कायाकल्प

लेखक- रिचा शर्मा

खिड़की से बाहर झांक रही सुमित्रा ने एक अनजान युवक को गेट के सामने मोटरसाइकिल रोकते देखा.

‘‘रवि, तू यहां क्या कर रहा है?’’ सामने के फ्लैट की बालकनी में खड़े अजय ने ऊंची आवाज में मोटर- साइकिल सवार से प्रश्न किया.

‘‘यार, एक बुरी खबर देने आया हूं.’’

‘‘क्या हुआ है?’’

‘‘शर्मा सर का ट्रक से एक्सीडेंट हुआ जिस में वह मर गए.’’

खिड़की में खड़ी सुमित्रा अपने पति राजेंद्र के बाजार से घर लौटने का ही इंतजार कर रही थीं. रवि के मुंह से यह सब सुन कर उन के दिमाग को जबरदस्त झटका लगा. विधवा हो जाने के एहसास से उन की चेतना को लकवा मार गया और वह धड़ाम से फर्श पर गिरीं और बेहोश हो गईं.

छोटे बेटे समीर और बेटी रितु के प्रयासों से कुछ देर बाद जब सुमित्रा को होश आया तो उन दोनों की आंखों से बहते आंसुओं को देख कर उन के मन की पीड़ा लौट आई और वह अपनी बेटी से लिपट कर जोर से रोने लगीं.

उसी समय राजेंद्रजी ने कमरे में प्रवेश किया. पति को सहीसलामत देख कर सुमित्रा ने मन ही मन तीव्र खुशी व हैरानी के मिलेजुले भाव महसूस किए. फिर पति को सवालिया नजरों से देखने लगीं.

‘‘सुमित्रा, हम लुट गए. कंगाल हो गए. आज संजीव…’’ और इतना कह पत्नी के कंधे पर हाथ रख वह किसी छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगे थे.

सुमित्रा की समझ में आ गया कि रवि उन के बड़े बेटे संजीव की दुर्घटना में असामयिक मौत की खबर लाया था. इस नए सदमे ने उन्हें गूंगा बना दिया. वह न रोईं और न ही कुछ बोल पाईं. इस मानसिक आघात ने उन के सोचनेसमझने की शक्ति पूरी तरह से छीन ली थी.

करीब 15 दिन पहले ही संजीव अपनी पत्नी रीना और 3 साल की बेटी पल्लवी के साथ अलग किराए के मकान में रहने चला गया था.

पड़ोसी कपूर साहब, रीना व पल्लवी को अपनी कार से ले आए. कुछ दूसरे पड़ोसी, राजेंद्रजी और समीर के साथ उस अस्पताल में गए जहां संजीव की मौत हुई थी.

अपनी बहू रीना से गले लग कर रोते हुए सुमित्रा बारबार एक ही बात कह रही थीं, ‘‘मैं तुम दोनों को घर से जाने को मजबूर न करती तो आज मेरे संजीव के साथ यह हादसा न होता.’’

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इस अपराधबोध ने सुमित्रा को तेरहवीं तक गहरी उदासी का शिकार बनाए रखा. इस कारण वह सांत्वना देने आ रहे लोगों से न ठीक से बोल पातीं, न ही अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों का उन्हें कोई ध्यान आता.

ज्यादातर वह अपनी विधवा बहू का मुर्झाया चेहरा निहारते हुए मौन आंसू बहाने लगतीं. कभीकभी पल्लवी को छाती से लगा कर खूब प्यार करतीं, पर आंसू तब भी उन की पलकों को भिगोए रखते.

तेरहवीं के अगले दिन वर्षों की बीमार नजर आ रही सुमित्रा क्रियाशील हो उठीं. सब से पहले समीर और उस के दोस्तों की मदद से टैंपू में भर कर संजीव का सारा सामान किराए के मकान से वापस मंगवा लिया.

उसी दिन शाम को सुमित्रा के निमंत्रण पर रीना के मातापिता और भैयाभाभी उन के घर आए.

सुमित्रा ने सब को संबोधित कर गंभीर लहजे में कहा, ‘‘पहले मेरी और रीना की बनती नहीं थी पर अब आप सब लोग निश्ंिचत रहें. हमारे बीच किसी भी तरह का टकराव अब आप लोगों को देखनेसुनने में नहीं आएगा.’’

‘‘आंटी, मेरी छोटी बहन पर दुख का भारी पहाड़ टूटा है. अपनी बहन और भांजी की कैसी भी सहायता करने से मैं कभी पीछे नहीं हटूंगा,’’ रीना के भाई रोहित ने भावुक हो कर अपने दिल की इच्छा जाहिर की.

‘‘आप सब को बुरा न लगे तो रीना और पल्लवी हमारे साथ भी आ कर रह सकती हैं,’’ रीना के पिता कौशिक साहब ने हिचकते हुए अपना प्रस्ताव रखा.

सुमित्रा उन की बातें खामोश हो कर सुनती रहीं. वह रीना के मायके वालों की आंखों में छाए चिंता के भावों को आसानी से पढ़ सकती थीं.

रीना के साथ पिछले 6 महीनों में सुमित्रा के संबंध बहुत ज्यादा बिगड़ गए थे. समीर की शादी करीब 3 महीने बाद होने वाली थी. नई बहू के आने की बात को देखते हुए सुमित्रा ने रीना को और ज्यादा दबा कर रखने के प्रयास तेज कर दिए थे.

‘इस घर में रहना है तो जो मैं चाहती हूं वही करना होगा, नहीं तो अलग हो जाओ,’ रोजरोज की उन की ऐसी धमकियों से तंग आ कर संजीव और रीना ने अलग मकान लिया था.

उन की बेटी सास के हाथों अब तो और भी दुख पाएगी, रीना के मातापिता के मन के इस डर को सुमित्रा भली प्रकार समझ रही थीं.

उन के इस डर को दूर करने के लिए ही सुमित्रा ने अपनी खामोशी को तोड़ते हुए भावुक लहजे में कहा, ‘‘मेरा बेटा हमें छोड़ कर चला गया है, तो अब अपनी बहू को मैं बेटी बना कर रखूंगी. मैं ने मन ही मन कुछ फैसला लिया है जिन्हें पहली बार मैं आप सभी के सामने उजागर करूंगी.’’

आंखों से बह आए आंसुओं को पोंछती हुई सुमित्रा सब की आंखों का केंद्र बन गईं. राजेंद्रजी, समीर और रितु के हावभाव से यह साफ पता लग रहा था कि जो सुमित्रा कहने जा रही थीं, उस का अंदाजा उन्हें भी न था.

‘‘समीर की शादी होने से पहले ही रीना के लिए हम छत पर 2 कमरों का सेट तैयार करवाएंगे ताकि वह देवरानी के आने से पहले या बाद में जब चाहे अपनी रसोई अलग कर ले. इस के लिए रीना आजाद रहेगी.

‘‘अतीत में मैं ने रीना के नौकरी करने का सदा विरोध किया, पर अब मैं चाहती हूं कि वह आत्मनिर्भर बने. मेरी दिली इच्छा है कि वह बी.एड. का फार्म भरे और अपनी काबिलीयत बढ़ाए.

‘‘आप सब के सामने मैं रीना से कहती हूं कि अब से वह मुझे अपनी मां समझे. जीवन की कठिन राहों पर मजबूत कदमों से आगे बढ़ने के लिए उसे मेरा सहयोग, सहारा और आशीर्वाद सदा उपलब्ध रहेगा.’’

सुमित्रा के स्वभाव में आया बदलाव सब को हैरान कर गया. उन के मुंह से निकले शब्दों में छिपी भावुकता व ईमानदारी सभी के दिलों को छू कर उन की पलकें नम कर गईं. एक तेजतर्रार, झगड़ालू व घमंडी स्त्री का इस कदर कायाकल्प हो जाना सभी को अविश्वसनीय लग रहा था.

रीना अचानक अपनी जगह से उठी और सुमित्रा के पास आ बैठी. सास ने बांहें फैलाईं और बहू उन की छाती से लग कर सुबकने लगी.

कमरे का माहौल बड़ा भावुक और संजीदा हो गया. रीना के मातापिता व भैयाभाभी के पास अब रीना व पल्लवी के हितों पर चर्चा करने के लिए कोई कारण नहीं बचा.

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क्या सुमित्रा का सचमुच कायाकल्प हुआ है? इस सवाल को अपने दिलों में समेटे सभी लोग कुछ देर बाद विदा ले कर अपनेअपने घर चले गए.

अब सिर्फ अपने परिवारजनों की मौजूदगी में सुमित्रा ने अपने मनोभावों को शब्द देना जारी रखा, ‘‘समीर और रितु, तुम दोनों अपनी भाभी को इस पल से पूरा मानसम्मान दोगे. रीना के साथ तुम ने गलत व्यवहार किया तो उसे मैं अपना अपमान समझूंगी.’’

‘‘मम्मी, आप को मुझ से कोई शिकायत नहीं होगी,’’ रितु उठ कर रीना की बगल में आ बैठी और बड़े प्यार से भाभी का हाथ अपने हाथों में ले लिया.

‘‘मेरा दिमाग खराब नहीं है जो मैं किसी से बिना बात उलझूंगा,’’ समीर अचानक भड़क उठा.

‘‘बेटे, अगर तुम्हारा रवैया नहीं बदला तो रीना को साथ ले कर एक दिन मैं इस घर को छोड़ जाऊंगी.’’

सुमित्रा की इस धमकी का ऐसा प्रभाव हुआ कि समीर चुपचाप अपनी जगह सिर झुका कर बैठ गया.

‘‘सुमित्रा, तुम सब तरह की चिंताएं अपने मन से निकाल दो. रीना और पल्लवी के भविष्य को सुखद बनाने के लिए हम सब मिल कर सहयोग करेंगे,’’ राजेंद्रजी से ऐसा आश्वासन पा कर सुमित्रा धन्यवाद भाव से मुसकरा उठी थीं.

कमरे से जब सब चले गए तब सुमित्रा ने रीना से साफसाफ पूछा, ‘‘बहू, तुम्हें मेरे मुंह से निकली बातों पर क्या विश्वास नहीं हो रहा है?’’

‘‘आप ऐसा क्यों सोच रही हैं, मम्मी. आप लोगों के अलावा अब मेरा असली सहारा कौन बनेगा?’’ रीना का गला भर आया.

‘‘मैं तुम्हें कभी तंग नहीं करूंगी, बहू. बस, तुम यह घर छोड़ कर जाने का विचार अपने मन में कभी मत लाना, नहीं तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘नहीं, मम्मी. मैं आप के पास रहूंगी और आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘देख, पल्लवी के नाम से मैं ने 1 लाख रुपए फिक्स्ड डिपोजिट करने का फैसला कर लिया है. आने वाले समय में यह रकम बढ़ कर उस की पढ़ाई और शादी के काम आएगी.’’

‘‘जी,’’ रीना की आंखों में खुशी की चमक उभरी.

‘‘सुनो बहू, एक बात और कहती हूं मैं,’’ सुमित्रा की आंखों में फिर से आंसू चमके और गला रुंधने सा लगा, ‘‘करीब 4 साल पहले तुम ने इस घर में दुलहन बन कर कदम रखा था और मैं वादा करती हूं कि उचित समय और उचित लड़का मिलने पर तुम्हें डोली में बिठा कर यहां से विदा भी कर दूंगी. जरूरत पड़ी तो पल्लवी अपने दादादादी के पास रहेगी और तुम अपनी नई घरगृहस्थी…’’

‘‘बस, मम्मीजी, और कुछ मत कहिए आप,’’ रीना ने उन के मुंह पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘मुझे विश्वास हो गया है कि पल्लवी और मैं आप दोनों की छत्रछाया में यहां बिलकुल सुरक्षित हैं. मुझ में दूसरी शादी करने में जरा भी दिलचस्पी कभी पैदा नहीं होगी.’’

रीना अपने सासससुर के लिए जब चाय बनाने चली गई तो राजेंद्रजी ने सुमित्रा का माथा चूम कर उन की प्रशंसा की, ‘‘सुमि, आज जो मैं ने देखासुना है उस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है, साथ ही गर्व भी कर रहा हूं. एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछिए,’’ सुमित्रा ने पति के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा और आंखें मूंद लीं.

‘‘तुम्हारी सोच, तुम्हारा नजरिया… तुम्हारे दिल के भाव अचानक इस तरह कैसे बदल गए हैं?’’

‘‘आप मुझ में आए बदलाव का क्या कारण समझते हैं?’’ आंखें बंद किएकिए ही सुमित्रा बोलीं.

‘‘मुझे लगता है संजीव की असमय हुई मौत ने तुम्हें बदला है, पर फिर वैसा ही बदलाव मेरे अंदर क्यों नहीं आया?’’

‘‘संजीव इस दुनिया में नहीं रहा, ये जानने से पहले मुझे एक और जबरदस्त सदमा लगा था. क्या आप को उस की याद है?’’

‘‘हां, जो लड़का बुरी खबर लाया था वह संजीव का जूनियर था और तुम समझीं कि वह कोई मेरा छात्र है और मेरी न रहने की खबर लाया है.’’

‘‘दरअसल, गलत अंदाजा लगा कर मैं बेहोश हो गई थी. फिर मुझे धीरेधीरे होश आया तो मेरे मन ने काम करना शुरू किया.

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‘‘सब से पहले असहाय और असुरक्षित हो जाने के भय ने मेरे दिलोदिमाग को जकड़ा था. मन में गहरी पीड़ा होने के बावजूद अपनी जिस जिम्मेदारी का मुझे ध्यान आया वह रितु की शादी का था.

‘‘कैसे पूरी करूंगी मैं यह जिम्मेदारी? मन में यह सवाल कौंधा तो जवाब में सब से पहले संजीव और रीना की शक्लें उभरी थीं. उन से मेरा लाख झगड़ा होता रहा हो पर मुसीबत के समय मन को उन्हीं दोनों की याद पहले आई थी,’’ अपने मन की बातों को सुमित्रा बड़े धीरेधीरे बोलते हुए पति के साथ बांट रही थीं.

राजेंद्रजी खामोश रह कर सुमित्रा के आगे बोलने का इंतजार करने लगे.

सुमित्रा ने पति की आंखों में देखते हुए भावुक लहजे में आगे कहा, ‘‘मेरे बहूबेटे मुसीबत में मेरा मजबूत सहारा बनेंगे, अगर मेरी यह उम्मीद भविष्य में पूरी न होती तो मेरा दिल उन दोनों को कितना कोसता.’’

एक पल रुक कर सुमित्रा फिर बोलीं, ‘‘असली विपदा का पहाड़ तो रीना के सिर पर टूटा था. मेरी ही तरह क्या उस ने भी उन लोगों का ध्यान नहीं किया होगा जो इस कठिन समय में उस के काम आएंगे?’’

‘‘जरूर आया होगा,’’ राजेंद्रजी बोले.

‘‘अगर उस ने हमें विश्वसनीय लोगों की सूची में नहीं रखा होगा तो यह हमारे लिए बड़े शर्म की बात है और अगर हमारे सहयोग और सहारे की उसे आशा है और हम उस की उम्मीदों पर खरे न उतरे तो क्या वह हमें नहीं कोसेगी?’’

‘‘तुम्हारे मनोभाव अब मेरी समझ में आ रहे हैं. तुम्हारे कायाकल्प का कारण मैं अब समझ सकता हूं,’’ राजेंद्रजी ने प्यार से पत्नी का माथा एक बार फिर चूमा.

‘‘हमारा बेटा संजीव अब बहू और पोती के रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है और ये दोनों हमें कोसें ऐसा मैं कभी नहीं चाहूंगी. इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए ही मैं ने अपने को बदल डाला है. कभी मैं राह से भटकूं तो आप मुझे टोक कर सही राह दिखा देना,’’ सुमित्रा ने अपने जीवनसाथी से हाथ जोड़ कर विनती की.

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि तुम्हारा यह कायाकल्प दिल की गहराइयों से हुआ है.’’

अपने पति की आंखों में अपने लिए गहरे सम्मान, प्रशंसा व प्रेम के भावों को पढ़ कर सुमित्रा हौले से मुसकराईं.

जब हमारे साहबजादे क्रिकेट खेलने गए

लेखक- कुंतल सिंघवी

हमारे साढ़े 6 वर्षीय बेटे को क्रिकेट खेलने का बहुत शौक है. यद्यपि इस खेल के संबंध में उन का ज्ञान इतना तो नहीं कि किसी खेल संबंधी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता में भाग ले सकें, पर फिर भी उन्हें खिलाडि़यों की पहचान हम से अधिक है और क्रिकेट की फील्ड की रचना कैसे की जाती है, इस बारे में भी वह हम से ज्यादा ही जानते हैं.

जब कभी टेस्ट मैच या एकदिवसीय मैच होता है तो वह बराबर टीवी के सामने बैठे रहते हैं. यदि कभी हमारा बाहर जाने का कार्यक्रम बनता है तो वह तड़ से कह देते हैं, ‘‘मां, मैं क्रिकेट मैच नहीं देख पाऊंगा, इसलिए मैं घर पर ही रहूंगा.’’ इस खेल के प्रति उन की रुचि व लगन पढ़ाई से अधिक है.

उन को इस खेल के प्रति रुचि अचानक ही नहीं हुई बल्कि जब वह मात्र 3 साल के थे तब से ही स्केल और पिंगपांग बाल को वह क्रिकेट की गेंद व बल्ला समझ कर खेला करते थे. अपनी तीसरी वर्षगांठ पर उन्होंने हम से बल्ला व गेंद उपहारस्वरूप झड़वा लिया. इस खेल में विकेट और पैड भी जरूरी होते हैं. इस की जानकारी उन्हें भारत और पाकिस्तान के बीच हुए मैच के दौरान हुई, जिस का सीधा प्रसारण वह टीवी पर देखा करते थे.

उन्होंने खाना छोड़ा होगा, पीना छोड़ा होगा, दोपहर में पढ़ना और सोना भी छोड़ा होगा, पर मैच देखना कभी छोड़ा हो, ऐसा हमें याद नहीं. हमारे देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री कौन है वह इस बात को भले ही न जानें, पर कपिलदेव, सुनील गावसकर, लायड, जहीर अब्बास को वह केवल जानते ही नहीं, उन के हर अंदाज से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं.

इस खेल के प्रति उन की रुचि तब और बढ़ गई, जब उन्होंने गावसकर को मारुति व रवि शास्त्री को आउडी कार मिलते देखी. उन्हें कार पाने का इस से सरल तरीका और कोई नहीं दिखा कि सफेद कमीज पहन लो, पैंट न हो तो नेकर पहन लो, ऊनी दस्ताने पहन लो तथा छोटीबड़ी कैसी भी कैप पहन लो और बस, चल दो बल्ला और गेंद उठा कर खेल के मैदान में.

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कार के वह पैदाइशी शौकीन हैं. जब उन्होंने अपने जीवन के 4 महीने ही पूरे किए थे तब पहली बार कार का हार्न सुन कर बड़े खुश हुए थे. जब वह 8 महीने के थे तब घर के सदस्यों को पहचानने के बजाय उन्होंने सब से पहले तसवीरों में कार को पहचाना था.

तो जनाब, कार के प्रति उन के मोह ने उन्हें क्रिकेट की तरफ मोड़ दिया. फिर वह हमारे पीछे पड़ गए और बोले, ‘‘हम रोज घर पर खेलते हैं, आज हम स्टेडियम में खेलेंगे.’’

हम ने उन से कहा, ‘‘पहले आसपास के बच्चों के साथ घर के बाहर तो खेलो.’’ तो साहब, उन्होंने हमारी आज्ञा का पालन किया, अगले दिन शाम होते ही आ कर बोले, ‘‘आप लोग लान में खड़े हो कर देखिएगा, हम सड़क पर भैया लोगों के साथ खेलने जा रहे हैं.’’ हम मांबाप दोनों ही उन्हें दरवाजे पर इस तरह शुभकामनाओं के साथ छोड़ने गए जैसे वह विदेश जा रहे हों.

बहुत देर तक हम खेल शुरू होने का इंतजार करते रहे, क्योंकि करीबकरीब सभी बच्चे मय टूटी कुरसी के, जोकि उन की विकेट थी, सड़क पर पहुंच चुके थे. पर खेल शुरू होने के आसार न दिखने से हम अपना काम करने अंदर आ गए. करीब 20 मिनट बाद जब हम बाहर आए तो देखा, खिलाडि़यों में कुछ झगड़ा सा हो रहा है.

हम ने पतिदेव से, जोकि अपने बेटे के पहले छक्के को देखने की उम्मीद में बाहर खड़े थे, पूछा कि माजरा क्या है, अभी तक खेल क्यों नहीं शुरू हुआ तो उन्होंने कहा कि फिलहाल कपिल बनाम गावसकर यानी कप्तान कौन हो, का विवाद छिड़ा हुआ है.

4 बड़े लड़के कप्तान बनने की दलील दे रहे थे. एक कह रहा था, ‘‘विकेट (टूटी कुरसी) मैं लाया हूं, इसलिए कप्तान मैं हूं.’’ दूसरा कह रहा था, ‘‘अरे, वाह, बल्ला और गेंद तो मैं लाया हूं. मेरा असली बल्ला है, तुम्हारा तो टेनिस की गेंद से खेलने लायक है. अत: मैं बनूंगा कप्तान.’’ तीसरा जोकि अच्छी बल्लेबाजी करता था, बोला, ‘‘देखो, कप्तान मुझे ही बनाना चाहिए, क्योंकि सब से ज्यादा रन मैं ही बनाता हूं.’’

चौथा इस बात पर अड़ा हुआ था कि खेल क्योंकि उस के घर के सामने हो रहा था अत: बाल यदि चौकेछक्के में घर के अंदर चली गई तो उसे वापस वह ही ला सकता है, क्योंकि गेट पर उस की मां ने उस भयंकर कुत्ते को खुला छोड़ रखा था, जिस से वे सब डरते थे.

खैर, किसी तरह कप्तान की घोषणा हुई तो देखा बच्चे अब भी खेलने को तैयार नहीं, क्योंकि उन्हें उस की कप्तानी पसंद नहीं थी. यहां भी टीम का चयन करने में समस्या थी, क्योंकि जितने खिलाड़ी चाहिए थे, उस से 10 बच्चे अधिक थे. अब समस्या थी कि किसे खेल में शामिल किया जाए.

यहां कोई चयन समिति तो थी नहीं, जो इन की पहली कारगुजारी के आधार पर इन्हें चुनती. यहां तो हर कोई अपने को हरफनमौला बता रहा था.

खैर, साहब, जो बच्चे बल्ले नहीं लाए थे, उन्हें बजाय वापस घर भेजने के गली के नुक्कड़ पर खड़ा कर दिया गया ताकि अगर भूलेचूके गेंद वहां चली जाए तो वे उसे उठाने में मदद करें. जब टीम का चयन हो गया तो टास हुआ, 2 बार तो टास में अठन्नी पास की नाली में जा गिरी. तीसरी बार के टास से पता चला कि टीम ‘क’ पहले बल्लेबाजी करेगी तथा टीम ‘ख’ फील्डिंग.

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हमारे सुपुत्र चूंकि हमें फील्ड में यानी सड़क पर कहीं नजर नहीं आए तो हम ने समझा शायद ‘क’ टीम में होंगे, पर शंका का समाधान थोड़ी देर में हो गया जब वह मुंह लटका कर द्वार में प्रविष्ट हुए.

हम ने उन से पूछा, ‘‘आप वापस कैसे आ गए?’’ इस पर वह बोले, ‘‘हम सब से छोटे हैं, फिर भी सब से पहले हम से बल्लेबाजी नहीं करवाई और बड़े भैया खुद खेले जा रहे हैं.’’

हम ने उन्हें हतोत्साहित नहीं होने दिया और कहा, ‘‘जल्दी ही आप की बारी आ जाएगी, आप वापस चले जाइए.’’

वह अंदर गए, लगे हाथ एक कोल्ड डिं्रक चढ़ाई और जब वह वापस आए तो उन के चेहरे के भाव उसी तरह थे, जैसे ड्रिंक इंटरवल के बाद खिलाडि़यों के चेहरों पर होते हैं. जब वह फील्ड पर पहुंचे तो पता लगा उन की बारी आ चुकी थी, पर वह मौके पर उपस्थित नहीं थे, अत: 12वें नंबर के खिलाड़ी को बल्लेबाजी करने भेज दिया गया यानी बल्लेबाजी तो वह कर ही नहीं पाए.

अब फील्डिंग की बारी थी. वहां भी शायद वह अपनी अच्छी छाप नहीं छोड़ सके, क्योंकि अगले दिन जब हम ने उन्हें शाम को तैयार कर के भेजना चाहा तो वह तैयार नहीं हो रहे थे. हम ने कहा, ‘‘अरे भई, आज हम बिलकुल कहीं नहीं जाएंगे, लान में खड़े हो कर आप का ही मैच देखेंगे.’’ पर वह टस से मस नहीं हुए. उलटे उन के हाथ में क्रिकेट के बल्ले की जगह बैडमिंटन रैकिट था. यानी उन्होंने क्रिकेट से तौबा कर ली थी.

खैर, किसी तरह हम ने उन्हें खेलने भेजा. हम अपनी सब्जी गैस पर बनने रख आए थे. उसे देखने अंदर आ गए. वह तो खैर जलभुन कर राख हो ही चुकी थी, ऊपर से इन्होंने बताया कि हमारे नवाबजादे टीम से निकाल दिए गए हैं, इसीलिए खेलने नहीं जा रहे थे.

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हम ने उन से निकाले जाने का कारण पूछा तो पता चला कि फील्डिंग के समय उन्हें जो पोजीशन मिली थी, वह महत्त्व की थी और वहां पर चौकन्ना हो कर खड़े रहने की जरूरत थी. पर हमारे नवाबजादे जहां लपक कर कैच लेना था, वहां पर तो डाइव मार कर एक हाथ से कैच ले रहे थे. जैसा कभी उन्होंने गावसकर को आस्ट्रेलिया में लेते देखा था, और जहां पर डाइव लगानी थी, वहां सीधे हाथ आकाश में लिए खड़े थे. इस तरह वह 3-4 महत्त्वपूर्ण कैच छोड़ चुके थे, अत: कप्तान उन्हें गुस्से में घूरने लगा था.

जब 5वीं बार उन्हें एक खिलाड़ी को रन आउट करने का मौका मिला था तो उन्होंने गेंद बजाय खिलाड़ी को रन आउट करने के लिए विकेट पर मारने के अपने कप्तान के मुंह पर दे मारी, क्योंकि वह गुस्से में थे कि पारी की शुरुआत उन से क्यों नहीं करवाई गई. जब शाम से रात हुई और स्टंप उखाड़े गए, यानी कुरसी सरका ली गई तो उन्हें अगले दिन वहां आने से मना कर दिया गया.

हमारे लाड़ले का कहना था, ‘‘यह भी कोई क्रिकेट मैच है? पास में नाली बह रही है. इतने सारे मच्छर खाते हैं, न कोई ड्रिंक्स ट्राली आती है, न कोई फोटो खींचता है. हम तो विदेश जा कर ही खेलेंगे.’’

वंश बेल

भाग-1

रामलीला मैदान में आज और दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक भीड़ थी. महाराजजी का उपदेश सुनने दूरदूर से आए भक्तों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए आयोजकों के साथसाथ शहर की कई स्वयंसेवी संस्थाएं अपना योगदान दे रही थीं. कतार में भक्ति भाव से बैठे भक्तों के बीच महाराजजी की फोटो थाल में सजा कर कई व्यक्ति घूम रहे थे जिस में भक्त बडे़ श्रद्धाभाव से भेंट चढ़ा रहे थे.

महाराजजी के इस सातदिवसीय कार्यक्रम का आज अंतिम दिन है. पंडाल के बाहर महाराजजी की संस्था के कार्यकर्ता उन के प्रवचनों, गीतों के कैसेट्स, किताबें और पूजा से संबंधित सामग्री के स्टाल लगाए हुए थे. साथ ही प्रायोजक दुकानदारों की दुकानें भी सजी हुई थीं जिन मेें कई प्रकार के शर्बतों के अलावा आंवला, सेब व बेल की मिठाइयां एवं चूर्ण के साथ खानेपीने की अन्य वस्तुएं भी बिक रही थीं. आज उपदेश के बाद महाराजजी अपने भक्तों की व्यक्तिगत समस्याओं को सुनने के लिए कुछ समय देने वाले थे.

कार्यक्रम के अंतिम दिन महाराजजी का यह व्यक्तिगत परिचय भक्तों को एक अभूतपूर्व  संतुष्टि देता था. इस कारण भी महाराजजी खासतौर से चर्चित थे. किंतु भक्तों की लंबी कतार एवं समय की कमी के चलते महाराजजी केवल 50 व्यक्तियों को ही समय दे पाते थे. अपनी समस्याओं का समाधान एवं आशीर्वाद लेने के लिए लोग बाहर एक सेवक को अपना नामपता लिखवा रहे थे.

उपदेश एवं भजन समाप्त हुए. महाराजजी स्टेज के पीछे बने छोटे से कमरे में चले गए. वहां एक के बाद एक लोग आते और महाराजजी को विस्तार से अपनी समस्याएं बताते. महाराजजी उन को एक गुरुमंत्र धीमे से बताते और कुछ पुडि़याएं देते. उन के पास ही एक बड़ा सा चांदी का थाल रखा हुआ था जिस में एक लाल रंग के वस्त्र के ऊपर 100 और 500 रुपए के कुछ नोट रखे हुए थे. भक्तों के लिए इतना इशारा ही काफी था.

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‘‘महाराजजी,’’ कहते हुए एक स्त्री आते ही उन के चरणों में गिर पड़ी और सुबकसुबक  कर रोने लगी.

‘‘उठो बेटी, क्या बात है,’’ कहते हुए महाराजजी ने उसे स्वयं सहारा दे कर उठाया और अपने पास बिठा लिया. महाराजजी का स्पर्श पाते ही वह बेहद भावुक हो उठी.

‘‘10 वर्ष हो गए हैं विवाह को, 2 बेटियां हैं, बेटे की चाहत लिए आप के पास आई हूं. आप तो जानते ही हैं कि बेटा न होने पर समाज में कैसेकैसे ताने सुनने पड़ते हैं और ससुराल में प्रताडि़त किया जाता है, जैसे सारा दोष मेरा ही हो…बड़ी उम्मीद ले कर आई हूं आप के पास,’’ इतना कहतेकहते वह फिर बिलखने लगी.

‘‘शांत हो जाओ, बेटी. बेटाबेटी होना इनसान के पूर्व जन्मों का फल है. हमारे परिवारों में घोर अज्ञानता है इसीलिए यह दोष बेटियों के सिर मढ़ दिया जाता है. तुम चिंता मत करो. मैं कोशिश करता हूं. तुम्हारे भी दिन फिरेंगे.’’

‘‘अब तो बस, आप का ही सहारा है,’’ वह साड़ी के आंचल से आंसू पोंछते हुए बोली.

‘‘मैं एक मंत्र और उस के जाप की विधि के साथ तुम्हें कुछ पुडि़या दे रहा हूं. सेवक से सब समझ लेना. लाभ अवश्य होगा. अगली बार पति की फोटो भी साथ में लाना. मैं सम्मोहन प्रक्रिया से उन का मत बदलने का प्रयत्न करूंगा.’’

स्त्री ने पुन: महाराजजी के चरणस्पर्श किए और 101 रुपए थाल में भेंट चढ़ा कर बड़ी आशा लिए वहां से चली गई.

ठीक 5 बजते ही महाराजजी एक बड़ी सी विदेशी कार में बैठ कर अपने आश्रम की तरफ चल दिए. उन के पीछेपीछे कारों का लंबा काफिला था जिन में शायद उन के अंतरंग सेवक, विशिष्ट व्यक्ति और विदेशी अनुयायी बैठे थे.

अपने निजी कक्ष में कुछ देर विश्राम करने के बाद महाराज आश्रम के हाल में आ गए. यहां केवल उन के बेहद खास सेवक ही मौजूद थे. उन के आते ही सब ने उठ कर उन का स्वागत किया और महाराजजी के आसन पर बैठते ही वे सब सामने की कुरसियों पर बैठ गए.

‘‘महाराजजी,’’ कहते हुए रमेश भाई बोले, ‘‘प्रीत नगर कैंसर सोसायटी आप का चारदिवसीय कार्यक्रम रखना चाहती है. इस के लिए सोसायटी के लोग 50 हजार रुपए का चेक भी दे गए हैं किंतु अंतिम स्वीकृति तो आप को ही देनी है. आप की आज्ञा हो तो…’’

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‘‘सिर्फ 50 हजार रुपए रमेश भाई,’’ चौंक कर महाराजजी ने पूरे व्यावसायिक अंदाज में कहा, ‘‘प्रतिदिन 50 हजार से कम तो किसी प्रोग्राम के मत लो. आप को मालूम होना चाहिए कि लोग मेरे नाम का उपयोग कर के कितना धन कमाते हैं. पिछले महीने जयपुर में जो तीनदिवसीय कार्यक्रम का आयोजन हुआ था, उस में संस्था ने पूरे 6 लाख रुपए कमाए थे. लोगों की श्रद्धा और भावनाओं को कैसे भुनाया जाता है ये संस्थाएं अच्छी तरह जानती हैं…फिर हम लोग पीछे क्यों हटें.’’

‘‘जी महाराज, मैं सारी बातें फिर से तय कर के आप को बताता हूं,’’ कहते हुए रमेश भाई बैठ गए.

‘‘आज की व्यवस्था कैसी रही मोहनदासजी,’’ महाराजजी ने दूसरे की तरफ देख कर मुसकराते हुए पूछा.

‘‘और दिनों के मुकाबले आज काफी अच्छी थी. आप के थाल से 19 हजार, पुस्तकों की बिक्री से 7,800, कैसेट एवं सीडी से 18 हजार की राशि प्राप्त हुई है. महाराजजी, आजकल घरों में महात्माओं के बडे़बडे़ फोटो लगाने का प्रचलन बढ़ रहा है. कई भक्त इस बारे में मुझ से पूछ चुके हैं,’’ मोहनदास बोले.

‘‘यह भी उत्तम विचार है. 6 हजार से नीचे तो मेरी फोटो की कीमत होनी ही नहीं चाहिए और 10 हजार रुपए देने वाले को मैं खुद फोटो भेंट करूंगा.’’

इस तरह के नएनए तरीकों से अतिरिक्त धन जुटाने की सलाह समिति के सदस्य दे रहे थे.

कुछ देर बाद सभी सदस्य उठ कर चले गए. महाराजजी के साथ उन के 3 परम शिष्य वहीं बैठे रहे. आज खासतौर से इन शिष्यों ने कुछ अंतरंग विषयों पर चर्चा करने के लिए महाराजजी से अनुनयविनय की थी.

‘‘गुरुजी, कई दिनों से एक बात हम लोगों को विचलित कर रही है. वैसे हम उसे कहना नहीं चाहते थे पर लोगों का मुंह भी कैसे रोकें इसलिए मजबूर हो कर आप से पूछना पड़ रहा है. आप के नाम का यश और कीर्ति निरंतर फैलती जा रही है, भक्तों की भी निरंतर वृद्धि हो रही है, किंतु…’’

‘‘किंतु क्या? शंका एवं समस्या क्या है?’’ महाराज बोले, ‘‘आप को इतनी बड़ी भूमिका बांधनी पड़ रही है.’’

‘‘इस वंश बेल को संभालने के लिए भी तो कोई चाहिए…यदि एक बेटा होता तो…आप तो जानते ही हैं कि कई बार लोग कैसे बेहूदे सवाल करते हैं. कहते हैं, यदि बेटा होने का कोई मंत्र या दवा होती तो महाराज का अब तक बेटा क्यों नहीं हुआ. महाराज, इस से पहले कि आप की छवि धूल में मिल जाए कुछ तो कीजिए. आप समझ रहे हैं न, मैं क्या कह रहा हूं.’’

महाराज निशब्द हो गए…जैसे किसी ने उन की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. बात सच भी थी. आखिर इतनी बड़ी संस्था को चलाने के लिए कोई तो अपना होना चाहिए था. महाराज की बेटे की चाहत में पहले से ही 3 बेटियां थीं और इस उम्र में बेटा पैदा करने का रिस्क वह लेना नहीं चाहते थे. महाराजजी देर तक शून्य में देखते रहे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘सोचा तो मैं ने भी बहुत है पर अब क्या हो सकता है?’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता, महाराज. आप की उम्र ही अभी क्या है. फिर पहले के ऋषिमुनि भी तो यही तरीका अपनाते थे.’’

‘‘कौन सा तरीका?’’ सबकुछ जानते हुए भी अनजान बन कर पूछा महाराजजी ने.

‘‘दूसरा विवाह. आप का काम भी हो जाएगा और लोगों का मुंह भी बंद हो जाएगा.’’

महाराज धीरे से मुसकराए. दूसरे विवाह की कल्पना मात्र से ही वह पुलकित हो उठे थे इसलिए खुल कर मना भी न कर सके.

बेटा न होने का सारा दोष महाराजजी ने अपनी पत्नी सावित्री के सिर मढ़ दिया था. यही नहीं, बेटा पाने की चाह में 2 बार सावित्री का वह गर्भपात भी करा चुके थे.

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अब फिर शिष्यों के कहने पर उन की सोई चाहत फिर से बलवती हो उठी. एक तो बेटे की चाहत और उस से भी बड़ी खूबसूरत, छरहरी अल्प आयु की पत्नी पाना. महाराज का रोमरोम खिल उठा.

शिष्यों ने महाराज को कई सुंदर युवतियां दिखाईं और उन में से एक को महाराज ने पसंद कर लिया.

महाराज के शिष्य इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि यह विवाह उन की प्रतिष्ठा एवं चरित्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है. इसलिए वे कोई ठोस धरातल और उपयुक्त मौके की तलाश में थे और वह मौका उन्हें जल्द मिल गया.

शिष्यों ने पहले तो इस बात की चर्चा फैला दी कि एक शराबी पति ने अपनी पत्नी पर लांछन लगा कर उसे घर से निकाल दिया है. बेचारी अनाथ, बेसहारा लड़की अब महाराज की शरण में आ गई है. इस के अलावा वह गर्भवती भी है वरना तो उसे नारी निकेतन भेज देते.

पूर्वनियोजित ढंग से शिष्यों ने एक सभा के दौरान महाराज से पूछा कि अब इस स्त्री का भविष्य क्या है?

‘‘इस शरण में आई अबला का आप लोगों में से कोई हाथ थाम ले तो मैं समझूंगा कि मेरा कार्य सार्थक हो गया,’’ महाराज ने बेबस हो कर याचना की.

‘‘ऐसी स्त्री का कौन हाथ पकडे़गा. यदि यह गर्भवती न होती तो शायद कोई सोचता भी.’’

‘‘फिर मैं समझूंगा कि मेरी वाणी और विचारों का आप लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. हमें पुरानी रूढि़यां तोड़ कर नए समाज का निर्माण तो करना ही है और हम वचनबद्ध भी हैं.’’

‘‘कहना बहुत सरल है, महाराज, पर कौन देगा ऐसी स्त्री को सहारा? क्या आप दे सकेंगे? भीड़ में से एक स्वर तेजी से उभरा.

सभा में खामोशी छा गई. कई सौ निगाहें उस व्यक्ति पर जा टिकीं.

उस ने फिर अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘कहिए महाराज, आप चुप क्यों हैं?’’

‘‘हां, मैं इसे अपनाने के लिए तैयार हूं,’’ कह कर महाराज ने सब को हैरानी में डाल दिया.

चारों तरफ महाराज की जयजयकार होने लगी. महाराज ने देखा, सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा उन्होंने चाहा था.

सावित्री को जब इस बात का पता चला तो वह बेहद नाराज हुई. घर में तनाव का वातावरण पैदा हो गया. पर महाराज ने इस ओर ध्यान न दे कर उस स्त्री को दूसरे आश्रम में स्थान दे दिया. सावित्री की नाराजगी को दूर करने के लिए महाराज ने एक दिन विशाल सभा में उस के त्याग और प्रेम की बेहद प्रशंसा की और बोले कि यदि सावित्री का साथ न होता तो शायद मैं कभी इस स्थान पर न पहुंचता. और उस दिन के बाद सावित्री को ‘गुरु मां’ का दरजा मिल गया.

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समय चक्र तेजी से घूमने लगा. उधर गुरु मां स्थानस्थान पर सभाओं और समारोहों का उद्घाटन करने में व्यस्त रहने लगीं, इधर महाराजजी अपनी नई दुलहन सुनीता के साथ अति व्यस्त रहने लगे. एक दिन उन्हें यह जान कर बेहद खुशी हुई कि पत्नी सुनीता का पांव भारी है.

महाराजजी खुद सुनीता को ले कर एक प्राइवेट नर्सिंग होम में गए. डाक्टर साहब उन के शिष्य थे इसलिए व्यक्तिगत रूप से उस का चेकअप करने लगे. बात जब अल्ट्रासाउंड की आई तो डाक्टर साहब ने उन्हें डेढ़ माह बाद आने को कहा.

डेढ़ माह महाराजजी के लिए जैसे डेढ़ युग के बराबर गुजरा. निर्धारित दिन को महाराज अपनी लंबी विदेशी गाड़ी में खुद सुनीता को ले कर उसी डाक्टर के पास पहुंचे. अल्ट्रासाउंड के बाद महाराज और डाक्टर साहब दूसरे कमरे में चले गए. सुनीता बाहर बैठी थी, तभी उस का ध्यान अचानक अपनी चेन और कंगनों पर गया जो उस ने मशीन के पास उतारे थे. वह तेजी से भीतर गई तो उन दोनों की बातें सुन कर क्षण भर के लिए वहां रुक गई.

‘‘महाराज, यह बात तो आप भी जानते हैं कि लिंगभेद बताना गलत है फिर भी आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो बता दूं कि आप के घर लक्ष्मी का प्रवेश हो रहा है.’’

‘‘ओह,’’ कहते हुए महाराज निढाल हो गए.

‘‘क्या हुआ, महाराज? सब ठीक तो है न,’’ डाक्टर साहब ने तुरंत खडे़ हो कर पूछा, ‘‘आप तो अंतर्यामी हैं. आप की भी यही कामना रही होगी.’’

‘‘अब क्या बताऊं आप को,’’ महाराज बेहद उदास स्वर में बोले, ‘‘मेरी पहले से ही 3 बेटियां हैं.’’

‘‘परंतु महाराज, आप तो लोगों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं. कितने ही भक्तों ने आप के आशीर्वाद से पुत्र प्राप्त किए हैं और आप अपने लिए कुछ न कर पाए, यह मैं नहीं मानता,’’ डाक्टर ने अपनी शंका सामने रखी.

‘‘डाक्टर, यह तो आप भी जानते हैं कि मंत्रों, टोनेटोटकों से कुछ नहीं होता. इन से ही यदि पुत्र प्राप्त होते तो आज मेरे घर बेटियां न होतीं. मैं तो बस, विश्वास बनाए रखता हूं. कोई मनोरथ सिद्ध हो जाता है तो श्रेय मुझ को जाता है अन्यथा कर्मों का वास्ता दे कर मैं चुप हो जाता हूं.’’

डाक्टर साहब बड़ी हैरानी से यह सब बातें सुनते रहे. उन्हें महाराज का यह बदला हुआ रूप बड़ा अजीब लगा.

‘‘डाक्टर, इस कन्या के आने से मेरे घर में काफी रोष उत्पन्न हो जाएगा. आप इस का तत्काल अबार्शन कर दीजिए, नहीं तो भक्तों का मुझ पर से विश्वास ही उठ जाएगा.’’

‘‘यह क्या कह रहे हैं आप, महाराज. इस स्त्री का यह पहला बच्चा है और हम पहले बच्चे का गर्भपात नहीं करते. मैं तो कहूंगा कि…’’

‘‘आप अपनी राय अपने पास ही रखिए,’’ महाराज तिलमिला उठे, ‘‘मेरे पास तुम जैसे शिष्यों की कमी नहीं है. यह काम तो मैं कहीं भी करा लूंगा.’’

-क्रमश:

रात्रिभोज

विधानसभा चुनावों के दौरान राजा बाबू ने दद्दा साहब को ऐसा करारा झटका दिया कि वह राजनीति की बिसात पर एक पिटा मोहरा बन कर रह गए.

‘‘दद्दा साहब, एक बुरी खबर है,’’ भूषण ने हांफते हए जनतांत्रिक दल के प्रदेश अध्यक्ष राजनारायण उर्फ दद्दा साहब के कक्ष में प्रवेश किया.

‘‘क्या हुआ?’’ दद्दा साहब ने फाइल से सिर ऊपर उठाते हुए पूछा था.

‘‘कासिमाबाद में रामाधार बाबू की जमानत जब्त हो गई है और राजा बाबू भारी बहुमत से जीत गए हैं,’’ भूषण ने अपनी बात पूरी की थी.

‘‘तो क्या हो गया? चुनाव में हारजीत तो लगी ही रहती है. वैसे भी रामाधार को टिकट देना दल का दायित्व था तो उन का और उन के समर्थकों का दायित्व था चुनाव जीतना.’’

‘‘लेकिन दद्दा, कौशल बाबू अपने दामाद की हार का सारा दोष हम लोगों के सिर मढ़ देंगे. जबकि मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि जनतांत्रिक दल के कार्यकर्ताओं ने इस चुनाव के दौरान कासिमाबाद में अपनी पूरी शक्ति झोंक दी थी.’’

‘‘राजनीति में यह उठापटक तो चलती ही रहती है. यह सब भूल कर आगे की सोचो. इस बार विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना न के बराबर है. शीघ्र ही सरकार बनाने की जोड़तोड़ शुरू हो जाएगी इसलिए उधर ध्यान दो,’’ दद्दा ने भूषण के उत्साह पर शीतल जल छिड़क दिया था.

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भूषण तो चला गया पर दद्दा को आंदोलित कर गया. उन्हीं का चेला उन्हें ऐसी पटखनी देगा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था. इसी के साथ कुछ दिन पहले की घटनाएं उन के दिमाग में किसी चलचित्र की तरह आकार ग्रहण करने लगी थीं :

भूषण और राजन के साथ टिकट बंटवारे को ले कर विचारविमर्श में दद्दा व्यस्त थे कि राजा बाबू के मुख से अपने नाम का संबोधन सुन कर वह चिहुंके थे और सिर को ऊपर उठा कर देखा था.

‘क्या है, राजा? देख नहीं सकते क्या कि मैं इस समय कितना व्यस्त हूं?’

‘दद्दा साहब, 8 घंटे हो गए, आप के कपाटों को अपलक निहारते हुए पर आप का सचिव नीनू मिलने ही नहीं दे रहा था,’ राजा बाबू ने अनुनय की थी.

‘राजा, नीनू बेचारा तो मेरे ही आदेश का पालन कर रहा है. चुनाव सिर पर हैं इसलिए व्यस्तता की चरम सीमा है. खानेपीने तक को समय नहीं मिलता. कुछ देर और प्रतीक्षा करो तुम्हारी बारी भी आएगी,’ फिर कुछ सोच कर बोले, ‘चलो जाने दो. भूषण और राजन तुम दोनों थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाओ. पहले राजा को निबटा देता हूं. दूसरे विषयों पर

बाद में विचारविमर्श करेंगे. आ राजा. बैठ, बोल, क्या बात है?’

‘क्या बोलूं दद्दा, मेरे बोलने को बचा ही क्या है. पिछले 15 वर्षों से जनतांत्रिक दल में हूं पर खुद को इतना अपमानित कभी अनुभव नहीं किया.’

‘ऐसा क्या हो गया राजा?’ दद्दा ने अनजान बनने का नाटक किया था.

‘आप तो सब जानते हैं. मैं अपने लिए कुछ नहीं मांग रहा पर कासिमाबाद में 90 प्रतिशत से अधिक मेरे समर्थक हैं. उन्हें जब से मुझे टिकट न देने के दल के फैसले के बारे में पता चला है, वे निराश और उद्वेलित हो गए हैं. न जाने कितने घरों में कल से चूल्हा नहीं जला है. मेरे समर्थक तो खुद आप के पास धरना देने आने वाले थे पर मैं ने उन्हें समझाबुझा कर शांत किया और कहा कि मैं स्वयं आप से बात करूंगा.’

‘देख राजा, अपने अनुयायियों पर नियंत्रण रखना तेरा काम है. कासिमाबाद का टिकट रामाधार बाबू को दे दिया गया है. उस में अब कोई फेरबदल नहीं हो सकता. उस क्षेत्र में दल की जीत का भार तेरे ही कंधों पर है…’

‘रामाधार, कौशल बाबू जैसे कद्दावर नेता के दामाद हैं. कौशल बाबू का दल के लिए त्याग और समर्पण कौन नहीं जानता.’

‘दद्दा, मुझे टिकट नहीं मिला तो कासिमाबाद में दल के लिए समस्या हो सकती है.’

‘दद्दा को धमकी देता है क्या रे? आयु क्या है रे तेरी?’

‘जी, 35 वर्ष.’

‘तू 35 का है और मैं 40 सालों से राजनीति कर रहा हूं. मैं ने कभी तेरी आयु में विधायक या सांसद बनने के स्वप्न नहीं देखे पर आजकल के छोकरे दल के सदस्य बनते ही मंत्री बनना चाहते हैं. अच्छे कार्यकर्ता के नाते तुरंत रामाधार के चुनाव अभियान की तैयारी शुरू कर,’ दद्दा साहब ने आदेश दे दिया था.

पर उत्तर में राजा बाबू अपने स्थान से हिले तक नहीं थे. उन की आंखों से टपाटप आंसू झरने लगे थे. देर तक उन के हिलते कंधों और थरथराती सिसकियों के स्वर से तो दद्दा साहब भी एक क्षण को सहम गए थे, ‘यह क्या बचपना है राजा, धीरज धर धीरज. मैं हूं ना तेरे हितों की रक्षा करने को. सब्र का फल सदा मीठा होता है. अपने समय की प्रतीक्षा कर…अरे, ओ रघु,’ उन्होंने सेवक को पुकारा था.

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‘जी सरकार,’ रघु दौड़ा आया था.

‘पानी ले कर आ और फिर 2 प्याले गरम चाय ले आ.’

रघु आननफानन में पानी ले आया था. दद्दा ने बड़े प्यार से अपने हाथों से राजा को पानी पिलाया और देर तक उस की पीठ पर हाथ फेरते रहे थे.

अब तक रघु चाय रख गया था.

‘देख बेटा, राजनीति में बडे़बड़े समझौते करने पड़ते हैं. दल को जोड़े रखने के लिए कुछ अप्रिय फैसले भी लिए जाते हैं. पर दिल वाला वह है जो इन संकटों का हंसते हुए सामना करे,’  दद्दा साहब अपने उपदेशों का सिलसिला आगे बढ़ाते उस से पहले ही एक ही घूंट में चाय का कप खाली कर राजा बाबू बाहर निकल गए थे.

उधर राजा बाबू के समर्थक कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे. उन्होंने दोटूक निर्णय सुना दिया था कि वे राजा बाबू के  अलावा किसी दूसरे को अपना प्रतिनिधि नहीं चुनेंगे.

कई दिनों तक धरनोंप्रदर्शनों का सिलसिला चलता रहा, पर उच्च कमान को न पसीजना था न पसीजी. नाराज दद्दा साहब ने राजा बाबू को बुलावा भेजा था. राजा बाबू जब दद्दा से मिलने पहुंचे तो वह क्रोध की प्रतिमूर्ति बने बैठे थे.

‘क्यों रे राजा, बहुत बड़ा नेता बन गया है क्या?’ वह छूटते ही बोले थे.

‘कैसी बातें कर रहे हैं दद्दा साहब, आप की बात को टालने का साहस मैं तो क्या, दल के बड़े दिग्गज भी नहीं कर सकते.’

‘तो इन धरनों प्रदर्शनों का क्या मतलब है?’

‘वह मेरी नहीं मेरे समर्थकों की गलती है. मैं ने उन्हें लाख समझाया पर वे लोग कुछ सोचनेसमझने को तैयार ही नहीं हैं.’

‘ठीक है, तो इस बार उन्हें अच्छी तरह से समझा देना कि मुझे ऐसी अनुशासनहीनता से निबटना भली प्रकार आता है,’ दद्दा ने धमकी दी थी.

‘दद्दा, आप भी मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं. आप ने ही मुझे टिकट दिलवाने का आश्वासन दिया था. अब टिकट न मिलने से समर्थकों में गहरी निराशा है दद्दा.’

‘बात को समझा कर राजा, कौशल बाबू को नाराज नहीं किया जा सकता. इस बार तू ने रामाधार बाबू को चुनाव जितवा दिया तो दल तुझे सदा याद रखेगा. तुझे तेरी सेवाओं के  बदले पुरस्कृत भी किया जाएगा. अब निर्णय तुझे ही लेना है.’

‘जी दद्दा,’ राजा बाबू बोले थे.

‘क्या जी जी लगा रखा है. बंद करो ये धरनेप्रदर्शन और कमर कस कर मैदान में कूद पड़ो,’ दद्दा साहब ने मानो निर्णय सुनाया था.

लेकिन दूसरे दिन जब राजा बाबू ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने की घोषणा की थी तो दद्दा तिलमिला कर रह गए थे. घंटों अपने कमरे के  बाहर राजा को प्रतीक्षा करवाने वाले दद्दा साहब ने राजा बाबू को बारबार निमंत्रण भेजा था पर वह नहीं आए थे.

राजा बाबू की चुनौती को स्वीकार कर कौशल बाबू ने अपने दामाद रामाधार के साथ चुनाव क्षेत्र में ही डेरा डाल दिया था. दल की मशीनरी का साथ होने पर भी रामाधार की जमानत जब्त हो गई थी. राजा बाबू को पहले ही जनतांत्रिक दल से निष्कासित कर दिया गया था.

जब ढोलनगाड़ों की थाप पर राजा बाबू का विजय रथ जनतांत्रिक दल के कार्यालय के सामने से निकला था, दल के नेतागण मन मसोस कर रह गए थे.

सरकार बनाने की कोशिश शुरू होते ही स्वतंत्र विधायकों की बन आई थी. दोनों पक्षों में कांटे की टक्कर थी, अत: हर पक्ष उन्हें अधिक से अधिक प्रलोभन देना चाहता था.

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दद्दा साहब राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी थे. कब कैसे पैंतरा बदला जाए वह भली प्रकार जानते थे. दल के  दिग्गजों ने जब सातों स्वतंत्र विधायकों को रात्रिभोज के लिए बुलाया तो उन सभी ने राजा बाबू को अपना नेता घोषित कर दिया था.

बातचीत का दौर प्रारंभ हुआ तो सातों को तरहतरह के प्रलोभन दिए जाने लगे.

‘‘आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूं,’’ स्वतंत्र गुट की ओर से राजा बाबू बोले थे.

‘‘हां, बोलो बेटा, हमें भी तो पता चले कि आप लोग चाहते क्या हैं,’’ दद्दा साहब बोले थे.

‘‘अवश्य बताएंगे पर पहले भोजन कर लीजिए. इतना अच्छा भोजन सामने है, ऐसे में रंग में भंग डालने का हमारा कोई इरादा नहीं है,’’ स्वतंत्र विधायकों में से एक बंसी बाबू बोले थे.

हासपरिहास के बीच रात्रिभोज समाप्त हुआ था. स्वादिष्ठ आइसक्रीम के साथ सभी सोफों पर जा विराजे थे.

‘‘चलिए, अब काम की बात कर ली जाए,’’ कौशल बाबू और दद्दा समवेत स्वर में बोले थे, ‘‘क्या मांग है आप की?’’

‘‘हमारी तो एक ही मांग है. मुझे मुख्यमंत्री बनाया जाए और मेरे अन्य मित्रों को मंत्रिमंडल में स्थान मिले,’’ राजा बाबू गंभीर स्वर में बोले थे.

‘‘क्या?’’ जनतांत्रिक दल के दिग्गज नेताओं को मानो सांप सूंघ गया था.

‘‘तुम जानते हो न राजा बेटे कि तुम क्या कह रहे हो?’’ अंतत: मौन दद्दा साहब ने तोड़ा था.

‘‘जी हां, भली प्रकार से जानता हूं.’’

‘‘देखो राजा, दल में अनेक वयोवृद्ध नेताओं को छोड़ कर तुम्हें मुख्यमंत्री बनाएंगे तो दल में असंतोष फैल जाएगा. वैसे भी यह क्या कोई आयु है मुख्यमंत्री बनने की? इस गरिमापूर्ण पद पर तो कोई गरिमापूर्ण व्यक्तित्व ही शोभा देता है,’’ कौशल बाबू ने अपनी ओर से प्रयत्न किया था.

‘‘मैं ने आप को अपनी शर्तों के बारे में सूचित कर दिया है. अब गेंद आप के पाले में है. जैसे चाहें खेल को संचालित करें,’’ बंसी बाबू बोले थे.

‘‘राजा, कुछ देर के लिए मैं तुम से एकांत में विचारविमर्श करना चाहता हूं,’’ दद्दा साहब ने राजा बाबू को साथ के कक्ष में बुलाया था.

‘‘आप को जो कहना है हम सब के सामने कहिए. हम सब एक हैं. कहीं कोई दुरावछिपाव नहीं है,’’ बंसी बाबू ने राजा को रोकते हुए कहा था.

‘‘ठीक है, हम आपस में विचारविमर्श कर के आते हैं. फिर आप को सूचित करेंगे,’’ कहते हुए दद्दा साहब, कौशल बाबू और जनतांत्रिक दल के अन्य दिग्गज नेता उठ कर साथ के कमरे में चले गए थे.

‘‘समझता क्या है अपनेआप को? कल तक तो दरी बिछाने और लोगों को पानी पिलाने का काम करता था, आज मुख्यमंत्री बनने का स्वप्न देखने लगा है?’’ कौशल बाबू बहुत क्रोध में थे.

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‘‘मत भूलिए कि सत्ता की चाबी अब उन के हाथ में है,’’ दद्दा साहब ने समझाया था.

‘‘इस का अर्थ यह तो नहीं है कि सारा राज्य इन नौसिखियों के हवाले कर दें.’’

‘‘सोचसमझ कर निर्णय लीजिए. नहीं तो गणतांत्रिक दल वाले तैयार बैठे हैं इन्हें लपकने को,’’ अंबरीष बाबू बोले थे.

‘‘निर्णय लेने को अब बचा ही क्या है? या तो उन की शर्तें माननी हैं या नहीं माननी हैं,’’ कौशल बाबू झुंझला गए थे.

बहुत बेमन से सभी दिग्गज नेता एकमत हुए थे. शायद वे समझ गए थे कि सत्ता में बने रहने का यही एकमात्र तरीका था.

दूसरे दिन जब एक साझी प्रेस कानफें्रस में जनतांत्रिक दल के स्वतंत्र विधायकों से गठबंधन की घोषणा की गई और राजा बाबू के नाम की घोषणा भावी मुख्यमंत्री के रूप में हुई तो सभी आश्चर्यचकित रह गए.

राजा बाबू ने कैमरों की फ्लैश- लाइटों के बीच दद्दा साहब के पैर छू कर आशीर्वाद लिया तो दद्दा साहब ने उन्हें गले से लगा लिया. वह समझ गए थे कि परिवर्तन की आंधी को रोकना अब उन के वश में नहीं था.    द्य

एक नई पहल- भाग 2

लेखक- नीलमणि शर्मा

पूर्व कथा

एक दिन शाम को मेघा, मालिनी को पार्क में बैठे 2 वृद्ध अजनबियों को दिखा कर उन के रिश्ते का मजाक उड़ाती है. मालिनी के समझाने पर मेघा नाराज हो कर चली जाती है. तभी उसे बचपन की एक घटना याद आ जाती है.

मालिनी की सहेली रेणु बताती है कि गुड्डन की दादी और आरती के दादाजी के बीच कुछ चक्कर है. अत: वृद्धों के परिवार वाले उन को बुराभला कहते हैं. इस बदनामी को आरती के दादाजी सहन नहीं कर पाते और आत्महत्या कर लेते हैं.

डोरबेल की आवाज सुन कर मालिनी अतीत की यादों से बाहर निकलती है. अगले दिन बेटी के कोचिंग क्लास जाते ही वह पार्क में उस जगह पर जाती है जहां दोनों वृद्ध बैठते थे. पहली ही मुलाकात में वृद्धा यानी मिसेज सुमेधा बताती हैं कि वह रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं. हालांकि बेटेबहू उस का बहुत खयाल रखते हैं, लेकिन कामकाजी होने के कारण ज्यादा व्यस्त रहते हैं. बेटी की शादी हो चुकी है और उन्हें मेरी सोशल सर्विस पसंद नहीं है. बातों ही बातों में मालिनी उन के पति के बारे में पूछती है तो वह बताती हैं कि पति को मरे 20 साल हो गए हैं जिन्हें तुम मेरे साथ बैठे देखती हो वह तो शर्माजी हैं.

फिर वह शर्माजी के बारे में बताती हैं कि उन की पत्नी का देहांत हो गया है वह भी अकेले हैं. नौकरीपेशा होने के कारण बेटेबहू समय नहीं दे पाते. इसीलिए खाली समय व्यतीत करने के लिए पार्क में आते हैं. जैसे बच्चों को बच्चों का साथ अच्छा लगता है वैसे ही बुजुर्गों को बुजुर्गों की संगति अच्छी लगती है.

मालिनी और मिसेज सुमेधा बातों में व्यस्त रहती हैं तभी सामने से शर्माजी आ जाते हैं सुमेधा आंटी और अब आगे…

अंतिम भाग

गतांक से आगे…

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‘‘इन से मिलिए. ये हैं, मिसेज मालिनी अग्रवाल, यहीं सामने के फ्लैट में रहती हैं और बेटा, ये हैं मि. शर्मा…रिटायर्ड अंडर सेके्रटरी.’’

हम दोनों में नमस्ते का आदानप्रदान हुआ और मैं वहां से चल दी.

उसी शाम मुझे अपने ससुर की बीमारी का पता चला और मैं लखनऊ चली गई. पूरे 7 दिन वहां लग गए. वापस आई तो थकान के कारण मेरा पार्क में जाने का मन नहीं हुआ सो मैं बालकनी में ही खड़ी हो गई. देखा, आज बैंच पर सुमेधा आंटी नहीं हैं. और शर्माजी को पार्क के गेट के बाहर जाते देखा. इस का मतलब आज आंटी आई ही नहीं…एक अनजाना सा भय मन में आया और मैं भाग कर नीचे उतर आई और सड़क तक पहुंच चुके शर्माजी को आवाज दे दी.

शर्माजी से पता चला कि आंटी की तबीयत ठीक नहीं है.

‘‘अंकल, उन के घर का पता…फोन नंबर…कुछ है आप के पास?’’

‘‘हां, बेटा है तो लेकिन…चलो, तुम तो फोन कर ही सकती हो. बात कर के मुझे भी बताना.’’

मैं ने फोन कर के सुमेधा आंटी से मिलने की इच्छा जाहिर की. अगली सुबह घर के कामों से फ्री हो कर मैं उन का पता ढूंढ़ते हुए उन के घर पहुंच गई. आंटी का घर बहुत ही खूबसूरती से सजा हुआ था. अभी मैं उन का हालचाल पूछ ही रही थी कि अंदर से एक महिला निकली.

‘‘जूही, इन से मिलो, यह मालिनी अग्रवाल हैं और बेटा, ये मेरी बहू जूही है.’’

जूही ने मुसकरा कर ‘हैलो’ कहा और मेरे लिए चायनाश्ता रख कर चलने लगी तो बोली, ‘‘अच्छा ममा, चलती हूं, 3 बजे मीटिंग है, उस की तैयारी करनी है. रात के लिए मैं ने मीना को बोल दिया है. आप को जो खाना हो बनवा लीजिएगा. प्लीज ममा, रेस्ट ही कीजिएगा,’’ और मुझे अभिवादन कर के वह चल दी.

जितनी देर मैं वहां बैठी, आंटी उतनी देर शर्मा अंकल के बारे में ही पूछती रहीं कि वे कैसे हैं…उन्हें कह देना मेरी चिंता न करें…मैं ठीक हो जाऊंगी. फिर अंत में हिचकते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, मेरी ओर से तुम शर्माजी से सौरी बोल देना.’’

मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से आंटी की ओर देखा तो बोलीं, ‘‘3-4 दिन से रोज शर्माजी का फोन मेरा हालचाल जानने के लिए आ रहा था, लेकिन कल जूही ने कुछ तीखातीखा सुना दिया…असल में जूही नहीं चाहती कि मैं पार्क में जाऊं. उसे डर है कि थकान से मेरी तबीयत बिगड़ जाएगी और उधर शर्माजी इतने दिनों से अकेले…उन से कहना कि अब बुखार नहीं है, कमजोरी दूर होते ही मैं पार्क आऊंगी.’’

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‘‘आंटी, शर्मा अंक को यहीं ले आऊं क्या?’’

‘‘क्या तुम ला सकोगी? अच्छा है, मैं बिस्तर में पडे़पडे़ ऊब गई हूं,’’ आंटी की आंखों में आई चमक मुझ से छिपी न रह सकी. यही चमक मैं ने शाम को शर्माजी की आंखों में महसूस की, जब मैं ने उन्हें अगले दिन आंटी के घर चलने के लिए कहा.

अब सुमेधा आंटी ने दोबारा पार्क में आना शुरू कर दिया था. एक शाम जब आंटी पार्क में बैठी थीं, मैं ने उन के घर फोन किया. इरादा था कि नौकरानी से जूही के आफिस का फोन नंबर या उस का मोबाइल नंबर ले लूंगी, कुछ खास बात करनी थी.

जूही देखने में जितनी आकर्षक थी, फोन पर उस की आवाज भी उतनी ही लुभाने वाली लगी. जब मैं ने उसे अपनी उस दिन वाली मुलाकात याद दिलाई और उस से मिलने के लिए वक्त मांगा तो वह हैरान अवश्य हुई लेकिन फौरन ही मुझे अगले दिन लंच टाइम में अपने आफिस आने को कह दिया.

‘‘जूहीजी, आप मुझे सिर्फ एक मुलाकात भर जानती हैं लेकिन मैं ने आप के बारे में आप की सास से काफी तारीफ सुनी है. सच कहूं, जितना मैं ने सोचा था, आप को उस से बढ़ कर पाया है…नहीं…नहीं…यह मैं आप के सामने होने के कारण नहीं कह रही हूं. मैं ने ऐसा महसूस किया है इसीलिए मैं आज आप से कुछ कहने की हिम्मत जुटा पाई हूं.’’

जूही की हलकी सी मुसकान ने मेरे हौसले को हवा दे दी और मैं ने धीरेधीरे सुमेधा आंटी और शर्माजी की दोस्ती के बारे में उसे विस्तार से बता दिया. साथ ही मैं ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि आज तक सुमेधा आंटी और शर्माजी से मैं ने व्यक्तिगत तौर पर इस बारे में कोई चर्चा नहीं की है, यह सबकुछ मैं ने स्वयं महसूस किया है.

मैं ने नोट किया कि जूही बहुत गंभीरता से मेरी बातों को सुन रही है. बात को आगे बढ़ाते हुए मैं ने कहा, ‘‘देखिए, जूहीजी, आप भी औरत हैं और मैं भी, सोच कर देखिए…सुमेधाजी के मन का खालीपन…आप उन्हें सबकुछ दे रही हैं, जो एक बहू होने के नाते दे सकती हैं…शायद उस से भी ज्यादा लेकिन आज उन के मन ने एक बार फिर वसंत पाने की कामना की है. क्या आप दे सकती हैं?’’

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कुछ पल हम दोनों के बीच ऐसे ही मौन में बीत गए. फिर जूही ने ही बात शुरू की, ‘‘ममा, जानती हैं कि आप यहां…’’

‘‘जी नहीं,’’ मैं ने बीच में बात काट कर कहा, ‘‘इस बारे में कभी भी आंटी के साथ मेरी कोई बात नहीं हुई.’’

‘‘मालिनीजी, एक बात मैं आप से और पूछना चाहती हूं,’’ जूही ने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘आप ने यह बात मुझ से क्यों की, अजय से, मेरा मतलब मेरे हसबैंड से क्यों नहीं की…आफ्टरआल, वह बेटे हैं उन के.’’

‘‘जूहीजी, आप तो जानती हैं, बच्चों के लिए मां क्या होती है, वह भी बेटे के लिए…वह उसे देवी का दर्जा देते हैं…अपनी मां के बारे में इस विषय पर बात करना कोई भी बेटा कभी गवारा नहीं करता. मां की ‘पर पुरुष से दोस्ती’ बेटे के लिए डंक होती है. बहुत ही कठिन होता है उन्हें यह समझाना.

‘‘आप चूंकि उन की पत्नी हैं, आप समझ जाएंगी तो केवल आप ही हैं जो अपने पति को अपने तरीके से समझा पाएंगी. मैं ठहरी बाहर की, मेरा इतना हक नहीं है…आप मेरी हमउम्र हैं, और जैसा मैं ने आंटी से जाना कि खुली विचारधारा की हैं और फिर इस सब के ऊपर आप उन की बहू हैं.’’

‘‘लेकिन शर्माजी अपनी पहली पत्नी को भूल तो नहीं पाए होंगे. ऐसी हालत में मम्मीजी को वह सबकुछ मिल पाएगा?’’

‘‘जूहीजी, आप की इस बात से मुझे आंतरिक खुशी हो रही है कि आप अपनी सास के लिए कितनी चिंतित हैं लेकिन आप भूल रही हैं कि आंटी भी तो अभी तक अपने पति को नहीं भूली हैं. ये भूलने वाली बातें होती भी नहीं हैं…जब तक सांस है, यही यादें तो अपनी होती हैं. ये यादें 2 युवाओं के बीच तो दरार पैदा कर सकती हैं परंतु बुजुर्ग लोग तो अपनीअपनी यादों को भी एकदूसरे से बांट कर ही सुख का अनुभव कर लेते हैं.’’

‘‘लेकिन  शर्माजी के घर वाले…’’ जूही अपने सारे संशय मुझ से बांट रही थी जो सुमेधाजी से उस की आत्मीयता को उजागर कर रहे थे.

अब तक मैं जूही के साथ एक दोस्त की तरह काफी खुल चुकी थी, ‘‘जो काम बच्चों के लिए मांबाप करते हैं, वही काम बच्चों को आज उन के लिए करना होगा, यानी आप पहले अपने पति को मनाएं फिर रिश्ता ले कर शर्माजी के बेटेबहुओं से मिलें…हो सकता है पहली बार में वे लोग मान जाएं…हो सकता है न भी मानें. स्वाभाविक है उन्हें शाक तो लगेगा ही…आप को कोशिश करनी होगी…आखिर आप की ‘ममा’ की खुशियों का सवाल है.’’

एक सप्ताह तक मैं जूही के फोन का इंतजार करती रही. धीरेधीरे इंतजार करना छोड़ दिया. मैं ने पार्क जाना भी छोड़ दिया…पता नहीं सुमेधा आंटी या अंकल का क्या रिएक्शन हो. शायद बात नहीं बनी होगी. पार्क में सैर करने जाने का उद्देश्य ही दम तोड़ चुका था. मन में एक टीस सी थी जिस का इलाज मेरे पास नहीं था. अपनी तरफ से जो मैं कर सकती थी किया, अब इस से ज्यादा मेरे हाथ में नहीं था.

एक दोपहर, बेटी के स्कूल से आने का समय हो रहा था. टेलीविजन देख कर समय पास कर रही थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘क्या मालिनीजी से बात हो सकती है?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘जी, बोल रही हूं,’’ मैं ने दिमाग पर जोर डालते हुए आवाज पहचानने की कोशिश की पर नाकाम रही, ‘‘आप कौन?’’ आखिर मुझे पूछना ही पड़ा.

‘‘देखिए, मैं सुमेधाजी का बेटा अजय बोल रहा हूं. आप मेरी पत्नी से क्याक्या कह कर गई थीं…मैं और मेरी ममा आप से एक बार मिलना चाहते हैं…क्या आप शाम को हमारे घर आ सकेंगी?’’

अजय की तल्खी भरी आवाज सुन कर एक बार को मैं सकपका गई, फिर जैसेतैसे हिम्मत कर के कहा, ‘‘देखिए, यह आप के घर का मसला है…’’

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बीच में ही बात काट कर वह बोला, ‘‘जब जूही से आप बात करने आई थीं तब आप को नहीं पता था कि यह हमारे घर का मसला है. खैर, आप यह बताइए कि आप आएंगी या मैं जूही और ममा के साथ आप के घर आ जाऊं? पार्क के सामने वाले फ्लैट में आप का नाम ले कर पूछ लेंगे…तो घर का पता चल ही जाएगा.’’

मैं ने सोचा अगर कहीं ये लोग सचमुच घर आ गए तो बेवजह का यहां तमाशा बन जाएगा. मेरे पति मुझे दस बातें सुनाएंगे. उन से तो मुझे इस मामले में किसी सहयोग की उम्मीद नहीं थी. अब क्या करूं.

‘‘अच्छा, ठीक है…मैं आ जाऊंगी…कितने बजे आना है?’’ हार कर मैं ने पूछ ही लिया.

‘‘7 बजे तक आप आ जाइए.’’

मैं ने अपने पति को इस बारे में बताया तो था लेकिन विस्तार से नहीं. शाम 5 बजे मैं ने पति को फोन किया, ‘‘मुझे सुमेधा आंटी के घर जाना है.’’

‘‘अभी खत्म नहीं हुई तुम्हारी सुमेधा आंटी की कहानी,’’ पति बोले, ‘‘खैर, कितने बजे जाना है?’’

‘‘7 बजे, आतेआते थोड़ी देर हो जाएगी.’’

रास्ते भर मेरे दिमाग में उथलपुथल मची हुई थी. मन में तरहतरह के सवाल उठ रहे थे…अगर उन्होंने मुझे ऐसा कहा तो मैं यह कहूंगी…वह कहूंगी पर क्या मैं ने उन लोगों को गलत समझा…क्या वे ऐसा नहीं चाहते थे…नहीं चाहते होंगे तभी आंटी भी मुझ से बात करना चाहती हैं…

दरवाजा जूही ने खोला था. ‘हैलो’ कर के मुझे सोफे पर बैठा कर वह अंदर चली गई.

उस के पति ने बाहर आते ही नमस्ते का जवाब दे कर बैठते ही बिना किसी भूमिका के बात शुरू कर दी, ‘‘दिखने में तो आप ठीकठाक लगती हैं, लेकिन लगता है समाज सेविका बनने का शौक रखती हैं. समाजसेवा के लिए आप को सब से पहले हमारा ही घर मिला था?’’

मैं डर गई. मौन रही, लेकिन फिर पता नहीं कहां से मुझ में बोलने की हिम्मत आ गई, ‘‘मि. अजय, इस में समाजसेवा की बात नहीं है. मुझे जो महसूस हुआ मैं ने वह कहा और मेरे दिल ने जो कहा मैं ने वही किया. जब दो प्यार करने वाले लड़कालड़की को उन के मांबाप एक बंधन में खुशीखुशी बांध देते हैं तो बच्चे अपने मांबाप के प्यार को एक होते क्यों नहीं देख पाते? समाज क्यों इसे असामाजिक मानता है? क्या बड़ी उम्र में प्यार नहीं हो सकता? और हो जाए तो कोई क्या करे? प्यार करना क्या पाप है…नहीं…प्यार किसी भी उम्र में पाप नहीं है…वैसे भी इस उम्र का प्यार तो बिलकुल निश्छल और सात्विक होता है, इस में वासना नहीं, स्नेह होता है…शुद्ध स्नेह…

‘‘इतने अनुभवी 2 लोग दूसरे की भावनाओं को समझते हुए संभोग के लिए नहीं, सहयोग के लिए मिलन की इच्छा रखते हैं. इस में क्या गलत है, अगर हम उन की इच्छाओं को समझते हुए उन के मिलन के साक्षी बनें. बच्चों की हर इच्छा पूरी करना यदि मांबाप का फर्ज है तो क्या बच्चों का कोई फर्ज नहीं है? क्या बच्चे हमेशा स्वार्थी ही रहेंगे…बाकी आप की मां हैं, आप जानें और वह…मुझे तो उन से एक अनजाना सा स्नेह हो गया है, एक अजीब सा रिश्ता बन गया है, उसी के नाते मैं ने उन के दिल की बात समझ ली थी…शायद मैं अपनी हद से आगे बढ़ गई थी…’’

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इतना कह कर मैं वहां से चलने को तत्पर हुई तभी अंदर से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी. सामने कमरे के दरवाजे से 3 दंपती तालियां बजाते हुए ड्राइंगरूम में प्रवेश कर रहे थे. सभी के चेहरे पर हंसी थी. अब तक जूही और अजय भी उन में शामिल हो गए थे. मैं समझ नहीं पाई कि माजरा क्या है. तभी उन के पीछे 3-4 छोटेछोटे हाथों का सहारा ले कर सुमेधा आंटी और शर्मा अंकल चले आ रहे थे.

जूही ने मेरे पास आ कर मेरा सब से परिचय करवाया, ‘‘ये शर्मा अंकल के दोनों बेटेबहुएं और ये मेरी प्यारी सी ननद और उन के पति हैं और वह जो तुम देख रही हो न नन्हे शैतान, जो ‘ममा’ के साथ खडे़ हैं, वे शर्मा अंकल के दोनों पोते और पोती हैं और अंकल के साथ मेरी ननद का बेटा और मेरा बेटा है. बच्चों ने कितनी जल्दी अपने नए दादादादी और नानानानी को स्वीकार कर लिया. ये तो हम बडे़ ही हैं जो हर काम में देर करते हैं.

‘‘मालिनी, आज से मेरी एक नहीं दो ननदें हैं,’’ जूही भावुक हो कर बोली, ‘‘उस दिन तुम्हारी बातों ने मुझ पर गहरा असर डाला, लेकिन सब को तैयार करने में मुझे इतने दिन लग गए. शायद तुम्हारी तरह सच्ची भावना की कमी थी या फिर एक ही मुलाकात में अपनी बात समझा पाने की कला का अभाव…खैर, अंत भला तो सब भला.’’

मैं बहुत खुश थी. तभी जूही मेरे हाथ में 2 अंगूठियां दे कर बोली, ‘‘मालिनी दी, यह शुभ काम आप के ही हाथों अच्छा लगेगा.’’

मैं हतप्रभ सी अंगूठियां हाथ में ले कर अंकलआंटी की ओर बढ़ चली. मैं स्वयं को रोक नहीं पाई. मैं दोनों के गले लग गई…उन दोनों के स्नेहिल हाथ मेरे सिर पर आशीर्वाद दे रहे थे.  द्य

योग की पोल…

लेखक- हिमांशु जोशी

पिछले 3 दिनों से रतन कुमारजी का सुबह की सैर पर हमारे साथ न आना मुझे खल रहा था. हंसमुख रतनजी सैर के उस एक घंटे में हंसाहंसा कर हमारे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार कर देते थे.

क्या बताएं, जनाब, हम दोनों ही मधुमेह से पीडि़त हैं. दोनों एक ही डाक्टर के पास जाते हैं. सही समय से सचेत हो, नियमपूर्वक दवा, संतुलित भोजन और प्रतिदिन सैर पर जाने का ही नतीजा है कि सबकुछ सामान्य चल रहा है यानी हमारा शरीर भी और हम भी.

बहरहाल, जब चौथे दिन भी रतन भाई पार्क में तशरीफ नहीं लाए तो हम उन के घर जा पहुंचे. पूछने पर भाभीजी बोलीं कि छत पर चले जाइए. हमें आशंका हुई कि कहीं रतन भाई ने छत को ही पार्क में परिवर्तित तो नहीं कर दिया. वहां पहुंच कर देखा तो रतनजी  योगाभ्यास कर रहे थे.

बहुत जोरजोर से सांसें ली और छोड़ी जा रही थीं. एक बार तो ऐसा लगा कि रतनजी के प्राण अभी उन की नासिका से निकल कर हमारे बगल में आ दुबक जाएंगे. खैर, साहब, 10 मिनट बाद उन का कार्यक्रम समाप्त हुआ.

रतनजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘आइए, आइए, देखा आप ने स्वस्थ होने का नायाब नुस्खा.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार, यह नएनए टोटके कहां से सीख आए.’’

वह मुझे देख कर अपने गुरु की तरह मुखमुद्रा बना कर बोले, ‘‘तुम तो निरे बेवकूफ ही रहे. अरे, हम 2 वर्षों से उस डाक्टर के कहने पर चल, अपनी शुगर केवल सामान्य रख पा रहे हैं. असली ज्ञान तो अपने ग्रंथों में है. योेग में है. देखना एक ही माह में मैं मधुमेह मुक्त हो जाऊंगा.’’

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मैं ने कहा, ‘‘योगवोग अपनी जगह कुछ हद तक जरूर ठीक होगा पर तुम्हें अपनी संतुलित दिनचर्या तो नहीं छोड़नी चाहिए थी. अरे, सीधीसादी सैर से बढ़ कर भी कोई व्यायाम है भला.’’

उन्होंने मुझे घूर कर देखा और बोले, ‘‘नीचे चलो, सब समझाता हूं.’’

नीचे पहुंचे तो एक झोला लिए वह प्रकट हुए. बड़े प्यार से मुझे समझाते हुए बोले, ‘‘मेरी मौसी के गांव में योगीजी पधारे थे. बहुत बड़ा योग शिविर लगा था. मौसी का बुलावा आया सो मैं भी पहुंच गया. वहां सभी बीमारियों को दूर करने वाले योग सिखाए गए. मैं भी सीख आया. देखो, वहीं से तरहतरह की शुद्ध प्राकृतिक दवा भी खरीद कर लाया हूं.’’

मैं सकपकाया सा कभी रतनजी को और कभी उन डब्बाबंद जड़ीबूटियों के ढेर को देख रहा था. मैं ने कहा, ‘‘अरे भाई, कहां इन चक्करों में पडे़ हो. ये सब केवल कमाई के धंधे हैं.’’

रतनजी तुनक कर बोले, ‘‘ऐसा ही होता है. अच्छी बातों का सब तिरस्कार करते हैं.’’

इस के बाद मैं ने उन्हें ज्यादा समझाना ठीक नहीं समझा और जैसी आप की इच्छा कह कर लौट आया.

एक सप्ताह बाद एक दिन हड़बड़ाई सी श्रीमती रतन का फोन आया, ‘‘भाईसाहब, जल्दी आ जाइए. इन्हें बेहोशी छा रही है.’’

मैं तुरंत डाक्टर ले कर वहां पहुंचा. ग्लूकोज चढ़ाया गया. 2 घंटे बाद हालात सामान्य हुए. डाक्टर साहब बोले, ‘‘आप को पता नहीं था कि मधुमेह में शुगर का सामान्य से कम हो जाना प्राणघातक होता है.’’

डाक्टर के जाते ही रतनजी मुंह बना कर बोले, ‘‘देखा, मैं ने योग से शुगर कम कर ली तो वह डाक्टर कैसे तिलमिला गया. दुकान बंद होने का डर है न. हा…हा हा….’’

मैं ने अपना सिर पकड़ लिया. सोचा यह सच ही है कि हम सभी भारतीय दकियानूसी पट्टियां साथ लिए घूमते हैं. बस, इन्हें आंखों पर चढ़ाने वाला चाहिए. उस के बाद जो चाहे जैसे नचा ले.

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एक माह तक रतनजी की योग साधना जारी रही. हर महीने के अंत में हम दोनों ब्लड टेस्ट कराते थे. इस बार रतनजी बोले, ‘‘अरे, मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं. कोई परीक्षण नहीं कराऊंगा.’’

अब तो परीक्षा का समय था. मैं बोला, ‘‘दादा, अगर तुम्हारी रिपोर्ट सामान्य आई तो कल से मैं भी योग को पूरी तरह से अपना लूंगा.’’

बात बन गई. शुगर की जांच हुई. नतीजा? नतीजा क्या होना था, रतनजी का ब्लड शुगर सामान्य से दोगुना अधिक चल रहा था.

रतनजी ने तुरंत आश्रम संपर्क साधा. कोई संतोषजनक उत्तर न पा कर  वह कार ले कर चल पड़े और 2 घंटे का सफर तय कर आश्रम ही जा पहुंचे.

मैं उस दिन आफिस में बैठा एक कर्मचारी से किसी दूसरे योग शिविर की महिमा सुन रहा था. रतनजी का फोन आया, ‘‘यार, योगीजी अस्वस्थ हैं. स्वास्थ्य लाभ के लिए अमेरिका गए हैं. 3 माह बाद लौटेंगे.’’

मैं ठहाके मार कर हंसा. बस, इतना ही बोला, ‘‘लौट आओ यार, आराम से सोओ, कल सैर पर चलेंगे.’’    द्य

गुरुजी का मटका

 लेखक- डा. सतीश चंद्रा

अखबार में छपे ‘गुरुजी का प्रवचन’ के विज्ञापन को देख कर उस के दिमाग में षड्यंत्र का कीड़ा कुलबुलाने लगा. अशोक ने जब आंखें खोलीं तो सुबह के 7 बजने वाले थे. उस ने एक अंगड़ाई ली और उठ कर बैठ गया और बैठेबैठे ही विचारों में खो गया. वह 10 साल पहले एक सैलानी की तरह गोआ आया था. वह ग्रेजुएट होने के बाद से ही नौकरी की तलाश करतेकरते थक गया था. शाम का समय बिताने के लिए उस ने ला में यह सोच कर दाखिला ले लिया कि नौकरी नहीं मिली तो वकालत शुरू कर लेगा. रोपीट कर उस ने कुछ पेपर पास भी कर लिए थे, लेकिन नौकरी न मिलनी थी न मिली. मांबाप भी कब तक खिलाते.

रोजरोज के तानों से तंग आ कर एक दिन घर से नाराज हो कर अशोक भाग निकला और गोआ पहुंच गया. पर्यटकों को आकर्षित करते गोआ के बीच अशोक को भी अच्छे लगे थे लेकिन वे पेट की आग तो नहीं बुझा सकते थे. नौकरी के लिए अशोक ने हाथपैर मारने शुरू किए तो उस का पढ़ालिखा होना और फर्राटे से अंगरेजी बोलना काम आ गया. उसे एक जगह ड्राइवर की नौकरी मिल गई. इस नौकरी से अशोक को कई फायदे हुए, पहला तो उस का ड्राइविंग का शौक पूरा हो गया तथा सफेद कपड़ों के रूप में रोजाना अच्छी डे्रस मिलती थी. टैक्सी मालिक की कई कारें थीं, जोकि कांट्रेक्ट पर होटलों में लगी रहती थीं. उस का टैक्सी मालिक शरीफ आदमी था. उस को किलोमीटर के हिसाब से आमदनी चाहिए थी. देर रात से मिलने वाले ओवर टाइम का पैसा ड्राइवर को मिलता था.

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अशोक की लगन देख कर कुछ ही दिनों में उस के मालिक ने उसे नई लग्जरी कार दे दी थी जिस का केवल विदेशी सैलानी अथवा बड़ेबड़े पैसे वाले इस्तेमाल करते थे. इस का एक बड़ा फायदा यह हुआ कि अशोक को हमेशा विदेशी अथवा बड़े लोगों के संपर्क में रहने का मौका मिलने लगा. कई विदेशी तो उसे साथ खाना खाने को मजबूर भी कर देते थे, खासकर तब जब वह उन्हें एक बीच से दूसरे बीच घुमाता था. अच्छीखासी टिप भी मिलती थी जो उस की पगार से कई गुना ज्यादा होती थी. धीरेधीरे अशोक ने एक कमरे का मकान भी ले लिया. विदेशी पर्यटकों की संगत का असर यह हुआ कि अब उस को शराब पीने की आदत पड़ गई. चूंकि वह अकेला रहता था इसलिए अन्य टैक्सी ड्राइवर मदन, आनंद आदि भी उस के कमरे में ही शराब पीते थे. कल रात भी अशोक तथा उस के दूसरे टैक्सी ड्राइवर दोस्तों का जमघट काफी समय तक उस के कमरे पर लगा रहा. कारण था पर्यटन सीजन का समाप्त होना. बरसात का मौसम आ गया था. इस मौसम में विदेशी पर्यटक अपने देश चले जाते हैं. हां, स्कूल की छुट्टियां होने से देशी पर्यटक गोआ आते हैं जिन में उन की कोई रुचि नहीं थी. मातापिता से मिलने या अपने शहर जाने का उस का कोई कार्यक्रम नहीं था. इतने में दरवाजे पर घंटी बजी तो अशोक अपने अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आया. दरवाजा खोल कर देखा तो बाहर अखबार वाला खड़ा था जिस का 2 महीने का बिल बाकी था. अशोक ने उस को 1-2 दिन में पैसा देने को कह कर भेज दिया और स्थानीय अखबार ले कर पढ़ने लगा. अखबार पढ़तेपढ़ते उस की इच्छा चाय पीने को हुई. उस ने कमरे में एक कोने में मेज पर रखे गैस चूल्हे पर अपने लिए चाय बनाई तथा चाय और अखबार ले कर बाथरूम में घुस गया.

यद्यपि स्थानीय समाचारों में अशोक की कोई खास रुचि नहीं थी. वह तो महज मोटीमोटी हैडिंग पढ़ता और कुछ चटपटी खबरों के साथ यह जरूर पढ़ता कि गोआ में कहां क्या कार्यक्रम होने वाले हैं और किस ओर के ट्रैफिक को किस ओर मोड़ा जाना है. चाय समाप्त कर के अशोक अखबार फेंक ही रहा था कि उस की निगाह एक बड़े विज्ञापन पर पड़ी. विज्ञापन के अनुसार अगले महीने की 10 तारीख की शाम को मीरामार बीच पर गुरु रामदासजी का प्रवचन होना था. बिना किसी प्रवेश शुल्क के सभी लोग सादर आमंत्रित थे. विज्ञापन से ही उसे पता चला कि गोआ का प्रसिद्ध औद्योगिक घराना ‘खोटके परिवार’ इस कार्यक्रम को आयोजित करा रहा है. अशोक को ध्यान आया कि कल उस के टैक्सी मालिक भी गुरु रामदास के गुणों का बखान कर रहे थे जिस को उन के परिवार के लोग बड़े ध्यान से सुन रहे थे. तभी उस ने जाना था कि गुरुजी बीमारी ठीक करने के उपाय तथा ‘बेटर लिविंग’ की शिक्षा देने में माहिर हैं, देशविदेश में उन का बड़ा नाम है. लाखों उन के अनुयायी हैं. बंगलौर में गुरुजी का बहुत बड़ा आश्रम है. अशोक को गुरु रामदासजी प्रेरणा स्रोत लगे तथा उस ने भी उन के इस कार्यक्रम में जाने का मन बना लिया. अशोक तैयार हो कर टैक्सी मालिक के दफ्तर के लिए निकला तो यह देख कर उसे आश्चर्य हुआ कि शहर में जगहजगह गुरुजी की फोटो के साथ बड़ेबड़े होर्डिंग लगे हैं, पोस्टर लगे हैं. उस ने टैक्सी ली और इस उम्मीद से मेरियट होटल की तरफ चल पड़ा कि पांचसितारा होटल में भूलेभटके कोई सवारी मिल ही जाएगी. वैसे भी होटल मैनेजर का कमीशन बंधा होता है. अत: निश्चित था कि यदि कोई सवारी होगी तो उस को ही मिलेगी. मेरियट होटल मीरामार बीच के साथ ही है. टैक्सी होटल में पार्क कर के अशोक बीच पर चला गया. बारिश रुकी हुई थी. उस को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि कई मजदूर सफाई का काम कर रहे हैं.

पूछने पर पता चला कि गुरुजी के कार्यक्रम की तैयारी चल रही है. होटल पहुंचा तो मैनेजर ने उसे बताया कि 2 सवारी हैं जिन को शहर तथा आसपास के इलाकों को देखने के लिए जाना है. इतने में ही सफेद कपड़ों में 2 व्यक्ति काउंटर पर आ गए. उन के खादी के कपड़ों की सफेदी देखते ही बनती थी. मैनेजर के इशारे पर अशोक गेट पर टैक्सी ले आया. वे दोनों बैठे तो अशोक ने दरवाजा सैल्यूट के साथ बंद किया. अशोक टैक्सी चला रहा था पर उस का ध्यान उन की बातों की ओर लगा था. उन की बातों से उसे पता चला कि वे दोनों गुरुजी के कार्यक्रम को आयोजित करने के बारे में आए हैं. लंबे व्यक्ति का नाम ओमप्रकाश है जिस को सभी ओ.पी. के नाम से जानते हैं. वह गुरुजी का ‘इवंट’ मैनेजर है तथा कार्यक्रमों को आयोजित करने की जिम्मेदारी गुरुजी ने उसे ही स्थायी रूप से दी हुई है. दूसरे व्यक्ति का नाम विजय गोयल था जो चार्टर्ड अकाउंटेंट है और आयोजनों में लागत और खर्चों की जिम्मेदारी वह गुरुजी के निर्देश पर निभा रहा है. दोनों ही गुरुजी के 2 हाथ हैं, विश्वासपात्र हैं. दोनों व्यक्तियों ने शहर में लगे पोस्टर, होर्डिंग आदि का जायजा लिया और आवश्यक निर्देश दिए. समाचारपत्रों में छपे गुरुजी के विज्ञापन को देख कर वे दोनों उन समाचारपत्रों के दफ्तरों में गए और गुरुजी के चमत्कार के किस्से प्रकाशित करने के लिए कहा. इस के बाद वे दोनों ‘खोटके परिवार’ के बंगले पर पहुंचे जहां उन का भरपूर स्वागत हुआ. शाम के समय लान में ही कुरसियां लगी थीं और उस लान के बगल में ही टैक्सी पार्क की गई. जलपान के बाद विजय गोयल ने समाचारपत्रों में प्रकाशित विज्ञापनों के बिल तथा होर्डिंग आदि के खर्चों का ब्योरा दिया जोकि लगभग 5 लाख रुपए का था. खोटके परिवार के मुखिया ने सभी बिल अपने पास खड़े मैनेजर को बिना देखे पेमेंट करने के लिए आवश्यक निर्देश दिए.

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तभी विजय गोयल ने कहा कि सारा भुगतान कैश में होना चाहिए, चेक नहीं और इस पर सभी सहमत थे. अशोक पास में खड़ा उन की बातें सुन रहा था. ‘खोटके परिवार’ का आग्रह था कि गुरुजी उन्हीं के यहां रुकें तथा व्यवस्था उन्हीं के अनुसार हो जाएगी. मीरामार बीच कार्यक्रम में गुरुजी का स्वागत खासतौर से ‘खोटकेजी ही करेंगे और उन की पत्नी औरतों का प्रतिनिधित्व करेंगी. इस समारोह में. ओ.पी. ने बताया कि गुरुजी के साथ कितने लोग होंगे और उन सब की आवश्यकताएं क्याक्या होंगी. इतने में मैनेजर ने एक मोटा लिफाफा विजय गोयल को पकड़ा दिया जो शायद कैश पेमेंट था. 2 घंटे के बाद वे दोनों वापस होटल की ओर चल दिए. अंधेरा हो चला था लेकिन गोआ की नाइट लाइफ अभी शुरू होनी थी. होटल पहुंचने से पहले विजय गोयल ने अपने साथी ओ.पी. से बोला कि मटकों का कार्यक्रम तो बाकी ही रह गया. इस पर ओ.पी. ने टैक्सी ड्राइवर अशोक से पूछा कि क्या यहां आसपास कुम्हार हैं जो मटका बनाते हैं? अशोक ने बताया कि मापसा में कुम्हार रहते हैं जो मिट्टी के बरतन बनाते हैं. और मापसा लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर दूसरा शहर है. ओ.पी. ने विजय से कहा कि यह काम इस ड्राइवर को दे दो. यह 2-3 मटके ले आएगा. ‘‘हमारा काम तो 2 मटकों से ही हो जाएगा,’’ विजय बोला. ‘‘भाई, मैं ने ‘इवेंट मैनेजमेंट’ का कोर्स किया है. तीसरा मटका इमर्जेंसी के लिए रखो,’’ ओ.पी. ने जवाब दिया. विजय गोयल ने अशोक को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, तीनों मटके साधारण होने चाहिए जिन को सफेद रंग से पोता जाएगा और उस पर स्वस्तिक का निशान व ‘श्री गुरुजी नम:’ भी लिखाना होगा. उन मटकों की खासीयत यह होगी कि मुंह बंद होगा और जैसे मिट्टी की गोलक में लंबा सा चीरा होता है वैसे ही मटकों के मुंह पर होगा जिस से उस में रुपयापैसा डाला जा सके.’’ यह सबकुछ समझाने के बाद विजय बोले, ‘‘ओ.पी., मैं तो अब थक गया हूं. कल सुबह की फ्लाइट से बंगलौर वापस भी जाना है.’’ ओ.पी. ने अशोक को 2 हजार रुपए दिए और बोले, ‘‘अशोक, इस बात का खास ध्यान रखना कि मटके आकर्षक ढंग से पेंट होने चाहिए.’’ ‘‘सर, ये रुपए तो बहुत ज्यादा हैं,’’ अशोक बोला. ‘‘कोई बात नहीं, बाकी तुम रख लेना लेकिन याद रहे कि कार्यक्रम 10 तारीख को है और हम 8 तारीख को आएंगे. तब यह मटके तुम से ले लेंगे.

तब तक उन्हें अपने पास ही रखना.’’ रात के 10 बज गए थे. अशोक भी टैक्सी स्टैंड पर छोड़ कर अपने कमरे पर पहुंचा. थकान महसूस हो रही थी साथ ही भूख भी लग रही थी. जेब में 2 हजार रुपए पड़े ही थे इसलिए उस ने मदन को बुला लिया क्योंकि उस का दोस्त आनंद टैक्सी ले कर मुंबई गया था. दोनों एक होटल में गए और खाना मंगा लिया. खाना खाते समय अशोक के दिमाग में एक विचार आया जिस ने एक षड्यंत्र को जन्म दिया. उस ने दोस्तों से कहा कि भाई मदन, मैं ने बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि इन महंतोंगुरुओं के पास जो चंदे का पैसा आता है उस का कोई हिसाबकिताब नहीं रखा जाता और इस में हेराफेरी हो तो ये लोग उस की कहीं शिकायत भी नहीं करते हैं और फिर दोनों आपस में बाबाओं के किस्से सुनासुना कर ठहाके लगाते रहे. रात के 12 बजे मदन अपने घर चला गया और अशोक भी कमरे पर आ कर सो गया. सुबह उस ने अखबार का पूरा पेमेंट कर दिया. इस के बाद तैयार हो कर वह बस पकड़ कर मापसा कुम्हारों की बस्ती में पहुंचा और मुंह बंद लेकिन चीरे के साथ मटकों का आर्डर दे दिया. सौदा 50 रुपए प्रति मटके पर तय हुआ तो कुम्हार ने 3 दिन का समय मांगा. अशोक ने 5 मटकों का आर्डर दिया तथा एडवांस भी 100 रुपए पकड़ा दिए. अब अशोक पेंटर की तलाश भी वहीं करने लगा क्योंकि वह सारा काम मापसा में ही कराना चाहता था. इधरउधर नजर दौड़ाने पर बाजार की एक गली में उसे पेंटर की दुकान दिखाई दी. अशोक ने पेंटर को मटके पेंट करने के बारे में बताया. पेंटर जितेंद्र होशियार था, वह तुरंत समझ गया और उस ने अशोक को गुरुजी का चित्र भी बनाने का सुझाव दिया. अशोक ने जब उस से यह कहा कि उस के पास गुरुजी का फोटो नहीं है तो वह बोला, ‘‘आप इस के लिए परेशान न हों. अखबार में तो गुरुजी का चित्र छप ही रहा है उसे देख कर बना दूंगा.’’

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इस के बाद उस ने अशोक को अपने द्वारा बनाई गई कुछ पेंटिंग भी दिखाईं. अशोक ने उस के काम से संतुष्ट हो कर कीमत तय की. जितेंद्र ने 100 रुपए प्रति मटका पेंटिंग की कीमत बताई. इस पर अशोक ने कहा कि अगर कार्य संतोषजनक होगा तो वह 200 रुपए अतिरिक्त देगा. इसलिए काम बहुत ही अच्छा करना होगा. जितेंद्र ने भरोसा दिया कि आप मटका दें. 3 दिन में कार्य पूरा हो जाएगा. अशोक ने 3 दिन बाद मटके कुम्हार से ले कर जितेंद्र की दुकान पर पहुंचा दिए. एडवांस भी दे दिया. इस बीच वह खोटके परिवार के दफ्तर भी गया तथा गुरुजी के कार्यक्रम में रुचि दिखाई. खोटकेजी ने कहा कि वह सेवक के रूप में कार्यक्रम की तैयारी में भाग ले सकता है. चूंकि आफ सीजन के चलते अशोक बेकार था इसलिए बेकारी से बेगारी भली के सिद्धांत को मानते हुए उस ने हां कर दी. कार्यक्रम में केवल 5 रोज रह गए थे अत: तैयारी जोरशोर से चल रही थी. ड्राइवर होने के कारण खोटकेजी ने सारी भागदौड़ की जिम्मेदारी अशोक को सौंप दी तथा एक कार भी, जिस को अशोक ने जीजान से पूरा किया. इस दौरान अशोक ने मीरामार बीच समारोह स्थल का बारीकी से निरीक्षण किया. एक भव्य मंच बनाया गया था जहां पर गुरुजी को विराजमान होना था.

मंच पर संगीतकारों सहित लगभग 50 लोगों के बैठने की व्यवस्था थी. कार्यक्रम बड़े पैमाने पर होना था अत: टेलीविजन पत्रकारों, वीडियो आदि के साथ प्रतिष्ठित लोगों के बैठने की भी व्यवस्था की गई थी. मुख्यमंत्री अपने सहयोगी मंत्रियों के साथ गुरुजी को माला पहना कर गोआ में उन के स्वागत की रस्म अदा करने वाले थे. मंच पर मुख्यमंत्री के साथ खोटकेजी को बैठना था. बाद में सभी को खोटकेजी के बंगले पर गुरुजी के साथ भोजन पर आध्यात्मिक चर्चा में भाग लेने का कार्यक्रम था. यह सुनहरा अवसर था जिस को खोटकेजी खोना नहीं चाहते थे. बातोंबातों में अशोक को पता चला कि खोटकेजी ने सारा खर्चा इसी खास अवसर के लिए उठाया है वरना गुरुजी के दर्शन तो वह बंगलौर जा कर भी कर सकते थे. खैर, इस बीच अशोक मटके ले आया. वास्तव में जितेंद्र ने अपने चित्रों से मटके बेहद खूबसूरत बना दिए. सफेद रंग के मटके तथा उन पर गुरुजी का आकर्षक फोटो, स्वस्तिक के निशान के साथ कुछ चित्रकारी भी की गई थी. आखिर 10 तारीख यानी समारोह का दिन आ गया. गुरुजी दोपहर की फ्लाइट से गोआ आ गए थे तथा खोटकेजी के बंगले में विश्राम कर रहे थे. पिछले 2 दिनों से लगातार गुरुजी के आश्रम के सदस्य समूह में गोआ पहुंच रहे थे. हवाई अड्डे पर विशेष व्यवस्था की गई थी. ओ.पी. तथा विजय गोयल भी कल ही आ गए थे और उन्होंने अशोक की भूरिभूरि प्रशंसा की शानदार मटके बनवाने के लिए. दोनों ही संतुष्ट थे. शाम को सभी कार्यकर्ता सफेद पोशाक पहने गुरुजी के चित्र, बैच, आई कार्ड लगाए मीरामार बीच पर पहुंच चुके थे. अशोक को भी आईकार्ड लगाए विजयजी ने विशेष जिम्मेदारी सौंप दी. कार्यक्रम शुरू हो गया था. सभास्थल के बीच में लंबा प्लेटफार्म बनाया गया था जिस से सभास्थल 2 भागों में बंट गया था. लाउडस्पीकर पर बारबार घोषणा हो रही थी कि गुरुजी बस, आने ही वाले हैं. इतने में हलकी बरसात होने लगी तो थोड़ी हलचल सी मच गई. लोगों ने अपनेअपने छाते खोल लिए लेकिन भीड़ उठने का नाम नहीं ले रही थी, इस से पता चलता था कि गुरुजी के प्रति लोगों में कितना विश्वास है. बारिश रुक गई तो गुरुजी बीच के प्लेटफार्म पर चल कर मंच पर आए और भक्तों का अभिवादन स्वीकार कर के उन के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी. लोगों ने फूलमालाएं पहना कर, दे कर तथा दूर से फेंक कर उन का अभिवादन किया. गुरुजी मंच पर पहुंचे तो खोटकेजी, मुख्यमंत्री और अन्य विशिष्ट व्यक्तियों ने परंपरागत तरीके से उन का स्वागत किया. गुरुजी ने हलकी बारिश का श्रेय लेते हुए मजाक के अंदाज में अपने भाषण की शुरुआत करने से पहले सभी को आदेश दिया कि वे आंखें बंद कर के 2 मिनट का ध्यान लगाएं. बाद में भक्तों को कहा गया कि लंबी सांस लें तथा धीरेधीरे छोड़ें.

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यह प्रक्रिया अनेक बार दोहराई गई. इसी दौरान विजयजी ने अशोक को मटका देते हुए मंच की बाईं तरफ श्रद्धालुओं के बीच उसे घुमाने को कहा तथा दूसरा मटका खुद ले कर दाईं तरफ चले गए. ओ.पी. तो मंच पर विराजमान थे. कार्यक्रम निशुल्क था अत: हर श्रद्धालु ने क्षमतानुसार मटके में अपना योगदान दिया. कम से कम 10 रुपए का नोट तो देना ही था. कुछ ने 500 तो कुछ ने हजार तक का नोट दिया. जब बाईं तरफ बैठे सभी श्रद्धालुओं में मटका घूम चुका तो उस का वजन काफी बढ़ गया था. अशोक मटका ले कर धीरेधीरे पंडाल में बैठे श्रद्धालुओं से निकल कर बाहर की तरफ खड़े श्रद्धालु, पुलिसकर्मी, टैक्सी वालों के बीच चला गया. अशोक ने बाहर खड़ी मदन की टैक्सी के पास मटका दिखाया तो मदन ने तुरंत झुक कर मटका ले लिया तथा बराबर में खाली रखा मटका अशोक को थमा दिया. अशोक पुन: मटके को ले कर टैक्सी वालों, पुलिस वालों के बीच घुमाने लगा. मंत्रीजी ने भी मटके में योगदान दिया. अशोक धीरेधीरे वापस विजय के पास पहुंचा जोकि दाईं तरफ अभी भी आधे श्रद्धालुओं के बीच मटका घुमा पाए थे. इस बीच उन को स्थानीय महिला कार्यकर्ताओं ने घेर रखा था तथा विजय अपने गुरुजी के साथ घनिष्ठ संबंधों की चर्चा से खुश हो रहे थे. अशोक ने विजय से कहा, ‘‘सर, उस तरफ से तो पूरा हो गया. इधर मैं करता हूं आप उधर वाला मटका पकड़ लें.’’ विजय ने मटका बदल लिया तथा अशोक ने उस तरफ के लोगों के बीच मटका घुमाना शुरू कर दिया. जब पीछे की तरफ अशोक मटका ले कर गया तो देखा विजय पहले मटके को पकड़े महिला श्रद्धालुओं से हंसहंस कर बातें कर रहे हैं. अशोक ने बड़े अदब से विजय के पास जा कर पूछा, ‘‘सर, बाहर खड़े श्रद्धालुओं, टैक्सी, ड्राइवर, पुलिस वालों के बीच भी मटका घुमाना है?’’ विजय ने आदेशात्मक लहजे में कहा कि जल्दी करो…गुरुजी का कार्यक्रम अगले 20 मिनट में समाप्त होने वाला है. अशोक तेज कदमों से मदन की टैक्सी को ढूंढ़ने लगा. मदन की टैक्सी को न पा कर अशोक ने लंबी गहरी संतोष की सांस ली. योजना के अनुसार वह आनंद की टैक्सी की तरफ बढ़ा जिस ने झुक कर मटका अंदर रख लिया तथा खाली मटका अशोक को पकड़ा दिया, जिस को ले कर वह पुन: ड्राइवरों, पुलिसकर्मियों एवं बाहर खडे़ श्रद्धालुओं के बीच घुमाता हुआ विजय के पास पहुंच गया तथा दूसरा मटका भी उन के हवाले कर दिया. विजयजी ने दोनों मटकों को अपने संरक्षण में ले लिया. इतने में कार्यक्रम समाप्त करने की घोषणा हो चुकी थी. गुरुजी मंच छोड़ चुके थे. भजनों के द्वारा श्रद्धालुओं को रोका जा रहा था लेकिन भीड़ भी धीरेधीरे घटने लगी थी. तभी ओ.पी. जी मंच छोड़ कर वहां आ गए.

अशोक ने सफल कार्यक्रम कराने के लिए उन्हें बधाई दी. खुश हो कर ओ.पी. जी ने उस को बंगलौर आने को कहा तथा प्रस्तावित किया कि वह चाहे तो गुरुजी के स्टाफ में शामिल हो सकता है. अशोक ने तुरंत ओमप्रकाशजी के तथा विजयजी के पांव छुए तथा उन के आशीष वचन प्राप्त किए. विजय और ओमप्रकाश दोनों को मटके ले कर अशोक की टैक्सी से होटल पहुंचना था जहां से उन्हें खोटकेजी के बंगले पर जाना था. टैक्सी स्टार्ट करने से पहले अशोक को यह देख कर राहत हुई कि आनंद भी टैक्सी ले कर गायब हो चुका था. अशोक ने विजय से कहा कि वह मटका फोड़ कर देख लें कि कितना कलेक्शन आया है क्योंकि गोआ की जनता पैसे देने के मामले में कंजूस है तथा धार्मिक कामों में कम ही योगदान देती है. ‘‘शराब से पैसे बचते ही नहीं होंगे,’’ ओमप्रकाशजी बोले तो तीनों हंस पड़े. दोनों मटके कमरे में बंद कर के, तीनों लोग खोटकेजी के बंगले की ओर चल पडे़. अशोक ने फिर मटकों के बारे में चर्चा करनी चाही लेकिन विजय ने डांटते हुए कहा कि मटके गुरुजी के सामने बंगलौर में फोडे़ जाएंगे. ऐसा उन का आदेश है. ‘‘आखिर अपने सुंदर चित्र को नक्काशी के साथ देख कर गुरुजी प्रसन्न होंगे,’’ ओ.पी. जी ने एक जुमला फिर जड़ दिया. तीनों पुन: हंस पड़े. खोटकेजी के बंगले पर उन दोनों को छोड़ कर अशोक वापस कमरे पर आया जहां उस के दोनों दोस्त मदन व आनंद खानेपीने के सामान के साथ उस की प्रतीक्षा कर रह थे. तीनों ने अपनेअपने जाम टकराए और बोले, ‘‘जय गुरुजी का मटका.’’ द्य (इस कहानी के लेखक आयकर अपीलीय अधिकरण पणजी के न्यायिक सदस्य हैं)

नारद गए परदेश

शिवनगरी का जिला प्रशासन ऐसे ही काफी परेशान रहता है. मंदिरमसजिद तथा उन के पंडेमौलवियों की सुरक्षा में न जाने कितने नाकों चने चबाने पड़ते हैं. पुलिस, पीएसी टास्क फोर्स न जाने कितनी तरह की फोर्स हैं, फिर भी क्राइम कंट्रोल में नहीं आता. रोज ही कोई न कोई वी.आई.पी. आते रहते हैं मंदिर के दर्शन को और सरकारी दौरा बनाने के लिए 1-2 मीटिंग भी बुला लेते हैं.

पहले दर्शन कराओ फिर मीटिंग कराओ. दिन पर दिन यह समस्या गंभीर होती जा रही है. उसी में एक दिन शाम को फैक्स मिलता है कि नारदजी कल नगर में मंदिरों के दर्शनार्थ पधार रहे हैं. वह मंदिर में पूजा के बाद खासकर मार्कंडेय धाम का भ्रमण करेंगे. इस के बाद वह पत्रकार वार्त्ता भी करेंगे.

जिले की सारी प्रशासनिक मशीनरी घबरा गई कि यह नारदजी कौन हैं? कहीं प्रदेश के कोई माननीय मंत्री तो नहीं, लेकिन फैक्स के ऊपरनीचे कोई अतापता नहीं दिया गया था, न ही उन के किसी सेके्रटरी का नाम था. फैक्स करने वाले स्थान का फोन नंबर भी पत्र पर अंकित नहीं था, ताकि वापस फोन कर के पता कर लें कि यह नारदजी कौन हैं और किस विभाग के माननीय मंत्री या अध्यक्ष हैं.

आननफानन में जिला प्रशासन ने सर्किट हाउस में रिजर्वेशन कर दिया. पुलिस कप्तान को उन की सुरक्षा व्यवस्था के लिए निर्देश दे दिए गए तथा सर्किट हाउस पर पुलिस पिकेट तैनात कर दी गई.

जिले के आला सरकारी अफसर दूसरे दिन ही सुबह सर्किट हाउस पर नारदजी की अगवानी करने पहुंच गए. चूंकि उन के सड़क या वायुमार्ग से आने की कोई निश्चित सूचना नहीं थी अत: हवाई अड्डे पर एस.डी.एम. (सिटी) तथा शहर के हर मुख्य मार्ग पर एकएक ए.सी.एम. और सी.ओ. की ड्यूटी पुलिस बल के साथ लगा दी गई थी.

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अधिकारियों के बीच एक उच्च- कुलीन ब्राह्मण अधिकारी ने शंका जाहिर की, ‘‘कहीं ये टेलीविजन वाले नारदजी तो नहीं हैं जो हर धार्मिक सीरियल में दिखते हैं?’’

उन के वरिष्ठ अधिकारी ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया.

मुंहअंधेरे अंतरिक्ष में आकाशवाणी की तरह एक आवाज गूंजी : ‘नारायण… नारायण…’ फिर आसमान में एक छोटी सी छाया प्रकट हुई जो धीरेधीरे बड़ी होती गई और इसी के साथ ‘नारायण…नारायण’ की आवाज भी तेज होती गई. थोड़ी देर बाद वीणा लिए हुए एक कृशकाय व्यक्ति कोपीन धारण किए सर्किट हाउस के लान में सशरीर उपस्थित हुआ. सभी समझ गए कि यह टेलीविजन सीरियल वाले नारद हैं, पर लगते असली हैं.

नारदजी बोले, ‘‘वत्स, मुझे पता था कि आप लोग सर्किट हाउस में होंगे, इसलिए मैं सीधे यहीं आया. कहो, शिवनगरी में सबकुछ कुशल तो है न.’’

अधिकारी बोले, ‘‘सर, सब आप की कृपा है, लेकिन आप का यहां अचानक आना कैसे हुआ?’’

‘‘नारायण…नारायण…देवलोक में भ्रमण करतेकरते मन ऊब गया था. एक ही तरह का क्लाइमेट और सब जगह अप्सराओं का संग, नृत्यसंगीत सुनतेसुनते बोर हो गया. न कोई थ्रिल, न कोई एडवेंचर था. देवताओं ने बताया कि चेंज के लिए कुछ दिन धरती का भ्रमण कर आएं. बस, प्रोग्राम बन गया. चूंकि यह नगरी शिव के त्रिशूल पर बसी धरती से पृथक मानी जाती है, इसलिए यहां चला आया.’’

‘‘लेकिन सर, आप जैसे टीवी पर दिखते हैं वैसे नहीं दिख रहे हैं?’’ एक अधिकारी को अंतरिक्ष के अन्य ग्रह से किसी अनजाने प्राणी के भेष बदल कर आने की शंका हुई.

‘‘नारायण…नारायण…वत्स, कम- र्शियल कारणों से मुझे भी टेलीविजन पर मेकअप कर के आना पड़ता है, अन्यथा कोई उस चैनल को देखेगा ही नहीं. पृथ्वी के वायुमंडल में बहुत प्रदूषण है, अत: सारे धूलकण मेरे शरीर में चिपक गए. वह तो अच्छा रहा कि प्रदूषण के कारण ओजोन परत में छेद हो गया है और मैं सीधा उस से निकल आया वरना मेरे आने में और विलंब होता.’’

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एक बडे़ अधिकारी ने प्रश्न किया, ‘‘सर, आप का अगला कार्यक्रम क्या है?’’

‘‘नारायण…नारायण…शिवनगरी में मैं पहले शिव का दर्शनपूजन करूंगा, फिर 4 बजे पत्रकार वार्त्ता करूंगा. कृपया, इस के अनुसार व्यवस्था करें. अभी मैं फ्रेश होना चाहूंगा. आप लोग 1 घंटे बाद आएं,’’ और नारायण… नारायण…कहते हुए नारद गवर्नर सूट में चले गए.

घंटे भर बाद नारद बाहर आए तो नेताओं के जामे में थे. यह देख कर अधिकारीगण चकरा गए. नारद के नाम से कोई बहुरूपिया तो नहीं आ पहुंचा? वे नारद को पहचान नहीं पाए, ‘‘सर, आप राजनेता की ड्रेस में? ये सब आया कहां से?’’

नारद ने कहा, ‘‘नारायण…नारायण… वत्स, मेरा सामान देवलोक से सीधे रिमोट से गवर्नर सूट में ट्रांस्मिट हो गया. आप लोग पार्थिव प्राणी हैं, आप की समझ से बाहर है. नेता की ड्रेस तो मौके के अनुसार है.’’

बाहर आ कर नारद ने पुलिस गारद से नेताओं की तरह सलामी ली. वह फिर लालबत्ती लगी कार में बैठ गए. शहर के ट्रैफिक ने उन्हें बहुत परेशान किया. वह काफी देर तक जाम में फंसे रहे. उन्होंने मन ही मन सोचा कि पार्थिव रूप में सड़क मार्ग से जाने से तो अच्छा था कि वह सीधे मंदिर ट्रांस्मिट हो गए होते.

महादेव मंदिर पहुंचते ही नारद घबरा गए, वहां तरहतरह के पुलिस वाले तैनात थे, केंद्रीय पुलिस, पीएसी, राज्य पुलिस, लोहे की बैरिकेटिंग, महिला पुलिस आदि, यहां तक कि आसपास के मकानों की छतों पर भी जवान आधुनिक राइफल व राकेट लांचर ले कर मुस्तैद थे.

देवलोक में नारद ने ऐसा कभी नहीं देखा था. खैर, सलामी लेते नारद मंदिर के अंदर पहुंचे. भक्तों की लंबी लाइन लगी थी. नारद ने महादेव से विनीत स्वर में कहा, ‘‘हे देवाधिदेव, आप की यह हालत. जगत के नियंता व संहारक, आप की सुरक्षा इतनी तगड़ी कि परिंदा भी पर न मार सके. हे प्रभो, यह क्या हो रहा है? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं. मुझे देवलोक से यहां आने में किसी सुरक्षा की जरूरत नहीं महसूस हुई पर सर्किट हाउस से यहां आने के लिए जबरदस्त सुरक्षा की व्यवस्था की गई है. आप अंतर्यामी हैं, आप ही बताएं.’’

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फौरन नारद के कान में महादेव का मोबाइल बजा, ‘‘नारद, सावधान रहना, जिस नगर का तुम भ्रमण कर रहे हो वहां रोज 2-3 अपहरण, खुलेआम रेप यानी बलात्कार, हत्याएं दिन दहाड़े हो रही हैं. इतनी सुरक्षा जिला प्रशासन ने तुम्हें बेवजह नहीं उपलब्ध कराई है. यह सुरक्षा तो मात्र दिखावा है. गोली चलने या बम फटने के पहले ही ये भाग जाएंगे. तुम ने बड़ी समझदारी का काम किया जो नेता की वर्दी पहन ली. आजकल अपराधी व आतंकवादी भी इसी ड्रेस में चलते हैं, अत: जब तक पृथ्वी पर हो तब तक इसी ड्रेस में रहना वरना तुम्हारा अपहरण हो सकता है.’’

‘‘अपहरण यानी किडनैपिंग? प्रभो, मैं ने देवलोक में प्रकाश झा की फिल्म ‘अपहरण’ के कुछ वीडियो क्लिप देखे थे. यह तो बहुत खतरनाक चीज है. किडनैपिंग के बाद तो बड़ी तकलीफ होती है. वे तरहतरह की यातना देते हैं. इस के बाद फिरौती यानी रैंसम भी देना पड़ता है, वह भी लाखोंकरोड़ों में, नहीं तो मर्डर कर देते हैं. मेरा तो पृथ्वी पर कोई सगा भी नहीं है, न ही मेरे पास फूटी कौड़ी है. आप की नगरी में तो आ कर मैं फंस गया प्रभो, आप ही मेरी रक्षा करें.’’

महादेव ने कहा, ‘‘नारद, डरो नहीं, सुनने में आया है कि अपहरण को उद्योग का दर्जा मिलने जा रहा है, जिस से सरकार को अतिरिक्त स्रोत से ज्यादा टैक्स मिल सके. आयकर टैक्स व ट्रेड टैक्स ने कैबिनेट के लिए एक नोट बना कर भेजा है, जिसे स्वीकृति मिलने की आशा है.’’

‘‘नारायण…नारायण…तब तो और खतरा है. इस उद्योग को सरकार से भी सहायता मिल जाएगी,’’ नारद परेशान हो उठे.

‘‘अरे, तुम जानते नहीं. यह उद्योग पहले से ही पुलिस व नेताओं के सहयोग से चल रहा है. अब इसे कानूनी जामा पहनाने की बात हो रही है,’’ महादेवजी बोले.

नारद भले ही नेता की ड्रेस में थे पर थे तो ऋषि ही, वह बहुत घबरा गए. जल्दीजल्दी मंदिर में दर्शन कर वापस जाने लगे.

पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘‘साहब, यह मंदिरों की नगरी और घाटों का शहर है. पता नहीं आप फिर कब आएं. थोड़ा समय लगेगा पूरा दर्शनभ्रमण कर लें.’’

‘‘आप की सुरक्षा व्यवस्था फूलप्रूफ है न? नहीं तो मैं कहीं नहीं जाऊंगा. यहां तो छोटेछोटे बच्चों को किडनैप कर लेते हैं. मैं किडनैप हो गया तो आप मुझे बचा नहीं पाएंगे और मेरे पास फिरौती देने को पैसा भी नहीं है,’’ नारद बोले.

‘‘साहब, शर्मिंदा न करें. यहां इतनी तगड़ी सिक्योरिटी है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता. अभीअभी राजधानी से आप की सुरक्षा के लिए ब्लैककैट कमांडो आ गए हैं,’’ पुलिस अफसर ने विनती की.

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‘‘साहब, यह ब्लैककैट कमांडो बडे़ तेज और खतरनाक होते हैं. ये सी.एम., पी.एम. और बडे़ जेड श्रेणी के नेताओं को मिलते हैं. ये कमांडो उन्हें हमेशा घेरे रहते हैं, अपनी जान की बाजी लगा कर उन की सुरक्षा करते हैं. चूंकि पी.एम. और सी.एम. राजधानी में ही रहते हैं, अत: ये लोग भी वहीं रहते हैं. आप देवलोक के माननीय अतिथि हैं अत: आप के लिए विशेष रूप से ब्लैककैट कमांडो भेजे गए हैं,’’ पुलिस अफसर बोला.

‘‘तो पुलिस क्या करती है? सुरक्षा उपलब्ध कराना क्या उस का काम नहीं…नारायण…’’ नारद नाराज हो गए.

नारद के काफिले के साथ एक पत्रकार भी था, बोला, ‘‘सुरक्षा, क्या मजाक करते हैं मुनिवर. कोई शरीफ आदमी कभी थाने नहीं जाना चाहता. थाने में बलात्कार, प्रताड़ना, कभीकभी जबरिया मौत क्या नहीं होता. आधे पुलिस वाले क्रिमिनल के साथ रहतेरहते खुद क्रिमिनल हो गए हैं.’’

‘‘नारायण…नारायण…तो पुलिस का क्या काम है?’’ नारद ने पूछा.

‘‘साधो, पुलिस का काम क्राइम रेट हाई रखना है ताकि उन की मौज रहे. जहां क्राइम रेट हाई करना हो वहां बस, थाने खुलवा दीजिए. पहाड़ों में पहले शांति थी पर थाने खुलते ही वहां क्रिमिनल्स की बाढ़ आ गई. अब तो पहाड़ों की पब्लिक थाने खुलने की बात सुन कर ही हिंसा पर उतारू हो जाती है,’’ पत्रकार ने नारद को बताया.

‘‘ऐसा क्या?’’ नारद की आंखें फैल गईं.

पुलिस अफसर चिल्ला कर बोला, ‘‘शटअप, बहुत अंटशंट बोलता है. अभी तेरे को बंद करवाता हूं.’’

किसी तरह से नारद नगर के दूसरे मंदिरों को देखने जाने को तैयार हुए. गंगा के किनारे पहुंचते ही नगर अधिकारी ने बताना शुरू किया, ‘‘सर, यह जगह बहुत ब्यूटीफुल है. पर्यटकों की सुविधा के लिए हम लोगों ने घाटों का सुंदरीकरण किया है. यह रेड सैंड स्टोन मेरे कार्यकाल में लगाया गया. विश्राम के लिए हम ने फैंसी छतरियां पर्यटकों के लिए घाट की सीढि़यों पर लगाईं. बोटिंग के लिए फाइबर ग्लास नाव व मोटर बोट सरकार ने विशेष रूप से मंगाई हैं.’’

‘‘वेरी नाइस, बट, गंगा में सीवर व जानवरों के अंश किस ने मंगाए,’’ नारद ने व्यंग्य छोड़ा.

‘‘सर, ऐसा है कि बजट की कमी के चलते आजकल सीवर पंप खराब चल रहे हैं. पिछले शहर के लोग बहुत गंदे हैं. वे मरे जानवरों को गंगा में बहा देते हैं. यहां पर 2 श्मशानघाट भी हैं. दाहसंस्कार के बाद लकड़ी की कमी के कारण भी आदमी के कुछ अवशेष बचे रहते हैं. उन को भी लोग नदी में बहा देते हैं. इस में नगर प्रशासन का कोई दोष नहीं है. आबादी भी इतनी बढ़ गई है कि…’’

नारद ने बीच में टोका, ‘‘आबादी क्यों बढ़ रही है? क्या आबादी कम करने वाले की कमी हो गई है?’’

‘‘नहीं सर, हमारे ग्रंथों में एक मान्यता है कि यहां मरने पर मोक्ष प्राप्त होता है. अत: दूसरे शहरों व प्रांतों से बूढे़ लोग यहां मरने के लिए आ जाते हैं. उन के साथ रहने के लिए 1-2 रिश्तेदार भी आते हैं. मरने की प्रतीक्षा करने वालों के कारण शहर की आबादी बढ़ती जा रही है. वे जल्दी मरते नहीं, क्या करें, हम भी संविधान के प्रावधानों के कारण मजबूर हैं,’’ अधिकारी ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा.

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पुलिस अधिकारी की ओर देख कर नारद बोले, ‘‘आप के शहर में क्राइम रेट बहुत हाई है. क्या इस का उपयोग शहर की आबादी नियंत्रण करने में नहीं किया जा सकता?’’

पुलिस अफसर सहित दूसरे आला अधिकारी भी अचकचा गए, ‘‘नहीं, सर, कार्ययोजना क्राइम कंट्रोल करने के लिए है, न कि आबादी कंट्रोल करने के लिए,’’ पुलिस अफसर ने कहा.

‘‘तो क्या कार्य योजना है आप की?’’

‘‘साहब, क्राइम कंट्रोल के लिए हम रातदिन एक किए रहते हैं. कोई क्राइम होने के बाद हम लोग क्राइम स्पौट पर तुरंत पहुंचते हैं. यदि मर्डर हो गया हो तो मर्डर के बाद तुरंत मौके का मुआयना करते हैं. बौडी का फोटोग्राफ व फिंगर पिं्रट लेते हैं. डेड बौडी को पोस्टमार्टम के लिए भेजते हैं. कहीं बम ब्लास्ट हुआ तो तुरंत फोर्स तैनात कर दी. किसी को घुसने से मना कर दिया. मजिस्ट्रेट से धारा 144 लगवा दी. सर, हम क्या नहीं करते. उसी समय बडे़ अफसरों को पुलिस लाइन में बुला कर क्राइम कंट्रोल रिव्यू किया जाता है, ताकि क्राइम कंट्रोल हो सके,’’ पुलिस अफसर उत्तेजित हो गए.

‘‘तो दबंग अपराधी भी यहां क्राइम कंट्रोल करते हैं? अच्छा, आप लोग क्राइम के पहले क्यों नहीं पहुंचते?’’ नारद ने सवाल किया.

‘‘सर, हम आप के जैसे अंतर्यामी तो हैं नहीं. यदि क्राइम का पहले पता लग जाए तो कोई भी कंट्रोल कर ले, हमारी जरूरत ही न रहे,’’ पुलिस अफसर ने विवशता जाहिर की.

‘‘मुझे पता है कि आप के यहां इंटेलिजेंस ब्यूरो, एल.आई.यू., रा सब है, तब क्या बात है कि क्राइम का पहले पता नहीं चलता?’’ नारद ने शंका व्यक्त की.

पुलिस अफसर तेजी से बोला, ‘‘सर, ये इंटेलीजेंस वाले अपने को बहुत इंटेलीजेंट समझते हैं. उन की खबर सच निकलने पर आउट आफ टर्न प्रोमोशन उन्हें मिल जाता है. हम मेहनत करते हैं और टापते रह जाते हैं. इसलिए हम उन की खबर पर कोई काररवाई नहीं करते. हम अपने मन से काररवाई करते हैं. अपना क्राइम कंट्रोल का रिकार्ड ठीक करवाने के लिए हम किसी छुटभैए की जेब में तमंचा रख कर उस का इनकाउंटर दिखा देते हैं. आउट आफ टर्न प्रोमोशन पक्का. अफीम की पुडि़या रख कर बंद करा देते हैं. बड़ा दिमाग लगाना पड़ता है हमें.’’

पुलिस अफसर हांफने लगा.

पत्रकार फिर नारद के पास आ कर बोला, ‘‘ऋषिवर, ये लोग ठीक कहते हैं. बड़ा दिमाग लगाते हैं ये. एक क्रिमिनल को दूसरे के विरुद्ध तैयार करते हैं. बंदूक, गोली सब सप्लाई कराते हैं. फिर जब 2 क्रिमिनल गुट आपस में भिड़ते हैं तो एक का सफाया हो ही जाता है. पुलिस को खरोंच भी नहीं लगती. ये अपनी पीठ भी खुद ठोक लेते हैं.’’

‘‘साहब, किसी बडे़ डकैत का हम तब तक सफाया नहीं करते जब तक उस के हेड पर 4-5 लाख का इनाम घोषित नहीं हो जाता. अन्यथा ददुआ या उस जैसे डकैत बीहड़ों में जिंदा नहीं रहते.’’

‘‘मैं ठीक ही कह रहा था,’’ पत्रकार बोला.

‘‘नो, नो सर, ये मीडिया वाले तिल का ताड़ बना देते हैं,’’ पुलिस अफसर ने कहा.

पत्रकार फिर बीच में टपक पड़ा, ‘‘सर, जनसंख्या पर कंट्रोल तो मेडिकल विभाग करता है न. हास्पिटल में आने वाले आधे मरीज तो डाक्टरों की कृपा से देवलोक चले जाते हैं और आधे नकली दवा खा कर. लेकिन ये लोग फर्जी नसबंदी कर के पापुलेशन का बैलेंस बनाए रखते हैं.’’

सी.एम.ओ. साहब छुट्टी पर थे. एक कंपाउंडर काफिले के साथ था. वह शर्माते हुए बोला, ‘‘सर, मैं नाचीज एक मेडिकल असिस्टेंट. क्षमा करें, नसबंदी से ले कर मरहमपट्टी तक मैं ही करता हूं पर 200 रुपए में मुझे 5 रुपए मिलते हैं, बाकी ऊपर वाले जानें. मेरा स्वर्ग का रास्ता मत खराब करना प्रभु.’’

‘‘नारायण…नारायण…यह क्या गड़बड़घोटाला है. 200 रुपए में 5 रुपए मिलते हैं. यह मैं समझ नहीं पाया. थोड़ा और स्पष्ट करें,’’ नारद ने जिज्ञासा जाहिर की.

पत्रकार ने आगे जा कर उन की जिज्ञासा शांत की, ‘‘सर, सरकार हरेक नसबंदी पर प्रोत्साहनस्वरूप 200 रुपए देती है. उस में से आधा तो फर्जी नसबंदी की जाती है. उसी रुपए के बंदरबांट की बात कर रहे हैं कंपाउंडर साहब, बड़ा करप्शन है.’’

‘‘यह करप्शन क्या होता है?’’ नारद उत्सुक हो कर बोले.

पत्रकार ने स्पष्ट किया, ‘‘सर, जैसे मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाया जाता है वैसे ही अधिकारियों को भी चढ़ावा चढ़ाए जाने का यहां चलन है. इसे करप्शन कहा जाता है. करप्शन का मतलब कर औप्शन यानी जिस धन पर कर, यानी टैक्स देना औप्शनल हो, यानी मनमर्जी, इसे देशी भाषा में रिश्वत या घूस भी कहते हैं.’’

‘‘नारायण…नारायण,’’ नारद बोले, ‘‘मंदिर दर्शन का मूड खराब कर दिया. मेरा बीपी हाई हो रहा है. चलिए, अब वापस चलते हैं.’’

अधिकारीगण सन्न रह गए. सब के चेहरे लटक गए. नारद झटके से कार में बैठ गए. नारद ने कार में ही मोबाइल पर महादेव से बात की, ‘‘हे महादेव…आप की नगरी की यह दुर्दशा. आबादी इतनी कि चलनाफिरना मुश्किल. आप मोक्ष प्राप्त करने की चाहत रखने वालों को ऊपर बुलाते भी नहीं. शहर इतना गंदा कि सीवर व मरे जानवरों की दुर्गंध अभी भी नाक में बसी है. क्राइम रेट बहुत हाई है. पुलिस ने दबंग अपराधियों से सेटिंग कर रखी है. हमेशा क्राइम होने के बाद स्पौट पर पहुंचती है. मेडिकल विभाग भी 200 पर 5 रुपए के चक्कर में है, यहां तक कि मंदिर में भी करप्शन है. आखिर इस नगरी का कैसे कल्याण हो. मेरा तो बीपी हाई हो गया है.’’

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महादेव का मोबाइल पर जवाब आया, ‘‘वैरी सैड, नारद, अभी मैं कैलाश पर्वत पर हूं. मैं कल उन विभागों के देवताओं की मीटिंग बुला रहा हूं. तुम अभी वापस आ जाओ, फिर कभी जाना, अन्यथा हार्ट अटैक हो जाएगा… ओवर.’’

नारद वी.आई.पी. कार से ही तुरंत देवलोक को ट्रांस्मिट हो गए. जब कार सर्किट हाउस पहुंची तो कार में नारद को न पा कर अधिकारियों में हड़कंप मच गया. जिले में तुरंत रेड एलर्ट जारी कर दिया गया.

उस रात अचानक

लेखिका- नीता दानी

पूर्व कथा

सुखसुविधा के हर साजोसामान के साथ प्रशांत और गुंजन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. इच्छा थी तो उन्हें एक संतान की. अचानक एक रात घर से बाहर टहलने के दौरान गुंजन का अपहरण हो जाता है. अपहरणकर्ता फिरौती में भारी रकम की मांग करते हैं. उधर, एक दिन अनजान महिला बंधी गुंजन की रस्सी खोल उसे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुटकारा दिला देती है. रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष है कि घंटी टनटनाती है. परेशान प्रशांत डरडर कर दरवाजा खोलता है, गुंजन को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल जाता है और डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोलती है,

‘‘प्रशांत, अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती टौप्स निकाल लिए…’’  गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे. सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी जबकि गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी. वहीं, प्रशांत का बदलाबदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रह रहा था. अपहरणकर्ताओं को फिरौती पहुंचाए बिना ही गुंजन का घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’

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गुंजन के प्रति प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. प्रशांत द्वारा उपेक्षित गुंजन दुखी और निराश रहने लगती है. इसी बीच, एक दिन आफिस में काम के दौरान गुंजन को उबकाई का एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. अस्वस्थ महसूस करने पर वह आफिस से छुट्टी ले कर सीधे डाक्टर के पास गई. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी दी. खुशी से दीवानी गुंजन यह खुशखबरी प्रशांत को सुनाने को आतुर हो जाती है. ‘अब प्रशांत का व्यवहार अच्छा हो जाएगा. यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ मन ही मन ऐसा सोचती गुंजन घर पहुंचती है…अब आगे…

गतांक से आगे…

गुंजन की आशा के विपरीत प्रशांत पिता बनने की बात जान कर स्तब्ध रह गया. उस के विचित्र हावभाव उस के भीतर छिपी बेचैनी को बयान कर रहे थे.‘‘तुम तो कहती थीं कि उन बदमाशों ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी नहीं की… तो फिर…’’ कह कर उस ने गुंजन का हाथ जोर से झटक दिया था और फिर अंटशंट बकना शुरू कर दिया था. प्रशांत ने गुंजन से और अधिक दूरी बना ली थी. वह पति के समीप जाने को होती तो प्रशांत गुंजन पर कठोर नजर फेंक कर उस के समीप से हट जाता. और एक दिन प्रशांत के मन में छिपी बेचैनी उस के अधरों तक आ ही गई जब उस ने कड़े लहजे में कहा,  ‘उन डकैतों का बच्चा यहां इस घर में नहीं पलेगा.’

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गुंजन यह सुन कर अवाक् रह गई थी. पत्नी से दूरी बनाता प्रशांत इन दिनों किसी अन्य स्त्री के समीप जा रहा था. गुंजन दिल पर पत्थर रख चुपचाप बरदाश्त कर रही थी.

प्रशांत के मन में चल रही उथलपुथल का वाणी से खुलासा आज हो गया था. वह गुंजन के साथ संबंध तोड़ देना चाहता था. प्रशांत की इच्छा को अपनी नियति मान गुंजन छटपटा कर रह गई थी और आखिर में उसे मायके लौट आना पड़ा था.

समय गुजरता गया और वह एक स्वस्थ व सुंदर शिशु की मां बन गई. पुत्र को आंचल में समेट फूली नहीं समाई थी. किंतु प्रशांत की अनुपस्थिति एक टीस बन कर उसे तड़पा गई थी.

इस के कुछ माह बाद ही प्रशांत ने गुंजन को तलाक दे दिया और फिर दोनों नदी की 2 धाराओं की तरह अपनीअपनी राह बह चले.

रात्रि को प्राय: गुंजन को प्रशांत की यादें सतातीं और वह उस के साथ के लिए तड़प उठती तो कभी मन में प्रतिहिंसा की ज्वाला भड़क उठती.

समय सरकता जा रहा था. गुंजन अपनी नौकरी और पुत्र की परवरिश में व्यस्त थी. नौकरी में उस की लगन और काम के प्रति निष्ठा से उसे तरक्की मिलती जा रही थी.

पुत्र अभिराम भी दिन पर दिन बड़ा हो रहा था और उस के नैननक्श और चेहरा हूबहू अपने पिता प्रशांत पर जा रहे थे.

बेटे का चेहरा देख गुंजन के मन में उम्मीद का दीया जल उठता कि काश, प्रशांत एक बार अपने बेटे को देख लेता तो उस का संदेह पल भर में ही दूर हो जाता.

किंतु प्रशांत से संपर्क टूटे तो अरसा बीत चुका था.

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मेधावी अभिराम स्कूलकालेज और विश्वविद्यालय की हर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करता इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में आ गया था. उच्च श्रेणी के इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई करता अभिराम स्कालर था.

उस के कालेज में छात्रों की प्लेसमेंट के लिए विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां आनी शुरू हो गई थीं. कंपनियों के रिकू्रट आफिसर, मानव संसाधन अधिकारी और प्रबंध निदेशक की टीम सभी छात्रों की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार लेने के लिए छात्रों के चयन में जुटने शुरू हो गए थे.

अभिराम भी किसी उच्च स्तरीय कंपनी में नौकरी पाने के लिए परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. रात में सोने से पहले उस ने अपनी मां गुंजन से कहा था, ‘‘मम्मी, कल सुबह मुझे कालेज 7 बजे से पहले पहुंचना है और रात को भी देर हो जाएगी घर वापस आने में…पता नहीं कब तक इंटरव्यू चलते रहें.’’

अगले दिन अभिराम लिखित परीक्षा देने में व्यस्त हो गया और एक के बाद एक चरण पार करता हुआ वह अब साक्षात्कार के लिए अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में था.

अपना नंबर आया जान कर अभिराम ने आत्मविश्वास के साथ कमरे में प्रवेश किया. इंटरव्यू लेने के लिए 6 सदस्यों की टीम भीतर मौजूद थी.

सभी की दृष्टि अभिराम के चेहरे पर जमी थी. अभिराम को अपलक निहारते और ‘प्रबंध निदेशक’ के चेहरे की समानता को देख टीम के दूसरे सदस्य चकित थे.

अभिराम कुछ असहज हो उठा. उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी थीं.

‘‘तुम्हारा नाम अभिराम प्रशांत दीक्षित है…क्या तुम्हारे 2 नाम हैं?’’ एच.आर. अधिकारी उस के बायोडाटा को देख बोला.

‘‘सर, मेरा नाम अभिराम और पिता का नाम प्रशांत दीक्षित है.’’

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रिकू्रट अफसर एकदूसरे को हैरानी से देख रहे थे. मानो कह रहे हों कि चेहरे के साथसाथ नाम में भी समानता है. हमारे एम.डी. का नाम भी प्रशांत दीक्षित है.

‘‘क्या करते हैं तुम्हारे पिता?’’ प्रबंध निदेशक ने अभिराम की फाइल को सरसरी नजर से देखते हुए पूछा.

‘‘सर, अपने पिता के बारे में मैं अधिक नहीं जानता,’’ इतना कह कर अभिराम सकपका गया फिर संभल कर बोला, ‘‘सर, मेरे मातापिता वर्षों पहले एकदूसरे से अलग हो गए थे. मैं अपने पिता के बारे में कुछ नहीं जानता क्योंकि होश संभालने के बाद उन्हें कभी देखा ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी मां?’’ एम.डी. दीक्षित के सवाल में जिज्ञासा थी. किंतु व्यक्तिगत प्रश्न पूछने पर एच.आर. अधिकारी और रिकू्रट अफसर ने शिष्टतापूर्ण आपत्ति जताई, ‘‘सर, व्यक्तिगत प्रश्न का नौकरी से क्या लेनादेना. छात्र की योग्यता से संबंधित प्रश्न पूछने ही बेहतर होंगे,’’ एम.डी. के कान में फुसफुसाते एच.आर. ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना. आप लोग जो चाहें पूछ लें.’’

प्रबंध निदेशक ने टीम से आग्रह किया और स्वयं उठ कर रेस्ट रूम में चले गए.

अभिराम ने सभी प्रश्नों का शालीनता से जवाब दिया और धन्यवाद तथा अभिवादन करता बाहर आ गया था.

टीम के सभी सदस्य प्रबंध निदेशक से सवाल कर रहे थे, ‘‘सर, यह लड़का क्या आप की रिश्तेदारी में है? इस की शक्लसूरत और उपनाम आप से मेल खाते हैं.’’

‘‘हमें तो यों आभास हो रहा था कि आप का युवा संस्करण ही हमारे समक्ष बैठा था,’’ मानव संसाधन अधिकारी ने मुसकराते हुए कहा.

सहायक टीम की बातें सुन प्रबंध निदेशक दीक्षित के तेजस्वी चेहरे का ओज बुझ गया था, लेकिन अभिराम का चयन एक प्रथम श्रेणी की बहुराष्ट्रीय कंपनी में हो गया था और अपने मित्रों के साथ वह खुशी के उन पलों का आनंद ले रहा था.

मम्मी को पहले खबर दे दूं. यह सोच कर अभिराम ने तुरंत फोन कर मां को अपने चयन की सूचना दी.

‘‘मम्मी, हम सब दोस्त सेलीबे्रट कर रहे हैं. आप खाना खा लेना,’’ उस का स्वर अचानक थम गया क्योंकि सामने एम.डी. दीक्षित खड़े थे.

वह अपलक अपनी प्रतिमूर्ति को देख रहे थे. मन में कई सारे सवाल उठ रहे थे पर उन में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे अभिराम से कुछ पूछते, अत: बिना कुछ कहे वे अपने रूम की ओर बढ़ गए. पूरे दिन की थकावट के बाद भी नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. रात भर करवटें बदलते रहे.

अगले दिन सुबह अभिराम के घर जाने के लिए निकल पड़े थे. घर का पता अभिराम की बायोडाटा फाइल से नोट कर लिया था.

रास्ते भर विचारों में लीन रहे. उन की 2 बेटियां हैं लेकिन पुत्र की इच्छा उन्हें बेचैन किए रखती है. अभिराम को देख कर उन की इच्छा और अधिक बलवती हो उठी है.

अभिराम के घर पहुंच कर प्रशांत दीक्षित ने दरवाजे पर लगी घंटी को कांपते हाथों से बजा दिया था पर यह करते समय उन के कदम लड़खड़ा गए थे. दरवाजा गुंजन ने खोला था. दोनों एकदूसरे को अपलक देखते रह गए थे. प्रशांत के अधर कांपे किंतु बोल नहीं फूट सके.

गुंजन की आंखों में आश्चर्यमिश्रित हर्ष के भाव थे. शायद अपनी वर्षों की अभिलाषा के पूरे होने के मौके की यह खुशी थी.

कब से गुंजन को प्रशांत के पदचापों की प्रतीक्षा थी. कब से उस की राह देखती यही सोचती आई थी कि एक बार प्रशांत से अवश्य उस का सामना हो जाए.

बिना किसी भूमिका के उस के अधरों पर प्रश्न आ गया, ‘‘आज यहां की याद कैसे आ गई?’’

गुंजन के स्वर में छिपे व्यंग्य को समझ प्रशांत सकपका गया था.

‘‘कल मैं अपने बेटे से मिला. अभिराम को देख कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. कितना होनहार है मेरा बेटा,’’ प्रशांत भावावेश में बोल रहा था.

‘‘आप का पुत्र? आज वह आप का पुत्र कैसे हो गया?’’ गुंजन का स्वर ऊंचा हो गया था.

अतीत में जिस पुरुष को कसमें खाखा कर मैं विश्वास दिलाती रह गई थी अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता होने का और वह निर्दयी विश्वास नहीं कर सका था. संदेह के कीड़े ने उस का विवेक हर लिया था. वह आज कैसे उसे अपना बेटा कह सकता है.

गुंजन के मन में तभी से पति के प्रति कहीं न कहीं प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही थी और आज प्रशांत के मुख से पुत्रमोह की बातें सुन, गुंजन के तनबदन में आग लग गई थी.

‘‘अभिराम, सिर्फ और सिर्फ मेरा पुत्र है, मैं ही उस की मां हूं और मैं ही पिता भी हूं.’’

आज वह प्रशांत के सामने भावनाओं में बह कर दुर्बल हरगिज नहीं बनना चाहती थी. आज वह अपने मन की भड़ास निकाल लेना चाहती थी.

‘‘आप बहुत पहले ही अपने संदेह और बेबुनियाद शक के कारण अपनी पत्नी और अजन्मे शिशु को त्याग चुके हैं. अब वह सिर्फ मेरा पुत्र है.

‘‘बेहतर होगा अब आप यहां से चले जाएं और हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. अब अभिराम बड़ा हो गया है. आप की सचाई जान कर उसे बहुत दुख होगा. आप का अपना एक परिवार है, उसे संभालिए.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, गुंजन,’’ प्रशांत के स्वर में पश्चात्ताप और निराशा स्पष्ट थी.

‘‘मैं कौन होती हूं क्षमा करने वाली,’’ धीमे स्वर में बोली गुंजन अचानक उग्र हो उठी, ‘‘अगर आप के बेटे की शक्लसूरत आप पर न होती तो क्या वह आप का बेटा न होता. जरूरी नहीं कि बच्चों की शक्लसूरत हूबहू मातापिता से मिलने लगे. तो क्या ऐसी स्थिति में उन के जन्म पर संदेह करना होगा?

‘‘कुदरत ने मेरी सचाई को सही साबित करने के लिए ही शायद मेरे बेटे के चेहरे को हूबहू उस के पिता से मिला दिया है. किंतु प्रशांत दीक्षित, तलाक के बाद अब हमारे रास्ते अलग हैं. आप जा सकते हैं.’’

प्रशांत निढाल सा लड़खड़ाते कदमों को जबरदस्ती खींचता घर से बाहर आ गया था.

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प्रशांत के विदा होते ही गुंजन की आंखों से आंसू बह निकले थे. जिस पति को देखने, मिलने के लिए वह वर्षों से बेचैन थी वही आज उस के सामने खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. किंतु आज उस के प्रति गुंजन की भावनाएं वर्षों पहले वाली नहीं थीं.

गुंजन के भीतर धधकती वर्षों की प्रतिहिंसा की ज्वाला धीरेधीरे शांत हो चली थी. शायद उसे अपनी बेगुनाही का सुबूत मिल गया था.

पुनर्जन्म

‘‘आप को मालूम है मां, दीदी का प्रोमोशन के बाद भी जन कल्याण मंत्रालय से स्थानांतरण क्यों नहीं किया जा रहा, क्योंकि दीदी को व्यक्ति की पहचान है. वे बड़ी आसानी से पहचान लेती हैं कि किस समाजसेवी संस्था के लोग समाज का भला करने वाले हैं और कौन अपना. फिर आप लोग इतनी पारखी नजर वाली दीदी की जिंदगी का फैसला बगैर उन्हें भावी वर से मिलवाए खुद कैसे कर सकती हैं?’’ ऋचा ने तल्ख स्वर से पूछा, ‘‘पहले दीदी के अनुरूप सुव्यवस्थित 2 लोगों को आप ने इसलिए नकार दिया कि वे दुहाजू हैं और अब जब एक कुंआरा मिल रहा है तो आप इसलिए मना कर रही हैं कि उस में जरूर कुछ कमी होगी जो अब तक कुंआरा है. आखिर आप चाहती क्या हैं?’’

‘‘शिखा की भलाई और क्या?’’ मां भी चिढ़े स्वर में बोलीं.

‘‘मगर यह कैसी भलाई है, मां कि बस, वर का विवरण देखते ही आप और यश भैया ऐलान कर दें कि यह शिखा के उपयुक्त नहीं है. आप ने हर तरह से उपयुक्त उस कुंआरे आदमी के बारे में यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि उस की अब तक शादी न करने की क्या वजह है?’’

‘‘शादी के बाद यह कुछ ज्यादा नहीं बोलने लगी है, मां?’’ यश ने व्यंग्य से पूछा.

‘‘कम तो खैर मैं कभी भी नहीं बोलती थी, भैया. बस, शादी के बाद सही बोलने की हिम्मत आ गई है,’’ ऋचा व्यंग्य से मुसकराई.

‘‘बोलने की ही हिम्मत आई है, सोचने की नहीं,’’ यश ने कटाक्ष किया, ‘‘सीधी सी बात है, 35 साल तक कुंआरा रहने वाला आदमी दिलजला होगा…’’

‘‘फिर तो वह दीदी के लिए सर्वथा उपयुक्त है,’’ ऋचा ने बात काटी, ‘‘क्योंकि दीदी भी अपने बैचमेट सूरज के साथ दिल जला कर मसूरी की सर्द वादियों में अपने प्रणय की आग लगा चुकी हैं.’’

‘‘तुम तो शादी के बाद बेशर्म भी हो गई हो ऋचा, कैसे अपने परिवार और कैरियर के प्रति संप्रीत दीदी पर इतना घिनौना आरोप लगा रही हो?’’ यश की पत्नी शशि ने पूछा.

‘‘यह आरोप नहीं हकीकत है, भाभी. दीदी की सगाई उन के बैचमेट सूरज से होने वाली थी लेकिन उस से एक सप्ताह पहले ही पापा को हार्ट अटैक पड़ गया. पापा जब आईसीयू में थे तो मैं ने दीदी को फोन पर कहते सुना था, ‘पापा अगर बच भी गए तो सामान्य जीवन नहीं जी पाएंगे, इसलिए बड़ी और कमाऊ होने के नाते परिवार के भरणपोषण की जिम्मेदारी मेरी है. सो, जब तक यश आईएएस प्रतियोगिता में उत्तीर्ण न हो जाए और ऋचा डाक्टर न बन जाए, मैं शादी नहीं कर सकती, सूरज. इस सब में कई साल लग जाएंगे, सो बेहतर होगा कि तुम मुझे भूल जाओ.’

‘‘उस के बाद दीदी ने दृढ़ता से शादी करने से मना कर दिया, रिश्तेदारों ने भी उन का साथ दिया क्योंकि अपाहिज पापा की तीमारदारी का खर्च तो उन के परिवार का कमाऊ सदस्य ही उठा सकता था और वह सिर्फ दीदी थीं. पापा ने अंतिम सांस लेने से पहले दीदी से वचन लिया था कि यश भैया और मेरे व्यवस्थित होने के बाद वे अपनी शादी के लिए मना नहीं करेंगी. आप को पता ही है कि मैं ने डब्लूएचओ की स्कालरशिप छोड़ कर अरुण से शादी क्यों की, ताकि दीदी पापा की अंतिम इच्छा पूरी कर सकें.’’

‘‘हमारे लिए उस के पापा की अंतिम इच्छा से बढ़ कर शिखा की अपनी इच्छा और भलाई जरूरी है,’’ मां ने तटस्थता से कहा.

‘‘पापा की अंतिम इच्छा पूरी करना दीदी की इच्छाओं में से एक है,’’ ऋचा बोली, ‘‘रहा भलाई का सवाल तो आप लोग केवल उपयुक्त घरवर सुझाइए, उस के अपने अनुरूप या अनुकूल होने का फैसला दीदी को करने दीजिए.’’

‘‘और अगर हम ने ऐसा नहीं किया न मां तो यह दीदी की परम हितैषिणी स्वयं दीदी के लिए घरवर ढूंढ़ने निकल पड़ेगी,’’ यश व्यंग्य से हंसा.

‘‘बिलकुल सही समझा आप ने, भैया. इस से पहले कि मैं और अरुण अमेरिका जाएं मैं चाहूंगी कि दीदी का भी अपना घरसंसार हो. आज मैं जो हूं दीदी की मेहनत और त्याग के कारण. सच कहिए, अगर दीदी न होतीं तो आप लोग मेरी डाक्टरी की पढ़ाई का खर्च उठा सकते थे?’’ ऋचा ने तल्ख स्वर में पूछा, ‘‘आप के लिए तो पापा की मृत्यु मेहनत से बचने का बहाना बन गई भैया. बगैर यह परवा किए कि पापा का सपना आप को आईएएस अधिकारी बनाना था, आप ने उन की जगह अनुकंपा में मिल रही बैंक की नौकरी ले ली क्योंकि आप पढ़ना नहीं चाहते थे. मां भी आप से मेहनत करवाना नहीं चाहतीं. और फिर पापा के समय की आनबान बनाए रखने को आईएएस अफसर दीदी तो थीं ही. नहीं तो आप के बजाय यह नौकरी मां भी कर सकती थीं, आप पढ़ाई और दीदी शादी.’’

‘‘ये गड़े मुर्दे उखाड़ कर तू कहना क्या चाहती है?’’ मां ने झल्लाए स्वर में पूछा.

‘‘यही कि पुत्रमोह में दीदी के साथ अब और अन्याय मत कीजिए. भइया की गृहस्थी चलाने के बजाय उन्हें अब अपना घरसंसार बसाने दीजिए. फिलहाल उस डाक्टर का विवरण मुझे दे दीजिए. मैं उस के बारे में पता लगाती हूं,’’ ऋचा ने उठते हुए कहा.

‘‘वह हम लगा लेंगे मगर आप चली कहां, अभी बैठो न,’’ शशि ने आग्रह किया.

‘‘अस्पताल जाने का समय हो गया है, भाभी,’’ कह कर ऋचा चल पड़ी. मां और यश ने रोका भी नहीं जबकि मां को मालूम था कि आज उस की छुट्टी है.

ऋचा सीधे शिखा के आफिस गई.

‘‘आप से कुछ जरूरी बात करनी है, दीदी. अगर आप अभी व्यस्त हैं तो मैं इंतजार कर लेती हूं,’’ उस ने बगैर किसी भूमिका के कहा.

‘‘अभी मैं एक मीटिंग में जा रही हूं, घंटे भर तक तो वह चलेगी ही. तू ऐसा कर, घर चली जा. मैं मीटिंग खत्म होते ही आ आऊंगी.’’

‘‘घर से तो आ ही रही हूं. आप ऐसा करिए मेरे घर आ जाइए, अरुण की रात 10 बजे तक ड्यूटी है, वह जब तक आएंगे हमारी बात खत्म हो जाएगी.’’

‘‘ऐसी क्या बात है ऋचा, जो मां और अरुण के सामने नहीं हो सकती?’’

‘‘बहनों की बात बहनों में ही रहने दो न दीदी.’’

‘‘अच्छी बात है,’’ शिखा मुसकराई, ‘‘मीटिंग खत्म होते ही तेरे घर पहुंचती हूं.’’

उसे लगा कि ऋचा अमेरिका जाने से पहले कुछ खास खरीदने के लिए उस की सिफारिश चाहती होगी. मीटिंग खत्म होते ही वह ऋचा के घर आ गई.

‘‘अब बता, क्या बात है?’’ शिखा ने चाय पीने के बाद पूछा.

‘‘मैं चाहती हूं दीदी कि मेरे और अरुण के अमेरिका जाने से पहले आप पापा को दिया हुआ अपना वचन कि जिम्मेदारियां पूरी होते ही आप शादी कर लेंगी, पूरा कर लें,’’ ऋचा ने बगैर किसी भूमिका के कहा, ‘‘वैसे आप की जिम्मेदारी तो मेरे डाक्टर बनते ही पूरी हो गई थी फिर भी आप मेरी शादी करवाना चाहती थीं, सो मैं ने वह भी कर ली…’’

‘‘लेकिन मेरी जिम्मेदारियां तो खत्म नहीं हुईं, बहन,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘यश अपना परिवार ही नहीं संभाल पाता है तो मां को कैसे संभालेगा?’’

‘‘यानी न कभी जिम्मेदारियां पूरी होंगी और न पापा की अंतिम इच्छा. जीने वालों के लिए ही नहीं दिवंगत आत्मा के प्रति भी आप का कुछ कर्तव्य है, दीदी.’’

शिखा ने एक उसांस ली.

‘‘मैं ने यह वचन पापा को ही नहीं सूरज को भी दिया था ऋचा, और जो उस ने मेरे लिए किया है उस के बाद उसे दिया हुआ वचन पूरा करना भी मेरा फर्ज बनता है लेकिन महज वचन के कारण जिम्मेदारियों से मुंह तो नहीं मोड़ सकती.’’

‘‘मां के लिए पापा की पेंशन काफी है, दीदी, और जरूरत पड़ने पर पैसे से मैं और आप दोनों ही उन की मदद कर सकते हैं, उन्हें अपने पास रख सकते हैं. यश का परिवार उस की निजी समस्या है, मेहनत करें तो दोनों मियांबीवी अच्छाखासा कमा सकते हैं, उन के लिए आप को परेशान होने की जरूरत नहीं है,’’ ऋचा ने आवेश से कहा और फिर हिचकते हुए पूछा, ‘‘माफ करना, दीदी, मगर मुझे याद नहीं आ रहा कि सूरज ने आप के लिए क्या किया?’’

‘‘मुझे रुसवाई से बचाने के लिए सूरज ने मेहनत से मिली आईएएस की नौकरी छोड़ दी क्योंकि हमारे सभी साथियों को हमारी प्रेमकहानी और होने वाली सगाई के बारे में मालूम था. एक ही विभाग में होने के कारण गाहेबगाहे मुलाकात होती और अफवाहें भी उड़तीं, सो मुझे इस सब से बचाने के लिए सूरज नौकरी छोड़ कर जाने कहां चला गया.’’

‘‘आप ने उसे तलाशने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘उस के किएकराए यानी त्याग पर पानी फेरने के लिए?’’

‘‘यह बात भी ठीक है. देखिए दीदी, जब आप वचनबद्ध हुई थीं तब आप की जिम्मेदारी केवल भैया और मेरी पढ़ाई पूरी करवाने तक सीमित थी, लेकिन आप ने हमारी शादियां भी करवा दीं. अब उस के बाद की जिम्मेदारियां आप के वचन की परिधि से बाहर हैं और अब आप का फर्ज केवल अपना वचन निभाना है. बहुत जी लीं दूसरों के लिए और यादों के सहारे, अब अपने लिए जी कर देखिए दीदी, कुछ नए यादगार क्षण संजोने की कोशिश करिए.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है…’’

‘‘तो फिर आज से ही इंटरनेट पर अपने मनपसंद जीवनसाथी की तलाश शुरू कर दीजिए. मां तो पुत्रमोह में आप की शादी करवाएंगी नहीं.’’

‘‘यही सब सोच कर तो मैं शादी नहीं करना चाहती, लेकिन तेरा यह कहना भी ठीक है कि पैसे से तो उन लोगों की मदद हमेशा की जा सकती है.’’

‘‘मैं आप को इंटरनेट पर उपलब्ध…’’

‘‘थोड़ा सब्र कर, ऋचा,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘उस से पहले मुझे स्वयं को किसी नितांत अजनबी के साथ जीने के लिए मानसिक रूप से तैयार करना होगा और मुझे यह भी मालूम नहीं है कि मेरी उस से क्या अपेक्षाएं होंगी या व्यक्तिगत जीवन में मेरी अपनी मान्यताएं क्या हैं? इन सब के लिए चिंतन की आवश्यकता है.’’

‘‘और उस के लिए एकांत की, जो आप को दफ्तर और घर की जिम्मेदारियों के चलते तो मिलने से रहा. आप लंबी छुट्टी ले कर या तो सुदूर पहाडि़यों में या समुद्रतट पर एकांतवास कीजिए.’’

‘‘सुझाव तो अच्छा है, सोचूंगी.’’

‘‘मगर आज ही रात को,’’ ऋचा ने जिद की.

शिखा ने सोचा जरूर लेकिन अपनी पिछली जिंदगी के बारे में. पापा बैंक अधिकारी थे लेकिन चाहते थे कि उन के बच्चे उन से बढ़ कर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बनें. शिखा का तो प्रथम प्रयास में ही चयन हो गया. ऋचा ने हाईस्कूल में ही बता दिया था कि उस की रुचि जीव विज्ञान में है और वह डाक्टर बनेगी. पापा ने सहर्ष अनुमति दे दी थी. मां के लाड़ले यश का दिल पढ़ाई में नहीं लगता था फिर भी पापा के डर से पढ़ रहा था लेकिन पापा के जाते ही उस ने पढ़ाई छोड़ कर अनुकंपा में मिली बैंक की नौकरी कर ली.

मां ने भी उस का यह कह कर साथ दिया कि वह तेरा हाथ बटाना चाह रहा है शिखा, बैंक की प्रतियोगी परीक्षाएं दे कर तरक्की भी करता रहेगा, लेकिन हाथ बटाने के बजाय यश ने अपना भार भी उस पर डाल दिया था. जहां उस की नियुक्ति होती थी, वहीं यश भी अपना तबादला करवा लेता था आईएएस अफसर बहन का रोब डाल कर. तरक्की पाने की न तो लालसा थी और न ही जरूरत, क्योंकि शिखा को मिलने वाली सब सुविधाओं का उपभोग तो वही करता था.

यश और उस के परिवार की जरूरतों के लिए मां शिखा को उसी स्वर में याद दिलाया करती थीं जिस में वह कभी पापा से घर के बच्चों की जरूरतें पूरी करने को कहती थीं यानी मां के खयाल में यश का परिवार शिखा का उत्तरदायित्व था. शिखा को इस से कुछ एतराज भी नहीं था. उस की अपनी इच्छाएं तो सूरज से बिछुड़ने के साथ ही खत्म हो गई थीं. उसे यश या उस के परिवार से कोई शिकायत भी नहीं थी, बस, बीचबीच में पापा के अंतिम शब्द, ‘जब ये दोनों अपने घरपरिवार में व्यवस्थित हो जाएंगे तो तू अकेली क्या करेगी, बेटी? जिन सपनों की तू ने आज आहुति दी है उन्हें पुनर्जीवित कर के फिर जीएगी तो मेरी भटकती आत्मा को शांति मिल जाएगी. जिस तरह तू मेरी जिम्मेदारियां निभाने को कटिबद्ध है, उसी तरह मेरी अंतिम इच्छा पूरी करने को भी रहना,’ याद आ कर कचोट जाते थे.

ऐसा ही कुछ सूरज ने भी कहा था, ‘जिस तरह अपने परिवार के प्रति तुम्हारा फर्ज तुम्हें शादी करने से रोक रहा है उसी तरह अपने मातापिता की इच्छा के विरुद्ध कुछ साल तक तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी होने के इंतजार में शादी न करने के फैसले पर मैं चाह कर भी अडिग नहीं रह पा रहा. कैसे जी पाऊंगा किसी और के साथ, नहीं जानता, लेकिन फिलहाल दफ्तर और घर के दायित्व निभाने में मेरा और तुम्हारा समय कट ही जाया करेगा लेकिन जब तुम दायित्व मुक्त हो जाओगी तब क्या करोगी, शिखा? मैं यह सोचसोच कर विह्वल हो जाया करूंगा कि तुम अकेली क्या कर रही होगी.’

‘फुरसत से तुम्हारी यादों के सहारे जी रही हूंगी और क्या?’

‘जीने के लिए यादों के सहारे के अलावा किसी अपने के सहारे की भी जरूरत होती है. मैं तो खैर सहारे के लिए नहीं मांबाप की जिद से मजबूर हो कर शादी कर रहा हूं लेकिन तुम जीवन की सांध्यवेला में अकेली मत रहना. मेरे सुकून के लिए शादी कर लेना.’

यश के परिवार के रहते अकेली होने का तो सवाल ही नहीं था लेकिन घर में अपनेपन की ऊष्मा ऋचा के जाते ही खत्म हो गई थी और रह गया था फरमाइशों और शिकायतों का अंतहीन सिलसिला. शिकायत करते हुए यश और मां को अपनी फरमाइश की तारीख तो याद रहती थी लेकिन यह पूछना नहीं कि शिखा किस वजह से वह काम नहीं कर सकी.

वैसे भी लगातार काम करतेकरते वह काफी थक चुकी थी और छुट्टियां भी जमा थीं सो उस ने सोचा कि कुछ दिन को कहीं घूम ही आएं. उस की सचिव माधवी मेनन जबतब केरल की तारीफ करती रहती थी, ‘तनमन को शांति और स्फूर्ति से भरना हो तो कभी भी केरल जाने पर ऐसा लगेगा कि आप का पुनर्जन्म हो गया है.’

अगले रोज उस ने माधवी से पूछा कि वह काम की थकान उतारने को कुछ दिन शोरशराबे से दूर प्रकृति के किसी सुरम्य स्थान पर रहना चाहती है, सो कहां जाए?

‘‘वैसे तो केरल में ऐसी जगहों की भरमार है,’’ माधवी ने उत्साह से बताया, ‘‘लेकिन आप को त्रिचूर का अथरियापल्ली वाटरफाल बहुत पसंद आएगा. वहां वन विभाग का सभी सुखसुविधाओं से युक्त गेस्ट हाउस भी है. तिरुअनंतपुरम के अपने आफिस वाले त्रिचूर के जिलाध्यक्ष से कह कर आप के रहने का प्रबंध करवा देंगे.’’

‘‘लेकिन वहां तक जाना कैसे होगा?’’

‘‘तिरुअनंतपुरम तक प्लेन से, उस के बाद आप को एअरपोर्ट से अथरियापल्ली तक पहुंचाने की जिम्मेदारी अपने आफिस वालों की होगी. आप अपने जाने की तारीख तय करिए, बाकी सब व्यवस्था मुझ पर छोड़ दीजिए.’’

लंच ब्रेक में ऋचा का फोन आया.

‘‘हां भई, छुट्टी के लिए आवेदन कर दिया है केरल जाने को,’’ शिखा ने उसे सब बताया.

‘‘लेकिन घर वालों के लिए आप छुट्टी पर नहीं टूर पर जा रही हैं दीदी, वरना सभी आप के साथ केरल घूमने चल पड़ेंगे,’’ ऋचा ने आगाह किया.

ऋचा का कहना ठीक था. सब तैयारी हो जाने से एक रोज पहले उस ने सब को बताया कि वह केरल जा रही है.

‘‘केरल घूमने तो हम सब भी चलेंगे,’’ शशि ने कहा.

‘‘मैं केरल प्लेन से जा रही हूं सरकारी गाड़ी से नहीं, जिस में बैठ कर तुम सब मेरे साथ टूर पर चल पड़ते हो.’’

‘‘हम क्या प्लेन में नहीं बैठ सकते?’’ यश ने पूछा.

‘‘जरूर बैठ सकते हो मगर टिकट ले कर और फिलहाल मेरा तो कल सुबह 9 बजे का टिकट कट चुका है,’’ कह कर शिखा अपने कमरे में चली गई.

अगली सुबह सब के सामने ड्राइवर को कुछ फाइलें पकड़ाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे एअरपोर्ट छोड़ कर, मेहरा साहब के घर चले जाना, ये 2 फाइलें उन्हें दे देना और ये 2 आफिस में माधवी मेनन को.’’

प्लेन में अपनी बराबर की सीट पर बैठी युवती से यह सुन कर कि वह एक प्रकाशन संस्थान में काम करती है और एक लेखक के पास एक किताब की प्रस्तावना पर विचारविमर्श करने जा रही है, शिखा ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अपने यहां लेखकों को कब से इतना सम्मान मिलने लगा?’’

‘‘मैडम, आप शायद नहीं जानतीं,’’ युवती खिसिया कर बोली, ‘‘बेस्ट सेलर के लेखक के लिए कुछ भी करना पड़ता है. ये महानुभाव केरल से बाहर आने को तैयार नहीं होते, सो बात करने के लिए हमें ही यहां आना पड़ता है.’’

इस से पहले कि शिखा पूछती कि वे महानुभाव हैं कौन, युवती ने उस का परिचय पूछ लिया और यह जानने पर कि वह आईएएस अधिकारी है और एकांत- वास करने के लिए अथरियापल्ली जा रही है, बड़ी प्रभावित हुई और उस के बारे में अधिक से अधिक पूछने लगी. शिखा ने उसे अपना कार्ड दे दिया.

माधवी का कहना ठीक था. अथरियापल्ली वाटरफाल वैसी ही जगह थी जैसी वह चाहती थी. गेस्ट हाउस में भी हर तरह का आराम था. बगैर अपने बारे में सोचे वह अभी प्रकृति की छटा और निरंतर बदलते रंग निहारने का आनंद ले रही थी कि अगली सुबह ही सूरज को देख कर हैरान रह गई.

‘‘तुम…यहां?’’ वह इतना ही कह सकी.

‘‘हां, मैं,’’ सूरज हंसा, ‘‘वैसे तो कहीं आताजाता नहीं, लेकिन यह जान कर कि तुम यहां हो, तुम से मिलने का लोभ संवरण न कर सका.’’

‘‘लेकिन तुम्हें किस ने बताया कि मैं यहां हूं?’’

‘‘पल्लवी यानी उस युवती ने जो कल तुम्हारे साथ प्लेन में थी,’’ सूरज ने सामने पत्थर पर बैठते हुए कहा, ‘‘असल में मैं उस के प्रकाशन संस्थान के लिए आईएएस प्रतियोगिता के लिए उपयोगी किताबें लिखता हूं. पल्लवी चाहती है कि प्रतियोगिता में सफल होने के बाद सफलता बनाए रखने के लिए क्या करें, इस विषय पर मैं कुछ लिखूं तो मैं ने कहा कि मुझे नौकरी छोड़े कई साल हो चुके हैं और आज के प्रशासन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है तो उस ने तुम्हारे बारे में बताया और कहा कि आप से मिल कर आजकल के हालात के बारे में जानकारी ले लूं. पल्लवी को तो तुम्हारे एकांतवास में खलल न डालने को मना कर दिया लेकिन खुद को आने से न रोक सका. ऐसे हैरानी से क्या देख रही हो, मैं सूरज ही हूं, शिखा.’’

‘‘उस में तो कोई शक नहीं है लेकिन तुम और लेखन. यकीन नहीं होता, सूरज.’’

‘‘यकीन न होने लायक ही तो अब तक मेरी जिंदगी में होता रहा है, शिखा,’’ सूरज उसांस ले कर बोला, ‘‘पुराने परिवेश से कटने के लिए मैं ने तिरुअनंतपुरम यूनिवर्सिटी में प्रवक्ता की नौकरी कर ली थी और वक्त काटने के लिए आईएएस प्रतियोगी परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को पढ़ाया करता था. उन के सफल होने पर इतने विद्यार्थी आने लगे कि मुझे नौकरी छोड़ कर कोचिंग क्लास खोलनी पड़ी. मेरे एक शिष्य ने मेरे दिए क्लास नोट्स का संकलन कर प्रकाशन करवा दिया, वह बहुत ही लोकप्रिय हुआ और प्रकाशक इस विषय की और किताबों के लिए मेरे पीछे पड़ गए और इस तरह मैं सफल लेखक बन गया. अब तो पढ़ाना भी छोड़ दिया है. बस, लिखता हूं.’’

‘‘लिखने भर से घर का खर्च चल जाता है?’’

‘‘बड़े आराम से. अकेले आदमी का ज्यादा खर्च भी नहीं होता.’’

‘‘यानी तुम ने मातापिता की खुशी की खातिर शादी नहीं की?’’

‘‘शादी करने से मना भी नहीं किया,’’ सूरज हंसा, ‘‘जो लोग मुझे अपना दामाद बनाने के लिए हाथ बांधे पापा के आगेपीछे घूमते थे, वे तो मेरी नौकरी छोड़ते ही बरसात की धूप की तरह गायब हो गए, जो लोग प्रवक्ता को लड़की देने के लिए तैयार थे वे मांपापा की कसौटी पर खरे नहीं उतरे. उन की तलाश अभी भी जारी है लेकिन सुदूर केरल में बसे लेखक को कौन दिल्ली वाला लड़की देगा? और तुम बताओ यह एकांतवास किसलिए? संन्यासवन्यास लेने का इरादा है?’’

शिखा हंस पड़ी, ‘‘असलियत तो इस के विपरीत है, सूरज,’’ और उस ने ऋचा के सुझाव के बारे में विस्तार से बताया.

‘‘दूसरे शब्दों में कहें तो मांपापा की तलाश खत्म हो गई,’’ सूरज हंसा, ‘‘वैसे तो मैं यहां से वापस जाने वाला नहीं था लेकिन तुम्हारे साथ कहीं भी चल सकता हूं.’’

‘‘मैं भी यहां आ सकती हूं, सूरज, लेकिन क्या गुजरे कल को आज बनाना संभव होगा?’’

‘‘अगर तुम मुझे जिलाना और खुद जिंदा होना चाहो तो…’’

शिखा के मोबाइल की घंटी बजी. यश का फोन था.

‘‘दीदी, गुरमेल सिंह जब परसों दोपहर तक गाड़ी ले कर नहीं आया तो मैं ने उस के मोबाइल पर उसे आने के लिए फोन किया, लेकिन उस ने कहा कि वह मेहरा साहब की ड्यूटी में है और उन के कहने पर ही हमारे यहां आ सकता है, सो मैं ने उन से बात करनी चाही. परसों तो मेहरा साहब से बात नहीं हो सकी, वे मीटिंग में थे. कल बड़ी मुश्किल से शाम को मिले तो बोले कि वे इस विषय में कुछ नहीं कह सकते. बेहतर है कि मैं माधवी से बात करूं. माधवी कहती है कि छुट्टी पर गए किसी भी अधिकारी को गाड़ी उस के कार्यभार संभालने वाले अधिकारी को दी जाती है और परिवार के लिए गाड़ी भेजने का नियम तो नहीं है लेकिन शिखा मैडम कहेंगी तो भिजवा देंगे. आप तुरंत माधवी को फोन कीजिए गाड़ी भिजवाने को.’’

‘‘जब परिवार के लिए गाड़ी भेजने का नियम नहीं है तो मैं उस का उल्लंघन करने को कैसे कह सकती हूं?’’ शिखा ने रुखाई से कहा.

‘‘चाहे गाड़ी के बगैर परिवार को कितनी भी परेशानी हो रही हो?’’

‘‘इतनी ही परेशानी है तो खुद ही गाड़ी का इंतजाम कर ले न भाई मेरे…’’

‘‘यह आप को हो क्या गया है दीदी? आप मां से बात कीजिए…’’

मां एकदम बरस पड़ीं, ‘‘यह क्या लापरवाही है, शिखा? हमारे लिए बगैर गाड़ीड्राइवर का इंतजाम किए, टूर का बहाना बना कर तुम छुट्टी मनाने निकल गई हो, शर्म नहीं आती?’’

शिखा तड़प उठी.

‘‘मैं ने कब कहा था मां कि मैं टूर पर जा रही हूं और काम की थकान उतारने को छुट्टी मनाने में शर्म कैसी? अगर गाड़ी के बगैर आप को दिक्कत हो रही है तो यश से कहिए, इंतजाम करे, परिवार के प्रति उस का भी तो कुछ दायित्व है.’’

‘‘यह तुझे क्या हो गया है, शिखा? यश कह रहा है, तू एकदम बदल गई है…’’

‘‘यश ठीक कह रहा है, मां,’’ शिखा ने बात काटी, ‘‘मेरा पुनर्जन्म हो रहा है, उस में आप को कुछ तकलीफ तो झेलनी ही पड़ेगी.’’

और वह सूरज की फैली बांहों में सिमट गई.

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