Family Story In Hindi: शी ऐंड ही – शिल्पा के तलाक के पीछे क्या थी असलियत

Family Story In Hindi: पहले ‘शी’ और ‘ही’ से आप का परिचय करा दूं. ‘शी’ उर्फ शिल्पा- तीखे नैननक्श वाली भद्र महिला हैं. वे सक्सैसफुल होममेकर एवं फैशन डिजाइनर हैं. काफी बिजी रहती हैं. उन का अपने होम से और प्रोफैशन से पूरा जुड़ाव और समर्पण है. उन की अपनी दिनचर्या है. हर वक्त के लिए उन के पास काम है और हर काम के लिए वक्त. उन की अपनी ही दुनिया है.

‘ही’ उर्फ हिमांशु एमएनसी में ऊंचे ओहदे पर हैं. मुंबई कोलकाता फ्लाइट लेने से पहले एअरपोर्ट पर शिल्पा हिमांशु की मुलाकात हुई. हिमांशु को स्मार्ट शिल्पा अच्छी लगी. शिल्पा ने भी इस लंबे छरहरे युवक को पसंद किया. लंबी डेटिंग के बाद परिवार वालों की अनुमति ले कर दोनों जीवनसाथी बन गए.

कोलकाता के एक बड़े रैजिडैंशियल कौंप्लैक्स में इन की मजे की गृहस्थी चल रही है. उम्र ने हिमांशु को कुछ ज्यादा ही प्रभावित किया. वजन पर कंट्रोल नहीं रख पाए, हेयर लौस नहीं रोक पाए. कुछ आनुवंशिक प्रभाव भी रहा.

‘‘शीलू हिमांशु के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है…’’ मोना ने दिव्या को ब्रेकिंग न्यूज दी.

मोना को फिल्मी सितारों की पर्सनल लाइफ में काफी दिलचस्पी थी. सैलिब्रिटीज  और सिनेस्टार कपल्स के आपसी रिश्तों की खटास की पूरी जानकारी थी. ताकझांक मोना का पसंदीदा शौक था.

‘‘कैसे पता चला? पक्की न्यूज है?’’ दिव्या ने पूरी जानकारी चाही.

‘‘मेरी मेड गौरी ने बताया. शिल्पा की मेड अपने गांव गई है. गौरी आजकल वहां भी काम कर रही है. बता रही थी कि मियांबीवी अलगअलग सोते हैं… उस ने इंगलिश में डिवोर्स की चर्चा भी सुनी है,’’ मोना ने बताया.

‘‘मैडम फैशन सैलिब्रिटी बन गई हैं… बेचारा हिमांशु… शिल्पा की उस ने कितनी सपोर्ट की थी,’’ दिव्या ने हिमांशु का पक्ष लिया.

‘‘शिल्पा ने खुद को काफी मैंटेन किया है… टिपटौप रहती है… अब जोड़ी जमती

भी नहीं है,’’ मोना ने शिल्पा की फिगर की तारीफ की.

‘‘हसबैंड का स्टेटस और पैकेज तो अच्छा है?’’ दिव्या ने तर्क दिया.

‘‘कोई और भा गया होगा… फैशन की दुनिया ही निराली है… तिकोने दिल पर किस का जोर चलता है… ‘चरणदास को पीने की आदत न होती तो आज मियां अंदर बीवी बाहर न सोती…’ मोना पुराना फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए मुसकराई.

मोना, दिव्या, मंजरी, शालिनी, रागिनी, अल्पना, नेहा और प्रतिभा किट्टी से जुड़ी थीं. शिल्पा भी कभी उन के साथ थी. मगर व्यस्तता के कारण उस ने किनारा कर लिया था. लेकिन मोना ऐंड कंपनी की शिल्पा में रुचि यथावत बनी रही.

देर रात अल्पना के रैजिडैंस पर पार्टी थी. अल्पना के हसबैंड दौरे पर थे. बच्चे छोटे थे.

वे सो चुके थे. ताश के पत्ते और पनीर पकौड़ों के साथ ठहाकों का दौर चल रहा था. शिल्पाहिमांशु के बे्रकअप की हौट न्यूज पर चर्चा चल रही थी.

‘‘गौरी ने और क्या न्यूज दी?’’ मंजरी की कुछ और जानने की जिज्ञासा हुई.

‘‘डिवोर्स इतना आसान नहीं होता… बिटिया राजस्थान के नामी स्कूल में पढ़ रही है,’’ मोना के पास कोई खास अपडेट नहीं था.

‘‘पेरैंट्स में तनाव होता है… फैमिली बिखर जाती है. बच्चों पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है?’’ शालिनी ने चिंता जताई.

‘‘हसबैंड वाइफ की तरक्की पचा नहीं पाते,’’ प्रतिभा ने पत्ते बांटते हुए अपना मंतव्य दिया.

‘‘शिल्पा ने सोचसमझ कर ही स्टैप लिया होगा,’’ नेहा ने अपना विचार व्यक्त किया.

‘‘शिल्पा से मिलूंगी… हमारी दोस्त रही है… मौरल सपोर्ट जिम्मेदारी बनती है,’’ रागिनी ने अपना निश्चय बताया.

‘‘मैं भी साथ चलूंगी,’’ मोना को भी अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ.

संडे को शिल्पा घर पर ही थी. हिमांशु जयपुर निकल चुके थे. बिटिया को अगली क्लास में दाखिला दिलाना था. शिल्पा को भी हिमांशु के साथ जाना था. लेकिन हिमांशु को जयपुर से मुंबई निकलना था. शिल्पा ने बिटिया को हिमांशु के प्रोग्राम की जानकारी दी और उस के बर्थडे पर पापा के साथ आने की बात कही.

शिल्पा की रागिनी और मोना से लंबे अंतराल पर मुलाकात हुई थी. शिल्पा को अच्छा लगा. एक सुखद एहसास हुआ.

‘‘मेरी व्यस्तता काफी बढ़ गई है… मिलने की इच्छा तो होती है पर संभव नहीं हो पाता,’’ शिल्पा ने अपनी मजबूरी बताई.

‘‘गौरी का काम पसंद आया,’’ मोना ने पूछा.

‘‘ठीकठाक है… वैसे मीरा संभवतया अगले हफ्ते लौट आएगी,’’ शिल्पा को गौरी के काम से कोई शिकायत नहीं थी. मीरा शिल्पा की मेड थी.

‘‘और बताओ, गृहस्थी की गाड़ी कैसी चल रही है? बिटिया को कच्ची उम्र में इतनी दूर भेज दिया?’’ रागिनी को शिल्पा से सब कुछ उगलवाने की जल्दी थी.

‘‘हमें भी संस्कृति को होस्टल भेज कर अच्छा नहीं लगा. याद आती है तो हम दोनों साझा रो लेते हैं. यहां प्रोग्रैस कुछ ठीक नहीं थी. उस के भविष्य के लिए यही सही था. हम ने सोचसमझ कर बिटिया को दूर भेजने का फैसला किया,’’ शिल्पा की आंखें भर आईं.

‘‘बिटिया पर ही फुलस्टौप करना है? संस्कृति राखी किस की कलाई पर बांधेगी?’’ रागिनी ने सीधा सवाल किया.

‘‘पहले मिठाई, नमकीन और कौफी हो जाए, फिर तुम्हारे सवाल पर आऊंगी,’’ शिल्पा ने इजाजत ली और नाश्ते की तैयारी के लिए किचन का रुख किया.

नाश्ते के बाद शिल्पा ने रागिनी के सवाल का जवाब दिया, ‘‘हम दोनों अपना पूरा प्यार संस्कृति पर लुटाना चाहते हैं. उस की अच्छी शिक्षा, सुयोग्य वर ही हमारा लक्ष्य है. दूसरी संतान के लिए काफी देर हो चुकी है. हम ने दूसरी संतान के बजाय अपने कैरियर को प्राथमिकता दी और अब तो हम ने स्लीप डिवोर्स ले रखा है,’’ शिल्पा ने बताया.

‘‘डिवोर्स ले रखा है? क्या हिमांशु से नहीं बनती? शारीरिक मानसिक यंत्रणा देते हैं? तुम ने कभी बताया नहीं,’’ रागिनी ने एकसाथ कई प्रश्न कर डाले.

‘‘हमारे आपसी संबंध काफी अच्छे हैं. हिमांशु मेरी केयर करते हैं, मुझे प्यार करते हैं, मेरी जरूरतों को पूरा करते हैं, सपोर्ट करते हैं. कभी शिकायत का मौका नहीं देते,’’ शिल्पा ने हिमांशु की तारीफ की.

‘‘आप दोनों साथसाथ रहते हैं… यह कैसा आधाअधूरा डिवोर्स है?’’ शिल्पा का किस्सा मोना के पल्ले नहीं पड़ा.

‘‘हमारा केवल स्लीप डिवोर्स है… हम एक ही बैड शेयर नहीं करते. यह मात्र नाइट डिवोर्स है… हम दोनों काफी व्यस्त रहते हैं. हिमांशु को देर रात तक लैपटौप पर काम करना पड़ता है. मैं थक कर लौटती हूं. अच्छी नींद स्वस्थ एवं फिट रहने के लिए बेहद जरूरी है. हिमांशु गहरी नींद में खर्राटे भी लेते हैं. कभी मुझे सुबह देर तक सोने की इच्छा होती है. हिमांशु को मेरी फिक्र रहती है. स्लीप डिवोर्स हिमांशु ने प्रपोज किया और इस के लिए मुझे तैयार किया,’’ शिल्पा ने मोना और रागिनी को पूरी बात बताई.

‘‘तुम्हारे बीच कोई इशू नहीं है?’’ मोना अचंभे में थी.

‘‘बिलकुल नहीं. आपसी सहमति से दंपती के अलग कमरे में सोने में, स्लीप डिवोर्स में कोई बुराई नहीं है. दंपती का एक ही बैड शेयर करना पुराना विचार, पुरानी परंपरा है. स्लीप डिवोर्स से आपसी संबंध में मजबूती आती है. कार्यरत और बिजी दंपतियों को विशेषरूप से इस की जरूरत महसूस होती है. मनोचिकित्सक इस की सलाह देते हैं. हम ने भी इस की जरूरत समझी और अपनाया. इस में कोर्ट और वकील की कोई जरूरत नहीं पड़ती,’’ शिल्पा ने पूरी जानकारी दी.

रागिनी और मोना निराश हो कर लौट गईं. उन्हें फ्लैश करने के लिए कोई ब्रेकिंग न्यूज जो नहीं मिली थी. Family Story In Hindi

Story In Hindi: बाढ़ – क्या मीरा और रघु के संबंध लगे सुधरने

Story In Hindi: बौस ने जरूरी काम बता कर मीरा को दफ्तर में ही रोक लिया और खुद चले गए.

मीरा को घर लौटने की जल्दी थी. उसे शानू की चिंता सता रही थी. ट्यूशन पढ़ कर लौट आया होगा, खुद ब्रेड सेंक कर भी नहीं खा सकता, उस के इंतजार में बैठा होगा.

बाहर तेज बारिश हो रही थी…अचानक बिजली चली गई तो मीरा इनवर्टर की रोशनी में काम पूरा करने लगी. तभी फोन की घंटी बज उठी.

‘‘मां, तुम कितनी देर में आओगी?’’ फोन कर शानू ने जानना चाहा, ‘‘घर में कुछ खाने को नहीं है.’’

‘‘पड़ोस की निर्मला आंटी से ब्रेड ले लेना,’’ मीना ने बेटे को समझाया.

‘‘बिजली के बगैर घर में कितना अंधेरा हो गया है, मां. डर लग रहा है.’’

‘‘निर्मला आंटी के घर बैठे रहना.’’

‘‘कितनी देर में आओगी?’’

‘‘बस, आधा घंटा और लगेगा. देखो, मैं लौटते वक्त तुम्हारे लिए बर्गर, केले व आम ले कर आऊंगी, होटल से पनीर की सब्जी भी लेती आऊंगी.’’

बेटे को सांत्वना दे कर मीरा तेजी से काम पूरा करने लगी. वह सोच रही थी कि महानगर में इतनी देर तक बिजली नहीं जाती, शायद बरसात की वजह से खराबी हुई होगी.

काम पूरा कर के मीरा ने सिर उठाया तो 9 बज चुके थे. चौकीदार बैंच पर बैठा ऊंघ रहा था.

मीरा को इस वक्त एक प्याला चाय पीने की इच्छा हो रही थी, पर घर भी लौटने की जल्दी थी. चौकीदार से ताला बंद करने को कह कर मीरा ने पर्स उठाया और जीना उतरने लगी.

चारों तरफ घुप अंधेरा फैला हुआ था. क्या हुआ बिजली को, सोचती हुई मीरा अंदाज से टटोल कर सीढि़यां उतरने लगी. घोर अंधेरे में तीसरे माले से उतरना आसान नहीं होता.

सड़क पर खड़े हो कर उस ने रिकशा तलाश किया, जब नहीं मिला तो वह छाता लगा कर पैदल ही आगे बढ़ने लगी.

अब न तो कहीं रुक कर चाय पीने का समय रह गया था न कुछ खरीदारी करने का.

थोड़ा रुक कर मीरा ने बेटे को मोबाइल से फोन मिलाया तो टींटीं हो कर रह गई.

अंधेरे में अचानक मीरा को ऐसा लगा जैसे वह नदी में चली आई हो. सड़क पर इतना पानी कहां से आ गया…सुबह निकली थी तब तो थोड़ा सा ही पानी भरा हुआ था, फिर अचानक यह सब…

अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि पानी गले तक पहुंचने लगा. वह घबरा कर कोई आश्रय स्थल खोजने लगी.

घने अंधेरे में उसे दूर कुछ बहुमंजिली इमारतें दिखाई पड़ीं. मीरा उसी तरफ बढ़ने लगी पर वहां पहुंचना उस के लिए आसान नहीं था.

जैसेतैसे मीरा एक बिल्ंिडग के नीचे बनी पार्किंग तक पहुंच पाई. पर उस वक्त वह थकान की अधिकता व भीगने की वजह से अपनेआप को कमजोर महसूस कर रही थी.

मीरा को यह स्थान कुछ जानापहचाना सा लगा. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, इसी इमारत की दूसरी मंजिल पर वह रघु के साथ रहती थी.

फिर रघु के गैरजिम्मेदाराना रवैये से परेशान हो कर उस ने उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया था. उस वक्त शानू सिर्फ ढाई वर्ष का था. अब तो कई वर्ष गुजर चुके हैं…शानू 10 वर्ष का हो चुका है.

क्या पता रघु अब भी यहां रहता है या चला गया, हो सकता है उस ने दूसरा विवाह कर लिया हो.

मीरा को लग रहा था कि वह अभी गिर पडे़गी. ठंड लगने से कंपकंपी शुरू हो गई थी.

एक बार ऊपर जाने में हर्ज ही क्या है. रघु न सही कोई दूसरा सही, उसे किसी का सहारा तो मिल ही जाएगा. उस ने सोचा और जीने की सीढि़यां चढ़ने लगी…फिर उस ने फ्लैट का दरवाजा जोर से खटखटा दिया.

किसी ने दरवाजा खोला और मोमबत्ती की रोशनी में उसे देखा, बोला, ‘‘मीरा, तुम?’’

रघु की आवाज पहचान कर मीरा को भारी राहत मिली…फिर वह रघु की बांहों में गिर कर बेसुध होती चली गई.

कंपकपाते हुए मीरा ने भीगे कपडे़ बदल कर, रघु के दिए कपडे़ पहने फिर चादर ओढ़ कर बिस्तर पर लेट गई.

कानूनी संबंध विच्छेद के वर्षों बाद फिर से उस घर में आना मीरा को बड़ा विचित्र लग रहा है, उस के  व रघु के बीच जैसे लाखों संकोच की दीवारें खड़ी हो गई हैं.

रघु चाय बना कर ले आया, ‘‘लो, चाय के साथ दवा खा लो, बुखार कम हो जाएगा.’’

दवा ने अच्छा काम किया…मीरा उठ कर बैठ गई.

रघु खाना बना रहा था.

‘‘तुम ने शादी नहीं की?’’ मीरा ने धीरे से प्रश्न किया.

‘‘मुझ से कौन औरत शादी करना पसंद करेगी, न सूरत है न अक्ल और न पैसा…तुम ने ही मुझे कब पसंद किया था, छोड़ कर चली गई थीं.’’

मीरा देख रही थी. पहले के रघु व इस रघु में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है.

‘‘तुम ने खाना बनाना कब सीख लिया? सब्जी तो बहुत स्वादिष्ठ बनाई है.’’

‘‘तुम चली गईं तो मुझे खाना बना कर कौन खिलाता, सारा काम मुझे ही करना पड़ा, धीरेधीरे सारा कुछ सीख लिया, बरतन साफ करता हूं, कपड़े धोता हूं, इस्तिरी करता हूं.’’

‘‘आज बिजली को क्या हुआ, आ जाती तो मैं फोन चार्ज कर लेती.’’

‘‘तुम्हें शायद पता नहीं, पूरे शहर में बाढ़ का पानी फैल चुका है. बिजली, टेलीफोन सभी की लाइनें खराब हो चुकी हैं, ठीक करने में पता नहीं कितने दिन लग जाएं.’’

मीरा घबरा गई, ‘‘बाढ़ की वजह से मैं घर कैसे जा पाऊंगी…शानू घर में अकेला है.’’

‘‘शानू यानी हमारा बेटा,’’ रघु चिंतित हो उठा, ‘‘मैं वहां जाने का प्रयास करता हूं.’’

मीरा ने पता बताया तो रघु के चेहरे पर चिंता की लकीरें और अधिक बढ़ गईं. वह बोला, ‘‘मीरा, उस इलाके में 10 फुट तक पानी चढ़ चुका है. मैं उसी तरफ से आया था, मुझे तैरना आता है इसलिए निकल सका नहीं तो डूब जाता.’’

‘‘शानू, मेरा बेटा…किसी मुसीबत में न फंस गया हो,’’ कह कर मीरा रोने लगी.

‘‘चिंता करने से क्या हासिल होगा, अब तो सबकुछ समय पर छोड़ दो,’’ रघु उसे सांत्वना देने लगा. पर चिंता तो उसे भी हो रही थी.

दोनों ने जाग कर रात बिताई.

हलका सा उजाला हुआ तो रघु ने पाउडर वाले दूध से 2 कप चाय बनाई.

मीरा को चाय, बिस्कुट व दवा की गोली खिला कर बोला, ‘‘मैं जा कर देखता हूं, शानू को ले कर आऊंगा.’’

‘‘उसे पहचानोगे कैसे, वर्षों से तो तुम ने उसे देखा नहीं.’’

‘‘बाप के लिए अपना बेटा पहचानना कठिन नहीं होता, तुम ने कभी अपना पता नहीं बताया, कभी मुझ से मिलने नहीं आईं, जबकि मैं ने तुम्हें काफी तलाश किया था. एक ही शहर में रह कर हम दोनों अनजान बने रहे,’’ रघु के स्वर में शिकायत थी.

‘‘मैं ही गलती पर थी, तुम्हें पहचान नहीं पाई. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतना बदल सकते हो. शराब पीना और जुआ खेलना बंद कर के पूरी तरह से तुम जिम्मेदार इनसान बन चुके हो.’’

रघु ने बरसाती पहनी और छोटी सी टार्च जेब में रख ली.

मीरा, शानू का हुलिया बताती रही.

रघु चला गया, मीरा सीढि़यों पर खड़ी हो उसे जाते देखती रही.

आज दफ्तर जाने का तो सवाल ही नहीं था, बगैर बिजली के तो कुछ भी काम नहीं हो सकेगा.

मीरा ने पहले कमरे की फिर रसोई और बरतनों की सफाई का काम निबटा डाला. उस ने खाना बनाने के लिए दालचावल बीनने शुरू किए पर टंकी में पानी समाप्त हो चला था.

उसे याद आया कि नीचे एक हैंडपंप लगा था. वह बालटी भर कर ले आई और खाना बना कर रख दिया.

पर रघु अभी तक नहीं आया था. मीरा को चिंता सताने लगी…पता नहीं वह उस के कमरे तक पहुंचा भी है या नहीं. किस हाल में होगा शानू.

मीरा कुछ वक्त पड़ोसिन के साथ गुजारने के खयाल से जीना उतरी तो यह देख कर दंग रह गई कि सभी फ्लैट खाली थे. वहां रहने वाले बाढ़ के डर से कहीं चले गए थे.

बाहर सड़क पर अब भी पानी भरा हुआ था, बरसात भी हो रही थी. अकेलेपन के एहसास से डरी हुई मीरा फ्लैट का दरवाजा बंद कर के बैठ गई.

रघु काफी देरी से आया, उस के जिस्म पर चोटों के निशान थे.

मीरा घबरा गई, ‘‘चोटें कैसे लग गईं आप को, शानू कहां है?’’

उस ने रघु की चोटों पर दवा लगाई.

रघु ने बताया कि उस के घर में शानू नहीं था, पुलिस ने बाढ़ में फंसे लोगों को राहत शिविरों में पहुंचा दिया है, शानू भी वहीं गया होगा.

मीरा की आंखों में आंसू भर आए, ‘‘मैं ने कभी बेटे को अपने से अलग नहीं किया था. खैर, तुम ने यह तो बताया नहीं, चोटें कैसे लगी हैं.’’

‘‘फिसल कर गिर गया था…पैर की मोच के कारण कठिनाई से आ पाया हूं.’’

मीरा ने खाना लगाया, दोनों साथसाथ खाने लगे.

खाना खाने के तुरंत बाद रघु को नींद आने लगी और वह सो गया. जब उठा तो रात गहरा उठी थी.

मीरा खामोशी से कुरसी पर बैठी थी.

‘‘तुम ने मोमबत्ती नहीं जलाई,’’ रघु बोला और फिर ढूंढ़ कर मोमबत्ती ले आया और बोला, ‘‘मैं राहत शिविरों में जा कर शानू की खोज करता हूं.’’

‘‘इतनी रात को मत जाओ,’’ मीरा घबरा उठी.

‘‘तुम्हें अब भी मेरी चिंता है.’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ वर्षों बिताए हैं.’’

रघु यह सुन कर बिस्तर पर बैठ गया, ‘‘जब सबकुछ सही है तो फिर गलत क्या है? क्या हम लोग फिर से एकसाथ नहीं रह सकते?’’

मीरा सोचने लगी.

‘‘हम दोनों दिन भर दफ्तरों में रहते हैं,’’ रघु बोला, ‘‘रात को कुछ घंटे एकसाथ बिता लें तो कितना अच्छा रहेगा, शानू की जिम्मेदारी हम दोनों मिल कर उठाएंगे.’’

मीरा मौन ही रही.

‘‘तुम बोलती क्यों नहीं, मीरा. मैं ने जिम्मेदारियां निभाना सीख लिया है. मैं घर के सभी काम कर लिया करूंगा,’’ रघु के स्वर मेें याचक जैसा भाव था.

मीरा का उत्तर हां में निकला.

रघु की मुसकान गहरी हो उठी.

सुबह एक प्याला चाय पी कर रघु घर से निकल पड़ा, फिर कुछ घंटे बाद ही उस का खुशी भरा स्वर फूटा, ‘‘मीरा, देखो तो कौन आया है.’’

मीरा ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने शानू खड़ा था.

‘‘मेरा बेटा,’’ मीरा ने शानू को सीने से चिपका लिया. फिर वह रघु की तरफ मुड़ी, ‘‘तुम ने आसानी से शानू को पहचान लिया या परेशानी हुई थी?’’

‘‘कैंप के रजिस्टर मेें तुम्हारा पता व नाम लिखा हुआ था.’’

रघु राहत शिविर से खाने का सामान ले कर आया था, सब्जियां, दूध का पैकेट, डबलरोटी, नमकीन आदि.

उस ने शानू के सामने प्लेटें लगा दीं.

‘‘बेटा, इन्हें जानते हो.’’

शानू ने मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘यह मेरे डैडी हैं.’’

‘‘कैसे पहचाना?’’

‘‘इन्होंने बताया था.’’

‘‘शानू, तुम्हें पकौड़े, ब्रेड- मक्खन पसंद हैं न,’’ रघु बोला.

‘‘हां.’’

‘‘यह सब मुझे भी पसंद हैं. हम दोनों में अच्छी दोस्ती रहेगी.’’

‘‘हां, डैडी.’’

मुसकराती हुई मीरा बाप- बेटे की बातें सुनती रही, कितनी सरलता से रघु ने शानू के साथ पटरी बैठा ली.

‘‘शुक्र है इस बरसात के मौसम का कि हम दोनों मिल गए,’’ मीरा बोली और रसोई में जा कर पकौडे़ तलने लगी.

उसे लग रहा था कि उस का बोझ बहुत कुछ हलका हो गया है. सबकुछ रघु के साथ बंट जो चुका है.

बीच का लंबा फासला न जाने कहां गुम हो चुका था. जैसे कल की ही बात हो.

घर तो इनसानों से बनता है न कि दीवारों से. पशु भी तो मिल कर रहते हैं. मीरा न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी. बापबेटे की संयुक्त हंसी उस के मन में खुशियां भर रही थी. Story In Hindi

Story In Hindi: गलीचा – रमेश की तीखी आलोचना करने वाली नगीना को क्या मिला जवाब

Story In Hindi: संगीता और नगीना का परिचय एक यात्रा के दौरान हुआ था. उस से पहले वे कभी नहीं मिली थीं. एक ही दफ्तर में काम करने के कारण उन दोनों के पति ही एकदूसरे के घर आतेजाते थे. इसीलिए वे दोनों एकदूसरे की पत्नियों से भी परिचित हो गए थे, लेकिन दोनों की पत्नियों का मिलन पहली बार इस यात्रा में ही हुआ था.

हुआ यों कि संगीता के पति दीपक ने दफ्तर से 15 दिन की छुट्टी ली. दीपक के साथ काम करने वालों ने सहज ही पूछलिया, ‘‘क्या बात है, दीपक, इतनी लंबी छुट्टी ले कर कहीं बाहर जाने का विचार है क्या?’’

दीपक ने सचाई बता दी, ‘‘हां, हमारा विचार राजस्थान के कुछ ऐतिहासिक स्थानों की यात्रा करने का है. पत्नी कई दिनों से घूमनेके लिए चलने का आग्रह कर रही थी, इसीलिए मैं ने इस बार 15 दिन की यात्रा का कार्यक्रम बना डाला.’’

सभी ने दीपक के इस निश्चय की सराहना करते हुए कहा, ‘‘हो आओ. घूमनेफिरने से ताजगी आती है. आदमी को साल दो साल में घर से निकलना ही चाहिए. इस से मन की उदासी दूर हो जाती है.’’

तभी नगीना के पति रमेश ने दीपक से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे साथ और कोई भी जा रहा है?’’

‘‘नहीं, बस, श्रीमतीजी और मैं ही जा रहे हैं. बच्चे भी साथ नहीं जा रहे हैं, क्योंकि इस से उन की पढ़ाई में हर्ज होगा. वे अपने दादादादी के पास रहेंगे.’’

‘‘यह तो तुम ने बड़ी समझदारी का काम किया.’’

‘‘हां, मगर उन के बिना हमें कुछ अच्छा नहीं लगेगा. बच्चों के साथ रहने से मन लगा रहता है.’’

‘‘भई, मेरी पत्नी भी कहीं चलने के लिए जोर डाल रही है, पर सोचता हूं…’’

‘‘इस में सोचने की क्या बात है? अगर राजस्थान में घूमने की इच्छा हो तो हमारे साथ चलो.’’

‘‘तुम्हें कोई असुविधा तो नहीं होगी?’’

‘‘हमें क्या असुविधा होगी, भई, हनीमून मनाने थोड़े ही जा रहे हैं.’’

दफ्तर के सभी लोग ठठा कर हंस पड़े. सभी ने रमेश से आग्रह किया, ‘‘जाओ,भई, ऐसा मौका मत छोड़ो. सफर में एक से दो भले. पर्यटन में अपनों का साथ होना बहुत अच्छा रहता है.’’

रमेश को यह सलाह जंच गई. उस ने उसी समय छुट्टी की अरजी दे डाली. बड़े बाबू ने अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए उस की छुट्टी की भी स्वीकृति दे दी. इसीलिए दोनों दंपतियों का साथ हो गया.

रेलवे स्टेशन पर दोनों जोड़ों का जब मिलन हुआ तो संगीता ने नगीना से कहा, ‘‘देखिए, एक ही शहर में रहते हुए भी हम अभी तक नहीं मिल पाईं?’’

नगीना ने मोहक मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘अब हम लोग खूब मिला करेंगी, पिछली सारी कसर पूरी कर लेंगी.’’

इस यात्रा में संगीता औैर नगीना का बराबर साथ रहा. रेल और मोटर में तो उन का साथ रहता ही था. वे लोग जहां ठहरते थे, वहां भी कमरे पासपास ही होते थे. एक बार तो एक ही कमरे में दोनों जोड़ों को रात बितानी पड़ी. लिहाजा, इस सफर में नगीना और संगीता को एकदूसरे को देखनेसमझने के खूब मौके मिले.

इस अवधि में संगीता ने यह जाना कि रमेश पत्नी का खूब खयाल रखता है. वह दिनरात उस की सुखसुविधा के लिए चिंतित रहता है. वह नगीना की पसंद की चीजें नजर आते ही ले आता है. आग्रह करकर के खिलातापिलाता. पत्नी को जरा सा उदास देखते ही वह प्रश्नों की झड़ी लगा देता, ‘‘क्या हो गया? तबीयत ठीक नहीं है क्या? सिरदर्द तो नहीं हो रहा है? क्या हाथपैर ही दर्द कर रहे हैं?’’

नगीना के मुंह से अगर कभी यह निकल जाता कि तबीयत कुछ ठीक नहीं है तो रमेश भागदौड़ मचा देता. पत्नी के सिर पर कभी बाम मलता तो कभी हाथपैर ही दबाने लगता. जरूरत होती तो डाक्टर को भी बुला लाता.

नगीना मना करती रह जाती, ‘‘घबराने की कोईर् बात नहीं. साधारण बुखार है.’’

मगर रमेश घबरा जाता. नगीना जब तक पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाती थी, तब तक वह बेहद परेशान रहता. जब नगीना हंसहंस कर बातें करने लगती तब कहीं उस की जान में जान आती.

पत्नी को यों खिलीखिली सी रखने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता.सब से बड़ी बात तो यह थी कि उस अवधि में वह अपनी पत्नी पर न तो कभी झल्लाता, न ही नाराज होता. कई बार नगीना ने उस की इच्छा के खिलाफ भी काम किया. फिर भी उस ने कुछ नहीं कहा.

रमेश के इस व्यवहार से संगीता बड़ी प्रभावित हुई. उसे नगीना से ईर्ष्या होने लगी. वह मन ही मन अपने पति दीपक और रमेश में तुलना करने लगती.

जिन बातों की ओर संगीता का पहले कभी ध्यान नहीं जाता था उस ओर भी उस का ध्यान जाने लगा था. एक टीस सी उस के मन में उठने लगी थी, ‘एक मेरा पति है और एक नगीना का. दोनों में कितना अंतरहै. दीपक तो मेरा कभी खयाल ही नहीं रखता. 15 वर्ष से अधिक अवधि बीत गई हमारे विवाह को, फिर भी कोई जानकारी ही नहीं है.

‘दीपक तो बस अपनेआप में ही डूबा रहता है. हां, कुछ कह दूं तो भले ही ध्यान दे दे. मगर मेरे मन की बात जानने की उसे स्वयं कभी इच्छा ही नहीं होती. मन की बात छिपाना ही उसे नहीं आता. जो मन में आता है, वह फौरन जीभ पर ले आता है. उस का चेहरा ही बहुत कुछ कह देता है. कठोर से कठोर बात भी उस के मुंह से निकल जाती है. ऐसे क्षणों में उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहताकि किसी को बुरा लगेगा या भला? वह तो बस अपने मन की बात कह के हलके हो जाते हैं. कोई मरे या जिए उस की बला से.

‘दीपक की सेवा करकर के भले ही कोई मर जाए, फिर भी प्रशंसा के दो बोल उस के मुंह से शायद ही निकलते हैं. बीमारी तक में उसे खयाल नहीं रहता कि मेरी कुछ मदद कर दे. जाने किस दुनिया में रहता है वह. उस के जीवन से कोई और भी जुड़ा हुआ है, इस का उसे ध्यान ही नहीं रहता. पत्नी का उसके लिए जैसे कोई महत्त्व ही नहीं है. न जाने किस मिट्टी का बना है वह. अच्छा बनेगा तो इतना अच्छा कि उस से अच्छा कोई और हो ही न शायद. बुरा बनेगा तो इतना बुरा कि वैरी से भी बढ़ कर. सचमुच बहुत ही विचित्र प्राणी है दीपक.’

संगीता के मन के ये उद्गार एक दिन नगीना के सामने प्रकट हो गए. उस दिन दोनों के पति यात्रा से वापस लौटने के लिए आरक्षण कराने गए थे. वे दोनों बैठी इधर- उधर की बातें कर रही थीं. तभी नगीना ने अपने पति की आलोचना शुरू कर दी. बच्चों के लिए खरीदे गए कपड़ों को ले कर पतिपत्नी में शायद खटक चुकी थी.

संगीता कुछ देर तक तो सुनती रही, किंतु जब नगीना रमेश के व्यवहार की तीखी आलोचना करने लगी तो वह अपनेआप को रोक नहीं पाई. उस के मुंह से निकल गया, ‘‘नहीं, तुम्हारे पति तो ऐसे नहीं लगते. इन 12-13 दिनों में मैं ने जो कुछ देखा है, उस के आधार पर तो मैं यही कह सकती हूं कि तुम्हें अच्छा पति मिला है. वह तुम्हारा बड़ा खयाल रखते हैं. तुम्हारी सुखसुविधा के लिए वह हमेशा चिंतित रहते हैं. आश्चर्य है कि तुम ऐसे आदर्श पति की बुराई कर रही हो.’’

नगीना ने बड़ी तल्खी से जवाब दिया, ‘‘काश, वह आदर्श पति होते?’’

संगीता ने साश्चर्य पूछा, ‘‘फिर आदर्श पति कैसा होता है?’’

नगीना ने बड़े दर्द भरे स्वर में कहा, ‘‘संगीता, तुम मेरे पति को सतही तौर पर ही जान पाई हो, इसीलिए ऐसी बातें कर रही हो. हकीकत में वह ऐसे नहीं हैं.’’

‘‘तो फिर कैसे हैं?’’

‘‘जैसे दिखते हैं वैसे नहीं हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

नगीना ने फर्श पर बिछे गलीचे की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘वह इस गलीचे की तरह हैं.’’

संगीता का आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था. उस ने हैरानी से पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी बात समझ नहीं पाई?’’

फर्श पर बिछे हुए गलीचे के एक कोने को थोड़ा सा उठाती हुई नगीना बोली, ‘‘संगीता, गलीचे के नीचे छिपी हुई यह धूल, यह गंदगी, किसी को नजर नहीं आती. लोगों को तो बस यह खूबसूरत गलीचा ही नजर आता है. इसे ही अगर सचाई मानना हो तो मान लो. मगर मैं तो उस नंगे फर्श को अच्छा समझती हूं जहां ऐसा कोई धोखा नहीं है. संगीता, मुझे तुम से ईर्ष्या होती है. तुम्हें कितने अच्छे पति मिले हैं. अंदरबाहर से एक से.’’

संगीता मुंहबाए नगीना को देखती रह गई. उस से कुछ कहते ही नहीं बना. ंिकंतु दीपक के प्रति उसे जैसे नई दृष्टि प्राप्त हुई थी. अपने सारे दोषों के बावजूद वह उसे बहुत अच्छा लगने लगा. संगीता के मन में उस के प्रति जैसे प्यार का ज्वार उमड़ पड़ा. Story In Hindi

Best Hindi Story: अपराधबोध – परिवार को क्या नहीं बताना चाहते थे मधुकर

Best Hindi Story: बड़ी मुश्किल से जज्ब किया था उन्होंने अपने मन के भावों को. अस्पताल में उन की पत्नी वर्षा जिंदगी और मौत से जूझ रही थी और घर में वह पश्चात्ताप की अग्नि में झुलस रहे थे.

और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बेटे को फोन मिलाया, ‘‘रवि, मैं अभी अस्पताल आ रहा हूं. मुझे एक बात बतानी है बेटे, सुन, मैं ने ही…’’

‘‘पापा, आप को मेरी कसम. आप अस्पताल नहीं आएंगे. घर में आराम करेंगे. मैं यहां सब संभाल लूंगा. आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं पापा… ’’

फोन कट गया. सुबह से तीसरी बार बेटे ने कसम दे कर उन्हें अस्पताल आने से रोक दिया था. मानसिक तनाव था या फिर बुखार की हरारत, सहसा खड़ेखड़े चक्कर आ गया. वह आह भर कर बिस्तर पर लुढ़क पड़े. पुराने लमहे, दर्द की छाया बन कर, आंखों के आगे छाने लगे.

वर्षा, उन की पत्नी…22 सालों का साथ…जाने कैसे उसी के प्राणों के दुश्मन बन बैठे  जिसे जिंदगी से बढ़ कर चाहा था. लंबी, गोरी, आकर्षक , आत्मनिर्भर वर्षा से कालिज में हुई पहली मुलाकात उम्र भर का साथ बन गई थी. दीवानगी की हद तक चाहा उसे. शादी की, जिंदगी के एक नए और खूबसूरत पहलू को शिद्दत से जीया. उस के दामन में खुशियां लुटाईं. वर्ष दर वर्ष आगे खिसकते रहे. समय के साथ दोनों अपनेअपने कामों में मशगूल हो गए.

वर्षा जहां नौकरी करती थी उसी कंपनी में नायक मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव था. इधर कुछ समय से नायक, वर्षा में खासी दिलचस्पी लेने लगा था. दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई और यही बात मधुकर को खटकने लगी. वह जितना भी चाहते कि उन के रिश्ते के प्रति उदार बनें, इस दोस्ती को स्वीकार कर लें पर हर बार उन की इस चाहत के बीच अहम और शक की दीवार खड़ी हो जाती.

कभीकभी मधुकरजी सोचते थे, काश, वर्षा इतनी खूबसूरत न होती. 42 साल की होने के बावजूद वह एक कमसिन, नाजुक काया की स्वामिनी थी. एक्टिव इतनी कि कालिज की कमसिन लड़कियां भी उस के सामने पानी भरें जबकि वह अब प्रौढ़ नजर आने लगे थे.

जाने कब और कैसे मन में उठे गतिरोध और ईर्ष्या के इन्हीं भावों ने उन के दिल में असुरक्षा और शक का बीज बो दिया. नतीजा सामने था. अपनी बीवी को खत्म करने की साजिश रची उन्होंने. एक बार फिर अपराधबोध ने उन्हें अपने शिकंजे में जकड़ लिया.

डा. कर्ण की आवाज उन के कानों में गूंज रही थी, ‘आप को शुगर की शिकायत तो नहीं, मधुकर?’

‘नहीं, मुझे ऐसी कोई तकलीफ नहीं. मगर डाक्टर साहब, आप ने ऐसा क्यों पूछा? कोई खास वजह?’ मधुकर ने जिज्ञासावश प्रश्न किया था.

‘दरअसल, इस दवा को देने से पहले मुझे मरीज से यह सवाल करना ही पड़ता है. शुगर के रोगी के लिए ये गोलियां जहर का काम करेंगी. इस की एक खुराक भी उस की मौत का सबब बन सकती है. हमें इस मामले में खास चौकसी बरतनी पड़ती है. वैसे आप निश्ंिचत हो कर इसे खाइए. आप को तुरंत राहत मिलेगी.’

2 दिन पहले बुखार व दूसरी तकलीफों के दौरान दी गई डा. कर्ण की इसी दवा को उन्होंने वर्षा की हत्या का शगल बनाया. वह जानते हैं कि वर्षा को बहुत अधिक शुगर रहता है और वह इस के लिए नियमित रूप से दवा भी लेती है. बस, इसी आधार पर उन के दिमाग ने एक खौफनाक योजना बना डाली.

कल रात भी नायक के मसले को ले कर उन के बीच तीखी बहस हुई थी. देर तक दोनों झगड़ते रहे, अंत हमेशा की तरह, वर्षा के आंसुओं और मधुकर के मौन धारण से हुआ. वर्षा दूसरे कमरे में सोने चली गई. जाते समय उस ने रामू को आवाज दी और चाय बनाने को कहा. फिर खुद नहाने के लिए बाथरूम में घुस गई. रामू चाय रख कर गया तो मधुकरजी चुपके से उस के कमरे में घुसे और चाय में दवा की 3-4 गोलियां मिला दीं.

अब नहीं बचेगी. आजाद हो जाऊंगा मैं. यह सोचते हुए वह अपने कमरे में आ गए और बिस्तर पर लेट गए. इनसान जिसे हद से ज्यादा चाहता है, कभीकभी उसी से बेपनाह नफरत भी करने लगता है. यही हुआ था शायद मधुकरजी के साथ भी. वह सोच रहे थे…

…कितना कड़वा स्वभाव हो गया है, वर्षा का. जब देखो, झगड़ने को तैयार.

मैं कुछ नहीं, अब नायक ही सबकुछ हो गया है, उस के लिए. कहती है कि किस मनहूस घड़ी में मुझ से शादी कर ली. मेरा मुंह नहीं देखना चाहती. मुझे शक्की और झक्की कह कर पुकारती है. अब देखूंगा, कितनी जीभ चलती है इस की.

वह करवट बदल कर लेट गए थे. लेटेलेटे ही सोचा कि अब तक वह चाय पी चुकी होगी. खत्म हो जाएगी सारी चिकचिक. जीना हराम कर रखा था इस ने, जब भी नायक के साथ देखता हूं, मेरे सारे बदन में आग लग जाती है. यह बात वह अच्छी तरह समझती है, मगर अपनी हठ नहीं छोड़ेगी. काफी देर तक मन ही मन वर्षा को कोसते रहे वह, फिर मन के पंछी ने करवट ली. दिल में हूक सी उठी.

एकाएक कुछ खो जाने के एहसास से मन भीग गया.

क्या मैं ने ठीक किया? उसे इतनी बड़ी सजा दे डाली. क्या वह इस की हकदार थी? क्या अब मैं बिलकुल तनहा नहीं रह जाऊंगा? अब मेरा क्या होगा?

दिल में हलचल मच गई. अब पछतावे का तम उन के दिमाग को कुंद करने लगा. उस पर तेज बुखार की वजह से भी बेहोशी सी छा गई.

अचानक आधी रात के समय शोरशराबा सुन कर वह जग पड़े. बाहर निकले तो देखा, बेटा रवि, वर्षा को लाद कर कार में बिठा रहा है.

रामू ने बताया, ‘‘साहब, मालकिन की तबीयत बहुत बिगड़ गई है.’’

उन का दिल धक् से रह गया. वह चौकस हो उठे, ‘‘मैं भी चलूंगा.’’

उन्होंने बेटे को रोकना चाहा पर बेटे ने यह कहते हुए कार स्टार्ट कर दी, ‘‘नहीं, पापा. आप का शरीर तप रहा है. आप आराम करें. मैं हूं ना.’’

मधुकर पत्थर के बेजान बुत से खड़े रह गए. जैसे किसी ने उन के शरीर से प्राण निकाल लिए हों. क्या अब यही अकेलापन, यही तनहाई जीवन भर टीस बन कर उन के दिल को बेधती रहेगी?

‘‘बाबूजी, चाय ले आऊं क्या?’’ रामू ने आवाज दी तो मधुकर जैसे तंद्रा से जागे.

‘‘नहीं रे, दिल नहीं है. एक काम कर रामू, बिस्तर पर सहारा ले कर बैठते हुए वह बोले, जरा मेरे लिए एक आटोरिकशा ले आ. मुझे अस्पताल जाना ही होगा.’’

‘‘यह पाप मैं नहीं करूंगा मालिक. छोटे मालिक भी बोल कर गए हैं. 4 दिन से आप की तबीयत कितनी खराब चल रही है. वह सब संभाल लेंगे. आप नाहक ही परेशान हो रहे हैं.’’

मधुकरजी को गुस्सा आया रामू पर. सोचा, खुद ही चला जाऊं. मगर डगमगाते कदमों से ज्यादा आगे नहीं जा सके. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. फिर क्या हुआ, उन्हें याद नहीं. होश आया तो खुद को बिस्तर पर पाया. सामने डाक्टर खड़ा था और रामू उन से कह रहा था :

‘‘मालिक पिछले 2 घंटे से बेहोशी में जाने क्याक्या बड़बड़ा रहे थे. कभी कहते थे, मैं हत्यारा हूं, तो कभी मालकिन का नाम ले कर कहते थे, वापस लौट आ, तुझे मेरी कसम…’’

मधुकरजी को महसूस हुआ जैसे उन का सिर दर्द से फटा जा रहा है. उन्होंने चुपचाप आंखें बंद कर लीं. बंद आंखों के आगे वर्षा का चेहरा घूम गया. जैसे वह कह रही हो कि क्या सोचते हो, मुझे मार कर तुम चैन से जी सकोगे? नहीं मधुकर, यह तुम्हारा भ्रम है. मैं भटकूंगी तो तुम्हें भी चैन नहीं लेने दूंगी. पलपल तड़पाऊंगी…यह कहतेकहते वर्षा का चेहरा विकराल हो गया. वह चीख उठे, ‘‘नहीं…’’

सामने रामू खड़ा था, बोला, ‘‘क्या हुआ, मालिक?’’

‘‘कुछ नहीं, वर्षा नहीं बचेगी, रामू. मैं ने उसे मार दिया…’’ वह होंठों से बुदबुदाए.

‘‘मालिक, मैं अभी ठंडे पानी की पट्टी लाता हूं. आप की तबीयत ठीक नहीं.’’

रामू दौड़ कर ठंडा पानी ले आया और माथे पर ठंडी पट्टी रखने लगा.

मधुकरजी सोचने लगे कि ये मैं ने क्या किया? वर्षा ही तो मेरी दोस्त, बीवी, हमसफर, सलाहकार…सबकुछ थी. मेरा दर्द समझती थी. पिछले साल मैं बीमार पड़ा था तो कैसे रातदिन जाग कर सेवा की थी. परसों भी, जरा सी तबीयत बिगड़ी तो एकदम से घबरा गई थी वह, जबरदस्ती मुझे डाक्टर के पास ले गई.

मैं ने बेवजह उस पर शक किया. दफ्तर में चार लोग मिल कर काम करेंगे तो उन में दोस्ती तो होगी ही. इस में गलत क्या है? इस के लिए रोजरोज मैं उसे टीज करता था. तभी तो वह झल्ला उठती थी. हमारे बीच झगड़े की वजह मेरा गलत नजरिया ही था. काश, गया वक्त वापस लौट आता तो मैं उसे खुद से जुदा न करता. अब शायद कभी जीवन में सुकून न पा सकूं. यह सब सोच कर मधुकरजी और भी परेशान हो उठे.

‘‘रामू, फोन दे इधर…’’ और रामू के हाथ से झट फोन ले कर उन्होंने सीधे अस्पताल का नंबर मिलाया. वह इंगेज था. फिर डाक्टर के मोबाइल पर बात करनी चाही मगर नेटवर्क काम नहीं कर रहा था.

क्या करूं? मैं जब तक किसी को हकीकत न बता दूं, मुझे शांति नहीं मिलेगी. डाक्टर को जानकारी मिल जाए कि उसे वह दवा दी गई है तो शायद वह बेहतर इलाज कर सकेंगे. यह सोच कर उन्होंने फिर से बेटे को फोन लगाया.

‘‘पापा, ममा को ले कर टेंशन न करें. यहां मैं हूं. आप अपनी तबीयत का खयाल रखें…’’

‘‘होश आया उसे?’’

‘‘हां, बस आधेएक घंटे में…हैलो डाक्टर, एक मिनट प्लीज…’’

‘‘हैलो….हैलो बेटे, मैं एक बात बताना चाहता हूं…जरा डाक्टर साहब को फोन दो…’’

‘‘…डाक्टर साहब, जरा देखिए, यह तीसरे नंबर की दवा…’’

रवि उन से बात करतेकरते अचानक डाक्टर से बातें करने में मशगूल हो गया और फोन कट गया.

वह सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘दवा खा लीजिए, मालिक,’’ रामू दवा ले कर आया.

‘‘जहन्नुम में जाए ये दवा…’’ गोली फेंकते हुए मधुकरजी उठे और वर्षा के कमरे की तरफ बढ़ गए.

अंदर खड़े हो कर देखने लगे. वर्षा का बिस्तर…मेज पर रखी तसवीर… अलमारी…कपड़े…सबकुछ छू कर वह वर्षा को महसूस करना चाहते थे. अचानक ईयररिंग हाथ से छूट कर नीचे जा गिरा. वह उठाने के लिए झुके तो चक्कर सा आ गया. वह वहीं आंख बंद कर बैठ गए.

थोड़ी देर बाद मुश्किल से आंखें खोलीं. यह क्या? चाय का वही नया वाला ग्लास नीचे रखा था जिस में वह चुपके से आ कर गोली डाल गए थे. ग्लास में चाय अब भी ज्यों की त्यों भरी पड़ी थी.

तब तक रामू आ गया, ‘‘…ये चाय…’’ वह असमंजस से रामू की तरफ देख रहे थे.

‘‘ये चाय, हां…वह दूध में मक्खी पड़ गई थी. इसीलिए मालकिन ने पी नहीं. जब तक मैं दूसरा ग्लास चाय बना कर लाया, वह सो चुकी थीं.’’

मधुकरजी चुपचाप रामू को देखते रहे. अचानक ही दिमाग में चल रही सारी उथलपुथल को विराम लग गया. एक मक्खी ने उन के सीने का सारा बोझ उतार दिया था…यानी, मैं दोषी नहीं. यह सोच कर वह खुश हो उठे.

तभी मोबाइल बज उठा, ‘‘पापा, मैं ममा को ले कर आधे घंटे में घर पहुंच रहा हूं.’’

‘‘वर्षा ठीक हो गई?’’

‘‘हां, पापा, अब बेहतर हैं. हार्ट अटैक का झटका था, पर हलका सा. डाक्टर ने काबू कर लिया है. बस, दवा नियम से खानी होगी.’’

ओह, मेरी वर्षा…कितना खुश हूं मैं…तुम्हारा लौट कर आना, आज कितना भला लग रहा है.

मधुकर मुसकराते हुए शांति से सोफे पर बैठ कर पत्नी और बेटे का इंतजार करने लगे. अब उन्हें किसी को कुछ बताने की चिंता नहीं थी. Best Hindi Story

Story In Hindi: नहले पे दहला – साक्षी ने कैसे लिया बदला

Story In Hindi: साक्षी ने जैसे ही दरवाजा खोला, वह चौंक कर दो कदम पीछे हट गई. सामने खड़ा टोनी बगैर कुछ कहे मुसकराता हुआ अंदर दाखिल हो गया.

‘‘तुम यहां पर…’’ साक्षी चौंकते हुए बोली.

‘‘क्या भूल गई अपने आशिक को?’’ टोनी ने बेशर्मी से कहा.

‘‘भूल जाओ उन बातों को. मेरी जिंदगी में जहर मत घोलो,’’ साक्षी रोंआसी हो कर बोली.

‘‘चिंता मत करो, मैं तुम्हें ज्यादा तंग नहीं करूंगा. लो यह देखो,’’ टोनी ने एक लिफाफा साक्षी को देते हुए कहा.

साक्षी ने लिफाफे से तसवीरें निकाल कर देखीं, तो उसे लगा मानो आसमान टूट पड़ा हो. उन तसवीरों में साक्षी और टोनी के सैक्सी पोज थे. यह अलग बात थी कि साक्षी ने टोनी के साथ कभी भी ऐसावैसा कुछ नहीं किया था.

‘‘यह सब क्या है?’’ साक्षी घबरा गई और डर कर बोली.

‘‘बस छोटा सा नजराना.’’

‘‘क्या चाहते हो तुम?’’ साक्षी ने कांपते हुए पूछा.

‘‘ज्यादा नहीं, बस एक लाख रुपए दे दो, फिर तुम्हारी छुट्टी,’’ टोनी बेशर्मी से बोला.

‘‘लेकिन ये फोटो तो झूठे हैं. ऐसा तो मैं ने कभी नहीं किया था.’’

‘‘जानेमन, ये फोटो देख कर कोई भी इन्हें झूठा नहीं बता सकता.’’

‘‘तुम इतने नीच होगे, यह मैं ने कभी नहीं सोचा था.’’

‘‘आजकल सिर्फ पैसे का जमाना है, जिस के लिए लोग अपना ईमान भी बेच देते हैं,’’ टोनी ने बेशर्मी से कहा.

साक्षी बुरी तरह घबरा गई. उसे यह भी डर था कि कहीं कोई आ न जाए. लेकिन वे दोनों यह नहीं जानते थे कि दो आंखें बराबर उन पर टिकी थीं.

साक्षी ने टोनी को भलाबुरा कह कर एक महीने का समय ले लिया. टोनी दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया. एकाएक साक्षी की रुलाई फूट पड़ी. वह लिफाफा अब भी उस के हाथ में था.

सहसा उन दो आंखों का मालिक दीपक कमरे में दाखिल हुआ और चुपचाप साक्षी के सामने जा खड़ा हुआ. उस ने हाथ बढ़ा कर वह लिफाफा ले लिया.

‘‘देवरजी, तुम…’’ साक्षी एकाएक उछल पड़ी.

‘‘जी…’’

‘‘यह लिफाफा मुझे दे दो प्लीज,’’ साक्षी कांप कर बोली.

‘‘चिंता मत करो भाभी, मैं सबकुछ जान चुका हूं.’’

‘‘लेकिन, ये तसवीरें झूठी हैं.’’

दीपक ने वे फोटो बिना देखे ही टुकड़ेटुकड़े कर दिए.

‘‘मैं सच कह रही हूं, यह सब झूठ है,’’ साक्षी बोली.

‘‘कौन था वह कमीना, जिस ने हमारी भाभी पर कीचड़ उछालने की कोशिश की है?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘लेकिन…’’

‘‘चिंता मत कीजिए भाभी. अगर उस कुत्ते से लड़ना होता तो उसे यहीं पकड़ लेता. लेकिन मैं नहीं चाहता कि आप की जरा भी बदनामी हो.’’

दीपक का सहारा पा कर साक्षी ने उसे हिचकते हुए बताया, ‘‘उस का नाम टोनी है. वह मेरी क्लास में पढ़ता था. उस से थोड़ीबहुत बोलचाल थी, लेकिन प्यार कतई नहीं था.’’

‘‘उस का पता भी बता दीजिए.’’

‘‘लेकिन तुम करना क्या चाहते हो?’’

‘‘मैं अपनी भाभी को बदनामी से बचाना चाहता हूं.’’

‘‘तुम उस का क्या करोगे?’’

‘‘उस का मुरब्बा तो बना नहीं सकता, लेकिन उस नीच का अचार जरूर बना डालूंगा.’’

‘‘तुम उस बदमाश के चक्कर में मत पड़ो. मुझे मेरे हाल पर ही छोड़ दो.’’

लेकिन दीपक के दबाव डालने पर साक्षी को टोनी का पता बताना ही पड़ा. पता जानने के बाद दीपक तेज कदमों से बाहर निकल गया. दीपक को टोनी का घर ढूंढ़ने में ज्यादा समय नहीं लगा. घर में ही टोनी की छोटी सी फोटोग्राफी की दुकान थी. दीपक ने पता किया कि टोनी की 3 बहनें हैं और मां विधवा हैं.

दीपक ने फोटो खिंचवाने के बहाने टोनी से दोस्ती कर ली और दिल खोल कर खर्च करने लगा. उस ने टोनी की एक बहन ज्योति को अपने प्यार के जाल में फंसा लिया.

एक दिन मौका पा कर दीपक और ज्योति पार्क में मिले और शाम तक मस्ती करते रहे. उस दिन टोनी अपनी दुकान में अकेला बैठा था. तभी दीपक की मोटरसाइकिल वहां आ कर रुकी.

दीपक को देखते ही टोनी का चेहरा खिल उठा. उस ने खुश होते हुए कहा. ‘‘आओ दीपक, मैं तुम्हीं को याद कर रहा था.’’

‘‘तुम ने याद किया और हम हाजिर हैं. हुक्म करो,’’ दीपक ने स्टाइल से कहा.

‘‘बैठो यार, क्या कहूं शर्म आती है.’’

‘‘बेहिचक बोलो, क्या बात है?’’

‘‘क्या तुम मेरी कुछ मदद कर सकते हो?’’

‘‘बोलो तो सही, बात क्या?है?’’

‘‘मुझे 5 हजार रुपए की जरूरत है. कुछ खास काम है,’’ टोनी हिचकते हुए बोला.

‘‘बस इतनी सी बात, अभी ले कर आता हूं,’’ दीपक बोला और एक घंटे में ही उस ने 5 हजार की गड्डी ला कर टोनी को थमा दिया. टोनी दीपक के एहसान तले दब गया. कुछ दिनों बाद ज्योति की हालत खराब होने लगी. उसे उलटियां होने लगीं. जांच करने के बाद डाक्टर ने बताया कि वह मां बनने वाली है.

यह सुन कर सब हैरान रह गए. ज्योति की मां ने रोना शुरू कर दिया. लेकिन टोनी गुस्से में ज्योति को मारने दौड़ पड़ा. ज्योति लपक कर बड़ी बहन के पीछे छिप गई.

‘‘बता कौन है वह कमीना, जिस के साथ तू ने मुंह काला किया?’’ टोनी ने सख्त लहजे में पूछा.

ज्योति सुबक रही थी. उस की मां और बहनें रोए जा रही थीं और टोनी गुस्से में न जाने क्याक्या बके जा रहा था. काफी दबाव डालने पर ज्योति ने दीपक का नाम बता दिया.

यह सुन कर सब हैरान रह गए. टोनी भी एकाएक ढीला पड़ गया. दीपक को घर बुला कर बात की गई, लेकिन वह साफ मुकर गया और उस ने शादी करने से इनकार कर दिया.

एक पल के लिए टोनी को गुस्सा आ गया और वह गुर्रा कर बोला, ‘‘अगर मेरी बहन को बरबाद किया तो मैं तुम्हारा खून पी जाऊंगा.’’

‘‘तुम्हारा क्या खयाल है कि मैं ने चूडि़यां पहन रखी हैं?’’ दीपक सख्त लहजे में बोला.

‘‘तुम ने हम से किस जन्म का बदला लिया है,’’ टोनी की मां रोते हुए बोलीं.

‘‘आप जरा चुप रहिए मांजी, पहले इस खलीफा से निबट लूं,’’ दीपक ने कहा और टोनी को घूरने लगा.

टोनी ने पैतरा बदला और हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं दीपक, मेरी बहन को बरबाद मत करो.’’

‘‘तुम किस गलतफहमी के शिकार हो रहे हो,’’ दीपक बोला.

‘‘देखो दीपक, मेरी बहन से शादी कर लो. तुम जो कहोगे, मैं करने के लिए तैयार हूं,’’ टोनी हार कर बोला.

‘‘तुम क्या कर सकते हो भला?’’

‘‘तुम जो कहोगे मैं वही करूंगा,’’ टोनी गिड़गिड़ा कर बोला.

‘‘अपनी इज्जत पर आंच आई तो कितना तड़प रहे हो. क्या दूसरों की इज्जत, इज्जत नहीं होती?’’ दीपक शांत हो कर बोला.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ टोनी बुरी तरह चौंका.

‘‘अपने गरीबान में झांक कर देखो टोनी, सब मालूम हो जाएगा,’’ एकाएक दीपक का लहजा बदल गया.

टोनी सबकुछ समझ गया. उस ने मां और बहनों को बाहर भेजना चाहा, लेकिन दीपक उन्हें रोक कर बोला, ‘‘अब डर क्यों रहे हो, घर के सभी लोगों को बताओ कि तुम कितनी मासूमों का बसाबसाया घर तबाह करने पर तुले हो.’’

‘‘तुम कौन हो?’’ टोनी हैरत से बोला.

‘‘तुम मेरी बात का फटाफट जवाब दो, वरना मैं चला,’’ दीपक जाने के लिए लपका.

‘‘लेकिन मैं ने किसी की जिंदगी बरबाद तो नहीं की,’’ टोनी अटकते हुए बोला.

‘‘मगर करने पर तो तुले हो.’’

‘‘यह सच है, लेकिन तुम ने आज मेरी आंखें खोल दीं दोस्त. आज मुझे एहसास हुआ कि पैसे से कहीं ज्यादा इज्जत की अहमियत है,’’ टोनी बुझी आवाज में बोला.

दीपक के होंठों पर मुसकराहट नाच उठी. ज्योति भी मुसकराने लगी.

‘‘अब क्या इरादा है प्यारे?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘वह सब झूठ था. मैं कसम खाता हूं कि सारे फोटो और निगेटिव जला दूंगा,’’ टोनी ने कहा.

‘‘यह अच्छा काम अभी और सब के सामने करो,’’ दीपक ने कहा.

टोनी ने पैट्रोल डाल कर सारे गंदे फोटो और निगेटिव जला डाले और दीपक से बोला, ‘‘माफ करना दोस्त, मैं ने लालच में पड़ कर लखपति बनने का यह तरीका अपना लिया था.’’

‘‘माफी मुझ से नहीं पहले अपनी मां से मांगो, फिर मेरी मां से मांगना.’’

‘‘तुम्हारी मां…’’

‘‘हां, साक्षी यानी मेरी भाभी मां. वह माफ कर देंगी तो मैं भी तुम्हें माफ कर दूंगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मंजूर है, लेकिन मेरी बहन?’’

‘‘इस का फैसला भी भाभी ही करेंगी.’’

साक्षी के पैर पकड़ कर माफी मांगते हुए टोनी बोला, ‘‘आज से आप मेरी बड़ी दीदी हैं. चला तो था चाल चलने, लेकिन आप के इस होशियार देवर ने ऐसी चाल चली कि नहले पे दहला मार कर मुझे चित कर दिया. क्या इस नालायक को माफ कर सकेंगी?’’

साक्षी ने गर्व से देवर की ओर देखा और टोनी से कहा, ‘‘फिर कभी ऐसी जलील हरकत मत करना.’’

माफी मिलने के बाद टोनी ने साक्षी को अपनी बहन व दीपक का मामला बताया तो साक्षी ने दीपक को घूरते हुए पूछा, ‘‘दीपक, यह सब क्या?है?’’

‘‘यह भी एक नाटक है भाभी. आप ज्योति से ही पूछिए,’’ दीपक हंस कर बोला.

‘‘ज्योति, आखिर किस्सा क्या है?’’ टोनी ने पूछा.

‘‘भैया, मैं भी सबकुछ जान गई थी. आप को सही रास्ते पर लाने के लिए ही मैं ने व दीपक ने नाटक किया था और उस में डाक्टर को भी शामिल कर लिया था,’’ ज्योति ने हंसते हुए बताया.

‘‘चल, तू ने छोटी हो कर भी मुझे राह दिखा कर अच्छा किया. मैं तेरी शादी दीपक जैसे भले लड़के से करने के लिए तैयार हूं.’’

दीपक ने इजाजत मांगने के अंदाज में भाभी की ओर देखा. साक्षी ने ज्योति को खींच कर अपने गले से लगा लिया. ज्योति की मां भी इस रिश्ते से बहुत खुश थीं. Story In Hindi

Hindi Story: छांव – विमला में कैसे आया इतना बड़ा बदलाव

Hindi Story: रविशंकर के रिटायर होने की तारीख जैसेजैसे पास आ रही थी, वैसेवैसे  विमला के मन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. रविशंकर एक बड़े सरकारी ओहदे पर हैं, अब उन्हें हर महीने पैंशन की एक तयशुदा रकम मिलेगी. विमला की चिंता की वजह अपना मकान न होना था, क्योंकि रिटायर होते ही सरकारी मकान तो छोड़ना पड़ेगा.

रविशंकर अभी तक परिवार सहित सरकारी मकान में ही रहते आए हैं. एक बेटा और एक बेटी हैं. दोनों बच्चों को उन्होंने उच्चशिक्षा दिलाई है. शिक्षा पूरी करते ही बेटाबेटी अच्छी नौकरी की तलाश में विदेश चले गए. विदेश की आबोहवा दोनों को ऐसी लगी कि वे वहीं के स्थायी निवासी बन गए और दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में खुश हैं.

सालों नौकरी करने के बावजूद रविशंकर अपना मकान नहीं खरीद पाए. गृहस्थी के तमाम झमेलों और सरकारी मकान के चलते वे घर खरीदने के विचार से लापरवाह रहे. अब विमला को एहसास हो रहा था कि वक्त रहते उन्होंने थोड़ी सी बचत कर के छोटा सा ही मकान खरीद लिया होता तो आज यह चिंता न होती. आज उन के पास इतनी जमापूंजी नहीं है कि वे कोई मकान खरीद सकें, क्योंकि दिल्ली में मकान की कीमतें अब आसमान छू रही हैं.

आज इतवार है, सुबह से ही विमला को चिड़चिड़ाहट हो रही है. ‘‘तुम चिंता क्यों करती हो, एक प्रौपर्टी डीलर से बात की है. मयूर विहार में एक जनता फ्लैट किराए के लिए उपलब्ध है, किराया भी कम है. आखिर, हम बूढ़ेबुढि़या को ही तो रहना है. हम दोनों के लिए जनता फ्लैट ही काफी है,’’ रविशंकर ने विमला को समझाते हुए कहा.

‘‘4 कमरों का फ्लैट छोड़ कर अब हम क्या एक कमरे के फ्लैट में जाएंगे? आप ने सोचा है कि इतना सामान छोटे से फ्लैट में कैसे आएगा, इतने सालों का जोड़ा हुआ सामान है.’’

‘‘हम दोनों की जरूरतें ही कितनी हैं? जरूरत का सामान ले चलेंगे, बाकी बेच देंगे. देखो विमला, घर का किराया निकालना, हमारीतुम्हारी दवाओं का खर्च, घर के दूसरे खर्चे सब हमें अब पैंशन से ही पूरे करने होंगे. ऐसे में किराए पर बड़ा फ्लैट लेना समझदारी नहीं है,’’ रविशंकर दोटूक शब्दों में पत्नी विमला से बोले.

‘‘बेटी से तो कुछ ले नहीं सकते, लेकिन बेटा तो विदेश में अच्छा कमाता है. आप उस से क्यों नहीं कुछ मदद के रूप में रुपए मांग लेते हैं जिस से हम बड़ा फ्लैट खरीद ही लें?’’ विमला धीरे से बोली.

‘‘भई, मैं किसी से कुछ नहीं मागूंगा. कभी उस ने यह पूछा है कि पापा, आप रिटायर हो जाओगे तो कहां रहोगे. आज तक उस ने अपनी कमाई का एक रुपया भी भेजा है,’’ रविशंकर पत्नी विमला पर बरस पड़े.

विमला खुद यह सचाई जानती थी. शादी के बाद बेटा जो विदेश गया तो उस ने कभी मुड़ कर भी उन की तरफ देखा नहीं. बस, कभीकभार त्योहार आदि पर सिर्फ फोन कर लेता है. विमला यह भी अच्छी तरह समझती थी कि उस के स्वाभिमानी पति कभी बेटी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे. विमला उन मातापिता को खुशहाल मानती है जो अपने बेटेबहू, नातीपोतों के साथ रह रहे हैं जबकि वे दोनों पतिपत्नी इस बुढ़ापे में बिलकुल अकेले हैं.

आखिर, वह दिन भी आ ही गया जब विमला को सरकारी मकान से अपनी गृहस्थी समेटनी पड़ी. रविशंकर ने सामान बंधवाने के लिए 2 मजदूर लगा लिए थे. कबाड़ी वाले को भी उन्होंने बुला लिया था जिस कोे गैरजरूरी सामान बेच सकें. केवल जरूरत का सामान ही बांधा जा रहा था.

विमला ने अपने हाथों से एकएक चीज इकट्ठा की थी, अपनी गृहस्थी को उस ने कितने जतन से संवारा था. कुछ सामान तो वास्तव में कबाड़ था पर काफी सामान सिर्फ इसलिए बेचा जा रहा था, क्योंकि नए घर में ज्यादा जगह नहीं थी. विमला साड़ी के पल्लू से बारबार अपनी गीली होती आंखों को पोंछे जा रही थी. उस के दिल का दर्द बाहर आना चाहता था पर किसी तरह वह इसे अपने अंदर समेटे हुए थी.

उस के कान पति रविशंकर की कमीज की जेब में रखे मोबाइल फोन की घंटी पर लगे थे. उसे बेटे के फोन का इंतजार था क्योंकि पिछले सप्ताह ही बेटे को रिटायर होने तथा घर बदलने की सूचना दे दी थी. आज कम से कम बेटा फोन तो करेगा ही, कुछ तो पूछेगा, ‘मां, छोटे घर में कैसे रहोगी? घर का साजोसामान कैसे वहां सैट होगा? मैं आप दोनों का यहां आने का प्रबंध करता हूं आदि.’ लेकिन मोबाइल फोन बिलकुल खामोश था. विमला के दिल में एक टीस उभर गई.

‘‘आप का फोन चार्ज तो है?’’ विमला ने धीरे से पूछा.

‘‘हां, फोन फुलचार्ज है,’’ रविशंकर ने जेब में से फोन निकाल कर देखा.

‘‘नैटवर्क तो आ रहा है?’’

‘‘हां भई, नैटवर्क भी आ रहा है. लेकिन यह सब क्यों पूछ रही हो?’’ रविशंकर झुंझलाते हुए बोले.

‘‘नहीं, कुछ नहीं,’’ कहते हुए विमला ने अपना मुंह फेर लिया और रसोईघर के अंदर चली गई. वह अपनी आंखों से बहते आंसुओं को रविशंकर को नहीं दिखाना चाहती थी.

सारा सामान ट्रक में लद चुका था. विमला की बूढ़ी गृहस्थी अब नए ठिकाने की ओर चल पड़ी. घर वाकई बहुत छोटा था. एक छोटा सा कमरा, उस से सटा रसोईघर. छोटी सी बालकनी, बालकनी से लगता बाथरूम जोकि टौयलेट से जुड़ा था. विमला का यह फ्लैट दूसरी मंजिल पर था.

विमला को इस नए मकान में आए एक हफ्ता हो गया है. घर उस ने सैट कर लिया है. आसपड़ोस में अभी खास जानपहचान नहीं हुई है. विमला के नीचे वाले फ्लैट में उसी की उम्र की एक बुजुर्ग महिला अपने बेटेबहू के साथ रहती है. विमला से अब उस की थोड़ीथोड़ी बातचीत होने लगी है. शाम को बाजार जाने के लिए विमला नीचे उतरी तो वही बुजुर्ग महिला मिल गई. उस का नाम रुक्मणी है. एकदूसरे को देख कर दोनों मुसकराईं.

‘‘कैसी हो विमला?’’ रुक्मणी ने विमला से पूछा.

‘‘ठीक हूं. घर में समय नहीं कटता. यहां कहीं घूमनेटहलने के लिए कोई अच्छी जगह नहीं है?’’ विमला ने रुक्मणी से कहा.

‘‘अरे, तुम शाम को मेरे साथ पार्क चला करो. वहां हमउम्र बहुत सी महिलाएं आती हैं. मैं तो रोज शाम को जाती हूं. शाम को 1-2 घंटे अच्छे से कट जाते हैं. पार्क यहीं नजदीक ही है,’’ रुक्मणी ने कहा.

अगले दिन शाम को विमला ने सूती चरक लगी साड़ी पहनी, बाल बनाए, गरदन पर पाउडर छिड़का. विमला को आज यों तैयार होते देख रविशंकर ने टोका, ‘‘आज कुछ खास बात है क्या? सजधज कर जा रही हो?’’

‘‘हां, आज मैं रुक्मणी के साथ पार्क जा रही हूं,’’ विमला खुश होती हुई बोली.

विमला को बहुत दिनों बाद यों चहकता देख रविशंकर को अच्छा लगा, क्योंकि विमला जब से यहां आई है, घर के अंदर ही अंदर घुट सी रही थी.

विमला और रुक्मणी दोनों पार्क की तरफ चल दीं. पार्क में कहीं बच्चे खेल रहे थे तो कहीं कुछ लोग पैदल घूम रहे थे ताकि स्वस्थ रहें. वहीं, एक तरफ बुजुर्ग महिलाओं का गु्रप था. विमला को ले कर रुक्मणी भी महिलाओं के ग्रुप में शामिल हो गई.

सभी बुजुर्ग महिलाओं की बातों में दर्द, चिंता भरी थी. कहने को तो सभी बेटेबहुओं व भरेपूरे परिवारों के साथ रहती थीं, लेकिन उन का मानसम्मान घर में ना के बराबर था. किसी को चाय समय पर नहीं मिलती तो किसी को खाना, कोई बीमारी में दवा, इलाज के लिए तरसती रहती. दो वक्त की रोटी खिलाना भी बेटेबहुओं को भारी पड़ रहा था.

इन महिलाओं की जिंदगी की शाम घोर उपेक्षा में कट रही थी. शाम के ये चंद लमहे वे आपस में बोलबतिया कर, अपने दिलों की कहानी सुना कर काट लेती थीं. अंधेरा घिरने लगा था. अब सभी घर जाने की तैयारी करने लगीं. विमला और रुक्मणी भी अपने घर की ओर बढ़ गईं.

घर पहुंच कर विमला कुरसी पर बैठ गई. पार्क में बुजुर्ग महिलाओं की बातें सुन कर उस का मन भर आया. वह सोचने लगी कि बुजुर्ग मातापिता तो उस बड़े पेड़ की तरह होते हैं जो अपना प्यार, घनी छावं अपने बच्चों को देना चाहते हैं लेकिन बच्चे तो इस छावं में बैठना ही नहीं चाहते. तभी रविशंकर रसोई से चाय बना कर ले आए.

‘‘लो भई, तुम्हारे लिए गरमागरम चाय बना दी है. बताओ, पार्क में कैसा लगा?’’

विमला पति को देख कर मुसकरा दी. जवाब में इतना ही बोली, ‘‘अच्छा लगा,’’ फिर चाय की चुस्की लेने के साथ मुसकराती हुई बोली, ‘‘सुनो, कल आप आलू की टिक्की खाने को कह रहे थे, आज रात के खाने में वही बनाऊंगी. और हां, आप कुछ छोटे गमले सीढ़ी तथा बालकनी में रखना चाहते थे, तो आप कल माली को कह दीजिए कि वह गमले दे जाए, हरीमिर्च, टमाटर के पौधे लगा लेंगे. थोड़ी बागबानी करते रहेंगे तो समय भी अच्छा कटेगा,’’ यह कहते हुए विमला खाली कप उठा कर रसोई में चली गई और सोचने लगी कि हम दोनों एकदूसरे को छावं दें और संतुष्ट रहें.

रविशंकर हैरान थे. कल तक वे विमला को कुछ खास पकवान बनाने को कहते थे तो विमला दुखी आवाज में एक ही बात कहती थी, ‘क्या करेंगे पकवान बना कर, परिवार तो है नहीं. बेटेबहू, नातीपोते साथ रहते, तो इन सब का अलग ही आनंद होता.’ गमलों के लिए भी वे कब से कह रहे थे पर विमला ने हामी नहीं भरी. विमला में यह बदलाव रविशंकर को सुखद लगा.

रसोईघर से कुकर की सीटी की आवाज आ रही थी. विमला ने टिक्की बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी. घर में मसालों की खुशबू महकने लगी थी. रविशंकर कुरसी पर बैठेबैठे गीत गुनगुनाने लगे. आज उन्हें लग रहा था जैसे बहुत दिनों बाद उन की गृहस्थी की गाड़ी वापस पटरी पर लौट आई है… Hindi Story

Story In Hindi: प्रतिक्रिया – असीम ने कौनसा सवाल पूछा था

Story In Hindi: उस बेढंगे से आदमी का चेहरा मुझे आज भी याद है. वह शायद मेरे भाषण की समाप्ति की प्रतीक्षा ही कर रहा था. वक्ताओं की सूची में उस का कहीं नाम न था, किंतु मेरे तुरंत बाद उस ने बिना संयोजक की अनुमति के ही माइक संभाल लिया और धाराप्रवाह बोलना शुरू कर दिया.

वह बहुत उम्दा बोल रहा था और श्रोता उस के भाषण से प्रभावित भी लग रहे थे. एकाएक ही उस ने कड़ा रुख अपना लिया. वह कह रहा था, ‘‘मेरी बात कान खोल कर सुन लो. जब तक देश में ये राक्षस मौजूद हैं, हिंदी यहां कभी फलफूल नहीं सकती. ये लोग अपने को हिंदी के सेवक और प्रचारक बताते हैं. लंबेलंबे भाषण देते हैं. दूसरों को उपदेश देते हैं और स्वयं…मैं इन लोगों से पूछना चाहूंगा कि इन में से ऐसे कितने हिंदीसेवी हैं, जिन के बच्चे अंगरेजी स्कूलों में नहीं पढ़ते.’’

उस का संकेत व्यक्तिगत रूप से मेरी ओर नहीं था. मुझे तो इस से पूर्व वह कभी मिला भी नहीं था. मगर तब लगा यही था कि उस ने यह तमाचा मेरे ही गाल पर जड़ा है.

मैं कई दिनों तक उधेड़बुन में रहा. फिर मैं ने अपना निर्णय घर में और मित्रों के बीच सुना दिया था. यह बात नहीं कि मुझे तब किसी ने टोका या समझाया नहीं था. सभी ने एक ही बात कही थी, ‘‘आप गलती कर रहे हैं. इस तरह भावुकता में आ कर बच्चे का भविष्य तबाह करना कहां की अक्लमंदी है?’’

किंतु मैं तो भावनाओं की बाढ़ में बह ही चुका था. असीम के स्कूल जा कर मैं ने उस का तबादला प्रमाणपत्र प्राप्त कर लिया. हिंदी माध्यम स्कूल में उसे आसानी से प्रवेश मिल गया. स्कूल बदलते हुए उस ने मामूली सी आपत्ति उठाई थी. वह शायद थोड़ा सा रोया भी था, किंतु मेरे आदर्शवादी भाषण और पुचकार के आगे उस ने शीघ्र ही घुटने टेक दिए और एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह वह कंधे पर बस्ता लटका कर नए स्कूल जाने लगा.

मैं उसे बाद में भी समझाता रहा कि यह नया स्कूल मामूली नहीं है. यह सरकारी स्कूल है जहां अंगरेजी स्कूलों के अनुपात में अध्यापकों को तीनगुना वेतन मिलता है. सभी अध्यापक योग्य और प्रशिक्षित हैं. इन्हीं स्कूलों में पढ़े हुए कितने ही विद्यार्थी बाद में ऊंचे पदों पर पहुंचे हैं. तुम भी मन लगा कर मेहनत करो और बड़े आदमी बनो.

किंतु असीम बुझाबुझा सा रहने लगा था. अब वह स्कूल जाते समय न स्कूल की वरदी की परवा करता और न पहले की तरह जूते चमकाता. पहले साल वह काफी अच्छे अंक ले कर पास हुआ. किंतु अगले वर्ष न जाने क्या हुआ, वह मध्य स्तर के विद्यार्थियों में गिना जाने लगा. स्कूल में उस का कोई मित्र न था. अब वह किसी खेल या नाटक आदि में भी भाग न लेता. मैं कुछ समझाता तो वह चुपचाप बैठा जमीन की ओर देखता रहता. एक दिन सोचा कि स्कूल जा कर पता किया जाए. किंतु स्कूल की दशा देख कर दिल धक से रह गया. अनुशासन नाम की वहां कोई चीज ही न थी. अध्यापक गप्पें हांकने या अखबार पढ़ने में व्यस्त थे. अध्यापिकाएं स्वेटर बुन रही थीं और आपस में दुखसुख की बातें कर रही थीं. बच्चे शोर मचा रहे थे, मारपीट कर रहे थे या डेस्कों पर तबला बजाते हुए फिल्मी गाने गा रहे थे. असीम कक्षा में एक कोने में गुमसुम बैठा था. वह न पढ़लिख रहा था और न अन्य बच्चों की किसी गतिविधि में ही शामिल था.

मैं प्रिंसिपल साहब के कमरे में गया. चाहा कि उन से स्कूल की दशा के बारे में बातचीत करूं, किंतु मेरे कुछ कहने से पूर्व ही वह अखबार को एक ओर पटक कर मुझ पर झपट पड़े और बोले, ‘‘मैं पत्र लिख कर आप को बुलाने ही वाला था. आप अपने लड़के की बिलकुल परवा नहीं कर रहे हैं. मेरे स्कूल में तो ऐसा नहीं चलेगा. बहुत मुश्किल होगा इस तरह तो. घर पर इस का मार्गदर्शन कीजिए या पढ़ाने के लिए घर पर किसी अध्यापक की व्यवस्था कीजिए, वरना…’’

असीम को इस स्कूल से निकाल कर पुन: पहले वाले स्कूल में दाखिल कराना संभव नहीं था. वहां न तो उसे प्रवेश मिल सकता था और न वह अब इस योग्य ही रह गया था कि वहां के स्तर पर अपने को चला सके. मैं ने इस विषय में उस के लिए ट्यूशन का प्रबंध कर दिया. किंतु उस का तो अब सभी विषयों में बुरा हाल था.

उस ने मरखप कर हाईस्कूल पास कर लिया. इंटर में भी उस के कुछ अच्छे अंक नहीं रहे. उसी तरह उस ने बी.ए. में रेंगना शुरू कर दिया. मैं ने उस से पूछा कि यदि वह पढ़ना नहीं चाहता तो कोई हाथ का काम सीखने की कोशिश करे. मगर उस ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया.

वैसे भी वह अब मुझ से कम ही बात करता था. उस का शरीर सूख सा गया था. दाढ़ी बढ़ा ली थी. हर रोज वह कंधे पर थैला लटका कर न जाने किधर चल देता और कभीकभी शाम को भी लौट कर घर न आता.

उस के पुराने साथी कामधंधे पर लग गए थे. उन में से कुछ अफसर भी चुन लिए गए थे, किंतु असीम कितनी ही प्रतियोगिताओं में भाग लेने के बावजूद किसी साधारण पद के लिए भी नहीं चुना गया था.

एक दिन वह सुबह का नाश्ता ले कर और हर रोज की तरह कंधे पर थैला लटका कर घर से निकलने ही लगा था कि मैं ने रोक कर पूछा, ‘‘ऐसा कब तक चलेगा?’’

वह चुपचाप मेरी ओर देखता रहा, तो मैं ने पूछा, ‘‘तुम क्या समझते हो, यह सब ठीक कर रहे हो?’’ इस बार उस ने नजर उठा कर मेरी ओर देखा और सधे हुए लहजे में बोला, ‘‘आप ने जो मेरे साथ किया, क्या वह ठीक था?’’

‘‘मैं ने क्या किया?’’

‘‘अपने खोखले आदर्शों की बलिवेदी पर मुझे चढ़ा दिया, यह अच्छा किया आप ने?’’

मैं उसे कोई उत्तर न दे सका. यह भी नहीं समझा सका कि ये आदर्श खोखले नहीं हैं. खोखली है यह व्यवस्था जिस की चक्की के पाट कमजोर नहीं हैं और इन पाटों के बीच कुछ लोग नहीं, युग भी पिस कर रह जाते हैं.

जब वह चला गया तो मैं ने गौर किया कि मेरे अपने बेटे का चेहरा उस दिन मंच पर भाषण देने वाले बेढंगे से आदमी के चेहरे से कितना मेल खाने लगा है. Story In Hindi

Hindi Short Story: शायद – क्या शगुन के माता-पिता उसकी भावनाएं जान पाए?

Hindi Short Story, लेखिका – शशि उप्पल

शगुन स्कूल बस से उतर कर कुछ क्षण स्टाप पर खड़ा धूल उड़ाती बस को देखता रहा. जब वह आंखों से ओझल हो गई, तब घर की ओर मुड़ा. दरवाजे की चाबी उस के बैग में ही थी. ताला खोल कर वह अपने कमरे में चला गया. दीवार घड़ी में 3 बज रहे थे.

शगुन ने अनुमान लगाया कि मां लगभग ढाई घंटे बाद आ जाएंगी और पिता 3 घंटे बाद. हाथमुंह धो कर वह रसोईघर में चला गया. मां आलूमटर की सब्जी बना कर रख गई थीं. उसे भूख तो बहुत लग रही थी, परंतु अधिक खाया नहीं गया. बचा हुआ खाना उस ने कागज में लपेट कर घर के पिछवाड़े फेंक दिया. खाना पूरा न खाने पर मां और पिता नाराज हो जाते थे.

फिर शीघ्र ही शगुन कमरे में जा कर सोने का प्रयत्न करने लगा. जब नींद नहीं आई तो वह उठ कर गृहकार्य करने लगा. हिंदी, अंगरेजी का काम तो कर लिया परंतु गणित के प्रश्न उसे कठिन लगे, ‘शाम को पिताजी से समझ लूंगा,’ उस ने सोचा और खिलौने निकाल कर खेलने बैठ गया.

शालिनी दफ्तर से आ कर सीधी बेटे के कमरे में गई. शगुन खिलौनों के बीच सो रहा था. उस ने उसे प्यार से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया.

समीर जब 6 बजे लौटा तो देखा कि मांबेटा दोनों ही सो रहे हैं. उस ने हौले से शालिनी को हिलाया, ‘‘इस समय सो रही हो, तबीयत तो ठीक है न ’’

शालिनी अलसाए स्वर में बोली, ‘‘आज दफ्तर में काम बहुत था.’’

‘‘पर अब तो आराम कर लिया न. अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जाओ. सुरेश ने 2 पास भिजवाए हैं…किसी अच्छे नाटक के हैं.’’

‘‘कौन सा नाटक है ’’ शालिनी आंखें मूंदे हुए बोली, ‘‘आज कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही है.’’

‘‘अरे, ऐसा अवसर बारबार नहीं मिलता. सुना है, बहुत बढि़या नाटक है. अब जल्दी करो, हमें 7 बजे तक वहां पहुंचना है.’’

‘‘और शगुन को कहां छोड़ें  रोजरोज शैलेशजी को तकलीफ देना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अरे भई, रोजरोज कहां  वैसे भी पड़ोसियों का कुछ तो लाभ होना चाहिए. मौका आने पर हम भी उन की सहायता कर देंगे,’’ समीर बोला.

जब शालिनी तैयार होने गई तो समीर शगुन के पास गया, ‘‘शगुन, उठो. यह क्या सोने का समय है ’’

शगुन में उठ कर बैठ गया. पिता को सामने पा कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई.

‘‘जल्दी से नाश्ता कर लो. मैं और तुम्हारी मां कहीं बाहर जा रहे हैं.’’

शगुन का चेहरा एकाएक बुझ गया. वह बोला, ‘‘पिताजी, मेरा गृहकार्य पूरा नहीं हुआ है. गणित के प्रश्न बहुत कठिन थे. आप…’’

‘‘आज मेरे पास बिलकुल समय नहीं है. कक्षा में क्यों नहीं ध्यान देता  ठीक है, शैलेशजी से पूछ लेना. अब जल्दी करो.’’

शगुन दूध पी कर शैलेशजी के घर चला गया. वह जानता था कि जब तक मां और पिताजी लौटेंगे, वह सो चुका होगा. सदा ऐसा ही होता था. शैलेशजी और उन की पत्नी टीवी देखते रहते थे और वह कुरसी पर बैठाबैठा ऊंघता रहता था. उन के बच्चे अलग कमरे में बैठ कर अपना काम करते रहते थे. आरंभ में उन्होंने शगुन से मित्रता करने की चेष्टा की थी परंतु जब शगुन ने ढंग से उन से बात तक न की तो उन्होंने भी उसे बुलाना बंद कर दिया था. अब भला वह बात करता भी तो कैसे  उसे यहां इस प्रकार आ कर बैठना अच्छा ही नहीं लगता था. जब वह शैलेशजी को अपने बच्चों के साथ खेलता देखता, उन्हें प्यार करते देखता तो उसे और भी गुस्सा आता.

शगुन अपनी गृहकार्य की कापी भी साथ लाया था, परंतु उस ने शैलेशजी से प्रश्न नहीं समझे और हमेशा की तरह कुरसी पर बैठाबैठा सो गया.

अगली सुबह जब वह उठा तो घर में सन्नाटा था. रविवार को उस के मातापिता आराम से ही उठते थे. वह चुपचाप जा कर बालकनी में बैठ कर कौमिक्स पढ़ने लगा. जब देर तक कोई नहीं उठा तो वह दरवाजा खटखटाने लगा.

‘‘क्यों सुबहसुबह परेशान कर रहे हो  जाओ, जा कर सो जाओ,’’ समीर झुंझलाते हुए बोला.

‘‘मां, भूख लगी है,’’ शगुन धीरे से बोला.

‘‘रसोई में से बिस्कुट ले लो. थोड़ी देर में नाश्ता बना दूंगी,’’ शालिनी ने उत्तर दिया.

शगुन चुपचाप जा कर अपने कमरे में बैठ गया. उस की कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रह गई थी.

दोपहर के खाने के बाद समीर और शालिनी का किसी के यहां ताश खेलने का कार्यक्रम था, ‘‘वहां तुम्हारे मित्र नीरज और अंजलि भी होंगे,’’ शालिनी शगुन को तैयार करती हुई बोली.

‘‘मां, आज चिडि़याघर चलो न. आप ने पिछले सप्ताह भी वादा किया था,’’ शगुन मचलता हुआ बोला.

‘‘बेटा, आज वहां नहीं जा पाएंगे. गिरीशजी से कह रखा है. अगले रविवार अवश्य चिडि़याघर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, आज ही,’’ शगुन हठ करने लगा, ‘‘पिछले रविवार भी आप ने वादा किया था. आप मुझ से झूठ बोलती हैं… मेरी बात भी नहीं मानतीं. मैं नहीं जाऊंगा गिरीश चाचा के यहां,’’ वह रोता हुआ बोला.

तभी समीर आ गया, ‘‘यह क्या रोना- धोना मचा रखा है. चुपचाप तैयार हो जा, चौथी कक्षा में आ गया है, पर आदतें अभी भी दूधपीते बच्चे जैसी हैं. जब देखो, रोता रहता है. इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, बढि़या से बढि़या खिलौने ले कर देते हैं…’’

‘‘मैं गिरीश चाचा के घर नहीं जाऊंगा,’’ शगुन रोतेरोते बोला, ‘‘वहां नीरज, अंजलि मुझे मारते हैं. अपने साथ खेलाते भी नहीं. वे गंदे हैं. मेरे सारे खिलौने तोड़ देते हैं और अपने दिखाते तक नहीं. वे मूर्ख हैं. उन की मां भी मूर्ख हैं. वे भी मुझे ही डांटती हैं, अपने बच्चों को कुछ नहीं कहती हैं.’’

समीर ने खींच कर एक थप्पड़ शगुन के गाल पर जमाया, ‘‘बदतमीज, बड़ों के लिए ऐसा कहा जाता है. जितना लाड़प्यार दिखाते हैं उतना ही बिगड़ता जाता है. ठीक है, मत जा कहीं भी, बैठ चुपचाप घर पर. शालिनी, इसे कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दो. इसे बदतमीजी की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

शालिनी लिपस्टिक लगा रही थी, बोली, ‘‘रहने दो न, बच्चा ही तो है. शगुन, अगले रविवार जहां कहोगे वहीं चलेंगे. अब जल्दी से पिताजी से माफी मांग लो.’’

शगुन कुछ क्षण पिता को घूरता रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मांगूंगा माफी. आप भी मूर्ख हैं, रोज मुझे मारती हैं.’’

समीर ने शगुन का कान उमेठा, ‘‘माफी मांगेगा या नहीं ’’

‘‘नहीं मांगूंगा,’’ वह चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं. रोज मुझे शैलेश चाचा के घर छोड़ जाते हैं. कभी प्यार नहीं करते. चिडि़याघर भी नहीं ले जाते. नहीं मांगूंगा माफी…गंदे, थू…’’

समीर क्रोध में आपे से बाहर हो गया, ‘‘तुझे मैं ठीक करता हूं,’’ उस ने शगुन को कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दिया.

शगुन देर तक कमरे में सिसकता रहा. उस दिन से उस में एक अक्खड़पन आ गया. उस ने अपनी कोई भी इच्छा व्यक्त करनी बंद कर दी. जैसा मातापिता कहते, यंत्रवत कर लेता, पर जैसेजैसे बड़ा होता गया वह अंदर ही अंदर घुटने लगा. 10वीं कक्षा के बाद पिता के कहने से उसे विज्ञान के विषय लेने पड़े. पिता उसे डाक्टर बनाने पर तुले हुए थे. शगुन की इच्छाओं की किसे परवा थी और मां भी जो पिता कहते, उसे ही दोहरा देतीं.

एक दिन दफ्तर के लिए तैयार होती हुई शालिनी बोली, ‘‘शगुन का परीक्षाफल शायद आज घोषित होने वाला है…तुम जरा पता लगाना.’’

‘‘क्यों, क्या शगुन इतना भी नहीं कर सकता,’’ समीर नाश्ता करता हुआ बोला, ‘‘जब पढ़ाईलिखाई में रुचि ही नहीं ली तो परिणाम क्या होगा.’’

‘‘ओहो, वह तो मैं इसलिए कह रही थी ताकि कुछ जल्दी…’’ वह टिफिन बाक्स बंद करती हुई बोली.

‘‘तुम्हें जल्दी होगी जानने की…मुझे तो अभी से ही मालूम है, पर मैं फिर कहे देता हूं यदि यह मैडिकल में नहीं आया तो इस घर में इस के लिए कोई स्थान नहीं है.  जा कर करे कहीं चपरासीगीरी, मेरी बला से.’’

‘‘तुम भी हद करते हो. एक ही तो बेटा है, यदि दोचार होते तो…’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूं. एक ही इतना सिरदर्द बना हुआ है. क्या नहीं दिया हम ने इसे  फिर भी कभी दो घड़ी पास बैठ कर बात नहीं करता. पता नहीं सारा समय कमरे में घुसा क्या करता रहता है ’’ एकाएक समीर उठ कर शगुन के कमरे में पहुंच गया.

शगुन अचानक पिता को सामने देख कर अचकचा गया. जल्दी से उस ने ब्रश तो छिपा लिया परंतु गीली पेंटिंग न छिपा सका. पेंटिंग को देखते ही समीर का पारा चढ़ गया. उस ने बिना एक नजर पेंटिंग पर डाले ही उस को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिया, ‘‘तो यह हो रही है मैडिकल की तैयारी. किसे बेवकूफ बना रहे हो, मुझे या स्वयं को  वहां महंगीमहंगी पुस्तकें पड़ी धूल चाट रही हैं और यह लाटसाहब बैठे चिडि़यातोते बनाने में समय गंवा रहे हैं. कुछ मालूम है, आज तुम्हारा नतीजा निकलने वाला है.’’

‘‘जी पिताजी. मनोज बता रहा था,’’ शगुन धीरे से बोला. उस की दृष्टि अब भी अपनी फटी हुई पेंटिंग पर थी.

‘‘मनोज के सिवा भी किसी को जानते हो क्या  जाने क्या करेगा आगे चल कर…’’ समीर बोलता चला जा रहा था.

शालिनी को दफ्तर के लिए देर हो रही थी. वह बोली, ‘‘शगुन, मुझे फोन अवश्य कर देना. तुम्हारा खाना रसोई में रखा है, खा लेना.’’

मातापिता के जाते ही शगुन एक बार फिर अकेला हो गया. बचपन से ही यह सिलसिला चला आ रहा था. स्कूल से आ कर खाली घर में प्रवेश करना, फिर मातापिता की प्रतीक्षा करना. उस के मित्र उन्हें पसंद नहीं आते थे. बचपन में वह जब भी किसी को घर बुलाता था तो मातापिता को यही शिकायत रहती थी कि घर गंदा कर जाते हैं. महंगे खिलौने खराब कर जाते हैं. अकेला कहीं वह आजा नहीं सकता था क्योंकि मातापिता को सदा किसी दुर्घटना का अंदेशा रहता था.

शगुन के कई मित्र स्कूटर, मोटर- साइकिल चलाने लगे थे, पर उस के पिता ने कड़ी मनाही कर रखी थी. बस जब देखो अपने घिसेपिटे संवाद दोहराते रहते थे, ‘हम तो 8 भाईबहन थे. पिताजी के पास इतने रुपए नहीं थे कि किसी को डाक्टर बना सकते. मेरी तो यह हसरत मन में ही रह गई, पर तेरे पास तो सबकुछ है,’ और मां सदा यही पूछती रहती थीं, ‘ट्यूटर चाहिए, पुस्तकें चाहिए, बोल क्या चाहिए ’

पर शगुन कभी नहीं बता पाया कि उसे क्या चाहिए. वह सोचता, ‘मातापिता जानते तो हैं कि मेरी रुचि कला में है, मैं सुंदरसुंदर चित्र बनाना चाहता हूं, रंगबिरंगे आकार कागज पर सजाना चाहता हूं. इस में इनाम जीतने पर भी डांट पड़ती है कि बेकार समय नष्ट कर रहा हूं. उन्होंने कभी मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं की.’

तभी मनोज आ गया. शगुन उस से बोला, ‘‘यार, बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है. ‘फाइन आर्ट्स’ ही तो करना चाहता है न ’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता है,’’ शगुन कड़वाहट से बोला, ‘‘मेरे पिता को तो मानो मेरी इच्छाओं का गला घोंटने में मजा आता है.’’

मनोज उस को समझ नहीं पाता था. उसे अचरज होता था कि इतना सब होने पर भी शगुन उदास क्यों रहता है.

स्कूल पहुंचते ही दोनों ने नोटिस बोर्ड पर अपने अंक देखे. अपने 54 प्रतिशत अंक देख कर मनोज प्रसन्न हो गया, ‘‘चलो, पास हो गया, पर तू मुंह लटकाए क्यों खड़ा है, तेरे तो 65 प्रतिशत अंक हैं.’’

शगुन बिना कुछ बोले घर की ओर चल दिया. वह मातापिता पर होने वाली प्रतिक्रिया के विषय में सोच रहा था, ‘मां तो निराश हो कर रो लेंगी, परंतु पिताजी  वे तो पिछले 2 वर्षों से धमकियां दे रहे थे.’

उस ने मां को फोन किया. चुपचाप कमरे में जा कर बैठ गया. शगुन रेंगती हुई घड़ी की सूइयों को देख रहा था और सोच रहा था. जब 5 बज गए तो वह झट बिस्तर से उठा. उस ने अलमारी में से कुछ रुपए निकाले और घर से बाहर आ गया.

समीर जब दफ्तर से लौटा तो शालिनी पर बरसने लगा, ‘‘कहां है तुम्हारा लाड़ला  कितना समझाया था कि मेहनत कर ले…पर मैं तो केवल बकता हूं न.’’

शालिनी वैसे ही परेशान थी. बोली, ‘‘आज उस ने खाना भी नहीं खाया. कहां गया होगा. बिना बताए तो कहीं जाता ही नहीं है.’’

जब रात के 9 बजे तक भी शगुन नहीं लौटा तो मातापिता को चिंता होने लगी. 2-3 जगह फोन भी किए परंतु कुछ मालूम न हो सका. शगुन के कोई ऐसे खास मित्र भी नहीं थे, जहां इतनी रात तक बैठता.

11 बजे समीर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा आया. शालिनी ने सब अस्पतालों में भी फोन कर के पूछ लिया. सारी रात दोनों बेटे की प्रतीक्षा में बैठे रहे. लेकिन शगुन का कुछ पता न चला. शालिनी की तो रोरो कर आंखें दुखने लगी थीं और समीर तो मानो 10 दिन में ही 10 वर्ष बूढ़ा हो गया था.

एक दिन शगुन की अध्यापिका शालिनी से मिलने आईं तो अपने साथ एक डायरी भी ले आईं, ‘‘एक बार शगुन ने मुझे यह डायरी भेंट में दी थी. इस में उस की कविताएं हैं. बहुत ही सुंदर भाव हैं. आप यह रख लीजिए, पढ़ कर आप के मन को शांति मिलेगी.’’

शालिनी ने डायरी ले ली परंतु वह यही सोचती रही, ‘शगुन कविताएं कब लिखता था  मुझ से तो कभी कुछ नहीं कहा.’

शाम को जब समीर आया तो शालिनी अधीरता से बोली, ‘‘समीर, क्या तुम जानते हो कि शगुन न केवल सुंदर चित्र बनाता था बल्कि बहुत सुंदर कविताएं भी लिखता था. हम अपने बेटे को बिलकुल नहीं जानते थे. हम उसे केवल एक रेस का घोड़ा मान कर प्रशिक्षित करते रहे, पर इस प्रयास में हम यह भूल गए कि उस की अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं. हम अपने सपने उस पर थोपते रहे और वह मासूम निरंतर उन के बोझ तले दबता रहा.’’

समीर ने शालिनी से डायरी ले ली और बोला, ‘‘आज मैं मनोज से भी मिला था.’’

‘‘वह तो तुम्हें कतई नापसंद था,’’ शालिनी ने विस्मित हो कर कहा.

‘‘बड़ा प्यारा लड़का है,’’ समीर शालिनी की बात अनसुनी करता हुआ बोला, ‘‘उस से मिल कर ऐसा लगा, मानो शगुन लौट आया हो. शालिनी, शगुन मुझे जान से भी प्यारा है. यदि वह लौट कर नहीं आया तो मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ समीर की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘नहीं, समीर,’’ शालिनी दृढ़ता से बोली, ‘‘शगुन आत्महत्या नहीं कर सकता, जो इतने सुंदर चित्र बना सकता है, इतनी सुंदर कविताएं लिख सकता है, वह जीवन से मुंह नहीं मोड़ सकता.’’

‘‘हां, हम ने उसे समझने में जो भूल की, वह हमें उस की सजा देना चाहता है,’’ समीर भरे गले से बोला.

शालिनी शगुन की डायरी खोल कर एक कविता की पंक्तियां पढ़ कर सुनाने लगी,

‘खेल और खिलौने, आडंबर और अंबार हैं.

बांट लूं किसी के संग उस पल का इंतजार है.’

उस समय दोनों यही सोच रहे थे कि यदि शगुन की कोई बहन या भाई होता तो वह शायद स्वयं को इतना अकेला कभी भी महसूस न करता और तब शायद. Hindi Short Story

Hindi Story: आखिर कहां तक – किस बात से उसका मन घबरा रहा था

Hindi Story: लेकिन बुढ़ापे में अकसर बहुतों के साथ ऐसा होता है जैसा मनमोहन के साथ हुआ. रात के लगभग साढे़ 12 बजे का समय रहा होगा. मैं सोने की कोशिश कर रहा था. शायद कुछ देर में मैं सो भी जाता तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया.

इतनी रात को कौन आया है, यह सोच कर मैं ने दरवाजा खोला तो देखा हरीश खड़ा है.

हरीश ने अंदर आ कर लाइट आन की फिर कुछ घबराया हुआ सा पास बैठ गया.

‘‘क्यों हरीश, क्या बात है इतनी रात गए?’’

हरीश ने एक दीर्घ सांस ली, फिर बोला, ‘‘नीलेश का फोन आया था. मनमोहन चाचा…’’

‘‘क्या हुआ मनमोहन को?’’ बीच में उस की बात काटते हुए मैं उठ कर बैठ गया. किसी अज्ञात आशंका से मन घबरा उठा.

‘‘आप को नीलेश ने बुलाया है?’’

‘‘लेकिन हुआ क्या? शाम को तो वह हंसबोल कर गए हैं. बीमार हो गए क्या?’’

‘‘कुछ कहा नहीं नीलेश ने.’’

मैं बिस्तर से उठा. पाजामा, बनियान पहने था, ऊपर से कुरता और डाल लिया, दरवाजे से स्लीपर पहन कर बाहर निकल आया.

हरीश ने कहा, ‘‘मैं बाइक निकालता हूं, अभी पहुंचा दूंगा.’’

मैं ने मना कर दिया, ‘‘5 मिनट का रास्ता है, टहलते हुए पहुंच जाऊंगा.’’

हरीश ने ज्यादा आग्रह भी नहीं किया.

महल्ले के छोर पर मंदिर वाली गली में ही तो मनमोहन का मकान है. गली में घुसते ही लगा कि कुछ गड़बड़ जरूर है. घर की बत्तियां जल रही थीं. दरवाजा खुला हुआ था. मैं दरवाजे पर पहुंचा ही था कि नीलेश सामने आ गया. बाहर आ कर मेरा हाथ पकड़ा.

मैं ने  हाथ छुड़ा कर कहा, ‘‘पहले यह बता कि हुआ क्या है? इतनी रात  गए क्यों बुलाया भाई?’’ मैं अपनेआप को संभाल नहीं पा रहा था इसलिए वहीं दरवाजे की सीढ़ी पर बैठ गया. गरमी के दिन थे, पसीनापसीना हो उठा था.

‘‘मुन्नी, एक गिलास पानी तो ला चाचाजी को,’’ नीलेश ने आवाज दी और उस की छोटी बहन मुन्नी तुरंत स्टील के लोटे में पानी ले कर आ गई.

हरीश ने लोटा मेरे हाथों में थमा दिया. मैं ने लोटा वहीं सीढि़यों पर रख दिया. फिर नीलेश से बोला, ‘‘आखिर माजरा क्या है? मनमोहन कहां हैं? कुछ बताओगे भी कि बस, पहेलियां ही बुझाते रहोगे?’’

‘‘वह ऊपर हैं,’’ नीलेश ने बताया.

‘‘ठीकठाक तो हैं?’’

‘‘जी हां, अब तो ठीक ही हैं.’’

‘‘अब तो का क्या मतलब? कोई अटैक वगैरा पड़ गया था क्या? डाक्टर को बुलाया कि नहीं?’’ मैं बिना पानी पिए ही उठ खड़ा हुआ और अंदर आंगन में आ गया, जहां नीलेश की पत्नी सुषमा, बंटी, पप्पी, डौली सब बैठे थे. मैं ने पूछा, ‘‘रामेश्वर कहां है?’’

‘‘ऊपर हैं, दादाजी के पास,’’ बंटी ने बताया.

आंगन के कोने से लगी सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर पहुंचा. सामने वाले कमरे के बीचों- बीच एक तखत पड़ा था. कमरे में मद्धम रोशनी का बल्ब जल रहा था. एक गंदे से बिस्तर पर धब्बेदार गिलाफ वाला तकिया और एक पुराना फटा कंबल पैताने पड़ा था. तखत पर मनमोहन पैर लटकाए गरदन झुकाए बैठे थे. फिर नीचे जमीन पर बड़ा लड़का रामेश्वर बैठा था.

‘‘क्या हुआ, मनमोहन? अब क्या नाटक रचा गया है? कोई बताता ही नहीं,’’ मैं धीरेधीरे चल कर मनमोहन के करीब गया और उन्हीं के पास बगल में तखत पर बैठ गया. तखत थोड़ा चरमराया फिर उस की हिलती चूलें शांत हो गईं.

‘‘तुम बताओ, रामेश्वर? आखिर बात क्या है?’’

रामेश्वर ने छत की ओर इशारा किया. वहां कमरे के बीचोंबीच लटक रहे पुराने बंद पंखे से एक रस्सी का टुकड़ा लटक रहा था. नीचे एक तिपाई रखी थी.

‘‘फांसी लगाने को चढ़े थे. वह तो मैं ने इन की गैंगैं की घुटीघुटी आवाज सुनी और तिपाई गिरने की धड़ाम से आवाज आई तो दौड़ कर आ गया. देखा कि रस्सी से लटक रहे हैं. तुरंत ही पैर पकड़ कर कंधे पर उठा लिया. फिर नीलेश को आवाज दी. हम दोनों ने मिल कर जैसेतैसे इन्हें फंदे से अलग किया. चाचाजी, यह मेरे पिता नहीं पिछले जन्म के दुश्मन हैं.

‘‘अपनी उम्र तो भोग चुके. आज नहीं तो कल इन्हें मरना ही है, लेकिन फांसी लगा कर मरने से तो हमें भी मरवा देते. हम भी फांसी पर चढ़ जाते. पुलिस की मार खाते, पैसों का पानी करते और घरद्वार फूंक कर इन के नाम पर फंदे पर लटक जाते.

‘‘अब चाचाजी, आप ही इन से पूछिए, इन्हें क्या तकलीफ है? गरम खाना नहीं खाते, चाय, पानी समय पर नहीं मिलता, दवा भी चल ही रही है. इन्हें कष्ट क्या है? हमारे पीछे हमें बरबाद करने पर क्यों तुले हैं?’’ रामेश्वर ने कुछ खुल कर बात करनी चाही.

‘‘लेकिन यह सब हुआ क्यों? दिन में कुछ झगड़ा हुआ था क्या?’’

‘‘कोई झगड़ाटंटा नहीं हुआ. दोपहर को सब्जी लेने निकले तो रास्ते में अपने यारदोस्तों से भी मिल आए हैं. बिजली का बिल भी भरने गए थे, फिर बंटी के स्कूल जा कर साइकिल पर उसे ले आए. हम ने कहीं भी रोकटोक नहीं लगाई. अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकते हैं. घर में इन का मन ही नहीं लगता,’’ रामेश्वर बोला.

‘‘लेकिन तुम लोगों ने इन से कुछ कहासुना क्या? कुछ बोलचाल हो गई क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे, नहीं चाचाजी, इन से कोई क्या कह सकता है. बात करते ही काटने को दौड़ते हैं. आज कह रहे थे कि मुझे अपना चेकअप कराना है. फुल चेकअप. वह भी डा. आकाश की पैथोलौजी लैब में. हम ने पूछा भी कि आखिर आप को परेशानी क्या है? कहने लगे कि परेशानी ही परेशानी है. मन घबरा रहा है. अकेले में दम घुटता है.

‘‘पिछले महीने ही मैं ने इन्हें सरकारी अस्पताल में डा. दिनेश सिंह को दिखाया था. जांच से पता चला कि इन्हें ब्लडप्रेशर और शुगर है…’’

तभी नीलेश पानी का गिलास ले कर आ गया. मैं ने पानी पी लिया. तब मैं ने ही पूछा, ‘‘रामेश्वर, यह तो बताओ कि पिछले महीने तुम ने इन का दोबारा चेकअप कराया था क्या?’’

‘‘नहीं, 2 महीने पहले डा. बंसल से कराया था न?’’ रामेश्वर बोला.

‘‘2 महीने पहले नहीं, जनवरी में तुम ने इन का चेकअप कराया था रामेश्वर, आज इस बात को 11 महीने हो गए. और चेकअप भी क्या था, शुगर और ब्लडप्रेशर. इसे तुम फुल चेकअप कहते हो?’’

‘‘नहीं चाचाजी, डाक्टर ने ही कहा था कि ज्यादा चेकअप कराने की जरूरत नहीं है. सब ठीकठाक है.’’

‘‘लेकिन रामेश्वर, इन का जी तो घबराता है, चक्कर तो आते हैं, दम तो घुटता है,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब आप से क्या कहूं चाचाजी,’’ रामेश्वर कह कर हंसने लगा. फिर नीलेश को इशारा कर बोला कि तुम अपना काम करो न जा कर, यहां क्या कर रहे हो.

बेचारा नीलेश चुपचाप अंदर चला गया. फिर रामेश्वर बोला, ‘‘चाचाजी, आप मेरे कमरे में चलिए. इन की मुख्य तकलीफ आप को वहां बताऊंगा,’’ फिर धूर्ततापूर्ण मुसकान फेंक कर चुप हो गया.

मैं मनमोहन के जरा और पास आ गया. रामेश्वर से कहा, ‘‘तुम अपने कमरे में चलो. मैं वहीं आ रहा हूं.’’

रामेश्वर ने बांहें चढ़ाईं. कुछ आश्चर्य जाहिर किया, फिर ताली बजाता हुआ, गरदन हिला कर सीटी बजाता हुआ कमरे से बाहर हो गया.

मैं ने मनमोहन के कंधे पर हाथ रखा ही था कि वह फूटफूट कर रोने लगे. मैं ने उन्हें रोने दिया. उन्होंने पास रखे एक मटमैले गमछे से नाक साफ की, आंखें पोंछीं लेकिन सिर ऊपर नहीं किया. मैं ने फिर आत्मीयता से उन के सिर पर हाथ फेरा. अब की बार उन्होंने सिर उठा कर मु़झे देखा. उन की आंखें लाल हो रही थीं. बहुत भयातुर, घबराए से लग रहे थे. फिर बुदबुदाए, ‘‘भैया राजनाथ…’’ इतना कह कर किसी बच्चे की तरह मुझ से लिपट कर बेतहाशा रोने लगे, ‘‘तुम मुझे अपने साथ ले चलो. मैं यहां नहीं रह सकता. ये लोग मुझे जीने नहीं देंगे.’’

मैं ने कोई विवाद नहीं किया. कहा, ‘‘ठीक है, उठ कर हाथमुंह धो लो और अभी मेरे साथ चलो.’’

उन्होंने बड़ी कातर और याचना भरी नजरों से मेरी ओर देखा और तुरंत तैयार हो कर खड़े हो गए.

तभी रामेश्वर अंदर आ गया, ‘‘क्यों, कहां की तैयारी हो रही है?’’

‘‘इस समय इन की तबीयत खराब है. मैं इन्हें अपने साथ ले जा रहा हूं, सुबह आ जाएंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘सुबह क्यों? साथ ले जा रहे हैं तो हमेशा के लिए ले जाइए न. आधी रात में मेरी प्रतिष्ठा पर मिट्टी डालने के लिए जा रहे हैं ताकि सारा समाज मुझ पर थूके कि बुड्ढे को रात में ही निकाल दिया,’’ वह अपने मन का मैल निकाल रहा था.

मैं ने धैर्य से काम लिया. उस से इतना ही कहा, ‘‘देखो, रामेश्वर, इस समय इन की तबीयत ठीक नहीं है. मैं समझाबुझा कर शांत कर दूंगा. इस समय इन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं है.’’

‘‘आप इन्हें नहीं जानते. यह नाटक कर रहे हैं. घरभर का जीना हराम कर रखा है. कभी पेंशन का रोना रोते हैं तो कभी अकेलेपन का. दिन भर उस मास्टरनी के घर बैठे रहते हैं. अब इस उम्र में इन की गंदी हरकतों से हम तो परेशान हो उठे हैं. न दिन देखते हैं न रात, वहां मास्टरनी के साथ ही चाय पीएंगे, समोसे खाएंगे. और वह मास्टरनी, अब छोडि़ए चाचाजी, कहने में भी शर्म आती है. अपना सारा जेबखर्च उसी पर बिगाड़ देते हैं,’’ रामेश्वर अपनी दबी हुई आग उगल रहा था.

‘‘इन्हें जेबखर्च कौन देता है?’’ मैं ने सहज ही पूछ लिया.

‘‘मैं देता हूं, और क्या वह कमजात मास्टरनी देती है? आप भी कैसी बातें कर रहे हैं चाचाजी, उस कम्बख्त ने न जाने कौन सी घुट्टी इन्हें पिला दी है कि उसी के रंग में रंग गए हैं.’’

‘‘जरा जबान संभाल कर बात करो रामेश्वर, तुम क्या अनापशनाप बोल रहे हो? प्रेमलता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. उन का भरापूरा परिवार है. पति एडवोकेट हैं, बेटा खाद्य निगम में डायरेक्टर है, उन्हें इन से क्या स्वार्थ है. बस, हमदर्दी के चलते पूछताछ कर लेती है. इस में इतना बिगड़ने की क्या बात है. अच्छा, यह तो बताओ कि तुम इन्हें जेबखर्च क्या देते हो?’’ मैं ने शांत भाव से पूछा.

‘‘देखो चाचाजी, आप हमारे बडे़ हैं, दिनेश के फादर हैं, इसलिए हम आप की इज्जत करते हैं, लेकिन हमारे घर के मामले में इस तरह छीछालेदर करने की, हिसाबकिताब पूछने की आप को कोई जरूरत नहीं है. इन का खानापीना, कपडे़ लत्ते, चायनाश्ता, दवा का लंबाचौड़ा खर्चा कहां से हो रहा है? अब आप इन से ही पूछिए, आज 500 रुपए मांग रहे थे उस मास्टरनी को देने के लिए. हम ने साफ मना कर दिया तो कमरा बंद कर के फांसी लगाने का नाटक करने लगे. आप इन्हें नहीं जानते. इन्होंने हमारा जीना हराम कर रखा है. एक अकेले आदमी का खर्चा घर भर से भी ज्यादा कर रहे हैं तो भी चैन नहीं है…और आप से भी हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. कहीं ऐसा न हो कि गुस्से में आ कर मैं आप से कुछ बदसलूकी कर बैठूं, अब आप बाइज्जत तशरीफ ले जा सकते हैं.’’

इस के बाद तो उस ने जबरदस्ती मुझे ठेलठाल कर घर से बाहर कर दिया. रामेश्वर ने बड़ा अपमान कर दिया मेरा.

मैं ने कुछ निश्चय किया. उस समय रात के 2 बज रहे थे. गली से निकल कर सीधा प्रो. प्रेमलता के घर के सामने पहुंच गया. दरवाजे की कालबेल दबा दी. कुछ देर बाद दोबारा बटन दबाया. अंदर कुछ खटरपटर हुई फिर थोड़ी देर बाद हरीमोहन ने दरवाजा खोला. मुझे सामने देख कर उन्हें कुछ आश्चर्य हुआ लेकिन औपचारिकतावश ही बोले, ‘‘आइए, आइए शर्माजी, बाहर क्यों खडे़ हैं, अंदर आइए,’’ लुंगी- बनियान पहने वह कुछ अस्तव्यस्त से लग रहे थे. एकाएक नींद खुल जाने से परेशान से थे.

मैं ने वहीं खडे़खडे़ उन्हें संक्षेप में सारी बातें बता दीं. तभी प्रो. प्रेमलता भी आ गईं. बहुत आग्रह करने पर मैं अंदर ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गया.

प्रो. प्रेमलता अंदर पानी लेने चली गईं.

लौट कर आईं तो पानी का गिलास मुझे थमा कर सामने सोफे पर बैठ गईं और कहने लगीं, ‘‘यह जो रामेश्वर है न, नंबर एक का बदमाश और बदतमीज आदमी है. मनमोहनजी का सारा पी.एफ., जो लगभग 8 लाख था, अपने हाथ कर लिया. साढे़ 5 हजार पेंशन भी अपने खाते में जमा करा लेता है. इधरउधर साइन कर के 3 लाख का कर्जा भी मनमोहनजी के नाम पर ले रखा है. इन्हें हाथखर्चे के मात्र 50 रुपए देता है और दिन भर इन से मजदूरी कराता है.’’

‘‘सागसब्जी, आटापिसाना, बच्चों को स्कूल ले जानालाना, धोबी के कपडे़, बिजली का बिल सबकुछ मनमोहनजी ही करते हैं. फरवरी या मार्च में इसे पता चला कि मनमोहन का 2 लाख रुपए का बीमा भी है, शायद पहली बार स्टालमेंट पेमेंट के कागज हाथ लगे होंगे या पेंशन पेमेंट से रुपए कट गए होंगे, तभी से इन की जान के पीछे पड़ गया है, बेचारे बहुत दुखी हैं.’’

मैं ने हरीमोहनजी से कुछ विचार- विमर्श किया और फिर रात में ही हम पुलिस थाने की ओर चल दिए. उधर हरीमोहनजी ने फोन पर संपर्क कर के मीडिया को बुलवा लिया था. हम ने सोच लिया था कि रामेश्वर का पानी उतार कर ही रहेंगे, अब यह बेइंसाफी सहन नहीं होगी. Hindi Story

Story In Hindi: किस्सा डाइटिंग का – क्या अपना वजन कम कर पाए गुप्ताजी

Story In Hindi: एक दिन सुबहसुबह पत्नी ने मुझ से कहा, ‘‘आप ने अपने को शीशे में  देखा है. गुप्ताजी को देखो, आप से 5 साल बड़े हैं पर कितने हैंडसम लगते हैं और लगता है जैसे आप से 5 साल छोटे हैं. जरा शरीर पर ध्यान दो. कचौरी खाते हो तो ऐसा लगता है कि बड़ी कचौरी छोटी कचौरी को खा रही है. पेट की गोलाई देख कर तो गेंद भी शरमा जाए.’’

मैं आश्चर्यचकित रह गया. यह क्या, मैं तो अपने को शाहरुख खान का अवतार समझता था. मैं ने शीशे में ध्यान से खुद को देखा, तो वाकई वे सही कह रही थीं. यह मुझे क्या हो गया है. ऐसा तो मैं कभी नहीं था. अब क्या किया जाए? सभी मिल कर बैठे तो बातें शुरू हुईं. बेटे ने कहा, ‘‘पापा, आप को बहुत तपस्या करनी पड़ेगी.’’

फिर क्या था. बेटी भी आ गई, ‘‘हां पापा, मैं आप के लिए डाइटिंग चार्ट बना दूं. बस, आप तो वही करते जाओ जोजो मैं कहूं, फिर आप एकदम स्मार्ट लगने लगेंगे.’’

मैं क्या करता. स्मार्ट बनने की इच्छा के चलते मैं ने उन की सारी बातें मंजूर कर लीं पर फिर मुझे लगा कि डाइटिंग तो कल से शुरू करनी है तो आज क्यों न अंतिम बार आलू के परांठे खा लिए जाएं. मैं ने कहा कि थोड़ी सी टमाटर की चटनी भी बना लेते हैं. पत्नी ने इस प्रस्ताव को वैसे ही स्वीकार कर लिया जैसे कि फांसी पर चढ़ने वाले की अंतिम इच्छा को स्वीकार करते हैं.

मैं ने भरपेट परांठे खाए. उठने ही वाला था कि बेटी पीछे पड़ गई, ‘‘पापा, एक तो और ले लो.’’

पत्नी ने भी दया भरी दृष्टि मेरी ओर दौड़ाई, ‘‘कोई बात नहीं, ले लो. फिर पता नहीं कब खाने को मिलें.’’

आमतौर पर खाने के मामले में इतना अपमान हो तो मैं कदापि नहीं खा सकता था पर मैं परांठों के प्रति इमोशनल था कि बेचारे न जाने फिर कब खाने को मिलें.

रात को सो गया. सुबह अलार्म बजा. मैं ने पत्नी को आवाज दी तो वे बोलीं, ‘‘घूमने मुझे नहीं, आप को जाना है.’’

मैं मरे मन से उठा. रात को प्रोग्राम बनाते समय सुबह 5 बजे उठना जितना आसान लग रहा था अब उतना ही मुश्किल लग रहा था. उठा ही नहीं जा रहा था.

जैसेतैसे उठ कर बाहर आ गया. ठंडीठंडी हवा चल रही थी. हालांकि आंखें मुश्किल से खुल रही थीं पर धीरेधीरे सब अच्छा लगने लगा. लगा कि वाकई न घूम कर कितनी बड़ी गलती कर रहा था. लौट कर मैं ने घर के सभी सदस्यों को लंबा- चौड़ा लैक्चर दे डाला. और तो और अगले कुछ दिनों तक मुझे जो भी मिला उसे मैं ने सुबह उठ कर घूमने के फायदे गिनाए. सभी लोग मेरी प्रशंसा करने लगे.

पर सब से खास परीक्षा की घड़ी मेरे सामने तब आई जब लंच में मेरे सामने थाली आई. मेरी थाली की शोभा दलिया बढ़ा रहा था जबकि बेटे की थाली में मसालेदार आलू के परांठे शोभा बढ़ा रहे थे. चूंकि वह सामने ही खाना खा रहा था इसलिए उस की महक रहरह कर मेरे मन को विचलित कर रही थी.

मरता क्या न करता, चुपचाप मैं जैसेतैसे दलिए को अंदर निगलता रहा और वे सभी निर्विकार भाव से मेरे सामने आलू के परांठों का भक्षण कर रहे थे, पर आज उन्हें मेरी हालत पर तनिक भी दया नहीं आ रही थी.

खाने के बाद जब मैं उठा तो मुझे लग ही नहीं रहा था कि मैं ने कुछ खाया है. क्या करूं, भविष्य में अपने शारीरिक सौंदर्य की कल्पना कर के मैं जैसेतैसे मन को बहलाता रहा.

डाइटिंग करना भी एक बला है, यह मैं ने अब जाना था. शाम को जब चाय के साथ मैं ने नमकीन का डब्बा अपनी ओर खिसकाया तो पत्नी ने उसे वापस खींच लिया.

‘‘नहीं, पापा, यह आप के लिए नहीं है,’’ यह कहते हुए बेटे ने उसे अपने कब्जे में ले लिया और खोल कर बड़े मजे से खाने लगा. मैं क्या करता, खून का घूंट पी कर रह गया.

शाम को फिर वही हाल. थाली में खाना कम और सलाद ज्यादा भरा हुआ था. जैसेतैसे घासपत्तियों को गले के नीचे उतारा और सोने चल दिया. पर पत्नी ने टोक दिया, ‘‘अरे, कहां जा रहे हो. अभी तो तुम्हें सिटी गार्डन तक घूमने जाना है.’’

मुझे लगा, मानो किसी ने पहाड़ से धक्का दे दिया हो. सिटी गार्डन मेरे घर से 2 किलोमीटर दूर है. यानी कि कुल मिला कर आनाजाना 4 किलोमीटर. जैसेतैसे बाहर निकला तो ठंडी हवा बदन में चुभने लगी. आंखों में आंसू भले नहीं उतरे, मन तो दहाड़ें मार कर रो रहा था. मैं जब बाहर निकल रहा था तो बच्चे रजाई में बैठे टीवी देख रहे थे. बाहर सड़क पर भी दूरदूर तक कोई नहीं था पर क्या करता, स्मार्ट जो बनना था, सो कुछ न कुछ तो करना ही था.

फिर यही दिनचर्या चलने लगी. एक ओर खूब जम कर मेहनत और दूसरी ओर खाने को सिर्फ घासफूस. अपनी हालत देख कर मन बहुत रोता था. लोग बिस्तर में दुबके रहते और मैं घूमने निकलता था. लोग अच्छेअच्छे पकवान खाते और मैं वही बेकार सा खाना.

तभी एक दिन मैं ने सुबह 9 बजे अपने एक मित्र को फोन किया. मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि वह अभी तक सो कर ही नहीं उठा था जबकि उस ने मुझे घूमने के मामले में बहुत ज्ञान दिया था. करीब 10 बजे मैं ने दोबारा फोन किया. तो भी जनाब बिस्तर में ही थे. मैं ने व्यंग्य से पूछा, ‘‘क्यों भई, तुम तो घूमने के बारे में इतना सारा ज्ञान दे रहे थे. सुबह 10 बजे तक सोना, यह सब क्या है.’’

मित्र हंसने लगा, ‘‘अरे भई, आज संडे है. सप्ताह में एक दिन छुट्टी, इस दिन सिर्फ आराम का काम है.’’

मुझे लगा, यही सही रास्ता है. मैं ने फौरन एक दिन के साप्ताहिक अवकाश की घोषणा कर दी और फौरन दूसरे ही दिन उसे ले भी लिया. देर से सो कर उठना कितना अच्छा लगता है और वह भी इतने संघर्ष के बाद. उस दिन मैं बहुत खुश रहा. पर बकरे की मां कब तक खैर मनाती, दूसरे दिन तो घूमने जाना ही था.

तभी बीच में एक दिन एक रिश्तेदार की शादी आ गई. खाना भी वहीं था. पहले यह तय हुआ था कि मेरे लिए कुछ हल्काफुल्का खाना बना लिया जाएगा पर जब जाने का समय आया तो पत्नी ने फैसला सुनाया कि वहीं पर कुछ हल्का- फुल्का खाना खा लेंगे. बस, मिठाइयों पर थोड़ा अंकुश रखें तो कोई परेशानी थोड़े ही है.

उन के इस निर्णय से मन को बहुत राहत पहुंची और मैं ने वहां केवल मिठाई चखी भर, पर चखने ही चखने में इतनी खा गया कि सामान्य रूप से कभी नहीं खाता था. उस रात को मुझे बहुत अच्छी नींद आई थी क्योंकि मैं ने बहुत दिनों बाद अच्छा खाना खाया था लेकिन नींद भी कहां अपनी किस्मत में थी. सुबह- सुबह कम्बख्त अलार्म ने मुझे फिर घूमने के लिए जगा दिया. जैसेतैसे उठा और घूमने चल दिया.

मेरी बड़ी मुसीबत हो गई थी. जो चीजें मुझे अच्छी नहीं लगती थीं वही करनी पड़ रही थीं. जैसेतैसे निबट कर आफिस पहुंचा. पर यहां भी किसी काम में मन नहीं लग रहा था. सोचा, कैंटीन जा कर एक चाय पी लूं. आजकल घर पर ज्यादा चाय पीने को नहीं मिलती थी. चूंकि अभी लंच का समय नहीं था इसलिए कैंटीन में ज्यादा भीड़ नहीं थी पर मैं ने वहां शर्मा को देखा. वह मेरे सैक्शन में काम करता था और वहां बैठ कर आलूबड़े खा रहा था. मुझे देख कर खिसिया गया. बोला, ‘‘अरे, वह क्या है कि आजकल मैं डाइटिंग पर चल रहा हूं. अब कभीकभी अच्छा खाने को मन तो करता ही है. अब इस जबान का क्या करूं. इसे तो चटपटा खाने की आदत पड़ी है पर यह सब कभीकभी ही खाता हूं. सिर्फ मुंह का स्वाद चेंज करने के लिए…मेरा तो बहुत कंट्रोल है,’’ कह कर शर्मा चला गया पर मुझे नई दिशा दे गया. मेरी तो बाछें खिल गईं. मैं ने फौरन आलूबड़े और समोसे मंगाए और बड़े मजे से खाए.

उस दिन के बाद मैं प्राय: वहां जा कर अपना जायका चेंज करने लगा. हां, एक बात और, डाइटिंग का एक और पीडि़त शर्मा, जोकि अपने कंट्रोल की प्रशंसा कर रहा था, वह वहां अकसर बैठाबैठा कुछ न कुछ खाता रहता था. शुरूशुरू में वह मुझ से शरमाया भी पर फिर बाद में हम लोग मिलजुल कर खाने लगे.

बस, यह सिलसिला ऐसे ही चलने लगा. इधर तो पत्नी मुझ से मेहनत करवा रही थी और दूसरी ओर आफिस जाते ही कैंटीन मुझे पुकारने लगती थी. मैं और मेरी कमजोरी एकदूसरे पर कुरबान हुए जा रहे थे. पत्नी ध्यान से मुझे ऊपर से नीचे तक देखती और सोच में पड़ जाती.

फिर 2 महीने बाद वह दिन भी आया जहां से मेरा जीवन ही बदल गया. हुआ यों कि हम सब लोग परिवार सहित फिल्म देखने गए. वहां पत्नी की निगाह वजन तौलने वाली मशीन पर पड़ी. 2-2 मशीनें लगी हुई थीं. फौरन मुझे वजन तौलने वाली मशीन पर ले जाया गया. मैं भी मन ही मन प्रसन्न था. इतनी मेहनत जो कर रहा था. सुबहसुबह उठना, घूमनाफिरना, दलिया, अंकुरित नाश्ता और न जाने क्याक्या.

मैं शायद इतने गुमान से शादी में घोड़ी पर भी नहीं चढ़ा होऊंगा. सभी लोग मुझे घेर कर खड़े हो गए. मशीन शुरू हो गई. 2 महीने पहले मेरा वजन 80 किलो था. तभी मशीन से टिकट निकला. सभी लोग लपके. टिकट मेरी पत्नी ने उठाया. उस का चेहरा फीका पड़ गया.

‘‘क्या बात है भई, क्या ज्यादा कमजोर हो गया? कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’’ मैं ने पत्नी को सांत्वना दी.

पर यह क्या, पत्नी तो आगबबूला हो गई, ‘‘खाक दुबले हो गए. पूरे 5 किलो वजन बढ़ गया है. जाने क्या करते हैं.’’

मैं हक्काबक्का रह गया. यह क्या? इतनी मेहनत? मुझे कुछ समझ में नहीं आया. कहां कमी रह गई, बच्चों के तो मजे आ गए. उस दिन की फिल्म में जो कामेडी की कमी थी, वह उन्होंने मुझ पर टिप्पणी कर के पूरी की. दोनों बच्चे बहुत हंसे.

मैं ने भी बहुत सोचा और सोचने के बाद मुझे समझ में आया कि आजकल मैं कैंटीन ज्यादा ही जाने लगा था. शायद इतने समोसे, आलूबडे़, कचौरियां कभी नहीं खाईं. पर अब क्या हो सकता था. पिक्चर से घर लौटने के बाद रात को खाने का वक्त भी आया. मैं ने आवाज लगाई, ‘‘हां भई, जल्दी से मेरा दलिया ले आओ.’’

पत्नी ने खाने की थाली ला कर रख दी. उस में आलू के परांठे रखे हुए थे. ‘‘बहुत हो गया. हो गई बहुत डाइटिंग. जैसा सब खाएंगे वैसा ही खा लो. और थोड़े दिन डाइटिंग कर ली तो 100 किलो पार कर जाओगे.’’

मैं भला क्या कहता. अब जैसी पत्नीजी की इच्छा. चुपचाप आलू के परांठे खाने लगा. अब कोई नहीं चाहता कि मैं डाइटिंग करूं तो मेरा कौन सा मन करता है. मैं ने तो लाख कोशिश की पर दुबला हो ही नहीं पाया तो मैं भी क्या करूं. इसलिए मैं ने उन की इच्छाओं का सम्मान करते डाइटिंग को त्याग दिया. Story In Hindi

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