साथी- भाग 1: क्या रजत और छवि अलग हुए?

रजत औफिस से घर पहुंचा, घंटी बजाई तो छवि ने दरवाजा खोल दिया. छवि पर नजर पड़ते ही रजत का मन खिन्नता से भर गया. उस ने एक उड़ती सी नजर छवि पर डाली और सीधे बैडरूम में चला गया. कपड़े बदल कर वह बाथरूम में फ्रैश हो कर निकला तो छवि कमरे में आ गई.

‘‘चलो, चायनाश्ता रख दिया है…’’ छवि कोमल स्वर में बोली. रजत और भी चिढ़ गया. चप्पलें घसीटता हुआ डाइनिंगटेबल की तरफ बढ़ गया. तब तक बच्चे भी आ गए. सब खातेपीते बातें करने लगे. बच्चों के साथ बात करतेकरते उस का मूड कुछ ठीक हो गया.

अभी वे बातें कर ही रहे थे छवि फिर उठ गई और जूठे बरतन समेटने लगी. उस ने छवि पर नजर दौड़ाई. फैला बेडौल शरीर, बढ़ा पेट, कमर में खोंसा साड़ी का पल्ला, बेतरतीब बालों को ठूंस कर बनाया जूड़ा, बेजान होता चेहरा. बच्चों के साथ बातें करतेकरते रजत का ठीक होता मूड फिर उखड़ गया.

छवि बरतन उठा कर किचन में चली गई. उस के प्रैशर कुकर, चकलाबेलन और बरतनों की खनखन ने अपना बेसुरा संगीत शुरू कर दिया था. रजत ने झुंझला कर अखबार उठाया और बाहर बरामदे में चला गया. थोड़ी देर सुबह के पढ़े बासी अखबार को दोबारा पढ़ता रहा. फिर शाम का धुंधलका छाने लगा तो दिखाई देना कम हो गया. उस ने लाइट नहीं जलाई. अंदर जाने का मन नहीं किया. कुरसी पर पीछे सिर टिका कर यादों में खो गया…

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इसी छवि को कभी रजत ने लड़कियों की भीड़ में पसंद किया था. घर वालों की मरजी के खिलाफ जा कर अपनाया था. उस के जेहन में वह दुबलीपतली, बड़ीबड़ी आंखों वाली सलोनी सी छवि तैर गई.

चाचा की बेटी की शादी में लखनऊ गया रजत जब लौटा तो अकेला नहीं आया. छवि का वजूद भी उस के जेहन से लिपटा साथ आ गया. बरातियों से हंसीठिठोली करती दुलहन की सहेलियों के बीच उस की नजर गोरी, लंबी, छरहरी छवि पर अटक गई.

छवि की लंबी वेणी दिल से लिपट गई. छवि के गुलाबी गाल, बड़ीबड़ी आंखों की झील सी गहराई, रसीले होंठों की चमक भुलाए न भूली. जब भी आंखें बंद करता हंसतीमुसकराती छवि उस की आंखों में उतर जाती.

रजत इंजीनियर था. बहुत अच्छी नौकरी में था. उस के पिता रिटायर्ड आर्मी औफिसर थे. बहुत अच्छेअच्छे घरों से शादी के प्रस्ताव उस के पिता के पास उस के लिए आए हुए थे. उन सब पर घर में सलाहमशवरा चल रहा था. वह खुद भी बहुत खूबसूरत था. इंजीनियरिंग कालेज में कई लड़कियां उस पर जान छिड़कती थीं, पर वह किसी की गिरफ्त में नहीं आया. रीतिका से तो उस की बहुत अच्छी दोस्ती थी. वह उसे केवल दोस्त मानता था. रीतिका ने उसे कई तरह से जताया कि वह उस से शादी करना चाहती है, पर साधारण शक्लसूरत की रीतिका उसे शादी के लिए पसंद नहीं आई.

मगर छवि अपना जादू चला चुकी थी. घर में आए सारे विवाह प्रस्तावों को नकार कर जब उस ने मां के सामने अपनी बात रखी तो मां ने चाचा को फोन कर के सारी बात बताई. फिर उन्होंने छवि के बारे में सबकुछ पता लगाया. छवि बीए पास एक सामान्य घर की लड़की थी. दूसरी जाति की भी थी. मातापिता ने रजत को बहुत समझाया कि सुंदरता ही सब कुछ नहीं होती. लड़की किसी भी तरह उस के योग्य नहीं हैं. आजकल के हिसाब से उसे ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं कहा जा सकता.

‘‘बीए पास तो है… कौन सा मुझे उस से नौकरी करवानी है,’’ रजत बोला.

‘‘बात नौकरी की नहीं है बेटा… घर का रहनसहन, स्कूलिंग ये सब भी माने रखते हैं. इन सब बातों का असर इंसान के विचारों पर पड़ता है… आज समय बहुत बदल गया है. कुछ समय बाद तुझे खुद यह बात महसूस होने लगेगी. बीए तो हमारी कामवाली की बेटी भी कर रही है तो क्या तू उस से शादी कर सकता है?’’

पिता का ऐसा कहना रजत को खल गया. काम करने वाली की बेटी की तुलना छवि से करने से उस का दिल टूट गया. फिर चिढ़ कर बोला, ‘‘बाकी बातें तो सीखने की हैं… सिखाई जा सकती हैं, पर जो चीज कुदरत देती है वह पैदा नहीं की जा सकती… मेरे साथ रहेगी तो सब सीख जाएगी.’’

अपनी दलीलों से रजत ने मातापिता को चुप कर दिया था. आखिर मातापिता मान गए. छवि उस के जीवन में क्या आई, वह उस के रूपसौंदर्य व भोलीभाली बातों में पूरी तरह डूब गया. छवि जितनी सुंदर थी उस का स्वभाव भी उतना ही अच्छा था. सासससुर ने उसे खुले मन से स्वीकार कर लिया. वे उसे बहुत प्यार करते थे.

प्यार तो रजत भी उसे दीवानों की तरह करता था. औफिस से छूटते ही सीधे घर की दौड़ लगाता. लेकिन घर आ कर देखता छवि किचन में उलझी हुई कभी ससुरजी के लिए सूप बना रही होती है, कभी सास के लिए घुटनों का तेल गरम कर रही होती है, कभी गरम पानी की थैली भर रही होती है, कभी सब्जी काट रही होती है, तो कभी उस के लिए बढि़या नाश्ता बनाने में मसरूफ होती है.

‘‘छोड़ो न छवि ये सब… मुझे ये सब नहीं चाहिए,’’  कह रजत गैस बंद कर देता, ‘‘मांपापा का काम तुम पहले निबटा लिया करो… जब मैं आऊं तो सिर्फ मेरे पास रहा करो,’’ वह उसे अपनी बांहों में कसने की कोशिश करता.

छवि कसमसा जाती, ‘‘क्याकरते हो… मां आ जाएंगी,’’ कह वह जबरन खुद को छुड़ा लेती.

‘‘तो फिर कमरे में चलो,’’ रजत शरारत करते हुए कहता.

‘‘अरे कैसे चल दूं… खाना बनाने में देर हो जाएगी,’’ वह उसे चाय का कप थमा देती, ‘‘देखो, मैं ने आप के लिए ब्रैडरोल बनाए हैं. खा कर बताओ कैसे बने हैं.’’

वह कुढ़ कर कहता, ‘‘हमारी नईनई शादी हुई है छवि… तुम समझती क्यों नहीं,’’ और वह उसे फिर पास खींच कर चूमने का प्रयास करता.

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छवि परे छिटक जाती. अपने मचलते अरमानों को काबू कर रजत पैर पटकता किचन से बाहर निकल जाता. उस का बहुत मन करता कि छवि सबकुछ उस के आने से पहले निबटा कर अच्छी तरह सजधज कर उस का इंतजार करे और उस के आने के बाद उस के पास बैठे, उस के साथ घूमने चले, फिल्म देखने चले, बाहर खाना खाने चले, आइसक्रीम खाने चले.

मगर शायद छवि की जिंदगी में इन सब बातों की प्राथमिकता नहीं थी, उस ने अपनी मां को भी ऐसे ही काम में उलझा देखा था और यही सोचती थी कि काम करने से ही सब खुश होते हैं. यहां तक कि पति भी… पतिपत्नी के बीच इस के अलावा दूसरी बातें भी हैं, जो इस से भी जरूरी हैं, पतिपत्नी के रिश्ते के लिए यह वह नहीं समझती थी.

यहां तक कि अखबार पढ़ना, टीवी पर खबरें सुनना, इन सब बातों से भी उस का कोई मतलब नहीं रहता था. उस के लिए घर और घर का काम, सासससुर की सेवा, पति की देखभाल बस यही सबकुछ था.

रजत का मन करता उस की नईनवेली बीवी उस से कभी रूठे और वह उसे मनाए या उस के नाराज होने पर वह उसे मनाए, मीठी छेड़छाड़ करे. पर धीरेधीरे उसे लगने लगा कि इस माटी की खूबसूरत गुडि़या से ऐसी बातों की उम्मीद करना बेकार है.

समय बीतता रहा. उन के 2 बच्चे भी हो गए. अब तो छवि और भी ज्यादा व्यस्त हो गई. उस के पास पलभर की भी फुरसत नहीं रहती.

वह कई बार कहता, ‘‘छवि, खाना बनाने के लिए कोई रख लो. तुम बस अपनी देखरेख में बनवा लिया करो… काम में इतनी उलझी रहती हो… मेरे लिए तो तुम्हारे पास कभी समय नहीं रहता.’’

‘‘कब समय नहीं रहता आप के लिए,’’ छवि हैरानी से कहती, ‘‘कौन सा काम नहीं करती हूं आप का?’’

‘‘छवि, काम ही तो सबकुछ नहीं होता… तुम समझती क्यों नहीं… हमारी यह उम्र लौट कर नही आएगी… बहुत सी जरूरतें होती हैं तनमन की… इन्हें तुम समझना नहीं चाहती… बिस्तर पर एक मशीन की तरह जरूरत पूरी कर के सो जाना, तो सबकुछ नहीं… इस के अलावा भी बहुत कुछ है जीवन में…’’

छवि रजत की सारी जरूरतों को समझती पर उस के मन को न समझती. वह अच्छी बहू थी, अच्छी मां थी, अच्छी पत्नी थी पर अच्छी साथी नहीं थी. और एक साथी की कमी रजत को हमेशा अकेलेपन, एक अजीब तरह की तृष्णा व भटकन से भर देती.

अपना घर: भाग 3

‘‘मैं ने कभी सीमा को उस की पिछली जिंदगी की याद नहीं दिलाई. वह मेरा कितना उपकार मानती है कि मैं ने उसे ऐसे दलदल से बाहर निकाला जिस की उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी.’’

यह सुन कर विजय हैरान रह गया. वह अनिल की ओर एकटक देख रहा था. न जाने कितने लोग सीमा के जिस्म से खेले होंगे? आखिर यह सब कैसे सहन कर गया अनिल? क्या अनिल के सीने में दिल नहीं है? अनिल के सामने कोई मजबूरी नहीं थी, फिर भी उस ने सीमा को अपनाया.

अनिल ने कहा, ‘‘यार, भूल तो सभी से होती है. कभी किसी को माफ भी कर के देखो. भूल की सजा तो कोई भी दे सकता है, पर माफ करने वाला कोईकोई होता है. किसी गिरे हुए को ठोकर तो सभी मार सकते हैं, पर उसे उठाने वाले दो हाथ किसीकिसी के होते हैं.’’

तभी सीमा एक ट्रे में चाय के कप व कुछ खाने का सामान ले कर आई और बोली, ‘‘चाय लीजिए.’’

विजय सकपका गया. वह सीमा से आंखें नहीं मिला पा रहा था. वह खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहा था. उसे लग रहा था कि सचमुच उस ने सुरेखा को घर से निकाल कर बहुत बड़ी भूल की है. शक के जाल में वह बुरी तरह उलझ गया था. आज उस जाल से बाहर निकलने के लिए छटपटाहट होने लगी. उसे खुद से ही नफरत हो रही थी.

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विजय चुपचाप चाय पी रहा था. अनिल ने कहा, ‘‘अब ज्यादा न सोचो. कल ही जा कर तुम भाभीजी को ले आओ. सब से पहले यह शराब उठा कर बाहर फेंक देना. भाभीजी के आने के बाद तुम्हें इस की जरूरत नहीं पड़ेगी.

‘‘शराब तुम्हें खोखला और बरबाद कर देगी. भाभीजी की याद में जलने से जिंदगी दूभर हो जाएगी. जिस का हाथ थामा है, उसे शक के अंधेरे में इस तरह भटकने के लिए न छोड़ो.

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‘‘कुछ त्याग भी कर के देखो यार. वैसे भी इस में भाभीजी की जरा भी गलती नहीं है.’’

विजय को लग रहा था कि अनिल ठीक ही कह रहा है. वह एक भूल तो कर चुका है सुरेखा को घर से निकाल कर, अब तलाक लेने की दूसरी भूल नहीं करेगा. कुछ दिनों में ही उस की और घर की क्या हालत हो गई है. अभी तो जिंदगी का सफर बहुत लंबा है.

‘‘हम 4 दिन बाद लौटेंगे तो भाभीजी से मिल कर जाएंगे,’’ अनिल ने कहा.

विजय ने मोबाइल फोन का स्विच औन किया और दूसरे कमरे में जाता हुआ बोला, ‘‘मैं सुरेखा को फोन कर के आता हूं.’’

अनिल और सीमा ने मुसकुरा कर एकदूसरे की ओर देखा.

विजय ने सुरेखा को फोन मिलाया. उधर से सुरेखा बोली, ‘हैलो.’

‘‘कैसी हो सुरेखा?’’ विजय ने पूछा.

‘मैं ठीक हूं. कब भेज रहे हो तलाक के कागज?’

‘‘सुरेखा, तलाक की बात न करो. मुझे दुख है कि उस दिन मैं ने तुम्हें घर से निकाल दिया था. फिर फोन पर न जाने क्याक्या कहा था. मुझे उस भूल का बहुत पछतावा है.’’

‘पी कर नशे में बोल रहे हो क्या? मुझे पता है कि अब तुम रोज शराब पीने लगे हो.’

‘‘नहीं सुरेखा, अब मैं नशे में नहीं हूं. मैं ने आज नहीं पी है. तुम्हारे बिना यह घर अधूरा है. अब अपना घर संभाल लो. मैं तुम्हें लेने कल आ रहा हूं.’’

उधर से सुरेखा का कोई जवाब

नहीं मिला.

‘‘सुरेखा, तुम चुप क्यों हो?’’

सुरेखा के रोने की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, सुरेखा नहीं, अब मैं तुम्हें रोने नहीं दूंगा. मैं कल ही आ कर मम्मीपापा से भी माफी मांग लूंगा. बस, एक रात की बात है. मैं कल शाम तक तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा.’’

‘मैं इंतजार करूंगी,’ उधर से सुरेखा की आवाज सुनाई दी.

विजय ने फोन बंद किया और अनिल व सीमा को यह सूचना देने के लिए मुसकराता हुआ उन के पास आ गया.

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बिना कुछ कहे- भाग 1: स्नेहा ने पुनीत को कैसे सदमे से निकाला

Writer- शिवी गोस्वामी 

दिसंबर की वह शायद सब से सर्द रात थी, लेकिन कुछ था जो मुझे अंदर तक जला रहा था और उस तपस के आगे यह सर्द मौसम भी जीत नहीं पा रहा था.

मैं इतना गुस्सा आज से पहले स्नेहा पर कभी नहीं हुआ था, लेकिन उस के ये शब्द, ‘पुनीत, हमारे रास्ते अलगअलग हैं, जो कभी एक नहीं हो सकते,’ अभी भी मेरे कानों में गूंज रहे थे. इन शब्दों की ध्वनि अब भी मेरे कानों में बारबार गूंज रही थी, जो मुझे अंदर तक झिंझोड़ रही थी.

जो कुछ भी हुआ और जो कुछ हो रहा था, अगर इन सब में से मैं कुछ बदल सकता तो सब से पहले उस शाम को बदल देता, जिस शाम आरती का वह फोन आया था.

आरती मेरा पहला प्यार थी. मेरी कालेज लाइफ का प्यार. कोई अलग कहानी नहीं थी, मेरी और उस की. हम दोनों कालेज की फ्रैशर पार्टी में मिले और ऐसे मिले कि परफैक्ट कपल के रूप में कालेज में मशहूर हो गए.

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मैं आरती को बहुत प्यार करता था. हमारे प्यार को पूरे 5 साल हो चुके थे, लेकिन अब कुछ ऐसा था, जो मुझे आरती से दूर कर रहा था. मेरी और आरती की नौकरी लग चुकी थी, लेकिन अलगअलग जगह हम दोनों जल्दी ही शादी करने के लिए भी तैयार हो चुके थे. आरती के पापा के दोस्त का बेटा विहान भी आरती की कंपनी में ही काम करता था. वह हाल ही में कनाडा से यहां आया था. मैं उसे बिलकुल पसंद नहीं करता था और उस की नजरें भी साफ बताती थीं कि कुछ ऐसी ही सोच उस की भी मेरे प्रति है.

‘‘देखो आरती, मुझे तुम्हारे पापा के दोस्त का बेटा विहान अच्छा नहीं लगता,‘‘ मैं ने एक दिन आरती को साफसाफ कह दिया.

‘‘तुम्हें वह पसंद क्यों नहीं है?‘‘ आरती ने मुझ से पूछा.

‘‘उस में पसंद करने लायक भी तो कुछ खास नहीं है आरती,‘‘ मैं ने सीधीसपाट बात कह दी.

‘‘तो तुम्हें उसे पसंद कर के क्या करना है,‘‘ यह कह कर आरती हंस दी.

मेरे मना करने का उस पर खास फर्क नहीं पड़ा, तभी तो एक दिन वह मुझे बिना बताए विहान के साथ फिल्म देखने चली गई और यह बात मुझे उस की बहन से पता चली.

मुझे छोटीछोटी बातों पर बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है, शायद इसीलिए उस ने यह बात मुझ से छिपाई. उस दिन मेरी और उस की बहुत लड़ाई हुई थी और मैं ने गुस्से में आ कर उस को साफसाफ कह दिया था कि तुम्हें मेरे और अपने उस दोस्त में से किसी एक को चुनना होगा.

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‘‘पुनीत, अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई है और तुम ने अभी से मुझ पर अपना हुक्म चलाना शुरू कर दिया है. मैं कोई पुराने जमाने की लड़की नहीं हूं, कि तुम कुछ भी कहोगे और मैं मान लूंगी. मेरी भी खुद की अपनी लाइफ है और खुद के अपने दोस्त, जिन्हें मैं तुम्हारी मरजी से नहीं बदलूंगी.‘‘

सीधे तौर पर न सही, लेकिन कहीं न कहीं उस ने मेरे और विहान में से विहान की तरफदारी कर मुझे एहसास करा दिया कि वह उस से अपनी दोस्ती बनाए रखेगी.

आरती और मैं हमउम्र थे. उस का और मेरा व्यवहार भी बिलकुल एकजैसा था. मुझे लगा कि अगले दिन आरती खुद फोन कर के माफी मांगेगी और जो हुआ उस को भूल जाने को कहेगी, लेकिन मैं गलत था, आरती की उस दिन के बाद से विहान से नजदीकियां और बढ़ गईं.

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मैं ने भी अपनी ईगो को आगे रखते हुए कभी उस से बात करने की कोशिश ही नहीं की और उस ने भी बिलकुल ऐसा ही किया. उस को लगता था कि मैं टिपिकल मर्दों की तरह उस पर अपना फैसला थोप रहा हूं, लेकिन मैं उस के लिए अच्छा सोचता था और मैं नहीं चाहता था कि जो लोग अच्छे नहीं हैं, वे उस के साथ रहें. एक दिन उस की सहेली ने बताया कि उस ने साफ कह दिया है कि जो इंसान उस को समझ नहीं सकता, उस की भावनाओं की कद्र नहीं कर सकता, वह उस के साथ अपना जीवन नहीं बिता सकती.

मुहरे- भाग 1: विपिन के लिए रश्मि ने कैसा पैंतरा अपनाया

मैं शाम की सैर से घर लौटी ही थी. पसीने से तरबतर थी. तभी डोरबैल बजी. विपिन औफिस से आ गए थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘रश्मि, क्या हुआ?’’

मैं ने रूमाल से पसीना पोंछते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं, बस अभीअभी सैर से लौटी हूं.’’ ‘‘हूं,’’ कहते हुए विपिन बैग रख फ्रैश होने चले गए.

मैं 10 मिनट फैन के नीचे खड़ी रही. फिर मैं विपिन के लिए चाय चढ़ा कर थोड़ा लेटी ही थी कि विपिन ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘आज गरमी में हालत खराब हो गई. अजीब सी थकान हो रही है.’’

विपिन छेड़छाड़ के मूड में आ गए थे. मुसकराते हुए बोले, ‘‘हां, उम्र भी तो हो रही है.’’ एक तो गरमी से परेशान ऊपर से विपिन की बात से मैं और तप गई.

तुनक कर बोली, ‘‘कौन सी उम्र हो रही है? अभी 50 की भी नहीं हुई हूं. हर समय उम्र का राग अलापते रहते हो.’’ विपिन ने और छेड़ा, ‘‘सच बहुत कड़वा होता है रश्मि.’’

मैं ने जलतेकुढ़ते उन्हें चाय का कप पकड़ाया. मैं इस समय चाय नहीं पीती हूं. फिर शीशे में जा कर खुद पर नजर डाली, ‘‘हुंह, कहते हैं उम्र हो रही है… सभी कौंप्लिमैंट देते हैं… इतनी फिट हूं… और विपिन कुछ भी हो जाए उम्र की बात करेंगे… सब से बड़ी बात यह कि जब मैं खुद को यंग महसूस करती हूं तो यह जरूरी है क्या कि कभी कुछ हो जाए तो उम्र ही कारण होगी? हुंह, कुछ भी बोलते रहते हैं. इन की बातों पर कौन ध्यान दे. गुस्सा अपनी ही हैल्थ के लिए ठीक नहीं है… बोलने दो इन्हें.

थोड़ी देर में हमारे बच्चे वान्या और शाश्वत भी कोचिंग से आ गए. सब अपने रूटीन में व्यस्त थे. डिनर करते हुए अचानक मुझे कुछ याद आया, तो मैं अपने माथे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘उफ, गरमी लग रही थी तो सैर से सीधी घर आ गई. कल सुबह के लिए सब्जी लाना ही भूल गई.’’ विपिन को फिर मौका मिला तो फिर अपना तीर छोड़ा, ‘‘होता है, उम्र के साथ याद्दाश्त कमजोर होती ही है.’’

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एक तो सुबह क्या बनेगा, इस की टैंशन, ऊपर से फिर उम्र का व्यंग्यबाण, मैं सचमुच नाराज हो गई. मुंह से तो कुछ नहीं बोला पर विपिन को जलती नजरों से घूरा तो बच्चे समझ गए कि मुझे गुस्सा आया है, पर हैं तो ऐसी शरारतों में अपने पापा के चमचे ही न, अत: शाश्वत ने कहा, ‘‘मम्मी, आप सच ऐक्सैप्ट क्यों नहीं कर पा रहीं? कभी भी आप का बैक पेन बढ़ जाता है, कभी भी कुछ भूल जाती हो, मान लो मम्मी उम्र हो रही है.’’ वान्या को लगा कि कहीं मेरा गुस्सा न

बढ़ जाए. अत: फौरन बात संभाली, ‘‘चुप रहो शाश्वत मम्मी, सब्जी नहीं है तो कोई बात नहीं, हम तीनों कैंटीन में खा लेंगे. आप बस अपना खाना बना लेना.’’ मैं ने जल्दी से अपना खाना खत्म किया और फिर पर्स उठा, कर बोली, ‘‘देखती हूं पनीर मिल जाए तो ले आती हूं.’’

विपिन ने भी कहा, ‘‘अरे छोड़ो, कैंटीन में खा लेंगे सब.’’ जानती हूं विपिन को घर का खाना ही ले जाना पसंद है. उम्र बढ़ने की बात से मुझे गुस्सा तो आता है, चिढ़ती भी बहुत हूं पर प्यार भी तो करती हूं न उन्हें. अत: मैं उन्हें देख कर मुंह फुलाए हुए अपनी नाराजगी प्रकट करते घर से निकलने लगी, तो विपिन मुसकरा उठे. वे भी जानते हैं कि मेरा गुस्सा क्षणिक ही होता है.

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हम तीसरी मंजिल पर रहते हैं. मैं सीढि़यों से ही उतरती हूं. ज्यादा सामान होता है तभी लिफ्ट में आती हूं. पनीर ले कर लौट रही थी तो देखा लिफ्ट नीचे ही थी. कोई लिफ्ट में जा रहा था. मैं भी यों ही लिफ्ट में आ गई. साथ खड़े लड़के ने लिफ्ट में 7वीं मंजिल का बटन दबाया. मैं पता नहीं किन खयालों में थी कि तीसरी मंजिल का बटन दबाना ही भूल गई. दिमाग में विपिन की उम्र की बातें ही चल रही थीं न. जब अचानक लगा कि ऊपर जा रही हूं तो हड़बड़ा कर स्टौप का बटन दबा दिया. लिफ्ट रुक गई. आजकल कुछ गड़बड़ चल रही थी.

साथ खड़ा लड़का शालीनता से बोला, ‘‘क्या हुआ मैम?’’ मैं झेंप गई. कहा, ‘‘सौरी, गलती से कर दिया. मुझे तीसरी मंजिल पर जाना था.’’

दंश: भाग -2

कुमुद भटनागर

‘‘ऐसे रिश्तों में तो हमेशा ही गारंटी से ज्यादा रिस्क रहता है, जो लेना पड़ता ही है,’’ मामा ने फिर जवाब दिया.

‘‘गौतम बहुत प्यारा बच्चा है, उस के साथ कोई रिस्क नहीं लेना चाहिए. मैं वादा करता हूं, गौतम को आजीवन पिता का प्यार दूंगा, गीता की शादी मुझ से कर दीजिए,’’ पापा ने छूटते ही कहा.

‘‘मम्मी के घर वाले तो तुरंत मान गए लेकिन पापा के घर वालों को यह रिश्ता मंजूर नहीं था. इसलिए पापा ने उन से रिश्ता तोड़ कर मेरे मोह में पुश्तैनी जायदाद भी छोड़ दी. यही नहीं, पापा उस समय आईएएस प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे लेकिन शादी के बाद उन्होंने पढ़ाई के बजाय अपना सारा ध्यान मेरे लालनपालन में लगा दिया और परीक्षा नहीं दी क्योंकि उन्हीं दिनों मम्मी का औपरेशन हुआ था और उन के लिए कई सप्ताह तक बैडरैस्ट अनिवार्य था.

‘‘यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि पापा ने अपना अस्तित्व ही मुझ में लीन कर दिया है. अब यह मेरा कर्तव्य है कि आजीवन पापा की खुशी को ही अपनी खुशी समझूं, शादी के बाद मेरी पत्नी को भी यह दायित्व निभाना पड़ेगा. जानता हूं श्रेया, घर वाले ही नहीं, हम दोनों भी एकदूसरे को चाहने लगे हैं, फिर भी हां करने से पहले मैं चाहूंगा कि तुम अच्छी तरह से सोच लो. तुम्हें उम्रभर संयुक्त परिवार में रहना होगा और वह भी पापामम्मी की आज्ञा या इच्छानुसार.’’

‘‘पापा बहुत सुलझे हुए सहृदय व्यक्ति हैं और तुम्हारी मम्मी भी. उन के साथ रहने में मुझे कोई परेशानी नहीं होगी और अगर होगी भी तो उस की शिकायत मैं कभी तुम से नहीं करूंगी,’’ श्रेया ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘करोगी भी तो मैं सुनूंगा नहीं, यह अच्छी तरह समझ लो,’’ गौतम के स्वर में चुनौती थी.

जल्दी ही दोनों की शादी तय हो गई लेकिन तुरंत बाद ही एक अड़चन आ गई. औफिस के नियमानुसार वहां पतिपत्नी एकसाथ काम नहीं कर सकते थे. श्रेया ने बेहिचक नौकरी छोड़ दी. हनीमून से लौटने के बाद वह भी गीता और ब्रजेश के साथ कोचिंग कालेज में जाने लगी. उस ने वहां औफिस की सब व्यवस्था संभाल ली जो अब तक ब्रजेश संभालते थे. यह सब करने में वह ब्रजेश के और भी करीब आ गई, वैसे भी बहुत स्नेह करते थे वे उस से.‘‘यह काम संभाल कर तुम ने मुझे बहुत राहत दी है श्रेया, थक जाता था, पढ़ाने और फिर उस के बाद यह सब सिरखपाई वाले काम करने में. काम इतना ज्यादा भी नहीं है कि इस के लिए किसी को नियुक्त करूं,’’ एक रोज ब्रजेश ने कहा.

‘‘ऐसा है पापा तो यह काम अब आप मुझ पर ही छोड़ दीजिए, दूसरी नौकरी मिलने के बाद भी मैं इस के लिए समय निकाल लिया करूंगी,’’ श्रेया ने कहा.

‘‘मेरे लिए यानी अपने व्यथित पापा के लिए भी कभी थोड़ा समय निकाल सकोगी श्रेया?’’ ब्रजेश ने कातर भाव से पूछा.

श्रेया चौंक पड़ी, ‘‘क्या कह रहे हैं, पापा? आप और व्यथित? मम्मी और गौतम को पता चल गया तो वे आप से भी अधिक व्यथित हो जाएंगे.’’

‘‘उन दोनों को तो पता भी नहीं चलना चाहिए. वैसे भी वे कुछ नहीं कर सकते.’’

‘‘तो कौन कर सकता है, पापा?’’

‘‘तुम, केवल तुम, श्रेया,’’ ब्रजेश ने बड़े विवश भाव से कहा.

‘‘वह कैसे, पापा?’’ श्रेया ने सहमे स्वर में पूछा.

‘‘मेरी व्यथा, मेरी करुण कहानी सुनोगी?’’

‘‘जरूर, पापा. अभी सुना दीजिए न, अभी तो आप की क्लास भी नहीं है.’’

‘‘लेकिन यहां नहीं. लौंगड्राइव पर चलोगी मेरे साथ?’’

‘‘चलिए, एनिथिंग फौर यू, पापा.’’

‘‘मैडम को कह देना हम लाइबे्ररी जा रहे हैं, अगर लौटने में देर हो जाए तो वे मेरी क्लास में कल रात तैयार किया प्रश्नपत्र बांट दें,’’ ब्रजेश ने चपरासी से कहा और श्रेया के साथ बाहर आ गए.

गाड़ी चलाते हुए ब्रजेश चुप रहे, शहर से दूर एक बहुत बड़े अहाते में बनी हवेलीनुमा बहुमंजिली कोठी के सामने उन्होंने गाड़ी रोक दी.

‘‘यह हमारी पुश्तैनी कोठी है. पिताजी मेरे और गीता के विवाह के लिए एक ही शर्त पर राजी थे कि इस जायदाद पर सिर्फ उन के अपने खून यानी मेरी औलाद का ही हक होगा, गौतम का नहीं. गौतम के लिए ही तो मैं शादी कर रहा था, इसलिए मुझे यह बात इतनी बुरी लगी कि मैं ने फैसला कर लिया कि मेरी अपनी औलाद होगी ही नहीं. गीता के गर्भाशय में फाइब्रौयड्ज थे जिन का वह इलाज करवा रही थी लेकिन मैं ने उसे दवाएं खाने के बजाय औपरेशन करवा कर गर्भाशय ही निकलवाने को मना लिया. उस के बाद एक शहर में रहते हुए भी न कभी पिताजी ने मुझे बुलाया, न मैं स्वयं ही गया.

‘‘कुछ वर्ष पहले ही पिताजी का निधन हुआ है. मरने से पहले उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि अंतिम संस्कार के लिए मुझे बुला लिया जाए. जायदाद तो खैर लाचारी में मेरे नाम करनी ही थी क्योंकि दान देने से तो जायदाद पराए लोगों को ही मिलती, जो वे चाहते नहीं थे. लेकिन मरने से पहले एक मार्मिक पत्र भी लिखा था उन्होंने जिस में मुझ पर अपने परिवार की वंशबेल नष्ट करने व पुरखों की मेहनत से बनाई जायदाद को पराए खून के हाथों देने का आरोप लगाया था और अनुरोध किया था कि हो सके तो ऐसा होने से रोक दूं, अपने पूर्वजों का नाम जीवित रखने के लिए गौतम के अतिरिक्त भी अपना बच्चा पैदा करूं.

‘‘उस पत्र को पढ़ने के बाद मैं आत्मग्लानि से ग्रस्त हो गया हूं. एक जानेमाने परिवार की वंशबेल नष्ट करने का मुझे कोई हक नहीं है. क्या नहीं किया था दादाजी और पापा ने अपने वंश का गौरव बढ़ाने के लिए, मुझे खुशहाल जीवन देने के लिए और मैं ने उन का बुढ़ापा ही खराब नहीं किया बल्कि उन का वंश ही खत्म कर दिया, महज इसलिए कि गौतम के मन में हीनभावना न आए. गौतम और गीता समझदार थे. हमारा दूसरा बच्चा होने पर और उसे पिताजी की जायदाद मिलने पर उन्हें कोई मलाल नहीं होता, दोनों ही पिताजी की भावनाएं समझ सकते थे और गौतम के लिए तो मेरी और उस की मां की कमाई ही काफी थी. लेकिन भावावेश में आ कर मैं ने गीता की हिस्ट्रेक्टोमी करवा कर सब संभावनाएं ही खत्म कर दीं,’’ ब्रजेश बुरी तरह बिलख पड़े.

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अज्ञातवास: भाग 3

‘‘ऐसा है मेरे साथ इसी आश्रम में एक युवा लड़की रहती है. उस के साथ मेरी अच्छी दोस्ती हो गई. वह मुझे बड़ी दीदी कहती है. वह अपनी सारी समस्याएं मुझे बताती है. कई बार मुझे से सलाह की भी अपेक्षा करती है. जब छोटी बहन बन ही गई तो उसे समझना और उस को उचित सलाह देना मेरा कर्तव्य तो है न.’’

‘‘बिलकुल, क्या हो गया था?’’

‘‘ऐसा है उस का नाम प्रिया है. बहुत ही सुंदर, प्यारी सी लड़की है. सिर्फ 30 साल की है. यहां पर वह 15 साल की थी, तब आई थी क्योंकि उस का किसी ने रेप कर दिया था. अब वह 15 साल बाद 30 की हो गई. हमारे इस आश्रम में हम लड़कियों की शादी भी करवाते हैं पर यह किसी लड़के को चाहती है. उसे मेरी मदद की जरूरत है. अब मैं यहां इतने सालों से रह रही हूं तो मेरी बात को ये लोग महत्त्व देते हैं. उसी के लिए आजकल मैं कोशिश कर रही हूं. उस की शादी उस लड़के से हो जाए तो अच्छी बात है.’’

‘‘अर्चना, तेरी कहानी के बीच में यह प्रिया की कहानी और शुरू हो गई. अब तू बता तुम्हारी संस्था का क्या नाम है? मुझे तो पूरी रात यही बात परेशान कर रही थी?’’

‘‘सबकुछ बताऊंगी नीरा, तसल्ली रख. हमारी संस्था का नाम ‘आनंद आश्रम’ है. इस में कई संस्थाएं हैं. वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम और गर्ल्स कालेज. इस के अलावा कई तरह की ट्रेनिंग भी दी जाती है. चेन्नई शहर से काफी दूरी पर है. बस से आजा सकते हैं. इस का कैंपस बहुत बड़ा है.’’

‘‘यार अर्चना, तू तो इस की तारीफों के पुल बांध रही है.’’

‘‘नीरा, तुम्हें एक बात बताऊं जब मैं शुरू में यहां आई तो बहुत ही परेशान थी परंतु बाद में मुझे इस जगह से बड़ा प्रेम हो गया. अनाथाश्रम की लड़कियों को भी हम पैरों पर न केवल खड़ा करते हैं बल्कि अच्छा वर देख कर उन की शादी भी कर देते हैं. अब प्रिया की शादी जुलाई में होगी. नीरा तुम भी आना और इस बहाने मुझसे भी मिल लोगी.’’

‘‘अर्चना, तुम कहां से कहां पहुंच गईं? मुझे अपनी कहानी पहले पूरी बताओ? फिर क्या भैया ने तुम्हें निकाल दिया.’’

‘‘हां, हां, यही तो बता रही थी, बीच में प्रिया की समस्या आ गई थी. उसे मैं ने ठीक कर दिया. ऐसा है, मेरे भैया ने तो कह दिया, ‘तुम डिलीवरी करा सकती हो पर तुम्हें ऐसी जगह भेजूंगा कि तुम्हारा संबंध हम से तो क्या, किसी पहचान वाले से नहीं होना चाहिए? क्या इस बात के लिए तुम राजी हो?’ मुझे तो बच्चा चाहिए था, मैं ने पक्का सोच लिया था. भैया ने कह दिया कि तुम्हारी मरजी, खूब अच्छी तरह सोच लो. मैं ने तो पक्का फैसला कर लिया था तो भैया ने मुझे साउथ में एक छोटे शहर में, जहां मेरी बड़ी बहन रहती थी, उस के यहां भेज दिया. फिर बोले कि यहां तुम सिर्फ डिलीवरी करवाओगी. उस के बाद तुम्हारे रहने के लिए मैं दूसरी जगह इंतजाम कर दूंगा. खर्चा भी भैया ने ही भेजा. बहन से कह दिया गया, इस का आदमी अरब कंट्री में नौकरी के लिए गया हुआ है.’’

‘‘तुम्हारी बहन ने मान लिया?’’

‘‘हां, लव मैरिज कर ली, बता दिया. फिर इस ‘आनंद आश्रम’ ने मु?ो सहारा दिया. 3 महीने के बच्चे को ले कर मैं यहां आ गई. शुरू में तो भैया थोड़ेथोड़े रुपए भेजते. मैं क्वालिफाइड तो थी, फिर मैं ने यहीं पर सर्विस कर ली और यहीं पर शिशुगृह भी है. बेटे को वहीं पर छोड़ देती थी. शाम को बच्चे को अपने पास ले लेती. बच्चा बहुत ही प्यारा था. हर कोई उसे उठा लेता था. इसलिए कोई ज्यादा परेशानी नहीं हुई. भैया के घर जाती तो भैया की बदनामी होती और मेरी भतीजियों की भी शादी की समस्या हो जाती.’’

‘‘जब नौकरी कर रही थी तो अनाथाश्रम में रहने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘मेरी सुरक्षा का तो प्रश्न था? यहां तो बाउंड्री वाल से बाहर कहीं जा नहीं सकते थे. बेटे की सुरक्षा भी थी.’’

‘‘अर्चना, तुम बुरा मत मानना, तुम में हिम्मत की तो कमी थी. आजकल ऐक्टर नीना गुप्ता ‘मेरा बच्चा है’ कह कर रख रही है न? करण जौहर को देखो, 2-2 बच्चे.’’

‘‘यह बात नहीं है नीरा. आज से 40 साल पहले की बात सोच. हम तो साधारण मध्यवर्गीय लोग बहुत ज्यादा डरते हैं. तु?ो तो पता ही है. मैं ने गलती की, उस की सजा मुझे मिलनी चाहिए.’’

‘‘अरी पागल, तू ने कोई गलती नहीं की, मनुष्य को जैसे भूख लगती है, ऐसे ही इस उम्र में शरीर की भूख होती है. कामशक्ति को भी शांत करना जरूरी है. इस शारीरिक भूख को भी यदि तरीके से शांत न किया जाए तो कई मनोवैज्ञानिक व शारीरिक परेशानियां हो जाती हैं. तुम 35 साल की हो गई थीं. तुम्हारी शादी नहीं हो रही थी. उसी समय तुम्हारा एक आकर्षक व्यक्तित्व से मिलना, उस का भी तुम्हारी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक बात थी. तुम ने जो कदम उठाया वह गलत था, यह तो मैं नहीं कहूंगी. इस उम्र में गलती हो सकती है, उसे सुधारना चाहिए था. गलती मनुष्य से ही होती है. फिर आगे क्या हुआ, यह बताओ?’’

‘‘बेटा पढ़ लिया. बेटा होशियार था. सब ने मदद की. मैं भी वहीं पर नौकरी करती थी. पर बहुत ही कम रुपयों पर. खानापीना फ्री था ही, हाथखर्ची हो जाती थी.’’

‘‘पर बता तू ने किसी से संबंध क्यों नहीं रखा?’’

‘‘भैया ने मना कर दिया था न, तुम किसी से संपर्क नहीं रखोगी?     मुझे  उन की बात रखनी थी न. बदनामी का मुझे भी डर था.’’

‘‘भैया ने तुम्हारी सुध नहीं ली?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं. भैया तो मेरी राजीखुशी का समाचार पूछते रहते थे. जबतब रुपए भी भेजते थे.’’

‘‘तुम से मिलने कोई नहीं आया?’’

‘‘एक बार भैया आए थे और एक बार भाभी आई थीं. पर मेरा समय ही खराब रहा कि भैया और भाभी दोनों ही बहुत जल्दी एक साल के अंदर ही गुजर गए. एक बार बड़ा भतीजा आया था, उसी समय मैं ने उस को नंबर दे दिया था. तभी तो इतने दिन बाद तुम्हें मेरा नंबर मिल गया. यह मेरा अहो भाग्य.’’

‘‘तुम अज्ञातवास में रहीं. मैं ने सुना, रामायण में एक प्रसंग आता है कि अहिल्या को भी इसी तरह अज्ञातवास में रहना पड़ा. खुद ही खेती करती, फसल उगाती, उसे स्वयं अकेले काटती और स्वयं ही बना कर खातीपीती रही. जैसे लोगों ने फैला दिया अहिल्या पत्थर की शिला नहीं थी, उस ने तो कठोर अज्ञातवास ही सहन किया था, जिसे तुम भुगत रही हो. सचमुच में अज्ञातवास में रहना बहुत ही कष्टकारक है. खाना, कपड़ा और मकान जितना जरूरी है, हमें अपने लोग, हमारी पहचान इस की भी बहुत जरूरत है. इस के बिना रह कर तुम ने कितना कष्ट महसूस किया होगा, मैं सोच सकती हूं. इस  लौकडाउन में तो हर कोई तुम्हारी तकलीफ को महसूस कर सकता है परंतु इस समय तो इंटरनैट, मोबाइल सबकुछ है, उस समय तुम ने अपना समय कैसे काटा होगा?’’

‘‘नीरा, अब तो मेरा समय निकल गया. अब तो मेरी कइयों से दोस्ती हो गई. जो गलती हो गई, उस का फल भुगत लिया.’’

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सांझ पड़े घर आना- भाग 1: नीलिमा की बौस क्यों रोने लगी

उसकी मेरे औफिस में नईनई नियुक्ति हुई थी. हमारी कंपनी का हैड औफिस बैंगलुरु में था और मैं यहां की ब्रांच मैनेजर थी. औफिस में कोई और केबिन खाली नहीं था, इसलिए मैं ने उसे अपने कमरे के बाहर वाले केबिन में जगह दे दी. उस का नाम नीलिमा था. क्योंकि उस का केबिन मेरे केबिन के बिलकुल बाहर था, इसलिए मैं उसे आतेजाते देख सकती थी. मैं जब भी अपने औफिस में आती, उसे हमेशा फाइलों या कंप्यूटर में उलझा पाती. उस का औफिस में सब से पहले पहुंचना और देर तक काम करते रहना मुझे और भी हैरान करने लगा. एक दिन मेरे पूछने पर उस ने बताया कि पति और बेटा जल्दी चले जाते हैं, इसलिए वह भी जल्दी चली आती है. फिर सुबहसुबह ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं रहता.

वह रिजर्व तो नहीं थी, पर मिलनसार भी नहीं थी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो आंखों को बांध लेते हैं. उस का मेकअप भी एकदम नपातुला होता. वह अधिकतर गोल गले की कुरती ही पहनती. कानों में छोटे बुंदे, मैचिंग बिंदी और नाममात्र का सिंदूर लगाती. इधर मैं कंपनी की ब्रांच मैनेजर होने के नाते स्वयं के प्रति बहुत ही संजीदा थी. दिन में जब तक 3-4 बार वाशरूम में जा कर स्वयं को देख नहीं लेती, मुझे चैन ही नहीं पड़ता. परंतु उस की सादगी के सामने मेरा सारा वजूद कभीकभी फीका सा पड़ने लगता.

लंच ब्रेक में मैं ने अकसर उसे चाय के साथ ब्रैडबटर या और कोई हलका नाश्ता करते पाया. एक दिन मैं ने उस से पूछा तो कहने लगी, ‘‘हम लोग नाश्ता इतना हैवी कर लेते हैं कि लंच की जरूरत ही महसूस नहीं होती. पर कभीकभी मैं लंच भी करती हूं. शायद आप ने ध्यान नहीं दिया होगा. वैसे भी मेरे पति उमेश और बेटे मयंक को तरहतरह के व्यंजन खाने पसंद हैं.’’ ‘‘वाह,’’ कह कर मैं ने उसे बैठने का इशारा किया, ‘‘फिर कभी हमें भी तो खिलाइए कुछ नया.’’ इसी बीच मेरा फोन बज उठा तो मैं अपने केबिन में आ गई.

एक दिन वह सचमुच बड़ा सा टिफिन ले कर आ गई. भरवां कचौरी, आलू की सब्जी और बूंदी का रायता. न केवल मेरे लिए बल्कि सारे स्टाफ के लिए. इतना कुछ देख कर मैं ने कहा, ‘‘लगता है कल शाम से ही इस की तैयारी में लग गई होगी.’’

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वह मुसकराने लगी. फिर बोली, ‘‘मुझे खाना बनाने और खिलाने का बहुत शौक है. यहां तक कि हमारी कालोनी में कोई भी पार्टी होती है तो सारी डिशेज मैं ही बनाती हूं.’’ नीलिमा को हमारी कंपनी में काम करते हुए 6 महीने हो गए थे. न कभी वह लेट हुई और न जाने की जल्दी करती. घर से तरहतरह का खाना या नाश्ता लाने का सिलसिला भी निरंतर चलता रहा. कई बार मैं ने उसे औफिस के बाद भी काम करते देखा. यहां तक कि वह अपने आधीन काम करने वालों की मीटिंग भी शाम 6 बजे के बाद ही करती. उस का मानना था कि औफिस के बाद मन भी थोड़ा शांत रहता है और बाहर से फोन भी नहीं आते.

एक दिन मैं ने उसे दोपहर के बाद अपने केबिन में बुलाया. मेरे लिए फुरसत से बात करने का समय दोपहर के बाद ही होता था. सुबह मैं सब को काम बांट देती थी. हमारी कंपनी बाहर से प्लास्टिक के खिलौने आयात करती और डिस्ट्रीब्यूटर्स को भेज देती थी. हमारी ब्रांच का काम और्डर ले कर हैड औफिस को भेजने तक ही सीमित था. नीलिमा ने बड़ी शालीनता से मेरे केबिन का दरवाजा खटखटा भीतर आने की इजाजत मांगी. मैं कुछ पुरानी फाइलें देख रही थी. उसे बुलाया और सामने वाली कुरसी पर बैठने का इशारा किया. मैं ने फाइलें बंद कीं और चपरासी को बुला कर किसी के अंदर न आने की हिदायत दे दी.

नीलिमा आप को हमारे यहां काम करते हुए 6 महीने से ज्यादा का समय हो गया. कंपनी के नियमानुसार आप का प्रोबेशन पीरियड समाप्त हो चुका है. यहां आप को कोई परेशानी तो नहीं? काम तो आपने ठीक से समझ ही लिया है. स्टाफ से किसी प्रकार की कोई शिकायत हो तो बताओ. ‘‘मैम, न मुझे यहां कोई परेशानी है और न ही किसी से कोई शिकायत. यदि आप को मेरे व्यवहार में कोई कमी लगे तो बता दीजिए. मैं खुद को सुधार लूंगी… मैं आप के जितना पढ़ीलिखी तो नहीं पर इतना जरूर विश्वास दिलाती हूं कि मैं अपने काम के प्रति समर्पित रहूंगी. यदि पिछली कंपनी बंद न हुई होती तो पूरे 10 साल एक ही कंपनी में काम करते हो जाते,’’ कह कर वह खामोश हो गई. उस की बातों में बड़ा ठहराव और विनम्रता थी.

‘‘जो भी हो, तुम्हें अपने परिवार की भी सपोर्ट है. तभी तो मन लगा कर काम कर सकती हो. ऐसा सभी के साथ नहीं होता है.’’ मैं ने थोड़े रोंआसे स्वर में कहा. वह मुझे देखती रही जैसे चेहरे के भाव पढ़ रही हो. मैं ने बात बदल कर कहा, ‘‘अच्छा मैं ने आप को यहां इसलिए बुलाया है कि अगला पूरा हफ्ता मैं छुट्टी पर रहूंगी. हो सकता है 1-2 दिन ज्यादा भी लग जाएं. मुझे उम्मीद है आप को कोई ज्यादा परेशानी नहीं होगी. मेरा मोबाइल चालू रहेगा.’’

‘‘कहीं बाहर जा रही हैं आप?’’ उस ने ऐसे पूछा जैसे मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. मैं ने कहा, ‘‘नहीं, रहूंगी तो यहीं… कोर्ट की आखिरी तारीख है. शायद मेरा तलाक मंजूर हो जाए. फिर मैं कुछ दिन सुकून से रहना चाहती हूं.’’

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‘‘तलाक?’’ कह जैसे वह अपनी सीट से उछली हो. ‘‘हां.’’

‘‘इस उम्र में तलाक?’’ वह कहने लगी, ‘‘सौरी मैम मुझे पूछना तो नहीं चाहिए पर…’’

‘‘तलाक की भी कोई उम्र होती है? सदियों से मैं रिश्ता ढोती आई हूं. बेटी यूके में पढ़ने गई तो वहीं की हो कर रह गई. मेरे पति और मेरी कभी बनी ही नहीं और अब तो बात यहां तक आ गई है कि खाना भी बाहर से ही आता है. मैं थक गई यह सब निभातेनिभाते… और जब से बेटी ने वहीं रहने का निर्णय लिया है, हमारे बीच का वह पुल भी टूट गया,’’ कहतेकहते मेरी आंखों में आंसू आ गए.

औरत एक पहेली- भाग 1: विनीता के मृदु स्वभाव का क्या राज था

संदीप बाहर धूप में बैठे सफेद कागजों पर आड़ी तिरछी रेखाएं बनाबना कर भांति भांति के मकानों के नक्शे खींच रहे थे. दोनों बेटे पंकज, पवन और बेटी कामना उन के इर्दगिर्द खड़े बेहद दिलचस्पी के साथ अपनी अपनी पसंद बतलाते जा रहे थे.

मुझे हमेशा की भांति अदरक की चाय और कोई लजीज सा नाश्ता बनाने का आदेश मिला था.

बापबेटों की नोकझोंक के स्वर रसोईघर के अंदर तक गूंज रहे थे. सभी चाहते थे कि मकान उन की ही पसंद के अनुरूप बने. पवन को बैडमिंटन खेलने के लिए लंबेचौड़े लान की आवश्यकता थी. व्यावसायिक बुद्धि का पंकज मकान के बाहरी हिस्से में एक दुकान बनवाने के पक्ष में था.

कामना अभी 11 वर्ष की थी, लेकिन मकान के बारे में उस की कल्पनाएं अनेक थीं. वह अपनी धनाढ्य परिवारों की सहेलियों की भांति 2-3 मंजिल की आलीशान कोठी की इच्छुक थी, जिस के सभी कमरों में टेलीफोन और रंगीन टेलीविजन की सुविधाएं हों, कार खड़ी करने के लिए गैराज हो.

संदीप ठठा कर हंस पड़े, ‘‘400 गज जमीन में पांचसितारा होटल की गुंजाइश कहां है हमारे पास. मकान बनवाने के लिए लाखों रुपए कहां हैं?’’

‘‘फिर तो बन गया मकान. पिताजी, पहले आप रुपए पैदा कीजिए,’’ कामना का मुंह फूल उठा था.

‘‘तू क्यों रूठ कर अपना भेजा खराब करती है? मकान में तो हमें ही रहना है. तेरा क्या है, विवाह के बाद पराए घर जा बैठेगी,’’ पंकज और पवन कामना को चिढ़ाने लगे थे.

बच्चों के वार्त्तालाप का लुत्फ उठाते हुए मैं ने मेज पर गरमगरम चाय, पकौड़े, पापड़ सजा दिए और संदीप से बोली, ‘‘इस प्रकार तो तुम्हारा मकान कई वर्षों में भी नहीं बन पाएगा. किसी इंजीनियर की सहायता क्यों नहीं ले लेते. वह तुम सब की पसंद के अनुसार नक्शा बना देगा.’’

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संदीप को मेरा सुझाव पसंद आया. जब से उन्होंने जमीन खरीदी थी, उन के मन में एक सुंदर, आरामदेह मकान बनवाने की इच्छाएं बलवती हो उठी थीं.

संदीप अपने रिश्तेदारों, मित्रों से इस विषय में विचारविमर्श करते रहते थे. कई मकानों को उन्होंने अंदर से ले कर बाहर तक ध्यानपूर्वक देखा भी था. कई बार फुरसत के क्षणों में बैठ कर कागजों पर भांतिभांति के नक्शे बनाएबिगाड़े थे, परंतु मन को कोई रूपरेखा संतुष्ट नहीं कर पा रही थी. कभी आंगन छोटा लगता तो कभी बैठक के लिए जगह कम पड़ने लगती.

परिवार के सभी सदस्यों के लिए पृथकपृथक स्नानघर और कमरे तो आवश्यक थे ही, एक कमरा अतिथियों के लिए भी जरूरी था. क्या मालूम भविष्य में कभी कार खरीदने की हैसियत बन जाए, इसलिए गैराज बनवाना भी आवश्यक था. कुछ ही दिनों बाद संदीप किसी अच्छे इंजीनियर की तलाश में जुट गए.

एकांत क्षणों में मैं भी मकान के बारे में सोचने लगती थी. एक बड़ा, आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण रसोईघर बनवाने की कल्पनाएं मेरे मन में उभरती रहती थीं. अपने मकान में गमलों में सजाने के लिए कई प्रकार के पेड़पौधों के नाम मैं ने लिख कर रख दिए थे.

एक दिन संदीप ने घर आ कर बतलाया कि उन्होंने एक भवन निर्माण कंपनी की मालकिन से अपने मकान के बारे में बात कर ली है. अब नक्शा बनवाने से ले कर मकान बनवाने तक की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं की होगी.

सब ने राहत की सांस ली. मकान बनवाने के लिए संदीप के पास कुल डेढ़दो लाख की जमापूंजी थी. घर के खर्चों में कटौती करकर के वर्षों में जा कर इतना रुपया जमा हो पाया था.

संदीप एक दिन मुझे भवन निर्माण कंपनी की मालकिन विनीता से मिलवाने ले गए.

मैं कुछ ही क्षणों में विनीता के मृदु स्वभाव, खूबसूरती और आतिथ्य से कुछ ऐसी प्रभावित हुई कि हम दोनों के बीच अदृश्य सा आत्मीयता का सूत्र बंध गया.

हम उन्हें अपने घर आने का औपचारिक निमंत्रण दे कर चले आए. मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि वह हमारे घर आ कर हमारा आतिथ्य स्वीकार करेंगी. लेकिन एक शाम आकस्मिक रूप से उन की चमचमाती विदेशी कार हमारे घर के सामने आ कर रुक गई. मैं संकोच से भर उठी कि कहां बैठाऊं इन्हें, कैसे सत्कार करूं.

विनीता शायद मेरे मन की हीन भावना भांप गई. मुसकरा कर स्वत: ही एक कुरसी पर बैठ गईं, ‘‘रेखाजी, क्या एक गिलास पानी मिलेगा.’’

मैं निद्रा से जागी. लपक कर रसोई- घर से पानी ले आई. फिर चाय की चुसकियों के साथ वार्त्तालाप का लंबा सिलसिला चल निकला. इस बीच बच्चे कालिज से आ गए थे, वे भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए. फिर विनीता यह कह कर चली गईं, ‘‘मैं ने आप की पसंद को ध्यान में रख कर मकान के कुछ नक्शे बनवाए हैं. कल मेरे दफ्तर में आ कर देख लीजिएगा.’’

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विनीत के जाने के बाद मेरे मन में अनेक अनसुलझे प्रश्न डोलते रह गए थे कि उस का परिवार कैसा है? पति कहां हैं और क्या करते हैं? इन के संपन्न होने का रहस्य क्या है?

कभीकभी ऐसा लगता है कि मैं विनीता को जानती हूं. उन का चेहरा मुझे परिचित जान पड़ता, लेकिन बहुत याद करने पर भी कोई ऐसी स्मृति जागृत नहीं हो पाती थी.

कभी मैं सोचने लगती कि शायद अधिक आत्मीयता हो जाने की वजह से ऐसा लगता होगा. अगले दिन शाम को मैं और संदीप दोनों उन के दफ्तर में नक्शा देखने गए. एक नक्शा छांट कर संतुष्ट भाव से हम ने वैसा ही मकान बनवाने की अनुमति दे दी.

बातों ही बातों में संदीप कह बैठे, ‘‘रुपए की कमी के कारण शायद हम पूरा मकान एकसाथ नहीं बनवा पाएंगे.’’

विनीता झट आश्वासन देने लगीं, ‘‘आप निश्ंिचत रहिए. मैं ने आप का मकान बनवाने की जिम्मेदारी ली है तो पूरा बनवा कर ही रहूंगी. बाकी रुपए मैं अपनी जिम्मेदारी पर आप को कर्ज दिलवा दूंगी. आप सुविधानुसार धीरेधीरे चुकाते रहिए.’’

संदीप उन के एहसान के बोझ से दब से गए. मुझे विनीता और भी अपनी सी लगने लगीं.

नक्शा पास हो जाने के पश्चात मकान का निर्माण कार्य शुरू हो गया.

अब तक विनीता का हमारे यहां आनाजाना बढ़ गया था. अब वह खाली हाथ न आ कर बच्चों के लिए फल, मिठाइयां और कुछ अन्य वस्तुएं ले कर आने लगी थीं.

सुलझती जिंदगियां- भाग 1: आखिर क्या हुआ था रागिनी के साथ?

विवाह स्थलअपनी चकाचौंध से सभी को आकर्षित कर रहा था. बरात आने में अभी समय था. कुछ बच्चे डीजे की धुनों पर थिरक रहे थे तो कुछ इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे. मेजबान परिवार पूरी तरह व्यवस्था देखने में मुस्तैद दिखा.

इसी विवाह समारोह में मौजूद एक महिला कुछ दूर बैठी दूसरी महिला को लगता घूर रही थी. बहुत देर तक लगातार घूरने पर भी जब सामने बैठी युवती ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की तो सीमा उठ कर खुद ही उस के पास चली गई. बोली, ‘‘तुम रागिनी हो न? रागिनी मैं सीमा. पहचाना नहीं तुम ने? मैं कितनी देर से तुम्हें ही देख रही थी, मगर तुम ने नहीं देखा, तो मैं खुद उठ कर तुम्हारे पास चली आई. कितने वर्ष गुजर गए हमें बिछुड़े हुए,’’ और फिर सीमा ने उत्साहित हो कर रागिनी को लगभग झकझोर दिया.

रागिनी मानो नींद से जागी. हैरानी से सीमा को देर तक घूरती रही. फिर खुश हो कर बोली, ‘‘तू कहां चली गई थी सीमा? मैं कितनी अकेली हो गई थी तेरे बिना,’’ कह कर उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. दोनों की आंखें छलक उठीं.

‘‘तू यहां कैसे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘मेरे पति रमन ओएनजीसी में इंजीनियर हैं और यह उन के बौस की बिटिया की शादी है, तो आना ही था अटैंड करने. पर तू यहां कैसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘सुकन्या यानी दुलहन मेरी चचेरी बहन है. अरे, तुझे याद नहीं अकसर गरमी की छुट्टियों में आती तो थी हमारे घर लखनऊ में. कितनी लड़ाका थी… याद है कभी भी अपनी गलती नहीं मानती थी. हमेशा लड़ कर कोने में बैठ जाती थी. कितनी बार डांट खाई थी मैं ने उस की वजह से,’’ सीमा ने हंस कर कहा.

‘‘ओ हां. अब कुछ ध्यान आ रहा है,’’ रागिनी जैसे अपने दिमाग पर जोर डालते हुए बोली.

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फिर तो बरात आने तक शौपिंग, गहने, मेकअप, प्रेमप्रसंग और भी न जाने कहांकहां के किस्से निकले और कितने गड़े मुरदे उखड़ गए. रागिनी न जाने कितने दिनों बाद खुल कर अपना मन रख पाई किसी के सामने.

सच बचपन की दोस्ती में कोई बनावट, स्वार्थ और ढोंग नहीं होता. हम अपने मित्र के मूल स्वरूप से मित्रता रखते हैं. उस की पारिवारिक हैसियत को ध्यान नहीं रखते.

तभी शोर मच गया. किसी की 4 साल की बेटी, जिस का नाम निधि था, गुम हो गई थी. अफरातफरी सी मच गई. सभी ढूंढ़ने में जुट गए, तुरंत एकदूसरे को व्हाट्सऐप से लड़की की फोटो सैंड करने लगे. जल्दी ही सभी के पास पिक थी. शादी फार्महाउस में थी, जिस के ओरछोर का ठिकाना न था. जितने इंतजाम उतने ही ज्यादा कर्मचारी भी.

आधे घंटे की गहमागहमी के बाद वहां लगे गांव के सैट पर सिलबट्टा ले कर चटनी पीसने वाली महिला कर्मचारी के पास खेलती मिली. रागिनी तो मानो तूफान बन गई. उस ने तेज निगाह से हर तरफ  ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. बच्ची को वही ढूंढ़ कर लाई. सब की सांस में सांस आई. निधि की मां को चारों तरफ  से सूचना भेजी जाने लगी, क्योंकि सब को पता चल गया था कि मां तो डीजे में नाचने में व्यस्त थी. बेटी कब खिसक कर भीड़ में खो गई उसे खबर ही न हई. जब निधि की दादी को उसे दूध पिलाने की याद आई, तो उस की मां को ध्यान आया कि निधि कहां है?

बस फिर क्या था. सास को मौका मिल गया. बहू को लताड़ने का और फिर शोर मचा कर सास ने सब को इकट्ठा कर लिया.

भीड़ फिर खानेपीने में व्यस्त हो गई. सीमा ने भी रागिनी से अपनी छूटी बातचीत का सिरा संभालते हुए कहा, ‘‘तेरी नजरें बड़ी तेज हैं… निधि को तुरंत ढूंढ़ लिया तूने.’’

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‘‘न ढूंढ़ पाती तो शायद और पगला जाती… आधी पागल तो हो ही गई हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘मुझे तो तू पागल कहीं से भी नहीं लगती. यह हीरे का सैट, ब्रैंडेड साड़ी, यह स्टाइलिश जूड़ा, यह खूबसूरत चेहरा, ऐसी पगली तो पहले नहीं देखी,’’ सीमा खिलखिलाई.

‘‘जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई. तू मेरा दुख नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी मुरझाए स्वर में बोली.

10 साल- भाग 1: क्यों नानी से सभी परेशान थे

Writer- लीला रूपायन

जब से होश संभाला था, वृद्धों को झकझक करते ही देखा था. क्या घर क्या बाहर, सब जगह यही सुनने को मिलता था, ‘ये वृद्ध तो सचमुच धरती का बोझ हैं, न जाने इन्हें मौत जल्दी क्यों नहीं आती.’ ‘हम ने इन्हें पालपोस कर इतना बड़ा किया, अपनी जान की परवा तक नहीं की. आज ये कमाने लायक हुए हैं तो हमें बोझ समझने लगे हैं,’ यह वृद्धों की शिकायत होती. मेरी समझ में कुछ न आता कि दोष किस का है, वृद्धों का या जवानों का. लेकिन डर बड़ा लगता. मैं वृद्धा हो जाऊंगी तो क्या होगा? हमारे रिश्ते में एक दादी थीं. वृद्धा तो नहीं थीं, लेकिन वृद्धा बनने का ढोंग रचती थीं, इसलिए कि पूरा परिवार उन की ओर ध्यान दे. उन्हें खानेपीने का बहुत शौक था. कभी जलेबी मांगतीं, कभी कचौरी, कभी पकौड़े तो कभी हलवा. अगर बहू या बेटा खाने को दे देते तो खा कर बीमार पड़ जातीं. डाक्टर को बुलाने की नौबत आ जाती और यदि घर वाले न देते तो सौसौ गालियां देतीं.

घर वाले बेचारे बड़े परेशान रहते. करें तो मुसीबत, न करें तो मुसीबत. अगर बच्चों को कुछ खाते देख लेतीं तो उन्हें इशारों से अपने पास बुलातीं. बच्चे न आते तो जो भी पास पड़ा होता, उठा कर उन की तरफ फेंक देतीं. बच्चे खीखी कर के हंस देते और दादी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता, जहां से वे चाची के मरे हुए सभी रिश्तेदारों को एकएक कर के पृथ्वी पर घसीट लातीं और गालियां देदे कर उन का तर्पण करतीं. मुझे बड़ा बुरा लगता. हाय रे, दादी का बुढ़ापा. मैं सोचती, ‘दादी ने सारी उम्र तो खाया है, अब क्यों खानेपीने के लिए सब से झगड़ती हैं? क्यों छोटेछोटे बच्चों के मन में अपने प्रति कांटे बो रही हैं? वे क्यों नहीं अपने बच्चों का कहना मानतीं? क्या बुढ़ापा सचमुच इतना बुरा होता है?’ मैं कांप उठती, ‘अगर वृद्धावस्था ऐसा ही होती है तो मैं कभी वृद्धा नहीं होऊंगी.’

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मेरी नानी को नई सनक सवार हुई थी. उन्हें अच्छेअच्छे कपड़े पहनने का शौक चर्राया था. जब वे देखतीं कि बहू लकदक करती घूम रही है, तो सोचतीं कि वे भी क्यों न सफेद और उजले कपड़े पहनें. वे सारा दिन चारपाई पर बैठी रहतीं. आतेजाते को कोई न कोई काम कहती ही रहतीं. जब भी मेरी मामी बाहर जाने को होतीं तो नानी को न जाने क्यों कलेजे में दर्द होने लगता. नतीजा यह होता कि मामी को रुकना पड़ जाता. मामी अगर भूल से कभी यह कह देतीं, ‘आप उठ कर थोड़ा घूमाफिरा भी करो, भाजी ही काट दिया करो या बच्चों को दूधनाश्ता दे दिया करो. इस तरह थोड़ाबहुत चलने और काम करने से आप के हाथपांव अकड़ने नहीं पाएंगे,’ तो घर में कयामत आ जाती.

‘हांहां, मेरी हड्डियों को भी मत छोड़ना. काम हो सकता तो तेरी मुहताज क्यों होती? मुझे क्या शौक है कि तुम से चार बातें सुनूं? तेरी मां थोड़े हूं, जो तुझे मुझ से लगाव होता.’ मामी बेचारी चुप रह जातीं. नौकरानी जब गरम पानी में कपड़े भिगोने लगती तो कराहती हुई नानी के शरीर में न जाने कहां से ताकत आ जाती. वे भाग कर वहां जा पहुंचतीं और सब से पहले अपने कपड़े धुलवातीं. यदि कोई बच्चा उन्हें प्यार करने जाता तो उसे दूर से ही दुत्कार देतीं, ‘चल हट, मुझे नहीं अच्छा लगता यह लाड़. सिर पर ही चढ़ा जा रहा है. जा, अपनी मां से लाड़ कर.’ मामी को यह सुन कर बुरा लगता. मामी और नानी दोनों में चखचख हो जाती. नानी का बेटा समझाने आता तो वे तपाक से कहतीं, ‘बड़ा आया है समझाने वाला. अभी तो मेरा आदमी जिंदा है, अगर कहीं तेरे सहारे होती तो तू बीवी का कहना मान कर मुझे दो कौड़ी का भी न रहने देता.’

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