एक रात : भाग 4

लेखक- मृणालिका दूबे

विक्रम और साहिल को काटो तो खून नहीं वाली हालत हो गई थी. वे कभी एकदूसरे को देखते तो कभी सामने खड़े पुलिस अफसर को.

तभी औफिसर ने दोनों को तीखी नजरों से घूरते हुए कहा, ‘‘अब एकएक शब्द गौर से सुनो, आज शाम को 5 बजे मिस्टर कबीर की होटल हौलीडे इन में कौन्फ्रैंस है. वहां वह पौने 5 बजे तक पहुंच ही जाएंगे. तुम दोनों को पार्किंग में पहले से ही छिप कर खड़े रहना है. और जैसे ही मिस्टर कबीर अपनी गाड़ी से बाहर निकलेंगे, तुम निशाना लगा कर उन पर साइलेंसर लगी पिस्टल से गोली चला देना. वहां अफरातफरी मच जाएगी. इसी का फायदा उठा कर तुम दोनों वहां से भाग कर गेट तक पहुंच जाना. गेट के पास मेरा एक आदमी गाड़ी ले कर खड़ा रहेगा. उस गाड़ी में बैठ कर सीधे अपने घर चले जाना. बस किस्सा खत्म.’’

‘‘पर हम निशाना लगाएंगे कैसे? हम ने तो कभी पिस्टल तक हाथ में नहीं पकड़ा पहले.’’ साहिल रुआंसे स्वर में बोल पड़ा.

औफिसर ने तिरछी मुसकान के साथ नरमी से कहा, ‘‘ये कोई बड़ी मुश्किल नहीं. बस कबीर की ओर गन तान कर फायर कर देना. निशाना खुदबखुद लग जाएगा.’’

विक्रम कुछ बोलने जा ही रहा था कि औफिसर ने अपने टेबल की ड्राअर से एक पिस्टल निकाल कर उस के हाथ में थमा दी.

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विक्रम गन हाथ में आते ही यूं चौंका मानो उस के हाथ में जहरीला सांप आ गया हो.

औफिसर ने खड़े होते हुए ठंडे लहजे में कहा, ‘‘ओके, नाउ यू कैन गो. और वक्त पर पहुंच जाना दोनों होटल हौलीडे इन में. आज रात टीवी न्यूज की हैडलाइन कबीर की सनसनीखेज हत्या से ही शुरू होनी चाहिए. नहीं तो कल सुबह की हैडलाइन में तुम दोनों के ही फोटो होंगे. ऐक्ट्रैस निया के हत्यारे गिरफ्तार.’’

विक्रम और साहिल हारे हुए जुआरी की तरह पिस्टल जेब में डाल कर पुलिस स्टेशन से बाहर चल दिए. बाहर जाते ही विक्रम ने साहिल की ओर देखा फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘चलो, तुम्हारे फ्लैट में चलते हैं. वहां शांति से बैठ कर सोचेंगे.’’

साहिल ने सिर हिला कर हामी भरी और दोनों एक आटो में सवार हो कर साहिल के फ्लैट की ओर चल दिए. फ्लैट के अंदर पहुंचते ही विक्रम हताशा से वहीं फर्श पर लेट गया. लग रहा था मानो उस में कोई जान ही न हो. साहिल फ्रिज से पानी ले कर आया और विक्रम को देते हुए निराश स्वर में बोला, ‘‘यार, अब यूं हताश होने से कोई फायदा नहीं. हम ऐसे फंस गए हैं कि निकलने का कोई रास्ता नहीं है अब.’’

यह सुनते ही विक्रम उठ कर बैठ गया. फिर साहिल को घूरते हुए जोर से बोला, ‘‘तो क्या तू ये कहना चाहता है कि हम दोनों अपने ही हाथों से अपने बौस की हत्या कर दें?’’

‘‘और कोई रास्ता बचा है क्या? बता तू ही.’’ साहिल ने झल्लाते हुए कहा.

विक्रम अपना सिर थामते हुए चीखा, ‘‘उफ्फ क्यों? कल क्यों हम ने निया की गाड़ी में लिफ्ट ली?’’

साहिल कुछ बोलने ही वाला था कि उस के मोबाइल की रिंग बजने लगी, ‘‘हैलो!’’

कहते ही उधर से रोहित की आवाज आई, ‘‘हैलो साहिल, कहां हो यार? पता है आज मिस्टर कबीर ने होटल हौलीडे इन में कौन्फ्रैंस रखी है. मतलब कि आज औफिस से छुट्टी.’’

साहिल का दिल धड़क उठा. वह पसीना पोंछते हुए बोला, ‘‘अभी मैं बाहर मार्केट में हूं, तुझ से थोड़ी देर बाद काल करता हूं.’’

और उस ने काल कट कर दी.

फिर विक्रम और साहिल दोनों ही खामोशी से विचार करते हुए बैठे रहे.

सोचविचार करने के बाद आखिर दोनों इसी नतीजे पर पहुंचे कि 3 बजे ही यहां से निकल कर होटल हौलीडे इन चलते हैं. वहां पहुंचने में एक घंटा तो लग ही जाएगा, फिर पार्किंग की ओर जा कर किसी गाड़ी के पीछे छिप जाएंगे. जैसे ही कबीर वाहं आएगा तो उसे गोली मार कर भाग निकलेंगे.

पूरा प्लान डिसकस करने के बाद विक्रम और साहिल निकल पड़े होटल की ओर.

4 बजे के करीब विक्रम और साहिल आटो से होटल के कुछ पहले ही उतर गए. फिर पैदल ही होटल की ओर चल दिए. गेट के पास खड़े सिक्योरिटी गार्ड्स के पास से धड़कते दिल से गुजर कर दोनों पार्किंग की ओर चल दिए.

वहां कई गाडि़यां खड़ी थीं और 2 गार्ड्स भी तैनात थे.

वे दोनों के गार्ड्स के पास से यूं गुजरे मानो किसी की तलाश कर रहे हों. फिर मौका पाते ही वे दोनों एक ब्लैक औडी के पीछे छिप कर पौने 5 बजने का इंतजार करने लगे.

एकएक पल किसी युग की तरह बीत रहा था. दोनों की ही निगाहें बेसब्री से कबीर की प्रतीक्षा कर रही थीं. तभी 5 बजने से कुछ ही मिनट पहले कबीर की मर्सिडीज होटल के पार्किंग की ओर आती हुई दिखी.

विक्रम की अंगुलियां जेब में पड़ी हुई पिस्टल के ट्रिगर पर कस गईं. उस के दिल की धड़कनें इस कदर बढ़ गई थीं मानो दिल अभी सीने से निकल कर बाहर आ जाएगा.

साहिल फुसफुसाते हुए बोला, ‘‘विक्रम, घबराना मत. बस कबीर को देखते ही ट्रिगर दबा देना.’’

विक्रम ने कोई जवाब नहीं दिया. वह तो बस टकटकी लगाए कबीर की गाड़ी की ओर देख रहा था जो अभी पार्किंग में आ कर रुकी थी.

और तभी ड्राइवर ने जल्दी से उतर कर पिछला दरवाजा खोला और शानदार सूट में सजेधजे कबीर ने बाहर कदम रखा.

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विक्रम ने पिस्टल निकाली और औडी के पीछे छिपेछिपे ही उस ने कबीर के सीने का निशाना ले कर पूरी ताकत से ट्रिगर दबा दिया.

अगले ही क्षण कबीर सीने पर हाथ रखे चीखता हुआ नीचे गिर पड़ा.

कबीर के पास खड़ा ड्राइवर जोर से चिल्लाते हुए उन्हें उठाने दौड़ा. पलभर में ही कबीर के इर्दगिर्द भीड़ जमा हो गई. विक्रम और साहिल इसी भीड़ का फायदा उठाते हुए होटल के बाहर वाले गेट की ओर दौड़ पड़े.

गेट के बाहर ही एक गाड़ी खड़ी थी. उस में बैठे ड्राइवर ने हाथ हिला कर इशारा किया और विक्रम और साहिल उस गाड़ी की ओर तेजी से लपके.

कुछ ही मिनटों में गाड़ी फर्राटे भरती हुई सड़क पर भागने लगी. पिछली सीट पर बदहवास बैठे विक्रम और साहिल इस कदर  सहमे हुए थे कि उन के मुंह से बोल तक नहीं फूट रहा था.

कोई एक घंटे बाद गाड़ी एक पुरानी सी इमारत के पास जा कर रुक गई.

गाड़ी रुकते ही ड्राइवर ने पीछे मुड़ कर कहा, ‘‘उतरिए, आप की मंजिल आ गई.’’

विक्रम और साहिल ने नीचे उतर कर देखा, उस पुरानी इमारत के सामने ही वह पुलिस औफिसर खड़ा था. उस ने आगे बढ़ कर विक्रम और साहिल का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘वेलकम वेलकम. वैरी गुड. क्या निशाना लगाया है तुम ने. एक्सीलेंट. लाओ अब वह गन मुझे वापस कर दो. तुम्हारे लिए खतरा साबित हो सकती है.’’

विक्रम ने कांपते हाथों से गन अपने पौकेट से निकाली और औफिसर को देते हुए बोला, ‘‘अब तो हम लोग आजाद हैं न? हम अपने घर जा सकते हैं न?’’

‘‘ओह श्योर. बिलकुल जा सकते हो अब अपनेअपने घर. बट एक बात का ध्यान रखना कि कभी भूल से भी किसी के सामने आज और कल रात की घटना का जिक्र भी न करना, क्योंकि इस पिस्टल पर तुम्हारी अंगुलियों के ही निशान हैं, इसलिए भलाई इसी में है कि ये सब भूल कर अब नई जिंदगी की शुरुआत करो. ये ड्राइवर तुम्हें तुम्हारे स्टौप पर ड्रौप कर देगा. ओके.’’

जल्दी ही विक्रम और साहिल को उन के एड्रैस पर छोड़ कर वह ड्राइवर चला गया.

डरेसहमे विक्रम ने किसी तरह अपने को संभाला और नौर्मल दिखने की पूरी कोशिश करते हुए अपने फ्लैट की डोरबैल बजाई.

अंदर से जब कोई रिप्लाई नहीं मिला तो विक्रम ने अपने पास की चाबी से लौक खोला और फ्लैट में घुसा. अंदर एकदम अंधेरा छाया हुआ था. इस नीरव खामोशी से घबरा कर विक्रम ने लाइट औन करते हुए जोर से नीता को पुकारा, ‘‘नीता…कहां हो तुम?’’

पर नीता को फ्लैट में न पा कर विक्रम एकदम हैरान हो उठा. फिर उस की हैरानी तब और बढ़ गई जब उस ने देखा कि नीता का कपबर्ड खुला हुआ है और उस में रखी उस की पर्सनल चीजें और कई कपड़े गायब हैं.

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जिम्मेदारी बनती है कि नहीं: भाग 1

पापा और बूआ की बातें मैं सुन रहा था. अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब आप बिना कुछ पूछे ही अपने सवालों के जवाब पा जाते हैं. कहीं का सवाल कहीं का जवाब बन कर सामने चला आता है. नातेरिश्तेदारी की कटुता दोस्ती की कटुता से कहीं ज्यादा दुखदायी होती है क्योंकि रिश्तेदार को हम बदल नहीं सकते जबकि दोस्ती में ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती. न पसंद आए तो दोस्त को बदल दो, छोड़ दो उसे, ऐसी क्या मजबूरी कि निभाना ही पड़े?

‘‘मनुष्य हैं हम और समाज में हर तरह के प्राणी से हमारा वास्ता पड़ता है,’’ पापा बूआ को समझाते हुए बोले, ‘‘जहां रिश्ता बन जाए वहां अगर कटुता आ जाए तो वास्तव में बहुत तकलीफ होती है. न तो छोड़ा जाता है और न ही निभाया जाता है. बस, एक बीच का रास्ता बच जाता है. फीकी बेजान मुसकान लिए स्वागत करो और दिल का दरवाजा सदा के लिए बंद. अरे भई, हमारा दिल तो प्यार के लिए है न, जहां नफरत नहीं रह सकती क्योंकि हमें भी तो जीना है न. नफरत पाल कर हम कैसे जिएं. किसी इनसान का स्वभाव यदि सामने वाले को नंगा करना ही है तो हम कब तक नंगा होना सह पाएंगे?’’

बूआ के घर कोई उत्सव है और उन का देवर जबतब उन के हर काम में बाधा डाल रहा है. बचपन से बूआ उस के साथ थीं, मां बन कर बूआ ने अपने देवर को पाला है. जब बूआ की शादी हुई तब उन का देवर मात्र 5 साल का था.

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मांबाप नहीं थे, इसलिए जब भी बूआ मायके आती थीं तो वह भी उंगली पकड़े साथ होता था. हम अकसर सोचते थे कि बूआ तो नई ब्याही लगती ही नहीं. शादी होते ही वह एकदम से सयानी सी लगने लगी हैं. मैं तब 7-8 साल का था जब बूआ की शादी हुई थी. अकसर मां का बूआ से वार्तालाप कानों में पड़ जाता था :

‘सजासंवरा तो कर गायत्री. तू तो नई ब्याही लगती ही नहीं.’

‘इतना बड़ा बच्चा साथ चले तो क्या नई ब्याही बन कर चलना अच्छा लगता है, भाभी. सभी राजू को मेरा बच्चा समझते हैं. क्या 5 साल के बच्चे की मां दुलहन की तरह सजती है?’

मात्र 20 साल की मेरी बूआ मंडप से उठते ही 5 साल के जिस बच्चे की मां बन चुकी थीं वही बच्चा आज बातबेबात बूआ का मन दुखा रहा है…जिस पर वह परेशान हैं. बूआ के बेटे की शादी थी. बूआ न्योता देने गई थीं जिस पर उस ने रुला दिया था.

‘‘आज याद आई मेरी.’’

‘‘कल ही तो कार्ड छप कर आए हैं. आज मैं आ भी गई.’’

‘‘कुछ सलाहमशविरा तक नहीं, मुझ से रिश्ता करने से पहले…कार्ड तक छप गए और मुझे पता तक नहीं कि बरात का इंतजाम कहां है और लड़की काम क्या करती है.’’

स्तब्ध बूआ हैरानपरेशान रह गई थीं. इस तरह के व्यवहार की नहीं न सोची थी. बूआ कुछ कार्ड साथ भी ले गई थीं देवर के मित्रों और रिश्तेदारों के लिए.

‘‘रहने दो, रहने दो, भाभी, बेइज्जती करती हो और न्योता भी देने चली आईं, न मैं आऊंगा और न ही मेरे ससुराल वाले. कोई नहीं आएगा तुम्हारे घर पर…तुम ने हमारे रिश्तेदारों की बेइज्जती की है… पहले जा कर उन से माफी मांगो.’’

‘‘बेइज्जती की है मैं ने? लेकिन कब, किस की बेइज्जती की है मैं ने?’’

‘‘भाभी, तुम ने अपने बेटे का रिश्ता करने से पहले हम से नहीं पूछा, मेरे ससुराल वालों से नहीं पूछा.’’

‘‘मेरे घर में क्या होगा उस का फैसला क्या तुम्हारे ससुराल वाले करेंगे या तुम करोगे? हम लड़की देखने गए, पसंद आई…हम ने उस के हाथ पर शगुन रख दिया. 15 दिन में ही शादी हो रही है. तुम्हारे भैया और मैं अकेले किसी तरह पूरा इंतजाम कर रहे हैं…राहुल को छुट्टी नहीं मिली. वह सिर्फ 2 दिन पहले आएगा, अब हम तुम्हारे ससुराल वालों से माफी मांगने कब जाएं? और क्यों जाएं?’’

‘‘भाभी, तुम लोग जरा भी दुनियादारी नहीं समझते. तुम ने अपने घर का मुहर्त किया, वहां भी मेरे ससुराल वालों को नहीं बुलाया.’’

‘‘वहां तो किसी को भी नहीं बुलाया था. तुम भी तो वहीं थे. सिर्फ घर के लोग थे और हम ने पूजा कर ली थी, फिर उस बात को तो आज 2 साल हो गए हैं. आज याद आया तुम्हें गिलाशिकवा करना जब मैं तुम्हें शादी का न्योता देने आई हूं.’’

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पुत्र समान देवर का कूदकूद कर लड़ना बूआ समझ नहीं पा रही थीं. न जाने कबकब की नाराजगी और नाराजगी भी वह अपने ससुराल वालों को ले कर जता रहा था जिन से बूआ का कोई वास्ता न था.

समधियाना तो फूलों की खुशबू की तरह होता है जहां हमें सिर्फ इज्जत देनी है और लेनी है. फूल की सुंदरता को दूर से महसूस करना चाहिए तभी उस की सुंदरता है, हाथ लगा कर पकड़ोगे तो उस का मुरझा जाना निश्चित है और हाथ भी कुछ नहीं आता.

कुछ रिश्ते सिर्फ फूलों की खुशबू की तरह होते हैं जिन के ज्यादा पास जाना उचित नहीं होता. पुत्र या पुत्री के ससुराल वाले, जिन से हमारा मात्र तीजत्योहार या किसी कार्यविशेष में मिलना ही शोभा देता है. ज्यादा आनाजाना या दखल देना अकसर किसी न किसी समस्या या मनमुटाव को जन्म देता है क्योंकि यह रिश्ता फूल की तरह नाजुक है जिसे बस दूर से ही नमस्कार किया जाए तो बेहतर है.

देवर बातबेबात अपने ससुराल वालों को घर पर बुलाना चाहता था जिस पर अकसर बूआ चिढ़ जाया करती थीं. हर पल उन का बूआ के घर पर पसरे रहना फूफाजी को अखरता था. हर घर की एक मर्यादा होती है जिस में बाहर वाले का हर पल का दखल सहन नहीं किया जा सकता. अति हो जाने पर फूफाजी ने भाई को अलग हो जाने का संदेशा दे दिया था जिस पर काफी बावेला मचा था. जिसे पुत्र बना कर पाला था वही देवर बराबर की हिस्सेदारी मांग रहा था.

‘‘कौन सा हिस्सा? हमारे मांबाप जब मरे तब हम किराए के घर में रहते थे और तुम 2 साल तक ननिहाल में पलते रहे. अपनी शादी के बाद मैं तुम्हें अपने घर लाया और पालपोस कर बड़ा किया. अपने बेटे के मुंह का निवाला छीन कर अकसर तुम्हारे मुंह में डाला…कौन सा हिस्सा दूं मैं तुम्हें? हमारे मातापिता कौन सी दौलत छोड़ कर मरे थे जिसे तुम्हारे साथ बांटूं. मैं ने यह सबकुछ अपने हाथ से कमाया है. तुम भी कमाओ. मेरी तुम्हारे लिए अब कोई जिम्मेदारी नहीं बनती.’’

‘‘आप ने कोई एहसान नहीं किया जो पालपोस कर बड़ा कर दिया.’’

‘‘मैं ने जो किया वह एहसान नहीं था और अब जो तुम करने को कह रहे हो उस की मैं जरूरत नहीं समझता. हमें माफ करो और जाओ यहां से…हमें चैन से जीने दो.’’

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फूफाजी ने जो उस दिन हाथ जोड़े, उन्हीं पर अड़े रहे. मन ही मर गया उन का. क्या करते वह अपने भाई का?

‘‘यह कल का बच्चा ऐसी बकवास कर गया. आखिर क्या कमी रखी मैं ने? न लाता ननिहाल से तो कोई मेरा क्या बिगाड़ लेता, पलता वहीं मामा के परिवार का नौकर बन कर. आज इज्जत से जीने लायक बन गया तो मेरे ही सिर पर सवार…हद होती है बेशर्मी की.’’

वह अलग घर में चला गया था लेकिन मौकेबेमौके उस ने जहर उगलना नहीं छोड़ा था. बूआ के बेटे की शादी का नेग उस ने उठा कर घर से बाहर फेंक दिया था. बीमार हो गई थीं बूआ.

‘‘क्या हो गया है इस लड़के की बुद्धि को. हमारा ही दुश्मन बना बैठा है. हम ने क्या नुकसान कर दिया है इस का. इज्जत के सिवा और क्या चाहते हैं इस से,’’ बूआ का स्वर पुन: कानों में पड़ा.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

जिम्मेदारी बनती है कि नहीं: भाग 2

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‘‘भूल जाओ न उसे,’’ पापा बोले थे, ‘‘समझ लो उस का कोई भी अस्तित्व कहीं है ही नहीं. शरीर का जो हिस्सा सड़गल जाए उसे काट कर अलग करना ही पड़ता है वरना तो सारा शरीर गलने लगता है… तुम्हारा अपना बेटा शादी कर के अपने घर में खुश है न, तुम पतिपत्नी चैन से जीते क्यों नहीं? क्यों उठतेबैठते उसी का रोना ले कर बैठे रहते हो?’’

‘‘अपना बेटा खुश है और यह कौन सा पराया था. भैया, हम ने कभी इस की खुशी पर कोई रोक नहीं लगाई. अपने बेटे पर उतना खर्च नहीं किया जितना इस पर करते रहे. इस की पढ़ाई का कर्ज हम आज तक उतार रहे हैं. अपना बेटा तो वजीफे से ही पढ़ गया. जहां इस ने कहा, वहीं इस की शादी की. अब और क्या करते. कम से कम अपने घर में चैन से जीने तो देता हमें…हमारे पीछे हाथ धो कर पड़ना उस ने अपना अधिकार बना लिया है. हम खुश हुए नहीं कि जहर उगलना शुरू. चार लोगों में तमाशा बनाना जैसे शगल है उस का…अभी राहुल के घर बच्चा होगा…’’

‘‘तब मत बुलाना न उसे. जब तुम जानती हो कि वह तुम्हारा तमाशा बनाता है तब काट कर फेंक क्यों नहीं देतीं उसे.’’

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‘‘भैया, वह अपना है.’’

‘‘अपना समझ कर सब सहन करती हो उसी का तो वह फायदा उठाता है. शायद वह तुम पर वही अधिकार चाहता है, जो तब था जब तुम ब्याह कर उस घर में गई थीं. तुम ने अपनी संतान तब पैदा की थी जब तुम्हारा देवर 10 साल का था. इतने साल का उस का एकाधिकार छिन जाना उस से सहा नहीं गया. अपनी सीमा रेखा भूल गया.

‘‘ऐसी मानसिकता धीरेधीरे प्रबल होती गई. उस का अपमानित करना बढ़ता गया और तुम्हारी सहनशक्ति बढ़ती गई. मोहममता की मारी तुम उसे बालहठ समझती रहीं. दबी आवाज में मैं ने तुम से पहले भी कहा था, ‘अपने बेटे और देवर में उचित तालमेल रखो. जिस का जितना हक बनता है उसे न उस से ज्यादा दो और न ही कम.’ अब त्याग दो उसे. अपने जीवन से निकाल दो अभी.’’

स्तब्ध रह गया हूं मैं आज. मेरे पिता जो सदा निभाना सिखाते रहे, आज काट कर फेंक देना सिखाने लगे.

‘‘वो जमाना नहीं रहा अब जब हम आग का दरिया पचा जाया करते थे और समुंदर के समुंदर पी कर भी जाहिर नहीं होने देते थे. आज का इनसान इतना सहनशील नहीं रहा कि बुराई पर बुराई सहता रहे और खून के घूंट पी कर भी मुसकराता रहे.

‘‘आज हर तीसरा इनसान अवसाद में जी रहा है. आखिर क्यों? पढ़ाईलिखाई ने तहजीब में रहना सिखाया है न इसीलिए तहजीब ही निभातेनिभाते हम अवसाद का शिकार हो जाते हैं. जो लोग कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ा करते हैं वे तो अपनी भड़ास निकाल चुकते हैं न, भला वे क्यों जाएंगे अवसाद में.

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‘‘संस्कारी और तहजीब वाला इनसान खुद पर ही जुल्म करे, क्या इस से यह अच्छा नहीं कि वह उस इनसान से ही किनारा कर ले. भूल जाओ उस 5 साल के बच्चे को जो कभी तुम्हारा हर पल का साथी था. अब बहुत बदल चुका है वह. समझ लो वह इस शहर में ही नहीं रहता. सोच लो अमेरिका चला गया है…दिल को खुश रखने को यह खयाल क्या बुरा है गायत्री?’’

कुछ कचोटने लगा है मुझे. मेरे आफिस में मेरा एक घनिष्ठ मित्र है जो आजकल बदलाबदला सा लगने लगा है. पिछले 10 साल से हम साथसाथ हैं. अच्छी दोस्ती थी हम में. जब से मेरा प्रोमोशन हुआ है, वह नाखुश सा है. जलन वाली तो कोई बात ही नहीं है क्योंकि उस का क्षेत्र मेरे क्षेत्र से सर्वदा अलग है. ऐसा तो है ही नहीं कि उस की कोई शह मेरी गोद में चली आई हो. कटाकटा सा भी रहता है और मौका मिलते ही चार लोगों के बीच अपमानित भी करता है. पिछले 6 महीने से मैं उस का यह व्यवहार देख रहा हूं, कोशिश भी की है कि बैठ कर पूछूं मगर पता नहीं क्यों वह अवसर भी नहीं देता. कभीकभी लगता है वह मुझ से दुश्मनी भी निकाल रहा है. अपना व्यवहार भी मैं पलपल परख रहा हूं कि कहीं मैं ही कोई भूल तो नहीं कर रहा.

हैरान हूं मैं. मैं तो आज भी वहीं खड़ा हूं जहां कल खड़ा था, ऐसा लगता है वही दूर जा कर खड़ा हो गया है और बातबेबात मेरा उपहास उड़ा रहा है. धीरेधीरे दुखी रहने लगा हूं मैं. आखिर मैं कहां भूल कर रहा हूं. काम में जी नहीं लगता. ऐसा लगता है कोई प्यारी चीज हाथ से निकली जा रही है. शायद मेरे स्नेह का निरादर कर उसे अच्छा लगता है.

‘‘अपनेआप के लिए भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी बनती है न गायत्री. अपने पति के प्रति, अपनी सेहत के प्रति… अपने लिए जीना सीखो, बच्ची.’’

पापा अकसर प्यार से बूआ को बच्ची कहते हैं. बूआ की अपने देवर के प्रति ममता तो मैं बचपन से देखता आ रहा हूं आज ऐसी नौबत चली आई कि उसी से बूआ को हाथ खींचना पड़ेगा… क्योंकि बूआ अवसाद में जा चुकी है. डिप्रेशन का मरीज जब तक डिप्रेशन की वजह से दूर न होगा, जिएगा कैसे.

‘‘कोई भी रिश्ता तभी तक निभ सकता है जब तक दोनों ही निभाने के इच्छुक हों. अमृत का भरा कलश केवल एक बूंद जहर से विषाक्त हो जाता है. हमारा मन तो मानवीय मन है जिस पर इन बूंदों का निरंतर गिरना हमें मार न दे तो क्या करे.

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‘‘अपना निरादर कराना भी तो प्रकृति का अपमान है न. सहना भी तभी तक उचित है जब तक आप सह पाएं. सहने की अति यदि आप को या हमें मारने लग जाए तो क्यों न हाथ खींच लिया जाए, क्योंकि रिश्तों के साथसाथ अपने प्रति भी हमारी कोई जिम्मेदारी है न. क्यों कोई आप के प्यार और अपनत्व का तिरस्कार करता रहे, क्यों आप के वात्सल्य और स्नेह को कोई अपनी जागीर ही समझ कर जब चाहे पैर के नीचे रौंद दे और जब चाहे जरा सा पुचकार दे.

‘‘अब छोटा बच्चा नहीं है वह कि तुम हाथ खींच लोगी तो मर जाएगा. 2 बच्चों का बाप है. अपने आलीशान घर में रहता है. तुम्हारे घर से कहीं बड़ा घर है उस का. क्या कभी बुलाता है वह तुम्हें? क्या तुम से कभी पूछता है वह कि तुम जिंदा हो या मर गईं?

‘‘उसे उतना ही महत्त्व दो जिस के वह लायक है. संकरे बर्तन में ज्यादा वस्तु डाली जाए तो वह छलक कर बाहर निकलती है. यह इनसानी फितरत है बच्ची, पास पड़ी शह की मनुष्य कद्र नहीं करता. जो मिल जाए वह मिट्टी और जो खो जाए वह सोना, तो सोना बनो न पगली…मिट्टी क्यों बनती हो?’’

चुप हो गए पापा. शायद बूआ पर नींद की गोली का असर हो चुका है. गहरी पीड़ा में हैं बूआ. क्षमता से ज्यादा जो सह चुकी हैं.

फूफाजी और पापा बाहर चले आए. हमारा पूरा परिवार बूआ की वजह से दुखी है. निर्णय हुआ कि कुछ दिन दोनों राहुल के पास बंगलौर चले जाएंगे इस माहौल से दूर. शायद जगह बदल कर बूआ को अच्छा लगे.

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हफ्ता भर बीत चुका है. अब मैं अपने नाराज चल रहे मित्र की तरफ देखता ही नहीं हूं. जरूरी बात भी नहीं करता. पास से निकल जाता हूं जैसे उसे देखा ही नहीं. पहले उस के लिए रोज जूस मंगवाता था, अब सिर्फ अपने ही लिए मंगवाता हूं. नतीजा क्या होगा मैं नहीं जानता मगर मैं चैन से हूं. कुंठा तंग नहीं करती, ऐसा लगता है अपनेआप पर दया कर रहा हूं. क्या करूं मेरे लिए भी तो मेरी कोई जिम्मेदारी बनती है न. पापा सच ही तो कह रहे थे, किसी के लिए मिट्टी भी क्यों बना जाए. सहज उपलब्ध हो कर क्यों अपना मान घटाया जाए. आखिर हमारे आत्मसम्मान के प्रति भी हमारी कोई जिम्मेदारी बनती है कि नहीं.

लड़ाई जारी है : भाग 3

‘भाभी, अगर आपके ऐसे ही विचार हैं तो क्यों यहाँ इसे लेकर डाक्टरी की परीक्षा दिलवाने लाई, अरे, कोई भी लड़का देखकर बाँध देती उससे…वह इसे चाहे जैसे भी रखता….’ मन कड़ा करके मनीषा ने कहा था .

भाभी कुछ बोल नहीं पाई थीं पर उस दिन के बाद से सुकन्या उसके और करीब आ गई थी, कोई भी परेशानी होती, उससे सलाह लेती . बाद में उसने सुकन्या को समझाते हुए कहा था,‘ बेटा, औरत का चरित्र एक ऐसा शीशा है जिस पर लगी जरा सी किरच पूरी जिंदगी को बदरंग कर देती है और फिर तेरी माँ तो गाँव की भोली-भाली औरत है, दुनिया की चकाचौंध से दूर…अपने आँचल के साये में फूल की तरह सहेज कर तुझे पाला है, तभी तो जरा से झटके से वह विचलित हो उठी हैं…. तू उसे समझने की कोशिश कर .’

भाभी सुकन्या को लेकर चली गईं . दादी ने जब सुकन्या के विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह मना नहीं कर पाईं . सुकन्या अपनी लड़ाई अपने आप लड़ रही थी . इसी बीच रिजल्ट निकल आया . सुकन्या का नाम मेडिकल के सफल प्रतियोगी की लिस्ट में पाकर दादाजी बेहद प्रसन्न हुये . दादी के विरोध के बावजूद उन्होंने उन्हें यह कर मना लिया,‘ जरा सोचो हमारी सुकन्या न केवल हमारे घर वरन् हमारे गाँव की पहली डाक्टर होगी . मेरा सीना तो गर्व से चौड़ा हो गया है .’

पिताजी के मन में द्वन्द था तो सिर्फ इतना कि सुकन्या शहर में अकेली कैसे रहेगी ? तब उसने कहा था,‘ सुकन्या गैर नहीं, मेरी भी बेटी है, अगर आप सबको आपत्ति है तो उसकी जिम्मेदारी मैं लेती हूँ  .’

संयोग से उसके शहर के मेडिकल कालेज में ही सुकन्या का एडमीशन हो गया . अनुराधा भी सुकन्या का हौसला बढ़ाने लगी पर माँ का वही हाल रहा .

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इसी बीच पिताजी चल बसे….सुकन्या टूट गई थी . एक वही तो थे जो उसका हौसला बढ़ाते थे वरना माँ के व्यंग्य बाण तो उसके कोमल मन को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे . पता नहीं किस जन्म का बैर वह उसके साथ निकाल रही थीं . उन्हें लगता था कि घर की सारी परेशानी की जड़ सुकन्या ही है, पढ़ लिख कर नाक ही कटवायेगी….. अनुराधा असमंजस में थी न वह सास को कुछ कह पाती थी और न ही बेटी का पक्ष ले पाती थी क्योंकि अगर वह ऐसा करती तो सुकन्या के साथ सास के व्यंग्यबाणों का शिकार उसे भी होना पड़ता था… . जल में रहकर मगर से बैर कैसे लेती…? धीरे-धीरे सुकन्या ने घर जाना बंद कर दिया जब भी छुट्टी मिलती वह उसके पास आ जाती थी .

‘ आपका गंतव्य आ गया .’  जी.पी.एस. ने सूचना दी .

मनीषा कार पार्क करके रिसेप्शनिस्ट से जानकारी लेकर, आई़.सी.यू. में पहुँची . उसे देखकर सुकन्या उसके पास आई तथा रूआँसे स्वर में बोली,‘ बुआ मेरी वजह से दादी की आज ये हालत है….’

‘ ऐसा नहीं सोचते बेटा, अगर तू नहीं होती तो हो सकता है, उनकी हालत और भी ज्यादा खराब हो जाती.’

विजिंटग आवर था अतः सुकन्या उसे लेकर आई.सी.यू में गई…

‘ पानी….’ दादी की आवाज सुनकर सुकन्या उन्हें चम्मच से पानी पिलाने लगी….

उसे देखकर माँ ने कुछ बोलना चाहा तो सुकन्या ने कहा,‘ दादी, आपकी तबियत ठीक नहीं है, आप कुछ मत बोलिये…. बुआ आप दादी के पास रहिये, मैं जरा डाक्टर से मिलकर आती हूँ .’

माँ की आँखों से बहते आँसू न चाहते हुये भी बहुत कुछ कह गये थे वरना जिस तरह का सीवियर अटैक आया था, अगर उन्हें तुरंत सहायता नहीं मिली होती तो न जाने क्या होता… जो माँ  कभी उसकी पढ़ाई की विरोधी थीं वही आज उसे दुआयें देती प्रतीत हो रही थीं .

विजिटिंग आवर समाप्त होते ही वह बाहर आई तथा अनुराधा भाभी के पास बैठ गई .

‘ दीदी, अगर सुकन्या न होती तो पता नहीं क्या हो जाता .’

‘ माँ दवा ले लो वरना तुम्हारी तबियत भी खराब हो जायेगी .’ सुकन्या पानी की बोतल के साथ माँ को दवाई देती हुई बोली . अनुराधा भाभी उसे ममत्व भरी निगाहों से देख रही थीं .

‘ लेकिन यह हुआ कैसे ?’ मनीषा ने पूछा .

‘ दीदी, माँ ने सुकन्या को बुलाया था . इस बार वह उनकी बात मानकर आ भी गई . उसके आते ही माँ ने उसके विवाह की बात छेड़ दी . जब उसने कहा कि अभी मैं तीन चार वर्ष विवाह के लिये सोच भी भी नहीं सकती क्योंकि मुझे पी.जी. करनी है . उसकी बात सुनकर वह बहुत नाराज हुईं . अचानक उनका शरीर पसीने से लथपथ हो गया तथा वह अपना सीना कसकर दबाने लगीं . सुकन्या उनकी दशा देखकर घबड़ा गई, उसने उन्हें चैक कराना चाहा तो माँ ने उसे झटक दिया…. तब सुकन्या ने रोते हुये कहा दादी प्लीज मुझे अपना इलाज करने दीजिये, अगर आपको कुछ हो गया तो मैं स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाऊँगी .

माँ को हार्ट अटैक आया है . सुकन्या ने उन्हें वहीं दवा देकर स्थिति पर काबू पाया . उसने तुरंत हेल्पलाइन नम्बर मिलाकर अपनी परेशानी फोन उठाने वाले व्यक्ति को बताकर तुरंत एम्बुलेंस भिवानी की प्रार्थना की . उस भले मानस ने एम्बुलेंस भेज दी वरना कोरोना वायरस द्वारा हुये लॉक  डाउन के कारण आना ही मुश्किल हो जाता . जैसे ही हम चले , सुकन्या ने अस्पताल में किसी से बात की, उसकी पहचान के कारण तुरंत माँजी को एडमिट कर डाक्टरों ने उनकी चिकित्सा प्रारंभ कर दी . दीदी, सुकन्या ने तबसे पलक भी नहीं झपकाई है . समय पर दवा देना, लाना सब वही कर रही है . दीदी, उचित चिकित्सा के अभाव में पिताजी को तो बचा नहीं पाये पर माँ को नहीं खोना चाहती हूँ .’ भाभी के दिल का दर्द जुबान पर आ गया था .

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सुदेश की वजह से उसका रोज जाना तो नहीं हो पा रहा था पर फोन से हालचाल लेती रहती थी .  माँ ठीक हो रही हैं, सुनकर उसे संतोष मिलता . आखिर  सुदेश का क्वारेंन्टाइन भी पूरा हो गया था . सब ठीक रहा . माँ को भी अस्पताल से छुट्टी मिल गईं . माँ अभी काफी कमजोर थीं . सुकन्या को अपनी सेवा करता देख एक दिन वह उसका हाथ पकड़कर बोलीं,‘ बेटी मुझे क्षमा कर दे . मैंने तुझे सदा गलत समझा, बार-बार तुझे रोका टोका….’

‘ दादी प्लीज, आप दिल पर कोई बात न लें, अभी आप कमजोर हैं, आप आराम करें .’

‘ मुझे कुछ नहीं होगा बेटा, गलती मेरी ही है जो सदा अपने विचार तुझ पर थोपती रही…मैंने क्या-क्या नहीं कहा तुझे, पर तूने मेरी जान बचाई…मुझे नाज है तुझ पर….’ माँ ने कमजोर आवाज में उसे देखते हुये कहा .

‘ प्लीज दादी, अभी आपको आराम की विशेष आवश्यकता है….यह दवा ले लीजिए और सोने की कोशिश कीजिये .’ हाथ के सहारे माँ को उठाकर दवा खिलाते हुये सुकन्या ने कहा

माँ की तीमारदारी के साथ, इधर-उधर भागदौड़ करती, गाँव की भोली -भाली लड़की सुकन्या को अदम्य आत्मविश्वास से माँ की सेवा करते देख मनीषा सोच रही थी कि अगर मन में लगन हो तो औरत क्या नहीं कर सकती…!! उसे दया आती है उन दम्पत्तियों पर जो बेटों के लिये बेटियों का गर्भ में ही नाश कर देते हैं . वह क्यों भूल जाते हैं…बचपन से लेकर मृत्यु तक विभिन्न रूपों में समाज की सेवा में लगी नारी  हर रूप में अतुलनीय है . बदलते समय के साथ  सुकन्या जैसी नारियाँ अपने आत्मबल से आज समाज द्वारा निर्मित लक्ष्मण रेखा को तोड़ने में काफी हद तक कामयाब हो रही हैं…यह बात अलग है कि आज भी पुरूष तो पुरूष स्वयं स्त्रियाँ भी, ऐसी स्त्रियों के मार्ग में काँटे बिछा रही हैं….फिर भी लड़ाई जारी है की तर्ज पर ये लड़कियाँ आज अपना अस्तित्व कायम करने के लिये तत्पर हैं और करती रहेंगी…

लड़ाई जारी है : भाग 2

मेट्रिक में सुकन्या के 95 प्रतिशत अंक आये तो उसने भी डाक्टर बनने की अपनी इच्छा दादाजी के सामने प्रकट की . दादाजी जब तक कुछ कहते दादी कह उठीं,‘ लड़कियों को शिक्षा इसलिये दी जाती है जिससे उनका विवाह उचित जगह हो सके . कोई आवश्यकता नहीं डाक्टरी पढ़ने की…घर के काम में मन लगा, घर संभालने में तेरी पढ़ाई नहीं वरन् तेरी घर संभालने की योग्यता ही काम आयेगी .’

‘अरे भाग्यवान, अब समय बदल गया है, आजकल लड़कियाँ भी लड़कों की तरह पढ़ रही हैं और घर भी संभाल रही हैं . मनीषा तेरी वजह से ज्यादा नहीं पढ़ पाई किन्तु ससुराल में अपनी पढ़ाई पूरी कर कितने ही छात्रों को विद्यादान दे रही है . अपनी बहू की देख अगर यह पढ़ी होती तो क्या तेरे कटु वचन सुनती !! यह भी मनीषा की तरह ही नौकरी करते हुये अपने बच्चों का भविष्य संवार रही होती . मेट्रिक में हमारे घर में किसी के इतने अच्छे अंक नहीं आये जितने मेरी पोती के आये हैं…इसके बावजूद तुम ऐसा कह रही हो .’

‘ लड़की जात है ज्यादा सिर पर मत चढ़ाओ, बाद में पछताओगे .’ दादी बड़बड़ाती हुई अंदर चली गईं .

दादाजी बहुत दिनों से अम्माजी का सुकन्या के साथ रूखा व्यवहार देख रहे थे आज वह स्वयं पर संयम न रख पाये तथा दिल की बात जुबां पर आ ही गई . उन्होंने सुकन्या को उसकी इच्छानुसार मेडिकल में जाने के लिये अपनी स्वीकृति दे दी .

दादाजी से हरी झंडी मिलते ही सुकन्या ने बारहवीं की पढ़ाई करते हुये मेडिकल की तैयारी प्रारंभ कर दी . इसके लिये शहर से किताबें भी मँगवा लीं थीं . समय पर फार्म भी भर दिया . आखिर वह दिन भी आ गया जब उसे परीक्षा देने जाना था . वह अपने दादाजी के साथ परीक्षा देने जाने वाली थी कि अचानक दादी की तबियत खराब हो गई, आखिर दादाजी ने मनीषा को फोन कर अपने नौकर के साथ अनुराधा और सुकन्या को भेज दिया . साथ ही कहा बेटा, अगर तू न होती तो ऐसे अकेले इतने बड़े शहर में बहू को कभी अकेला न भेजता . उसने भी उन्हें चिंता न करने का आश्वासन दे दिया .

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परीक्षा वाले दिन मनीषा उसे परीक्षा सेंटर पर छोड़ने जाने लगी तो अनुराधा ने सुकन्या को दही चीनी खिलाते हुए  कहा,‘  बड़ा शहर है, अकेले इधर-उधर मत जाना…परीक्षा के बाद भी जब तक चंद्रेश, न पहुँच जाये तब तक इंतजार करना .’

मनीषा की एक मीटिंग थी जिसकी वजह से उसने चंद्रेश, अपने पुत्र को सुकन्या को एक्जामिनेशन सेंटर से लाने के लिये कह दिया था . शाम को परीक्षा समाप्त होने पर सुकन्या नियत स्थान पर खड़ी हो गई . लड़के-लड़कियाँ अपने-अपने घरों की ओर चल दिये . दस मिनट बीता, पंद्रह मिनट बीते…यहाँ तक कि आधा घंटा बीत गया . स्कूल का परिसर खाली होने लगा था…सूना परिसर उसे डराने लगा था . सुकन्या ने सोचा कि लगता हैं भइया किसी काम में फँस गये होंगे आखिर कब तक वह इसी तरह खडी रहेगी…!! शहर की भीड़-भाड़, चकाचौंध उसे आश्चर्यचकित कर रहे थे . गाँव से अलग एक नई दुनिया नजर आ रही थी . यहाँ लड़के -लड़कियाँ अपने स्कूटर से स्वयं आना जाना कर रहे थे जिनके पास स्वयं के वाहन नहीं थे ,वे आटो से जा रहे थे . अचानक उसे लगा अगर वह शहर की आत्मनिर्भर लड़कियों की तरह नहीं बन पाई तो पिछड़ जायेगी . कुछ हासिल करना है, तो हर परिस्थिति का मुकाबला करना होगा …  डर-डर कर नहीं वरन् हिम्मत से काम लेना होगा तभी वह जीवन में अपना लक्ष्य प्राप्त कर पायेगी .

बुआ का पता उसके पास ही था उसने आटो किया और चल दी . चंद्रेश वहाँ पहुँचा , सुकन्या को नियत स्थान पर न पाकर पूरे कालेज का चक्कर लगाकर घर पहुँचा .  उसे अकेले आया देखकर अनुराधा भाभी के तो होश ही उड़ गये . पहली बार सुकन्या घर से बाहर निकली है…इतना बड़ा शहर, पता नहीं कहाँ चली गई…? परीक्षा में मोबाइल ले जाना मना था अतः वह मोबाइल भी नहीं ले गई थी .

सुदेश चंद्रेश को डाँटने लगे कि वह समय पर क्यों नहीं पहुँचा . वह बेचारा भी सिर झुकाये बैठा था . वह करता भी तो क्या करता, ट्रेफिक जाम में ऐसा फँसा कि चाहकर भी समय पर नहीं पहुँच पाया . उसने तो सुकन्या से कहा भी था कि अगर देर भी हो जाये तो उसका इंतजार कर लेना पर उसके पहुँचने से पूर्व ही चली गई . इसी बीच मनीषा आ गई . मनीषा ने चंद्रेश को एक बार फिर सुकन्या को देखकर आने के लिये कहा . अनुराधा भाभी रोये जा रही थी…मनीषा भी डर गई थी पर भाभी को समझाने के अतिरिक्त कर भी क्या सकती थी . चंद्रेश जाने ही वाला था कि घंटी बजी . दरवाजा खोलते ही सुकन्या ने अंदर प्रवेश किया उसे देखकर भाभी तो मानो पागल हो उठी…

वह उसे मारती जा रही थीं तथा कह रही थीं,‘ अकेले क्यों आई ? कुछ और देर इंतजार नहीं कर सकती थी…कहीं कुछ हो जाता तो मैं क्या जबाब देती तेरे दादाजी को….बस हो गई पढ़ाई, नहीं बनाना तुझे डाक्टर, बस तेरा विवाह कर दूँ , मुझे मुक्ति मिल जाए .’

सुदेश अनुराधा के इस अप्रत्याशित रूप को देखकर अवाक् थे वहीं मनीषा ने भाभी की मनःस्थिति समझकर उन्हें शांत कराने का प्रयत्न करने लगी…इसके बावजूद भाभी स्वयं पर काबू नही रख पा रही थीं .

सुकन्या उससे लिपटकर रोती हुई कह रही थी,‘ बुआ, आखिर गलती क्या है मेरी, कब तक मैं किसी की बैसाखी के सहारे चलती रहूँगी…? आखिर ये बंदिशें सिर्फ लड़की के लिये ही क्यों हैं..? क्यों उसे ही सदा अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है…? मैं लड़की हूँ इसलिये मुझे शहर पढ़ने के लिये नहीं भेजा गया…गाँव के ही स्कूल में मैंने जैसे तैसे पढ़ा जबकि मुझसे दो वर्ष छोटा भाई, उसे इंजीनियर बनना है इसलिये उसका शहर के अच्छे स्कूल दाखिला करवा दिया . वह हॉस्टल में रहता है, अकेले आता जाता है, उस पर तो कोई बंदिश नहीं है….फिर मुझ पर क्यों ?’

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‘ भाभी, सुकन्या छोटी नहीं है, उसे अच्छे, बुरे का ज्ञान है . कब तक उसे अपने आँचल से बाँधकर रखोगी ? मुक्त कर दो उसे इन बंधनों से…तभी वह जीवन में कुछ कर पायेगी . क्या तुम चाहती हो कि वह भी तुम्हारी तरह ही घुट-घुट कर जीये…जिसके पल्लू से तुम उसे बाँध दो, उसी पर अपनी पूरी जिंदगी अर्पित कर दे . अपना अच्छा बुरा भी न सोच पाये . भाभी तुमने तो अपनी जिंदगी काट ली पर भगवान न करे इसकी जिंदगी में कोई हादसा हो जाए तो….उसे आत्मनिर्भर बनने दो .’ कहकर मनीषा ने सुकन्या को अपनी बाहों में भर लिया था .

भाभी की परेशानी वह समझ सकती थी . वह उन्हें ठेस नहीं पहुँचना चाहती थी पर उस समय अगर भाभी का पक्ष लेती तो सुकन्या के आत्मविश्वास और भावना को ही चोट पहुँचती जिससे वह अपने लक्ष्य से भटक सकती थी . वह उसे टूटते हुये नहीं वरन् सफल होते देखना चाहती थी तथा यह भी जानती थी कि सुकन्या का पक्ष लेना भाभी को खटकेगा, हुआ भी यही…अनुराधा भाभी आश्चर्य से उसकी ओर देखती रह गई, फिर धीरे से बोली,‘ दीदी, आपके दोनों बेटे हैं, आप नहीं समझ पाओगी, लड़की की माँ का दिल…..’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

लड़ाई जारी है : भाग 1

‘बुआ, दादीं की तबियत ठीक नहीं है . वह तो एम्बुलेंस मिल गई वरना लॉक डाउन के कारण आना भी कठिन हो जाता . उन्हें मेडिकल कॉलेज में एडमिट करवा दिया है . पल्लव भी नहीं आ पा रहा है, माँ को तो आप जानती ही है, ऐसी स्थिति में नर्वस हो जाया करती हैं, यदि आप आ जायें तो….’ फोन पर परेशान सी सुकन्या ने कहा .

क्या, माँ बीमार है…पहले क्यों नहीं बताया ? शब्द निकलने को आतुर थे कि मनीषा ने अपनी शिकायत मन में दबाकर कहा …

‘ तू चिंता मत कर, मैं शीध्र से शीध्र पहुँचने का प्रयत्न करती हूँ….’

सुदेश जो आफिशियल कार्य से विदेश गये थे,  कल ही लौटे थे . उन्हें चौदह दिन का क्वारेंन्टाइन पूरा करना है . मनीषा ने उनके लिये खाना, पानी तथा फल इत्यादि कमरे के दरवाजे पर रखे स्टूल पर रख दिया तथा सुकन्या की बात उन्हें बताते हुये उनसे कहा कि वह जल्दी से जल्दी घर लौटने का प्रयत्न करेगी . आवश्यकता के समय लॉक डाउन में एक व्यक्ति तो जा ही सकता है…सोचकर उसने गाड़ी निकाली और चल पड़ी…. गाड़ी के चलने के साथ ही बिगड़ैल बच्चे की तरह मन अतीत की ओर चल पड़ा….

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सुकन्या, उसकी पुत्री न होकर भी उसके दिल के बहुत करीब है . वह उसके भाई शशांक और अनुराधा भाभी की पहली संतान है . घर में बीस वर्ष पश्चात् जब बेटी ने जन्म लिया तो सिवाय माँ के सबने उसका उत्साह से स्वागत किया था . भाई की तो वह आँखों का तारा थी….नटखट और चुलबुली….अनुप्रिया भाभी के लिये वह खिलौना थी . माँ की एक ही रट थी कि उन्हें घर का वारिस चाहिये . उनकी जिद का परिणाम था कि एक वर्ष पश्चात् वारिस आ भी गया . माँ तो पल्लव के आने से अत्यंत प्रसन्न हुई . भाभी पल्लव का सारा काम करके यदि सुकन्या की ओर ध्यान देती तो माँ खीज कर कहती, ‘न जाने कैसी माँ है, जो बेटे पर ध्यान ही नहीं देती है, अरे, बेटी तो पराया धन है, ज्यादा लाड़ जतायेगी तो बाद में पछतायेगी….’

‘ माँ इसीलिये तो इसे ज्यादा प्यार देना चाहती हूँ . बेटा तो सदा मेरे पास रहेगा…तब इसके हिस्से का प्यार भी तो वही पायेगा….’ कहकर वह मुस्करा देती और माँ खीजकर रह जाती .

कहते हैं कि खुशी की मियाद कम होती है, यही भाभी के साथ हुआ…तीस वर्ष की कमसिन उम्र में ही राजन भइया दो फूल उनकी झोली में डाल कर, एक एक्सीडेंट में चल बसे . भाभी की अच्छी भली जिंदगी बदरंग हो गई थी . कच्ची उम्र में विवाह हो जाने के कारण, भाभी की शिक्षा अधूरी रह गई थीं . मामूली नौकरी कर शहर में रहना पिताजी, उनके ससुरजी को नहीं भाया था . वैसे भी वे उन लोगों में थे जिन्हें औरतों का घर से निकलना पसंद नहीं था .

पिताजी भाभी और बच्चों को अपने साथ गाँव ले आये . यह सच है कि उन्होने भाभी को किसी तरह की कमी नहीं होने दी किन्तु माँ उन्हें सदा भाई की मृत्यु का दोषी मानतीं रहीं इसलिये उनके कोप का भाजन भाभी के साथ नन्हीं सुकन्या भी होती . यह सब पापा की अनुपस्थिति में होता…नतीजा यह हुआ कि भाभी तो चुप हो ही गई जबकि नन्हीं दस वर्षीया सुकन्या डरी-डरी अपने ही अंतःकवच में कैद होने लगी थी .

पिताजी के सामने खुश रहने का नाटक करते-करते भाभी थक गई थीं . रात के अँधेरे में मन चीत्कार कर उठता तो वह अवश बैठी चीत्कार को मन ही मन में दबाते हुए अपनी खुशी सुकन्या और पल्लव में ढूँढने का प्रयास करती . उसकी जिंदगी एक ऐसी कटी पतंग के समान बन गई थी जिसकी कोई मंजिल नहीं थी…बस दूसरों की सोच एवं सहारे जीना ही उनका आदि और अंत हो चला था . ससुराल के अलावा उनका कोई और था भी नहीं, माता पिता बचपन में चल बसे थे, जिन चाचा ने उन्हें पाला पोसा, विवाह किया, वे भी नहीं रहे थे . चाची अपने बेटों के सहारे जीवन बसर कर रही थीं . शशांक भाई की मृत्यु पर वह शोक जताने आई थीं…साथ में अपनी विवशता भी जता गईं . आज के युग में जब अपने भी पराये हो जाते हैं तो किसी अन्य से क्या आशा…!! भाभी ने स्वयं को वक्त के हाथों सौंप दिया था.

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जब भी मनीषा जाती तो भाभी दिल का दर्द उसके साथ बाँटकर हल्की हो लेती थी . भाभी के लाइलाज दर्द को वह भी कैसे कम कर पाती…? माँ से इस संदर्भ में बात करती तो वह कह देतीं कि तू अपना घर देख, मुझे अपना घर देखने दे . वह पापा को सारी बातें बताकर घर में दरार नहीं डालना चाहती थी अतः चुप ही रहती .

माँ सदा से ही डोमिनेंटिग थी . उन्हीं की इच्छा के कारण वह भी ज्यादा नहीं पढ़ पाई थी किन्तु उसका भाग्य अच्छा था जो पिता की मजबूत स्थिति के कारण उसके ससुर ने अपने आई.आई.टियन बेटे के लिए न केवल उसे चुना वरन उसकी इच्छानुसार पढ़ने की इजाजत भी दी थी . आज वह पी.एच.डी करके महिला विद्यालय में प्रोफेसर है .

पल्लव अपने पिता के समान तीक्ष्ण बुद्धि का था . वह इंजीनियर बनना चाहता था . जब वह पढ़ने बैठता तो दादी का प्यार उस पर उमड़ आता . वह स्वयं उसे अपने हाथ से खिलातीं जबकि सुकन्या को कुछ खिलाना तो दूर, जब भी वह पढ़ने बैठती, माँ कहतीं,‘ अरे, घर का काम सीख, किताबों में आँखें न फोड़, हमारे घर की लड़कियाँ नौकरी नहीं करतीं, हाँ, ससुराल वाले करवाना चाहें तो बात दूसरी है .’

एक बार मनीषा घर गई…सुकन्या सो गई थी तथा ननद भाभी अपने सुख-दुख बाँट रहीं थीं तभी सुकन्या बड़बड़ाने लगी…मुझे कोई प्यार क्यों नहीं करता…मुझे कोई प्यार नहीं करता … है भगवान मुझे पैदा ही क्यों किया…इसके साथ ही उसका पूरा शरीर पसीने से लथ-पथ हो गया था…. अस्फुट स्वर में कहे उसके शब्द मनीषा के मर्म को चोट पहुंचाने लगे . उसकी ऐसी हालत देखकर मनीषा ने अनुराधा से पूछा तो उसने कहा पिछले एक वर्ष से इसकी यही हालत है दीदी…शायद माँजी के व्यवहार ने इसे भयभीत कर दिया है . यह डरपोक और दब्बू बनती जा रही है…अब तो बात करने में हकलाने भी लगी है .

सुकन्या की हालत देखकर मनीषा ने माँ को समझाते हुये कहा, ‘ माँ तुम्हारा अपने प्रति ऐसा रवैया मैं आज तक नहीं भूली हूँ …. सुकन्या तुम्हारी पोती है तुम्हारे बेटे का अंश…. क्या तुम उसे दुख पहुँचकर अपने बेटे की स्मृतियों के साथ छल नहीं कर रही हो…? अगर भइया आज जीवित होते तो क्या वह अपनी बेटी के साथ तुम्हारा व्यवहार सह पाते ?  इस बच्ची से तुमने इसकी सारी मासूमियत छीन ली है…देखो कैसी डरी, सहमी रहती है . भाई की असामयिक मृत्यु तथा तुम्हारी प्रताड़ना से भाभी का जीवन तो बदरंग बन ही गया है, अब इस मासूम का जीवन बदरंग मत बनाओ .’

‘ तू अपनी सीख अपने पास ही रख, मुझे शिक्षा मत दे….’ तीखे स्वर में माँ ने कहा .

‘ माँ अब मैं पहले वाली मनीषा नहीं हूँ, मुझे पता है पापा को कुछ पता नहीं होगा…मैं तुम्हारी सारी बातें पापा को बता दूँगी .’

मनीषा की धमकी काम आई थी . माँ का सुकन्या के प्रति रवैया बदला था किन्तु अनु भाभी पर माँ बेटी में दरार डालने का आरोप भी लगा दिया .

मनीषा ने जाते हुए पल्लवी से कहा था, ‘बेटा, रो-रोकर जिंदगी नहीं जीई जाती…मेहनत कर…पढ़ाई में मन लगा, अच्छे नम्बर ला…. जब तू कुछ बन जायेगी तो तेरी यही दादी तुझे प्यार करेंगी . वह तुझे कमजोर करने के लिये नहीं वरन् मजबूत बनाने के लिये डाँटती हैं .’

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मनीषा ने उसके नन्हें दिल में विश्वास की नन्हीं लौ जगाई थी . वह जानती थी कि वह झूठ बोल रही है पर सुकन्या में आशा का संचार करने के लिये उसे यही उपाय समझ में आया था . सुकन्या ने उसकी बात कितनी समझी किन्तु अनुराधा कहती कि अब वह पढ़ाई में मन लगाने लगी है .

परिस्थतियों ने पल्लव को समय से पहले परिपक्व बना दिया था . पल्लव अपने पापा के समान इंजीनियर बनना चाहता था अतः दादाजी ने उसका दाखिला शहर के बोर्डिंग स्कूल में करवा दिया था . सुकन्या भी धीरे-धीरे अपने डर से निजात पाकर पढाई में मन लगाने की कोशिश करने लगी थी .

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

राजनीति का डीएनए : भाग 3

पिछले अंकों में आप ने पढ़ा:

शादीशुदा रूपमती का सूरजभान के साथ चक्कर चल रहा था. सूरजभान भी शादीशुदा था और उस ने रूपमती के पति अवध को शराब की लत लगा दी थी. जब सूरजभान की पत्नी अनुपमा को इस नाजायज संबंध का पता चला, तो उस ने अपने नौकर दारा से रूपमती को सबक सिखाने के लिए कहा.

अब पढ़िए आगे…

एक रात रूपमती ने सूरजभान से कहा, ‘‘मेरा मरद तो अब किसी काम का है नहीं. अब तो वह हमें साथ देख लेने के बाद भी चुप रहता है. वह तो शराब का गुलाम हो चुका है. उस ने शराब पीने में खेतीबारी बेच दी. तुम ने उसे जुए की लत में ऐसा उलझाया कि यह घर तक गिरवी रखवा दिया. कम से कम अब तो मुझे औलाद का सुख मिलना चाहिए. आज की रात मुझे तुम से औलाद का बीज चाहिए.’’

सूरजभान ने रूपमती की बंजर जमीन में अपने बीज डाल दिए.

सुबह सूरजभान के निकलते ही दारा शराब की बोतल ले कर वहां पहुंचा और उस ने अवध को जगाया.

‘‘तुम्हारा मालिक तो चला गया,’’ अवध ने दरवाजा खोल कर कहा.

‘‘हां, लेकिन उन्होंने तुम्हारे लिए शराब भेजी है,’’ दारा ने शराब की बोतल थमाते हुए कहा.

‘‘अरे वाह, क्या बात है तुम्हारे मालिक की,’’ कह कर अवध ने बोतल मुंह से लगा ली.

थोड़ी ही देर में शराब में मिला जहर असर दिखाने लगा. अवध को जलन से भयंकर पीड़ा होने लगी. वह कसमसाने लगा, लेकिन ज्यादा नशे के चलते उस के मुंह से आवाज तक नहीं निकल पा रही थी. वह उसी हालत में तड़पता रहा और हमेशा के लिए सो गया.

दारा ने सोचा तो यह था कि रूपमती के पति की हत्या के आरोप में सूरजभान जेल चले जाएंगे और वह मालकिन के शरीर का मालिक बनेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

दरअसल, रूपमती ने दारा को शराब की बोतल देते हुए देख लिया था. वह समझ चुकी थी कि सूरजभान का खानदान उस के पीछे लग चुका है और उस की जान को भी खतरा हो सकता है.

रूपमती ने सूरजभान को बताया, तो उस ने कहा, ‘‘तुम यहां से कहीं दूर चली जाओ और अपनी नई जिंदगी शुरू करो. मैं तुम्हें हर महीने रुपए भेजता रहूंगा. अगर तुम्हारी कोई औलाद हुई, तो उस की जिम्मेदारी भी मेरी. लेकिन ध्यान रखना कि भूल कर भी मेरा नाम नहीं आना चाहिए.’’

अपनी जान के डर से रूपमती को दूर शहर में जाना पड़ा. जाने से पहले वह अपने पति के कातिल दारा को जेल भिजवा चुकी थी. सूरजभान या उस की पत्नी अनुपमा ने उसे बचाने की कोई कोशिश नहीं की थी.

वजह, चुनाव होने वाले थे. वे दारा से मिलने या उसे बचाने की कोशिश में जनता के साथसाथ विपक्ष को भी कोई होहल्ला मचाने का मौका नहीं देना चाहते थे.

इस के बाद सूरजभान की जिंदगी में न जाने कितनी रूपमती आई होंगी. अब वह राजनीति का उभरता सितारा था. अपने पिता की विरासत को गांव की सरपंची से निकाल कर वह लोकसभा तक में कामयाबी के झंडे गाड़ चुका था. उस के काम से खुश हो कर पार्टी ने उसे मंत्री पद भी दे दिया था.

इतना लंबा सफर तय करने में कितने लोग मारे गए, कितनी बेईमानियां, कितने घोटाले, कितने दंगेफसाद, कितने झूठ, कितने पाप करने पड़े, खुद सूरजभान को भी याद नहीं.

आज सूरजभान 70 साल का बूढ़ा हो चुका था. उसे याद रहा तो सिर्फ इतना कि एक रूपमती थी. एक अवध था. वह पत्नी अनुपमा को एक बार मुख्यमंत्री के बिस्तर पर भी भेज चुका था.

राजनीति का ताज पहनने के लिए सूरजभान ने अपनी पत्नी को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया था. उस का बेटा विदेश में बस चुका था.

सूरजभान को यह भी याद था कि विधानपरिषद में मंत्री चुने जाने के बाद दूसरी बार जब वह मंत्री चुना गया था, तब वह अनुपमा के पास गया था. तब उस ने वहां दारा को देखा था. दारा ने उस के पैर छुए थे.

सूरजभान ने अनुपमा से पूछा था कि दारा यहां कैसे? तो उस ने जवाब दिया था, ‘‘मेरे कहने पर ही इस ने अवध की हत्या की थी, तो मेरा फर्ज बनता है कि मैं इसे पनाह दूं.

सूरजभान कुछ नहीं बोला. वह फिर कभी अनुपमा से मिलने नहीं गया. रही सीढ़ी की बात, तो वह जानता था कि राजनीति में ऊपर उठने के लिए चाहे हजारों को सीढ़ी बना कर इस्तेमाल करो, लेकिन उतरने की जरूरत नहीं पड़ती.

सूरजभान का सब से मुश्किल भरा समय था मुमताज कांड. तब उस की काफी बदनामी हुई थी. हाईकमान ने यह कह कर फटकारा था कि या तो इस मामले को निबटाइए या इस्तीफा दे दीजिए. पार्टी की बदनामी हो रही है.

मुमताज की उम्र महज 23 साल थी. खूबसूरत, नाजुक अदाएं, लटकेझटकों से भरपूर. कालेज अध्यक्ष का चुनाव जीत कर वह खुश थी.

वह सूरजभान से मिलने आई. सूरजभान ने आशीर्वाद दिया, बधाई दी और अकेले में भोजन पर बुलाया.

भोजन के समय सूरजभान ने पूछा, ‘‘यह तो हुई तुम्हारी मेहनत की जीत. आगे बढ़ना है या बस यहीं तक?’’

‘‘नहीं सर, आगे बढ़ना है,’’

‘‘गौडफादर के बिना आगे बढ़ना मुश्किल है.’’

‘‘सर, अगर आप का आशीर्वाद रहा तो…’’

‘‘नगरनिगम के चुनाव के बाद महापौर, फिर विधायक और मंत्री पद भी.’’

‘‘क्या सर, मैं ये सब भी बन सकती हूं?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

‘‘यह तो तुम पर है कि तुम कितना समझौता करती हो.’’

‘‘सर, मैं कुछ भी कर सकती हूं.’’

‘‘कुछ भी नहीं, सबकुछ.’’

‘‘हां सर, सबकुछ.’’

‘‘तो कुछ कर के दिखाओ.’’

मुमताज समझ गई कि उसे क्या करना है. उसी रात भोजन के बाद वह सूरजभान के बिस्तर पर थी.

लेकिन, जब मुमताज को लगा कि उसे झूठे सपने दिखाए जा रहे हैं, तो उस ने शिकायत की, ‘‘मुझे विधायक का टिकट चाहिए.’’

सूरजभान ने समझाया, ‘‘देखो, तुम पहले नगरनिगम का चुनाव लड़ो. पार्टी में कई सीनियर नेता हैं. उन्हें टिकट न देने पर पार्टी में असंतोष फैलेगा. मुझे सब का ध्यान रखना पड़ता है. फिर हमें भी हाईकमान का फैसला मानना पड़ता है. सबकुछ मेरे हाथ में नहीं है.’’

वह चीख पड़ी, ‘‘सबकुछ आप के हाथ में ही है. आप चाहते ही नहीं कि मैं आगे बढूं. मैं ने अपना जिस्म आप को सौंप दिया. आप को अपना सबकुछ माना. आप पर भरोसा किया और आप मुझे धोखा दे रहे हैं.’’

‘‘इस में धोखे की क्या बात है? चाहो तो मैं तुम्हारे अकाउंट में 5-10 करोड़ रुपए जमा करवा दूं.’’

लेकिन, मुमताज को सत्ता की हवस थी. जब उस ने बारबार अपना शरीर देने की बात कही, तो सूरजभान को गुस्सा आ गया. वह चीख पड़ा, ‘‘क्या कीमत है तुम्हारे जिस्म की? मैं तुम्हें करोड़ों रुपए दे रहा हूं. बाजार में हजार भी नहीं मिलते. शादी कर के घर बसाती, तो 5-10 लाख रुपए दहेज देती, तब कहीं जा कर कोई मिडिल क्लास लड़का मिलता.’’

मुमताज ने सूरजभान की नाराजगी देख कर कहा, ‘‘मैं ने आप की रासलीला को कैमरे में कैद कर लिया है. मैं आप का राजनीतिक कैरियर तो तबाह करूंगी ही, दूसरी पार्टी से पैसे और चुनाव का टिकट भी लूंगी.’’

बस, फिर क्या था. दूसरे दिन ही मुमताज की लाश मिली. खूब हल्ला हुआ. सूरजभान पर सीबीआई का शिकंजा कसा. खूब थूथू हुई. उस के खिलाफ कोई सुबूत था नहीं, इसलिए वह बाइज्जत बरी हो गया.

एक और बात सूरजभान की यादों में बनी रही. जब वह पार्टी की एक महिला मंत्री, जिस की उम्र तकरीबन 40 साल रही होगी, के साथ अकेले डिनर पर था. उस ने पूछा था. ‘‘आप यहां तक कैसे पहुंचीं?’’

महिला मंत्री ने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया था, ‘‘औरत के लिए तो एक ही रास्ता रहता है. मैं जवान थी. खूबसूरत थी. पार्टी हाईकमान के बैडरूम से सफर शुरू किया और धीरेधीरे उन की जरूरत बन गई. उन की सारी कमजोरियां समझ लीं. वे मुझ पर निर्भर हो गए. लेकिन हां, कभी उन पर हावी होने की कोशिश नहीं की.

‘‘धीरेधीरे उन की नजरों में मैं चढ़ गई. एक चुनाव जीतने में उन की मदद ली, बाकी अपनी मेहनत.

‘‘हां, अब मैं जब चाहे अपनी पसंद के मर्द को बिस्तर तक लाती हूं. सब ताकत का, सत्ता का खेल है.’’

अब सूरजभान राजनीति का चाणक्य कहलाता था. वह राज्य सरकार से ले कर केंद्र सरकार में मंत्री पदों पर रह चुका था. जब उस की पार्टी की सरकार नहीं बनी, तब भी वह हजारों वोटों से चुनाव जीत कर विपक्ष का ताकतवर नेता होता था, लेकिन अब उस की उम्र ढल रही थी. नए नेता उभर कर आ रहे थे.

ऐसे में सूरजभान के पास संन्यास लेने के अलावा कोई चारा नहीं था. फिर भी पार्टी का वरिष्ठ नेता होने के चलते पार्टी उसे राष्ट्रपति का पद देने के लिए विचार कर रही थी.

तभी रूपमती ने नया धमाका किया. यह धमाका सूरजभान के लिए बड़ा सिरदर्द था. वह जानता था कि रूपमती एक चालाक औरत है. उस ने अपनी जवानी में अच्छेअच्छों को घायल किया था और बुढ़ापे में उस ने अपनी औलाद को ढाल बना कर इस्तेमाल किया.

वैसे, रूपमती के पास कहने को बहुतकुछ था. उस के पति की हत्या, सूरजभान के साथ उस के नाजायज संबंध वगैरह.

जब सूरजभान पहली बार मंत्री बना था, तो रूपमती उस से मिलने आई थी. उस ने तब डरते हुए कहा था, ‘‘अब आप के पास पैसा और ताकत दोनों हैं. आप मुझे कभी भी मरवा सकते हैं. मैं आज के बाद आप से कभी नहीं मिलूंगी. आप मुझे 5 करोड़ रुपए दे दीजिए, हर महीने का झंझट खत्म. आप का बेटा बड़ा हो रहा है. मैं शादी कर के कहीं ओर बस जाऊंगी.’’

सूरजभान ने भी सोचा कि चलो, पीछा छूट जाएगा. इस के बाद वह कभी नहीं आई.

आज जबकि पार्टी सूरजभान का नाम राष्ट्रपति पद के लिए तय कर चुकी थी, ऐसे में रूपमती का आरोप था कि उस के बेटे सुरेश का पिता सूरजभान है और वह उसे अपना बेटा स्वीकार करे.

इस में रूपमती का क्या फायदा हो सकता था? विरोधी पार्टी द्वारा मोटी रकम? क्या कोई राजनीतिक पद पाने की इच्छा? जब मीडिया में बातें होने लगीं, तो सूरजभान ने कहा, ‘‘मैं इस औरत को जानता तक नहीं. यह औरत झूठ बोल रही है.’’

रूपमती ने भी मीडिया को बताया,  ‘‘इस से मेरे पुराने संबंध थे. गांव की राजनीति शुरू करने से पहले.’’

सूरजभान ने बयान दिया, ‘‘यह उस के पति का बच्चा होगा. मेरा कैसे हो सकता है?’’

‘‘नहीं, यह बच्चा सूरजभान का ही है,’’ रूपमती ने जवाब दिया.

‘‘इतने दिनों बाद सुध कैसे आई?’’

‘‘बेटे को उस का हक दिलाने के लिए.’’

मामला कोर्ट में चला गया. अनुपमा ने भी पति सूरजभान का पक्ष लिया. उन का बेटा विदेश में था. उसे इन सब बातों की खबर थी, लेकिन वह क्या कहता?

अनुपमा से पूछने पर उस ने कहा,  ‘‘मेरे पति देवता हैं. उन्हें बदनाम करने की साजिश की जा रही है, ताकि वे राष्ट्रपति पद के दावेदार न रहें.’’

जब कोर्ट ने डीएनए टैस्ट कराने का आदेश दिया, तो सूरजभान समझ गया कि पुराने पाप सामने आ रहे हैं.

इतनी ऊंचाई पर पहुंचने के लिए पाप की जो सीढि़यां लगाई गई थीं, आज वही सीढि़यां ऊंचाई से उतार फेंकने के लिए कोई दूसरा लगा रहा है.

सूरजभान ने सोचा, ‘जितना पाना था, पा चुका. अब तो जिंदगी की कुरबानी भी देनी पड़ी, तो दूंगा. डीएनए टैस्ट हो गया, तो सब साफ हो जाएगा. इस से बचना मुश्किल है, क्योंकि अदालत, मीडिया तक बात जा चुकी है. विपक्ष हंगामा कर रहा है.’

सूरजभान ने बहुत सोचा, फिर एक चिट्ठी लिखी :

‘रूपमती नाम की औरत को मैं निजी तौर पर नहीं जानता. इस के बुरे दिनों में मैं ने इस के पति की कई बार पैसे से मदद की थी. एक दिन यह मुझ से मिलने आई और कहने लगी कि राष्ट्रपति के चुनाव से हट जाओ या सौ करोड़ रुपए दो. अगर मैं राष्ट्रपति पद से हटता हूं, तो यह मेरी पार्टी की बेइज्जती होगी.

‘मैं ने जिंदगीभर देश की सेवा की है. सेवक के पास सौ करोड़ रुपए कहां से आएंगे? पार्टी और जनसेवा मेरी जिंदगी का मकसद रहे हैं. मैं तो पूरे देश की जनता को अपनी औलाद मानता हूं.

‘देश के डेढ़ सौ करोड़ लोग मेरे भाई, मेरे बेटे ही तो हैं, तो इस का बेटा भी मेरा हुआ. पर मैं ब्लैकमेल होने के लिए राजी नहीं हूं. मुझे डीएनए टैस्ट कराने से भी एतराज नहीं है, लेकिन विपक्ष इस समय कई राज्यों में है. उस के लिए डीएनए रिपोर्ट बदलवाना कोई मुश्किल काम नहीं है. मेरे चलते पार्र्टी की इमेज मिट्टी में मिले, यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता.

‘रूपमती नाम की औरत झूठी है. यह विपक्ष की चाल है. मैं इस बुढ़ापे में तमाशा नहीं बनना चाहता. सो, जनहित, पार्टी हित और इस औरत द्वारा बारबार ब्लैकमेल किए जाने से दुखी हो कर अपनी जिंदगी को खत्म कर रहा हूं. जनता और पार्टी इस औरत को माफ कर दे. प्रशासन इस के खिलाफ कोई कदम न उठाए.’

दूसरे दिन सूरजभान जहर खा चुका था और रूपमती को पुलिस ने खुदकुशी के लिए मजबूर करने के आरोप में हिरासत में ले लिया.

पार्टी में शोक की लहर थी. जनता को अपने नेता के मरने का गहरा दुख हुआ. दाह संस्कार के बाद सूरजभान के बेटे को पार्टी प्रमुख ने महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी. बेटा अपने पिता की विरासत को संभालने के लिए तैयार था. जनता के सामने साफ था कि नेता के बेटे को हर हाल में चुनाव में भारी वोटों से जिताना है. यही उस की अपने महान नेता के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

सहानुभूति की इस लहर में सूरजभान का बेटा भारी वोटों से चुनाव जीता. सूरजभान के नाम पर शहर में मूर्तियां लगाई गईं.

राजनीति इसी को कहते हैं कि आदमी ठीक समय पर मरे, तो महान हो जाता है.

इस बार रूपमती नाकाम हो गई. उस की चालाकी इस दफा हार गई. क्यों न हो, राजनीतिबाजों से जीतना किसी के बस की बात नहीं. उन्हें तो केवल इस्तेमाल करना आता है. सूरजभान ने तो अपनी मौत तक को इस्तेमाल कर लिया था.

राजनीति का डीएनए : भाग 2

पिछले अंक में आप ने पढ़ा:

रूपमती बिस्तर पर अपने प्रेमी सूरजभान के साथ थी कि उस के पति अवध ने देख लिया. खुद को फंसती देख कर रूपमती ने सूरजभान पर इज्जत लूटने का इलजाम लगाया और अवध के सामने रोते हुए बताया कि सूरजभान उस के बेहूदा फोटो से उसे ब्लैकमेल कर रहा है.

अब पढ़िए आगे…

अवध चुप रहा, तो रूपमती ने फिर कहा ‘‘देखोजी, वह बहुत बड़ा आदमी है. तुम उसे कुछ कर दोगे, तो तुम्हें जेल हो जाएगी. फिर तो पूरा गांव मुझ अकेली के साथ न जाने क्याक्या करेगा. फिर तुम क्या करोगे? माफ करना सब से बड़ा धर्म है. तुम कल मेरे साथ चलना. वह फोटो भी देगा और माफी भी मांगेगा. खत्म करो बात.’’

अवध छोटा किसान था. उस में इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि वह गांव के सरपंच के बेटे का कुछ नुकसान भी कर सके. पुलिस और कोर्टकचहरी के नाम से उस की जान सूखती थी.

अवध ने कहा, ‘‘ठीक है. अगर फोटो वापस कर के वह माफी मांग लेता है, तो हम उसे माफ कर देंगे. और हम कर भी क्या सकते हैं?’’

रूपमती अवध की तरफ से निश्चिंत हो गई. उस ने सूरजभान को भी समझा दिया था कि शांति से मामला हल हो जाए, इसी में तीनों की भलाई है.

रूपमती पति और प्रेमी को आमनेसामने कर के देखना चाहती थी कि क्या नतीजा होता है. अगर वे दोनों अपनी मर्दानगी के घमंड में एकदूसरे पर हमला करते हैं, तो उस के हिसाब से वह अपनी कहानी आगे बढ़ाने के लिए तैयार रखेगी. पति मरता है, तो कहानी यह होगी कि सूरजभान ने उस की इज्जत पर हाथ डालने की कोशिश की. पति ने विरोध किया, तो सूरजभान ने उस की हत्या कर दी. बाद में भले ही वह सूरजभान से बड़ी रकम ले कर कोर्ट में उस का बचाव कर दे.

अगर प्रेमी मरता है, तो सच है कि सूरजभान ने उस के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की. पति ने पत्नी की इज्जत बचाने के लिए बलात्कारी की हत्या कर दी. अपनी तरफ से रूपमती ने सब ठीकठाक करने की कोशिश की, बाकी किस के दिल में क्या छिपा है, वह तो समय ही बताएगा.

रूपमती, उस का पति अवध और सूरजभान आमनेसामने थे. सूरजभान ने माफी मांगते हुए फोटो लौटाया और कहा, ‘‘भैया, धन्य भाग्य आप के, जो आप को ऐसी चरित्रवान और पतिव्रता पत्नी मिली.’’

अवध ने भी कह दिया, ‘‘गलती सब से हो जाती है. तुम ने गलती मान ली. हम ने माफ किया.’’

रूपमती फोटो ले कर वापस आ गई. बिगड़ी बात संभल गई. मामला खत्म. रूपमती खुश हो गई. अब वह बहुत सावधानी से सूरजभान से मिलती थी.

वैसे, रूपमती और अवध अकेले रहते थे. रूपमती की एक ननद थी, जिस की शादी काफी दूर शहर में हो चुकी थी. उस के सासससुर बहुत पहले ही नहीं रहे थे. शादी के 8 साल बाद भी उस के कोई औलाद नहीं हुई. अवध मातापिता द्वारा छोड़ी खेतीबारी देखता था. इसी से उस की गुजरबसर चलती थी.

औलाद न होने का दोष तो औरत पर ही लगता है. रूपमती अपना इलाज करा चुकी थी. डाक्टरों ने उस में कोई कमी नहीं बताई थी. जब डाक्टर ने कहा कि अपने पति का भी चैकअप कराओ, तो अवध की मर्दानगी को ठेस पहुंची. उस का कहना था कि बच्चा न होना औरतों की कमी है. आदमी तो बीज डालता है. बीज में भी कहीं दोष होता है भला. औरत जमीन है. हां, जमीन बंजर हो सकती है.

अवध शराबी था. वह रूपमती को बहुत चाहता था, लेकिन कभीकभी शराब के नशे में वह उसे बांझ कह देता और वंश चलाने के लिए दूसरी शादी करने की बात भी कर देता था.

रूपमती को यह बात बहुत बुरी लगती थी कि जिस में उस का दोष नहीं है, उस की सजा उसे क्यों मिले? फिर देहाती औरतों की सोच भी वही. जब रूपमती उन के आगे अपना दुखड़ा रोती, तो एक दिन एक औरत ने कह दिया कि वंशहीन होने से अवध की शराब की लत बढ़ती जा रही है. इस से पहले कि वह नशा कर के सब खेतीबारी बेच दे, अच्छा है कि औलाद के लिए तुम कोई सहारा खोजो.

इसी खोज में रूपमती सूरजभान से जुड़ गई. सूरजभान ने संबंध तो बना लिया, पर यह कह कर डरा भी दिया कि अगर बच्चा हमारे ऊपर गया, तो पूरे गांव में यह बात छिपी नहीं रहेगी.

सूरजभान गांव के जमींदार का बेटा था. उस के मातापिता के पास बहुत सारे खेत थे. वह शादीशुदा था. उस की पत्नी अनुपमा खूबसूरत थी. एक बच्चा भी

था. सासससुर ने अपनी बड़ी हवेली में एक हिस्सा बेटे और बहू को अलग से दे रखा था.

सूरजभान का बेटा गांव के ही स्कूल में चौथी क्लास में पढ़ता था. सूरजभान का एक नौकर था दारा. वह नौकर के साथसाथ सूरजभान का खास आदमी भी था. वह अखाड़े में कुश्ती लड़ता था.

6 फुट का नौकर दारा खेतीकिसानी से ले कर घरेलू कामकाज सब देखता था. उस का पूरा खर्च सूरजभान और उस का परिवार उठाता था.

सूरजभान के पिता ने हवेली के सब से बाहर का एक कमरा नौकर दारा को दे रखा था, ताकि जब चाहे जरूरत पर उसे घर के काम के लिए बुलाया जा सके. सूरजभान गांव में कहीं भी आताजाता, तो दारा को अपने साथ सिक्योरिटी गार्ड की तरह ले जाता.

बड़े आदमी का बेटा होने के चलते सूरजभान में कुछ बुराइयां भी थीं. मसलन, वह जुआ खेलता था, शराब पीता था वगैरह.

सूरजभान ने नौकर दारा को यह काम भी सौंपा था कि अवध जब बाहर जाए, तो वह उस का पीछा करे. अवध के लौटने से पहले की सूचना भी दे, ताकि अगर वह रूपमती के साथ हो, तो संभल जाए. इस तरह दारा को भी रूपमती और सूरजभान के संबंधों की खबर थी.

एक दिन सूरजभान ने रूपमती से पूछा, ‘‘तुम्हारे पति को काबू में करने का कोई तो हल होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं.’’

‘‘तो बताओ?’’

‘‘शराब.’’

2 नशेबाज जिगरी दोस्त से भी बढ़ कर होते हैं और शराब की लत लगने पर शराबी कुछ भी कर सकता है.

‘‘मिल गया हल,’’ सूरजभान ने खुश होते हुए कहा.

‘‘लेकिन, वह तुम्हारे साथ क्यों शराब पीएगा?’’ रूपमती ने पूछा.

‘‘शराब की लत ऐसी है कि वह सब भूल कर न केवल मेरे साथ पी लेगा, बल्कि अपने घर भी ला कर पिलाएगा, खासकर जब मैं उसे पिलाऊंगा और पिलाता ही रहूंगा.’’

रूपमती को भला क्या एतराज हो सकता था. अगर ऐसा कोई रास्ता निकलता है, तो उसे मंजूर है, जिस में पति ही उस के प्रेमी को घर लाए.

शराब की जिस दुकान पर अवध जाता था, उसी पर सूरजभान ने भी जाना शुरू कर दिया. पहलेपहले तो अवध ने उसे घूर कर देखा, कोई बात नहीं की. सूरजभान के नमस्ते करने पर अवध ने बेरुखी दिखाई, लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि अवध के पास पैसे नहीं थे. शराब की लत के चलते वह शराब की दुकान पर पहुंच गया. शराब की बोतल लेने के बाद उस ने कहा, ‘‘मैं यहां हमेशा आता हूं, आज उधार दे दो.’’

शराब बेचने वाले ने कहा, ‘‘यह सरकारी दुकान है. यहां उधार नहीं मिल सकता.’’

इस बात पर अवध बिगड़ गया, तभी सूरजभान ने आ कर कहा, ‘‘भैया को शराब के लिए मना मत किया करो. पैसे मैं दिए देता हूं.’’

‘‘लेकिन, तुम पैसे क्यों दोगे?’’ अवध ने पूछा.

‘‘भाई माना है. एक गांव के जो हैं,’’ सूरजभान ने कहा.

शराब की तलब मिटाने के चलते अवध पिछला सब भूल कर सूरजभान को अपना सचमुच का भाई मानने लगा.

जब शराब का नशा हावी हो जाता कि अवध से चलते नहीं बनता, तो सूरजभान उसे घर छोड़ने जाने लगा.

एक दिन सूरजभान ने घर छोड़ा, तो नशे में अवध ने कहा, ‘‘हर बार बाहर से चले जाते हो. इसे अपना ही घर समझो. चलो, कुछ खा लेते हैं.’’

सूरजभान ने कहा, ‘‘भैया, घर पहुंचने में देर हो जाएगी. रात हो रही है, फिर कभी सही.’’

‘‘नहीं, रोज यही कहते हो. देर हो जाए तो यहीं रुक जाना. मोबाइल फोन से घर पर बता दो कि अपने दोस्त के यहां रुक गए हो…’’ फिर अवध ने रूपमती को आवाज दी, ‘‘कुछ बनाओ. मेरा दोस्त, मेरा भाई आया है.’’

रूपमती को तो मनचाही मुराद मिल गई. जिस प्रेमी से छिपछिप कर मिलना पड़ता था, उसे उस का पति घर ले कर आ रहा है. खापी कर अवध तो नशे में सोता, तो सीधा अगले दिन के 10-11 बजे ही उठता. इस बीच रूपमती और सूरजभान का मधुर मिलन हो जाता और सुबह जल्दी उठ कर वह अपने घर चला जाता.

सूरजभान की पत्नी अनुपमा गुस्से की आग में जल रही थी. उस का पति महीनों से रातरात भर गायब रहता था.

ससुर से शिकायत करने पर भी अनुपमा को यही जवाब मिला कि पतिपत्नी के बीच में हम क्या बोल सकते हैं. काम पर आतेजाते उस की नजर नौकर दारा पर पड़ती रहती. उस के कसे हुए शरीर, ऊंची कदकाठी, कसरती बदन को देख कर अनुपमा के बदन में चींटियां सी रेंगने लगतीं.

एक दिन अनुपमा ने दारा को बुला कर कहा, ‘‘तुम केवल मेरे पति के नौकर नहीं हो, बल्कि इस पूरे परिवार के भरोसेमंद हो. पूरे परिवार के प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी है.’’

‘‘जी मालकिन,’’ दारा ने सिर झुका कर कहा.

‘‘तो बताओ कि तुम्हारे मालिक कहां और किस के पास आतेजाते हैं? उन की रातें कहां गुजरती हैं? क्या तुम्हें अपनी छोटी मालकिन का जरा भी खयाल नहीं है?’’ अनुपमा ने अपनेपन की मिश्री घोलते हुए कहा.

‘‘मालकिन, अगर मालिक को पता चल गया कि मैं ने आप को उन के बारे में जानकारी दी है, तो वे मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे,’’ दारा ने अपनी मजबूरी जताई.

‘‘तुम निश्चिंत रहो. तुम्हारा नाम नहीं आएगा,’’ अनुपमा ने अपना पल्लू गिराते हुए कहा, ‘‘इधर देखो. मैं भी औरत हूं. मेरी भी कुछ जरूरतें हैं.’’

दारा ने अपनी मालकिन को पहली बार ब्लाउज में देखा था. पेट से ले कर कमर तक बदन की दूधिया चमक से दारा का मन चकाचौंध हो रहा था. उस के शरीर में तनाव आने लगा.

‘‘सुनो दारा, मालिक वही जो मालिकन के साथ रहे. तुम भी मालिक बन सकते हो. लेकिन तुम्हें कुछ करना होगा,’’ अनुपमा ने अपने शरीर का जाल दारा पर फेंका.

‘‘आप का हुक्म सिरआंखों पर. आप जो कहेंगी, आज से दारा वही करेगा,’’ दारा ने कहा.

‘‘तो सुनो, उस कलमुंही का कुछ ऐसा इंतजाम करो कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे,’’ अनुपमा ने कहा.

दारा के सामने मालकिन का दूधिया शरीर घूम रहा था. सब से पहले उस ने रूपमती के पति अवध को खत्म करने की योजना बनाई.

– क्रमश :

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