कह रहे हैं. आजकल यहां भारत में भी ऐसा इंतजाम है. यहां भी कई वृद्धाश्रम खुल गए हैं,’’ मुकेश ने कहा तो सुमि को लगा कि दोनों भाई कम से कम इस बारे में एकमत थे.

दोनों अपना फैसला सुना कर बाहर चल दिए. अम्मां दरवाजे के पास घुटनों में सिर दे कर बैठ गईं, सिसकते हुए अपने दिवंगत सासससुर को याद करने लगीं, ‘‘अब कहां हो अम्मांजी, बापूजी? हम तो एक बेटे एक बेटी में खुश थे. आप ही को 2-2 पोते चाहिए थे. अगर एक ही होता तो आज यह नौबत न आती.’’

सुमि दोनों हथेलियों में सिर थामे निर्जीव सी कुरसी पर ढह गई. जीजाजी, जो अब तक चुप थे, ने चुप ही रहने में अपनी भलाई समझी. कहीं यह न हो कि दोनों सालों को डांटें तो वह यह न कह दें कि जीजाजी, आप को क्या कमी है, आप क्यों नहीं ले जाते अपने साथ?

विजयजी बेबस परेशान अपने दिए संस्कारों में गलतियां खोज रहे थे. जिस भरोसे से उन्होंने अपने अटूट परिवार की नींव डाली थी, वह भरोसा ही खंडखंड हो गया था. सबकुछ तो उन के तय किए हुए खाके पर चल रहा था, शायद ऐसे ही चलता रहता, अगर उन पर इस पक्षाघात का कहर न टूट पड़ता.

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