बच्चों की मासूमियत से खिलवाड़ करते परिजन

कम उम्र में बच्चे लाखों रुपए हासिल कर मातापिता की कमाई का जरिया बन रहे हैं. टीवी और विज्ञापनों की चकाचौंध अभिभावकों की लालसा को इस कदर बढ़ा रही है कि इस के लिए वे अपने बच्चों की मासूमियत और उन के बचपन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. घंटों मेकअप और कैमरे की बड़ीबड़ी गरम लाइट्स के बीच थकाऊ शूटिंग बच्चों को किस कदर त्रस्त करती होगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन, इन सब से बेखबर मातापिता अपने लाड़लों को इस दुनिया में धकेल रहे हैं. कुछ समय पहले कानपुर में भारी बरसात के बीच दोढाई हजार बच्चों के साथ उन के मातापिता 3 दिनों तक के चक्कर लगाते एक औडिटोरियम में आते रहे ताकि साबुन बनाने वाली कंपनी के विज्ञापन में उन बच्चे नजर आ जाएं. कंपनी को सिर्फ 5 बच्चे लेने थे. सभी बच्चे चौथी-पांचवीं के छात्र थे और ऐसा भी नहीं कि इन 4-5 दिनों के दौरान बच्चों के स्कूल बंद थे, या फिर बच्चों को मोटा मेहनताना मिलना था.

विज्ञापन में बच्चे का चेहरा नजर आ जाए, इस के लिए मांबाप इतने व्याकुल थे कि इन में से कई कामकाजी मातापिता ने 3 दिनों के लिए औफिस से छुट्टी ले रखी थी. वे ठीक उसी तरह काफीकुछ लुटाने को तैयार थे जैसे एक वक्त किसी स्कूल में दाखिला कराने के लिए मांबाप डोनेशन देने को तैयार रहते हैं.

30 लाख बच्चे कंपनियों में रजिस्टर्ड : महानगर और छोटे शहरों के मांबाप, जो अपने बच्चों को अत्याधुनिक स्कूलों में प्रवेश दिलाने के लिए हायतौबा करते हुए मुंहमांगा डोनेशन देने को तैयार रहते हैं अब वही अपने बच्चों का भविष्य स्कूलों की जगह विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में रुपहले परदे पर चमक दिखाने से ले कर सड़क किनारे लगने वाले विज्ञापनबोर्ड पर अपने बच्चों को टांगने के लिए तैयार हैं.

आंकड़े बताते हैं कि हर नए उत्पाद के साथ औसतन देशभर में सौ बच्चे उस के विज्ञापन में लगते हैं. इस वक्त 2 सौ से ज्यादा कंपनियां विज्ञापनों के लिए देशभर में बच्चों को छांटने का काम इंटरनैट पर अपनी अलगअलग साइटों के जरिए कर रही हैं. इन 2 सौ कंपनियों ने 30 लाख बच्चों का पंजीकरण कर रखा है. वहीं, देश के अलगअलग हिस्सों में करीब 40 लाख से ज्यादा बच्चे टैलीविजन विज्ञापन से ले कर मनोरंजन की दुनिया में सीधी भागीदारी के लिए पढ़ाईलिखाई छोड़ कर भिड़े हुए हैं.

इन का बजट ढाई हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का है. जबकि देश की सेना में देश का नागरिक शामिल हो, इस जज्बे को जगाने के लिए सरकार 10 करोड़ रुपए का विज्ञापन करने की सोच रही है. यानी, सेना में शामिल हों, यह बात भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर मौडलिंग करने वाले युवा ही देश को बताएंगे.

सवाल सिर्फ पढ़ाई के बदले मौडलिंग करने की ललक का नहीं है, बल्कि जिस तरह शिक्षा को बाजार में बदला गया और निजी कालेजों में नएनए कोर्सों की पढ़ाई हो रही है, उस में छात्रों को न तो कोई भविष्य नजर आ रहा है और न ही शिक्षण संस्थान भी शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए कोई खास मशक्कत कर रहे हैं. वे अपनेअपने संस्थानों को खूबसूरत तसवीरों और विज्ञापनों के जरिए उन्हीं छात्रों के विज्ञापनों के जरिए चमका रहे हैं, जो पढ़ाई और परीक्षा छोड़ कर मौडलिंग कर रहे हैं.

मातापिता की महत्त्वाकांक्षा : चिंता की बात यह है कि बच्चों से ज्यादा उन के मातापिता के सिर पर चकाचौंध, लोकप्रियता व ग्लैमर का भूत सवार है. वे किसी भी तरह अपने बच्चों को इन माध्यमों का हिस्सा बनाना चाहते हैं. होड़ इतनी ज्यादा है कि सिर्फ कुछ सैकंडों के लिए विज्ञापनों में अपने लाड़लों का चेहरा दिख जाने के बदले में मातापिता कई घंटों तक बच्चों को खेलनेखाने से महरूम रख देते हैं. तो क्या बच्चों का भविष्य अब काम पाने और पहचान बना कर नौकरी करने में ही जा सिमटा है या फिर शिक्षा हासिल करना इस दौर में बेमानी हो चुका है या शिक्षा के तौरतरीके मौजूदा दौर के लिए फिट नहीं हैं?

मांबाप तो हर उस रास्ते पर बच्चों को ले जाने के लिए तैयार हैं जिस रास्ते पर पढ़ाईलिखाई माने नहीं रखती है. असल में यह सवाल इसलिए कहीं ज्यादा बड़ा है क्योंकि सिर्फ छोटेछोटे बच्चे नहीं, बल्कि 10वीं और 12वीं के बच्चे, जिन के लिए शिक्षा के मद्देनजर कैरियर का सब से अहम पड़ाव परीक्षा में अच्छे नंबर लाना होता है, वह भी विज्ञापन या मनोरंजन की दुनिया में कदम रखने का कोई मौका छोड़ने को तैयार नहीं होते.

डराने वाली बात यह है कि परीक्षा छोड़ी जा सकती है, लेकिन मौडलिंग नहीं. भोपाल में 12वीं के 8 छात्र परीक्षा छोड़ कंप्यूटर साइंस और बिजनैस मैनेजमैंट इंस्टिट्यूट की विज्ञापन फिल्म में 3 हफ्ते तक लगे रहे. यानी पढ़ाई के बदले पढ़ाई के संस्थान की गुणवत्ता बताने वाली विज्ञापन फिल्म के लिए परीक्षा छोड़ कर काम करने की ललक ज्यादा महत्त्व वाली हो चली है.

सही शिक्षा से दूर बच्चे : महज सपने नहीं, बल्कि स्कूली बच्चों के जीने के तरीके भी कैसे बदल रहे हैं, इस की झलक इस से भी मिल सकती है कि एक तरफ सीबीएसई की 10वीं व 12वीं की परीक्षाओं के लिए छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए मानव संसाधन मंत्रालय सरकार से 3 करोड़ रुपए का बजट पास कराने के लिए जद्दोजेहद कर रहा है तो दूसरी तरफ स्कूली बच्चों की विज्ञापन फिल्म का हर बरस का बजट 2 सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का हो चला है.

एक तरफ सरकार मौलिक अधिकार के तहत 14 बरस तक की उम्र के बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराने के मिशन में जुटी है, तो दूसरी तरफ 14 बरस तक की उम्र के बच्चों के जरिए टीवी, मनोरंजन और रुपहले परदे की दुनिया हर बरस एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा मुनाफा बना रही है. जबकि मुफ्त शिक्षा देने का सरकारी बजट इस मुनाफे का 10 फीसदी भी नहीं है. यानी वैसी पढ़ाई यों भी बेमतलब सी है, जो इंटरनैट या गूगल से मिलने वाली जानकारी से आगे जा नहीं पा रही है.

वहीं, जब गूगल हर सूचना उपलब्ध कराने का सब से बेहतरीन साधन बन चुका है और शिक्षा का मतलब भी सिर्फ सूचना के तौर पर जानकारी हासिल करना भर बन कर रह गया है तो फिर देश में पढ़ाई का मतलब अक्षर ज्ञान से आगे जाता कहां है. ऐसे में देश की नई पीढ़ी किधर जा रही है, यह सोचने के लिए इंटरनैट, गूगल या विज्ञापन की जरूरत नहीं है. बस, बच्चों के दिमाग को पढ़ लीजिए या उन के मातापिता के नजरिए को समझ लीजिए, जान जाइएगा.

उम्र 6 माह, कमाई 17 लाख : मुंबई की विज्ञापन एजेंसी द क्रिएटिव ऐंड मोटिवेशनल कौर्नर के चीफ विजुअलाइजर अक्षय मोहिते के अनुसार, विज्ञापन मातापिता के लिए तिजोरी भरने जैसा है. क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि 6 माह से ले कर डेढ़ साल तक के बच्चे, जो न तो बोल पाते हैं और न ही जिन्हें लाइट, साउंड, ऐक्शन का मतलब पता है, अपने मातापिता को लाखों कमा कर दे रहे हैं.

आजकल टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में 65 फीसदी विज्ञापनों को शामिल किया जाता है. मोहिते बताते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर डायपर बनाने वाली एक कंपनी ने महज 17 सैंकंड के विज्ञापन के लिए 6 माह के बच्चे को 17 लाख रुपए की फीस दी.

सिंदूर का बोझ उठाती औरतें

तना कमजोर होता है और एक उच्च शिक्षिता, स्वावलंबी, आत्मनिर्भर स्त्री का मन भी. पति छोड़ कर चला जाता है, दूसरी शादी कर लेता है लेकिन वह उस के नाम का सिंदूर कभी नहीं छोड़ती. वह परित्यक्ता का जीवन बिताती है लेकिन सिंदूर की आड़ में अपने पारिवारिक अलगाव को छिपाना चाहती है. पति साथ में नहीं है और सिंदूर भी नहीं लगाएगी तो समाज सवाल उठाएगा. इस से उस के मतभेद बाहर आ जाएंगे और न चाहते हुए भी वह दोषी ठहराई जाएगी.

आज हम बेटी को बेटे की ही तरह उच्चशिक्षा दे रहे हैं. उसे किताबी ज्ञान तो हासिल हो जाता है लेकिन साथ ही उसे जन्म से ही लड़की होने का एहसास भी कराते हैं और यह एहसास उस के इस मन में जहर बन कर फैल जाता है, जिस से वह कभी बाहर नहीं आ पाती.

बेटी में कभी इतना साहस नहीं आता कि वह अपनी खुशियों के लिए समाज को ठोकर मार सके. उस की सोच में, उसे उसी समाज में रहना है और वह उसी समाज का हिस्सा है, तो समाज के खिलाफ वह कैसे जाए. गरीब अनपढ़ को तो समझ में आता है कि उस का समाज वैसा ही है, उस की मान्यताएं वैसी ही हैं. लेकिन उच्चशिक्षा हासिल करने के बाद भी अगर स्त्री समाज के डर से खुद को सुरक्षित रखने के लिए सिंदूर लगाती है, तो उस की शिक्षा का क्या महत्त्व रह जाता है?

अगर वह शिक्षित हो कर भी समाज की बेडि़यों को तोड़ने का साहस नहीं दिखाती तो फिर उस ने शिक्षित हो कर नारी के उत्थान में, समाज के विकास में, सामाजिक परिवर्तन में क्या योगदान दिया?

कभी पढ़ा था, एक स्त्री एक परिवार को शिक्षित करती है लेकिन यह तो पुराने जमाने की बात थी. यदि तब एक स्त्री एक परिवार को शिक्षित करती थी, तो आज की एक शिक्षित स्त्री को तो एक गांव, एक समुदाय या एक वर्ग को शिक्षित करना चाहिए. पर वह शिक्षित हो कर भी समाज का सामना करने से डरती है. पति के छोड़ जाने के बाद खुद को सुरक्षित रखने के लिए सिंदूर का सहारा लेती है.

एक समय था जब चाहे जितने भी मतभेद हो जाएं, विवाहविच्छेद नहीं होते थे जैसे भी हो औरत तड़प कर सताई जाने पर भी रिश्ते निभाती थी. आज की स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, इसलिए वह साहस करती है ऐसे बोझ बन चुके रिश्तों से छुटकारा पाने का. लेकिन थोड़ा और साहस क्यों नहीं जुटाती, क्यों नहीं वह गर्व से कहती कि वह एक शिक्षित, आत्मनिर्भर एकल महिला है, उसे अपने निर्णय पर कोई अफसोस नहीं. उसे भी अपनी जिंदगी, पुरुष की ही तरह, अपनी शर्तों पर बिताने का पूरा हक है. शिक्षा और तकनीक के युग में सिंदूर का बोझ न उठाएं, बल्कि अपनी जिंदगी को अपने अधिकारों के साथ जीएं.

औनलाइन बिक्री में अब रिश्ते भी हैं मौजूद

अपनेपन से पनपने वाले रिश्ते यों तो अनमोल होते हैं लेकिन अगर यही रिश्ते कुछ कीमत में या किराए पर मिल जाएं तो? यह सवाल इसलिए है कि अब तकनीक के दौर में रिश्ते औनलाइन शौपिंग वैबसाइटों पर प्यार की गारंटी के साथ तय समय के लिए भी मिलने लगे हैं.

पत्नी के प्यार के साथ, मातापिता ममता के दिखावे के साथ तो बच्चे फैमिली पैकेज के तौर पर डिस्काउंट के साथ उपलब्ध हैं, वह भी एक फोन कौल पर. अभी तक ये हालात जापान और चीन जैसे देशों में थे, लेकिन कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जल्दी ही भारत में भी इन की शुरुआत हो जाए.

ऐसा अंदेशा उन घटनाओं से जन्म ले रहा है जो बीते कुछ समय में सामने आई हैं जिन में पत्नी की बोली पति ने औनलाइन लगा दी तो सास से त्रस्त बहू ने सास को ही बेचने का विज्ञापन औनलाइन चस्पां कर दिया. पत्नी ने पति को कम कीमत में बेचने का विज्ञापन दे डाला.

उन लोगों के लिए यह सुनना अजीब हो सकता है जिन्होंने रिश्तों की बुनियाद को प्रेम से सींचते देखा है, लेकिन रिश्तों की अहमियत से बेफिक्र और ब्रेकअप, बौयफ्रैंड जैसी पश्चिमी संस्कृति में रंगे एक खास तबके के लिए यह एक सहूलियत और अवसर है. यही वजह है कि अब रिश्ते औनलाइन दुकानों पर बिक रहे हैं. साथ ही, ब्रेकअप कराने वाली वैबसाइट्स भी वजूद में आ गई हैं जो ब्रेकअप को ज्यादा रोचक व आसान बना रही हैं.

भारत जैसे देश में इस तरह की घटनाएं इसलिए भी ज्यादा ध्यान खींचती हैं क्योंकि यहां रिश्तों की मर्यादा जिंदगी से भी बड़ी मानी जाती है. इस के बावजूद इसी देश में औनलाइन दुकानों पर किफायती कीमत पर रिश्तों का कारोबार जन्म ले रहा है.

हालांकि ऐसी घटनाएं भी सामने आती रही हैं जब जिगर के टुकड़े चंद रुपयों में बेच दिए गए तो बेटियों, पत्नियों के भी खरीदनेबेचने के मामले सुने गए, जो कभी पेट की खातिर तो कभी परंपरा के नाम पर अंजाम दिए गए. मगर ये चंद ही घटनाएं है जो अज्ञानता और भुखमरी की तसवीरें बयां करती हैं, लेकिन तकनीक से कदम मिला कर चलते उन लोगों की सोच पर कौन लगाम लगाए जो रिश्तों की बोली भी लगा रहे हैं और इन की खरीदफरोख्त भी कर रहे हैं.

औनलाइन संस्कृति

अपनी आदर्श संस्कृति के लिए मशहूर देश भारत में कोई भी धर्म मजहब हो, दासप्रथा जैसी बुराइयों से सभी त्रस्त रहे. नए हिंदुस्तान में इस बुराई को कानून बना कर दूर करने की कोशिश की गई. इस से काफी रोक भी लगी. इस के बावजूद महाराष्ट्र के नांदेड़ के वैधु समाज जैसे कुछ समुदायों में परंपराओं के नाम पर चोरी छिपे बेटियों को बेचने का चलन आज भी जारी है. लेकिन, यहां सवाल उस नई प्रथा की शुरुआत का है जिसे आज की औनलाइन संस्कृति जन्म दे रही है.

रिश्तों के कारोबार के चलन से यह आशंका भी जोर पकड़ रही है कि कहीं यह चलन समाज को खींच कर फिर उसी कबीलाई दौर की तरफ न ले जाए जहां इंसान बेचे खरीदे जाते थे. दासप्रथा में तो फिर भी दूसरे समुदाय के बंदी बनाए गए लोगों को बेचा जाता था लेकिन इस नए समाज में तकनीक घर बैठे सास, पत्नी और पति को बेचने की सहूलियतें भी मुहैया करा रही है, जो समाज के लिए कहीं ज्यादा खतरनाक है.

ऐसी ही एक घटना ने रिश्तों  को शर्मसार कर दिया जब पति ने ही पत्नी की औनलाइन बोली लगा दी. हरियाणा के पटियाकार गांव में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को पौर्न फिल्म मेकर को बेच दिया क्योंकि पत्नी दहेज नहीं लाई थी और उसे दहेज की कीमत वसूल करनी थी.

मार्च 2016 में मिनी मुंबई के नाम से मशहूर मध्य प्रदेश के इंदौर में दिलीप माली ने अपनी पत्नी और बेटी की बोली सोशल साइट पर लगा दी. इस के लिए उस ने सोशल साइट पर पत्नी और बेटी की फोटो अपलोड की और लिखा, ‘‘मैं कर्ज के बोझ तले दबा हूं, मुझे किसी को पैसे लौटाने हैं, इसलिए मुझे रुपयों की जरूरत है. जो मेरी बीवी, बच्ची को खरीदना चाहे, मुझ से संपर्क करे.’’

उस ने पत्नी की कीमत भी तय कर दी 1 लाख रुपए. साथ ही, अपना मोबाइल नंबर भी दर्ज कर दिया ताकि लोग आसानी से उस से संपर्क कर सकें.

अपना प्राइस टैग

वहीं, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो रातों रात अमीर बनने के ख्वाब देखते हैं और इस सपने को साकार करने की कोशिश में वे अपनी ही बोली लगा देते हैं. आईआईटी खड़गपुर के एक छात्र आकाश नीरज मित्तल ने खुद को फ्लिपकार्ट पर बेचने की कोशिश की. इस के लिए उस ने फ्लिपकार्ट की वैबसाइट पर खुद ही एक विज्ञापन भी चस्पां कर डाला. साथ ही, छात्र ने विज्ञापन में अपनी कीमत 27,60,200 रुपए भी लिखी और फ्री डिलीवरी का विकल्प भी दिया. उच्च शिक्षित युवा की ऐसी सोच किस तरह के समाज को गढ़ रही है, समझा जा सकता है.

वर्ष 2015 में औनलाइन खरीदफरोख्त का ऐसा एक मामला सामने आया जिस ने सोचने पर मजबूर कर दिया था. सासबहू सीरियल बुद्धूबक्से पर महिलाओं के मनोरंजन का खास जरिया बनते रहे हैं. इन में खासकर सासबहू के रिश्तों की जो कड़वाहट परोसी जाती है उस ने भी महिलाओं की सोच को काफी हद तक प्रभावित किया है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. यही वजह है कि नफरत की आग में जल रही एक बहू ने शौपिंग साइट पर अपनी सास की तसवीर को न सिर्फ अपलोड किया बल्कि उस ने शब्दों में भी अपनी नफरत उजागर की.

कंपनी की साइट पर विज्ञापन में उस ने लिखा, ‘‘मदर इन-ला, गुड कंडीशन, सास की उम्र 60 के करीब है, लेकिन कंडीशन फंक्शनल है, आवाज इतनी मीठी कि आसपास वालों की भी जान ले ले. खाने की शानदार आलोचक. आप कितना ही अच्छा खाना बना लें, वे खामी निकाल ही देंगी. बेहतरीन सलाहकार भी हैं. कीमत कुछ भी नहीं, बदले में चाहिए दिमाग को शांति देने वाली किताबें.’’

कीमत के स्थान को खाली छोड़ दिया गया. इस तरह का विज्ञापन देख वैबसाइट ने कुछ ही देर में विज्ञापन हटा दिया. बहू की इस हरकत को आईटी कानून के तहत अपराध माना गया और उस के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही हुई.

एक महिला ने क्विकर के पैट्स सैगमैंट में अपने पति की फोटो डाल कर लिखा था, ‘हसबैंड फौर सेल’ और पति की कीमत मात्र 3,500 रुपए. उस ने पैट टाइप में लिखा था, ‘‘हसबैंड, कीमत 3,500 रुपए.’’ वहीं, इसी साइट पर एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को मात्र 100 रुपए में बेचने का विज्ञापन इन शब्दों के साथ दिया, ‘‘यह आदर्श पत्नी है, घर का काम बहुत अच्छे से करती है पर बोलती बहुत है, इसलिए इतने कम दाम में बेच रहा हूं.’’

कुछ भी बेचने की संस्कृति

रिश्तों की यह कौन सी परिभाषा है जो नएपन के इस दौर में लोगों में अपने आप ही पनपने लगी है. कुछ भी बेच दो की संस्कृति कम से कम भारतीय समाज के स्वभाव से तो मेल नहीं खाती. हालांकि इसी समाज में कुछ लोग अपने बच्चों का सौदा करते रहे हैं. बिहार राज्य के गरीबी से त्रस्त लोग बेटियों को बेचने के लिए बदनाम हैं ही. वहीं, हरियाणा में बेटियों को पेट में ही मारने के चलन के साथ महिलाओं को खरीद कर उन से विवाह करने के मामले सामने आना नई बात नहीं है.

गरीबी और प्राकृतिक आपदाओं से तबाह हुए लोगों के बारे में भी सामने आता रहा है कि वे कुछ वक्त की रोटी के लिए अपने बच्चों को बेचने पर मजबूर हो जाते हैं. बीते साल पटना के नंदनगर में पति की प्रताड़ना और आर्थिक तंगी से मजबूर एक महिला ने अपनी दुध मुंही बच्ची को महज 10 हजार रुपयों के लिए बेच दिया.

जुलाई 2015 में रांची के करमटोली की गायत्री ने भुखमरी से तंग आ कर अपनी 8 माह की बेटी को 14 हजार रुपए में बेचा. इसी साल मध्य प्रदेश के मोहनपुर गांव के एक किसान लाल सिंह ने 1 साल के लिए अपने 2 बेटों को 35,000 रुपयों में बेच दिया. वजह थी तबाह हुई फसल और कर्ज.

उत्तर प्रदेश के मेरठ में एक महिला का बयान रिश्तों के खोखले पन को उजागर कर गया जब उस ने अपने पति पर अपने ही 5 बच्चों को बेचने का आरोप लगाया. वहीं बुंदेलखंड के सहरिया आदिवासी लोगों द्वारा कर्र्ज की वजह से अपने बच्चों को बेचने की घटनाएं देश की बदहाली की दास्तां पेश करती रही हैं.

भारत और इंडिया दोनों में ही इंसानों को बेचने का चलन जारी है, फिर वजह चाहे खुशी से किसी को खरीदने की हो या बदहाली में बेचने की. हर हाल में यहां इंसान बिक रहे हैं. ऐसे में भला भविष्य में संबंधों के प्रति सम्मान की संस्कृति बने रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

 यह कैसा नया समाज है जहां पुराने समाज की कुरीतियां आधुनिकता के नाम पर अपनाई जा रही हैं. जापान में तो ‘रैंट ए वाइफ औटटावा डौट कौम’ नाम की वैबसाइट बनी हुई है जिस पर मांबाप, पत्नी और पति किसी भी रिश्ते को किराए पर लेने की सुविधा दी जा रही है. वहीं, चीन जैसे तेजी से विकसित हो रहे देश में भी बेच दो संस्कृति पैर पसारे हुए है. वहां के फुजियान प्रांत में एक दंपती ने अपनी 18 माह की बच्ची को महज 3,530 डौलर यानी 2.37 लाख रुपए में सिर्फ इसलिए औनलाइन बेचने का विज्ञापन पोस्ट किया क्योंकि उन्हें आईफोन खरीदना था. एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन में हर साल

2 लाख बच्चों का अपहरण कर उन्हें औनलाइन बेचा जाता है.

वहीं, अमेरिका में एक आदमी ने अपनी बाइक के साथ अपनी पत्नी की फोटो भी औनलाइन सेल के लिए डाल दी और लिखा, ‘‘मेरी बाइक 2006 की मौडल है और मेरी पत्नी 1959 मौडल है जो दिखने में बहुत ही खूबसूरत है.’’

ब्राजील में 2013 में एक व्यक्ति का अपने बच्चे को बेचने का औनलाइन विज्ञापन चर्चा का विषय बना था, क्योंकि वह बच्चे के रोने के शोर से बचने के लिए उसे बेचना चाहता था. देशदुनिया में इंसान नहीं बिक रहे, बल्कि औनलाइन पशुओं को बेचने की भी शुरुआत हो गई है और इंसानों की कीमत से कहीं ज्यादा में पशु बिक रहे हैं. साथ ही, उन के गोबर की भी बिक्री हो रही है. दिसंबर 2014 में अमेरिका में औनलाइन कंपनी ‘कार्ड्स अगेंस्ट ह्यूमैनिटी’ ने 30 हजार लोगों को महज 30 मिनट में गोबर तक बेच दिया. लोगों ने गोबर क्यों खरीदा, यह जिज्ञासा का विषय हो सकता है.

मनपसंद डेटिंग पार्टनर

आखिर औनलाइन खरीदारी की तरफ लोगों का अंधझुकाव क्यों है? इस की वजह शायद आकर्षक औफर और घर बैठे खरीदारी की सहूलियत है. एसोचैम और प्राइसवाटर हाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) ने अपने अनुमान में कहा है कि बाजार में सुस्ती के बावजूद 2017 में औनलाइन शौपिंग में 78 फीसदी बढ़ोतरी की संभावना है. 2015 में यह 66 फीसदी थी. लोगों के इसी रुझान को देख कर वे लोग भी लाभ उठाने को तैयार बैठे हैं जो औनलाइन इंसानी रिश्तों को बेचने के मौके तलाश रहे हैं. तकनीक ने ऐसे लोगों के हाथ में औनलाइन खरीदारी के तौर पर एक नया विकल्प दे दिया है.

इतना ही नहीं, रिश्तों के साथ ही किसी महिला या पुरुष के साथ वक्त गुजारने का जरिया भी कुछ वैबसाइट दे रही हैं. हाल में महिलाओं के लिए डेटिंग औनलाइन शौपिंग वैबसाइट्स लोगों की तवज्जुह अपनी तरफ खींच रही है. इस पर महिलाएं अपनी पसंद का पुरुष चुनने, उन के साथ डेटिंग करने की सहूलियत पा सकती हैं.

अमेरिकी समाचार पत्र ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इंटरनैट डेटिंग का ट्रैंड तो बढ़ ही रहा है, साथ ही अपराध भी पनप रहा है. वहीं कुछ साइट्स समलैंगिकों के लिए भी जारी हैं. चूंकि भारत में इस तरह के रिश्ते अपराध माने जाते हैं, ऐसे में समलैंगिक औनलाइन डेटिंग के जरिए अपना पार्टनर तलाश कर रहे हैं.

इस के लिए कई साइट्स औनलाइन डेटिंग ऐप, ग्रिडर, एलएलसी, प्लैनेट रोमियो बीवी ऐप्स उपलब्ध करा रही हैं. भारत में ये ऐप्स काफी लोकप्रिय हो रहे हैं.

इंटरनैट, औनलाइन खरीदारी जैसी सहूलियतें जीवन को आसान बनाने के लिए हैं, मगर इन्हीं पर रिश्तों का मजाक बन रहा है. प्राइस टैग के साथ औनलाइन रिश्तों की बिक्री समाज में किस तरह का बदलाव लाएगी, समझने की जरूरत है.

बच्चे जब होस्टल से घर आएं तो उन्हें मेहमान न बनाएं

नुपूर की मां की तबीयत थोड़ी खराब रहती थी तो वे उम्मीदकर रही थीं कि बेटी घर आएगी तो उन्हें कुछ आराम मिलेगा, यानी बेटी उन के काम में हाथ बंटाएगी. लेकिन बेटी कुछ कहने पर भड़क जाती.

वह  कहती कि घर पर भी इंसान थोड़ी आजादी से नहीं रह पाता. हर बात पर टोकाटाकी. नुपूर की मां ने सोचा कि घर में शांति बनी रहे, इसलिए बेटी से कुछ कहना ही छोड़ दिया. उस का मन करे सोए या जागे. लेकिन जल्द इस खातिरदारी से वे थकने लगीं.

इंजीनियरिंग तृतीय वर्ष का छात्र रक्षित 2 महीने की लंबी छुट्टियों में  होस्टल से घर आया था. कई दिनों से उस के मम्मीपापा उस का इंतजार कर रहे थे. लेकिन वह घर आ कर अलगथलग रहने लगा था. दोपहर तक सोता रहता, पापा कब दफ्तर जाते हैं, उसे पता ही नहीं चलता. मम्मी नाश्ता ले कर उस का इंतजार करतीं कि कब वह सो कर उठे और वे सुबह के कामों से फारिग हों, जब खाना खाने बैठता तो काफी नखरे करता.

रात को जब सब सोने चले जाते तो वह देररात तक जागता रहता. पेरैंट्स के साथ कुछ मदद करना तो दूर, वह उलटा उन के रूटीन को बिगाड़ उन से अपेक्षा करता कि उसे कोई कुछ न कहे.

ऐसा व्यवहार एकदो घरों में ही नहीं, बल्कि आजकल सभी घरों में आम हो चला है. बच्चों पर आरोप लगते हैं कि वे तो खुद को नवाब समझते हैं. शुरू में लाड़प्यार में मातापिता को भी अच्छा लगता है कि बच्चा थक कर आया है, कुछ दिन आराम करे. पर बच्चों को यह एहसास ही नहीं होता कि उन का भी कुछ फर्ज बनता है. जिस तरह वे बचपन में हर चीज के लिए मां पर निर्भर रहते थे, वही सोच उन की अब भी बरकरार रहती है.

जिम्मेदारियों का एहसास कराएं

उन के घर से बाहर जाने पर इन वर्षों में मां पर भी उम्र की चादर चढ़ी है, यह उन्हें पता ही नहीं चलता. मां भावनाओं में बहती हुई स्नेहवश अपनी क्षमता से अधिक उसी तरह बच्चों की देखभाल और सेवा करती नहीं अघाती है, जैसे करती आई है.

ऐसा नहीं है कि सभी बच्चे आलसी और स्वार्थी होते हैं. जिन घरों में होस्टल या नौकरी से आए हुए बच्चों के साथ मेहमान की तरह नहीं, बल्कि घर के सदस्य की तरह व्यवहार किया जाता है, वहां बच्चे वक्त के साथ घर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भी अपडेट होते रहते हैं.

समृद्धि की मां का पेट का औपरेशन हुआ था. उन्हें आराम की सख्त जरूरत थी, उसी दौरान समृद्धि के कालेज की लंबी छुट्टियां हो गईं. समृद्धि हर छुट्टी की तरह इन छुट्टियों में भी देर तक सोने व घर के कामों से दूर रहने की फिराक में थी. दरअसल, उसे एहसास ही नहीं था कि उस की मां इस बार काम करने में असमर्थ हैं. 2-3 दिनों के बाद समृद्धि के पापा ने कड़े शब्दों में उसे उस की जिम्मेदारी का एहसास करवाया.

पापा के खुल कर समझाते ही उस का दिमाग मानो ठिकाने पर आ गया. फिर तो समृद्धि ने घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लीं और अपनी मां को पूरी तरह आराम करने दिया. उस की छुट्टी खत्म होने तक जहां समृद्धि की मां स्वस्थ हो गई थीं, वहीं वह भी इस दौरान रसोई और घर के कई काम सीख चुकी थी, जो जीवन में उसे बहुत काम आए.

हेमंत और हेमा जब भी लंबी छुट्टियों में घर आते तो दोनों भाईबहन अपनी मां को व्यस्त रखते. दोनों मम्मी से नईनई फरमाइशें करते. लेकिन इस बार मम्मी ने अपनी शर्त रख दी कि वे तभी उन की पसंद की डिशेज बनाएंगी जब वे दोनों उन की मदद करेंगे. दोनों ने काफी नानुकुर की क्योंकि ज्यादातर समय वे या तो सोते रहते या फिर अपने मोबाइल पर व्यस्त रहते और मां उन की फरमाइशों में व्यस्त रहतीं. नतीजा उन के जाने के बाद वे अकसर बीमार पड़ जातीं.

लेकिन इस बार उन्होंने ठान रखी थी कि उन्हें घर के रूटीन वर्क में शामिल करना है. आखिर उन्होंने सहयोग करना शुरू किया. पहले तो बेमन से, लेकिन फिर दोनों भाईबहन पूरी तत्परता से मां के साथ हाथ बंटाने लगे.

सब्जी लाने से ले कर रसोईघर में स्पैशल डिश बनाने के दौरान वे साथ रहते. एक तरफ जहां मां को आराम मिला वहीं दूसरी ओर उन के दिलों के राज और ख्वाइशों से भी वे परिचित हो गईं.

आनंदमोहन तो बेटे के आते ही उसे कई काम सौंप देते हैं, जैसे बिल पेमैंट्स, कार सर्विसिंग या फिर घर की मरम्मत करना आदि.

कहने का मतलब है कि होस्टल या नौकरी से आने वाले ग्रोनअप बच्चों को यह एहसास होना चाहिए कि वे होटल में नहीं, बल्कि घर आए हैं और भविष्य की जिम्मेदारियों की ट्रेनिंग लेनी भी जरूरी है. संयुक्त परिवारों के इतर एकल परिवारों में जब बच्चे आते हैं तो खुशी के मारे पेरैंट्स कुछ सनक सा जाते हैं. खुशी के अतिरेक में वे बच्चों की बिलकुल मेहमानवाजी ही करने लगते हैं.

बच्चों का प्यार से घर में स्वागत सही है पर यही वह समय होता है जब एक बच्चा घरसंसार की बातें सीखता है. बच्चों को अपने बदलते स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति से भी रूबरू कराते रहें. वे घर के सदस्य हैं, उन्हें किसी भ्रम में नहीं रखना चाहिए. दरअसल, बच्चों से बातें छिपा कर हम भी उन्हें बेगाना बनाते हैं.

जिम्मेदारियों का बोध कराना जरूरी है. वरना बेटा हो या बेटी, वे मेहमानों की ही तरह आतेजाते रहेंगे और धीरेधीरे अपनी ही दुनिया में रमते जाएंगे.

कुशीनगर हादसा: रीतिरिवाज और बदइंतजामी की सजा

शैलेंद्र सिंह

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में शादी की एक रस्म ‘मटिकोडवा’ होती है. इस में हलदी की रस्म के बाद गांवघर की औरतें शादीब्याह के देशी गानों को गाती और डांस करती हैं.

जिस तरह से शहरों में ‘संगीत’ का कार्यक्रम होता है, वैसे परमेश्वर कुशवाहा के घर शादी में यह कार्यक्रम हो रहा था. हलदी की रस्म के बाद घर के बाहर ही नाचगाना हो रहा था. उस को देखने के लिए कुछ औरतें और जवान लड़कियां पुराने कुएं के ऊपर चढ़ गई थीं.

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वैसे तो कुएं का इस्तेमाल अब गांवों में बंद हो चुका है. ऐसे में उन के ऊपर स्लैब डाल कर उन्हें बंद कर दिया जाता है. यह स्लैब बहुत मजबूत नहीं होता है. इस की वजह यह है कि इन को दोबारा जरूरत पड़ने पर खोलने का औप्शन रखा जाता है.

कुशीनगर के नेबुआ नौरंगिया थाने के नौरंगिया गांव के स्कूल टोला में परमेश्वर कुशवाहा के घर शादी की रस्म ‘मटिकोडवा’ निभाने के दौरान हो रहे डांस को देखने के लिए बड़ी तादाद में लोग इस कुएं के स्लैब पर चढ़ गए थे. स्लैब उन का भार सहन नहीं कर पाया और टूट गया, जिस की वजह से 22 औरतें, जवान लड़कियां और किशोरियां कुएं में गिर गईं. इस दर्दनाक हादसे में 22 में से 13 जनों की मौत हो गई.

गांव के लोगों ने पुलिस की मदद से 9 औरतों और किशोरियों को बचा लिया. उत्तर प्रदेश सरकार ने कुशीनगर हादसे में मारे गए लोगों के परिवार वालों को 4-4 लाख रुपए की सहायता राशि देने की घोषणा की है.

प्रमुख शहर का हाल बेहाल

कुशीनगर इलाका गोरखपुर से 53 किलोमीटर पूर्व में बसा है. कुशीनगर से 20 किलोमीटर आगे जाने पर बिहार राज्य की सीमा शुरू हो जाती है. कुशीनगर का नाम महात्मा बुद्ध के चलते मशहूर है. यहां उन का निर्वाण हुआ था.

बौद्ध धर्म के मानने वाले महात्मा बुद्ध का ‘परिनिर्वाण दिवस’ मनाते हैं. दुनियाभर से तीर्थयात्री यहां आते हैं.

कुशीनगर प्रमुख बौद्ध पर्यटक शहरों में आता है. वर्ल्ड लैवल पर इस का नाम है. वहां अभी भी जागरूकता नहीं है. गांव के लोग यह नहीं सम?ा रहे हैं कि इस तरह की भीड़ लगाने से हादसे हो सकते हैं.

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महात्मा बुद्ध ने हमेशा हिंदू धर्म की कुरीतियों और रीतिरिवाजों का विरोध किया था. इस के बाद भी शादीब्याह के पुराने रीतिरिवाज अभी भी चल रहे हैं, जिन की वजह से ऐसे हादसे होते रहते हैं. इस हादसे में मरने वालों में बड़ी तादाद गरीब परिवारों की है.

नहीं मिली समय पर मदद

नौरंगिया गांव के लोगों ने बताया कि अगर सही समय पर इलाज और एंबुलैंस मिल जाती, तो कई और लोगों को बचाया जा सकता था. गांव के करीब के कोटवा सीएचसी पर न तो डाक्टर थे और न ही एंबुलैंस सही समय पर पहुंची.

यह घटना रात के तकरीबन साढ़े 8 बजे घटी थी. गांव के लोगों ने तुरंत ही एंबुलैंस को फोन किया कि लोग निकाले जा रहे हैं, उन को अस्पताल पहुंचाना है. इस के बाद भी एंबुलैंस नहीं आई.

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इस के बाद 9 बज कर, 10 मिनट पर और फिर साढ़े 10 बजे दोबारा फोन किया गया. रात में अंधेरा होने की वजह से बचाव और राहत कामों में मुश्किलें पैदा हुई थीं.

उत्तर प्रदेश में चुनाव का समय चल रहा है. इस वजह से मरने वालों को 4-4 लाख रुपए और घायलों को 50-50 हजार रुपए की मदद देने की घोषणा आननफानन में हो गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने शोक संदेश जारी कर दिए.

अगर उत्तर प्रदेश सरकार के दावे के मुताबिक 10 से 20 मिनट में एंबुलैंस लोगों को मिल रही है, तो यहां वह देर से कैसे पहुंची? योगी सरकार के विकास का दावा यहां फेल होता दिखा.

6 टिप्स: छोटे घर में कैसे बढ़ाएं भाई-बहन का प्यार

परिवार एक एकल इकाई है, जहां पेरैंट्स और बच्चे एकसाथ रहते हैं. इन्हें प्रेम, करुणा, आनंद और शांति का भाव एकसूत्र में बांधता है. यही उन्हें जुड़ाव का एहसास प्रदान करता है. उन्हें मूल्यों की जानकारी बचपन से ही दी जाती है, जिस का पालन उन्हें ताउम्र करना पड़ता है. जो बच्चे संयुक्त परिवार के स्वस्थ और समरसतापूर्ण रिश्ते की अहमियत समझते हैं, वे काफी हद तक एकसाथ रहने में कामयाब हो जाते हैं.

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साथ रहने के फायदे

बच्चों के साथ जुड़ाव और बेहतरीन समय बिताने से हंसीठिठोली, लाड़प्यार और मनोरंजक गतिविधियों की संभावना काफी बढ़ जाती है. इस से न सिर्फ सुहानी यादें जन्म लेती हैं बल्कि एक स्वस्थ पारिवारिक विरासत का निर्माण भी होता है.

इस का मतलब यह नहीं है कि हमेशा ही सबकुछ ठीक रहता है. एक से अधिक बच्चों वाले घर में भाईबहनों का प्यार और उन की प्रतिद्वंद्विता स्वाभाविक है. कई बार स्थितियां मातापिता को उलझन में डाल देती हैं और वे अपने स्तर पर स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं तथा घर में शांतिपूर्ण स्थिति का माहौल बनाते हैं.

कम जगह में आपसी प्यार बढ़ाने के खास टिप्स बता रही हैं शैमफोर्ड फ्यूचरिस्टिक स्कूल की फाउंडर डायरैक्टर मीनल अरोड़ा :

व्यक्तिगत स्वतंत्रता की व्यवस्था :

प्रत्येक बच्चे के लिए एक कमरे में व्यक्तिगत आजादी का प्रबंध करने से उन में व्यक्तिगत जुड़ाव की भावना का संचार होता है. प्रत्येक बच्चे के सामान यानी खिलौनों को उस के नाम से अलग रखें और उस की अनुमति के बिना कोई छू न सके. बच्चों में स्वामित्व की भावना परिवार से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है जिस से अनेक सकारात्मक परिवर्तन होते हैं. कमरे को शेयर करने के विचार को दोनों के बीच आकर्षक बनाएं.

नकारात्मक स्थितियों से बचाएं बच्चों को :

भाईबहनों में दृष्टिकोण के अंतर के कारण आपस में झगड़े होते हैं. इस के कारण वे कुंठा को टालने में कठिनाई महसूस करते हैं और किसी भी स्थिति में नियंत्रण स्थापित करने के लिए झगड़ते रहते हैं, आप अपने बच्चों को ऐसे समय इस स्थिति से दूर रहने के लिए गाइड करें.

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हमें अपने बच्चों को झगड़े की स्थिति को पहचानने में सहायता करनी चाहिए और इसे शुरू होने के पहले ही समाप्त करने के तरीके बताने चाहिए.

व्यक्तिगत सम्मान की शिक्षा दें :

प्रत्येक व्यक्ति का अपना खुद का शारीरिक और भावनात्मक स्थान होता है, जिस की एक सीमा होती है, उस का सभी द्वारा सम्मान किया जाना चाहिए. बच्चों को समर्थन दे कर उन की सीमाओं को मजबूत करें.

उन्हें दूसरे बच्चों की दिनचर्या और जीवनशैली का सम्मान करने की शिक्षा भी दें. यदि दोनों भाईबहन पहले से निर्धारित सीमाओं से संतुष्ट हैं तो उन के बीच पारस्परिक सौहार्द बना रहता है.

क्षतिपूर्ति सुनिश्चित करें :

कभी ऐसा भी समय आता है, जब एक बच्चा दूसरे बच्चे की किसी चीज को नुकसान पहुंचा देता है या उस से जबरन ले लेता है. ऐसे में पेरैंट्स को चाहिए कि जिस बच्चे की चीज ली गई है उस बच्चे की भावनाओं का खयाल कर उस के लिए नई वस्तु का प्रबंध करें और गलत काम करने वाले बच्चे को उस की गलती का एहसास करवाएं.

इस से परिवार में अनुशासन और ईमानदारी सुनिश्चित होगी. इस से भाईबहनों को भी यह एहसास होता है कि पेरैंट्स उन का खयाल रखते हैं और घर में न्याय की महत्ता बरकरार है.

चरित्र निर्माण में सहयोग :

एकदूसरे के नजदीक रहने से दूसरे के आचारव्यवहार पर निगरानी बनी रहती है. किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगा रहता है. यानी कि बच्चा चरित्रवान बना रहता है. किसी समस्या के समय दूसरे उस का साथ देते हैं. दूसरी और, सामूहिक दबाव भी पड़ता है और बच्चा गलत कार्य नहीं कर पाता. अत: मौरल विकास अच्छा होता है.

बच्चे की जागरूकता की प्रशंसा करें :

यदि कोई बच्चा समस्या के समाधान की पहल करता है और नकारात्मक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करता है तो उस की प्रशंसा करें.

समस्या के समाधान के सकारात्मक नजरिए को सम्मान प्रदान करें, क्योंकि इस से उस का बेहतर विकास होगा और वह परिपक्वता की दिशा में आगे बढ़ेगा. प्रोत्साहन मिलने से हम अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होते हैं.

इस से बच्चों को अपनी उपलब्धियों पर गर्व का एहसास होगा और वे इस स्वभाव को दीर्घकालिक रूप से आगे बढ़ाएंगे. हमेशा बच्चे द्वारा नकारात्मक स्थिति में सकारात्मक समाधान तलाशने के प्रयास की प्रशंसा करें.

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याद रखें इन नुस्खों को अपना कर आप अपने बच्चों को संभालने में आसानी महसूस करेंगे. भाईबहन एकदूसरे के पहले मित्र और साझीदार होते हैं, जो एक सुंदर व स्वस्थ समरसता को साझा करते हैं, इस से कम जगह में भी पूरा परिवार खुशीखुशी जीवन व्यतीत कर सकता है.

बलात्कार के बाद जन्मा बच्चा नाजायज और बोझ क्यों?

वाकिआ 9 नवंबर, 2016 का है. मध्य प्रदेश के खंडवा जिला अस्पताल में 16 साला कल्पना (बदला नाम) ने एक बच्ची को जन्म दिया, लेकिन उसे अपनाने से इनकार कर दिया और अपने मांबाप के साथ घर लौट गई.

वह नवजात बच्ची जिला अस्पताल में बिन मां के रही, बाद में उसे बच्चों की परवरिश करने वाली एक संस्था को सौंप दिया गया. कल्पना एक साल पहले मांबाप के साथ अपने गांव सिंगोट से महाराष्ट्र गई थी, जहां उस के मांबाप मजदूरी कर पेट पालते थे.

एक दिन पड़ोस में ही रहने वाले सतीश नाम के नौजवान ने उस का बलात्कार किया, जिस से वह पेट से हो गई. सतीश ने उसे सख्त लहजे में धौंस दी थी कि अगर बलात्कार की बात किसी को बताई, तो वह उस के छोटे भाई को जान से मार डालेगा.

यह बात सुन कर कल्पना डर गई और किसी को नहीं बताया, लेकिन जब उस के पेट से होने की बात उजागर हुई, तो बात छिपी नहीं रह सकी. उस ने वापस खंडवा आ कर सच बताया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और बच्चा गिराया नहीं जा सकता था.

बच्ची के पैदा होने पर हकीकत पता चली, तो पुलिस ने सतीश को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. बलात्कार से पैदा हुई बच्ची से कल्पना का कोई मतलब नहीं, जो बच्चा पालने वाली संस्थाओं में जैसेतैसे पल तो जाएगी, लेकिन उस का कोई भविष्य नहीं है, जबकि उस के मांबाप दोनों जिंदा हैं. ऐसे में कानूनी पेचीदगियों के चलते उसे आसानी से किसी जरूरतमंद मियांबीवी को गोद भी नहीं दिया जा सकता.

क्या करती कल्पना

 क्या कल्पना ने गलत किया? इस सवाल पर बहस की गुंजाइशें मौजूद हैं, जो एक हद तक उस के हक में ही जाती हैं कि एक नाबालिग, कम पढ़ीलिखी लड़की कैसे एक दुधमुंही बच्ची को पालती, जो खुद अपना पेट पालने के लिए अपने मांबाप की मुहताज है?

यह गलती कल्पना की गरीबी के अलावा सामाजिक हैसियत के साथसाथ हवस के मारे सतीश की ज्यादा थी, जिस ने कल्पना की मजबूरी का फायदा उठाया और उसे जिंदगीभर के लिए जिस्मानी व दिमागी तकलीफ भोगने के लिए मजबूर कर दिया.

समाज ऐसे पैदा हुए बच्चों को किस नजरिए से देखता है, यह बात किसी सुबूत की मुहताज नहीं कि उसे नाजायज कहा जाता है. जाहिर है, ऐसे में कल्पना के कान ताने सुनसुन कर पक जाते और उस का इज्जत और सुकून से जीना दूभर हो जाता, क्योंकि यह नाजायज बच्ची एक ऐसे ढोल की तरह उस के गले में पड़ी रहती, जिसे लोग अपना दिल बहलाने के लिए बजाते रहते.

अब कुछ साल बाद मुमकिन है कि कल्पना की शादी कहीं हो जाए. यह हालांकि मौके की बात है कि बात छिपी रहे और कोई दरियादिल नौजवान सच जानने के बाद उसे जीवनसाथी बनाने को तैयार हो जाए.

अगर ऐसा हुआ तो कल्पना का भविष्य तो संवर जाएगा, पर वह बेगुनाह बच्ची जिंदगीभर एक ऐसे जुर्म की सजा भुगतती रहेगी, जो उस ने किया ही नहीं था. वह तो एक जुर्म की उपज थी.

हालांकि मुमकिन यह भी है कि उसे भी कोई जरूरतमंद मियांबीवी गोद ले लें, उस की अच्छी परवरिश करें, तालीम दिलाएं और अपना नाम दें, पर इस से बलात्कार से पैदा हुए बच्चों की दिनोंदिन बढ़ती परेशानियां सुलझने वाली नहीं, क्योंकि देश में हर साल घूरों, डस्टबिनों, बसअड्डों और रेलवे स्टेशनों पर लाखों नाजायज बच्चे मरे हुए मिलते हैं.

हिम्मती पार्वती

 उस के उलट एक मामला दिल्ली के पौश इलाके का है, जहां पढ़ेलिखे और सुलझे दिलोदिमाग वाले लोग रहते हैं.  ऐसी ही एक कालोनी में तकरीबन 15 साल पहले पार्वती (बदला नाम) अपनी दुधमुंही बच्ची को ले कर आई थी और काम की तलाश में भटक रही थी.

पार्वती की दिक्कत कल्पना सरीखी ही थी. उस की बच्ची के बाप का कोई अतापता नहीं था. दिल्ली जैसे बड़े शहर में बच्ची को गोद में लटकाए वह काम की तलाश में घूमती रही और कामयाब भी रही. अच्छी बात यह थी कि यहां लोग कुरेदकुरेद कर बच्ची के पिता के बारे में नहीं पूछते थे.

एक साहब ने उसे सहारा दिया, तो पार्वती की जिंदगी ढर्रे पर आ गई. वह घरों में काम करने लगी और बच्ची धीरेधीरे बड़ी होती गई. अब वह बच्ची 12 साल की है और कोई पार्वती से यह नहीं पूछता कि उस का बाप कौन है.

पार्वती के साथ बलात्कार हुआ था या उस ने प्यार में धोखा खाया था, ये बातें उतनी अहम नहीं हैं, जितनी यह कि वह अपनी गुजरी जिंदगी के हादसे को भूल कर बच्ची की बेहतर परवरिश कर रही है और खुश है.

पार्वती की हिम्मत तो दाद देने के काबिल है ही, पर तारीफ उन लोगों की भी करना जरूरी है, जिन्होंने पार्वती के गुजरे कल से वास्ता न रखते हुए बच्ची को पालने में उस की मदद की.

दरअसल, कल्पना और पार्वती थीं तो एक ही हादसे की शिकार, पर उन्हें माहौल अलगअलग मिला था. कल्पना उस समाज में रहती थी, जहां बलात्कार से पैदा हुए बच्चे को हिकारत से देखा जाता है, साथ ही, पीडि़ता को किसी भी लैवल पर नहीं बख्शा जाता.

इस के उलट पार्वती को उन लोगों का सहारा मिल गया था, जो ऐसे हादसों को अपने एक अलग नजरिए से देखते हैं और कोई भेदभाव न रखते हुए हमदर्दी और इनसानियत से पेश आते हुए किसी की जिंदगी संवारने में अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं.

क्या कहता है कानून

बलात्कार से पैदा हुए बच्चों के बारे में अब अदालतें भी पीडि़ता और बच्चे से हमदर्दी रखने लगी हैं, क्योंकि इस में उन की कोई गलती नहीं होती है.

13 दिसंबर, 2016 को दिल्ली हाईकोर्ट ने एक चर्चित मुकदमे में फैसला सुनाते हुए कहा था कि बलात्कार से जन्म लेने वाली औलाद निश्चित रूप से अपराधी के गंदे काम की उपज है और वह उस की मां को मुआवजे में मिली रकम से अलग मुआवजे की हकदार है.

इस मामले में एक पिता ने अपनी नाबालिग सौतेली बेटी से बलात्कार किया था, जिस पर उसे अदालत ने कुसूरवार पाए जाने पर उम्रकैद की सजा सुनाई थी. लेकिन बच्ची का क्या होगा, इस पर जस्टिस गीता मित्तल और जस्टिस आरके गाबा की बैंच ने उस बच्ची के भविष्य के बाबत अलग से मुआवजे की बात कही है.

ऐसे ही एक मामले में 4 नवंबर, 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी कहा था कि बलात्कार से पैदा हुई औलाद अपने असल पिता यानी बलात्कारी की जायदाद में बतौर वारिस हकदार होगी.

तब जस्टिस शबीहुल हसनैन और जस्टिस डीके उपाध्याय की बैंच ने पहल करते हुए यह हिदायत दी थी कि बलात्कार से पैदा हुई औलाद को दुराचारी की नाजायज औलाद माना जाएगा और उस का पिता की जायदाद पर हक होगा.

अदालत ने अपने फैसले में यह भी जोड़ा था कि अगर कोई और ऐसे बच्चे को गोद ले लेता है, तो उस का अपने असल पिता की जायदाद में कोई हक नहीं रह पाएगा.

इस मामले में भी गरीब परिवार की एक 13 साला लड़की साल 2015 की शुरुआत में बलात्कार के चलते पेट से हो गई थी. घर वालों को जब इस बात का पता चला, तब तक सुरक्षित गर्भपात की मीआद यानी 21 हफ्ते से ज्यादा का वक्त बीत चुका था.

हालांकि लड़की के घर वालों ने बच्चा गिराने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था और लड़की का कहना यह था कि वह अपने साथ हुए इस बलात्कार के भयावह हादसे की निशानी को साथ ले कर नहीं जी सकती. आखिरकार उसे बच्चे को जन्म देना ही पड़ा, पर बच्चे को साथ रखने से उस ने भी इनकार कर दिया था.

तो क्या करें

हालांकि कानून अब बलात्कार से पैदा हुए बच्चों से हमदर्दी दिखा रहा है और बलात्कारी की जायदाद में से हिस्सा दिलाने की भी बात कर रहा है. पर उस समाज का नजरिया बदलने का कोई जरीया उस के पास भी नहीं है, जहां रह कर पीडि़ता और बच्चे को जिंदगी गुजारनी होती है.

ऐसे में बलात्कार से मां बनी ये लड़कियां क्या करें? कल्पना की तरह अस्पताल में बच्चा छोड़ कर कहीं भाग जाएं या पार्वती की तरह हिम्मत दिखाते हुए हालात से लड़तेजूझते उस की परवरिश करें, उसे मां का प्यार दें, उस की जिंदगी बचाएं. इन में से कोई एक रास्ता पीडि़ता को चुनना पड़ता है. ज्यादातर पीडि़ता कल्पना वाला रास्ता चुनने को मजबूर रहती हैं.

पर अब समाज का नजरिया बदल रहा है, इसलिए पीडि़ता को हिम्मत न हारते हुए बच्चे की परवरिश करना ही एक बेहतर उपाय है.

यह हालांकि बेहद मुश्किल भरा काम है, लेकिन नामुमकिन नहीं है, इसलिए बच्चे को दूर ले जा कर परवरिश करना एक कारगर उपाय है.

पर इस के लिए जरूरत हिम्मत और दिमाग के साथसाथ हमदर्दी हासिल करने की होती है, जो अकसर बड़ी कालोनियों के बड़े लोगों से मिल जाती है, लेकिन अपने माहौल और समाज के लोगों से नहीं मिलती.

प्यार में धोखा खाई लड़कियां भी कई दफा इसी तरह मां बन जाती हैं. हर कहीं ऐसी पीडि़ताएं मिल जाती हैं और अखबारों की सुर्खियां भी बनती हैं.

ऐसा जमाने से होता चला आ रहा है कि वासना के मारे मर्द गरीब लड़की जो अकसर छोटी जाति की होती थी, को अपनी हवस का शिकार बना कर उन्हें मां बना देते थे और अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेते थे.

अब जमाना लोकतंत्र का है और कानून ऐसी पीडि़ताओं के साथ है, जो पीडि़ता और बच्चे को हक भी दिलाता है. ऐसे में समाज भी लड़की की बेगुनाही समझते हुए उसे इज्जत से रहने दे, तो 2 जिंदगियां संवर सकती हैं, जो आम लोगों की तरह इज्जत से जीने की हकदार होती है.

कई हिंदी फिल्मों में इस बात को फिल्माया गया है कि कैसे हीरो हीरोइन को धोखा देता है और मां बना कर मुंह छिपा कर भाग जाता है. बाद में हीरो बड़ा हो कर अपने नाजायज बाप से अपनी मां के साथ हुई ज्यादती का बदला लेता है.

अमिताभ बच्चन की हिट फिल्में ‘त्रिशूल’ और ‘लावारिस’ भी इसी मुद्दे पर बनी थीं. लेकिन वे फिल्में थीं, जिन का हकीकत में एक हद तक ही लेनादेना होता है, इसलिए नजरिया आम लोगों को ही बदलना होगा कि बलात्कार के मामलों में लड़की या बच्चे का क्या कुसूर? वे गुनाहगार या नाजायज क्यों?

कोई जायज पिता बच्चे पैदा कर अपनी जिम्मेदारियों से मुकर जाए, तो भी औरत को बच्चे की परवरिश करनी पड़ती है, ताने सुनने पड़ते हैं और तरहतरह की ज्यादतियां सहन करनी पड़ती हैं. जब उन के बच्चे नाजायज नहीं, तो बलात्कार पीडि़ता के बच्चे नाजायज क्यों?

बुराई: नहीं रुक रहा दलितों पर जोर जुल्म का सिलसिला

वेणीशंकर पटेल ‘ब्रज’

23 जनवरी, 2022 को मध्य प्रदेश के सागर जिले के बंडा पुलिस थाना क्षेत्र के गांव गनिहारी में दिलीप कुमार अहिरवार की बरात धूमधाम से निकल रही थी कि गांव के दबंगों को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने दलित परिवार की शादी में आए मेहमानों की गाडि़यों पर पथराव कर दिया. बाद में भीम आर्मी और पुलिस के दखल से मामले को रफादफा कराया गया.

मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में जुलाई, 2019 में ग्राम पंचायत मस्तापुर के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल में अनुसूचित जाति, जनजाति के बच्चों को हाथों में मिड डे मील दिया जा रहा था.

बच्चों ने अपनी आपबीती महकमे के अफसरों को बता कर कहा कि स्कूल में भोजन देने वाले स्वयंसहायता समूह में राजपूत जाति की औरतों को रसोइया रखने के चलते वे निचली जाति के लड़केलड़कियों से छुआछूत रखती हैं और उन्हें हाथ में खाना परोसा जाता है. अगर वे अपने घर से थाली ले जाते हैं, तो उन थालियों को बच्चों को खुद ही साफ करना पड़ता है.

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इसी तरह अगस्त, 2019 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के रामपुर प्राइमरी स्कूल में एक चौंकाने वाला मामला सामने आया था. वहां पर स्कूल में बच्चों को दिए जाने वाले मिड डे मील में जातिगत भेदभाव के चलते दलित बच्चों को ऊंची जाति के दूसरे बच्चों से अलग बैठा कर भोजन दिया जाता था.

रामपुर के प्राइमरी स्कूल में कुछ ऊंची जाति के छात्र खाना खाने के लिए अपने घरों से बरतन ले कर आते थे और वे अपने बरतनों में खाना ले कर एससी, एसटी समुदाय के बच्चों से अलग बैठ कर खाना खाते थे.

दलितपिछड़ों की हमदर्द बनने का ढोंग करने वाली सरकारें पीडि़त लोगों को केवल मुआवजे का ?ान?ाना हाथ में थमा देती हैं.

सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और माली रूप से दलितों पर जोरजुल्म कर बाद में केवल मुआवजा दे कर उन के जख्म नहीं भर सकते. ऐसे में किस तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि आजादी के 74 साल बाद भी अंबेडकर के संविधान की दुहाई देने वाला भारत छुआछूत मुक्त हो पाएगा?

समाज के ऊंचे तबके के लोग आज भी दलितों का मानसिक और शारीरिक शोषण कर उन के हितों से उन्हें वंचित करने का काम कर रहे हैं. गांवदेहात के दलित बेइज्जती और जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर हैं.

सुनिए दलितों की आपबीती

जातिगत भेदभाव किस तरह दलित तबके के लोगों को मानसिक चोट देता है, इस का आकलन सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर राघवेंद्र चौधरी की आपबीती से किया जा सकता है.

वे अपनी जिंदगी में घटित किस्सा सुनाते हुए कहते हैं, ‘‘बात उस समय की है, जब मैं 12वीं जमात में पढ़ता था. सरकार की तरफ से 1,100 रुपए का स्कौलरशिप का चैक मुझे मिलना था. अपने दोस्तों के साथ मई के महीने में मैं चैक लेने स्कूल पहुंचा, तो वहां टीचर चैक बांट रहे थे.

‘‘मेरे सभी दोस्तों को चैक मिलने के बाद मु?ो भी चैक देते हुए टीचर बोले कि वाउचर पर पावती के दस्तखत करो, तो मैं ने दस्तखत अंगरेजी में कर दिए. वे बोले कि अपना पूरा नाम लिखो.

‘‘मैं ने अपना नाम लिख दिया. फिर वे बोले कि वह लिखो, जिस के लिए चैक मिल रहा है. मैं सम?ा रहा था कि सर मेरी मूल जाति लिखवाना चाह रहे हैं. फिर उन्होंने गुस्से से तमतमाते हुए अपनी जाति को दोहराया और लिख दिया.

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‘‘जब मेरी नौकरी साल 2003 में संविदा शिक्षक के तौर पर लगी थी, तब वेतन मिलता था 2,500 रुपए. वह भी 3-4 महीने बाद मिलता था. उसी दौरान एक बार मां के बीमार पड़ने पर इलाज के लिए पैसों की जरूरत थी.

‘‘साथी टीचरों से उधार मांगा, तो उन के पास भी पैसे नहीं थे. उन्होंने कहा कि यार, तुम को तो पता है कि 4 महीने से वेतन नहीं मिला.

‘‘फिर हमारे एक साथी शिक्षक ने कहा, ‘घर में कोई सोनेचांदी का गहना हो, तो सुनार के पास गिरवी रख कर मां का इलाज करा लो, जब वेतन मिलेगा तो छुड़ा लेना.’

‘‘मैं ने कहा कि चलो ऐसा ही करते हैं. हम दोनों मां के गले की माला ले कर एक सुनार की दुकान पर पहुंचे. उस ने कहा कि इस को गिरवी रख कर

700 रुपए मिल जाएंगे. मु?ो पैसों की सख्त जरूरत थी. हम दोनों वह माला रखने के लिए राजी हो गए.

‘‘मुनीम ने नाम पूछा. मैं ने अपना नाम बताया. फिर उस ने जाति पूछी. मैं ने अपनी जाति बताई. मेरी जाति सुन कर मुनीम की कलम रुक गई. वह बोला कि आप सेठजी से बात कर लीजिए. सेठजी से मेरे साथी शिक्षक ने बात की, तो उन्होंने कहा कि हमारी दुकान में इस जाति के लोगों का सामान गिरवी नहीं रखते. बाद में मैं ने अपने कुछ दोस्तों की मदद से अपनी मां का इलाज कराया.’’

राजनीति में भी छुआछूत

भले ही हम आधुनिक होने के कितने ही दावे कर लें, मगर दकियानूसी खयालों और परंपराओं से हम बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. आज भी समाज के एक बड़े तबके में फैली छुआछूत की समस्या कोरोना जैसी बीमारी से कम नहीं है.

छुआछूत केवल गांवदेहात के कम पढ़ेलिखे लोगों के बीच की ही समस्या नहीं है, बल्कि इसे शहरों के सभ्य और पढ़ेलिखे माने जाने वाले लोग भी पालपोस रहे हैं. सामाजिक बराबरी का दावा करने वाले नेता भी इन दकियानूसी खयालों से उबर नहीं पाए हैं.

जून, 2020 के आखिरी हफ्ते में मध्य प्रदेश में सोशल मीडिया पर एक खबर ने सियासी गलियारों में हलचल मचा दी. रायसेन जिले के एक कद्दावर भाजपा नेता रामपाल सिंह के घर पर हुए किसी कार्यक्रम का फोटो वायरल हो रहा है, जिस में भारतीय जनता पार्टी के नेता स्टील की थाली में और डाक्टर प्रभुराम चौधरी डिस्पोजल थाली में एकसाथ खाना खाते दिखाई दे रहे थे.

ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस का दामन छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए मंत्री बने डाक्टर प्रभुराम चौधरी अनुसूचित जाति से आते हैं.

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सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे इस फोटो में कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए डाक्टर प्रभुराम चौधरी, सिलवानी के भाजपा विधायक रामपाल सिंह, सांची के भाजपा विधायक सुरेंद्र पटवा और भाजपा के संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी के साथ भोजन करते हुए दिखाई दे रहे थे.

इस में भाजपा के संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी स्टील की थाली में भोजन खाते हुए दिखाई दे रहे थे, लेकिन उन के सामने बैठे डाक्टर प्रभुराम चौधरी डिस्पोजल थाली में खाना खा रहे थे.

समाज में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है. देश के अलगअलग इलाकों में दलितों से छुआछूत रखने और उन पर जोरजुल्म करने की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं.

आज भी गांवकसबों के सामाजिक ढांचे में ऊंची जाति के दबंगों के रसूख और गुंडागर्दी के चलते दलित और पिछड़े तबके के लोग जिल्लत भरी जिंदगी जी रहे हैं.

गांवों में होने वाली शादी और रसोई में दलितों को खुले मैदान में बैठ कर खाना खिलाया जाता है और खाने के बाद अपनी पत्तलें उन्हें खुद उठा कर फेंकनी पड़ती हैं.

टीचर मानकलाल अहिरवार बताते हैं कि गांवों में मजदूरी का काम दलित और कम पढ़ेलिखे पिछड़ों को करना पड़ता है. दबंग परिवार के लोग अपने घर के दीगर कामों के अलावा अनाज बोने से ले कर फसल काटने तक के सारे काम उन से कराते हैं और बाकी मौकों पर छुआछूत रखते हैं. यह छुआछूत बनाए रखने में पंडेपुजारी धर्म का डर दिखाते हैं.

ऊंची जाति के दबंग दिन के उजाले में दलितों को अछूत मानते हैं और मौका मिलने पर रात के अंधेरे में उन की बहनबेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं. यही हाल अपनेआप को श्रेष्ठ सम?ाने वाले पंडितों का भी है, जो दिन में तो कथा, पुराण सुनाते हैं और रात होते ही शराब की बोतलें खोलते हैं.

बढ़ रहे जोरजुल्म के मामले

अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के राज्यपाल मंगूभाई पटेल की अध्यक्षता में हुई एससीएसटी अत्याचार निवारण अधिनियम की समीक्षा बैठक में अधिकारियों ने जो आंकड़े रखे, वे बेहद ही चौंकाने वाले हैं.

जनवरी से दिसंबर, 2021 तक अकेले मध्य प्रदेश में एससीएसटी समुदाय पर इस अधिनियम के तहत 10,081 मामले दर्ज किए गए, जो पिछले सालों की तुलना में ज्यादा थे. ये आंकड़े सरकार के उन दावों की पोल खोलते नजर आ रहे हैं, जिस में सरकार दलितों के संरक्षण की बात करती है.

इसी तरह 25 सितंबर, 2019 में मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के भावखेड़ी गांव में 2 दलित मासूम बच्चों की हत्या गांव के दबंगों ने लाठियों से पीटपीट कर इसलिए कर दी, क्योंकि ये मासूम पंचायत भवन के सामने खुले में शौच कर रहे थे.

दलित तबके के मनोज बाल्मीकि के 10 साल के बेटे अविनाश और उस की 13 साल की बहन रोशनी मुंहअंधेरे शौच के लिए निकले थे. गांव के दबंग रामेश्वर और हाकिम यादव ने उन को खुले में शौच करते देखा, तो गुस्से में लाठियों से इस कदर पीटा कि उन की मौके पर ही मौत हो गई.

यह घटना दलितों पर सदियों से होते आ रहे जोरजुल्म की अकेली कहानी नहीं है, बल्कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की असलियत भी बयान करती है.  देश में गरीबों के घर में शौचालय बनवाने के नाम पर करोड़ोंअरबों रुपए खर्च करने के बाद भी उन के हिस्से में शौचालय नहीं आया है.

आएगा भी कैसे…? जब तक अगड़ी जातियों के ये दबंग, पिछड़ों और दलितों के हक पर अपनी दबंगई के दम पर डाका डालते रहेंगे, तब तक लालकिले की प्राचीर से गरीबों के कल्याण के लिए कही गई बातें जुमलेबाजी ही साबित होती रहेंगी.

ये बाल्मीकि समाज के वही लोग हैं, जो दबंगों के घरों के शौचालयों की साफसफाई का काम करते हैं. 21वीं सदी के युग में भी गांव के ये दबंग पुरानी वर्ण व्यवस्था के मुताबिक यही चाहते हैं कि दलित जाति के ये लोग उन के सेवक बन कर जीहुजूरी करते रहें.

मारे गए बच्चों के पिता मनोज बाल्मीकि ने कहा कि उन के 5 भाइयों के परिवार में किसी के पास शौचालय नहीं है. भावखेड़ी ग्राम पंचायत ने उन्हें शौचालय के साथ एक घर की मंजूरी दी थी, लेकिन आरोपियों के परिवार का एक सदस्य गांव की पंचायत का मुखिया था और उस ने यह होने नहीं दिया.

मनोज ने आगे कहा, ‘‘सुबह के साढ़े 6 बजे मेरा ऐकलौता बेटा और उस की बहन शौच करने गए थे, तभी अपने हैंडपंप के पास खड़े रामेश्वर और हाकिम दोनों बच्चों पर चिल्लाए और उन पर लाठी से वार करने लगे, जिस से दोनों बच्चों की वहीं मौत हो गई.

‘‘2 साल पहले सड़क किनारे एक पेड़ से शाखा तोड़ने पर आरोपियों से मेरी तीखी बहस हुई थी. इस पर उन्होंने जातिसूचक गाली देते हुए जान से मारने की धमकी भी दी थी.

‘‘गांव के ये लठैत चाहते हैं कि हम उन के यहां बंधुआ मजदूर बन कर रहें. इन दबंगों के डर से गांव के सरपंच सचिव को शौचालय बनवाने के लिए आवेदन देने के बावजूद भी न तो मेरे परिवार को शौचालय बनवाने का पैसा मिला और न ही किसी दूसरी सरकारी योजना का लाभ.’’

इन लठैतों के डर से गांव के हैंडपंप पर जब तक इन दबंगों के घर के लोग पानी नहीं भर लेते हैं, तब तक इन गरीबों को पीने का पानी भरने का मौका नहीं मिलता है.

ज्योतिबा फुले से सबक लें

भगवा सरकार हिंदूमुसलिम का भेद करा के कट्टरवादी हिंदुत्व की हिमायती तो बनती है, पर हिंदुओं के बीच ही जातिवाद की दीवार तोड़ने और दलितपिछड़े तबके के लोगों पर दबंग हिंदुओं के द्वारा किए जाने वाले जोरजुल्म पर चुप्पी साधे रहती है.

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के पेशे से वकील मनीष अहिरवार कहते हैं कि इनसानों का दूसरे इनसान के साथ गुलामों की तरह बरताव सभ्यता के सब से शर्मनाक अध्यायों में से एक है. लेकिन अफसोस कि यह शर्मनाक अध्याय दुनियाभर की तकरीबन सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है. भारत में जातिप्रथा के चलते पैदा हुआ भेदभाव आज तक बना हुआ है.

कम पढ़ेलिखे दलित समाज के नौजवान आज भी पंडेपुजारियों की बातों को मान कर हजारों रुपए खर्च कर के कांवड़ यात्रा, कथा, प्रवचन और भंडारे में बरबाद करते हैं. कमोबेश पढ़ेलिखे लोग भी इन आडंबरों से दूर नहीं हैं.

मनीष अहिरवार आगे कहते हैं कि एक बार वे महज 150 रुपए खर्च कर के ज्योतिबा फुले की पुस्तक ‘गुलामगीरी’ पढ़ लें तो उन की आंखों के चश्मे पर पड़ी धूल साफ हो जाएगी. 1873 में लिखी गई इस किताब का मकसद दलितपिछड़ों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण वर्ग की उच्चता के ?ाठे दंभ से परिचित कराना था.

इस किताब के माध्यम से ज्योतिबा फुले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकाल कर आत्मसम्मान से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस माने में यह किताब काफी खास है कि यहां इनसानों में परस्पर भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कठघरे में खड़ा किया गया है.

अंगरेजों के शासन से मुक्ति की इच्छा और संघर्ष के बारे में हमें बहुतकुछ पता है, लेकिन यह भी पता होना चाहिए कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देश का एक बड़ा दलित तबका, अंगरेजों को ब्राह्मणशाही से मुक्तिदाता के तौर पर भी देख रहा था.

भीमराव अंबेडकर और ज्योतिबा फुले जैसे करोड़ों भारतीयों के लिए जातिगत गुलामी का दंश इतना गहरा था कि इस के सामने वे राजनीतिक गुलामी को कुछ नहीं सम?ाते थे.

जिस तरह किसान आंदोलन ने सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर के सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, उसी तरह दलितपिछड़ों को भी अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट होना होगा.

दलितपिछड़े नौजवानों को पंडे और पुजारियों की कपोलकल्पित बातों से दूर रह कर केवल सेवक नहीं शासक बनने की दिशा में भी कदम बढ़ाने होंगे, तभी उन पर होने वाले जुल्म कम होंगे और छुआछूत का यह कलंक समाज से दूर होगा.

Women’s Day: मर्द की मार सहे या घर छोड़ दे औरत?

लेखक- धीरज कुमार

माला का पति महेश रोज शराब पी कर घर आता है. वह बातबात पर अपनी पत्नी से झगड़ा करता है, लेकिन जब शराब का नशा उतरता है, तो माला से खूब प्यारभरी बातें करता है

माला भी उस की प्यार भरी बातों में पिघल जाती है. वह अपने पति की मार और दुत्कार को भूल जाती है.

जब माला महेश को अपनी कसम दे कर शराब छोड़ने की बात करती है, तो वह जल्दी ही मान जाता है. लेकिन शाम होतेहोते वह फिर पुरानी बातों पर आ जाता है. वह अपनी पत्नी की कसम को भूल जाता है और फिर से शराब पी कर आ जाता है. फिर वह रोज की तरह अपनी पत्नी और बच्चों को गालियां देता है और मारपीट करता है.

महेश और माला के 2 बच्चे हैं. माला घरेलू औरत है और खुद बाहर काम नहीं कर पाती है. उस के मायके में कोई उसे सहारा देने वाला भी नहीं है. वह चाह कर भी अपने पति महेश को छोड़ नहीं पा रही है. वह किसी तरह अपने बच्चों की ठीक से परवरिश करना चाहती है. वह चाहती है कि उस के बच्चे पढ़लिख कर अच्छे इनसान बनें.

लेकिन माला के पति के शराब पीने की लत के चलते घर में हमेशा पैसे की तंगी बनी रहती है. उस का पति मोटरगैराज में काम करता है. वहां वह अच्छा कमा लेता है, पर शाम होतेहोते आधे से ज्यादा पैसे की शराब पी जाता है. उसे बाकी चीजों पर तो काबू है, पर वह खुद को शराब पीने से नहीं रोक पाता है.
आज भी देशभर में औरतों के साथ घरेलू हिंसा की घटनाएं हो रही हैं. भले ही हमारे देश में पढ़ाईलिखाई का लैवल बढ़ा हो, लेकिन इन घटनाओं में कमी नहीं आई है. आज भी औरतों को मर्दों से कमतर आंका जाता है. उन्हें कमजोर समझा जाता है. वे भोगने की चीज समझी जाती हैं, इसलिए उन के साथ आज भी घरेलू हिंसा बरकरार है.

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जब कोई मर्द अपनी औरत के साथ झगड़ा करता है, तब वह उस का मुंह बंद करने के लिए हाथ उठाने से भी गुरेज नहीं करता है, जबकि औरतें ऐसा नहीं कर पाती हैं. आज भी औरतें पति को काफी इज्जत देती हैं. पति को बड़ा समझती हैं और खुद को उन के पैर की जूती मानती हैं, इसी सोच का पति नाजायज फायदा उठाते हैं.

कई बार औरतें घरेलू हिंसा सहती रहती हैं, पर कानून की मदद नहीं ले पाती हैं, क्योंकि उन का मानना है कि ऐसा करने पर उन के घरपरिवार की इज्जत नीलाम हो जाती है. वहीं दूसरी तरफ वे खुद को कोर्टकचहरी के चक्कर से भी बचाना चाहती हैं, क्योंकि घरेलू हिंसा की शिकार औरत के पास इतनी ताकत नहीं बचती है कि वह अलग से कोर्टकचहरी और थाने के चक्कर लगा सके.
आज भी हिंसा की शिकार औरतें घुटघुट कर जीती हैं. वे चाह कर भी अपने पति से अलग नहीं हो पाती हैं. पति उन पर कितना भी जुल्म करता रहे, वे उस के साथ जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर होती हैं.

इस की बड़ी वजह यह है कि अकेली औरत को कई परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. मसलन, किराए का मकान नहीं मिलना, लोगों के नजरिए में बदलाव. अकेली औरत को देख कर लोग तरहतरह की कहानियां गढ़ने लगते हैं. छोटे शहरों, गांवकसबों में तो और भी कई तरह की परेशानियां हैं.

दरअसल, इस के पीछे मायके से मिली सीख का भी गहरा असर होता है. शादी से पहले हर लड़की को यह सीख दी जाती है कि शादी के बाद पति ही सबकुछ होता है. उस की जायज और नाजायज बातों को हर हाल में मानना चाहिए. ससुराल ही सबकुछ होता है. वहीं तुम्हें मरना है, वहीं तुम्हें जीना है. शादी के बाद हर लड़की की ससुराल से ही अर्थी निकलती है यानी उस का अपने मातापिता के घर से नाता टूट जाता है.

इन बातों के चलते लड़की खुद को कमजोर समझने लगती है. वह बुरे से बुरे हालात में भी पति के साथ रहने को मजबूर हो जाती है, इसीलिए कुछ मर्द औरतों के साथ कई तरह के जुल्म करते रहते हैं. ऐसी औरतें ही हिंसा की ज्यादा शिकार होती हैं.

रंजना देखने में खूबसूरत नहीं थी. वह सांवली और छोटे कद की थी. उस के मातापिता ने अपनी हैसियत के मुताबिक दहेज दे कर खातेपीते परिवार में उस का ब्याह किया था.

पर शादी के बाद से ही रंजना का पति उसे नापसंद करने लगा था, क्योंकि यह शादी अरेंज मैरिज थी, इसलिए वह रंजना को पहले नहीं देख पाया था.

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इस का नतीजा यह था कि पति बातबात पर रंजना के साथ झगड़ा और मारपीट करता था. फिर भी रंजना अपने इस रिश्ते को ढोने की कोशिश कर रही थी. उसे उम्मीद थी कि अपने रंगरूप से तो वह पति को आकर्षित नहीं कर पाई, लेकिन अपने अच्छे गुणों से एक न एक दिन उन्हें आकर्षित जरूर कर पाएगी, इसीलिए वह अपने पति और सासससुर की दिनरात सेवा करती रहती थी, फिर भी उन लोगों में कोई बदलाव नहीं हुआ.

रंजना 12वीं जमात तक पढ़ी थी. जब उस के राज्य में प्राथमिक शिक्षक की बहाली निकली, तो उस ने भी अर्जी दे दी. शिक्षक बहाली में 35 फीसदी महिला आरक्षण होने के चलते रंजना को अपने गांव के ही एक स्कूल में नौकरी मिल गई. इस तरह वह आत्मनिर्भर बन गई.

अब रंजना अपना फैसला लेने के लिए आजाद थी. वह सालों से अपने पति, सास, ननद के उलाहने सहती आ रही थी. अब वह सोच रही थी कि अपने पति से अलग हो कर बाकी की जिंदगी अपने बच्चों के साथ गुजारेगी.

लेकिन उस की ससुराल वालों ने परिवार का माली नुकसान देख कर उसे साथ रखने को मना लिया. अब उस के सासससुर और पति कमाऊ पत्नी होने के चलते सबकुछ सहने को तैयार हैं. कल तक रंजना अपने पति और सासससुर के उलाहने झेलती थी, लेकिन अब वह उस परिवार में शान से रहती है.

रंजना के माली हालात बदलते ही पति के परिवार का रवैया बदल गया. कल तक रंजना अपने परिवार से दूर रहना चाहती थी, लेकिन अब वह परिवार के लिए जरूरत बन गई थी, इसलिए उस के परिवार के लोग अब उस के नखरे सहने के लिए तैयार थे.

लिहाजा, जरूरी है कि जो अपनेअपने घरपरिवार, सासससुर, पति द्वारा सताई जा रही हों, तो सब से पहले उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए सोचना चाहिए. कोई जरूरी नहीं है कि सरकारी नौकरी ही मिले. सब से पहले अपने माली हालात ठीक करने के लिए सोचना चाहिए. अपने पैरों पर खड़ी औरत अपना रास्ता खुद बना सकती है. जरूरत पड़ने पर अपने घरपरिवार, ससुराल और पति से अलग भी हो सकती है.

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घुड़चढ़ी- बराबरी का नहीं पाखंडी बनने का हक

रोहित

दरअसल, 24 जनवरी, 2022 को बूंदी जिले में केशवरायपाटन उपखंड के गांव चड़ी में श्रीराम मेघवाल की शादी थी. श्रीराम के परिवार वालों ने कलक्टर से शिकायत कर के कहा था कि लोकल दबंगों ने घोड़ी न चढ़ने की धमकी दी है, जिस के बाद इस शादी के लिए 3 अलगअलग पुलिस थानों के तकरीबन 60 पुलिस वालों को वहां तैनात किया गया और गांव को छावनी में तबदील कर दिया गया.

ठीक इसी तरह मध्य प्रदेश के सागर जिले में एक दलित दूल्हे के घोड़ी चढ़ने के लिए भी पुलिस की तैनाती करनी पड़ गई. जिले के बंडा थाना क्षेत्र के गांव गनियारी में अहिरवार जाति का कोई दूल्हा कभी घोड़ी पर नहीं चढ़ा था.

23 जनवरी, 2022 को दिलीप अहिरवार की शादी थी. दूल्हे और परिवार की इच्छा थी कि वे लोग बरात की निकासी घोड़ी पर ही करेंगे. पुलिस की निगरानी में शादी तो घुड़चढ़ी के साथ हो गई, लेकिन बरात निकलने के बाद ही दबंगों ने दूल्हे के घर पर पथराव कर दिया.

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ऐसे ही मध्य प्रदेश के रतलाम में भी कुछ साल पहले एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से पहले हैलमैट पहनना पड़ा. दरअसल, दूल्हे के घोड़ी चढ़ने के चलते ऊंची जाति के दबंगों द्वारा दूल्हे की गाड़ी छीनी गई और पथराव किया गया, जिस के बाद पुलिस ने दूल्हे को हैलमैट पहना दिया, ताकि सिर पर चोट न लगे.

ऐसी कई घटनाएं हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार के अलावा देश के दूसरे राज्यों से हर साल सामने आती रहती हैं, जहां दलित दूल्हे को शादी में घोड़ी चढ़ने के अलावा तलवार रखने से रोका जाता रहा है.

जाहिर है, ऊंचा तबका इन परंपराओं को अपनी बपौती और जन्मजात हक सम?ाता है और निचली जातियों को इन परंपराओं को करने से भी रोकता है, जो कि लोकतांत्रिक और नए भारत में किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराया जा सकता.

पर कुछ सवाल जो दलित समाज को खुद से करने चाहिए कि घुड़चढ़ी में आखिर ऐसा है ही क्या कि आज के समय में भी इस परंपरा को अपनाया जाए? आखिर क्यों वे ऊंची जाति वालों की ऐसी फालतू परंपराओं को ढोने का हक समाज से चाह रहे हैं? क्या ऐसी सामंती परंपराओं को अपना कर दलितपिछड़े समाज का भला हो पाएगा? क्या यह महज ऊंची जाति वालों जैसा बनने या वैसा दिखने की कोशिश भर नहीं है?

पाखंड की घुड़चढ़ी

हिंदू धर्म में शादी को 16 संस्कारों में से एक संस्कार कहा गया है, जिस में तकरीबन 71 रस्मों को निभाया जाता है. इन्हीं रस्मों में एक घुड़चढ़ी भी है, जिसे ले कर ऊंची जाति वालों और दलितों के बीच अकसर विवाद बना रहता है. इस रस्म को ‘निकासी’ या ‘बिंदौरी’ भी कहते हैं. चूंकि ऊंची जाति वाले इस रस्म को केवल अपना हक सम?ाते हैं, इसलिए वे दलितों को उन की शादी में घोड़ी पर चढ़ने नहीं देते.

इस रस्म में दूल्हे को घोड़ी पर बैठा कर गाजेबाजे के साथ गांव या कसबे में घुमाया जाता है. रस्म में दूल्हे के दोस्त, परिचित और रिश्तेदार शामिल होते हैं. इस के बाद दूल्हा मंदिर में जा कर पूजा करता है.

‘निकासी’ के बाद वर वधू को ब्याह कर ही अपने घर लौटता है. इस में एक और रिवाज भी चलन में है, जिस के मुताबिक, जिस रास्ते से ‘निकासी’ होती है, उसी रास्ते से दूल्हा घर वापस नहीं लौटता. बाकी रस्मों की तरह घुड़चढ़ी रस्म भी तमाम ढोंगों से भरी पड़ी है. घुड़चढ़ी में पंडितों को पैसे देने, रिश्तेदारों को नेग देने व घोड़ी वाले को शगुन देने जैसी रीतियां भी शामिल हैं.

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हिंदू धर्म की बाकी रस्मों की तरह ही यह कुछ ऐसी रस्म है, जो दलितों को धार्मिक पाखंडों की ओर ले जा रही है. आज दलितपिछड़ा समाज घुड़चढ़ी जैसे रीतिरिवाजों के पीछे भाग रहा है और इस रस्म के साथ वह हिंदू धर्म के उन पाखंडों में घिरता जा रहा है, जिन्होंने हजारों साल उसे ऊंची जाति वालों का सेवक और गुलाम बना कर रखा. दलितों का इन रस्मों के पीछे भागने का मतलब बताता है कि आखिरकार हिंदू परंपराएं सही हैं, जिन में ऊंचनीच और छुआछूत जैसी व्यवस्था शामिल है.

फुजूल की मान्यताएं

दूल्हे की घुड़चढ़ी को ले कर कई मान्यताएं हैं, जिन में सब से नजदीकी मान्यता के मुताबिक, यह वीरता और शौर्य का प्रतीक है. पौराणिक काल में जाहिर है, घोड़ों की अहमियत बहुत ज्यादा थी, क्योंकि वे मजबूत और तेजतर्रार होते थे. युद्ध के मैदान से ले कर स्वयंवरों में अपनी ताकत दिखाने के लिए राजा घोड़े पर सवार हो कर निकलता था.

ऐसी कई कथाकहानियों में ढेरों राजाओं का जिक्र है, जो घोड़े पर सवार हो कर युद्ध के मैदान में उतरते या स्वयंवर में भाग लेते थे. बहुत बार युद्ध की वजह फलां रानी या राजा की बेटी से स्वयंवर करना होती थी, तो बहुत बार युद्ध में अपने दुश्मन को हरा कर उस की पत्नी या उस की बेटी पर कब्जा जमाना होता था. जाहिर है, दोनों ही सूरत में राजा अपने लिए एक रानी ब्याह लाता था.

अब आज के समय में लोगों को कौन सम?ाए कि ‘भई, न तो तुम किसी युद्ध में भाग लेने जा रहे हो और न तुम्हें घोड़े पर सवार हो कर अपनी होने वाली पत्नी को बाकी प्रतिभागी उम्मीदवारों से लड़ कर जीतना है और न ही तुम्हारी होने वाली पत्नी तुम्हारे घोड़ी पर चढ़ जाने से तुम्हारी ताकत का अंदाजा लगा लेगी. यह तो सोचें कि अगर राजामहाराजाओं के समय कार का आविष्कार हो गया होता, तो ऊंची जाति वाले घोड़ों को छोड़ कर कार पर ही अपना कब्जा जमा चुके होते, क्योंकि कार घोड़े से ज्यादा तेज और मजबूत साधन है.

दूल्हे की घुड़चढ़ी को ले कर इसी तरह की एक और मान्यता कहती है कि घोड़ी ज्यादा बुद्धिमान, चतुर और दक्ष होती है, उसे सिर्फ सेहतमंद व काबिल मर्द काबू कर सकता है. दूल्हे का घोड़ी पर आना इस बात का प्रतीक है कि घोड़ी की बागडोर संभालने वाला मर्द अपनी पत्नी और परिवार की बागडोर भी अच्छे से संभाल सकता है.

अब इस के हिसाब से सोचें तो कौन है, जो परिवार की बागडोर नहीं संभालना चाहता. ऐसा अगर सच में हो रहा होता, तो सब लोग हमेशा घोड़े पर यहांवहां घूमते दिखाई देते. भारत ही क्या विदेशों में भी लोग कारों को छोड़ कर घोड़ों की ही सवारी कर रहे होते. जब परिवार के सब मसलों के हल एक घोड़ी से हो रहे होते, तो किसी दूसरी चीज की क्या जरूरत?

कुछ मान्यताएं यह भी कहती हैं कि पुराणों के मुताबिक, सूर्यदेव की 4 संतानों यम, यमी, तपती और शनि का जन्म हुआ, उस समय सूर्यदेव की पत्नी रूपा ने घोड़ी का रूप धरा था. तब से घुड़चढ़ी की परंपरा चलने लगी. वहीं कुछ का मानना है कि दूल्हे को राजा जैसी इज्जत मिले, इसलिए यह परंपरा वजूद में आई.

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अब मान्यता चाहे जो भी हो, कोई जवाब दे कि देश के लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए डा. भीमराव अंबेडकर क्या इसीलिए संविधान सौंप कर गए कि कल को राजतंत्र और सामंती परंपरा के पीछे भागतादौड़ता दबाकुचला दलित समाज दिखे? वह भी उस हिस्से से उपजी परंपरा, जो जातिवाद बढ़ाने का परिचायक रही हो? क्या यह खुद से पूछा नहीं जाना चाहिए कि अतीत में घोड़ों पर चढ़ कर सवर्णों के शौर्य और वीरता से कौन से जातिवाद का खात्मा किया जा रहा था?

जरूरी क्या है

सवाल यह भी है कि ऐसी प्रथाओं के पीछे भागना ही क्यों है, जिन का न तो कोई मतलब है और न जातिवाद के खात्मे में कोई भूमिका? सवाल यहां बराबरी का नहीं, सवाल है उद्धार का है. सिवा पाखंडी अधिकार हासिल होने के, दलितों को इस परंपरा को अपना कर क्या मिलेगा? अगर ऐसे ही सवर्णों की परंपरा और प्रथाओं को अपना कर दलितों का उद्धार हो सकता तो फिर जनेऊ अपना लेने में ही क्या समस्या है, जिस की पहचान ही जाति के आधार पर श्रेष्ठ हो जाना है, फिर बताते रहें खुद को बाकियों से श्रेष्ठ और पवित्र.

हाल ही में सबरीमाला मंदिर में औरतों के माहवारी के दिनों में घुसने का मामला जोरों से उछला. संविधान में सभी को बराबरी का दर्जा हासिल है तो जाहिर है, औरतों के सबरीमाला मंदिर में जाने की मांग भी उठी, जिस में अपनेआप में कोई बुराई नहीं. इस का संज्ञान ले कर सुप्रीम कोर्ट ने भी मंदिर में घुसने की इजाजत दी.

ऐसे ही आज भी कई मंदिरों में दलितों को घुसने नहीं दिया जाता, उन के साथ मारपीट की जाती है, उन्हें कहा जाता है कि धर्म के मुताबिक वे मंदिरों में नहीं घुस सकते, पर असल सवाल यह है कि जो धार्मिक ग्रंथ, भगवान और मंदिरों में बैठे धर्म के ठेकेदार मंदिरों में घुसने से रोकते हैं, उन्हें अशुद्ध मानते हैं, वहां घुसना ही क्यों है?

क्या सवाल यह नहीं हो सकता कि आज क्यों इतनी कोशिशों के बाद भी सीवर की सफाई करने, मैला ढोने, सफाई का काम करने, श्मशान में शवों को जलाने वाले ज्यादातर मजदूर निचली जातियों से ही आते हैं? क्यों सरकार इस क्षेत्र में काम करने वालों को सही उपकरण नहीं देती है, उन्हें सुरक्षा नहीं देती है? दबेकुचलों और पिछड़ों को आगे बढ़ने के अवसरों पर काम क्यों नहीं करती है? आखिर क्यों सरकारी नौकरियों को कम किया जा रहा है?

क्या यह एक दलितपिछड़े समाज के युवा के हक का सवाल नहीं, जिस के आरक्षण का मुद्दा बस घोड़ी चढ़ाना और मंदिरों में प्रवेश करना ही रह गया है? आखिर क्यों पिछड़े समाज से आने वाले नेता बेमतलब के मुद्दों में समय और ताकत खराब कर गलत दिशा में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं?

इस तरह की परंपराएं दलित समाज को पाखंड की भेंट चढ़ाने के लिए काफी हैं, जिस में वे खुद गोते लगाते दिखाई दे रहे हैं. इस से दलितों को अधिकार मिले न मिले, पर पाखंड में जरूर भागीदारी मिल रही है. यही वजह भी है कि दलित समाज से निकलने वाले नेता दलित और पिछड़ा विरोधी दलों के साथ तालमेल बैठाते नजर आ जाते हैं और दलितों के नाम पर मलाई चाटते हैं.

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आज जरूरी है कि दलितों को सब तरह के पाखंड छोड़ने की हिम्मत पैदा करनी चाहिए, उन्हें ऊंची जाति वालों के लिए बनाई गई परंपराओं को मानने, उन्हें अपनी परंपरा बनाने से बचना चाहिए, वरना वे भेदभाव सहते ही रहेंगे.

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