भटका मन वापस आया – भाग 2

फिर अनुराधा सोचने लगी थी कि क्या सासससुर एक छोटा सा त्याग नहीं कर सकते थे? वे बेटे के साथ आगरा में नहीं रह सकते थे? क्या शहर में बुजुर्ग नहीं रहते हैं? उस ने तो कई बुजुर्गों को आपस में बैठ कर गपें मारते देखा है. अगर वे ऐसा नहीं कर सकते तो केवल बहू ही ऐसा त्याग क्यों करे? हां, क्यों करे ऐसा त्याग…?

फिर अनुराधा का मन विद्रोही हो गया था. अगर सासससुर को उस का खयाल नहीं तो उस को भी उन का खयाल करने की जरूरत नहीं. मन फिर गुस्से से भरने लगा था. मलय के मातापिता हैं वे, मलय त्याग करे. अगर इतनी ही फिक्र है, तो नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाए. वह कुछ नहीं बोलेगी.

पर, सासूजी के चेहरे पर अपनी तकलीफों का तो दूरदूर तक अतापता नहीं था. उस के अचानक आगरा जाने के प्लान से लगता था कि सासूजी पर कोई फर्क ही नहीं पड़ा था.

सामान भी बहुत भारी नहीं है,’’ अनुराधा ने धीरे से सिर झुका कर कहा था.

सासससुर के प्रति मन के अंदर का विद्रोह और गुस्सा अचानक जाने कहां गायब हो गए थे.

फिर अनुराधा ने घर के अंदर बिखरे सामान को देखा. ससुरजी अब भी इन सब से बेपरवाह सो रहे थे.

अनुराधा सोचने लगी कि उस के जाने के बाद घर में झाड़ू कौन लगाएगा? यहां कोई नौकरानी तो है नहीं. सुबह उठते ही उस के सासससुर को चाय की तलब होती है. घर में झाड़ू देने के बाद उस का पहला काम यही होता था, दोनों को चाय देना. किचन के सिंक में रात से ही जूठे बरतन पड़े थे. अपने सामान को ही सहेजने में काफी रात हो गई थी और वह उन्हें साफ न कर पाई थी.

देर रात तक जागने के चलते आज सुबह अनुराधा की नींद ही न टूट रही थी. अगर उस ने अलार्म न लगाया होता, तो ट्रेन के समय तक वह रेलवे स्टेशन ही न पहुंच पाती.

अनुराधा को मलय की नाराजगी की भी चिंता सता रही थी. मलय ने अगर बुरा मान लिया तो क्या वह उस के साथ रह कर अपने इम्तिहान की तैयार कर पाएगी? इस से उस की नींद तक उड़ गई थी.

सब से मुश्किल बात यह थी कि अनुराधा अब तक मलय को ठीक से समझ नहीं पाई थी. उसे याद आया कि शादी के बाद जब वह पहली बार अपनी ससुराल आई थी, तो सासससुर के चेहरे खुशी से दमक उठे थे, पर मलय के चेहरे पर कोई जोश नहीं था. उस ने अनमने तरीके से सारी रस्मों को पूरा किया था.

जब वे दोनों अपना हनीमून मनाने गोवा गए थे, तब समुद्र के तट पर कई नए शादीशुदा जोड़े आए हुए थे. यह तो अनुराधा नहीं जानती थी कि किस जोड़े के मन में क्या चल रहा था, लेकिन सभी के चेहरे खुशी का इजहार कर रहे थे. लेकिन ऐसा लग रहा था कि मलय वह हनीमून को भी एक रस्म जैसा निबटा रहा था.

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उस समय अनुराधा ने इस बात को महसूस तो किया था, लेकिन इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था. उसे लगा था कि उस का ऐसा ही स्वभाव होगा, लेकिन जब मलय ने उस से कहा था कि वह मांबाबूजी के साथ गांव में रह कर उन की देखभाल करे, तब उस का मन उस से विद्रोह करने लगा था, किंतु वह एक तो नई थी, दूसरे उस के सासससुर बूढ़े और बीमार थे, इसलिए मन मसोस कर गांव में रहना स्वीकार कर लिया था.

मलय उसे आगरा नहीं ले जाना चाहता था, कभीकभी खुद ही गांव आ जाता और उस से वैसे ही संबंध बनाता, जैसे कोई दैनिक काम कर रहा हो. मन में न कोई उत्साह, न उमंग. उस ने कभी जाना ही नहीं कि शादीशुदा जिंदगी में नए जोड़ों की उमंग कैसी होती है, इसलिए जब मां ने उस को आगरा जाने से नहीं रोका और उस के जाने के बाद उन को होने वाली तकलीफ की ओर ध्यान गया तो उस ने अपना फैसला बदल दिया.

फिर अनुराधा मलय से फोन कर के बोली कि आगरा अभी नहीं आ पाएगी और तब तक नहीं आएगी, जब तक कि सासससुर की देखरेख का कोई उचित इंतजाम नहीं हो जाता.

जब अनुराधा ने सामान को अनपैक करना शुरू किया, तो सासूजी ने पूछा, ‘‘क्यों बहू, सामान क्यों निकाल रही हो?’’

‘‘मांजी, अब आप लोगों को अकेले छोड़ कर मैं नहीं जा सकती. मेरी गैरहाजिरी में आप लोगों की कौन देखभाल करेगा? मुझ से गलती हो रही थी. माफ कीजिएगा मांजी, मैं यहीं रहूंगी.’’ रही हो?’’

‘‘मांजी, अब आप लोगों को अकेले छोड़ कर मैं नहीं जा सकती. मेरी गैरहाजिरी में आप लोगों की कौन देखभाल करेगा? मुझ से गलती हो रही थी. माफ कीजिएगा मांजी, मैं यहीं रहूंगी.’’

उधर मलय की अपनी ही जिंदगी थी. एक लड़की थी अर्पणा. वह भी मलय के ही बैक में काम करती थी.

मलय का अर्पणा से परिचय नौकरी के पहले से था. दोनों बैंकिंग की तैयारी के समय एक ही जगह से कोचिंग करते थे. उस का अर्पणा से परिचय भी एक इत्तिफाक था.

अर्पणा को किसी ने बताया था कि मलय गणित की कई ट्रिक जानता है, जिन से कई मुश्किल सवाल बहुत कम समय में ही हल हो जाते हैं. उन्हीं ट्रिकों को जानने के लिए अर्पणा

मलय से मिली थी. इस मुलाकात ने उन के संबंधों को ऐसा बढ़ाया कि वह नौकरी के बाद भी कायम रहा.

मलय अनुराधा से शादी नहीं करना चाहता था, लेकिन वह खुल कर बाबूजी से अपने मन की बात कह भी नहीं पाया.

इधर अर्पणा मन की भी बात वह नहीं जानता था. उन के बीच संबंध जरूर था, लेकिन वे अपनी जिंदगी भी एकसाथ बिताएंगे, इस सवाल को किसी ने न उठाया था, फिर अर्पणा का एक दूसरे लड़के से भी संबंध था, जिस के साथ वह डेट पर जाती थी, इसलिए मलय की जब शादी की बात चल रही थी, तब उस ने उस को बधाई दी. तब मलय का मन उदास हो गया था और उस ने अनुराधा से शादी कर ली थी.

मलय की शादी के बाद अर्पणा की अपने प्रेमी से किसी बात को ले कर अनबन हो गई और उन का संबंध टूट गया. इसी बीच उस के प्रेमी की नौकरी देहरादून में लग गई और अर्पणा से उस की बातचीत भी बंद हो गई.

अब मलय और अर्पणा अकेले रहते थे, इसलिए उन दोनों के बीच यह जानते हुए भी कि मलय शादीशुदा है, प्रेम का अंकुरण होने लगा.

मलय ने अब तक अनुराधा को अर्पणा के बारे में कुछ नहीं बताया था. वैसे वह खुद ही इस बारे में बताता भी क्यों. ऐसे संबंधों को अकसर पतिपत्नी एकदूसरे से छिपा ही लेते हैं.

मलय यह जानता था कि अर्पणा से उस के प्यार की पेंगे बढ़ाना गलत है, अर्पणा भी इस बात से वाकिफ थी, लेकिन दोनों का मिलना बंद नहीं हो रहा था, जिसे अब बैंक के दूसरे मुलाजिम भी जान गए थे.

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एक दिन अनुराधा ने मलय को फोन किया. उस समय रात के 11 बज रहे थे. उस रात अर्पणा के जन्मदिन की पार्टी थी. मलय भी उस पार्टी में शामिल हुआ था. अचानक उस के मोबाइल पर घंटी बजने पर अर्पणा ने देखा कि यह मलय का फोन है, जिसे छोड़ कर वह बाथरूम में चला गया है.

अर्पणा ने फोन रिसीव किया… ‘हैलो.’

किसी लड़की की आवाज सुन कर अनुराधा चौंक गई. वह बोली, ‘‘क्या यह मलय का फोन नहीं है?’’

‘मलय का ही फोन है. आप कौन बोल रही हैं?’

‘‘मैं, अनुराधा… मलय की पत्नी.’’

भटका मन वापस आया – भाग 3

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था : मलय अकेला आगरा में रहता था. उस की पत्नी अनुराधा अपने बूढ़े सासससुर के साथ गांव में रहती थी, पर वह आगरा जाने को बेताब थी. वहां आगरा में मलय एक लड़की अर्पणा के नजदीक हो गया था. अर्पणा के जन्मदिन की पार्टी थी. अनुराधा ने मलय को फोन किया. फोन अर्पणा ने उठाया. अब पढि़ए आगे…

‘अच्छा, अब समझी. आप की शादी में मैं नहीं आ सकी थी, इसलिए आप से भेंट नहीं हुई. मलय आप को यहां कभी लाया भी नहीं. मैं उस की कलीग अर्पणा बोल रही हूं. आज मेरा जन्मदिन था. अभी वह मेरे यहां ही है. जरा बाथरूम में गया है. आता है तो आप को फोन करने के लिए बोलती हूं. वैसे, आप कैसी हैं?’ अर्पणा ने अनुराधा से पूछा.

‘‘अच्छी हूं. आप को जन्मदिन की बधाई. बाथरूम से लौटने पर मलय से फोन करने के लिए जरूर कहिएगा,’’ अनुराधा बोली.

‘जी जरूर,’ अर्पणा ने कहा और इस के कुछ देर बाद डिस्चार्ज हो कर फोन स्विच औफ हो गया.

बर्थडे फंक्शन के बाद खानेपीने का दौर शुरू हुआ, तो अर्पणा उसी में उलझ गई. उसे याद ही न रहा कि मलय को फोन के बारे में बताना था.

स्विच औफ हो जाने से अनुराधा के फोन के बारे में उसे पता ही न चला. उस के फोन का चार्जर न होने के चलते वह अपना मोबाइल भी चार्ज न कर पाया.

उधर अनुराधा ने मलय द्वारा फोन न करने पर फिर से फोन किया, पर जब उस का फोन स्विच औफ बताने लगा, तब उस की घबराहट और भी बढ़ गई. कई तरह के शक उस के मन में पैदा  होने लगे.

जल्दी में अनुराधा उस लड़की का नाम भी पूछना भूल गई थी, जिस ने मलय का फोन रिसीव किया था.

‘पता नहीं, कौन थी वह…? उस का जन्मदिन था भी या झूठ बोल रही थी. दाल में कुछ काला तो नहीं. आखिर मलय ने इस के बाद फोन स्विच औफ क्यों कर दिया? ऐसा तो नहीं कि मलय का उस लड़की से नाजायज रिश्ता हो और उस ने जानबूझ कर मोबाइल स्विच औफ कर दिया हो?

‘आखिर इतनी देर तक जाड़े की रात में मलय को उस लड़की के घर जाने की क्या जरूरत पड़ गई? अगर वह लड़की सच भी कहती हो, तब भी इतनी रात को बर्थडे में रहने की क्या जरूरत? इस मौसम में रात 9 बजे तक बर्थडे फंक्शन खत्म हो ही जाता है.’

अनुराधा ने सोचा कि अब वह दूसरे दिन सुबह फोन करेगी. वह सोने की कोशिश करने लगी, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. मन बेचैन था.

ऐसा तो होना ही था. आखिर मलय उस का पति था. पति रात में किसी अनजान औरत के घर में हो, तो नईनवेली पत्नी के दिल पर क्या बीतेगी?

अब अनुराधा के मन में यह भी बात घर करने लगी कि यह सब उस के मलय से दूर रहने का नतीजा है. अगर वह मलय के साथ रहती तो ऐसा नहीं होता. उस ने सोचा कि अब उसे आगरा जाना ही होगा. सासससुर की सेवा के लिए वह अपने कैरियर का नुकसान तो कर ही रही थी, अब अपनी शादीशुदा जिंदगी को दांव पर नहीं लगा सकती.

किसी तरह रात कटी. सुबह उठते ही अनुराधा ने मलय को फोन लगाया. उस समय मलय गहरी नींद में सो रहा था. उस ने अर्पणा के घर से आते ही फोन को चार्ज में लगा दिया था, लेकिन उसे औन करना भूल गया था, इसलिए अभी भी मोबाइल स्विच औफ बता रहा था.

अब तो अनुराधा का शक पक्का होने लगा. जरूर मलय उस लड़की के साथ रात बिता रहा होगा और कोई उन्हें डिस्टर्ब न करे, इसलिए फोन को स्विच औफ कर दिया होगा.

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यह तो सच था कि मलय की दोस्ती अर्पणा से बढ़ रही थी और यह भी सही था कि इस को हवा देने का काम अनुराधा का उस के साथ न रहना था, लेकिन यह बिलकुल गलत था कि मलय ने जानबूझ कर अपना मोबाइल स्विच औफ कर दिया था और वह अर्पणा के घर रात में था.

अब मलय फोन रिसीव करता और इस बारे में सफाई भी देता तो अनुराधा शायद उस की बात का यकीन नहीं करती.

हुआ भी यही. जब मलय जगा और उस ने अनुराधा को बताने की कोशिश की कि वह मोबाइल डिस्चार्ज होने के चलते रात में उस से बात नहीं कर पाया, तो उस ने उस की बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं किया और बोली कि वह भी अब आगरा आएगी और सासससुर के लिए कोई न कोई इंतजाम जरूर कर देगी.

मलय उस को मना नहीं कर पाया. हां, इतना जरूर कहा कि वह अगले हफ्ते घर आ रहा है, फिर इस बारे में बात करेगा.

जब मलय ने कह दिया कि वह अगले हफ्ते घर आ रहा है, तब अनुराधा को इस बीच आगरा जाने की कोई जरूरत नहीं थी.

सासससुर गांव छोड़ना नहीं चाहते थे और गांव छोड़ना उन के लिए मुफीद भी नहीं था. अनुराधा जानती थी कि  ऐसा करने से दोनों की जिंदगी आसान न रहेगी.

उन्हीं के पड़ोस में एक अधेड़ विधवा माधवी रहती थी. उसे परिवार वालों ने छोड़ दिया था. वह कम उम्र में ही विधवा हो गई थी और घर वाले समझते थे कि उस के घर में आने के बाद से ही उस के पति की तबीयत खराब रहने लगी थी और आखिर में वह बीमारी से ही मर गया, जबकि सचाई यह थी कि उसे दिल की बीमारी थी, जिस का समय पर उचित ढंग से इलाज न होने के चलते उस की मौत हुई थी.

माधवी अकसर अनुराधा के घर आती थी और उस के काम में हाथ बंटाती थी. अनुराधा के सासससुर भी उस का बहुत खयाल रखते थे और उस को खाना खिलाने के लिए अनुराधा से कहते थे. उस की पैसे से मदद भी किया करते थे.

अनुराधा ने माधवी से बात की, तो वह सासससुर की सेवा और देखभाल करने के लिए तैयार हो गई. इस तरह अनुराधा ने मलय के आने से पहले ही उस की गैरहाजिरी में सासससुर की देखभाल का इंतजाम कर दिया.

अब अनुराधा तय कर चुकी थी कि वह मलय के पास आगरा जाएगी.

अपने वादे के मुताबिक मलय घर आया. अनुराधा के मन में उस के प्रति कई सवाल थे, लेकिन जब तय समय पर मलय आ गया और उसे उम्मीद बंध गई कि अब वह भी उस के साथ आगरा जाएगी, तब उस का डर खत्म हो गया.

अनुराधा ने सासससुर के रहने का इंतजाम तो कर दिया था, लेकिन मलय उसे आगरा ले जाने के पक्ष में नहीं था. उस का कहना था कि माधवी उस के मांबाबूजी का वैसा ध्यान न रख पाएगी, जैसा उन्हें इस उम्र में जरूरत है. लेकिन अनुराधा ने जिद पकड़ ली, तो उसे आगरा ले जाने के लिए तैयार होना  ही पड़ा.

सासससुर की जिम्मेदारी माधवी पर डाल दी गई. यह तय हुआ कि उसे हर महीने एक तय रकम दे दी जाएगी. माधवी को इस से ज्यादा चाहिए भी क्या था. रहने का ठौर और खाने का इंतजाम तो यहां था ही, हर महीने खर्चे के लिए कुछ पैसे भी, और वह भी जब तक माधवी चाहे.

अनुराधा आज पहली बार आगरा आई थी. मलय जिस घर में रहता था, वह एक बिजी महल्ले में था और उस के बैंक से काफी दूरी पर था.

गांव में रहने की आदी अनुराधा को यह भीड़भाड़ वाला महल्ला काफी दमघोंटू लगा. उसे समझ नहीं आया कि बैंक से इतनी दूरी पर मलय ने यह मकान किराए पर क्यों लिया है.

जब अनुराधा ने इस बारे में मलय से पूछा, तो उस ने यह कह कर टाल दिया कि बैंक के नजदीक कोई ढंग का किराए का मकान नहीं मिला, लेकिन इस बात पर अनुराधा को यकीन नहीं हुआ, क्योंकि मलय का बैंक किसी पौश इलाके में नहीं था, जहां किराए पर कोई मकान ही न मिले या इतना महंगा हो कि उस का किराया वह दे न पाए.

पर इस की वजह का पता उसे तब लगा, जब उसी शाम अर्पणा उस से मिलने आई.

‘‘जानती हो भाभी, आज जब तुम्हारे बारे में मलय ने बताया तो तुम से मिलने चली आई. मेरी नानी का एक मकान इसी महल्ले में है. नाना आगरा में ही पहले बिजली महकमे में थे. उन्होंने एक बनाबनाया मकान इसी महल्ले में बड़े ही सस्ते में खरीद लिया था. जब तक नाना जिंदा रहे, उन्होंने आगरा नहीं छोड़ा.

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‘‘कई सालों तक रहने के चलते इस शहर से उन का लगाव ही नहीं हो गया था, बल्कि कई लोगों से पारिवारिक संबंध भी बन गए थे.

‘‘नानाजी हमेशा कहते थे कि अपनी जिंदगी की शाम हमेशा परिचितों के बीच ही बितानी चाहिए, वरना अकेलेपन का दंश हमेशा झेलना पड़ेगा.

‘‘लेकिन, नानाजी के मरने के बाद नानी कोलकाता चली गईं, क्योंकि वहीं मामाजी एक कालेज में प्रोफैसर थे. इस के बाद मेरी नौकरी यहीं लग गई, तो मैं उन के ही मकान में रहने लगी,’’ अर्पणा एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘अच्छा तो उस दिन शायद मेरा फोन तुम ने ही रिसीव किया था, जन्मदिन था न तुम्हारा?’’

‘‘हां भाभी, तुम ठीक कहती हो, उस दिन मेरा ही जन्मदिन था. तुम से पहले कभी भेंट नहीं हुई थी, इसलिए तुम मेरी आवाज नहीं पहचान पाई थीं.’’

‘‘तुम से मिल कर खुशी हुई. लेकिन अर्पणा, तुम्हारा तो यहां मकान है, पर मलय इतनी घनी और दमघोंटू जगह में क्यों रहता है?’’

अर्पणा मुसकराई और बोली, ‘‘इसलिए भाभी कि हम दोनों कालेज में एकसाथ पढ़ते थे. यहां रहने से हम लोगों का आपस में मिलनाजुलना होता है और अब तो मैं मलय की ही मोटरसाइकिल से बैंक जाती हूं.’’

यह सुन कर अनुराधा को अच्छा नहीं लगा. अब अच्छा लग भी कैसे सकता था. कौन पत्नी यह चाहेगी कि उस का पति किसी जवान और खूबसूरत लड़की को अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर रोज औफिस ले जाए.

यह सुन कर अनुराधा के दिल पर सांप लोट गया, फिर भी वह बनावटी मुसकराहट चेहरे पर लाते हुए बोली, ‘‘अच्छा है, जब अगलबगल ही मकान हैं और दोनों को एक ही औफिस में जाना है, तो एकसाथ जाने में कोई हर्ज नहीं है.’’

लेकिन, अंदर से अनुराधा को मलय पर गुस्सा आ रहा था. यह कोई बात हुई… एक तो बैंक से इतनी दूर किराए का मकान लिया, ऊपर से एक कुंआरी लड़की को लिफ्ट भी देने लगा. क्या अर्पणा उसे पीछे से पकड़ कर नहीं बैठती होगी? लोग क्या कहते होंगे? लेकिन उसे तो मजा मिल रहा है, इस के लिए उसे शर्म क्यों आएगी?

अर्पणा के जाने के बाद अनुराधा ने मलय से पूछा, ‘‘तुम्हारा अर्पणा से क्या संबंध है?’’

‘‘अचानक यह सवाल क्यों पूछ रही हो? पहले तो ऐसा कभी नहीं पूछा?’’ मलय अनुराधा के अचानक हुए इस हमले से घबरा गया.

‘‘इसलिए कि तुम इस महल्ले में सिर्फ अर्पणा के चलते रहते हो. जानते हो, यहां बहुत गंदगी है, फिर भी बैंक से इतनी दूर रहने की क्या वजह है? तुम उसे रोज अपनी मोटरसाइकिल से बैंक ले जाते हो. न तुम्हें अपनी सेहत का खयाल है, न बदनामी का,’’ अनुराधा चाहते हुए भी अपनी भावनाओं को न रोक पाई.

‘‘तुम बहुत ही  ज्यादा गलतफहमी की शिकार हो. ऐसी कोई बात नहीं है. बैंक के नजदीक कोई किराए का अच्छा सा मकान नहीं मिल रहा था.’’

‘‘तुम्हारे बैंक का कोई साथी बैंक के अगलबगल नहीं रहता क्या…?’’

‘‘रहता है, लेकिन किसी का मकान अच्छा नहीं है,’’ मलय ने बहाना बनाने की कोशिश की, पर उस की बात भरोसा करने लायक नहीं थी.

अब अनुराधा क्या कहती और कहती भी तो इस से मलय पर क्या फर्क पड़ता, लेकिन उसे यह बात तो समझ में आ ही गई थी कि मलय और अर्पणा के बीच कोई न कोई संबंध जरूर है.

अर्पणा और मलय का संबंध ऐसे ही नहीं बना था और यह 1-2 दिन में नहीं बना था. इस के पीछे हालात भी कम दोषी नहीं थे. हालात ऐसे बने कि अनुराधा को मलय को अकेला छोड़ कर गांव में रहना पड़ा और इस बीच कुंआरी होने के चलते अर्पणा मलय से चिपकती चली गई.

मलय के अकेले होने का फायदा अर्पणा ने बखूबी उठाया और उसी की नजदीकियों के चलते मलय ने अनुराधा को कभी आगरा लाने पर जोर नहीं दिया.

मलय को क्या फर्क पड़ता. उसे गांव आने पर उस की जिस्मानी भूख मिट ही जाती थी. आगरा में रोमांस करने के लिए अर्पणा थी ही, मारी तो अनुराधा जा रही थी. मशीन बन कर रह गई थी वह.

गांव में रातदिन सासससुर की सेवा का फर्ज अनुराधा पर थोप कर मलय निश्चिंत हो गया था. सासससुर भी अनुराधा के सामने ही किसी के आने पर बहू की तारीफ के पुल बांध कर उस के त्याग की जैसे कीमत चुका देना चाहते थे. अनुराधा की भावनाओं का खयाल न मलय को था, न सासससुर को.

अब आगरा में अनुराधा का कोई नहीं था. उसे अकेले ही सारे फैसले लेने थे. सब से पहले तो किसी भी हालत में मलय को अर्पणा से अलग करना था.

इस की शुरुआत क्वार्टर बदलने से करनी थी और इस के लिए मलय तो कोशिश करता नहीं, इसलिए अनुराधा ने उस के साथ औफिस जाने का फैसला किया, ताकि खुद ही उस इलाके में कोई अच्छा सा मकान खोज सके.

भटका मन वापस आया – भाग 4

शुरू में तो मलय अनुराधा के इस प्रस्ताव से बहुत खीझा. वह बोला, ‘‘तुम बैंक में जा कर क्या करोगी,’’ लेकिन जब अनुराधा ने कहा कि एक बार वह उस के बैंक को देखना चाहती है, पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए, तो वह इनकार न कर सका.

मलय ने फोन कर के अर्पणा को बताया, ‘‘मैं अनुराधा के साथ बैंक जाऊंगा, इसलिए तुम किसी आटोरिकशा से बैंक चली जाना.’’

‘अरे यार, यह बात पहले ही बता देते. इस समय मुझे आटोरिकशा के लिए एक किलोमीटर पैदल जाना पड़ेगा.’

‘‘आज थोड़ी तकलीफ उठा लो. पता नहीं, अनुराधा को क्या हो गया है, मुझ पर तुम्हारे साथ संबंधों को ले कर शक करने लगी है,’’ मलय छत पर जा कर बोला. वह नहीं चाहता था कि अनुराधा उस की बातें सुन ले.

अनुराधा ने भी मलय को यह नहीं बताया था कि वह उस के साथ इसलिए जा रही है, ताकि उस के बैंक के आसपास कोई किराए का मकान खोज सके.

अनुराधा बैंक पहुंच कर बोली कि वह अगलबगल कोई किराए का मकान खोजने जा रही है, तब मलय घबराया. वह बोला, ‘‘इस के लिए तुम्हें यहां आने की क्या जरूरत थी. मैं यह काम खुद भी कर सकता था. अगर तुम्हें इसी काम के लिए आना था, तो रविवार तक का इंतजार करना चाहिए था. मैं भी तुम्हारा साथ देता. क्या अनजान जगह में अकेले तुम्हें गलीगली मकान के लिए भटकना अच्छा लगता है?’’

तब अनुराधा को लगा कि उस ने मलय पर अविश्वास कर और उस से झूठ बोल कर गलत किया है. वह शर्मिंदगी से भर उठी. उस ने कहा, ‘‘मैं थोड़ी देर के लिए अर्पणा को साथ ले लेती हूं.’’

‘‘देखो अनुराधा, यह बैंक है. यहां स्टाफ की ऐसे भी कमी है. अगर तुम अर्पणा को साथ ले जाओगी, तो यहां का अकाउंट सैक्शन कौन संभालेगा? बैंक में कस्टमर तुरंत हल्ला मचाना शुरू कर देंगे.’’

उस दिन चाह कर भी अनुराधा  बैंक से बाहर नहीं निकल पाई और दिनभर बैठेबैठे बोर होती रही. बैंक में उस का अर्पणा के अलावा किसी से परिचय नहीं था, इसलिए वह उसी के पास बैठी रही.

अर्पणा काम में इतनी बिजी थी कि उसे उस से भी बात करने की फुरसत नहीं थी, फिर भी उस ने उस का काफी खयाल रखा.

मलय अनुराधा के इस बरताव से काफी दुखी था. अर्पणा भी अब जान गई थी कि अनुराधा मलय को उस से अलग करने के लिए उस के साथ बैंक तक आई थी, पर उस ने अपने मन की बात उस से नहीं की.

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अर्पणा के इस अच्छे बदलाव ने अनुराधा के मन में उस के प्रति विचार को बदल दिया. अब उसे इस बात का अफसोस था कि उसी के कारण अर्पणा को उस दिन आटोरिकशा से आना पड़ा. अब बैंक से घर लौटने का समय हो रहा था. अनुराधा उस समय अर्पणा के टेबल के पास बैठी थी. मलय किसी जरूरी काम से चीफ ब्रांच मैनेजर के चैंबर में गया हुआ था.

तभी अर्पणा मुसकरा कर बोली, ‘‘मैं कल से अपनी स्कूटी से बैंक आऊंगी. अब तो आप खुश हैं?’’

यह सुन कर अनुराधा को लगा, जैसे किसी ने चाबुक मार कर पीठ पर नीला कर दिया हो. उस से इस का जवाब देते नहीं बना. तभी मलय आता हुआ दिखाई दिया.

‘‘अभी मुझे कुछ काम है, इसलिए घर लौटने में देरी होगी. तुम अर्पणा के साथ घर लौट जाओ,’’ मलय ने अनुराधा से कहा.

‘‘चलो भाभी, इसी बहाने तुम मेरा भी मकान देख लोगी,’’ अर्पणा ने खुशी जाहिर करते हुए कहा.

‘‘लेकिन अर्पणा, मैं तुम से एक बात बताना भूल गई थी. वह कोने में बैठी हुई जो दुबली सी लड़की दिखाई पड़ रही है न, उस से मैं दोपहर में मिली थी. वह बहुत कम उम्र की लग रही थी और मलय के साथ तुम भी काम में लगी थी, तब उस के पास चली गई थी. उस समय वह अपने केबिन में अकेली थी. मैं उस से जानना चाह रही थी कि वह इतनी कम उम्र में सर्विस में कैसे आ गई.

‘‘मैं ने जब उस को अपना परिचय दिया, तब वह बहुत खुश हुई और औफिस के बाद चाय पर अपने घर चलने का न्योता दिया. जब मैं ने उस से किराए के मकान के बारे में पूछा, तब वह बोली कि उस के मकान में 2 कमरे खाली हैं. अब हमें 2 कमरे से ज्यादा की जरूरत तो है नहीं, क्यों न चल कर बात कर लूं.’’

‘‘हां शायद तुम लूसी के बारे में बात कर रही हो. वह ईसाई है और यहां से थोड़ी ही दूरी पर उस के किसी रिश्तेदार का मकान है, वह वहीं रहती है.’’

अभी वे दोनों बातें कर ही रही थीं कि लूसी आ गई. अब वह भी घर जाने की तैयारी कर रही थी.

‘‘आप भैया को भी साथ ले लीजिएगा भाभी. मैं ने अपने रिश्तेदार से बात कर ली है, वे उस फ्लैट को किराए पर देने के लिए तैयार हैं. अभी आप मेरे साथ चल कर देख लीजिए. आप को मकान पसंद आएगा,’’ लूसी मुसकराते हुए बोली

‘‘लेकिन आज तो मुझे बैंक से निकलने में देर हो जाएगी,’’ मलय ने कहा, तो अनुराधा बोली, ‘‘उस से क्या फर्क पड़ता है. आज होटल में डिनर कर लेंगे. रोजरोज इतनी दूर आने से तो फुरसत मिलेगी.’’

मलय ने कहा, ‘‘तुम लूसी के साथ बैठो, मैं थोड़ी देर में अपना काम निबटा कर आता हूं,’’ और वह अपने केबिन में चला गया.

तभी अर्पणा ने कहा, ‘‘आज डिनर मेरे यहां रहेगा भाभी. मैं घर जा कर इस का इंतजाम करती हूं, जब तक तुम लोग लौटोगे, डिनर तैयार मिलेगा.’’

‘‘ठीक है,’’ अनुराधा ने कहा. सुबह जिस अर्पणा को ले कर उसे चिंता सता रही थी, वह भी अब नहीं रही. जिस तरह अर्पणा उस का सहयोग कर रही थी, उस से तो यही लग रहा था कि वह बेवजह उस के और मलय के संबंधों को ले कर इतनी चिंतित थी.

अर्पणा आटोरिकशा से घर लौट गई और डिनर की तैयारी में जुट गई.

इधर मलय ने अपना काम झटपट निबटाया और मोटरसाइकिल को बैंक परिसर में ही गार्ड के हवाले कर अनुराधा और लूसी के साथ उस के मकान पर पहुंचा.

लूसी वहां अपनी मां के साथ रहती थी. उस के पिता एक बीमारी में गुजर गए थे. एक बहन थी जिस की शादी हो गई थी. चेन्नई में उन का एक पुश्तैनी घर था, जिसे उस की मां ने बेच कर रुपए बैंक में जमा करा दिए थे.

अब उस की मां उसी पैसे से आगरा में ही एक फ्लैट खरीदने का मन बना रही थी, लेकिन लूसी का कहना था कि बैंक से उसे बहुत ही कम ब्याज पर लोन मिल जाएगा, इसलिए अब फ्लैट लूसी के नाम से लोन ले कर खरीदने का मन था. ईएमआई बैंक में जमा पैसे के ब्याज से देना था.

मलय लूसी से काफी सीनियर था, इसलिए लूसी उस की काफी इज्जत कर रही थी. आज तो उस की पत्नी भी आई थी. मकान मालिक लूसी का रिश्तेदार ही था, इसलिए मलय को किराए पर मकान देने के लिए राजी करने में उन्हें दिक्कत नहीं हुई.

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मलय और अनुराधा को मकान बहुत पसंद आया. यह न हवादार था, बल्कि काफी साफसुथरा भी था. किराए का एडवांस दे कर और चायनाश्ता करने के बाद मलय और अनुराधा सीधे अर्पणा के घर पहुंचे, क्योंकि अब काफी समय हो गया था और अपने क्वार्टर जा कर लौटने में काफी रात हो जाती.

‘‘अगर आप फ्रेश होना चाहते हो तो हो लो, डिनर तैयार है,’’ अर्पणा बोली, तो अनुराधा बाथरूम में चली गई.

मलय ने कहा, ‘‘मुझे बाथरूम जाने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मकान ठीक लगा?’’ अर्पणा ने पूछा.

‘‘हां, कमरे तो 2 ही हैं, लेकिन बड़ेबड़े हैं, हवादार भी.’’

‘‘अच्छा है, भाभी की चिंता खत्म हुई.’’

‘‘लेकिन, अब तुम्हें परेशानी हो गई.’’

अर्पणा कुछ न बोली. तभी अनुराधा आ गई. खाने की मेज पर तीनों बैठे.

‘‘कब तक नए मकान में शिफ्ट होना है?’’ अर्पणा ने पूछा.

‘‘अगले हफ्ते तक. इस बीच मकान में सफाई का काम करवाऊंगा, क्योंकि पिछले 6 महीने से मकान बंद था और पिछले किराएदार ने उस में जगहजगह कीलें गाड़ रखी?हैं. बाथरूम और किचन दोनों गंदे हैं.’’

‘‘जब तक हम नए मकान में शिफ्ट नहीं हो जाते, अर्पणा को अपने साथ ही ले जाना मलय,’’ अनुराधा ने कहा, तो मलय चुप हो गया.

‘‘पर, अब मैं खुद ही मलय के साथ न जाऊंगी भाभी,’’ अर्पणा ने कहा, तो अनुराधा को कुछ कहते न बना. सच तो यही था कि उसी के चलते मलय को दूसरा मकान लेना पड़ा था, वरना जैसे चल रहा था, वैसे ही चलने देती वह, लेकिन औरत सबकुछ बरदाश्त कर सकती है किसी पराई औरत की अपनी शादीशुदा जिंदगी में दखलअंदाजी नहीं.

‘‘भाभी, अब तुम मलय को संभालो. उसे तुम्हारे प्यार की जरूरत है. मैं तुम्हारी जिंदगी में दखल देना नहीं चाहती.

‘‘अब मैं अपने दिल की बात छिपाऊं, तो तुम्हारे प्रति नाइंसाफी होगी. यह सच है कि मैं मलय से प्यार करने लगी थी. कई बार दिमाग हमें सलाह देता है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं, हिदायत देता है, लेकिन दिल उसे अनसुना कर देता है, लेकिन भाभी, जीवन सिर्फ भावनाओं से नहीं चलता. मैं भूल गई थी अपनी हैसियत को, बेवजह मलय की जिंदगी में दखल दे रही थी. माफ कर देना मुझे,’’ यह कहते हुए अर्पणा रो पड़ी.

‘‘ऐसा कुछ भी गलत नहीं हुआ था अर्पणा, जिन हालात में मलय और तुम रह रहे थे, उन में ऐसा होना कोई अजूबा नहीं था. पर मैं भी क्या करती, सासससुर को गांव में बिना किसी सही इंतजाम के छोड़ भी तो नहीं सकती थी.

‘‘एक बार जिद कर यहां आना चाहती थी, लेकिन जानती हो, दिल ने मेरी बात नहीं सुनी और मैं ने अपना विचार बदल दिया.

‘‘पर, बर्थडे के दिन जब मलय के बदले तुम ने फोन रिसीव किया था, तब मैं रातभर न सो पाई. मन किसी डर से बेचैन था और उसी दिन मैं सासससुर की देखभाल के लिए किसी को खोजने लगी.

‘‘और जब कल मैं यहां आई और जाना कि मलय तुम्हें मोटरसाइकिल से बैंक ले जाता है और तुम्हारा साथ पाने के लिए ही वह इतनी दूर इस दमघोंटू महल्ले में रहता है, तब मुझे सच ही बरदाश्त नहीं हुआ और मैं ने तुरंत तय कर लिया कि मलय को इस महल्ले से बाहर निकालना है.’’

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‘‘और तुम अपने मिशन में कामयाब हो गई,’’ कह कर मलय मुसकराया.

कुछ तनावग्रस्त हो रहे वातावरण में हलकापन आ गया और जब अर्पणा के आंसू अनुराधा ने अपने रूमाल से पोंछे तब दोनों के दिल स्नेह से भर गए.

जब मलय और अनुराधा अर्पणा से विदा लेने लगे, तब दोनों ने एकदूसरे को गले लगाया. भटका मन अब वापस आ गया था.

Serial Story- प्रश्न : क्या पति की मौत के बाद उसकी जिंदगी सवाल बनकर रह गई ?

प्रश्न – भाग 2

लेखक-उषा किरण सोनी

शायद यहां भी उस रचनाकार ने मेरी व राज की जीवनी में एक सी पंक्ति लिख दी थी. हम दोनों के पति अपनेअपने परिवार की इकलौती संतान थे. मधुयामिनी के बाद मांबाबूजी के अकेले रह जाने के भय से हम मधुमास मनाने कहीं बाहर नहीं गए. मैं और मदन, मदन और मैं, दोनों आत्मसात हो गए एकदूसरे में.

एक सप्ताह बाद जब भैया मुझे लेने आए तो बाबूजी ने कहा, ‘मदन की डेढ़ महीने की छुट्टी बाकी है इसलिए बहू को यहीं रहने दो. मदन के जाने के बाद ले जाना.’ फोन पर पापा ने भी अपनी सहमति दे दी. भैया ने वापस जाते समय राज के 2 पत्र मुझे दिए जो मेरी गैर मौजूदगी में आए थे.

बिना संबोधन के राज ने लिखा था, ‘रीता, राजेंद्र आगे की पढ़ाई करने 2 साल के लिए विदेश जा रहे हैं. मैं तो 2 दिन नहीं रह सकती राजेंद्र के बिना ये 2 साल कैसे बीतेंगे? मैं राजेंद्र में इतनी खो गई थी कि तुझे पत्र लिखने की याद ही न रही. मेरा तो सारा संसार ही राजेंद्रमय हो गया है. सच, रीता, तू शादी मत करना. जानती है, आदमी शादी के बाद पागल हो जाता है, मेरी तरह.’

मैं पढ़ कर हंसी. कैसा संयोग था कि उस की शादी के दिन मेरे मदन मुझे देखने आए थे और मेरी शादी के समय उसे ससुराल में रहने के कारण सूचना न मिल पाई थी क्योंकि कार्ड मैं ने उस की मां के घर भेजा था.

मैं ने मदन को राज के पत्र दिखा कर अपनी गहरी दोस्ती की बात बताई. पतियों संबंधी कल्पनाओं और शरारतों को सुन मदन हंसे बिना न रह सके. बोले, ‘सच ही तो है कि शादी के बाद आदमी पागल हो जाता है,’ और उन्होंने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया…मैं राज को पत्र लिखना भूल गई.

मुट्ठी में बंधी रेत की तरह मदन की छुट्टियों के दिन खिसक गए. उन के जाने का समय निकट जान मैं घबरा उठी. क्या यह इंद्रजाल सा मोहक जीवन मेरी मुट्ठी से फिसल जाएगा. नहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी, पर क्या सोचने से ऐसा हो पाया है. क्या सचमुच मदन मुझे यहां छोड़ कर चले जाएंगे? पता नहीं मन क्यों दुश्ंिचताओं से घिरा जा रहा है. पापा मुझे लेने और मदन से मिलने आ गए थे.

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मदन सामान बांधे खड़े थे और मेरा रोरो कर बुरा हाल था. वे भीतर आ कर बोले, ‘रीतू, बस, तुम घर जा कर अपनी मां से मिल आओ तब तक मैं क्वार्टर का इंतजाम कर लूंगा और तुम्हें ले जाऊंगा फिर हम होंगे और हमारी बसंत ऋतु.’

आखिर मदन चले गए और उसी दिन शाम को मैं पापा के साथ उत्तरकाशी चली गई. मदन से दूर मन उदास और अतृप्त था, पर मां के प्यार व भैया और पापा के दुलार से तपन को थोड़ी शांति मिली.

मां मुझे सुखी देख प्रसन्न थीं. मुझे हर रोज मदन का प्यार में भीगा एक पत्र मिलता. मैं खुश हो उठती और तुरंत उत्तर देती. 3-4 दिनों बाद मैं ने मां से कहा, ‘आज मैं राज को पत्र लिखूंगी, इधर उस का कोई समाचार नहीं मिला.’

मां उदास हो कर बोलीं, ‘बेटी, मैं ने तुम्हें पत्र में नहीं लिखा. दरअसल, राज के साथ अनहोनी हो गई. राजेंद्र जिस हवाईजहाज से विदेश जा रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया और राजेंद्र नहीं रहे. राजेंद्र की मौत का समाचार सुनते ही राज की हृदयगति रुक गई और उस ने भी शरीर छोड़ दिया. वह सती थी.

‘क्या?’ मेरे मुंह से निकला और मैं चेतनाशून्य हो गिर पड़ी. मां ने घबरा कर भैया को डाक्टर बुलाने भेज दिया.

आंखें खुलने पर मैं ने पाया कि मां के चेहरे पर गंभीरता की जगह मुसकान थी. वह मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘बेटी, खुद को संभालो. जीवन में ऐसे क्षण तो आते ही हैं. उस का दुख न करो, वह सती थी. अपना ध्यान रखो. अब तुम्हारा उदास रहना ठीक नहीं. तुम अब मां और मैं नानी बनने वाली हूं.’

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मैं पुन: चौंक पड़ी. मैं मां बनने वाली हूं? इस एक शब्द ‘मां’ ने मुझे राज के दुख से उबार लिया. पलकें शर्म से झुक गईं और आंचल में अपना चेहरा छिपा लिया.

पिता बनने की सूचना पा मदन बौरा से गए थे. लगभग हर रोज उन का पत्र आता. इस पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘मैं अति शीघ्र आ रहा हूं, तुम्हें यहां ला कर इस समय का हर पल तुम्हारे साथ जीना चाहता हूं.’

प्रश्न – भाग 3

लेखक-उषा किरण सोनी

मैं मदन की प्रतीक्षा में थी पर आया उन का मात्र 2 पंक्तियों का पत्र, ‘रीतू, मैं युद्ध में कश्मीर जा रहा हूं, मेरी कीर्ति को संभाल कर रखना. तुम्हारा मदन.’

इस समाचार के पाते ही मेरे सास- ससुर मुझे लेने आ गए पर मेरे पिता के अनुरोध पर प्रसव तक यहीं रहने की अनुमति दे चले गए.

मेरे भीतर जीवन कुलबुलाने लगा था. मैं उस सुख को जी रही थी. आखिर वह प्रतीक्षित क्षण भी आ गया. कीर्ति का संसार में पदार्पण मांपापा और अम्मांबाबूजी के आनंद को सीमित नहीं कर पा रहा था पर मेरी खुशी तो मदन के बिना अधूरी थी. नन्हे मदन के रूप में बगल में सोई बेटी को देख मैं सुख से अभिभूत हो गई.

कुदरत ने यहां भी मेरी व राज की जीवन जिंदगी की जीवनी एक ही लेखनी से, एक ही स्याही से लिखी थी. अस्पताल से आए अभी 15 दिन ही हुए थे कि कश्मीर में गिरे बम के टुकड़े मेरी छाती पर आ गिरे और मेरा सिंदूर पोंछ, चूडि़यां तोड़ गए. मैं हतबुद्धि हो कल्पना में मदन को देखती रही. मांपापा का कं्रदन और कीर्ति की चीखें भी मेरा ध्यान विचलित न कर सकीं.

मां ने चीखती कीर्ति को मेरी गोद में डाल दिया. बच्ची के दूध पीने के उपक्रम में दर्द मेरी छाती में रेंग उठा. जड़ता टूट चली और बांध टूट गया. पापा ने कहा, ‘इसे रो लेने दो, जितना रोएगी उतनी ही शांति पाएगी और बच्ची से जुड़ती चली जाएगी.’

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कालरात्रि मेरा सबकुछ समेट कर बीत गई. समय चलता गया. कीर्ति मुझे अपनी तोतली बोली से बांधने का प्रयास करती. मैं अपने दुख में यह भी भूल गई थी कि अम्मांबाबूजी ने भी अपना इकलौता बेटा खोया था. मूल गंवा ब्याज के रूप में वे मेरा और कीर्ति का मुख देखा करते.

मैं ने खुद को समेटना शुरू किया. ज्योंज्यों मेरा बिखरना कम होता गया, कीर्ति निखरती चली गई. मैं ने अम्मां- बाबूजी से कहा कि मैं आप को मदन की कमी नहीं खलने दूंगी. मैं अब रीता नहीं, रीतामदन हूं. बाबूजी के साथ मैं ससुराल चली आई. मदन की पेंशन और बाबूजी की बचत से घरखर्च आराम से चल रहा था पर आगे कीर्ति का पूरा जीवन पड़ा था.

मैं ने मन ही मन एक निश्चय किया और बाबूजी से आगे पढ़ने की अनुमति मांगी. वे तो जैसे तैयार ही बैठे थे, तुरंत ‘हां’ कह दिया. उन की बात पूरी होने से पहले ही अम्मांजी बोल पड़ीं, ‘घर का जरा सा तो काम है, मैं बेकार ही बैठी रहती हूं, सब कर लूंगी. तुम जरूर पढ़ो. तुम्हारा दिल भी लग जाएगा तथा कीर्ति का भविष्य भी बना सकोगी.’

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जीवन का अब एक नया दौर शुरू हुआ. मैं ने पहले एम.ए. फिर बी.एड. किया. युद्ध में मारे गए सैनिक की पत्नी होने के कारण नौकरी मिलने में सुविधा हुई. कालिज में प्राध्यापिका बनी. मुझे व्यस्त रहने का बहाना मिला. अम्मांबाबूजी के चेहरों पर संतोष झलक आया. उन्हें लगा मानो उन का मदन लौट आया हो.

हमारी आंखों की ज्योति कीर्ति कब नर्सरी से कालिज पहुंच गई, पता ही नहीं चला. अम्मांबाबूजी हमेशा यही ढूंढ़ते रहते कि कीर्ति के चेहरे पर किसी असुविधा की शिकन तो नहीं? कीर्ति के रूप में मानो वे एक बार फिर मदन को जवान कर रहे हों.

अचानक मुझे जोर का झटका लगा तो यादों का सिलसिला टूट गया. खिड़की से बाहर झांका तो गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुक रही थी. यात्री अपना सामान ले कर उतरने की तैयारी में थे. मैं भी अपना सूटकेस ले लड़कियों को संभल कर उतरने का निर्देश देने लगी. स्टेशन पर सभी लड़कियों के मातापिता उन्हें लेने आए थे. चारों ओर शोर बरपा था. चहकती लड़कियां अपने मातापिता को इस टूर की पूरी रिपोर्ट स्टेशन पर ही दे डालना चाहती थीं.

रीता और कीर्ति रिकशा ले कर घर की ओर चल पड़ीं. रीता के विचारों में फिर राज आ बैठी.  सोचने लगी, कैसा संयोग था. दोनों सहेलियों को पति सुख से वंचित होना पड़ा, पर क्या सचमुच ही नियति ने दोनों की जिंदगी का लेखा- जोखा एक सा लिखा था.

शायद नहीं. एक सा होते हुए भी एक सा नहीं.

राज को सभी ने सती की संज्ञा दी. सभी उस का नाम आदर से लेते. सभी कहते, ‘वह सती थी, उस ने पति के साथ ही देह त्याग दी.’

घर आ गया था और मैं अपनी सोच से बाहर निकल आई थी पर मन में एक अनुत्तरित प्रश्न ले कर कि राज को तो सती की संज्ञा दी गई और मुझे. क्या मैं इस संज्ञा की अधिकारी नहीं?

मैं ने जो त्यागा, यह मैं जानती थी. पति का सुख, शरीर की चाहत, हंसनाबोलना, चहचहाना जो किशोरा- वस्था में मेरा और राज का अभिन्न अंग था, सभी तो त्यागा मैं ने. राज के देह त्याग से कहीं ज्यादा. रातदिन एक कर के मैं ने घर को संभाला, कीर्ति को बड़ा किया, मदन के मातापिता की बेटे की तरह सेवा की और लोग कहते हैं, ‘राज सती थी.’ क्या यह सही है. धर्म के चक्करों में पड़े समाज से मैं यह प्रश्न पूछना चाहती हूं पर किसकिस से पूछूं.

प्रश्न – भाग 2

लेखक-उषा किरण सोनी

लेकिन क्या पति की मौत के बाद भी दोनों का जिंदगी जीने का नजरिया एक रहा या अलगअलग? स्टेशन से ट्रेन के चलते ही लड़कियां अपने दुपट्टे को संभालती दोनों ओर की सीटों पर आमनेसामने बैठ कर अपनी चुहलबाजी में व्यस्त हो गईं. मैं देख रही थी कि उन के चेहरे प्रसन्नता से दमक रहे थे. सभी हमउम्र थीं और अपने ऊपर कोई बंधन नहीं महसूस कर रही थीं. मेरी अपनी बेटी कीर्ति भी उन के बीच में खिलीखिली लग रही थी. बंधन के नाम पर मैं थी और मुझे वे अपनी मार्गदर्शिका कम सहेली की मां के रूप में अधिक ले रही थीं.

गजाला ने किसी से कुछ सुनाने को कहा तो बड़ीबड़ी आंखों वाली चंचल कणिका बोल पड़ी, ‘‘अच्छा सुनो, मैं तुम सब को एक चुटकुला सुनाती हूं.’’

मैं भी हाथ में पकड़ी पत्रिका रख चुटकुले का आनंद लेने को उन्मुख हो गई.

‘‘एक बार 3 औरतें मृत्यु के बाद यमलोक पहुंचीं. उन के कर्म के अनुसार फैसले के लिए यमराज ने चित्रगुप्त की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. वह अपनी बही संभालते हुए बोले, ‘देवाधिदेव, इन्हें कहें कि ये खुद अपने कर्मों का बखान करें. मैं बही में दर्ज कर्मों से मिलान करूंगा.’

‘‘यह सुन कर पहली महिला बोली, ‘मैं ने सारा जीवन धर्मकर्म करते, सास- ससुर व पति की सेवा में बिताया. बच्चों को पालापोसा और उन्हें उचित शिक्षा दी. मेरी क्या गति होगी, महाराज बताइए?’

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यमराज ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि दूसरी महिला पर टिका दी.

‘‘वह थोड़ा मुसकराई फिर बोली, ‘मैं ने सासससुर को तो कुछ नहीं समझा और न ही उन की सेवा की, पर पति की खूब सेवा की. मरते दम तक उन की सेवा को अपना धर्म समझा. अब आप के हाथ में है कि मुझे स्वर्ग दें या नरक.’

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‘‘यमराज ने फिर कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि तीसरी महिला की ओर घुमा दी.’’

मैं देख रही थी कि कई जोड़ी निगाहें बिना हिले इस चुटकुले के अंतिम भाग को सुनने के लिए उत्सुक थीं. कणिका ने कहना जारी रखा :

‘‘तीसरी महिला ने लटें संवारीं, थोड़ा इठलाई, कमर को झटका दिया फिर यमराज पर बंकिम कटाक्ष किया और लिपस्टिक लगे अधर संपुट खोल अदा से बोली, ‘देखोजी, यमराजजी, मैं ने न तो सासससुर को कुछ समझा न पति को. मैं ने तो जी खूब मौजमस्ती की, क्लब गई, नाचीगाई, मैं तो जी दोस्तों की जान बनी रही.’

‘‘‘बसबस,’ उसे बीच में ही टोक कर यमराज बोले, ‘योर केस इज इंट्रेस्टिंग. चित्रगुप्त, पहली दोनों औरतों को स्वर्ग में भेज दो और (तीसरी औरत की ओर इशारा कर) तुम मेरे कक्ष में आओ.’’’

चुटकुला समाप्त होने से पहले ही डब्बे में हंसी का तूफान आ गया था. खिलखिलाहटें ही खिलखिलाहटें. लड़कियां पेट पकड़पकड़ कर हंस रही थीं. मैं भी अपनी हंसी न रोक सकी.

मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई. सचमुच वे भी क्या दिन थे? जिंदगी और रंग दोनों एकदूसरे के पर्याय थे उन दिनों. वह प्यारी खूबसूरत आंखों वाली राजकंवर, लगता था नारीत्व और सौंदर्य का अनुपम उदाहरण बना कर ही कुदरत ने उसे धरती पर उतारा था. और मैं, हिरनी सी कुलांचें भरती राजकंवर की अंतरंग सखी.

मुझ में तो मानो स्वयं चपलता ही मूर्तिमान हो उठी थी. क्या एक क्षण भी मैं स्थिर रह पाती थी. सारे खेलकूद, नृत्यनाटक, शायद ही किसी प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त किया हो. उधर राजकंवर के कोकिल कंठ की गूंज के बिना कालिज का कोई समारोह पूरा ही नहीं होता था. वह गाती तो लगता मानो साक्षात सरस्वती ही कंठ में आ बैठी हो.

हर शरारत की योजना बनाना और फिर उसे अंजाम देना हम दोनों का काम था. याद आ गई प्रिंसिपल मैडम की सूरत, जब हम ने होली खेलते समय साइंस ब्लाक का शीशा तोड़ा था. मैडम लाख कोशिशों के बाद भी यह पता नहीं लगा सकी थीं. सारी की सारी 13 लड़कियां सिर झुकाए एक कतार में खड़ी डांट खाने के साथसाथ एकदूसरे को कनखियों से देख खुकखुक हंसती रही थीं. हार कर बिना दंड दिए उन्होंने हमें भगा दिया था और हम पूरे एक सप्ताह तक अपनी जीत का मजा लेते रहे थे.

आज इन गिलहरियों की तरह फुदकती लड़कियों को संभालते समय लगा कि सचमुच इन्हें संभालना हवा के झोंके को आंचल में बांध लेने से भी मुश्किल है, अगर किसी तरह हवा को बांध भी लो तो आंचल के झीने आवरण से वह रिस के निकल जाती है न.

गाड़ी की रफ्तार के बीच लड़कियों की ओर नजर घूमी तो पाया कि वे मूंगफलियां खाती पटरपटर बतिया रही थीं और मुद्दा था कि शाहरुख खान ज्यादा स्मार्ट है या आमिर खान. मैं ने हंसते हुए पत्रिका फिर हाथ में उठा ली. आंखें पत्रिका के एक पन्ने पर टिकी थीं पर देख तो शायद पीछे अतीत को रही थी.

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मैं और राज अब बी.ए. फाइनल में आ गए थे और हमारी बातों का विषय भी धर्मेंद्र, जितेंद्र से शुरू हो कर अपने जीवन के हीरो की ओर मुड़ जाता कि कैसा होगा?

मैं कहती, ‘राज, क्यों न हम एक ही घर में शादी करें? मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती.’

राज ने लंबी आह भर कर कहा, ‘काश, ऐसा हो सकता. मैं राजपूत और तुम ब्राह्मण. एक घर में हम दोनों की शादी हो ही नहीं सकती. ऐसी बेसिरपैर की बातें करते कब साल बीता और परीक्षाएं भी हो गईं, पता ही नहीं चला.’

घड़ी आ गई बिछड़ने की. पूरे 3 साल हम साथ रहे थे. अब बिछड़ने की कल्पना से ही हम कांप उठे, पर जाना तो था. मेरे पिता ट्रांसफर हो कर उत्तरकाशी चले गए और परीक्षा समाप्त होते ही मुझे तुरंत बुलाया था.

‘‘आप का टिकट?’’ कानों से आवाज टकराई तो सोच की दुनिया से मैं बाहर निकल आई.  सभी के  टिकट चेकर को दे कर अपने चेहरे पर आए बालों को समेट कर पीछे किया तो चेहरे और बालों का रूखापन उंगलियों से टकराया. विचार उठा, कहां खो गई वह लुनाई. शायद बीता समय चुरा ले गया, साथ ही ले गया राज को जिसे मैं चाह कर भी नहीं पा सकती.

मैं फिर अतीत के पन्ने पलटने लगी.

उत्तरकाशी अपने घर पहुंची तो पापामम्मी और भैया ने प्यार से मुझे नहला दिया. उत्तरकाशी के पहाड़ी सौंदर्य ने मुझे अभिभूत कर दिया पर राज को हर रोज पत्र लिखने का क्रम मैं ने टूटने नहीं दिया. वह भी नियमित उत्तर देती. हम दोनों के पत्रों में जिंदगी के हीरो का ही जिक्र होता.

राज ने एक पत्र में लिखा था कि उस के पिता ने उस के लिए एक डाक्टर वर चुना है, जो किसी रियासत का अकेला चिराग है. भरापूरा गबरू जवान और एक बड़ी जागीर का अकेला वारिस, शिक्षित और संस्कारी पूर्ण पुरुष.

राजकंवर के फोटो को देखते ही वह लट्टू हो गया था… उसे साक्षात देखा तो अपनी सुधबुध ही खो बैठा. और राजकंवर? अनंग सा रूप ले कर घर आए डा. राजेंद्र सिंह को देखते ही दिल दे बैठी थी. उसे लगा जैसे छाती से कुछ निकल गया हो. अपने पत्र में उस ने अपनी बेचैनी निकाल कर रख दी थी.

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घर में मेरी शादी की चर्चा भी होने लगी थी. राज के पत्रों को पढ़ मैं भी उस की भांति किसी अनिरुद्ध की कल्पना से अपना मन रंगने लगी थी. राज के पत्रों से पता लगा कि उस का विवाह नवंबर में होगा. मजे की बात कि उस के विवाह के दिन ही मेरा अनिरुद्ध मुझे देखने आने वाला था.

राज की शादी के बाद उस के पत्रों की संख्या घटने लगी. उसे अपने मन की बातें बांटने को एक नया साथी जो मिल गया था.

अब मेरे मन पर भी लेफ्टिनेंट मदन शर्मा छाने लगे थे. जब वे अपने मातापिता के साथ मुझे देखने आए थे तो मैं खिड़की की झिरी से उन के पुरुषोचित सौंदर्य को देख अवाक् रह गई थी, दिल धड़क उठा और याद आ गई पत्र में लिखी राज की पंक्ति, ‘क्या सचमुच कामदेव ही धरा पर उतर आए हैं या मेरा यह दृष्टि दोष है?

मां जब मुझे उन लोगों के सामने लाईं तो मेरी आंखें ऊपर उठ ही नहीं रही थीं. कब उन्होंने अंगूठी पहनाई याद नहीं पर वह स्पर्श मेरे रोमरोम में बिजली दौड़ाता चला गया था. मुझ पर एक नशा सा छा गया था और उसी में उन के मातापिता के पैर छू कर मैं भीतर चली गई थी.

मैं ने तुरंत अपनी इस अवस्था का विस्तृत वर्णन राज को लिख डाला, पर उत्तर नहीं आया. सोचा मगन होगी. अब मेरी कल्पना के साथी थे मदन. मिलन और सान्निध्य की कल्पना से मैं सिहर उठती.

फरवरी की गुलाबी सर्दी में मेरा जीवनसाथी मुझे पल्लू से गांठ बांध कर अपने घर ले आया और मुझे अपने प्रेम सागर में आकंठ डुबो दिया. अनुशासन भरा सैनिक जीवन जीतेजीते मदन ने अब तक अपने मन को भी चाबुक मारमार कर साध रखा था. इसीलिए मेरा प्रवेश होने पर मुझे संपूर्ण पे्रम से नहला दिया उन्होंने.

मदन अपनी ओर से ढेरों उपहार ला कर देते और उन की मां और बाबूजी ने तो अपनी इकलौती बहू की प्यार और उपहारों से झोली ही भर दी थी. मदन इकलौती संतान जो थे.

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Serial Story : चालबाज शुभी

चालबाज शुभी – भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

“अब जाने दो मुझे… रातभर प्यार करने के बाद भी तुम्हारा मन नहीं भरा क्या?” शुभी ने नखरे दिखाते हुए कहा, तो विजय अरोड़ा ने उस का हाथ पकड़ कर फिर से उसे बिस्तर पर गिरा दिया और उस के ऊपर लेट कर पतले और रसीले अधरों का रसपान करने लगा.

“देखो… मैं तो मांस का शौकीन हूं… फिर चाहे वह मेरी खाने की प्लेट में हो या मेरे बिस्तर पर,” विजय अरोड़ा शुभी के सीने के बीच अपने चेहरे को रगड़ने लगा, दोनों ही एकसाथ शारीरिक सुख पाने की चाह में होड़ लगाने लगे और कुछ देर बाद एकदूसरे से हांफते हुए अलग हो गए.

विजय और शुभी की 18 और 20 साल की 2 बेटियां थीं, तो दूसरी तरफ विजय के बड़े भाई अजय अरोड़ा के एक बेटा था, जिस की उम्र 22 साल की थी.

अरोड़ा बंधुओं के पिता रामचंद अरोड़ा चाहते थे कि जो बिजनैस उन्होंने इतनी मेहनत से खड़ा किया है, उस का बंटवारा न करना पड़े, इसलिए वे हमेशा दोनों भाइयों को एकसाथ रहने और काम करने की सलाह देते थे, पर छोटी बहू शुभी को हमेशा लगता रहता था कि पिताजी के दिल में बड़े भाई और भाभी के लिए अधिक स्नेह है, क्योंकि उन के एक बेटा है और उस के सिर्फ बेटियां.

शुभी को यही लगता था कि वे निश्चित रूप से अपनी वसीयत में दौलत का एक बड़ा हिस्सा उस के जेठ के नाम कर जाएंगे.

‘‘भाई साहब देखिए… विजय तो कामधंधे में कोई सक्रियता नहीं दिखाते हैं, पर मुझे अपनी बेटियों को तो आगे बढ़ाना ही है, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप मेरी बेटियों को भी अपने बिजनैस में हिस्सा दें और काम के गुर सिखाते रहें,‘‘ शुभी ने अपने जेठ अजय अरोड़ा से कहा.

इस पर अजय ने कहा, ‘‘पर शुभी, बेटियों को तो शादी कर के दूसरे घर जाना होता है… ऐसे में उन्हें अपने बिजनैस के बारे में बताने से क्या फायदा… आखिर इस पूरे बिजनैस को तो मेरे बेटे नरेश को ही संभालना है… हां, तुम्हें अपनी बेटियों को पढ़ानेलिखाने के लिए जितने पैसे की जरूरत हो, उतने पैसे ले सकती हो.”

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शुभी को तो अपने जेठ की नीयत पर पहले से ही शक था और आज उन से बात कर के वह यह जान चुकी थी कि इस पूरी दौलत पर उस के जेठ अजय अरोड़ा और उन के बेटे नरेश का ही वर्चस्व रहने वाला है और इस अरोड़ा ग्रुप का मालिक नरेश को ही बनाया जाना तय है.

शुभी दिनरात इसी उधेड़बुन में रहती कि किस तरह से पूरी दौलत और बिजनैस में बराबरी का हिस्सा लिया जाए, पर ये सब इतना आसान नहीं होने वाला था, बस एक तरीका था कि किसी तरह से नरेश को रास्ते से हटा दिया जाए तभी कुछ हो सकता है, पर एक औरत के लिए किसी को अपने रास्ते से हटा पाना बिलकुल भी आसान नहीं था.

‘मुझे अपनी लड़कियों के भविष्य के लिए कुछ भी करना पड़े मैं करूंगी, चाहे मुझे किसी भी हद तक जाना पड़े,‘ कुछ सोचते हुए शुभी बुदबुदा उठी.

शुभी की जेठानी निम्मी किचन में थी और अपनी नौकरानी को सही काम करने की ताकीद कर रही थी.

“क्या दीदी… सारा दिन आप ही काम करती रहती हो… कभी आराम भी किया करो… ये लो, मैं ने आप के लिए बादाम का शरबत बनाया है. इसे पीने से आप के बदन को ताकत मिल जाएगी,” शुभी ने अपनी जेठानी को बादाम का शरबत पिला दिया. शरबत पीने के कुछ देर बाद ही निम्मी को कुछ उलझन सी होने लगी.

“सुन शुभी… मेरी तबीयत कुछ ठीक सी नहीं लग रही है. जरा तू किचन संभाल ले,” ये कह कर निम्मी आराम करने चली गई.

उस रात अजय अरोड़ा जब अपने बेटे नरेश के साथ काम से लौटे और निम्मी के बारे में पूछा, तो शुभी ने बताया कि उन की तबीयत खराब है, इसलिए वे आराम कर रही हैं. ऐसा कह कर शुभी ने ही उन लोगों को खाना परोसा, जिसे खा कर वे दोनों अपनेअपने कमरों में चले गए.

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निम्मी और उस का बेटा अलगअलग कमरे में सोते थे, जबकि अजय अरोड़ा दूसरे कमरे में, क्योंकि उन को देर रात तक काम करने की आदत थी.

कुछ देर बाद शुभी दूध का गिलास ले कर अपने जेठ अजय अरोड़ा के कमरे में गई और उन के हाथ में गिलास देते समय उस ने बड़ी चतुराई से अपनी साड़ी का पल्लू कुछ इस अंदाज में गिरा दिया कि उस के सीने की गोरीगोरी गोलाइयां ब्लाउज से बाहर आने को बेताब हो उठीं. सहसा ही अजय अरोड़ा की नजरें उस के सीने के अंदर ही घुसती चली गईं.

जेठ अजय अरोड़ा को अपनी ओर इस तरह घूरते देख जल्दी से शुभी अपने पल्लू को सही करने लगी और मुसकराते हुए कमरे से बाहर चली आई.

चालबाज शुभी- भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

अजय अरोड़ा ने पूछा, तो प्रतिउत्तर में शुभी जोरों से रोने लगी.

“मैं तो आप को एक नेक इनसान समझती थी, पर मुझे क्या पता था कि आप भी और मर्दों की तरह ही निकलेंगे,” शुभी ने सुबकते हुए कहा.

“आखिर बात क्या है? कुछ तो बताओ,” परेशान हो उठे थे अजय अरोड़ा.

इस के जवाब में शुभी ने अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला, बल्कि अपने मोबाइल की स्क्रीन को औन कर के अजय अरोड़ा की तरफ बढ़ा दिया.

अजय ने मोबाइल की स्क्रीन पर देखा, तो मोबाइल पर कुछ तसवीरें थीं, जिस में शुभी के जिस्म का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह से नग्न था और अजय अरोड़ा उस के ऊपर लेटे हुए थे. एक नहीं, बल्कि कई तसवीरें थीं इन दोनों की, जो ये बताने के लिए काफी थीं कि कल रात उन दोनों के बीच जिस्मानी संबंध बने थे.

“पर, ये सब मैं ने नहीं किया…” अजय अरोड़ा ने कहा.

“आप सारे मर्दों का यही तरीका रहता है… कल जब मैं दूध का गिलास ले कर आई, तो आप नशे में लग रहे थे और आप ने मुझे बिस्तर पर गिरा दिया और मेरे साथ गलत काम किया… गलती मेरी ही है, आखिर मैं ने आप की आंखों में वासना के कीड़ों को क्यों नहीं पहचान लिया?” रोते हुए शुभी ने कहा.

“पर, भला ये तसवीरें तुम ने क्या सोच कर खींचीं?” माथा ठनक उठा था अजय अरोड़ा का.

“अगर, मैं ये तसवीरें नहीं लेती, तो भला आप क्यों मानते कि आप ने मेरे साथ गलत किया है,” शुभी का सवाल अचूक था और सारे सुबूत सामने थे, इसलिए अजय अरोड़ा का मन भी इन सब बातों को मानने के लिए मजबूर था, क्योंकि बचपन में उन्हें नींद में चलने की बीमारी थी, जो कि काफी समय बीतने के बाद ही सही हो सकी थी.

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“चलो, अब जो भी हुआ, उसे भूल जाओ… मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं…पर, ये बात किसी से न कहना… मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं,” अजय अरोड़ा ने कहा.

अजय अरोड़ा रात में 2 बजे तक काम किया करते थे, पर आज पता नहीं क्या हुआ कि उन की पलकें भारी होने लगीं और उन्हें जल्दी नींद आ गई. वे अपना लैपटौप सिरहाने रख कर सो गए.

अगली सुबह जब अजय अरोड़ा की आंखें खुलीं, तो उन्होंने अपने पास बैठी हुई शुभी को देखा. उसे अपने बिस्तर पर बैठा देख अजय अरोड़ा चौंक पड़े और पूछ बैठे, “क्या बात है शुभी, तुम इतनी सुबहसुबह मेरे कमरे में… और वो भी मेरे बिस्तर पर क्या कर रही हो?”

“नहीं, आप मुझ से बड़े हैं. मेरे सामने हाथ मत जोड़िए… हां, अगर मेरे लिए कुछ करना ही चाहते हैं, तो मेरी बेटियों को अपने बेटे नरेश के साथ जायदाद में बराबर की हिस्सेदारी दिलवा दीजिए,” शुभी ने कहा.

शुभी की बात सुन कर अजय अरोड़ा को ये समझते देर नहीं लगी कि वो बुरी तरह से उस के बिछाए जाल में फंस गए हैं, पर अब उन के पास उस की बात मानने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था, इसलिए वे शुभी की बात मानने पर राजी हो गए और उन्होंने जायदाद और अरोड़ा ग्रुप के वित्तीय मामलों मे नरेश के साथसाथ शुभी की बड़ी बेटी को भी शामिल कर लिया.

“देखो… मैं अभी सिर्फ तुम्हारी बड़ी बेटी को ही कंपनी में शामिल कर सकता हूं, क्योंकि कंपनी के और भी शेयरहोल्डर हैं, उन्हें भी मुझे जवाब देना है…

‘‘अगर चाहो तो मैं तुम्हारी छोटी बेटी को अपने दूसरे प्रोजैक्ट का इंचार्ज बना सकता हूं… पर, उस के लिए उसे कोलकाता जाना होगा,” अजय अरोड़ा ने कहा.

“बिलकुल जाएगी… कोलकाता तो क्या वह भारत के किसी भी हिस्से में जाएगी… बस, मुझे पैसा और पावर चाहिए… मैं आज ही उसे तैयारी करने को कहती हूं.”

अपनी इस कूटनीतिक जीत पर मन ही मन बहुत खुश हो रही थी शुभी और इसी जीत को सेलिब्रेट करने के लिए ‘बरिस्ता‘ कौफीहाउस में जा पहुंची, जहां उस के सामने वाली कुरसी पर बैठा हुआ शख्स उसे ऊपर से नीचे तक निहारे जा रहा था.

“अब तो तुम बहुत खुश होगी… आखिर अरोड़ा ग्रुप में बराबरी का हिस्सा मिल ही गया तुम्हें,” वो घनी दाढ़ी वाले शख्स ने कहा, जिस का नाम रौबिन था,

“मिला नहीं है, बल्कि छीना है मैं ने… पर, असली खुशी तो मुझे उस दिन मिलेगी, जब मैं उस नरेश के बच्चे को एमडी की कुरसी से हटवा दूंगी,” नफरत भरे लहजे में शुभी बोल रही थी.

“और उस के लिए अगर तुम्हें मेरी कोई भी जरूरत पड़े तो बंदा हाजिर है… पर, उस की कीमत देनी होगी,‘‘ रौबिन ने शरारती लहजे में कहा.

“बोलो, क्या कीमत लोगे?”

“बस, जिस तरह की तसवीरों में तुम अजय अरोड़ा के साथ नजर आ रही हो, वैसी ही जिस्मानी हालत में मेरे साथ एक रात गुजार लो.”

“बस… इतनी सी बात… अरे, तुम्हारे लिए मैं ने मना ही कब किया है,” शुभी की बातें सुन कर रौबिन अपने हाथ से शुभी के हाथ को सहलाने लगा.

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रौबिन और शुभी की जानपहचान कालेज के समय से थी और इतना ही नहीं, दोनों एकदूसरे से प्यार भी करते थे और शुभी की शादी हो जाने के बाद भी दोनों ने इस रिश्ते को बनाए रखा.

शुभी और रौबिन के प्यार का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता था कि आज भी अपनी खुशी को बांटने के लिए शुभी अपने पति के पास न हो कर रौबिन के पास ही आई थी.

कभी रौबिन से इश्क करने वाली शुभी को आज भी इस बात से कतई परहेज नहीं था कि आज रौबिन एक छोटामोटा ड्रग पेडलर बन चुका था, जो कि पैसा कमाने के लिए अफीम और अन्य नशीले पदार्थों की खरीदफरोख्त किया करता था और कई बार हवालात की हवा भी खा चुका था.

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