Hindi Story : हैसियत

Hindi Story : ‘‘सौरभ, हम कब तक इस तरह मिलतेजुलते रहेंगे…’’ चंपा से आखिरकार रहा न गया, ‘‘अब हमें जल्दी ही शादी कर लेनी चाहिए.’’

‘‘शादी भी कर लेंगे चंपा,’’ सौरभ बोला, ‘‘पहले हम बीए कर लें.’’

‘‘तुम नहीं जानते हो सौरभ, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं…’’

‘‘क्या कह रही हो तुम?’’ हैरानी से सौरभ बोला, ‘‘चलो, अस्पताल जा कर बच्चा गिरा देते हैं.’’

‘‘नहीं सौरभ, यह हमारे प्यार की निशानी है…’’ चंपा बोली, ‘‘मैं बच्चा नहीं गिराना चाहती हूं.’’

‘‘मगर, मैं तुम से शादी नहीं कर सकता,’’ सौरभ ने कहा.

‘‘क्यों नहीं कर सकते? क्या परेशानी हैं तुम्हें?’’ चंपा जरा तेज आवाज में सौरभ से बोली.

‘‘तुम हमारी हैसियत के बराबर नहीं हो,’’ सौरभ बोला.

‘‘जब मैं तुम्हारी हैसियत के बराबर नहीं थी, तब तुम ने क्यों प्यार किया मुझ से…’’ नाराज हो कर चंपा बोली, ‘‘अब तुम्हें शादी तो करनी ही पड़ेगी मुझ से.’’

‘‘शादी करूं और तुम से… किसी और का पाप मुझ पर क्यों डाल रही हो?’’ जब सौरभ ने यह कहा, तब चंपा का गुस्सा भीतर ही भीतर बढ़ गया. वह गुस्से से बोली, ‘‘क्या कहा तुम ने कि शादी नहीं करोगे? मतलब, तुम्हारा प्यार केवल मेरे जिस्म तक ही था.’’

‘‘हां, यही समझ लो. अब कभी मिलने की कोशिश मत करना,’’ चंपा से इतना कह कर सौरभ गाड़ी में बैठ कर नौ दो ग्यारह हो गया.

चंपा ठगी सी रह गई. जिस सौरभ पर चंपा ने पूरा विश्वास किया, आगे रह कर उस ने प्रेम के अंकुर बोए, उस ने ही उसे धोखा दे दिया.

चंपा और सौरभ एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों एक ही गांव में रहते थे.

सौरभ गांव के एक अमीर किसान अमृतलाल का बेटा था. उस की गांव में ढेर सारी खेती थी. खेती के अलावा अमृतलाल के और भी धंधे थे, जिन्हें वह गुपचुप तरीके से करता था, इसलिए उस के पास काली दौलत भी बहुत थी.

अमृतलाल राजनीति में भी दखल देता था, इसलिए भोपाल तक अमृतलाल की पहचान थी. थाने को भी उस ने अपनी काली दौलत से खरीद लिया था. गांव में उस का दबदबा था. सब लोग उस से डरते भी थे, इसलिए कभी थाने में शिकायत भी नहीं करते थे. जिस थाने में शिकायत की गई, वह उसी थाने को खरीद लेता था.

अमृतलाल का सब से छोटा बेटा सौरभ कालेज में पढ़ रहा था और उस के लिए शहर में ही घर बना दिया था.

चंपा एक गरीब किसान चंपालाल की बेटी थी. उस के पिता के पास थोड़ी सी जमीन थी, उस से उतनी ही पैदावार होती थी, जिस से पेट भर सके, इसलिए कभीकभी वह अमृतलाल के यहां मजदूरी भी करता था.

जब चंपा ने हायर सैकेंडरी का इम्तिहान अच्छे नंबरों से पास किया, तब उस की इच्छी थी कि वह शहर जा कर कालेज में पढ़े. पर उस की मां दुर्गा देवी ने साफसाफ कह दिया था कि कालेज जा कर लड़की को बिगाड़ना नहीं है.

मां का विरोध देख कर पिता ने भी चंपा को कालेज जाने से मना कर दिया था. मगर, उस की जिद ने पिता को पिघला दिया.

जब चंपा का कालेज में एडमिशन हो गया, तब सुबह वह गांव से बस में बैठ कर शहर चली जाती, 2-4 पीरियड पढ़ कर गांव लौट आती.

एक बार चंपा कालेज के दालान में सौरभ से टकरा गई. दोनों की आंखें मिलीं. आंखों ही आंखों में इशारा
हो गया.

वे दोनों ही जानते थे कि एक ही गांव के रहने वाले हैं. दोनों में कब प्यार हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला.

सौरभ चंपा की हर मांग पूरी करने लगा. चंपा भी उस के प्यार में पागल सी हो गई. कभीकभी वह कालेज से सौरभ के बंगले में पहुंच जाती. उस की बांहों में समा जाती. तब सौरभ कहता, ‘‘चंपा, मैं तुझ से ही शादी करूंगा.’’

‘‘सच कह रहे हो न सौरभ?’’ चंपा पूछती, ‘‘तुम मुझे धोखा दे कर जाओगे तो नहीं?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं. यह मेरा वादा है, पक्का वादा है,’’ जब सौरभ बोला, तब जोश में आ कर चंपा ने शहर वाले बंगले में उसे अपना जिस्म सौंप दिया. इसी का नतीजा आज यह हुआ है कि वह उस के बच्चे की मां बनने वाली है.

भावुकता भरा कदम चंपा को इतना महंगा पड़ जाएगा, उसे पता नहीं था. आज सौरभ ने शादी करने से मना कर दिया, तब उस को लगा कि वह न घर की रही, न घाट की.

जब इस बात का पता मां और पिता को चलेगा, तब उन के दिल पर क्या बीतेगी. अब वह अपनी मां को कैसे बताए कि उस के पेट में सौरभ का बच्चा पल रहा है. वह प्यार में धोखा खा चुकी है. गांव वाले और रिश्तेदारों को पता चलेगा कि वह कुंआरी मां बन रही है, तब उस के मांबाप की कितनी किरकिरी होगी. क्या वह अपने बच्चे को गिरा दे? गिरा देगी… तब भी सब को यह पता चल ही जाएगा.

इस वजह से आज चंपा दोराहे पर खड़ी थी. आखिर दाई से वह कब तक पेट छिपाए रखेगी… शादी करने का वादा करने के बाद भी सौरभ ने मना कर दिया. प्यार में उस ने धोखा खाया.

कालेज से वापस अपने घर आने के बाद चंपा का मन बेचैन रहा. क्या वह मां को सचसच बता दे? आज नहीं तो कल मां को तो मालूम पड़ ही जाएगा. इस मामले में मांएं तो उड़ती चिडि़या भांप लेती हैं.

‘‘कालेज से आ गई बेटी… खाना खाया?’’ जब मां दुर्गा देवी ने कहा, तब चंपा बोली, ‘‘खाने की इच्छा नहीं है.’’

‘‘तो क्या शहर से खा कर आई है?’’ मां ने जब यह सवाल पूछा, तब चंपा बोली, ‘‘नहीं मां, मुझे तुम से एक बात कहनी है.’’

‘‘क्या बात है?’’

‘‘पहले मुझे यह वचन दो कि आप नाराज नहीं होंगी मुझ से,’’ अभी चंपा यह बात कह ही रही थी कि पिता चंपालाल भी आ गया.

तब दुर्गा देवी ने पूछा, ‘‘बोल, क्या कहना चाहती है?’’

‘‘मां, मेरी बात सुन कर तुम बहुत नाराज हो जाओगी, इसलिए कहने में डर रही हूं,’’ जब चंपा ने यह बात कही, तब चंपालाल बोला, ‘‘कह दे, बेझिझक कह दे. तेरी मां नाराज नहीं होगी. क्या कहना चाहती है?’’

‘‘बापू, मुझ से भारी भूल हो गई.’’

‘‘कुछ बताएगी भी, वरना हमें कैसे पता चलेगा… कह दे बेटी, हम नाराज न होंगे,’’ चंपालाल ने कहा.

‘‘बापू, मैं अमृतलाल के बेटे सौरभ से प्यार करती हूं. वह भी मुझे बहुत प्यार करता है. उस ने मुझ से शादी करने का वादा किया और मैं ने अपना जिस्म उसे सौंप दिया. अब उस का बच्चा मेरे पेट में पल रहा है,’’ अभी चंपा यह बात कह रही थी कि मां दुर्गा देवी बीच में ही गुस्से से उबल पड़ी, ‘‘क्या कहा कि तू पेट से है?… तू ने तो हमारी इज्जत को ही उछाल दिया. आग लगे तेरी जवानी को. मैं ने पहले ही कहा था कि इस करमजली को शहर में पढ़ने मत भेजो. उसी का नतीजा है कि इस के…’’

‘‘चुप रहो दुर्गा, कुछ भी बक देती हो,’’ नाराज हो कर चंपालाल बीच में ही बात काट कर बोला.

‘‘कैसे चुप रहूं…’’ दुर्गा देवी गुस्से से बोली, ‘‘इस ने हमारी इज्जत मिट्टी में मिला दी और आप कह रहे हो कि चुप हो जाऊं? मैं तो शहर में कालेज भेजने के खिलाफ थी, मगर आप ने कहां चलने दी मेरी.

‘‘आप की लाड़ली बेटी है न और यह गुल खिला दिया. अब कौन करेगा इस से शादी. इसे सब बदचलन कह कर नकार देंगे.’’

‘‘थोड़ी देर के लिए चुप भी हो जाओ…’’ फिर समझाते हुए चंपालाल बोला, ‘‘अभी मैं अमृतलाल के पास जाता हूं और उस से चंपा के रिश्ते की बात करता हूं.’’

‘‘बापू, वहां जाने से कोई फायदा नहीं. सौरभ ने मुझ से शादी करने से यह कह कर मना कर दिया कि हम गरीबों की हैसियत उन के बराबर नहीं है,’’ जब चंपा ने यह बात कही, तब चंपालाल बोला, ‘‘अरे, हैसियत बता कर वह बच नहीं सकता है. थाने में रपट…’’

‘‘थाने में रपट लिखवाने से कुछ न होगा. वह थाने को भी खरीद लेगा. उस के पास बहुत पैसा है…’’ बीच में ही बात काट कर दुर्गा देवी बोली, ‘‘माना कि थानेदार रपट लिख भी लेगा, मुकदमा चलेगा, तब कहां से लाओगे पैसे? पैसे हैं तुम्हारे पास क्या…’’

‘‘तुम ठीक कहती हो दुर्गा,’’ नरम पड़ते हुए चंपालाल बोला, ‘‘भावुकता में मुझे भी गुस्सा आ गया था… मैं मालिक को जा कर समझा तो सकता हूं.’’

इतना कह कर चंपालाल अमृतलाल की हवेली की ओर बढ़ गया. दुर्गा देवी अब भी चंपा को गालियां दे कर अपनी भड़ास निकाल रही थी.

जब चंपालाल अमृतलाल की हवेली में गया, तब वे अपनी बैठक में ही मिल गए, जो अपने कारिंदों के बीच घिरे हुए थे.

चंपालाल भी उन कारिंदों के बीच जा कर बैठ गया. उसे देख कर कारिंदे उठ कर बाहर चले गए. अब बैठक में दोनों ही अकेले रह गए. तब अमृतलाल बोले, ‘‘आओ चंपालाल, यहां किसलिए आए हो?

‘‘मालिक, मैं बहुत बुरा फंस गया हूं…’’ हाथ जोड़ते हुए चंपालाल बोला, ‘‘आप ही इस समस्या का हल निकाल सकते हैं.’’

‘‘पहले अपनी समस्या बताओ, मेरे हल करने जैसी होगी, तो मैं जरूर करूंगा,’’ अमृतलाल बोले.

‘‘मालिक, आप का बेटा सौरभ और मेरी बेटी चंपा शहर के एक ही कालेज में पढ़ते हैं. उन दोनों में इश्क हो गया. और…’’ बीच के शब्द चंपालाल के गले में ही अटक गए.

‘‘बोलो, रुक क्यों गए चंपालाल?’’ उसे रुकते देख कर अमृतलाल बोले ‘‘मालिक, चंपा के पेट में जो बच्चा पल रहा है, वह छोटे मालिक सौरभ का है,’’ बहुत मुश्किल से चंपालाल यह कह पाया.

‘‘क्या कहा…?’’ आगबबूला हो कर अमृतलाल बोले.

‘‘हां मालिक, मैं यही कहने आया हूं कि चंपा को अपनी बहू बना लो,’’ हाथ जोड़ कर चंपालाल बोला.

‘‘बहू बना लूं. अरे, तू ने कैसे कह दिया कि बहू बना लूं. तेरी लड़की गांव में न जाने किनकिन लड़कों से पैसों के लिए संबंध बनाती है और मेरे बेटे को बदनाम करती है. अब तेरी बेटी पेट से हो गई, तब उस का पाप मेरे होनहार बेटे पर डाल रहा है.

‘‘बहू बना लूं तेरी बेटी को. अपनी हैसियत देखी है. पहले अपनी आवारा लड़की को संभाल… फिर तेरे पास क्या सुबूत है कि उस के पेट में सौरभ का ही बच्चा है?’’

‘‘यह तो डाक्टर की रिपोर्ट बताएगी मालिक?’’ चंपालाल ने जब तेज आवाज में यह बात कही, तब अमृतलाल गुस्से से बोले, ‘‘मतलब, तू मुझे अदालत ले जाएगा.’’

‘‘हां मालिक, जरूरत पड़ी तो ले जाऊंगा,’’ इस समय चंपालाल में न जाने कहां से ताकत आ गई. वह पलभर के लिए रुक कर फिर बोला, ‘‘उस औरत का नाम तो मालूम नहीं है मालिक, मगर अपने नाजायज बच्चे को पिता का नाम देने के लिए वह कोर्ट गई थी. कई साल तक कोर्ट में लड़ी और आखिर में जीत उस की हुई. जानते हो, उस के पिता कौन थे?’’

‘‘मैं नहीं जानता. कौन थे वे?’’ अमृतलाल गुस्से से बोले.

‘‘वे थे भूतपूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत तिवारी.’’

‘‘अच्छा तो, तू मुझे धमकी दे रहा है. नालायक कहीं का,’’ गाली देते हुए अमृतलाल बोले, फिर गुस्से से उठ कर उस की पीठ पर एक लात जमा दी, फिर उसी गुस्से से बोले, ‘‘चला जा यहां से इसी समय. अब अपना मुंह कभी मत दिखाना हरामखोर.’’

चंपालाल ने ज्यादा बहस करना उचित नहीं समझा. वह अपनी कमर को सहलाते हुए हवेली से बाहर निकल गया.

चंपालाल ने अमृतलाल से पंगा जरूर ले लिया, मगर वह अब उस का बदला जरूर लेगा. तब उस ने मन ही मन सोचा कि मालिक ने उस से पंगा ले कर अच्छा नहीं किया. इस का नतीजा भुगतना पड़ेगा. जिसजिस ने भी अमृतलाल से पंगा लिया, उस को ठिकाने लगा दिया गया. देवीलाल, सुखराम, करण सिंह इस के उदाहरण हैं.

मगर अब वह कैसे साबित करे कि चंपा के पेट में जो बच्चा पल रहा है, वह सौरभ का है. मगर आज वैज्ञानिक ने इतनी तरक्की कर ली है कि सब पता चल जाता है. तब क्या वह सौरभ के खिलाफ रपट लिखा दे. पुलिस उस से सब पूछ लेगी. मगर कोर्ट में जाने के लिए पैसे चाहिए और पैसा कहां है उस के पास. इन्हीं विचारों ने चंपालाल को परेशान कर रखा था.

जब चंपालाल घर पहुंचा, तब दुर्गा देवी उसी का इंतजार कर रही थी. वह बोली, ‘‘क्या कहा मालिक ने?’’

‘‘वे तो यह मानने के लिए भी तैयार नहीं हैं कि चंपा के पेट में उन के बेटे का बच्चा पल रहा है. उन्होंने अपनी हैसियत बता दी,’’ निराश भरी आवाज में जब चंपालाल ने जवाब दिया, तब दुर्गा देवी बोली, ‘‘अब क्या होगा? कौन करेगा इस से शादी?’’

‘‘देखो दुर्गा, हम कोर्ट में जा कर इंसाफ मांगेंगे.’’

‘‘मगर, कोर्ट में जाने के लिए पैसा चाहिए. कहां है हमारे पास इतना पैसा…’’ जब दुर्गा देवी ने यह सवाल पूछा, तब कुछ सोच कर चंपालाल बोला, ‘‘इस के सिवा हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. चाहे मकान या खेत भी बेचना पड़े…’’

यह बात आईगई हो गई. कुछ दिन तक वे दोनों सोचते रहे कि थाने में रपट लिखाएं या नहीं, मगर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए.

इसी बीच एक घटना हो गई. एक रात चंपा को किसी ने अगवा कर लिया. किस ने किया, यह पता नहीं चला.

सुबह होते ही जब चंपा बिस्तर पर नहीं मिली, तब घर में कुहराम मच गया. गांव वाले उसे आसपास टोली बना कर सब जगह ढूंढ़ने निकल गए. 3-4 घंटे ढूंढ़ने के बाद भी चंपा का कहीं पता नहीं चला. तब थाने में रपट लिखा दी गई. पुलिस भी हरकत में आई. उस ने छानबीन की, मगर चंपा का कहीं पता नहीं चला.
2 दिन बाद चंपा की लाश अमृतलाल के कुएं में तैरती पाई गई.

पुलिस ने चंपा की लाश कुएं से बाहर निकाली. उस का पोस्टमार्टम किया गया. डाक्टर ने पोस्टमार्टम की रपट में बताया कि चंपा ने खुदकुशी नहीं की, बल्कि उसे मार कर कुएं में फेंक दिया गया.

तब पुलिस को अमृतलाल पर शक हुआ, मगर वह सुबूत नहीं जुटा पाई. पोस्टमार्टम में यह रिपोर्ट भी थी कि चंपा 2 महीने के पेट से थी. तब गांव वाले खुल कर नहीं, दबी आवाज में यह चर्चा कर रहे थे कि हो न हो, चंपा का खून अमृतलाल के कारिंदों ने ही किया है. मगर, डर के मारे कोई खुल कर सामने नहीं आना चाहता था.

पुलिस जब चंपालाल के घर पर एक बार फिर तलाश करने आई, तब उन्हें वहां चंपा की दस्तखत की गई एक चिट्ठी पुलिस के हाथ लगी. उस का मजमून इस तरह था :

‘मैं जनता कालेज में पढ़ती हूं. बस से रोजाना अपने गांव से अपडाउन करती हूं. कालेज में इसी गांव के अमृतलाल का बेटा सौरभ पढ़ता है. उस ने लालच दे कर पहले मुझे अपने प्रेमजाल में फंसाया. मुझ से शादी करने का वादा किया. तब मैं ने अपना जिस्म उसे सौंप दिया. इस का नतीजा यह हुआ कि मेरे पेट में उस का बच्चा पलने लगा.

‘मैं ने सबकुछ सच बता कर उस से शादी करने की बात कही. तब उस ने मेरे गरीब पिता की हैसियत देख कर मुझ से शादी करने से मना कर दिया.

‘मैं खूब रोईगिड़गिड़ाई, मगर उस पर कोई असर नहीं पड़ा. तब मैं ने अपने पेट से होने की बात अपने गरीब मांबाप को बताई. मेरे गरीब पिता अमृतलाल के पास मुझे अपनी बहू बनाने की बात कहने गए. तब उन्हें लात मार कर भगा दिया गया. तब से मैं भीतर ही भीतर घबरा रही थी कि मेरे गरीब पिता ने अमृतलाल से पंगा लिया.

‘कहीं वह मेरा या मेरे पिता का खून न करवा दे, इस डर से मैं परेशान सी रही. अगर मेरा इन लोगों ने खून कर दिया, तब पिता और मां को कानून में मत घसीटना. मैं बहुत घबराई हुई हूं कि कहीं ये लोग मेरी हत्या न कर दें.’

वह चिट्ठी पढ़ कर पुलिस हरकत में आ गई. शहर जा कर सब से पहले सौरभ को गिरफ्तार किया. इस तरह चिट्ठी ने अपनी हैसियत बता दी.

Hindi Story : बदलाव के कदम

Hindi Story : लक्ष्मण अपनी अंधेरी कोठरी का बल्ब जला कर चारपाई पर लेट गया और कुछ सोचने लगा. कल ही तो लक्ष्मण की शादी है. अब तक कोई भी ठोस इंतजाम नहीं हो सका है. तिलक के दिन भी लक्ष्मण को ही अपने घर के सारे इंतजाम करने पड़े थे. बैंक में जमा रुपए निकाल कर वह अपनी शादी का इंतजाम कर रहा था. उस की इच्छा थी कि कोर्ट में ही शादी कर ले. आलतूफालतू खर्च तो बच जाएंगे, लेकिन लड़की के घर वालों की इच्छा की अनदेखी वह नहीं कर सका. लड़की वाले अपनी तरफ से उस की खातिरदारी में अपनी इच्छा से सबकुछ खर्च कर रहे हैं, तो क्या उस का अपना कोई फर्ज नहीं बनता?

लक्ष्मण के बाबूजी लालधारी इस शादी से खुश नहीं थे. उन का स्वभाव शुरू से ही खराब रहा है, ऐसा नहीं
था. हां, शादी के मुद्दे पर मनमुटाव हुआ है.

लालधारी को इस बात का दुख था कि उन का बेटा लक्ष्मण अपनी बिरादरी की इज्जत का खयाल न कर दूसरी जाति की, वह भी अछूत जाति की लड़की से ब्याह कर रहा है.

प्यारव्यार तो ठीक था, लेकिन शादीब्याह की बात से तो पूरी बिरादरी के लोग लालधारी पर थूथू कर रहे थे. इसे सही और गलत के तराजू पर तौल कर लालधारी लक्ष्मण का पक्ष लिए होते, तब लक्ष्मण इतना दुखी नहीं होता. उसे दुख तो इस बात पर हो रहा था कि वे अपने बेटे के बजाय बिरादरी का ही समर्थन कर रहे थे.

लालधारी को ज्यादा दुख इस बात का था कि इस शादी में दहेज की मोटी रकम नहीं मिल रही थी. उन्होंने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था कि जिस बेटे को एमए की डिगरी दिलाने में उन्होंने एड़ीचोटी एक कर दी, उस के ब्याह में उन्हें फूटी कौड़ी भी हाथ नहीं लगेगी. हताश हो कर वे अपने हाथ मलते रह गए थे. बेटा नासमझ तो था नहीं, जो उसे डांटनेफटकारने के बाद लड़की वाले से मोटी रकम की मांग कर बैठते. सच बात तो यह थी कि लक्ष्मण के आदर्शवादी खयालों से वे नाराज हुए बैठे थे.

एक बार लालधारी ने लक्ष्मण से कहा भी था, ‘‘बेटा, गैरजाति में शादी कर तू ने बिरादरी में मेरी नाक तो कटवा ही दी. अब एक पैसा भी दहेज न लेने की जिद कर के क्यों हाथ आ रहे पैसे को तू ठुकरा रहा है? कुछ नहीं, तो जमीनजायदाद ही लिखवा ले…’’

तब लक्ष्मण एकदम गंभीर हो गया था और फिर तैश में आ कर बोल उठा था, ‘‘बाबूजी, बिरादरी से हमें कोई लेनादेना नहीं है. मैं जाति नहीं, इनसान की इनसानियत की कद्र करता हूं. मेरे ऊपर आप का बहुत अहसान और कर्ज है, लेकिन वह अहसान और कर्ज इतना छोटा नहीं है कि उसे पैसे से चुका दूं.

‘‘आप अपने लक्ष्मण से इज्जत जरूर पा सकेंगे. लेकिन बेटे की शादी के एवज में दानदहेज नहीं. मैं पैसे को ठुकरा नहीं रहा हूं, अपने घर में इज्जत के साथ पैसे को ला रहा हूं. क्या अच्छी बहू किसी पैसे से कम होती है?’’

लक्ष्मण की बातों के चलते पूरी बिरादरी वाले यह सोचसोच कर डर रहे थे कि कहीं यह हवा उन के घर के भीतर भी न घुस जाए, उन का बेटा भी बगावत पर न उतर जाए, गैरजाति की लड़की से प्यार न कर बैठे और फिर लाखों रुपए के दानदहेज से अछूते न रह जाएं.

उसी समय लालधारी से मिलने सरपू और अवधेश आए थे. बातचीत के दौरान लालधारी ने उन से कहा था, ‘‘मैं ने भी तय कर लिया है कि जिस तरह लक्ष्मण की शादी में मुझे एक भी पैसा नहीं मिला है, उसी तरह मैं भी उस की शादी में एक भी पैसा खर्च नहीं करूंगा. देखता हूं, बच्चों को कौन उधार देता है और वह कैसे कर लेता है ब्याह… और हां, सरयू और अवधेश, तुम लोग भी एक पैसा मत देना लक्ष्मण को.’’

‘‘मैं क्यों पैसे दूंगा? कल लक्ष्मण 500 रुपए उधार मांगने के लिए मेरे पास आया था, लेकिन मैं ने साफसाफ कह दिया कि अपने बाबूजी से जा कर मांगने में लाज लगती है क्या?

‘‘बस, इतना सुनना था कि उल्लू जैसा मुंह बना कर वह चला गया. अरे भाई, अब तो उस का मुंह भी बंद हो गया है. उस की शादी न रुक गई, तो फिर देखना.’’

लक्ष्मण का लंगोटिया दोस्त सुरेश मन ही मन मना रहा था कि मेरे दोस्त की यह परेशानी दूर हो जाती, ताकि वह अपनी बात पर अटल रहते हुए अपनी मंजिल को पा सके.

सुरेश को यकीन नहीं हो पा रहा था कि इतने विरोधों और परेशानियों के बावजूद लक्ष्मण और किरण की शादी हो सकेगी. लक्ष्मण और किरण का आकर्षण अनजाने में हुआ था. लक्ष्मण ट्यूशन पढ़ाने हर शाम जाया करता था. पढ़ातेपढ़ाते वह खुद प्रेम का पाठ पढ़ने लगा. दोनों के विचार जब आपसी लगाव का कारण बन गए, तब वे एकदूसरे को पसंद करने लगे.

यह जोड़ी किरण की मां को भी बहुत भली लगी. किरण के बाबूजी तो 2 साल पहले ही इस दुनिया से जा चुके थे, इसलिए सारे फैसले मां को ही लेने थे. वे इस से बढि़या लड़का कहां से ढूंढ़तीं? पढ़ालिखा और समझदार लड़का बैठेबैठे मिला है. फिर जातपांत में क्या रखा है? जमाना बदल रहा है, तो विचारों में भी बदलाव लाना ही चाहिए.

किरण की मां को जब यह लगा कि किरण भी लक्ष्मण से सचमुच प्रेम करती है, तब उन्होंने बातबात में ही बात चला दी थी, ‘‘बेटा, मेरी बेटी तुम्हारी बहुत बड़ाई किया करती है. अगर तुम्हें मेरी बेटी पसंद हो, तो मैं उस की शादी तुम से करने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘मांजी, मैं खुद ऐसी ही बात आप के सामने कहने वाला था. जल्दी ही किरण से शादी कर के आप को भरोसा दिला दूंगा कि मेरा प्यार झूठा नहीं है.’’

‘‘लेकिन, अगर तुम्हारे बाबूजी इस शादी के खिलाफ हुए, तब तुम क्या करोगे बेटा?’’ अपना शक सामने रखते हुए किरण की मां बोलीं.

‘‘उन के खिलाफ भी कदम बढ़ाने की मेरी पूरी कोशिश रहेगी.’’

‘‘लेकिन, दहेज के रूप में मैं…’’

‘‘दहेज का नाम न लीजिए मांजी. मुझे दहेज से सख्त नफरत है. न जाने कितनी मासूम जानें ली हैं इस दहेज के नाग ने.’’

किरण की मां लक्ष्मण से बहुत खुश हो चुकी थीं. उन्होंने सोचा, ‘एमए पास है ही, 4-5 ट्यूशन कर लेता है. अभी नौकरी नहीं करता है तो क्या? मेहनती लड़का है, कुछ न कुछ तो करेगा ही. इसलिए जल्दी ही उस की नौकरी भी लग जाएगी.’

लक्ष्मण का दोस्त सुरेश भी किरण के घर पर आनेजाने लगा था. किरण से बातचीत भी किया करता था. उसे लगा कि सचमुच, लक्ष्मण के लिए यह खुशी की बात है कि इतनी विचारवान, पढ़ीलिखी और सुशील लड़की के दिल पर उस ने अधिकार प्राप्त कर लिया है.

लक्ष्मण अब तक इसी सोच में था कि आखिर वह बिना दहेज लिए कहां से इतने पैसों का इंतजाम करे कि किरण के घर वालों की इज्जत कर सके और अपने दोस्तों का खयाल भी रख सके.

अचानक उसे उपाय सूझा. उस ने सोचा, आखिर इतने दोस्त कब साथ देंगे? अबू, रवींद्र, श्यामल, देवनाथ और सुरेश. सभी अपने ही तो हैं. क्यों न उन्हीं लोगों से कुछ रुपए उधार ले लूं?

उस ने उदास मन में भी आस का दीप जलाए रखा था. उसे पूरा यकीन था कि उस के दोस्त इस मौके पर उस का साथ जरूर देंगे.

आज सुरेश को लग रहा था कि लक्ष्मण जोकुछ कर रहा है, अपनी नैतिकता के कारण. इसी के आगे लक्ष्मण ने अपने बाप से भी मुंह मोड़ लिया है. उस की जाति के लोग उस पर थूथू कर रहे हैं, तिरछी नजर से देख रहे हैं. फिर भी लक्ष्मण के चेहरे पर खुशी के बादल ही मंडरा रहे हैं. उस के दिल को इस बात पर तसल्ली मिलती है कि दहेज न ले कर और अछूत कही जाने वाली जाति की लड़की से शादी करने का फैसला ले कर वह अपने सामाजिक फर्ज को निभा रहा है. आखिर गलत परंपरा को तोड़ कर नई परंपरा को अपनाने में बुराई ही क्या है?

आखिर इस नई परंपरा को अपनाने में मदद करने के लिए लक्ष्मण को मुंह खोलना ही पड़ा. मुंह खोलने भर की देर थी, उस के दोस्तों ने अपनीअपनी पहुंच के मुताबिक दिल खोल कर लक्ष्मण को मदद दी.

इसी का यह फल था कि लक्ष्मण की शादी धूमधाम से हो रही थी. बेकार खर्च नहीं किए जाने के बावजूद बरात में कोई खास कमी नजर नहीं आ रही थी. झाड़बत्ती के खर्च को बचाने के खयाल से शाम के उजाले में ही बरात दरवाजे पर लगा दी गई थी. बरात में अपने ही परिवार के लोग नजर नहीं आ रहे थे. हां, दोस्तों की भीड़ जरूर बरात की शोभा बढ़ा रही थी.

शादी के समय मंडवे में जब लक्ष्मण के पिताजी की उपस्थिति की जरूरत पड़ी, तब समस्या आ पड़ी. उस के बाबूजी तो गुस्से के चलते वहां पर आए ही नहीं थे.

इसी बीच लक्ष्मण के दोस्त देवनाथ ने मंडवे में सामने आ कर लक्ष्मण से कहा, ‘‘इस में परेशान होने की क्या बात है लक्ष्मण? जिस लड़के का बाप या भाई जिंदा नहीं रहता, क्या उस की शादी रुक जाती है? मैं बन जाता हूं तुम्हारा बड़ा भाई.’’

यह सुन कर लक्ष्मण गदगद हो उठा. लड़की वालों का भी यही हाल था. सभी सोच रहे थे, ‘‘लड़की के पिता न होने के कारण उपस्थित नहीं हैं और लक्ष्मण के बाबूजी जिंदा हो कर भी अनुपस्थित हैं. क्या फर्क रह जाता है ऐसे मौके पर… जिंदगी और मौत में… अपने और बेगाने में?’’

शादी आखिर हो गई. दूसरे दिन किरण ब्याहता बन कर दुलहन के रूप में लक्ष्मण के घर में आई.

लक्ष्मण की मां के अनुरोध और जिद पर उस के बाप ने कोई विरोध तो नहीं किया, लेकिन मन ही मन अनबन बनी रही.

उस घर में किरण जिंदा दुलहन नहीं, बल्कि निर्जीव गुडि़या बन कर रह गई. किसी ने पूछा नहीं. किसी का भी प्यार उसे न मिला. उस घर में सारे लोगों के होते हुए भी उस के लिए सिर्फ लक्ष्मण ही रह गया था.

कुछ दिनों में ही लक्ष्मण को लगा कि यह घर अपना हो कर भी अपना नहीं है, यहां के लोग अपने हो कर भी बेगाने हैं. इस तरह अपने लोगों के बीच कटकट कर रहने से तो बेहतर है, खुले आकाश के नीचे रह कर जीना.

उस ने किसी से कोई शिकायत नहीं की. वह जानता था कि मांगने से दुश्मनी मिल सकती है, प्यार नहीं मिल सकता.

और फिर एक दिन अपने मन से उस ने उसी शहर में किराए पर 2 कमरे का एक मकान ले लिया. उस में वह किरण के साथ रहने लगा.

किराए के मकान में घुसते ही उसे असली घर जैसा सुख मिला. वहां के पड़ोसी लोगों के साथ भी धीरेधीरे मेलजोल बढ़ गया. तब वे आपस में घुलमिल गए.

लेकिन अभी भी उसे किनारा नजदीक नजर नहीं आ रहा था. इतना संतोष तो था ही कि दूर है किनारा तो क्या, जिस मंजिल की तलाश थी, उस के बहुत करीब वे बढ़ते जा रहे थे.

कुछ ही दिनों के बाद उन दोनों के दिन फिर गए. लक्ष्मण को अदालत में सहायक के पद पर नौकरी मिल गई. अब वह सोचने लगा, माली तंगी से छुटकारा पा सकेगा और खुशीखुशी जिंदगी का सफर तय कर सकेगा.

लेखक – सिद्धेश्वर

Hindi Story : और झंडा फहरा दिया

Hindi Story : आमंत्रण कार्ड पर छपे ‘समरसता भोज’ के आयोजन की खबर पढ़ कर ठाकुर रसराज सिंह का माथा ठनक गया. आखिर वे उस गांव के मुखिया थे और उन की तूती आज भी बोलती थी. गांव की नई सरपंच ने उन से सलाह लिए बिना यह क्या अनर्थ कर दिया.

गुस्से से लाल हुए जा रहे ठाकुर रसराज सिंह ने अपने सचिव गेंदालाल को बुला कर डांटते हुए कहा, ‘‘क्यों रे गेंदा, पंचायत की सरपंच पगला गई है क्या. हम ठाकुरों और ब्राह्मणों को निचली जाति के लोगों के साथ बिठा कर भोज कराना चाहती है. हमारा धर्म भ्रष्ट करना चाहती है.’’

‘‘ठाकुर साहब, इस में हम कुछ नहीं कर सकते. नई सरपंचन सरकारी फरमान की आड़ ले कर हमें नीचा दिखाना चाह रही है. सरकार छुआछूत मिटाने के लिए गांवगांव ऐसे प्रोग्राम करा रही है और सरकारी अफसर उस का साथ दे रहे हैं,’’ सचिव गेंदालाल ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘तो सुन ले गेंदा ध्यान से, हम ऐसे प्रोग्राम में हरगिज नहीं जाएंगे. इन की यह हिम्मत कि हमारी बराबरी में बैठ कर ये निचली जाति के टटपुंजिए लोग भोजन करेंगे. कोई पूछे तो कह देना कि जरूरी काम के सिलसिले में शहर गए हुए हैं,’’ ठाकुर रसराज सिंह बोले.

ये वही ठाकुर साहब हैं, जो दिन के उजाले में इन दलितों के साथ छुआछूत का बरताव करते हैं और रात के अंधेरे में इन्हीं दलितों की बहनबेटियों को अपने बिस्तर पर सुलाते हैं. पंचायत में सरपंच कोई रहा हो, मरजी इन जैसे दबंगों की ही चलती है.

यही वजह थी कि सरकारी योजनाओं का फायदा इन दबंगों ने जरूरतमंद लोगों को न दिला कर अपने परिवार के लोगों को दिला दिया था. गरीब मजदूर के पास रहने को घर नहीं था, पर प्रधानमंत्री आवास इन दबंगों ने अपने बेटाबहू को अलग परिवार दिखा कर हड़प लिए थे.

श्रद्धा गांव की सरपंच तो बन गई थी, मगर उस के पास हक कुछ नहीं थे. वह सरपंच होने के नाते कुछ करने की सोचती, मगर गांव के मुखियाजी और उन की जीहुजूरी करने वाले लोग श्रद्धा को नीचा दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ते थे.

उस दिन को श्रद्धा आज तक नहीं भूली है, जिस दिन पंचायत की ग्राम सभा की बैठक थी. पंचायत का सचिव गेंदालाल ठाकुर, उपसरपंच मुन्ना महाराज और कुछ पंच वहां पहले से मौजूद थे. गांव की महिला सरपंच श्रद्धा जैसे ही पंचायत भवन में पहुंची, तो उस ने पाया कि उस के बैठने के लिए कुरसी तक नहीं रखी गई थी.

इधरउधर नजर दौड़ाने के बाद श्रद्धा ने सचिव की ओर देखते हुए कहा, ‘‘सचिव महोदय, सरपंच के बैठने के लिए कुरसी का इंतजाम नहीं है क्या?’’

इस बात पर ग्राम पंचायत का दबंग सचिव गेंदालाल तुनकते हुए बोला, ‘‘तुम्हें बैठाने के लिए कुरसी नहीं है. बैठना है तो घर से कुरसी ले आओ, नहीं तो कायदे से जमीन पर ही बैठो.’’

तभी उपसरपंच मुन्ना महाराज भी गेंदालाल के साथ सुर मिलाते हुए बोला, ‘‘सरपंचन बाई, यह मत भूलो कि तुम किस जाति की हो, आखिर गांव की मानमर्यादा का ध्यान तो तुम्हें रखना होगा. गांव में आज तक कोई भी निचली जाति का पंडितों और ठाकुरों के सामने बराबरी से नहीं बैठता.’’

‘‘मगर पंडितजी, जनता ने हमें सरपंच बनाया है और संविधान ने हमें यह हक दिया है कि हम सरपंच की कुरसी पर बैठें,’’ श्रद्धा ने अपनी बात रखते हुए कहा.

‘‘जनता ने तुम्हें मजबूरी में सरपंच बनाया है. चुनाव में गांव की सरपंच की कुरसी आरक्षण में तुम्हारी जाति में चली गई,’’ उपसरपंच मुन्ना महाराज बोला.

‘‘तुम अभी नईनई सरपंच बनी हो, इसलिए तुम्हें पता नहीं है. पहले भी सरपंच कोई रहा हो, पंचायत में फैसला तो पंडितों और ठाकुरों का ही चलता रहा है,’’ सचिव गेंदालाल तंबाकू मलते हुए बोला.

आखिर उस दिन सचिव और उपसरपंच की बात सुन कर महिला सरपंच अपमान का घूंट पी कर तो रह गई, मगर पढ़ीलिखी श्रद्धा को यह बात घर कर गई.

श्रद्धा यह सोच कर हैरान थी कि आजादी के इतने साल बाद भी गांव में छुआछूत इस कदर हावी है कि गांव के दबंग दलित सरपंच से जातिगत भेदभाव रखते हैं. ऊंची जाति के ये लोग नहीं चाहते कि जनता द्वारा चुनी गई सरपंच उन की बराबरी में बैठे.

इस मामले को बीते 2 महीने हो गए थे और जब 15 अगस्त को श्रद्धा तिरंगा झंडा फहराने पहुंची, तो उपसरपंच मुन्ना महाराज ने उसे झंडा फहराने से मना कर दिया.

मुन्ना महाराज ने साफ कर दिया कि कई सालों से पंचायत भवन में गांव के मुखिया ठाकुर रसराज सिंह ही झंडा फहराते आए हैं.

रसूख वाले लोगों ने एक सुर में यह फैसला ले लिया और श्रद्धा को बिना झंडा फहराए ही घर वापस आना पड़ा.

श्रद्धा गांव की लड़की जरूर थी, मगर उस ने राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र सब्जैक्ट ले कर अपनी ग्रेजुएशन पूरी की थी और उस की शादी इसी गांव के एक सरकारी टीचर परमलाल से हुई थी.

गांव में जब चुनाव का समय आया, तो निचली जाति के लोगों ने पढ़ीलिखी श्रद्धा को सरपंच पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया. ऊंची जाति के लोगों से पूछताछ किए बिना सरपंच की दावेदारी की बात जब गांव के दबंगों को पता चली, तो उन्होंने उन के घर में काम करने वाली नौकरानी का परचा दाखिल करवा दिया. जब सरपंच के लिए चुनाव हुए, तो श्रद्धा को खूब वोट मिले और वह सरपंच बन गई.

पढ़ीलिखी श्रद्धा अपने पति के साथ खुश थी. इस बार गांव में जब सरपंच के चुनाव हुए, तो कुछ लोगों ने परमलाल को ही यह सलाह दी कि वह सरपंच पद के लिए श्रद्धा का परचा दाखिल करा दे.

दरअसल, इस बार पंचायत में सरपंच पद अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित था और गांव में जो दूसरे घरों की औरतें थीं, वे उतनी पढ़ीलिखी नहीं थीं. ज्यादातर औरतें घूंघट में रहती थीं. गांव में दलित जाति के मर्दों की भी यही सोच थी कि पंचायत का कामकाज देखना दूसरी किसी औरत के बस की बात नहीं है.

परमलाल ने गांव के कुछ अमीर लोगों से भी इस बारे में मशवरा किया, तो उन्होंने यह सोच कर हां कह दी कि सरपंच कोई बने, मरजी चलेगी तो गांव के मुखिया की ही.

परमलाल को गांव के लोग मास्साब कहते थे. उस दिन मास्साब जब अपने स्कूल का झंडा फहराने के बाद घर आए, तो श्रद्धा उतनी खुश नहीं थी. उस के चेहरे पर मायूसी देख कर मास्साब ने अंदाजा लगाया कि शायद सासबहू के बीच कोई कहासुनी हुई होगी.

भोजन करने के बाद रात में बिस्तर पर मनुहार के साथ परमलाल ने पूछा, ‘‘आज तुम्हारा फूल सा चेहरा मुर झाया सा लग रहा है. क्या अम्मां ने कुछ भलाबुरा कह दिया?’’

‘‘जब से गांव की सरपंच बनी हूं, तब से अम्मां ने तो कुछ नहीं कहा, मगर आज पंचायत में मु झे झंडा फहराने का हक भी नहीं मिला. सचिव और उपसरपंच ने मेरी जानबू झ कर बेइज्जती की है,’’ श्रद्धा पूरी कहानी बताते हुए बोली.

‘‘अच्छा तो यह बात है. आखिर गांव के इन ऊंची जाति वालों से देखा नहीं जा रहा है कि एक दलित जाति की औरत सरपंच बनी बैठी है,’’ परमलाल उसे दिलासा देते हुए बोला.

‘‘इन्हें सबक कैसे सिखाएं और संविधान ने हमें जो हक दिया है, वह हमें कैसे मिलेगा?’’ श्रद्धा ने चिंता जताते हुए कहा.

‘‘देखो श्रद्धा, गांव के ये दबंग कानून से नहीं मानते. इन की पहुंच मंत्री तक है, कुछ करेंगे तो पुलिस इन का ही साथ देती है. तुम्हें याद नहीं कि छोटे भाई की शादी में घोड़े पर बैठ कर गांव में फेरी लगाने पर इन्होंने बापू के साथ कितना झगड़ा किया था.’’

‘‘हां, यह बात तो है, पर इन सब को सबक तो सिखाना होगा, तभी हम दलितों का हमारा असली हक मिलेगा,’’ श्रद्धा ने पक्का इरादा करते हुए कहा.

महात्मा गांधी की तमाम कोशिशों के बावजूद गांव में अभी भी छुआछूत है. गांव में ऊंची जाति के लोगों के महल्ले में लगे हैंडपंप का पानी भी दलित जाति के लोगों को पीने की आजादी नहीं है.

गांव के स्कूल में बनने वाले मिड डे मील में केवल दलित जाति के बच्चे ही खाना खाते हैं. घर वालों ने बच्चों को पट्टी पढ़ा दी थी कि निचली जाति के लोगों के साथ बैठ कर भोजन नहीं करना है.

गांव के इन दबंगों को सबक सिखाने के लिए परमलाल ने श्रद्धा से कहा, ‘‘क्यों न हम गांव में 26 जनवरी पर ‘समरसता भोज’ का आयोजन करें, जिस में स्कूल के बच्चे और गांव के सभी लोगों को आमंत्रित करें. तुम जनपद और जिले के अफसरों से मिल कर पंचायत के इस कार्यक्रम की जानकारी दे दो.

‘‘वैसे भी सरकार छुआछूत मिटाने पर जोर दे रही है. ऐसे आयोजन से पंचायत की वाहवाही होगी और हमें पता है कि गांव के दबंग भोज में शामिल होंगे नहीं और तुम्हें झंडा फहराने का मौका मिल जाएगा.’’

श्रद्धा को पति की यह सलाह अच्छी लगी. उस ने जिला और जनपद के अफसरों को इस प्रोग्राम की जानकारी दे कर उन्हें गांव आने का न्योता दिया.

अफसरों की सलाह से 26 जनवरी पर सामूहिक रूप से गांव की साफसफाई के साथ तिरंगा झंडा फहराना और समरसता भोज का आयोजन किया जाना पक्का हुआ था.

आयोजन के आमंत्रण कार्ड छपवा कर गांव के मुखिया और दूसरे लोगों को भी आमंत्रित किया गया.

श्रद्धा ने मुखियाजी के पास जा कर कहा था, ‘‘ठाकुर साहब, आप को ही इस प्रोग्राम में तिरंगा झंडा फहराना है.’’

मुखियाजी ने हामी भर दी, लेकिन सरपंच के जाने के बाद जब आमंत्रण पत्र को ठीक से पढ़ा तो समरसता भोज का प्रोग्राम देख कर उन की भौंहें तन गईं. प्रोग्राम में बड़े अफसर आ रहे थे. लिहाजा, उन्होंने इस का विरोध तो नहीं किया, पर गांव के ऊंची जाति के लोगों को इस प्रोग्राम में जाने से रोक दिया.

तय समय पर जब 26 जनवरी का प्रोग्राम पंचायत में शुरू हुआ, तो सरपंच और गांव के दूसरे लोगों के साथ सड़कों पर सफाई की गई. बड़े अफसर केवल हाथ में झाड़ू ले कर फोटो खिंचवाते नजर आ रहे थे.

प्रोग्राम में गांव के मुखिया ठाकुर साहब और उन के साथी मौजूद नहीं थे. सचिव गेंदालाल सरकारी मुलाजिम होने के चलते वहां पर मौजूद था, मगर उस के चेहरे के हावभाव से साफ जाहिर था कि उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.

झंडा फहराने से पहले सरपंच श्रद्धा ने सचिव गेंदालाल से पूछा, ‘‘हमारे मुखियाजी दिखाई नहीं दे रहे, फिर झंडा कौन फहराएगा?’’

‘‘मुखियाजी किसी जरूरी काम से बाहर गए हैं,’’ सचिव गेंदालाल बोला.

‘‘तो फिर देर किस बात की सरपंच महोदया, पंचायत की मुखिया आप हो. झंडा फहराने की जिम्मेदारी भी आप की है,’’ जनपद की एक महिला अफसर ने कहा.

श्रद्धा की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने जोश के साथ तिरंगे झंडे के स्तंभ और गांधीजी की फोटो पर तिलक लगाया और जैसे ही सभी सावधान की मुद्रा में खड़े हुए, तो श्रद्धा ने डोरी खींच कर तिरंगा झंडा फहरा दिया. तिरंगा फहराने से गिरे फूल जमीन पर बिखर गए. भारत माता की जयघोष के साथ राष्ट्रगान का गायन हुआ.

समरसता भोज में सभी लोगों ने एकसाथ कतार में बैठ कर भोजन किया. समरसता भोज में गांव के ऊंची जाति के दबंग शामिल नहीं थे, मगर उन्हें छोड़ कर गांव के सभी लोगों ने भरपेट भोजन किया.

आसमान में लहराते तिरंगे झंडे के साथ श्रद्धा का मन भी आज पूरी तरह उमंग से लहरा रहा था.

Family Story : लक्खू का गृहप्रवेश

Family Story : लक्खू मोची अपनी दुकान पर हर रोज सुबह 7 बजे आ कर बैठ जाता था. वह टूटी हुई चप्पलों और फटे हुए जूतों की मरम्मत करता था. उस की दुकान खूब चलती थी. वह चाहे जूते की पौलिश करता या टूटी चप्पलें बनाता, उस की मेहनत साफ झलकती थी. उस के सधे हुए काम से लोग खुश हो जाते थे.

लक्खू मोची की बीवी अंजू बहुत खूबसूरत थी. उस का रंगरूप मोहक था. वह लक्खू की घरगृहस्थी बखूबी संभाल रही थी. वह 10वीं जमात तक पढ़ी थी, जबकि लक्खू मोची ने तो स्कूल का मुंह तक नहीं देखा था. वह सिरे से अनपढ़ था. लेकिन शादी के बाद अंजू ने उसे थोड़ाबहुत पढ़नालिखना सिखा दिया था. अब तो वह अखबार भी पढ़ लेता था.

एक दिन औफिस जाने के लिए एक मैडम घर से निकलीं, तो रास्ते में उन की चप्पल टूट गई. वे लक्खू की दुकान पर पहुंचीं और बोलीं, ‘‘लक्खू, जरा जल्दी से मेरी चप्पल की मरम्मत कर दो, नहीं तो दफ्तर के लिए लेट हो जाऊंगी.’’

लक्खू मोची ने उस मैडम की चप्पल की मरम्मत 5 मिनट में कर दी.

‘‘ये लो 10 रुपए लक्खू,’’ उन मैडम ने चप्पल मरम्मत के पैसे दे दिए.

तभी एक साहब आ कर बोले, ‘‘लक्खू, मेरे जूते पौलिश कर दो.’’

लक्खू ने फटाफट ब्रश चला कर जूते पौलिश कर दिए.

‘‘लक्खू, ये लो 25 रुपए,’’ इतना कह कर वे साहब चमकते चूते पहन कर चल दिए.

शाम हो गई थी. लक्खू अपने घर पहुंच गया था. वह चारपाई पर जा कर लेट गया. वह दिनभर की थकान इसी चारपाई पर मिटाता था.

थोड़ी देर में अंजू चाय बना कर ले आई और बोली, ‘‘ये लीजिए, चाय पी लीजिए.’’

लक्खू चारपाई से उठ कर बैठ गया. वह खुश हो कर चाय पीने लगा. अंजू भी उस के पास बैठ कर चाय पीने लगी.

‘‘मकान मालिक को हर महीने किराए की मोटी रकम देनी पड़ती है. क्यों न हम लोग अपना मकान बना लें. इस से किराए का पैसा भी बच जाएगा,’’ अंजू ने लक्खू से कहा.

‘‘हम लोगों के पास इतने रुपए हैं कि अपना मकान बना सकें. मैं रोजाना चप्पलजूते मरम्मत कर तकरीबन 500 रुपए ही कमा पाता हूं. वे सब भी दालरोटी में खर्च हो जाते हैं,’’ कहते हुए लक्खू के चेहरे पर मजबूरी उभर आई थी.

‘‘मैं आप को एक उपाय बताऊं…’’ अंजू ने कहा.

‘‘हांहां, बताओ,’’ लक्खू बोला.

‘‘आप दुकान में नई चप्पलें और नए जूते बेचिए. इस से हमारी आमदनी और बढ़ जाएगी,’’ अंजू ने कहा.

‘‘लेकिन मैं इतनी पूंजी कहां से लाऊंगा?’’ लक्खू ने पूछा.

‘‘आप होलसेल से माल ले आइए. जब बिक्री हो जाए, तो दुकानदार को पैसे दे दीजिएगा,’’ अंजू ने बताया.

‘‘हां, ऐसा हो तो सकता है. आज तो मैं ने मान लिया कि तुम्हारा दिमाग कंप्यूटर की तरह तेज काम करता है,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘दिमाग तो लगाना पड़ता है, नहीं तो हम लोग का घर कैसे बनेगा,’’ अंजू ने मुसकरा कर कहा.

रात के 10 बज रहे थे. लक्खू और अंजू बिस्तर पर लेटे हुए थे. थकान से लक्खू को नींद आ रही थी, लेकिन अंजू के दिल में प्यार की उमंगें उठ रही थीं.

‘‘सो गए क्या?’’ अंजू ने लक्खू से पूछा.

‘‘नहीं, पर जल्दी ही सो जाऊंगा,’’ लक्खू ने अलसाई आवाज में कहा.

‘‘ज्यादा नहीं, आप 15 मिनट तो मेरे साथ जागिए,’’ कह कर अंजू ने लक्खू को चूम लिया.

लक्खू अंजू का इशारा समझ गया और बोला, ‘‘अब तो मुझे जागना ही पड़ेगा,’’ कह कर वह अंजू को अपनी बांहों में भर कर चूमने लगा. उन दोनों पर प्यार का नशा छा गया.

वे एकदूसरे के जिस्म से खेलने लगे. कुछ देर तक प्यार का खेल चलता रहा, फिर थक कर वे दोनों गहरी नींद में सो गए.

अगले दिन लक्खू थोक विक्रेता से जूतेचप्पल ले कर अपनी दुकान में बेचने लगा. जल्दी ही उस की आमदनी बढ़ने लगी.

3 साल में ही लक्खू के पास इतने रुपए हो गए कि उस ने एक नया मकान बना लिया. अंजू और लक्खू का नए मकान का सपना पूरा हुआ था, लेकिन अभी गृहप्रवेश करना बाकी था.

एक सुबह लक्खू अपनी दुकान के लिए जा रहा था कि तभी अंजू ने कहा, ‘‘आप गृहप्रवेश की पूजा के
लिए पंडितजी से बात कीजिए. यह काम जल्द निबट जाए, तो घर का किराया बच जाएगा.’’

‘‘ठीक है, मैं आज ही पंडितजी से बात करता हूं,’’ कह कर लक्खू वहां से चला गया.

पंडितजी कालोनी में पूजा कराते थे. वे लक्खू को रास्ते में ही मिल गए.

‘‘प्रणाम पंडितजी,’’ कह कर लक्खू ने हाथ जोड़े.

‘‘कहो, कोई खास बात है क्या?’’ पंडितजी ने लक्खू से पूछा.

‘‘हां, मुझे गृहप्रवेश की पूजा करानी थी,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘अरे लक्खू मोची, तुम ने भी घर बना लिया… चप्पलजूते मरम्मत कर के इतनी तरक्की कर ली,’’ पंडितजी ने हैरान हो कर लक्खू से कहा.

‘‘हां, मेहनतमशक्कत से एकएक पाई जोड़ कर घर बनाया है,’’ लक्खू ने थोड़ी नाराजगी जताई…

‘‘पंडितजी, आप की क्या दानदक्षिणा होगी, बता दीजिए. मुझे 1-2 दिन में पूजा करा लेनी है,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘अभी एक यजमान के यहां पूजा कराने जा रहा हूं. कल बता दूंगा,’’ पंडितजी अकड़ कर चले गए.
लक्खू रात में जब घर लौटा, तब अंजू ने पूछा, ‘‘क्या पंडितजी से बात हुई थी? वे दक्षिणा क्या लेंगे?’’

‘‘हां, उन से बात हुई थी. वे दक्षिणा क्या लेंगे, कल बताने को बोले हैं,’’ लक्खू ने कहा.

शाम को पंडितजी घर पर बैठे थे. पंडिताइन भी पास ही बैठी थीं. पंडितजी ने पंडिताइन से लक्खू का जिक्र किया, ‘‘लक्खू मोची के घर का गृहप्रवेश है. मुझे पूजा कराने को बोल रहा था. मैं तो धर्मसंकट में पड़ गया हूं. तुम्हीं बताओ, उस के यहां मैं जाऊं या नहीं?’’

पंडिताइन कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘लक्खू मोची है. आप ब्राह्मण हो कर उस के घर पूजा कराने जाएंगे. लोग क्या कहेंगे कि पंडितजी मोची के घर भी पूजा कराने जाते हैं.

‘‘उन के यहां के बरतन कितने गंदे होते हैं. मुझे तो देख कर ही घिन आती है. उन्हीं बरतनों में आप को दहीपूरी और मिठाई का भोग लगाना पड़ेगा.’’

‘‘कोई उपाय बताओ कि मुझे करना क्या होगा?’’ पंडितजी ने पूछा.

‘‘आप को यही करना है कि दूसरे यजमानों से जो दक्षिणा लेते हैं, लक्खू मोची से उस का दोगुना मांगिएगा. वह दक्षिणा का रेट सुन कर भाग जाएगा. इस तरह लक्खू मोची से आप का पिंड छूट जाएगा.’’

पंडितजी को यह उपाय भा गया. उन के होंठों पर कुटिल मुसकान खिल गई.

पंडितजी लक्खू की दुकान पर पहुंचे. उस समय लक्खू खाली बैठा था. पंडितजी को देख कर लक्खू ने हाथ जोड़े और बोला, ‘‘प्रणाम पंडितजी… गृहप्रवेश की पूजा के लिए आप को कितनी दक्षिणा देनी होगी?’’

‘‘दक्षिणा के 1,000 रुपए लगेंगे,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘मुझ से दक्षिणा के 1,000 रुपए क्यों, जबकि दूसरों से तो आप 500 रुपए ही लेते हैं?’’ लक्खू ने पूछा.

‘‘देखो लक्खू, तुम मोची हो. मैं ब्राह्मण हूं. तुम्हारे घर जा कर पूजा करानी है. अपना धर्म भी भ्रष्ट करूं और दोगुनी दक्षिणा भी न लूं,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘अच्छा, तो यह बात है. पंडितजी, आप जातीय जंजाल में जी रहे हैं. पूजापाठ कराना तो आप का ढकोसला है. आप की रगरग में छुआछूत की भावना भरी हुई है.

‘‘मुझे ऐसे पंडितजी से गृहप्रवेश नहीं कराना है. मेरी समझ से आप का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘लक्खू मोची, तुम मेरा सामाजिक बहिष्कार करोगे. अधर्मी, पापी. छोटी जाति का आदमी,’’ पंडितजी गुस्से से कांप रहे थे.

लक्खू को भी काफी गुस्सा आ गया. उस ने अपने पैर से जूता निकाल कर पंडितजी को धमकाया, ‘‘जाओ, नहीं तो इसी जूते से चेहरे का हुलिया बिगाड़ दूंगा.’’

लक्खू और पंडितजी लड़नेमरने को तैयार थे. आसपास के लोगों ने बीचबचाव कर के उन दोनों को अलग कर दिया.

लक्खू जब शाम को घर पहुंचा, तब अंजू ने पूछा, ‘‘पंडितजी कल गृहप्रवेश कराने आ रहे हैं न?’’

‘‘नहीं. वे तो कहने लगे कि मोची के घर नहीं जाऊंगा. उन का धर्म भ्रष्ट हो जाएगा. वे हम लोगों को अछूत मानते हैं,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘जाने भी दीजिए. हम लोग नए ढंग से गृहप्रवेश कर लेंगे. ऐसे नालायक पंडित पर निर्भर रहना सरासर बेवकूफी है,’’ अंजू ने कहा.

दूसरे दिन लक्खू और अंजू ने मिल कर नए घर को फूलों की माला से सजा दिया था. अंजू ने पूरी, मटरपनीर की सब्जी और सेंवइयां बनाई थीं.

अंजू ने लक्खू से कहा, ‘‘बगल की बस्ती से गरीब बच्चों को बुला कर ले आइए. उन बच्चों को हम लोग भरपेट भोजन कराएंगे.’’

बस्ती के 8-10 बच्चे पंगत लगा कर बैठ गए थे. पूरी, मटरपनीर की सब्जी व सेंवइयां बच्चों को परोस दी गईं. बच्चों ने छक कर खाया. कुछ बच्चे खापी कर खुशी से नाचनेगाने लगे थे. बच्चों को नाचतेगाते देख कर अंजू और लक्खू बेहद खुश थे.

अंजू और लक्खू का गृहप्रवेश दूसरे से अलग और अनूठा था. अंजू और लक्खू अपने नए घर में खुशीखुशी रहने लगे थे.

इस बात को 2 महीने बीत चुके थे. लक्खू अपनी दुकान पर बैठा था. इतने में पंडितजी अपनी टूटी हुई चप्पल की मरम्मत के लिए लक्खू की दुकान पर आए थे.

‘‘लक्खू, मेरी चप्पल टूट गई है. फटाफट मरम्मत कर दो. मुझे पूजा कराने जाना है,’’ पंडितजी ने कहा.

लक्खू ने पंडितजी को पहचानते हुए कहा, ‘‘आप की चप्पल यहां मरम्मत नहीं होगी. कहीं और जा कर देखिए.’’

‘‘लेकिन, मेरी चप्पल क्यों नहीं मरम्मत होगी?’’ पंडितजी ने पूछा.

लक्खू ने कहा, ‘‘मेरे घर पूजा कराने पर आप का धर्म भ्रष्ट होता है. मेरे हाथ से चप्पल मरम्मत कराने पर क्या आप का धर्म भ्रष्ट नहीं होगा.’’

‘‘बकवास मत करो. जल्दी से मेरी चप्पल मरम्मत कर दो. जो पैसा लेना है, ले लो.’’

‘‘मैं ने कह दिया न कि आप की चप्पल मरम्मत नहीं करूंगा,’’ लक्खू ने कहा.

‘‘लक्खू मोची, घर आई लक्ष्मी को ठुकराना नहीं चाहिए. ग्राहक से ही तुम्हारी रोजीरोटी चलती है,’’ पंडितजी ने थोड़ी खुशामद की.

‘‘मुझे उपदेश मत दीजिए. अपना रास्ता नापिए,’’ कह कर लक्खू एक ग्राहक के जूते में पौलिश करने लगा.

पंडितजी टूटी चप्पल ही पहन कर घिसटते हुए चल दिए. उन को नंदन साहब के यहां पूजा करानी थी. वहां दक्षिणा की मोटी रकम मिलने वाली थी.

चिलचिलाती धूप थी. सड़क पर कोई सवारी नहीं थी. अमूमन रिकशा वाले टैंपो वाले दिख जाते थे, लेकिन इस आफत में सभी गायब थे.

समय बीता जा रहा था. पंडितजी की चिंता बढ़ती जा रही थी. वे मन ही मन लक्खू को कोस रहे थे, ‘लक्खू मोची, तुम ने मुझ से खूब बदला लिया है.’

आखिरकार पंडितजी टूटी चप्पल से पैर घिसटते हुए नंदन साहब के घर पहुंच गए थे. वहां का नजारा देख कर उन के होश उड़ गए. नंदन साहब कुरसी पर बैठे हुए थे. कोई दूसरे पंडितजी पूजा करा रहे थे.

नंदन साहब का ध्यान पंडितजी पर गया. वे बोले, ‘‘आप बहुत लेट आए हैं.’’

‘‘हां, एक घंटा लेट हो गया. थोड़ी परेशानी में पड़ गया था,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘खैर, कोई बात नहीं. पूजा कराने के लिए बगल के मंदिर से पंडितजी को बुला लिया है. अब तो पूजा भी खत्म होने वाली है. आप की जरूरत नहीं रही. आप जा सकते हैं,’’ नंदन साहब ने बेलौस आवाज में कहा.
ऐसा सुन कर पंडितजी का चेहरा उतर गया. दक्षिणा की मोटी रकम जो हाथ से निकल गई थी.

वे बुदबुदा रहे थे, ‘‘लक्खू मोची, तुझे जिंदगीभर नहीं भूलूंगा. तुम्हारे चलते मेरी इतनी फजीहत हुई है. लेकिन इस के लिए तो मैं खुद भी कम जिम्मेदार नहीं हूं.’’

Family Story : कंफर्म टिकट

Family Story : सुभि को इस बार होली का बेहद बेसब्री से इंतजार था. इस बार उसे कई सालों बाद अपने घर यह त्योहार मनाने जाना था.

सुभि कई महीने पहले से ही होली पर अपने गांव जाने की तैयारी में जुट गई थी. अपने पति राकेश को उस
ने टिकट कराने के लिए बोल दिया था, पर औफिस में ज्यादा काम होने के चलते वह टिकट लेने के लिए जा ही नहीं सका था.

राकेश ने अपने दोस्त रमेश को यह बात बताई. फिर क्या था. रमेश बोला, ‘‘यार, तुम भी कौन सी दुनिया में जी रहे हो…? अब टिकट खरीदने के लिए रेलवे स्टेशन जाना जरूरी नहीं है. यह काम तो यहां बैठेबैठे औनलाइन भी हो सकता है.’’

रमेश ने पलक झपकते ही अपने आईडी पासवर्ड के साथ आईआरसीटीसी की साइट पर पटना जाने की ट्रेन खोजना शुरू कर दिया. पर सूरत से पटना के लिए किसी भी ट्रेन में एक भी सीट खाली नही दिख रही थी. फिर भी कम वेटिंग वाली टिकट राकेश ने अपने और सुभि के लिए बुक करवा दी. उस के कंफर्म होने की उम्मीद ज्यादा थी, ऐसा रमेश ने कहा था.

दिन बीतते जा रहे थे. सुभि अपने गांव जाने की तैयारी में जुटी थी, पर राकेश हर दिन टिकट का वेटिंग चैक करता था, पर वेटिंग संख्या में कोई खास कमी नहीं आई थी और हर बीतते दिन के साथ राकेश की दुविधा बढ़ती जा रही थी. वह सुभि और अपने बच्चे के चेहरे पर छाए जोश को टिकट कंफर्म नहीं होने के चलते खत्म नहीं करना चाहता था. किंतु वह अंदर ही अंदर घुट रहा था. फ्लाइट की टिकट खरीदना उस के बस में नहीं था और रेल के तत्काल के टिकट का भी कोई ठिकाना नहीं था.

जनरल डब्बे का हाल सोच कर ही राकेश के पसीने छूट रहे थे. उसे याद आया, एक बार उस के पिताजी जब बीमार थे, तो वह जनरल डब्बे में ले गया था, तो भीड़ में एक औरत के साथ कितनी बदसुलूकी हुई थी. वह औरत रो रही थी. इस बार वह सुभि और अपने बच्चे के साथ कैसे जाएगा.

राकेश सोचता था कि जिस देश में बुलेट ट्रेन चलाने की योजना बनाई जा रही है, वहां कुछ नई ट्रेन चलाना क्या इतना मुश्किल है? गरीब कम से कम इनसान की तरह बैठ कर तो कहीं आजा सके.

खैर, सफर का दिन आ गया और टिकट को न कंफर्म होना था और न हुई. अब वह परिवार को ले कर स्टेशन पर आ गया. अभी तक उस ने सुभि को टिकट कंफर्म न होने की बात बताई नहीं थी.

अब राकेश स्टेशन आ गया. ट्रेन आने में कुछ मिनट बाकी थे. वह प्लेटफार्म पर चहलकदमी कर रहा था. इतने में एक आदमी एक ब्रीफकेस ले कर तेज कदमों से भाग कर जा रहा था. उस के हावभाव से लग रहा था कि वह उस ब्रीफकेस को चुरा कर भाग रहा है.

राकेश ने उस आदमी को पकड़ लिया और उसे पकड़ कर उसी दिशा की तरफ जाने लगा, जिधर से वह भागता हुआ आ रहा था.

इतने में 50 साल के एक अमीर आदमी ने राकेश को हाथ दे कर रुकने का इशारा किया. वह रईस आदमी बदहवास सा दिख रहा था. ब्रीफकेस देख कर उस की जान में जान आई.

इतने में एक कांस्टेबल उस चोर को पकड़ कर ले गया, जिसे शायद इस वारदात की सूचना उस अमीर आदमी के असिस्टैंट ने दी थी.

उस सेठ ने राकेश को बहुत धन्यवाद दिया और कहा, ‘‘बेटा, तुम ने मु झे बहुत बड़े नुकसान से बचा लिया. बोलो, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?’’

राकेश बोला, ‘‘बाबूजी, मु झे कुछ नहीं चाहिए.’’

सेठ ने राकेश से कहा, ‘‘तुम शायद मु झे नहीं जानते हो. आओ मेरे साथ.’’

सेठजी राकेश को अपने साथ एसी के वेटिंगरूम में ले गए और बोले, ‘‘मैं सूरत का मशहूर हीरा व्यापारी हूं. मैं पटना जा रहा हूं. प्लेन में स्कैन करने पर हीरों का पता चल जाता, जिस से उन की हिफाजत करना मुश्किल था, इसलिए मैं ट्रेन से पटना जा रहा हूं. वहां के एक बहुत बड़े आदमी को एक हीरे के हार की डिलीवरी देनी है.

‘‘मेरी आंखें एक जौहरी की आंखें हैं, जो कभी धोखा नहीं खा सकतीं. तुम बहुत ईमानदार भी हो और साथ ही परेशान भी हो, इसीलिए तुम्हें मैं ने अपना इतना बड़ा राज बताया. अब जल्दी से अपनी परेशानी बताओ?’’

राकेश सेठजी की बातों से भावुक हो गया और बोला, ‘‘सेठजी, मु झे अपने बीवीबच्चे को पटना ले जाना है.

टिकट कंफर्म नहीं हुआ है, इसीलिए परेशान हूं.’’

सेठ ने कहा, ‘‘भाई, तुम को मैं अपने साथ ऐसी फर्स्ट क्लास में ले कर चलूंगा. तुम चिंता मत करो.’’

सेठजी ने तुरंत ही अपने असिस्टैंट से कहा, ‘‘सुनो, तुम अपनी टिकट मु झे दो और तुम फ्लाइट ले कर सूरत से पटना आ जाना. मेरे साथ राकेश और उस का परिवार जाएगा. और हां, इन का टिकट जनरल क्लास का है, तो टीटी से बात कर के जो भी जुर्माना भरना हो वह सब देख लेना.’’

राकेश को तो मानो अपने कान पर यकीन ही नहीं हुआ. सेठजी की भी गरीबों के प्रति सोच बदल गई. वे सोचने लगे कि जैसे हीरा कोयले की खदान से निकलता है, वैसे ही कभीकभी जनरल डब्बे में सफर करने वाला इनसान इतना बहादुर, होशियार और ईमानदार भी हो सकता है…

इतने में ट्रेन के आने की अनाउंसमैंट हो गई. राकेश सुभि और मुन्ना को ले कर सेठजी के पास आ गया. सेठजी ने उन्हें अपने साथ एसी फर्स्ट क्लास में पटना तक का सफर करा दिया.

News Story : नामर्द

News Story : 22 साल का राजेश दिल्ली की एक पौश कालोनी साउथ ऐक्सटैंशन में अपने नाना के साथ रहता था. 5 साल पहले राजेश के पापा की एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी. राजेश की मम्मी देवयानी एकलौती बेटी थीं, तो वे अपने पति की मौत के बाद बेटे राजेश संग अपने मायके आ गई थीं.

देवयानी के पापा सुरेंद्रनाथ काफी अमीर आदमी थी. तकरीबन 100 करोड़ की प्रोपर्टी उन के नाम थी. चूंकि देवयानी और राजेश ही उन के आखिरी सहारे थे, तो उन्होंने अपनी जायदाद नाती के नाम कर दी थी. पर अभी राजेश खुद से पैसे नहीं इस्तेमाल कर सकता था.

राजेश को अपने ननिहाल में सारे सुख हासिल थे, पर उसे पौकेट मनी के नाम पर ज्यादा पैसे नहीं मिलते थे. नाना का सोचना था कि राजेश पहले अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे, फिर उन का कारोबार संभाल ले.

राजेश दिल्ली की एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी से एमबीए कर रहा था. वहां उस के बारे में सब जानते थे कि वह कितना बड़ा आसामी है. यही वजह थी कि यूनिवर्सिटी की बहुत सी लड़कियां उस पर फिदा थीं, पर उसे तो सारिका से सच्चा इश्क था.

सारिका बहुत खूबसूरत लड़की थी. लंबा कद, भरा बदन, भूरी आंखें, बड़े उभार उसे दिलकश बनाते थे. वह ईस्ट दिल्ली की एक साधारण सी कालोनी में रहती थी.

राजेश भी कम हैंडसम नहीं था. वह पढ़ाई में तेज था और अपने नाना की जायदाद संभालने के काबिल भी था, पर जब उसे मनमुताबिक पैसे नहीं मिलते थे, तब वह कुढ़ जाता था.

एक दिन तो हद ही हो गई थी. सुबह का समय था. राजेश कालेज जाने के लिए तैयार हो रहा था. उस ने अपने नाना से पैसे मांगे, तो उस की मम्मी ने टोक दिया, ‘‘तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो. कुछ दिन पहले ही तो तुम्हें पौकेट मनी मिली है. अभी और पैसों की उम्मीद मत रखो.’’

‘‘पर मम्मी, ये सारे पैसे मेरे ही तो हैं. अगर मैं ही इन का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा हूं, तो फिर क्या फायदा…’’ राजेश ने नाराज हो कर कहा.

‘‘पर, वे पैसे तुम ने कमाए नहीं हैं. नाना ने तुम्हारा भविष्य संवारने के लिए अपनी जायदाद तुम्हारे नाम की है, पर इस का यह मतलब नहीं है कि तुम अनापशनाप खर्च करो. अब जल्दी से तैयार हो जाओ, कालेज भी जाना है,’’ मम्मी ने अपना फैसला सुना दिया.

‘‘देवयानी, बेटे से इतना रूखा हो कर बात मत किया करो. गरम खून है. अभी अपना अच्छाबुरा सम झने की सम झ नहीं है,’’ राजेश के कालेज जाने के बाद सुरेंद्रनाथ ने अपनी बेटी को समझाया.

‘‘पापा, आप नहीं जानते हैं. जब से राजेश को पता चला है कि आप ने अपनी सारी जायदाद उस के नाम कर दी है, तब से वह हवा में उड़ने लगा है,’’ देवयानी ने अपनी चिंता जाहिर की.

‘‘चिंता मत करो. राजेश लायक बच्चा है. देरसवेर वह सम झ जाएगा,’’ सुरेंद्रनाथ ने देवयानी को दिलासा देते हुए कहा.

उधर राजेश कालेज तो चला गया था, पर अपनी मम्मी की बातें उस के दिल में अभी भी चुभ रही थीं. लिहाजा, वह कैंटीन में सारिका के साथ कौफी पी रहा था.

‘‘यार, कभीकभी तो मु झे अपनी मम्मी पर इतना ज्यादा गुस्सा आता है कि दर्द से मेरा सिर फटने लगता है. नाना को कोई दिक्कत नहीं है, पर मेरी मम्मी हमेशा मु झे पौकेट मनी के लिए टोक देती हैं. इतनी जायदाद है, पर मु झे देने के नाम पर एक फूटी कौड़ी नहीं निकालतीं. पता नहीं, किस जन्म का बदला ले रही हैं,’’ राजेश ने सारिका से अपना दर्द शेयर किया.

‘‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा,’’ सारिका ने राजेश का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘अरे, कुछ नहीं बदलेगा. जी में तो आता है कि ऐसा कुछ कर दूं कि कल ही सारी जायदाद मुझे मिल जाए,’’ राजेश ने अपनी भड़ास निकालते हुए कहा.

सारिका बड़ी चालाक थी. उसे पता था कि राजेश अभी अपने आपे में नहीं है. वह तितली की तरह उस के आसपास मंडराती भी इसलिए थी कि राजेश कभी भी अरबपति बन सकता था.

सारिका ने राजेश का हाथ चूमते हुए कहा, ‘‘चलो, आज कालेज से जल्दी निकलते हैं. हम आज होटल में पूरा दिन बिताते हैं. वहां मैं तुम्हारी मसाज कर दूंगी और फिर हम ठंडे दिमाग से इस समस्या का हल निकाल लेंगे.’’

राजेश बोला, ‘‘ठीक है, हम 2 घंटे के बाद अपने पसंदीदा होटल में चलेंगे.’’

ठीक 2 घंटे के बाद राजेश और सारिका एक होटल के कमरे में थे. सारिका आज कहर ढा रही थी. छोटे कपड़ों में उस के उभार राजेश की हवस बढ़ा देते थे.

सारिका और राजेश दोनों बिस्तर पर थे. सारिका उस की हलके हाथों से मसाज कर रही थी. राजेश जोश में आने लगा था. उस ने सारिका को खींच लिया और उसे कपड़ों से आजाद कर दिया. अब मसाज के बजाय सैक्स का खेल शुरू हो गया.

सारिका जानती थी कि लोहा गरम है. उस ने राजेश का भरपूर साथ दिया और उसे तन और मन से शांत कर दिया.

अब वे दोनों बिस्तर पर लेटे हुए थे. सारिका बोली, ‘‘वैसे, तुम्हारे घर वाले इतने कठोर कैसे हो सकते हैं. तुम अपने नाना की जायदाद के एकलौते वारिस हो, फिर भी वे तुम्हें एकएक पैसे के लिए तरसाते हैं.’’

‘‘यार, मु झे गुस्सा तो बहुत आता है, पर मैं कर भी क्या सकता हूं. नाना ने सारी जायदाद मेरे नाम कर रखी है, फिर भी मेरे परिवार वालों की सख्ती की वजह से मु झे इतनी भी पौकेट मनी नहीं मिलती है कि मैं इस भरी जवानी में ऐश कर सकूं. जब 50 साल का हो जाऊंगा, तब क्या ऐसे पैसे का अचार डालूंगा?’’ राजेश ने सारिका के बालों में हाथ फेरते हुए कहा.

सारिका को लगा कि उस का तीर निशाने पर लगा है. वह राजेश के सीने पर अपना सिर रखते हुए बोली, ‘‘मेरे पास एक आइडिया है. पर तुम्हें अपना हक पाने के लिए थोड़ी मर्दानगी दिखानी होगी. एक बार हमारे रास्ते का कांटा निकल जाए, फिर हम दोनों की जिंदगी में बहार ही बहार होगी.’’

‘‘अच्छा, जरा हमें भी बताओ अपना आइडिया. हम भी तो देखें कि इस खूबसूरत जिस्म वाली लड़की के पास एक तेज दिमाग भी है,’’ राजेश ने सारिका की गरदन पर एक चुम्मा लेते हुए कहा.

‘‘तुम्हें अपने नाना को इस बुढ़ापे की जिंदगी से छुटकारा दिलाना होगा.’’

‘‘मतलब…?’’ राजेश ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘मतलब यह कि उन्हें इस लोक से परलोक भेजना होगा. जैसे ही बूढ़ा इस तन से जुदा होगा, वैसे ही सारी जायदाद पर तुम्हारा कब्जा हो जाएगा,’’ सारिका ने अपने खुराफाती दिमाग से एक आइडिया फेंका.

यह सुन कर राजेश हैरान रह गया और बोला, ‘‘नशे में हो क्या… मतलब, मैं अपने नाना का खून कर दूं… किसी की जान लेना इतना आसान है क्या… अगर पकड़ा गया, तो सारी जिंदगी जेल में बितानी पड़ेगी. फिर तो हो ली ऐश,’’ राजेश ने बिदकते हुए कहा.

‘‘अगर तुम मेरे कहे मुताबिक चलोगे, तो सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी. बस, तुम उस अमीरजादे नाती वाली गलती मत करना, जिस ने जोश में होश खो दिया और अब कानून के शिकंजे में बुरी तरह फंस चुका है,’’ सारिका ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा.

‘‘कौन सा नाती? तुम किस कांड की बात कर रही हो?’’ राकेश ने फटी आंखों से पूछा.

‘‘यार, तुम भी न… दीनदुनिया की कोई खबर रखते भी हो या नहीं… या फिर मोबाइल फोन में केवल रील्स देखते रहते हो…’’

‘‘पहेलियां मत बुझाओ. बताओ कि मामला क्या है,’’ राजेश ने कहा.

‘‘मामला आंध्र प्रदेश के हैदराबाद का है. वहां 29 साल के एक नौजवान ने अपने 86 साल के बिजनैसमैन नाना की 6 फरवरी, 2025 को हत्या कर दी.’’

‘‘ओह, तो तुम चाहती हो कि मैं भी अपने नाना को टपका दूं?’’ राजेश ने सवाल किया.

‘‘यार, तुम मुझे बीच में मत टोको. पहले पूरी खबर तो सुनो,’’ सारिका ने झुंझलाते हुए कहा.

‘‘अच्छा, सुनाओ अपनी खबर,’’ राजेश ने मुंह पर उंगली रखते हुए कहा.

‘‘उस लड़के के बिजनेसमैन नाना वेलामती चंद्रशेखर 500 करोड़ की जायदाद के मालिक थे. नाती का नाम कीर्ति तेजा था और उस ने अपने नाना पर चाकू से 73 से ज्यादा वार किए.

‘‘पर बाद में पुलिस ने आरोपी कीर्ति तेजा को गिरफ्तार कर लिया और बताया कि हत्या की वजह प्रोपर्टी का झगड़ा है.

‘‘पुलिस के मुताबिक, चाकू से वार करते हुए कीर्ति तेजा कहता रहा, ‘आप ने जायदाद का सही बंटवारा नहीं किया. कोई मु झे इज्जत नहीं दे रहा. मु झे मेरा पैसा दो.’

‘‘इतना ही नहीं, पुलिस ने बताया कि नाना वेलामती चंद्रशेखर सोमजीगुड़ा में अपनी बेटी सरोजिनी देवी के साथ रहते थे. सरोजिनी देवी कीर्ति तेजा की मां हैं. 6 फरवरी की शाम को कीर्ति तेजा अपने नाना से मिलने उन के घर पहुंचा था.

‘‘जब सरोजिनी देवी रसोईघर में कौफी लेने गईं, तो कीर्ति तेजा और वेलामती चंद्रशेखर के बीच प्रोपर्टी के बंटवारे को ले कर तीखी बहस शुरू हो गई. गुस्से में कीर्ति तेजा ने चाकू निकाला और अपने नाना पर ताबड़तोड़ वार कर दिए.

‘‘चीखपुकार सुन कर कीर्ति तेजा की मां सरोजिनी देवी ने बीचबचाव करने की कोशिश की, तो कीर्ति तेजा ने उन पर भी 5-6 बार हमला कर दिया, जिस से वे गंभीर रूप से घायल हो गईं.

‘‘सरोजिनी देवी ने 11 बजे अपने भाइयों को फोन कर के बुलाया. जब 12 बजे तक उन के भाई पहुंचे, तब
तक वेलामती चंद्रशेखर की मौत हो चुकी थी.’’

‘‘इस के बाद पुलिस ने कीर्ति तेजा के साथ क्या किया?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘पुलिस ने 7 फरवरी को मामला दर्ज कर जांच शुरू की. 8 फरवरी को आरोपी कीर्ति तेजा को गिरफ्तार किया गया. पीडि़त के घर के पास ही पंजगुट्टा फ्लाईओवर के पास से आरोपी की गिरफ्तारी हुई.’’

‘‘कीर्ति तेजा क्या जाहिल लड़का था, जो यह कांड कर दिया? कैसी परवरिश पाई थी उस ने?’’
राजेश ने गंभीर लहजे में पूछा.

‘‘कीर्ति तेजा हाल ही में अमेरिका से मास्टर डिगरी पूरी कर हैदराबाद लौटा था. उस ने पुलिस को बताया कि नाना बचपन से ही उस के प्रति भेदभाव वाला बरताव करते थे और अपनी जायदाद के बंटवारे में उसे हिस्सा नहीं दे रहे थे.’’

‘‘वैसे, वेलामती चंद्रशेखर का क्या इतिहास है?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘वेलामती चंद्रशेखर वेलजन ग्रुप औफ इंडस्ट्रीज के मालिक थे. इस की स्थापना साल 1965 में की गई थी. यह कंपनी शिप प्रोडक्शन और उस से जुड़े सभी काम करती है.

‘‘वेलामती चंद्रशेखर की गिनती हैदराबाद के प्रमुख दानदाताओं में होती थी. उन्होंने एलुरु सरकारी अस्पताल में कैंसर और कार्डियोलौजी केंद्र बनवाने के लिए 40 करोड़ रुपए दान किए थे.

‘‘इस के अलावा उन्होंने एलुरु में सर सीआर रेड्डी कालेज को 2 करोड़ रुपए दिए थे. साथ ही, उन्होंने तिरुमला तिरुपति देवस्थानम को 40 करोड़ रुपए दान किए थे.’’

‘‘तो तुम चाहती हो कि मैं भी अपने नाना का खून कर के पुलिस के हत्थे चढ़ जाऊं?’’ राजेश ने बिस्तर से उठते हुए सवाल किया.

‘‘हां, पर ऐसा तरीका अपनाना कि पुलिस को भनक तक न लगे. ऐसा लगे कि तुम्हारे नाना की मौत कुदरती हुई है,’’ सारिका बोली.

‘‘और ऐसा कैसे हो सकता है?’’ राजेश ने सवाल किया.

‘‘तुम अपने नाना को नींद की दवा दे देना और जब वे सो जाएं तो तकिए से उन का दम घोंट देना,’’ सारिका ने अपनी चाल समझाई.

‘‘हम्म, तो यह प्लान है मैडमजी का. इस सब में तुम्हारा क्या फायदा है?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘जान, जब तुम्हें पूरी जायदाद मिल जाएगी, तो हम दोनों शादी कर लेंगे और अपने सारे सपने पूरे कर लेंगे,’’ सारिका ने राजेश के गले में अपनी बांहें डालते हुए कहा.

‘‘और अगर मेरा यह प्लान पूरा नहीं हो पाया, तो क्या तब भी तुम मुझ से शादी करोगी?’’ राजेश
ने पूछा.

यह सुन कर सारिका तुनक गई और बोली, ‘‘बिना पैसे के जिंदगी झंड हो जाती है. मु झे तो तुम जैसे अमीरजादे की रानी बन कर रहना है.’’

राजेश ने सारिका की बांहों को झटकते हुए कहा, ‘‘सौरी डार्लिंग, पर मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है. यह सच है कि मु झे अपने नाना की प्रोपर्टी चाहिए, पर उस के लिए मैं किसी के खून से अपने हाथ रंग लूं, इतना घटिया भी नहीं. मैं अपने परिवार से बहुत प्यार करता हूं.’’

यह सुन कर सारिका अपने असली रंग में आ गई और गुस्सा होते हुए बोली, ‘‘मु झे पता था कि तुम डरपोक हो. डरपोक ही नहीं, नामर्द भी हो. जो लड़का अपनी प्रोपर्टी हासिल करने के लिए मर्दानगी नहीं दिखा सकता, वह क्या मेरे नखरे उठाएगा.’’

‘‘ओह, तो यह है तुम्हारा असली रूप… कालेज में सब मु झे कहते थे कि सारिका से दूर रहो, यह पैसे के लिए तुम्हारा बिस्तर गरम करती है, पर आज तो तुम ने साबित भी कर दिया.

‘‘मैं नामर्द ही सही, पर हत्यारा नहीं हूं. निकल जाओ यहां से. कहीं गुस्से में मैं तुम्हारा ही खून न कर दूं,’’ राजेश गुस्से में तमतमाया.

‘‘नामर्द कहीं का…’’ सारिका ने इतना कहा और पैर पटकते हुए कमरे से बाहर जाने लगी.

‘‘और हां, अपने कपड़े लेती जाना. बिना कपड़ों के बाहर जाओगी, तो तुम्हारी प्राइवेट प्रोपर्टी लोगों को दिख जाएगी,’’ राजेश ने कहा और अपने कपड़े पहनने लगा.

Hindi Story : ठेले वाला

Hindi Story : रमेश अपने परिवार के साथ तीर्थयात्रा पर गए थे. यात्रा के दूसरे दिन उन्हें परेशान देख कर बेटे तन्मय ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘पापा, आप इतना परेशान क्यों नजर आ रहे हैं? आप को पहली बार इतनी चिंता में देख कर मु झे घबराहट हो रही है.

‘‘चेहरे पर हमेशा मुसकान बिखेरने वाले मेरे पापा का यह तनाव भरा चेहरा कुछ अलग ही कहानी कह रहा है. कुछ तो बोलो पापा…’’

बेटे तन्मय के बारबार कहने पर रमेश बोले, ‘‘बेटा, जिंदगी में आज पहली बार मेरा पर्स गायब हुआ है. मु झे याद नहीं कि इस के पहले कभी इस 60 साल की जिंदगी में मेरा पर्स गायब हुआ हो. चिंता तो बनती है न…’’

रमेश के पर्स में तकरीबन 15,000 रुपए थे. यह जान कर परिवार के सभी सदस्य परेशान हो गए. पर्स कहां गायब हुआ होगा? जब इस पर बातचीत हुई, तो यह नतीजा निकला कि रास्ते में रमेश ने जहां अमरूद खरीदे थे, वहीं पर्स गायब हुआ होगा, पर अब तो 100 किलोमीटर आगे आ चुके थे.

बेटे तन्मय ने उस जगह पर जाने की जिद की, तो रमेश ने कहा, ‘‘बेटा, मेरे पर्स में रुपयों के अलावा आधारकार्ड, ड्राइविंग लाइसैंस और विजिटिंग कार्ड भी थे. अगर पाने वाले की नीयत अच्छी होती, तो विजिटिंग कार्ड से मोबाइल नंबर देख कर अब तक फोन आ गया होता.

‘‘फोन न आने का यह मतलब है कि पाने वाले की मंशा ठीक नहीं है, इसलिए वहां जाने से कोई फायदा नहीं होगा.’’

इस बारे में सब एकमत हो कर आगे की यात्रा के लिए निकल पड़े. सोमनाथ, पोरबंदर, द्वारका, बेट द्वारका, नागेश्वर जैसी जगहों पर घूम कर लौटते समय वे उसी रास्ते पर आगे बढ़े, जिस रास्ते से आए थे.

रास्ते में रमेश के मन में अनेक तरह के विचार आजा रहे थे. कभी उन के मन में आ रहा था कि इस जन्म में किसी का कुछ भी बिगाड़ा नहीं है, तो उन के पैसे रख कर कोई उन्हें कष्ट क्यों देगा? पर इस बात से वे शांत भी थे कि हो सकता है कि पिछले जन्म में किसी का कुछ कर्ज बाकी रहा हो और अब उस से मुक्ति मिली हो.

कभी वे यह सोचते कि अमरूद वाले की दिनभर की कमाई तकरीबन 1,000 रुपए होती होगी. पर्स मिलने के बाद हो सकता है कि उस ने अमरूद बेचने ही छोड़ दिए हों.

यह सब सोचने में रमेश इतने लीन थे कि उन्हें यह पता नहीं चला कि कब वे उस जगह पर पहुंच गए, जिस जगह उन्हें लग रहा था कि शायद पर्स खोया होगा.

तभी बेटा तन्मय चिल्लाया, ‘‘पापा देखो, वह अमरूद वाला कितनी शान से अमरूद बेच रहा है. पर्स चुराने की उस के चेहरे पर कोई शिकन तक दिखाई नहीं पड़ रही है.’’

कार से उतर कर रमेश जैसे ही अमरूद वाले के सामने पहुंचे, अमरूद वाला उन्हें एकटक देख रहा था.

रमेश ने उस अमरूद वाले से पूछा, ‘‘4 दिन पहले मैं ने आप से अमरूद खरीदे थे. आप के ध्यान में होगा ही…’’

अमरूद वाले ने जवाब दिया, ‘‘बिलकुल मेरे ध्यान में है.’’

‘‘तब तो यह भी ध्यान होगा कि मेरा पर्स आप के ठेले पर छूट गया था.’’

‘‘मेरे ठेले पर आप का पर्स… यहां तो कोई पर्स नहीं छूटा था. हां, जब आप अपनी कार में बैठ रहे थे, तब आप का पर्स नीचे गिरा था और मैं ने आवाज भी लगाई थी, पर आप लोग बिना सुने यहां से चले गए.

‘‘आप का पर्स मेरे पास रखा है. यह लीजिए आप अपना पर्स,’’ कहते हुए ठेले वाले ने रमेश को पर्स सौंप दिया.

खुशी के मारे रमेश यह नहीं सम झ पा रहे थे कि वे ठेले वाले का शुक्रिया कैसे अदा करें. उन्होंने ठेले वाले से पूछा, ‘‘भाई, इस पर्स में मेरा विजिटिंग कार्ड था, जिस में मेरा मोबाइल नंबर था. मु झे अगर फोन कर दिया होता, तो तुम्हारे बारे में मेरे मन में जो तरहतरह के बुरे विचार आ रहे थे, वे तो न आते.’’

रमेश की बात सुन कर वह ठेले वाला बोला, ‘‘साहब, पर्स मेरा नहीं था, तो किस हक से मैं इसे खोलता…’’

ठेले वाले की यह बात सुन कर रमेश और उस के परिवार के सभी सदस्य इतने हैरान हुए, जिस की कल्पना नहीं की जा सकती है. सभी को यही लग रहा था कि ईमानदारी अभी भी जिंदा है.

रमेश ने उस ठेले वाले को 500 रुपए देने चाहे, तो उस ने कहा, ‘‘मैं ने तो सिर्फ अपना फर्ज निभाया है.’’

जब उस ठेले वाले ने पैसे नहीं लिए, तो रमेश ने उस के ठेले पर रख दिए.

वह ठेले वाला बोला, ‘‘ठीक है साहब, ये पैसे मैं पास के सरकारी स्कूल में दे दूंगा और अगर आप एक महीने तक अपना पर्स लेने नहीं आते, तो यह पर्स भी मैं वहीं दे देता.’’

उस ठेले वाले की ईमानदारी से खुश हो कर रमेश ने वहां से कुछ ज्यादा ही अमरूद खरीदे और वहां से चल पड़े. रास्तेभर वे सोचते रहे, ‘काश, दुनिया के लोग इस ठेले वाले की तरह होते तो यह दुनिया कितनी अच्छी होती.’

लेखक – प्रो. आनंद प्रकाश त्रिपाठी ‘रत्नेश’

Romantic Story : पहली मुलाकात

Romantic Story : रेशमा की जिंदगी एक ढर्रे पर चल रही थी. 30 साल की उम्र तक आतेआते उस ने बहुतकुछ हासिल कर लिया था. एक अच्छी नौकरी, शहर के पौश इलाके में खुद का घर और ढेर सारे दोस्त, लेकिन कहीं न कहीं उस के दिल में एक खालीपन सा था, जिसे वह महसूस तो करती थी, पर उसे शब्दों में बयां करना मुश्किल था.

एक दिन औफिस से लौटते समय रेशमा को एक किताब की दुकान दिखाई दी. यह एक पुरानी, लेकिन बहुत ही शानदार जगह थी. हमेशा की तरह वह अपनेआप को किताबों के खिंचाव से बचा नहीं पाई और दुकान के भीतर चली गई.

किताबों को देखते हुए रेशमा की नजर एक आदमी पर पड़ी, जो एक किताब में डूबा हुआ था. उस की आंखों में एक अलग ही चमक थी, जैसे वह किताब उस की जिंदगी का सब से खास हिस्सा हो.

रेशमा ने भी एक किताब उठाई और पढ़ने लगी, लेकिन उस का ध्यान उस आदमी की तरफ ही था.

अचानक उस आदमी ने अपनी नजरें उठाईं और रेशमा की नजरों से टकराईं. एक पल के लिए जैसे समय थम सा गया. दोनों के बीच एक अनकहा संवाद हुआ, जिसे किसी ने नहीं सुना, लेकिन दोनों ने महसूस किया.

वह आदमी मुसकराया और रेशमा की तरफ बढ़ा, फिर बोला, ‘‘आप भी किताबों की दीवानी लगती हैं…’’

रेशमा हलका सा हंसी और कहा, ‘‘जी, किताबों में एक अलग ही दुनिया होती है.’’

‘‘मैं अंशु हूं,’’ उस आदमी ने अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘रेशमा,’’ उस ने भी हाथ मिलाते हुए अपना परिचय दिया.

इस के बाद उन दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया. किताबों से ले कर जिंदगी के तजरबों तक, दोनों ने कई मुद्दों पर बात की.

अंशु की बातें रेशमा के दिल को छू गईं. उस में एक खास तरह की सादगी और गहराई थी, जो उसे बहुत अच्छी लगी.

कुछ ही मुलाकातों के बाद रेशमा और अंशु की दोस्ती गहरी होती गई. दोनों के बीच एक अनकहा खिंचाव था, जो उन्हें एकदूसरे के करीब ला रहा था.

एक दिन अंशु ने रेशमा को अपने घर डिनर के लिए न्योता दिया.

रेशमा थोड़ा हिचकिचाई, लेकिन उस ने ‘हां’ कर दी. वह जानती थी कि उस के दिल में कुछ खास हो रहा है और वह इस भावना को और नजरअंदाज नहीं कर सकती थी.

शाम को जब रेशमा अंशु के घर पहुंची, तो उस ने देखा कि अंशु ने घर को बहुत ही खूबसूरती से सजाया था. हलकी रोशनी, मोमबत्तियों की चमक और धीमे म्यूजिक ने माहौल को और भी रोमांटिक बना दिया था.

डिनर के बाद वे दोनों बालकनी में बैठे थे. ठंडी हवा चल रही थी और शहर की रोशनी दूर तक फैली हुई थी.

अंशु ने रेशमा का हाथ थाम लिया और कहा, ‘‘रेशमा, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

रेशमा ने अंशु की आंखों में देखा. उस के दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं, लेकिन उस ने खुद को संभाला.

‘‘मैं नहीं जानता कि यह सब कैसे हुआ, लेकिन जब से मैं तुम से मिला हूं, तब से मेरी जिंदगी में एक नया रंग आ गया है. तुम्हारे बिना अब कुछ अधूरा सा लगता है.’’

रेश्मा ने हलकी मुसकान के साथ कहा, ‘‘अंशु, मैं भी ऐसा ही महसूस करती हूं, लेकिन यह सब बहुत जल्दी हो रहा है, मुझे थोड़ा समय चाहिए.’’

अंशु ने रेशमा के हाथ को और कस कर पकड़ा और बोला, ‘‘मैं तुम्हारा हर फैसला स्वीकार करूंगा. बस, तुम्हारे साथ रहने का मन करता है.’’

उस पल में उन दोनों के बीच की दूरी खत्म हो गई. अंशु ने रेशमा को अपने करीब खींचा और उस का चेहरा अपने हाथों में थाम लिया. उन की नजरें एकदूसरे में खो गईं, फिर धीरे से अंशु ने रेशमा के होंठों को अपने होंठों से छू लिया.

वह पल उन दोनों के लिए अनमोल था. रेशमा ने भी अपनी भावनाओं को खुल कर जाहिर किया और दोनों के बीच का वह पहला चुम्मा एक नए रिश्ते की शुरुआत बन गया.

वह रात रेशमा और अंशु के लिए किसी जादुई पल से कम नहीं थी. बालकनी में खड़े हुए, ठंडी हवा और शहर की चमचमाती रोशनी के बीच, दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए थे.

अंशु ने धीरे से रेशमा को और करीब खींचा. उन की सांसें एकदूसरे से टकरा रही थीं और उस पल में रेशमा ने खुद को पूरी तरह अंशु के हवाले कर दिया.

अंशु ने रेशमा की कमर के चारों ओर अपनी बांहें कस दीं और उन के होंठों ने एक बार फिर एकदूसरे को तलाश लिया. इस बार उन के चुम्मे में एक गहराई और एक अनकही चाहत थी.

यह पल रेशमा के लिए एक नया अनुभव था, जो उस के दिल की धड़कनों को तेज कर रहा था. वह किसी सपने की तरह था, जहां सबकुछ इतना सही और खूबसूरत लग रहा था.

अंशु धीरेधीरे रेशमा को कमरे के अंदर ले गया, जहां धीमी रोशनी और म्यूजिक ने माहौल को और भी खास बना दिया था.

रेशमा के दिल में उठ रही भावनाओं को वह शब्दों में बयां नहीं कर पा रही थी, लेकिन उस की आंखें, उस की सांसें और उस की हर छुअन अंशु के लिए काफी थी.

अंशु ने धीरे से रेशमा के बालों को पीछे किया और उस की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे बिना मेरी दुनिया अधूरी है रेशमा. तुम्हारा साथ पा कर मु झे लगता है कि मेरी जिंदगी में सच्चा प्यार आ गया है.’’

रेशमा की आंखों में नमी आ गई. उस ने अंशु के चेहरे को अपने हाथों में थामा और कहा, ‘‘अंशु, तुम ने मेरे दिल के हर कोने को छू लिया है. मैं तुम्हें अपने हर हिस्से में महसूस करती हूं. तुम से मिल कर मु झे सम झ आया कि प्यार क्या होता है.’’

रेशमा ने अंशु के चेहरे को धीरे से चूमा और उस की बांहों में सिमट गई. अंशु ने उसे कस कर अपने सीने से लगा लिया. उन के बीच कोई भी शब्द नहीं था, लेकिन उन की हर छुअन, हर चुम्मा, उन की भावनाओं को गहराई से बयां कर रही थी. उन की धड़कनें एक लय में चल रही थीं, जैसे उन के दिल एक हो गए हों.
धीरेधीरे अंशु ने रेशमा को अपने करीब खींचा और उस के गालों पर अपनी उंगलियों की नरमी महसूस कराते हुए उसे अपने और भी करीब ले आया.

अंशु ने धीरेधीरे अपने होंठों से रेशमा के होंठों को छुआ. वह एक गहरा और प्यारभरा चुम्मा था, जिस में कोई जल्दबाजी नहीं थी, सिर्फ प्यार और एकदूसरे के साथ होने का एहसास था.

उन दोनों के बीच का रोमांच और भी बढ़ता गया. रेशमा ने अंशु की पीठ पर अपनी उंगलियों का दबाव बढ़ा दिया, जबकि अंशु ने उस की नाजुक कलाई को अपने हाथों में थाम लिया. उन के बीच का यह पल उन के रिश्ते को एक नई ऊंचाई पर ले जा रहा था.

धीरेधीरे उन्होंने खुद को बैडरूम की तरफ बढ़ाया. बैडरूम की नरम रोशनी में अंशु ने रेशमा को बैड पर बिठाया और उस के चेहरे पर प्यारभरी निगाह डाली. रेशमा ने भी उसे अपने करीब खींच लिया. उस पल में वे दोनों एकदूसरे के साथ पूरी तरह खो गए थे.

अंशु ने रेशमा की उंगलियों को अपने हाथों में लिया और उस के हाथों पर कोमल चुम्मा लिया. रेशमा के शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं और अंशु ने उस के कंधों से होते हुए धीरेधीरे उस के होंठों को फिर से छू लिया.

रात धीरेधीरे गुजरती रही और रेशमा और अंशु के बीच की नजदीकियां बढ़ती गईं. वे दोनों एकदूसरे के प्यार में पूरी तरह डूब चुके थे.

सुबह की पहली किरणों के साथ रेशमा ने अपनेआप को अंशु की बांहों में पाया. उस की आंखों में एक चमक थी, जैसे उस ने अपनी जिंदगी का सब से बड़ा खजाना पा लिया हो. अंशु भी उसे देख कर मुसकराया और उस के माथे पर एक प्यारा सा चुम्मा दिया.

‘‘रेशमा…’’ अंशु ने धीरे से कहा, ‘‘हमारा रिश्ता इस दुनिया की सब से खूबसूरत चीज है और मैं इसे हमेशा संजो कर रखना चाहता हूं’’

रेशमा ने हलके से मुसकराते हुए कहा, ‘‘अंशु, तुम्हारे साथ बिताया हर पल मेरे लिए अनमोल है. मैं भी तुम्हें अपने दिल के सब से करीब रखना चाहती हूं.’’

इस के बाद रेशमा और अंशु ने एकदूसरे को कस कर गले लगाया. वह सुबह उन के प्यार की एक नई शुरुआत थी, जिस में कोई वादा नहीं था, लेकिन हर पल में एकदूसरे के साथ होने की खुशी थी.

लेखक – सागर यादव ‘जख्मी’

Hindi Story : रिजैक्शन

Hindi Story : कितना खुश और जोश में था वीर अपनी सगाई में. उम्र के इस दौर में, जब जोबन उछाह भर रहा हो, यह होना भी था. कभी उस ने लड़कियों के लिए खास उत्सुकता नहीं दिखाई थी.

दरअसल, उसे जैसे इस के लिए समय ही नहीं मिला था या समय ने उसे इस लायक रख छोड़ा था कि उस की इस में कोई दिलचस्पी ही नहीं रही थी.

मां की मौत तो बचपन में ही हो गई थी. तब वीर चौथी क्लास में था. पापा ने दूसरी शादी की और उसे होस्टल में भेज दिया गया. शायद पापा के मन में यह भाव या डर रहा हो कि उन की दूसरी पत्नी पता नहीं अपने इस सौतेले बेटे के साथ कैसा बरताव करेगी. इस तरह वह अचानक ही प्यार जैसे भावों से दूर अपनी एकाकी जिंदगी काटते रह गया था.

ऐसी बात नहीं थी कि वीर बिलकुल ही अकेला था. एक तो वह शुरू से ही शांत स्वभाव का रहा था, मां की मौत के बाद वह और भी चुप रहने लगा था. रहीसही कसर उस के होस्टल के सख्त अनुशासन और कायदेकानूनों ने पूरी कर दी थी.

होस्टल में लड़कों के कई ग्रुप थे. उन से भी वीर का कोई खास लगाव नहीं था. वह बस पढ़ाई और खेल तक ही सिमटा रहा. वैसे भी पढ़ाई में वह बहुत तेज था और सभी उसे किताबी कीड़ा ही मान कर चलते रहे.

दरअसल, जब भी वीर छुट्टियों में घर आता, तो यहां भी उसे कुछ खास लगाव हो नहीं पाया. आगे चल कर उस की दूसरी मां से भाईबहन हुए, तब तो ये दूरियां कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थीं. यह अलग बात है कि अब वे उस के प्रति अपनेपन का भाव रखने लगे थे. सौतेली मां खासतौर पर उस के खानपान का खास खयाल रखती थीं, ताकि गांव में कोई कुछ आरोप न लगा दे.

यह इत्तिफाक की बात थी कि 12वीं जमात पास करने के बाद वीर इंजीनियरिंग डिप्लोमा में चुन लिया गया था. यहां भी उस ने इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की बढि़या से पढ़ाई की और एक सरकारी नौकरी में लग गया. उस के पापा ही नहीं, बल्कि पूरा परिवार उस से खुश था.

लेकिन वीर में एक यही कमी रह गई थी कि वह अपने डिप्रैशन से बाहर निकल नहीं पाया था. वह हमेशा खोयाखोया सा रहता था या खुद को उदास पाता. पापा ने इस के लिए उसे डाक्टर को दिखाया भी था.

डाक्टर ने कहा था कि चिंता की कोई बात नहीं है. यह समय के साथ ठीक हो जाएगा. शादी के बाद तो वीर बिलकुल ठीक हो जाएगा, इसलिए पापा ने उस की शादी की बात चलानी शुरू कर दी थी. कई जगह देखने के बाद बक्सर में एक जगह उस का रिश्ता तय हो गया था.

जैसा कि आमतौर पर नया चलन है, वीर की सगाई भी धूमधाम से कर दी गई. एक रिसौर्ट में दोनों परिवार अपने रिश्तेदारों के साथ जमा हुए और धूमधाम से सगाई की रस्म पूरी की गई थी. बिलकुल शादी जैसी धूमधाम. पहली बार वह किसी लड़की के करीब और साथसाथ बैठा था, उस से खुल कर बातें की थीं.

आज के इस जमाने में शादी का मतलब जब छोटेछोटे लड़के जानते हैं, तो वीर की तो बात ही अलग थी. फिर रूपा का तो कहना ही क्या. पहले उस ने उस के कंधे से सिर टिकाया, हाथों में हाथ लिया और बातें करने लगी. उसे भी यह सबकुछ अच्छा लग रहा था.

रूपा के सुखदुख की कहानियों में वीर दिलचस्पी लेते हुए पहली बार उसे महसूस हुआ कि सिर्फ वही दुखी नहीं है, बल्कि दूसरे लोग भी दुखी हैं और उन्हें भी किसी सहारे की जरूरत होती है. जब वह रूपा जैसी कोई लड़की हो, तो उसे सहारा देना उस का फर्ज बनता है. उस की तर्जनी में पड़ी सगाई की वह सोने की भारी अंगूठी जैसे उसे इस का अहसास भी दिलाती थी.

अकसर रूपा ही उसे फोन करती थी खासकर रात में तो यह उस का नियमित शगल था और फिर वे दोनों दुनियाजहान की बात करते थे. अपने मन को वीर ने पहली बार किसी अनजान के सामने खोला था.

रूपा को ले कर वीर के मन में अनेक भाव उपजते और एक अनकहे जोश और उछाह से वह भर उठता था. जिंदगी के रंगीन सपने उस के सामने पूरे से होने लगते थे.

आरा से बक्सर की दूरी कुछ खास नहीं है और जैसे ही वीर का डुमरांव ब्लौक में ट्रांसफर हुआ, तो यह दूरी और घट गई थी. अपने घर तो वह कभी रहा ही नहीं. जहां उस की नौकरी होती, वहीं उसे क्वार्टर भी मिल जाता था. यहां डुमरांव में रहते हुए वह एकाध बार बक्सर गया, तो उस ने रूपा को वहीं बुला कर बातें भी कर आता था.

दरअसल, यह रूपा की ही जिद थी कि वीर उस से मिले, तो उसे भी इस मेलजोल में कुछ गलत नहीं लगा था और इस के बाद तो जब भी उसे समय मिलता, अपनी मोटरसाइकिल उठा कर बक्सर चला आता था.

यहां वे किसी रैस्टोरैंट या पार्क में घंटों बैठ कर बातें करते, खातेपीते और घूमते थे और यह बात दोनों के ही परिवार में पता चल गई थी.

छोटे शहरों में ऐसी बातें छिपती भी कहां हैं. वीर के पापा और दूसरी मां ने उसे आगाह भी किया था कि शादी से पहले इस तरह मिलनाजुलना ठीक नहीं है, जिसे उस ने हंसी में उड़ा दिया था.

वीर ने इस बात की चर्चा रूपा से करते हुए पूछा था, ‘‘क्या तुम्हारे पापा भी हमारे मिलनेजुलने को गलत मानते हैं?’’

रूपा हंस कर बोली थी, ‘‘गलत, अरे वे तो इसे बहुत अच्छा मानते हैं कि इसी बहाने हम एकदूसरे को जानसम झ रहे हैं. जब भविष्य में शादी होनी ही है, तो अभी मिलनेजुलने पर रोकटोक क्यों करें.

‘‘हां, मां जरूर इसे ठीक नहीं मानती हैं, मगर पापा का कहना है कि वे दोनों एक हद में रहें, तो मिलनेजुलने में क्या बुराई है.’’

इस बीच वीर ने रूपा को कितने ही सस्तेमहंगे उपहार खरीद कर दे डाले थे. होटलरैस्टोरैंट में हजारों रुपए का बिल वह हंसतेहंसते भर जाता था कि अपनी मंगेतर के लिए इतना भी न कर सका, तो उस का नौकरी करना बेकार है.

मगर इस बीच वीर के साथ एक घटना हो गई. वीर के औफिस में कोई बड़े लैवल का खरीद घोटाला हुआ था, जिस में उस का नाम भी घसीट लिया गया था.

डिपार्टमैंटल इंक्वायरी में पटना के बड़े अफसर आए और उस से कड़ी पूछताछ की. चूंकि उस के कई जगह पर दस्तखत थे, सुबूत उसे ही कुसूरवार ठहराते थे.

साथी मुलाजिमों ने बड़े अफसरों से अलग चुगली कर रखी थी कि अपनी मंगेतर के यहां कोई अकसर जाएगा और पार्टियां करतेफिरते, महंगेमहंगे गिफ्ट भेंट में देगा, तो क्या यह तनख्वाह से मुमकिन है? उस के लिए तो कोई भी गलत रास्ता ही अख्तियार करेगा न. तनख्वाह के पैसे पर कौन फालतू के खर्च करता है?

एक साथी मुलाजिम ने तो हद कर दी, जब उस ने वीर को ‘मैंटल’ बता दिया. और इसी के साथ वह सस्पैंड कर दिया गया था.

ज्यों ही यह खबर फैली तो वाकई वीर की दिमागी हालत गड़बड़ा गई थी. उस के पापा आए और फिर उन्होंने ही उसे संभाला था. उसे साथ घर ला कर अपनी देखरेख में रखा. उस के भाईबहन भी उस का खयाल रखते और उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करते और हंसाते थे.

पापा ने वीर को पटना में एक साइकियाट्रिस्ट को भी दिखाया और कुछ इलाज कराया. फिर वे उस के सस्पैंशन के मामले में पड़े कि क्या हो सकता है. इस के लिए वे वकीलों और बड़े अफसरों से भी मिले.

अगले 3 महीने वीर के लिए भारी पड़े थे. आखिरकार घोटाले का भेद खुला, तो उस में 2 मुलाजिमों की भागीदारी देखने को मिली.

दरअसल, वे दोनों जैसे ही जानते कि वीर बक्सर जाने की हड़बड़ी में है. उस से जाते समय कुछ दस्तावेजों पर दस्तखत ले लेते थे. अपने जाने की हड़बड़ी में वह ज्यादा ध्यान नहीं दे पाता था. इस तरह उन लोगों ने लाखों रुपए की हेराफेरी कर ली थी.

मगर यह भी सच है कि विभागीय खर्चे किसी एक के दस्तखत करने से नहीं होते. उस में 3 और मुलाजिम फंसे थे और उन लोगों ने भागदौड़ कर सही बात पता कर ली थी. उन लोगों की वजह से असली कुसूरवार पकड़े गए.

मगर वीर की जिंदगी में जैसे एक और तूफान इंतजार कर रहा था. रूपा के घर में उस के सस्पैंशन वाली बात का पता चल चुका था. उस से भी बड़ी बात यह कि उस के पापा ने इस रिश्ते के लिए इनकार कर दिया था, क्योंकि उन्हें एक बड़ा घराना मिल चुका था.

वीर ने रूपा को कई बार फोन किया. वह बक्सर आया और एक रैस्टोरैंट में रूपा को मिलने भी बुलाया. वह चुपचाप आई और एक कोने में बैठ गई.

‘‘कैसे हो तुम?’’ वीर ने पूछा.

रूपा ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘बहुत बुरा हुआ तुम्हारे साथ.’’

‘‘वह तो जो हुआ, सो हुआ,’’ वीर ने अपनी उंगली में पहनी सगाई की अंगूठी को घुमाते और देखते हुए नाराजगी दिखाई, ‘‘मगर, तुम ने भी नाता तोड़ लिया.’’

‘‘ऐसा न कहो. दरअसल, मेरे पापा को कुछ लोगों ने बहका दिया था कि लड़के में कुछ दिमागी परेशानी है, इसलिए वहां रिश्ता करना सही नहीं है. मगर, मैं तो एकदम से अड़ गई कि मु झे तुम्हारे साथ ही शादी करनी है.’’

थोड़ी देर तक मानमनुहार की बात चलती रही. चाय और नाश्ते का दौर चला. इस बीच रूपा अचानक बोली, ‘‘अरे हां, मैं तुम्हें एक बात बताना भूल गई. हम ने तुम्हें जो सगाई की अंगूठी पहनाई थी, उस के बारे में शक है कि उस में ज्यादा मिलावट तो नहीं है, इसलिए मां ने कहा है कि तुम से वह अंगूठी एक दिन के लिए ले लूं. उस की किसी दूसरे सुनार से जांच करवाने पर तसल्ली मिल जाएगी, इसलिए तुम वह अंगूठी मुझे दे दो.’’

‘‘यह क्या बात हुई. अब जैसी भी है, यह सगाई की अंगूठी है और मैं इसे अपनी उंगली से नहीं निकाल सकता. एक यही तो अंगूठी है, जिस की वजह से मु झे अपने तनाव को कम करने में मदद मिली थी. जब भी इसे देखता, तो तुम्हारी याद आती और मेरी हिम्मत बढ़ जाती थी.’’

‘‘सचमुच इस अंगूठी से मु झे भी बहुत ताकत मिलती है. मगर, एकाध दिन की ही तो बात है…’’ रूपा अपनी उंगली में फंसी सगाई की अंगूठी से खेलते हुए बोली, ‘‘यह हमारे पहले प्यार की निशानी है, तो ही ऐसा लगेगा.

मगर हमें थोड़ा प्रैक्टिकल हो कर भी सोचना चाहिए.

‘‘कोई हमें जानबू झ कर ठगे, यह भी तो कोई अच्छी बात नहीं है न, इसलिए अभी इसे दे दो. अगली बार आना, तो इसे ले लेना. आखिर मैं इसे ले कर क्या करूंगी?’’

वीर ने सगाई वाली अंगूठी रूपा को दे दी.

अगली बार जब वीर आया, तो तय जगह पर आने के लिए उस ने रूपा को फोन किया था. वह तो नहीं आई, मगर उस के पापा वहां आ गए. वह उन के सम्मान में उठ खड़ा हुआ.

‘‘ऐसा है बाबू कि रूपा की तबीयत थोड़ी खराब है, इसलिए वह नहीं आई…’’ थोड़ी देर ठहर कर वे उसे गौर से देखते हुए बोले, ‘‘और हां, अब हमें तुम्हारे साथ रूपा की शादी करने में कुछ दिक्कत महसूस हो रही है. यह लो सगाई की वह अंगूठी, जो तुम ने रूपा को पहनाई थी.’’

यह सुनते ही वीर को धरती घूमती नजर आई. वह बोला, ‘‘यह आप क्या कह रहे हैं. 4 महीने पहले हमारी सगाई हुई थी. 2 महीने बाद शादी होना तय था. और आप कुछ दूसरी ही बात कर रहे हैं,’’ वह अपनी उखड़ती हुई सांसों को काबू में करते हुए बोला, ‘‘इतने दिनों में हम एकदूसरे को बहुत जाननेसम झने और प्यार करने लगे हैं. और आप कहते हैं कि यह रिश्ता टूटेगा. ऐसा कैसे हो सकता है. रूपा इसे बरदाश्त नहीं कर पाएगी.’’

‘‘वह ऐसा है बाबू कि हमें काफीकुछ प्रैक्टिकल हो कर सोचना पड़ता है. तुम्हारे पापा औसत दर्जे के किसान ठहरे. घर में सौतेली मां और भाईबहन हैं. तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती.

‘‘ऐसे में तुम्हारे छोटे से घर में रूपा का निबाह नहीं होगा. यह सब जानते हुए हम रूपा की शादी तुम्हारे साथ नहीं कर सकते. उसे भी यह रिश्ता मंजूर नहीं है.’’

रूपा के पापा अपनी रौ में बोले जा रहे थे. बिना यह जानेसम झे कि वीर के दिल पर क्या बीत रही होगी, ‘‘और रही बात रूपा की, तो उसे एक और अच्छा लड़का मिल गया है. बैंगलुरु में सौफ्टवेयर इंजीनियर है. तो रूपा को भी सब से अलग बैंगलुरु में अकेले रहने का चाव पूरा होगा.

‘‘लड़के के पिता की 30 बीघा की खेती है. उस के पिता अमीर किसान हैं और वह एकलौता लड़का है. एक बड़ी बहन है, जिस की शादी हो चुकी है. ऐसे में उसे और क्या चाहिए? इसलिए उस की तो बात ही मत करो.’’

‘‘यह आप से किस ने कह दिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती. ठीक है कि असमय मां के गुजर जाने के बाद मैं डिप्रैशन में आ गया था. पापा ने मु झे होस्टल में डाल दिया था. लेकिन होस्टल में रह कर पढ़ाई करना कोई गुनाह तो नहीं…’’ वीर अपनेआप को काबू में करता हुआ सा बोला, ‘‘और रही बात मेरी सौतेली मां और भाईबहनों की, तो यह आप की गलतफहमी है. वे मु झे सगी मां जैसा प्यार करती हैं. उन्होंने कभी भेदभाव नहीं किया.

‘‘और आप को भी थोड़ा सोचसम झ कर किसी के बारे में बोलना चाहिए. आखिर में वे सौतेली ही सही, पर मेरी मां हैं. उन्होंने मुझ में और अपने बेटों में कभी कोई फर्क नहीं किया.’’

‘‘वह सब तो ठीक है बाबू. मगर हम जानबू झ कर मक्खी नहीं निगल सकते न. मैं ने अपने शहर में ऐसे अनेक केस देखे हैं, जिस से घरपरिवार बिखर गया है, इसलिए तुम अपने पापा को बता देना.’’

‘‘मैं बताऊंगा कि आप बताएंगे…’’ वीर गुस्से में आ गया था, ‘‘आप को किसी की भावनाओं से खेलने का कोई हक नहीं है. मेरे परिवार को जब यह पता चलेगा, तो उस पर क्या बीतेगी?’’

‘‘अब तुम से बात क्या करना…’’ रूपा के पापा जाते हुए बोले, ‘‘ठीक है, मैं ही तुम्हारे पापा को बता दूंगा.’’

वीर पर जैसे बिजली सी गिरी थी. क्या ऐसे भी रिश्ता तोड़ा जाता है? मगर सबकुछ अपनी आंखों से देखने और कानों से सुनने के बाद अब बाकी क्या रहा था.

वीर के पापा ने सारी जानकारी लेने के बाद थोड़ी भागदौड़ की, उस के ठीक होने के कागजात तक उन्हें दिखाए, मगर रूपा का परिवार टस से मस नहीं हुआ. तब उन्होंने कहा कि जब उन की बेटी के लिए दूसरे लड़के मिल सकते हैं, तो उन्हें भी अपने बेटे के लिए दूसरी लड़कियां मिल जाएंगी.

मगर वीर के दिल में तो रूपा घर कर गई थी. उस ने उस से मिलने की कोशिश की, मगर वह नाकाम रहा था. यह तो तय था कि रूपा की भी इस सगाई को तोड़ने में रजामंदी थी, तभी तो उस ने बहाने से वीर की सगाई की अंगूठी वापस ले ली थी. फिर भी उस का दिल इस सच को मानने को तैयार नहीं होता था.

जब वीर पहली बार रूपा से एकांत में मिला था, तब वह उसे निहारती रह गई थी.

‘‘तुम्हारे इस सांवलेसलोने रूप पर तो लड़कियां मरमिट जाएंगी. मैं कितनी खुशकिस्मत हूं कि तुम मु झे मिले हो,’’ रूपा वीर के सीने पर अपना सिर रख कर उस की बांहों की मछलियों से खेलती हुई कह रही थी, ‘‘तुम्हारे जैसा बांका जवान तो मु झे पूरी दुनिया में नहीं मिलने वाला. अच्छीभली सरकारी नौकरी है तुम्हारी. छुट्टियों में हम आराम से एकाध साल में एकाध महीने के लिए बाहर घूमने जा सकते हैं.’’

रूपा का दूधिया रंग और मासूम चेहरा वीर के आगे घूम जाता था. लेकिन आज उसी रूपा ने वीर को अपने मन से दूध में गिरी मक्खी के समान निकाल फेंका था. मन के किसी कोने में यह बात भी उठती कि आज जब उस का रिजैक्शन हुआ, तब उसे अहसास हो रहा है कि इस रिजैक्शन से लड़कियों के दिल पर भी क्या गुजरती होगी.

वीर को अब भी यकीन नहीं होता था कि उस की सगाई टूट गई है. उस के साथी सामने तो कुछ कहते नहीं थे, पर पीठ पीछे हंसते थे. सचमुच अविश्वास की एक फांस तो लग ही गई थी कि कहीं कुछ तो गलत है ही उस में, जिस से उस की सगाई टूट गई है.

समय का चक्र नहीं रुकता और वीर के पापा भागदौड़ में लगे थे. सौतेली मां ने अपने भाइयों से कह कर उस के लिए अनेक जगह से रिश्ते की बात चला रखी थी. कुछ रिश्तों के प्रस्ताव उस के पास आ चुके थे और चुनाव अब उसे करना था, मगर रहरह कर उसे रूपा की याद आती, तो वह बेचैन हो जाता था.

फिर भी समय ने तो वीर को यह सिखा ही दिया था कि अब पिछला सब भूल कर आगे की ओर बढ़ जाना है. यही सब के फायदे में है.

Family Story : सवेरा

Family Story : उस गांव में पंडित बालकृष्ण अपने पुरखों द्वारा बनाए गए मंदिर में भगवान की पूजा में लीन रहते थे. रोजीरोटी के लिए 8 बीघा जमीन थी. बालकृष्ण बड़े ही सीधेसादे और विद्वान थे. उन की पत्नी गायत्री भी सीधीसादी, सुशील, पढ़ीलिखी और सुंदर औरत थीं. बालकृष्ण का ब्याह हुए 2 साल हो गए थे, फिर भी उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ था.

बालकृष्ण के पिता दीनदयाल काफी कट्टरपंथी थे. जातपांत और ऊंचनीच मानने के चलते उन्होंने छोटी जाति के लोगों को कभी मंदिर में घुसने नहीं दिया था.

गणेश पूजा के समय गांव के हर जाति के परिवार से बिना भेदभाव के चंदा लिया गया. बालकृष्ण ने सोचा कि इस पैसे द्वारा खरीदे गए प्रसाद और दूसरी चीजों का इस्तेमाल उस पूजा में लगे लोग नहीं करेंगे, पर उन्हें यह देख कर हैरानी हुई कि उन लोगों ने पूजा खत्म होने पर चंदे के पैसों से ही हलवापूरी बनाई और खुद खाई. उसी समय जब एक छोटी जाति का लड़का प्रसाद लेने आया, तो सभी ने उसे दुत्कार कर भगा दिया.

गांव के हरिजनों के लिए शासन सरकारी जमीन पर मकान बनवा रहा था. एक हरिजन जब इस सुविधा का फायदा उठाने के लिए पटवारी साहब और ग्राम पंचायत के सचिव से मिलने गया, तो बालकृष्ण उत्सुकता से पास ही खड़े हो कर बातचीत सुनने लगे.

हरिजन से 2,000 रुपए लेते हुए उस ने सचिव को देखा, तो उन्हें यकीन नहीं हुआ. इस के बाद इन रुपयों को उन्होंने पटवारी, सचिव और सरपंच को आपस में बांटते देखा, तो वे भौंचक्का रह गए. 101 रुपए उन के पुजारी पिता को भी बाद में दिए गए.

उन्होंने पिताजी से पूछा भी कि हरिजनों के अशुद्ध रुपए क्यों ले लिए, तो उन्होंने उसे बड़े प्यार से समझाया, ‘‘बेटा, लक्ष्मी कभी अशुद्ध नहीं होती.’’

बालकृष्ण के लिए यह एक अबूझ पहेली थी कि जब निचली जाति के लोगों से खेतों में काम करवा कर फसल तैयार करवाने में कोई हर्ज नहीं है, तो उन के द्वारा छुए गए अनाज को खाने में क्या हर्ज है?

बालकृष्ण जब गांव के बड़े लोगों जैसे पटवारी, ग्रामसेवक, सचिव और सरपंच को निचली जाति के लोगों से रुपए लेते देखते थे, तो यह समझ नहीं पाते थे कि क्या इसी पैसे से खरीदी गई चीजें अशुद्ध नहीं होतीं?

मंदिर में होने वाले किसी भी काजप्रयोजन के समय इन लोगों को अपनेअपने घर से एक बंधाबंधाया पैसा देने का आदेश दे दिया जाता था. उस से पूरे हो रहे उस काजप्रयोजन को देखना और उस का प्रसाद लेना इन के लिए बड़ा कुसूर माना जाता था.

बालकृष्ण ने जबजब इस तरह के सवालों के जवाब चाहे, तबतब उन से कहा गया कि ऐसा शास्त्रों में लिखा है और बहुत पहले से होता आ रहा है. इन बातों से धीरेधीरे बालकृष्ण के मन में ऊंचनीच और भेदभाव को मानने वाले इस समाज से घिन होती जा रही थी.

बालकृष्ण जातपांत के जबरदस्त खिलाफ थे. पिता दीनदयाल की मौत के बाद उन्होंने अछूत लोगों को गले लगा लिया और सभी भेदभाव भुला कर मंदिर के दरवाजे सभी के लिए खोल दिए. वे अछूतों को दया, क्षमा, परोपकार, अहिंसा की सीख देने लगे.

मंदिर में रोज पूजा के बाद बालकृष्ण छोटी जाति के लोगों को नाइंसाफी के खिलाफ लड़ने और अंधविश्वास व दूसरे गलत रिवाजों को छोड़ने की सीख देते थे. साथ ही साथ नौजवानों को रोजगार के कई उपाय बताते थे.

इस से गरीब लोगों में एक नई जागरूकता आने लगी थी. वे अब अपनी माली हालत को सुधारने के लिए सचेत होने लगे थे. इस का नतीजा यह हुआ कि उन गरीबों के खून को चूसने वालों की आंखों में बालकृष्ण चुभने लगे.

बालकृष्ण अपने खेतों में सब्जी और अनाज उगाते थे और उन्हें बेचने के लिए मंडी जाते थे. एक दिन उन के विरोधी श्रीधर और महेंद्र सिंह मंडी में ही उन्हें मिल गए. इन लोगों ने बालकृष्ण से मीठीमीठी बातचीत की और ठंडाई पीने का मनौव्वल किया.

बालकृष्ण ने इन लोगों की बात मान ली. ठंडाई पीते समय श्रीधर और महेंद्र सिंह के होंठों पर शैतानी मुसकराहट फैल गई, क्योंकि अपने इस दुश्मन को मिटाने का अच्छा मौका उन्हें मिल गया था.

गांव वापस आते समय रास्ते में बालकृष्ण की तबीयत खराब हो गई. घर पहुंचने पर उन के अपने लोगों ने दवा की, लेकिन बालकृष्ण बच नहीं सके.

बालकृष्ण की मौत से गांव में कुहराम छा गया. गायत्री के लिए सारी दुनिया नीरस हो चुकी थी.

इधर बालकृष्ण के रिश्तेदारों ने पैसों के लालच में गायत्री के सती होने की खबर उड़ा दी. यह खबर जंगल की आग की तरह आसपास के गांवों में फैल गई. सती माता को देखने के लिए अनगिनत लोग आ रहे थे. मंदिर में अगरबत्ती, प्रसाद और रुपयों का ढेर लग गया था.

बालकृष्ण के रिश्तेदार इन सब को बटोरने में लगे हुए थे. कारोबारी लोग 10 रुपए की चीज 50 रुपए में बेच रहे थे. गांव में इतनी भीड़ इकट्ठी हो गई थी कि लोगों को पीने का पानी भी नहीं मिल पा रहा था.

गांव के स्कूल में छोटी जाति का एक मास्टर था, जिस का नाम मदनलाल था. बालकृष्ण से उस की गाढ़ी दोस्ती थी. अपने दोस्त की मौत से उस के मन को गहरा धक्का लगा था. वह भी मंदिर में गया, लेकिन कुछ लोगों ने उसे मंदिर में घुसने नहीं दिया.

तब मदनलाल को शक हो गया. उस ने कलक्टर से मदद करने की गुहार लगाई और फिर गायत्री को सती होने से रोक दिया. अंधविश्वासी लोग इस काम में बाधा खड़ी करने के चलते मदनलाल की खिंचाई कर रहे थे.

गायत्री निराशा के सागर में गोते लगा रही थीं. उन के सीधेपन का फायदा उठा कर बालकृष्ण के रिश्तेदार अपना मतलब साध रहे थे. जो लोग कल तक बालकृष्ण के खिलाफ थे, वे अब गायत्री के आसपास मंडरा रहे थे. कोई पैसों का लोभी था, तो कोई गायत्री की सुंदरता का. मदनलाल ने मौका पा कर गायत्री को दिलासा दिया और बालकृष्ण के अधूरे काम को पूरा करने की सलाह दी.

मदनलाल की मदद से गायत्री ने गांव में ‘बालकृष्ण स्मृति केंद्र’ खोला. वहां औरतोंमर्दों को पढ़ायालिखाया जाता था और कुटीर उद्योगों के बारे में भी बताया जाता था. पढ़ेलिखें लोगों को रोजगार के लिए बैंक से कर्ज दिलवाया जाता था.

गायत्री भी गांव के बड़े लोगों की आंखों में खटकने लगीं, क्योंकि अब गांव में बेगार करने वालों का टोटा पड़ने लगा था. वे लोग गायत्री को समझाने लगे कि निचली जाति के लोगों को सिर पर बैठाने से उस की हालत अपने पति जैसी ही होगी. गायत्री ने इन बातों की कोई परवाह नहीं की.

एक दिन एकांत पा कर कुछ लोग मंदिर में घुस गए और गायत्री के साथ मारपीट करने लगे. बाद में उन लोगों ने गायत्री को ‘पागल’ करार दिया और मंदिर से निकाल दिया. मदनलाल ने बीचबचाव किया और कानून की मदद से गायत्री को अपना हक वापस दिलवाया.

इस से गांव के बड़े लोग मदनलाल के दुश्मन हो गए. इन लोगों ने बड़े अफसरों को घूस दे कर मदनलाल
की बदली गांव से दूर एक स्कूल में करवा दी.

मदनलाल ने ऐसी बिगड़ी हालत में गायत्री को अकेला छोड़ना मुनासिब नहीं समझा. वह कुछ दिनों की छुट्टी ले कर अपने विरोधियों को सबक सिखाने की कोशिश करने लगा.

मदनलाल ने गायत्री की बहुत मदद की, इसलिए गायत्री उस की अहसानमंद हो गई.

मदनलाल अभी अनब्याहा था. दोनों की नजदीकी धीरेधीरे प्रेम में बदल गई. इन का प्रेम साफसुथरा था, फिर भी दोनों अपने प्रेम को किसी के सामने खुलासा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे.

गायत्री विधवा विवाह करने से हिचक रही थीं. मदनलाल डर रहा था कि एक ब्राह्मण विधवा के साथ एक छोटी जाति के आदमी के ब्याह से कहीं बखेड़ा न खड़ा हो.

मदनलाल से गायत्री की नजदीकी के चलते समाज के रूढि़वादी लोग बिदकने लगे थे. इन लोगों का कहना था कि ‘पराए मर्द के साथ विधवा का रहना केरबेर की तरह होता है. केला अपने पत्तों को बेर के कांटों से बचा नहीं पाता है’.

इन सारी बातों के बावजूद गायत्री और मदनलाल की नजदीकी बढ़ती ही गई. इस से वे लोग कुढ़ने लगे, जो गायत्री की सुंदरता पर मोहित थे. गायत्री के रिश्तेदार भी उस के खिलाफ आग उगल रहे थे.

आखिरकार मंदिर के अहाते में ब्राह्मण जाति की पंचायत बुलाई गई. पंचों ने मदनलाल को बहुत कोसा.

हालांकि मदनलाल ने अपनी सफाई में बहुतकुछ कहा. लेकिन कई लोगों ने गायत्री के खिलाफ झूठी गवाही दी. तब गायत्री को यकीन हो गया कि पंचायत का फैसला उस के खिलाफ ही होगा.

उन्होंने मन ही मन पक्का निश्चय किया और पंचों के सामने आ कर बोलीं, ‘‘तुम लोग मुझे जाति से बाहर क्या निकालोगे, मैं खुद तुम जैसे घटिया और पाखंडी लोगों की जाति में रहना नहीं चाहती हूं. मैं मदनलाल को अपना पति मान रही हूं.’’

गायत्री की यह हिम्मत देख कर सभी हैरान रह गए. खुद मदनलाल भी भौंचक्का था. उस ने कांपते हाथों से गायत्री की सूनी मांग में सिंदूर भर दिया.

यह देख कर पंचों के चेहरे लटक गए. उन सभी के सामने गायत्री ने मदनलाल से कहा, ‘‘आज हमारी शादीशुदा जिंदगी का पहला सवेरा है. आओ, आज से हम एक नई पहल शुरू करें.’’

लेखक – जी. शर्मा

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