Family Story: कमाऊ मुरगी – क्यों धैर्या की शादी नहीं होने देना चाहते थे घरवाले?

Family Story: ‘‘मां,भैया देखो मैं किसे आप से मिलाने लाई हूं,’’ धैर्या ने कमरे में घुसते ही खुशी से अपने परिवार के लोगों को पुकारा. ‘‘अरे कौन है भई जो इतनी खुश नजर आ रही है मेरी बहना?’’ भाई अमन पत्नी के साथ अपने कमरे से बाहर आते हुए बोला.

अब तक मां भी ड्राइंगरूम में आ चुकी थीं. ‘‘मां, ये हैं मेजर वीर प्रताप सिंहजी.

इन की पूना में पोस्टिंग है,’’ धैर्या ने चकहते हुए अपने साथ आए एक लंबे कद के आकर्षक पर्सनैलिटी वाले व्यक्ति से सब का परिचय कराया. ‘‘नमस्ते,’’ कह कर मेजर ने सब का अभिवादन किया.

चायनाश्ते के दौरान मेजर ने बताया कि वे हरियाणा के करनाल के रहने वाले हैं और अपने मातापिता के इकलौते बेटे हैं. वे जाट परिवार से हैं और अभी तक कुंआरे हैं. चायनाश्ता कर के मेजर धैर्या की ओर मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘अच्छा धैर्या अब मैं चलता हूं, कल मिलते हैं.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह धैर्या उन्हें बाहर तक छोड़ने गई. ‘‘2-4 दिनों में तुम्हें अपने मातापिता से मिलवाने की कोशिश करता हूं,’’ मेजर ने अपनी कार में बैठते हुए कहा.

जब धैर्या अंदर आई तो मां, भाई और भाभी सभी को अपनी ओर गुस्से से देखते हुए पाया. ‘‘कौन थे ये जनाब दीदी और हम से मिलवाने का क्या मतलब था?’’ भाभी व्यंग्यात्मक स्वर में बोलीं.

‘‘मां, ये सेना में अधिकारी हैं. उम्र में मुझ से 10 साल बड़े हैं, इसलिए आप से मिलवाने लाई थी,’’ एक सांस में सारी बात कह कर धैर्या अपने कमरे में चली गई. यह सुन कर घर के तीनों सदस्यों को जैसे सांप सूंघ गया. सब हैरान से एकदूसरे को देखने लगे.

‘‘दिमाग खराब हो गया है इस लड़की का. अब इस उम्र में शादी करेगी और वह भी गैरजाति के लड़के से… हमारी तो बिरादरी में नाक ही कट जाएगी,’’ मां अपना सिर पकड़ कर बोलीं. ‘‘बाहर आने दो, मैं बात करता हूं इस से,’’ भाई अमन बोला.

‘‘ननद रानी का तो दिमाग ही फिर गया है… शादी वह भी इतनी बड़ी उम्र के इंसान से?’’ भाभी धारिणी भला कहां चुप रहने वाली थी. ‘‘भाभी, क्या बुरा कर रही हूं मैं? इस संसार में सभी तो शादी करते हैं… आप भी तो शादी कर के ही इस घर में आई हैं. फिर उम्र से क्या फर्क पड़ता है? मेरी उम्र भी कौन सी कम है?’’ कमरे से बाहर आते हुए धैर्या बोली.

‘‘अच्छीभली तो चल रही है तेरी जिंदगी… क्यों उस में आग लगा रही है? एक तो पिछड़ी जाति का लड़का और फिर उम्र में भी तुझ से 10 साल बड़ा… न शक्ल न सूरत, तुझे उस में क्या दिखा, जो शादी करने की सोच ली. तेरे आगे कहीं नहीं लगता वह,’’ मां ने समझाने की कोशिश की. ‘‘ठीक है न मां, सारी जिंदगी तो आप सब के हिसाब से ही चली. अब कुछ अपने मन का भी करने दें,’’ कह धैर्या नहाने चली गई.

उस दिन से घर में जैसे तूफान आ गया. सुबह उस से किसी ने बात नहीं की. वह चुपचाप नाश्ता कर के औफिस चल दी. तभी मेजर का फोन आ गया, ‘‘हैलो गुड मौर्निंग डियर, हाऊ आर यू? नींद आई थी भी

या नहीं?’’ ‘‘मैं ठीक हूं,’’ धैर्या ने उत्तर दिया.

‘‘क्या हुआ कुछ मूड ठीक नहीं है. ऐनी प्रौब्लम?’’ धैर्या को रोना आ गया. बोली, ‘‘घर में कल आप के जाने के बाद जम कर कुहराम मचा… कोई मेरी शादी नहीं करना चाहता… ऐसा मैं ने क्या कर दिया,’’ वह रोंआसे स्वर में बोली.

‘‘कोई बात नहीं, तुम उदास न हो… ये सब हम बाद में हल कर लेंगे. कल मम्मीपापा आ रहे हैं अपनी लाड़ली बहू से मिलने, तुम तैयार रहना,’’ मेजर ने उत्साह से कहा. यह सुन धैर्या एकदम चौंक कर अपने आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘कल… क… ल… मैं कैसे कर पाऊंगी सब?’’ ‘‘तुम्हें करना ही क्या है. बस तैयार हो कर कल 11 बजे होटल ताज पहुंच जाना. मैं वहीं मिलूगा.’’

‘‘जी वे सब तो ठीक है, पर मैं बहुत नर्वस फील कर रही हूं,’’ धैर्या ने थोड़ा घबराते हुए कहा. ‘‘अरे, इस में नर्वस होने की क्या बात है. मेरे मातापिता बेहद सीधे हैं. वे कब से अपनी बहू के लिए तरस रहे हैं. बस मैं ही शादी के लिए तैयार नहीं था… उन का बस चले तो आज ही शादी कर के तुम्हें घर ले जाएं. ठीक है तो कल मिलते हैं,’’ कह कर मेजर ने फोन काट दिया.

शाम को औफिस से घर आ कर धैर्या कौफी का मग ले कर बालकनी में आ खड़ी

हुई. उस का मन आज से 6 माह पहले मेजर से हुई पहली मुलाकात पर चला गया था. होश संभालते ही घर की जिम्मेदारियों को निभातेनिभाते वह अपने बारे में सोचना ही भूल गई थी. बस मां, भाई, भाभी, भतीजा ही उस की दुनिया थे. पर पिछले कुछ दिनों से घर वालों का बर्ताव और कुछ कानों में पड़ी बातों ने उस के मन को बुरी तरह आहत कर दिया था. तभी उसे समझ आया कि घर में सब अपनेअपने में मसरूफ हैं… सभी को उस के पैसे से मतलब है न कि उस से. वह तपड़ उठी थी जब मौसी ने मां से उस की शादी के बारे में बात की थी. तब मां बोली थीं, ‘‘अरे जीजी धैर्या का ब्याह हो गया तो हमारी जिंदगी तो नर्क हो जाएगी. अमन की तो नौकरी लगतीछूटती रहती है… शादी के बाद ससुराल वाले मायके की मदद तो नहीं करने देंगे न.’’

मां की बातें सुन कर धैर्या के पैरों तले की जमीन जिसक गई. 1 सप्ताह के गंभीर मंथन के बाद वह किसी नतीजे पर पहुंचती, तभी उसे एक दिन औफिस जाते समय मैट्रो में अपनी बचपन की सहेली निशा मिल गई. धैर्या की आपबीती सुन कर निशा गुस्से से भर कर बोली, ‘‘तू अभी तक उन सब को ढो रही है. अंकल थे तब तू कमाऊ पूत थी और अंकल के जाने के बाद सब के लिए मात्र सोने के अंडे देने वाली कमाऊ मुरगी बन कर रह गई है, जिसे तेरे घर वाले शादी कर हलाल नहीं करना चाहते हैं. अब मैं तेरी एक नहीं सुनूंगी. बस तू अभी मेरे साथ चल,’’ कह कर वह उसे अपने एक जानपहचान के मैरिज ब्यूरो ले गई और फिर उस का वहां शादी के लिए रजिस्ट्रेशन करवा दिया.

मैरिज ब्यूरो से 1 माह बाद ही धैर्या के पास फोन आ गया और तब उस की मेजर सिंह से मुलाकात हुई. वे उसे पहली मुलाकात में ही भा गए थे. बिना लागलपेट के उन्होंने धैर्या को बताया कि वे 42 साल के हो कर भी सिर्फ इसलिए कुंआरे हैं कि वे अपनी नौकरी में मसरूफ थे. अपनी पोस्टिंग पर उन्हें परिवार को ले जाने की मनाही थी. छुट्टी भी बहुत कम मिलती थी. मातापिता की देखभाल के लिए किसी भी लड़की को ब्याह कर ससुराल में छोड़ना उन्हें पसंद नहीं था. अब उन की पोस्टिंग पूना में है और वे परिवार को अपने साथ रख सकते हैं. इसीलिए शादी को तैयार हो गए. धैर्या के बारे में सब सुन कर उन्होंने कहा, ‘‘आप जैसी जिम्मेदार लड़की से कौन शादी नहीं करना चाहेगा… आप को अपने घर ला कर मैं और मेरे मातापिता खुद को धन्य समझेंगे.’’

मेजर साहब से होटल में मिलने के बाद धैर्या ने वहीं से निशा को उन के बारे में बताया तो वह खुशी से बोली, ‘‘अब देर मत कर, भले ही तुझ से उम्र में 10 साल बड़े हैं, जाति और कल्चर अलग हैं, पर उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. तुम दोनों समझदार हो. तू अपना सबकुछ लुटा कर भी परिवार वालों की सगी नहीं हो सकती… वे सिर्फ अपना मतलब निकाल रहे हैं. शादी कर के अपना घरपरिवार बसा और अपनी जिंदगी जी.’’ मेजर सिंह से कुछ मुलाकातों में ही उस की समझ में आने लगा कि जीवनसाथी के साथ जिंदगी बिताने का आनंद क्या होता है. खुद को अंदर से मजबूत कर के और शादी का पक्का मन बनाने के बाद ही उस ने मेजर सिंह को अपने परिवार वालों से मिलवाया.

अगले दिन सुबह धैर्या फीरोजी रंग की शिफौन की साड़ी पर हैदराबादी मोतियों का सैट पहन कर घर से निकली तो मां और भाभी उसे खा जाने वाली नजरों से देख रही थीं.

ताज होटल के कमरा नं. 403 के बाहर पहुंच कर घंटी पर हाथ रखते समय उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. उसे लग रहा था मानो वह जिंदगी का सब से बड़ा इम्तिहान देने जा रही हो.

जैसे ही दरवाजा खुला मेजर सिंह सामने खड़े थे. वे उस का हाथ पकड़ कर उसे अंदर तक ले गए. उसे देखते ही उन के मातापिता खड़े हो गए. उस ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया. मेजर सिंह की मां ने उसे अपने गले से लगा लिया और फिर बोलीं, ‘‘कुदरत का लाखलाख शुक्र है जो उस ने हमें इतनी प्यारी लड़की बहू के रूप में दी. इस दिन के लिए मेरी आंखें कब से तरस रही थीं.’’

‘‘बैठो, बेटा आराम से बैठो,’’ मेजर सिंह के पिता ने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा. धैर्या लजाते हुए सामने रखे सोफे पर बैठ गई.

‘‘बेटा, हम तुम से कुछ नहीं पूछना चाहते. हमें प्रताप ने सब बता दिया है. हम बस तुम्हें एक बार देखना चाहते थे, अब बस हम तुम्हारे परिवार वालों से मिल कर शादी की डेट तय करना चाहते हैं. शाम को हम तुम्हारे घर आ रहे हैं,’’ मेजर सिंह के पिता ने कहा. ‘‘जी, जैसा आप ठीक समझें,’’ धैर्या सिर नीचा किए शरमाते हुए बोली.

हलकेफुलके चायनाश्ते के बाद वह घर आ गई. फ्रैश हो कर चाय पीतेपीते वह गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मां, भैया, मेजर साहब के मातापिता आज शाम को आ कर आप दोनों से मिल कर हमारी शादी की तारीख तय करना चाहते हैं.’’ ‘‘शादी? कैसी शादी? हमें यह शादी मंजूर नहीं और न हम ऐसी किसी शादी में शामिल होंगे… हम ऐसी गैरजाति की बेमेल शादी नहीं होने देंगे.’’

भाई अमन तो मानो अपना आपा ही खो बैठा था. ‘‘पर मैं ने तय कर लिया है भैया कि मैं मेजर साहब से ही शादी करूंगी,’’ धैर्या दृढ़ता से बोली.

यह सुन कर अमन भी तेज आवाज में बोला, ‘‘मैं बरसों से पापा की बनीबनाई

इज्जत को मिट्टी में नहीं मिलने दूंगा.’’ ‘‘कुछ तो बोलो मां, आप क्यों चुप बैठी हो?’’ धैर्या ने शांति से तमाशा देख रहीं मां की ओर देख कर कहा.

मां पहले से ही कुढ़ी बैठी थीं. अत: गुस्से से बोलीं, ‘‘अरे मैं क्या बोलूं, जब तुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा.’’ ‘‘क्या समझ नहीं आ रहा मां? शादी ही तो कर रही हूं कोई गलत काम तो नहीं कर रही,’’ धैर्या ने लगभग रोंआसे स्वर में कहा.

‘‘ननद रानी आप तो बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम वाली बात कर रही हैं. शादी वह भी इस उम्र में?’’ भाभी ने भी अपनी औकात दिखा ही दी. ‘‘क्यों भाभी कल तक जब आप के लिए महंगे सूट, साडि़यां और गहने लाती थी, तब तो बड़ी प्यारी ननद और बहन कहतेकहते नहीं थकती थीं आप और आज मैं बूढ़ी घोड़ी हो गई? असल में आप तीनों ही मेरी शादी करना नहीं चाहते, क्योंकि मैं आप के लिए महज एक कमाऊ मुरगी हूं. मेरी कमाई से ही तो आप सब अपने शौक पूरे कर रहे हैं. आप सब अपनी दुनिया में मस्त हैं, कभी किसी ने मेरे बारे में सोचा है?’’

‘‘देख बेटा अब तू अपनी सीमाएं लांघ रही है. उस मेजर ने लगता है तेरा दिमाग खराब कर दिया है,’’ मां गुस्से से बोलीं. ‘‘नहीं मां मेरा दिमाग तो अब तक खराब था. आज ही ठिकाने आया है. याद है पिछले महीने जब मौसी ने मेरी शादी की बात आप से की थी तो आप ही कह रही थीं कि धैर्या की शादी कर दी तो हम कैसे रहेंगे? उसी से तो घर चलता है. बताइए, इसीलिए तो आप ने कभी मेरी शादी के बारे में नहीं सोचा.’’

‘‘छोटी बस कर, बहुत बोल ली तू… इस उम्र में ये शादीवादी के सपने देखना छोड़ दे. चैन से नौकरी कर और सब के साथ रह जैसे अब तक रहती आई है,’’ अमन ने थोड़ा नर्म होते हुए कहा. ‘‘भैया आप को याद है, आप और भाभी हमेशा हर नई फिल्म का पहला शो देखते हो. पिछली बार जब आप कोई फिल्म देख कर आए थे और भाभी से मेरी शादी की बात कर रहे थे, तब भाभी ने कहा था कि दीदी की शादी हो गई तो हमारा खर्चा नहीं चलेगा. इसलिए जैसा चल रहा है चलने दो और आप ने कहा था, यह तो है. मेरी तनख्वाह से तो हमारा घर का गुजारा नहीं हो सकता. फिल्म देखना तो दूर की बात है.’’

‘‘भैया आप अपनी दुनिया में इतने व्यस्त हो गए कि मुझ से 5 साल बड़े हो कर भी आप ने कभी मेरे बारे में नहीं सोचा,’’ धैर्या ने गुस्से में कहा तो भैया और भाभी निरुत्तर हो कर एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘देख बेटा अब इस उम्र में शादी के सपने देखना छोड़ दे. एक तो गैरजाति का लड़का ऊपर से उम्र में 10 साल बड़ा. ये लोग बड़े चालाक होते हैं. लड़कियों की कोई इज्जत नहीं होती इन के यहां. मुझे तो लगा वे बस तेरे पैसे के लालच में शादी करने की बात कर रहे हैं… तू पछताएगी,’’ मां ने अपना आखिरी दांव चला.

‘‘नहीं मांजी, आप गलत सोच रही हैं. मेरे परिवार को पैसों का कोई लालच नहीं है. हमारा परिवार तो धैर्या जैसी लड़की को अपने परिवार की बहू बना कर अपने को धन्य समझेगा. मैं उसे जीवन की वह हर खुशी दूंगा जिस पर एक लड़की और एक पत्नी का अधिकार होता है. शादी के बाद भी यह आप लोगों पर खर्च करना चाहे, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी,’’ मेजर सिंह की आवाज सुन कर धैर्या चौंक गई, जो दरवाजे की ओट में खड़े न जाने कब से घर के सदस्यों की बातें सुन रहे थे. ‘‘आप… आप यहां कब आए?’’ धैर्या ने अचकचाते हुए पूछा.

‘‘धैर्या, तुम जल्दीबाजी में अपना मोबाइल होटल में ही भूल आई थीं… मैं इसे देने यहां चला आया. अब मुझे लगता है कि मेरे मम्मीपापा को शादी तय करने के लिए यहां आने की जरूरत नहीं है.’’‘और मैं आप सब से भी कहना चाहता हूं कि आज से बल्कि अभी से इस के जीवन का हर सुखदुख मेरा है. मैं ने आप सब लोगों की सारी बातें सुन ली हैं और अब मैं इसे यहां आप लोगों के बीच एक पल भी नहीं रहने दूंगा. धैर्या, चलो मेरे साथ.’’ हम दोनों शादी कर रहे हैं. आप लोगों को यदि उचित लगे तो आशीर्वाद देने आ जाइएगा. शादी 1 माह बाद अदालत में होगी. उतने दिन धैर्या मेरे घर में मेहमान की तरह रहेगी. धैर्या के घर वालों को अपना फैसला सुना कर मेजर सिंह धैर्या का हाथ पकड़ कर उसे बाहर अपनी गाड़ी तक ले गए.

धैर्या तब तक अपना सामान पैक कर चुकी थी. परिवार के तीनों सदस्य धूल उड़ती गाड़ी को चुपचाप जाते देखते रह गए. धैर्या ने मेजर सिंह के कंधे पर सिर टिका कर अपनी आंखें मूंद लीं मानो जीवन में आने वाले नए उजाले के सपने देखने की कोशिश कर रही हो.

Romantic Story: प्यार के मायने – निधि को किस ने सिखाया प्यार का सही मतलब?

Romantic Story: उससे मेरा कोई खास परिचय नहीं था. शादी से पहले जिस औफिस में काम करती थी, वहीं था वह. आज फ्रैंच क्लास अटैंड करते वक्त उस से मुलाकात हुई. पति के कहने पर अपने फ्री टाइम का सदुपयोग करने के विचार से मैं ने यह क्लास जौइन की थी.

‘‘हाय,’’ वह चमकती आंखों के साथ अचानक मेरे सामने आ खड़ा हुआ.

मैं मुसकरा उठी, ‘‘ओह तुम… सो नाइस टु मीट यू,’’ नाम याद नहीं आ रहा था मुझे उस का. उस ने स्वयं अपना नाम याद दिलाया, ‘‘अंकित, पहचाना आप ने?’’

‘‘हांहां, बिलकुल, याद है मुझे.’’

मैं ने यह बात जाहिर नहीं होने दी कि मुझे उस का नाम भी याद नहीं.

‘‘और सब कैसा है?’’ उस ने पूछा.

‘‘फाइन. यहीं पास में घर है मेरा. पति आर्मी में हैं. 2 बेटियां हैं, बड़ी 7वीं कक्षा में और छोटी तीसरी कक्षा में पढ़ती है.’’

‘‘वाह ग्रेट,’’ वह अब मेरे साथ चलने लगा था, ‘‘मैं 2 सप्ताह पहले ही दिल्ली आया हूं. वैसे मुंबई में रहता हूं. मेरी कंपनी ने 6 माह के प्रोजैक्ट वर्क के लिए मुझे यहां भेजा है. सोचा, फ्री टाइम में यह क्लास भी जौइन कर लूं.’’

‘‘गुड. अच्छा अंकित, अब मैं चलती हूं. यहीं से औटो लेना होगा मुझे.’’

‘‘ओके बाय,’’ कह वह चला गया.

मैं घर आ गई. अगले 2 दिनों की छुट्टी ली थी मैं ने. मैं घर के कामों में पूरी तरह व्यस्त रही. बड़ी बेटी का जन्मदिन था और छोटी का नए स्कूल में दाखिला कराना था.

2 दिन बाद क्लास पहुंची तो अंकित फिर सामने आ गया, ‘‘आप 2 दिन आईं नहीं. मुझे लगा कहीं क्लास तो नहीं छोड़ दी.’

‘‘नहीं, घर में कुछ काम था.’

वह चुपचाप मेरे पीछे वाली सीट पर बैठ गया. क्लास के बाद निकलने लगी तो फिर मेरे सामने आ गया, ‘‘कौफी?’’

‘‘नो, घर जल्दी जाना है. बेटी आ गई होगी, और फिर पति आज डिनर भी बाहर कराने वाले हैं,’’ मैं ने उसे टालनाचाहा.

‘‘ओके, चलिए औटो तक छोड़ देता हूं,’’ वह बोला.

मुझे अजीब लगा, फिर भी साथ चल दी. कुछ देर तक दोनों खामोश रहे. मैं सोच रही थी, यह तो दोस्ती की फिराक में है, जब कि मैं सब कुछ बता चुकी हूं. पति हैं, बच्चे हैं मेरे. आखिर चाहता क्या है?

तभी उस की आवाज सुनाई दी, ‘‘आप को किरण याद है?’’

‘‘हां, याद है. वही न, जो आकाश सर की पीए थी?’’

‘‘हां, पता है, वह कनाडा शिफ्ट हो गई है. अपनी कंपनी खोली है वहां. सुना है किसी करोड़पति से शादी की है.’’

‘‘गुड, काफी ब्रिलिऐंट थी वह.’’

‘‘हां, मगर उस ने एक काम बहुत गलत किया. अपने प्यार को अकेला छोड़ कर चली गई.’’

‘‘प्यार? कौन आकाश?’’

‘‘हां. बहुत चाहते थे उसे. मैं जानता हूं वे किरण के लिए जान भी दे सकते थे. मगर आज के जमाने में प्यार और जज्बात की कद्र ही कहां होती है.’’

‘‘हूं… अच्छा, मैं चलती हूं,’’ कह मैं ने औटो वाले को रोका और उस में बैठ गई.

वह भी अपने रास्ते चला गया. मैं सोचने लगी, आजकल बड़ी बातें करने लगा है, जबकि पहले कितना खामोश रहता था. मैं और मेरी दोस्त रिचा अकसर मजाक उड़ाते थे इस का. पर आज तो बड़े जज्बातों की बातें कर रहा है. मैं मन ही मन मुसकरा उठी. फिर पूरे रास्ते उस पुराने औफिस की बातें ही सोचती रही. मुझे समीर याद आया. बड़ा हैंडसम था. औफिस की सारी लड़कियां उस पर फिदा थीं. मैं भी उसे पसंद करती थी. मगर मेरा डिवोशन तो अजीत की तरफ ही था. यह बात अलग है किअजीत से शादी के बाद एहसास हुआ कि 4 सालों तक हम ने मिल कर जो सपने देखे थे उन के रंग अलगअलग थे. हम एकदूसरे के साथ तो थे, पर एकदूसरे के लिए बने हैं, ऐसा कम ही महसूस होता था. शादी के बाद अजीत की बहुत सी आदतें मुझे तकलीफ देतीं. पर इंसान जिस से प्यार करता है, उस की कमियां दिखती कहां हैं?

शादी से पहले मुझे अजीत में सिर्फ अच्छाइयां दिखती थीं, मगर अब सिर्फ रिश्ता निभाने वाली बात रह गई थी. वैसे मैं जानती हूं, वे मुझे अब भी बहुत प्यार करते हैं, मगर पैसा सदा से उन के लिए पहली प्राथमिकता रही है. मैं भी कुछ उदासीन सी हो गई थी. अब दोनों बच्चियों को अच्छी परवरिश देना ही मेरे जीवन का मकसद रह गया था.

अगले दिन अंकित गेट के पास ही मिल गया. पास की दुकान पर गोलगप्पे खा रहा था. उस ने मुझे भी इनवाइट किया पर मैं साफ मना कर अंदर चली गई.

क्लास खत्म होते ही वह फिर मेरे पास आ गया, ‘‘चलिए, औटो तक छोड़ दूं.’’

‘‘हूं,’’ कह मैं अनमनी सी उस के साथ चलने लगी.

उस ने टोका, ‘‘आप को वे मैसेज याद हैं, जो आप के फोन में अनजान नंबरों से आते थे?’’

‘‘हां, याद हैं. क्यों? तुम्हें कैसे पता?’’ मैं चौंकी.

‘‘दरअसल, आप एक बार अपनी फ्रैंड को बता रही थीं, तो कैंटीन में पास में ही मैं भी बैठा था. अत: सब सुन लिया. आप ने कभी चैक नहीं किया कि उन्हें भेजता कौन है?’’

‘‘नहीं, मेरे पास इन फुजूल बातों के लिए वक्त कहां था और फिर मैं औलरैडी इंगेज थी.’’

‘‘हां, वह तो मुझे पता है. मेरे 1-2 दोस्तों ने बताया था, आप के बारे में. सच आप कितनी खुशहाल हैं. जिसे चाहा उसी से शादी की. हर किसी के जीवन में ऐसा कहां होता है? लोग सच्चे प्यार की कद्र ही नहीं करते या फिर कई दफा ऐसा होता है कि बेतहाशा प्यार कर के भी लोग अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाते.’’

‘‘क्या बात है, कहीं तुम्हें भी किसी से बेतहाशा प्यार तो नहीं था?’’ मैं व्यंग्य से मुसकराई तो वह चुप हो गया.

मुझे लगा, मेरा इस तरह हंसना उसे बुरा लगा है. शुरू से देखा था मैं ने. बहुत भावुक था वह. छोटीछोटी बातें भी बुरी लग जाती थीं. व्यक्तित्व भी साधारण सा था. ज्यादातर अकेला ही रहता. गंभीर, मगर शालीन था. उस के 2-3 ही दोस्त थे. उन के काफी करीब भी था. मगर उसे इधरउधर वक्त बरबाद करते या लड़कियों से हंसीमजाक करते कभी नहीं देखा था.

मैं थोड़ी सीरियस हो कर बोली, ‘‘अंकित, तुम ने बताया नहीं है,’’ तुम्हारे कितने बच्चे हैं और पत्नी क्या करती है?

‘‘मैडम, आप की मंजिल आ गई, उस ने मुझे टालना चाहा.’’

‘‘ठीक है, पर मुझे जवाब दो.’’

मैं ने जिद की तो वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘मैं ने अपना जीवन एक एनजीओ के बच्चों के नाम कर दिया है.’’

‘‘मगर क्यों? शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्योंकि हर किसी की जिंदगी में प्यार नहीं लिखा होता और बिना प्यार शादी को मैं समझौता मानता हूं. फिर समझौता मैं कभी करता नहीं.’’

वह चला गया. मैं पूरे रास्ते उसी के बारे में सोचती रही. मैं पुराने औफिस में अपनी ही दुनिया में मगन रहती थी. उसे कभी अहमियत नहीं दी. मैं उस के बारे में और जानने को उत्सुक हो रही थी. मुझे उस की बातें याद आ रही थीं. मैं सोचने लगी, उस ने मैसेज वाली बात क्यों कही? मैं तो भूल भी गई थी. वैसे वे मैसेज बड़े प्यारे होते थे. 3-4 महीने तक रोज 1 या 2 मैसेज मुझे मिलते, अनजान नंबरों से. 1-2 बार मैं ने फोन भी किया, मगर कोई जवाब नहीं मिला.

घर पहुंच कर मैं पुराना फोन ढूंढ़ने लगी. स्मार्ट फोन के आते ही मैं ने पुराने फोन को रिटायर कर दिया था. 10 सालों से वह फोन मेरी अलमारी के कोने में पड़ा था. मैं ने उसे निकाल कर उस में नई बैटरी डाली और बैटरी चार्ज कर उसे औन किया. फिर उन्हीं मैसेज को पढ़ने लगी. उत्सुकता उस वक्त भी रहती थी और अब भी होने लगी कि ये मैसेज मुझे भेजे किस ने थे? जरूर अंकित इस बारे में कुछ जानता होगा, तभी बात कर रहा था. फिर मैं ने तय किया कि कल कुरेदकुरेद कर उस से यह बात जरूर उगलवाऊंगी.

पर अगले 2-3 दिनों तक अंकित नहीं आया. मैं परेशान थी. रोज बेसब्री से उस का इंतजार करती. चौथे दिन वह दिखा.मुझ से रहा नहीं गया, तो मैं उस के पास चली गई. फिर पूछा, ‘‘अंकित, इतने दिन कहां थे?’’

वह चौंका. मुझे करीब देख कर थोड़ा सकपकाया, फिर बोला, ‘‘तबीयत ठीक नहीं थी.’’

‘‘तबीयत तो मेरी भी कुछ महीनों से ठीक नहीं रहती.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘बस किडनी में कुछ प्रौब्लम है.’’

‘‘अच्छा, तभी आप के चेहरे पर थकान और कमजोरी सी नजर आती है. मैं सोच भी रहा था कि पहले जैसी रौनक चेहरे पर नहीं दिखती.’’

‘‘हां, दवा जो खा रही हूं,’’ मैं ने कहा.

फिर सहज ही मुझे मैसेज वाली बात याद आई. मैं ने पूछा, ‘‘अच्छा अंकित, यह बताओ कि वे मैसेज कौन भेजता था मुझे? क्या तुम जानते हो उसे?’’

वह मेरी तरफ एकटक देखते हुए बोला, ‘‘हां, असल में मेरा एक दोस्त था. बहुत प्यार करता था आप से पर कभी कह नहीं पाया. और फिर जानता भी था कि आप की जिंदगी में कोई और है, इसलिए कभी मिलने भी नहीं आया.’’

‘‘हूं,’’ मैं ने लंबी सांस ली, ‘‘अच्छा, अब कहां है तुम्हारा वह दोस्त?’’

वह मुसकराया, ‘‘अब निधि वह इस दुनिया की भीड़ में कहीं खो चुका है और फिर आप भी तो अपनी जिंदगी में खुश हैं. आप को परेशान करने वह कभी नहीं आएगा.’’

‘‘यह सही बात है अंकित, पर मुझे यह जानने का हक तो है कि वह कौन है और उस का नाम क्या है’’

‘‘वक्त आया तो मैं उसे आप से मिलवाने जरूर लाऊंगा, मगर फिलहाल आप अपनी जिंदगी में खुश रहिए.’’

मैं अंकित को देखती रह गई कि यह इस तरह की बातें भी कर सकता है. मैं मुसकरा उठी. क्लास खत्म होते ही अंकित मेरे पास आया और औटो तक मुझे छोड़ कर चला गया.

उस शाम तबीयत ज्यादा बिगड़ गई. 2-3 दिन मैं ने पूरा आराम किया. चौथे दिन क्लास के लिए निकली तो बड़ी बेटी भी साथ हो ली. उस की छुट्टी थी. उसी रास्ते उसे दोस्त के यहां जाना था. इंस्टिट्यूट के बाहर ही अंकित दिख गया. मैं ने अपनी बेटी का उस से परिचय कराते हुए बेटी से कहा, ‘‘बेटा, ये हैं आप के अंकित अंकल.’’

तभी अंकित ने बैग से चौकलेट निकाला और फिर बेटी को देते हुए बोला, ‘‘बेटा, देखो अंकल आप के लिए क्या लाए हैं.’’

‘‘थैंक्यू अंकल,’’ उस ने खुशी से चौकलेट लेते हुए कहा, ‘‘अंकल, आप को कैसे पता चला कि मैं आने वाली हूं?’’

‘‘अरे बेटा, यह सब तो महसूस करने की बात है. मुझे लग रहा था कि आज तुम मम्मी के साथ आओगी.’’

वह मुसकरा उठी. फिर हम दोनों को बायबाय कह कर अपने दोस्त के घर चली गई. हम अपनी क्लास में चले गए.

अंकित अब मुझे काफी भला लगने लगा था. किसी को करीब से जानने के बाद ही उस की असलियत समझ में आती है. अंकित भी अब मुझे एक दोस्त की तरह ट्रीट करने लगा, मगर हमारी बातचीत और मुलाकातें सीमित ही रहीं. इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी थी. फिर एक दिन अचानक मुझे हौस्पिटल में दाखिल होना पड़ा. सभी जांचें हुईं. पता चला कि मेरी एक किडनी बिलकुल खराब हो गई है. दूसरी तो पहले ही बहुत वीक हो गई थी, इसलिए अब नई किडनी की जरूरत थी. मगर मुझ से मैच करती किडनी मिल नहीं रही थी. सब परेशान थे. डाक्टर भी प्रयास में लगे थे. एक दिन मेरे फोन पर अंकित की काल आई. उस ने मेरे इतने दिनों से क्लास में न आने पर हालचाल पूछने के लिए फोन किया था. फिर पूरी बात जान उस ने हौस्पिटल का पता लिया. मुझे लगा कि वह मुझ से मिलने आएगा, मगर वह नहीं आया. सारे रिश्तेदार, मित्र मुझ से मिलने आए थे. एक उम्मीद थी कि वह भी आएगा. मगर फिर सोचा कि हमारे बीच कोई ऐसी दोस्ती तो थी नहीं. बस एकदूसरे से पूर्वपरिचित थी, इसलिए थोड़ीबहुत बातचीत हो जाती थी. ऐसे में यह अपेक्षा करना कि वह आएगा, मेरी ही गलती थी.

समय के साथ मेरी तबीयत और बिगड़ती गई. किडनी का इंतजाम नहीं हो पा रहा था. फिर एक दिन पता चला कि किडनी डोनर मिल गया है. मुझे नई किडनी लगा दी गई. सर्जरी के बाद कुछ दिन मैं हौस्पिटल में ही रही. थोड़ी ठीक हुई तो घर भेज दिया गया. फ्रैंच क्लासेज पूरी तरह छूट गई थीं. सोचा एक दफा अंकित से फोन कर के पूछूं कि क्लास और कितने दिन चलेंगी. फिर यह सोच कर कि वह तो मुझे देखने तक नहीं आया, मैं भला उसे फोन क्यों करूं, अपना विचार बदल दिया. समय बीतता गया. अब मैं पहले से काफी ठीक थी. फिर भी पूरे आराम की हिदायत थी. एक दिन शाम को अजीत मेरे पास बैठे हुए थे कि तभी फ्रैंच क्लासेज का जिक्र हुआ. अजीत ने सहसा ही मुझ से पूछा, ‘‘क्या अंकित तुम्हारा गहरा दोस्त था? क्या रिश्ता है तुम्हारा उस से?’’

‘‘आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?’’ मैं ने चौंकते हुए कहा.

‘‘अब ऐसे तो कोई अपनी किडनी नहीं देता न. किडनी डोनर और कोई नहीं, अंकित नाम का व्यक्ति था. उस ने मुझे बताया कि वह तुम्हारे साथ फ्रैंच क्लास में जाता है और तुम्हें अपनी एक किडनी देना चाहता है. तभी से यह बात मुझे बेचैन किए हुए है. बस इसलिए पूछ लिया.’’ अजीत की आंखों में शक साफ नजर आ रहा था. मैं अंदर तक व्यथित हो गई, ‘‘अंकित सचमुच केवल क्लासफैलो था और कुछ नहीं.’’

‘‘चलो, यदि ऐसा है, तो अच्छा वरना अब क्या कहूं,’’ कह कर वे चले गए. पर उन का यह व्यवहार मुझे अंदर तक बेध गया कि क्या मुझे इतनी भी समझ नहीं कि क्या गलत है और क्या सही? किसी के साथ भी मेरा नाम जोड़ दिया जाए.

मैं बहुत देर तक परेशान सी बैठी रही. कुछ अजीब भी लग रहा था. आखिर उस ने मुझे किडनी डोनेट की क्यों? दूसरी तरफ मुझ से मिलने भी नहीं आया. बात करनी होगी, सोचते हुए मैं ने अंकित का फोन मिलाया, मगर उस ने फोन काट दिया. मैं और ज्यादा चिढ़ गई. फोन पटक कर सिर पकड़ कर बैठ गई.

तभी अंकित का मैसेज आया, ‘‘मुझे माफ कर देना निधि. मैं आप से बिना मिले चला आया. कहा था न मैं ने कि दीवानों को अपने प्यार की खातिर कितनी भी तकलीफ सहनी मंजूर होती है. मगर वे अपनी मुहब्बत की आंखों में तकलीफ नहीं सह सकते, इसलिए मिलने नहीं आया.’’

मैं हैरान सी उस का यह मैसेज पढ़ कर समझने का प्रयास करने लगी कि वह कहना क्या चाहता है. मगर तभी उस का दूसरा मैसेज आ गया, ‘‘आप से वादा किया था न मैं ने कि उस मैसेज भेजने वाले का नाम बताऊंगा. दरअसल, मैं ही आप को मैसेज भेजा करता था. मैं आप से बहुत प्यार करता हूं. आप जानती हैं न कि इनसान जिस से प्यार करता है उस के आगे बहुत कमजोर महसूस करने लगता है. बस यही समस्या है मेरी. एक बार फिर आप से बहुत दूर जा रहा हूं. अब बुढ़ापे में ही मुलाकात करने आऊंगा. पर उम्मीद करता हूं, इस दफा आप मेरा नाम नहीं भूलेंगी, गुडबाय.’’ अंकित का यह मैसेज पढ़ कर मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं मुसकराऊं या रोऊं. अंदर तक एक दर्द मेरे दिल को बेध गया था. सोच रही थी, मेरे लिए ज्यादा गहरा प्यार किस का है, अजीत का, जिन्हें मैं ने अपना सब कुछ दे दिया फिर भी वे मुझ पर शक करने से नहीं चूके या फिर अंकित का, जिसे मैं ने अपना एक पल भी नहीं दिया, मगर उस ने आजीवन मेरी खुशी चाही.

Hindi Family Story: संबंध

Hindi Family Story, लेखक- सतीश चंद्र माथुर

शादी का जब वह निमंत्रण आया था, पूरे घर में हंगामा मच गया था. मां बोली थीं, ‘‘अब यह नया खेल खेला है कम्बख्त ने. पता नहीं क्या गुल खिलाने जा रही है. जरूर इस के पीछे कोई राज है वरना 2 बेटों के रहते कोई इतना बड़ा बेटा गोद लेता है? अब उस की शादी रचाने जा रही है.’’

बड़े भैया राकेश बोले थे, ‘‘आप की और वीरेश की सहमति होगी तभी तो उस ने बाप की जगह वीरेश का नाम छपवाया है.’’

मां ने प्रतिवाद किया, ‘‘अरे कैसी सहमति? तुम्हारे पापा की तेरहवीं पर बताया था कि राहुल को बेटे जैसा मानने लगी है. हम तो उसे ड्राइवर समझते थे. बरामदे में ही चाय भिजवा दिया करते थे.’’

‘‘क्या बात करती हैं?’’ राकेश बोले, ‘‘राहुल हर वक्त साथसाथ रहता है नीरू के. सारा बिजनैस देखता है. बैंक अकाउंट तक उस के नाम है. आप ने ही तो बताया था.’’

‘‘अरे कहती थी कि भागदौड़ के लिए ही रखा है उसे. अकेली औरत क्याक्या करे. अब क्या पता था कि बाकायदा बेटा बना लेगी उसे.’’

‘‘तो नुकसान क्या है? आप समझ लीजिए 3 पोते हैं आप के,’’ बड़े भैया ने बात को हलका करना चाहा, ‘‘वीरेश आए तो उस से पूछिएगा.’’

महत्त्वाकांक्षी नीरू को घर से गए 8 साल हो गए थे. 14 और 10 साल के सुधांशु और हिमांशु को छोड़ कर जब उसे जाना पड़ा था तब घर का वातावरण काफी विषाक्त हो चुका था. लगने लगा था कि कभी भी कुछ अवांछनीय घट सकता है.

वीरेश शुरू से ही मस्तमौला किस्म का इंसान रहा है. घूमनाफिरना, सजनासंवरना, नाचनागाना यही शौक थे बचपन से. घर का लाड़ला, मां का दुलारा. मस्तीमस्ती में एमए कर के गाजियाबाद में ही नौकरी भी ढूंढ़ ली. जबकि बड़ा बेटा राकेश सरकारी नौकरी में गाजियाबाद से बाहर ही रहा.

इस से भी मां का लाड़ वीरेश पर कुछ ज्यादा बरसा. पैसे की कमी नहीं थी. पिताजी की पैंशन और पैतृक मकान के 2 हिस्सों का किराया नियमित आमदनी थी. वीरेश धीरेधीरे लापरवाह होने लगा. एक नौकरी छूटी, दूसरी ढूंढ़ी. कभी इस सिलसिले में घर भी बैठना पड़ता. पिताजी भुनभुनाते, ‘कहीं बाहर  क्यों नहीं एप्लाई करते हो?’

मां फौरन बोलतीं, ‘एक बेटा तो  बाहर ही रहता है. यह यहीं रहेगा. नौकरियों की कमी है क्या?’

पिताजी चिल्लाते, ‘घरघुस्सा होता जा रहा है. जाहिल भी हो गया है. 9 बजे से पहले सो कर नहीं उठता. 3-4 कप चाय पीता है, तब इस की सुबह होती है. 11 बजे नौकरी पर जाएगा तो कौन रखेगा इसे? कितनी अच्छीअच्छी नौकरियां छोड़ दीं. मैं कब तक खिलाऊंगा इसे?’

पर वीरेश पर असर नहीं होता. मां बचाव करतीं, ‘शादी हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा.’

‘कौन देगा इस निखट्टू को अपनी लड़की?’ पिताजी हथियार डाल देते.

लेकिन सुंदर चेहरेमोहरे वाला निखट्टू वीरेश प्रेम विवाह कर पत्नी ले आया. नीरू सुंदर थी. शादी के बाद वीरेश और लाटसाहब हो गया. अब शाम को कभीकभार डिं्रक्स भी लेने लगा. शुरूशुरू में तो नीरू को अच्छा लगा पर जब वीरेश घूमनेफिरने, पिक्चर वगैरह के लिए भी मां से रुपए मांगता तो उसे बुरा लगता. वीरेश नौकरी करता पर 6 महीने या साल भर से ज्यादा नहीं. कभी निकाल दिया जाता, कभी खुद छोड़ आता. कभी नौकरी जाने के गम में, कभी नौकरी मिलने की खुशी में, कभी किसी की सालगिरह पर, मतलब यह कि बेमतलब के बहानों से शराब पीना बढ़ता गया. 5 साल में 2 बेटे भी हो गए.

बड़े भैया होलीदीवाली आते भी तो मेहमान की तरह. कभी वीरेश को समझाने की कोशिश करते तो बीच में फौरन मां आ जातीं, ‘तुम सभी उस बेचारे के पीछे क्यों पड़े रहते हो? अब उस का समय ही खराब है तो कोई क्या करे? कोई ढंग की नौकरी मिलती ही नहीं उसे. तेरी तरह सरकारी नौकरी में होता तो यह सब क्यों सुनना पड़ता उसे?’

‘क्यों, सरकारी नौकरी में काम नहीं करना पड़ता है क्या? मेरा हर 3 साल में ट्रांसफर होता है. कितनी परेशानी होती है. मकान ढूंढ़ो, बच्चों का नए स्कूल में ऐडमिशन करवाओ. बदलता परिवेश, बदलते लोग. आसान नहीं है सरकारी नौकरी. इन का क्या है? ठाट से घर में रहते हैं. खिलाने को आप लोग हैं. जब बैठेबैठे खाने को मिले तो कोई क्यों करे नौकरी?’

‘बसबस, रहने दे. जब देखो तब जलीकटी सुनाता रहता है. कोई अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ इस के लिए.’

‘अच्छी सी माने? जहां काम न हो? हुकम बजाने के लिए नौकर हो? घूमने के लिए गाड़ी हो? शाम के लिए दारू हो?’

‘देखा मां,’ अब वीरेश बोला, ‘इसीलिए मैं इन के साथ नहीं बैठता हूं.

4 दिन के लिए आते हैं और चिल्लाते रहते हैं.’

वीरेश गुस्से से बाहर चला जाता. मां बड़बड़ातीं. पिताजी कभी राकेश का साथ देते तो कभी मां का.

बच्चे बड़े हो रहे थे. खर्चे बढ़ रहे थे पर वीरेश में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. पिताजी अकसर बड़बड़ाते. खासकर जब राकेश आते छुट्टियों में, ‘मैं पैंशन से 2-2 परिवार कैसे पालूं? तुम्हीं कुछ भेजा करो. बच्चे स्कूल जाने लगे हैं. कम से कम उन की फीस तो दे ही सकते हो.’

राकेश झुंझलाते, ‘मेरे खर्चे नहीं हैं क्या? तनख्वाह से मेरा भी बस गुजारा ही हो रहा है. आप जानते हैं कि

कोई ऊपरी आमदनी भी नहीं है मेरी. चलाने दीजिए इस को अपनी गृहस्थी किराए से या कैसे भी. अपनेआप

ठीक हो जाएगा. आप लोग चलिए मेरे साथ इलाहाबाद.’

‘बेटे, भूखा मरते तू देख सकता है भाई को. मांबाप नहीं देख सकते. हम तो करेंगे जितना हो सकेगा. तुझे मदद नहीं करनी, मत कर. किराए से बेचारे वीरेश का खर्च कैसे चलेगा?’ मां आ जातीं बीच में.

‘बेचारा, बेचारा, क्यों है बेचारा वह? लूलालंगड़ा है? दिमाग से कमजोर है? क्या कमी है उस में? अच्छीखासी नौकरियां छोड़ीं उस ने. किस वजह से? अपनी काहिली की वजह से न? गाजियाबाद छोड़ कर कहीं बाहर नहीं जाएंगे, क्यों? घर बैठे हलुआपरांठा मिले तो कोई काम क्यों करे? आप लोगों ने ही बिगाड़ा है उसे. कभी सख्ती से नहीं कहा कि पालो अपना परिवार,’ राकेश के सब्र का बांध टूट गया.

‘कहा है बेटा, कई बार कहा,’ अब पिताजी ने सफाई दी, ‘पहले कहता था कि मैं कोशिश करता हूं पर अच्छी नौकरी नहीं मिलती. अब कहता है कि घर छोड़ दूंगा, साधु बन जाऊंगा, आत्महत्या कर लूंगा. एक बार चला भी गया था. 2 दिन तक नहीं आया. तुम्हारी मां का रोरो कर बुरा हाल हो गया था.’

‘इसे क्या? यह तो आराम से बाहर नौकरी करता है. वह तो मेरी ममता थी जो उसे खींच लाई वरना वह साधु बन गया था,’ मां ने कहा.

‘मां की ममता नहीं थी, भूख के थपेड़े थे. पैसे खत्म हो गए होंगे लाटसाहब के,’ राकेश चिल्लाए.

‘ठीक है, यह बहस, अब बंद करो,’ हमेशा की तरह मां बड़बड़ाती हुई चली गईं.

वीरेश और नीरू के झगड़े बढ़ने लगे. अकसर मारपीट तक नौबत आ जाती. बच्चों के कोमल मन पर असर पड़ने लगा था.

बड़ा बेटा सुधांशु गुमसुम हो गया था. छोटा बेटा हिमांशु जिद्दी और मनमौजी. नीरू ने खुद काम करना शुरू किया. कभी छोटी नौकरी की, कभी घर में अचारमुरब्बे बना कर बेचे. इस के लिए उसे घर से बाहर निकलना पड़ता तब भी वीरेश चिल्लाता, ‘देखो, कैसे नखरे दिखा रही है  कामकाजी बन कर, जैसे घर में भूखी मरती है. अरे, इस का मन ही नहीं लगता घर में. बाहर 10 लोगों से मिलती है, रंगरेलियां मनाती है. मां, जरा पूछो इस से, कितनी कमाई कर के लाती है?’

नीरू जवाब देती तो झगड़ा और बढ़ता. मां अकसर वीरेश का पक्ष लेतीं और बहस मारपीट तक पहुंच जाती. बच्चे सहमे हुए होमवर्क करने का नाटक करने लगते. यह झगड़ा तब जरूर होता जब वीरेश नशे में होता.

तभी वीरेश को एक अच्छी एडवरटाइजिंग कंपनी में स्थानीय प्रतिनिधि की नौकरी मिल गई. लगा अब सब ठीक हो जाएगा. वीरेश को अपनी कंपनी के लिए विज्ञापन लाने का काम करना था. पर उस के आलसी स्वभाव के कारण उसे विज्ञापन नहीं मिल पाते थे.

नीरू ने वीरेश की मदद की और विज्ञापन मिलने लगे. अब होता यह कि जाना वीरेश को होता पर वह नीरू को भेज देता. कभी नीरू को विज्ञापनों के सिलसिले में कंपनी के जीएम से सीधे बात करनी पड़ जाती. नतीजा यह हुआ कि कंपनी ने कुछ ही दिनों में वीरेश की जगह नीरू को प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया.

इस पर घर में महाभारत हो गया और नीरू ने नियुक्ति अस्वीकार कर दी, पर कंपनी ने वीरेश को फिर नियुक्त नहीं किया. मां ने वीरेश की नौकरी जाने का सारा दोष नीरू के सिर मढ़ दिया और वीरेश फिर शराब में डूब गया.

बच्चों के बढ़ते खर्चे और वीरेश के तानों से तंग आ कर नीरू ने एक बार फिर प्रयास किया और खुद ही भागदौड़ कर सरकार की महिला स्वरोजगार योजना के तहत बैंक से लोन लिया और फल संरक्षण केंद्र खोल लिया. पर उस के लिए भी उसे घर से बाहर जाना पड़ता.

कुछ दिनों बाद यह काम भी बंद हो गया. बैंक से ऋण वसूली का नोटिस आया. वीरेश ने जवाब भिजवाया कि यहां कोई नीरू नहीं रहती. पर बैंक के रिकौर्ड्स में नीरू के पति वीरेश और पारिवारिक मकान के सत्यापन प्रमाण थे. इसलिए रिकवरी नोटिस ले कर बैंक अधिकारी पुलिस के साथ पहुंच गए.

वीरेश के हाथपांव फूल गए और वह नीरू को उस के मायके छोड़ आया. पिताजी ने सरकारी नौकरी का वास्ता दिखा कर समय मांगा और बैंक की ऋण अदायगी की. इस में नीरू के और कुछ मां के भी जेवर बिक गए. राकेश ने भी काफी रुपए भिजवाए. मां ने ऐलान कर दिया कि वह कम्बख्त अब इस घर में दोबारा नहीं आएगी और भला वीरेश को इस में क्या ऐतराज हो सकता था?

बाद में नीरू ने एक पत्र राकेश को भी लिखा. उस का सारा आक्रोश मां के ऊपर था पर वीरेश को भी कभी माफ न करने की कसम खाई थी. इतना ही नहीं, उस ने आरोप लगाया था कि वीरेश ने एडवरटाइजिंग कंपनी में अपनी स्टैनो से अवैध संबंध भी बना लिए थे. सुबूत के तौर पर एक पत्र भी संलग्न था जो किसी किरन ने वीरेश को लिखा था.

राकेश सन्न रह गए थे. ऐसी स्थिति में मां को या वीरेश को समझाना व्यर्थ था. उन्होंने नीरू को ही समझाया कि इस स्थिति में समझौते से अच्छा है अपने पैरों पर खड़ा होना. बाद में पता चला कि नीरू ने दिल्ली जा कर पहले ऐडवरटाइजिंग एजेंसी में काम किया. फिर प्रौपर्टी डीलर बन गई. फ्लैट लिया, गाड़ी ली. घर तो कभी नहीं आई पर बच्चों से उन के स्कूलों में मिलती रही. जन्मदिन पर, त्योहारों पर बच्चों को तोहफे भी भिजवाती रही.

साल दर साल बीतते गए. मांपिताजी ने कोशिश की कि तलाक दिलवा कर वीरेश की दूसरी शादी करवाएं पर नीरू का संदेश आया कि भूल कर भी ऐसा नहीं करिएगा वरना शारीरिक प्रताड़ना के बाद घर से निकालने का केस बन जाएगा. वीरेश संन्यासी सा हो गया.

बढ़ती उम्र और शराब ने एक अजीब दयनीयता पोत दी थी उस के चेहरे पर. न किसी से मिलना न कहीं जाना. बस, शाम को किसी बहाने से मां से पैसे ले कर निकल जाता और देर रात झूमताझामता आता और सो जाता. तरस आने लगा उसे देख कर.

करीब 8 साल बाद नीरू घर आई जब पिताजी की मृत्यु हुई. शोक के अवसर पर किसी ने उस से कुछ नहीं कहा. तभी पहली बार सब ने राहुल को देखा था. 25-26 वर्ष का हट्टाकट्टा लड़का, चुपचाप बरामदे में बैठा था. सब ने उसे ड्राइवर ही समझा था. संवेदना व्यक्त कर के नीरू चली गई पर उस के बाद वह अकसर आने लगी. मां और वीरेश के व्यवहार से लगा कि उन्होंने उसे अपनाने का मन बना लिया.

एक बार जिद कर के अपनी कार से वह उन्हें नोएडा भी ले गई जहां उस ने शानदार फ्लैट लिया था. सुधांशु को नौकरी दिलवाने में मदद की और हिमांशु को इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला दिलवाया. वीरेश अकसर नोएडा जाने लगा. गाड़ी पटरी पर आ ही रही थी कि यह धमाका हो गया.

राहुल की शादी का कार्ड आया. मां की जगह नीरू, पिता की जगह वीरेश और दादी की जगह मां का नाम छपा था.

सुगबुगाहट थमी भी नहीं थी कि एक शाम नीरू आई, मिठाई के डब्बे और उपहारों के साथ. राहुल की सगाई में उस की ससुराल से मिले थे उपहार. कार्ड के बारे में पूछने पर नीरू ने कहा कि उस ने वीरेश को बता दिया था कि उस ने बाकायदा राहुल को गोद लिया है और वीरेश ने कोई आपत्ति नहीं की थी.

अब नीरू उस की मां हो गई तो वीरेश स्वत: ही पिता हो गया और मां दादी. वीरेश ने ही उस का बचाव किया, ‘अपने बेटों से इतने साल अलग रही तो राहुल को देख कर मातृत्व जागा और जब बेटा बना ही लिया तो शादी भी करनी थी.’ सब ने इस पर मौन सहमति दे दी.

राहुल की शादी में सब सम्मिलित हुए. सुधांशु और हिमांशु भी भैया की शादी में खूब नाचे. मां तो गद्गद थीं. नीरू ने उन्हें कई कीमती साडि़यों के साथ हीरे के टौप्स दिए थे. राहुल की ससुराल से भी दादीमां के लिए साड़ी मिली थी. शादी के बाद नीरू बहू को ले कर जब गाजियाबाद गई तब मां ने मुंहदिखाई में साड़ी दी बहू को. इसी हंसीखुशी के माहौल में मां ने नीरू से कहा कि अब वह भी लौट आए और अपनी गृहस्थी संभाले.

नीरू 1 मिनट तो चुप रही फिर जैसे फट पड़ी, ‘‘आप अपने लड़के की फिक्र कीजिए मांजी. मेरी गृहस्थी तो उजड़ी भी और बस भी गई. उजड़ी तब थी जब मुझे धोखे से मायके पहुंचा दिया गया था कि मामला ठंडा होने पर ले आएंगे. और ये शायद खुद सौत लाने की फिराक में थे. सब ने इन्हीं का साथ दिया था तब. जैसे सारी गलती मेरी ही हो. मेरा कसूर यही था न कि मैं आप के बेटे को उस के पैरों पर खड़ा देखना चाहती थी. तब उजड़ी थी मेरी गृहस्थी और बसी तब जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गई. हां, तब मुझे भी गैर मर्दों का सहारा लेना पड़ा था. पर अब मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं.

‘‘पता नहीं मेरे बेटे मेरे रह पाते या नहीं इसलिए एक बेटा अपनाया. अब मैं भी सासू मां हूं. मेरा भरापूरा परिवार है. अब जिसे मेरा साथ चाहिए वह आए मेरे पास. इस घर से मैं ने अपना संबंध टूटने नहीं दिया. पर वह संबंध अब आप की शर्तों पर नहीं, मेरी शर्तों पर रहेगा. पूछिए अपने बेटे से, क्या वे रह सकते हैं मेरे साथ, मेरी शर्तों पर या यों ही मां की पैंशन पर जिंदगी गुजारने का इरादा रखते हैं?’’

सब हैरान थे पर वीरेश के मौन आंसू उस की सहमति बयान कर रहे थे.

Family Story: दिस इज टू मच: आखिर क्यों उन दोनों को सजा मिली?

Family Story: ‘दिस इज टू मच’ ये शब्द शूल की तरह मेरे हृदय को भेद रहे हैं. मानो मेरे कानों में कोई पिघला शीशा उड़ेल रहा हो. मेरा घर भी अखबारों की सुर्खियां बनेगा, यह तो मैं ने स्वप्न में भी न सोचा  था. हमारे हंसतेखेलते घर को न जाने किस की हाय लग गई. हम 4 जनों का छोटा सा खुशहाल परिवार – बेटा बीटैक थर्ड ईयर का छात्र और बेटी बीटैक फर्स्ट ईयर की. कोरोना संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए जब सभी कालेजों और स्कूलों से विद्यार्थियों को घर वापस भेजा जाने लगा और मेरा भी विद्यालय बंद हो गया तो मैं प्रसन्न हो गई कि बरसों बाद अपने बच्चों के साथ मुझे समय बिताने का मौका मिलेगा.

कानपुर आईआईटी में पढ़ने वाला मेरा बेटा और बीबीडी इंजीनियरिंग कालेज लखनऊ में पढ़ने वाली मेरी बेटी जब घर आए तो मेरा घर गुलजार हो गया.

बच्चे घर पर नहीं थे, तो नरेंद्र अपनी पुलिस की ड्यूटी निभाने में व्यस्त रहते थे और मैं कोश्चन पेपर बनाने, वर्कशीट बनाने और पढ़नेलिखने में. बस, यही व्यस्त दिनचर्या रह गई थी हमारी.

जब बच्चे घर आए तो उन से बातें करते, मिलजुल कर घर के काम करते, और साथ बैठ कर टीवी देखते तथा मजे करते  दिन कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चलता.  पर मेरी यह खुशी ज्यादा दिन न टिक पाई.

सौरभ और सुरभि ने कुछ दिनों तो मेरे साथ खुशीखुशी समय बिताया, फिर बोर होने लगे, बातों का खजाना खाली हो गया और घर का काम बोझ लगने लगा, उमंग और उल्लास का स्रोत सूखने लगा. दोनों अपनेअपने कमरों में अपनेअपने मोबाइल व लैपटौप के साथ अपनी ही दुनिया में मग्न रहते.

मैं 5 बजे उठ कर सोचती कि 5 बजे न सही, कम से कम 6-7 बजे तक ही उठ कर दोनों मेरे साथ एरोबिक्स या कोई ऐक्सरसाइज करें. हम साथसाथ मिल कर काम करें और साथसाथ बैठ कर मूवी देखें और समय बिताएं. मैं उन की पसंद का नाश्ता बना कर उन के उठने का इंतजार करती. पहले उन्हें प्यार से उठाती, फिर चिल्लाती. पर उन दोनों के कानों पर तो जू तक न रेंगती.

बेटी को उठाती तो वह कहती, ‘आप मेरे ही पीछे पड़ी रहती हो, पहले भैया को उठाओ जा कर.’ और बेटे को कहती तो वह कहता, ‘मां, दिस इज टू मच. चैन से सोने भी नहीं देती हो. अब मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूं.’ मैं अपना सा मुंह ले कर रह जाती.

जिंदगी की भागदौड़ में 21 बरस कैसे बीत गए, पता ही न चला. लगता है जैसे कल की ही बात हो जब मेरा सौरभ अपनी शरारतों से हम सब के बीच आकर्षण का केंद्र बना रहता था. उस से 2 साल छोटी सुरभि जब ठुमकठुमक कर चलती थी तो मानो खूबसूरत बार्बी डौल चल रही हो. उन्हें देख कर हम फूले नहीं समाते थे.

नरेंद्र मंत्रमुग्ध हो कहते, ‘मैं अपने बेटे को पुलिस कमिश्नर बनाऊंगा और बेटी को जज.’ ऐसे ही न जाने कितने सपने सजाए हम दिलोजान से उन्हें अच्छी परवरिश देने में लगे थे. मैं सुबह 5 बजे उठ कर सब का नाश्ता तैयार करती. नरेंद्र यदि घर पर होते तो बच्चों को तैयार करने में मेरी सहायता करते. बच्चों को बसस्टौप पर छोड़ कर अपने स्कूल के लिए भागती.

बच्चों की छुट्टी 2 बजे हो जाती थी. इसलिए वे स्कूल से सीधे अपनी नानी के घर चले जाते थे. मैं जब साढ़े 3 बजे स्कूल से लौटती तो अपने साथ घर वापस ले आती. घर आ कर उन दोनों को रैस्ट करने के लिए कहती और खुद भी थोड़ी देर आराम करती. 5 बजे उन्हें उठा कर होमवर्क कराने बैठाती और साथ ही, घर के काम भी निबटाती जाती.

जीवन की आपाधापी में समय कब पंख लगा कर उड़ गया, पता ही न चला. नरेंद्र की 24 घंटे की पुलिस की नौकरी और हजारों तरह की कठिनाइयों के बाद भी वे मुझे और बच्चों को समय देने और हमारा ध्यान रखने की पूरी कोशिश करते. उन्हें अपने दोनों बच्चों पर बड़ा गर्व था.

सौरभ का जब आईआईटी कानपुर में सेलैक्शन हो गया तब उन्होंने अपने पूरे स्टाफ को मिठाई बांटी और रिश्तेदारों को पार्टी दी. सौरभ के होस्टल जाने के बाद मैं कितना रोई थी. उस के सेलैक्ट होने की खुशी तो थी पर घर से जाने का गम भी बहुत ज्यादा था. कुछ भी बनाती, तो उस की याद आती. डाइनिंग टेबल पर उस की खाली कुरसी देख कर मैं रो पड़ती कि मेरा बेटा होस्टल का रूखासूखा खाना खा रहा होगा.

उस के 2 वर्षों बाद ही सुरभि को भी बीबीडी इंजीनियरिंग कालेज, लखनऊ में ऐडमिशन मिल गया और वह भी चली गई. उस के जाने के बाद ऐसा लगा जैसे घर से खुशियां ही चली गई हों.

धीरेधीरे इस सन्नाटे की हमें आदत हो गई. अकसर 10 दिनों के लिए बच्चे हवा के झोंकों की तरह घर आते और चले जाते. कोरोना के कहर ने सारे संसार को आतंकित कर रखा है. मैं कोरोना से भयभीत तो थी पर मुझे खुशी थी कि जीवन की इस आपाधापी में मुझे बरसों बाद अपने बच्चों के साथ समय बिताने को मिलेगा.

अफसोस, समय तो तेरे हाथ से न जाने कब का फिसल चुका था. बच्चों को अब मेरी जरूरत नहीं थी. उन्हें उन की दुनिया में मेरा प्रवेश दखलंदाजी लगता था. रोज अखबारों और टीवी में लोगों द्वारा परिवार के साथ मिलजुल कर समय बिताने की खबरें मेरे हृदय को विचलित कर रही थीं. मेरे पति कोरोना के खिलाफ जंग में एक योद्धा के रूप में अपना कर्तव्य निभा रहे थे और बच्चों का संसार उन के कमरों तक सिमट गया था.

उस दिन जब मैं ने सौरभ और सुरभि को समझाना चाहा तो वे मुझ पर बरस पड़े, ‘‘सारी जिंदगी तो आप को हमारे लिए फुरसत मिली नहीं, अब आप चाहती हो कि हम आप के साथ बैठें.’’ सुरभि बोली, ‘‘किया ही क्या है आप ने हमारे लिए. आप तो अपनी ही दुनिया में मग्न रहती थीं. वह तो नानी ही थीं जो हमारा ध्यान रखती थीं. आप से ज्यादा तो हम नानी से अटैच्ड हैं.’’

मैं ने उन्हें समझाना चाहा कि मैं ने नौकरी इसलिए की थी जिस से उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ा सकूं और उन की ख्वाहिशें पूरी कर सकूं. उन के पापा की सैलरी में यह संभव नहीं था. इस पर सौरभ भड़क उठा, ‘‘दिस इज टू मच, डोंट इंटरफेयर इन अवर लाइफ.’’

‘‘झूठ मत बोलिए, पापा की सैलरी इतनी भी कम नहीं थी कि हमारी जरूरतें पूरी न हो पातीं. नौकरी तो आप ने अपने शौक पूरे करने के लिए की थी और एहसान हम पर लाद रही हो,’’ सुरभि गुस्से से पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई और मैं अपने कमरे में आ कर आंसू बहाने लगी.

रात को साढ़े 11 बजे जब नरेंद्र थकेहारे वापस लौट कर आए तो मेरी सूजी हुई आंखें देख कर बड़े प्यार से उन्होंने पूछा, ‘‘डार्लिंग, यह फूल सा चेहरा मुरझाया हुआ क्यों है?’’ उन की यह बात सुन कर मेरी आंखों से गंगाजमुना बहने लगी. मैं बोली, ‘‘मैं ने सारी जिंदगी तुम्हारा घर और बच्चे संभालने में बिता दी. पर न तुम्हारे पास मेरे लिए वक्त है और न तुम्हारे बच्चों के पास.’’

इस के बाद शाम को घटी सारी घटना मैं ने उन्हें सुना दी. यह सुन कर वे क्रोध से आगबबूला हो उठे और सीधे सौरभ और सुरभि के कमरे की ओर गए. सुरभि सो रही थी और सौरभ मोबाइल में व्यस्त था. उन्होंने उसे डांटा, ‘‘तुम्हें बिलकुल तमीज नहीं है, कोई अपनी मां से इस तरह बात करता है. यह मोबाइल मैं ने तुम्हें तुम्हारे जरूरी काम करने के लिए दिलवाया था, न कि फालतू समय बरबाद करने के लिए.’’

इस पर सौरभ बोला, ‘‘दिस इज टू मच, पापा. इन को तो आदत है तिल का ताड़ बनाने की. आप भी इन के बहकावे में आ कर मुझे ही डांट रहे हैं. इन से कह दें, अपने काम से काम रखें, हमारे काम में दखल न दें.’’

वे बोले, ‘‘बदतमीज, जबान लड़ाता है, अपनी मां के लिए अपशब्द बोलता है.’’ उन्होंने उसे 2 थप्पड़ जड़ दिए. इस पर उस ने उन का हाथ पकड़ लिया. उन का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया. उन्होंने उस का मोबाइल छीन कर फेंक दिया. सौरभ गुस्से से चीखनेचिल्लाने लगा. नरेंद्र चुपचाप अपने कमरे में चले गए और बिना कुछ खाएपिए ही सो गए.

अगले दिन मैं रोज की तरह सुबह 5 बजे सो कर उठी. सिर भारी हो रहा था. आदतवश दोनों बच्चों के कमरों में झांका. सौरभ के कमरे में झांका तो मेरी चीख निकल गई और मैं मूर्च्छित हो कर गिर गई. मेरी चीख सुन कर नरेंद्र और पड़ोस वाले शर्माजी दौड़े हुए आए और सौरभ को फांसी पर झूलते हुए देख कर उन के होश उड़ गए.

दूसरे दिन मेरा घर अखबारों की सुर्खियों में था. बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था, ‘एक पुलिस इंस्पैक्टर के बेटे ने पिता द्वारा मोबाइल के लिए डांटने पर फांसी लगा ली.’ मेरा खुशियों का संसार पलभर में ही उजड़ गया. मैं समझ नहीं पा रही हूं कि दोषी कौन है – मैं, नरेंद्र, सौरभ या मोबाइल. उस के शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं, ‘‘दिस इज टू मच, डोंट इंटरफेयर इन माय लाइफ.’’ मेरा हृदय छलनी हुआ जा रहा है.

Family Story: कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज रिश्ता

Family Story, लेखिका- मीनाक्षी सिंह

रोहिणी और नमित की शादी को 10 साल पूरे होने को थे. दांपत्य के इस मोड़ पर रोहिणी द्वारा तलाक के लिए अर्जी देना सब को अचंभित कर रहा था. कभी तलाक नमित भी चाहता था और रोहिणी किसी भी शर्त पर उसे तलाक देने के पक्ष में नहीं थी.

2 साल तक रोहिणी की शादी के लिए लड़का तलाश करने के बाद जब नमित के पापा ने मनचाहा दहेज देने के लिए रोहिणी के पापा द्वारा हामी भरे जाने पर शादी के लिए हां की, तो एक बेटी के मजबूर पिता के रूप में रोहिणी के पिता रमेश बेहद खुश हुए.

अपनी समझदार व खुद्दार बेटी रोहिणी की शादी नमित के साथ कर के रमेश अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ कर पत्नी के साथ गंगा स्नान को निकल गए इन सब बातों से बेखबर कि उधर ससुराल में उन की लाड़ली को लोगों की कैसी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ रहा है.

शादी में चेहरेमोहरे पर लोगों द्वारा छींटाकशी तो आम बात है, लेकिन जब पति भी अपनी पत्नी के रंगरूप से संतुष्ट न हो, तो पत्नी के लिए लोगों के शब्दबाणों का सामना करना बड़ा मुश्किल हो जाता है.

रोहिणी सोच से बेहद मजबूत किस्म की लड़की थी. तानोंउलाहनों को धीरेधीरे नजरअंदाज करते हुए उस ने घर की जिम्मेदारी बखूबी संभाल ली थी.

कुछ महीने बाद, शादी के पहले, शिक्षक के लिए दी गई प्रतियोगिता परीक्षा का रिजल्ट आया, जिस में रोहिणी का चयन हुआ और रोहिणी एक शिक्षक बनने की दिशा में आगे बढ़ गई.

इस खुशखबरी और रोहिणी के अच्छे व्यवहार से उस के प्रति घर वालों का नजरिया बदलने लगा था. नमित भी अब रोहिणी से खुश रहने लगा था. पैसा अपने अंदर किसी के प्रति किसी का नजरिया बदलवाने का खूबसूरत माद्दा रखता है. यही अब उस घर में दृष्टिगोचर हो रहा था.

शादी के 5 साल पूरे होने को थे और रोहिणी की गोद अभी तक सूनी थी. यह बात अब आसपास और परिवार के लोगों को खटकने लगी थी, तो नमित तक भी यह खटकन पहुंचनी ही थी.

शुरू में नमित ने मां को समझाने की कोशिश की, पर दादी शब्द सुनने की उम्मीद ने एक बेटे के समझाते हुए शब्दों के सामने अपना पलड़ा भारी रखा और नमित की मां इस जिद पर अड़ी रहीं कि अब तो उन्हें एक पोता चाहिए ही चाहिए.

कहते हैं कि अगर किसी बात को बारबार सुनाया जाए, तो वही बात हमारे लिए सचाई सी बन जाती है, ठीक उसी तरह लोगों द्वारा रोहिणी के मां न बनने की बात सुनतेसुनते नमित को लगने लगा कि अब रोहिणी को मां बनना ही चाहिए और उस के दिमाग पर भी पिता बनने की ख्वाहिश गहराई से हावी होने लगी. उस ने रोहिणी से बात की और उसे चैकअप के लिए ले गया.

रोहिणी की रिपोर्ट नौर्मल आई, इस के बावजूद काफी कोशिश के बाद भी वह पिता नहीं बन सका. अब रोहिणी भी नमित पर दबाव डालने लगी कि उस की सभी रिपोर्ट नौर्मल हैं, तो एक बार उसे भी चैकअप करवा लेना चाहिए, लेकिन नमित ने उस की बात नहीं मानी. वह अपना चैकअप नहीं करवाना चाहता था, क्योंकि उस के अनुसार उस में कोई कमी हो ही नहीं सकती थी.

मां चाहती थीं कि नमित रोहिणी को तलाक दे कर दूसरी शादी कर ले. वह खुल कर तो मां की बात का समर्थन नहीं कर रहा था, पर उस के अंतर्मन को कहीं न कहीं अपनी मां का कहना सही लग रहा था. एक पति पर पिता बनने की ख्वाहिश पूरी तरह हावी हो चुकी थी.

धीरेधीरे उम्मीद की किरण लुप्त सी होने लगी थी. अब उस घर में सब चुपचुप से रहने लगे थे. खासकर रोहिणी के प्रति सभी का व्यवहार कटाकटा सा था. घर वालों के रूखे व्यवहार ने रोहिणी को भी काफी चिड़चिड़ा बना दिया था.

एक दिन नमित ने रोहिणी को समझाने की कोशिश की, ‘‘देखो रोहिणी, वंश चलाने के लिए एक वारिस की जरूरत होती है और मुझे नहीं लगता कि अब तुम इस घर को कोई वारिस दे पाओगी. इसलिए तुम तलाक के कागजात पर साइन कर दो.

‘‘और यकीन रखो, तलाक के बाद भी हमारा रिश्ता पहले जैसा ही रहेगा. हमारा रिश्ता कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज कभी नहीं होगा. भले ही हम कानूनी रूप से पतिपत्नी नहीं रहेंगे, पर मेरे दिल में हमेशा तुम ही रहोगी.’

‘‘नाम के लिए कागज पर मेरी पत्नी, मेरे साथ काम कर रही रोजी होगी, परंतु उस से शादी का मेरा मकसद बस औलाद प्राप्ति होगा. तुम्हें बिना तलाक दिए भी मैं उस से शादी कर सकता हूं, पर तुम तो जानती हो कि हम दोनों की सरकारी नौकरी है और बिना तलाक शादी करना मुझे परेशानी में डाल कर मेरी नौकरी को खतरे में डाल सकता है.’’

‘‘तुम अपना चैकअप क्यों नहीं करवाते हो, नमित. मुझे लगता है कि कमी तुम में ही है. एक बात कहूं, तुम निहायत ही दोगले इंसान हो, शरीफ बने इस चेहरे के पीछे एक बेहद घटिया और कायर इंसान छिपा है.

‘‘कान खोल कर सुन लो, मैं तुम्हें किसी शर्त पर तलाक नहीं दूंगी. तुम्हें जो करना हो, कर लो. सारी परेशानियों को सहते हुए मैं इसी परिवार में रह

कर तुम सब के दिए कष्टों को सह

कर तुम्हारे ही साथ अपने बैडरूम

में रहूंगी.’’

‘‘नहीं, मुझ में कोई कमी नहीं हो सकती, और तलाक तो तुम्हें देना ही होगा. मुझे इस खानदान के लिए वारिस चाहिए, चाहे वह तुम से मिले या किसी और से.

‘‘अगर तुम सीधेसीधे तलाक के पेपर पर हस्ताक्षर नहीं करती हो, तो मैं तुम पर मेरे परिवार वालों को परेशान करने और बदचलनी का आरोप लगाऊंगा,’’ नमित के शब्दों का अंदाज बदल चुका था.

कुछ दिनों बाद नमित ने कोर्ट में रोहिणी पर इलजाम लगाते हुए तलाक की अर्जी दाखिल कर दी.

अब रोहिणी बिलकुल चुप सी रहने लगी थी, लेकिन तलाक मिलने तक अपने बैडरूम पर कब्जा नहीं छोड़ने के अपने फैसले पर अडिग थी.

2 महीने बाद ही उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है. यह खबर मिलते ही नमित ने तलाक की दी हुई अर्जी वापस ले ली.

उस के अगले ही दिन रोहिणी अपना बैग पैक कर के मायके चली गई. सारी बातें सुन कर मातापिता ने समझाने की कोशिश की कि जब सबकुछ ठीक

हो रहा है, तो इस तरह की जिद सही नहीं है.

‘‘अगर आप लोगों को मेरा आप के साथ रहना पसंद नहीं है, तो मैं जल्दी ही कहीं और रूम ले कर रहने चली जाऊंगी. आप लोगों पर ज्यादा दिन बोझ बन कर नहीं रहूंगी.’’

बेटी से इस तरह की बातें सुन कर दोनों चुप हो गए.

अगले दिन शाम को घंटी बजने पर रोहिणी ने दरवाजा खोला सामने नमित था. बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह अंदर आ कर सोफे पर बैठ गया, तब तक रोहिणी के मातापिता भी आ चुके थे.

बात की शुरुआत नमित ने की, ‘‘रोहिणी हमारी गोद में जल्दी ही एक खूबसूरत संतान आने वाली है, तो तुम अब यह सब क्यों कर रही हो.

‘‘जब मैं ने तुम्हें तलाक देना चाहा था, तब तो तुम किसी भी शर्त पर तलाक देने को तैयार नहीं थीं, फिर अब क्या हुआ. अब जब सबकुछ सही हो रहा है, सब ठीक होने जा रहा है, तो इस तरह की जिद का क्या औचित्य?’’

‘‘नमित, तुम्हें क्या लगता है, यह बच्चा तुम्हारा है? तो मैं तुम्हें यह साफसाफ बता दूं कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं, मेरे कलीग सुभाष का है, जो इस तलाक के बाद जल्दी ही मुझ से शादी करने वाला है.

‘‘तुम ने मुझ पर चरित्रहीनता के झूठे आरोप लगाए थे न, मैं ने तुम्हारे लगाए हर उस आरोप को सच कर के दिखा दिया. और साथ ही, यह भी दिखा दिया कि मुझ में कोई कमी नहीं, कमी तुम में है. तुम एक अधूरे मर्द हो जो अपनी कमी से पनपी कुंठा अब तक अपनी पत्नी पर उड़ेलते रहे. विश्वास न हो तो जा कर अपना चैकअप करवाओ और फिर जितनी चाहे उतनी शादियां करो.

‘‘तुम्हारे घर में तुम्हारी मां और बहन द्वारा दिए गए उन सारे जख्मों को मैं भुला देती, अगर बस तुम ने मेरा साथ दिया होता. औरत को बच्चे पैदा करने की मशीन मानने वाले तुम जैसे मर्द, मेरे तलाक नहीं देने के उस फैसले को मेरी एक अदद छत पाने की लालसा समझते रहे और मैं उसी छत के नीचे रह कर अपने ऊपर होते अत्याचारों की आंच पर तपती चली गई, अंदर से मजबूत होती चली गई. ऐसे में मुझे सहारा मिला सुभाष के कंधों का और उस ने एक सच्चा मर्द बन कर, सही मानो में मुझे औरत बनने का मौका दिया.

‘‘अब तुम्हारे द्वारा लगाए गए उन झूठे आरोपों को मैं सच्चा साबित कर के तुम से तलाक लूंगी और तुम्हें मुक्त करूंगी इस अनचाहे रिश्ते से, तुम्हें अपनी मरजी से शादी करने के लिए, जो तुम्हारे खानदान को तुम से वारिस दे सके जो मैं तुम्हें नहीं दे पाई.

‘‘अब तुम जा सकते हो. कोर्ट में मिलेंगे,’’ बिना नमित के उत्तर की प्रतीक्षा किए रोहिणी उठ कर अपने कमरे में चली गई.

Family Story: मेरा घर – क्या स्मिता ने रूद्र को माफ किया?

Family Story: स्पीच के बाद कुछ लोगों से मिलने के उपरांत स्मिता ने जैसे ही प्लेट उठाई, पीछे से एक धीमी, चिरपरिचित आवाज आई, जिसे वह वर्षों पहले भूल चुकी थी- ‘हैलो स्मिता.’

यह सुनते ही स्मिता चौंक कर

मुड़ी, तो सामने रुद्र था. वह बोला, ‘‘कैसी हो स्मिता? अब तो घर लौट आओ, प्लीज.’’

रुद्र को इतने सालों बाद अपने सामने देख स्मिता को ऐसा लगा जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. उस के जख्म फिर हरे हो गए और वह समारोह बीच में ही छोड़ वहां से निकल गई. सारे रास्ते वह विचारों में खोई रही. इतने सालों बाद रुद्र का इस प्रकार उस के समक्ष आना और घर वापस चलने को कहना, उस का मन कंपित हो उठा.

समारोह में सम्मिलित सभी गणमान्य और प्रतिष्ठित लोगों के बीच केवल एक ही नाम की चर्चा थी और वह नाम था स्मिता, जो एक बिजनैस टायकून और ‘फैशन द रिवौल्यूशन’ कंपनी की मालकिन थी. हर कोई उसे देखने और सुनने को आतुर था, क्योंकि आज का यह समारोह स्मिता को सम्मानित करने के लिए आयोजित किया गया था. आज स्मिता को बिजनैस वुमन औफ द ईयर से सम्मानित किया जाना था. सभी की निगाहें स्मिता पर ही टिकी हुई थीं.

स्मिता के सशक्त और भावपूर्ण उद्बोधन के पश्चात भोज का भी प्रावधान रखा गया था, जब रुद्र उसे मिला था.

घर पहुंचते ही वह सीधे अपने कमरे में जा, सारी बत्तियां बुझा आराम कुरसी पर बैठ कर झूलने लगी. वह रुद्र और अपने जीवन के उन पन्नों को पलटने लगी, जिन को वह अपनी जीवनरूपी किताब से हमेशा के लिए फाड़ कर फेंक देना चाहती थी, पर वह ऐसा कर न सकी, क्योंकि इस अध्याय से उसे काव्या जैसे अनमोल मोती की प्राप्ति भी हुई थी, जिस की रोशनी आज भी उस के जीवन को जगमगा रही है.

‘स्मिता, तुम अपनी यह कंपनी ‘फैशन द रिवौल्यूशन’ बंद क्यों नहीं कर देतीं? क्या जरूरत है तुम्हें अपनी यह छोटी सी कंपनी चलाने की जब मेरा खुद का इतना बड़ा बिजनैस है.’’

‘नहीं रुद्र, नहीं, यह कंपनी मेरा सपना है, इसे मैं ने अपनी कड़ी मेहनत से खड़ा किया है और फिर मैं इसे शादी के पहले से रन कर रही हूं और उस वक्त तो तुम्हें इस बात से कोई एतराज भी नहीं था, फिर आज ऐसा क्या हुआ कि तुम मुझे कंपनी बंद करने को कह रहे हो और फिर मैं घर पर बैठ कर करूंगी क्या…?’

‘क्या मतलब, करूंगी क्या? इतनी सारी औरतें घर पर बैठ कर क्या करती हैं? अपना घर संभालती हैं, पूजापाठ करती हैं, किटी पार्टी करती हैं, तुम भी वही करो,’ रुद्र ने गुस्से से कहा.

स्मिता घर पर किसी तरह का कोई झगड़ा नहीं चाहती थी, इसलिए वह शांत भाव से बोली, ‘रुद्र, मैं फैशन डिजाइनिंग में ग्रैजुएट हूं. मुझे पूजापाठ, सत्संग में कोई दिलचस्पी नहीं है और मैं जब घर बहुत अच्छी तरह से संभाल रही हूं, तो फिर मैं अपनी कंपनी क्यों बंद करूं?’

स्मिता के इतना कहते ही रुद्र का गुस्सा ज्वालमुखी की तरह फूट पड़ा और चीखते हुए कहने लगा, ‘तुम इस दुनिया की कोई पहली फैशन डिजाइनिंग में ग्रैजुएट या पढ़ीलिखी औरत नहीं हो. मां को देखो, वे अपने समय की ग्रैजुएट हैं, लेकिन उन्होंने अपना सारा जीवन इस चारदीवारी में पूजापाठ व सत्संग में गुजारा है. कभी इस तरह के प्रपंच में वे नहीं पड़ी हैं और न ही तुम्हारी तरह पापा के संग बातबात पर तर्क करती थीं. ऐसी होती है आदर्श नारी, तुम्हारी तरह बदजबान नहीं,’ कहता हुआ रुद्र चला गया.

स्मिता जड़वत सी खड़ी रही. उस की जबान पर यह बात आ कर ठहर गई कि मां ग्रैजुएट नहीं पोस्ट ग्रैजुएट हैं और वह भी संगीत विश्वविद्यालय से, लेकिन मां ने शादी के बाद गाना तो दूर वे अपने दिल के जज्बात भी कभी किसी से बयां नहीं कर पाईं, क्योंकि हमारा घर, हमारा समाज, पुरुषप्रधान है, जहां एक स्त्री को अपने मन के भावों को व्यक्त करने का कोई अधिकार नहीं. तभी मां ने स्मिता के कंधे पर धीरे से अपना हाथ रखा, तो वह मां के गले लग बिफर कर रो पड़ी.

रिश्तों में विभाजन की सीलन और गंध बढ़ती जा रही थी. रोज रुद्र कोई न कोई बहाना बना कर घर को कुरुक्षेत्र बनाने पर आमादा रहता. स्मिता घर और अपने बिखर रहे रिश्ते को समेटने का असफल प्रयास करने लगी.

अचानक कुछ समय बाद रुद्र में आ रहे परिवर्तन से स्मिता चकित थी. उसे ऐसा महसूस होने लगा कि रुद्र एकाएक उस के प्रति केयरिंग और कुछ बहुत ज्यादा ही कंसंर्ड रहने लगा है, जिस का कारण उस की समझ से परे था.

सहसा एक दिन रुद्र स्मिता को अपनी बांहों के घेरे में लेते हुए कहने लगा, ‘स्मिता, मैं चाहता हूं कि अब हमें 2 से 3 हो जाना चाहिए. अब परिवार को बढ़ाने का समय आ गया है.’

यह सुन स्मिता हैरान रह गई, अपनेआप को रुद्र से अलग करती हुई बोली, ‘रुद्र, इतनी जल्दी क्या है? शादी को अभी केवल सालभर ही तो हुआ है. अभी तो मुझे अपनी कंपनी को विस्तार देने का समय है और मुझे यह मौका भी मिल रहा है. मैं अभी

1-2 साल बच्चे के लिए तैयार नहीं हूं.’

स्मिता के इतना कहते ही रुद्र स्मिता पर बरस पड़ा. रोजरोज के क्लेश से बचने और अपना घर बचाने के लिए स्मिता ने हार मान ली. परिवार बढ़ाने के लिए वह राजी हो गई और फिर काव्या जैसी परी स्मिता की गोद में आ गई, जिस से स्मिता की जिम्मेदारी में बढ़ोतरी के साथ उस की दुनिया खुशियों से भी भर गई.

लेकिन रुद्र के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया, बल्कि अब वह बारबार काव्या और उस की देखभाल को ले कर स्मिता से झगड़ता, उसे अपनी कंपनी बंद करने को कहता, और स्वयं काव्या की जिम्मेदारी संभालने से पीछे हट जाता.

मां यदि कुछ कहतीं या स्मिता का पक्ष लेतीं तो वह मां को भी झिड़क देता. यह देख मां चुप हो जातीं. स्मिता अब समझ चुकी थी कि क्यों रुद्र को परिवार बढ़ाने की जल्दी थी. असल में वह मातृत्व की आड़ में स्मिता की प्रगति पर अंकुश लगाना चाहता था.

स्मिता घर, परिवार और बेटी काव्या के उत्तरदायित्व के साथ ही साथ बिजनैस भी बखूबी संभाल रही थी. व्यापारी वर्ग में स्मिता अपनी पहचान और एक विशेष स्थान बनाने में कामयाब होने लगी थी, जो रुद्र और उस के पुरुषत्व को नागवार गुजरने लगा और एक दिन रुद्र बेवजह अपना फ्रस्ट्रेशन, अपनी नाकामयाबी पर अपने पुरुषत्व और अहम का रंग चढ़ा स्मिता से कहने लगा, ‘अगर तुम्हें कुछ करने का इतना ही शौक है तो छोटीमोटी कोई टाइमपास 9 से 5 बजे वाली जौब क्यों नहीं कर लेतीं? क्या जरूरत है इस कंपनी को चलाने की. और सुनो, कंपनी का नाम ‘द रिवौल्यूशन’ रखने से कोई रिवौल्यूशन नहीं होने वाला, समझीं? यह मेरा घर है और यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो मेरे अनुसार रहना होगा, वरना इस घर से निकल जाओ.’

यह सुनते ही स्मिता के सब्र का बांध टूट गया और उस ने आज रुद्र को समझाने की कोई कोशिश नहीं की. उस ने केवल इतना कहा, ‘‘यदि यह घर सिर्फ तुम्हारा है और मुझे इस घर में रहने के लिए कठपुतली की तरह तुम्हारे इशारों पर नाचना होगा तो बेहतर है कि मैं अभी इसी वक्त यह घर छोड़ दूं,’’ इतना कह कर स्मिता ने काव्या के संग उस रात घर छोड़ दिया और मां भी स्मिता के साथ हो लीं.

सारी रात स्मिता अतीत की काली स्याही में डूबी रही. दरवाजे पर हुई आहट से वह यथार्थ में लौटी.

‘‘मैडम, आप की कौफी,’’ स्मिता की मेड ने कहा.

‘‘हूं… यहां रख दो. काव्या और मां जाग गए?’’ स्मिता ने अपनी मेड से पूछा. पूरी रात जागने की वजह से स्मिता की आंखें लाल और स्वर में थोड़ा भारीपन था.

मेड ने बड़े अदब से दोनों हाथों को बांधे और सिर झुका कर जवाब दिया, ‘‘मैडम, मांजी को काफी समय हो चुका जागे. उन के स्टूडैंट्स भी आ गए हैं और मांजी संगीत की क्लास ले रही हैं, और काव्या बेबी सो रही हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम जाओ,’’ कह कर स्मिता अपनी कौफी खत्म कर काव्या के कमरे में जा कर वहां सो रही काव्या के सिर और बालों में अपनी उंगलियां फेरती व उस के माथे को चूमती हुई बोली, ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू माई डियर स्वीटहार्ट. आज मेरी डौल को उस के एटीन्थ बर्थ डे पर क्या चाहिए.’’

काव्या स्मिता से लिपटती हुई बोली, ‘‘मम्मा… मुझे मेरी कंप्लीट फैमिली चाहिए. मैं चाहती हूं कि पापा भी हमारे साथ रहें.’’

तभी स्मिता का फोन बजा. फोन रुद्र का था. स्मिता के फोन रिसीव करते ही रुद्र बोला, ‘‘आई एम सौरी स्मिता, मैं बहुत अकेला हो गया हूं. तुम सब प्लीज घर लौट आओ.’’

स्मिता ने सौम्य भाव से कहा, ‘‘रुद्र, मैं तुम्हें माफ कर सकती हूं, लेकिन मेरी एक शर्त है कि मैं तुम्हारे घर आ कर नहीं रहूंगी, तुम्हें मेरे घर आ कर हम सब के साथ रहना होगा.’’

रुद्र खुशीखुशी मान गया और कहने लगा, ‘‘तुम सब के चले जाने के बाद ही मुझे यह एहसास हुआ कि ईंटपत्थरों से बनी इस चारदीवारी में मेरा घर नहीं है, जहां तुम सब हो, जहां मेरा पूरा परिवार रहता है, वही मेरा घर है.’’

Romantic Story: खेल खेल में

Romantic Story: शिखा के पास उस समय नीरज भी खड़ा था जब अनिता ने उस से कहा, ‘‘मैं ने तुम्हारी मम्मी को फोन कर के उन से इजाजत ले ली है.’’

‘‘किस बात की?’’ शिखा ने चौंक कर पूछा.

‘‘आज रात तुम मेरे घर पर रुकोगी.

कल रविवार की शाम मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ आऊंगी.’’

‘‘कोई खास मौका है क्या?’’

‘‘नहीं. बस, बहुत दिनों से किसी के साथ दिल की बातें शेयर नहीं की हैं. तुम्हारे साथ जी भर कर गपशप कर लूंगी, तो मन हलका हो जाएगा. मैं लंच के बाद चली जाऊंगी. तुम शाम को सीधे मेरे घर आ जाना.’’

नीरज ने वार्त्तालाप में हिस्सा लेते हुए कहा, ‘‘अनिता, मैं शिखा को छोड़ दूंगा.’’

‘‘इस बातूनी के चक्कर में फंस कर ज्यादा लेट मत हो जाना,’’ कह कर अनिता अपनी सीट पर चली गई.

औफिस के बंद होने पर शिखा नीरज के साथ उस की मोटरसाइकिल पर अनिता के घर जाने को निकली.

‘‘कल 11 बजे पक्का आ जाना,’’ नीरज ने शिखा को अनिता के घर के बाहर उतारते हुए कहा.

‘‘ओके,’’ शिखा ने मुसकरा कहा.

अनिता रसोई में व्यस्त थी. शिखा उन किशोर बच्चों राहुल और रिचा के साथ गपशप करने लगी. अनिता के पति दिनेश साहब घर पर उपस्थित नहीं थे. अनिता उसे बाजार ले गई. वहां एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान में घुस गई. अनिता और दुकान का मालिक एकदूसरे को नाम ले कर संबोधित कर रहे थे. इस से शिखा ने अंदाजा लगाया कि दोनों पुराने परिचित हैं.

‘‘दीपक, अपनी इस सहेली को मुझे एक बढि़या टीशर्ट गिफ्ट करनी है. टौप क्वालिटी की जल्दी से दिखा दो,’’ अनिता ने मुसकराते हुए दुकान के मालिक को अपनी इच्छा बताई.

शिखा गिफ्ट नहीं लेना चाहती थी, पर अनिता ने उस की एक न सुनी. दीपक खुद अनिता को टीशर्ट पसंद कराने के काम में दिलचस्पी ले रहा था. अंतत: उन्होंने एक लाल रंग की टीशर्ट पसंद कर ली.

शिखा के लिए टीशर्ट के अलावा अनिता ने रिचा और राहुल के लिए भी कपड़े खरीदे फिर पति के लिए नीले रंग की कमीज खरीदी.

दुकान से बाहर आते हुए शिखा ने मुड़ कर देखा तो पाया कि दीपक टकटकी बांधे उन दोनों को उदास भाव से देख रहा है. शिखा ने अनिता को छेड़ा, ‘‘मुझे तो दाल में काला नजर आया है, मैडम. क्या यह दीपक साहब आप के कभी प्रेमी रहे हैं?’’

‘‘प्रेमी नहीं, कभी अच्छे दोस्त थे… मेरे भी और मेरे पति के भी. इस विषय पर कभी बाद में विस्तार से बताऊंगी. पतिदेव घर पहुंच चुके होंगे.’’

‘‘अच्छा, यह तो बता दीजिए कि आज क्या खास दिन है?’’

‘‘घर पहुंच कर बताऊंगी,’’ कह कर अनिता ने रिकशा किया और घर आ गईं.

वे घर पहुंचीं तो दिनेश साहब उन्हें ड्राइंगरूम में बैठे मिले. शिखा को देख कर उन के होंठों पर उभरी मुसकान अनिता के हाथ में लिफाफों को देख फौरन गायब हो गई.

‘‘तुम दीपक की दुकान में क्यों घुसीं?’’ कह कर उन्होंने अनिता को आग्नेय दृष्टि से देखा.

‘‘मैं शिखा को अच्छी टीशर्ट खरीदवाना चाहती थी. दीपक की दुकान पर सब से

अच्छा सामान…’’

‘‘मेरे मना करने के बावजूद तुम्हारी हिम्मत कैसे हो गई उस की दुकान में कदम रखने की?’’ पति गुस्से से दहाड़े.

‘‘मुझ से गलती हो गई,’’ अनिता ने मुसकराते हुए अपने हाथ जोड़ दिए, ‘‘आज के दिन तो आप गुस्सा न करो.’’

‘‘आज का दिन मेरी जिंदगी का सब से मनहूस दिन है,’’ कह कर गुस्से से भरे दिनेशजी अपने कमरे में चले गए.

‘‘मैडम, जब आप को मना किया गया था तो आप क्यों गईं दीपक की दुकान पर?’’

आंखों में आंसू भर कर अनिता ने उदास लहजे में जवाब दिया, ‘‘आज मैं तुम्हें 10 साल पुरानी घटना बताती हूं जिस ने मेरे विवाहित जीवन की सुखशांति को नष्ट कर डाला. मैं कुसूरवार न होते हुए भी सजा भुगत रही हूं, शिखा.

‘‘दीपक का घर पास में ही है. खूब आनाजाना था हमारा एकदूसरे के यहां. दिनेश साहब जब टूर पर होते, तब मैं अकसर उन के यहां चली जाती थी.

‘‘दीपक मेरे साथ हंसीमजाक कर लेता था. इस का न कभी दिनेश साहब ने बुरा माना, न दीपक की पत्नी ने, क्योंकि हमारे मन में खोट नहीं था.

‘‘एक शाम जब मैं दीपक के घर पहुंची, तो वह घर में अकेला था. पत्नी अपने दोनों बच्चों को ले कर पड़ोसी के यहां जन्मदिन समारोह में शामिल होने गई थी.’’

अपने गालों पर ढलक आए आंसुओं को पोंछने के बाद अनिता ने आगे बताया, ‘‘दीपक अकेले में मजाक करते हुए कभीकभी रोमांटिक हो जाता था. मैं सारी बात को खेल की तरह से लेती क्योंकि मेरे मन में रत्ती भर खोट नहीं था.

‘‘दीपक ने भी कभी सभ्यता और शालीनता की सीमाओं को नहीं तोड़ा था.

‘‘दिनेश साहब टूर पर गए हुए थे. उन्हें अगले दिन लौटना था, पर वे 1 दिन पहले

लौट आए.

‘‘मेरी सास ने जानकारी दी कि मैं दीपक के घर गई हूं. वह तो सारा दिन वहीं पड़ी रहती है. ऐसी झूठी बात कह कर उन्होंने दिनेश साहब के मन में हम दोनों के प्रति शक का बीज बो दिया.

‘‘उस शाम दीपक मुझे पियक्कड़ों की बरात की घटनाएं सुना कर खूब हंसा रहा था. फिर अचानक उस ने मेरी प्रशंसा करनी शुरू कर दी. वह पहले भी ऐसा कर देता था, पर उस शाम खिड़की के पास खड़े दिनेश साहब ने सारी बातें सुन लीं.

‘‘उस शाम से उन्होंने मुझे चरित्रहीन मान लिया और दीपक से सारे संबंध तोड़ लिए. और… और… मैं अपने माथे पर लगे उस झूठे कलंक के धब्बे को आज तक धो नहीं पाई हूं, शिखा.’’

‘‘यह तो गलत बात है, मैडम. दिनेश साहब को आप की बात सुन कर अपने मन से गलतफहमी निकाल देनी चाहिए थी,’’ शिखा ने हमदर्दी जताई.

‘‘वे मुझे माफ करने को तैयार नहीं हैं. वे मेरे बड़े हो रहे बच्चों के सामने कभी भी मुझे चरित्रहीन होने का ताना दे कर बुरी तरह शर्मिंदा कर देते हैं.’’

‘‘यह तो उन की बहुत गलत बात है, मैडम.’’

‘‘मैं खुद को कोसती हूं शिखा कि मुझे खेलखेल में भी दीपक को बढ़ावा नहीं देना  चाहिए था. मेरी उस भूल ने मुझे सदा के लिए अपने पति की नजरों से गिरा दिया है.’’

‘‘जब आप को पता था कि दिनेश साहब बहुत गुस्सा होंगे, तब आप दीपक की दुकान पर क्यों गईं?’’

शिखा के इस सवाल के जवाब में अनिता खामोश रह उस की आंखों में अर्थपूर्ण अंदाज में झांकने लगी.

कुछ पल खामोश रहने के बाद शिखा सोचपूर्ण लहजे में बोली, ‘‘मुझे दिनेश साहब का गुस्सा… उन की नफरत दिखाने के लिए आप जानबूझ कर दीपक की दुकान से खरीदारी कर के लाई हैं न? मेरी आंखें खोलने के लिए आप ने यह सब किया है न?’’

‘‘हां, शिखा,’’ अनिता ने झुक कर शिखा का माथा चूम लिया, ‘‘मैं नहीं चाहती कि तुम नीरज के साथ प्रेम का खतरनाक खेल खेलते हुए मेरी तरह अपने पति की नजरों में हमेशा के लिए गिर जाओ.’’

‘‘मेरे मन में उस के प्रति कोई गलत भाव नहीं है, मैडम.’’

‘‘मैं भी दीपक के लिए ऐसा ही सोचती थी. देखो, तुम्हारा पति भी दिनेश साहब की तरह गलतफहमी का शिकार हो सकता है. तब खेलखेल में तुम भी अपने विवाहित जीवन की खुशियां खो बैठोगी.

‘‘तुम अपने पति से नाराज हो कर मायके में रह रही हो. यों दूर रहने के कारण पति के मन में पत्नी के चरित्र के प्रति शक ज्यादा आसानी से जड़ पकड़ लेता है. पति के प्यार का खतरा उठाने से बेहतर है ससुराल वालों की जलीकटी बातें और गलत व्यवहार सहना. तुम फौरन अपने पति के पास लौट जाओ, शिखा,’’ अत्यधिक भावुक हो जाने से अनिता का गला रुंध गया.

‘‘मैं लौट जाऊंगी,’’ शिखा ने दृढ़ स्वर में अपना फैसला सुनाया.

‘‘तुम्हारा कल नीरज से मिलने का कार्यक्रम है…’’

‘‘हां.’’

‘‘उस का क्या करोगी?’’

शिखा ने पर्स में से अपना मोबाइल निकाल कर उसे बंद कर कहा, ‘‘आज से यह खतरनाक खेल बिलकुल बंद. उस की झूठीसच्ची प्रशंसा अब मुझे गुमराह नहीं कर पाएगी.’’

‘‘मुझे बहुत खुशी है कि जो मैं तुम्हें समझाना चाहती थी, वह तुम ने समझ लिया,’’ अपनी उदासी को छिपा कर अनिता मुसकरा उठी.

‘‘मुझे समझाने के चक्कर में आप तो परेशानी में फंस गईं?’’ शिखा अफसोस से भर उठी.

‘‘लेकिन तुम तो बच गईं. चलो, खाना खाएं.’’

‘‘आप को शादी की सालगिरह की शुभकामनाएं और कामना करती हूं कि दिनेश साहब की गलतफहमी जल्दी दूर हो और आप उन का प्यार फिर से पा जाएं.’’

‘‘थैंक यू,’’ शिखा की नजरों से अपनी आंखों में भर आए आंसुओं को छिपाने के लिए अनिता रसोई की तरफ चल दी.

शिखा का मन उन के प्रति गहरे धन्यवादसहानुभूति के भाव से भर उठा था.

Short Story: खुशी – पायल खुद को छला हुआ क्यों महसूस करती थी?

Short Story: शशि ने जब पायल से विवाह की बात दोबारा छेड़ी तो पायल ने कहा, ‘‘इस उम्र में विवाह? क्यों मजाक करती हो. लोग क्या कहेंगे?’’

शशि ने पहले भी कई बार पायल से विवाह की चर्चा की थी. आज फिर कहा, ‘‘अपने बारे में सोचो. आधा जीवन अकेले काट लिया. तुम्हारी परेशानी, अकेलेपन में कोई आया तुम्हारा हाल पूछने? और लोगों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही हैं. शादी नहीं हुई तब भी और हो जाएगी तब भी. कहने दो जिस को जो कहना है.’’

शशि अपने घर चली गई. दोनों सहेलियां थीं. एक ही कालोनी में रहती थीं. शशि विवाहित और 2 बच्चों की मां थी, जबकि 45 की उम्र में भी पायल कुंआरी थी. शशि के जाने के बाद पायल ने खुद को आईने में देखा. ठीक उसी तरह जैसे वह 20 साल की उम्र में खुद को आईने में निहारा करती थी. बालों को कईकई बार संवारा करती थी.

इधर कुछ सालों से तो वह आईने को मात्र बालों में कंघी करने के लिए झटपट देख लिया करती थी. पिछले कई वर्षों से उस ने खुद को आईने में इस तरह नहीं देखा. शशि शादी की बात कर के गई तो पायल ने स्वयं को आईने में एक बार निहारना चाहा. आधे पके हुए बाल, चेहरे का खोया हुआ जादू, आंखों के नीचे काले गड्ढे. स्वयं को संवारना भूल गई थी पायल. आज फिर संवरने का खयाल आया और आईने में झांकते हुए वह अपने अतीत में खो गई.

जब वह 20 साल की थी तब पिता की असमय मृत्यु हो गई थी. जवान होती लड़कियों की तरह स्वयं को भी आईने में निहारती रहती थी. मां को पेंशन मिलने लगी. लेकिन किराए के मकान में 2 बेटियों और 1 बेटे के साथ मां को घर चलाने में समस्या होने लगी. 2 लड़कियों की शादी और बेटे को पढ़ालिखा कर रोजगार लायक बनाना मां के लिए कठिन प्रतीत हो रहा था. पायल कालेज में थी और 5 साल छोटा भाई अनुज अभी स्कूल में था.

पिता की मृत्यु के बाद पायल ने नौकरी के लिए तैयारी करना शुरू कर दी. वह घर के हालात समझती थी और मां का हाथ भी बंटाना चाहती थी. कुछ दिनों बाद पायल की नौकरी लग गई. वह शिक्षा विभाग में क्लर्क बन गई. पायल को समझ ही नहीं आया कि नौकरी उस के लिए वरदान था या श्राप. मां ने भाईबहन की जिम्मेदारी उसे सौंप दी. पायल ने सहर्ष स्वीकार भी कर ली. पायल के लिए रिश्ते आते तो मां मना कर देती. कहती, ‘‘पहले छोटी की शादी हो जाए और बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो जाए. उस के बाद पायल की शादी के बारे में सोचूंगी.’’

पायल की कमाई घर आने लगी तो भाईबहन के शौक बढ़ गए. मां भी दिल खोल कर खर्च करती. पायल ने भी भाईबहन और मां की इच्छाओं को हमेशा पूरा किया. 20 बरस की पायल की जवानी शुरू होते ही खत्म सी हो गई.

अब उसे एक ही सबक मां बारबार सिखाती, ‘‘अब तुम्हें अपने लिए नहीं, अपने भाईबहन के लिए जीना है.’’

जरूरतें व्यक्ति को स्वार्थी बना देती हैं. पायल को औफिस में देर हो जाती

या औफिस का कोई घर छोड़ने आता तो मां उस से पचासों सवाल करती. पायल क्या बात कर रही है, मां की नजरें और कान इसी पर लगे रहते.

मां कहती, ‘‘यह ठीक नहीं है. कोई प्यार की बीमारी मत पाल लेना. तुम कमाऊ लड़की हो. दसों लोग डोरे डालेंगे. लेकिन ध्यान रखना, तुम्हारे ऊपर परिवार की जिम्मेदारी है. फिर भी यदि करना ही चाहो तो कोई क्या कर सकता है? तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी. हम अपना देख लेंगे.’’

मां की आंखों में आंसू भर आते और पायल को कई प्रकार से समझाते हुए कसम खानी पड़ती कि जब तक भाईबहन को किनारे नहीं लगा देती तब तक ऐसाकुछ नहीं होगा.

पायल जब 30 वर्ष की हुई तब रुचि की शादी हुई. रिश्ते बहुत आए लेकिन रुचि को पसंद नहीं आए. रुचि के अपने सपने थे. उस के सपनों का राजकुमार ढूंढ़ने में एक दशक लग गया. पायल जब उसे समझाती कि हम बहुत बड़े लोग नहीं हैं. इतने बड़े सपने मत पालो. अपने बराबर वालों में से किसी को पसंद कर लो. पायल की बात पर मां उलाहना देते हुए कहतीं, ‘‘समय लग रहा है तो लगे. रुचि को लड़का पसंद तो आना चाहिए. मन मार कर शादी करने का क्या अर्थ है? तुम्हें रुचि की शादी की इतनी जल्दी क्यों है? तुम चाहो तो…’’

पायल को चुप होना पड़ा. खातेपीते घर के इंजीनियर से शादी तय हुई तो उस के मुताबिक खर्च भी करना पड़ा. पायल को अपने पीएफ के अलावा विभागीय लोन भी लेना पड़ा. विवाह में अच्छाखासा खर्च हुआ. इस वजह से उसे 5 साल अपने वेतन से लोन चुकाना पड़ा.

यदाकदा आने वाले रिश्तों को भी यह कह कर अस्वीकृत कर दिया जाता कि बस भाई अपने पैर पर खड़ा हो जाए. फिर मांबेटे मिल कर पायल के हाथ पीले करेंगे. पायल ने आईना देखना छोड़ दिया. बस झट से कंघी कर के पीछे चोटी कर लेती. स्वयं को जी भर कर देखना ही भूल गई पायल. छोटा भाई अनुज बीटैक कर रहा था. पढ़ाई में होने वाला खर्चा पायल को ही प्रतिमाह भेजना था. शुरू में तो अनुज फोन पर अकसर कहता पायल से कि दीदी, एक बार मुझे नौकरी मिल गई फिर आप की शादी धूमधाम से करूंगा. लेकिन नौकरी मिलते ही वह अपनी नौकरी में व्यस्त हो गया.

मां की इच्छा थी कि एक बार बहू का मुंह देख लूं तो समझो गंगा नहा लिया. फिर कोई परवाह नहीं. पायल के विषय में नहीं सोचा मां ने. पायल को दुख तो हुआ लेकिन मां के कई कड़वे घूंट की तरह वह इसे भी पी गई. अनुज के लिए शादी के प्रस्ताव आने लगे थे. मां के अपने तौरतरीके थे लड़की पसंद करने के. दहेज, सुंदर लड़की… और इतने तामझाम से निबटने के बाद मां किसी लड़की को शादी के लिए पसंद करती तो अनुज के नखरे शुरू हो जाते. पायल 40 साल की हो गई. अपनी शादी के बारे में उस ने न जाने कब से सोचना बंद कर दिया. अनुज की शादी हुई तो अपनी पत्नी को ले कर वह मुंबई चला गया.

कुछ महीनों बाद मां चल बसी. मां की मृत्यु के बाद पायल अकेली रह गई. भाईबहन फोन करते या कभीकभार मिलने भी आते तो अकेली कमाऊ बहन के कुछ देने की बजाय उस से ही आर्थिक मदद मांगते.

पायल का तबादला हो गया नए शहर में. इस नए शहर में उसे शशि जैसी सहेली मिली. शशि को जब पायल के बारे में पता चला तो उस ने समझाया, ‘‘ठीक है तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई, लेकिन अब तो सोचो अपने बारे में.’’

पायल कहती, ‘‘मेरी उम्र 45 साल के आसपास है. इस उम्र में शादी? लोग क्या सोचेंगे? मेरे भाईबहन, उन के रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

शशि कहती, ‘‘अब निकलो इस जंजाल से. तुम्हारे बारे में किस ने सोचा? तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई. अब क्या तुम्हारे भाईबहन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती या अब उन के बच्चों की जिम्मेदारी भी उठाने वाली हो? इस से पहले कि भाईबहन अपना बच्चा यह कह कर तुम्हारे पास छोड़ जाएं कि बहन तुम अकेली हो, मेरे बच्चे को रख लो. आप का मन लगा रहेगा और आप की देखभाल भी हो जाएगी, अच्छा होगा कि तुम अपना नया जीवन शुरू करो.’’

पायल ने स्वयं को काफी देर तक गौर से आईने में निहारा. उसे लगा जैसे

जिम्मेदारी के नाम पर छल किया गया हो उस के साथ. लेकिन शिकायत करे तो किस से करे? वह कमाती थी इसलिए जिम्मेदारी भी उसी की बनती थी. उस ने तय किया कि वह आज ही ब्यूटीपार्लर जाएगी.

शशि ने एक अधेड़ युवक से उस का परिचय करवाया था. युवक के चेहरे पर जिंदगी के पूरे निशान मौजूद थे. करीने से कटे और रंगे हुए बाल. उम्र को मात देने की भरपूर कोशिश करता हुआ उस का क्लीन शेव चेहरा और जींस टीशर्ट पहने हुए पूरी जिंदादिली के साथ जीता हुआ वह युवक रमेश था.

पहला विवाह असफल हो चुका था. चोट के निशान तो थे जीवन पर लेकिन भरपूर जीने के लिए मरहमपट्टी के साथ मुसकराता चेहरा था. अच्छी नौकरी में था. पायल से विवाह के लिए तैयार था. कई बार मिल भी चुका था. लेकिन पायल के मन में मोती बिखर चुके थे. वह हर बार कुछ न कुछ बहना बना कर टाल जाती. लेकिन आज जब उस ने स्वयं को आईने में निहारा तो अमृत की चंद बूंदें उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थीं. जीवन हर अवस्था में खूबसूरत रहता है. पायल ने शशि को फोन किया,

‘‘मैं विवाह के लिए राजी हूं.’’ शशि की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. रुचि और अनुज को जब उस ने अपने विवाह की बात बताई तो दोनों ने मिलीजुली बात ही कही.

‘‘दीदी इस उम्र में शादी? लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे? आप को सहारा ही चाहिए, तो मेरे बेटे को अपने पास रख लो.’’

‘‘मुझे सहारा नहीं जीवन चाहिए. मुझे जीना है. अपनी खुशी के लिए, अपने लिए.’’

रुचि और अनुज कुछ पल खामोश रहे. उन्हें अपने स्वार्थ का एहसास हुआ. दोनों ने कहा, ‘‘हम आप के विवाह में शामिल होने के लिए कब आएं. होने वाले जीजा से तो मिलाओ.’’

‘‘जल्दी खबर करती हूं,’’ पायल ने खुशी से चहकते हुए कहा. कोई आप के विषय में सोचे यह अच्छी बात है. न सोचे तो स्वयं सोचना चाहिए. अपनी खुशियां तलाशने का हक हर किसी को है.

Family Story: नजरिया बदल रहा – क्या अपर्णा का सपना पूरा हुआ?

Family Story: ‘‘देख अपर्णा, इधर आ जल्दी.’’ ‘‘क्या है मम्मा?’’ अपर्णा वीडियो पौज कर मोबाइल हाथ में लिए चली आई थी.

‘‘वह देख, पार्थ नीचे खड़ा अपने गमलों को कितने प्यार से पानी दे रहा है. सादे कपड़ों में भी कितना हैंडसम दिखता है.’’

अपर्णा ने मां रागिनी को घूर कर देखा.

‘‘यह देख, कितना हराभरा कर दिया है उस ने यह बगीचा. अभी आए कुल 2 महीने ही तो हुए हैं इन लोगों को यहां,’’ वह फुसफुसा कर बताए जा रही थी.

‘‘मम्मा, आप तो पीछे ही पड़ जाते हो. बस, कोई लड़का दिख जाना चाहिए आप को. उस की खूबियां गिनाने लग जाती हो. बोल दिया न, मु?ो नहीं करनी शादीवादी, वह भी एक सरकारी नौकरी वाले से कतई नहीं. शगुन दी की शादी की थी न सरकारी डाक्टर से. बेचारी आज तक वहीं बनारस में अटकी अस्पताल, मंदिर और घाटों के दर्शन कर रही हैं.’’

‘‘तेरी प्रौब्लम क्या है. स्मार्ट है, हैंडसम है पार्थ, दिल्ली विश्वविद्यालय में बौटनी का लैक्चरर है. उस का अपना घर है. उस पर से अकेला लड़का है, एक बहन है, बस.’’

‘‘हां, एक बहन है, जिस की शादी हो चुकी है. बड़े भले लोग हैं. पिता डिग्री कालेज में इंग्लिश के प्रोफैसर थे, रिटायर हो चुके हैं. मां स्कूल टीचर थीं, रिटायर हो चुकीं. अपनी ही जाति के हैं…और कुछ? मम्मा कितनी बार बताओगे मु?ो यही बातें,’’ वह खीझी सी एक सांस में सब बोल कर ही ठहरी थी और रागिनी को खींच कर अंदर ले आई थी.

‘‘अभीअभी नौकरी लगी है उस की, रिश्तों की भरमार है उस के लिए, कमला बहनजी बता रही थीं. कोई रुका थोड़े ही रहेगा तेरे लिए,’’ रागिनी ने कहा.

‘‘हां, तो किस ने कहा है रुकने के लिए. मैट्रिमोनियल में देखो, हजार मिलेंगे एक से एक, यूएस, इंग्लैंड में वैल सैटल्ड, हैंडसम लड़के. प्रिया, शिखा, रूबी, जया मेरी सारी खास सहेलियां कोई अमेरिका, आस्ट्रेलिया तो कोई कनाडा, लंदन की उड़ानें भर रही हैं या तैयारी में हैं. किसी की शादी हो चुकी है तो किसी की इंगेजमैंट. आप को तो मालूम है, प्रिया तो पिछले महीने ही शादी कर लंदन चली गई. मु?ो तो वर्ल्ड के बैस्ट प्लेस जाना है यूएसए, उस में भी न्यूयौर्क.’’

‘‘हम से इतनी दूर जाने की सोच रही है, अप्पू. तेरे और शगुन के अलावा कौन है हमारा. पास है तो शगुन कभीकभी आ जाती है. कभी हम भी मिल आते हैं. तू आसपास भारत में ही कोई ढूंढ़. तेरे लिए व हमारे लिए, यही सही रहेगा. शगुन तो सम?ादार है, सब संभालना जानती है. दुनियादारी का पता है उसे. तु?ो तो कुछ भी नहीं मालूम. बस, तेरे परीलोक जैसे सपने. मैट्रिमोनियल से अनजाने लोगों से रिश्ता कर तु?ो परदेस भेज दें, कुछ गड़बड़ हुई तो… न्यूज तो देखतीपढ़ती है न?’’

‘‘शीर्ष की तो याद होगी आप को, जो मेरे साथ बीएससी में था. जिस ने एक दिन हमें अपनी कार में लिफ्ट दी थी, आप का पैर मुड़ गया था मार्केट में, जोर की मोच आ गई थी आप को. इतने सालों बाद वह कुछ समय पहले अचानक मु?ो मौल में मिल गया था. उस की कंपनी उसे यूएस भेज रही है वह भी सीधा न्यूयौर्क. 3 साल का असाइनमैंट है. अपने पेरैंट्स को मना रहा था. वे नहीं चाहते कि जाए और यदि जाना ही है तो शादी कर के जाए. पर वह चला गया.

‘‘मु?ा से बोल रहा था. ‘वहीं कोई दूसरी कंपनी जौइन कर लूंगा. पागल हूं जो इतनी अच्छी जगह छोड़ इंडिया वापस रहने आऊंगा. हां, शादी जरूर भारत की लड़की से करूंगा ताकि घर का काम बढि़या हो सके और घर का खाना भी मिल सके. हाहा वह रुक कर हंसा था, फिर बोला. तब तक तुम अपनी पीएचडी पूरी कर लो. अगर वेट किया मेरा, तो शादी तुम्हीं से करूंगा. मेरी पहली पसंद तो तुम ही थीं. यह बात और है मैं ने कभी जाहिर नहीं किया.’ कह कर वह मुसकरा रहा था. मैं आप को बताने ही वाली थी.’’

‘‘अरे, तु?ो बना रहा है. वह भी कैसा लड़का है जैसे मांबाप से कोई मतलब नहीं, उन्हें भी ले जाने की बात कहता तो भी बात सम?ा आती. वह तेरी क्या कद्र करेगा.’’

‘‘नहीं मम्मा, फोन नंबर दिया है उस ने मु?ो, उस पर उस से मेरी कई बार बात भी हुई है. कई बार उस के फोन भी आ चुके हैं. उस ने प्रौमिस किया है, 6 महीनों में लौटने वाला है, तब आप सब से मिलेगा अपने मम्मीपापा के साथ, शादी की बात करने.’’

‘‘वाह, कब आएगा, कब बात करेगा. इतना ही था तो उन्हें हम से मिलवा कर क्यों नहीं गया? एक नंबर का फेंकू लगता है. पापा से बात करती हूं, ला, पता दे उस का. हम खुद ही जा कर उस के मांबाप से बात करते हैं.’’

‘‘मैं कभी घर नहीं गई उस के, न ही उस से कभी पता पूछा. शायद कालकाजी में घर है उस का.’’

‘‘कमाल है, घरपरिवार भी देखा नहीं. और इतना बड़ा फैसला ले लिया. सच में बच्चों वाला दिमाग है तेरा. कब आएगा, कब बात करेगा वह. 27 की हो चली है तू. धीरगंभीर स्थिर चित्त, पार्थ जैसा ही कोई संभाल सकता है तु?ो, जान रही हूं.’’ उन्हें कुछ इसी थीम पर गिरीश कर्नाड और शबाना आजमी की ‘स्वामी’ फिल्म याद हो आईर् थी. जिद्दी चंचल लड़की और गंभीर लड़का…

‘‘एक बार फिर अच्छी तरह सोच ले. फिर कहूंगी पार्थ तेरे लिए बिलकुल फिट है. वे लोग भी तु?ो पसंद करते हैं.’’

‘‘कहां हो भई दोनों मांबेटी. देखो कुमार के घर का बना गरम इडलीसांभर फिर दे गए और मेरी प्रिय मखाने की खीर भी. विश्व में बढ़ रहे करोना संकट के लिए टीवी पर प्रधानमंत्री क्या बोलते हैं. यहां भी लौकडाउन होना तो तय है.’’ पापा नंदन कुमार की आवाज पर दोनों टीवी रूम में चली आईं.

21 दिनों का लौकडाउन हुआ, फिर 19 दिनों का. सभी बताए नियमों का पालन कर रहे थे. पार्थ और अपर्णा की भी छुट्टी हो गईर् थी. तालीथाली, दीयाबत्ती अभियान में अपर्णा ने पूरी बिल्ंिडग में सब से अधिक जोरशोर से हिस्सा लिया. नीचे पार्थ के घर होहल्ला न सुन कर अपर्र्णा मुंह बिचकाती रही. जरा भी जज्बा नहीं देश के लिए. कैसा अजीब आदमी है, अकड़ू खां बना बैठा होगा कहीं, प्रवक्ता पार्थ. अंधेरे में अपनी उन किताबों में भी तो नहीं खो सकता इस समय. कुमार साहब ने दीप बाहर रख दिए थे, तो थाली वाले दिन मिसेज कुमार ने मंदिर की घंटी टुनटुना दी थी. बस, हो गया देशप्रेम. अपर्णा को खल रहा था. पार्थ तो वैसे भी कम ही बाहर निकलता. उसे यह सब बचकाना लगता. हां, सब्जीफल, दूध लाने के लिए जरूर जाता, मांपापा को जाने नहीं देता.

एक दिन कुमार फिर घर आए, बोले, ‘‘भाईसाहब, बहनजी, आप भी पार्थ से ही मंगा लिया कीजिए. आप क्यों जाएंगे, यह ही ले आया करेगा न. बुजुर्गों और छोटे बच्चों को ही ज्यादा खतरा है कोरोना से.’’

तो रागिनी ने घूमने को उतावली अपर्णा को सामान लाने के बहाने पार्थ के साथ भेज दिया. एक पंथ दो काज. शायद, पार्थ को पसंद ही करने लगे.

सामान ले कर अपर्णा पार्थ की कार में पहले ही आ बैठी. पार्थ अभी लाइन में था. तब तक उस ने शीर्ष को फोन लगा दिया. इतने दिनों से फोन लग नहीं रहा था. आज कौल कनैक्ट हो गई. तो उस ने शीर्ष की पूरी खबर ली. बहुत दिनों से फोन नहीं आया, न मिला तुम्हारा फोन. अधिक बिजी हो या मु?ो भूल गए. किसी और के चक्कर में तो नहीं पड़ गए. क्या हाल है वहां? न्यूज में तो तुम्हारा न्यूयौर्क सब से अधिक कोरोना की चपेट में है. दिल घबरा रहा था, और तुम हो कि फोन ही नहीं उठा रहे. तुम सेफ तो हो?’’

‘‘अरे, यहां सब मजे में हैं. छुट्टियां हो गई हैं. अपार्टमैंट से ही काम होता है औनलाइन. मु?ो क्या होना है. स्टैच्यू औफ लिबर्टी के साथ हूं. और तुम सब?’’

‘‘ठीक है सब. छुट्टियां यहां भी हो गई हैं. अच्छा, तुम्हारे पेरैंट्स तो ठीक हैं? कौन है उन के पास? कैसे कर रहे होंगे मैनेज. उन का घर का पता, फोन नंबर दो, तो कभी जरूरत पर मदद को परमिशन ले कर पहुंचा जा सकता है. मम्मा को सब बता दिया, वे मिलना भी चाहती हैं.’’

‘‘पापा की तो डेथ हो गई.’’

‘‘ओह, वैरी सैड ऐंड पेनफुल. कब? कैसे?’’

‘‘10 दिन तो हो ही गए, कोरोना से. मम्मी को भी आइसोलेशन में रखा गया है. रिश्तेदारों को भी जाने नहीं दे रहे. यहां से जाना ही पौसिबल नहीं था. सारी फ्लाइटें बंद. मामा लोग उन से फोन से कनैक्टेड हैं और मैं भी. क्या कर सकता हूं.’’

‘‘फिर क्या कह रहे थे, मैं मजे में हूं?’’

‘‘तो, मैं तो ठीक ही हूं. फादरमदर की वैसे भी उम्र थी ही, जाना तो वैसे भी था, फिर मैं इंडिया आ कर भी क्या कर लेता, न देख सकता न छू सकता. अच्छा है यहां सेफ हूं. कुछ हुआ तो बैस्ट इलाज हो जाएगा. चिल्ल… डोंट वरी फौर मी.’’

‘‘तुम अपने फादरमदर के लिए ही बोल रहे हो न?’’ अपर्णा को आश्चर्य हो रहा था. ऐसा निर्मोही, स्वार्थी बेटा कैसे हो सकता है? क्या फायदा ऐसे एडवांस शहर, ऊंचे स्तर और पैसों का जो ऐसे समय भी मांबाप के पास न रह सके, न आ सके और फिर उन के प्रति मन में ऐसी भावना रखे.

‘‘क्या सोचने लगी भई, कोई तुम्हें तो नहीं मिल गया? अरे दोचार महीनों की बात है. सबकुछ नौर्मल हो जाएगा. वैज्ञानिक लगे हुए हैं, दवावैक्सीन जल्द ही ढूंढ़ निकालेंगे ये लोग. शादी कर के तुम्हें भी यहां ले आऊंगा. फिर अपनी तो घरबाहर ऐश ही ऐश होगी. हाहा, ओके, औनलाइन काम का वक्त हो गया. रखता हूं, बहुत काम है. ट्वेंटी डेज से पहले कौल नहीं कर पाऊंगा. ओके, बाय, लव यू स्वीटहार्ट.’’ उस के फ्लाइंग किस के साथ ही फोन कट गया था.

अपर्णा इधरउधर देखने लगी, कहां रह गया पार्थ. वह भी जाने कितना सामान ले रहा है पागल सा. रोज ही तो आता है मार्केट, फिर भी. उस ने नजरें दूर घुमाईं तो पार्थ नजर आया. वह मास्क लगाए, गरीब बच्चों में दूध की थैली, केले, बिस्कुट और ब्रैड बांट रहा था. तभी किसी गरीब बूढ़ी महिला ने उस से हाथ जोड़े कुछ कहा तो वह फिर राशन की दुकान में घुस गया. लौट कर उस ने लाई आटेचावल की थैलियां महिला के सिर पर अपनी मदद से रखवा दीं. महिला ने हाथ जोड़ कर हाथ ऊपर उठाए तो अपर्णा सम?ा गई कि जरूर गरीब महिला उसे दुआएं दे रही है. अपना सामान ला कर पार्थ ने गाड़ी में रखा.

‘‘एक मिनट,’’ कह कर उस ने जा रहे ठेले से साग खरीदा और कूड़े में खाना ढूंढ़ती कमजोर गाय को खिला कर वापस चला आया, ‘‘सौरी, थोड़ा टाइम लग गया.’’

‘‘आप रोज ही ऐसे इतना सब…’’ वह हैरान थी. दिल भी भर आया था उस का.

‘‘इतनाउतना कुछ नहीं. बहुतथोड़ा ही कर पाता हूं. दुनिया की जरूरत के आगे यह तो नगण्य ही है.’’

अपर्णा ने पहली बार पार्थ के चेहरे को ध्यान से देखा था, ‘जज्बा भी, जज्बात भी और सुंदर, सही सोच भी, मतलब सोने जैसा दिल. शीर्ष के दिल, दुनिया से कितना अलग, निर्मल…शायद मम्मी सही ही कह रही थीं. मु?ो अब उन की ही बात मान लेनी चाहिए. नजरिया बदलने लगा था. उस ने एक बार ऊपर से नीचे किन्हीं खयालों में गुम ड्राइव करते पार्थ को देखा और मन ही मन मुसकरा उठी.

Family Story: संयुक्त खाता – आखिर वीरेन अंकल क्यों बदल गये?

Family Story: दोपहर का समय था. मैं औफिस में लंच टाइम में खाना खा कर के जल्दीजल्दी अपनी फाइलें इकट्ठी कर रही थी.

बस, 15 मिनट में एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी. इतने में फोन की  घंटी बजी.

‘उफ, अब यह किस का फोन आ गया?’ परेशान हो कर मैं ने फोन उठाया, तो उधर से कमला आंटी की आवाज सुनाई पड़ी.

कमला आंटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उन के पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.

आंटी की आवाज से मेरा माथा ठनका. आंटी कुछ उदास सी लग रही थीं और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज को भरसक मुलायम बना कर मैं ने कहा, ‘‘कहिए आंटी, बताइए कैसी हैं आप?’’

‘‘बेटा, मैं तो ठीक हूं पर तुम्हारे अंकल की तबीयत काफी खराब है. हम लोग 10 दिनों से अस्पताल में ही हैं,’’ बोलतेबोलते उन का गला भर्रा गया, तो मुझे भी चिंता हो गई.

‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?’’

‘‘सीरियस ही है बेटी. उन को एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब… अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डाक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं,’’ कहते हुए उन का गला रुंध गया.

‘‘आंटी, आप फिक्र मत कीजिए. अंकल ठीक हो जाएंगे. आप हिम्मत रखिए. मैं शाम को आती हूं आप से मिलने,’’ एक तरफ मैं उन्हें दिलासा दिला रही थी, वहीं दूसरी तरफ अपनी घड़ी देख रही थी.

मीटिंग का समय होने वाला था और मेरे बौस देर से आने वालों की तो बखिया ही उधेड़ देते हैं. किसी तरह भागतेभागते मीटिंग में पहुंची, पर मेरा दिमाग कमला आंटी और वीरेन अंकल की तरफ ही लगा रहा.

मीटिंग समाप्त होतेहोते शाम हो गई. मैं ने सोचा, घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूं. वहां जा कर देखा, तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डाक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था. अस्पताल से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘आंटी, किसी चीज की जरूरत हो तो बताइए.’’ कमला आंटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं, पर फिर बोलीं, ‘‘बेटी, एक हफ्ते से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुम से क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज पर खर्च हो गया है. इन के अकाउंट में तो पैसा है, परंतु निकालें कैसे? ये तो चैक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन, बस, इन्हें ही पता है. इन का खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इन की पासबुक और चैकबुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?’’ कहते हुए आंटी ने पासबुक और चैकबुक दोनों मेरे हाथ में रख दीं. आंटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूं.

‘‘आंटी, आप का भी अंकल के साथ जौइंट अकाउंट तो होगा न? आप चैक साइन कर दीजिए, मैं कल बैंक खुलते ही आप के पास पैसे भिजवा दूंगी.’’

‘‘नहीं बेटी, नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हें तो पता ही है, मैं तो इन के कामों में कभी दखल नहीं देती. इन्होंने कभी कहा नहीं और न ही मुझे कभी जरूरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो ये खुद ही करते थे. पर पैसे तो इन के इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह पैसा बैंक से निकलवा दोगी न?’’ आंटी ने इतनी मासूमियतभरी उम्मीद से मेरी ओर देखा, तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या कहूं. बस चैक ले कर सोचती हुई घर आ गई.

घर आ कर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, ‘‘कोई बात नहीं. मैं वीरेन साहब को अच्छी तरह जानता हूं. उन के सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद वीरेन साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उन के दस्तखत करवा कर पैसे उन के पास भिजवा दूंगा.

‘‘आप बिलकुल फिक्र मत कीजिए. बैंक के निर्देशों के अनुसार, यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उस का अंगूठा लगवा कर उस के खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है.’’

वह मैनेजर बैंक के निर्देशों से भलीभांति अवगत था, और वीरेन अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गई.

सुबह दफ्तर जाने के बजाय मैं ने कार अस्पताल की ओर मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई, जब 9 बजते ही बैंक का मैनेजर भी वहां पहुंच गया. उस के हाथ में विड्राअल फौर्म था, जामुनी स्याही वाला इंकपैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उस ने वीरेन अंकल से खूब गर्मजोशी से नमस्ते की, तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे.

फिर मैनेजर ने कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप के अकाउंट से 25,000 रुपए निकाल कर आप की पत्नी को दे दूं?’’ जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया, तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गए.

उस ने फिर कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप के इलाज के लिए आप की पत्नी को पैसा चाहिए. आप के अकाउंट से पैसे निकाल कर दे दूं?’’ जवाब फिर नकारात्मक था. बेचारे मैनेजर ने 3-4 बार प्रयास किया, पर हर बार वीरेन अंकल ने सिर हिला कर साफ मना कर दिया. उस ने हार न मानी और फिर कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप को पता है कि यह पैसा आप के इलाज के लिए ही चाहिए?’’

वीरेन अंकल ने अब सकारात्मक सिर हिलाया, परंतु पैसे देने

के नाम पर जवाब में फिर न

ही मिला. हालांकि, यह अकाउंट वीरेन अंकल के अपने अकेले के नाम पर ही था, उन्होंने उस पर कोई नौमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आखिरी कोशिश की, ‘‘वीरेन साहब, आप की पत्नी को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूं?’’ जवाब अब भी नकारात्मक था.

‘‘आप का अकाउंट कमलाजी के साथ जौइंट कर दूं?’’ जवाब में फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह थी कि वीरेन अंकल, जो कल तक न कुछ बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सिर हिला कर साफ जवाब दे रहे थे.

मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गए. खाते से पैसे निकालने में मैनेजर ने अपनी मजबूरी जाहिर कर दी, ‘‘मैडम, अच्छा हुआ, आप यहां आ गईं, नहीं तो शायद आप मेरा भी विश्वास नहीं करतीं. आप ने खुद अपनी आंखों से देखा है. वीरेन साहब तो साफ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उन के अकाउंट  से पैसे निकालने की अनुमति कैसे दे सकता है?’’

मैनेजर की बात तो सोलह आने सही थी. बैंक मैनेजर तो वापस बैंक चला गया और मैं अंदर जा कर कमला आंटी को उस की लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी.

अस्पताल से लौटते समय मैं उन्हें अपने पास से 10,000 रुपए दे आई. साथ ही, आश्वासन भी कि जितने रुपए चाहिए, आप मुझे बता दीजिएगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है.

शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आंटी के पास फिर गई. वे अभी भी दुखी थीं. मैं ने भी उन से पूछ ही लिया, ‘‘आंटी, आप ने कभी अंकल को अकाउंट जौइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?’’

‘‘कहा था बेटी. कई बार कहा था, पर वे मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूं? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पैंशन अकाउंट है, जौइंट नहीं हो सकता.’’

‘‘नहींनहीं आंटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अब तो पैंशन अकाउंट भी जौइंट हो सकता है. चलो, अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उन का और आप का अकाउंट जौइंट करवा देंगे और नौमिनेशन भी करवा देंगे,’’ कह कर मैं घर आ गई.

रास्तेभर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि वीरेन अंकल वैसे तो आंटी का इतना खयाल रखते हैं, पर इतनी महत्त्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?

कुछ दिन और निकल गए. वीरेन अंकल की तबीयत और बिगड़ती गई. आखिरकार, लगभग 10 दिनों बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आंटी को रोताबिलखता छोड़ हमेशाहमेशा के लिए चले गए.

पति के जाने के अकथनीय दुख के साथसाथ आंटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उन का अंतिम संस्कार होने तक आंटी के ऊपर कर्जा काफी बढ़ गया था.

घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज ही उन के पास जा रही थी और मैं ने जो पहला काम किया, वह यह कि वीरेन अंकल के सभी खाते बंद करवा कर उन्हें कमला आंटी के नाम करवाए. इन कामों में बहुत से फौर्म भरने पड़ते हैं, पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब की जानकारी थी. आंटी को सिर्फ इन्डेमिनिटी बौंड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे, जो मुझ में पूरा भरोसा होने के कारण वे करती चली गईं और रिकौर्ड टाइम में मैं ने वीरेन अंकल के सभी खाते आंटी के नाम पर करवा दिए. आंटी ने चैन की सांस ली और सारे कर्जों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नौमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूचुअल फंड्स आदि का भी यही हाल था.

सब को ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा, पर मुझे यह सब काम पूरा कर के बहुत ही संतोष मिला.

वीरेन अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आंटी की फैमिली पैंशन भी आनी शुरू हो गई थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चैक जमा करना और पासबुक में एंट्री कराना भी सीख लिया था. सार यह कि उन का जीवन एक ढर्रे पर चल पड़ा था.

इस बात को कई महीने बीत गए, पर एक बात मेरे दिल को बारबार कचोटती रही कि ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिए. फिर एक बार मौका निकाल कर मैं ने आंटी से पूछ ही लिया.

यह सुन कर आंटी सकपका कर चुपचाप जमीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था, पर कुछ क्षण पश्चात आंटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटी, क्या बताऊं? पैसा चीज ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था.’’

मैं चुपचाप आंटी की ओर देखती रही. मेरी उत्सुकता और अधिक जानने के लिए बढ़ गई थी.

आंटी आगे बोलीं, ‘‘जब तुम्हारे अंकल मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उन के पिता यानी मेरे ससुरजी बहुत बीमार थे. पैसों की जरूरत पड़ती रहती थी. इसलिए उन्होंने अपनी चैकबुक ब्लैंक साइन कर के रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वह चैकबुक पड़ गई और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. न ससुरजी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इन की पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसेपैसे के लिए मुहताज हो गईं. फिर अपने जेवर बेच कर उन्होंने इन की मैडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही, यह सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास न करना, अपनी बीवी पर भी नहीं.

‘‘तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी जिंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी मां की सीख को भी. इसीलिए वे पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उन के अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा.’’

अब सबकुछ शीशे की तरह साफ था, पर आंटी तनाव में लग रही थीं. मैं ने बात बदली, ‘‘चलिए छोडि़ए आंटी, मैं आप को चाय बना कर पिलाती हूं.’’ समय बीतता गया, कमला आंटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गई थी और अपने काम संभालने से उन में एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आंटी पढ़ीलिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी, परंतु पिछले 40 सालों में केवल घरबार में ही विलीन रहने से उन का जो आत्मविश्वास  खो सा गया था, धीरेधीरे वापस आने लगा था.

मैं जब भी उन से मिलने जाती, मुझे यही खयाल बारबार सताता था कि हरेक व्यक्ति भलीभांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोड़ो, जिंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रियजनों की आर्थिक सुरक्षा के बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटीछोटी चीजें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जौइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूचुअल फंड आदि में नौमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही, वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण काम है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं?

अब कमला आंटी को ही ले? लीजिए. उन बेचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फैमिली पैंशन की हकदार हैं, अंकल के पीपीओ वगैरह की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग जिंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना खयाल रखते हैं, परंतु कभी यह नहीं सोचते कि उन के मरने के बाद उन का क्या होगा?

धीरेधीरे समय निकलता गया और कमला आंटी के जीवन में सबकुछ सामान्य सा हो गया. उन के घर मेरा आनाजाना भी कम हो गया. पर अचानक एक दिन आंटी का फोन आया, ‘‘बेटी, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?’’

‘‘हां, हां, जरूर आंटी. कोई खास बात है क्या?’’

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं, पर शाम को आना जरूर,’’ आवाज से आंटी खुश लग रही थीं.

शाम को जब मैं उन के घर पहुंची, तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुसकान थी.

‘‘लड्डू… किस खुशी में आंटी?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुसकान उन के चेहरे पर फैल गई.

‘‘पहले लड्डू खाओ बेटी,’’ बहुत दिन बाद कमला आंटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा. लड्डू बहुत स्वादिष्ठ थे. एक के बाद मैं ने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आंटी अंदर के कमरे में गईं और लौट कर सरिता मैगजीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.

‘‘यह देखो, तुम्हारी आंटी अब लेखिका बन गई है. मेरी पहली कहानी इस में छपी है.’’

‘‘आप की कहानी…? वाह आंटी, वाह, बधाई हो.’’

‘‘हां, कहानी क्या, आपबीती ही समझ लो. मैं ने सोचा कि क्यों न सब लोगों को बताऊं कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है और संयुक्त खाता न खोलने से उस को कितनी परेशानी हो सकती है? वैसे ही कोरोना वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किस का नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती, तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, ऐसा किसी के साथ न हो,’’ कहतेकहते कमला आंटी की आंखें नम हो चली थीं और साथ में मेरी भी.

घर जा कर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें