Women’s Day Special- गिरफ्त: भाग 2

‘‘मनीषा, मैं ने इसीलिए तुम्हें फोन किया था कि तुम अब अपना प्रोग्राम बदल देना, देखो, अदरवाइज मत लेना पर मैं ने बहुत सोचा है और आखिर इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि मैं अभी शादी नहीं कर पाऊंगा इसलिए…’’

‘‘क्या कह रहे हो सुशांत? मजाक कर रहे हो क्या?’’ मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि सुशांत कहना क्या चाह रहा है.

‘‘यह मजाक नहीं है मनीषा, मैं जो कुछ कह रहा हूं, बहुत सोचसमझ कर कह रहा हूं. अभी मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि शादी कर सकूं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो सुशांत, हम लोग सारी बातें पहले ही तय कर चुके हैं और अच्छीखासी जौब है तुम्हारी. फिर मैं भी जौब करूंगी ही. हम लोग मैनेज कर ही लेंगे और हां, यह तो सोचो कि शादी की सारी तैयारियां हो चुकी हैं. पापा ने वहां सारी बुकिंग करा दी है. कैटरिंग, हलवाई सब को एडवांस दिया जा चुका है.’’

‘‘तभी तो मैं कह रहा हूं…’’ सुशांत ने फिर बात काटी थी, ‘‘देखो मनीषा, अभी तो टाइम है, चीजें कैंसिल भी हो सकती हैं और फिर शादी के बाद तंगी में रहना कितना मुश्किल होगा. इच्छा होती है कि हनीमून के लिए बाहर जाएं. बढि़या फ्लैट, गाड़ी सब हों, मैं ने तुम्हें बताया था न कि मेरी एक फ्रैंड है शोभा, उस से मैं अकसर राय लेता रहता हूं. उस का भी यही कहना है, चलो, तुम्हारी उस से भी बात करा दूं. वह यहीं बैठी है.’’

शोभा, कौन शोभा. क्या सुशांत की कोई गर्लफ्रैंड भी है. उस ने तो कभी बताया नहीं… मनीषा के हाथ कांपने लगे. तब तक उधर से आवाज आई. ‘‘हां, कौन, मनीषा बोल रही हैं, हां, मैं शोभा, असल में सुशांत यहीं हमारे घर में पेइंगगैस्ट की तरह रह रहे हैं, तुम्हारा अकसर जिक्र करते रहते हैं. फोटो भी दिखाया था तुम्हारा. बस, शादी के नाम पर थोड़े परेशान हैं कि अभी मैनेज नहीं हो पाएगा. अपने घरवालों से तो कहने में हिचक रहे थे तो मैं ने ही कहा कि तुम मनीषा से ही बात कर लो. वह समझदार है, तुम्हारी तकलीफ समझेगी.’’

मनीषा तो जैसे आगे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. कौन है यह शोभा और सुशांत क्यों इसे सारी बातें बताता रहा है. उस का माथा भन्नाने लगा. ‘‘देखिए, आप सुशांत को फोन दें.’’

‘‘हां सुशांत, तुम अपने घरवालों से बात कर लो.’’

‘‘पर मनीषा…’’ सुशांत कह रहा था, पर मनीषा ने तब तक मोबाइल बंद कर दिया था. 2 बार घंटी बजी थी, पर उस ने फोन उठाया ही नहीं.

‘ओफ, क्या सोचा था और क्या हो गया. अब वह क्या करे. सुहावने सपनों का महल जैसे भरभरा कर गिर गया. अब अजमेर जा कर मांपापा से क्या कहेगी,’ उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था.

मोबाइल की घंटी लगातार घनघना रही थी. नहीं, उसे अब सुशांत से कोई बात नहीं करनी और वह गर्लफैंड. वह खुद को बुरी तरफ अपमानित अनुभव कर रही थी. कहां तो अभी इतनी तेज भूख लग रही थी, लेकिन अब भूखप्यास सब गायब हो गई थी. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे? मांपापा को फोन पर तो यह सब बताना ठीक नहीं रहेगा, वे लोग घबरा जाएंगे. मां तो वैसे ही ब्लडप्रैशर की मरीज हैं.

और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर वह शोभा है कौन? सुशांत उस के कहने भर से शादी स्थगित कर रहा है या फिर शादी के लिए मना ही कर रहा है.

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ठीक है, उसे भी ऐसे आदमी के साथ जिंदगी नहीं बितानी है, अच्छा हुआ अभी सारी बातें सामने आ गईं और उस ने नौकरी से अभी रिजाइन नहीं दिया वरना मुश्किल हो जाती.

पर चारों तरफ सवाल ही सवाल थे और वह कोईर् उत्तर नहीं खोज पा रही थी.

रोतेरोते उस की आंखें सूज गई थीं.

‘नहीं, उसे कमजोर नहीं पड़ना है, जब उस की कोई गलती ही नहीं है तो वह क्यों हर्ट हो,’ यह सोच कर वह उठी ही थी कि मोबाइल की घंटी फिर बजने लगी थी. सुशांत का ही फोन होगा. अब फोन मुझे स्विचऔफ करना होगा, यह सोच कर उस ने मोबाइल उठाया. पर यह तो सरलाजी थीं, सुशांत की मां. अब ये क्या कह रही हैं.

उधर से आवाज आ रही थी, ‘‘हां, मनीषा बेटी, मैं हूं सरला.’’

‘‘हां, आंटी,’’ बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी रुंधि हुई आवाज को रोका.

‘‘बेटी, यह मैं क्या सुन रही हूं, अभीअभी सुशांत का फोन आया था. अरे बेटे, शादी क्या कोई मजाक है. क्यों मना कर रहा है वह. उस के पापा तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस का फोन ही काट दिया. अब पता नहीं यह शोभा कौन है और क्यों वह इस के बहकावे में आ रहा है, पर बेटी, मेरी तुम से विनती है, तुम एक बार बात कर के उसे समझाओ.’’

‘‘आंटी, अब मैं क्या कर सकती हूं,’’ मनीषा ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘बेटा, तू तो बहुत कुछ कर सकती है, तू इतनी समझदार है, एक बार बात कर उस से. अब हम तो तुझे अपनी बहू मान ही चुके हैं.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं देखूंगी,’’ कह कर मनीषा ने मोबाइल स्विचऔफ कर दिया था. अब नहीं करनी उसे किसी से भी बात. अरे, क्या मजाक समझ रखा है. बेटा कुछ कहता है तो मां कुछ और, और मैं क्यों समझाऊं किसी को. मैं ने क्या कोई ठेका ले रखा सब को सुधारने का, मनीषा का सिरदर्द फिर से शुरू हो गया था, रातभर वह सो भी नहीं पाई.

फिर सुबहसुबह उठ कर बालकनी में आ गई. अभी सूर्योदय हो ही रहा था. ‘नहीं, कुछ भी हो उसे उस शोभा को तो मजा चखाना ही है, भले ही यह शादी हो या नहीं, पर यह शोभा कौन होती है अड़ंगे लगाने वाली. वह एक बार तो बेंगलुरु जाएगी ही,’ सोचते हुए उस ने मोबाइल से ही बेंगलुरु की फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया था. फिर तैयार हो कर उस ने सुशांत को फोन कर दिया, वह अब औफिस आ चुका था.

‘‘मैं बेंगलुरु आ रही हूं, तुम से तुम्हारे औफिस में ही मिलूंगी.’’

‘‘अच्छा, पर…’’

‘‘पहुंच कर बात करते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया था.

एकाएक यह कदम उठा कर उस ने ठीक भी किया है या नहीं, यह वह अब तक समझ नहीं, पा रही थी, पर जो भी हो फ्लाइट का टिकट तो बुक हो ही चुका है, पर बेंगलुरु में ठहरेगी कहां. एकाएक उसे अपनी सहेली विशु याद आ गई. हां, विशु बेंगलुरु में ही तो जौब कर रही है. उसे फोन लगाया, ‘‘अरे मनीषा, व्हाट्स सरप्राइज…पर तू अचानक…’’ विशु भी चौंक गई थी.

‘‘बस, ऐसे ही, औफिस का एक काम था, तो सोचा कि तेरे ही पास ठहर जाऊंगी, तुम वहीं हो न.’’

‘‘हां, हूं तो बेंगलुरु में, पर अभी किसी काम से मुंबई आई हुई हूं, कोई बात नहीं, मां है वहां, तू घर पर ही रुकना. तू पहले भी तो मां से मिल चुकी है, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. मुझे तो अभी हफ्ताभर मुंबई में ही रुकना है.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं, वहां पहुंच कर तुझे फोन करूंगी.’’

फिर उस ने मां को अजमेर फोन कर के कह दिया कि अभी छुट्टी मिल नहीं पा रही है, 2 दिनों बाद आ पाऊंगी.

बेंगलुरु पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई थी. सुशांत औफिस में ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया,’’ उसे देखते ही सुशांत बोला था.

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मनीषा ने किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखा और कहा, ‘‘बस…शादी नहीं हो रही तो क्या, दोस्त तो हम हैं ही, सोचा कि मिल कर बात कर लेती हूं कि आखिर वजह क्या है शादी टालने की, फिर मुझे कुछ काम भी था बेंगलुरु में तो वह भी हो जाएगा.’’ आधा सच, आधा झूठ बोल कर उस ने बात खत्म की.

‘‘हांहां, चलो, पहले कहीं चल कर चायकौफी पीते हैं, तुम थकी हुई होगी.’’ कौफी शौप में कौफी पी कर बाहर निकले तो सुशांत ने कहा, ‘‘मैं ने शोभा को भी फोन कर दिया था तो वह घर पर हमारा इंतजार कर रही है, पहले घर चलें.’’

‘शोभा…पहले इस शोभा को ही देखा जाए,’ वह मन ही मन सोचते हुए मनीषा ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कहते हुए मनीषा के शब्द भी लड़खड़ा गए थे.

औफिस घर के पास ही था, घर के बाहर लौन में शोभा इंतजार करती मिली उन दोनों का.

‘‘आइए, आइए,’’ गेट पर खड़ी महिला को देख कर मनीषा चौंकी, तो यह है शोभा, यह तो

40-45 साल की होगी, हां, बनावशृंगार कर के खुद को चुस्त बना रखा है, पर यह सुशांत की फ्रैंड कैसे बनी, उस का दिमाग फिर चकराने लगा था.

‘‘मनीषा, यह है शोभा, बहुत खयाल रखती है मेरा, बेंगलुरु जैसे शहर में एक तरह से इस पर ही निर्भर हो गया हूं मैं.’’

‘‘हांहां, अंदर तो चलो,’’ शोभा कह रही थी. अंदर सीधे वह डाइनिंग टेबल पर ही ले गई. कौफीनाश्ता तैयार था. शोभा ने बातचीत भी शुरू की, ‘‘मनीषा, असल में सुशांत काफी परेशान थे कि तुम्हें कैसे मना करें शादी के लिए, क्योंकि तैयारी तो सब हो चुकी होगी, पर अभी शादी के लिए सुशांत खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. तो मैं ने ही इन से कहा कि तुम मनीषा से बात कर लो, वह सुलझी हुई लड़की है. तुम्हारी प्रौब्लम जरूर समझेगी. असल में ये तुम्हारी सारी बातें मुझे बताते रहते थे तो मैं भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जान गई थी,’’ कह कर शोभा थोड़ी मुसकराई.

मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला और फिर बोली, ‘‘शोभाजी, मैं बस 2 दिनों के लिए आई हूं और अपनी एक फ्रैंड के यहां रुकी हूं. मैं चाहती हूं कि मैं और सुशांत बाहर जा कर कुछ बात कर लें, अगर आप चाहें तो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, खाना खा कर जाना, खाना तैयार है.’’ फिर शोभा ने सुशांत की तरफ देखा था, ‘‘तुम्हारी पसंद की चिकनबिरयानी बनाई है, अगर मनीषा को नौनवेज से परहेज हो तो कुछ और…’’

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Women’s Day Special- गिरफ्त: भाग 3

‘‘नहीं नहीं, हम लोग बाहर ही खा लेंगे, चलते हैं,’’ कह कर मनीषा उठ गई तो सुशांत को भी खड़ा होना पड़ा. उधर, मनीषा सोच रही थी कि सुशांत तो कहता था कि वह तो नौनवेज खाता ही नहीं है, फिर… पर हां, यह तो समझ में आ ही गया कि अच्छा खाना खिला कर सुशांत को फुसलाया जा रहा है.

शोभा का मुंह उतर गया था, पर मनीषा सुशांत को ले कर बाहर आ गई. ‘‘कहां चलें?’’ सुशांत ने मनीषा से पूछा.

‘‘कहीं भी, तुम तो इतने समय से बेंगलुरु में रह रहे हो, तुम्हें तो पता ही होगा कि कहां अच्छे रैस्तरां हैं. वैसे, अभी मुझे खाने की कोई इच्छा नहीं है, इसलिए पहले कहीं गार्डन में बैठते हैं.’’

कुछ देर पास में बगीचे में पड़ी बैंच पर ही दोनों बैठ गए.

मनीषा ने ही बात शुरू की, ‘‘हां, अब बताओ, क्या कह रहे थे तुम शोभाजी के बारे में.’’

फिर सुशांत ने जो कुछ बताया, मनीषा चुपचाप सुनती रही. पता चला कि शोभा के पति विदेश में हैं. यहां वह अपने 2 बच्चों के साथ रह रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं. सुशांत से शोभाजी को बहुत सहारा है. सुशांत उस की आर्थिक मदद भी कर रहा है. बातों ही बातों में मनीषा समझ गई थी कि सुशांत से काफी पैसा शोभाजी ने उधार भी ले रखा है. इसलिए सोच रही होगी कि ऐसे मुरगे को आसानी से कैसे जाने दें.

‘‘बहुत खयाल रखती है शोभा मेरा,’’ सुशांत बारबार यही कह रहा था.

‘‘देखो सुशांत, हो सकता कि शोभाजी जैसा बढि़या खाना मैं तुम्हें बना कर न खिला सकूं, पर फिर भी कोशिश करूंगी.’’मनीषा ने मजाक किया तो सुशांत चौंक गया, ‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सुशांत ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘पुणे वाली जौब के लिए अप्लाई कर दिया था न तुम ने?’’

‘‘वह…मैं कर ही रहा था पर शोभा ने मना कर दिया कि अभी रहने दो.’’

‘‘हां, क्योंकि अभी शोभाजी को तुम्हारी जरूरत है,’’ न चाहते हुए भी मनीषा के मुंह से निकल ही गया. सुशांत अवाक था.

उधर, मनीषा कहे जा रही थी, ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, पर एक बात जरूर कहूंगी कि शोभाजी कभी भी तुम्हें बेंगलुरु से बाहर नहीं जाने देंगी, क्योंकि तुम जरूरत हो उन की. तुम्हारा इतना पैसा उन के बच्चों की पढ़ाई पर लगा है. अब तुम्हें जो करना है करो. अगर सोच सको तो शोभाजी के बारे में न सोच कर अपना हित सोचो. शोभाजी का क्या, उन्हें और पेइंगगैस्ट मिल जाएंगे. बेंगलुरु में तो ऐसे बहुत लोग होंगे.’’

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सुशांत एकदम चुप था.

‘‘चलो, अब खाना खाते हैं, फिर मुझे मेरी फ्रैंड के यहां छोड़ देना,’’ मनीषा ने बात खत्म की.

‘‘अभी तो तुम रुकोगी?’’

‘‘हां, कल शाम को मिलते हैं, फिर रात को मेरी फ्लाइट है, बस जो कुछ मैं ने कहा है, उस पर विचार करना. अब तक मनीषा ने अपनेआप को काफी संयत कर लिया था. उसे जो कहना था कह दिया. अब सुशांत जो चाहे करे पर वह इतना कमजोर इंसान होगा, इस की उस ने कल्पना नहीं की थी.’’

दूसरे दिन सुशांत सुबह ही उसे लेने आ गया था, ‘‘मैं तो रातभर सो ही नहीं पाया मनीषा, और आज औफिस से मैं ने छुट्टी ले ली है. आज पूरा दिन मैं तुम्हारे साथ ही बिताऊंगा और हां, रात को ही पुणे की पोस्ट के लिए भी मैं ने अप्लाई कर दिया है.’’

उस की बातें सुन कर मनीषा भी आश्चर्यचकित थी.

फिर रास्ते में ही सुशांत ने कहा, ‘‘मैं रातभर तुम्हारी बातों पर ही विचार करता रहा. शायद तुम ठीक ही कह रही हो. मैं आज मां से भी बात करता हूं. शादी की तारीख वही रहने दो…’’

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‘‘नहीं सुशांत,’’ मनीषा ने उसे रोक दिया.

‘‘इतनी जल्दी भी नहीं है. तुम खूब सोचो और पुणे जा कर फिर मुझ से बात करना, अभी तो मैं भी शादी की डेट आगे बढ़ा रही हूं. जब तुम अपने भविष्य के बारे में सुनिश्चित हो जाओ, तभी हम बात करेंगे शादी की.’’

‘‘पर मनीषा…मैं…’’

‘‘हां, हम बात तो करते रहेंगे न, आखिर दोस्त तो हम हैं ही. कुछ जरूरत हो तो पूछ लेना मुझ से.’’

पूरा दिन सुशांत के साथ ही गुजरा, एअरपोर्ट पहुंच कर फिर उस ने कहा था, ‘‘तुम मेरा इंतजार तो करोगी न…’’

‘‘हां, क्यों नहीं…’’ कह कर मनीषा हंस पड़ी थी.

प्लेन के टेकऔफ करते ही वह अपनेआप को हलका महसूस कर रही थी. भविष्य में जो भी हो, पर फिलहाल शोभाजी की गिरफ्त से तो उस ने सुशांत को आजाद करा ही दिया.

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Women’s Day- नपुंसक: भाग 3

डबडबाई आंखों से छत की ओर देखते हुए उस ने पुन: कहना शुरू किया, ‘‘आरुषी, मैं एक नपुंसक पुरुष हूं और संतान पैदा करने में अक्षम हूं…मुझे माफ कर दो आरुषी, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मैं जानता था कि तुम मुझ से प्यार करने लगी हो और यह बात मुझे पहले ही बता देनी चाहिए थी पर मैं डर रहा था कि तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी. वैसे तुम अभी भी जा सकती हो. मैं अपने दिल को समझा लूंगा.’’

यह सुन कर आरुषी की आंखें फटी की फटी रह गईं. उस के कानों में मानो पिघला सीसा डाल दिया गया हो. जीवन का आधा हिस्सा तो दुख, कलह, क्लेश में बीत गया. दामन में कष्टों के अलावा कुछ था ही नहीं. जिस का बाप चरित्रहीन हो उस की औलाद के आंचल में सिवा धूप के थपेड़ों के कुछ नहीं होता.

उम्र के जिन हसीन पलों को एक आम लड़की सहेज कर रखती है, आरुषी उन पलों को अपने जीवन से हटा देना चाहती थी, क्योंकि उन पलों ने उसे आंसू और दमघोंटू वातावरण दिया था. आज तो उस के जीवन में बहार की पहली दस्तक हुई थी. द्वार के खुलते ही अनिरुद्ध की इस बात ने उसे अंदर से पूर्ण रूप से तोड़ दिया.

‘‘आरुषी, मैं तुम्हें सोचने के लिए समय देता हूं. सुबह मैं तुम्हारे फोन का इंतजार करूंगा. अपने दिल पर हमदर्दी को बढ़ावा मत देना. हमदर्दी में बढ़ाया कदम, जीवन में पछतावे को बुलावा देता है. फैसला सोचसमझ कर करना.’’

भारी कदमों से दोनों ने रेस्टोेरेंट से बाहर की ओर कदम बढ़ाए. उसे घर छोड़ कर अनिरुद्ध अपनी मंजिल की ओर बढ़ गया.

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घर पहुंच कर आरुषी बिना कपड़े बदले ही बिस्तर पर पड़ गई. उस के दिमाग में अनिरुद्ध की कही बातें हथौड़े की चोट कर रही थीं.

आरुषी के कमरे की लाइट जलती देख कर अर्चना मौसी उस के पास आईं और कहा, ‘‘बहुत देर लगा दी, क्या सारी पेंटिंग्स बिक गईं? बिक ही गई होंगी… सारी की सारी इतनी सुंदर जो थीं. तू चाय पिएगी? बनाऊं?’’

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‘‘नहीं,’’ कहते हुए उस ने करवट बदली. ऐसा रूखा उत्तर सुन अर्चना मौसी उस के करीब गईं, देखा तो उस की आंखें तकिया गीला कर चुकी थीं.

‘‘क्या हुआ? पैसे नहीं मिले?’’ शायद पैसों का मारा व्यक्ति हर बात पैसों से ही तौलता है.

‘‘नहीं, मौसी, बात पैसों की नहीं है,’’ उस ने मौसी की तरफ मुंह कर के कहा.

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘मौसी, अनिरुद्ध…’’ वह इतना ही कह पाई थी कि उस का गला एकदम अवरुद्ध हो गया और जोर से हिचकी आई. मौसी ने उसे गले लगा लिया तो वह फूटफूट कर रोने लगी.

रोतेरोते उस ने अपनी मौसी को सारा हाल बता दिया. मौसी सुन कर सन्न रह गईं. वह समझ नहीं पा रही थीं कि क्या कह कर वह बेटी को समझाएं. अचानक आरुषी उठी और अपने पर्स में मोबाइल टटोलने लगी. अर्चना मौसी ने उस से पर्स ले लिया, और बोलीं, ‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘अनिरुद्ध को मना कर रही हूं.’’

‘‘रुक,’’ अर्चना मौसी ने उस का पर्स अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘ठंडे दिमाग से काम ले.’’

कुछ क्षण दोनों चुप रहीं. उस के बाद मौसी ने चुप्पी तोड़ी. बोलीं, ‘‘तेरी नजर में वह नपुंसक पुरुष है, पर मैं उसे महापुरुष का दर्जा देती हूं. उस के विचार उसे महापुरुष बनाते हैं. जरा सोच, अगर यह बात तुझे शादी के बाद पता चलती तो तेरा क्या होता. वह तुझे धोखा नहीं दे रहा. अपने पिता के बारे में सोच कि उन्होंने तुझे दिया ही क्या है, सिवा आंसू और समाज की तिरस्कृत नजरों के. तू आज तक अपने पिता की करनी को भुगत रही है. नपुंसक तो तेरा बाप है, अनिरु द्ध नहीं.

‘‘आज तेरे पास पैसा है, शोहरत है और यह सबकुछ उस अनिरुद्ध की वजह से ही है न. उस ने तेरी कहांकहां मदद नहीं की. तुझे कहां से कहां पहुंचा दिया. अब तक तो इन गलियों में आंसू बहाती, छिपती हुई सी रहती थी पर अब मुझे लगता है उजला सवेरा तेरा इंतजार कर रहा है.’’

‘‘लेकिन मौसी…’’

अर्चना ने आरुषी को बात पूरी करने से पहले ही रोक दिया और बोली, ‘‘जिंदगी को तन्हा गुजारना कितना मुश्किल है. यह तो तू जानती ही है, हम ने कैसे दिन गुजारे हैं, सुख और खुशियां तो हमें छू कर भी नहीं गुजरीं. हो सकता है तेरी बाकी जिंदगी सुखद पलों से भरी हो, खुशियां हाथ फैलाए तेरा इंतजार कर रही हों. केवल एक सुख के पीछे तू जिंदगी की तमाम खुशियां क्या दांव पर लगा देगी.’’

आरुषी की आंखों से आंसू बह रहे थे, वह चुपचाप अर्चना मौसी की बातें सुन रही थी. उन की बातें आरुषी पर सकारात्मक प्रभाव डाल रही थीं. मौसी ने उस से कहा कि वह अनिरुद्ध को अभी फोन करे.

‘‘मौसी, वह सो गया होगा,’’ आरुषी ने शंका जाहिर की.

‘‘आज की रात उसे नींद नहीं आएगी. वह सारी रात आंखों में ही काट देगा. शायद  तू भी नहीं सो पाएगी, हां, अगर फोन कर लेगी तो शायद तुम दोनों ही चैन की नींद सो सको.’’

आरुषी ने अपने आंसू पोंछे और फोन मिलाया. घंटी बजते ही अनिरुद्ध ने फोन अपने कान से लगाया और आवाज आई, ‘‘आरुषी, मैं अनिरुद्ध बोल रहा हूं और मुझे मेरा जवाब मिल गया. मैं तुम्हारा एहसान जिंदगी भर नहीं भूल सकता. तुम मेरे अधूरेपन की परिपूर्णता हो.’’

अनिरुद्ध से फोन पर हुआ वार्त्तालाप सुन कर अर्चना मौसी और आरुषी एकदूसरे के गले से लिपट गईं.

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बदलते जमाने का सच: भाग 3

अभी रात ज्यादा नहीं हुई थी. गांव के गोवर्धन पांडे शादीब्याह में कुंडलियां मिलाते थे. गांव के लोग उन्हें अच्छा ज्योतिषी समझते थे. गांव वालों के हाथ देख कर और उन के ग्रह के नाम पर हवन करा कर उन की रोजीरोटी बिना कोई काम किए आराम से चलती थी. किसी की शादी करानी हो तो कुंडलियां मिलान करा देना और रोकनी हो तो

उन में कई अड़ंगे डाल देना उन के लिए बाएं हाथ का खेल था. जैसा जजमान वैसा काम.

बाबूजी की उन से खूब पटती थी. दोनों साथसाथ पढ़े भी थे. बचपन के दोस्त भी थे इसलिए राह से भटके बेटे को राह पर लाने का काम भी ज्योतिषी से बढि़या कौन कर सकता था.

दीनानाथ बोले, ‘‘मैं अभी ज्योतिषी को बुला लाता हूं. वे जो कहेंगे वही होगा,’’ फिर किसी से कुछ कहे बगैर वे ज्योतिषी को बुलाने चले गए.

गोवर्धन पांडे ने अभीअभी खाना खाया था और अब सोने की तैयारी कर रहे थे. जब इतनी रात को दीनानाथ को आते देखा तो उन्हें अहसास हो गया कि कोई ग्रहनक्षत्र का चक्कर हैं. वे खुश हो कर बोले, ‘‘आओ यार, इतनी रात में आने की कोई खास वजह लगती है. बताओ, क्या बात है?’’

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दीनानाथ ने आपबीती सुनाई और किसी तरह बेटे को राह पर लाने को कहा.

ज्योतिषी ने हंसते हुए कहा, ‘‘बस, इतनी सी बात है. चिंता न करो. ऐसे बहके लड़कों को राह पर लाना तो मेरे लिए पलभर का काम है… अब बताओ, तुम्हारा काम हो जाएगा तो दक्षिणा में मुझे क्या मिलेगा.’’

‘‘जो तुम मांगोगे पांडे, दूंगा. बस, किसी तरह बेटे को मेरे समधी की बेटी से शादी के लिए राजी करा दो.’’

दीनानाथ जब घर से बाहर निकले तो ज्योतिषी गोवर्धन पांडे अपनी पत्नी से बोले, ‘‘अब चिंता मत करो पंडाइन, भगवान चाहेगा तो तुम्हारे कंगन बनने का जुगाड़ जल्दी ही हो जाएगा. किवाड़ बंद कर लो. आने में देर हो जाएगी.’’

ज्योतिषी गोवर्धन पांडे को देख कर प्रियांशु ने नाकभौं सिकोड़ ली. वह ज्योतिषी को बचपन से ही जानता था. इस ने कइयों के घर में झगड़ा कराया था. कितनों का घर उजाड़ा था. जरूरत पड़ने पर ओझागुनी होने का भी ढोंग रचता था. जब कोई बीमार पड़ता तो पड़ोसी द्वारा भूत चढ़ाने की बात बताता और उन्हें भगाने के नाम पर खूब पैसे वसूलता.

गोवर्धन पांडे ने जब दोनों की जन्मकुंडली मांगी तो प्रियांशु बोला कि नैनी की जन्मकुंडली नहीं बनी है और जन्मतिथि के नाम पर एक गलत तिथि बता दी.

ज्योतिषी बहुत देर तक पोथीपतरा देखते रहे और एक कागज पर कुछ लिखते रहे. आखिर में वे बोले, ‘‘लड़कालड़की के गुण बिलकुल उलटे हैं. शादी होते ही वरवूध में से किसी एक की मृत्यु का योग है.’’

‘‘आप ने अपनी कुंडली देखी है ज्योतिषी चाचा?’’ महीप ने पूछा, ‘‘अगर देखी होती तो चाची आप को रोज जलीकटी न सुनातीं.’’

गोवर्धन पांडे की पत्नी झगड़ालू थीं. किसी न किसी पड़ोसी से रोज ही बातबात पर लड़ जातीं. ज्योतिषी को तो बीच में पड़ते ही गालीगलौज करने लगतीं. सारा गांव यह बात जानता था.

‘‘महीप, तुम चुप रहो. अपने से बड़ों की इज्जत करो,’’ बाबूजी बोले तो वह चुप हो गया.

‘‘बोलने दो दीनानाथ, अभी बच्चा है… धीरेधीरे सब सीख जाएगा,’’ ज्योतिषी गोवर्धन पांडे बोले.

इसी बीच बहन बीच में आ गई. वह बोली, ‘‘प्रियांशु, तुम्हीं सोचो, क्या ऐसी शादी करोगे जिस में किसी की मौत होने का डर हो? मैं तो कहती हूं कि अपनी ऊंची जाति, पिता की भावनाओं और परिवार के रीतिरिवाज, और हम पर लदे कर्ज का ध्यान रखते हुए मेरी ननद से शादी कर लो.’’

‘‘बाबूजी, क्या आप को नहीं लगता कि ज्योतिषी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? इन्होंने कुंडली नहीं, बल्कि शादी काटने की गणित बिठाई है. क्या आज तक कोई किसी का भविष्य जान पाया है? क्या राम की शादी के समय कुंडली का विचार नहीं किया गया था?

‘‘ज्योतिषी चाचा को तो मैं ने नैनी की गलत जन्मतिथि बताई थी. उस की कोई भी जन्मतिथि दी जाएगी, इन्हें अपशकुन का ही योग दिखाई पड़ेगा.

‘‘मैं सरला के बारे में नहीं जानता. मैं यह भी नहीं जानता कि वह मुझ से शादी करना चाहती भी है या नहीं. उसे भी मेरे साथ जबरन जोड़ने की कोशिश सभी लोग कर रहे हैं, पर मैं नैनी को बहुत दिनों से जानता हूं. वह एक समझदार और सुलझी हुई पढ़ीलिखी लड़की है. उस के विचार मुझ से मिलते हैं, मन मिलता है. हमारे दिल में एकदूसरे के लिए प्यार है.

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‘‘मैं जानता हूं कि आप, दीदी और ज्योतिषी चाचा मिल कर साजिश रच रहे हैं. कम से कम बाबूजी आप से और दीदी से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ प्रियांशु कह कर चुप हुआ तो भाई महीप और मां ने उस का पक्ष लेते हुए कहा, ‘‘इस की शादी नैनी से ही होगी.’’

‘‘आप चिंता न करें बाबूजी, नैनी और मैं मिल कर कर्ज चुका देंगे,’’ प्रियांशु को अहसास हो गया कि पिताजी दहेज के लालच में यह सब कर रहे हैं.

अब दीनानाथ को समझ आ गया था कि उन से बड़ी भूल हुई है. उन्होंने बहुत बड़ा पाप किया था. अपने बेटे के खिलाफ ही साजिश रची थी. अब वह वक्त नहीं रहा, जब धर्म, जाति और कुंडली के नाम पर बेमेल सोच वाले लोगों को जबरन शादी के बंधन में बांध दिया जाता है.

दीनानाथ बोले, ‘‘बेटा, बाप हो कर भी मैं तुम से माफी मांगता हूं. मुझ से गलती हुई है. शादीब्याह गुड्डेगुडि़या का खेल नहीं है. इस में 2 लोग एकदूसरे के साथ जिंदगीभर के लिए बंधते हैं. पतिपत्नी को जाति नहीं, बल्कि दिल और विचार एकदूसरे के साथ जोड़ते हैं.

‘‘मुझे तुम्हारा रिश्ता तय करते वक्त इस बात का खयाल रखना चाहिए था. दहेज के लालच ने मुझे अंधा बना दिया था. पहले तो लगा कि महीप उद्दंड है, पर उस पर मुझे अब गर्व हो रहा है. उस ने मेरी आंखें खोलने की कोशिश की थी, पर मेरी आंखें न खुलीं.

‘‘कल मैं नैनी की मां से तुम्हारे लिए उस का हाथ मांगने खुद जाऊंगा. साथ ही, तुम्हारी बहन की नादानी के लिए नैनी से भी माफी मांग लूंगा,’’ कहते हुए उन्होंने प्रियांशु को गले लगा लिया.

बहन ने कहा, ‘‘मेरी गलती के लिए आप क्यों माफी मांगेंगे बाबूजी? मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

बदलते जमाने का यही सच था.

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बदलते जमाने का सच: भाग 2

प्रियांशु ने कुछ न कहा. वह पिताजी की बहुत इज्जत करता था. उन के हर आदेश का पालन करना अपना फर्ज समझता था. वह उन की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाना चाहता था. उसे अपनी बहन से भी उतना ही लगाव था.

पर उसे क्या मालूम था कि जिन मातापिता और बहन की वह इतनी इज्जत करता था उन के लिए उस की भावनाओं का कोई मोल नहीं था. उस ने कई मौकों पर नैनी का जिक्र किया था. उस की तारीफ की थी.

एक समझदार मातापिता और बहन के लिए इतना इशारा कम न था. कई बार उस ने सरला से शादी न करने की इच्छा जाहिर की थी. इस के बावजूद उन्होंने उस की शादी सरला से तय कर दी थी. सच तो यह था कि कहीं उस की शादी तय नहीं हुई थी, उसे सरेबाजार बेचा गया था.

रात में पिताजी ने साथ खाने पर बुलाया. उन्होंने खबर भिजवा कर बेटी को भी बुलवा लिया था. उस का छोटा भाई महीप भी आ गया था. सब के सामने पिताजी सगाई की तारीख तय करना चाहते थे.

जब सभी इकट्ठा हुए तो पिताजी ने बात छेड़ी. अब तक गांव में कई लोगों से उन्होंने प्रियांशु की बात की थी. लायक बेटे की यही पहचान है. पिता ने जो फैसला ले लिया, उस पर बेटे ने कोई टिप्पणी नहीं की. गांव के लोग ऐसे ही उस के परिवार को आदर्श नहीं मानते.

‘‘तो प्रियांशु, तुम को कब छुट्टी मिलेगी? उसी समय सगाई की तारीख तय करूंगा,’’ पिता ने कहा.

‘‘लेकिन पिताजी, आप ने भैया से पूछ लिया है या खुद ही रिश्ता तय कर दिया,’’ छोटे भाई महीप ने पूछा.

‘‘प्रियांशु आजकल के लड़कों जैसा नहीं है जो हर बात पर मातापिता की बात का विरोध करते हैं. प्रियांशु जानता है कि उस के पिता जो भी करेंगे, उस के और परिवार के फायदे में करेंगे,’’ पिताजी अचानक महीप के बीच में पड़ने से खीज गए थे.

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि भैया को आप बलि का बकरा समझते हैं. भैया ने कई बार सरला से शादी के प्रति अनिच्छा जाहिर की?है. क्या दीदी यह नहीं जानतीं? क्या मां को यह पता नहीं?

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‘‘मां को तो आप ने कभी मान दिया ही नहीं. जिंदगीभर उन्हें दबा कर रखा. आप ने सब पर अनुशासन के नाम पर हिटलरशाही चलाई. लेकिन अब मैं ऐसा न होने दूंगा. शादीब्याह किसी सामान की खरीदफरोख्त नहीं है जिसे जब चाहे और जिस को चाहे खरीदबेच दो.’’

महीप की बात सुन कर पिताजी हैरान रह गए. आज पहली बार उन्हें महीप की नालायकी पर दुख हुआ.

पिताजी कुछ बोलते, इस के पहले ही मां ने कहा, ‘‘जिंदगीभर इन्होंने अपनी चलाई है… अब भी यही करना चाहते हैं. किसी ने प्रियांशु से पूछा कि उस की इच्छा क्या है.’’

‘‘अगर भैया को कोई एतराज नहीं है तो मैं अपनी कही बात वापस ले लूंगा,’’ महीप ने कहा.

‘‘दीदी, तुम से तो मैं ने अपनी इच्छा कई बार बताई. लेकिन तुम मेरी इच्छा का मान क्या रखोगी, उलटे नैनी को तुम ने धमकाया कि वह मेरा पीछा करना छोड़ दे,’’ यह कहते हुए प्रियांशु दुखी था. पर पिता दीनानाथ ने पासा पलटते देख बात को बदला. उन्हें लगा कि इतना बड़ा दहेज उन के हाथों से निकला जा रहा है.

पिता बोले, ‘‘पर बेटा, तुम ने तो बताया था कि नैनी हमारी बिरादरी की नहीं है. हम से छोटी जाति की है तो क्या हमारी बिरादरी में लड़कियों की कमी है, जो अपने से निचली बिरादरी में शादी कर के पूरे समाज में अपनी नाक कटाए?

‘‘यह भी तो सोचो कि छोटी जाति की बहू हमारे जैसी संस्कारवान होगी भला? फिर उस से पैदा हुई औलाद भी तो संस्कारहीन होगी.’’

‘‘आप कैसी बातें करते हैं बाबूजी… आप से किस ने कहा कि आप से छोटी जाति की लड़कियां संस्कारहीन होती हैं? आप ने यह कभी सोचा है कि ऐसा कह कर आप उस की जाति की बेइज्जती कर रहे हैं. यही सोच तो हमारे समाज में कोढ़ बनी हुई है. आप किसी के बारे में बिना कुछ जाने ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?

‘‘मैं यह कहूं कि वे छोटी समझी जाने वाली जातियां नहीं, बल्कि हम खुद संस्कारहीन हैं तो बड़ी बात न होगी, क्योंकि वे लोग अपने से बड़ी जातियों की हमेशा इज्जत करते हैं, जबकि हम बिना किसी वजह के केवल जाति के आधार पर उन्हें नीच, संस्कारहीन और न जाने क्याक्या कहते रहते हैं.

‘‘मैं ने ऊंची जाति के कहे जाने वाले लोगों की करतूतें भी खूब देखी हैं. अब इस बात पर चर्चा न करें तो ही अच्छा.’’

जब दीनानाथ ने बात बनते न देखी तो उन्हें गांव के ज्योतिषी याद आए. वे बोले, ‘‘इस संबंध में ज्योतिषी से राय ले लेनी चाहिए. हमारे परिवार में आज तक कोई भी शादी बिना लड़केलड़की की कुंडली मिलाए नहीं हुई है. जब दोनों के गुण मिलते हैं तभी पतिपत्नी की जिंदगी सुख से भरी रहती है, वरना पूरी जिंदगी दुख में ही गुजर जाती है.’’

बदलते जमाने का सच: भाग 1

‘‘हैलो,’’ प्रियांशु ने मुसकरा कर नैनी की ओर देखा.

‘‘हैलो,’’ नैनी भी उसे देख कर मुसकराई.

‘‘तुम्हारा प्रोजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘नहीं, मेरा लैपटौप खराब हो गया है. ठीक होने के लिए दिया है. एक घंटे के लिए अपना लैपटौप दोगे मुझे?’’

‘‘क्यों नहीं, कब चाहिए?’’ प्रियांशु ने पूछा.

‘‘कल दोपहर में आ कर ले जाऊंगी. लंच भी तुम्हारे साथ करूंगी. संडे है न, कोई न कोई नौनवैज तो बनाओगे ही.’’

‘‘बिलकुल. क्या खाना पसंद करोगी, चिकन या मटन?

‘‘जो तुम्हें पसंद हो. वैसे, तुम्हारा प्राजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘हां, देखना चाहोगी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. कल आने के बाद,’’ नैनी ‘बायबाय’ कहते हुए चली गई. प्रियांशु भी अपने र्क्वाटर पर लौट आया.

प्रियांशु और नैनी एक कंपनी में साथसाथ काम करते थे. उन के क्वार्टर भी अगलबगल में थे. दोनों अभी कुंआरे थे. साथसाथ काम करने के चलते अकसर उन में बातचीत होती रहती थी. दोनों के विचार मिलते थे और दोस्ती के लिए इस से ज्यादा चाहिए भी क्या.

दूसरे दिन प्रियांशु मटन ले कर लौटा ही था कि नैनी आई.

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‘‘बहुत जल्दी आ गई तुम नैनी?’’ प्रियांशु ने लान में रखी कुरसी पर बैठने का इशारा किया और खुद मटन रखने रसोईघर में चला गया.

‘‘तुम्हारा हाथ बंटाने पहले आ गई,’’ कह कर नैनी मुसकराई.

नैनी की यही अदा प्रियांशु को उस का दीवाना बनाए हुई थी.

‘‘अभी चाय ले कर आता हूं, फिर इतमीनान से खाना बनाएंगे,’’ कह कर प्रियांशु रसोईघर में चला गया.

प्रियांशु के पिताजी किसान थे. उस से बड़ी एक बहन थी जिस की शादी हो चुकी थी. उस से एक छोटा भाई महीप था जो मैडिकल इम्तिहान की तैयारी कर रहा था. पिता के ऊपर काफी कर्ज हो गया था.

अब प्रियांशु कर्ज चुकाने और छोटे भाई महीप को पढ़ाने का खर्चा उठा रहा था. पिताजी उस की शादी में तिलक की एक मोटी रकम वसूलना चाहते थे. रिश्ते तो कई जगह से आए थे, पर उन की डिमांड ज्यादा होने के चलते कहीं शादी तय नहीं हो पा रही थी. इधर उस की बहन अपनी ननद के लिए लड़का ढूंढ़ रही थी. उस की ननद नाटे कद की थी और किसी तरह मैट्रिक पास हो गई थी. रंगरूप साधारण था, पर प्रियांशु के पिताजी की डिमांड को उस के समधी पूरा करने के लिए तैयार हो गए थे.

नैनी के पिताजी की मौत उस के बचपन में ही हो गई थी. कोई भाई नहीं था. मां ने उस की पढ़ाई के लिए कौनकौन से पापड़ न बेले थे. बाद में उस ने ऐजुकेशन लोन ले कर पढ़ाई पूरी की थी. अब लोन चुकाना और मां की देखभाल की जिम्मेदारी उस पर थी.

प्रियांशु जब रसोईघर में गया था तब उस का मोबाइल फोन बाहर ही छूट गया था. अचानक फोन बजने लगा तो नैनी ने प्रियांशु को पुकारा, पर चाय बनाने में बिजी होने के चलते उस की आवाज प्रियांशु के कानों तक न पहुंची.

नैनी ने फोन रिसीव किया तो उधर से आवाज आई. कोई औरत थी.

‘‘हैलो, आप कौन बोल रही हैं?’’ नैनी ने पूछा.

‘प्रियांशु कहां है? मैं उन की बहन बोल रही हूं. आप कौन हैं?’

‘‘मैं प्रियांशु की कलीग हूं, बगल में ही रहती हूं.’’

‘अच्छा, तुम नैनी हो क्या?’

‘‘हां जी, आप मुझे कैसे जानती हैं?’’ नैनी ने हैरान हो कर पूछा.

‘प्रियांशु ने बताया था. अब तुम उस का पीछा करना छोड़ दो. उस की शादी मेरी ननद से तय हो गई है,’ उधर से एक तीखी आवाज आई.

‘‘अच्छा जी… प्रियांशु अभी रसोईघर में हैं. वे आ जाते हैं तो उन्हें आप को फोन करने के लिए कहती हूं,’’ नैनी ने अपनेआप को संभालते हुए कहा.

प्रियांशु ने अपनी बहन की ननद के बारे में कुछ दिनों पहले बताया था. वह कुछ परेशान सा लग रहा था. उस की बातों से लग रहा था कि उस की बहन अपनी ननद के लिए उस के पीछे पड़ी थी. कहती थी कि यह शादी हो जाती है तो उसे मुंहमांगा दहेज मिलेगा. साथ ही, उस की ननद हमेशा के लिए उस के साथ रहेगी, पर प्रियांशु को यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं था.

नैनी यह तो नहीं जानती थी कि प्रियांशु से उस का क्या रिश्ता है, पर उन दोनों को एकदूसरे का साथ बहुत भाता था. प्रियांशु जब कभी औफिस से गैरहाजिर होता था तो वह उसे बहुत याद करती. आज उसे पता चला कि प्रियांशु ने घर में उस की चर्चा की है, पर इस संबंध में उस ने कभी कुछ बताया न था. अभी वह इसी उधेड़बुन में थी कि प्रियांशु आ गया.

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‘‘तुम्हारा फोन था. बधाई, तुम्हारी शादी तय हो गई,’’ नैनी ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा.

प्रियांशु चाय की ट्रे लिए खड़ा था. लगा, गिर जाएगा. किसी तरह अपनेआप को संभालते हुए वह बैठा. यह सुन कर उस का मन बैठता चला गया. तो क्या सच ही उस की शादी तय हो गई? क्या यह उस की बहन की चाल तो नहीं? अगर ऐसा है तो जरूर ही उस की ननद होगी. पर वे लोग उस से बिना पूछे ऐसा कैसे कर सकते हैं.

‘‘क्या सोच रहे हो? बहन से पूछ लो कि कब सगाई है. मुझे तो ले नहीं चलोगे. कहोगे तब भी मैं न चलूंगी. तुम्हारी बहन ने चेताया है, तुम्हारा पीछा छोड़ दूं,’’ नैनी बोल रही थी. वह सुन रहा था. लंच का सारा मजा किरकिरा हो गया था.

दूसरे दिन प्रियांशु गांव में था. उस ने पिताजी के पैर छुए.

‘‘अच्छा हुआ कि तू आ गया बेटा. अब हम कर्ज से जल्दी ही उबर जाएंगे. तुम्हारा रिश्ता तय हो गया है सरला से. वही तुम्हारी बहन की ननद. कद में तुम से थोड़ी छोटी जरूर है, पर घर के कामों में माहिर है. सुशील इतनी कि हर कोई उस के स्वभाव की तारीफ करता है. तुम्हारी बहन का भी काफी जोर था.’’

Women’s Day Special- अपना घर: भाग 2

उस की मां लीला आज के जमाने की आधुनिक महिला लग रही थीं. छोटी बहन मासूमा भी बेहद खूबसूरत थी. पिता अजय बेहद सीधेसादे व्यक्ति लग रहे थे.

जिया, अभिषेक की मां और बहन के सामने कहीं भी नहीं ठहरती थी पर उस का भोलापन, सुलझे हुए विचार और सादगी ने अभिषेक को आकर्षित कर लिया था. जिया के किरदार में कहीं भी कोई बनावटीपन नहीं था. जहां अभिषेक को अपनी मां में प्लास्टिक के फूलों की गंद आती थी, वहीं जिया से उसे असली फूलों की महक आती थी.

अपने पिता को उस ने हमेशा एडजस्टमैंट करते हुए देखा था. वह खुद ऐसा नहीं करना चाहता था, इसलिए हर हाल में अपनी मां का लाड़ला, हर बात मानने वाला अभिषेक किसी भी कीमत पर अपनी जीवनसाथी के चुनाव की बागडोर मां को नहीं देना चाहता था.

जिया ने कमरे में प्रवेश किया. जहां अभिषेक प्यारभरी नजरों से उस की तरफ देख रहा था, वहीं लीला और मासूमा उस की तरफ अचरज से देख रही थीं. उन्हें जिया में कोई खूबी नजर नहीं आ रही थी. अजय को जिया एक सुलझे विचारों वाली लड़की नजर आई जो उन के परिवार को संभाल कर रख सकेगी. लीला ने अभिषेक की तरफ देखा पर उस के चेहरे पर खुशी देख कर चुप हो गईं.

जिया को लीला ने अपने हाथों से हीरे का सैट पहना दिया पर उन के चेहरे पर कहीं कोईर् खुशी नहीं थी. जिया को यह बात समझ आ गई थी कि वह बस अभिषेक की पसंद है. अपने घर में जगह बनाने के लिए उसे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.

2 माह बाद उस के विवाह की तारीख तय हो गई. दुलहन के लिबास में जिया बेहद खूबसूरत लग रही थी. अभिषेक और उस की जोड़ी पर लोगों की नजरें ही नहीं ठहर रही थीं. लीला भी आज बहुत खुश लग रही थीं. कन्यादान करते हुए जिया के मां और पापा के आंखों में आंसू थे. वह उन के घर की रौनक थी. बिदाई पर अजय ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘बहू नहीं बेटी ले कर जा रहे हैं.’’

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जिया ने कुछ दिनों में यह तो समझ लिया था कि इस घर में बागडोर लीला के हाथों में है. यह घर लीला का घर है और वह घर उस के मांपापा का घर था पर उस का घर कहां है? इस सवाल का जवाब उसे नहीं मिल पा रहा था.

अभी कल की ही बात थी, जिया ने ड्राइंगरूम में थोड़ा सा बदलाव करने की कोशिश करी, तो लीला ने मुसकरा कर कहा, ‘‘जिया, तुम अभिषेक की बीवी हो, इस घर की बहू हो, पर इस घर को मैं ने बनाया है, इसलिए अपने फैसले और अपने अधिकार अपने कमरे तक सीमित रखो.’’

जिया चुपचाप खड़ी सुनती रही. अभिषेक से जब भी उस ने इस बारे में बात करनी चाही, उस ने हमेशा यही जवाब दिया कि जिया उन्हें थोड़ा समय दो. उन्होंने सब कुछ हमारी खुशी के लिए ही करा है.

जिया अपने मनोभावों को चाह कर भी न समझा पाती थी. खुश रहना उस की आदत थी और हारना उस की फितरत में नहीं था.

देखते ही देखते 1 साल बीत गया. आज जिया की शादी की पहली वर्षगांठ थी. उस ने अभिषेक के लिए घर पर पार्टी करने का प्लान बनाया. उस ने अपने सभी दोस्तों को निमंत्रण भेज दिया. तभी दोपहर में जिया ने देखा, लीला की किट्टी पार्टी का गु्रप आ धमका.

जिया ने लीला से कहा, ‘‘मां, आज मैं ने अपने कुछ दोस्तों को आमंत्रित किया है.’’

लीला ने जवाब में कहा, ‘‘जिया तुम्हें पहले मुझ से पूछ लेना चाहिए था…’’ मैं तो अब कुछ नहीं कर सकती हूं. तुम अपने दोस्तों को कहीं और बुला लो.’’

जिया उठ खड़ी हुई. अपने अधिकारों की सीमा रेखा समझती रही. मन ही मन उस ने एक निर्णय ले लिया.

जिया ने शाम की पार्टी के लिए घर के बदले होटल का पता अपने सभी दोस्तों को व्हाट्सऐप कर दिया. अभिषेक को भी वहीं बुला लिया. अभिषेक ने जिया को पीली व लाल कांजीवरम साड़ी और बेहद खूबसूरत झुमके उपहार में दिए, जिया जैसी सुलझे विचारों वाली जीवनसाथी पा कर अभिषेक बेहद खुश था.

जिया को अपनी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी पर फिर भी कभीकभी वह चंदेरी के परदे उसे मुंह चिढ़ाते थे. अभिषेक उसे हर तरह से खुश रखता था पर वह कभी जिया की अपनी घर की इच्छा को नहीं समझ पाया था.

जिया को अपने घर को अपना कहने का या महसूस करने का अधिकार नहीं था. वह उस की जिंदगी का वह खाली कोना था जिसे कोई भी नहीं समझ पाया था. न उस के अपने मातापिता, न अभिषेक और न ही उस के सासससुर. जिया ने धीरेधीरे इस घर में सभी के दिल में जगह बना ली थी. लीला भी अब उस से खिंचीखिंची नहीं रहती थीं. मासूमा की मासूम शरारतों का वह हिस्सा बन गई थी.

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आज चारों तरफ खुशी का माहौल था. दीवाली का त्योहार वैसे भी अपने साथ खुशी, हर्षोल्लास और अनगिनत रंग ले कर आता है. पूरे घर में पेंट चल रहा था, जब अभिषेक परदे बदलने लगा तो अचानक जिया बोली कि रुको और फिर भाग कर चंदेरी के परदे ले आई.

इस से पहले कि अभिषेक कुछ बोलता, लीला बोल उठीं, ‘‘जिया ऐसे परदे मेरे घर पर नहीं लगेंगे.’’

जिया प्रश्नसूचक नजरों से अभिषेक को देख रही थी. उसे लगा वह कुछ बोलेगा कि मां यह जिया का भी घर है पर अभिषेक कुछ न बोला. जिया का खराब मूड देख कर बोला, ‘‘इतना क्यों परेशान हो. परदे ही तो हैं.’’

पहली बार जिया की आंखों में आंसू आए. अभिषेक आंसुओं को देख कर और चिढ़ गया.

आजकल जिया का ज्यादातर समय औफिस में बीतता था. अभिषेक ने महसूस किया कि वह अपने फोन पर ही लगी रहती है और उसे देखते ही घबरा कर मोबाइल रख देती है. अभिषेक जिया को सच में प्यार करता था, वह जिया से पूछना चाहता था पर उसे डर था कहीं सच में जिया के जीवन में उस की जगह किसी और ने तो नहीं ले ली है.

एक शाम को अभिषेक ने जिया से कहा, ‘‘जिया, चलो तुम शुक्रवार की छुट्टी ले लो, कहीं आसपास घूमनेफिरने चलते हैं.’’

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जिया ने अनमने से कहा, ‘‘नहीं अभिषेक बहुत काम है औफिस में.’’

Women’s Day Special- पथरीली मुस्कान: भाग 2

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

संतोषी के मरद की  आवाज़ सुनते ही सहम गयी थी गौरी ,आत्मा का दर्द एक बार फिर ताज़ा हो आया था ,पहले तो छत पर ही दुबक गयी ,आँखों और मुट्ठियों को किसके भीचें ,अपने शरीर को छोटा और छोटा करते हुए पर। मिठ्ठू वाली बात ने उसके बाल सुलभ मन को थोड़ा कमज़ोर किया था पर अपनी भावनाओं पर काबू पाना शायद स्त्री जाति में प्राकृतिक गुण ही तो है.

गिद्ध ,बाज़ और मक्खी की नाक और नज़र बड़ी पैनी होती है वे अपने शिकार को सूँघ ही लेते हैं.

संतोषी का मरद भी छत पर जा पहुंचा ,उसकी आहट जान सिहर उठी थी गौरी,उसकी सिहरन अभी खत्म भी न हो पायी थी कि एक पंजा उसकी पीठ को सहलाने लगा ,गौरी अभी बच्ची थी उसका डर भी स्वाभाविक था ,पर आज जैसे ही गिद्ध ने अपनी चोंच आगे बढ़ा कर शिकार करने चाहा ,गौरी ने प्रतिरोध किया पर उसका शक्ति प्रदर्शन एक पुरुष के सामने कहाँ चलने वाला था.

अपने आपको नर्क में गिरता देख गौरी ने चाचा की कलाई पर पूरी शक्ति से काटा , एक बारगी कराह तो उठा था चाचा,पकड़ ढीली हुयी तो गौरी बेतहाशा भागी और ऐसी भागी की नीचे की सीढ़ियों की जगह छत से सीधे नीचे ही आ गिरी .

कितनी चोट लगी थी ,कितनी नहीं ,गौरी को उसका गम नहीं था पर ज़मीन पर पड़े हुए जब उसकी नज़रें छत की और गयी तो उसने चाचा को अपनी और देखता हुआ पाया और गौरी के मन में एक संतोष सा उभर आया था कि आज उसने अपनी रक्षा कर ली है.

गांव में हल्ला हो गया कि गौरी छत से गिर गयी है ,और सबसे पहले चाचा ने ही गौरी को गोद में उठाया था उसके स्पर्श में भी एक गिजगिजाहट महसूस कर रही थी वो पर पीठ में आयी चोट के कारण प्रतिरोध करते न बनता था ,

चाचा अम्मा पापा को पता नहीं क्या मनगढ़ंत कहानी बता रहा था और वो भी चाचा की बात को सच ही मान रहे थे .

पैर में आयी चोट के कारण पैर में प्लास्टर करवाना पड़ा था पर उस दिन की घटना के बाद चाचा दुबारा गौरी को छूने  हिम्मत नहीं कर पाया था.

इस घटना ने गौरी को मर्दों के प्रति अनिच्छा सी भर दी थी ,वह जब भी कोई मर्द देखती तो गौरी को यही लगता कि उसकी नज़रें उसके अंगों को टटोल रही हैं और वो अंदर तक सिहर जाती और अपने दायरे में ही सिमट कर रह जाती.

गौरी का स्कूल जाना  पैर पर प्लास्टर होने के कारण फिलहाल बंद हो गया था,पर फिर भी गौरी ने घर से ही पढाई जारी रखी और जब इम्तेहान आये तो पापा आधी बोरी हल्दी की गांठे मास्साब के घर पहुंचा आये थे जिसका नतीजा ये हुआ कि अगले दिन  मास्साब खुद ही घर आकर कॉपी लिखवाकर ले गए, गौरी से.

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गौरी ने कॉपी में जो भी लिखा था वह पास होने के लिए काफी था पर वो ज़ख्म जो चाचा ने गौरी के मन पर दे दिया था वो तो भरने का नाम ही नहीं ले रहा था.

पापा का मसाले और गल्ले का काम और बढ़ चला था ,उनके सामान को  बाज़ार तक ले जाने और फिर वहां से वापिस लाने के लिए उन्हें एक सहायक की ज़रूरत थी क्योंकि छोटा भाई अभी  छोटा था और इस लायक नहीं था कि उनके काम में सहायक हो सके.

इसलिए पापा ने एक लड़का काम के लिए रख लिया उसका नाम पारस था ,बाजार वाले दिन वो पापा के साथ ही आता जाता और थोड़ा बहुत घर के कामों में माँ को भी सहायता करता ,बेहद ही हँसमुख था वो,सबको हँसाता पर गौरी को कभी हँसी नहीं आती.

एक जीवन का पत्थर की मूर्ति में बदलना आरम्भ हो चुका था. पारस और गौरी दोनों हमउम्र थे ,इसलिए दोनों में बातचीत भी हो जाती थी ,गौरी के पैरों का प्लास्टर कटने से पहले ,एक  सुंदर फूल की आकृति उकेरी थी उसने गौरी के पैर पर चढ़े सफ़ेद प्लास्टर पर.

“अरे वाह तुम तो कलाकार भी हो”माँ ने कहा

माँ की इस बात पर बच्चों की तरह हँस दिया था पारस.

प्लास्टर काटा जा चुका था और गौरी पहले की तरह ही स्कूल आने जाने लगी थी,पर मुस्कान अब भी उसके होठों से अंजान रिश्ता ही कायम कर हुए थी.

पारस की मौजूदगी गौरी को अच्छी लगने लगी थी ,गौरी के मन में चाचा की गंदी हरकतों की वजह से पुरूष के प्रति जो नफरत भरी हुयी थी ,पारस के आने के बाद वह कम हो गयी थी.

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अब किसी दिन अगर पारस काम पर नहीं आता तो गौरी को अच्छा नहीं लगता ,और उसके आने पर वो उसे पापा के साथ काम करते हुए कनखियों से देखती रहती.

जब कभी पापा को दुकान नहीं लगानी होती तो पारस घर में रहता ,एक दिन वह छत पर पतंग उडा रहा था ,और पतंग खूब हिचकोले लेकर मानो सूरज से ही बातें करना चाहती थी

“अरे ….कैसे इतनी ऊंची पतंग उडा लेते हो तुम” गौरी अपने छोटे भाई के साथ छत पर आते हुए बोली

“कोई भी उडा सकता है”

“कोई भी …..मतलब …मैं भी”

“हाँ..हाँ क्यों …नहीं ,देखो मैं तुम्हे सिखाता हूँ….देखो ..ये डोर ऐसे पकड़नी है …और जब पतंग आसमान की तरफ जाए तो थोड़ा डोर को ढीला करना …है और फिर थोड़ा डोर को खींचना है …..और बस” पारस ने गौरी को बताया

गौरी ने डोर उसके हाथ से ले ली और अपनी ही मस्ती में पतंग उड़ाने लगी ,पारस उसकी मदद कर रहा था जबकि गौरी के  छोटे भाई को नीचे रखा मांझा लेने भेज दिया था पारस ने

जैसे ही पारस ने अकेलापन पाया ,गौरी की पीठ से चिपक गया और फुसफुसा कर बोला “गौरी में तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ….और तुमसे शादी करना चाहता हूँ”

और पारस के हाथ गौरी के सीने पर जा पहुंचे गौरी के लिए पारस के मन में भी लगाव था पर अचानक से फिर उसी घटना की पुनरावृत्ति ……..,गौरी के सामने मिठ्ठू और चाचा वाली घटना आँखों में उतर आई ,उसने  अपने को पारस की गिरफ्त से छुड़ाया तमतमाती हुयी नीचे चली आयी.

आसमान में पतंग डोर समेत लहराते हुए एक पीपल के पेड़ में जाकर अटक गयी थी.

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Women’s Day Special- पथरीली मुस्कान: भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

बचपन में ही दानव के हाथों इस राजकुमारी को भी मसल दिया गया था.

बाप और बेटी के ठहाकों की आवाज़ें किचन तक आ रहीं थी,कभी रिया फुसफुसा कर कुछ कहती तो कभी ये धीरे से ये  कुछ कहते ,और फिर अनवरत हँसी का फव्वारा छूट पड़ता.

बापबेटी अपने हँसी के समंदर में गोते लगा ही रहे थे ,कि गौरी  भी कॉफी देने कमरे में गयी तो रिया  गौरी से लिपटते हुए बोली

“अरे….माँ कभी हमारे साथ भी बैठ लिया करो और थोड़ा हँस भी लिया करो ….

आप अपने होठों को कैसे सीये रहती हो  ,मेरा तो मुंह ही दर्द हो जाये और हाँ….माँ ….आपको तो अच्छे अच्छे जोक पर भी हँसी नहीं आती है ….कैसे माँ….तुम कभी हँसती क्यों नहीं हो….?”

रिया ने बात खत्म करी तो उसके समर्थन में ये भी उतर आये , और हसते रहने के महत्व पर पूरा लेक्चर ही दे डाला.

पर फिर भी गौरी चुप ही रही रिया ने  अपने पापा की ओर देखा पर गौरी के मौन ने सब कुछ कह डाला ,और शायद ये बात विराम भी समझ गए ,इसीलिये तुरंत ही बात बदलकर रिया से उसके कॉलेज की राजनीति पर बात शुरू कर दी.

रिया जब भी कॉलेज से घर आती तो घर में ऐसा ही माहौल रहता ,पर उसके मासूम सवालों का उसके पास कोई जवाब नहीं होता,भला अपनी खमोशी और उदासी का क्या कारण बताती वह ,और अगर बताती भी तो पता नहीं रिया का क्या रिएक्शन होता गौरी के प्रति, इसलिए वह खामोश ही थी.

गौरी  दोबारा जब कमरे में गयी तब तक रिया टीवी पर “टॉम और जैरी ” कार्टून फिल्म देख रही थी और ठहाके लगाकर हँस रही थी,गौरी को रिया ने खींचकर अपने पास बैठा लिया और शिकायती लहज़े में माँ से बोली

“हंसो न माँ ,देखो कितना अच्छा और मजेदार कार्टून आ रहा है ,अरे….तुम तो हँसती ही नहीं, मिस सीरियस ही बनी रहती हो”

“अरे ….क्या …हँसना और न हँसना…मेरे लिए अब तू आ गयी है ना यही सबसे बड़ी खुशी की बात है …” इतना कहकर गौरी किचन में आकर काम करने लगी.

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अपने ही ख्यालों में खोयी हुई  थी गौरी कि बाहर वाले कमरे से रिया की आवाज़ आयी जो अपने पापा के साथ मार्किट होकर आने की बात कह रही थी.

मोटरसाइकिल स्टार्ट होने की आवाज़ गौरी भी सुन सकती थी

” हाँ ….मिस सीरियस ही तो हूँ ….ज़िंदा हूँ …यही क्या कम है….”बुदबुदा उठी थी गौरी

गौरी ने किचन की खिड़की खोली ,सामने ही अमरुद का पेड़ था ,इस समय उस पर अमरुद भी फल हुए थे .

तभी तोतों का एक झुण्ड उड़ता हुआ आया और अमरुद के पेड़ को लगभग ढक ही लिया और सारे  तोते एक ही साथ अमरुद खाने में मगन हो गए.

ये देख गौरी को अपने मायके वाले ‘मिठ्ठू मियाँ’ की याद आ गयी और अतीत के पन्ने पलटने लगे कितने प्यार से तो पापा उसके लिए लाए थे ये तोता,और हाँ वो साथ में सुनहरा सा पिंजरा भी तो लाये थे ,जिसे देख कितना खुश हुई थी गौरी,पिंजरे में रख सारा दिन घूमती , खाने  को अमरुद और हरी मिर्च .

हरी मिर्च खाने से मिठ्ठू मियाँ  जल्दी ही राम राम बोलने लगेगा और संतोषी चाची वाला मिठ्ठू तो उनका नाम भी रटता था .

पर जब एक दिन संतोषी चाची का मिठ्ठू पिजरा खुला पाकर उड़ गया तबसे वे दुखी होकर यही कहने लगी

“अरे….इन पंछियन की जात तो बड़ी बेवफा होत है ,इनकी आँखिन में कोई प्यार ममता नाही ,एक बार उडि पावें ,फिर नाइ आवै के”

पर संतोषी चाची की इन बातों से गौरी सहमत ना होती ,उसे तो यही गुमान था कि चाहे जो कुछ हो पर उसका मिठ्ठू मियाँ तो उसको छोड़कर कहीं नहीं जा सकता.

मिठ्ठू मियाँ अब राम-राम भी बोलने लगा था और गौरी -गौरी भी ,स्कूल से आने पर गौरी अपने मिठ्ठू के पास ही जाती और खूब खेलने के बाद ही उसके पास से हटती थी.

पर उस दिन जब गौरी स्कूल से लौटी तो अम्मा और पापा भागे जा रहे थे ,गौरी के पूछने पर ये ही बताया कि गांव के कोने पर रहने वाले सरवन की मौत हो गयी है ,अभी बस वहीँ जाकर आते हैं तू घर पहुँच और रोटी पानी खा ले जाकर .

गौरी घर आयी तो मिठ्ठू मियाँ का पिंजरा खाली था, वह अपना बस्ता वहीँ गिरा कर दौड़ी और पिंजरा हाथ में ले मिठ्ठू-मिठ्ठू चिल्लाकर इधरउधर भागने लगी.

“अरे तेरा मिठ्ठू मेरे यहां उड़कर आ गया है,ले…ले आकर “संतोषी चाची के पति बोल रहे थे

“क्या….चाचा …मिठ्ठू तुम्हारे यहाँ आ गया है …कहाँ …है ,कहाँ है”कहते कहते चाचा के आँगन में आ गयी थी गौरी

“हाँ …वो देख …आँगन के कोने वाली दीवार के ऊपर”

“कहाँ ….मुझे तो नहीं दिखता”

चाचा गौरी के पीछे आकर खड़े हो गए थे और गौरी के कंधे पर हाथ रखकर बोलने लगे

“अरे ….ध्यान से देख गौ…री…”चाचा के मुंह से अस्फुट से स्वर निकल रहे थे  और उनका हाथ गौरी के हाथ से फिसलता हुआ उसके सीने तक जा पहुंचा.

अपने मिठ्ठू को अब भी ढूंढ रही थी गौरी पर अब उसके साथ चाचा कुछ ऐसा करने लगे जो उसे भी असहज हो रहा था.

क्या …ये वही काम है जो कुछ समय पहले उसके स्कूल के मास्टर ने संध्या के साथ किया था……पर वो संध्या तो मर गयी थी…..तब तो मैं भी मर जाऊंगी.

Women’s Day Special: टिट फौर टैट

पूरा जोर लगा दिया था गौरी ने ,पसीनेपसीने हो गयी ,कसमसाई भी ,चिल्लाई भी पर चाचा की गिरफ्त से आज़ाद न हो सकी .

ये बात किसी को भी बताने पर चाचा उसके छोटे भाई को मार देगा…. ऐसा बोलकर चाचा ने मासूम गौरी के मुँह पर ताला लगा दिया था

और ये ले तेरा मिठ्ठू …बिल्ली ने मार दिया था इसे मरा हुआ मिठ्ठू हाथ में ले रोती ही जा रही थी गौरी, सही कारण क्या है ये तो किसी को पता ही ना था .

अम्मा पापा यही सोच रहे थे कि मिठ्ठू के मरने से लड़की दुखी है तभी रोये जा रही है ,पर तेरह साल की गौरी को इतना तो आभास हो ही गया था कि जो भी उसके साथ हुआ है वो सही नहीं है.

वो अपना दुख कहती भी तो कैसे क्योंकि  एक तरफ तो किसी को भी बता देने पर चाचा द्वारा छोटे भाई को मार दिए जाने का डर था और दूसरी तरफ जब संध्या की वो वाली बात सभी लोगों को पता चली थी तो भी गांव वाले संध्या के माँ बाबूजी को अजीब नज़रों से देखते थे और फिर गांव वालों ने अपनी बातों से ऐसे ताने कसे कि संध्या के घर वालों को अपना सामान ले गांव ही छोड़ जाना पड़ा.

गौरी के पापा गांव की साप्ताहिक बाज़ार में मसाले और थोड़ा मोड़ा गल्ले की दुकान लगाते थे,कल  अचानक हुयी बारिश ने उनके मसालों को भिगो दिया था ,आज धूप हुयी तो माँ ने उन मसालों को छत के ऊपर सूखने को फैला दिया था और गौरी से यही छत पर  बैठने को कहा .

आज सरवन की तेरवीं थी ,घर के लोग उसके घर भोज में गए हुए थे,पता नहीं ये बात संतोषी चाची के आदमी को कैसे पता चल गयी

“गौरी….ओ ..गौरी …अरे कहा है रे तू …

देख तो तेरे लिए दूसरा मिठ्ठू लाया हूँ

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लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

नीचे आकर गौरी छोटे भाई बाबू पर खूब चिल्लाई थी ,वो क्यों इतना गुस्सा कर रही थी किसी को पता नहीं था बस सबने ये ज़रूर देखा कि  थोड़ी देर के बाद पारस वहाँ से गर्दन नीची करके चला गया.

उस दिन के बाद पारस कभी नहीं वापस आया,पापा ने कुछ दिन तो इन्तज़ार किया फिर कहने लगे की “दो महीने से पगार भी नहीं दिया था पारस को , राम जाने काहे काम छोड़ कर भाग गया ,चलो कभी मैं ही उसके गाँव जाऊँगा तो उसका पता करूँगा”

पापा पारस के गांव गए भी पर वहां भी उसका कुछ पता नहीं चला .

क्या पारस और चाचा एक ही सिक्के के दो पहलू ही नहीं हैं,जब जिसको मौका मिला ,नारी देह से खेलना चाहा, क्या एक पुरुष एक लड़की में सिर्फ एक ही चीज़ को खोजता है,अपने आप से कई सवाल और बदले में कई और सवाल.

युवा होती लड़कियों में अपने अंगों के प्रति एक जिज्ञासा भी होती है और अधिक से अधिक सुंदर दिखने की चाह भी .

गौरी में ये सारी जिज्ञासाएं मर चुकी थी,वह कभी दर्पण के सामने खड़ी होकर अपने को देखती तो यही सोचती कि इससे तो अच्छा हो कि ये अंग ही कट जाएँ , खत्म हो जाएं जिन्हें देखते ही मर्द लोग लार चुआने लगते है, न उन्हें रिश्ते नातों का भान रहता है और ना ही समाज की कोई चिंता ,उन्हें तो बस स्त्री की देह से ही सरोकार है,कहीं न कहीं सभी मर्दों के प्रति एक ही राय कायम कर ली थी गौरी ने.

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गांव की बाहरी सड़क को हाईवे में बदला जा रहा था ,काम जोर शोर से चल रहा था ,इसी नाते शहर से बाबू और इंजीनियर लोग गांव में आतेजाते रहते थे.

गांव के पास हाईवे का निर्माण होना सारे गांव के लिए  कौतूहल का विषय था ,सुबह शाम गांव वाले लोग अक्सर देखने पहुँच जाते कि सड़क निर्माण का काम कैसे होता है .

अपनी सहेलियों के बहुत कहने पर गौरी भी एक दिन हाईवे देखने चली गयी थी ,वहाँ पर एक सजीला सा नौजवान भी था जो तीन टांगों पर लगे एक दूरबीन नामक यंत्र से कुछ देखता था ,गांव की लड़कियों ने भी उस दूरबीन से झाँकने की  इच्छा प्रकट करी ,बारी बारी से सब लड़कियों ने उसमे झाँका,पर गौरी बुत बनी खड़ी रही.

उस सजीले नौजवान को बहुत कुछ अच्छा लग गया था गौरी में.

दो दिन बाद ही वह इंजीनियर  गौरी का हाथ मांगने ही उसके  घर चला आया.

“मैं आपकी बिटिया से शादी करना चाहता हूँ ”

“पर बेटा तुम तो शहर के इतने बड़े बाबू ,और हमारी बिटिया बारह तक ही पड़ी है ,तुम काहे ब्याह करोगे उससे”पापा ने चौककर कहा

“जी….वो बात सही है ,पर मैंने हमेशा गौरी की तरह ही सीधी सादी लड़की चाही है ,ताकि वो मेरे माँ और पापा का ध्यान रख सके” वो इंजीनियर बोला जिसका नाम विराम था

अम्मा पापा भी गौरी को एक बोझ ही मानते थे और बोझ सर से जितना जल्दी उतर जाए उतना अच्छा.

कहते हैं कि जोड़े स्वर्ग  से ही बनकर आते हैं ,कम से कम गौरी के संदर्भ में तो यही बात सही लग रही थी और सारे गांव वाले चकित थे कि गौरी की शादी शहर में वो भी एक इंजीनियर के साथ ,अब तो मोटर में ही घूमेगी गौरी.

और आखिर वो दिन भी आ गया जब गौरी की शादी विराम से हो गयी

खुद गौरी को भी समझ नहीं आया ये सब कैसे और अब हो गया ,एक गांव की लड़की अब इतने बड़े घर में रहेगी.

शहर में दोमंजिला मकान था , और गौरी नयी बहू , छम छम करती कभी इस कमरे तो कभी उस कमरे में पतंग सी लहराती फिरती

बडी भाभी मौका मिलते ही उझसे चुहलबाज़ी करने में पीछे न हटतीं,रात में क्या -क्या हुआ जैसी बातें पूछती और फिर गौरी के गाल पर एक प्यारी सी चपत लगाकर हँसती हुयी चली चली जातीं.

ये सच था कि गौरी के अंदर भी एक स्त्री के सारे गुण थे,एक लड़की का संसार जिसमे गुड्डे गुड़ियों के खेल होते है ,परियां होती हैं और हाँ एक सुंदर सजीला राजकुमार भी तो होता है जो अपनी राजकुमारी को घोड़े पर बिठा अपने देश को उड़ जाता है.

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जहाँ परियाँ होतीं हैं ,राजकुमार होता है वहां पर एक दानव भी तो होता है ना…..

वो दानव जो राजकुमारी को सोने के पिंजरे में बंद कर लेता है और तरह तरह के आघात करता है.

बचपन में ही दानव के हाथों इस राजकुमारी को भी मसल दिया गया था,कोमल मन और तन पर पड़े इस आघात से हमारी राजकुमारी गौरी ने भी अपने ह्रदय को सिर्फ जीवन चलाने भर का ही अधिकार दे रखा था अब ह्रदय में कोई भाव ,अनवरत हँसी ,मुस्कराहट ,प्रेम आदि के लिए कोई स्थान न था.

गौरी तो बस एक नदी की तरह बही जा रही थी ,एक ऐसी नदी जिसे अपना गंतव्य भी नहीं पता था ,उसे तो बस बहने के लिए ही बहना था

और ऐसे में रात की बातों को लेकर भी गौरी के मन में कोई उत्साह नहीं बचा था बल्कि जब भी विराम रात को उससे प्रेम करते ,उसे सहलाते ,चूमते तब अपने में ही सिमट जाती गौरी, कमल की तरह अपनी पंखुड़ियों को समेट लेती गौरी और  उसके अंग प्रत्यंग पत्थर की तरह सख्त हो जाते ,बंद आँखों में चाचा के गंदे स्पर्श की पुनरावृत्ति सी गुज़र जाती और उसके बाद वो सब असहय हो जाता गौरी के लिए और फिर विराम के साथ यात्रा में एक भी कदम आगे न बढ़ाया जाता उससे.

शुरुआत में जब ऐसा हुआ तो विराम ने सोचा कि गांव की सीधी सादी लड़की है ,शायद मन की झिझक के कारण मुझे रोक देती है और यह सोच अपने मन को मार लिया .

पर यह एक कुंवारी लड़की द्वारा किया जाने वाला अभिनय नहीं था बल्कि यह तो एक सच्चाई थी ,कली को खिलने से पहले ही मसला जा चुका था ,तितली के रंगीन परों पर तेज़ाब छिड़का जा चुका था. प्रेम में जब निरंतर पत्नी का सहयोग ना मिला तो वह बिफर पड़ा.

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“ये तुम इतना सती सावित्री बनने की कोशिश क्यों करती हो ,जो मैं कर रहा हूँ ये कोई गलत काम नहीं ,बल्कि प्रेम का एक मार्ग है और ये सब भी परिवार को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी है और फिर मैं तुम्हे भगाकर तो लाया नहीं जो तुम इतना शर्माती हो, शादी करी है मैंने तुमसे”

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