
‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,
हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.
सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.
सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.
अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…
सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.
चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.
ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.
उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.
सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.
दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’
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सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.
फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’
‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.
‘‘मम्मी, मैं तो यह कह रही थी कि यदि वह अपने ही क्षेत्र का होता तो अच्छा रहता.’’ दक्षा ने मन की बात कही. लड़का गढ़वाली ही नहीं, अपने इलाके का ही है. मां ने बताया तो दक्षा खुश हो उठी.
शशांक अपने आफिस में काम कर रहा था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘साहब, आप को बनर्जी बाबू याद कर रहे हैं.’’ उत्पल बनर्जी कंपनी के निदेशक थे. पीठ पीछे उन्हें सभी बंगाली बाबू कह कर संबोधित करते थे. कंपनी विद्युत संयंत्रों की आपूर्ति, स्थापना और रखरखाव का काम करती थी. कंपनी के अलगअलग प्रांतों में विद्युत निगमों के साथ प्रोजेक्ट थे. शशांक इस कंपनी में मैनेजर था.
‘‘यस सर,’’ शशांक ने बनर्जी साहब के कमरे में जा कर कहा. ‘‘आओ शशांक,’’ इतना कह कर उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया.
शशांक के दिमाग में खतरे की घंटी बज उठी. उसे लगा कि उस की हालत उस बकरे जैसी है जिसे पूरी तरह सजासंवार दिया गया है और बस, गर्दन काटने के लिए ले जाना बाकी है. शशांक ने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया और चुपचाप कुरसी पर बैठ गया. ‘‘तुम्हारा फरीदाबाद का प्रोजेक्ट कैसा चल रहा है?’’
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‘‘सर, बहुत अच्छा चल रहा है. निर्धारित समय पर काम हो रहा है और भुगतान भी ठीक समय से हो रहा है.’’ ‘‘बहुत अच्छा है. मुझे तुम से यही उम्मीद थी, पर मैं तुम्हें ऐसा काम देना चाहता हूं जो सिर्फ तुम ही कर सकते हो.’’
शशांक चुपचाप बैठा अपने निदेशक मि. बनर्जी को देखता रहा. उसे लगा कि बस, गर्दन पर तलवार गिरने वाली है. ‘‘शशांक, तुम्हें तो पता है कि लखनऊ वाले प्रोजेक्ट में कंपनी की बदनामी हो रही है. भुगतान बंद हो चुका है. हमें पैसा वापस करने का नोटिस भी मिल चुका है. मैं चाहता हूं कि तुम वह काम देखो.’’
‘‘लेकिन वह काम तो जतिन गांगुली देख रहे हैं,’’ शशांक ने कहा. ‘‘मैं ने फैसला किया है कि अब कंपनी के हित में लखनऊ का प्रोजेक्ट तुम देखोगे और जतिन गांगुली फरीदाबाद का प्रोजेक्ट संभालेगा.’’
शशांक की इच्छा हुई कि कह दे कि उस के साथ इसलिए ज्यादती हो रही है क्योंकि वह बंगाली नहीं है. उस ने सोचा कि कंपनी अध्यक्ष से जा कर मिले पर उसे याद आया कि कंपनी अध्यक्ष सेनगुप्ता साहब भी बंगाली हैं. वह भी बंगाली का ही साथ देंगे. शशांक अपने केबिन में जाने से पहले अपनी सहकर्मी वंदना के केबिन पर रुका.
‘‘वंदना, चलो काफी पीते हैं. मुझे तुम से कुछ पर्सनल बात करनी है.’’ काफी पीतेपीते शशांक ने उसे सारी बात बता दी.
‘‘अगले 3 माह में प्रमोशन के लिए निर्णय लिए जाएंगे. यह मामला जतिन गांगुली के प्रमोशन का है. लखनऊ प्रोजेक्ट की जो उस ने हालत की है, उस से प्रमोशन तो दूर उसे कंपनी से निकाल देना चाहिए,’’ वंदना ने कहा. ‘‘क्या मैं सेनगुप्ता साहब से मिलूं?’’
‘‘नहीं, उस से फायदा नहीं होगा. तुम्हें लखनऊ जाना पडे़गा पर फरीदाबाद प्रोजेक्ट की फाइलों की सूची बना कर, आज की स्थिति की रिपोर्र्ट बना कर तुम जतिन गांगुली के दस्तखत ले लेना और उस की कापी सेनगुप्ता साहब को भेज देना. प्रोजेक्ट में गड़बड़ होने पर वे लोग तुम्हें दोष दे सकते हैं,’’ वंदना ने सुझाव दिया. कुछ समय तक दोनों के बीच खामोशी छाई रही.
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‘‘शशांक, तुम से एक बात पूछना चाहती हूं. मुझे दोस्त समझ कर सचसच बताना,’’ वंदना बोली. ‘‘क्या बात है?’’
‘‘कहीं तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी सरिता के बीच तनाव तो नहीं?’’ ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’
‘‘पिछले हफ्ते तुम फरीदाबाद प्रोजेक्ट की मीटिंग में थे तब शाम को 8 बजे सरिता का फोन मेरे घर पर आया था. तुम्हारे बारे में पूछ रही थी.’’ शशांक को अपनी पत्नी पर क्रोध आ गया. पर उस ने कहा, ‘‘उस दिन मैं उसे बताना भूल गया था. इसलिए वह परेशान होगी.’’
‘‘शशांक, प्रोजेक्ट और प्रमोशन के बीच में अपने परिवार को मत भूलो,’’ वंदना ने गंभीरता से कहा. ‘‘आज कोई मीटिंग नहीं थी क्या? जल्दी आ गए,’’ सरिता ने शशांक के घर पहुंचने पर व्यंग्य भरे लहजे में पूछा.
शशांक के मन में क्रोध भरा हुआ था. वह बिना जवाब दिए अपने कमरे में चला गया. ‘‘मुझे लखनऊ वाले प्रोजेक्ट पर काम दिया गया है. कल ही मैं 1 सप्ताह के लिए लखनऊ जा रहा हूं,’’ उस ने रात को खाना खाते हुए सरिता से कहा.
‘‘अकेले जा रहे हो? क्या तुम्हारी प्यारी दोस्त वंदना नहीं जा रही है?’’ शशांक को लगा कि उस के संयम की सीमा पार हो चुकी है और वह अभी सरिता के गाल पर तमाचा लगा देगा. पर वह आग्नेय नेत्रों से सरिता को देख कर आधा खाना खा कर ही उठ गया.
दूसरे दिन लखनऊ पहुंच कर शशांक कंपनी के अतिथिगृह में ठहरा, जहां उस की मुलाकात अतिथिगृह के प्रभारी हरिराम से हुई. ‘‘नमस्ते साहब,’’ हरिराम ने हाथ जोड़ कर कहा.
लेखक- अवनिश शर्मा
उन दोनों की जोड़ी मुझे बहुत जंचती. पिछले कुछ दिनों से वे दोपहर 1 से 2 के बीच रोज पार्क में आते. युवक कार से और युवती पैदल यहां पहुंचती थी. दोनों एक ही बैंच पर बैठते और उन के आपस में बात करने के ढंग को देख कर कोई भी कह सकता कि वे प्रेमीप्रेमिका हैं.
मैं रोज जिस जगह घास पर बैठती थी वहां माली ने पानी दे दिया तो मैं ने जगह बदल ली. मन में उन के प्रति उत्सुकता थी इसलिए उस रोज मैं उन की बैंच के काफी पास शाल से मुंह ढक कर लेटी हुई थी, जब वे दोनों पार्क में आए.
उन के बातचीत का अधिकांश हिस्सा मैं ने सुना. युवती का नाम अर्चना और युवक का संदीप था. न चाहते हुए भी मुझे उन के प्रेमसंबंध में पैदा हुए तनाव व खिंचाव की जानकारी मिल गई.
नाराजगी व गुस्से का शिकार हो कर संदीप कुछ पहले चला गया. मैं ने मुंह पर पड़ा शाल जरा सा हटा कर अर्चना की तरफ देखा तो पाया कि उस की आंखों में आंसू थे.
मैं उस की चिंता व दुखदर्द बांटना चाहती थी. उस की समस्या ने मेरे दिल को छू लिया था, तभी उस के पास जाने से मैं खुद को रोक नहीं सकी.
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मुझ जैसी बड़ी उम्र की औरत के लिए किसी लड़की से परिचय बनाना आसान होता है. बड़े सहज ढंग से मैं ने उस के बारे में जानकारी हासिल की. बातचीत ऐसा हलकाफुलका रखा कि वह भी जल्दी ही मुझ से खुल गई.
इस सार्वजनिक पार्क के एक तरफ आलीशान कोठियां बनी हैं और दूसरी तरफ मध्यमवर्गीय आय वालों के फ्लैट्स हैं. मेरा बड़ा बेटा अमित कोठी में रहता है और छोटा अरुण फ्लैट में.
अर्चना भी फ्लैट में रहती थी. उस की समस्या पर उस से जिक्र करने से पहले मैं उस की दोस्त बनना चाहती थी. तभी जिद कर के मैं साथसाथ चाय पीने के लिए उसे अरुण के फ्लैट पर ले आई.
छोटी बहू सीमा ने हमारे लिए झटपट अदरक की चाय बना दी. कुछ समय हमारे पास बैठ कर वह रसोई में चली गई.
चाय खत्म कर के मैं और अर्चना बालकनी के एकांत में आ बैठे. मैं ने उस की समस्या पर चर्चा छेड़ दी.
‘‘अर्चना, तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी को ले कर मैं तुम से कुछ बातें करना चाहूंगी. आशा है कि तुम उस का बुरा नहीं मानोगी,’’ यह कह कर मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों में ले कर प्यार से दबाया.
‘‘मीना आंटी, आप मुझे दिल की बहुत अच्छी लगी हैं. आप कुछ भी पूछें या कहें, मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगी,’’ उस का भावुक होना मेरे दिल को छू गया.
‘‘वहां पार्क में मैं ने संदीप और तुम्हारी बातें सुनी थीं. तुम संदीप से प्रेम करती हो. वह एक साल के लिए अपनी कंपनी की तरफ से अगले माह विदेश जा रहा है. तुम चाहती हो कि विदेश जाने से पहले तुम दोनों की सगाई हो जाए. संदीप यह काम लौट कर करना चाहता है. इसी बात को ले कर तुम दोनों के बीच मनमुटाव चल रहा है ना?’’ मेरी आवाज में उस के प्रति गहरी सहानुभूति के भाव उभरे.
कुछ पल खामोश रहने के बाद अर्चना ने चिंतित लहजे में जवाब दिया, ‘‘आंटी, संदीप और मैं एकदूसरे के दिल में 3 साल से बसते हैं. दोनों के घर वालों को हमारे इस प्रेम का पता नहीं है. वह बिना सगाई के चला गया तो मैं खुद को बेहद असुरक्षित महसूस करूंगी.’’
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‘‘क्या तुम्हें संदीप के प्यार पर भरोसा नहीं है?’’
‘‘भरोसा तो पूरा है, आंटी, पर मेरा दिल बिना किसी रस्म के उसे अकेला विदेश भेजने से घबरा रहा है.’’
मैं ने कुछ देर सोचने के बाद पूछा, ‘‘संदीप के बारे में मातापिता को न बताने की कोई तो वजह होगी.’’
‘‘आंटी, मेरी बड़ी दीदी ने प्रेम विवाह किया था और उस की शादी तलाक के कगार पर पहुंची हुई है. पापा- मम्मी को अगर मैं संदीप से प्रेम करने के बारे में बताऊंगी तो मेरी जान मुसीबत में फंस जाएगी.’’
‘‘और संदीप ने तुम्हें अपने घरवालों से क्यों छिपा कर रखा है?’’
अर्चना ने बेचैनी के साथ जवाब दिया, ‘‘संदीप के पिता बहुत बड़े बिजनेसमैन हैं. आर्थिक दृष्टि से हम उन के सामने कहीं नहीं ठहरते. मैं एम.बी.ए. पूरा कर के नौकरी करने लगूं, तब तक के लिए उस ने अपने मातापिता से शादी का जिक्र छेड़ना टाल रखा था. मेरा एम.बी.ए. अगले महीने समाप्त होगा, लेकिन उस के विदेश जाने की बात के कारण स्थिति बदल गई है. मैं चाहती हूं कि वह फौरन अपने मातापिता से इस मामले में चर्चा छेड़े.’’
अर्चना का नजरिया तो मैं समझ गई लेकिन संदीप ने अभी विदेश जाने से पहले अपने मातापिता से शादी का जिक्र छेड़ने से पार्क में साफ इनकार कर दिया था और उस के इनकार करने के ढंग में मैं ने बड़ी कठोरता महसूस की थी. उस ने अर्चना के नजरिए को समझने की कोशिश भी नहीं की थी. मुझे उस का व्यक्तित्व पसंद नहीं आया था. तभी दुखी व परेशान अर्चना का मनोबल बढ़ाने के लिए मैं ने उस की सहायता करने का फैसला लिया था.
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मेरा 5 वर्षीय पोता समीर स्कूल से लौट आया तो हम आगे बात नहीं कर सके क्योंकि उस की मांग थी कि उस के कपड़े बदलने, खाना परोसने व खिलाने का काम दादी ही करें.
अर्चना अपने घर जाना चाहती थी पर मैं ने उसे यह कह कर रोक लिया कि बेटी, अगर तुम्हें कोई ऐतराज न हो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूं. तुम्हारी मां से मिलने का दिल है मेरा.
घर वालों की सहमति पर सुदेश और दक्षा ने मिल कर बातें करने का निश्चय किया. सुदेश सुबह ही मिलना चाहता था, लेकिन दक्षा ने ब्रेकफास्ट कर के मिलने की बात कही. क्योंकि वह पूजापाठ कर के ही ब्रेकफास्ट करती थी. सुदेश में दक्षा से मिलने के लिए गजब का उत्साह था. दक्षा की बातों और उस के स्वभाव ने आकर्षण तो पैदा कर ही दिया था. इस के अलावा दक्षा ने अपने जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें मिल कर बताने को कहा था. वो बातें कौन सी थीं, सुदेश उन बातों को भी जानना चाहता था.
निश्चित की गई जगह पर सुदेश पहले ही पहुंच गया था. वहां पहुंच कर वह बेचैनी से दक्षा की राह देख रहा था. वह काले रंग की शर्ट और औफ वाइट कार्गो पैंट पहन कर गया था. रेस्टोरेंट में बैठ कर वह हैडफोन से गाने सुनने में मशगूल हो गया. दक्षा ने काला टौप पहना था, जिस के लिए उस की मम्मी ने टोका भी था कि पहली बार मिलने जा रही है तो जींस टौप, वह भी काला.
तब दक्षा ने आदत के अनुसार लौजिकल जवाब दिया था, ‘‘अगर मैं सलवारसूट पहन कर जाती हूं और बाद में उसे पता चलता है कि मैं जींस टौप भी पहनती हूं तो यह धोखा देने वाली बात होगी. और मम्मी इंसान के इरादे नेक हों तो रंग से कोई फर्क नहीं पड़ता.’’
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तर्क करने में तो दक्षा वकील थी. बातों में उस से जीतना आसान नहीं था. वह घर से निकली और तय जगह पर पहुंच गई. सढि़यां चढ़ कर दरवाजा खोला और रेस्टोरेंट में अंदर घुसी. फोटो की अपेक्षा रियल में वह ज्यादा सुंदर और मस्ती में गाने के साथ सिर हिलाती हुई कुछ अलग ही लग रही थी.
अचानक सुदेश की नजर दक्षा पर पड़ी तो दोनों की नजरें मिलीं. ऐसा लगा, दोनों एकदूसरे को सालों से जानते हों और अचानक मिले हों. दोनों के चेहरों पर खुशी छलक उठी थी.
खातेपीते दोनों के बीच तमाम बातें हुईं. अब वह घड़ी आ गई, जब दक्षा अपने जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातें उस से कहने जा रही थी. वहां से उठ कर दोनों एक पार्क में आ गए थे, जहां दोनों कोने में पेड़ों की आड़ में रखी एक बेंच पर बैठ गए. दक्षा ने बात शुरू की, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, सुदेश. ज्यादातर लोगों से मैं यही कहती हूं कि अब वह इस दुनिया में नहीं है, पर यह सच नहीं है. हकीकत कुछ और ही है.’’
इतना कह कर दक्षा रुकी. सुदेश अपलक उसे ही ताक रहा था. उस के मन में हकीकत जानने की उत्सुकता भी थी. लंबी सांस ले कर दक्षा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं मम्मी के पेट में थी, तब मेरे पापा किसी और औरत के लिए मेरी मम्मी को छोड़ कर उस के साथ रहने के लिए चले गए थे.
‘‘लेकिन अभी तक मम्मीपापा के बीच डिवोर्स नहीं हुआ है. घर वालों ने मम्मी से यह कह कर उन्हें अबार्शन कराने की सलाह दी थी कि उस आदमी का खून भी उसी जैसा होगा. इस से अच्छा यही होगा कि इस से छुटकारा पा कर दूसरी शादी कर लो.’’
दक्षा के यह कहते ही सुदेश ने उस की तरफ गौर से देखा तो वह चुप हो गई. पर अभी उस की बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए उस ने नजरें झुका कर आगे कहा, ‘‘पर मम्मी ने सभी का विरोध करते हुए कहा कि जो कुछ भी हुआ, उस में पेट में पल रहे इस बच्चे का क्या दोष है. यानी उन्होंने गर्भपात नहीं कराया. मेरे पैदा होने के बाद शुरू में कुछ ही लोगों ने मम्मी का साथ दिया. मैं जैसेजैसे बड़ी होती गई, वैसेवैसे सब शांत होता गया.
‘‘मेरा पालनपोषण एक बेटे की तरह हुआ. अगलबगल की परिस्थितियां, जिन का अकेले मैं ने सामना किया है, उस का मेरी वाणी और व्यवहार में खासा प्रभाव है. मैं ने सही और गलत का खुद निर्णय लेना सीखा है. ठोकर खा कर गिरी हूं तो खुद खड़ी होना सीखा है.’’
अपनी पलकों को झपकाते हुए दक्षा आगे बोली, ‘‘संक्षेप में अपनी यह इमोशनल कहानी सुना कर मैं आप से किसी तरह की सांत्वना नहीं पाना चाहती, पर कोई भी फैसला लेने से पहले मैं ने यह सब बता देना जरूरी समझा.
‘‘कल कोई दूसरा आप से यह कहे कि लड़की बिना बाप के पलीबढ़ी है, तब कम से कम आप को यह तो नहीं लगेगा कि आप के साथ धोखा हुआ है. मैं ने आप से जो कहा है, इस के बारे में आप आराम से घर में चर्चा कर लें. फिर सोचसमझ कर जवाब दीजिएगा.’’
सुदेश दक्षा की खुद्दारी देखता रह गया. कोई मन का इतना साफ कैसे हो सकता है, उस की समझ में नहीं आ रहा था. अब तक दोनों को भूख लग आई थी. सुदेश दक्षा को साथ ले कर नजदीक की एक कौफी शौप में गया. कौफी का और्डर दे कर दोनों बातें करने लगे तभी अचानक दक्षा ने पूछा था, ‘‘डू यू बिलीव इन वाइब्स?’’
सुदेश क्षण भर के लिए स्थिर हो गया. ऐसी किसी बात की उस ने अपेक्षा नहीं की थी. खासकर इस बारे में, जिस में वह पूरी तरह से भरोसा करता हो. वाइब्स अलौकिक अनुभव होता है, जिस में घड़ी के छठें भाग में आप के मन को अच्छेबुरे का अनुभव होता है. किस से बात की जाए, कहां जाया जाए, बिना किसी वजह के आनंद न आए और इस का उलटा एकदम अंजान व्यक्ति या जगह की ओर मन आकर्षित हो तो यह आप के मन का वाइब्स है.
यह कभी गलत नहीं होता. आप का अंत:करण आप को हमेशा सच्चा रास्ता सुझाता है. दक्षा के सवाल को सुन कर सुदेश ने जीवन में एक चांस लेने का निश्चय किया. वह जो दांव फेंकने जा रहा था, अगर उलटा पड़ जाता तो दक्षा तुरंत मना कर के जा सकती थी. क्योंकि अब तक की बातचीत से यह जाहिर हो गया था. पर अगर सब ठीक हो गया तो सुदेश का बेड़ा पार हो जाएगा.
सुदेश ने बेहिचक दक्षा से उस का हाथ पकड़ने की अनुमति मांगी. दक्षा के हावभाव बदल गए. सुदेश की आंखों में झांकते हुए वह यह जानने की कोशिश करने लगी कि क्या सोच कर उस ने ऐसा करने का साहस किया है. पर उस की आंखो में भोलेपन के अलावा कुछ दिखाई नहीं दिया. अपने स्वभाव के विरुद्ध उस ने सुदेश को अपना हाथ पकड़ने की अनुमति दे दी.
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दोनों के हाथ मिलते ही उन के रोमरोम में इस तरह का भाव पैदा हो गया, जैसे वे एकदूसरे को जन्मजन्मांतर से जानते हों. दोनों अनिमेष नजरों से एकदूसरे को देखते रहे. लगभग 5 मिनट बाद निर्मल हंसी के साथ दोनों ने एकदूसरे का हाथ छोड़ा. दोनों जो बात शब्दों में नहीं कह सके, वह स्पर्श से व्यक्त हो गई.
जाने से पहले सुदेश सिर्फ इतना ही कह सका, ‘‘तुम जो भी हो, जैसी भी हो, किसी भी प्रकार के बदलाव की अपेक्षा किए बगैर मुझे स्वीकार हो. रही बात तुम्हारे पिछले जीवन के बारे में तो वह इस से भी बुरा होता तब भी मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बाकी अपने घर वालों को मैं जानता हूं. वे लोग तुम्हें मुझ से भी अधिक प्यार करेंगे. मैं वचन देता हूं कि बचपन से ले कर अब तक अधूरे रह गए सपनों को मैं हकीकत का रंग देने की कोशिश करूंगा.’’
सुदेश और दक्षा के वाइब्स ने एकदूसरे से संबंध जोड़ने की मंजूरी दे दी थी.
दूसरे दिन इमामबाड़ा की भूलभुलैया में दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर रास्ता खोजते रहे. शशांक और सरिता को लगा कि उन के कालिज के दिन लौट आए हैं. शाम को गोमती के किनारे बने पार्क में बैठेबैठे सरिता ने शशांक के कंधे पर सिर रख दिया और आंखें बंद कर लीं.
‘‘सरू, तुम्हें पता है, मुझ में आए इस बदलाव का जिम्मेदार कौन है…इस का जिम्मेदार हरिराम है,’’ उस ने सरिता के बालों को सहलाते हुए उस शाम की घटना बता दी. शशांक दूसरे दिन प्रोजेक्ट पर पहुंचा तो वह खुद को बहुत हलका महसूस कर रहा था. उस ने पाया कि उस में कुछ कर दिखाने की इच्छाशक्ति पहले से दोगुनी हो गई है.
इधर सरिता ने हरिराम के कमरे में जा कर कहा, ‘‘काका, आप के कारण मेरी खोई हुई गृहस्थी, मेरा परिवार मुझे वापस मिला है. मैं आप की जिंदगी भर ऋणी रहूंगी. मैं अब आप को काका कह कर बुलाऊंगी.’’
हरिराम ने भावुक हो कर सरिता के सिर पर हाथ फेरा. ‘‘काका, अब मैं यहीं रहूंगी और खाना मैं बनाऊंगी आप आराम करना.’’
‘‘नहीं बिटिया, मेरा काम मत छीनो. हां, अपनेआप को व्यस्त रखो और कुछ नया करना सीखो.’’ सरिता ने चित्रकला सीखनी शुरू कर दी. शशांक के प्रयासों से लखनऊ प्रोजेक्ट में पहले धीमी और फिर तेज प्रगति होने लगी. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम ने कंपनी को भुगतान शुरू कर दिया. यही नहीं, उस प्रोजेक्ट के विस्तार का काम भी उस की कंपनी को मिल गया.
1 माह के बाद सरिता ने हरिराम से कहा, ‘‘काका, आप के कारण मुझे अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है. मैं दिल्ली में बिलकुल खाली रहती थी. इस कारण मेरा दिमाग गलत विचारों का कारखाना बन गया था. बजाय शशांक की परेशानी समझने के मैं अपने पति पर शक करने लगी थी.’’ हरिराम के लाख मना करने पर भी सरिता ने उस का एक बड़ा चित्र बनाया.
इधर दिल्ली में कंपनी अध्यक्ष मि. सेनगुप्ता के सामने निदेशक मि. उत्पल बनर्जी पसीनापसीना हो रहे थे. ‘‘मि. बनर्जी, आप को पता है कि हरियाणा विद्युत निगम ने कंपनी को फरीदाबाद प्रोजेक्ट के लिए कोर्ट का नोटिस भेजा है?’’
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‘‘सर, शशांक बहुत गड़बड़ कर के गया है. उस ने कोई कागज न गांगुली को और न मुझे दिया है. बिना कागज के तो….’’ ‘‘मि. बनर्जी, आप मुझे क्या बेवकूफ समझते हैं?’’
‘‘नहीं सर, आप तो…’’ ‘‘मि. बनर्जी, सारी गड़बड़ आप के दिमाग में है. आप आदमी का मूल्यांकन उस के काम से नहीं बल्कि उस के बंगाली होने या न होने से करते हैं.’’
‘‘मेरे पास उन फाइलों और रिपोर्टों की पूरी सूची है जो शशांक, जतिन गांगुली को दे कर गया है.’’ ‘‘यस सर.’’
‘‘आप और गांगुली 1 सप्ताह के अंदर फरीदाबाद वाले प्रोजेक्ट को रास्ते पर लाइए या अपना त्यागपत्र दीजिए.’’ ‘‘सर, 1 सप्ताह में…’’
‘‘आप जा सकते हैं.’’ 1 सप्ताह के बाद मि. उत्पल बनर्जी और मि. गांगुली कंपनी से निकाले जा चुके थे. मि. सेनगुप्ता ने शशांक को फोन कर के कंपनी की इज्जत की खातिर फरीदाबाद प्रोजेक्ट का अतिरिक्त भार लेने को कहा.
‘‘हरिराम, तुम ने ठीक कहा था. ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर हर व्यक्ति की प्रतिभा का मूल्यांकन होता है,’’ शशांक दिल्ली के लिए विदा लेते समय बोला. ‘‘काका, आप की बहुत याद आएगी,’’ सरिता बोली.
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1 माह बाद फरीदाबाद प्रोजेक्ट भी ठीक हो गया और शशांक को दोहरा प्रमोशन दे कर कंपनी का जनरल मैनेजर बना दिया गया. उस ने हरिराम को अपने प्रमोशन की खबर देने के लिए फोन किया तो पता चला कि हरिराम नौकरी छोड़ कर कहीं चला गया है.
शाम को शशांक ने हरिराम के बारे में सरिता को बताया तो वह गंभीर हो गई, फिर बोली, ‘‘हरिराम काका शायद अपने बिछुड़े परिवार की तलाश में गए होंगे या शांति की तलाश में.’’ आज 3 साल बाद शशांक कंपनी में निदेशक है. सरिता ने चित्रकला का स्कूल खोला है. उन की बैठक में हरिराम का सरिता द्वारा बनाया हुआ चित्र लगा है.
लेखक- अवनिश शर्मा
रास्ते में अर्चना ने उलझन भरे लहजे में पूछा, ‘‘मीना आंटी, क्या संदीप के विदेश जाने से पहले उस के साथ सगाई की रस्म हो जाने की मेरी जिद गलत है?’’
‘‘इस सवाल का सीधा ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब नहीं दिया जा सकता है,’’ मैं ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘मेरी समझ से इस समस्या के 2 महत्त्वपूर्ण पहलू हैं.’’
‘‘कौनकौन से, आंटी?’’
‘‘पहला यह कि क्या संदीप का तुम्हारे प्रति प्रेम सच्चा है? अगर इस का जवाब ‘हां’ है तो वह लौट कर तुम से शादी कर ही लेगा. दूसरी तरफ वह ‘रोकने’ की रस्म से इसलिए इनकार कर रहा हो कि तुम से शादी करने का इच्छुक ही न हो.’’
‘‘ऐसी दिल छू लेने वाली बात मुंह से मत निकालिए, आंटी,’’ अर्चना का गला भर आया.
‘‘बेटी, यह कभी मत भूलो कि तथ्यों से भावनाएं सदा हारती हैं. हमारे चाहने भर से जिंदगी के यथार्थ नहीं बदलते,’’ मैं ने उसे कोमल लहजे में समझाया.
‘‘मुझे संदीप पर पूरा विश्वास है,’’ उस ने यह बात मानो मेरे बजाय खुद से कही थी.
‘‘होना भी चाहिए,’’ मैं ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई.
‘‘आंटी, मेरी समस्या का दूसरा पहलू क्या है?’’ अर्चना ने मुसकराने की कोशिश करते हुए पूछा.
‘‘तुम्हारी खुशी…तुम्हारे मन की सुखशांति,’’
‘‘मैं कुछ समझी नहीं, आंटी.’’
‘‘अभी इस बारे में मुझ से कुछ मत पूछो. पर मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि संदीप के विदेश जाने में अभी 2 सप्ताह बचे हैं और इस समय के अंदर ही तुम्हारी समस्या का उचित समाधान मैं ढूंढ़ लूंगी.’’
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ऐसा आश्वासन पा कर अर्चना ने मुझ से आगे कुछ नहीं पूछा.
अर्चना की मां सावित्री एक आम घरेलू औरत थीं. मेरी 2 सहेलियां उन की भी परिचित निकलीं तो हम जल्दी सहज हो कर आपस में हंसनेबोलने लगे.
मैं ने अर्चना की शादी का जिक्र छेड़ा तो सावित्री ने बताया, ‘‘मीना बहनजी, इस के लिए इस की बूआ ने बड़ा अच्छा रिश्ता सुझाया है पर यह जिद्दी लड़की हमें बात आगे नहीं चलाने देती.’’
‘‘क्या कहती है अर्चना,’’ मैं ने उत्सुकता दर्शाई.
‘‘यही कि एम.बी.ए. के बाद कम से कम साल भर नौकरी कर के फिर शादी के बारे में सोचूंगी.’’
‘‘उस के ऐसा करने में दिक्कत क्या है, बहनजी?’’
‘‘अर्चना के पापा इतना लंबा इंतजार नहीं करना चाहते. अपनी बहन का भेजा रिश्ता उन्हें बहुत पसंद है.’’
मैं समझ गई कि आने वाले दिनों में अर्चना पर शादी का जबरदस्त दबाव बनेगा. अर्चना की जिद कि संदीप सगाई कर के विदेश जाए, मुझे तब जायज लगी.
‘‘अर्चना, कल तुम पार्क में मुझे संदीप से मिलाना. तब तक मैं तुम्हारी परेशानी का कुछ हल सोचती हूं,’’ इन शब्दों से उस का हौसला बढ़ा कर मैं अपने घर लौट आई.
अगले दिन पार्क में अर्चना ने संदीप से मुझे मिला दिया. एक नजर मेरे साधारण से व्यक्तित्व पर डालने के बाद संदीप की मेरे बारे में दिलचस्पी फौरन बहुत कम हो गई.
मैं ने उस से थोड़े से व्यक्तिगत सवाल सहज ढंग से पूछे. उस ने बड़े खिंचे से अंदाज में उन के जवाब दिए. यह साफ था कि संदीप को मेरी मौजूदगी खल रही थी.
उन दोनों को अकेला छोड़ कर मैं दूर घास पर आराम करने चली गई.
संदीप को विदा करने के बाद अर्चना मेरे पास आई. उस की उदासी मेरी नजरों से छिपी नहीं रह सकी. मैं ने प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उस के बोलने का इंतजार खामोशी से करने लगी.
कुछ देर बाद हारे हुए लहजे में उस ने बताया, ‘‘आंटी, वह सगाई करने के लिए तैयार नहीं है. उस की दलील है कि जब शादी एक साल बाद होगी तो अभी से दोनों परिवारों के लिए तनाव पैदा करने का कोई औचित्य नहीं है.’’
कुछ देर खामोश रहने के बाद मैं ने मुसकराते हुए विषय परिवर्तन किया, ‘‘देखो, परसों मेरे बड़े बेटे अंकित की कोठी में शानदार पार्टी होगी. मेरी पोती शिखा का 8वां जन्मदिन है. तुम्हें उस पार्टी में मेरे साथ शामिल होना होगा.’’
अर्चना ने पढ़ाई का बहाना कर के पार्टी में आने से बचना चाहा, पर मेरी जिद के सामने उस की एक न चली. उस की मां से इजाजत दिलवाने की जिम्मेदारी मैं ने अपने ऊपर ले ली थी.
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मेरा बेटा अमित व बहू निशा दोनों कंप्यूटर इंजीनियर हैं. उन्होंने प्रेम विवाह किया था. मेरे मायके या ससुराल वालों में दोनों तरफ दूरदूर तक कोई भी उन जैसा अमीर नहीं है.
अमित ने पार्टी का आयोजन अपनी हैसियत के अनुरूप भव्य स्तर पर किया. सभी मेहमान शहर के बड़े और प्रतिष्ठित आदमी थे. उन की देखभाल के लिए वेटरों की पूरी फौज मौजूद थी. शराब के शौकीनों के लिए ‘बार’ था तो डांस के शौकीनों के लिए डी.जे. सिस्टम मौजूद था.
मेरी छोटी बहू सीमा, अर्चना और मैं खुद इस भव्य पार्टी में मेहमान कम और दर्शक ज्यादा थे. जो 1-2 जानपहचान वाले मिले वे भी हम से ज्यादा बातें करने को उत्सुक नहीं थे.
अमित और निशा मेहमानों की देखभाल में बहुत व्यस्त थे. हम ठीक से खापी रहे हैं, यह जानने के लिए दोनों कभीकभी कुछ पल को हमारे पास नियमित आते रहे.
रात को 11 बजे के करीब उन से विदा ले कर जब हम अपने फ्लैट में लौटे, तब तक 80 प्रतिशत से ज्यादा मेहमानों ने डिनर खाना भी नहीं शुरू किया था.
पार्टी के बारे में अर्चना की राय जानने के लिए अगले दिन मैं 11 बजे के आसपास उस के घर पहुंच गई थी.
‘‘आंटी, पार्टी बहुत अच्छी थी पर सच कहूं तो मजा नहीं आया,’’ उस ने सकुचाते हुए अपना मत व्यक्त किया.
‘‘मजा क्यों नहीं आया तुम्हें?’’ मैं ने गंभीर हो कर सवाल किया.
‘‘पार्टी में अच्छा खानेपीने के साथसाथ खूब हंसनाबोलना भी होना चाहिए. बस, वहां जानपहचान के लोग न होने के कारण पार्टी का पूरा लुत्फ नहीं उठा सके हम.’’
‘‘अर्चना, हम दूसरे मेहमानों के साथ जानपहचान बढ़ाने की कोशिश करते तो क्या वे हमें स्वीकार करते? मैं चाहूंगी कि तुम मेरे इस सवाल का जवाब सोचसमझ कर दो.’’
कुछ देर सोचने के बाद अर्चना ने जवाब दिया, ‘‘आंटी, वहां आए मेहमानों का सामाजिक व आर्थिक स्तर हम से बहुत ऊंचा था. हमें बराबर का दर्जा देना उन्हें स्वीकार न होता.’’
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‘‘एक बात पूछूं?’’
‘‘पूछिए.’’
‘‘क्या ऐसा ही अंतर तुम्हारे व संदीप के परिवारों में नहीं है?’’
‘‘है,’’ अर्चना का चेहरा उतर गया.
‘‘तब क्या तुम्हारे लिए यह जानना जरूरी नहीं है कि उस के घर वाले तुम्हें बहू के रूप में आदरसम्मान देंगे या नहीं?’’
‘‘आंटी, क्या संदीप का प्यार मुझे ये सभी चीजें उन से नहीं दिलवा सकेगा?’’
‘‘अर्चना, कल की पार्टी में अमित की मां, भाईभतीजा व भाई की पत्नी मौजूद थे. लगभग सभी मेहमान हमें पहचानने के बावजूद हम से बोलना अपनी तौहीन समझते रहे. सिर्फ संदीप की पत्नी बन जाने से क्या तुम्हारे अमीर ससुराल वालों का तुम्हारे प्रति नजरिया बदल जाएगा?’’
अनुभव के आधार पर मैं ने एकएक शब्द पर जोर दिया, ‘‘तुम्हें संदीप के घर वालों से मिलना होगा. वे तुम्हारे साथ सगाई करें या न करें, पर इस मुलाकात के लिए तुम अड़ जाओ, अर्चना.’’
मेरे कुछ देर तक समझाने के बाद बात उस की समझ में आ गई. मेरी सलाह पर अमल करने का मजबूत इरादा मन में ले कर वह संदीप से मिलने पार्क की तरफ गई.
करीब डेढ़ घंटे बाद जब वह लौटी तो उस की सूजी आंखों को देख कर मैं संदीप का जवाब बिना बताए ही जान गई.
‘‘वह अपने घर वालों से तुम्हें मिलाने को नहीं माना?’’
‘‘नहीं, आंटी,’’ अर्चना ने दुखी स्वर में जवाब दिया, ‘‘मैं उस के साथ लड़ी भी और रोई भी, पर संदीप नहीं माना. वह कहता है कि इस मुलाकात को अभी अंजाम देने का न कोई महत्त्व है और न ही जरूरत है.’’
‘‘उस के लिए ऐसा होगा पर हम ऐसी मुलाकात को पूरी अहमियत देते हुए इसे बिना संदीप की इजाजत के अंजाम देंगे, अर्चना. संदीप की जिद के कारण तुम अपनी भावी खुशियों को दांव पर नहीं लगा सकतीं,’’ मेरे गुस्से से लाल चेहरे को देख कर वह घबरा गई थी.
डरीघबराई अर्चना को संदीप की मां से सीधे मिलने को राजी करने में मुझे खासी मेहनत करनी पड़ी पर आखिर में उस की ‘हां’ सुन कर ही मैं उस के घर से उठी.
शशांक ने अनुमान लगाया कि हरिराम की उम्र करीब 50-55 की होगी. हट्टाकट्टा शरीर पर साफ कुरता- पायजामा, ठीक से संवारे गए सफेद बाल, दाढ़ीमूंछ साफ, करीब 5 फुट 8 इंच ऊंचाई लिए हरिराम आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक लग रहा था. कमरे में जा कर शशांक ने लखनऊ पहुंचने पर सरिता को फोन किया.
रात को खाना खातेखाते शशांक ने हरिराम से उस के बारे में पूछा. ‘‘साहब, मेरे पिता इस अतिथिगृह में थे. मैं बचपन से उन की सहायता करता था. बीच में 10 साल के लिए मुंबई गया था, एक कारखाने में काम करने. पिता की अचानक मृत्यु हो गई. मां अकेली थीं, इसलिए मुंबई छोड़ कर लखनऊ आना पड़ा. पिछले 10 साल से इसी अतिथिगृह में आप सब की सेवा कर रहा हूं.’’
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‘‘तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं?’’ ‘‘बस, मैं अकेला हूं,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया. शायद वह इस बारे में बात नहीं करना चाहता था.
दूसरे दिन शशांक प्रोेजेक्ट आफिस गया तो उसे चारों ओर से अपनी कंपनी की आलोचना ही सुनने को मिली. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारियों ने एक ही बात की रट लगाई कि पैसा वापस करो और दफा हो जाओ यहां से. उस की कंपनी के ज्यादातर कर्मचारी नदारद थे.
लज्जित शशांक गुस्से से भरा शाम को अतिथिगृह वापस लौटा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति से कैसे निबटा जाए. उसे कुछ समय के लिए सब से विरक्ति सी हुई. उस का मन किया कि कंपनी को त्यागपत्र भेज कर, दूर पहाड़ों में चला जाए. खाना खा कर वह टहलने के लिए निकल पड़ा. 1 घंटे के बाद वापस आ कर सोने की तैयारी करने लगा. एकाएक उसे खयाल आया कि उस का पर्स जिस में करीब 5 हजार रुपए थे, गायब है. उस ने अपनी पैंट की जेब, बाथरूम आदि में ढूंढ़ा पर पर्स नहीं मिला.
उस ने सोचा कि कहीं यह करामात हरिराम ने तो नहीं कर दिखाई. शशांक ने हरिराम को बुला कर बहुत डांटा, धमकाया और पर्स वापस करने के लिए कहा.
हरिराम चुपचाप खड़ा रहा. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह कुछ नहीं बोला. ‘‘मैं तुम्हें सुबह तक का समय देता हूं. यदि तुम ने मेरा पर्स वापस नहीं किया तो मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’
शशांक रात को अपने कमरे में बैठा काफी देर तक सोचता रहा कि इस नई समस्या से कैसे निबटा जाए. सोने के लिए लेटा तो उसे तकिया टेढ़ामेढ़ा लगा. तकिया उठाया तो उस के नीचे पर्र्स था. शशांक को याद आया कि उस ने इस डर से पर्स तकिए के नीचे छिपा दिया था कि कहीं हरिराम उसे चुरा न ले. शशांक को खुद पर शर्म महसूस हुई. वह हरिराम के कमरे में गया और उसे अपने कमरे में बुला कर लाया. शशांक ने हरिराम को बताया कि वह किस परेशानी में यहां आया था. किस तरह वह क्षेत्रवाद, भाषावाद का शिकार हो रहा है. इसी परेशानी में उस से यह अपराध हो गया, जिस के लिए वह शर्मिंदा है.
‘‘साहब, यह बडे़ दुख की बात है कि हम पहले हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बंगाली, मराठी आदि हैं और बाद में भारतीय. इस सोच ने हमारे देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा डाली हुई है.’’ शशांक को किसी हिंदू से बाबरी मसजिद के बारे में यह विचार सुन कर आश्चर्य हुआ. उसे लगा कि उस के सामने एक सच्चा भारतीय खड़ा है.
‘‘पर क्या किया जा सकता है, हरिराम?’’ उस के मुंह से निकला. ‘‘क्या आप कर्म पर विश्वास करते हैं?’’
‘‘हां, बिलकुल.’’ ‘‘आप यह क्यों नहीं सोचते कि इस लखनऊ वाले प्रोजेक्ट ने आप को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का अवसर दिया है? उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारी हमारी कंपनी के शत्रु नहीं हैं. आप को उन की समस्याओं का समाधान करना चाहिए.’’
‘‘हरिराम, तुम ठीक कहते हो. अब रात बहुत हो गई है, थोड़ा सो लेते हैं.’’ अगले दिन शशांक ने अपनी कंपनी के कर्मचारियों से मिल कर भविष्य की कार्यप्रणाली तय की. इस के बाद उस ने उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अध्यक्ष से मिल कर 3 महीने का समय मांग लिया और उन्हें यह आश्वासन भी दिया कि वह लखनऊ से बाहर नहीं जाएगा.
शशांक सुबह नाश्ते के बाद प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए रवाना हो जाता था और रात को काफी देर के बाद वापस आता था. इस से कंपनी के कर्मचारियों में नई जान आ गई. एक दिन शशांक रात को आया तो अतिथिगृह में ताला लगा था. वह पास के बगीचे में टहलने के लिए चला गया. वहीं उसे हरिराम अकेले एक बैंच पर सिर झुकाए बैठा मिल गया.
‘‘हरिराम, तुम यहां क्या कर रहे हो?’’ हरिराम ने उसे देखा और फिर यह कहते हुए कि आओ, शशांक बाबू, बैठो, उस ने शशांक का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा दिया.
शशांक ने हरिराम के मुंह से शराब की गंध महसूस की. ‘‘जानते हो यह कौन है?’’ हरिराम ने शशांक को एक तसवीर दिखाते हुए कहा.
शशांक ने देखा, तसवीर में एक महिला, 4-5 साल के बच्चे के साथ थी. ‘‘यह सीता है, मेरी पत्नी और यह रमेश है, मेरा बेटा. मैं मुंबई में काम करता था. अपनी सीता पर शक करता था. रोज उसे पीटता था. वह बेचारी कब तक जुल्म सहती. एक दिन मुझे छोड़ कर बेटे के साथ कहीं चली गई,’’ कह कर हरिराम ने सिर झुका लिया.
‘‘तुम ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’ ‘‘बहुत ढूंढ़ा, बहुत खोजा पर कहीं पता नहीं चला. आज आप की मेमसाहब का फोन आया था. परिवार के बिना जिंदगी गुजारना बहुत कठिन है साहब. इस का दर्द मैं जानता हूं,’’ कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा.
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दूसरे दिन सुबह नाश्ते के समय हरिराम ने संकोच के साथ कहा, ‘‘साहब, कल नशे में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो माफ कीजिएगा.’’
दिन भर शशांक, हरिराम और अपनी जिंदगी के बारे में सोचता रहा. उस का और सरिता का कालिज का 3 साल तक प्यार, एक परिवार का सपना, विवाह, उस का काम में व्यस्त होना, कंपनी में प्रमोशन के लिए भागदौड़, सरिता की शिकायतें, अहं का टकराव फिर लड़ाई, उस का तंग आ कर सरिता पर हाथ उठाना, सरिता की आत्महत्या की धमकी, हमेशा एक तनाव भरी जिंदगी जीना. ‘नहीं, हमारी पे्रम कहानी का यह अंत नहीं होना चाहिए,’ शशांक के अंतर्मन से यह आवाज निकली और शाम को उस ने सरिता को फोन किया.
‘‘हेलो,’’ फोन सरिता ने उठाया था. ‘‘हेलो, क्या कर रही हो?’’ शशांक ने नम्र स्वर में पूछा.
‘‘यों ही बैठी हूं.’’ ‘‘सरिता, मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं. मैं यहां लखनऊ में तुम्हारे बिना बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं.’’
एक क्षण को सरिता के मन में आया कि बोले वंदना को बुला लो, पर दूसरे क्षण उस का अपनेआप पर नियंत्रण न रहा और वह फूटफूट कर रो पड़ी. शशांक की आंखों में भी आंसू आ गए.
‘‘सरु, क्या तुम यहां आ सकती हो?’’ ‘‘मैं कल ही पहुंच रही हूं, शशांक,’’ सरिता ने रोतेरोते कहा.
शशांक दूसरे दिन शाम को कमरे में दाखिल हुआ तो सरिता उस का इंतजार कर रही थी. ‘‘शशांक, मुझे माफ कर दो.’’
शशांक ने सरिता को गले से लगा लिया. ‘‘गलती मेरी ज्यादा है. मैं काम के जनून में तुम्हें नजरअंदाज करने लगा था. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है न सरू ?’’
रात को खाना खाने के बाद हरिराम ने सरिता से कहा, ‘‘मेमसाहब, आप के आने से साहब बहुत खुश हैं. इन्होंने आज 2 रोटियां ज्यादा खाई हैं,’’ फिर उस ने शशांक से कहा, ‘‘साहब, कल छुट्टी है. आप मेमसाहब को बड़ा इमामबाड़ा, बारादरी, गोमती नदी का किनारा आदि जगह घुमा कर लाइए. हां, शाम को अमीनाबाद से इन के लिए चिकन की साड़ी खरीदना मत भूलिएगा.’’
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दक्षा मां से बातें कर रही थी कि उसी समय वाट्सऐप पर मैसेज आने की घंटी बजी. दक्षा ने फटाफट बायोडाटा और फोटोग्राफ्स डाउनलोड किए. बायोडाटा परफेक्ट था. दक्षा की तरह सुदेश भी अपने मांबाप की एकलौती संतान था. न कोई भाई न कोई बहन. दिल्ली में उस का जमाजमाया कारोबार था. खाने और ट्रैवलिंग का शौक. वाट्सऐप पर आए फोटोग्राफ्स में एक दाढ़ी वाला फोटो था.
दक्षा को जो चाहिए था, वे सारे गुण तो सुदेश में थे. पर दक्षा खुश नहीं थी. उस के परिवार में जो घटा था, उसे ले कर वह परेशान थी. उसे अपनी मर्यादाओं का भी पता था. साथ ही स्वभाव से वह थोड़ी मूडी और जिद्दी थी. पर समय और संयोग के हिसाब से धीरगंभीर और जिम्मेदारी भी थी.
दक्षा का पालनपोषण एक सामान्य लड़की से हट कर हुआ था. ऐसा नहीं करते, वहां नहीं जाते, यह नहीं बोला जाता, तुम लड़की हो, लड़कियां रात में बाहर नहीं जातीं. जैसे शब्द उस ने नहीं सुने थे, उस के घर का वातावरण अन्य घरों से कदम अलग था. उस की देखभाल एक बेटे से ज्यादा हुई थी. घर के बिजली के बिल से ले कर बैंक से पैसा निकालने, जमा करने तक का काम वह स्वयं करती थी.
दक्षा की मां नौकरी करती थीं, इसलिए खाना बनाना और घर के अन्य काम करना वह काफी कम उम्र में ही सीख गई थी. इस के अलावा तैरना, घुड़सवारी करना, कराटे, डांस करना, सब कुछ उसे आता था. नौकरी के बजाए उसे बिजनैस में रुचि ही नहीं, बल्कि सूझबूझ भी थी. वह बाइक और कार दोनों चला लेती थी. जयपुर और नैनीताल तक वह खुद गाड़ी चला कर गई थी. यानी वह एक अच्छी ड्राइवर थी.
दक्षा को पढ़ने का भी खासा शौक था. इसी वजह से वह कविता, कहानियां, लेख आदि भी लिखती थी. एकदम स्पष्ट बात करती थी, चाहे किसी को अच्छी लगे या बुरी. किसी प्रकार का दंभ नहीं, लेकिन घरपरिवार वालों को वह अभिमानी लगती थी. जबकि उस का स्वभाव नारियल की तरह था. ऊपर से एकदम सख्त, अंदर से मीठी मलाई जैसा.
उस की मित्र मंडली में लड़कियों की अपेक्षा लड़के अधिक थे. इस की वजह यह थी कि लिपस्टिक या नेल पौलिश के बारे में बेकार की चर्चा करने के बजाय वह वहां उठनाबैठना चाहती थी, जहां चार नई बातें सुननेसमझने को मिलें. वह ऐसी ही मित्र मंडली पसंद करती थीं. उस के मित्र भी दिलवाले थे, जो बड़े भाई की तरह हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे.
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सब से खास मित्र थी दक्षा की मम्मी, दक्षा उन से अपनी हर बात शेयर करती थी. कोई उस से प्यार का इजहार करता तो यह भी उस की मम्मी को पता होता था. मम्मी से उस की इस हद तक आत्मीयता थी. रूप भी उसे कम नहीं मिला था. न जाने कितने लड़के सालों तक उस की हां की राह देखते रहे.
पर उस ने निश्चय कर लिया था कि कुछ भी हो, वह प्रेम विवाह नहीं करेगी. इसीलिए उस की मम्मी ने बुआ के कहने पर मेट्रोमोनियल साइट पर उस की प्रोफाइल डाल दी थी. जबकि अभी वह शादी के लिए तैयार नहीं थी. उस के डर के पीछे कई कारण थे.
सुदेश और दक्षा के घर वाले चाहते थे कि पहले दोनों मिल कर एकदूसरे को देख लें. बातें कर लें और कैसे रहना है, तय कर लें. क्योंकि जीवन तो उन्हें ही साथ जीना है. उस के बाद घर वाले बैठ कर शादी तय कर लेंगे.
घर वालों की सहमति से दोनों को एकदूसरे के मोबाइल नंबर दे दिए गए. उसी बीच सुदेश को तेज बुखार आ गया, इसलिए वह घर में ही लेटा था. शाम को खाने के बाद उस ने दक्षा को मैसेज किया. फोन पर सीधे बात करने के बजाय उस ने पहले मैसेज करना उचित समझा था.
काफी देर तक राह देखने के बाद दक्षा का कोई जवाब नहीं आया. सुदेश ने दवा ले रखी थी, इसलिए उसे जब थोड़ा आराम मिला तो वह सो गया. रात करीब साढ़े 10 बजे शरीर में दर्द के कारण उस की आंखें खुलीं तो पानी पी कर उस ने मोबाइल देखा. उस में दक्षा का मैसेज आया हुआ था. मैसेज के अनुसार, उस के यहां मेहमान आए थे, जो अभीअभी गए हैं.
सुदेश ने बात आगे बढ़ाई. औपचारिक पूछताछ करतेकरते दोनों एकदूसरे के शौक पर आ गए. यह हैरानी ही थी कि दोनों के अच्छेबुरे सपने, डर, कल्पनाएं, शौक, सब कुछ काफी हद इस तरह से मेल खा रहे थे, मानो दोनों जुड़वा हों. घंटे, 2 घंटे, 3 घंटे हो गए. किसी भी लड़की से 10 मिनट से ज्यादा बात न करने वाला सुदेश दक्षा से बातें करते हुए ऐसा मग्न हो गया कि उस का ध्यान घड़ी की ओर गया ही नहीं, दूसरी ओर दक्ष ने भी कभी किसी से इतना लगाव महसूस नहीं किया था.
सुदेश और दक्षा की बातों का अंत ही नहीं हो रहा था. दोनों सुबह 7 बजे तक बातें करते रहे. दोनों ने बौलीवुड हौलीवुड फिल्मों, स्पोर्ट्स, पौलिटिकल व्यू, समाज की संरचना, स्पोर्ट्स कार और बाइक, विज्ञान और साहित्य, बच्चों के पालनपोषण, फैमिली वैल्यू सहित लगभग सभी विषयों पर बातें कर डालीं. दोनों ही काफी खुश थे कि उन के जैसा कोई तो दुनिया में है. सुबह हो गई तो दोनों ने फुरसत में बात करने को कह कर एकदूसरे से विदा ली.