Serial Story: सोच पार्ट 1

लेखक- पुष्पा भाटिया

हर व्यक्ति के सोचने का तरीका अलग होता है. जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति जिस तरह सोचता हो, दूसरा भी उसी तरह सोचे. इसी तरह यह भी जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति की सोच को दूसरा पसंद करे. हां, सार्थक सोच से जीवन की धारा जरूर बदल जाती है जहां एक स्थिरता मिलती है, मन को सुकून मिलता है. यह बात मैं ने उस दिन अच्छी तरह से जानी जिस दिन मैं श्रीमती सान्याल के घर किटी पार्टी में गई थी. उस एक दिन के बाद मेरी सोच कब बदली यह खयाल कर मैं अतीत में खो सी गई.

दरवाजे पर उन की नई बहू मानसी ने हम सब का स्वागत किया. मिसेज सान्याल एकएक कर जैसेजैसे हम सभी सदस्याओं का परिचय, अपनी नई बहू से करवाती जा रही थीं वह चरण स्पर्श कर के सब से आशीर्वाद लेती जा रही थी. मानसी जैसे ही मेरे चरण छूने को आगे बढ़ी मैं ने प्यार से उसे यह कह कर रोक दिया, ‘बस कर बेटी, थक जाएगी.’

‘क्यों थक जाएगी?’ श्रीमती सान्याल बोलीं, ‘जितना झुकेगी उतनी ही इस की झोली आशीर्वाद के वजनों से भरती जाएगी.’

श्रीमती सान्याल तंबोला की टिकटें बांटने लगीं तो मानसी सब से पैसे जमा कर रही थी. खेल के बीच में मानसी रसोई में गई और थोड़ी देर में सब के लिए गरम सूप और आलू के चिप्स ले कर आई, फिर बारीबारी से सब को देने लगी.

तंबोला का खेल खत्म हुआ. खाने की मेज स्वादिष्ठ पकवानों से सजा दी गई. मानसी चौके में गरम पूरियां सेंक रही थी और श्रीमती सान्याल सब को परोसती जा रही थीं. दहीबड़े का स्वाद चखते समय औरतें कभी सास बनीं सान्याल की प्रशंसा करतीं तो कभी बहू मानसी की.

थोड़ी देर बाद हम सब महिलाओं ने श्रीमती सान्याल से विदा ली और अपनेअपने घर की ओर चल दीं.

घर लौट कर मेरे दिमाग पर काफी देर तक सान्याल परिवार का चित्र अंकित रहा. सासबहू के बीच न किसी प्रकार का तनाव था न मनमुटाव. प्यार, सम्मान और अपनत्व की डोर से दोनों बंधी थीं. हो सकता है यह सब दिखावा हो. मेरे मन से पुरजोर स्वर उभरा, ब्याह के अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं टकराहट और कड़वाहट तो बाद में ही पैदा होती हैं, और तभी अलगअलग रहने की बात सोची जाती है. इसीलिए क्यों न ब्याह होते ही बेटेबहू को अलग घर में रहने दिया जाए.

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श्रीमती सान्याल मेरी बहुत नजदीकी दोस्त हैं. पढ़ीलिखी शिष्ट महिला हैं. मिस्टर सान्याल मेरे पति अविनाश के ही दफ्तर में काम करते हैं. उन का बेटा विभू और मेरा राहुल, हमउम्र हैं. दोनों ने एक साथ ही एम.बी.ए. किया था. अब दोनों अलगअलग बहु- राष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे हैं.

श्रीमती सान्याल शुरू से ही संयुक्त परिवार की पक्षधर थीं. विभू के विवाह से पहले ही वह जब तब बेटेबहू को अपने साथ रखने की बात कहती रही थीं. लेकिन मेरी सोच उन से अलग थी. पास- पड़ोस, मित्र, परिजनों के अनुभव सुन कर यही सोचती कि कौन पड़े इन झमेलों में.

मैं ने एक बार श्रीमती सान्याल से कहा था, हर घर तो कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ है. सौहार्द, प्रेम, घनिष्ठता, अपनापन दिखाई ही नहीं देता. परिवारों में, सास बहू की बुराई करती है, बहू सास के दुखड़े रोती है.

इस पर वह बोली थीं, ‘घर में रौनक भी तो रहती है.’ तब मैं ने अपना पक्ष रखा था, ‘समझौता बच्चों से ही नहीं, उन के विचारों से करना पड़ता है.’

‘शुरू में सासबहू का रिश्ता तल्खी भरा होता है किंतु एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी न बन कर एकदूसरे के अस्तित्व को प्यार से स्वीकारा जाए और यह समझा जाए कि रहना तो साथसाथ ही है, तो सब ठीक रहता है.’’

ब्याह से पहले ही मैं ने राहुल को 3 कमरे का एक फ्लैट खरीदने की सलाह दी पर अविनाश चाहते थे कि बेटेबहू हमारे साथ ही रहें. उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा भी था कि राधिका नौकरी करती है. दोनों सुबह जाएंगे, रात को लौटेंगे. कितनी देर मिलेंगे जो विचारों में टकराहट होगी.

‘विचारों के टकराव के लिए थोड़ा सा समय ही काफी होता है,’ मैं अड़ जाती, ‘समझौता और समर्पण मुझे ही तो करना पड़ेगा. बहूबेटा, प्रेम के हिंडोले में झूमते हुए दफ्तर जाएं और मैं उन के नाजनखरे उठाऊं?’

अविनाश चुप हो जाते थे.

फ्लैट के लिए कुछ पैसा अविनाश ने दिया बाकी बैंक से फाइनेंस करवा लिया गया. राधिका के दहेज में मिले फर्नीचर से उन का घर सज गया. बाकी सामान खरीद कर हम ने उन्हें उपहार में दे दिया. कुल मिला कर राहुल की गृहस्थी सज गई. सप्ताहांत पर वे हमारे पास आ जाते या हम उन के पास चले जाते थे.

मैं इस बात से बेहद खुश थी कि मेरी आजादी में किसी प्रकार का खलल नहीं पड़ा था. अविनाश सुबह दफ्तर जाते, शाम को लौटते. थोड़ा आराम करते, फिर हम दोनों पतिपत्नी क्लब चले जाते थे. वह बैडमिंटन खेलते या टेनिस और मैं अकसर महिलाओं के साथ गप्पगोष्ठी में व्यस्त रहती या फिर ताश खेलती. इस सब के बाद जो भी समय मेरे पास बचता उस में मैं बागबानी करती.

पिछले कुछ दिनों से श्रीमती सान्याल दिखाई नहीं दी थीं. क्लब में भी मिस्टर सान्याल अकेले ही आते थे. एक दिन पूछ बैठी तो हंस कर बोले, ‘आजकल घर में ही रौनक रहती है. आप क्यों नहीं मिल आतीं?’

अच्छा लगा था मिस्टर सान्याल का प्रस्ताव. एक दिन बिना पूर्व सूचना के मैं उन के घर चली गई. वह बेहद अपनेपन से मिलीं. उन के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव तिर आए. कुछ समय शिकवेशिकायतों में बीत गया. फिर मैं ने उलाहना सा दिया, ‘काफी दिनों से दिखाई नहीं दीं, इसीलिए चली आई. कहां रहती हो आजकल?’

मैं सोच रही थी कि इतना सुनते ही श्रीमती सान्याल पानी से भरे पात्र सी छलक उठेंगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. वह सहज भाव में बोलीं, ‘विभू के विवाह से पहले मैं घर में बहुत बोर होती थी इसीलिए घर से बाहर निकल जाती थी या फिर किसी को बुला लेती थी. अब दिन का समय घर के छोटेबड़े काम निबटाने में ही निकल जाता है. शाम का समय तो बेटे और बहू के साथ कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता.’

संतुष्ट, संतप्त, मिसेज सान्याल मेरे हाथ में एक पत्रिका थमा कर खुद रसोई में चाय बनाने के लिए चली गईं.

चाय की चुस्की लेते हुए मैं ने फिर कुरेदा, ‘काफी दुबली हो गई हो. लगता है, काम का बोझ बढ़ गया है.’

‘आजकल मानसी मुझे अपने साथ जिम ले जाती है’, और ठठा कर वह हंस दीं, ‘उसे स्मार्ट सास चाहिए,’ फिर थोड़े गंभीर स्वर में बोलीं, ‘इस उम्र में वजन कम रहे तो इनसान कई बीमारियों से बच जाता है. देखो, कैसी स्वस्थ, चुस्तदुरुस्त लग रही हूं?’

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Serial Story: सोच- पार्ट 2

कुछ देर तक गपशप का सिलसिला चलता रहा फिर मैं ने उन से विदा ली और घर लौट आई.

लगभग एक हफ्ते बाद फोन की घंटी बजी. श्रीमती सान्याल थीं दूसरी तरफ. हैरानपरेशान सी वह बोलीं, ‘मानसी का उलटियां कर के बुरा हाल हो रहा है. समझ में नहीं आता क्या करूं?’

‘क्या फूड पायजनिंग हो गई है?’

‘अरे नहीं, खुशखबरी है. मैं दादी बनने वाली हूं. मैं ने तो यह पूछने के लिए तुम्हें फोन किया था कि तुम ने ऐसे समय में अपनी बहू की देखभाल कैसे की थी, वह सब बता और जो भूल गई हो उसे याद करने की कोशिश कर. तब तक मैं अपनी कुछ और सहेलियों को फोन कर लेती हूं.’

अति उत्साहित, अति उत्तेजित श्रीमती सान्याल की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गई. ब्याह के एक बरस बाद राधिका गर्भवती हुई थी. शुरू के 2-3 महीने उस की तबीयत काफी खराब रही थी. उलटियां, चक्कर फिर वजन भी घटने लगा था. लेडी डाक्टर ने उसे पूरी तरह आराम करने की सलाह दी थी.

राधिका और राहुल मुझे बारबार बुलाते रहे. एक दिन तो राहुल दरवाजे पर ही आ कर खड़ा हो गया और अपनी कार में मेरा बैग भी ले जा कर रख लिया. अविनाश की भी इच्छा थी कि मैं राहुल के साथ चली जाऊं. पर मेरी इच्छा वहां जाने की नहीं थी. उन्होंने मुझे समझाते हुए यह भी कहा कि अगर तुम राहुल के घर नहीं जाना चाहती हो तो उन्हें यहीं बुला लो.

सभी ने इतना जोर दिया तो मैं ने भी मन बना लिया था. सोचा, कुछ दिन तो रह कर देखें. शायद अच्छा लगे.

अगली सुबह अखबार में एक खबर पढ़ी, ‘कृष्णा नगर में एक बहू ने आत्म- हत्या कर ली. बहू को प्रताडि़त करने के अपराध में सास गिरफ्तार.’

‘तौबातौबा’ मैं ने अपने दोनों कानों को हाथ लगाया. मुंह से स्वत: ही निकल गया कि आज के जमाने में जितना हो सके बहूबेटे से दूरी बना कर रखनी चाहिए.

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मां के प्राण, बेटे में अटकते जरूर हैं, मोह- ममता में मन फंसता भी है. आखिर हमारे ही रक्तमांस का तो अंश होता है हमारा बेटा. लेकिन वह भी तो बहू के आंचल से बंधा होता है. मां और पत्नी के बीच बेचारा घुन की तरह पिसता चला जाता है. मां तो अपनी ममता की छांव तले बहूबेटे के गुणदोष ढक भी लेगी लेकिन बहू तो सरेआम परिवार की इज्जत नीलाम करने में देर नहीं करती. किसी ने सही कहा है, ‘मां से बड़ा रक्षक नहीं, पत्नी से बड़ा तक्षक नहीं.’

मैं गर्वोन्नत हो अपनी समझदारी पर इतरा उठी. यही सही है, न हम बच्चों की जिंदगी में हस्तक्षेप करें न वह हमारी जिंदगी में दखल दें. राधिका बेड रेस्ट पर थी. उस ने अपनी मां को बुला लिया तो मैं ने चैन की सांस ली थी. ऐसा लगा, जैसे मैं कटघरे में जाने से बच गई हूं.

प्रसव के समय भी मजबूरन जाना पड़ा था, क्योंकि राधिका के पीहर में कोई महिला नहीं थी, सिर्फ मां थी, उन्हें भी अपनी बहू की डिलीवरी पर अमेरिका जाना पड़ रहा था.

3 माह का समय मैं ने कैसे काटा, यह मैं ही जानती हूं. नवजात शिशु और घर के छोटेबड़े दायित्व निभातेनिभाते मेरे पसीने छूटने लगे. इतने काम की आदत भी तो नहीं थी. राधिका की आया से जैसा बन पड़ता सब को पका कर खिला देती. रात में भी शुभम रोता तो आया ही चुप कराती थी.

3 माह का प्रसूति अवकाश समाप्त हुआ. राधिका को काम पर जाना था. बेटेबहू दोनों ने हमारे साथ रहने की इच्छा जाहिर की थी.

अविनाश भी 3 माह के शिशु को आया की निगरानी में छोड़ कर जाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन मेरी नकारात्मक सोच फिर से आड़े आ गई. मन अडि़यल घोड़े की तरह एक बार फिर पिछले पैरों पर खड़ा हो गया था. मन को यही लगता था कि बहू के आते ही इस घर की कमान मेरे हाथ से सरक कर उस के हाथ में चली जाएगी.

राधिका ने शुभम को अपने ही दफ्तर में स्थित क्रेच में छोड़ कर अपना कार्यभार संभाल लिया. लंच में या बीचबीच में जब भी उसे समय मिलता वह क्रेच में जा कर शुभम की देखभाल कर आती थी. शाम को दोनों पतिपत्नी उसे साथ ले कर ही वापस लौटते थे. दुख, तकलीफ या बीमारी की अवस्था में राधिका और राहुल बारीबारी से अवकाश ले लिया करते थे. मुश्किलें काफी थीं लेकिन विदेशों में भी तो बच्चे ऐसे ही पलते हैं, यही सोच कर मैं मस्त हो जाती थी.

मिसेज सान्याल अकसर मुझे अपने घर बुला लेती थीं. मैं जब भी उन के घर जाती, कभी वह मशीन पर सिलाई कर रही होतीं या फिर सोंठहरीरे का सामान तैयार कर रही होतीं. मानसी का चेहरा खुशी से भरा होता था.

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एक दिन उन्होंने, कई छोटेछोटे रंगबिरंगे फ्राक दिखाए और बोलीं, ‘बेटी होगी तो यह रंग फबेगा उस पर, बेटा होगा तो यह रंग अच्छा लगेगा.’

मैं उन के चेहरे पर उभरते भावों को पढ़ने का प्रयास करती. न कोई डर, न भय, न ही दुश्ंिचता, न बेचैनी. उम्मीद की डोर से बंधी मिसेज सान्याल के मन में कुछ करने की तमन्ना थी, प्रतिपल.

एक दिन सुबह ही मिस्टर सान्याल का फोन आया. बोले, ‘‘मानसी को लेबर पेन शुरू हो गया है और उसे अस्पताल ले कर जा रहे हैं. मिसेज सान्याल थोड़ा अकेलापन महसूस कर रही हैं, अगर आप अस्पताल चल सकें तो…’’

Serial Story: सोच- पार्ट 3

मैं तुरंत तैयार हो कर उन के साथ चल दी. मानसी दर्द से छटपटा रही थी और मिसेज सान्याल उसे धीरज बंधाती जा रही थीं. कभी उस की टांगें दबातीं तो कभी माथे पर छलक आए पसीने को पोंछतीं, उस का हौसला बढ़ातीं.

कुछ ही देर में मानसी को लेबररूम में भेज दिया गया तो मिसेज सान्याल की निगाहें दरवाजे पर ही अटकी थीं. वह लेबररूम में आनेजाने वाले हर डाक्टर, हर नर्स से मानसी के बारे में पूछतीं. मिसेज सान्याल मुझे बेहद असहाय दिख रही थीं.

मानसी ने बेटी को जन्म दिया. सब कुछ ठीकठाक रहा तो मैं घर चली आई पर पहली बार कुछ चुभन सी महसूस हुई. खालीपन का अहसास हुआ था. अविनाश दफ्तर चले गए थे. रिटायरमेंट के बाद उन्हें दोबारा एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई थी. मेरा मन कहीं भी नहीं लगता था. घर बैठती तो कमरे के भीतर भांयभांय करती दीवारें, बाहर का पसरा हुआ सन्नाटा चैन कहां लेने देता था. तबीयत गिरीगिरी सी रहने लगी. स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया. मन में हूक सी उठती कि मिसेज सान्याल की तरह मुझे भी तो यही सुख मिला था. संस्कारी बेटा, आज्ञाकारी बहू. मैं ने ही अपने हाथों से सबकुछ गंवा दिया.

डाक्टर ने मुझे पूरी तरह आराम की सलाह दी थी. राहुल और राधिका मुझे कई डाक्टरों के पास ले गए. कई तरह के टेस्ट हुए पर जब तक रोग का पता नहीं चलता तो इलाज कैसे संभव होता? बच्चों के घर आ जाने से अविनाश भी निश्ंिचत हो गए थे.

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राधिका ने दफ्तर से छुट्टी ले ली थी. चौके की पूरी बागडोर अब बहू के हाथ में थी. सप्ताह भर का मेन्यू उस ने तैयार कर लिया था. केवल अपनी स्वीकृति की मुहर मुझे लगानी पड़ती थी. मैं यह देख कर हैरान थी कि शादी के बाद राधिका कभी भी मेरे साथ नहीं रही फिर भी उसे इस घर के हर सदस्य की पसंद, नापसंद का ध्यान रहता था.

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राहुल दफ्तर जाता जरूर था लेकिन जल्दी ही वापस लौट आता था.

शुभम अपनी तोतली आवाज से मेरा मन लगाए रखता था. घर में हर तरफ रौनक थी. रस्सियों पर छोटेछोटे, रंगबिरंगे कपड़े सूखते थे. रसोई से मसाले की सुगंध आती थी. अविनाश और मैं उन पकवानों का स्वाद चखते थे जिन्हें बरसों पहले मैं खाना तो क्या पकाना तक भूल चुकी थी.

कुछ समय बाद मैं पूरी तरह से स्वस्थ हो गई. मिसेज सान्याल हर शाम मुझ से मिलने आती थीं. कई बार तो बहू के साथ ही आ जाती थीं. अब उन पर, नन्ही लक्ष्मी को भी पालने का अतिरिक्त कार्यभार आ गया था. वह पहले से काफी दुबली हो गई थीं, लेकिन शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्णत: स्वस्थ दिखती थीं.

एक शाम श्रीमती सान्याल अकेली ही आईं तो मैं ने कुरेदा, ‘अब तक घर- गृहस्थी संभालती थीं, अब बच्ची की परवरिश भी करोगी?’

‘संबंधों का माधुर्य दैनिक दिनचर्या की बातों में ही निहित होता है. घरपरिवार को सुचारु रूप से चलाने में ही तो एक औरत के जीवन की सार्थकता है,’ उन्होंने स्वाभाविक सरलता से कहा फिर शुभम के साथ खेलने लगीं.

राधिका पलंगों की चादरें बदल रही थी. सुबह बाई की मदद से उस ने पालक, मेथी काट कर, मटर छील कर, छोटेछोटे पौली बैग में भर दिए थे. प्याज, टमाटर का मसाला भून कर फ्रिज में रख दिया था. अगली सुबह वे दोनों वापस अपने घर लौट रहे थे.

इस एक माह के अंदर मैं ने खुद में आश्चर्यजनक बदलाव महसूस किया था. अपनेआप में एक प्रकार की अतिरिक्त ऊर्जा महसूस होती थी. तनावमुक्ति, संतोष, विश्राम और घरपरिवार के प्रति निष्ठावान बहू की सेवा ने मेरे अंदर क्रांतिकारी बदलाव ला दिया था.

‘मिसेज सान्याल मुझे समझा रही थीं, ‘देखो, हर तरफ शोर, उल्लास, नोकझोंक, गिलेशिकवे, प्यारसम्मान से दिनरात की अवधि छोटी हो जाती है. 4 बरतन जहां होते हैं, खटकते ही हैं पर इन सब से रौनक भी तो रहती है. अवसाद पास नहीं फटकता, मन रमा रहता है.’

पहली बार मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरी सोच बदल गई है और अब श्रीमती सान्याल की सोच से मिल रही है. सच तो यह था कि मुझे अपने बच्चों से न कोई गिला था न शिकवा, न बैर न दुराव. बस, एक दूरी थी जिसे मैं ने खुद स्थापित किया था.

आज बहू के प्रति मेरे चेहरे पर कृतज्ञता और आदर के भाव उभर आए हैं. हम दोनों के बीच स्थित दूरी कहीं एक खाई का रूप न ले ले. इस विचार से मैं अतीत के उभर आए विचारों को झटक उठ कर खड़ी हो गई. कुछ पाने के लिए अहम का त्याग करना पड़ता है. अधिकार और जिम्मेदारियां एक साथ ही चलती हैं, यह पहली बार जान पाई थी मैं.

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राहुल और राधिका कार में सामान रख रहे थे. शुभम का स्वर, अनुगूंज, अंतस में और शोर मचाने लगा. राहुल, पत्नी के साथ मुझ से विदा लेने आया तो मेरा स्वर भीग गया. कदम लड़खड़ाने लगे. राधिका ने पकड़ कर मुझे सहारा दिया और पलंग पर लिटा दिया फिर मेरे माथे पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ मां?’’

‘‘मैं तुम लोगों को कहीं जाने नहीं दूंगी,’’ और बेटे का हाथ पकड़ कर मैं रो पड़ी.

‘‘पर मां…’’

‘‘कुछ कहने की जरूरत नहीं है. हम सब अब साथ ही रहेंगे.’’

मेरे बेटे और बहू को जैसे जीवन की अमूल्य निधि मिल गई और अविनाश को जीवन का सब से बड़ा सुख. मैं ने अपने हृदय के इर्दगिर्द उगे खरपतवार को समूल उखाड़ कर फेंक दिया था. शक, भय आशंका के बादल छंट चुके थे. बच्चों को अपने प्रति मेरे मनोभाव का पता चल गया था. सच, कुछ स्थानों पर जब अंतर्मन के भावों का मूक संप्रेषण मुखर हो उठता है तो शब्द मूल्यहीन हो जाते हैं.

Serial Story: चिंता- पार्ट 2

‘छि:, बहुत हो गया. यह घर रोजरोज नरक बनता जा रहा है. न सुख है और न शांति.’ चिढ़ता हुआ संपत बाहर चला गया. पद्मजा रोतीबिलखती बिस्तर पर लेट गई.

पद्मजा रोज की तरह उस दिन भी  बाजार गई और वह सब्जी खरीद रही थी कि सामने एक ऐसा नजारा दिखाई पड़ा कि वह फौरन पीछे मुड़ी और बिना कुछ खरीदे ही घर लौट आई.

संपत स्कूटर पर कहीं जा रहा था और पीछे कोई खूबसूरत लड़की बैठी थी. दोनों अपनी दुनिया में मस्त थे. आपस में बातें करते हुए, हंसते हुए लोटपोट हो रहे थे. बस, इसी दृश्य ने पद्मजा को उत्तेजित, पागल और बेचैन कर दिया.

आते ही पद्मजा ने प्लास्टिक की थैली एक कोने में फेंक दी और सीधा रसोईघर में घुस गई. अलमारी से किरोसिन का डब्बा उठा कर उस ने अपने शरीर पर सारा तेल उड़ेल दिया. बस, अब तीली जला कर आत्महत्या करने ही वाली थी कि बाहर स्कूटर की आवाज सुनाई पड़ी.

पद्मजा का क्रोध मानो सातवें आसमान पर चढ़ गया. उस के मन में ईर्ष्या ने ज्वालामुखी का रूप धारण कर लिया.

‘अब मुझे मर ही जाना चाहिए. जीवन भर उसे 8-8 आंसू बहाते, तड़पतड़प कर रहना चाहिए,’ पद्मजा का दिमाग ऐसे विचारों से भर गया.

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संपत को घर में कदम रखते ही मिट्टी के तेल जैसी किसी चीज के जलने की गंध लग गई. रसोई में झांक कर देखा तो ज्वालाओं से घिरी पद्मजा दिखाई पड़ी. संपत हक्काबक्का रह गया. वह जोश में आ कर रसोई का दरवाजा पीटने लगा और पद्मजा को बारबार पुकार रहा था. अंत में दरवाजा टूट गया. 40 प्रतिशत जली पद्मजा अस्पताल में भरती कराई गई. फिर बड़ी मुश्किल से वह बच पाई. पद्मजा को जब यह पता चला कि उस दिन संपत के स्कूटर के पीछे बैठी नजर आई लड़की कोई और नहीं वह तो संपत के ताऊ की बेटी थी, बस, पद्मजा का मन पश्चात्ताप से भर गया. उसे अपनी गलती महसूस हुई.

पद्मजा में अपने प्रति ग्लानि तब और बढ़ गई जब पति ने इलाज के दौरान जीतोड़ कर सेवा की. उसे बड़ी शरम महसूस हुई और अपनी जल्दबाजी, मूर्खता पर स्वयं को कोसने लगी.

दौड़ती कार के अचानक रुकते ही पद्मजा वर्तमान में आ गई. अतीत के सारे चलचित्र ओझल हो गए.

‘‘गाड़ी क्यों रोकी?’’ उस ने ड्राइवर से पूछा.

‘‘मांजी, यहां एक छोटा होटल है. सोचा, आप थक गई होंगी. प्यास भी लग गई होगी. क्या मैं आप के लिए थोड़ा ठंडा पानी ले आऊं?’’

‘‘नहीं, इस समय मुझे कुछ भी नहीं चाहिए. मुझे फौरन वहां पहुंचना है वरना…’’ इतना कहतेकहते ही पद्मजा का गला भर गया. उस समय केवल समीरा ही उन के दिलोदिमाग पर छाई हुई थी.

पद्मजा पीछे सीट की तरफ झुक गई. खिड़की के शीशे नीचे कर देने से ठंडी हवा के झोंके भीतर आ कर मानो उस की थकावट दूर करते हुए सांत्वना भी दे रहे थे. बस, उस ने अपनी आंखें मूंद लीं.

गाड़ी अचानक ब्रेक के कारण एक झटके के साथ रुकी तो पद्मजा एकदम सामने वाली सीट पर जा गिरी. तभी उस की आंख खुल गई. वह एकदम उछल पड़ी. चारों ओर नजर दौड़ाई. स्थिति सामान्य देख कर वह बोल पड़ी, ‘‘सत्यम, अचानक गाड़ी क्यों रोक दी तूने?’’ पद्मजा ने पूछा.

‘‘आप नींद में चीख उठीं, तो मैं डर गया कि आप के साथ कोई अनहोनी हुई होगी,’’ उस ने अपनी सफाई दी.

कार शहर में पहुंच गई थी और रामनगर महल्ले की तरफ जाने लगी. पद्मजा मन ही मन सोचने लगी कि उस की बिटिया सहीसलामत रहे.

लेकिन, जैसा उस के मन में डर था. पद्मजा ने वहां ऐसा कुछ भी नहीं पाया था. वातावरण एकदम शांत था. गाड़ी के रुकते ही वह दरवाजा खोल कर झट से कूदी और भीतर की तरफ दौड़ पड़ी.

घर के भीतर खामोशी फैली हुई थी. सहमी हुई पद्मजा ने भीतर कदम रखा कि उसे ये बातें सुनाई पड़ीं.

समीरा बोल रही थी. बेटी की आवाज सुन कर पद्मजा के सूखे दिल में मानो शीतल वर्षा हुई.

‘‘आप ने क्यों बचा लिया मुझे? एक पल और बीतता तो मैं फांसी के फंदे में झूल जाती और इस माहौल से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता.’’

‘‘समीरा…’’ यह आवाज पद्मजा के दामाद की थी.

‘‘मैं ने यह बिलकुल नहीं सोचा कि तुम इतनी ‘सेंसिटिव’ हो. अरे, पतिपत्नी के बीच झड़प हो जाती है, झगड़े भी हो जाते हैं. क्या इतनी छोटी सी बात के लिए मर जाएंगे? समीरा, मैं तुम को दिल से चाहता हूं. क्या तुम यह नहीं जानतीं कि मैं बगैर तुम्हारे एक पल भी नहीं रह सकता?’’

‘‘आप जानते हैं कि मुझे शराबियों से सख्त नफरत है. फिर भी आप…’’

‘‘समीरा, मैं शराबी थोड़े ही हूं. तुम्हारा यह सोचना गलत है कि मैं हमेशा पीता रहता हूं लेकिन कभीकभी पार्टियों में दोस्तों का मन रखने के लिए थोड़ा पीता हूं. यह तो सच है कि परसों रात मैं ने थोड़ी सी शराब पी थी लेकिन तुम ने जोश में आ कर भलाबुरा कहा, मेरा मजाक उड़ाया और बेइज्जती की और मैं इसे बरदाश्त नहीं कर सका.

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Serial Story: चिंता- पार्ट 3

‘‘तुम पर अनजाने में हाथ उठाया उस के लिए तुम जो भी सजा दोगी, मैं उसे भुगतने को तैयार हूं. लेकिन ऐसी सजा तो मत दो, समीरा. इस दुनिया में तुम से बढ़ कर मेरे लिए कुछ भी नहीं है. तुम्हारी खातिर मैं शराब छोड़ दूंगा. प्रामिस, तुम्हारी कसम, लेकिन बगैर तुम्हारे यह जिंदगी कोई जिंदगी थोड़े ही है.’’

दामाद के स्वर में अपनी बेटी के प्रति जो प्रेम, जो अपनापन था, उसे सुन कर पद्मजा मानो पिघल गईं. उन की आंखें भी भर आईं. वह अपने आप को संभाल ही नहीं सकीं. और तुरंत दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘कौन है?’’ समीरा और शेखर एकसाथ ही बेडरूम से बाहर आ गए.

मां को देखते ही भावुक हो समीरा दूर से ही ‘मां’ कहते हुए दौड़ आई और उन से लिपट गई.

‘‘यह क्या किया बेटी तूने? तेरी चिट्ठी देखते ही मेरी छाती फट गई. मेरी कोख में आग लगाने का खयाल तुझे क्यों आया? यह तूने सोचा कैसे कि बगैर तेरे हम जिएंगे?’’

‘‘माफ करो मम्मी, मैं ने जोश में आ कर वह चिट्ठी लिख दी थी. यह नहीं सोचा कि वह तुम्हें इतना सदमा पहुंचाएगी.’’

शेखर एकदम शर्मिंदा हो गया. उसे अब तक यह नहीं पता था कि समीरा ने अपनी मां को चिट्ठी लिखी है. उस की नजरें अपराधबोध से झुक गईं.

समीरा मां का चेहरा देख कर भांप गई कि उस ने चिट्ठी पढ़ने से ले कर यहां पहुंचने तक कुछ भी नहीं खाया है.

समीरा ने पंखा चलाया फिर मां और ड्राइवर को ठंडा पानी पिलाया. थोड़ी देर बाद वह गरमागरम काफी बना कर ले आई. उसे पीने के बाद मानो पद्मजा की जान में जान आ गई.

वहां से जाने से पहले पद्मजा बेटी को समझातेबुझाते दामाद के बारे में पूछ बैठीं, ‘‘समीरा, शेखर घर पर नहीं है क्या?’’

‘‘हां हैं,’’ समीरा ने जवाब दिया.

पद्मजा ने भांप लिया कि समीरा इस बात के लिए पछता रही है कि उस के कारण शेखर की नाक कट गई और अपनी मां के सामने वह शरम महसूस कर रही है.

‘‘जा, उसे मेरे जाने की बात बता दे,’’ पद्मजा ने बड़े संक्षेप में कहा.

समीरा के भीतर जा कर बताते ही शेखर बाहर आया. भले ही वह पद्मजा की तरफ मुंह कर के खड़ा था, नजरें जमीन में गड़ी हुई थीं.

‘‘शेखर, समीरा की तरफ से मैं माफी मांगती हूं. उसे माफ कर दो.’’ शेखर विस्मित रह गया.

पद्मजा अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘वह शुरू से ऐसी ही है, एकदम मेरे जैसी. वह बहुत भोली है, बिलकुल बच्चों जैसी. उसे यह भी नहीं पता कि जोश में आ कर जो भी फैसला वह करेगी, उस से सिर्फ उस को ही नहीं बल्कि दूसरों को भी दुख होता है.’’

समीरा और शेखर दोनों पद्मजा की बातें सुन कर चौंक पड़े.

‘‘बेटी, तू पूछती थी न, मेरे शरीर पर ये धब्बे क्या हैं? ये घाव के निशान हैं जो जल जाने के कारण हुए. मैं ने तुझे यह कभी नहीं बताया था, ये हुए कैसे? मैं सोचती थी, अगर बता दूं तो मेरे व्यक्तित्व पर कलंक लग जाएगा और मैं तेरी नजर से गिर भी सकती हूं. इसलिए मैं तुझ से झूठ बोलती आई.

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‘‘बेटी, अब मैं पछता रही हूं कि मैं ने यह पहले ही तुझ से क्यों नहीं कहा? लेकिन मुझे यह देर से पता चला कि बड़ों के अनुभव छोटों को पाठ पढ़ाते हैं. शुरू में मेरे भीतर भी आत्महत्या की भावना रहती थी. हर छोटीबड़ी बात के लिए मैं आत्महत्या कर लेने का निर्णय लेती थी. ऐसा सोचने के पीछे मुझे वेदना या विपत्तियों से मुक्ति पा लेने के विचार की तुलना में किसी से बदला लेने या किसी को दुख पहुंचाने की बात ही ज्यादा रहती थी. कालक्रम में मेरा यह भ्रम दूर होता गया और यह पता चला कि जिंदगी कितनी अनमोल है.

शेखर, जो पहली बार अपनी सासूमां की जीवन संबंधी नई बात सुन रहा था विस्मित हो गया. समीरा की भी लगभग यही हालत थी.

पद्मजा आगे बताने लगी.

‘‘दरअसल, मौत किसी भी समस्या का समाधान नहीं. मौत से मतलब, जिंदगी से डर कर भाग जाना, समस्याओं और चुनौतियों से मुंह मोड़ लेना है. यह तो कायरों के लक्षण हैं. कमजोर दिल वाले ही खुदकुशी की बात सोचते हैं. बेटी, बहादुर लोग जीवन में एक ही बार मरते हैं लेकिन बुजदिल आदमी हर दिन, हर पल मरता रहता है. जिंदगी जीने के लिए है, बेटी, मरने के लिए नहीं. सुखदुख दोनों जीवन के अनिवार्य अंश हैं. जो दोनों को समान मानेगा वही जीवन का आनंद लूट सकेगा. समीरा, यह सब मैं तुझे इसलिए बता रही हूं कि अपनी समस्याओं का समाधान मर कर नहीं जीवित रह कर ढूंढ़ो. जीवन में समस्याओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है. दोनों ठंडे दिमाग से सोच कर समस्या का समाधान ढूंढ़ो.

‘‘मैं भी जोश में आ कर आत्महत्या कर लेने का प्रयास कई बार कर चुकी हूं. उन में से अगर एक भी प्रयत्न सफल हो जाता तो आज न मुझे इतनी अच्छी जिंदगी मिलती, न इतना योग्य पति मिलता, न हीरेमोती जैसी संतानें मिलतीं. और न इतना अच्छा घर. अपने अनुभव के बल पर कहती हूं बेटी, मेरी बातें समझने की कोशिश करो. मुश्किलें कितनी ही कठिन हों, चुनौतियां कितनी ही गंभीर हों, आप अपने सुनहरे भविष्य को मत भूलें. आश्चर्य की बात यह है कि कभी जो उस समय कष्ट पहुंचाते हैं, वे ही भविष्य में हमारे लिए फायदेमंद होते हैं.’’

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‘‘चलिए, अगर मैं ऐसा ही बोलती रहूंगी तो इस का कोई अंत नहीं होगा. जिंदगी, जिंदगी ही होती है,’’ बेटीदामाद से अलविदा कह कर वह जाने को तैयार हो गई.

पद्मजा के ओझल हो जाने तक वे दोनों उन्हें वहीं खड़ेखडे़ देखते रहे. उन के चले जाने के बाद जिंदगी के बारे में उन्होंने जो कहा, उस का सार उन दोनों के दिलोदिमाग में भर गया.

जैसे हर यात्रा की एक मंजिल होती है उसी तरह हर जिंदगी का भी एक मकसद होता है, एक लक्ष्य रहता है. यात्रा में थोड़ी सी थकावट महसूस होने पर जहां चाहे वहां नहीं उतर जाना चाहिए. मंजिल को पाने  तक हमारी जिंदगी का सफर चलता रहता है.

इस प्रकार समीरा के विचार नया मोड़ लेने लगे. अब तक की मां की वेदना उस की समझ में आ गई जिस ने चारों ओर नया आलोक फैला दिया. अब वह पहले वाली समीरा नहीं. इस समीरा को तो जीवन के मूल्यों का पता चल गया.

Serial Story: चिंता- आखिर क्यों समीरा अपनी मां को चिट्ठी लिखने में देर कर रही थी

Serial Story: चिंता- पार्ट 1

लेखक-  कृष्णकांत

पद्मजा उस दिन घर पर अकेली गुमसुम बैठी थीं. पति संपत कैंप पर थे तो बेटा उच्च शिक्षा के लिए पड़ोसी प्रदेश में चला गया था और बेटी समीरा शादी कर के अपने ससुराल चली गई. बेटी के रहते पद्मजा को कभी कोई तकलीफ महसूस नहीं हुई. वह बड़ी हो जाने के बाद भी छोटी बच्ची की तरह मां का पल्लू पकड़े, पीछेपीछे घूमती रहती थी. एक अच्छी सहेली की तरह वह घरेलू कामों में पद्मजा का साथ देती थी. यहां तक कि वह एक सयानी लड़की की तरह मां को यह समझाती रहती थी कि किस मौके पर कौन सी साड़ी पहननी है और किस साड़ी पर कौन से गहने अच्छे लगते हैं.

ससुराल जाने के बाद समीरा अपनी सूक्तियां पत्रों द्वारा भेजती रहती जिन्हें पढ़ते समय पद्मजा को ऐसा लगता मानो बेटी सामने ही खड़ी हो.

उस दिन पद्मजा बड़ी बेचैनी से डाकिए की राह देख रही थीं और मन में सोच रही थीं कि जाने क्यों इस बार समीरा को चिट्ठी लिखने में  इतनी देर हो गई है. इस बार क्या लिखेगी वह चिट्ठी में? क्या वह मां बन जाने की खुशखबरी तो नहीं देगी? वैसी खबर की गंध मिल जाए तो मैं अगले क्षण ही वहां साड़ी, फल, फूलों के साथ पहुंच जाऊंगी.

तभी डाकिया आया और उन के हाथ में एक चिट्ठी दे गया. पद्मजा की उत्सुकता बढ़ गई.

चिट्ठी खोल कर देखा तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. कारण, चिट्ठी में केवल 4 ही पंक्तियां लिखी थीं. उन्होंने उन पंक्तियों पर तुरंत नजर दौड़ाई.

‘‘मां,

तुम ने कई बार मेरी घरगृहस्थी के बारे में सवाल किया, लेकिन मैं इसलिए कुछ भी नहीं बोली कि अगर तुम्हें पता चल जाए तो तुम बरदाश्त नहीं कर पाओगी. मां, हम धोखा खा चुके हैं. वह शराबी हैं, जब भी पी कर घर आते हैं, मुझ से झगड़ा करते हैं. कल रात उन्होंने मुझ पर हाथ भी उठाया. अब मैं इस नरक में एक पल भी नहीं रह पाऊंगी. इसलिए सोचा कि इस दुनिया से विदा लेने से पहले तुम्हारे सामने अपना दिल खोलूं, तुम से भी आज्ञा ले लूं. मुझे माफ करो, मां. यह मेरी आखिरी चिट्ठी है. मैं हमेशाहमेशा के लिए चली जा रही हूं, दूर…इस दुनिया से बहुत दूर.

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-समीरा.’’

पद्मजा को लगा मानो उन के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. ऐसा लगा मानो एक भूचाल आया और वह मलबे के नीचे धंसती जा रही हैं.

‘क्या यह सच है? उन के दिल ने खुद से सवाल पूछा, क्योंकि ‘समीरा के लिए जब यह रिश्ता पक्का हुआ था तो वह कितनी खुश थी. समीरा तो फूली न समाई. लेकिन ऐसा कैसे हो गया?’

अतीत की बातें सोच कर पद्मजा का मन बोझिल हो गया. उन की आंखें डबडबाने लगीं.

वह फिर सोचने लगीं कि इस वक्त घर पर मैं अकेली हूं. अब कैसे जाऊं? ट्रेन या बस से जाने पर तो कम से कम 5-6 घंटे लग ही जाएंगे.’ तभी उन के दिमाग में एक उपाय कौंध गया और तुरंत उन्होंने अपने पति के मित्र केशवराव का नंबर मिलाया.

‘‘भैया, मुझे फौरन आप की गाड़ी चाहिए. मुझे अभीअभी खबर मिली है कि समीरा की हालत बहुत खराब है. आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी,’’

केशवराव ने तुरंत ड्राइवर सहित अपनी गाड़ी भेज दी. गाड़ी में बैठते ही पद्मजा ने ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया, जरा गाड़ी तेज चलाना.’’

गाड़ी नेशनल हाईवे पर दौड़ रही थी. पीछे वाली सीट पर बैठी पद्मजा का मन बेचैन था. रहरह कर उन्हें अपनी बेटी समीरा की लाश आंखों के सामने प्रत्यक्ष सी होने लगती थी.

कार की रफ्तार के साथ पद्मजा के विचार भी दौड़ रहे थे. उन का अतीत चलचित्र की भांति आंखों के सामने साकार होने लगा.

‘पद्मजा,’ तेरे मुंह में घीशक्कर. ले… लड़के वालों से चिट्ठी मिल गई. उन को तू पसंद आ गई,’ सावित्रम्मा का मन खुशी से नाच उठा.

‘मां, मैं कई बार तुम से कह चुकी हूं कि यह रिश्ता मुझे पसंद नहीं है. मैं ने शशिधर से प्यार किया है. मैं बस, उसी से शादी करूंगी. वरना…’ पद्मजा की आवाज में दृढ़ता थी.

‘चुप, यह क्या बक रही है तू. अगर कोई सुन लेता तो एक तो हम यह रिश्ता खो बैठेंगे और दूसरे तू जिंदगी भर कुंआरी बैठी रहेगी. मुझे सब पता है. शशिधर से तेरी जोड़ी नहीं बनेगी. वह तेरे लायक नहीं. हम तेरे मांबाप हैं. तुझ से ज्यादा हमें तेरी भलाई की चिंता है. हम तेरे दुश्मन थोड़े ही हैं,’ कहती हुई मां सावित्री गुस्से में वहां से चली गईं.

मां की बातों का असर पद्मजा पर बिलकुल नहीं पड़ा, उलटे उस का क्रोध दोगुना हो गया. वह सोचने लगी कि वह मां मां नहीं और वह बाप बाप नहीं जो अपनी संतान की पसंद, नापसंद को न समझे.

वैसे पद्मजा शुरू से ही तुनकमिजाज थी. उस में जोश ज्यादा था. जब भी कोई ऐसी घटना हो जाती थी जो उस के मन के खिलाफ हो, तो तुरंत वह आपे से बाहर हो जाती. वह अगले पल अपने कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा बंद कर देती और पिता की नींद की गोलियां मुट्ठी भर ले कर निगल भी लेती थी.

सावित्रम्मा बेटी पद्मजा का स्वभाव अच्छी तरह से जानती थीं. इस से पहले भी एक बार मेडिकल में सीट न मिलने पर उस ने ब्लेड से अपनी एक नस काट दी थी. नतीजा यह हुआ कि उस की जान आफत में पड़ गई. इसी वजह से, सावित्रम्मा अपनी बेटी के व्यवहार पर नजर गड़ाए बैठी थीं. बेटी के अपने कमरे में घुसते ही उस ने यह खबर पति के कान में डाल दी. पतिपत्नी दोनों के बारबार बुलाने पर भी वह बाहर न आई. लाचार हो कर पतिपत्नी ने दरवाजा तोड़ दिया और पद्मजा को अस्पताल में दाखिल कर दिया.

‘पद्मा, यह तुम क्या कह रही हो? तुम्हारी मूर्खता रोजरोज बढ़ती जा रही है. पढ़ीलिखी हो कर तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए.’ संपत बड़ी बेचैनी से पत्नी पद्मजा से बोला.

पद्मजा एकदम बिगड़ गई.

‘हां…पढ़ीलिखी होने की वजह से ही मैं आप से यह पूछ रही हूं. मेरे साथ अन्याय हो तो मैं क्यों बरदाश्त करूं? और कैसे बरदाश्त करूं? मैं पुराणयुग की भोली अबला थोड़े ही हूं कि आप अपनी मनमानी करते रहें, बाहर गुलछर्रे उड़ाएं, ऐश करें और मैं चुपचाप देखती रहूं. आप कभी यह नहीं समझना कि मैं सीतासावित्री के जमाने की हूं और आप की हर भूल को माफ कर दूंगी. आखिर मैं ने क्या भूल की है? क्या अपने पति पर सिर्फ अपना ही हक मानना अपराध है? दूसरी महिलाओं से नाता जोड़ना, उन के चारों ओर चक्कर काटना तो क्या मैं चुपचाप देखती रहूं.’

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‘वैसा पूछना गलत नहीं हो सकता है लेकिन मैं ने वैसा किया कब था? यह सब तेरा वहम है. तेरे दिमाग पर शक का भूत सवार है. वह उठतेबैठते, किसी के साथ मिलते, बात करते मेरा पीछा कर रहा है. तेरी राय में मेरी कोई लेडी स्टेनो नहीं रहनी चाहिए. मेरे दोस्तों की बीवियों से भी मुझे बात नहीं करनी चाहिए… है न.’

‘ऐसा मैं ने थोड़े ही कहा है, जो कुछ मैं ने अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना वही तो बता रही हूं. सचाई क्या है, मैं जानती हूं. आप के इस तरह चिल्लाने से सचाई दब नहीं सकती.’

चरित्र- भाग 3

‘‘आस्तीन के सांप, मेरी जिंदगी बरबाद कर देने के बाद अब यहां क्या लेने आए हो?’’

‘‘दीदी वो…’’

‘‘खबरदार जो अपनी गंदी जबान से मुझे दीदी कहा…’’

‘‘दीदी, प्लीज, मेरी बात तो सुनिए. मुझे खुद नहीं पता था कि सुमित साहब के इरादे इतने भयानक हैं.’’

‘‘कब से जानते हो तुम सुमित को?’’

‘‘मैं पहले उन्हीं के आफिस में काम करता था. उन के बारे में बहुत ज्यादा तो नहीं जानता था. बस, इतना पता था कि मालिक की मौत के बाद अब साहब ही कंपनी के कर्ताधर्ता हैं. मालकिन भी उन्हीं के इशारों पर नाचती हैं.

‘‘मैं अकसर आफिस में खाली समय में पुस्तकें पढ़ा करता था. सुमित साहब मेरे इस शौक से वाकिफ थे. उन्होंने मुझे इस के लिए कभी नहीं टोका जिस के लिए मैं उन का शुक्रगुजार था. एक दिन उन्होंने मुझे अकेले में बुलाया और कहा कि मुझे उन का एक काम करना होगा. आफिस में व्यस्तता की वजह से वह अपनी बीवी यानी आप की पर्याप्त मदद नहीं कर पाते जिस से आप काफी तनाव में रहती हैं. वह मुझे आप के कालिज में लगवा देंगे. मुझे धीरेधीरे आप को विश्वास में ले कर घर और विशू की देखभाल का काम संभालना होगा. लेकिन आप को कुछ पता नहीं चलना चाहिए.’’

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‘‘ऐसा क्यों?’’ मधु ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मुझे भी उन की यह बात समझ में नहीं आई थी. इसीलिए मैं ने भी यही सवाल किया था. तब उन्होंने बताया कि आप नौकर या आया रखने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि एक अनजान आदमी से आप को हमेशा घर और विशू की सुरक्षा की चिंता सताती रहेगी. इसलिए मुझे पहले जानेअनजाने आप की मदद कर आप का विश्वास जीतना होगा. इस कार्य में साहब ने मेरी पूरी मदद करने का भरोसा भी दिया क्योंकि वह आप को परेशान नहीं देख सकते थे.

‘‘उस रोज रविवार के दिन जब आप ने मुझे लंच पर साहब से मिलवाने की बात कही थी तो मुझे लगा शायद आज साहब आप के सामने अपने सरप्राइज का खुलासा करेंगे, लेकिन वह तो मेरे आने से पहले ही चले गए थे. सरप्राइज तो उन्होंने मुझे कल बुला कर दिया.

‘‘वह कंपनी की विधवा मालकिन से शादी रचा कर कंपनी के एकछत्र मालिक बनना चाहते हैं लेकिन इस के लिए उन्हें पहले आप से तलाक लेना होगा और इस के लिए उन के पास आप के खिलाफ ठोस साक्ष्य होने चाहिए. आप पर चरित्रहीनता का लांछन लगाने के लिए उन्होंने मुझे मोहरा बनाया. मैं तो यह सोच कर उन के इशारों पर चलता रहा कि एक नेक काम में मैं उन की मदद कर रहा हूं. पर छी, थू है ऐसे आदमी पर जो पैसे के लालच में इतना गिर गया है कि अपनी बीवी के चरित्र पर ही कीचड़ उछाल रहा है.’’

‘‘लेकिन उन्होंने तुम्हें कल क्यों बुलाया?’’

‘‘वह नीच आदमी चाहता है कि सचाई जानने के बाद भी मैं उस के इशारों पर काम करूं. उस ने 50 हजार रुपए निकाल कर मेरे सामने रख दिए और कहा कि वह और भी देने को तैयार है लेकिन मुझे अदालत में उस की हां में हां मिलानी होगी. बयान देना होगा कि आप चरित्रहीन हैं और आप मेरे संग…’’ शरम से मणिकांत ने गरदन झुका ली.

‘‘तो अब तुम क्या…’’ मधु ने थूक गटकते हुए बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘मेरा चरित्र उस नीच आदमी के चरित्र जितना सस्ता नहीं है, दीदी,’’ मणिकांत बोला, ‘‘पैसा होते हुए भी और पैसे के लालच में वह इतना गिर गया कि अपनी बीवी के चरित्र का सौदा करने लगा. ऐसा पैसा पा कर भी मैं क्या करूंगा जिस से इनसान इनसान न रहे, हैवान बन जाए. हालांकि बात न मानने पर उस ने मुझे जान से मारने की धमकी दी है पर मैं उसे उस के कुटिल मकसद में कामयाब नहीं होने दूंगा. इस के लिए चाहे मुझे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े.’’

‘‘तुम्हें अपनी जान देने की जरूरत नहीं है, भाई,’’ मधु भावुक स्वर में बोली, ‘‘मुझे अब न उस आदमी की चाह है और न उस के पैसे की. इसलिए तलाक हो या न हो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं अपने विशू को ले कर यहां से बहुत दूर चली जाऊंगी. तुम भी उस की बात मान लो. पैसा सबकुछ तो नहीं होता लेकिन बहुतकुछ होता है. उस पैसे से एक नई जिंदगी शुरू करो.’’

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‘‘थूकता हूं मैं ऐसी नई जिंदगी पर. और आप यह कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हैं? अन्याय सहने वाला भी उतना ही दोषी है जितना कि अन्याय करने वाला. दीदी, यह पाठ भी आप ही ने तो मुझे पढ़ाया था. आप कुछ भी करें लेकिन मैं दुनिया को आप के चरित्र की सचाई बता कर रहूंगा और उस चरित्रहीन को समाज के सामने नंगा कर दूंगा.’’

आवेश से तमतमाते मणिकांत की बातों ने मधु को झकझोर कर रख दिया. उस के मानसपटल में बिजली कौंध रही थी और उस में एक ही वाक्य उभरउभर कर आ रहा था. करोड़ों की संपत्ति का स्वामी सुमित इस सद्चरित के स्वामी मणिकांत के सम्मुख कितना दीनहीन है.

चरित्र- भाग 1

लेखक- अनिल के. माथुर

‘‘उफ, इसे भी अभी ही बजना था,’’ आटा सने हाथों से ही मधु ने दरवाजा खोला. सामने मणिकांत खड़ा था, जो उसी के कालिज में लाइब्रेरी का चपरासी था.

‘‘तुम…’’ बात अधूरी छोड़ मधु रोते विशू को उठाने लपकी मगर अपने आटा सने हाथ देख कर ठिठक गई. परिस्थिति को भांपते हुए मणिकांत ने अपने हाथ की पुस्तकें नीचे रखीं और विशू को गोद में उठा कर चुप कराने लगा.

‘‘मैं अभी आई,’’ कह कर मधु हाथ धोने रसोई में चली गई. एक मिनट बाद ही तौलिए से हाथ पोंछते हुए वह फिर कमरे में आई और मणिकांत की गोद से विशू को ले लिया.

‘‘मैडम, आप ये पुस्तकें लाइब्रेरी में ही भूल आई थीं,’’ पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए मणिकांत ने कुछ इस तरह से कहा मानो वह अपने आने के मकसद को जाहिर कर रहा हो.

मधु को याद आया कि पुस्तकें ढूंढ़ कर जब वह उन्हें लाइब्रेरियन से अपने नाम इश्यू करवा रही थी तभी उस का मोबाइल बज उठा था. लाइब्रेरी की शांति भंग न हो इसलिए वह बात करती हुई बाहर आ गई थी. पति सुमित का फोन था. वह आफिस के कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों को डिनर पर ला रहे थे. मधु को जल्दी

घर पहुंचना था. जल्दबाजी में वह अंदर से पुस्तकें लेना भूल गई और सीधे घर आ गई थी.

‘‘अरे, यह तो मैं कल ले लेती, पर तुम्हें मेरे घर का पता कैसे चला?’’

‘‘जहां चाह वहां राह. किसी से पूछ लिया था. लगता है आप खाना बना रही हैं. बच्चे को तब तक मैं रख लेता हूं,’’ मणिकांत ने विशू को गोद में लेने के लिए दोनों हाथ आगे बढ़ाए तो मधु पीछे हट गई.

‘‘नहीं…नहीं, मैं सब कर लूंगी. मेरा तो यह रोज का काम है. तुम जाओ,’’ दरवाजा बंद कर वह विशू को सुलाने का प्रयास करने लगी. विशू को थपकी देते हाथ मानो उस के दिमाग को भी थपथपा रहे थे.

उस की जिंदगी कितनी भागम- भाग भरी हो गई है. बाई तो बस, बंधाबंधाया काम करती है, बाकी सब तो उसे ही देखना पड़ता है. सुबह जल्दी उठ कर लंच पैक कर सुमित को आफिस रवाना करना, विशू को संभालना, खुद तैयार होना, विशू को रास्ते में क्रेच छोड़ना, कालिज पहुंचना, लौटते समय विशू को लेना, घर पहुंच कर सुबह की बिखरी गृहस्थी समेटना और उबासियां लेते हुए सुमित का इंतजार करना.

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थकेहारे सुमित रात को कभी 10 तो कभी 11 बजे लौटते. कभी खाए और कभी बिना खाए ही सो जाते. मधु जानती थी, प्राइवेट नौकरी में वेतन ज्यादा होता है तो काम भी कस कर लिया जाता है. यद्यपि पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. सुमित 8 बजे तक घर लौट आते थे और शाम का खाना दोनों साथ खाते थे. लेकिन जब से सुमित की कंपनी के मालिक की मृत्यु हुई थी और उन की विधवा ने सारा काम संभाला था तब से सुमित की जिम्मेदारियां भी बहुत बढ़ गई थीं और उस ने देरी से आना शुरू कर दिया था.

मधु शिकायत करती तो सुमित लाचारी से कहते, ‘‘क्या करूं डियर, आना तो मैं भी जल्दी चाहता हूं पर मैडम को अभी काम समझने में समय लगेगा. उन्हें बताने में देर हो जाती है.’’

एक विधवा के प्रति सहज सहानुभूति मान कर मधु चुप रह जाती.

शादी से पहले की प्रवक्ता की अपनी नौकरी वह छोड़ना नहीं चाहती थी. उस का पढ़ने का शौक शादी के बाद तक बरकरार था. इसलिए अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से समय निकाल कर वह लाइब्रेरी से पुस्तकें लाती रहती थी और देर रात सुमित का इंतजार करते हुए उन्हें पढ़ती रहती. हालात से अब उस ने समझौता कर लिया था. पर कभीकभी कुछ बेहद जरूरी मौकों पर उसे सुमित की गैरमौजूदगी खलती भी थी.

उस दिन भी वह आटो में गृहस्थी का सारा सामान ले कर 2 घंटे बाद घर लौटी तो थक कर चूर हो चुकी थी. गोद में विशू को लिए उस ने दोनों हाथों में भरे  हुए थैले उठाने चाहे तो लगा चक्कर खा कर वहीं न गिर पड़े. तभी जाने कहां से मणिकांत आ टपका था.

तुरतफुरत मणिकांत ने मधु को मय सामान और विशू के घर के अंदर पहुंचा दिया था. शिष्टतावश मधु ने उसे चाय पीने के लिए रोक लिया. वह चाय बनाने रसोई में घुसी तो विशू ने पौटी कर दी. मधु उस के कपड़े बदल कर लाई तब तक देखा मणिकांत 2 प्यालों में चाय सजाए उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अरे, तुम ने क्यों तकलीफ की? मैं तो आ ही रही थी,’’ मधु को संकोच ने आ घेरा था.

‘‘तकलीफ कैसी, मैडम? आप को इतना थका देख कर मैं तो वैसे भी कहने वाला था कि चाय मुझे बनाने दें, पर…’’

‘‘अच्छा, बैठो. चाय पीओ,’’ मधु ने सामने के सोफे की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘अच्छा, तुम इधर कैसे आए?’’

‘‘इधर मेरा कजिन रहता है. उसी से मिलने जा रहा था कि आप दिख गईं,’’ चाय पीते हुए मणिकांत ने पूछा, ‘‘मैडम, साहब कहीं बाहर नौकरी करते हैं?’’

‘‘अरे, नहीं. इसी शहर में हैं पर दफ्तर में बहुत व्यस्त रहते हैं इसलिए घर देर से आते हैं. सबकुछ मुझे ही देखना पड़ता है,’’ मधु कह तो गई पर फिर बात बदलते हुए बोली, ‘‘तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘मांपिताजी हैं, जो गांव में रहते हैं. शादी अभी हुई नहीं है. थोड़ा पढ़ालिखा हूं इसलिए शहर आ कर नौकरी करने लगा. पढ़नेलिखने का शौक है इसलिए पुराने मालिक ने यहां लाइब्रेरी में लगवा दिया,’’ कहते हुए मणिकांत उठ खड़ा हुआ. मधु उसे छोड़ने बाहर आई. उसे वापस उसी दिशा में जाते देख मधु ने टोका, ‘‘तुम अपने कजिन के यहां जाने वाले थे न?’’

‘‘हां…हां. पर आज यहीं बहुत देर हो गई है. फिर कभी चला जाऊंगा.’’

उस का रहस्यमय व्यवहार मधु की समझ में नहीं आ रहा था. उसे तो यह भी शक होने लगा था कि वह अपने कजिन से नहीं बल्कि उसी से मिलने आया था.

रात को मधु ने सुमित को मणिकांत के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘भई, कमाल है,’’ सुमित बोले, ‘‘एक तो बेचारा तुम्हारी इतनी मदद कर रहा है और तुम हो कि उसी पर शक कर रही हो. खुद ही तो कहती रहती हो कि मैं गृहस्थी और विशू को अकेली ही संभालतेसंभालते थक जाती हूं. कोई हैल्पिंगहैंड नहीं है. अब यदि यह हैल्पिंग- हैंड आ गया है तो अपनी शिकायतों को खत्म कर दो. चाहो तो उसे काम के बदले पैसे दे दिया करो ताकि तुम्हें उस से काम लेने में संकोच न हो.’’

‘‘हूं, यह भी ठीक है,’’ मधु को सुमित की बात जंच गई.

अब मधु गाहेबगाहे मणिकांत की मदद ले लेती. वह तो हर रोज आने को तैयार था पर मधु का रवैया भांप कम ही आता था. हां, जब भी मणिकांत आता मधु के ढेरों काम निबटा जाता. कभी बिना कहे ही शाम को ढेरों सब्जियां ले कर पहुंच जाता. मधु उसे हिसाब से कुछ ज्यादा ही पैसे पकड़ा देती. फिर वह देर तक विशू को खिलाता रहता, तब तक मधु सारे काम निबटा लेती. फिर मधु उसे खाना खिला कर ही भेजती थी.

पैसे लेने में शुरू में तो मणिकांत ने बहुत आनाकानी की पर जब मधु ने धमकी दी कि फिर यहां आने की जरूरत नहीं है तो वह पैसा लेना मान गया. विशू भी अब उस से बहुत हिलमिल गया था. मधु को भी उस की आदत सी पड़ गई थी.

मणिकांत का पढ़ने का शौक भी मधु के माध्यम से पूरा हो जाता था क्योंकि वह लाइब्रेरी से अच्छी पुस्तकें चुनने में उस की मदद करती थी. किसी पुस्तक के बारे में उसे घंटों समझाती. इस तरह अपनी नीरस जिंदगी में अब मधु को कुछ सार नजर आने लगा था.

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