गजरा: कैसे बदल गई अमित की जिंदगी

दफ्तर से छुट्टी होते ही अमित बाहर निकला. पर उसे घर जाने की जल्दी नहीं थी, क्योंकि घर का कसैला स्वाद हमेशा उस के मन को बेमजा करता रहता था.

अमित की घरेलू जिंदगी सुखद नहीं थी. बीवी बातबात पर लड़ती रहती थी. उसे लगता था कि जैसे वह लड़ने का बहाना ढूंढ़ती रहती है, इसीलिए वह देर रात को घर पहुंचता, जैसेतैसे खाना खाता और किसी अनजान की तरह अपने बिस्तर पर जा कर सो जाता.

वैसे, अमित की बीवी देखने में बेहद मासूम लगती थी और उस की इसी मासूमियत पर रीझ कर उस ने शादी के लिए हामी भरी थी. पर उसे क्या पता था कि उस की जबान की धार कैंची से भी ज्यादा तेज होगी.

केवल जबान की बात होती तो वह जैसेतैसे निभा भी लेता, पर वह शक्की भी थी. उस की इन्हीं दोनों आदतों से तंग हो कर अमित अब ज्यादा से ज्यादा समय घर से दूर रहना चाहता था.

सड़क पर चलते हुए अमित सोच रहा था, ‘आज तो यहां कोई भी दोस्त नहीं मिला, यह शाम कैसे कटेगी? अकेले घूमने से तो अकेलापन और भी बढ़ जाता है.’

धीरेधीरे चलता हुआ अमित चौराहे के एक ओर बने बैंच पर बैठ गया और हाथ में पकड़े अखबार को उलटपलट कर देखने लगा, तभी उस के कानों में आवाज आई. ‘‘गजरा लोगे बाबूजी. केवल 10 रुपए का एक है.’’

अमित ने बगैर देखे ही इनकार में सिर हिलाया. पर उसे लगा कि गजरे वाली हटी नहीं है.

अमित ने मुंह फेर कर देखा. एक लड़की हाथ में 8-10 गजरे लिए खड़ी थी और तरस भरे लहजे में गजरा खरीदने के लिए कह रही थी.

अमित ने फिर कहा, ‘‘नहीं चाहिए. और गजरा किस के लिए लूं?’’

लड़की को कुछ उम्मीद बंधी. वह बोली, ‘‘किसी के लिए भी सही, एक ले लो बाबूजी. अभी तक एक भी नहीं बिका है. आप के हाथ से ही बोहनी होगी.’’

अमित ने गजरे और गजरे वाली को ध्यान से देखा. मैलीकुचैली मासूम सी लड़की खड़ी थी, पर उस की आंखें चमकीली थीं.

‘‘लाओ, एक दे दो,’’ अमित ने गजरों की ओर देखते हुए कहा.

लड़की ने एक गजरा अमित के आगे बढ़ाया और उस ने जेब से 20 रुपए का नोट निकाल कर उसे दे दिया.

‘‘खुले पैसे तो नहीं हैं. यह पहली ही बिक्री है.’’

अमित ने एक पल रुक कर उस से कहा, ‘‘लाओ, एक और गजरा दे दो.

20 रुपए पूरे हो जाएंगे.’’

लड़की ने खुश हो कर एक और गजरा उसे दे दिया.

जब वह जाने लगी, तो अमित ने कहा, ‘‘जरा ठहरो, मैं 2 गजरों का क्या करूंगा? एक तुम ले लो. अपने बालों में लगा लेना,’’ अमित ने धीरे से मुसकरा कर गजरा उस की ओर बढ़ाया.

लड़की का चेहरा शर्म से लाल हो उठा. अमित को उस की आंखें बहुत काली और पलकें बहुत लंबी लगीं.

तभी वह संभला और मुसकरा कर बोला, ‘‘लो, रख लो. मैं ने तो यों ही कहा था. अगर बालों में नहीं लगाना, तो किसी को बेच देना या फुटकर पैसे मिल जाएं, तो 10 रुपए वापस कर जाना.’’

लड़की ने उस गजरे को ले लिया और धीरेधीरे कदम बढ़ाते हुए वहां से चली गई.

अमित कुछ देर वहीं बैठा रहा, फिर उठ कर इधरउधर घूमता रहा. जब अकेले दिल नहीं लगा, तो घर की ओर चल दिया.

जब वह घर पहुंचा, तो देखा कि बीवी पतीले में जोरजोर से कलछी घुमा रही थी.

अमित चुपचाप अपने कमरे में चला गया. कपड़े उतारते समय उसे गजरे का खयाल आया, तो उस ने सोचा कि जेब में ही पड़ा रहने दे. पर नहीं, बीवी ने देख लिया तो सोचेगी कि पता नहीं किसे देने के लिए खरीदा है. उस ने सोचा कि क्यों न जेब से निकाल कर कहीं और रख दिया जाए.

अमित के कदमों की आहट सुनते ही बीवी उठ खड़ी हुई थी. वह शाम से ही गुस्से से भरी बैठी थी कि आज तो इस का फैसला हो कर ही रहेगा कि वह क्यों देर से घर आता है. क्या इसी तरह जीने के लिए वह उसे ब्याह कर लाया है.

जब वह रसोई से बाहर आई, तो अमित के हाथ में गजरा देख कर एक पल के लिए ठिठक कर खड़ी हो गई.

हड़बड़ी में अमित गजरे वाला हाथ आगे बढ़ा कर बोला, ‘‘यह गजरा… यों ही ले आया हूं.’’

बीवी ने आगे बढ़ कर गजरा ले लिया, उसे सूंघा और फिर आईने के सामने खड़ी हो कर अपने जूड़े पर बांधने लगी.

अमित सबकुछ अचरज भरी नजरों से देखता रहा.

तभी बीवी ने कहा, ‘‘खूब महकता है. सारा कमरा खुशबू से भर गया है. ताजा कलियों का बना लगता है.’’

‘‘हां, बिलकुल ताजा कलियों का है. तभी तो सोचा कि लेता चलूं.’’

कई दिनों के बाद उस दिन अमित ने गरमगरम भोजन और बीवी की ठंडी बातों का स्वाद चखा.

दूसरे दिन वह शाम को छुट्टी होने पर दफ्तर से निकला, तो उस के साथ एक दोस्त भी था. दफ्तर में काम करते समय अमित ने सोचा था कि आज सीधे घर चला जाएगा, पर दोस्त के मिलने पर घर जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था.

दोनों दोस्तों ने पहले एक रैस्टोरैंट में चाय पी, फिर वे बाजार में घूमते रहे. आखिर में वे समुद्र के किनारे जा बैठे. शाम को सूरज के डूबने की लाली से सागर में कई रंग दिख रहे थे.

अमित का ध्यान टूटा. वही कल वाली लड़की उस के सामने खड़ी गजरा लेने के लिए कह रही थी.

अमित ने लड़की से गजरा ले लिया.

दोस्त ने कुछ हैरान हो कर कहा, ‘‘लगता है, भाभी आजकल खुश हैं.

खूब गजरे खरीद रहे हो.’’

अमित मुसकराया, ‘‘बस यों ही खरीद लिया है. अब चलें, काफी देर हो गई है.’’

अमित घर पहुंचा, तो उस की बीवी जैसे उस के ही इंतजार में बैठी थी. वह बोली, ‘‘आज तो बड़ी देर कर दी आप ने. सोच रही थी, जरा बाजार घूमने चलेंगे. आते हुए शीला के घर भी हो आएंगे.’’

अमित ने बगैर कुछ बोले ही जेब से गजरा निकाल कर उस की ओर बढ़ाया. बीवी ने बड़े चाव से गजरा लिया और सूंघा. फिर आईने के सामने खड़ी हो कर उसे जूड़े पर बांधने लगी.

अमित ने कपड़े उतारे, तो बीवी ने कपड़े ले कर सलीके से खूंटी पर टांग दिए. फिर तौलिया और पाजामा देते हुए वह बोली, ‘‘हाथमुंह धो लो. मैं रोटी बनाती हूं, गरमगरम खा लो, फिर बाजार चलेंगे.’’

अमित समझ नहीं पा रहा था कि बीवी में यह बदलाव कैसे आ गया. गजरा तो मामूली सी चीज है. कोई और ही बात होगी.

दिन बीतने लगे. अब अमित शाम को जल्दी घर चला आता. बीवी उसे देख कर खुश होती. जिंदगी ने एक नया रुख ले लिया था. अमित को लग रहा था कि बीवी में हर रोज बदलाव आ रहा है. उसे अपने में भी कुछ बदलाव होता महसूस हो रहा था.

अमित दफ्तर से घर आते समय एक दिन भी बीवी के लिए गजरा लेना नहीं भूला था. अब तो यह उस की आदत ही बन गई थी.

वैसे तो गजरे वाली और भी लड़कियां वहां होती थीं, पर अमित हमेशा उसी लड़की से गजरा खरीदता, जिस ने उसे पहले दिन गजरा दिया था.

एक दिन अमित चौक में बैठा सामने की इमारत को देख रहा था कि गजरे वाली लड़की आई. अमित ने रोज की तरह उस के हाथ से गजरा ले लिया. पैसे ले कर वह लड़की वहीं खड़ी रही.

अमित ने देखा, उस के चेहरे पर संकोच था, जैसे वह कुछ कहना चाहती है.

अमित ने उस की झिझक दूर करने के लिए पूछा, ‘‘कितने बिक गए अब तक?’’

‘‘4 बिक गए हैं. अभीअभी आई हूं. पर बाबूजी, आप के हाथ से बोहनी होने पर देखतेदेखते ही बिक जाते हैं.’’

‘‘फिर तो सब से पहले मुझे ही बेचा करो,’’ अमित ने कहा.

‘‘कभीकभी तो आप बहुत देर से आते हैं,’’ लड़की शिकायती लहजे में बोली.

अमित कुछ देर तक चुप रहा, फिर बोला, ‘‘कहां रहती हो?’’

लड़की ने बताया कि वह अपनी अंधी दादी के साथ एक झोंपड़ी में रहती है. झोंपड़ी के सामने 2 चमेली के पौधे हैं, जिन के फूलों से वह उस के लिए खास गजरा बनाती है.

‘‘अच्छा,’’ अमित बोला.

लड़की का चेहरा लाज से लाल हो गया. वह एक पल को चुप रही, फिर बोली, ‘‘तुम रोज गजरा खरीदते हो, इस का करते क्या हो?’’

अमित मुसकराया. फिर कुछ कहतेकहते वह चुप हो गया.

आखिर लड़की ने कहा, ‘‘अच्छा, मैं जाती हूं.’’

और अमित उसे तेज कदमों से जाते हुए देखता रहा.

अब अमित की अधिकतर शामें घर में ही बीतने लगी थीं. दोस्त शिकायत करते कि अब वह बहुत कम मिलता है, पर वह खुश भी था कि उस की घरेलू जिंदगी सुखद बन गई थी.

एक दिन अमित की बीवी ने उस के साथ सिनेमा देखने का मन बनाया. वह दोपहर को उस के दफ्तर पहुंची और दोनों सिनेमा देखने चल पड़े. सिनेमा से निकलने पर बीवी ने कहा, ‘‘चलो, आज सागर के किनारे चलते हैं. एक अरसा बीत गया इधर आए हुए.’’

वहां घूमते हुए अमित को गजरे वाली लड़की दिखाई दी. वह उस की तरफ ही आ रही थी. उस के हाथ में एक ही गजरा था, जो कलियों के बजाय फूलों का बना हुआ था.

लड़की के पास आने पर अमित ने कहा, ‘‘मैं हमेशा इसी लड़की से गजरा लिया करता हूं, क्योंकि यह मेरे लिए खासतौर पर मोटीमोटी कलियों का गजरा बना कर लाती है.’’

बीवी ने तीखी नजरों से लड़की को देखा, तो लड़की उस के सामने आंखें न उठा सकी.

गजरा लेने के लिए अमित ने हाथ बढ़ाया, तो लड़की ने हाथ का गजरा देने के बजाय अपनी साड़ी के पल्लू में बंधा एक गजरा निकाला. मोटीमोटी कलियों का बहुत बढि़या गजरा, जैसा कि वह रोज अमित को देती थी.

अमित का चेहरा खिल उठा, पर उस की बीवी तीखी नजरों से उस लड़की को देख रही थी.

अचानक अमित का ध्यान बीवी की ओर गया तो चौंका. उस ने फौरन लड़की के हाथ से गजरा ले लिया और जेब से पैसे निकाल कर उस की ओर बढ़ाए,

पर लड़की ने पैसे न लेते हुए उदास लहजे में कहा, ‘‘पिछली बार के बकाया पैसे मुझे आप को देने थे. हिसाब पूरा हो गया,’’ इतना कह कर वह एक तरफ को चली गई.

अमित की बीवी ने वहीं खड़ेखड़े जूड़े पर गजरा बांधा और अमित को दिखाते हुए पूछा, ‘‘देखो तो ठीक तरह से बंधा है न?’’

‘‘हां,’’ अमित ने पत्नी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आज के जूड़े में तो तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो.’’

‘‘खूबसूरत चीज हर जगह ही खूबसूरत लगती है,’’ पत्नी ने शोखी से कहा और मुसकराई, पर अमित के होंठों पर मुसकराहट न थी.

ऑक्सीमीटर: आखिर गुड्डो इतने दिनों से घर में क्यों बंद थी?

कई दिनों के बाद गुड्डो को बाजार में देख कर  बेबी ने उसे आवाज लगाई. इस के बाद गुड्डो ने बेबी को जो बताया, उस से बेबी के होश उड़ गए.

बाजार आज भी सुनसान था. 2 दुकानों को छोड़ कर… पहली लालाजी की किराने वाली और दूसरी तरुण कैमिस्ट वाले की. कोरोना काल में इन दोनों की ही चांदी थी.

कोरोना के चलते बिका हुआ माल वापस नहीं होगा, यह हर ग्राहक जानता था, फिर भी हर कोई माल ज्यादा लेने की फिराक में दिख रहा था, भले ही दवाएं ही सही.

लालाजी और तरुण को सांस लेने की भी फुरसत नहीं थी. तरुण के यहां औक्सीमीटर और लालाजी का दलिया आते ही खत्म हो जाता था. बाकी सामान का भी तकरीबन यही हाल था.

तरुण ने अपनी कैमिस्ट शौप के आगे परदे टांगने का एक प्लास्टिक का पाइप अड़ा रखा था. उस के आगे आने की हर किसी को मनाही थी. लोग कुछ दूर खड़े हो कर अपनी बारी का इंतजार करते थे.

सब के चेहरे पर मास्क चढ़ा होता था. किसीकिसी ने तो 2-2 मास्क लगा रखे होते थे. उन सभी के घर में कोई न कोई कोरोना का शिकार मरीज था.

एक दिन की बात है. तरुण की शौप पर भीड़ जमा थी. लोगों से कुछ दूरी पर कई गरीब बच्चे भी खड़े थे. भिखारी नहीं थे, पर लोगों से घर के लिए दूध, राशन, बिसकुट कुछ भी मिल जाए, मांग रहे थे.

उन्हें कोई 10 तो कोई 5 रुपए थमा देता. कोईकोई फटकार भी लगा देता, ‘‘घर पर तो हम से मरीज संभलते नहीं, इन की और सेवा करो.’’

उन बच्चों में शामिल थी 12 साल की बेबी. नहाने का कोई मतलब नहीं. उस ने मुंह तक नहीं धोया था. अगर थोड़ा बनसंवर जाती तो कोई एक रुपया न देता, इसीलिए वह सुबह उठते ही वहां आ गई थी.

सुबह के 6 बजे से ले कर 11 बजे तक लालाजी की दुकान खुलती थी, वह तब तक वहां लोगों से मांगती थी, उस के बाद तरुण कैमिस्ट के आगे जम जाती थी, जो शाम के 6 बजे तक खुलती थी. लौकडाउन जो लगा था शहर में.

बेबी बड़ी दुबलीपतली लड़की थी. सलवारसूट मानो जैसे उस के बदन पर लटका हुआ था. बाल बेतरतीब और चालढाल एकदम लाचारों जैसी, पर नजर एकदम तेज. लोगों की शक्ल देख कर भांप जाती कि कौन अपनी अंटी जल्दी ढीली करेगा. उसी के आगे ज्यादा गिड़गिड़ाती थी.

तभी बेबी की नजर अपनी बड़ी दीदी पायल की सहेली गुड्डो पर पड़ी. वह खुशी से खिल उठी और चिल्लाई, ‘‘गुड्डो दीदी, रुको तो सही…’’

गुड्डो भी बाजार में किसी काम से आई थी. मुड़ कर देखा तो हलके से मुसकरा दी. रुक कर एक दुकान के चबूतरे पर बैठ गई. बड़ी थकीथकी सी लग रही थी.

दरअसल, गुड्डो और पायल दोनों लोगों के घरों में  झाड़ूपोंछे का काम करती थीं. पायल ने तो कई घर पकड़ रखे थे, पर गुड्डो शर्माजी के घर पर परमानैंट नौकरानी थी.

अरे, वही 56 नंबर वाले शर्माजी, जो अपनी पत्नी नूतन के साथ 250 गज की कोठी में अकेले रहते हैं और उन के दोनों बेटे अमेरिका में सैटल हैं. गुड्डो उन्हें ‘पापाजी’ और ‘मम्मीजी’ बुलाती है.

‘‘दीदी, आप कई दिनों से दिखी नहीं… कहां थीं?’’ बेबी ने गुड्डो के पास धमक कर बैठते हुए पूछा. अब वह लोगों से मदद मांगना भूल गई थी.

‘‘कहीं नहीं, यहीं थी…’’ इतना बोलने में ही गुड्डो की सांस फूल गई. उस ने अपने सूखते गले को तर करने के लिए बोतल से थोड़ा पानी पीया और ढक्कन लगा कर बोतल बगल में रख दी.

बेबी ने ध्यान से देखा तो उस के होश उड़ गए. पिछले 15 दिन के भीतर ही गुड्डो के चेहरे का रंग उतर गया था. आंखों के नीचे काले गड्ढे और बदन चुसे हुए आम सा हो गया था.

दीदी तो ऐसी न थीं. जब भी उस से मिलती थीं तो हंसीमजाक करती थीं, पर अब ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने  15 साल की उम्र में बच्चा जन दिया हो.

बेबी की आंखों में उठते सवालों को सम झ कर गुड्डो ने बताया, ‘‘मु झे कोरोना हो गया था. पहले  2 दिन तो हलका बुखार और खांसी थी, फिर सांस लेने में थोड़ी दिक्कत होने लगी.

‘‘पापाजी ने जैसे मेरे लक्षण भांप लिए थे और मम्मीजी को कोने में ले जा कर धीरे से कुछ कहने लगे थे. मम्मीजी ने मु झे अजीब सी निगाहों से देखा और फिर जल्दी से पापाजी को ले कर घर से बाहर चली गईं…’’

‘‘हाय रे… कोरोना…’’ बेबी के मुंह से बस इतना ही निकला.

‘‘थोड़ी देर में मम्मीजी और पापाजी पड़ोस के सरदारजी डाक्टर को घर ले आए. उन्होंने मु झे चैक किया और इंगलिश में कुछ पापाजी को बोले.

‘‘पापाजी थोड़े चिंतित लगे और मु झ से बोले, ‘चल गुड्डो, अस्पताल…’

‘‘मैं सम झ नहीं पाई कि हलकी सी खांसी और बुखार में अस्पताल जाने की क्या जरूरत पड़ गई. पर पापाजी ने जो कह दिया, वह पत्थर की लकीर.

‘‘जैसी थी वैसी ही मैं गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी. इतने में मम्मीजी घर से भागती सी आईं, मु झे एक नया मास्क दिया और बोलीं, ‘इसे मत उतारना…’

‘‘थोड़ी ही देर में हम सरकारी अस्पताल में थे. वहां मेरा अजीब सा टैस्ट हुआ. नर्स ने मेरी नाक में एक सिलाई सी घुसा दी, तो गुदगुदी होने के साथ मैं ने छींक मार दी. पर, नर्स अपना काम कर चुकी थी.

‘‘इस के बाद पापाजी मु झे घर ले आए. तब तक मम्मीजी ने किचन के पीछे का कमरा मेरे लिए तैयार कर दिया था. फोल्डिंग चारपाई, गद्दा, चादर, तकिया, एक स्टूल, जिस पर पानी की बोतल रखी थी…’’

‘‘इतना सारा इंतजाम… क्या दीदी, कोरोना वाकई इतना खतरनाक है?’’ बेबी ने बीच में ही टोकते हुए पूछा.

‘‘मत पूछ बहन, मर कर बची हूं. अगर मम्मीजी और पापाजी…’’ इतना कहते ही गुड्डो रो पड़ी. खूब सुबकियां लीं.

बेबी भी भावुक हो गई. उस ने गुड्डो का हाथ थाम लिया.

गुड्डो थोड़ा संभली, फिर आगे बोली, ‘‘2 घंटे बाद पापाजी मेरे कमरे के बाहर आ कर खड़े हुए और दूर से ही बोले, ‘गुड्डो, अब कैसी तबीयत है?’

‘‘तब तक मेरी खांसी बढ़ गई थी और सांसें भी तेज चलने लगी थीं. दम सा घुट रहा था.

‘‘पापाजी ने एक थैली मु झे पकड़ाई और बोले, ‘जैसे बोलूं, वैसे ये दवाएं लेती रहना.’

‘‘मैं ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.’’

‘‘तो फिर दवा लेने से तुम ठीक हो गई?’’ बेबी ने सवाल दागा.

‘‘अरे, कहां… कोरोना ने तो अभी अपना असली रंग दिखाया ही नहीं था.  मेरी पूरी रात बेचैनी में कटी. लगा कि अब प्राण छूटे. सपने में गांव दिख रहा था, पर एकदम सुनसान. कोई नहीं बस मैं अकेली. चिल्लाऊं तो गले से आवाज न निकले.

‘‘अचानक मेरी नींद टूट गई. गला पानी मांग रहा था. मैं उठी तो एकदम चक्कर सा आया और मैं बिस्तर पर धड़ाम.’’

‘‘हाय मां…’’ बेबी बुदबुदाई.

‘‘सुबह उठी तो जैसे बदन में जान ही नहीं. पापाजी और मम्मीजी दूर खड़े दिखाई दिए. मेरी रुलाई फूट गई. फिर ऐसा लगा जैसे पापाजी दूर कहीं से बोल रहे हैं, ‘गुड्डो बेटी, हिम्मत कर. ले यह मशीन और अपनी उंगली पर लगा ले.’

‘‘मु झे कुछ होश नहीं था. पापाजी मेरे पास आए और किसी चीज से मेरे हाथ धोए, फिर एक छोटी सी मशीन मेरी बड़ी उंगली पर लगा दी.’’

‘‘उंगली की मशीन…? यह क्या बला है दीदी?’’ बेबी ने हैरानी से पूछा.

‘‘पता नहीं, क्या थी? चंद सैकंड में हटा कर पापाजी उस में कुछ देखने लगे, फिर मम्मीजी से कोई बात बोलने लगे.

‘‘मम्मीजी का ऐसा मायूस चेहरा मैं ने पहले कभी नहीं देखा था. वे किचन में गईं और एक कटोरी में दलिया ले आईं. मु झे देते हुए बोलीं, ‘थोड़ी देर में खा लेना. पूरा खत्म करना है.’

‘‘उस के बाद शुरू हुई असली कहानी. दोपहर को एक आदमी बड़ा सा सिलैंडर घर ले आया. उस पर कोई मशीन सी लगी थी और प्लास्टिक के एक पतले पाइप से मास्क जुड़ा था.

‘‘उस आदमी ने वह मशीन सैट की और मास्क मेरे मुंह पर लगा दिया. थोड़ी देर में मु झे लगा जैसे बदन में जान आ गई है. उस आदमी ने मेरे दाएं हाथ से ब्लड सैंपल लिया और कांच की पतली नली में भर कर ले गया.’’

‘‘खून निकाल लिया. यह कोरोना तो लोगों का खून चूस रहा है दीदी,’’ बेबी डर कर बोली.

‘‘खून क्या जान चूस लेता है. वह जो आदमी सिलैंडर लाया था न, उस ने थोड़ी देर बाद मेरी उंगली पर वही मशीन लगा दी, जो पापाजी ने लगाई थी.

‘‘फिर उस आदमी ने कुछ देखा और मेरी तरफ देख कर मुसकराया. मु झे सम झाते हुए बोला, ‘बेटी, इस सिलैंडर में औक्सीजन भरी है. कोरोना ने तेरे फेफड़ों पर हमला कर के तेरी औक्सीजन कम कर दी थी. अभी 92 पर है, जबकि होनी 94 से ज्यादा चाहिए… और यह जो छोटी सी मशीन है न, इसे औक्सीमीटर कहते हैं. औक्सीजन का लैवल नापने की डिबिया.

‘‘‘तेरे मुंह पर जो मास्क लगा है, वह तेरी औक्सीजन के लैवल को 94 से ऊपर रखेगा. अब अंकल और आंटी जैसा कहें, वही करती जाना. ठीक होना है न तु झे?’

‘‘हां…’’ मैं इतना ही बोल पाई.

‘‘उस के बाद क्या हुआ दीदी?’’ बेबी ने पूछा.

‘‘सच कहूं बेबी, मैं ने पापाजी और मम्मीजी जैसे इनसान नहीं देखे. इन  15 दिनों में उन्होंने अपनी सगी बेटी जैसी मेरी सेवा की. बेटी क्या पोती ही सम झ लो. कब क्या खाना है, कौन सी दवा लेनी है, औक्सीजन का लैवल कब चैक करना है, सब किया.

‘‘औक्सीमीटर तो जैसे मेरे भीतर नई जान फूंक देता था, जब उस में मेरा औक्सीजन लैवल 97-98 रहता था…’’

इतने में किसी ने तरुण से जोर से कहा, ‘‘तरुण भाई, जल्दी से एक औक्सीमीटर देना, एक मरीज को बहुत जरूरत है…’’

इतना सुनते ही गुड्डो उठ गई और बोली, ‘‘घर पर मम्मीजी और पापाजी चाय के लिए दूध का इंतजार कर रहे होंगे. फिर मु झे भी तो औक्सीमीटर से अपनी औक्सीजन चैक करनी है.

‘‘अभी थोड़ी कमजोरी है, पर जल्दी ही ठीक हो जाऊंगी. अपनी बहन को बोल देना कि गुड्डो अभी जिंदा है, जल्दी ही मिलेगी.’’

इतना कहते ही गुड्डो वहां से चली गई.

मजबूरी: समीर को फर्ज निभाने का क्या इनाम मिला?

समीर एक कोने में चुपचाप बैठा हुआ था. उस की आंखों के आंसू बह कर सूख चुके थे. कुछ ही दूरी पर पड़ोसियों ने सर्दी के सितम को देख कर आग जलाने के लिए लकड़ियों का इंतजाम कर के आग जला दी थी. सामने ही एक टूटी खाट पर समीर की बेटी शाहीन की लाश पड़ी हुई थी, जिस के शरीर पर लिबास के नाम पर जगहजगह से फटापुराना एक सूट ही था.

समीर के पास ही बैठी उस की बीवी रजिया का रोना उस के कलेजे में तीर की तरह चुभ रहा था. घर में पासपड़ोस वालों की भीड़ बढ़ने लगी थी और औरतें लगातार रजिया को दिलासा दे रही थीं. देर रात से रोतीबिलखती रजिया के आंसू भी अब सूख चुके थे.

सुबह सूरज की किरणें धूप के रूप में समीर के आंगन में उतर चुकी थीं और शाहीन की मुरदा देह को न जाने कैसी तपिश देने की कोशिश कर रही थीं. धूप से सर्दी का सितम थोड़ा सा कम हो गया था, पर यह सब हुआ समीर की बेटी शाहीन के जाने के बाद. अगर उस के पास भी पहननेओढ़ने के लिए कुछ होता, तो शायद शाहीन जिंदा होती.

समीर ने लाख कोशिश की कि कहीं से पैसों का इंतजाम कर गरम कपड़े खरीद ले, लेकिन कुछ भी मुमकिन न हो सका. उस की झोंपड़ी भी ऐसी न थी कि ठंड से बचाव हो सके.

समीर अब उस दिन को कोस रहा था जब उस ने एक मासूम बच्चे की जान बचाने का फर्ज निभाया था. कितना खुश था वह अपनी बीवी रजिया और बेटी शाहीन के साथ.

समीर एक ईंटभट्ठे पर मजदूरी करता था. हर रोज उसे मजदूरी में ज्यादा रुपए तो नहीं मिल पाते थे, लेकिन फिर भी वह अपना और अपने परिवार का भरणपोषण किसी तरह सुकून से कर लेता था. उस के मजदूर साथी हमेशा यही कहते थे कि समीर जितना भी परेशान रहता हो, पर हमेशा हंसता ही रहता है, पर उस की खुशियों भरी जिंदगी में ऐसा बवाल मचा कि उस के चेहरे से हंसी हमेशा के लिए गायब हो गई.

समीर उस दिन भी हमेशा की तरह मजदूरी करने ईंटभट्ठे पर जा रहा था कि तभी उस ने देखा सामने की कालोनी से निकल कर एक बच्चा अपनी छोटी सी साइकिल चलाता हुआ सड़क पर आ गया था. शायद उस बच्चे की देखभाल करने वाली आया उसे छोड़ कर अंदर चली गई थी.

इन बड़े लोगों के ठाठ भी बड़े अजीब होते हैं कि अपने खुद के बच्चे को पालने के लिए भी इन्हें किसी और की जरूरत पड़ती है, शायद अपने पैसों का रुतबा दिखाने के लिए ये लोग ऐसा करते हैं.

तभी तेज बजते हौर्न से समीर का ध्यान सड़क की तरफ गया. एक ट्रक तेजी से उस बच्चे की ओर आ रहा था. समीर समझ गया कि उस बच्चे को बचाने के लिए शोर मचाना फुजूल है और वह उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ा. जैसे ही वह बच्चे के करीब पहुंचा और उसे उठा कर दौड़ा कि तभी उसे ट्रक की एक जोरदार टक्कर लगी और उस के हाथ से बच्चा उछल कर दूर जा गिरा. समीर चीख पड़ा. उसे कुछ शोर सुनाई दिया और उस के बाद वह बेहोश हो गया.

जब समीर को होश आया तो उस के नथुनों में दवाओं की अजीब सी गंध भर गई. उस ने एक नजर कमरे के चारों ओर डाली और दीवार पर लगे खस्ताहाल कलैंडर से अंदाजा लगा लिया कि वह किसी सरकारी अस्पताल में है. तभी उस ने हिलने की कोशिश की, तो उस के शरीर में एक दर्द की लहर सी दौड़ गई. इस के बाद उसे बच्चे की याद आई.

कुछ ही पलों में कमरे में रजिया शाहीन को ले कर आ गई. रजिया के उलझे बाल और सूजी आंखें देख कर ऐसा लग रहा था कि वह कई रातों से सोई नहीं थी.

समीर को नहीं पता था कि वह कितने दिनों से अस्पताल में था और रजिया ने कैसे उस के इलाज के लिए पैसों का इंतजाम किया होगा. तभी उस के पैर में तेज दर्द उठा. उस ने पैर हिलाने की कोशिश की, तो पाया कि उस का पैर था ही नहीं. यह महसूस होते ही वह अंदर तक सिहर गया.

“मेरा पैर…” समीर के मुंह से बहुत ही मुश्किल से ये 2 शब्द निकले.

“ट्रक की टक्कर से आप का एक पैर कई जगह से फैक्चर हो गया था, जो किसी तरह से भी जुड़ने के हालात में नहीं था, लिहाजा हमें आप का पैर काट कर अलग करना पड़ा वरना शरीर में जहर फैलने की वजह से आप की जान भी जा सकती थी,” अंदर आते हुए एक डाक्टर ने बताया.

कुछ दिनों बाद ही समीर को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. घर के हालात बद से बदतर हो चुके थे. रजिया भी अब आसपड़ोस के घरों में चौकाबरतन करने लगी थी, जिस से जैसेतैसे गुजरबसर हो रही थी.

रजिया ने ही समीर को बताया कि ट्रक ड्राइवर ट्रक ले कर वहां से भाग गया था. उस बच्चे के मातापिता ने यह एहसान कर दिया था कि ऊंची पहुंच के चलते उसे उठा कर सरकारी अस्पताल में भरती करा दिया था, पर उस के बाद उन लोगों ने उस का हालचाल पूछने की भी जरूरत नहीं समझी और नातेरिश्तेदारों ने तो 2-4 दिन के बाद ही आना बंद कर दिया था कि कहीं कुछ देना न पड़ जाए.

समीर अब बैसाखियों के सहारे ही था. रजिया को देख कर उसे ऐसा लग रहा था जैसे उस ने खुद अपने हाथों उस की खुशियों और जवानी दोनों पर ग्रहण लगा दिया था. 26 साल की उम्र में वह 46 साल की लगने लगी थी. उस के शरीर में अब हड्डियों के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था.

घर की हालत कुछ ज्यादा ही खराब हो चुकी थी. रजिया द्वारा कमाए गए रुपयों से जैसेतैसे दो वक्त का खाना ही मिल पा रहा था. इसी बीच समीर को घने अंधकार के बीच रोशनी की एक किरण चमकती दिखाई दी. पता चला कि सरकार की ओर से जरूरतमंदों और गरीबों के लिए कई योजनाएं शुरू कर दी गई हैं, जिस के लिए वह सभासद, चेयरमैन से ले कर विधायक और सरकारी अफसरों की चौखट के चक्कर लगाता रहा, लेकिन हर जगह उसे बस आश्वासन ही दिया गया कि जल्द ही आप को सरकारी सुविधाएं दे दी जाएंगी, पर उसे कुछ नहीं मिल पाया, क्योंकि वह किसी भी जांच अधिकारी को अपनी बेबसी और मजबूरी के अलावा और कुछ न दे सका.

इस बार की सर्दी समीर की परेशानियों को बढ़ाने आई थी. कड़ाके की सर्दी होने के बावजूद उस के पास गरम कपड़े के नाम पर कुछ भी नहीं था. और तो और उस की बेटी शाहीन के लिए भी कुछ नहीं था. रजिया ने बहुत कोशिश की थी कि गरम कपड़ों का इंतजाम हो सके, लेकिन कुछ न हो सका.

सर्दी का कहर सितम पर था. घना कोहरा और चल रही शीतलहर समीर के परिवार पर पूरी तरह से कहर बरपा कर रही थी. इसी बीच शाहीन को सर्दी ने अपने आगोश में ले लिया. रजिया जैसेतैसे पैसों का इंतजाम कर महल्ले के नीमहकीम डाक्टर से दवा ले कर शाहीन को खिला रही थी, लेकिन तबीयत में सुधार न होते देख उस डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए और शाहीन को किसी बड़े डाक्टर को दिखाने के लिए कहा, जिस के बाद समीर शाहीन के इलाज के लिए सरकारी अस्पताल भी गया, पर वहां भी सही इलाज न हो पाया, क्योंकि सरकारी डाक्टर बाहर की दवा ही लिख कर देते थे, जिन्हें खरीदने में वह पूरी तरह नाकाम था.

रजिया ने डाक्टर साहब से विनती भी की थी कि उस की बेटी को बाहर की दवा न लिख कर अंदर से ही दवा दे दी जाए, लेकिन डाक्टर ने उस की एक न सुनी.

समीर अपने बचपन के दोस्त शफीक से रुपए उधार लेने गया, लेकिन उस ने भी कामधंधा न चलने का बहाना बना कर उसे टाल दिया. वह बुझे मन से वापस चला आया. उस का मन कर रहा था कि इस से अच्छा तो वह उसी दिन मर गया होता, जब वह सड़क हादसा हुआ था.

आज जब समीर ने घर की चौखट पर कदम रखा तभी रजिया की जोर से रोने की आवाज सुनाई दी. उस ने अंदर जा कर देखा कि शाहीन अपना इलाज होने का इंतजार करतेकरते हमेशा के लिए सो गई थी. यह देख कर वह वहीं जमीन पर बैठ गया. वह खुद को ही शाहीन का कातिल समझ रहा है. उस के पास तो शाहीन के कफनदफन के लिए भी पैसे नहीं थे.

“अरे, यह सब कैसे हो गया… हमें तो पता ही नहीं चला. एक बार कुछ बताया तो होता,” तभी किसी के ऊंचे स्वर में बोलने की आवाज सुन कर समीर की तंद्रा टूटी.

समीर ने देखा कि महल्ले का सभासद किसी बड़े नेता को अपने साथ लाया था. उस नेता के साथ उस के कुछ कार्यकर्ता भी थे, जो रजिया से पूछ रहे थे. दूसरी ओर कुछ लोग मोबाइल फोन से धड़ाधड़ उन के फोटो खींच रहे थे.

“ये लो 5,000 रुपए और बच्ची के कफनदफन का इंतजाम करो,” उस नेता जैसे दिखने वाले आदमी ने पैसे समीर के हाथ में पकड़ा दिए.

‘निकल जाओ यहां से… कोई जरूरत नहीं यह सब दिखावा करने की और ले जाओ अपने ये रुपए…’ समीर का मन जोर से चीखने को कर रहा था, पर सामने पड़ी बेटी की लाश को देख कर उस की चीख न जाने कहां गुम हो गई थी.

प्रेरणा: क्या अंकिता ने अपने सपनों को दोबारा पूरा किया?

‘‘बड़ी मुद्दत हुई तुम्हारा गाना सुने. आज कुछ सुनाओ. कोई भी राग उठा लो,  बागेश्वरी, विहाग या मालकोश, जो इस समय के राग हैं,’’ रात का भोजन करने के बाद मनोहर लाल ने अंकिता से इच्छा व्यक्त की. वे बड़े लंबे समय के बाद अपनी बेटी और दामाद के यहां उन से मिलने आए थे.

इस से पहले कि अंकिता कुछ कहती, उस की 14 साल की बेटी चहक पड़ी, ‘‘सुना तो है कि मां बड़ा अच्छा गाती थीं, संगीत विशारद भी हैं, लेकिन मैं ने तो आज तक इन के मुख से कोई गाना नहीं सुना.’’

‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूं? तुम तो इतना बढि़या गाती थीं. कुछ और समय लखनऊ में रहना हो गया होता तो तुम ने संगीत में निपुणता प्राप्त कर ली होती.’’

‘‘अभ्यास छूटे एक युग बीत गया. अब गला ही नहीं चलता. मेरे पास शास्त्रीय संगीत के अनेक कैसेट पड़े हैं, उन में से कोई लगा दूं?’’

‘‘नहीं, वह सब कुछ नहीं. इतने परिश्रम से सीखी हुई विद्या तुम ने गंवा कैसे दी? शाम 4 बजे के बाद कालेज से लौटती थीं तो जल्दीजल्दी कुछ नाश्ता कर रिकशे से भातखंडे कालेज चल देती थीं. वहां से लौटतेलौटते रात के साढ़े 7 बज जाते थे. थक जाने पर भी रियाज करती थीं. जाड़ों में रात जल्दी घिर आती है. तब मैं तुम्हें लेने साइकिल से कालेज पहुंचता था. उस ओर से रिकशे के पैसे बचाने के लिए तुम कितने उत्साह से पैदल ही उछलतीकूदती चली आती थीं. हम लोगों के कैसे कठिन दिन थे वे. वह सारी साधना धूल में मिल गई.’’

‘‘पिताजी, आप तो समझते नहीं. शादी के बाद बराबर तो असम में रहना पड़ा. उस पर नौकरी के आएदिन के तबादले और दौरे. उस अनजाने क्षेत्र में अकेली कलपती मैं क्या अभ्यास करती. मुझे तो हर समय डर लगा रहता था. आप ने देख तो लिया, इतने सालों के बाद आप आए हैं, लेकिन फिर भी इन का दौरे पर जाना जरूरी है.’’

‘‘यह तो नौकरी की विवशता है. इस में तुम दोनों क्या कर सकते हो? अकेलेपन की जो समस्या तुम ने उठाई, उस में तो संगीत या पुस्तकों से उत्तम और कोई साथी होता ही नहीं. अच्छा, यह बताओ कि तुम ने संगीत सीखा क्यों था?’’

‘‘मां और आप को शास्त्रीय संगीत का शौक था. जिस काम से आप लोग प्रसन्न हों उसे करने में हम सभी भाईबहनों को तब आनंद आता था.’’

‘‘यह सही नहीं है. रुचि न होने पर कहीं पुरस्कार जीते जाते हैं? अच्छा, अब कुछ शुरू करो.’’

‘‘पिताजी, घर में तानपूरा तक तो है नहीं.’’

‘‘कोई बात नहीं, बिना तानपूरे के भी चलेगा. किसी संगीत सभा में थोड़े ही गा रही हो?’’

कुछ देर शांत रहने के बाद अंकिता ने गला साफ कर के खांसा. तुहिना किलक उठी, ‘‘आज आईं मां पकड़ में.’’

कुछ गुनगुनाने के बाद अंकिता का स्वर उभरा :

‘कौन करत तोसों विनती पियरवा,

मानो न मानो मोरी बात.’

गाने की इस प्रथम पंक्ति को 3-4 बार दोहराने के बाद अंकिता ने राग के अंतरे को उठाया :

‘जब से गए मोरी सुधि हू न लीनी,

कल न परत दिनरात.’

लेकिन वह खिंच नहीं सका और अंकिता हताशा में सिर झटकते हुए चुप हो गई.

मनोहर लाल, जो आंखें बंद किए बेटी का गायन सुन रहे थे, बोले, ‘‘अगर मुझे ठीक याद है तो बागेश्वरी के इसी गीत पर तुम्हें अंतरविद्यालय संगीत समारोह में पुरस्कार मिला था. आज यह हालत है कि तुम यह भी भूल गईं कि बागेश्वरी में 2 स्वर कोमल लगते हैं. तुम ने तो उन की जगह शुद्ध स्वर लगा दिए. अंतरा भी तुम इसलिए नहीं खींच पाईं क्योंकि अभ्यास छूटा हुआ है.’’

‘‘अब क्या करूं, पिताजी?’’ अंकिता ने झींक कर कहा.

‘‘मेरी बात मानो तो एक तानपूरा खरीद लो. तुहिना अब बड़ी हो गई है. उसे तबला सिखवा दो. मैं सच कहता हूं कि यह जो तुम्हें हर समय बोरियत सी महसूस होती रहती है, सब दूर भाग जाएगी.’’

‘‘कोशिश करूंगी.’’

‘‘कोशिश नहीं, समझ लो कि यह तो करना ही है. लोग इस देश से प्रतिभा पलायन को ले कर हंगामा खड़ा करते हैं. लेकिन यहां तो प्रत्यक्ष प्रतिभा पराभव को देख रहा हूं. यह कहां तक उचित है?’’

अगले दिन अचल भी दौरे से लौट आए. उन्होंने जब तुहिना से अंकिता की छीछालेदर की बात सुनी तो अपने ससुर को सफाई देने लगे, ‘‘पिताजी, मैं ने तो न जाने कितनी बार इन से कहा कि अपने संगीत ज्ञान को नष्ट न होने दें और रुचि बनाए रखें. कैसेट तो घर में दर्जनों आ गए हैं लेकिन गाने के नाम पर हमेशा यही सुनने को मिला कि गला ही साथ नहीं देता. शायद अब आप के कहने का कुछ असर पड़े.’’

मनोहर लाल तो 4 दिन रहने के बाद लौट गए परंतु अपने पीछे बेटी के घर में मोटरकार के पीछे उठे धूल के गुबार जैसा वातावरण छोड़ गए. अंकिता खिसियानी बिल्ली की तरह कई दिनों तक बातबात पर नौकर और तुहिना पर बरसती रही.

अभी इस घटना को बीते एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था कि एक शाम चपरासी ने अंदर आ कर अंकिता को सूचना दी, ‘‘छोटे साहब आए हैं. साथ में उन की पत्नी भी हैं. उन को बैठक में बैठा दिया है.’’

‘‘ठीक किया. हम लोग अभी आते हैं. रसोई में चंदन से कहना कि कुछ खाने की चीजें और 4 गिलास शरबत बैठक में पहुंचा जाए.’’

ठीक है कहता हुआ चपरासी रसोईघर की ओर चला गया.

‘‘अभी नए असिस्टैंट इंजीनियर की नियुक्ति हुई है. शायद वही मिलने आए होंगे,’’ अचल ने अंकिता को बताया.

अचल और अंकिता ने बैठक में जा कर देखा कि एक आकर्षक युवा दंपती बैठे प्रतीक्षा कर रहे हैं. शुरुआती शिष्टाचार के बाद दोनों पुरुषों में तो बातचीत शुरू हो गई लेकिन आगंतुक महिला को चुप देख अंकिता ने उस से पूछा, ‘‘आप कहां की हैं?’’

‘‘मेरी ससुराल तो बरेली में है लेकिन मायका लखनऊ में है.’’

‘‘मैं भी लखनऊ की हूं. इसलिए तुम मुझे ‘दीदी’ कह सकती हो. वैसे तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, सिकता.’’

फिर तो अंकिता ने उस से उस के महल्ले, स्कूल, कालेज आदि सभी के बारे में पूछ डाला. यह भी पता चला कि सिकता ने भी भातखंडे संगीत विद्यालय में संगीत की शिक्षा पाई थी.

‘‘जब भी खाली समय हुआ करे और मन न लगे तो मेरे पास चली आया करो. अब संकोच न करना.’’

‘‘खाली समय तो बहुत रहता है क्योंकि ये तो जब देखो तब दौरे पर जाते रहते हैं और मैं अकेली घर में पड़ी ऊबती रहती हूं. अकेले घर में गाया भी नहीं जा सकता. नौकरचाकर न जाने क्या सोचें?’’

अंकिता के मस्तिष्क में सहसा बिजली सी कौंधी. वह बोली, ‘‘हम लोगों के क्लब में एक महिला समिति भी है, जिस में अफसरों की पत्नियां या तो ताश खेलती रहती हैं या फिर कभी ‘हाउसी’. क्यों न हम दोनों मिल कर कालोनी की लड़कियों के लिए संगीत की कक्षाएं शुरू करें. तुम्हारा तो अभी सबकुछ नया सीखा हुआ है. तुम्हारे सहारे मैं भी अपने पुराने अभ्यास पर धार लगाने का प्रयास करूंगी.’’

‘‘सच दीदी, आप ने तो मेरी बिन मांगी मुराद पूरी कर दी. आप जैसा भी कहेंगी, मैं करती रहूंगी. आप शुरू तो करें,’’ सिकता उत्साह से चहक उठी.

अंकिता ने अपने प्रभाव से क्लब की महिला समिति में एक कमरे में संगीत कक्षाएं चालू करा दीं, लेकिन शुरूशुरू में तथाकथित संभ्रांत महिलाओं ने खूब नाकभौं सिकोड़ी. कुछ ने तो यहां तक कह डाला कि यह 4 दिन की चांदनी है, फिर तो टांयटांय फिस्स होना ही है.

परंतु अंकिता को यह सब सुनने की फुरसत नहीं थी. सिकता और स्वयं के अतिरिक्त उस ने एक अन्य अध्यापक तथा तबलावादक को वेतन दे कर 3 घंटे प्रतिदिन के लिए नियुक्त कर लिया. कालोनी से संगीत सीखने की इच्छुक 10-12 लड़कियां और महिलाएं भी एकत्र हो गईं.

सिकता को तो संगीत सिखाना सहज लगता था लेकिन अंकिता को कुछ कक्षाएं पढ़ाने के लिए पहले घर पर घंटों अभ्यास करना पड़ा. उस पर एक नशा सा छाया हुआ था और वह जीतोड़ परिश्रम में लगी हुई थी. महिला समिति के फंड के अलावा वह अपने पास से भी काफी धन संगीत विद्यालय के लिए खर्च कर चुकी थी.

अंकिता को जैसेजैसे संगीत विद्यालय की आलोचना सुनने को मिलती, वैसेवैसे उस का संकल्प और दृढ़ होता जाता. देखतेदेखते 2 साल के अंदर ही इस संगीत विद्यालय ने अपनी पहचान बनानी आरंभ कर दी. महल्ले में क्या, पूरे शहर में उस की चर्चा होने लगी.

जहां किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता वहां संगीत विद्यालय की छात्राओं को भेजने के अनुरोध भी अंकिता को प्राप्त होने लगे. उस को इस से काफी आत्मसंतोष मिलता. वह इस तरह के सभी प्रस्तावों का स्वागत करती और हरेक कार्यक्रम को प्रस्तुत करने से पहले भाग लेने वाली छात्राओं को जम कर अभ्यास कराती. अधिकांश कार्यक्रमों का संचालन वह खुद ही करती.

क्लब में होली, तीज, ईद, दीवाली तथा राष्ट्रीय पर्वों पर होने वाले समारोहों में वह संगीत विद्यालय के विशेष कार्यक्रम रखती, जिन की सभी प्रशंसा करते. स्थानीय अखबारों में उन की रिपोर्ट छपती. कभीकभी आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी निमंत्रण मिलने लगा.

अचल का जल्द ही होने वाला तबादला अंकिता को अब चिंतित करने लगा था क्योंकि इस स्थान पर उन के 4 साल पूरे हो चुके थे. उसे डर था कि कहीं उस के जाने के बाद विद्यालय बंद न हो जाए, इसलिए अंकिता ने संगीत विद्यालय की संचालन समिति के मुख्य पदों को पदेन रूप से परिवर्तित कर दिया था, जिस से किसी व्यक्ति विशेष के रहने अथवा न रहने से विद्यालय के संचालन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. स्थानीय वेतनभोगी अध्यापकों की संख्या भी बढ़ा दी थी. कुछ प्रमुख रुचिसंपन्न महिलाओं को उस ने विद्यालय का संरक्षक भी बना दिया था.

अचल अकसर अंकिता को खिजाते, ‘‘तुम तो अब पूरी तरह संगीत विद्यालय को समर्पित हो गई हो. कहीं ऐसा न हो कि मैं भी काट दिया जाऊं.’’

‘‘कैसी बात करते हैं. आप के ही सहयोग से तो मुझे सार्थक जीवन की ये घडि़यां देखने को मिली हैं.’’

‘‘मेरे कहने की तुम ने कब चिंता की? यह तो पिताजी की झिड़की का प्रभाव है.’’

‘‘सच, हमारे विद्यालय के कार्यक्रमों में बड़ा निखार आ रहा है. डर यही लगता है कि कहीं हमारे तबादले के बाद यह उत्साह ठंडा न पड़ जाए.’’

‘‘तुम ने नींव तो इतनी मजबूत डाली है कि अब उसे चलते रहना चाहिए.’’

‘‘क्यों जी, हम लोगों का तबादला 1-2 साल के लिए रुक नहीं सकता?’’

‘‘इस बार तबादला तरक्की के साथ होगा. उसे रुकवाना हानिकारक होगा. चिंता क्यों करती हो, जिस जगह भी जाएंगे, वहां एक नया विद्यालय शुरू किया जा सकता है.’’

‘‘यहां सब जम गया था. कहांकहां नए गड्ढे खोदें और पौधे रोपें.’’

‘‘तो क्या हुआ? अब तो माली निपुण हो गया है. फिर वहां तुम्हारा स्तर ऊंचा होने का भी तो लाभ मिलेगा. वहां कौन काट सकेगा तुम्हारी बात?’’

‘‘अब जो होगा, देखूंगी. पर जगहजगह तंबू गाड़ना मुझे भाता नहीं.’’

‘‘भई, हम लोग तो गाडि़या लुहार हैं. दिन में सड़क किनारे गाड़ी रोकी, कुदाल, खुरपी, हंसिए बनाए, बेचे और बढ़ चले. इस जीवन का अपना अलग रस है.’’

‘‘हर कोई आप की तरह दार्शनिक नहीं होता.’’

बात पर तो विराम लग गया परंतु अंकिता के मन की चंचलता बनी रही.

वसंतपंचमी के अवसर पर दूरदर्शन के प्रादेशिक प्रसारण में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत करने के प्रस्ताव को अंकिता ने स्वीकार तो कर लिया परंतु उस के लिए 2 गीत तैयार कराने में उसे और छात्राओं को बड़ा परिश्रम करना पड़ा. कार्यक्रम का सफल मंचन हो जाने पर उसे बड़ा संतोष मिला.

अंकिता अभी वसंत के कार्यक्रम की अपनी थकान उतार भी नहीं पाई थी कि उसे अपने पिता का पत्र मिला.

‘‘टीवी के प्रादेशिक कार्यक्रम में तुम्हारे विद्यालय द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम देखा. संचालिका के रूप में तुम्हें पहचान लिया. कार्यक्रम बहुत अच्छा था. मन बहुत प्रसन्न हुआ. लेकिन बेटी, एक बात याद रखना कि विद्या के क्षेत्र में प्रसाद वर्जित है.’’

पत्र पाने के बाद अंकिता आत्मसंतोष से भर उठी.

तृष्णा : इरा को जिंदगी से क्या शिकायत थी

उस का मन एक स्वच्छ और निर्मल आकाश था, एक कोरा कैनवस, जिस पर वह जब चाहे, जो भी रंग भर लेती थी. ‘लेकिन यथार्थ के धरातल पर ऐसे कोई रह सकता है क्या?’ उस का मन कभीकभी उसे यह समझाता, पर ठहर कर इस आवाज को सुनने की न तो उसे फुरसत थी, न ही चाह. फिर उसे अचानक दिखा था, उदय, उस के जीवन के सागर के पास से उगता हुआ. उस ने चाहा था, काश, वह इतनी दूर न होता. काश, इस सागर को वह आंखें मूंद कर पार कर पाती. उस ने आंखें मूंदी थीं और आंखें खुलने पर उस ने देखा, उदय सागर को पार कर उस के पास खड़ा है, बहुत पास. सच तो यह था कि उदय उस का हाथ थामे चल पड़ा था.

दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. संसार का मायाजाल अपने भंवर की भयानक गहराइयों में उन्हें निगलने को धीरेधीरे बढ़ने लगा था. उन के प्यार की खुशबू चंदन बन कर इरा की गोद में आ गिरी तो वह चौंक उठी. बंद आंखों, अधखुली मुट्ठियों, रुई के ढेर से नर्म शरीर के साथ एक खूबसूरत और प्यारी सी हकीकत, लेकिन इरा के लिए एक चुनौती. इरा की सुबह और शाम, दिन और रात चंदन की परवरिश में बीतने लगे. घड़ी के कांटे के साथसाथ उस की हर जरूरत को पूरा करतेकरते वह स्वयं एक घड़ी बन चुकी थी. लेकिन उदय जबतब एक सदाबहार झोंके की तरह उस के पास आ कर उसे सहला जाता. तब उसे एहसास होता कि वह भी एक इंसान है, मशीन नहीं.

चंदन बड़ा होता गया. इरा अब फिर से आजाद थी, लेकिन चंदन का एक तूफान की तरह आ कर जाना उसे उदय की परछाईं से जुदा सा कर गया. अब वह फिर से सालों पहले वाली इरा थी. उसे लगता, ‘क्या उस के जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया? क्या अब वह निरुद्देश्य है?’ एक बार उदय रात में देर से घर आया था, थका सा आंखें बंद कर लेट गया. इरा की आंखों में नींद नहीं थी. थोड़ी देर वह सोचती रही, फिर धीरे से पूछा, ‘‘सो गए क्या?’’

‘‘नहीं, क्या बात है?’’ आंखें बंद किए ही वह बोला. ‘‘मुझे नींद नहीं आती.’’

उदय परेशान हो गया, ‘‘क्या बात है? तबीयत तो ठीक है न?’’ अपनी बांह का सिरहाना बना कर वह उस के बालों में उंगलियां फेरने लगा. इरा ने धीरे से अलग होने की कोशिश की, ‘‘कोई बात नहीं, मुझे अभी नींद आ जाएगी, तुम सो जाओ.’’

थोड़ी देर तब उदय उलझा सा जागा रहा, फिर उस के कंधे पर हाथ रख कर गहरी नींद सो गया. कुछ दिनों बाद एक सुबह नाश्ते की मेज पर इरा ने उदय से कहा, ‘‘तुम और चंदन दिनभर बाहर रहते हो, मेरा मन नहीं लगता, अकेले मैं क्या करूं?’’

उदय ने हंस कर कहा, ‘‘सीधेसीधे कहो न कि चंदन तो आ गया, अब चांदनी चाहिए.’’ ‘‘जी नहीं, मेरा यह मतलब हरगिज नहीं था. मैं भी कुछ काम करना चाहती हूं.’’

‘‘अच्छा, मैं तो सोचता था, तुम्हें घर के सुख से अलग कर बाहर की धूप में क्यों झुलसाऊं? मेरे मन में कई बार आया था कि पूछूं, तुम अकेली घर में उदास तो नहीं हो जाती हो?’’ ‘‘तो पूछा क्यों नहीं?’’ इरा के स्वर में मान था.

‘‘तुम क्या करना चाहती हो?’’ ‘‘कुछ भी, जिस में मैं अपना योगदान दे सकूं.’’

‘‘मेरे पास बहुत काम है, मुझ से अकेले नहीं संभलता. तुम वक्त निकाल सकती हो तो इस से अच्छा क्या होगा?’’ इरा खुशी से झूम उठी.

दूसरे दिन जल्दीजल्दी सब काम निबटा कर चंदन को स्कूल भेज कर दोनों जब घर से बाहर निकले तो इरा की आंखों में दुनिया को जीत लेने की उम्मीद चमक रही थी. सारा दिन औफिस में दोनों ने गंभीरता से काम किया. इरा ने जल्दी ही काफी काम समझ लिया. उदय बारबार उस का हौसला बढ़ाता. जीवन अपनी गति से चल पड़ा. सुबह कब शाम हो जाती और शाम कब रात, पता ही न चलता था.

एक दिन औफिस में दोनों चाय पी रहे थे कि एकाएक इरा ने कहा, ‘‘एक बात पूछूं?’’ ‘‘हांहां, कहो.’’

‘‘यह बताओ, हम जो यह सब कर रहे हैं, इस से क्या होगा?’’ उदय हैरानी से उस का चेहरा देखने लगा, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘यही कि रोज सुबह यहां आ कर वही काम करकर के हमें क्या मिलेगा?’’ ‘‘क्या पाना चाहती हो?’’ उदय ने हंस कर पूछा.

‘‘देखो, मेरी बात मजाक में न उड़ाना. मैं बहुत दिनों से सोच रही हूं, हमें एक ही जीवन मिला है, जो बहुत कीमती है. इस दुनिया में देखने को, जानने को बहुत कुछ है. क्या घर से औफिस और औफिस से घर के चक्कर काट कर ही हमारी जिंदगी खत्म हो जाएगी?’’ ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम जो कुछ कर रही हो, वह काफी नहीं है?’’ उदय गंभीर था.

इरा को न जाने क्यों गुस्सा आ गया. वह रोष से बोली, ‘‘क्या तुम्हें लगता है, जो तुम कर रहे हो, वही सबकुछ है और कुछ नहीं बचा करने को?’’ उदय ने मेज पर रखे उस के हाथ पर अपना हाथ रख दिया, ‘‘देखो, अपने छोटे से दिमाग को इतनी बड़ी फिलौसफी से थकाया न करो. शाम को घर चल कर बात करेंगे.’’

शाम को उदय ने कहा, ‘‘हां, अब बोलो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’ इरा ने आंखें बंद किएकिए ही कहना शुरू किया, ‘‘मैं जानना चाहती हूं कि जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए, आदर्श जीवन किसे कहना चाहिए, इंसान का सही कर्तव्य क्या है?’’

‘‘अरे, इस में क्या है? इतने सारे विद्वान इस दुनिया में हुए हैं. तुम्हारे पास तो किताबों का भंडार है, चाहो तो और मंगवा लो. सबकुछ तो उन में लिखा है, पढ़ लो और जान लो.’’ ‘‘मैं ने पढ़ा है, लेकिन उन में कुछ नहीं मिला. छोटा सा उदाहरण है, बुद्ध ने कहा कि ‘जीवहत्या पाप है’ लेकिन दूसरे धर्मों में लोग जीवों को स्वाद के लिए मार कर भी धार्मिक होने का दावा करते हैं और लोगों को जीने की राह सिखाते हैं. दोनों पक्ष एकसाथ सही तो नहीं हो सकते. बौद्ध धर्म को मानने वाले बहुत से देशों में तो लोगों ने कोई भी जानवर नहीं छोड़ा, जिसे वे खाते न हों. तुम्हीं बताओ, इस दुनिया में एक इंसान को कैसे रहना चाहिए?’’

‘‘देखो, तुम ऐसा करो, इन सब को अपनी अलग परिभाषा दे दो,’’ उदय ने हंस कर कहा.

इरा ने कहना शुरू किया, ‘‘मैं बहुतकुछ जानना चाहती हूं. देखना चाहती हूं कि जब पेड़पौधे, जमीन, नदियां सब बर्फ से ढक जाते हैं तो कैसा लगता है? जब उजाड़ रेगिस्तान में धूल भरी आंधियां चलती हैं तो कैसा महसूस होता है? पहाड़ की ऊंची चोटी पर पहुंच कर कैसा अुनभव होता है? सागर के बीचोंबीच पहुंचने पर चारों ओर कैसा दृश्य दिखाई देता है? ये सब रोमांच मैं स्वयं महसूस करना चाहती हूं.’’ उदय असहाय सा उसे देख रहा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह इरा को कैसे शांत करे. फिर भी उस ने कहा, ‘‘अच्छा उठो, हाथमुंह धो लो, थोड़ा बाहर घूम कर आते हैं,’’ फिर उस ने चंदन को आवाज दी, ‘‘चलो बेटे, हम बाहर जा रहे हैं.’’

उन लोगों ने पहले एक रैस्तरां में कौफी पी. चंदन ने अपनी पसंद की आइसक्रीम खाई. फिर एक थिएटर में पुरानी फिल्म देखी. रात हो चुकी थी तो उदय ने बाहर ही खाना खाने का प्रस्ताव रखा. काफी रात में वे घर लौटे. कुछ दिनों बाद उदय ने इरा से कहा, ‘‘इस बार चंदन की सर्दी की छुट्टियों में हम शिमला जा रहे हैं.’’

इरा चौंक पड़ी, ‘‘लेकिन उस वक्त तो वहां बर्फ गिर रही होगी.’’ ‘‘अरे भई, इसीलिए तो जाएंगे.’’

‘‘लेकिन चंदन को तो ठंड नुकसान पहुंचाएगी.’’ ‘‘वह अपने दादाजी के पास रहेगा.’’

शिमला पहुंच कर इरा बहुत खुश थी. हाथों में हाथ डाल कर वे दूर तक घूमने निकल जाते. एक दिन सर्दी की पहली बर्फ गिरी थी. इरा दौड़ कर कमरे से बाहर निकल गई. बरामदे में बैठे बर्फ गिरने के दृश्य को बहुत देर तक देखती रही.

फिर मौसम कुछ खराब हो गया था. वे दोनों 2 दिनों तक बाहर न निकल सके. 3-4 दिनों बाद ही इरा ने घर वापस चलने की जिद मचा दी. उदय उसे समझाता रह गया, ‘‘इतनी दूर इतने दिनों बाद आई हो, 2-4 दिन और रुको, फिर चलेंगे.’’

लेकिन उस ने एक न सुनी और उन्हें वापस आना पड़ा. एक बार चंदन ने कहा, ‘‘मां, जब कभी आप को बाहर जाना हो तो मुझे दादाजी के पास छोड़ जाना, मैं उन के साथ खूब खेलता हूं. वे मुझे बहुत अच्छीअच्छी कहानियां सुनाते हैं और दादी ने मेरी पसंद की बहुत सारी चीजें बना कर मुझे खिलाईं.’’

इरा ने उसे अपने सीने से लगा लिया और सोचने लगी, ‘शिमला में उसे चंदन का एक बार भी खयाल नहीं आया. क्या वह अच्छी मां नहीं? अब वह चंदन को एक दिन के लिए भी छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी.’ अब हर साल चंदन के स्कूल की छुट्टियों में वे तीनों कहीं न कहीं घूमने निकल जाते. जीवन में रस सा आ

गया था. सब बेचैनी से छुट्टियों का इंतजार करते. एक शाम चाय पीते हुए इरा ने कहा, ‘‘सुनो, विमलेशजी कह रही थीं कि इंटरनैशनल इंस्टिट्यूट औफ फिजिकल एजुकेशन से 2-3 लोग आए हैं, वे सुबह 1 घंटे ऐक्सरसाइज करना सिखाएंगे और उन के लैक्चर भी होंगे. मुझे लगता है, शायद मेरे कई प्रश्नों का उत्तर मुझे वहां जा कर मिल जाएगा. अगर कहो तो मैं भी चली जाया करूं, 15-20 दिनों की ही तो बात है.’’

उदय ने चाहा कि कहे, ‘तुम कहां विमलेश के चक्कर में पड़ रही हो. वह तो सारा दिन पूजापाठ, व्रतउपवास में लगी रहती है. यहां तक कि उसे इस का भी होश नहीं रहता कि उस के पति व बच्चों ने खाना खाया कि नहीं?’ लेकिन वह चुप रहा. थोड़ी देर बाद उस ने कहा, ‘‘ठीक है, सोच लो, तुम्हें ही समय निकालना पड़ेगा. ऐसा करो, 15-20 दिन तुम मेरे साथ औफिस न चलो.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं है, मैं कर लूंगी,’’ इरा उत्साहित थी. इरा अब ऐक्सरसाइज सीखने जाने लगी. सुबह जल्दी उठ कर वह उदय और चंदन के लिए नाश्ता बना कर चली जाती. उदय चंदन को ले कर टहलने निकल जाता और लौटते समय इरा को साथ ले कर वापस आ जाता. फिर दिनभर औफिस में दोनों काम करते.

शाम को घर लौटने पर कभी उदय कहता, ‘‘आज तुम थक गई होगी, औफिस में भी काम ज्यादा था और तुम सुबह 4 बजे से उठी हुई हो. आज बाहर खाना खा लेते हैं.’’

लेकिन वह न मानती. अब वह ऐक्सरसाइज करना सीख चुकी थी. सुबह जब सब सोते रहते तो वह उठ कर ऐक्सरसाइज करती. फिर दिन का सारा काम करने के बाद रात में चैन से सोती.

एक दिन इरा ने उदय से कहा, ‘‘ऐक्सरसाइज से मुझे बहुत शांति मिलती है. पहले मुझे छोटीछोटी बातों पर गुस्सा आ जाता था, लेकिन अब नहीं आता. कभी तुम भी कर के देखो, बहुत अच्छा लगेगा.’’ उदय ने हंस कर कहा, ‘‘भावनाओं को नियंत्रित नहीं करना चाहिए. सोचने के ढंग में परिवर्तन लाने से सबकुछ सहज हो सकता है.’’

चंदन की गरमी की छुट्टियां हुईं. सब ने नेपाल घूमने का कार्यक्रम बनाया. जैसे ही वे रेलवेस्टेशन पहुंचे, छोटेछोटे भिखारी बच्चों ने उन्हें घेर लिया, ‘माई, भूख लगी है, माई, तुम्हारे बच्चे जीएं. बाबू 10 रुपए दे दो, सुबह से कुछ खाया नहीं है.’ लेकिन यह सब कहते हुए उन के चेहरे पर कोई भाव नहीं था, तोते की तरह रटे हुए वे बोले चले जा रहे थे. इस से पहले कि उदय पर्स निकाल कर उन्हें पैसे दे पाता, इरा ने 20-25 रुपए निकाले और उन्हें दे कर कहा, ‘‘आपस में बराबरबराबर बांट लेना.’’

काठमांडू पहुंच कर वहां की सुंदर छटा देख कर सब मुग्ध रह गए. इरा सवेरे उठ कर खिड़की से पहाड़ों पर पड़ती धूप के बदलते रंग देख कर स्वयं को भी भूल जाती. एक रात उस ने उदय से कहा, ‘‘मुझे आजकल सपने में भूख से बिलखते, सर्दी से ठिठुरते बच्चे दिखाई देते हैं. फिर मुझे अपने इस तरह घूमनेफिरने पर पैसा बरबाद करने के लिए ग्लानि सी होने लगती है. जब हमारे चारों तरफ इतनी गरीबी, भुखमरी फैली हुई है, हमें इस तरह का जीवन जीने का अधिकार नहीं है.’’

उदय ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘तुम सच कहती हो, लेकिन स्वयं को धिक्कारने से समस्या खत्म तो नहीं हो सकती. हमें अपने सामर्थ्य के अनुसार ऐसे लोगों की सहायता करनी चाहिए, लेकिन भीख दे कर नहीं. हो सके तो इन्हें आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करना चाहिए. अगर हम ने अपनी जिंदगी में ऐसे 4-6 घरों के कुछ बच्चों को पढ़नेलिखने में आर्थिक या अन्य सहायता दे कर अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका दिया तो वह कम नहीं है. तुम इस में मेरी मदद करोगी तो मुझे अच्छा लगेगा.’’ इरा प्रशंसाभरी नजरों से उदय को देख रही थी. उस ने कहा, ‘‘लेकिन दुनिया तो बहुत बड़ी है. 2-4 घरों को सुधारने से क्या होगा?’’

नेपाल से लौटने के बाद इरा ने शहर की समाजसेवी संस्थाओं के बारे में पता लगाना शुरू किया. कई जगहों पर वह स्वयं जाती और शाम को लौट कर अपनी रिपोर्ट उदय को विस्तार से सुनाती. कभीकभी उदय झुंझला जाता, ‘‘तुम किस चक्कर में उलझ रही हो. ये संस्थाएं काम कम, दिखावा ज्यादा करती हैं. सच्चे मन से तुम जो कुछ कर सको, वही ठीक है.’’

लेकिन इरा उस से सहमत नहीं थी. आखिर एक संस्था उसे पसंद आ गई. अनीता कुमारी उस संस्था की अध्यक्ष थीं. वे एक बहुत बड़े उद्योगपति की पत्नी थीं. इरा उन के भाषण से बहुत प्रभावित हुई थी. उन की संस्था एक छोटा सा स्कूल चलाती थी, जिस में बच्चों को निशुल्क पढ़ाया जाता था. गांव की ही कुछ औरतों व लड़कियों को इस कार्य में लगाया गया था. इन शिक्षिकाओं को संस्था की ओर से वेतन दिया जाता था. समाज द्वारा सताई गई औरतों, विधवाओं, एकाकी वृद्धवृद्धाओं के लिए भी संस्था काफी कार्य कर रही थी.

इरा सोचती थी कि ये लोग कितने महान हैं, जो वर्षों निस्वार्थ भाव से समाजसेवा कर रहे हैं. धीरेधीरे अपनी मेहनत और लगन की वजह से वह अनीता का दाहिना हाथ बन गई. वे गांवों में जातीं, वहां के लोगों के साथ घुलमिल कर उन की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करतीं. इरा को कभीकभी महसूस होता कि वह उदय और चंदन के साथ अन्याय कर रही है. एक दिन यही बात उस ने अनीता से कह दी. वे थोड़ी देर उस की तरफ देखती रहीं, फिर धीरे से बोलीं, ‘‘तुम सच कह रही हो…तुम्हारे बच्चे और तुम्हारे पति का तुम पर पहला अधिकार है. तुम्हें घर और समाज दोनों में सामंजस्य रखना चाहिए.’’

इरा चौंक गई, ‘‘लेकिन आप तो सुबह आंख खुलने से ले कर रात देर तक समाजसेवा में लगी रहती हैं और मुझे ऐसी सलाह दे रही हैं?’’ ‘‘मेरी कहानी तुम से अलग है, इरा. मेरी शादी एक बहुत धनी खानदान में हुई. शादी के बाद कुछ सालों तक मैं समझ न सकी कि मेरा जीवन किस ओर जा रहा है? मेरे पति बहुत बड़े उद्योगपति हैं. आएदिन या तो मेरे या दूसरों के यहां पार्टियां होती हैं. मेरा काम सिर्फ सजसंवर कर उन पार्टियों में जाना था. ऐसा नहीं था कि मेरे पति मुझे या मेरी भावनाओं को समझते नहीं थे, लेकिन वे मुझे अपने कीमती समय के अलावा सबकुछ दे सकते थे.

‘‘फिर मेरे जीवन में हंसताखेलता एक राजकुमार आया. मुझे लगा, मेरा जीवन खुशियों से भर गया. लेकिन अभी उस का तुतलाना खत्म भी नहीं हुआ था कि मेरे खानदान की परंपरा के अनुसार उसे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया. अब मेरे पास कुछ नहीं था. पति को अकसर काम के सिलसिले में देशविदेश घूमना पड़ता और मैं बिलकुल अकेली रह जाती. जब कभी उन से इस बात की शिकायत करती तो वे मुझे सहेलियों से मिलनेजुलने की सलाह देते. ‘‘धीरेधीरे मैं ने घर में काम करने वाले नौकरों के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. शुरू में तो मेरे पति थोड़ा परेशान हुए, फिर उन्होंने कुछ नहीं कहा. वहां से यहां तक मैं उन के सहयोग के बिना नहीं पहुंच सकती थी. उन्हें मालूम हो गया था कि अगर मैं व्यस्त नहीं रहूंगी तो बीमार हो जाऊंगी.’’

इरा जैसे सोते से जागी, उस ने कुछ न कहा और चुपचाप घर चली आई. उसे जल्दी लौटा देख कर उदय चौंक पड़ा. चंदन दौड़ कर उस से लिपट गया. उदय और चंदन खाना खाने जा रहे थे. उदय ने अपने ही हाथों से कुछ बना लिया था. चंदन को होटल का खाना अच्छा नहीं लगता था. मेज पर रखी प्लेट में टेढ़ीमेढ़ी रोटियां और आलू की सूखी सब्जी देख कर इरा का दिल भर आया.

चंदन बोला, ‘‘मां, आज मैं आप के साथ खाना खाऊंगा. पिताजी भी ठीक से खाना नहीं खाते हैं.’’

इरा ने उदय की ओर देखा और उस की गोद में सिर रख कर फफक कर रो पड़ी, ‘‘मैं तुम दोनों को बहुत दुख देती हूं. तुम मुझे रोकते क्यों नहीं?’’ उदय ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने तुम से प्यार किया है और पति होने का अधिकार मैं जबरदस्ती तुम से नहीं लूंगा, यह तुम जानती हो. जीवन के अनुभव प्राप्त करने में कोई बुराई तो नहीं, लेकिन बात क्या है तुम इतनी परेशान क्यों हो?’’

इरा उसे अनीताजी के बारे में बताने लगी, ‘‘जिन को आदर्श मान कर मैं अपनी गृहस्थी को अनदेखा कर चली थी, उन के लिए तो समाजसेवा सूने जीवन को भरने का साधन मात्र थी. लेकिन मेरा जीवन तो सूना नहीं. अनीता के पास करने के लिए कुछ नहीं था, न पति पास था, न संतान और न ही उन्हें अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना था. लेकिन मेरे पास तो पति भी है, संतान भी, जिन की देखभाल की जिम्मेदारी सिर्फ मेरी है, जिन के साथ इस समाज में अपनी जगह बनाने के लिए मुझे संघर्ष करना है. यह सब ईमानदारी से करते हुए समाज के लिए अगर कुछ कर सकूं, वही मेरे जीवन का उद्देश्य होगा और यही जीवन का सत्य भी…’’

करकट: ताप्ती अपने घर को देखकर क्यों रोने लगी?

सुबह होते ही गांव में जैसे हाहाकार मच गया था. नदी में पानी का लैवल और बढ़ गया था जिस से गांव में पानी घुस आया था और वह लगातार बढ़ता जा रहा था. दूर नदी में पानी की धार देखते ही डर लगता था. सभी के घरों में अफरातफरी मची थी. लोग जैसे किसी अनहोनी से डरे हुए थे.

वैसे तो तकरीबन सभी के पास अपनीअपनी छोटीबड़ी नावें थीं, मगर इस भयंकर बहाव में जहाज तक के बह जाने का डर था, फिर भी जान बचाने के लिए निकलना तो था ही.

‘‘लगता है, फिर से मणिपुर बांध से पानी छोड़ा गया है…’’ लक्ष्मण बोल रहा था, ‘‘अब हमें यह जगह छोड़नी पड़ेगी.’’

‘‘तो चलो न, सोच क्या रहे हो…’’ उस की पत्नी ताप्ती जैसे पहले से तैयार बैठी थी, ‘‘लो, पहले मैं ही चावल की बोरी नाव में चढ़ा आती हूं.’’

तीनों बच्चे भी सामान की छोटीबड़ी पोटलियों को नाव पर लादने में लगे रहे. रसोई के बरतन, बालटी, कलश वगैरह नाव पर रखे जा चुके थे. कुछ सूखी लकडि़यां और धान की भूसी से भरा बोरा भी लद चुका था.

तीनों बच्चे नाव पर चढ़े पानी के साथ छपछप खेल रहे थे कि ताप्ती ने उन्हें डांटा, ‘‘तुम लोगों को कितनी बार कहा है कि पानी और आग के साथ खेल नहीं खेलते हैं.’’

‘‘हमें तैरना आता है मां…’’ बड़ा बेटा रिंकू हंसते हुए बोला, ‘‘देखना

मां, एक दिन मैं इसी नाव को खेते हुए बंगलादेश में सिलहट शहर चला जाऊंगा.’’

रिंकू की इस बात पर लक्ष्मण हंसने लगा. कभी वे दिन थे, जब वह अपने बालपन में ऐसे ही सपने पाला करता था. यह अलग बात थी कि वह उधर कभी जा नहीं पाया. कैसे जा सकता है किसी दूसरे देश में. वैसे, बराक इलाके का हर बच्चा पानी के साथ खेलतेतैरते ही तो बड़ा होता है.

अचानक तेज आवाज में होती बात से लक्ष्मण की तंद्रा टूटी. ताप्ती उस की विधवा मां से बहस कर रही थी, ‘‘तुम लोग जाओ न, मैं यहीं रह लूंगी. हम सभी एकसाथ निकल नहीं सकते. नाव भारी हो जाएगी. फिर हमारे पीछे कोई घर के छप्पर का करकट खोल ले जाएगा तो क्या होगा.

‘‘यह करकट बिलकुल नया है.

3-4 महीने ही तो हुए हैं इसे खरीदे हुए. पूरे 12,000 रुपए लग गए इस में. मैं इसे चोरों के भरोसे नहीं छोड़ सकती.’’

‘‘अरे नहीं, तुम लोग जाओ…’’ उस की सास बोल रही थी, ‘‘वहां बांध पर बच्चों को संभालने और खाना बनाने के लिए कोई तो होना चाहिए. मैं अकेली यहीं रह लूंगी. रात में पानी नहीं बढ़ा तो अब क्या बढ़ेगा. कितनी मुश्किल से पैसापैसा जोड़ कर लक्ष्मण ने यह करकट खरीदा है. अगर चोर इसे खोल ले गए, तो घर में खुले में रहना मुमकिन है क्या. धूपबारिश से बचाव कैसे होगा… मैं यहीं रहूंगी.’’

‘‘अरी मां, तुम जाओ तो सही,’’ ताप्ती अपनी सास को नाव की ओर तकरीबन धकेलते हुए बोली, ‘‘तुम बूढ़ी औरत, तुम्हारे सामने ही करकट खोल ले जाएंगे और तुम चिल्लाने के अलावा क्या कर पाओगी.

‘‘सारा गांव खाली पड़ा है. कौन आएगा बचाने? मैं कम से कम यह कटारी तो चला ही सकती हूं. कोई मेरे पास भी फटक नहीं पाएगा,’’ इतना कह कर उस ने बड़ा सा दांव निकाल कर दिखाया, तो सभी हंस पड़े.

आखिरकार लक्ष्मण अपने तीनों बच्चों और मां के संग नाव पर चढ़ गया. नाव खोल दी गई. नाव हलके से हिलोरें ले कर गहरी नदी की ओर बढ़ चली.

नदी के दूसरी तरफ ऊंचाई पर बसा शहर है, जहां लक्ष्मण कमाई करने अकसर जाता रहता है. उधर ही कहीं किसी आश्रय में कुछ दिन गुजारा करना होगा. नदी के उतरते ही वह वापस हो लेगा.

ऊपर आसमान में काले बादल फिर से डेरा जमाने की जुगत में लगे थे. अगर बारिश होने लगी तो गंभीर हालात पैदा हो जाएंगे.

नदी की लहरों से खेलतीलड़ती नाव डगमगाते हुए आगे बढ़ चली. बच्चे डरे से, कातर निगाहों से ओझल होती हुई मां को, फिर गांव को देखते रहे. छोटा बेटा तो सुबक ही पड़ा, तो उस की बहन उसे दिलासा देने लगी.

लक्ष्मण चप्पू को अपनी मजबूत बांहों में भर कर सावधानी से चला रहा था. चप्पू चलाते हुए वह चिल्लाया, ‘‘चुपचाप पड़े रहो. तुम्हारी मां बराक नदी की बहादुर बेटी है. उसे कुछ  नहीं होगा.’’

उफनती हुई बराक नदी में जैसे लक्ष्मण के सब्र और हिम्मत का इम्तिहान हो रहा था. उस की एक जरा सी गलती और लापरवाही नाव को धार में बहाने या जलसमाधि लेने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ती. उसे जल्दी से उस पार पहुंचना था. नदी की लहरें जैसे उसे लीलने पर आमादा थीं. लहरों के थपेड़े उसे दिशा बदलने या उलटने की चेतावनी सी देते थे और वह अपने वजूद, अपने परिवार, अपनी नाव को सुरक्षित दिशा की ओर, सधे हाथ से खेता जा रहा था.

इस नदी को सामान्य दिनों में लक्ष्मण 20-25 मिनट में आसानी से पार कर लिया करता था. मगर वही नदी आज जब पूरी तरह भरी हुई अपने तटबंधों को पार कर गई थी, तो महासागर के समान दिख रही थी. 4 घंटे तक लगातार प्रलयंकर लहरों से लड़ते, नाव खेते हुए वह थका जा रहा था, फिर भी जैसे कोई अंदरूनी ताकत उसे आगे बढ़ते रहने को कह रही थी और अब वह शहर के एक घाट के किनारे पहुंच चुका था.

इसी के साथ हलकी बारिश भी शुरू हो चुकी थी. लक्ष्मण जल्दी से अपने परिवार और माल को समेट कर बाढ़ राहत केंद्र पहुंचा था. थकान और भूख से उस की हड्डीहड्डी हिल रही थी. बच्चों ने पोटलियों से चूड़ा और मूढ़ी निकाल फांकना शुरू कर दिया था. भोजन पता नहीं कब मिले. मिले या नहीं भी मिले. मां तो पीछे गांव में है. फिर खाना कौन बनाएगा और वह भी इस खुली जगह में? शायद राहत सामग्री बांटने वाले भोजन भी बांटें. मगर यह तो बाद की बात है. लक्ष्मण फिर उठ खड़ा हुआ. बादल छितर गए थे. बारिश रुक चुकी थी. दिन रहते वह ताप्ती को वापस ले आए तो बेहतर.

‘‘नहीं बेटा, मत जाओ…’’ बूढ़ी मां गिड़गिड़ा रही थी, ‘‘तुम बहुत थक गए हो. एक बार फिर वहां जाना और वापस आना काफी मुश्किल है. खतरा मोल मत लो, रुक जाओ बेटा.’’

‘‘अरी मां, तुम घबराती क्यों हो…’’ लक्ष्मण फीकी हंसी हंसते हुए बोला,

‘‘मैं बराक नदी का बेटा हूं. मुझे कुछ नहीं होगा.’’

‘‘तुम ने कुछ खायापीया नहीं है,’’ मां मनुहार कर रही थी, ‘‘हम सभी तुम्हारे भरोसे हैं. तुम्हें कुछ हो गया तो हम भी जिंदा नहीं रह पाएंगे.’’

‘‘मां, तुम बेकार ही चिंता करती हो,’’ लक्ष्मण ने अपने बेटे के कटोरे से एक मुट्ठी मूढ़ी निकाल कर फांकते हुए बोला, ‘‘आतेजाते समय नाव खाली ही रहेगी, सो जल्दी वापस आ जाऊंगा…’’ और वह अपनी नाव के साथ दोबारा नदी में उतर पड़ा.

अब नदी में पानी का लैवल और बढ़ चुका था और बढ़ता ही जा रहा था. अनेक डूबे हुए गांव और घर दिखाई दे रहे थे. डूबे हुए घर में ताप्ती कैसे रह पाएगी, लक्ष्मण को तो जाना ही है. उस ने पतवार तेजी से चलानी शुरू कर दी. उसे रहरह कर ताप्ती का रंग बदलता अक्स दिखाई दे रहा था. मन में डर घुमड़ रहा था. पहली बार नई दुलहन के रूप में, दूसरी बार जब उस ने बड़े बेटे को जन्म दिया था, उस का मोहक रूप कितना चमक रहा था. खेत में धान लगाते और काटते, घर के छप्पर पर सब्जियों की लतर चढ़ाते वक्त उस का रूप अद्भुत होता था.

आह, उसे मौत के मुंह में कैसे छोड़ दे. उसे घर के करकट वाले छप्परों की चिंता है. जान बची, तो फिर आ जाएंगे लोहे के करकट. वैसे भी इस भयावह बाढ़ में चोरों को अपने प्राणों की परवाह नहीं होगी क्या, जो करकट खोल ले जाएंगे.

‘‘अरे बाप रे…’’ ताप्ती उसे अपने सामने पा कर हैरान थी, ‘‘तुम दिनभर बिना खाएपीए नाव चलाते रहे. शाम होने को आई है. क्या जरूरत थी जान पर खेलने की…’’

‘‘तो तुम्हें क्या करकट की रखवाली करने के लिए यहां छोड़ देता…’’ वह गुर्राया, ‘‘जल्दी चलो. नाव पर बैठो. अंधेरा होने के पहले वापस पहुंचना है.’’

सोचविचार करने और बहस की गुंजाइश न थी. ताप्ती को नाव पर बिठा कर लक्ष्मण वापस चल पड़ा. ताप्ती ने भी पतवार संभाल ली थी. नाव खेने का उस का भी अपना तजरबा था. नाव पर से अपने घर के चमकते करकट को हसरत भरी निगाहों से दूर होते वह देख रही थी. नाव अब नदी में उतर चुकी थी.

अंधेरा होने के पहले ही वे उस पार पहुंच चुके थे और इसी के साथ भयावह आंधीपानी आ चुका था. मगर बच्चे अपनी मां को सामने पा कर रो उठे.

पूरे हफ्ते मौसम खराब रहा. साथ ही, नदी का पानी पूरे उफान पर था. 8वें दिन से जब पानी उतरने लगा तो लक्ष्मण ने अपने गांव की ओर नाव का रुख किया. ताप्ती जबरदस्ती आ कर नाव में बैठ गई.

गांव में अपने घर के चमकते हुए लोहे के सफेद करकट को सहीसलामत देख वह खुशी से रो पड़ी. चोर इस बार उस के घर का करकट खोल कर नहीं ले जा सके थे.

कद: आखिर गोमा को शिंदे साहब क्यों पसंद नहीं थे

कहते हुए शिंदे साहब अपना पसीना पोंछते हुए ‘धप’ से सोफे में धंस गए. गोमा तिरछी नजरों से उन्हें एकटक देखता रहा. ‘लाल मुंह का बंदर… इस के खून में जरूर अंगरेजों का खून मिला होगा, नहीं तो ऐसा लाल भभूका मुंह नहीं हो सकता,’ गोमा सोचते हुए मुसकरा उठा.

शिंदे साहब की नजर गोमा पर पड़ी, तो उस की तिरछी नजर देख कर उन के तनबदन में आग लग गई. वे चिल्लाए, ‘‘अरे कैसा बेशर्म है तू, इतनी मार खा कर भी कोई असर नहीं हुआ?’’

शिंदे साहब को गुस्सा तो बहुत आ रहा था और इच्छा भी हो रही थी कि गोमा का खून कर दें, पर वे ऐसा नहीं कर सकते, यह बात वे दोनों जानते थे.

गोमा शराब पीता था, पर तनख्वाह मिलते ही… और वह भी 2 दिन तक. उस के बाद अगली तनख्वाह के मिलने तक शराब को मुंह नहीं लगाता था. लगाता भी कैसे? पैसे मिलते ही घर में खर्च के लिए कुछ पैसे दे कर एक बार जो पीने के लिए जाता, तो तीसरे दिन होश आने पर खुद को किसी नाले या गटर में पाता. फिर उसे साहब का और खुद का घर याद आता.

शिंदे साहब के घर पहुंचते ही हर महीने मेम साहब से पड़ने वाली नियमित डांट सुनने को मिलती कि पिछले 3 दिन से कहां रहे? यहां काम कौन करेगा? इस तरह शराब में धुत्त रहोगे तो साहब से कह कर पिटवाऊंगी.

मेम साहब मन ही मन भुनभुनाती रहतीं और गोमा चुपचाप अपना काम करता जाता मानो वे किसी और को सुना रही हों. इन के जैसे कितने ही साहब और मेम साहब के लिए गोमा काम कर चुका है. उन लोगों का गुजारा गोमा जैसे लोगों के बिना मुमकिन नहीं है.

अर्दली तो बहुत होते हैं, जिन में से आधे तो केवल भरती और गिनती के नाम पर होते हैं, गोमा जैसे पुराने और मंजे हुए तो बस 2-4 ही होते हैं, जो साहब व मेम साहब की सारी जरूरतें जानते हैं. तभी तो मेम साहब केवल धमकी दे कर रह जाती हैं.

साहब लोगों की बातें नौकर असली या नकली नशे की आड़ में ही तो उजागर कर सकते हैं. वैसे, गोमा की यह आदत भी नहीं थी कि वह साहब लोगों के बारे में इधरउधर चर्चा करे.

गोमा अपने काम से काम रखता था, इसलिए साहब या मेम साहब कैसे हैं या उन के स्वभाव के बारे में ज्यादा सोचता ही नहीं था. पर शिंदे साहब को पहली बार देखते ही उस का मन खराब सा हो गया था. उन की शक्ल से ले कर हर चीज, हर बात बनावटी और बेढंगी लगी थी.

शिंदे साहब का अजीब सा गोराभूरा रंग, कंजी आंखें, मोटे होंठ, भारीभरकम शरीर और बेवजह चिल्लाचिल्ला कर बात करने का तरीका कुछ भी अच्छा नहीं लगा था, इसीलिए उन से सामना न हो, इस बात का वह खयाल रखता था.

पर, उस दिन गोमा ने अपने पूरे होशोहवास में साहब के मुंह पर ऐसी बात कही थी क्योंकि मेम साहब उस से उलझी हुई

थीं और जब उस से सहन न हुआ, तो साहब व मेम साहब दोनों को देख कर ही बोला था.

गोमा सोचता है कि इन बड़े लोगों को रोज नियम से शाम को पीनी है, पूरे तामझाम के साथ. एक अर्दली बोतल खोलेगा, दूसरा भुने हुए काजू, पनीर के टुकड़े, नमकीन वगैरह लाता रहेगा.

2-4 अफसर अपनी बीवियों के साथ हर दिन मौजूद रहते थे.

‘‘मैडम, आप थोड़ी सी लीजिए न, फोर कंपनीज सेक.’’

‘‘न बाबा, हम को हमारा सौफ्ट ड्रिंक ही ठीक है. अपनी वाइफ को पिलाओ,’’ बड़े अफसर की बीवी अफसराना अंदाज में कहतीं.

दूसरी तरफ बड़े साहब इन की बीवी से इस तरह चोंच लड़ा रहे होते जैसे सुग्गा अपनी मादा से.

‘‘मोनाजी, आप तो मौडर्न हैं, कम से कम हमारे पैग को तो छू दीजिए,’’ कहतेकहते उन की नजरें मोनाजी के

पूरे जिस्म का सफर कर किसी ऐसे उभार पर टिक जातीं, जो उन्हें लुभावना लगता था.

गोमा मन ही मन सोच कर हंसता कि अगर कोई नया आदमी उस कमरे में आ जाए, तो उस के लिए यह पहचानना मुश्किल होगा कि कौन किस की बीवी है. सभी अपने पति को छोड़ दूसरे मर्दों से सटीं, हंसतींखिलखिलातीं, लाड़ लड़ाती मिलेंगीं. फिर मर्दों का तो क्या कहना, सारी बगिया के फूल तो उन के लिए हैं, कोई भी तोड़ लो.

शिंदे साहब गोमा पर जितना ही चिल्लाते या झल्लाते, उतना ही उन्हें हैरान करने में मजा आ रहा था. उस ने भी कोई झूठ थोड़े ही बोला था, ‘‘अपनी बीवी को संभाल नहीं पाते हैं और दुनिया वालों की बातों पर गुर्राते हैं.’’

गोमा ने तो कई बार मेम साहब और साहब के जूनियर रमेश को चोंच लड़ाते और इशारे करते देखा था. जब शिंदे साहब दौरे पर होते, तो उन दोनों की पौबारह रहती थी. एकलौते बेटे को बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा कर मिसेज शिंदे एकदम आजाद हो गई थीं.

पति के दौरे पर चले जाने के बाद तो मैदान एकदम साफ रहता. पर, एक मुसीबत तो फिर भी सिर पर होती थी. दिनभर रहने वाले अर्दली को भले ही काम न होने का कह कर विदा कर दें, पर रात को पहरे पर रहने वाला गार्ड तो 9 बजे आ धमकता था.

हालांकि रोज शाम को रमेश ‘इधर से जा रहा था, सोचा पूछ लूं कि कोई काम तो नहीं है’ कहते हुए आ जाता था. गार्ड के आते ही वे दोनों ऐसा बरताव करते, मानो चंद मिनट पहले ही मिले हों और रमेश हालचाल पूछ कर चला जाएगा.

मेम साहब बाजार का कुछ काम बता देती थीं. केवल एक चीज के लिए तो कभी भेजती नहीं थीं, लिस्ट बना कर देती थीं. आज भी एक चीज जो वे लाने को कह रही थीं, उस की ऐसी खास जरूरत नहीं थी.

गोमा ने कहा, ‘‘कुछ और चीजों का नाम लिख दीजिए, फिर चला जाऊंगा. एक चीज के पीछे 2 घंटे बरबाद हो जाएंगे.’’

‘‘अरे वाह, तुझे समय की फिक्र कब से होने लगी. जब पी कर 2 दिनों तक बेसुध पड़ा रहता है, तब समय का खयाल नहीं आता,’’ मेम साहब ने मुंह बनाते हुए जिस तरह कहा, गोमा अपनेआप को रोक न पाया और बोला, ‘‘पीते हैं तो अपने पैसे की, बड़े लोगों की तरह मुफ्त की नहीं.’’

‘‘ठीक है भई, तू शराब पी या कहीं पड़ा रहे, बस अब जा,’’ उन की आवाज में एक उतावलापन था, मानो गोमा को वहां से हटाना ही उन का मकसद था.

गोमा भी शब्दों के तीर छोड़ कर अब वहां से भागना ही चाह रहा था, पर मेम साहब के बरताव से मन में उलझन सी हो रही थी. गोमा को ज्यादा सोचना नहीं पड़ा, क्योंकि तभी रमेश की शानदार मोटरसाइकिल बंगले के अहाते में घुसी.

जब भी शिंदे साहब के घर कोई पार्टी होती, तो सारे इंतजाम रमेश को ही करने पड़ते थे. शिंदे साहब के हर आदेश को ‘यस सर’ कहते हुए वह इस तरह पूरा करता, मानो सिर पर अपने बौस के आदेश का बोझ नहीं, बल्कि फूलों का ताज हो.

पार्टी के दिन रमेश और मेम साहब के बीच हंसीमजाक, नैनमटक्का चलता रहता था. गोमा के अलावा और भी 3-4 अर्दली होते थे. पानी की तरह ‘ड्रिंक’ ले जाने, परोसने, स्नैक्स की प्लेटें ले जाने, चारों ओर घुमाघुमा कर सब को देने के लिए इतने नौकर तो चाहिए ही थे.

पार्टी के बीच अचानक शिंदे साहब के बौस के दिमाग में आइडिया का बल्ब जला. शाम की ‘डलनैस’ को दूर करने के लिए कोई मौडर्न ‘गेम’ खेलने का फुतूर.

‘‘अरे शिंदे, क्या पिलापिला कर ही मार डालोगे?’’

‘‘नो सर, आप कहें तो डिनर सर्व हो जाए?’’

‘‘होहो…’’ अट्टहास करते हुए बौस ने कहा, ‘‘तुम हो पूरे बेवकूफ और वही रहोगे. कभी दिल्लीमुंबई की ‘ऐलीट’ लोगों की पार्टी में शामिल होओगे,

तब समझ आएगा पार्टी का असली रंग और मजा.’’

‘‘जी सर,’’ शिंदे साहब बोले.

‘‘कुछ ‘थ्रिलिंग गेम’ हो जाए,’’ बौस ने कहा.

शिंदे साहब अपने बौस के चेहरे को उजबक की तरह ताकने लगे, कुछ देर पहले जब वे अपनी बीवी से कुछ कहने अंदर जा रहे थे और रमेश के साथ उन की प्रेमलीला देखी, तो उस से वे काफी आहत थे.

‘‘मैडम, अब आप अंदर जाइए, अच्छा नहीं लगता कि आप इस खादिम के साथ यहां रहें,’’ रमेश मेम साहब को चिढ़ाते हुए बोल रहा था.

‘‘यार रमेश, कम से कम अकेले में मुझे मैडम मत कहो,’’ शिंदे साहब की बीवी मचल कर बोलीं.

ऐसा कह कर मेम साहब हाल की तरफ जाने को पलट ही रही थीं कि शिंदे साहब पास ही दिखे.

‘‘क्या बात है डार्लिंग, थकेथके से लग रहे हो? अभी तो पार्टी पूरे शबाब पर भी नहीं आई है,’’ मेम साहब ने शिंदे साहब से पूछा.

शिंदे साहब मन ही मन बोले, ‘तुम तो हो अभी से पूरे शबाब पर,’ फिर रमेश की ओर देख कर रूखी आवाज में बोले, ‘‘गोमा या किसी और को समझा कर आप भी हाल में तशरीफ ले आइए.’’

उन की रूखी आवाज से रमेश को भला क्या फर्क पड़ता. छड़ा, कुंआरा बस मौजमस्ती चल रही है. ज्यादा से ज्यादा उस का तबादला हो जाएगा. वह तो वैसे भी कभी न कभी होना ही है.

‘‘तुम कब से गायब हो, क्या ऐसे अच्छा लगता है कि ‘होस्टेस’ अपने ‘गैस्ट्स’ का खयाल न रखे,’’ अपनी बीवी से कहते हुए शिंदे साहब की दबी आवाज में भी गुस्सा नजर आ रहा था.

‘‘गैस्ट्स के लिए तो सारा तामझाम कर रही हूं डार्लिंग, परेशान मत होइए. तुम्हारे बौस इतने खुश हो जाएंगे कि तुम भी क्या याद करोगे,’’ मेम साहब बोलीं.

उधर बौस के आदेश से थ्रिलिंग गेम ‘वाइफ स्वैपिंग’ की तैयारी में एक खूबसूरत डब्बों में सब की कारों की चाबियां डाल दी गई थीं.

गोमा साहबों और मेम साहबों के तरहतरह के चोंचले, सनकीपन और मूड से उसी तरह वाकिफ था, जिस तरह अपनी हथेली की लकीरों से. उसे किसी भी साहब या मेम साहब के लिए कोई दिली आदर न था और न ही उन से किसी तरह का डर लगता था. उस के कुछ उसूल थे, जिन का पालन वह पूरी ईमानदारी से करता था.

गोमा ने मन ही मन सोचा कि अगर उस की बीवी दूसरे आदमी के साथ इस तरह जाए, तो वह दोबारा उस का मुंह भी नहीं देखे. अगर उस का खुद का रिश्ता दूसरी औरत से हो जाए, तो उस की घरवाली भी उसे यों ही नहीं छोड़ देगी. गोमा के इसी स्वाभिमान ने तो उस के मुंह से वह कहलवाया, जो शिंदे साहब को बरदाश्त नहीं हुआ.

महीने का पहला हफ्ता था और हमेशा की तरह गोमा 3 दिन गायब रह कर चौथे दिन आया था. इस बीच रमेश को ले कर साहब और मेम साहब में तीखी नोकझोंक हुई. जब गोमा सामने आया, तो दोनों का बचाखुचा गुस्सा

उसी पर उतरा, वह भी ऐसा उतरा कि बिलकुल बेलगाम.

मेम साहब की जबान फिसलती गई, ‘‘फिर जा कर गिरा नाले में, तू नाले का कीड़ा ही बना रहेगा. किसी दिन यह शराब तुझे और तेरे घर को बरबाद कर देगी.

‘‘देखना, तेरी बीवी एक दिन तुझे छोड़ कर किसी और के साथ घर बसा लेगी. तुम्हारी जात में तो वैसे भी एक को छोड़ कर दूसरे के साथ बैठ जाना बुरा नहीं माना जाता.’’

इतना सुन कर गोमा मेम साहब के ठीक सामने आ गया और बोला, ‘‘हमारी जात? हमारी जात को कितना जानती

हैं आप? आप लोगों की ऊंची जात में होती होगी चीजों की तरह लुगाइयों की अदलाबदली. हम लोगों के घर बसाने में एक तमीज होती है. कोठे की बाई की तरह नहीं कि आज इस के साथ, कल उस के साथ और परसों तीसरे के साथ.’’

मेम साहब को तो जैसे सांप सूंघ गया. इसी बात का फायदा उठा कर गोमा फिर शुरू हो गया. लगा जैसे आज उस के मन में जो फोड़ा था, वह पक कर

फूट गया और सारा मवाद निकल रहा हो, ‘‘मैं तो महीने में 1-2 दिन ही पीता हूं. केवल इसलिए कि 2-3 दिन तक पैसे की तंगी, घर की चिंता से इतना दूर चला जाऊं कि अपनेआप को मैं खुशकिस्मत समझ सकूं.

‘‘पर, आप बड़े लोग तो रोज महंगी अंगरेजी शराब बहाते हैं अपनी खुशी, अपना फालतू पैसा दिखाने को. मैं तो शराब पी कर भी आप जैसे बड़े लोगों जैसी छोटी हरकत कभी नहीं करता…’’

तब से शिंदे साहब गोमा को पीटे जा रहे हैं, मानो बीवी का सारा गुस्सा उस पर उतार देंगे. उधर गोमा इतनी मार खा कर भी मन ही मन जीत की खुशी महसूस कर रहा था.

शादी के बाद: क्या विकास को अपना पाई रजनी

रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई.

रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’

‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’

रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा.

रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी.

रजनी के पिता विकास को विदा कर के लौटे तो मन ही मन प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं.

अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया.

‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’

रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई.

कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था.

मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही.

कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा.

रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

ऊंच नीच की दीवार : दिनेश और सरिता की रिजर्व्ड लवस्टोरी

‘‘बाबूजी…’’

‘‘क्या बात है सुभाष?’’

‘‘दिनेश उस दलित लड़की से शादी कर रहा है,’’ सुभाष ने धीरे से कहा.

‘‘क्या कहा, दिनेश उसी दलित लड़की से शादी कर रहा है…’’ पिता भवानीराम गुस्से से आगबबूला हो उठे.

वे आगे बोले, ‘‘हमारे समाज में क्या लड़कियों की कमी है, जो वह एक दलित लड़की से शादी करने पर तुला है? अब मेरी समझ में आया कि उसे नौकरी वाली लड़की क्यों चाहिए थी.’’

‘‘यह भी सुना है कि वह दलित परिवार बहुत पैसे वाला है,’’ सुभाष ने जब यह बात कही, तब भवानीराम कुछ सोच कर बोले, ‘‘पैसे वाला हुआ तो क्या हुआ? क्या दिनेश उस के पैसे से शादी कर रहा है? कौन है वह लड़की?’’

‘‘उसी के स्कूल की कोई सरिता है?’’ सुभाष ने जवाब दिया.

‘‘देखो सुभाष, तुम अपने छोटे भाई दिनेश को समझाओ.’’

‘‘बाबूजी, मैं तो समझा चुका हूं, मगर वह तो उसी के साथ शादी करने का मन बना चुका है,’’ सुभाष ने जब यह बात कही, तब भवानीराम सोच में पड़ गए. वे दिनेश को शादी करने से कैसे रोकें? चूंकि उन के लिए यह जाति की लड़ाई है और इस लड़ाई में उन का अहं आड़े आ रहा है.

भवानीराम पिछड़े तबके के हैं और दिनेश जिस लड़की से शादी करने जा रहा है, वह दलित है, फिर चाहे वह कितनी ही अमीर क्यों न हो, मगर ऊंचनीच की यह दीवार अब भी समाज में है. सरकार द्वारा भले ही यह दीवार खत्म हो चुकी है, मगर फिर भी लोगों के दिलों में यह दीवार बनी हुई है.

दिनेश भवानीराम का छोटा बेटा है. वह सरकारी स्कूल में टीचर है. जब से उस की नौकरी लगी है, तब से उस के लिए लड़की की तलाश जारी थी. उस के लिए कई लड़कियां देखीं, मगर वह हर लड़की को खारिज करता रहा.

तब एक दिन भवानीराम ने चिल्ला कर उस से पूछा था, ‘तुझे कैसी लड़की चाहिए?’

‘मुझे नौकरी करने वाली लड़की चाहिए,’ दिनेश ने उस दिन जवाब दिया था. भवानीराम ने इस शर्त को सुन कर अपने हथियार डाल दिए थे. वे कुछ नहीं बोले थे.

जिस स्कूल में दिनेश है, वहीं पर सरिता नाम की लड़की भी काम करती है. सरिता जिस दिन इस स्कूल में आई थी, उसी दिन दिनेश से उस की आंखें चार हुई थीं. सरिता की नौकरी रिजर्व कोटे के तहत लगी थी.

सरिता उज्जैन की रहने वाली है. वहां उस के पिता का बहुत बड़ा जूतों का कारोबार है. इस के अलावा मैदा की फैक्टरी भी है. उन का लाखों रुपयों का कारोबार है.

फिर भी सरिता सरकारी नौकरी करने क्यों आई? इस ‘क्यों’ का जवाब स्टाफ के किसी शख्स ने नहीं पूछा.

सरिता को अपने पिता की जायदाद पर बहुत घमंड था. उस का रहनसहन दलित होते हुए भी ऊंचे तबके जैसा था. वह अपने स्टाफ में पिता के कारोबार की तारीफ दिल खोल कर किया करती थी. वह हरदम यह बताने की कोशिश करती थी कि नौकरी उस ने अपनी मरजी से की है. पिता तो नौकरी कराने के पक्ष में नहीं थे, मगर उस ने पिता की इच्छा के खिलाफ आवेदन भर कर यह नौकरी हासिल की.

स्टाफ में अगर कोई सरिता के पास आया, तो वह दिनेश था. ज्यादातर समय वे स्कूल में ही रहा करते थे. पहले उन में दोस्ती हुई, फिर वे एकदूसरे के ज्यादा पास आए. जब भी खाली पीरियड होता, उस समय वे दोनों स्टाफरूम में बैठ कर बातें करते रहते.

शुरूशुरू में तो वे दोस्त की तरह रहे, मगर उन की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. स्टाफरूम के अलावा वे बगीचे और रैस्टोरैंट में भी मिलने लगे, भविष्य की योजनाएं बनाने लगे.

ऐसे ही रोमांस करते 2 साल गुजर गए. उन्होंने फैसला कर लिया कि अब वे शादी करेंगे, इसलिए सरिता ने पूछा था, ‘हम कब शादी करेंगे?’

‘तुम अपने पिताजी को मना लो, मैं अपने पिताजी को,’ दिनेश ने जवाब दिया.

‘मेरे पिताजी ने तो अपने समाज में लड़के देख लिए हैं और उन्होंने कहा भी है कि आ कर लड़का पसंद कर लो. मैं ने मना कर दिया कि मैं अपने ही स्टाफ में दिनेश से शादी करूंगी,’ सरिता बोली.

‘फिर पिताजी ने क्या कहा?’ दिनेश ने पूछा.

‘उन्होंने तो हां कर दी…’ सरिता ने कहा, ‘तुम्हारे पिताजी क्या कहते हैं?’

‘पहले मैं बड़े भैया से बात करता हूं,’ दिनेश ने कहा.

‘हां कर लो, ताकि मेरे पिताजी शादी की तैयारी कर लें,’ कह कर सरिता ने गेंद दिनेश के पाले में फेंक दी. मगर दिनेश कैसे अपने पिता से कहे. उस ने अपने बड़े भाई सुभाष से बात करनी चाही, तो सुभाष बोला, ‘तुम समझते हो कि बाबूजी इस शादी के लिए तैयार हो जाएंगे?’

‘आप को तैयार करना पड़ेगा,’ दिनेश ने जोर देते हुए कहा.

‘अगर बाबूजी नहीं माने, तब तुम अपना इरादा बदल लोगे?’

‘नहीं भैया, इरादा तो नहीं बदलूंगा. अगर वे नहीं मानते हैं, तो शादी करने का दूसरा तरीका भी है,’ कह कर दिनेश ने अपने इरादे साफ कर दिए.

मगर सुभाष ने जब पिताजी से बात की, तब उन्होंने मना कर दिया. अब सवाल यह है कि कैसे शादी हो? सुभाष भी इस बात से परेशान है. एक तरफ पिता?हैं, तो दूसरी तरफ छोटा भाई. इन दोनों के बीच में उस का मरना तय है.

बाबूजी का अहं इस शादी में आड़े आ रहा है. इन दोनों के बीच में सुभाष पिस रहा?है. ऐसा भी नहीं है कि दोनों नाबालिग हैं. शादी के लिए कानून भी उन पर लागू नहीं होता है.

एक बार फिर बाबूजी का मन टटोलते हुए सुभाष ने पूछा, ‘‘बाबूजी, आप ने क्या सोचा है?’’

भवानीराम के चेहरे पर गुस्से की रेखा उभरी. कुछ पल तक वे कोई जवाब नहीं दे पाए, फिर बोले, ‘‘अब क्या सोचना है… जब उस ने उस दलित लड़की से शादी करने का मन बना ही लिया है, तब उस के साथ शादी करने की इजाजत देता हूं? मगर मेरी एक शर्त है.’’

‘‘कौन सी शर्त बाबूजी?’’ कहते समय सुभाष की आंखें थोड़ी चमक उठीं.

‘‘न तो मैं उस की शादी में जाऊंगा और न ही उस दलित लड़की को बहू स्वीकार करूंगा और मेरे जीतेजी वह इस घर में कदम नहीं रखेगी. आज से मैं दिनेश को आजाद करता हूं,’’ कह कर बाबूजी की सांस फूल गई.

बाबूजी की यह शर्त भविष्य में क्या गुल खिलाएगी, यह तो बाद में पता चलेगा, मगर यह बात तय है कि परिवार में दरार जरूर पैदा होगी.

जब से अम्मां गुजरी हैं, तब से बाबूजी बहुत टूट चुके हैं. अब कितना और टूटेंगे, यह भविष्य बताएगा. उन की इच्छा थी कि दिनेश शादी कर ले तो एक और बहू आ जाए, ताकि बड़ी बहू को काम से राहत मिले, मगर दिनेश ने दलित लड़की से शादी करने का फैसला कर बाबूजी के गणित को गड़बड़ा दिया है.

उन्होंने अपनी शर्त के साथ दिनेश को खुला छोड़ दिया. उन की यह शर्त कब तक चल पाएगी, यह नहीं कहा जा सकता है.

मगर शादी की सारी जिम्मेदारी सरिता के बाबूजी ने उठा ली.

वह लड़की: आखिर गुमसुम क्यों थी दीपाली

दीपाली की याद आते ही आंखों के सामने एक सुंदर और हंसमुख चेहरा आ जाता है. गोल सा गोरा चेहरा, सुंदर नैननक्श, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी और होंठों पर सदा रहने वाली हंसी.

असम आए कुछ ही दिन हुए थे. शहर से बाहर बनी हुई उस सरकारी कालोनी में मेरा मन नहीं लगता था. अभी आसपड़ोस में भी किसी से इतना परिचय नहीं हुआ था कि उन के यहां जा कर बैठा जा सके.

एक दोपहर आंख लगी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने कुछ खिन्न हो कर दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर और स्मार्ट सी असमी युवती खड़ी थी. हाथ में बड़ा सा बैग, आंखों पर चढ़ा धूप का चश्मा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती, वह बड़े ही अपनेपन से मुसकराती हुई भीतर की ओर बढ़ी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप नया आया है न?’’ तो मैं चौंकी फिर उस के बाद जो भी हिंदीअसमी मिश्रित वाक्य उस ने कहे वह बिलकुल भी मेरे पल्ले नहीं पड़े. लेकिन उस का व्यक्तित्व इतना मोहक था कि उस से बातें करना हमेशा अच्छा लगता था. उस की बातें सुन कर मैं ने पूछा, ‘‘आप सूट सिलती हैं?’’

‘‘हां, हां,’’ वह उत्साह से बोली तो एक सूट का कपड़ा मैं ने ला कर उसे दे दिया.

‘‘अगला वीक में देगा,’’ कह कर वह चली गई.

यही थी दीपाली से मेरी पहली मुलाकात. पहली ही मुलाकात में उस से एक अपनेपन का रिश्ता जुड़ गया. उस से मिल कर लगा कि पता नहीं कब से उसे जानती थी. यह दीपाली के व्यवहार, व्यक्तित्व का ही असर था कि पहली मुलाकात में बिना उस का नामपता पूछे और बिना रसीद मांगे हुए ही मैं ने अपना महंगा सूट उसे थमा दिया था. आज तक किसी अजनबी पर इतना विश्वास पहले नहीं किया था.

वह तो मीरा ने बाद में बताया कि उस का नाम दीपाली है और वह एक सेल्सगर्ल है. कितना सजधज कर आती है न. कालोनी की औरतों को दोगुने दाम में सामान बेच कर जाती है. मैं तो उसे दरवाजे से ही विदा कर देती हूं. दीपाली के बारे में ज्यादातर औरतों की यही राय थी.

मैं ने कभी दीपाली को मेकअप किए हुए नहीं देखा. सिर्फ एक लाल बिंदी लगाने पर भी उस का चेहरा दमकता रहता था. उस का हर वक्त खिल- खिलाना, हर किसी से बेझिझक बातें करना और व्यवहार में खुलापन कई लोगों को शायद खलता था. पर मस्तमौला सी दीपाली मुझे भा गई और जल्द ही वह भी मुझ से घुलमिल गई.

उस के स्वभाव में एक साफगोई थी. उस का मन साफ था. जितना अपनापन उस ने मुझ से पाया उस से कई गुना प्यार व स्नेह उस ने मुझे दिया भी.

‘आप इतना सिंपल क्यों रहता है?’ दीपाली अकसर मुझ से पूछती. काफी कोशिश करने पर भी मैं स्त्रीलिंगपुल्ंिलग का भेद उसे नहीं समझा पाई थी, ‘कालोनी में सब लेडीज लोग कितना मेकअप करता है, रोज क्लब में जाता है. मेरे से कितना मेकअप का सामान खरीदता है.’

अकसर लेडीज क्लब की ओर जाती महिलाओं के काफिले को अपनी बालकनी से मैं भी देखती थी. मेकअप से लिपीपुती, खुशबू के भभके छोड़ती उन औरतों को देख कर मैं सोचती कि कैसे सुबह 10 बजे तक इन का काम निबट गया होगा, खाना बन गया होगा और ये खुद कैसे तैयार हो गई होंगी.

दीपाली ने एक बार बताया था, ‘आप नहीं जानता. ये लेडीज लोग सब अच्छाअच्छा साड़ी पहन कर, मेकअप कर के क्लब चला जाता है और पीछे सारा घर गंदा पड़ा रहता है. 1 बजे आ कर जैसेतैसे खाना बना कर अपने मिस्टर लोगोें को खिलाता है. 4 नंबर वाली का बेटाबेटी मम्मी के जाने के बाद गंदी पिक्चर देखता है.’

मुझे दीपाली का इंतजार रहता था. मैं उस से बहुत ही कम सामान खरीदती फिर भी वह हमेशा आती. उसे हमारा खाना पसंद आता था और जबतब वह भी कुछ न कुछ असमी व्यंजन मेरे लिए लाती, जिस में से चावल की बनी मिठाई ‘पीठा’  मुझे खासतौर पर पसंद थी. मैं उसे कुछ हिंदी वाक्य सिखाती और कुछ असमी शब्द मैं ने भी उस से सीखे थे. अपनी मीठी आवाज में वह कभी कोई असमी गीत सुनाती तो मैं मंत्रमुग्ध हो सुनती रह जाती.

हमेशा हंसतीमुसकराती दीपाली उस दिन गुमसुम सी लगी. पूछा तो बोली, ‘जानू का तबीयत ठीक नहीं है, वह देख नहीं सकता,’ और कहतेकहते उस की आंखों में आंसू आ गए. जानू उस के बेटे का नाम था. मैं अवाक् रह गई. उस के ठहाकों के पीछे कितने आंसू छिपे थे. मेरे बच्चों को मामूली बुखार भी हो जाए तो मैं अधमरी सी हो जाती थी. बेटे की आंखों का अंधेरा जिस मां के कलेजे को हरदम कचोटता हो वह कैसे हरदम हंस सकती है.

मेरी आंखों से चुपचाप ढलक कर जब बूंदें मेरे हाथों पर गिरीं तो मैं चौंक पड़ी. मैं देर तक उस का हाथ पकड़े बैठी रही. रो कर कुछ मन हलका हुआ तो दीपाली संभली, ‘मैं कभी किसी के आगे रोता नहीं है पर आप तो मेरा अपना है न.’

मेरे बहुत आग्रह पर दीपाली एक दिन जानू को मेरे घर लाई थी. दीपाली की स्कूटी की आवाज सुन मैं बालकनी में आ गई. देखा तो दीपाली की पीठ से चिपका एक गोरा सुंदर सा लगभग 8 साल का लड़का बैठा था.

‘दीपाली, उस का हाथ पकड़ो,’ मैं चिल्लाई पर दीपाली मुसकराती हुई सीढि़यों की ओर बढ़ी. जानू रेलिंग थामे ऐसे फटाफट ऊपर चला आया जैसे सबकुछ दिख रहा हो.

‘यह कपड़ा भी अपनी पसंद का पहनता है, छू कर पहचान जाता है,’ दीपाली ने बताया.

‘जानू,’ मैं ने हाथ थाम कर पुकारा.

‘यह सुन भी नहीं पाता है ठीक से और बोल भी नहीं पाता है,’ दीपाली ने बताया.

वह बहुत प्यारा बच्चा था. देख कर कोई कह ही नहीं सकता कि उसमें इतनी कमियां हैं. जानू सोफा टटोल कर बैठ गया. वह कभी सोफे पर खड़ा हो जाता तो कभी पैर ऊपर कर के लेट जाता.

‘आप डरो मत, वह गिरेगा नहीं,’ दीपाली मुझे चिंतित देख हंसी. सचमुच सारे घर में घूमने के बाद भी जानू न गिरा न किसी चीज से टकराया.

जाते समय जानू को मैं ने गले लगाया तो वह उछल कर गोद में चढ़ गया. उस बेजबान ने मेरे प्यार को जैसे मेरे स्पर्श से महसूस कर लिया था. मेरी आंखें भर आईं. दीपाली ने उसे मेरी गोद से उतारा तो वह वैसे ही रेलिंग थामे सहजता से सीढि़यां उतर कर नीचे चला गया. दीपाली ने स्कूटी स्टार्ट की तो जा कर उस पर चढ़ गया और दोनों हाथों से मां की कमर जकड़ कर बैठ गया.

‘अब घर जा कर ही मुझे छोड़ेगा,’ दीपाली हंस कर बोली और चली गई.

मैं दीपाली के बारे में सोचने लगी. घंटे भर तक उस बच्चे को देख कर मेरा तो जैसे कलेजा ही फट गया था. हरदम उसे पास पा कर उस मां पर क्या गुजरती होगी, जिस के सीने पर इतना बोझ धरा हो. वह इतना हंस कैसे सकती है. जब दर्द लाइलाज हो तो फिर उसे चाहे हंस कर या रो कर सहना तो पड़ता ही है. दीपाली हंस कर इसे झेल रही थी. अचानक दीपाली का कद मेरी नजरों में ऊपर उठ गया.

एक दिन सुबहसुबह दीपाली आई. मेखला चादर में बहुत जंच रही थी. ‘आप हमेशा ऐसे ही अच्छी तरह तैयार हो कर क्यों नहीं आती हो?’ मैं ने प्रशंसा करते हुए कहा. इस पर दीपाली ने खुल कर ठहाका लगाया और बोली, ‘सजधज कर आएगा तो लेडीज लोग घर में नहीं घुसने देगा. उन का मिस्टर लोग मेरे को देखेगी न.’

मुझे तब मीरा की कही बात याद आई कि दीपाली के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो औरतों में ईर्ष्या जगाता था.

‘मैं भाग कर शादी किया था. मैं ऊंचा जात का था न अपना आदमी से. घर वाला लोग मानता नहीं था,’ दीपाली कभीकभी अपनी प्रेम कथा सुनाती थी.

जहां कालोनी में मेरी एकदो महिलाओं से ही मित्रता थी वहां दीपाली के साथ मेरी घनिष्ठता सब की हैरानी का सबब थी. जानू हमारे घर आता तो पड़ोसियों के लिए कौतूहल का विषय होता. एक स्थानीय असमी महिला से प्रगाढ़ता मेरे परिचितों के लिए आश्चर्यजनक बात थी.

जब दीपाली को पता चला कि हमारा ट्रांसफर हो गया है तो कई दिनों पहले से ही उस का रोना शुरू हो गया था, ‘आप चला जाएगा तो मैं क्या करेगा. आप जैसा कोई कहां मिलेगा,’ कहतेकहते वह रोने लगती. दीपाली जैसी सहृदय महिला के लिए हंसना जितना सरल था रोना भी उतना ही सहज था. दुख मुझे भी बहुत होता पर अपनी भावनाएं खुल कर जताना मेरा स्वभाव नहीं था.

आते समय दीपाली से न मिल पाने का अफसोस मुझे जिंदगी भर रहेगा. हमें सोमवार को आना था पर किन्हीं कारणवश हमें एक दिन पहले आना पड़ा. अचानक कार्यक्रम बदला. दोपहर में हमारी फ्लाइट थी. मैं सुबह से दीपाली के घर फोन करती रही. घंटी बजती  रही पर किसी ने फोन उठाया नहीं, शायद फोन खराब था. मैं जाने तक उस का इंतजार करती रही पर वह नहीं आई. भरे मन से मैं एअरपोर्ट की ओर रवाना हुई थी.

बाद में मीरा ने फोन पर बताया था कि दीपाली सोमवार को आई थी और हमारे जाने की बात सुन कर फूटफूट कर रोती रही थी. वह मुझे देने के लिए बहुत सी चीजें लाई थी, जिस में मेरा मनपसंद ‘पीठा’ भी था.

मैं ने कई बार फोन किया पर वह फोन शायद अब तक खराब पड़ा है. पत्र वह भेज नहीं सकती थी क्योंकि उसे न हिंदी लिखनी आती है न अंगरेजी और असमी भाषा मैं नहीं समझ पाती.

दीपाली का मेरी जिंदगी में एक खास मुकाम है क्योंकि उस से मैं ने हमेशा जीने की, मुसकराने की प्रेरणा पाई है. हमारे शहरों में बहुत ज्यादा दूरियां हैं पर अब भी वह मेरे दिल के बहुत करीब है और हमेशा रहेगी.

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