दिल जंगली : पत्नी के अफेयर होने की बात पर सोम का क्या था फैसला

रात के 10 बज रहे थे. 10वीं फ्लोर पर स्थित अपने फ्लैट से सोम कभी इस खिड़की से नीचे देखता तो कभी उस खिड़की से. उस की पत्नी सान्वी डिनर कर के नीचे टहलने गई थी. अभी तक नहीं आई थी. उन का 10 साल का बेटा धु्रव कार्टून देख रहा था. सोम अभी तक लैपटौप पर ही था, पर अब बोर होने लगा तो घर की चाबी ले कर नीचे उतर गया.

सोसाइटी में अभी भी अच्छीखासी रौनक थी. काफी लोग सैर कर रहे थे. सोम को सान्वी कहीं दिखाई नहीं दी. वह घूमताघूमता सोसाइटी के शौपिंग कौंप्लैक्स में भी चक्कर लगा आया. अचानक उसे दूर जहां रोशनी कम थी, सान्वी किसी पुरुष के साथ ठहाके लगाती दिखी तो उस का दिमाग चकरा गया. मन हुआ जा कर जोर का चांटा सान्वी के मुंह पर मारे पर आसपास के माहौल पर नजर डालते हुए सोम ने अपने गुस्से पर कंट्रोल कर उन दोनों के पीछे चलते हुए आवाज दी, ‘‘सान्वी.’’

सान्वी चौंक कर पलटी. चेहरे पर कई भाव आएगए. साथ चलते पुरुष से तो सोम खूब परिचित था ही. सो उसे मुसकरा कर बोलना ही पड़ा, ‘‘अरे प्रशांत, कैसे हो?’’

प्रशांत ने फौरन हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम सुनाओ, क्या हाल है?’’

सोम ने पूरी तरह से अपने दिलोदिमाग पर काबू रखते हुए आम बातें जारी रखीं. सान्वी चुप सी हो गई थी. सोम मौसम, सोसाइटी की आम बातें करने लगा. प्रशांत भी रोजमर्रा के ऐसे विषयों पर बातें करता हुआ कुछ दूर साथ चला. फिर ‘घर पर सब इंतजार कर रहे होंगे’ कह कर चला गया.

प्रशांत के जाने के बाद सोम ने सान्वी को घूरते हुए कहा, ‘‘ये सब क्या चल रहा है?’’

सान्वी ने जब कड़े तेवर से कहा कि जो तुम्हें सम झना है, सम झ लो तो सोम को हैरत हुई. सान्वी पैर पटकते हुए तेजी से घर की तरफ बढ़ गई. आ कर दोनों ने एक नजर धु्रव पर डाली. सान्वी ने धु्रव को ले जा कर उस के रूम में सोने के लिए लिटा दिया. अगले दिन उस का स्कूल भी था.

सान्वी के बैडरूम में पहुंचते ही सोम गुर्राया, ‘‘सान्वी, ये सब क्या चल रहा है? इतनी रात प्रशांत के साथ क्यों घूम रही थी?’’

‘‘ऐसे ही… वह दोस्त है मेरा… नीचे मिल गया तो साथ घूमने लगे.’’

‘‘यह नहीं सोचा कि कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?’’

‘‘नहीं सोचा… ऐसा क्या तूफान खड़ा हो गया?’’

सुबह सोम को औफिस जाना था. वह बिजनैसमैन था. आजकल उस का काम घाटे में चल रहा था… उस का दिमाग गुस्से में घूम रहा था पर इस समय वह सान्वी के अजीब से तेवर देख कर चुपचाप गुस्से में करवट बदल कर लेट गया.

सान्वी ने रोज की तरह कपड़े बदले, फ्रैश हुई, नाइट क्रीम लगाई और मन ही मन मुसकराते हुए प्रशांत को याद करते उस की बातों में खोईखोई बैड पर लेट गई. बराबर में नाराज लेटे सोम पर उस का जरा भी ध्यान नहीं था. उस से बिलकुल लापरवाह थोड़ी देर पहले की प्रशांत की बातों को याद कर मुसकराए जा रही थी.

प्रशांत और सान्वी का परिवार 2 साल पहले ही इस सोसाइटी में करीबकरीब साथ ही शिफ्ट हुआ था. प्रशांत से उस की दोस्ती जिम में आतेजाते हुई थी जो बढ़ कर अब प्रगाढ़ संबंधों में बदल चुकी थी. प्रशांत की पत्नी नेहा और उन के 2 युवा बच्चों आर्यन और शुभा से वह बहुत बार मिल चुकी थी. आपस में घर भी आनाजाना हो चुका था. सब से नजरें बचाते हुए प्रशांत और सान्वी अपने रिश्ते में फूंकफूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे थे. दोनों का दिल किसी जंगली की तरह न किसी रिश्ते का नियम मानता था, न समाज का कोई कानून. दोनों को एकदूसरे को देखना, बातें करना, साथ हंसना, कुछ समय साथ बिताना बहुत खुशी दे जाता था. दोनों ने अब किसी की भी परवाह करनी छोड़ दी थी.

धु्रव छोटा था. उस की पूरी जिम्मेदारी सान्वी ही उठाती थी. सोम लापरवाह इंसान था. सोम से उस का विवाह उस की दौलत देख कर सान्वी के पेरैंट्स ने तय किया था पर शादी के बाद सोम की पर्सनैलिटी सान्वी को कुछ ज्यादा जंची नहीं. जहां सान्वी बहुत सुंदर, स्मार्ट, फिटनैस के प्रति सजग, जिंदादिली स्त्री थी, वहीं सोम ढीलाढाला सा नौकरों पर बिजनैस छोड़ दोस्तों के साथ शराब पीने में खुशी पाने वाला गैरजिम्मेदार, मूडी, गुस्सैल इंसान था.

सोम के मातापिता भी इसी बिल्डिंग में दूसरे फ्लैट में रहते थे. सान्वी उन के प्रति भी हर फर्ज पूरा करती आई थी. सासससुर को जब भी कोई जरूरत होती, इंटरकौम से सान्वी को बुला लेते. सान्वी फौरन जाती. सोम घरगृहस्थी की हर जिम्मेदारी सान्वी पर डाल निश्चिंत रहता. दोस्तों के साथ पी कर आता. अंतरंग पलों में सान्वी के साथ जिस तरह पेश आता सान्वी कलप कर रह जाती. कहां उस ने कभी रोमांस में डूबे दिनरातके सपने देखे थे और कहां अब पति के मूडी स्वभाव से तालमेल मिलाने की कोशिश ही करती रह जाती.

प्रशांत से मिलते ही दिल खिल सा गया था. प्रशांत उस की हर बात पर ध्यान देता, उस की हर जरूरत का ध्यान रखता  था. सोम कभीकभी मुंबई से बाहर जाता. धु्रव स्कूल में होता तब प्रशांत औफिस से छुट्टी कर धु्रव के आने तक का समय सान्वी के साथ ही बिताता. किसी भी नियम को न मानने वाले दोनों के दिल सभी सीमाएं पार कर गए थे. दोनों एकदूसरे की बांहों में तृप्त हो घंटों पड़े रहते.

सान्वी के तनमन को किस सुख की कमी थी, वह सुख जब प्रशांत से मिला तो उस की सम झ में आया कि अगर प्रशांत न मिला होता तो यह कमी रह जाती. मशीनी से सैक्स के अलावा भी बहुत कुछ है जीवन में… अब सान्वी को पता चला सैक्स सिर्फ शरीर की जरूरत के समय पास आना ही नहीं है, तनमन के अंदर उतर जाने वाला मीठा सा कोमल एहसास भी है.

प्रशांत न मिलता तो न जाने जीवन के कितने खूबसूरत पल अनछुए से रह जाते. उसे कोई अपराधबोध नहीं है. उस ने हमेशा सोम को मौका मिलने पर किसी के साथ भी फ्लर्ट करते देखा है. उस के टोकने पर हमेशा यही जवाब दे कर उसे चुप करवा दिया कि कितनी छोटी सोच है तुम्हारी… 2 बार वह रिश्ते की एक कजिन के साथ सोम को खुलेआम रंगरलियां मनाते पकड़ चुकी है, पर सोम नहीं सुधरा. पराई औरतों के साथ मनमानी हरकतें करना उस के हिसाब से मर्दानगी है. उसे खुशी मिलती है. आज प्रशांत के साथ उसे देख कर ज्यादा कुछ शायद इसलिए ही कह न सका… प्रशांत को याद करतेकरते सान्वी को नींद आ गई.

प्रशांत घर पहुंचा तो नेहा, आर्यन, शुभा सब लेट चुके थे. आर्यन, शुभा दोनों कालेज के लिए जल्दी निकलते थे. उन के लिए नेहा को भी टाइम से सोना पड़ता था.

प्रशांत चेंज कर के बैडरूम में आया तो नेहा ने पूछा, ‘‘इतना लेट?’’

‘‘हां, टहलना अच्छा लग रहा था.’’

‘‘किस के साथ थे?’’

‘‘सान्वी मिल गई थी, फिर सोम भी आ गया था.’’

नेहा चुप रही. पति की सान्वी से बढ़ती नजदीकियों की उसे पूरी खबर थी पर क्या करे, कैसे कहे, युवा बच्चे हैं… बहुत सोचसम झ कर बात करनी पड़ती है. प्रशांत को गुस्से में चिल्लाने की आदत है. शुभा सम झ रही थी कि सान्वी को क्या पता प्रशांत के बारे में… वह बाहर कुछ और है, घर में कुछ और जैसेकि आम आदमी होते हैं. 20 साल के वैवाहिक जीवन में नेहा प्रशांत की रगरग से वाकिफ हो चुकी थी. दूसरी औरतों को प्रभावित करने में उस का कोई मुकाबला नहीं था. नेहा की खुद की छोटी बहन से प्रशांत की अंतरंगता थी. वह कुछ नहीं कर पाई थी. जब उस की बहन की शादी कहीं और हो गई तब जा कर नेहा की जान में जान आई थी. पता नहीं कितनी औरतों के साथ वह फ्लर्ट कर चुका था. गरीब घर की नेहा अपने बच्चों को सुरक्षित भविष्य देने के चक्कर में प्रशांत के साथ निभाती आई थी, पर सान्वी का यह किस्सा आज तक का सब से ज्यादा ओपन केस हो रहा था. अब नेहा परेशान थी. सोसाइटी को यह पता था कि दोनों का जबरदस्त अफेयर है. दोनों डंके की चोट पर मिलते, मूवी देखते, बाहर जाते. प्रशांत तो लेटते ही खर्राटे भरने लगा था पर नेहा बेचैन सी उठ कर बैठ गई कि कैसे रोके प्रशांत की दिल्लगियां? कब सुधरेगा यह? बच्चे भी बड़े हो गए… वह जानती है बच्चों तक यह किस्सा पहुंच चुका है, बच्चे नाराज से रहते हैं, चुप रहने लगे हैं. आजकल नेहा का कहीं मन नहीं लग रहा है. क्या करे. इस बार जैसा तो कभी नहीं हुआ था. अब तो प्रशांत और सान्वी डंके की चोट पर बताते हैं कि हम साथ है.

नेहा रातभर सो नहीं पाई. सुबह यह फैसला किया कि बच्चों के जाने के बाद प्रशांत

से बात करेगी. बच्चे चले गए. प्रशांत थोड़ा लेट निकलता था. उस का औफिस पास ही था. नेहा ने बिना किसी भूमिका के कहा, ‘‘प्रशांत, बच्चों को भी तुम्हारा और सान्वी का किस्सा पता है… दोनों का मूड बहुत खराब रहता है… सारी सोसाइटी को पता है. मेरी फ्रैंड्स ने तुम दोनों को कहांकहां नहीं देखा. शर्म आती है अब प्रशांत… अब उम्र भी हो रही है. ये सब अच्छा नहीं लगता. मैं ने पहले भी तुम्हारी काफी हरकतें बरदाश्त की हैं… अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. तुम उस के ऊपर पैसे भी बहुत खर्च कर रहे हो. यह भी ठीक नहीं है.’’

‘‘पैसे मेरे हैं, मैं उन्हें कहीं भी खर्च करूं और रही उम्र की बात, तो तुम्हें लगता होगा कि तुम्हारी उम्र हो गई, मैं सान्वी के साथ भरपूर ऐंजौय कर रहा हूं. दरअसल, उस का साथ मु झे यंग रखता है. यहां तो घर में तुम्हारे उम्र, बच्चे, खर्चों के ही बोरिंग पुराण चलते हैं और रही सोसाइटी की बात तो मैं किसी की परवाह नहीं करता, ठीक है? और कुछ?’’

नेहा का चेहरा अपमान और गुस्से से लाल हो गया, ‘‘पर मैं अब यह बरदाश्त नहीं करूंगी.’’

प्रशांत कुटिलता से हंसा, ‘‘अच्छा, क्या कर लोगी? मायके चली जाओगी? तलाक ले लोगी? हुंह,’’ कह कर वह तौलिया उठा कर नहाने चला गया.

नेहा की आंखों से क्षोभ के आंसू बह निकले. सही कह रहा है प्रशांत, क्या कर लूंगी, कुछ भी तो नहीं. मायका है नहीं. नेहा रोती हुई किचन में काम करती रही. मन में आया, सोम से बात कर के देखूं. सोम का नंबर नेहा के पास नहीं था. अब नेहा ने सान्वी से बात करना बिलकुल छोड़ दिया था. सोसाइटी में उस से आमनासामना होता भी तो वह पूरी तरह से सान्वी को इग्नोर करती. सान्वी भी बागी तेवरों के साथ चुनौती देती हुई मुसकराहट लिए पास से निकल जाती तो नेहा का रोमरोम सुलग उठता.

अपनी किसी सहेली से नेहा को पता चला कि सान्वी 2 दिन के लिए अपने मायके गई है. अत: सही मौका जान कर वह शाम को सोम से मिलने उस के घर चली गई. सोम ने सकुचाते हुए उस का स्वागत किया.

नेहा ने बिना किसी भूमिका के बात शुरू की, ‘‘आप को भी पता ही होगा कि सान्वी और प्रशांत के बीच क्या चल रहा है… आप उसे रोकते क्यों नहीं?’’

‘‘हां, सब पता है. आप प्रशांत को क्यों नहीं रोक रही हैं?’’

‘‘बहुत कोशिश की पर सब बेकार गया.’’

‘‘मेरी कोशिश भी बेकार गई,’’ कह कर सोम ने जिस तरह से कंधे उचका दिए, उसे देख नेहा को गुस्सा आया कि यह कैसा आदमी है… कितने आराम से कह रहा है कि कोशिश बेकार गई.

‘‘तो आप इसे ऐसे ही चलने देने वाले हैं?’’

‘‘हां, क्या कर सकता हूं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मैं स्ट्रौंग पोजीशन में हूं नहीं, अतीत की मेरी हरकतों के कारण आज वह मु झ पर हावी हो रही है.

‘‘मेरा बिजनैस घाटे में है. मैं सान्वी को रोक नहीं पा रहा हूं, सारा दिन बैठ कर उस की चौकीदारी तो कर नहीं सकता.

‘‘बच्चे, घर और मेरे पेरैंट्स की पूरी जिम्मेदारी वह उठाती है… पर ठीक है. कुछ तो करना पड़ेगा… वह लौट आए. फिर कोशिश करता हूं.’’

नेहा दुखी मन से घर आ गई. सोम बहुत कुछ सोचता रहा. सान्वी कैसे किसी से खुलेआम प्रेम संबंध रख सकती है. बहुत हो गया… हद हो गई बेशर्मी की. आ जाए तो उसे ठीक करता हूं, दिमाग ठिकाने लगाता हूं.

उस दिन फोन पर भी उस ने सान्वी से सख्त स्वर में बात की पर सान्वी पर जरा भी

फर्क नहीं पड़ा. सोम की बातों का उस पर फर्क पड़ना बंद हो चुका था. जब से दिल की सुनने लगी थी, दिमाग भी दिल के ही पक्ष में दलीलें देता रहता था. सो जंगली सा दिल बेखौफ आगे बढ़ता जा रहा था और खुश भी बहुत था.

सान्वी आ गई. अगले दिन जब धु्रव को स्कूल भेज सुस्ताने बैठी तो सोम उस के पास आ कर तनातना सा बैठ गया. सान्वी ने महसूस किया कि वह काफी गंभीर है.

‘‘सान्वी, जो भी चल रहा है उसे बंद करो वरना…’’

सान्वी पलभर में कमर कस कर मैदान में खड़ी हो गई, ‘‘वरना क्या?’’

‘‘बहुत बुरा होगा.’’

‘‘क्या बुरा होगा?’’

‘‘जो तुम कर रही हो मैं उसे बरदाश्त नहीं करूंगा.’’

‘‘क्यों? क्या तुम मु झ से कमजोर हो? मैं तुम्हारी ये सब हरकतें बरदाश्त करती रही हूं तो तुम क्यों नहीं कर सकते?’’

‘‘सान्वी,’’ सोम दहाड़ा, ‘‘तुम मेरी पत्नी हो… तुम मेरी बराबरी करोगी?’’

‘‘मैं वही कर रही हूं जो मु झे अच्छा लगता है. कुछ पल अपने लिए जी रही हूं तो क्या गलत है? जिस खुशी का तुम ने ध्यान नहीं रखा, वह अब मिल गई… खुश हूं, क्या गलत है? ये सब तो तुम बहुत सालों से करते आए हो.’’

‘‘सान्वी, सुधर जाओ, नहीं तो मु झे गुस्सा आ गया तो मैं कोर्ट में भी जा सकता हूं… तुम्हारे और प्रशांत के खिलाफ शिकायत कर सकता हूं.’’

‘‘हां, ठीक है, चलो कोर्ट… सारी उम्र मन मार कर जीती रहूं तो ठीक है?’’

‘‘सान्वी, बहुत हुआ. प्रशांत से रिश्ता खत्म करो, नहीं तो कानूनी काररवाई के लिए तैयार रहो… मैं प्रशांत को भी नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘अच्छा? कौन सी कानूनी काररवाई करोगे? नया कानून नहीं जानते? यह न अपराध है, न पुरुषों की बपौती. औरत को भी सैक्सुअल चौइस का हक है.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो?’’

‘‘हां, शादीशुदा होते हुए भी सालों से पराई औरतों के साथ नैनमटक्का कर रहे हो, हमारे रिश्ते को एडलट्री की आग में तुम भी  झोंकते

रहे हो.’’

‘‘पर कोर्ट ने अवैध संबंधों में जाने के लिए नहीं कहा है, न उकसाया है.’’

‘‘पर यह तो साफ हो गया है कि न तुम मेरे मालिक हो, न मैं तुम्हारी गुलाम हूं. मु झे कानून की धमकी देने से कुछ नहीं होगा. तुम्हारी खुद की फितरत क्या रही है… अब बैठ कर सोचो कि मैं ने कितना सहा है. मु झे प्रशांत के साथ अच्छा लगता है. बस, मु झे इतना ही पता है और मु झे भी खुश रहने का उतना ही हक है जितना तुम्हें. और किसी भी जिम्मेदारी से मैं मुंह नहीं मोड़ रही हूं,’’ कह कर घड़ी पर नजर डालते हुए सान्वी ने आगे कहा, ‘‘ध्रुव के स्कूल से वापस आने से पहले मु झे घर के कई काम निबटाने होते हैं, उस के प्रोजैक्ट के लिए सामान लेने भी मु झे ही जाना है,’’ कह कर सान्वी उठ कर नहाने चली गई.

बाथरूम से उस के गुनगुनाने की आवाजें बाहर आ रही थीं. सोम सिर पकड़ कर बैठा था. कुछ सम झ नहीं आ रहा था कि अब क्या करे.

‘‘अगले दिन जब धु्रव को स्कूल भेज सुस्ताने बैठी तो सोम उस के पास आ कर तनातना सा बैठ गया. सान्वी ने महसूस किया कि वह काफी गंभीर है…’’

अधूरे फसाने की मुकम्मल नज्म: क्या पूरा हुआ वर्तिका का प्यार

कितना जादू है उस की कहानियों और कविताओं में. वह जब भी  उस की कोई रचना पढ़ती है, तो न जाने क्यों उस के अल्हड़ मन में, उस की अंतरात्मा में एक सिहरन सी दौड़ जाती है.

उस ने उस मशहूर लेखक की ढेरों कहानियां, नज्में और कुछ उपन्यास भी पढ़े हैं. उसे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि उस की मां भी उस के उपन्यास पढ़ती हैं. एक दिन मां के एक पुराने संदूक में उस लेखक के बरसों पहले लिखे कुछ उपन्यास उसे मिले.

वह उपन्यास के पृष्ठों पर अंकित स्याही में उलझ गई. न जाने क्यों उसे लगा कि उपन्यास में वर्णित नायिका और कोई नहीं बल्कि उस की मां है. हां, उस ने कभी किसी प्रकाशक के मुंह से भी सुना था कि उस की मां नीलम का कभी उस लेखक से अफेयर रहा था.

उस समय के नवोदित लेखक रिशी और कालेज गर्ल नीलम के अफेयर के चर्चे काफी मशहूर रहे थे. उस ने उपन्यास का बैक पेज पलटा जिस पर लेखक का उस समय का फोटो छपा था. फोटो बेहद सुंदर और आकर्षक था. उस में वह 20-22 साल से अधिक उम्र का नहीं लग रहा था.

अचानक वर्तिका आईने के सामने आ कर खड़ी हुई. वह कभी खुद को तो कभी उस लेखक के पुराने चित्र को देखती रही.

वह अचानक चौंकी, ‘क्या… हां, मिलते तो हैं नयननक्श उस लेखक से. तो क्या…

‘हां, हो सकता है? अफेयर में अंतरंग संबंध बनना कोई बड़ी बात तो नहीं, लेकिन क्या वह उस की मां के अफेयर की निशानी है? क्या मशहूर लेखक रिशी ही उस का पिता…

‘नहीं, यह नहीं हो सकता,’ वह अपनी जिज्ञासा का खुद ही समाधान भी करती. अगर ऐसा होता तो उस का दिल रिशी की कहानियां पढ़ कर धड़कता नहीं.

‘‘यह कौन सी किताब है तुम्हारे हाथ में वर्तिका? कहां से मिली तुम्हें?’’ मां की आवाज ने उस के विचारों की शृंखला तोड़ी.

वर्तिका चौंक कर हाथ में पकड़े उपन्यास को देख कर बोली, ‘‘मौम, रिशी का यह उपन्यास मुझे आप के पुराने बौक्स से मिला है. क्या आप भी उस की फैन हैं?’’

अपनी बेटी वर्तिका के सवाल पर नीलम थोड़ा झेंपी लेकिन फिर बात बना कर बोलीं, ‘‘हां, मैं ने उस के एकदो उपन्यास  कालेज टाइम में अवश्य पढ़े थे वह ठीकठाक लिखता है. लेकिन हाल में तो मैं ने उस का कोई उपन्यास नहीं पढ़ा. क्या इन दिनों उस का कोई नया उपन्यास रिलीज हुआ है?’’

‘‘हां, हुए तो हैं,’’ वर्तिका अपनी मां की बात से उत्साहित हुई.

‘‘ठीक है मुझे देना, फुरसत मिली तो पढ़ूंगी,’’ कह कर नीलम चली गई और वर्तिका सोचने लगी कि सच इतने अच्छे लेखक को बौयफ्रैंड के रूप में उस की खूबसरत मां जरूर डिजर्व करती होंगी.

2-3 दिन बाद वर्तिका को अवसर मिला. वह अपनी सहेली सोनम के साथ रिशी का कहानीपाठ सुनने पहुंच गई. उस ने पढ़ा था कि लिटरेचर फैस्टिवल में वह आ रहा है.

पूरा हौल खचाखच भरा था. सोनम को इतनी भीड़ का पहले से ही अंदेशा था. तभी तो वह वर्तिका को ले कर समय से काफी पहले वहां आ गई थी. सोनम भी वर्तिका की तरह रिशी के लेखन की प्रशंसक है. दोनों सहेलियां आगे की कुरसियों पर बिलकुल मंच के सामने जा कर बैठ गईं.

रिशी आया और आ कर बैठ गया उस सोफे पर जिस के सामने माइक लगा था. उतना खूबसूरत, उतना ही स्मार्ट जितना  वह 20-21 की उम्र में था, जबकि अब तो लगभग 40 का होगा. बाल कालेसफेद लेकिन फिर भी उस में अलग सा अट्रैक्शन था.

उद्घोषक रिशी का परिचय कराते हुए बोला, ‘‘ये हैं मशहूर लेखक रिशी, जो पिछले 20 साल से युवा दिलों की धड़कन हैं,’’ फिर वह तनिक रुक कर मुसकराते हुए बोला, ‘‘खासकर युवा लड़कियों के.’’

उद्घोषक की बात सुन कर वर्तिका का दिल धड़क उठा. अपने दिल के यों धड़कने की वजह वर्तिका नहीं जानती. रिशी की कहानी में डूबी वर्तिका बारबार खुद को रिशी की नायिका समझती और हर बार अपनी इस सोच पर लजाती.

‘‘तुम में एक जानीपहचानी सी खुशबू है,’’ वर्तिका को औटोग्राफ देते हुए रिशी बोला.

रिशी की बात सुन कर वर्तिका लज्जा गई, क्या रिशी ने उसे पहचान लिया है? क्या वह जान गया है कि वर्तिका उस की प्रेमिका रही नीलम की बेटी है?

रिशी अन्य लोगों को औटोग्राफ देने में व्यस्त हो गया और वर्तिका के दिमाग में उधेड़बुन चलती रही. वह भी मन ही मन रिशी से प्यार करने लगी, यह जानते हुए भी कि कभी उस की मां रिशी की प्रेमिका रही है.

‘तो रिशी उस का पिता हुआ,’  यह सोच कर वर्तिका अपने दिल में उठे इस खयाल भर से ही लज्जा गई. मां ने उसे पिता के बारे में बस यही बताया था कि वे उस के जन्म के बाद से ही घर कभी नहीं आए. मां ने उसे अपने बलबूते ही पाला है.

‘नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता’ इस खयाल मात्र से ही उस के दिल की धड़कनें बढ़ जातीं. रिशी उस का पिता नहीं हो सकता, लेकिन रिशी से उस के नयननक्श मिलते हैं. फिर आज रिशी ने उसे देखते ही कहा भी ‘वर्तिका तुम्हारी खुशबू जानीपहचानी सी लगती है.’

वर्तिका आज बारबार करवटें बदलती रही, लेकिन नींद तो उस की आंखों से कोसों दूर थी. करवटें बदलबदल कर जब वह थक गई तो ठंडी हवा में सांस लेने के लिए छत पर चली गई.

मम्मी के कमरे के सामने से गुजरते हुए उस ने देखा कि मम्मी के कमरे की लाइट जल रही है, ‘इतनी रात को मम्मी के कमरे में लाइट?’  हैरानी से वर्तिका यह सोच कर खिड़की के पास गई और खिड़की से झांक कर उस ने देखा कि मम्मी तकिए के सहारे लेटी हुई हैं. उन के हाथ में किताब है, जिसे वे पढ़ रही हैं. वर्तिका ने देखा कि यह तो वही किताब है, जो उस ने रिशी के कहानीपाठ वाले हौल से खरीदी थी और उस पर उस ने रिशी का औटोग्राफ भी लिया था.

वर्तिका वापस कमरे में आ गई और अपनी मम्मी और रिशी के बारे में सोचने लगी.

आज वर्तिका को रिशी का पत्र आया था. शायद उस के पहले पत्र का ही रिशी ने जवाब दिया था. उस ने वर्तिका से पूछा कि क्या वह वही लड़की है जो उसे कहानीपाठ वाले दिन मिली थी. साथ ही रिशी ने अपने इस पत्र में यह भी लिखा कि इस से वही खुशबू आ रही है जो मैं ने उस दिन महसूस की थी.

वर्तिका अपनी देह की खुशबू महसूस करने की कोशिश करने लगी, लेकिन उसे  महसूस हुई अपनी देह से उठती रिशी की खुशबू.

उस ने पत्र लिख कर रिशी से मिलने की इच्छा जताई, जिसे रिशी ने कबूल कर लिया.

सामने बैठा रिशी उस का बौयफ्रैंड सा लगता. वर्तिका सोचती, ‘जैसे आज वह रिशी के सामने बैठी है वैसे ही उस की मम्मी भी रिशी के सामने बैठती होंगी.’

‘‘आजकल आप क्या लिख रहे हैं?’’ वर्तिका ने पूछा.

‘‘उपन्यास.’’

‘‘टाइटल क्या है, आप के उपन्यास का?’’

‘‘अधूरे फसाने की मुकम्मल नज्म,’’ कह कर रिशी वर्तिका की आंखों में झांकने लगा और वर्तिका रिशी और मम्मी के बारे में सोचने लगी.

रिशी उस की मम्मी का अधूरा फसाना है. वर्तिका यह तो जानती है पर क्या वह खुद उस अधूरे फसाने की मुकम्मल नज्म है? वर्तिका जानना चाहती है उस मुकम्मल नज्म के बारे में.

वह यह जानने के लिए बारबार रिशी से मिलती है. कहीं वही तो उस का पिता नहीं है. उसे न जाने क्यों मां से अनजानी सी ईर्ष्या होने लगी थी. मां ने एक बार भी रिशी से मिलने की इच्छा नहीं जताई.

उस शाम रिशी ने उस से कहा, ‘‘वर्तिका, मैं लाख कोशिश के बाद भी तुम्हारे जिस्म से उठती खुशबू को नहीं पहचान पाया.’’

‘‘नीलम को जानते हैं आप?’’ वर्तिका अब जिंदगी की हर गुत्थी को सुलझाना चाहती थी.

‘‘हां, पर तुम उन्हें कैसे जानती हो?’’ रिशी चौंक कर वर्तिका की आंखों में नीलम को तलाशने लगा.

‘‘उन्हीं की खुशबू है मेरे बदन में,’’ वर्तिका ने यह कह कर अपनी नजरें झुका लीं.

रिशी वर्तिका को देख कर खामोश रह गया.

रिशी को खामोश देख कर, कुछ देर बाद वर्तिका बोली, ‘‘कहीं इस में आप की खुशबू तो शामिल नहीं है?’’

‘‘यह मैं नहीं जानता,’’ कह कर रिशी उठ गया.

उसे जाता देख कर वर्तिका ने पूछा, ‘‘आप का नया उपन्यास मार्केट में कब आ रहा है? मम्मी पूछ रही थीं.’’

‘‘शायद कभी नहीं,’’ रिशी ने रुक कर बिना पलटे ही जवाब दिया.

‘‘क्यों?’’ वर्तिका उस के सामने आ खड़ी हुई.

‘‘क्योंकि अधूरे फसाने की नज्म भी अधूरी ही रहती है,’’ रिशी वर्तिका की बगल से निकल गया और वर्तिका फिर सोचने लगी, अपने, रिशी और मम्मी के बारे में.

वर्तिका की आंखें लाल हो गईं. रात भर उसे नींद नहीं आई. उस की जिंदगी की गुत्थी सुलझने की जगह और उलझ गई. रिशी को खुद मालूम नहीं था कि वह उस का अंश है या नहीं. अब उसे सिर्फ उस की मम्मी बता सकती हैं कि उस की देह की खुशबू में क्या रिशी की खुशबू शामिल है.

नीलम किचन में नाश्ता तैयार कर रही थी. अचानक वर्तिका की नजर आज के न्यूजपेपर पर पड़ी. वर्तिका न्यूजपेपर में अपना और रिशी का फोटो देख कर चौंक पड़ी. दोनों आमनेसामने बैठे थे. वे एकदूसरे की आंखों में झांक रहे थे.

‘एनादर औफर औफ औथर रिशी’ के शीर्षक के साथ.

अरे, यह खबर तो उसे कहीं का नहीं छोड़ेगी, इस से पहले उसे आज अपने जीवन की गुत्थी सुलझानी ही होगी. वर्तिका भाग कर अपनी मम्मी के पास गई.

‘‘क्या, रिशी मेरे पिता हैं मम्मी?’’ वर्तिका ने अपनी मम्मी से सीधा सवाल किया.

कुछ देर वर्तिका को देख कर कुछ सोचते हुए नीलम बोली, ‘‘अगर रिशी तेरे पिता हुए तो?’’

‘‘तो मुझे खुशी होगी,’’ वर्तिका न्यूजपेपर बगल में दबा कर दीवार के सहारे खड़ी थी.

‘‘और अगर नहीं हुए तो?’’ नीलम ने अपनी बेटी के कंधे पकड़ कर उसे सहारा दिया.

‘‘तो मुझे ज्यादा खुशी होगी,’’ वर्तिका अपनी मम्मी को हाथ से संभालते हुए बोली.

‘‘रिशी तुम्हारे पिता नहीं… हां, हमारी दोस्ती बहुत थी वे तुम्हारे पिता के साथ ही पढ़ाई कर रहे थे…’’ अभी नीलम की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि वर्तिका पलट कर घर से बाहर की ओर भागी.

‘‘अरे, कहां भागी जा रही है इतनी जल्दी में?’’ नीलम ने बेटी को पुकारा.

‘अधूरे फसाने की मुकम्मल नज्म बनने,’ वर्तिका ने उसी तरह भागते हुए बिना पलटे हुए कहा.

प्यार का बंधन: कौन था अंधेरे में वो प्रेमी जोड़ा

मैं एक ठेकेदार हूं और इमारत और सड़क बनाने के ठेके लेता हूं. मेरी पत्नी आभा सरकारी स्कूल में टीचर है. मैं काम के सिलसिले में अकसर बाहर ही रहता हूं. घर पर रामू और रजनी 2 नौकर हैं, जो घर के काम में पत्नी का हाथ बंटाते हैं.

कल रात में साइट से लौट कर घर आ गया था. घर पहुंचतेपहुंचते 10 बज चुके थे. हाथमुंह धो कर खाना खा कर मैं सो गया था. आज सुबह उठा और छत पर गया तो देखा कि 2-3 डिस्पोजल गिलास, चिप्स व नमकीन के कुछ रैपर यहांवहां पड़े थे.

एक गिलास उठा कर देखा तो पाया कि उस में से शराब की बदबू आ रही थी. पता करने पर मालूम हुआ कि यह काम रामू का है. उस को बुला कर फटकारा और ताकीद कर दिया कि अगर आगे से ऐसी कोई घटना हुई तो उस की छुट्टी तय है.

रजनी भी इस दौरान पास ही मंडराती रही. मैं 1-2 दिन रुक कर फिर साइट पर जाने लगा, तो रामू और रजनी को ताकीद करता गया कि वे ठीक तरह से काम करें.

एक बिल्डिंग बनाने का काम चल रहा था. बिल्डिंग की पहली मंजिल पर छत डलनी थी, उसी का मुआयना करने के लिए गया हुआ था.

मिस्त्रियों व कारीगरों को काम समझा रहा था कि पीछे हटते वक्त ध्यान नहीं रहा. पैर पीछे चला गया और मैं धड़ाम से गिरा.

मजदूरों ने भाग कर मुझे उठाया. दाएं पैर में ज्यादा दर्द था, पीठ में भी कुछ चोट लगी थी. सिर बच गया था, हैलमैट जो पहन रखा था.

मुंशी ने फटाफट गाड़ी में डाल कर मुझे अस्पताल पहुंचाया. आभा को भी फोन कर दिया था. वह भी तुरंत अस्तपाल पहुंच गई थी.

डाक्टर ने एक्सरे करवाया, दाएं पैर की नीचे की हड्डी में फ्रैक्चर था. उन्होंने वहां प्लास्टर लगा दिया था. पीठ में कोई टूटफूट नहीं थी. लिहाजा, दवाएं और आराम करने की सलाह दे कर घर भेज दिया.

मैं घर आ कर अपने कमरे के बैड पर लेट गया. समय गुजारने के लिए टैलीविजन, मैगजीन व अखबार मेरे साथी बन गए.

आभा ने छुट्टी लेने के लिए कहा, तो मैं ने मना कर दिया था. मैं थोड़ा सहारा ले कर बाथरूम तक आराम से जा सकता था. जरूरत पड़ने पर सोफे पर भी बैठ सकता था.

आभा सुबह काम कर के स्कूल चली जाती और दोपहर बाद घर आ जाती थी. इस के बाद वह मेरा पूरा खयाल रखती थी.

सारा दिन स्कूल में बच्चों को पढ़ा कर वह थकहार कर घर आती थी. मैं दिनभर खाली रहता था. बीचबीच में नींद भी आ जाती थी, इसलिए रात को देर तक जागता रहता था और टैलीविजन चलाए रखता.

इस से आभा की नींद बारबार डिस्टर्ब होती थी. इस के चलते मैं ने आभा से कहा कि साथ वाले कमरे में सोया करो, ताकि नींद में कोई रुकावट न हो अैर अगले दिन की ड्यूटी पर जाने के लिए आराम से तैयार हो सको.

दिन में प्यारेप्यारे दोस्त, जिन को पता चलता, वे सब मिलने आते रहते. हालचाल जान कर रुखसत होते. इसी तरह दिन गुजर रहे थे.

कभीकभी मेरे दिल में उलटेसीधे खयाल आते कि स्कूल में आभा का किसी के साथ कोई चक्कर तो नहीं चल रहा है. घर पर नौकर रामू जवान है. कहीं उस का तो मालकिन के साथ कोई चक्कर न हो. वे जो डिस्पोजल गिलास छत पर मिले थे… रामू ने अपने साथियों के साथ आभा के साथ कोई ऐसीवैसी हरकत की हो.

इस के बाद मैं मन ही मन सोचता कि मैं भी आभा के बारे में क्या उलटासीधा सोचता रहता हूं. अगर आभा को पता चलेगा कि मैं ऐसे सोचता हूं, तो उसे बहुत ज्यादा दुख होगा.

आभा ने खुद सोचविचार कर एक हफ्ते की छुट्टी ले ली. छुट्टी ले कर आभा को और भी ज्यादा काम करना पड़ गया. रोजाना पैर को एक तरफ रख कर मुझ को नहलाना, अपने हाथों से मालिश करना, कपड़े पहनाना, सभी काम अपने हाथों से करना, यारदोस्तों को अपने हाथों से जलपान करवाना, दिनभर मेरी सेवा में आगेपीछे घूमना, एक पत्नी का सही काम कर के आभा ने मुझे हैरान कर दिया.

3 हफ्ते बाद प्लास्टर हटाने का समय आ गया था. मैं आभा के साथ डाक्टर के पास पहुंचा. डाक्टर ने प्लास्टर काट कर अलग कर दिया और हलके हाथ से मालिश व गरम पानी से रोजाना सिंकाई करने की सलाह दे कर हमें रुखसत किया.

आभा रोजाना यह काम बखूबी कर रही थी. अपने नरम मुलायम हाथ से वह हलकीहलकी मालिश और गरम पानी से सिंकाई करती. अब मुझे काफी आराम हो गया था.

अभी मुझे नींद आ रही थी कि खिड़की के शीशे के अंदर से मैं ने 2 सायों को मिलते देखा. एक साया औरत का था, दूसरा मर्द का. यह मिलन मैं पहले भी देख चुका था. तभी आभा के बारे में उलटेसीधे खयाल मुझे आने लगे थे.

तभी मेरे कमरे का दरवाजा खुला. आभा अंदर आई और पूछा, ‘‘कोई चीज चाहिए क्या?’’

उधर खिड़की के पार 2 सायो का मिलन जारी था. मैं ने जोर से कहा, ‘‘कौन है वहां?’’

मेरे कहने भर की देर थी कि वे दोनों साएं अपनीअपनी दिशा में भाग गए थे.

आभा ने कहा, ‘‘रामू और रजनी होंगे. आजकल उन की गुटरगूं चल रही है. हमें इस से क्या? दोनों प्यार से रहेंगे तो हमें ही फायदा है. कहीं और ये जाएंगे नहीं और हमें नौकर तलाशने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

इतना कह कर आभा अपने कमरे में जाने लगी, तो मैं ने हाथ पकड़ कर उसे अपने पास खींच लिया और अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. मन में जो मैल या अविश्वास था, वह बह गया था. मन और तन निर्मल हो गया था, अपने साथी के साथ प्यार के बंधन में बंधने से.

बहू-बेटी का फर्क : बहू के नाम पर सास के क्यों बदले तेवर

जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाडू पोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए.

शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’ और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती.

यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’

‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है.  हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी.

‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’

‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी.

‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया.

उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’

‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’

‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’

‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं.

अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साड़ियां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं.

‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साड़ियां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया.

रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं.

‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं.

सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’

‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें.

कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’

आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

झगड़ा : पेमा ने किसे घसीटा पंचायत में

रात गहराने लगी थी और श्याम अभीअभी खेतों से लौटा ही था कि पंचायत के कारिंदे ने आ कर आवाज लगाई, ‘‘श्याम, अभी पंचायत बैठ रही है. तुझे जितेंद्रजी ने बुलाया है.’’

अचानक क्या हो गया? पंचायत क्यों बैठ रही है? इस बारे में कारिंदे को कुछ पता नहीं था. श्याम ने जल्दीजल्दी बैलों को चारापानी दिया, हाथमुंह धोए, बदन पर चादर लपेटी और जूतियां पहन कर चल दिया.

इस बात को 2-3 घंटे बीत गए थे. अपने पापा को बारबार याद करते हुए सुशी सो गई थी. खाट पर सुशी की बगल में बैठी भारती बेताबी से श्याम के आने का इंतजार कर रही थी.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया, तो भारती ने सांकल खोल दी. थके कदमों से श्याम घर में दाखिल हुआ.

भारती ने दरवाजे की सांकल चढ़ाई और एक ही सांस में श्याम से कई सवाल कर डाले, ‘‘क्या हुआ? क्यों बैठी थी पंचायत? क्यों बुलाया था तुम्हें?’’

‘‘मुझे जिस बात का डर था, वही हुआ,’’ श्याम ने खाट पर बैठते हुए कहा.

‘‘किस बात का डर…?’’ भारती ने परेशान लहजे में पूछा.

श्याम ने बुझ हुई नजरों से भारती की ओर देखा और बोला, ‘‘पेमा झगड़ा लेने आ गया है. मंगलगढ़ के खतरनाक गुंडे लाखा के गैंग के साथ वह बौर्डर पर डेरा डाले हुए है. उस ने 50,000 रुपए के झगड़े का पैगाम भेजा है.’’

‘‘लगता है, वह मुझे यहां भी चैन से नहीं रहने देगा… अगर मैं डूब मरती तो अच्छा होता,’’ बोलते हुए भारती रोंआसी हो उठी. उस ने खाट पर सोई सुशी को गले लगा लिया.

श्याम ने भारती के माथे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘नहीं भारती, ऐसी बातें क्यों करती हो… मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

‘‘फिर हमारे गांव की पंचायत ने क्या फैसला किया? क्या कहा जितेंद्रजी ने?’’ भारती ने पूछा.

‘‘सच का साथ कौन देता है आजकल… हमारी पंचायत भी उन्हीं के साथ है. जितेंद्रजी कहते हैं कि पेमा का झगड़ा लेने का हक तो बनता है…

‘‘उन्होंने मुझ से कहा कि या तो तू झगड़े की रकम चुका दे या फिर भारती को पेमा को सौंप दे, लेकिन…’’ इतना कहतेकहते श्याम रुक गया.

‘‘मैं तैयार हूं श्याम… मेरी वजह से तुम क्यों मुसीबत में फंसो…’’ भारती ने कहा.

‘‘नहीं भारती… तुम्हें छोड़ने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता… रुपयों के लिए अपने प्यार की बलि कभी नहीं दूंगा मैं…’’

‘‘तो फिर क्या करोगे? 50,000 रुपए कहां से लाओगे?’’ भारती ने पूछा.

‘‘मैं अपना खेत बेच दूंगा,’’ श्याम ने सपाट लहजे में कहा.

‘‘खेत बेच दोगे तो खाओगे क्या… खेत ही तो हमारी रोजीरोटी है… वह भी छिन गई तो फिर हम क्या करेंगे?’’ भारती ने तड़प कर कहा.

यह सुन कर श्याम मुसकराया और प्यार से भारती की आंखों में देख कर बोला, ‘‘तुम मेरे साथ हो भारती तो मैं कुछ भी कर सकता हूं. मैं मेहनतमजदूरी करूंगा, लेकिन तुम्हें भूखा नहीं मरने दूंगा… आओ खाना खाएं, मु?ो जोरों की भूख लगी है.’’

भारती उठी और खाना परोसने लगी. दोनों ने मिल कर खाना खाया, फिर चुपचाप बिस्तर बिछा कर लेट गए.

दिनभर के थकेहारे श्याम को थोड़ी ही देर में नींद आ गई, लेकिन भारती को नींद नहीं आई. वह बिस्तर पर बेचैन पड़ी रही. लेटेलेटे वह खयालों में खो गई.

तकरीबन 5 साल पहले भारती इस गांव से विदा हुई थी. वह अपने मांबाप की एकलौती औलाद थी. उन्होंने उसे लाड़प्यार से पालपोस कर बड़ा किया था. उस की शादी मंगलगढ़ के पेमा के साथ धूमधाम से की गई थी.

भारती के मातापिता ने उस के लिए अच्छा घरपरिवार देखा था ताकि वह सुखी रहे. लेकिन शादी के कुछ दिनों बाद ही उस की सारी खुशियां ढेर हो गई थीं, क्योंकि पेमा का चालचलन ठीक नहीं था. वह शराबी और जुआरी था. शराब और जुए को ले कर आएदिन दोनों में झगड़ा होने लगा था.

पेमा रात को दारू पी कर घर लौटता और भारती को मारतापीटता व गालियां बकता था. एक साल बाद जब सुशी पैदा हुई तो भारती ने सोचा कि पेमा अब सुधर जाएगा. लेकिन न तो पेमा ने दारू पीना छोड़ा और न ही जुआ खेलना.

पेमा अपने पुरखों की जमीनजायदाद को दांव पर लगाने लगा. जब कभी भारती इस बात की खिलाफत करती तो वह उसे मारने दौड़ता.

इसी तरह 3 साल बीत गए. इस बीच भारती ने बहुत दुख झेले. पति के साथ कुदरत की मार ने भी उसे तोड़ दिया. इधर भारती के मांबाप गुजर गए और उधर पेमा ने उस की जिंदगी बरबाद कर दी. घर में खाने के लाले पड़ने लगे.

सुशी को बगल में दबाए भारती खेतों में मजदूरी करने लगी, लेकिन मौका पा कर वह उस की मेहनत की कमाई भी छीन ले जाता. वह आंसू बहाती रह जाती.

एक रात नशे की हालत में पेमा अपने साथ 4 आवारा गुंडों को ले कर घर आया और भारती को उन के साथ रात बिताने के लिए कहने लगा. यह सुन कर उस का पारा चढ़ गया. नफरत और गुस्से में वह फुफकार उठी और उस ने पेमा के मुंह पर थूक दिया.

पेमा गुस्से से आगबबूला हो उठा. लातें मारमार कर उस ने भारती को दरवाजे के बाहर फेंक दिया.

रोती हुई बच्ची को भारती ने कलेजे से लगाया और चल पड़ी. रात का समय था. चारों ओर अंधेरा था. न मांबाप, न कोई भाईबहन. वह जाती भी तो कहां जाती. अचानक उसे श्याम की याद आ गई.

बचपन से ही श्याम उसे चाहता था, लेकिन कभी जाहिर नहीं होने दिया था. वह बड़ी हो गई, उस की शादी हो गई, लेकिन उस ने मुंह नहीं खोला था.

श्याम का प्यार इतना सच्चा था कि वह किसी दूसरी औरत को अपने दिल में जगह नहीं दे सकता था. बरसों बाद भी जब वह बुरी हालत में सुशी को ले कर उस के दरवाजे पर पहुंची तो उस ने हंस कर उस के साथ पेमा की बेटी को भी अपना लिया था.

दूसरी तरफ पेमा ऐसा दरिंदा था, जिस ने उसे आधी रात में ही घर से बाहर निकाल दिया था. औरत को वह पैरों की जूती सम?ाता था. आज वह उस की कीमत वसूलना चाहता है.

कितनी हैरत की बात है कि जुल्म करने वाले के साथ पूरी दुनिया है और एक मजबूर औरत को पनाह देने वाले के साथ कोई नहीं है. बीते दिनों के खयालों से भारती की आंखें भर आईं.

यादों में डूबी भारती ने करवट बदली और गहरी नींद में सोए हुए श्याम के नजदीक सरक गई. अपना सिर उस ने श्याम की बांह पर रख दिया और आंखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगी.

दूसरे दिन सुबह होते ही फिर पंचायत बैठ गई. चौपाल पर पूरा गांव जमा हो गया. सामने ऊंचे आसन पर गांव के मुखिया जितेंद्रजी बैठे थे. उन के इर्दगिर्द दूसरे पंच भी अपना आसन जमाए बैठे थे. मुखिया के सामने श्याम सिर झुकाए खड़ा था.

पंचायत की कार्यवाही शुरू करते हुए मुखिया जितेंद्रजी ने कहा, ‘‘बोल श्याम, अपनी सफाई में तू क्या कहना चाहता है?’’

‘‘मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है मुखियाजी… मैं ने ठुकराई हुई एक मजबूर औरत को पनाह दी है.’’

यह सुन कर एक पंच खड़ा हुआ और चिल्ला कर बोला, ‘‘तू ने पेमा की औरत को अपने घर में रख लिया है श्याम… तुझे झगड़ा देना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां श्याम, यह हमारा रिवाज है… हमारे समाज का नियम भी है… मैं समाज के नियमों को नहीं तोड़ सकता,’’ जितेंद्रजी की ऊंची आवाज गूंजी तो सभा में सन्नाटा छा गया.

अचानक भारती भरी चौपाल में आई और बोली, ‘‘बड़े फख्र की बात है मुखियाजी कि आप समाज का नियम नहीं तोड़ सकते, लेकिन एक सीधेसादे व सच्चे इनसान को तोड़ सकते हैं…

‘‘आप सब लोग उसी की तरफदारी कर रहे हैं जो मुझे बाजार में बेच देना चाहता है… जिस ने मुझे और अपनी मासूम बच्ची को आधी रात को घर से धक्के दे कर भगा दिया था… और वह दरिंदा आज मेरी कीमत वसूल करने आ खड़ा हुआ है.

‘‘ले लीजिए हमारा खेत… छीन लीजिए हमारा सबकुछ… भर दीजिए उस भेडि़ए की झोली…’’ इतना कहतेकहते भारती जमीन पर बेसुध हो कर लुढ़क गई.

सभा में खामोशी छा गई. सभी की नजरें झुक गईं. अचानक जितेंद्रजी अपने आसन से उठ खड़े हुए और आगे बढ़े. भारती के नजदीक आ कर वह ठहर गए. उन्होंने भारती को उठा कर अपने गले लगा लिया.

दूसरे ही पल उन की आवाज गूंज उठी, ‘‘सब लोग अपनेअपने हथियार ले कर आ जाओ. आज हमारी बेटी पर मुसीबत आई है. लाखा को खबर कर दो कि वह तैयार हो जाए… हम आ रहे हैं.’’

जितेंद्रजी का आदेश पा कर नौजवान दौड़ पड़े. देखते ही देखते चौपाल पर हथियारों से लैस सैकड़ों लोग जमा हो गए. किसी के हाथ में बंदूक थी तो किसी के हाथ में बल्लम. कुछ के हाथों में तलवारें भी थीं.

जितेंद्रजी ने बंदूक उठाई और हवा में एक फायर कर दिया. बंदूक के धमाके से आसमान गूंज उठा. दूसरे ही पल जितेंद्रजी के साथ सभी लोग लाखा के डेरे की ओर बढ़ गए.

शराब के नशे में धुत्त लाखा व उस के साथियों को जब यह खबर मिली कि दलबल के साथ जितेंद्रजी लड़ने आ रहे हैं तो सब का नशा काफूर हो गया. सैकड़ों लोगों को अपनी ओर आते देख वे कांप गए. तलवारों की चमक व गोलियों की गूंज सुन कर उन के दिल दहल उठे.

यह नजारा देख पेमा के तो होश ही उड़ गए. लाखा के एक इशारे पर उस के सभी साथियों ने अपनेअपने हथियार उठाए और भाग खड़े हुए.

नीला पत्थर : आखिर क्या था काकी का फैसला

‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी…’’ पार्वती बूआ की कड़कती आवाज ने सब को चुप करा दिया. काकी की अटैची फिर हवेली के अंदर रख दी गई. यह तीसरी बार की बात थी. काकी के कुनबे ने फैसला किया था कि शादीशुदा लड़की का असली घर उस की ससुराल ही होती है. न चाहते हुए भी काकी मायका छोड़ कर ससुराल जा रही थी.

हालांकि ससुराल से उसे लिवाने कोई नहीं आया था. काकी को बोझ समझ कर उस के परिवार वाले उसे खुद ही उस की ससुराल फेंकने का मन बना चुके थे कि पार्वती बूआ को अपनी बरबाद हो चुकी जवानी याद आ गई. खुद उस के साथ कुनबे वालों ने कोई इंसाफ नहीं किया था और उसे कई बार उस की मरजी के खिलाफ ससुराल भेजा था, जहां उस की कोई कद्र नहीं थी.

तभी तो पार्वती बूआ बड़ेबूढ़ों की परवाह न करते हुए चीख उठी थी, ‘‘कहीं नहीं जाएगी काकी. उन कसाइयों के पास भेजने के बजाय उसे अपने खेतों के पास वाली नहर में ही धक्का क्यों न दे दिया जाए. बिना किसी बुलावे के या बिना कुछ कहेसुने, बिना कोई इकरारनामे के काकी को ससुराल भेज देंगे, तो वे ससुरे इस बार जला कर मार डालेंगे इस मासूम बेजबान लड़की को. फिर उन का एकाध आदमी तुम मार आना और सारी उम्र कोर्टकचहरी के चक्कर में अपने आधे खेतों को गिरवी रखवा देना.’’

दूसरी बार काकी के एकलौते भाई की आंखों में खून उतर आया था. उस ने हवेली के दरवाजे से ही चीख कर कहा था, ‘‘काकी ससुराल नहीं जाएगी. उन्हें आ कर हम से माफी मांगनी होगी. हर तीसरे दिन का बखेड़ा अच्छा नहीं. क्या फायदा… किसी की जान चली जाएगी और कोई दूसरा जेल में अपनी जवानी गला देगा. बेहतर है कि कुछ और ही सोचो काकी के लिए.’’

काकी के लिए बस 3 बार पूरा कुनबा जुटा था उस के आंगन में. काकी को यहीं मायके में रखने पर सहमति बना कर वे लोग अपनेअपने कामों में मसरूफ हो गए थे. उस के बाद काकी के बारे में सोचने की किसी ने जरूरत नहीं समझी और न ही कोई ऐसा मौका आया कि काकी के बारे में कोई अहम फैसला लेना पड़े.

काकी का कुसूर सिर्फ इतना था कि वह गूंगी थी और बहरी भी. मगर गूंगी तो गांव की 99 फीसदी लड़कियां होती हैं. क्या उन के बारे में भी कुनबा पंचायत या बिरादरी आंखें मींच कर फैसले करती है? कोई एकाध सिरफिरी लड़की अपने बारे में लिए गए इन एकतरफा फैसलों के खिलाफ बोल भी पड़ती है, तो उस के अपने ही भाइयों की आंखों में खून उतर आता है. ससुराल की लाठी उस पर चोट करती है या उस के जेठ के हाथ उस के बाल नोंचने लगते हैं.

ऐसी सिरफिरी मुंहफट लड़की की मां बस इतना कह कर चुप हो जाती है कि जहां एक लड़की की डोली उतरती है, वहां से ही उस की अरथी उठती है. यह एक हारे हुए परेशान आदमी का बेमेल सा तर्क ही तो है. एक अकेली छुईमुई लड़की क्या विद्रोह करे. उसे किसी फैसले में कब शामिल किया जाता है. सदियों से उस के खिलाफ फतवे ही जारी होते रहे हैं. वह कुछ बोले तो बिजली टूट कर गिरती है, आसमान फट पड़ता है.

अनगनित लोगों की शादियां टूटती हैं, मगर वे सब पागल नहीं हो जाते. बेहतर तो यही होता कि अपनी नाकाम शादी के बारे में काकी जितना जल्दी होता भूल जाती. ये शादीब्याह के मामले थानेकचहरी में चले जाएं, तो फिर रुसवाई तो तय ही है. आखिर हुआ क्या? शीशा पत्थर से टकराया और चूरचूर हो गया.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

काकी के कुनबे का फैसला सुनने के बाद तो वह हर तरफ से आजाद हो चुका था. उस के सुख के सारे दरवाजे खुल गए, मगर काकी का मोह भंग हो गया. अब वह खुद को एक चुकी हुई बूढ़ी खूसट मानने लगी थी.

भरी जवानी में ही काकी की हर रस, रंग, साज और मौजमस्ती से दूरी हो गई थी. उस के मन में नफरत और बदले के नागफनी इतने विकराल आकार लेते गए कि फिर उन में किसी दूसरे आदमी के प्रति प्यार या चाहत के फूल खिल ही न सके.

किसी ने उसे यह नहीं समझाया, ‘लाड़ो, अपने बेवफा शौहर के फिर मुंह लगेगी, तो क्या हासिल होगा तुझे? वह सच्चा होता तो क्या यों छोड़ कर जाता तुझे? उसे वापस ले भी आएगी, तो क्या अब वह तेरे भरोसे लायक बचा है? क्या करेगी अब उस का तू? वह तो ऐसी चीज है कि जो निगले भी नहीं बनेगा और बाहर थूकेगी, तो भी कसैली हो जाएगी तू.

‘वह तो बदचलन है ही, तू भी अगर उस की तलाश में थानाकचहरी जाएगी, तो तू तो वैसी ही हो जाएगी. शरीफ लोगों का काम नहीं है यह सब.’

कोई तो एक बार उसे कहता, ‘देख काकी, तेरे पास हुस्न है, जवानी है, अरमान हैं. तू क्यों आग में झोंकती है खुद को? दफा कर ऐसे पति को. पीछा छोड़ उस का. तू दोबारा घर बसा ले. वह 20 साल बाद आ कर तुझ पर अपना दावा दायर करने से रहा. फिर किस आधार पर वह तुझ पर अपना हक जमाएगा? इतने सालों से तेरे लिए बिलकुल पराया था. तेरे तन की जमीन को बंजर ही बनाता रहा वह.

‘शादी के पहले के कुछ दिनों में ही तेरे साथ रहा, सोया वह. यह तो अच्छा हुआ कि तेरी कोख में अपना कोई गंदा बीज रोप कर नहीं गया वह दुष्ट, वरना सारी उम्र उस से जान छुड़ानी मुश्किल हो जाती तुझे.’

कुनबे ने काकी के बारे में 3 बार फतवे जारी किए थे. पहली बार काकी की मां ने ऐसे ही विद्रोही शब्द कहे थे कि कहीं नहीं जाएगी काकी. पहली बार गांव में तब हंगामा हुआ था, जब काकी दीनू काका के बेटे रमेश के बहकावे में आ गई थी और उस ने उस के साथ भाग जाने की योजना बना ली थी. वह करती भी तो क्या करती.

35 बरस की हो गई थी वह, मगर कहीं उस के रिश्ते की बात जम नहीं रही थी. ऐसे में लड़कियां कब तक खिड़कियों के बाहर ताकझांक करती रहें कि उन के सपनों का राजकुमार कब आएगा. इन दिनों राजकुमार लड़की के रंगरूप या गुण नहीं देखता, वह उस के पिता की जागीर पर नजर रखता है, जहां से उसे मोटा दहेज मिलना होता है.

गरीब की बेटी और वह भी जन्म से गूंगीबहरी. कौन हाथ धरेगा उस पर? वैसे, काकी गजब की खूबसूरत थी. घर के कामकाज में भी माहिर. गोरीचिट्टी, लंबा कद. जब किसी शादीब्याह के लिए सजधज कर निकलती, तो कइयों के दिल पर सांप लोटने लगते. मगर उस के साथ जिंदगी बिताने के बारे में सोचने मात्र की कोई कल्पना नहीं करता था.

वैसे तो किसी कुंआरी लड़की का दिल धड़कना ही नहीं चाहिए, अगर धड़के भी तो किसी को कानोंकान खबर न हो, वरना बरछे, तलवारें व गंड़ासियां लहराने लगती हैं. यह कैसा निजाम है कि जहां मर्द पचासों जगह मुंह मार सकता था, मगर औरत अपने दिल के आईने में किसी पराए मर्द की तसवीर नहीं देख सकती थी? न शादी से पहले और शादी के बाद तो कतई नहीं.

पर दीनू काका के फौजी बेटे रमेश का दिल काकी पर फिदा हो गया था. काकी भी उस से बेपनाह मुहब्बत करने लगी थी. मगर कहां दीनू काका की लंबीचौड़ी खेती और कहां काकी का गरीब कुनबा. कोई मेल नहीं था दोनों परिवारों में.

पहली ही नजर में रमेश काकी पर अपना सबकुछ लुटा बैठा, मगर काकी को क्या पता था कि ऐसा प्यार उस के भविष्य को चौपट कर देगा.

रमेश जानता था कि उस के परिवार वाले उस गूंगी लड़की से उस की शादी नहीं होने देंगे. बस, एक ही रास्ता बचा था कि कहीं भाग कर शादी कर ली जाए.

उन की इस योजना का पता अगले ही दिन चल गया था और कई परिवार, जो रमेश के साथ अपनी लड़की का रिश्ता जोड़ना चाहते थे, सब दिशाओं में फैल गए. इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं भला. फिर जब सारी दुनिया प्रेमियों के खिलाफ हो जाए, तो उस प्यार को जमाने वालों की बुरी नजर लग जाती है.

काकी का बचपन बड़े प्यार और खुशनुमा माहौल में बीता था. उस के छोटे भाई राजा को कोई चिढ़ाताडांटता या मारता, तो काकी की आंखें छलछला आतीं. अपनी एक साल की भूरी कटिया के मरने पर 2 दिन रोती रही थी वह. जब उस का प्यारा कुत्ता मरा तो कैसे फट पड़ी थी वह. सब से ज्यादा दुख तो उसे पिता के मरने पर हुआ था. मां के गले लग कर वह इतना रोई थी कि मानो सारे दुखों का अंत ही कर डालेगी. आंसू चुक गए. आवाज तो पहले से ही गूंगी थी. बस गला भरभर करता था और दिल रेशारेशा बिखरता जाता था. सबकुछ खत्म सा हो गया था तब.

अब जिंदा बच गई थी तो जीना तो था ही न. दुखों को रोरो कर हलका कर लेने की आदत तब से ही पड़ गई थी उसे. दुख रोने से और बढ़ते जाते थे.

रमेश से बलात छीन कर काकी को दूर फेंक दिया गया था एक अधेड़ उम्र के पिलपिले गरीब किसान के झोंपड़े में, जहां उस के जवान बेटों की भूखी नजरें काकी को नोंचने पर आमादा थीं.

काकी वहां कितने दिन साबुत बची रहती. भाग आई भेडि़यों के उस जंगल से. कोई रास्ता नहीं था उस जंगल से बाहर निकलने का.

जो रास्ता काकी ने खुद चुना था, उस के दरमियान सैकड़ों लोग खड़े हो गए थे. काकी के मायके की हालत खराब तो न थी, मगर इतने सोखे दिन भी नहीं थे कि कई दिन दिल खोल कर हंस लिया जाए. कभी धरती पर पड़े बीजों के अंकुरित होने पर नजरें गड़ी रहतीं, तो कभी आसमान के बादलों से मुरादें मांगती झोलियां फैलाए बैठी रहतीं मांबेटी.

रमेश से छिटक कर और फिर ससुराल से ठुकराई जाने के बाद काकी का दिल बुरी तरह हार माने बैठा था. अब काकी ने अपने शरीर की देखभाल करनी छोड़ दी थी. उस की मां उस से अकसर कहती कि गरीब की जवानी और पौष की चांदनी रात को कौन देखता है.

फटी हुई आंखों से काकी इस बात को समझने की कोशिश करती. मां झुंझला कर कहती, ‘‘तू तो जबान से ही नहीं, दिल से भी बिलकुल गूंगी ही है. मेरे कहने का मतलब है कि जैसे पूस की कड़कती सर्दी वाली रात में चांदनी को निहारने कोई नहीं बाहर निकलता, वैसे ही गरीब की जवानी को कोई नहीं देखता.’’

मां चल बसीं. काकी के भाई की गृहस्थी बढ़ चली थी. काकी की अपनी भाभी से जरा भी नहीं बनती थी. अब काकी काफी चिड़चिड़ी सी हो गई थी. भाई से अनबन क्या हुई, काकी तो दरबदर की ठोकरें खाने लगी. कभी चाची के पास कुछ दिन रहती, तो कभी बूआ काम करकर के थकटूट जाती थी. काकी एक बार खाट से क्या लगी कि सब उसे बोझ समझने लगे थे.

आखिरकार काकी की बिरादरी ने एक बार फिर काकी के बारे में फैसला करने के लिए समय निकाला. इन लोगों ने उस के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया, जिस के तहत दिन तय कर दिए गए कि कुलीन व खातेपीते घरों में जा कर काकी खाना खा लिया करेगी.

कुछ दिन तक यह बंदोबस्त चला, मगर काकी को यों आंखें झुका कर गैर लोगों के घर जा कर रहम की भीख खाना चुभने लगा. अपनी बिरादरी के अब तक के तमाम फैसलों का काकी ने विरोध नहीं किया था, मगर इस आखिरी फैसले का काकी ने जवाब दिया. सुबह उस की लाश नहर से बरामद हुई थी. अब काकी गूंगीबहरी ही नहीं, बल्कि अहल्या की तरह सर्द नीला पत्थर हो चुकी थी.

काकी का पति तो पहले भी वैसा ही था लंपट, औरतबाज और बाद में भी वैसा ही बना रहा. काकी से अलग होने के बाद भी उस की जिंदगी पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

हम बेवफा न थे : निदा की कशमकश

‘‘अरे, आप लोग यहां क्या कर रहे हैं? सब लोग वहां आप दोनों के इंतजार में खड़े हैं,’’ हमशां ने अपने भैया और होने वाली भाभी को एक कोने में खड़े देख कर पूछा.

‘‘बस कुछ नहीं, ऐसे ही…’’ हमशां की होने वाली भाभी बोलीं.

‘‘पर भैया, आप तो ऐसे छिपने वाले नहीं थे…’’ हमशां ने हंसते हुए पूछा.

‘काश हमशां, तुम जान पातीं कि मैं आज कितना उदास हूं, मगर मैं चाह कर भी तुम्हें नहीं बता सकता,’ इतना सोच कर हमशां का भाई अख्तर लोगों के स्वागत के लिए दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया.

तभी अख्तर की नजर सामने से आती निदा पर पड़ी जो पहले कभी उसी की मंगेतर थी. वह उसे लाख भुलाने के बावजूद भी भूल नहीं पाया था.

‘‘हैलो अंकल, कैसे हैं आप?’’ निदा ने अख्तर के अब्बू से पूछा.

‘‘बेटी, मैं बिलकुल ठीक हूं,’’ अख्तर के अब्बू ने प्यार से जवाब दिया.

‘‘हैलो अख्तर, मंगनी मुबारक हो. और कितनी बार मंगनी करने की कसम खा रखी है?’’ निदा ने सवाल दागा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो? मैं तो कुछ नहीं जानता कि हमारी मंगनी क्यों टूटी. पता नहीं, तुम्हारे घर वालों को मुझ में क्या बुराई नजर आई,’’ अख्तर ने जवाब दिया.

‘‘बस मिस्टर अख्तर, आप जैसे लोग ही दुनिया को धोखा देते फिरते हैं और हमारे जैसे लोग धोखा खाते रहते हैं,’’ इतना कह कर निदा गुस्से में वहां से चली गई.

सामने स्टेज पर मंगनी की तैयारी पूरे जोरशोर से हो रही थी. सब लोग एकदूसरे से बातें करते नजर आ रहे थे. तभी निदा ने हमशां को देखा, जो उसी की तरफ दौड़ी चली आ रही थी.

‘‘निदा, आप आ गईं. मैं तो सोच रही थी कि आप भी उन लड़कियों जैसी होंगी, जो मंगनी टूटने के बाद रिश्ता तोड़ लेती हैं,’’ हमशां बोली.

‘‘हमशां, मैं उन में से नहीं हूं. यह सब तो हालात की वजह से हुआ?है…’’ निदा उदास हो कर बोली, ‘‘क्या मैं जान सकती हूं कि वह लड़की कौन है जो तुम लोगों को पसंद आई है?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. वह देखो, सामने स्टेज की तरफ सुनहरे रंग का लहंगा पहने हुए खड़ी है,’’ हमशां ने अपनी होने वाली भाभी की ओर इशारा करते हुए बताया.

‘‘अच्छा, तो यही वह लड़की है जो तुम लोगों की अगली शिकार है,’’ निदा ने कोसने वाले अंदाज में कहा.

‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं. इस में भैया की कोई गलती नहीं है. वह तो आज भी नहीं जानते कि हम लोगों की तरफ से मंगनी तोड़ी गई है,’’ हमशां ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘मगर, तुम तो बता सकती थीं. तुम ने क्यों नहीं बताया? आखिर तुम भी तो इसी घर की हो,’’ इतना कह कर निदा वहां से दूसरी तरफ खड़े लोगों की तरफ बढ़ने लगी.

निदा की बातें हमशां को बुरी तरह कचोट गईं.

‘‘प्लीज निदा, आप हम लोगों को गलत न समझें. बस, मम्मी चाहती थीं कि भैया की शादी उन की सहेली की बेटी से ही हो,’’ निदा को रोकते हुए हमशां ने सफाई पेश की.

‘‘और तुम लोग मान गए. एक लड़की की जिंदगी बरबाद कर के अपनी कामयाबी का जश्न मना रहे हो,’’ निदा गुस्से से बोली.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं?है. मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मम्मी की कसम के आगे हम सब मजबूर थे वरना मंगनी कभी भी न टूटने देते,’’ कह कर हमशां ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘देखो हमशां, अब पुरानी बातों को भूल जाओ. पर अफसोस तो उम्रभर रहेगा कि इनसानों की पहचान करना आजकल के लोग भूल चुके हैं,’’ इतना कह कर निदा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और आगे बढ़ गई.

‘‘निदा, इन से मिलो. ये मेरी होने वाली बहू के मम्मीपापा हैं. यह इन की छोटी बेटी है, जो मैडिकल की पढ़ाई कर रही है,’’ अख्तर की अम्मी ने निदा को अपने नए रिश्तेदारों से मिलवाया.

निदा सोचने लगी कि लोग तो रिश्ता टूटने पर नफरत करते हैं, लेकिन मैं उन में से नहीं हूं. अमीरों के लिए दौलत ही सबकुछ है. मगर मैं दौलत की इज्जत नहीं करती, बल्कि इनसानों की इज्जत करना मुझे अपने घर वालों ने सिखाया है.

‘‘निदा, आप भैया को माफ कर दें, प्लीज,’’ हमशां उस के पास आ कर फिर मिन्नत भरे लहजे में बोली.

‘‘हमशां, कैसी बातें करती हो? अब जब मुझे पता चल गया है कि इस में तुम्हारे भैया की कोई गलती नहीं है तो माफी मांगने का सवाल ही नहीं उठता,’’ निदा ने हंस कर उस के गाल पर एक हलकी सी चपत लगाई.

कुछ देर ठहर कर निदा फिर बोली, ‘‘हमशां, तुम्हारी मम्मी ने मुझ से रिश्ता तोड़ कर बहुत बड़ी गलती की. काश, मैं भी अमीर घर से होती तो यह रिश्ता चंद सिक्कों के लिए न टूटता.’’

‘‘मुझे मालूम है कि आप नाराज हैं. मम्मी ने आप से मंगनी तो तोड़ दी, पर उन्हें भी हमेशा अफसोस रहेगा कि उन्होंने दौलत के लिए अपने बेटे की खुशियों का खून कर दिया,’’ हमशां ने संजीदगी से कहा.

‘‘बेटा, आप लोग यहां क्यों खड़े हैं? चलो, सब लोग इंतजार कर रहे हैं. निदा, तुम भी चलो,’’ अख्तर के अब्बू खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘मुझे यहां इतना प्यार मिलता है, फिर भी दिल में एक टीस सी उठती है कि इन्होंने मुझे ठुकराया है. पर दिल में नफरत से कहीं ज्यादा मुहब्बत का असर है, जो चाह कर भी नहीं मिटा सकती,’ निदा सोच रही थी.

‘‘निदा, आप को बुरा नहीं लग रहा कि भैया किसी और से शादी कर रहे हैं?’’ हमशां ने मासूमियत से पूछा.

‘‘नहीं हमशां, मुझे क्यों बुरा लगने लगा. अगर आदमी का दिल साफ और पाक हो, तो वह एक अच्छा दोस्त भी तो बन सकता है,’’ निदा उमड़ते आंसुओं को रोकना चाहती थी, मगर कोशिश करने पर भी वह ऐसा कर नहीं सकी और आखिरकार उस की आंखें भर आईं.

‘‘भैया, आप निदा से वादा करें कि आप दोनों जिंदगी के किसी भी मोड़ पर दोस्ती का दामन नहीं छोड़ेंगे,’’ हमशां ने इतना कह कर निदा का हाथ अपने भैया के हाथ में थमा दिया और दोनों के अच्छे दोस्त बने रहने की दुआ करने लगी.

‘‘माफ कीजिएगा, अब हम एकदूसरे के दोस्त बन गए हैं और दोस्ती में कोई परदा नहीं, इसलिए आप मुझे बेवफा न समझें तो बेहतर होगा,’’ अख्तर ने कहा.

‘‘अच्छा, आप लोग मेरे बिना दोस्ती कैसे कर सकते हैं. मैं तीसरी दोस्त हूं,’’ अख्तर की मंगेतर निदा से बोली.

निदा उस लड़की को देखती रह गई और सोचने लगी कि कितनी अच्छी लड़की है. वैसे भी इस सब में इस की कोई गलती भी नहीं है.

‘‘आंटी, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं. प्लीज, इनकार न कीजिएगा,’’ निदा ने कहा.

‘‘तुम मुझ को शर्मिंदा तो नहीं कर रही हो?’’ अख्तर की अम्मी ने पलट कर पूछा.

‘‘नहीं आंटी, मैं एक दोस्त होने के नाते अपने दोस्त की बहन को अपने भाई के लिए मांग रही हूं,’’ इतना कह कर निदा ने हमशां को गले से लगा लिया.

‘‘निदा, आप हम से बदला लेना चाहती हैं. आप भी मम्मी की तरह रिश्ता जोड़ कर फिर तोड़ लीजिएगा ताकि मैं भी दुनिया वालों की नजर में बदनाम हो जाऊं,’’ हमशां रोते हुए बोली.

‘‘अरी पगली, मैं तो तेरे भैया की दोस्त हूं, दुख और सुख में साथ देना दोस्तों का फर्ज होता है, न कि उन से बदला लेना,’’ निदा ने कहा.

‘‘नहीं, मुझे यह रिश्ता मंजूर नहीं है,’’ अख्तर की अम्मी ने जिद्दी लहजे में कहा. तभी अख्तर के अब्बू आ गए.

‘‘क्या बात है? किस का रिश्ता नहीं होने देंगी आप?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘अंकल, मैं हमशां को अपने भाई के लिए मांग रही हूं.’’

‘‘तो देर किस बात की है. ले जाओ. तुम्हारी अमानत है, तुम्हें सौंप देता हूं.’’

‘‘निदा, आप अब भी सोच लें, मुझे बरबाद होने से आप ही बचा सकती हैं,’’ हमशां ने रोते हुए कहा.

‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हो. मैं तो तुम्हें दिल से कबूल कर रही हूं, जबान से नहीं, जो बदल जाऊंगी,’’ निदा खुशी से चहकी.

‘‘हमशां, निदा ठीक कह रही हैं. तुम खुशीखुशी मान जाओ. यह कोई जरूरी नहीं कि हम लोगों ने उस के साथ गलत बरताव किया तो वह भी ऐसी ही गलती दोहराए,’’ अख्तर हमशां को समझाते हुए कहने लगा.

‘‘अगर वह भी हमारे जैसी बन जाएगी, तब हम में और उस में क्या फर्क रहेगा,’’ इतना कह कर अख्तर ने हमशां का हाथ निदा के भाई के हाथों में दे दिया.

‘‘निदा, हम यह नहीं जानते कि कौन बेवफा था, लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि हम बेवफा न थे,’’ अख्तर नजर झकाए हुए बोला.

‘‘भैया, आप बेवफा न थे तो फिर कौन बेवफा था?’’ हमशां शिकायती लहजे में बोली. उस की नजर जब अपने भैया पर पड़ी तो देख कर दंग रह गई. उस का भाई रो रहा था.

‘‘भैया, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप को गलत समझ,’’ हमशां अख्तर के गले लग कर रोने लगी.

सच है कि इनसान को हालात के आगे झुकना पड़ता है. अपनों के लिए बेवफा भी बनना पड़ता है.

आशियाना: क्या सुजाता और सुजल का सपना हुआ सच?

बगीचे के बाहर वाली रेलिंग के सहारे पानीपुरी से ले कर बड़ापाव तक तमाम तरह के ठेले और गाडि़यां लगी रहती थीं, जो बड़ी सड़क का एक किनारा था. यहां बेशुमार गाड़ियों का आनाजाना और लालपीले सिगनल जगमगाते रहते थे.

अपार्टमैंट के भीतर कुछ दुकानें, औफिस और रिहाइशी फ्लैट थे. वर्माजी यहां एक फ्लैट में अकेले रहते थे. वे एक बैंक में मैनेजर थे. उन के लिए संतोष की बात यह थी कि उन का बैंक भी इसी कैंपस में था, इसलिए उन्हें दूसरों की तरह लोकल ट्रेन में धक्के नहीं खाने पड़ते थे.

सालभर पहले वर्माजी की पोस्टिंग यहां हुई थी. यहां की बैंकिंग थोड़ी अलग थी. गांवकसबों में लोन मांगने वालों की पूरी वंशावली का पता आसानी से लग जाता था.

यहां हालात उलट थे. कर्जदार के बारे में पता लगाना टेढ़ी खीर थी. जाली दस्तावेज का डर अलग. नौकरी को खतरा न हो, इसलिए वर्माजी कर्ज देते वक्त जांचपड़ताल कर फूंकफूंक कर कदम रखते थे.

नौकरी और नियमों की ईमानदारी के चलते अकसर उन्हें यहांवहां की खाक छाननी पड़ती थी. हफ्तेभर की थकान के बाद रविवार को अखबार, कौफी मग, और उन की बालकनी में लटका चिडि़यों का घोंसला और सामने पड़ने वाला बगीचा उन में ताजगी भर देता था.

उसी बगीचे में चकवाचकवी का एक जोड़ा था सुजल और सुजाता का. दोनों पास ही गिरगांव चौपाटी की एक कंपनी में काम करते थे. सुजल तो अपने पूरे परिवार के साथ भीमनगर की किसी चाल में रहता था. सुजाता वापी से 7-8 साल पहले यहां पढ़ाई करने आई थी. तभी से कांदिवाली के एक फ्लैट में रहती थी.

पहली बार उन दोनों का परिचय भी इसी कंपनी में इंटरव्यू के दिन ही हुआ था. दोनों सैक्शनों में 1-1 पद था. इंटरव्यू  के बाद वेटिंग रूम में सुजल ने पूछा था, ‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं? कौन से ग्रुप में इंटरव्यू है?’

‘जी, मेरा नाम सुजाता है. मेरा बी गु्रप है.’

‘अच्छा. दोनों एक गु्रप में नहीं हैं. मैं टैक्निकल विंग में हूं.’

‘हम सहयोगी हो सकते हैं. मतलब, बातचीत कर के अपना तनाव कम कर सकते हैं.’

‘हां, एकदूसरे को पसीना पोंछने की सलाह तो दे ही सकते हैं.’

यह सुनते ही सुजाता के चेहरे पर एक मुसकराहट थिरक गई.

आखिरकार शाम 5 बजे लिस्ट लग गई. लिस्ट के मुताबिक सुजाता और सुजल को नौकरी मिल गई थी. सुजल ने हाथ आगे बढ़ाया तो सुजाता ने भी गरमजोशी से हाथ मिला कर इस खुशखबरी का इजहार किया.

पहले परिचय में पता चल गया था कि सुजाता गुजराती परिवार से थी और सुजल मराठी परिवार से.

सैक्शन भले ही अलग थे, पर रास्ते दोनों के एक ही थे. सुबह तो दोनों अलगअलग जगहों से औफिस पहुंचते, पर शाम को लौटते वक्त एकसाथ लोकल ट्रेन से आते.

धीरेधीरे दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे. हफ्तेभर की थकान दूर करने रविवार की शाम इसी बगीचे में गुजारते. फिर रात को किसी रैस्टोरैंट में साथ खाते और फिर अपनेअपने घर चले जाते.

एक दिन सुजल ने सुजाता के सामने शादी का प्रस्ताव रखा. सुजाता ने सुजल से कहा कि पहले एक फ्लैट खरीदने के बारे में सोचना चाहिए.

यह सुनते ही सुजल के मन में मरीन ड्राइव की रोशनी तैर गई. उस ने जल्दी ही हाउसिंग लोन की फाइल वर्माजी के बैंक में लगा दी.

पहली नजर में सारे कागजात सही लग रहे थे. दोनों की तनख्वाह भी अच्छी थी. अगले दिन वर्माजी उन के औफिस में जांच करने गए.

सिक्योरिटी वाले ने पूछा, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘मिस्टर ऐंड मिसेज सुजल क्या यहां नौकरी करते हैं?’’

गार्ड हंसा और बोला, ‘‘अरे साहब, अभी दोनों की शादी नहीं हुई है. शायद जल्दी ही हो जाए.’’

यह सुन कर वर्माजी उलटे पैर लौट आए. तय दिन पर दोनों ही लोन के बारे में जानने पहुंचे.

वर्माजी बोले, ‘‘आप ने इनकम जोड़ कर दिखाई है, जबकि आप तो अभी पतिपत्नी नहीं हैं.’’

‘‘सर, हमारी सगाई हो चुकी है. 2 महीने बाद शादी है, तब तक फ्लैट का काम हो जाएगा,’’ सुजल ने कहा.

यह सुन कर वर्माजी बोले, ‘‘आप के पास आज की तारीख में 2 रास्ते हैं. अभी एक छोटा फ्लैट ले लो. अगर बड़ा फ्लैट चाहिए तो शादी के बाद आओ.’’

सुजल ने उन से कहा, ‘‘हम दोनों अंतर्जातीय विवाह कर रहे हैं. परिवार वाले इस विवाह के लिए सहमत तो हो गए हैं, पर शर्त यह है कि हम पारंपरिक रूप से विवाह करें. आप चाहें तो हमारे परिवारों से मिल कर जांच लें.’’

यह सुन कर वर्माजी बोले, ‘‘मिस्टर सुजल, इस सीट पर बैठ कर हम सिर्फ कागजात देखते हैं, भावुकता में फैसला नहीं ले सकते. जिस दिन सारे कागजात पूरे हो जाएं, आप आ जाएं.’’

सुजल ने पूछा, ‘‘सर, माफ करना, पर एक सवाल है. बड़ी रकम डकार कर फरार होने वाले बड़े लोगों के क्या बैंक ने कागजात देखे?’’

‘‘यह सब मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है,’’ वर्माजी बोले.

वे दोनों चुपचाप बैंक से बाहर आ गए.

उस रात वर्माजी को नींद नहीं आई. पता नहीं, वे क्यों उन की बातों से परेशान थे. रविवार को भी वे बेचैन रहे. सोमवार को बैंक जाते ही उन्होंने सुजल से शाम को बैंक में मिलने को कहा.

सुजल और सुजाता के पहुंचते ही वर्माजी ने कहा, ‘‘इस समस्या का एक समाधान है.

कल ही तुम दोनों कोर्ट मैरिज कर परसों चैक ले जाओ. परंपरागत शादी बाद में करते रहना.

कोर्ट मैरिज का प्रमाणपत्र बैंक को दिखाना है.’’

यह सुनते ही उन दोनों ने वर्माजी को धन्यवाद दिया और चहचहाते हुए बाहर आ गए.

टूटा कप : सुनीता ने विनीता को क्यों दी टूटे कप में चाय

‘‘विनी, दिव्या का विवाह पास आ गया है, पहले सोच रही थी सब काम समय से निबट जाएंगे पर ऐसा नहीं हो पा रहा है. थोड़ा जल्दी आ सको तो अच्छा है. बहुत काम है, समझ नहीं पा रही हूं कहां से प्रारंभ करूं, कुछ शौपिंग कर ली है और कुछ बाकी है.’’

‘‘दीदी, आप चिंता न करें, मैं अवश्य पहुंच जाऊंगी. आखिर मेरी बेटी का भी तो विवाह है,’’ विनीता ने उत्तर दिया.

विनीता अपनी बड़ी बहन सुनीता की बात मान कर विवाह से लगभग 15 दिन पूर्व ही चली आई थी. उस की 7 वर्षीय बेटी पूर्वा भी उस के साथ आ गई थी. विशाल, विक्रांत की पढ़ाई के कारण बाद में आने वाले थे. विनीता को आया देख कर सुनीता ने चैन की सांस ली. चाय का प्याला उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पहले चाय पी ले, बाकी बातें बाद में करेंगे.’’

विनीता ने चाय का प्याला उठाया, टूटा हैंडिल देख कर वह आश्चर्य से भर उठी. ऐसे कप में किसी को चाय देना तो दूर वह उसे उठा कर फेंक दिया करती थी पर इतने शानोशौकत से रहने वाली दीदी के घर भला ऐसी क्या कमी है जो उन्होंने उसे ऐसे कप में चाय दी. मन किया वह चाय न पीए पर रिश्ते की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए खून का घूंट पी कर चाय सिप करने लगी पर उस की पुत्री पूर्वा से नहीं रहा गया. वह बोली, ‘‘मौसी, इस कप का हैंडिल टूटा हुआ है.’’

‘‘क्या, मैं ने ध्यान ही नहीं दिया. सारे कप गंदे पड़े हैं, मुनिया भी पता नहीं कहां चली गई. चाय की पत्ती लाने भेजा था, एक घंटे से ज्यादा हो गया, अभी तक नहीं आई. नौकरानियों से कप ही नहीं बचते. अभी कुछ दिन पहले ही तो खरीद कर लाई थी. दूसरा निकालूंगी तो उस का भी यही हाल होगा. वैसे भी विवाह से 3 दिन पहले होटल में शिफ्ट होना ही है. अभी तो हम लोग ही हैं, इन्हीं से काम चला लेते हैं,’’ सुनीता ने सफाई देते हुए कहा.

विनीता ने कुछ नहीं कहा. पूर्वा खेलने में लग गई. विनीता भी सुनीता के साथ विवाह के कार्यों की समीक्षा करने व उन्हें पूर्ण करने में जुट गई. कुछ दिन बाद नंदिता भी आ गई. उसे देखते ही सुनीता और विनीता की खुशी की सीमा न रही, दोनों एकसाथ बोल उठीं, ‘‘अरे, अचानक तुम कैसे, कोई सूचना भी नहीं दी.’’

‘‘मैं सरप्राइज देना चाहती थी, मुझे पता चला कि तुम दोनों अभी एकसाथ हो तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने सुजय से कहा कि विक्की की परीक्षा की सारी तैयारी करा दी है, आप बाद में आ जाना. मैं जा रही हूं. कम से कम हम तीनों बहनें दिव्या के विवाह के बहाने ही कुछ दिनों साथसाथ रह लेंगी.’’

‘‘बहुत अच्छा किया, हम दोनों तुम्हें ही याद कर रहे थे. मुनिया, 3 कप चाय बना देना और हां, नए कप में लाना,’’ सुनीता ने नौकरानी को आवाज लगाते हुए कहा, फिर नंदिता की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘अगर पहले सूचना दी होती तो गाड़ी भिजवा देती.’’ सुनीता दीदी की बात सुन कर विनीता के मन में कुछ दरक गया. नन्ही पूर्वा के कान भी खड़े हो गए. नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात ने उस के शांत दिल में हलचल पैदा कर दी थी. जब वह आई थी तब तो दीदी को पता था, फिर भी उन्होंने किसी को नहीं भेजा. वह स्वयं ही आटो कर के घर पहुंची थी. बात साधारण थी पर विनीता को ऐसा महसूस हो रहा था कि अनचाहे ही सुनीता दीदी ने उस की हैसियत का एहसास करा दिया है. वह पिछले 8 दिनों से उसी टूटे कप में चाय पीती रही थी पर नंदिता के आते ही दूसरे कप निकालने के आदेश के साथ गाड़ी भिजवाने की बात को वह पचा नहीं पा रही थी. मन कर रहा था वह वहां से उठ कर चली जाए पर न जाने किस मजबूरी के कारण उस के शरीर ने उस के मन की बात मानने से इनकार कर दिया. विनीता तीनों बहनों में छोटी है. सुनीता और नंदिता के विवाह संपन्न परिवारों में हुए थे पर पिताजी की मृत्यु के बाद घर की स्थिति दयनीय हो गई थी.

भाई ने अपनी हैसियत के अनुसार घरवर ढूंढ़ा और विवाह कर दिया. यद्यपि विशाल की नौकरी उस के जीजाजी की तुलना में कम थी. संपत्ति भी उन के बराबर नहीं थी पर वह अत्यंत परिश्रमी, सुलझे हुए व स्वभाव के बहुत अच्छे इंसान हैं. उन्होंने उसे कभी किसी कमी का एहसास नहीं होने दिया था और उस ने भी अपने छोटे से घर को इतने सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा रखा है कि विशाल के सहकर्मी उस से ईर्ष्या करते थे. स्वयं काम करने के कारण उस के घर में कहीं भी गंदगी का नामोनिशान नहीं रहता था और न ही टूटेफूटे बरतनों का जमावड़ा. यह बात अलग है कि ऐसे ही पारिवारिक आयोजन उसे चाहेअनचाहे उस की हैसियत का एहसास करा जाते हैं पर अपनी सगी बहन को अपने साथ ऐसा व्यवहार करते देख कर वह स्तब्ध रह गई. क्या अब नया सैट खराब नहीं होगा? हमेशा की तरह इस बार भी सुनीता व नंदिता गप मारने लग जातीं और विनीता काम में लगी रहती थी. अगर वह समय निकाल कर उन के पास बैठती तो थोड़ी ही देर बाद कोई काम आने पर उसे ही उठना पड़ता था. पहले वह इन सब बातों पर इतना ध्यान नहीं दिया करती थी पर इस बार उसे काम में लगा देख कर एक दिन उस की पुत्री पूर्वा ने कहा, ‘‘ममा, दोनों मौसियां बातें करती रहती हैं और आप काम में लगी रहती हो, मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘बेटा, वे दोनों बड़ी हैं, मुझे उन का काम करने में खुशी मिलती है,’’ पूर्वा की बात सुन कर वह चौंकी पर संतुलित उत्तर दिया.

उस ने उत्तर तो दे दिया पर पूर्वा की बातें चाहेअनचाहे उस के दिमाग में गूंजने लगीं. पहले भी इस तरह की बातें उस के मन में उठा करती थीं पर यह सोच कर अपनी आवाज दबा दिया करती थी कि आखिर वे उस की बड़ी बहनें हैं, अगर वे उस से कोई काम करने के लिए कहती हैं तो इस में बुराई क्या है. पर इस बार बात कुछ और ही थी जो उसे बारबार चुभ रही थी. न चाहते हुए भी दीदी का नंदिता के आते ही नए कप में चाय लाने व गाड़ी भेजने का आग्रह उस के दिल और दिमाग में हथौड़े मारने लगता.

जबजब ऐसा होता वह यह सोच कर मन को समझाने का प्रयत्न करती कि हो सकता है वह सब दीदी से अनजाने में हुआ हो, उन का वह मंतव्य न हो जो वह सोच रही है. आखिर वह उन की छोटी बहन है, वे उस के साथ भेदभाव क्यों करेंगी. सच तो यह है कि दीदी का उस पर अत्यंत ही विश्वास है तभी तो अपनी सहायता के लिए दीदी ने उसे ही बुलाया. उन का उस के बिना कोई काम नहीं हो पाता है. चाहे वह दुलहन की ड्रैस की पैकिंग हो या बक्से को अरेंज करना हो, चाहे मिठाई के डब्बे रखने की व्यवस्था करनी हो. और तो और, विवाह के समय काम आने वाली सारी सामग्री की जिम्मेदारी भी उसी पर थी.

दिव्या भी अकसर उस से ही आ कर सलाह लेते हुए पूछती,

‘‘मौसी, इस ड्रैस के साथ कौन सी ज्वैलरी पहनूंगी या ये चूडि़यां, पर्स और सैंडिल मैच कर रही हैं या नहीं?’’

विवाह की लगभग आधी से अधिक शौपिंग तो दिव्या ने उस के साथ ही जा कर की थी. वह कहती, ‘मौसी, आप का ड्रैस सैंस बहुत अच्छा है वरना ममा और नंदिता मौसी को तो भारीभरकम कपड़े या हैवी ज्वैलरी ही पसंद आती हैं. अब भला मैं उन को पहन कर औफिस तो जा नहीं सकती, फिर लेने से क्या फायदा?’ कहते हैं मन अच्छा न हो तो छोटी से छोटी बात भी बुरी लगने लग जाती है. शायद यही कारण था कि आजकल वह हर बात का अलग ही अर्थ निकाल रही थी. यह सच है कि दिव्या का निश्छल व्यवहार उस के दिल पर लगे घावों पर मरहम का काम कर रहा था पर दीदी की टोकाटाकी असहनीय होती जा रही थी. उसे लग रहा था कि काम निकालना भी एक कला है. बस, थोड़ी सी प्रशंसा कर दो, और उस के जैसे बेवकूफ बेदाम के गुलाम बन जाते हैं. मन कह रहा था व्यर्थ ही जल्दी आ गई. काम तो सारे होते ही, कम से कम यह मानसिक यंत्रणा तो न झेलनी पड़ती.

‘‘विनीता, जरा इधर आना,’’ सुनीता ने आवाज लगाई.

‘‘देख, यह सैट, नंदिता लाई है दिव्या को देने के लिए,’’ विनीता के आते ही सुनीता ने नंदिता का लाया सैट उसे दिखाते हुए कहा.

‘‘बहुत खूबसूरत है,’’ विनीता ने उसे हाथ में ले कर देखते हुए निश्छल मन से कहा.

‘‘पूरे ढाई लाख रुपए का है,’’ नंदिता ने दर्प से सब को दिखाते हुए कहा.

‘‘मौसी, आप मेरे लिए क्या लाई हो?’’ वहीं खड़ी दिव्या ने विनीता की तरफ देख कर बच्चों सी मनुहार की.

नंदिता का यह वाक्य सुन कर विनीता का मन बुझ गया. अपना लाया गिफ्ट उस बहुमूल्य सैट की तुलना में नगण्य लगने लगा पर दिव्या के आग्रह को वह कैसे ठुकराती, उस ने सकुचाते हुए सूटकेस से अपना लाया उपहार निकाल कर दिखाया. उस का उपहार देख कर दिव्या खुशी से बोली, ‘‘वाउ, मौसी, आप का जवाब नहीं, यह पैंडेंट बहुत ही खूबसूरत है, साथ ही व्हाइट गोल्ड की चेन. ऐसा ही कुछ तो मैं चाहती थी. इसे तो मैं हमेशा पहन सकती हूं.’’ दिव्या की बात सुन कर विनीता के चेहरे पर रौनक लौट आई. लाखों के उस डायमंड सैट की जगह हजारों का उपहार दिव्या को पसंद आया. यही उस के लिए बहुत था.

विवाह खुशीखुशी संपन्न हो गया और सभी अपनेअपने घर चले गए, विनीता भी धीरेधीरे सब भूलने लगी. समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है, वैसे भी दिव्या के विवाह के बाद मिलना भी नहीं हो पाया. न ही दीदी आईं और न ही उस ने प्रयत्न किया, बस फोन पर ही बातें हो जाया करती थीं. समय के साथ विक्की को आईआईटी कानपुर में दाखिला मिल गया और पूर्वा प्लस टू में आ गई, इस के साथ ही वह मैडिकल की तैयारी कर रही थी. समय के साथ विशाल के प्रमोशन होते गए और अब वे मैनेजर बन गए थे. एक दिन सुनीता दीदी का फोन आया कि तुम्हारे जीजाजी को वहां किसी प्रोजैक्ट के सिलसिले में आना है. मैं भी आ रही हूं, बहुत दिन हो गए तुम सब से मिले हुए.

दीदी पहली बार उस के घर आ रही हैं, सो पिछली सारी बातें भूल कर उत्सुकता से विनीता उन के आने का इंतजार करने के साथ तैयारियां भी करने लगी. सोने के कमरे को उन के अनुसार सैट कर लिया और दीदी की पसंद की खस्ता कचौड़ी बना लीं व रसगुल्ले मंगा लिए. खाने में जीजाजी की पसंद का मलाई कोफ्ता व पनीर भुर्जी भी बना ली थी. उस ने दीदी, जीजाजी की खातिरदारी का पूरा इंतजाम कर रखा था. पर न जाने क्यों पूर्वा को उस का इतना उत्साह पसंद नहीं आ रहा था. जीजाजी दीदी को ड्रौप कर यह कहते हुए चले गए, ‘‘मुझे देर हो रही है, विनीता, मैं निकलता हूं, आतेआते शाम हो जाएगी, तब तक तुम अपनी बहन से खूब बात कर लो. बहुत तरस रही थीं ये तुम से मिलने के लिए. शाम को आ कर तुम सब से मिलता हूं.’’

दीदी ने उस का घर देख कर कहा, ‘‘छोटे घर को भी तू ने बहुत ही करीने से सजा रखा है,’’ विशेषतया उन्हें पूर्वा का कमरा बहुत पसंद आया.

तब तक पूर्वा ने नाश्ता लगा दिया. नाश्ते के बाद पूर्वा चाय ले आई. चाय का कप मौसी को पकड़ाया. सुनीता उस कप को देख कर चौंकी, विनीता कुछ कहने के लिए मुंह खोलती उस से पहले ही पूर्वा ने कहा, ‘‘मौसी, इस कप को देख कर आप को आश्चर्य हो रहा होगा. पर दिव्या दीदी के विवाह में आप ने ममा को ऐसे ही कप में चाय दी थी. हफ्तेभर तक वे ऐसे ही कपों में चाय पीती रहीं जबकि नंदिता मौसी के आते ही आप ने नया टी सैट निकलवा दिया था.

‘‘तब से मेरे मन में यह बात रहरह कर टीस देती रहती थी. वैसे तो टूटे कप हम फेंक दिया करते हैं पर यह कप मैं ने बहुत सहेज कर रखा था, उस याद को जीवित रखने के लिए कि कैसे कुछ अमीर लोग अपनी करनी से लोगों को उन की हैसियत बता देते हैं, चाहे वे उन के अपने ही क्यों न हों और आज उस अपमान के साथ अपनी बात कहने का अवसर भी मिल गया.’’

सुनीता चुप रह गई. बाद में वह पूर्वा के कमरे में गई और बोली, ‘‘सौरी बेटा, आज तू ने मुझे आईना ही नहीं दिखाया, सबक भी सिखा दिया है. शायद मैं नासमझ थी, मैं यह सोच ही नहीं पाई थी कि हमारे हर क्रियाकलाप को बच्चे बहुत ध्यान से देखते हैं और हमारी हर छोटीबड़ी बात का वे अपनी बुद्धि के अनुसार अर्थ भी निकालते हैं. मुझे इस बात का एहसास ही नहीं था कि व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा, सब में आत्मसम्मान होता है. बड़े एक बार आत्मसम्मान पर लगी चोट को रिश्तों की परवा करते हुए भूलने का प्रयत्न कर भी लेते हैं किंतु बच्चे अपने या अपने घर वालों के प्रति होते अन्याय को सहन नहीं कर पाते और  अपना आक्रोश किसी न किसी रूप में निकालने की कोशिश करते हैं.

‘‘पूर्वा, तुम ने अपने मन की व्यथा को इतने दिनों तक स्वयं तक ही सीमित रखा और आज इतने वर्षों बाद अवसर मिलते ही प्रकट भी कर दिया. मुझे खुशी तो इस बात की है कि तुम ने अपनी बात इतने सहज और सरल ढंग से कह दी. आज तुम ने मुझे एहसास करा दिया बेटे कि उस समय मैं ने जो किया, गलत था. एक बार फिर से सौरी बेटा,’’ यह कह कर उन्होंने पूर्वा को गले से लगा लिया.

जहां सुनीता अपने पिछले व्यवहार पर शर्मिंदा थी वहीं विनीता पूर्वा के कटु वचनों को सुन कर उसे डांटना चाह कर भी नहीं डांट पा रही थी. संतोष था तो सिर्फ इतना कि दीदी ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए अपनी गलती मान ली थी.

सच तो यह था कि आज उस के दिल से भी वर्षों पुराना बोझ उतर गया था, आखिर आत्मसम्मान तो हर एक में होता है. उस पर लगी चोट व्यक्ति के दिन का चैन और रात की नींद चुरा लेती है. शायद उस की पुत्री के साथ भी ऐसा ही हुआ था. आज उसे यह भी एहसास हो गया कि आज की पीढ़ी अन्याय का उत्तर देना जानती है, साथ ही बड़ों का सम्मान करना भी. अगर ऐसा न होता तो पूर्वा ‘सौरी मौसी’ कह कर उन के कदमों में न झुकती.

बोझ : अपनो का बोझ भी क्या बोझ होता है

मां ने फुसफुसाते हुए मेरे कान में कहा, ‘‘साफसाफ कह दो, मैं कोई बांदी नहीं हूं. या तो मैं रहूंगी या वे लोग. यह भी कोई जिंदगी है?’’

इस तरह की उलटीसीधी बातें मां 2 दिनों से लगतार मुझे समझा रही थी. मैं चुपचाप उस का मुख देखने लगी. मेरी दृष्टि में पता नहीं क्या था कि मां चिढ़ कर बोली, ‘‘तू मूर्ख ही रही. आजकल अपने परिवार का तो कोई करता नहीं, और तू है कि बेगानों…’’

मां का उपदेश अधूरा ही रह गया, क्योंकि अनु ने आ कर कहा, ‘‘नानीअम्मा, रिकशा आ गया.’’ अनु को देख कर मां का चेहरा कैसा रुक्ष हो गया, यह अनु से भी छिपा नहीं रहा.

मां ने क्रोध से उस पर दृष्टि डाली. उस का वश चलता तो वह अपनी दृष्टि से ही अनु, विनू और विजू को जला डालती. फिर कुछ रुक कर तनिक कठोर स्वर में बोली, ‘‘सामान रख दिया क्या?’’

‘‘हां, नानीअम्मा.’’

अनु के स्वर की मिठास मां को रिझा नहीं पाई. मां चली गई किंतु जातेजाते दृष्टि से ही मुझे जताती गई कि मैं बेवकूफ हूं.

मां विवाह में गई थी. लौटते हुए 2 दिन के लिए मेरे यहां आ गई. मां पहली बार मेरे घर आई थी. मेरी गृहस्थी देख कर वह क्षुब्ध हो गई. मां के मन में इंजीनियर की कल्पना एक धन्नासेठ के रूप में थी. मां के हिसाब से घर में दौलत का पहाड़ होना चाहिए था. हर भौतिक सुख, वैभव के साथसाथ सरकारी नौकरों की एक पूरी फौज होनी चाहिए थी. इन्हीं कल्पनाओं के कारण मां ने मेरे लिए इंजीनियर पति चुना था.

मां की इन कल्पनाओं के लिए मैं कभी मां को दोषी नहीं मानती. हमारे नानाजी साधारण क्लर्क थे, लेकिन वे तनमन दोनों से पूर्ण क्लर्क थे. वेतन से दसगुनी उन की ऊपर की आमदनी थी. पद उन का जरूर छोटा था किंतु वैभव की कोई कमी नहीं थी. हर सुविधा में पल कर बड़ी हुई मां ने उस वैभव को कभी नाजायज नहीं समझा. यही कारण था कि मेरे नितांत ईमानदार मास्टर पिता से मां का कभी तालमेल नहीं बैठा.

मुझे अब भी याद है कि मैं जब भी मायके जाती, मां खोदखोद कर इन की कमाई का हिसाब पूछती. घुमाफिरा कर नानाजी के सुखवैभव की कथा सुना कर उसी पथ पर चलने का आग्रह करती, किंतु हम सभी भाईबहनों की नसनस में पिता की शिक्षादीक्षा रचबस गई थी. विवाह भी हुआ तो पति पिता के मनोनुकूल थे.

मां के इन 2 दिनों के वास ने मेरी खुशहाल गृहस्थी में एक बड़ा कांटा चुभो दिया. आज जब सभी अपने काम पर चले गए तो रह गई हैं रचना और मां की बातों का जाल.

रचना को दूध पिला कर सुला देने के बाद मैं घर में बाकी काम निबटाने लगी. ज्यादातर काम तो अनु ही निबटा जाती है, फिर भी गृहस्थी के तो कई अनदेखे काम हैं. सब कामों से निबट कर जब मैं अकेली बैठी तो मां की बातें मुझे बींधने लगीं. ‘क्या हम ने गलत किया है? क्या मैं रचना और आशीष का हक छीन रही हूं? क्या उन की इच्छाओं को मैं पूर्ण कर पा रही हूं? मुझे अपने पति पर क्रोध आने लगा. सचमुच मैं मूढ़ हूं. कितनी लच्छेदार बातें बना कर मुझ से इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठवा दी. मुझे अपनी स्थिति अत्यंत दयनीय नहीं, असह्य लगने लगी. मां के आने से पूर्व भी तो परिस्थितियां यही थीं. सब बच्चे अनु, विनू और विजू साथ रहे किंतु आज उन का रहना असह्य क्यों लग रहा है?’

मन बारबार अतीत में भटकने लगा है. 3 साल पहले की घटना मेरे मनमस्तिष्क पर भी स्पष्ट रूप से अंकित थी. रचना तब होने वाली थी. होली की छुट्टियां हो चुकी थीं. उसी दिन हमें अपनी बड़ी ननद  के यहां जाना था. किंतु वह जाना सुखद नहीं हुआ. उस दिन बिजली का धक्का लगने से उन्हें बचाते हुए जीजी और भाईसाहब दोनों मृत्यु के ग्रास बन गए. रह गए बिलखते, विलाप करते उन के बच्चे अनु, विनू और विजू, सबकुछ समाप्त हो गया. आज के युग में हर व्यक्ति अपने ही में इतना लिप्त है कि दूसरे की जिम्मेदारी का करुणक्रंदन मन को विचलित किए दे रहा था.

रात्रि के सूनेपन में मेरे पति ने मुझ से लगभग रोते हुए कहा, ‘आभा, क्या तुम इन बच्चों को संभाल सकोगी?’

मैं पलभर के लिए जड़ हो गई. कितनी जोड़तोड़ से तो अपनी गृहस्थी चला रही हूं और उस पर 3 बच्चों का बोझ.

मैं कुछ उत्तर नहीं दे पाई. अपना स्वार्थ बारबार मन पर हावी हो जाता. वे अतीत की गाथाएं गागा कर मेरे हृदय में सहानुभूति जगाना चाह रहे थे. अंत में उन्होंने कहा, ‘अपने लिए तो सभी जीते हैं, किंतु सार्थक जीवन उसी का है जो दूसरों के लिए जिए.’

अंततोगत्वा बच्चे हमारे साथ आ गए. घरबाहर सभी हमारी प्रशंसा करते. किंतु मेरा मन अपने स्वार्थ के लिए रहरह कर विचलित हो जाता. फिर धीरेधीरे सब कुछ सहज हो गया. इस में सर्वाधिक हाथ 17 वर्षीय अनु का था.

उन लोगों के आने के बाद हम पारिवारिक बजट बना रहे थे, तभी ‘मामी आ जाऊं?’ कहती हुई अनु आ गई थी. उस समय उस का आना अच्छा नहीं लगा था, किंतु कुछ कह नहीं पाई. ‘मामी,’ मेरी ओर देख कर उस ने कहा था, ‘आप को बजट बनाते देख कर चली आई हूं. अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही हूं, बुरा नहीं मानिएगा.’

‘नहींनहीं बेटी, कहो, क्या कहना चाहती हो?’

‘आप रामलाल की छुट्टी कर दें. एक आदमी के खाने में कम से कम 2,000 रुपए तो खर्च हो ही जाते हैं.’

मेरे प्रतिरोध के बाद भी वह नहीं मानी और रामलाल की छुट्टी कर दी गई. अनु ने न केवल रामलाल का बल्कि मेरा भी कुछ काम संभाल लिया था.

उस के बाद रचना का जन्म हुआ. रचना के जन्म पर अनु ने मेरी जो सेवा की उस की क्या मैं कभी कीमत चुका पाऊंगी?

रचना के आने से खर्च का बोझ बढ़ गया. उसी दिन शाम को अनु ने आ कर कहा, ‘‘मम्मा, मेरी एक टीचर ने बच्चों के लिए एक कोचिंग सैंटर खोला है. प्रति घंटा 300 रुपए के हिसाब से वे अभी पढ़ाने के लिए देंगी. बहुत सी लड़कियां वहां जा रही हैं. मैं भी कल से जाऊंगी.’’

हम लोगों ने कितना समझाया पर वह नहीं मानी. अपनी बीए की पढ़ाई, घर का काम, ऊपर से यह मेहनत, किंतु वह दृढ़ रही. इन के हृदय में अनु के इस कार्य के लिए जो भाव रहा हो, पर मेरे हृदय में समाज का भय ही ज्यादा था. दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े यत्न से अच्छाई का जो मुखौटा मैं ने ओढ़ रखा है, वह क्या लोगों की आलोचना सह सकेगा?

पर वह प्रतिमाह अपनी सारी कमाई मेरे हाथ पर रख देती. कितना कहने पर भी एक पैसा तक न लेती. यह देख कर मैं लज्जित हो उठती.

विनू भी पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम ट्यूशन करता. इन्होंने बहुत मना किया, पर बच्चों का एक ही नारा था-  ‘मेहनत करते हैं, चोरी तो नहीं.’

3 साल देखतेदेखते बीत गए. आशीष और रचना दोनों की जिम्मेदारियों से मैं मुक्त थी. वह अपने अग्रजों के पदचिह्नों पर चल रहा था. कक्षा में वह कभी पीछे नहीं रहा. मेरी आंखों के सामने बारीबारी से अनु, विनू और विजू का चेहरा घूम जाता. उस के साथसाथ आशीष का भी. क्या इन बच्चों को घर से निकाल दूं?

मेरा बाह्य मन हां कहता. 3 का खर्च तो कम होगा. किंतु अंतर्मन मुझे धिक्कारता. कल अगर हम दोनों नहीं रहे तो आशीष और रचना भी इसी तरह फालतू हो जाएंगे. मैं फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘क्या बात है, मामी, रो क्यों रही हैं?’’ अनु के कोमल स्वर से मेरी तंद्रा भंग हो गई. शाम हो चुकी थी.

मां ने कितना अत्याचार किया मात्र 2 दिनों में. आशीष और रचना को छिपा कर हर चीज खिलाना चाहती थी. बारबार बच्चों को उलटीसीधी बातें सिखाती.

मैं अनु की ओर देखने लगी. मुझे लगा अनु नहीं, मेरी रचना बड़ी हो गई है और हम दोनों के अभाव में मां की दी हुई मानसिक यातनाएं भोग रही है.

मैं ने अनु को हृदय से लगा लिया. ‘‘नहींनहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी.’’

‘‘मुझे आप से अलग कौन कर रहा है?’’ अनु ने हंस कर कहा.

‘‘किंतु इसे जाना तो होगा ही,’’ यह करुण स्वर मेरे पति का था. पता नहीं कब वे आ गए थे.

‘‘क्या?’’ मैं ने अपराधी भाव से पूछा.

‘‘अनु का विवाह पक्का हो गया है. मेरे अधीक्षक ने अपने पुत्र के लिए स्वयं आज इस का हाथ मांगा है. दहेज में कुछ नहीं देना पड़ेगा.’’

अनु सिर झुका कर रोने लगी. मेरे हृदय पर से एक बोझ हट गया. उसे हृदय से लगा कर मैं भी खुशी में रो पड़ी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें