Short Story : बीरा ने बढ़ाया अपने गांव का मान-सम्मान

Short Story : आज भी बीरा के मांबाप को भजन सिंह चेताने आए थे, ‘‘तुम अपनी बेटी को संभाल कर रखो, नहीं तो मैं उस के हाथपैर तोड़ दूंगा.’’

हर रोज बीरा किसी न किसी लड़के से झगड़ा कर लेती थी. गांव के लड़के बीरा को हमेशा छेड़ा करते थे, ‘तुम लड़के जैसी लगती हो, लेकिन तुम्हारी आवाज लड़की जैसी है. एक पप्पी नहीं दोगी…’

कोई लड़का बीरा के गाल को पकड़ लेता तो कोई मौका मिलते ही उस की छाती को भी. बीरा कभी बरदाश्त नहीं करती और मारपीट पर उतारू हो जाती. स्कूल, गलीमहल्ले, खेतखलिहान, खेल के मैदान, बीरा को हर रोज इन समस्याओं से जूझना पड़ता था.

धीरेधीरे पूरे गांव में यह प्रचार होने लगा कि बीरा किन्नर है.

इसी बीच बीरा की मां की मौत हो गई. अब तो बीरा की परेशानियों को दुनिया में समझने वाला भी कोई नहीं रहा. बीरा की मां उसे एक लड़की की तरह जिंदगी जीने का सलीका सिखाने आई थी. खाना बनाना, बरतन धोना, लड़की की तरह सिंगार करना, सबकुछ उस ने अपनी मां से सीखा था.

बीरा के पिता को लोग चिढ़ाने लगे. खुलेआम मजाक उड़ाने लगे, ‘तेरी बेटी किन्नर है. इस ने तो गांव की नाक कटवा दी है. आज तक इस गांव में कोई किन्नर पैदा नहीं हुआ है.’

बीरा के पिता का भी बरताव बदलने लगा. जैसेजैसे बीरा के कदम जवानी की तरफ बढ़ने लगे, गांव के लड़के उस की तरफ खिंचने लगे और मौका मिलते ही और ज्यादा छेड़ने लगे. बीरा इन हरकतों से तंग आ चुकी थी.

एक दिन बीरा के पिता ने कहा, ‘‘तुम घर से निकल जाओ. रोजरोज के झगड़ों से मैं तंग आ चुका हूं.’’

बीरा भी अपने परिवार वालों का रुख देख कर घर से निकल गई और बिना मंजिल के एक ट्रेन पकड़ ली. उसे मालूम नहीं था कि कहां जाना है.

बीरा आसनसोल स्टेशन पहुंची, जहां किन्नरों की हैड से उस की मुलाकात हुई. उस ने खाना खिलाया, प्यार से बातें कीं और ट्रेन में ही गाने गा कर लोगों से पैसा वसूलने का हुनर सिखाया.

बीरा अब पैसा तो कमाती थी, लेकिन उस का सुख नहीं भोगती थी, क्योंकि सारा पैसा किन्नर की हैड ले लेती. वह 4 महीने तक आसनसोल में रही. वह वहां की जिंदगी से भी तंग आ चुकी थी.

एक दिन किसी को बिना बताए बीरा पटना चली आई. वहां उस की रेशमा नामक समाजसेवी किन्नर से मुलाकात हुई. रेशमा ने बीरा के दर्द को समझने की कोशिश की.

बीरा पढ़ना चाहती थी. रेशमा ने उस का बीए में दाखिला करा दिया. वह मन लगा कर पढ़ने लगी. अपना खर्च निकालने के लिए वह शादीब्याह और पर्वत्योहार के मौके पर आरकैस्ट्रा में नाचगाने का काम भी करने लगी.

बीए करने के बाद बीरा ने कोचिंग की और बीपीएससी की तैयारी करने लगी. पहली बार में वह नाकाम हुई, पर दूसरी बार बीपीएससी पास कर गई. उस की बहाली बीडीओ के पद पर हुई. उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस ने अपने साथियों को जम कर पार्टी दी.

बीरा के पिता को जब गांव वालों से मालूम हुआ तो उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि जिसे वे और गांव वाले हिकारत की नजर से देखते थे, वह बीरा पढ़लिख कर अफसर बन जाएगी.

गांव वालों द्वारा यह सूचना भी उन्हें चिढ़ाने जैसी ही लगी. पर उन के गांव का ही एक लड़का बीरा से मिलवाने के लिए उन्हें ब्लौक दफ्तर ले गया. पिता को गलती का एहसास हुआ.

बीरा ने अपने पिता से गांव का हालचाल पूछा और यह भी बोली, ‘‘पिताजी, अब आप को गांव के लोग यह कह कर नीचा नहीं दिखाएंगे कि आप की बेटी किन्नर है.’’

बीरा ने यह भी पूछा कि गांव की मुख्य समस्या क्या है? पिता ने कहा, ‘‘गांव में स्कूल नहीं है.’’

बीरा ने अपने पैसे से गांव में स्कूल खुलवाने का वादा किया. 6 महीने के अंदर बीरा ने बच्चों को पढ़ने के लिए अपने पैसे से गांव में स्कूल खुलवाया, जहां गांव के बच्चे मुफ्त में पढ़ने लगे.

गांव वालों ने बीरा से माफी मांगते हुए उसे सम्मानित किया. सम्मान समारोह में लोगों ने यही कहा कि उन के गांव में आज तक कोई ऐसा लड़का या लड़की नहीं पैदा हुई, जो हमारे गांव का नाम रोशन कर सके. बीरा ने इस गांव का मानसम्मान बढ़ाया है.

Short Story : कोठा – उस लड़की ने धंधा करने से क्यों मना कर दिया

Short Story : ‘‘अरे  रामू, क्या हुआ?’’ चनकू बाई ने पूछा.

‘‘यह लड़की धंधा करने को तैयार नहीं हो रही है,’’ रामू ने कहा.

रामू की बात सुन कर चनकू बाई कुछ सोचने लगी. कुछ याद आते ही वह बोली, ‘‘रामू, फौरन डीडी को बुलाओ, वही चुटकियों में ऐसे केस हल कर देता है.’’

डीडी उर्फ दामोदर गांव का एक सीधासादा नौजवान था. गांव के ऊंचे घराने की लड़की से उसे इश्क हो गया था. वह लड़की भी उसे बहुत प्यार करती थी. लेकिन उन दोनों के प्यार के बीच दौलत की दीवार थी, जिसे दामोदर तोड़ न सका.

दामोदर के सामने ही उस की प्रेमिका किसी और की हो गई. उस दिन दामोदर बहुत रोया था. उसे एहसास हो गया था कि दौलत के बिना इनसान अधूरा है. उस के पास दौलत होती, तो शायद उस का प्यार नहीं बिछुड़ता.

अपने प्यार का घरौंदा उजड़ते देख कर दामोदर ने फैसला किया कि वह बहुत दौलत कमाएगा, चाहे यह दौलत पाप की कमाई ही क्यों न हो.

इश्क में हारा दामोदर घर में अपने मांबाप से बगावत कर के शहर में

दौलत कमाने का सपना ले कर मुंबई आ गया.

मुंबई में दामोदर बिलकुल अकेला था. काम की तलाश में वह बहुत भटका, मगर उसे काम नहीं मिला.

एक दिन दामोदर की मुलाकात रामू से हो गई. दामोदर ने उसे अपनी आपबीती सुनाई, तो रामू को अपनापन महसूस हुआ.

वह बोला, ‘‘मैं तुम्हें काम दिला सकता हूं, पर उस काम में जोखिम बहुत है और पुलिस का डर भी है.’’

‘‘मो सिर्फ पैसा चाहिए, काम चाहे कितना भी खतरनाक ही क्यों न हो.’’

दामोदर की बात सुन कर रामू ने एक बार उसे ऊपर से नीचे तक देखा. वह समा चुका था कि दामोदर के सिर पर दौलत कमाने का भूत सवार है. इस से कुछ भी काम कराया जा सकता है.

रामू दामोदर को ले कर चनकू बाई के कोठे पर पहुंचा.

चनकू बाई ने दामोदर से बात की, फिर उसे एक वैन दे दी, जिस से वह लड़कियां सप्लाई करने लग पड़ा.

इस काम में दामोदर को अच्छीखासी रकम मिलती थी. अब रामू व दामोदर एकसाथ रहने लगे थे. उन दोनों में गहरी दोस्ती भी हो गई थी.

कुछ ही दिनों में दामोदर ने अपनी मेहनत से चनकू बाई के दिल में अच्छीखासी जगह बना ली थी. अब चनकू बाई दामोदर को डीडी के नाम से पुकारती थी.

डीडी उर्फ दामोदर को चनकू बाई का संदेश मिला और वह फौरन कोठे पर पहुंचा.

रामू ने लड़की के बारे में दामोदर को सबकुछ बता दिया.

दामोदर दरवाजा खोल कर कमरे में आया. उस ने फर्श पर पड़ी लड़की को उठाना चाहा, मगर वह बेहोशी की हालत में थी. उस का जिस्म किसी गरम भट्ठी की तरह तप रहा था.

‘‘बाई, इस लड़की को तो काफी

तेज बुखार है. किसी डाक्टर को दिखाना होगा,’’ दामोदर ने कहा.

‘‘इस कोठे पर कौन डाक्टर आएगा…’’ चनकू बाई परेशान होते हुए बोली.

‘‘फिर?’’ रामू ने पूछा.

‘‘ठीक है बाई, मैं इस लड़की को घर ले जाता हूं, वहां किसी डाक्टर को दिखा लूंगा. जब यह ठीक हो जाएगी, तो कोठे पर ले आऊंगा,’’ दामोदर बोला.

दामोदर की बात से रामू और चनकू बाई दोनों राजी थे.

दामोदर लड़की को अपने घर ले आया. उस का घर बहुत छोटा था.

उस के साथ लड़की देख कर महल्ले वाले यह समो कि शायद यह उस की बीवी है.

डाक्टर ने आ कर लड़की को दवाएं दे दीं. बुखार उतर नहीं रहा था.

दामोदर पूरी रात उस लड़की के माथे पर पट्टियां रखता रहा.

दामोदर की मेहनत रंग लाई. सुबह लड़की को होश आ गया. दामोदर ने उसे कुछ दवाएं खाने को दीं. नानुकर के बाद लड़की ने दवा खा ली.

दोपहर तक लड़की पूरी तरह से होश में आ चुकी थी. उस ने अपना नाम रजनी बताया. बचपन में ही उस के पिता की मौत हो चुकी थी.

रजनी की मां ने बेटी को पालने के लिए दूसरी शादी कर ली. शादी के कुछ साल बाद ही रजनी की मां की मौत हो गई.

मां की मौत के बाद से ही रजनी के सौतेले बाप ने उसे तंग करना शुरू कर दिया था. पिता से आजिज हो चुकी रजनी गांव के एक नौजवान को दिल दे बैठी.

उस नौजवान ने रजनी को शहर की चमकदमक के सुनहरे सब्जबाग दिखाए. वह रजनी को बहलाफुसला कर शहर ले आया और धोखे से कोठे पर बेच दिया था.

दामोदर ने रजनी की कहानी बड़े गौर से सुनी. आज तक उस ने जितनी भी लड़कियों को धंधे में उतारा था, उन में से किसी की भी कहानी नहीं सुनी थी.

थोड़ी देर के बाद दामोदर दरवाजे पर बाहर से ताला लगा कर खाना लेने होटल चला गया.

कुछ देर बाद ही दामोदर खाना ले कर लौटा. रजनी ने खाना खाया. उस के बाद वह तख्त पर लेट गई. दामोदर भी फर्श पर चटाई बिछा कर पुराना सा कंबल ले कर लेट गया.

रजनी की सेहत दिन ब दिन सुधरने लगी थी. दामोदर रोज घर के बाहर ताला लगाने के बाद कोठे पर जा कर चनकू बाई को रजनी की सेहत के बारे में बताता था.

एक दिन दामोदर जल्दी में बाहर से ताला लगाना भूल गया. जब वह शाम को घर लौटा, तो उस ने खुला दरवाजा देखा. उस के मानो होश उड़ गए. उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. लेकिन रजनी घर पर ही थी.

‘‘रजनी, आज तो भागने का मौका था. तुम भागी क्यों नहीं?’’

दामोदर की बात सुन कर रजनी मुसकराते हुए बोली, ‘‘भाग कर जाती भी तो कहां? अब तो दुनिया के सभी दरवाजे मेरे लिए बंद हो गए हैं.’’

रजनी के ये शब्द दामोदर के दिल में तीर की तरह चुभ गए थे.

‘‘लो, खाना खा लो,’’ दामोदर ने खाने का पैकेट रजनी को देते हुए कहा.

‘‘नहीं, आज मैं ने घर पर ही खाना बना लिया था. आप हाथमुंह धो लीजिए. मैं खाना परोसती हूं,’’ रजनी बोली.

दामोदर ने रजनी के हाथ का बना खाना खाया. आज पहली बार मां के बाद उस ने किसी दूसरी औरत के हाथ का बना स्वादिष्ठ खाना खाया था.

खाना खाने के बाद दामोदर पुराना कंबल ले कर जमीन पर लेट गया. रजनी भी तख्त पर लेट गई. पर उन दोनों को नींद नहीं आ रही थी. वे दोनों अपनीअपनी जगह पर करवटें बदलते रहे.

सर्दी भरी रात में दामोदर ठंड से सिकुड़ता जा रहा था, लेकिन रजनी जाग रही थी.

रजनी लेटे हुए ही दामोदर को देख रही थी, शायद दामोदर सो चुका था.

रजनी ने अपनी रजाई उठाई और वह भी दामोदर के साथ सो गई.

सुबह जब दामोदर की आंख खुली, तब तक काफी देर हो चुकी थी. रजनी ने अपना सबकुछ दामोदर को सौंप दिया था. दामोदर अपनी इस गलती के लिए शर्मिंदा था.

दामोदर तैयार हो कर जैसे ही कोठे पर जाने के लिए निकला, सामने रामू अपने गुरगे ले कर पहुंच गया. वह रजनी को लेने आया था, पर दामोदर ने रजनी के बीमार होने की बात कही और उन के साथ कोठे पर चला गया.

अब दामोदर रजनी को कोठे पर नहीं लाना चाहता था. शायद उसे रजनी से प्यार हो गया था.

दामोदर ने अपने प्यार वाली बात रामू को बताई. रामू ने दामोदर को चनकू बाई के कहर का वास्ता दिया और आगे से ऐसी गलती न करने की राय भी दी.

दूसरे दिन रामू जीप ले कर रजनी को लेने दामोदर की खोली में पहुंचा, तो दामोदर वहां नहीं था. उस के कमरे के बाहर ताला लटका देखा. रामू तो समा गया कि दामोदर रजनी को ले कर कहीं भाग गया है.

जब यह खबर चनकू बाई को मिली, तो वह गुस्से से तिलमिला उठी. उस ने फौरन शहर में गुंडे फैला दिए थे, ताकि दामोदर और रजनी शहर से बाहर न जाने पाएं.

अब सारे शहर में चनकू बाई के आदमी घूम रहे थे, पर दामोदर और रजनी का कहीं अतापता नहीं था.

रामू भी कुछ आदमियों को ले कर रेलवे स्टेशन पर तलाश कर रहा था. हथियारों से लैस चनकू बाई के आदमी टे्रन के हर डब्बे की तलाशी ले रहे थे.

रामू जैसे ही डब्बे में घुसा, सामने दामोदर और रजनी को देख कर ठिठक गया था. रजनी किसी अमरबेल की तरह दामोदर से चिपकी थी.

रामू को देख कर वह कांप उठी. दामोदर भी रामू की आंखों में आंखें डाले देख रहा था. उधर ट्रेन चलने के लिए हौर्न दे रही थी.

‘‘रामू, वे इस डब्बे में हैं क्या?’’ चनकू बाई के किसी आदमी ने चिल्ला कर पूछा.

‘‘नहीं, इस डब्बे में कोई नहीं है. चलो, कहीं दूसरी जगह ढूंढें़.’’

रामू की यह बात सुन कर दामोदर और रजनी की जान में जान आई.

रामू ट्रेन से नीचे उतर गया था. वह खिड़की के पास से गुजरते हुए बोला, ‘‘जाओ मेरे दोस्त, तुम्हें नई जिंदगी मुबारक हो. तुम दोनों हमेशा खुश रहो. इस दलदल से निकल कर एक नई जिंदगी जीओ.’’

ट्रेन चल चुकी थी. दामोदर ने खिड़की से बाहर देखा. रामू जीप स्टार्ट कर के चनकू बाई के आदमियों के साथ दूर जा चुका था.

Short Story : प्यार और दौलत

Short Story : आंगन में धमधम की आवाज से मोहिनी यह समझ गई कि रामजीवन आ गया है. अपने यकीन को पुख्ता करने के लिए वह उठी और देखा कि आंगन में एक मिट्टी का ढेला पड़ा है, क्योंकि आज रामजीवन के आने पर इसी इशारे का वादा था. रामजीवन और मोहिनी का प्यार परवान पर था. रामजीवन के बगैर मोहिनी एक पल भी नहीं रहना चाहती थी. लेकिन मोहिनी के घर वाले रामजीवन की कहानी जानते थे.

रामजीवन सही आदमी नहीं था. वह झोलाछाप डाक्टरी के अलावा और भी गैरकानूनी धंधे करता था. उस ने दहेज के लालच में अपनी बीवी तक को मार डाला था. लेकिन न जाने मोहिनी पर रामजीवन का कौन सा जादू छाया था. वैसे रामजीवन था तो मोहिनी की बिरादरी का ही, मगर मोहिनी के घर वाले अपनी बेटी पर उस की छाया भी नहीं पड़ने देना चाहते थे.

मोहिनी का पूरा परिवार पढ़ालिखा था. भाई भी नौकरी करते थे और खुद मोहिनी भी इंटर पास थी. रामजीवन को आया जान मोहिनी घर के जेवर व नकदी एक थैले में डाल कर छत पर चढ़ गई. घर के सभी लोग सो रहे थे. सारे गांव में सन्नाटा था. आज गली के कुत्तों को भी नींद आ गई थी. उन का भूंकना बंद था. वह धीरेधीरे चलती हुई पिछवाड़े की मुंड़ेर पर पहुंच गई. रामजीवन वहीं खड़ा इंतजार कर रहा था.

मोहिनी रामजीवन की बांहों में जल्द से जल्द समा जाना चाहती थी. पड़ोस की खपरैल से होते हुए वह रामजीवन के बहुत नजदीक पहुंच गई. रामजीवन ने उस का थैला थामा और उसे एक ओर रख कर अपने हाथों का सहारा दे कर मोहिनी को भी नीचे उतार लिया.

रात आधी से ज्यादा बीत गई थी. दोनों सारी रात चलते रहे. सुबह होने तक वे एक काफी सुनसान जगह पर आ कर रुक गए. सवेरा हो गया था. जहां वे लोग रुके थे, वहीं पास में ही रामजीवन का खेत था, जहां रामजीवन के खास साथी डेरा डाल कर रहते थे. मोहिनी को वहीं छोड़ रामजीवन अपने एक साथी को ले आया.

उस साथी को मोहिनी के पास बैठा कर रामजीवन खुद खाना लाने के बहाने एक ओर चला गया. जातेजाते रामजीवन ने मोहिनी से झोले में क्याक्या है, जानना चाहा था. तब मोहिनी ने बताया था कि 80 हजार की नकदी और सोनेचांदी के जेवर हैं.

एक नजर थैले पर डाल मोहिनी को तसल्ली देते हुए वह बोला, ‘‘इसे मैं अपने साथ लिए जा रहा हूं. कुछ नकद का और इंतजाम कर के मैं शाम तक आ जाऊंगा, फिर कहीं दूर चले जाएंगे.’’ वहां बैठा साथी, जिस का नाम शंकर था, उन की बातें गौर से सुन रहा था. शंकर जानता था कि आज ठाकुर सोने की चिडि़या फांस कर लाए हैं लेकिन वह चुप था.

दिन बीता रात आई लेकिन रामजीवन नहीं आया. अब शंकर से रहा नहीं गया. वह बोला, ‘‘कहां रहती हैं आप?’’ ‘‘किशनपुर में,’’ मोहिनी ने जवाब दिया.

‘‘अच्छा, जहां मालिक डाक्टरी करते हैं?’’ शंकर ने पूछा. मोहिनी चुप रही.

शंकर ने फिर पूछा, ‘‘क्या नाम है आप का?’’ ‘‘मोहिनी,’’ उस ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘जैसा नाम वैसा गुण,’’ शंकर कहे बिना नहीं रह सका. सचमुच वह रात में चांदनी की तरह चमक रही थी. शंकर ने पूछा, ‘‘घर क्यों छोड़ा आप ने?’’ मोहिनी ने लजा कर कहा, ‘‘तुम्हारे मालिक के साथ रहने के लिए.’’

शंकर मन ही मन सोच रहा था, ‘अजब जादू चलाया है मालिक ने. न जाने क्या हाल होगा इस का?’ फिर उस ने सोचा, ‘बेवकूफ लड़की, तू ने ठीक नहीं किया. मांबाप हमेशा अपनी औलाद का भला ही चाहते हैं, बुरा तो सपने में भी नहीं सोच सकते. कसाई भी अपने बच्चों को खुश व सुखी देखना चाहते हैं.’ मन ही मन शंकर चुप ही रहा. इसी दौरान किसी के पैरों की आहट से उन का ध्यान बंटा.

रात के 10 बजे होंगे. दोनों चौकन्ने हो गए. दूर कहीं सियार की डरावनी आवाज सुनाई दे रही थी. पास आता एक चेहरा अब साफ दिखाई दे रहा था, यह रामजीवन ही था. नजदीक आ कर रामजीवन शंकर को एक ओर ले गया, जहां उस ने शंकर की छाती पर रामपुरी चाकू रख दिया. शंकर के पैरों तले जमीन खिसकने लगी, सामने मौत जो खड़ी थी. उस का हलक सूख गया था.

रामजीवन ने कहा, ‘‘मरना चाहते हो कि…’’ शंकर की सूखी जबान से खरखराती आवाज निकली, ‘‘म… म… म… मालिक.’’

‘‘ले चाकू और मार दे उस लड़की को. नहीं तो तू भी फंसेगा और मैं भी. पुलिस हम दोनों को ढूंढ़ रही है,’’ रामजीवन ने धीरे से, पर कड़कती आवाज में कहा. ‘‘न… न… नहीं मालिक, यह काम मैं नहीं कर पाऊंगा. मैं ने कभी मुरगी तक नहीं…’’ शंकर हकलाया.

‘‘तो ले, तू ही मरने को…’’ शंकर अब तक संभल चुका था. वह सहमते हुए बोला, ‘‘मालिक, चाहे मुझे मार दो, मगर मुझ से यह काम नहीं होगा.’’

रामजीवन कुछ ढीला हो कर बोला, ‘‘एक शर्त पर तू बचेगा. तू किसी से कुछ नहीं कहेगा. जो मैं कहूंगा वही करेगा.’’ ‘‘हर शर्त मंजूर है मालिक,’’ शंकर ने डरते हुए कहा.

‘‘आओ,’’ ऐसा कहते हुए रामजीवन मोहिनी के पास गया. शंकर दूर खड़ा अनहोनी का अंदाजा लगा रहा था. रामजीवन मोहिनी को एक टीले की ओर ले गया. दूर झींगुरों की आवाज से रात और भी डरावनी हो रही थी.

प्यार में अंधी मोहिनी चहकती हुई उस की ओर बड़ी अदा से बलखाती सी जाने लगी, क्योंकि उसे लग रहा था कि टीले की ओट में वह उसे बहुत प्यार करेगा. उस की भरी जवानी का रस पीएगा. आज कई दिनों बाद सबकुछ करने का एक अच्छा मौका जो मिला है. वह रामजीवन की बांहों में समा जाने को मचल रही थी. मगर यह क्या, जैसे ही मोहिनी रामजीवन के गले लगी तो आसमान कांप उठा. रामजीवन ने प्यार करने के बजाय एक हाथ से मोहिनी के जिगर में रामपुरी चाकू घुसेड़ दिया और दूसरे हाथ से उस का मुंह कस कर दबोच लिया.

मोहिनी चीख भी नहीं सकी. उस की चीख अंदर ही अंदर दब कर रह गई. जब वह निढाल हो गई, तब कहीं रामजीवन ने उसे छोड़ा. शंकर चुपचाप एक कसाई के हाथों गऊ जैसी मोहिनी को हलाल होते देख रहा था. जिस के जिस्म से खेला, जो लाखों की दौलत ले कर घरपरिवार, रिश्तेदारों को छोड़ कर आ गई थी, आज उसी मोहिनी के लिए रामजीवन कालिया नाग बन गया था.

‘‘खड़ेखड़े क्या देख रहा है? ले, इस की लाश उठा उधर से,’’ रामजीवन की आवाज से शंकर सोते सा जगा और मशीन की तरह उस ने मोहिनी को एक तरफ से उठा लिया. फिर दोनों उसे एक ढलान पर ले गए. ढलान में एक गहरा गड्ढा देख कर शंकर समझ गया कि रामजीवन अभी तक क्या कर रहा था. उसी गड्ढे में मोहिनी को हमेशा के लिए दफना दिया गया मानो प्यार की दौलत ही दफना दी हो.

Hindi Story : सुबह का भूला

Hindi Story : ‘‘सुनो जरा, आज रमा दीदी के यहां लेडीज संगीत का प्रोग्राम है, इसलिए दोपहर को अस्पताल से जल्दी घर आ जाना. शाम को 5 बजे निकल चलेंगे. यहां से 80 किलोमीटर ही तो दूर है, शाम के 7 बजे तक पहुंच ही जाएंगे.’’

‘‘नहीं सीमा, यह कैसे मुमकिन होगा… शाम को 6 बजे से अपना क्लिनिक भी तो संभालना होगा. कितने मरीज दूसरे शहरों से आते हैं. सभी को परेशानी होगी,’’ डाक्टर श्रीधर ने अपनी परेशानी सीमा को बताई.

‘‘मतलब, आप को लौटतेलौटते तो रात के 9-10 बज जाएंगे और उस के बाद अगर हम जाएंगे भी तो प्रोग्राम खत्म होने के बाद ही पहुंचेंगे,’’ सीमा निराश हो कर बोली.

सीमा को अपनी बड़ी बहन रमा की बेटी की शादी में जाने का बड़ा ही मन था.

‘‘सीमा, तुम सम झने की कोशिश करो न कि एक डाक्टर पर समाज की कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है. वह अपनी जिम्मेदारियों से कैसे मुंह मोड़ सकता है…’’ श्रीधर सीमा को सम झाने के लहजे में बोला.

‘‘उस जिम्मेदारी को निभाने के लिए तो सरकार ने तुम्हें सरकारी अस्पताल में नौकरी दे रखी है. क्लिनिक पर तो तुम ज्यादा पैसा पाने के लिए ही तो जाते हो न?’’ सीमा ने उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, तुम्हीं लोगों के लिए तो कर रहा हूं. अभी श्रीशिव 6 साल का ही तो है. कल जब वह बड़ा होगा तो उस की पढ़ाईलिखाई के लिए जिन पैसों की जरूरत होगी, उन का इंतजाम भी तो अभी से करना होगा,’’ श्रीधर अपने समय पर न आ पाने की दलील को सही ठहराने के नजरिए से बोला.

‘‘तो फिर वहां जाने का प्रोग्राम कैंसिल करते हैं,’’ सीमा काफी निराश लहजे में बोली.

‘‘नहीं सीमा, प्रोग्राम कैंसिल करने की जरूरत नहीं है. वैसे भी शादी तो कल ही है, इसलिए कल सुबह 5 बजे हम यहां से निकल चलेंगे और जल्दी ही पहुंच जाएंगे.

‘‘वैसे भी शादीब्याह जैसे कार्यक्रम का मतलब अपने सभी नातेरिश्तेदारों, जानपहचान वालों से मुलाकात करना होता है, खाना, नाचनागाना नहीं.

‘‘शाम को 5 बजे तक मैं वहां से निकल जाऊंगा और फिर अपना क्लिनिक संभाल लूंगा. तुम शादीविदाई की रस्मों तक वहीं रुकना. कार्यक्रम खत्म होते ही मैं ड्राइवर और गाड़ी पहुंचा दूंगा,’’ श्रीधर ने अपनी योजना सम झाई. सीमा ने मन मार कर हां कर दी.

श्रीधर के पिता गांव के एक मिडिल स्कूल में टीचर थे. उसी गांव में उन की थोड़ीबहुत जमीन थी, इसीलिए वे गांव में ही रहते थे. गांव में एक प्राइमरी हैल्थ सैंटर था, जो समय से खुल कर बंद हो जाता था. डाक्टर पास के शहर से रोज आतेजाते थे. इस के अलावा गांव में कोई एंबुलैंस नहीं थी.

श्रीधर के दादाजी की मौत भी समय पर पूरा इलाज न मिलने के चलते हुई थी. इसी वजह से श्रीधर के पिताजी उसे डाक्टर बना कर गांव में लाना चाहते थे, ताकि गांव वालों को समय पर इलाज मिल सके.

मैडिकल की डिगरी मिल जाने के फौरन बाद ही श्रीधर की पहली बहाली एक ब्लौक लैवल के सरकारी अस्पताल में हो गई.

सीमा से शादी के समय वह इसी अस्पताल में थे. सीमा के परिवार वाले दबदबे वाले थे और उन्होंने श्रीधर का ट्रांसफर इस मैट्रो सिटी में करा दिया.

यहीं पर सरकारी नौकरी करतेकरते श्रीधर ने अपना क्लिनिक खोल लिया. आज हालात यह है कि श्रीधर 10,000 रुपए रोज तो कमा ही लेते हैं. यही वजह है कि श्रीधर सरकारी अस्पताल से छुट्टी ले कर शादी में तो जाना चाहते हैं, पर अपना क्लिनिक और प्रैक्टिस छोड़ना नहीं चाहते हैं.

सुबह के 5 बजे अच्छाखासा अंधेरा था. कुछ देर पहले बारिश भी हो चुकी थी. श्रीशिव को आगे बैठना पसंद था इसलिए वह ड्राइवर के साथ आगे बैठ गया. सीमा व श्रीधर पीछे बैठ गए.

सुबह का समय था, इसलिए रोड पर टै्रफिक न के बराबर था. ड्राइवर ने म्यूजिक सिस्टम भी औन कर दिया था. पीछे बैठे श्रीधर व सीमा नींद में ऊंघ रहे थे.

अभी तकरीबन 40-50 किलोमीटर ही आए थे कि सड़क की साइड में एक ढाबे के पास खड़ा ट्राला चलने लगा और शायद कंट्रोल न होने के चलते बीच सड़क पर लहराने लगा. तेज रफ्तार से आ रही श्रीधर की कार को रोकना नामुमकिन था. काफी खतरनाक हादसा हुआ था. ट्राला वाला अपना ट्राला ले कर भाग चुका था.

तेज रफ्तार के चलते कार का अगला हिस्सा पूरी तरह टूट गया था. श्रीशिव व ड्राइवर की हालत गंभीर थी और काफी खून निकल रहा था. श्रीधर व सीमा को भी गंभीर चोटें आई थीं, पर वे दोनों होश में थे. चीखनेचिल्लाने की आवाज सुन कर आसपास से काफी लोग मदद के लिए आ गए थे.

सीमा व श्रीधर को तुरंत बाहर निकाल लिया गया. वे दोनों बदहवास हालत में थे. श्रीशिव व ड्राइवर को निकालने की कोशिशें की जा रही थीं, पर डैश बोर्ड के बीच फंसे होने के चलते बहुत दिक्कतें आ रही थीं.

जैसे ही श्रीधर सामान्य हुए, तो उन्होंने पूछताछ शुरू की. पता चला कि यह एक छोटा सा गांव है. तकरीबन सवा सौ घर हैं और सब से नजदीक प्राथमिक स्वास्थ केंद्र यहां से 5 किलोमीटर दूर है. वहां पर भी डाक्टर मिलेगा या नहीं, कह नहीं सकते.

श्रीधर ने तुरंत ही अपने सरकारी अस्पताल में फोन किया और एंबुलैंस भेजने के लिए कहा. फिर भी एंबुलैंस के आ कर वापस जाने में कम से कम डेढ़ घंटा तो लग ही सकता था. अब तक श्रीशिव को कार से बाहर निकाला जा चुका था.

श्रीधर ने उसे चैक किया. श्रीशिव की अभी मंदमंद सांसें चल रही थीं. अगर अभी औक्सिजन दी जाए तो शायद जान बच जाए. श्रीधर अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे. अब तक ड्राइवर को भी निकाला जा चुका था, पर वह अब इस दुनिया में नहीं था.

दूर से आती एंबुलैंस की आवाज से श्रीधर को कुछ उम्मीद बंधी. एंबुलैंस रुकी और जैसे ही स्ट्रैचर निकाला जाने लगा, बेटे श्रीशिव ने अपनी अंतिम सांसें लीं.

‘‘अगर आज गांव में डाक्टर होता, एंबुलैंस होती तो शायद इन दोनों की जानें बच जातीं,’’ भीड़ में से कोई कह रहा था.

‘‘अरे, डाक्टर इस छोटे से गांव में क्यों आएंगे? उन्हें तो मलाई चाहिए, जो सिर्फ शहरों में ही मिलती है,’’ किसी और ने कहा.

‘‘जब डाक्टरी की पढ़ाई करते हैं, तब कसम खाते हैं कि जन सेवा करेंगे, पर डिगरी मिलते ही सब भूल जाते हैं और सिर्फ धन सेवा करते हैं,’’ तीसरे आदमी ने कहा.

इसी तरह की और भी बातें हो रही थीं, जो श्रीधर को साफ सुनाई नहीं दे रही थीं.

श्रीधर को भी वह सब याद आ रहा था कि पिताजी ने किस वजह से उसे मैडिकल की पढ़ाई करने के लिए भेजा था.

दादाजी की मौत की सारी घटना उस की आंखों के सामने घूम गई. आज इतिहास ने खुद को दोहरा दिया. पिछली बार मौत उस के दादा को ले गई थी, इस बार बेटे को.

बेटे श्रीशिव की मौत के क्रियाकर्मों को निबटाने के बाद जब पिताजी वापस गांव जाने लगे तो श्रीधर ने उन से कहा, ‘‘मैं वापस गांव लौटना चाहता हूं. वहां लोगों की सेवा करना चाहता हूं.’’

‘‘पर, वहां तुम्हें इतने पैसे कमाने के मौके नहीं मिलेंगे,’’ पिताजी ने साफ शब्दों में जवाब दिया.

‘‘अब पैसा कमा कर भी क्या करना है. मेरी जानकारी अपने ही गांव के लोगों के काम आ जाए, तो मैं अपनेआप को धन्य सम झूंगा,’’ श्रीधर ने साफसाफ लहजे में जवाब दिया.

‘‘तुम्हारा स्वागत है. अगर तुम्हारे जैसा हर डाक्टर सोच ले तो गांव से बेचारे गरीबों को छोटीछोटी बीमारियों के इलाज के लिए दौड़ कर शहर नहीं आना पड़ेगा. इस से शहर के डाक्टर का भी बोझ कुछ कम होगा और सभी को बेहतर इलाज मिल पाएगा,’’ पिताजी एक सांस में सब बोल गए.

दूसरे दिन औफिस जाते ही श्रीधर ने सब से पहले अपने कई अफसरों को चिट्ठी लिख कर अपने फैसले की सूचना दी और अपने ही गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ट्रांसफर करने का अनुरोध किया.

सीमा का मन महीनों तक बुझा रहा, पर फिर जब अगले चुनावों में उसे निर्विरोध सरपंच चुन लिया गया तो उस की सब शिकायतें खत्म हो गईं.

आम जनता के निकट आने पर उसे पता चला कि जनता की समस्याएं आखिर वैसी हैं और कितना भी करो कम हैं. उसे खुशी हुई कि वे दोनों कम से कम कोशिश तो कर रहे हैं.

Hindi Story : सनक

Hindi Story : सुनयना के पिता नृपेंद्रनाथ ने जो मकान बनवाया था वह काफी लंबाचौड़ा और शानदार था. लोग उस की कीमत 8 लाख रुपए के आसपास आंकते थे, पर नृपेंद्रनाथ उस की लागत दोढाई लाख ही बताते थे. मकान के अलावा बैंक में जमा धन था. गृहस्थी की हर नई से नई वस्तु मौजूद थी.

नृपेंद्रनाथ राजकीय सेवा में थे और एक विभाग में निरीक्षक थे. ऊपरी आमदनी का तो पता नहीं, पर उन के पास जो कुछ भी था, उसे मात्र वेतन से एकत्र नहीं कर सकते थे. वह कहा भी करते थे कि नौकरी तो उन्होंने शौक के लिए की है. गांव में उन के पास काफी कृषि भूमि है, बाग हैं और शानदार हवेली है. उसी की आमदनी से भरेपूरे हैं.

किसी को फुरसत न थी सुदूर गांव जा कर, अपना खर्चा कर के, नृपेंद्रनाथ की जायदाद का पता लगाए. जरूरत भी क्या थी? इस कारण नृपेंद्रनाथ की बात सच भी माननी पड़ती थी.

सुनयना उन की एकमात्र कन्या थी. 2 पुत्र भी थे. सुनयना तो किसी प्रकार स्नातक हो गई थी, पर बेटों ने शिक्षा की अधिक आवश्यकता महसूस नहीं की थी. जरूरत भी क्या थी? जब पिता के पास ढेर सारा धन हो, जायदाद हो तो शिक्षा का सिरदर्द मोल लेना उचित नहीं होता. वे दोनों भी वही सोचते थे जो आमतौर पर अपने देश में भरपूर धन और जायदाद वालों के पुत्र सोचते हैं.

सुनयना के नाकनक्श अच्छे थे. बोली भी अच्छी थी. केवल कमी थी तो यह कि रंग गहरा सांवला था. आर्थिक रूप से कमी न होने के कारण उस ने गृहकार्य सीखने की आवश्यकता नहीं समझी थी.

सुनयना की मां स्नेहलता तो उस के ब्याह के लिए नृपेंद्रनाथ को तभी से कोंचने लगी थी जब उस ने 18वें में कदम रखा था. यह नहीं कि नृपेंद्रनाथ को चिंता नहीं थी. थी और बहुत थी. वह जैसा चाहते थे वैसा वर नहीं दिखाई दे रहा था. जिस का भी पता लगता, वह उन की शर्तों पर खरा नहीं उतरता था.

नृपेंद्रनाथ चाहते थे कि लड़का भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो. उच्च ब्राह्मण कुल का हो. गोश्त, प्याज, लहसुन आदि न खाता हो. शराब न छूता हो. शानदार व्यक्तित्व का मालिक हो.

ऐसे दामाद की कीमत वह डेढ़ लाख स्वयं लगा चुके थे. 2 लाख तक जा चुके थे. ऐसे लड़के का पता लगता तो दौड़े चले जाते. प्रतीक्षा सूची में लग जाते, पर अभी तक ऐसा हुआ था कि ऐसे लड़कों को 3 लाख और साढ़े 3 लाख वाले उड़ा ले जाते.

नृपेंद्रनाथ भी धुन के पक्के थे. एक वांछित शर्तों वाला लड़का हाथ से निकल जाता तो दूसरे के पीछे पड़ जाते और तब तक पीछे पड़े रहते जब तक उसे भी ऊंची कीमत वाले छीन न लेते.

सुनयना के पास करने को कोई काम नहीं था. मां ने भी कुछ करवाने की जरूरत नहीं समझी. वह खूब खाती, खूब सोती और जागते समय उपन्यास पढ़ती. मुसीबत घर के बड़ेबूढ़े की होती है और ऐसी कन्या के विवाह में कठिनाई होती है, जिस का बाप अपने को बहुत बड़ा और कुलीन समझता हो. पिता की जिद ने सुनयना को 28 वर्ष की परिधि में ला दिया. उम्र के कारण कठिनाई और बढ़ गई थी.

स्थिति यह आ गई थी कि लोग नृपेंद्रनाथ को देख कर वक्रता से मुसकरा पड़ते. कह ही डालते, ‘‘कायदे से इन्हें कोई मिनिस्टर तलाशना चाहिए जिस के आगेपीछे प्रशासनिक सेवा वाले दुम हिलाते हैं.’’

नृपेंद्रनाथ के कान में भी बात गई. कोई असर न हुआ. उत्तर दे दिया, ‘‘मंत्री अस्थायी होते हैं और प्रशासनिक सेवा वाले स्थायी होते हैं.’’

नृपेंद्रनाथ के साले चक्रपाणि ने सुझाया, ‘‘जीजाजी, हो सकता है कि लड़का अभी शराब न पीता हो, गोश्त न खाता हो, सिगरेट न पीता हो. पर शादी के बाद यह सब करने लगे तो आप क्या कर लेंगे?’’

नृपेंद्रनाथ ने कोई उत्तर न दिया. उन के कानों पर जूं भी न रेंगी. वह अपनी शर्तों से तिल भर भी अलग होने को तैयार नहीं थे.

प्रो. कैलाशनाथ मिश्र का पुत्र भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया.

नृपेंद्रनाथ ने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लड़के पंकज ने दोटूक उत्तर दे दिया, ‘‘एक मामूली इंस्पेक्टर की बेटी से विवाह? क्या हमारे स्तर के लोग देश में खत्म हो गए हैं?’’

नृपेंद्रनाथ ने उत्तर सुना. उत्तर क्या था जहर का घूंट था. जिद की सनक में उन्हें पीना ही पड़ गया, पर वह अपने उद्देश्य पर कायम रहे.

ऊब कर सुनयना की मां ने भी कह डाला, ‘‘अच्छे परिवार का ऐसा स्वस्थ लड़का देखिए जिस से दोनों की जोड़ी अच्छी लगे. इतना और ध्यान रखिए कि कामकाज से लगा हो.’’

नृपेंद्रनाथ झिड़क देते, ‘‘तुम्हें तो अक्ल आ ही नहीं सकती. जब अपने पास सबकुछ है तो इकलौती बेटी के लिए लड़का भी उच्च पद वाला ही ढूंढ़ना है.’’

जवाब मिला, ‘‘तुम्हारी सनक के कारण लड़की बूढ़ी हुई जा रही है. उस की चचेरी और ममेरी बहनें 2-2 बच्चों की मां बन गई हैं. जब खेत ही सूख गया तो वर्षा का क्या फायदा?’’

इस कटु सत्य का कोई उत्तर देने के स्थान पर नृपेंद्रनाथ टाल जाना ही उचित समझते थे. अपनी शर्तों के संबंध में झुकने को तैयार होने की बात सोच ही न सकते थे. ऐसा न था कि लड़के न थे. उच्च कुल वाले भी थे. अच्छे पदों पर भी थे. पूर्ण शाकाहारी भी थे. स्वस्थ और सुंदर थे. परंतु नृपेंद्रनाथ की सनक भारतीय प्रशासनिक सेवा वाले के लिए ही थी.

कपिलजी को रामायण याद थी. जो कुछ कहते थे उस में एक चौपाई जरूर जोड़ देते. रामायण कंठस्थ थी पर उस के कोई आदर्श चरित्र उन में न थे.

पर वह भी एक दिन बोल ही पड़े, ‘‘लिखा न विधि वैदेहि विवाहू. प्रशासनिक सेवा का शुभ धनु न टूटेगा और न नृपेंद्रनाथ भाई की पुत्री का ब्याह होगा.’’

कपिलजी की पत्नी हां में हां मिलाती हुई बोलीं, ‘‘अब सुनयना का ब्याह क्या होगा. उस का 32वां वर्ष खत्म हो रहा है. अब उस को कुंआरा वर शायद ही मिले. विधुर या तलाकशुदा ही मिल सकता है.’’

सुनयना भी ऊब सी गई थी. अपनी सहेली शिल्पा से यों ही कह गई, ‘‘पिताजी की सनक भी खूब है. जिद में पड़े हैं. क्या भारतीय प्रशासनिक सेवा वालों को छोड़ कर और अच्छे लड़के नहीं मिल सकते समाज में? अच्छा हुआ कि नानीजी ने ऐसा नहीं सोचा. नहीं तो मां भी अभी तक कुंआरी ही होतीं अथवा कुंआरी ही मर चुकी होतीं.’’

वैसे हर कन्या चाहती है कि उस का पति कमाने वाला हो, पर कमाई से भी बढ़ कर वह अच्छे स्वभाव का स्वस्थ पुरुष पसंद करती है, जिस के पास 2 भुजाएं हैं वह कमाई तो कर ही लेता है.

नृपेंद्रनाथ अब अजीब स्थिति में आ गए थे. वह जिसे पसंद करते उसे वह और उन का परिवार पसंद न आता. कभी कुछ बात बनती भी तो कन्या की उम्र और सांवलापन आड़े आ जाता.

पुत्रों को अपनी मस्ती से मतलब था. पत्नी कभीकभी भुनभुना लेती थी. रिश्तेदारों और सुहृदों ने जिक्र करना ही छोड़ दिया था.

नृपेंद्रनाथ मूर्ख नहीं थे, पर उन की सनक ने उन्हें मूर्खता की हद तक पहुंचा दिया था. उन की सनक ध्यान ही न दे पाती थी कि कन्या के विचारों में कुंठाएं घर कर चुकी हैं और शरीर की कोमलता जठरता में बदल चुकी है. किसी विवाह या अन्य समारोह में जाने पर वह अलगथलग पड़ जाती. लोग कहते कुछ न थे पर उन की निगाहें उस में एक अजीब सी सनसनाहट पैदा कर देती थीं. यही सनसनाहट एक अजीब सी ग्रंथि को जन्म दे चुकी थी.

एक बूढ़ी महिला ने सुनयना को बिना सुहाग चिह्नों के देखा तो दुखी हो कर उस की मामी से कह ही डाला, ‘‘क्या यह जवानी में ही विधवा हो गई?’’

मामी ने उस का मुंह पकड़ा, ‘‘ताईजी, अभी तो इस का विवाह ही नहीं हुआ है. इस के पिताजी इस के लिए काफी दिनों से अच्छा लड़का तलाश रहे हैं.’’

बूढ़ी का पोपला मुंह और बिगड़ गया. कुछ तो प्रकृति ने पहले से बिगाड़ दिया था, ‘‘इस का बाप तो मूर्ख लगता है. गरीब से गरीब लड़की का ब्याह हो जाता है. अगर इस के बाप के पास कुछ नहीं है तो भी एक जोड़ी कपड़े में ही किसी को कन्या का दान कर देता. बेचारी कुंआरी विधवा बन कर तो न घूमती.’’

मामी ने राज उजागर कर दिया, ‘‘इस के पिताजी गरीब नहीं हैं, पैसे वाले हैं. पैसा जब अधिक हो जाता है तो दिमाग को खराब कर देता है और आदमी औकात से बढ़ कर सोचने लगता है. इस के पिताजी अगर औकात से बढ़ कर न सोचते तो आज से वर्षों पूर्व इस का विवाह हो जाता. अब तक बालबच्चों वाली हो गई होती.’’

बूढ़ी ने आगे कहना चाहा तो सुनयना की मामी ने रोक दिया, ‘‘रहने दो, ताईजी, अगर किसी के कान में भनक पड़ गई तो अच्छा नहीं होगा.’’

बात आईगई हो गई, पर कोई बात अगर मुख से निकल जाए तो किसी न किसी प्रकार किसी न किसी कान में पहुंच ही जाती है.

कुंआरी विधवा की बात सुन कर नृपेंद्रनाथ खूब बड़बड़ाए. कहने वाली को उलटीसीधी सुनाईं. पर वह सामने न थी. लेकिन उन की सनक पर इतना असर जरूर पड़ा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की शर्त को प्रांतीय प्रशासनिक सेवा में बदल दिया. बाकी शर्तें पूर्ववत ही रहीं.

फिलहाल किसी में इतना दम बाकी न था कि उन्हें समझा पाए कि फसल यदि समय से न बोई जाए और उगे पौधों को समय से पानी न दिया जाए तो अच्छी जुताई और भरपूर खाद देने के बावजूद फसल पर पीलापन छा जाता है. उपज मात्र भूसा रह जाती है. दानों के लिए तरसना पड़ता है.

सुनयना अब भी कुंआरी ही है. बाप की सनक उसे जला चुकी है. रहीसही कमी भी पूरी करती जा रही है.

Hindi Story : बेला फिर महकी

Hindi Story : मधु दीदी अपनत्व लुटा कर और मेरे दिलोदिमाग में भूचाल पैदा कर चली गई थीं. कितने अपनेपन से उन्होंने मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘सच बेला, तुम्हारी तो तकदीर ही कुछ ऐसी है कि हर रिश्ता तुम्हें इस्तेमाल करने के लिए ही बना है. तुम ब्याह कर आईं तो भाई साहब तुम्हें मांपिताजी की सेवा में सौंप कर निश्ंिचत हो गए. इतने बरसों में हम ने कभी तुम्हें उन के साथ घूमनेफिरने या पिक्चर जाते नहीं देखा.

‘‘सासससुर की सेवा और बच्चों की परवरिश से उबरीं तो अब अफसर बहू के बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी तुम पर आ पड़ी है. शुक्र है कि बहू बोलती मीठा है. हां, जब सारी जिम्मेदारी सास पर डाल कर नौकरी के नाम पर तफरी की जा रही हो, तो व्यवहार तो मीठा रखना ही पड़ेगा. चलो, अच्छा है कि तुम उस की मिठास पर लट्टू हो कर उस के बच्चों को जीजान से पालती रहो वरना सारी असलियत सामने आ जाएगी.’’

मधु दीदी के इस अपनेपन ने जैसे सारे रिश्तों के अपनत्व की कलई खोल दी. सासससुर और रमेश बाबू के रूखे व्यवहार को सहने की तो जैसे आदत सी पड़ गई थी. उसे मैं ने अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था. बहू के लिए प्यार का परदा मधु दीदी ने हटा कर मुझे निराश ही कर दिया था.

बेला नाम मेरे पिताजी ने कितने अरमानों से रखा था. मेरे जन्म के बाद ही आंगन में पिताजी ने बेला का एक छोटा पौधा रोप दिया था. बेला को झाड़ बन कर फूलों से लद कर महकते और मेरी किलकारी को लरजती मुसकराहट में बदलते कहां वक्त लगा था. पिताजी ने बेला को अपने आंगन में ही महकने दिया और मुझे रमेश बाबू के आंगन को महकाने के लिए डोली में बिठा कर विदा कर दिया. मेरे पति रमेश बाबू ने मेरे कोमल जज्बात को कभी महत्त्व नहीं दिया. स्त्री के सामने प्रेम प्रदर्शन कर उसे सिर पर चढ़ाना उन्हें अपनी मर्दानगी के खिलाफ लगता था.

पिछवाड़े के बगीचे में पेड़ोें और झाडि़यों पर लिपटी अमरबेल को दिखला कर पति ने यह जतला दिया था कि उन की जिंदगी में मेरी हैसियत इस अमरबेल से अधिक कुछ नहीं है. जड़, पत्र और पुष्पविहीन पीली सी बदरंग अमरबेल… अनचाही बगिया में छाई रहती है, जिसे काटछांट कर जितना पीछा छुड़ाना चाहो वह उतनी ही अपनी लता फैला देती है.

मेरी ससुराल में सबकुछ स्वार्थ के रिश्तों पर कायम था. उस पर भी हर पल मुझे यह एहसास कराया जाता कि मैं निपट घरेलू महिला अमरबेल की तरह आश्रित और अनपेक्षित हूं. तब विरोध और विद्रोह बहुओं का अधिकार कहां था. पति से तिरस्कृत पत्नी सासससुर की लाड़ली भी नहीं बन पाती है. मैं ने सहमे हुए इस नए नाम अमरबेल  को चुपचाप स्वीकार कर लिया और बेला की महक न जाने कहां गुम होती गई. मैं और बगिया की अमरबेल बिन चाहत और जरूरत के अपनीअपनी उम्र आगे बढ़ाते रहे.

ऐसी नीरस जिंदगी के बाद बहू का अपनापन बुझे मन पर प्यार की फुहार बन कर आया. पोतेपोती की मासूम शरारतों और उन के साथ बढ़ी व्यस्तता में मन की टीस कहीं गहरे दबने लगी थी. यह टीस न चाहते हुए भी जानेअनजाने उभर आती थी, जब मैं अपने बेटे मयंक और बहू रीना में आपसी सामंजस्य और अधिक से अधिक समय साथ गुजारने की चाहत देखती. मयंक ने रीना का आफिस दूर होने से उसे आनेजाने में होने वाली परेशानी से बचने के लिए कार चलाना सिखाया और एक नई कार उसे जन्मदिन पर उपहार में दे दी.

इस समय भी मेरे पति मुझे ताना मारने से नहीं चूके कि अगर पत्नी लायक और समझबूझ में समान स्तर की हो तो इतना ध्यान रखा जाना लाजमी है. इस तरह जिंदगी भर मुझे दिए गए तिरस्कार का कारण बता दिया था उन्होंने और बरसों से घुटती, जीती मैं तब भी मौन रह गई थी. मैं बेला से अमरबेल जो बन चुकी थी.

लेकिन आज मधु दीदी ने जब मेरे और रीना के ममता भरे रिश्ते में मुझे स्वार्थ के दर्शन कराए तो मेरा कुंठित मन विद्रोह के लिए बेचैन हो उठा. बहू को लगातार मिल रही सुविधाएं और सम्मान व्यर्थ नजर आ रहा था. अब तक जाने- अनजाने हुई लापरवाही और गलतियां, जिन्हें मैं रीना की नादानी मान कर नजरअंदाज कर रही थी, आज वे सारी गलतियां मेरी पुरातन परंपराओं और संकुचित सोच को, जानबूझ कर मेरे सम्मान को ठेस पहुंचाने की कोशिश जान पड़ रही थीं.

गुस्से और अपमान से मेरे कान लाल थे और बढ़ी हुई धड़कन जैसे सारे बंधन तोड़ शरीर को कंपा रही थी. कल तक बहू से मिल रहा प्यार मुझे आत्मसंतोष दे रहा था, लेकिन आज मधु दीदी ने मेरे संतोष में आग लगा दी थी. बहू का सारा प्यार स्वार्थ के तराजू में तौल कर अपवित्र कर दिया था. अगर मैं गृहस्थी की साजसंवार, बच्चों का होमवर्क, स्कूल से वापस आने पर उन की देखभाल को दरकिनार कर सत्संग और पूजा में मन लगाऊं  तो आत्मशांति तो मिलेगी ही, बहू का व्यवहार बदलने से असलियत भी सामने आ जाएगी.

सोचा, क्यों न कुछ दिन के लिए अपनी बेटी रोजी के यहां चली जाऊं? जरा मेरे जाने के बाद यह महारानी भी जाने कि मेरे बिना वह अपनी अफसरी कैसे कायम रख सकती है, लेकिन वहां जाना क्या अच्छा लगेगा? नौकरीशुदा रोजी भी तो अपने सासससुर के साथ भरे परिवार में रहती है. उसे नौकरी करने के लिए प्रेरित भी तो मैं ने ही किया था, जिस से वह मेरी तरह प्रताडि़त हो कर नहीं सम्मान की जिंदगी जी सके.

बहुत कशमकश के बाद मैं ने हालात से लड़ने का फै सला लिया, ‘नहीं, मैं यहीं रह कर अपने लिए जीऊंगी. सारे दिन रीना और बच्चों की दिनचर्या के मुताबिक चक्करघिन्नी बनने के बजाय अब आदेशात्मक रवैया अपनाऊंगी. भला हो मधु दीदी का, जो उन्होंने मुझे समय रहते चौकन्ना कर दिया.’

हमेशा हंसतीमुसकराती रीना जो वक्तबेवक्त गलबहियां डाल कर मांमां की रट लगाए रहती है, आज मुझे खलनायिका लग रही थी. कुश और नीति के स्कूल से आने पर उन के कपड़े बदलवाने और खाना खिलाने में मन नहीं लग रहा था. दोनों बच्चे दादी को अनमना देख कर चुपचाप खाना खा कर टीवी देखने लगे थे.

बेचैनी अपनी चरम सीमा पर थी. बच्चों के पास जा कर टीवी देख कर मन बहलाने का प्रयास भी बेकार गया. सिर भारी हो रहा था. शाम होते ही बच्चे पार्क में खेलने और रमेश  बाबू अपने मित्रों के साथ टहलने चले गए. रसोई में जा कर रात के खाने की व्यवस्था देखने का मन आज कतई नहीं हो रहा था. परिवार की जिम्मेदारियों में सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद आज मैं खुद को शोषित मान रही थी.

शाम का अंधेरा गहराने लगा था. बाहर बहू की कार का हार्न सुनाई दिया. मन गुस्से से और भर गया. रीना को पता है कि रामू अपने गांव गया है और बच्चे पार्क में होंगे तो हार्न बजाने पर क्या मैं गेट खोलने जाऊंगी? और फिर सामने बालकनी में खड़ी मधु दीदी ने अगर मुझे गेट खोलते देख लिया तो व्यंग्य से ऐसे मुसकराएंगी मानो कह रही हों कि अच्छी तरह करो अफसर बहू की चाकरी.

मैं रुकी रही कि दोबारा हार्न की आवाज आई. मैं गुस्से में उठी कि बहू को इतनी जोर से झिड़कूंगी कि मधु दीदी भी सामने के घर में सुन लें कि मैं भी सास का रौब रखती हूं.

मैं बाहर पहुंची तो रीना तुरंत कार से उतर कर गेट खोलने लगी, ‘‘अरे, मां, आप क्यों आईं. मैं तो भूल ही गई थी कि आज रामू घर में नहीं है,’’ उस की मीठी बोली में मैं सारा आक्रोश भूल गई.

‘‘ओफ, मां, आप कैसी अव्यवस्थित सी घूम रही हैं?  आप की तबीयत तो ठीक है न?’’ कहते हुए रीना ने मेरा माथा छू कर देखा, ‘‘लगता है आप ने दिन में जरा भी आराम नहीं किया. आप जल्दी से तैयार हो जाइए. रोजी दीदी और जीजाजी भी आने वाले हैं.’’

मैं फिर उस के जादू में बंधी कपड़े बदल बाल संवार कर आ गई. जल्दी ही रीना भी फ्रेश हो कर आ गई.

‘‘हां, अब लग रही हैं न आप बर्थडे गर्ल. हैप्पी बर्थ डे, मां,’’ कहते हुए बड़ा सा गुलदस्ता मेरे हाथों में दे कर रीना ने मेरे चरण स्पर्श किए.

‘तुम्हें कैसे पता चला’ वाले आश्चर्य मिश्रित भाव को ले कर जब मैं ने उसे गले लगाया तो उस ने बताया कि पापा के पेंशन के पेपर्स में आप की जन्मतिथि पढ़ी थी. मयंक भी आज आफिस से जल्दी घर आएंगे और हां, आज आप की और मेरी रसोई से छुट्टी है, क्योंकि हम सब आप का जन्मदिन मनाने होटल जा रहे हैं.’’

मैं मधु दीदी के बहकावे में आ कर अपनी संकीर्ण मनोदशा से खुद ही शर्मिंदा होने लगी. अब तक देखीसुनी बुरी सासुओं की कुंठा आज मुझ पर भी हावी हो गई थी. मुझे लगा कि पति, सासससुर से मिले अपमान को हर नारी की कहानी मान चुपचाप स्वीकार किया और निरपराध बहू को मात्र पड़ोसन के बहकावे में आ कर स्वार्थ का पुतला मान लिया. बरसों से अपने जन्मदिन को साधारण दिनों की तरह गुजारती आज बहू की बदौलत ही खुशियों के साथ मना पाऊंगी. पति के रूप में रमेश बाबू तो इन औपचारिकताओें के महत्त्व को कभी समझे ही नहीं.

‘‘मां, आओ, आप को अच्छी तरह तैयार कर दूं. बच्चों के पार्क से आते ही फिर उन्हें भी तैयार करना होगा,’’ यह कह कर बहू ने एक नई कोसा की साड़ी मुझे दी और बोली, ‘‘कैसी लगी साड़ी, मां?’’

‘‘तुम मेरी पसंद को कितनी अच्छी तरह समझती हो,’’ बस, इतना ही कह पाई मैं.

साड़ी पहन कर जब मैं उस के पास आई तो रीना ने बेला का एक बड़ा सा गजरा मेरे जूड़े पर सजा दिया तो मैं ने रीना को अपने सीने से लगा लिया.

आंखों में आए आंसुओं से मैं अपने दिन भर दिल में भरे जहर को निकाल देना चाहती हूं. मेरी प्यारी रीना और जूडे़ में बंधे बेला के गजरे की भीनीभीनी महक ने आज बरसों बाद यह एहसास करा दिया कि मैं अमरबेल नहीं, बेला हूं.

Hindi Story : भटकाव के बाद

Hindi Story : राज्य में पंचायत समितियों के चुनाव की सुगबुगाहट होते ही राजनीतिबाज सक्रिय होने लगे. सरपंच की नेमप्लेट वाली जीप ले कर कमलेश भी अपने इलाके के दौरे पर घर से निकल पड़ी. जीप चलाती हुई कमलेश मन ही मन पिछले 4 सालों के अपने काम का हिसाब लगाने लगी. उसे लगा जैसे इन 4 सालों में उस ने खोया अधिक है, पाया कुछ भी नहीं. ऐसा जीवन जिस में कुछ हासिल ही न हुआ हो, किस काम का.

जीप चलाती हुई कमलेश दूरदूर तक छितराए खेतों को देखने लगी. किसान अपने खेतों को साफ कर रहे थे. एक स्थान पर सड़क के किनारे उस ने जीप खड़ी की, धूप से बचने के लिए आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर कर खेतों की ओर चल दी.

सामने वाले खेत में झाड़झंखाड़ साफ करती हुई बिरमो ने सड़क के किनारे खड़ी जीप को देखा और बेटे से पूछा, ‘‘अरे, महावीर, देख तो किस की जीप है.’’

‘‘चुनाव आ रहे हैं न, अम्मां. कोई पार्टी वाला होगा,’’ इतना कह कर वह अपना काम करने लगा.

बिरमो भी उसी प्रकार काम करती रही.

कमलेश उसी खेत की ओर चली आई और वहां काम कर रही बिरमो को नमस्कार कर बोली, ‘‘इस बार की फसल कैसी हुई ताई?’’

‘‘अब की तो पौ बारह हो आई है बाई सा,’’ बिरमो का हाथ ऊपर की ओर उठ गया.

‘‘चलो,’’ कमलेश ने संतोष प्रकट किया, ‘‘बरसों से यह इलाका सूखे की मार झेल रहा था पर इस बार कुदरत मेहरबान है.’’

कमलेश को देख कर बिरमो को 4 साल पहले की याद आने लगी. पंचायती चुनाव में सारे इलाके में चहलपहल थी. अलगअलग पार्टियों के उम्मीदवार हवा में नारे उछालने लगे थे. यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी इसलिए इस चुनावी दंगल में 8 महिलाएं आमनेसामने थीं. दूसरे उम्मीदवारों की ही तरह कमलेश भी एक उम्मीदवार थी और गांवगांव में जा कर वह भी वोटों की भीख मांग रही थी. जल्द ही कमलेश महिलाओं के बीच लोकप्रिय होने लगी और उस चुनाव में वह भारी मतों से जीती थी.

‘‘क्यों बाई सा, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ बिरमो ने पूछा.

‘‘अरे, मां, बाई सा वोटों की भीख मांगने आई होंगी,’’ महावीर बोल पड़ा.

महावीर का यह व्यंग्य कमलेश के कलेजे पर तीर की तरह चुभ गया. फिर भी समय की नजाकत को देख कर वह मुसकरा दी और बोली, ‘‘यह ठीक कह रहा है, ताई. हम नेताओं का भीख मांगने का समय फिर आ गया है. पंचायती चुनाव जो आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बाई सा,’’ बिरमो बोली, ‘‘इस बार तो तगड़ा ही मुकाबला होगा.’’

कमलेश जीप के पास चली आई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए. फिर भी जाना तो था ही, सो जीप स्टार्ट कर चल दी. दिमाग में आज की राजनीति को ले कर उधेड़बुन मची थी कि अतीत में दादाजी के कहे शब्द याद आने लगे. दरअसल, राजनीति से दादाजी को बेहद घृणा थी, ग्राम पंचायत की बैठकों में वह भाग नहीं लेते थे.

एक दिन कमलेश ने उन से पूछा था, ‘दादाजी, आप पंचायती बैठकों में भाग क्यों नहीं लिया करते?’

‘इसलिए कि वहां टुच्ची राजनीति चला करती है,’ वह बोले थे.

‘तो राजनीति में नहीं आना चाहिए?’ उस ने जानना चाहा था.

‘देख बेटी, कभी कहा जाता था कि भीख मांगना सब से निकृष्ट काम है और आज राजनीति उस से भी निकृष्ट हो चली है, क्योंकि नेता वोटों की भीख मांगने के लिए जाने कितनी तरह का झूठ बोलते हैं.’

उस ने भी तो 4 साल पहले अपनी जनता से कितने ही वादे किए थे लेकिन उन सभी को आज तक वह कहां पूरा कर सकी है.

गहरी सांस खींच कर कमलेश ने जीप एक कच्चे रास्ते पर मोड़ दी. धूल के गुबार छोड़ती हुई जीप एक गांव के बीचोंबीच आ कर रुकी. उस ने आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर गई.

देखते ही देखते कमलेश को गांव वालों ने घेर लिया. एक बुजुर्ग बच्चों को हटाते हुए बोले, ‘‘हटो पीछे, प्रधानजी को बैठ तो लेने दो.’’

एक आदमी कुरसी ले आया और कमलेश से उस पर बैठने के लिए अनुरोध किया.

कमलेश कुरसी पर बैठ गई. बुजुर्ग ने मुसकरा कर कहा, ‘‘प्रधानजी, चुनाव फिर आने वाला है. हमारे गांव का कुछ भी तो विकास नहीं हो पाया.

‘‘हम तो सोच रहे थे कि आप की सरपंची में औरतों का शोषण रुक जाएगा, क्योंकि आप एक पढ़ीलिखी महिला हो और हमारी समस्याओं से वाकिफ हो, लेकिन इन पिछले 4 सालों में हमारे इलाके में बलात्कार और दहेज हत्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है.’’

किसी दूसरी महिला ने शिकायत की, ‘‘इस गांव में तो बिजलीपानी का रोना ही रोना है.’’

‘‘यही बात शिक्षा की भी है,’’ एक युवक बोला, ‘‘दोपहर के भोजन के नाम पर बच्चों की पढ़ाई चौपट हो आई है. कहीं शिक्षक नदारद हैं तो कहीं बच्चे इधरउधर घूम रहे होते हैं.’’

कमलेश उन तानेउलाहनों से बेहद दुखी हो गई. जहां भी जाती लोग उस से प्रश्नों की झड़ी ही लगा देते थे. एक गांव में कमलेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘अरे, अपनी ही गाए जाओगे या मेरी भी सुनोगे.’’

‘‘बोलो जी,’’ एक महिला बोली.

‘‘सच तो यह है कि इन दिनों अपने देश में भ्रष्टाचार का नंगा नाच चल रहा है. नीचे से ले कर ऊपर तक सभी तो इस में डुबकियां लगा रहे हैं. इसी के चलते इस गांव का ही नहीं पूरे देश का विकास कार्य बाधित हुआ है. ऐसे में कोई जन प्रतिनिधि करे भी तो क्या करे?’’

‘‘सरपंचजी,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पांचों उंगलियां बराबर तो नहीं होती न.’’

‘‘लेकिन ताऊ,’’ कमलेश बोली, ‘‘यह तो आप भी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसा करता है. साफसुथरी छवि वाले अपनी मौत आप ही मरा करते हैं. उन को कोई भी तो नहीं पूछता.’’

एक दूसरे बुजुर्ग उसे सुझाव देने लगे, ‘‘ऐसा है, अगर आप अपने इलाके के विकास का दमखम नहीं रखती हैं तो इस चुनावी दंगल से अपनेआप को अलग कर लें.’’

‘‘ठीक है, मैं आप के इस सुझाव पर गहराई से विचार करूंगी,’’ यह कहते हुए कमलेश वहां से उठी और जीप स्टार्ट कर सड़क की ओर चल दी. गांव वालों के सवाल, ताने, उलाहने उस के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. ऐसे में उसे अपना अतीत याद आने लगा.

कमलेश एक पब्लिक स्कूल में अच्छीभली अध्यापकी करती थी. उस के विषय में बोर्ड की परीक्षा में बच्चों का परिणाम शत- प्रतिशत रहता था. प्रबंध समिति उस के कार्य से बेहद खुश थी. तभी एक दिन उस के पास चौधरी दुर्जन स्ंिह आए और उसे राजनीति के लिए उकसाने लगे.

‘नहीं, चौधरी साहब, मैं राजनीति नहीं कर पाऊंगी. मुझ में ऐसा माद्दा नहीं है.’

‘पगली,’ चौधरी मुसकरा दिए थे, ‘तू पढ़ीलिखी है. हमारे इलाके से महिला के लिए सीट आरक्षित है. तू तो बस, अपना नामांकनपत्र भर दे, बाकी मैं तुझे सरपंच बनवा दूंगा.’

कमलेश ने घर आ कर पति से विचारविमर्श किया था. उस के अध्यापक पति ने कहा था, ‘आज की राजनीति आदमी के लिए बैसाखी का काम करती है. बाकी मैं चौधरी साहब से बात कर लूंगा.’

‘लेकिन मैं तो राजनीति के बारे में कखग भी नहीं जानती,’ कमलेश ने चिंता जतलाई थी.

‘अरे वाह,’ पति ने ठहाका लगाया था, ‘सुना नहीं कि करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. तुम्हें चौधरी साहब समयसमय पर दिशानिर्देश देते रहेंगे.’

कमलेश के पति ने चौधरी दुर्जन सिंह से संपर्क किया था. उन्होंने उस की जीत का पूरा भरोसा दिलाया था. 2 दिन बाद कमलेश ने विद्यालय से त्यागपत्र दे दिया था.

प्रधानाचार्य ने चौंक कर कमलेश से पूछा था, ‘हमारे विद्यालय का क्या होगा?’

‘सर, मेरे राजनीतिक कैरियर का प्रश्न है,’ कमलेश ने विनम्रता से कहा था, ‘मुझे राजनीति में जाने का अवसर मिला है. अब ऐसे में…’

प्रधानाचार्य ने सर्द आह भर कर कहा था, ‘ठीक है, आप का यह त्यागपत्र मैं चेयरमैन साहब के आगे रख दूंगा.’

इस प्रकार कमलेश शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति के मैदान में आ कूदी थी. चौधरी दुर्जन सिंह उसे राजनीति की सारी बारीकियां समझाते रहते. उस पंचायत समिति के चुनाव में वह सर्वसम्मति से प्रधान चुनी गई थी.

अब कमलेश मन से समाजसेवा में जुट गई. सुबह से ले कर शाम तक वह क्षेत्र में घूमती रहती. बिजली, पानी, राहत कार्यों की देखरेख के लिए उस ने अपने क्षेत्रवासियों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी थी. शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क कर उस ने जनता को बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवाई थीं.

‘ऐसा है, प्रधानजी,’ एक दिन विकास अधिकारी रहस्यमय ढंग से मुसकरा दिए थे, ‘आप का इलाका सूखे की चपेट में है. ऊपर से जो डेढ़ लाख की सहायता राशि आई है, क्यों न उसे हम कागजों पर दिखा दें और उस पैसे को…’

कमलेश ताव खा गई और विकास अधिकारी की बात को बीच में काट कर बोली, ‘बीडीओ साहब, आप अपना बोरियाबिस्तर बांध लें. मुझे आप जैसा भ्रष्ट अधिकारी इस विकास खंड में नहीं चाहिए.’

उसी दिन कमलेश ने कलक्टर से मिल कर उस विकास अधिकारी की वहां से बदली करवा दी थी. तीसरे दिन चौधरी साहब का उस के नाम फोन आया था.

‘कमलेश, सरकारी अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर रखा कर.’

‘नहीं, चौधरी साहब,’ वह बोली थी, ‘मुझे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की जरूरत नहीं है.’

आज कमलेश का 6 गांवों का दौरा करने का कार्यक्रम था. वह अपने प्रति लोगों का दिल टटोलना चाहती थी लेकिन 2-3 गांव के दौरे कर लेने के बाद ही उस का खुद का दिल टूट चला था. उधर से वह सीधी घर चली आई और घर में घुसते ही पति से बोली, ‘‘मैं अब राजनीति से तौबा करने जा रही हूं.’’

पति ने पूछा, ‘‘अरे, यह तुम कह रही हो? ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गई है. मैं जहांजहां भी गई मुझे लोगों के तानेउलाहने सुनने को मिले. ईमानदारी के साथ काम करती हूं और लोग मुझे ही भ्र्रष्ट समझते हैं. इसलिए मैं इस से संन्यास लेने जा रही हूं.’’

रात में जब पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था तब कमलेश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. बिस्तर पर करवटें बदलती हुई वह वैचारिक बवंडर में उड़ती रही.

सुबह उठी तो उस का मन बहुत हलका था. चायनाश्ता लेने के बाद पति ने उस से पूछा, ‘‘आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘आज मैं उसी पब्लिक स्कूल में जा रही हूं जहां पहले पढ़ाती थी,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘कौन जाने वे लोग मुझे फिर से रख लें.’’

‘‘देख लो,’’ पति भी अपने विद्यालय जाने की तैयारी करने लगे.

कमलेश सीधे प्रधानाचार्य की चौखट पर जा खड़ी हुई. उस ने अंदर आने की अनुमति चाही तो प्रधानाचार्य ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया.

कमलेश एक कुरसी पर बैठ गई. प्रधानाचार्य उस की ओर घूम गए और बोले, ‘‘मैडम, इस बार भी चुनावी दंगल में उतर रही हैं क्या?’’

‘‘नहीं सर,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘मैं राजनीति से नाता तोड़ रही हूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ प्रधानाचार्य ने पूछा.

‘‘उस गंदगी में मेरा सांस लेना दूभर हो गया है.’’

‘‘अब क्या इरादा है?’’

‘‘सर, यदि संभव हो तो मेरी सेवाएं फिर से ले लें,’’ कमलेश ने निवेदन किया.

‘‘संभव क्यों नहीं है,’’ प्रधानाचार्य ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘आप जैसी प्रतिभाशाली अध्यापिका से हमारे स्कूल का गौरव बढ़ेगा.’’

‘‘तो मैं कल से आ जाऊं, सर?’’ कमलेश ने पूछा.

‘‘कल क्यों? आज से ही क्यों नहीं?’’ प्रधानाचार्य मुसकरा दिए और बोले, ‘‘फिलहाल तो आज आप 12वीं कक्षा के छात्रों का पीरियड ले लें. कल से आप को आप का टाइम टेबल दे दिया जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ कमलेश ने उन का दिल से आभार प्रकट किया.

कक्षा में पहुंच कर कमलेश बच्चों को अपना विषय पढ़ाने लगी. सभी छात्र उसे ध्यान से सुनने लगे. आज वह वर्षों बाद अपने अंतर में अपार शांति महसूस कर रही थी. बहुत भटकाव के बाद ही वह मानसिक शांति का अनुभव कर रही थी.

Hindi Story : नैपकिंस का चक्कर

Hindi Story : शनिवार का दिन था. विकास के औफिस की छुट्टी थी. उस ने नहाधो कर अपना नाश्ता बनाया. फिर मधुश का इंतजार करने लगा. मधुश के साथ की कल्पना से ही वह उत्साहित था. मधुश 2 साल से उस की प्रेमिका थी. वह भी मेरठ में ही जौब करती थी. वह अपने मम्मीपापा और भाईबहन के साथ रहती थी. विकास थापरनगर में किराए के घर में अकेला रहता था.

दोनों किसी कौमन फ्रैंड की पार्टी में मिले थे. दोस्ती हुई जो फिर प्यार में बदल गई थी. विकास की मम्मी राधा सहारनपुर में रहती थीं. वे टीचर थीं. विकास के पिता नहीं थे. न कोई और भाईबहन. विकास हमेशा वीकैंड में मम्मी के पास चला जाता था पर इस बार उस की मम्मी ही कल रविवार को आने वाली थीं. दशहरे पर उन के स्कूल की छुट्टियां थीं.

मधुश अकसर अपने मम्मीपापा से  झूठ बोल कर कि ‘दिल्ली में मीटिंग है,’ विकास के पास रात में भी कभीकभी रूक जाती थी. डोरबैल बजी, मधुश थी. सुंदर, स्मार्ट, चहकती हुई मधुश ने घर में आते ही विकास के गले में बांहें डाल दीं. विकास ने भी उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. दोनों ने पूरा दिन साथ में बिताया. रात तक मधुश का घर जाने का मन नहीं हुआ. विकास ने भी कहा, ‘‘आज रात में भी रुक जाओ, कल तो मां भी आ रही हैं.’’

‘‘मां के आने पर मैं बहुत खुश होती हूं, बहुत अच्छी हैं वे.’’

‘‘रुक जाओ आज, फिर कुछ दिन ऐसे नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘सोचती हूं कुछ, क्या बहाना करूं घर पर?’’

‘‘कह दो किसी सहेली के घर स्लीपओवर है.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश ने अपनी सहेली निभा को फोन किया, ‘‘निभा, मेरे घर से कोई फोन आए तो कहना मैं तुम्हारे साथ ही हूं. जरा देख लेना.’’

निभा हंसी, ‘‘सम झ गई, वीकैंड मनाया जा रहा है.’’

‘‘हां.’’

‘‘अच्छा, डौंट वरी.’’

विकास ने मधुश को फिर बांहों में भर लिया. दोनों ने मिल कर डिनर बनाया. विकास ने कहा, ‘‘गरमी लग रही है, नहा कर आता हूं, फिर डिनर करते हैं.’’

विकास नहाने गया तो लाइट चली गई. मधुश ने कहा, ‘‘विकास, बहुत गरमी है, जब तक तुम नहा रहे हो, छत पर टहल आऊं?’’

‘‘हां, संभल कर रहना, पड़ोस की छत पर कोई हो तो लौट आना, पड़ोसिन आंटी कुछ दकियानूसी लेडी लगती हैं, मां से कुछ कह न दें.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश छत पर चली गई. वह पहले भी ऐसे ही आती रहती थी, इसलिए उसे घर के आसपास का सब पता था. पड़ोस की छत पर कोई नहीं था. वह यों ही टहलती रही. खुलीखुली जगह, ठंडीठंडी हवा बेहद भली लग रही थी. अचानक उसे छत पर एक कोने में कुछ दिखा. वह  झुक कर देखने लगी. फिर बुरी तरह चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन था, ऐसे ही पड़ा हुआ. उसे बहुत गुस्सा आया. यह किस का है? दिमाग पता नहीं क्याक्या सोच गया. क्या कोई और लड़की भी आती है विकास के पास? शक ने जब एक बार मधुश के दिल में जगह बना ली तो गुस्सा बढ़ता ही चला गया. वह पैर पटकते हुए सीढि़यों से नीचे आई. विकास नहा कर आ चुका था. अपने गीले बालों के छींटे उस पर डालता हुआ शरारत से उसे बांहों में भरने के लिए आगे बढ़ा तो मधुश ने उस के हाथ  झटक दिए, चिल्लाई, ‘‘जरा, ऊपर आना.’’ विकास मधुश का गुस्सा देख चौंक गया, बोला, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘आना,’’ कह कर मधुश वापस छत पर चली गई, कोने में ले जा कर नैपकिन की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘यह किस का है?’’

‘‘यह क्या है? ओह, मु झे क्या पता.’’

‘‘फिर किसे पता होगा? तुम्हारी छत है, तुम्हारा घर है.’’

‘‘क्या फालतू बात कर रही हो, मु झे क्या पता.’’

‘‘विकास, क्या तुम्हारे किसी और लड़की से भी संबंध हैं?’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, मधुश, शक कर रही हो मु झ पर? मु झे तुम से यह उम्मीद नहीं थी.’’

‘‘मु झे भी तुम से यह उम्मीद नहीं थी, मैं जा रही हूं,’’ विकास मधुश को रोकता रह गया पर वह गुस्से में बड़बड़ाती निकल गई. विकास सिर पकड़ कर बैठ गया, वह देर रात तक मधुश को फोन करता रहा पर मधुश ने गुस्से में फोन ही नहीं उठाया.

मधुश और विकास एकदूसरे को प्यार तो बहुत करते थे, मधुश को भी विकास से नाराज हो कर अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर मन में बैठा शक सामान्य भी नहीं होने दे रहा था. संडे को फिर सुबह ही विकास ने मधुश को फोन किया. उस ने नहीं उठाया तो विकास ने मैसेज किया, ‘मां आने वाली हैं, उन से मिलने तो आओगी न?’ मधुश को पढ़ कर हंसी आ गई. उस ने मैसेज ही किया, ‘हां, जब वे आ जाएं, मु झे बता देना.’

राधा उसे सचमुच अच्छी लगती थीं. अपनी अच्छी दोस्त कह कर विकास ने उसे पिछली बार मिलवाया था. संडे शाम को मधुश राधा से मिलने गई. राधा बहुत स्नेहपूर्वक उस से मिलीं, मधुश उन्हें अच्छी लगती थी. वे उदारमन की आधुनिक विचारों वाली महिला थीं. विकास मधुश से बात करने की कोशिश करता रहा. थोड़ीबहुत नाराजगी दिखाते हुए मधुश फिर सामान्य होती गई. हलकेफुलके माहौल में तीनों ने काफी समय साथ बिताया, फिर मधुश चली गई.

डिनर के बाद राधा ने कहा, ‘‘विकास, मैं थोड़ा छत पर टहल कर आती हूं.’’

‘‘ठीक है, मां.’’

राधा जब भी आती थीं, छत पर जरूर टहलती थीं. उन्हें दूसरी छत पर टहलती पड़ोसिन उमा दिखीं, औपचारिक अभिवादन हुए. उमा के जाने के बाद राधा को छत पर एक कोने में कुछ दिखाई दिया तो वे  झुक कर देखने लगीं, चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन. विकास की छत पर? ओह, इस का मतलब विकास और मधुश एकदूसरे के काफी करीब आ चुके  हैं. दोनों के बीच शायद अब बहुतकुछ चलता है, ठीक है. लड़की अच्छी है. अब उन का विवाह हो ही जाना चाहिए. वे काफीकुछ सोचतीविचारती नीचे आ गईं. विकास टीवी देख रहा था. उस के पास बैठती हुई बोलीं, ‘‘विकास, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, मां, बोलो.’’

‘‘अब तुम और मधुश विवाह कर लो.’’

वह चौंका, ‘‘अरे मां, यह अचानक कैसे सू झा?’’

‘‘हां, दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो तो देर क्यों करनी.’’

‘‘पर मैं तो कभी उस के घरवालों से मिला भी नहीं.’’

‘‘वह सब तुम मु झ पर छोड़ दो. अभी मेरी छुट्टियां भी हैं, गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करते हैं. तुम पहले मधुश से डिस्कस कर लो.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ कह कर मुसकराता हुआ विकास मां से लिपट गया. वे मुसकरा दीं, ‘‘फिर मेरी चिंता भी कम हो जाएगी, अकेले रहते हो यहां.’’

‘‘आप भी तो वहां अकेली रहती हैं.’’ दोनों हंस दिए. विकास खुश था, मां पर खूब प्यार आ रहा था. फौरन अपने रूम में जा कर मधुश से बात की. वह भी चौंकी पर इस हैरानी में भी बहुत खुशी थी. बोली, ‘‘इतनी जल्दी, यह तो नहीं सोचा था, पर मम्मीपापा…’’

‘‘मां बात कर लेंगी.’’

मधुश भी पिछली नाराजगी एक तरफ रख विचारविमर्श करती रही. अगले ही दिन उस ने अपने मम्मीपापा को विकास के  बारे में सबकुछ बता दिया. और फिर विकास और राधा उन से मिलने गए. राधा के स्नेहमयी, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व, आधुनिक विचारों से सब प्रभावित हुए. अच्छे खुशनुमा माहौल में सब तय हो गया. दोनों पक्ष विवाह की तैयारियों में जुट गए.

मधुश दुलहन बन विकास के घर चली आई. आई तो पहले भी कई बार थी पर अब के आने और तब के आने में जमीनआसमान का अंतर था. मां दोनों को ढेरों आशीष दे सहारनपुर चली गईं. कभी विकास और मधुश उन के पास चले जाते थे, कभी वे आ जाती थीं. एक दिन मां मेरठ आई हुई थीं, रात को उन के सिर में हलका दर्द था. वे छत पर खुली हवा में बैठ गईं. मधुश उन के पास ही तेल ले कर आई. बोली, ‘‘लाओ मां, तेल लगा कर थोड़ा सिर दबा देती हूं.’’

दोनों सासबहू के संबंध बहुत स्नेहपूर्ण थे. खुशनुमा, हलकी रोशनी में ताजगीभरी ठंडक में मधुश धीरेधीरे राधा का सिर दबाने लगी. उन्हें बड़ा आराम मिला. अचानक पायल के घुंघरुओं की आवाज ने उन दोनों का ध्यान खींचा, आंखों तक घूंघट लिए पड़ोस की छत पर एक नारी आकृति धीरेधीरे सावधानीपूर्वक चलते हुए इधरउधर देखती आई और विकास की छत पर एक कोने में कुछ फेंक कर मुड़ने लगी तो मधुश ने सख्त आवाज में कहा, ‘‘ऐ, रुको.’’ आकृति ठहर गई.

मधुश और राधा दोनों अपनी छत की मुंडेर तक गईं, कांपतीडरती सी एक नवविवाहिता खड़ी थी. मधुश ने फेंकी हुई चीज देखी, सैनेटेरी नैपकिन. ओह. पूछा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है? तुम फेंकती हो यह हमारी छत पर?’’

लड़की ने ‘हां’ में सिर हिलाया. मधुश गुर्राई, ‘‘क्यों? यह क्या तरीका है? ऐसे फेंकते हैं?’’ लड़की रोंआसी हो गई, कहने लगी, ‘‘अभी कुछ महीने पहले ही मेरा विवाह हुआ है यहां, मैं गांव से आई हूं. सासुमां से बहुत डर लगता है, उन से पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि कैसे फेंकूं, आप से माफी मांगती हूं.’’ मधुश का सारा गुस्सा उस की डरी हुई आवाज पर खत्म हो गया. उसे उस पर तरस आया, बोली, ‘‘डरो मत, आगे से यहां मत फेंकना, किसी पेपर में लपेट कर अपने घर के डस्टबिन में डालना, ऐसे इधरउधर नहीं फेंकते.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह कर वह तो चली गई, पर मधुश और राधा एकदूसरे को देख कर हंसती चली गईं.

मधुश ने हंसते हुए कहा, ‘‘मां, पता है मैं ने इसे छत पर देख कर विकास से  झगड़ा किया था. उस पर शक किया था. जिस दिन आप विवाह से पहले आई थीं, तब.’’ राधा और जोर से हंस पड़ीं. वे भी बताने लगीं, ‘‘और पता है तुम्हें, मैं ने भी उसी रात देखा था और तुम्हारे बारे में बहुतकुछ सोच लिया था. तभी फौरन तुम दोनों का विवाह करवाया था.’’

‘‘हां? हाहा, मां.’’

दोनों सासबहू चेयर्स पर बैठ गई थीं और उन की हंसी नहीं रुक रही थी. राधा का सिरदर्द तो हंसतेहंसते गायब हो चुका था और मधुश मन ही मन अपनी सासुमां को थैंक्यू कहते हुए प्यार और सम्मानभरी आंखों से निहार रही थी.

Hindi Story : नाज पर नाज

Hindi Story : अशरफ काफी समय से बीमार रहता था. वह तकरीबन सभी तरह के इलाज करा चुका था, पर कोई फायदा नहीं हुआ. अगर थोड़ाबहुत फायदा होता भी सिर्फ वक्ती तौर पर ही होता और बीमारी बदस्तूर जारी रहती.

अम्मीअब्बा के बहुत जिद करने पर अशरफ ने इस बार शहर जा कर एक नामी डाक्टर को दिखाया. उस डाक्टर ने तमाम जांचें करवाईं, ऐक्सरे भी करवाए और बाद में जो रिपोर्ट आई, उस ने सब के होश उड़ा दिए.

रिपोर्ट में पता चला कि अशरफ की दोनों किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थीं.

डाक्टर साहब ने भी सिर हिलाते हुए कह दिया, ‘‘अब ले जाइए इन्हें. जितनी भी सेवा करनी है कीजिए, बाकी दवाएं चलने दीजिए. आप लोग इन को ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश कीजिए.’’

अशरफ को ले कर उस के अब्बा ऐसे घर लौट आए, जैसे कोई जुए में अपना सबकुछ हार कर लौट जाता है.

कुछ दिन बीते. अब घर के लोगों ने एकदूसरे से थोड़ाबहुत बोलना शुरू किया. शायद घर के माहौल को खुशनुमा बनाने की एक नाकाम कोशिश.

अशरफ के अब्बू घर के बाहर ही लकड़ी की टाल पर बैठते थे. अब अशरफ भी उन का हाथ बंटाने लगा मानो उस पर अपनी तबीयत का कोई असर ही नहीं हुआ हो.

किसी ने सच ही कहा है कि जब दर्द हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है. अब यही दर्द अशरफ के लिए दवा बनने वाला था.

एक दिन अब्बू ने घर के सभी लोगों को अपने कमरे में ठीक 8 बजे इकट्ठा होने को कहा. परिवार में अम्मी के अलावा अशरफ और उस का छोटा भाई आदिल थे. एक बहन सबा थी, जिस का निकाह पहले ही हो चुका था.

शाम को ठीक 8 बजे अशरफ, अम्मी और आदिल अब्बू के कमरे में पहुंचे चुके थे.

थोड़ी देर बाद अब्बू भी कमरे में आ गए, पर आज उन की चाल में एक अलग तरह की खामोशी थी.

‘‘देखो अशरफ और आदिल, तुम दोनों मु झे अपनी जिंदगी में सब से प्यारे हो.  तुम दोनों काबिल हो. सबा जैसी प्यारी बेटी है, जो अब अपने ससुराल को रोशन कर रही है. खैर…’’ अब्बू ने एक गहरी सांस छोड़ी और फिर बोलना शुरू किया. इस बार उन के लहजे में थोड़ी सख्ती भी थी, ‘‘जैसा कि तुम लोगों को पता है कि अशरफ बीमार है और डाक्टरों ने बताया है कि हमें उस को हर हाल में खुश रखना है…’’

अशरफ की पीठ पर हाथ फेरते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कभीकभी जिंदगी हम से कुछ ऐसे फैसले कराती है, जो वक्ती तौर पर तो ठीक नहीं लगते, पर धीरेधीरे सही साबित होने लगते हैं. आज हम ऐसा ही फैसला लेने जा रहे हैं.

‘‘दरअसल, डाक्टर ने हम से कहा है कि हो सके तो अशरफ की शादी जल्द से जल्द करा दी जाए, तो इस की तबीयत में सुधार हो सकता है,’’ अब्बू ने एक सांस में कह कर मानो अपना बो झ हलका कर दिया था.

अब्बू का फैसला सुन कर अम्मी तो बुत बनी बैठी रहीं, पर छोटे बेटे आदिल को यह बात कुछ नागवार सी लगी, क्योंकि अशरफ की बीमारी की बात आदिल भी जानता था और वह यह भी जानता था कि अशरफ भाईजान एक या 2 साल के ही मेहमान हैं, क्योंकि जिस आदमी की दोनों किडनी खराब हो चुकी हों, उस की सांसें कभी भी थम सकती हैं और ऐसे में उस का निकाह करा देना, मतलब एक और बेगुनाह की जिंदगी तबाह कर देना था.

इस फैसले का विरोध तो सब से ज्यादा अशरफ की ओर से आना था, पर वह तो खामोश सा बैठा हुआ सब सुन रहा था. तो क्या यह माना जाए कि अशरफ भी मरने से पहले अपनी जिंदगी पूरी तरह से जी लेना चाहता था या फिर यों कह लें कि मरने से पहले वह किसी औरत के जिस्म को पूरी तरह सम झ लेना चाहता था?

बहरहाल, इस समय अशरफ के चेहरे पर बेबसी के साथ एक चमक भी थी, जिसे वह बखूबी सब से छुपा ले रहा था.

‘‘आप लोग जैसा सही सम झें वैसा करें,’’ कह कर आदिल अपने कमरे में आ गया.

आखिरकार आननफानन अशरफ का निकाह तय हो गया. लड़की गरीब घर की थी, पर बेहद खूबसूरत थी.

पूरे घर में निकाह की खुशियां थीं, पर आदिल का मन भारी था. उस का जी चाह रहा था कि वह जाए और लड़की वालों को रिपोर्ट के सारे कागज दिखा कर सबकुछ सच बता दे या फिर अशरफ के पास जा कर खूब खरीखोटी सुनाए, पर यह मुद्दा इतना संजीदा था कि आदिल ने अपनी जबान सिल ली और आंखों पर पट्टी बांध ली.

निकाह हो चुका था. अब्बू और अम्मी के चेहरे पर खुशियां चमक रही थीं, पर इस के पीछे जो काली बदली थी, उस से सब अनजान थे या अनजान होने का दिखावा कर रहे थे.

अशरफ और नाज की शादी को एक साल पूरा हो गया और नाज उम्मीद से थी यानी वह मां बनने वाली थी.

घर में सब खुश थे, पर हमेशा अंदर ही अंदर डरे हुए और फिर वह स्याह दिन भी आ गया, जिस को कोई बुलाना नहीं चाहता था.

अशरफ की तबीयत अचानक बिगड़ गई. पीरफकीर,  झाड़फूंक कोई कसर नहीं छोड़ी गई, पर सब बेमानी साबित हुआ.

नाज अब बेवा हो चुकी थी. उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. सभी का सम झानाबु झाना बेकार साबित हुआ. वह तो रोरो कर हलकान हुए जाती थी. आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

कहते हैं कि वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है और इस मरहम ने इस परिवार पर भी अपना असर दिखाया. अब रोनापीटना तो नहीं था, पर नाज की उदासी और उस के कमरे से आती सिसकियों का जवाब किसी के पास नहीं था और होता भी कैसे. अगर नाज के बेवा होने में कोई जिम्मेदार था, तो यही सब लोग थे.

अशरफ को गुजरे 6 महीने हो गए. तब अब्बू ने अपने घर में महल्ले के एक बड़े बुजुर्ग, शहर के काजी और नाज के अब्बा को बुलाया.

तय समय पर सभी लोग इकट्ठा हुए, आंगन में कुरसियां डाल दी गईं.

शरबतपानी के बाद अब्बू ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप मेरे बुलावे पर मेरे घर तशरीफ लाए हैं, इस का मैं शुक्रिया अदा करता हूं और जैसा कि आप लोगों को मालूम है कि मेरा बड़ा बेटा अशरफ अब नहीं रहा. घर में उस की बेवा है और वह बच्चे की मां भी बनने वाली है. उस की आगे की जिंदगी बेहतरी से गुजरे और हमारे घर की इज्जत घर में ही रहे, इस के लिए हम चाहते हैं कि हमारी बहू को हमारा छोटा बेटा आदिल सहारा दे और नाज से निकाह कर ले, जिस से नाज को सहारा भी मिल जाएगा और उस के आने वाले बच्चे को अपने अब्बा का नाम भी मिल जाएगा.

‘‘अगर मेरी बात से किसी को भी एतराज हो तो बे िझ झक अपनी बात कह सकता है,’’ कह कर अब्बू चुप हो गए.

अब्बू की बात का हर शब्द आदिल के कानों में चुभता चला गया.

‘आज अब्बू क्या करना चाहते हैं. पहले तो बीमार अशरफ का निकाह करा दिया और अब उस की बेवा से मेरी शादी कराना चाहते हैं. ठीक है नाज भाभी को सहारे की जरूरत है, पर मेरे भी ख्वाब हैं, मेरे भी अरमान हैं,’ आदिल सोचता चला गया.

महल्ले के बुजुर्ग, काजी किसी को कोई दिक्कत नहीं थी.

इतने लोगों के सामने आदिल की भी कुछ बोलने की हिम्मत न हुई और सभी के राजीनामे के बाद आदिल और नाज के निकाह का ऐलान किया जाने वाला था कि तभी परदे के पीछे से नाज की धीमी मगर सख्त लहजे वाली आवाज आई, ‘‘आप सब बड़े काबिल लोगों के सामने मु झे यों बोलना नहीं चाहिए और मैं इस गलती के लिए आप सब से माफी मांगती हूं, पर यहां बात 3 जिंदगियों की है, इसलिए मु झे बोलना ही पड़ रहा है.

‘‘सब से पहले अब्बू मैं आप से कहना चाहती हूं कि आप तो मु झे अपनी बेटी बना कर लाए थे. सबा के ससुराल जाने के बाद इस घर की बेटी की कमी मैं ने ही पूरी की थी न, फिर आज अचानक मैं आप को गैर लगने लगी. क्या मेरा और आप का रिश्ता सिर्फ इन तक ही था और इन के जाते ही मैं आप को बो झ लगने लगी?

‘‘और आप सब हजरात ऐसा क्यों सम झ रहे हैं कि एक बेवा को हमेशा ही किसी मर्द के सहारे की जरूरत होती है? क्या इतना काफी नहीं है कि वह अपने पति की यादों के सहारे जिंदगी काट दे? क्या दोबारा निकाह कराना मेरी रूह पर चोट पहुंचाने जैसा नहीं होगा? जिस जिस्म और रूह पर मैं उन का नाम लिख चुकी हूं, उस पर किसी और को हक कैसे दे सकती हूं?

‘‘और जहां तक आदिल की बात है, वह तो अभी पढ़ रहा है और उस की अभी शादी की उम्र भी नहीं है. उस की अपनी एक अलहदा जिंदगी है, जिसे वह अपने अंदाज से जीना चाहेगा. जहां तक मेरी बात है तो मेरे लिए किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं अपना गुजारा खुद कर सकती हूं. मैं ने बीए तक पढ़ाई की है. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकती हूं. मु झे सिलाई का काम भी आता है. मैं घर बैठे सिलाई कर सकती हूं. मु झे बाकी कुछ नहीं चाहिए.

‘‘अब्बू और अम्मी, आप लोगों को भी मेरे हाल पर अफसोस करने की जरूरत नहीं है. शादी की पहली ही रात में उन्होंने मु झे अपनी बीमारी के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया था और अपनी सारी रिपोर्टें मु झे दिखा दी थीं. उन्होंने यह बता दिया था कि वे कभी भी मेरा साथ छोड़ कर जा सकते हैं.

‘‘उन्होंने यह बात मु झे इसलिए बताई, क्योंकि वे चाहते थे कि उन के जाने के बाद मैं उन्हें धोखेबाज न कहूं और न ही उन के सीने पर कोई भी बो झ रहे. उन्होंने यह सब बताने के बाद मु झ से कहा था कि अब मैं चाहूं तो उन को तलाक दे सकती हूं, पर मैं ने उन को तलाक देने से ज्यादा उन की बेवा बनना ठीक सम झा, क्योंकि मान लीजिए कि उन्हें कोई बीमारी न होती और फिर भी वे किसी हादसे का शिकार हो जाते तो ऐसे में कोई क्या कर लेता.

‘‘उन की निशानी मेरे अंदर पल रही है. मैं उन की यादों के सहारे ही बाकी जिंदगी काट सकती हूं. अब उन की निशानी बेटे के रूप में आए या बेटी के रूप में, रगों में उन का ही खून दौड़ेगा न,’’ इतना कह कर नाज पल्लू से अपनी गीली आंखें पोंछने लगी.

अब्बू परदा हटा कर अंदर आए और नाज को गले से लगा लिया. वे बोले, ‘‘नाज बेटी, तुम्हारा नाम तुम्हारे मायके वालों ने सही रखा है. आज उन की नाज पर हम सब को भी नाज है.’’

सभी लोगों की आंखें ससुरबहू के इस प्यार पर बारबार भर आती थीं.

Hindi Story : ऐसा ही होता है

Hindi Story : जब से यह पता चला कि गंगूबाई धंधा करते हुए पकड़ी गई है,  तब से लक्ष्मी की बस्ती में हड़कंप मच गया. क्यों?  ‘‘सुनती हो लक्ष्मी…’’ मांगीलाल ने आ कर जब यह बात कही, तब लक्ष्मी बोली, ‘‘क्या है… क्यों इतना गला फाड़ कर चिल्ला रहे हो?’’

‘‘गंगूबाई के बारे में कुछ सुना है तुम ने?’’

‘‘हां, उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…’’ लक्ष्मी ने सीधा सपाट जवाब दिया, ‘‘अब क्यों ले गई, यह मत पूछना.’’

‘‘मु झे सब मालूम है…’’ मांगीलाल ने जवाब दिया, ‘‘कैसा घिनौना काम किया. अपने मरद के साथ ही धोखा किया.’’

‘‘धोखा तो दिया, मगर बेशर्म भी थी. उस का मरद कमा रहा था, तब धंधा करने की क्या जरूरत थी?’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘उस की कोई मजबूरी रही होगी,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘अरे, कोई मजबूरी नहीं थी. उसे तो पैसा चाहिए था, इसलिए यह धंधा अपनाया. उस का मरद इतना कमाता नहीं था, फिर भी वह बनसंवर के क्यों रहती थी? अरे, धंधे वाली बन कर ही पैसा कमाना था, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ जाती. महल्ले की सारी औरतों को बदनाम कर दिया,’’ लक्ष्मी ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी.

‘‘उस का पति ट्रक ड्राइवर है. बहुत लंबा सफर करता है. 8-8 दिन तक घर नहीं आता है. ऐसे में…’’

‘‘अरे, आग लगे ऐसी जवानी को…’’ बीच में ही बात काट कर लक्ष्मी  झल्ला पड़ी, ‘‘मैं उस को अच्छी तरह जानती हूं. वह पैसों के लिए धंधा करती थी. अच्छा हुआ जो पकड़ी गई, नहीं तो बस्ती की दूसरी औरतों को भी बिगाड़ती. न जाने कितनी लड़कियों को अपने साथ इस धंधे में डालने की कोशिश करती वह बदचलन औरत.’’

‘‘उस के साथ तो और भी औरतें होंगी?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘हांहां, होंगी क्यों नहीं, बेचारा मरद तो ट्रक ड्राइवर है. देश के न जाने किसकिस कोने में जाता रहता है. कभीकभार तो 15-15 दिन तक घर नहीं आता है. तब गंगूबाई की जवानी में आग लगती होगी… बु झाने के बहाने यह धंधा अपना लिया.’’

‘‘क्या करें लक्ष्मी, जवानी होती ऐसी है…’’ मांगीलाल ने जब यह बात कही, तब लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘तू क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है?’’

‘‘पूरी बस्ती में गंगूबाई की थूथू जो हो रही है,’’ मांगीलाल ने बात पलटते हुए कहा.

लक्ष्मी बोली, ‘‘दिन में कैसी सती सावित्री बन कर रहती थी.’’

‘‘मगर, तू उसे बारबार कोस क्यों रही है?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘कोसूं नहीं तो क्या पूजा करूं उस बदचलन की,’’ उसी गुस्से से फिर लक्ष्मी बोली, ‘‘करतूतें तो पहले से दिख रही थीं. उसे मेहनत कर के कमाने में जोर आता था, इसलिए नासपीटी ने यह धंधा अपनाया.’’

‘‘अब तू लाख गाली दे उसे, उस ने तो कमाई का साधन बना रखा था. अरे, कई औरतें कमाई के लिए यह धंधा करती हैं…’’ मांगीलाल ने जब यह कहा, तब लक्ष्मी आगबबूला हो कर बोली,

‘‘तू क्यों बारबार दिलचस्पी ले रहा है? तेरा क्या मतलब? तु झे काम पर नहीं जाना है क्या?’’

‘‘जा रहा हूं बाबा, क्यों नाराज हो रही हो?’’ कह कर मांगीलाल तो चला गया, मगर लक्ष्मी न जाने कितनी देर तक गंगूबाई की करतूतों को ले कर बड़बड़ाती रही, फिर वह भी बरतन मांजने के लिए कालोनी की ओर बढ़ गई.

इस कालोनी में लक्ष्मी 4-5 घरों में बरतन मांजने का काम करती है. मांगीलाल किराने की दुकान पर मुनीमगीरी करता है. उस के एक बेटा और एक बेटी है. छोटा परिवार होने के बावजूद घर का खर्च मांगीलाल की तनख्वाह से जब पूरा नहीं पड़ा, तब लक्ष्मी भी घरघर जा कर बरतनबुहारी करने लगी. वह कालोनी वालों के लिए एक अच्छी मेहरी साबित हुई. वह रोजाना जाती थी. कभी जरूरी काम से छुट्टी भी लेनी होती थी, तब वह पहले से सूचना दे देती थी.

गंगूबाई लक्ष्मी की बस्ती में ही उस के घर से 5वें घर दूर रहती है. उस का मरद ट्रक ड्राइवर है, इसलिए आएदिन बाहर रहता है. उस के 2 बेटे अभी छोटे हैं, इसलिए उन्हें घर छोड़ कर गंगूबाई रात में कमाई करने जाती है.

पूरी बस्ती में यही चर्चा चल रही थी. गंगूबाई पर सभी थूथू कर रहे थे.

छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. उसे कई बार आधीआधी रात को घर आते हुए देखा था. वह कई बार किसी अनजाने मरद को भी अपने घर में बुला लेती थी, फिर बस्ती वालों को भनक लग गई. उन्होंने एतराज किया कि अनजान मर्दों को घर में बुला कर दरवाजा बंद करना अच्छी बात नहीं है.

तब गंगूबाई ने गैरमर्दों को घर बुलाना बंद कर दिया. तब से उस ने कमाने के लिए किसी होटल को अड्डा बना लिया था. पुलिस ने जब उस होटल पर छापा मारा, तब उस के साथ 3 औरतें और पकड़ी गई थीं. मतलब, होटल वाला पूरा गिरोह चला रहा था.

बस्ती वालों को शक तो बहुत पहले से था, मगर जब तक रंगे हाथ न पकड़ें तब तक किसी पर कैसे इलजाम लगा सकें. छोटे बच्चे जब पूछते थे, तब गंगूबाई कहती थी, ‘‘मैं ने नौकरी कर ली है. तुम्हारा बाप तो 10-15 दिन तक ट्रक पर रहता है, तब पैसे भी तो चाहिए.’’

ऐसी ही बात गंगूबाई बस्ती वालों से कहती थी कि वह नौकरी करती है.

बस्ती वाले सवाल उठाते थे कि नौकरी तो दिन में होती है, भला रात में ऐसी कौन सी नौकरी है, जो वह करती है?

मगर, गंगूबाई ऐसी बातों को हंसी में टाल देती थी. मगर जब भी उस का मरद घर पर होता था, तब वह शहर नहीं जाती थी. तब बस्ती वाले सवाल उठाते, ‘जब तेरा मरद घर पर रहता है, तब तू क्यों नहीं नौकरी पर जाती है?’

तब वह हंस कर कहती, ‘‘मरद 10-15 दिन बाद सफर कर के थकाहारा आता है. तब उस की सेवा में लगना पड़ता है.’’

तब बस्ती वाले कहते, ‘तू जोकुछ कह रही है, उस में जरा भी सचाई नहीं है. कभीकभी आधी रात को आना शक पैदा करता है. लगता है कि नौकरी के बहाने…’

‘‘बसबस, आगे मत बोलो. बिना देखे किसी पर इलजाम लगाना अपराध है. आप मेरी निजी जिंदगी में  झांक रहे हैं. क्या पेट भरने के लिए नौकरी करना भी गुनाह है?’’

तब बस्ती वालों ने गंगूबाई को अपने हाल पर छोड़ दिया. मगर वे सम झ गए थे कि गंगूबाई धंधा करती है.

‘‘लक्ष्मी, कहां जा रही है?’’ लक्ष्मी की सारी यादें टूट गईं. यह उस की सहेली कंचन थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बरतन मांजने जा रही हूं साहब लोगों के बंगले पर.’’

‘‘धत तेरे की, कुछ गंगूबाई से सबक सीख,’’ कंचन मुसकराते हुए बोली.

‘‘किस नासपीटी का नाम ले लिया तू ने,’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘बिस्तर पर सो कर कमा रही थी और तू उसे नासपीटी कह रही है?’’

‘‘उस ने औरत जात को बदनाम कर दिया है. मरद तो बेचारा परदेश में पड़ा रहता है और वह छोटे बच्चों को घर छोड़ कर गुलछर्रे उड़ा रही थी. उस के बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘अरे, पुलिस उस के बच्चों को भी अपने साथ ले गई है…’’ कंचन ने जवाब दिया, ‘‘गंगूबाई पर शक तो बहुत पहले से था.’’

‘‘मगर, किसी ने उसे आज तक रंगे हाथ नहीं पकड़ा है,’’ लक्ष्मी ने जरा तेज आवाज में कहा.

‘‘हां, पकड़ा तो नहीं…’’ कंचन ने कहा, फिर वह आगे बोली, ‘‘अरे, तु झे काम पर जाना है न, जा बरतन मांज कर अपनी हड्डियां गला.’’

लक्ष्मी साहब के बंगले की तरफ बढ़ चली. आज उसे देर हो गई, इसलिए वह जल्दीजल्दी जाने लगी. सब से पहले उसे त्रिवेदीजी के बंगले पर जाना था.

जब लक्ष्मी त्रिवेदीजी के बंगले पर पहुंची, तब मेमसाहब उसी का इंतजार कर रही थीं. वे नाराजगी से बोलीं, ‘‘आज देर कैसे हो गई लक्ष्मी?’’

‘‘क्या करूं मेमसाहब, आज बस्ती में एक लफड़ा हो गया.’’

‘‘अरे, बस्ती में लफड़ा कब नहीं होता. वहां तो आएदिन लफड़ा होता रहता है.’’

‘‘बात यह नहीं है मेमसाहब. गंगूबाई नाम की औरत धंधा करती हुई पकड़ी गई है.’’

‘‘इस में भी कौन सी नई बात है. बस्ती की गरीब औरतें यह धंधा करती हैं. गंगूबाई ने ऐसा कर लिया, तब तो उस की कोई मजबूरी रही होगी.’’

‘‘अरे मेमसाहब, यह बात नहीं है. वह शादीशुदा है और 2 बच्चों की मां भी है.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां होना गुनाह है क्या? पैसा कमाने के लिए ज्यादातर औरतें यह धंधा करती हैं…’’ मेम साहब बोलीं, ‘‘औरतें इस धंधे में क्यों आती हैं? इस की जड़ पैसा है. इन गरीब घरों में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मेमसाहब, आप पढ़ीलिखी हैं, इसलिए ऐसा सोचती हैं. मगर, मैं इतना जरूर जानती हूं कि छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. अब आप से कौन बहस करे… यहां से मुझे गुप्ताजी के घर जाना है. अगर देर हो गई तो वहां भी डांट पड़ेगी,’’ कह कर लक्ष्मी रसोईघर में चली गई.

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