अगले दिन ही मम्मीपापा और भैया उस के घर आ पहुंचे. उन के बहुत समझाने पर वह दिवाकर की मम्मी के तेरहवीं पर जाने को तैयार हुई थी. हालांकि उसे अपने सासससुर से कभी कोई शिकायत नहीं रही. वे लोग एक ही शहर में रहे थे. शुरू में साथ ही थे पर दिवाकर ने प्रौपर्टी बनाने के लिए अलग फ्लैट खरीदा था. मम्मीपापा आते रहते थे. धीरेधीरे उन को दिवाकर और श्रुति के बीच विचारों का जो मतभेद था उस का एहसास हो गया था. उन्होंने दिवाकर को समझाने की बहुत कोशिश की पर उस पर किसी की बात का कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने उन दोनों के उन के हाल पर छोड़ दिया.
ट्रेन के रुकते ही उस की विचारतंद्रा भंग हुई. वह अपने मम्मीपापा और भैया के साथ स्टेशन से बाहर आ गई. अब उस शहर में पहुंचते ही उस को लग रहा था वह एकदम अनजान शहर में आ गई है जबकि यहां उस ने अपनी जिंदगी के पूरे 10 वर्ष बिताए थे. ससुराल के घर पहुंच कर घंटी बजाने पर जिस व्यक्ति ने दरवाजा खोला उसे देख कर वह घबरा गई. आधे काले, आधे सफेद बाल, दाढ़ी बढ़ी हुई, आंखों पर चश्मा…उस ने ध्यान से देखा, पैरों में जूतों की जगह गंदी चप्पल. क्या यह वही दिवाकर है? वह ऐसा हो गया? उस को देख कर तो नहीं लगता कि वह कभी वैभवपूर्ण जिंदगी जी रहा था. उस का वैभवहीन व्यक्तित्व देख कर वह हैरान हो गई.
पीछे दिवाकर की बड़ी बहन सीमा दीदी खड़ी थीं. श्रुति ने उन के पैर छुए. वे उस को गले लगा कर बुरी तरह रोने लगीं पर उसे रोना नहीं आ रहा था. कुछ देर वे अपना मन हलका कर वहां से हटीं और उसे दिवाकर के पापा के पास ले गईं. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने आशीर्वाद दिया. बस, इतना ही पूछा, ‘‘कैसी हो, बेटी?’’
श्रुति ने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘ठीक हूं.’’
उसे वहां घुटन हो रही थी. मन ही मन डर था, दिवाकर का सामना कैसे कर पाएगी. उस की परछाईं से ही उसे अजीब सी बेचैनी होने लगती है. धीरेधीरे घर के सभी सदस्यों से मिलना हो रहा था.
उसे जेठानी दीदी कहीं नहीं दिखाई दे रही थीं. उस का मन डर गया. कहीं इन लोगों ने उन को भी उन के पीहर तो नहीं भेज दिया.
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दिवाकर के भैया दिवाकर से 1 वर्ष ही बड़े थे लेकिन उन की शादी उस के बाद हुई थी. पर किस से पूछे. यहां तो सब लोग उसे ही पराया समझ रहे हैं. वैसे वह तो है भी पराई. वह स्वयं अपने को मेहमान भी मानने के लिए तैयार न थी. हालांकि दिवाकर के अतिरिक्त उसे किसी भी सदस्य से कोई शिकायत न थी. सामने नजर पड़ी तो देखा, दिवाकर सीढि़यों से नीचे उतर रहा था. शायद उस ने श्रुति को नहीं देखा था. उस का मन हुआ, वह वहां से हट जाए पर फिर सोचा, अभी नहीं तो थोड़ी देर बाद ही सही, सामना तो होना ही है. अब जब यहां आ ही गई है, कब तक उस से बचती फिरेगी. उस ने उस को नजरअंदाज करने के लिए उस तरफ पीठ कर ली.
उसे लगा दिवाकर के कदम उस की तरफ आ रहे हैं लेकिन उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा, केवल एहसास से अनुभव किया. कुछ ही पलों में दिवाकर उस के सामने आ गया. उसे देख कर उस की आंखों में हैरानी और पश्चात्ताप के भाव नजर आ रहे थे. उस को शायद उम्मीद ही नहीं होगी कि वह आएगी. उस की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी. वह पूरी तरह से टूट चुका था.
अब तो अभिमान ही नहीं स्वाभिमान भी नहीं रहा था. उस की ऐसी दशा देख कर पलभर के लिए वह विचलित हो गई. पर एकाएक उस ने अपने को संभाल लिया. सोचने लगी, यह वही दिवाकर है जिस ने उसे हमेशा अपने ढंग से जीने को मजबूर किया. उस के व्यक्तित्व को अपनी इच्छाओं तले रौंदा, कभी जीवन जीने नहीं दिया. उस की गलती यही थी कि उस ने कभी इस से प्यार किया था, जिस की सजा भुगत रही है. पर शायद इस ने सिर्फ अपनेआप से प्यार किया. नहीं, मैं इस को कभी माफ नहीं कर सकती.
अचानक दिवाकर की आवाज से वह डर सी गई, ‘‘श्रुति, कैसी हो? चलो उधर चलते हैं.’’
नहीं चाहते हुए भी उस के कदम दिवाकर के पीछेपीछे चल दिए. वे दोनों मम्मी वाले कमरे में गए.
‘‘बैठ जाओ, श्रुति,’’ दिवाकर बोला, ‘‘तुम वापस आ जाओ, मुझे अपने द्वारा किए गए व्यवहार का बहुत दुख है. हमें माफ कर दो.’’
पर उस का दिल तो पत्थर बन चुका था. वह कुछ नहीं बोली. उस की बातों पर उस ने कुछ भी रिऐक्ट नहीं किया. उस ने पूछा, ‘‘तुम कैसी हो, कैसे जीवननिर्वाह कर रही हो?’’
उस का मन तो किया, उस को कहे कि तुम होते कौन हो यह सब पूछने वाले पर चुप रह गई. उस ने उस से जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसा है, क्या करता है, कहां रह रहा है.
‘‘तुम्हारे जाने के सालभर बाद मैं यहां मम्मीपापा के साथ रहने आ गया था,’’ उस ने खुद ही बताया, ‘‘वह फ्लैट सामान सहित मैं ने बेच दिया. वहां से अपनी व्यक्तिगत जरूरत की वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारा महत्त्व समझ में आया. तुम्हारे बिना जिंदगी के माने कुछ नहीं रहे पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तुम्हारे पास आ कर माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.’’
श्रुति के दिल ने कहा, ‘काश, दिवाकर उस समय तुम ऐसा कर पाते.’ श्रुति का मन दीदी के बारे में जानने को कर रहा था पर वह चुप रही. उसी समय सीमा दीदी आ गईं. दिवाकर के साथ अकेले में रहने में उसे घुटन सी हो रही थी. दीदी के आने पर राहत महसूस हुई.
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‘‘तुम दोनों को पापा बुला रहे हैं,’’ उन्होंने कहा.
वे दोनों पापा के पास गए. पापा ने कहा, ‘‘दिवाकर कल रिंकू को लेने उस के होस्टल गया था. वह कल आएगी. आज उस की कोई परीक्षा थी. बहू, बड़ी बहू का देहांत हो चुका है. उस समय हम लोगों ने तुम्हें नहीं बताया, इस के लिए मैं तुम से माफी चाहता हूं. अब दिवाकर की मां भी नहीं रहीं. इसलिए रिंकू की जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं. आशा है तुम इनकार नहीं करोगी. दिवाकर के साथ रहने का या नहीं रहने का फैसला तुम्हारे पर ही छोड़ता हूं.’’
आज दिवाकर की मां की मृत्यु को हुए कई दिन बीत चुके थे. तेरहवीं का कार्य सुचारु रूप से संपन्न हो गया. रिंकू भी पहुंच गई थी. रात को ही रिंकू को अपने साथ ले कर श्रुति भारी मन से वापस आ गई. वह उस से ऐसे चिपकी हुई थी जैसे कोई बच्चा डर के बाद मां की गोद से चिपक जाता है. दिवाकर श्रुति व रिंकू को छोड़ने आया था पर दोनों के बीच फासला बना रहा.
श्रुति सोच रही थी जो दिवाकर नहीं कर सका वह बेचारी जेठानी दीदी ने दुनिया से जा कर कर दिखाया. मेरी सूनी गोद भर दी. वह आ तो गई पर ससुर की वृद्धावस्था और दिवाकर के हालात ने उसे फैसला बदलने को मजबूर कर दिया. उस ने तय किया कि रिंकू को होस्टल से हटा कर उस के दादाजी व चाचा के पास रह कर पढ़ाएगी. इस छोटी सी बच्ची को अपनों से दूर रहने को मजबूर नहीं करेगी. अब अगर नौकरी करेगी तो उसी शहर में जहां बच्ची के अपने घर वाले हैं और चाची के रूप में वह उस की मां है.